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=बृहत्कल्पभाष्यम् की उपमा भवसिद्धिक तथा सलब्धिक जीवों के साथ दी ११०. कालेणुवक्कमेण व, जह नासति कोद्दवाण मदभावो। गई है।
अहिगमसम्मं नेसग्गियं च तह होइ जीवाणं ।। १०५. दवण जिणवराणं, पूर्य अण्णेण वा वि कज्जेण। जैसे कभी कोद्रवों का मदनभाव-मादकता काल के
सुयलंभो उ अभव्वे, हविज्ज थंभेण उवणीए॥ विपाक से नष्ट हो जाता है और कभी उपक्रम-उपाय से (तीन पुरुषों के दृष्टांत में जो पुरुष चोरों को देखकर उनका मदनभाव दूर हो जाता है। उसी प्रकार कुछेक जीवों के स्तब्ध हो गया था, उसके सदृश होता है ग्रंथि के निकट उपक्रम के द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त होता है। वह अधिगम स्थित भव्य अथवा अभव्य। वहां संख्येय अथवा असंख्येय सम्यक्त्व होता है। किन्हीं जीवों के काल के परिपाक से स्वतः काल तक रहा जाता है। प्रश्न है वहां स्थित पुरुष के क्या सम्यक्त्व प्राप्त होता है। वह नैसर्गिक सम्यक्त्व होता है। लाभ होता है?)
(इसका तात्पर्य है कि किन्हीं जीवों के अधिगम के कारण जिस स्तब्ध पुरुष का दृष्टांत में उपनय है, वह भव्य मिथ्यात्वपुद्गल सम्यक्त्व में बदल जाते हैं और किन्हीं जीवों अथवा अभव्य हो, उसे जिनेश्वर देव की पूजा-अर्चा देखकर के ये मिथ्यात्व के पुद्गल स्वतः बदल जाते हैं।) अथवा अन्य कार्य से श्रुतलाभ होता है।
१११. सोऊणं अहिसमेच्च व, करेइ सो वड्डमाणपरिणामो। १०६. सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहृत्तेण सावगो होज्जा। मिच्छे सम्मामिच्छे, सम्मे वि य पोग्गले समयं॥
चरणोवसम-खयाणं, सागरसंखंतरा होति॥ केवलज्ञानी आदि प्रत्यक्षज्ञानियों से सुनकर अथवा जातिजिसने अनिवृत्तिकरण द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है, स्मृति आदि से सम्यक्त्व को प्रासकर कोई वर्धमान परिणाम वह पल्योपम-पृथक्त्व बीत जाने पर श्रावक होता है। उसके वाला जीव एक साथ मिथ्यात्व पुद्गलों के तीन पुंज कर लेता पश्चात् संख्यात सागरोपम के बीत जाने पर चरणलाभ होता है-मिथ्यात्वपुद्गल, सम्यग्मिथ्यात्वपुद्गल तथा सम्यक्त्व. है। फिर संख्यात सागरोपम बीतने पर उपशमश्रेणी का लाभ पुद्गल। और फिर संख्येय सागरोपम के व्यतीत होने पर क्षपकश्रेणी ११२. मिच्छत्ताओ मीसे, मीसस्स उ होज्ज संकमो दोसुं। और उसी भव में मोक्ष हो जाता है।
सम्मे वा मिच्छे वा, सम्मा मिच्छं न पुण मीसं ।। १०७. एवं अप्परिवडिए, सम्मत्ते देव-मणुयजम्मेसु। (पूर्वोक्त पुद्गलों का परस्पर संक्रमण होता है, जैसे-) __ अन्नयरसेढिवज्ज, एगभवेणं च सव्वाइं॥ मिथ्यात्व पुद्गलों का मिश्र में संक्रमण होता है। मिश्र
इस प्रकार देव और मनुष्यजन्म में जिनका सम्यक्त्व पुद्गलों का दो में संक्रमण होता है-सम्यक्त्व में तथा अप्रतिपतित रहा है, उनके लिए यह क्रम है। एक भव में ही मिथ्यात्व में। सम्यक्त्वी सम्यक्त्व में तथा मिथ्यात्वी यह सारा क्रम प्राप्त हो जाता है, केवल उपशमश्रेणी और मिथ्यात्व में। सम्यक्त्व से मिथ्यात्व में संक्रमण हो सकता है, क्षपकश्रेणी-दोनों एक साथ एक भव में नहीं हो सकतीं। मिश्र में संक्रमण नहीं होता। १०८. अप्पुव्वेण तिपुंज, मिच्छं काऊण कोद्दवोवमया। ११३. मिच्छत्ताओ अहवा, मीसं सम्मं च कोइ संकमइ।
तिन्नि वि अवेययंतो, उवसामगसम्मदिट्ठीओ। मीसाओ वा सम्म, गुणवुड्डी हायतो मिच्छं। कोद्रव दृष्टांत की भांति अपूर्वकरण से मिथ्यात्व के तीन अथवा कोई जीव मिथ्यात्व से मिश्र में या सम्यक्त्व में पुंज कर अनिवृत्तिकरण के द्वारा प्रारंभ में ही क्षायोपशमिक संक्रमण करता है। कोई गुणवृद्धि-परिणामवृद्धिवाला जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है। फिर कालान्तर में वह परिणामों मिश्र से सम्यक्त्व में संक्रमण करता है और हायक हीन के आधार पर मिश्र या मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। जो परिणाम वाला जीव मिश्र से मिथ्यात्व में संक्रमण करता है। तीनों पुंजों का अवेदन करता है वह उपशमक सम्यक्त्वदृष्टि ११४. मिच्छत्ता संकंती, अविरुद्धा होति सम्म-मीसेसु। कहलाता है।
मीसातो वा दुण्णि वि, ण उ सम्मा परिणमे मीसं॥ १०९. जह मयणकोदवा ऊ, दरनिव्वलिया य निव्वलीया य। मिथ्यात्व से सम्यक्त्व और मिश्र में संक्रांति अविरुद्ध है।
एमेव मिच्छ मीसं, सम्म वा होति जीवाणं॥ मिश्र से (सम्यकमिथ्यात्व से) सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों कोद्रव तीन प्रकार के होते हैं-मदनकोद्रव, ईषनिर्वलित- में संक्रांति होती है। सम्यक्त्व से मिश्र में परिणमन नहीं होता। कोद्रव (ईषदपगतमदनभाव) और निर्वलितकोद्रव (सर्वथा- ११५. हायंते परिणामे, न कुणति मीसे उ पोग्गले सम्मे। मदनभावरहित)। इसी प्रकार जीव का मिथ्यात्व भी तीन न य सोहिया सि विज्जति केइ जे दाणि वेएज्जा। प्रकार का होता है-मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्त्व। सम्यग्दर्शन से हीयमान परिणाम वाला व्यक्ति मिश्र
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