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पीठिका =
९४. तिविहं च होइ करणं, अहापवत्तं तु भव्व-ऽभव्वाणं।
भवियाण इमे अन्ने, अपुव्वकरणाऽनियट्टी य॥ उस ग्रंथी का भेदन 'करण' (परिणाम विशेष) से होता है। करण के तीन प्रकार हैं। इसमें पहला है यथाप्रवृत्तिकरण। यह भव्य और अभव्य-दोनों प्रकार के जीवों के होता है। भव्य जीवों के ये अन्य दो करण-अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण भी होते हैं। ९५. जा गंठी ता पढम, गंठिं समतिच्छतो अपव्वं तु।
अनियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे॥ जब तक ग्रंथी विद्यमान रहती है तब तक प्रथम--यथाप्रवृत्तिकरण रहता है। ग्रंथी का भेदन अपूर्वकरण में होता है। अनिवृत्तिकरण जीव को सम्यक्त्वाभिमुख कर, उसको सम्यक्त्व का लाभ करा देता है। ९६. नदि पह जर वत्थ जले, पिवीलिया पुरिस कोहवा चेव।
सम्मइंसणलंभे, एते अट्ठ उ उदाहरणा॥ करणों के आधार पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में ये आठ उदाहरण हैं-(१) गिरिनदी का प्रस्तर (२) पथ (३) ज्वर (४) वस्त्र (५) जल (६) पिपीलिका (७) पुरुष (८) कोद्रव। (इनका विस्तार आगे की गाथाओं में।) ९७. गिरिसरियपत्थरेहिं, आहरणं होइ पढमए करणे।
एवमणाभोगियकरणसिद्धितो खवण जा गंठी॥ पहाड़ी नदी के प्रस्तर का उदाहरण प्रथम करण अर्थात् यथाप्रवृत्तिकरण से संबंधित है। जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह में कुछेक प्रस्तर गोल हो जाते हैं, कुछेक चतुष्कोण आदि आकार के हो जाते हैं। यह सारा स्वतः होता है। इसी प्रकार 'अनाभोगकरणसिद्धि' से अर्थात् बिना किसी स्वेच्छिक प्रयत्न से यथाप्रवृत्तिकरण के प्रभाव से जीव कर्मों की सुदीर्घ स्थिति का इतना क्षय कर देता है कि वह ग्रंथी तक पहुंच जाता है। ९८. उवएसेण सयं वा, नट्ठपहो कोइ मग्गमोतरति।
जरितो य ओसहेहिं, पउणइ कोई विणा तेहिं।।
सम्यक्त्व का लाभ दो प्रकार से होता है-उपदेश से तथा स्वतः। इसमें पथ का उदाहरण है। कोई व्यक्ति पथ से भटक गया। दूसरे के उपदेश से वह मूल मार्ग पर आ गया। कोई मार्ग से भटक जाने पर स्वतः ऊहापोह कर सही मार्ग को । पकड़ लेता है।
कोई ज्वर से पीड़ित व्यक्ति किसी औषधि से ज्वर मुक्त हो जाता है और कोई बिना औषधि के भी रोगमुक्त हो जाता है। ९९. मइल दरसुद्ध सुद्धं, जह वत्थं होइ किंचि सलिलं वा। ___ एसेव य दिट्ठतो, दसणमोहम्मि तिविहम्मि॥
जैसे कोई वस्त्र अथवा पानी मलिन होता है, कोई थोड़ा स्वच्छ होता है और कोई कुछ स्वच्छ होता है। यही दृष्टांत त्रिविध दर्शनमोह विषयक जानना चाहिए। (अपूर्वकरण के कारण कुछ शुद्ध सम्यक्त्व रूप है, थोड़ा शुद्ध सम्यगमिथ्यात्वरूप है और वैसा ही मलिन मिथ्यात्वरूप है।) १००. अहभावेण पसरिया, अपुव्वकरणेण खाणुमारूढा।
चिट्ठति तत्थ काई, पिपीलिया काई उड्डुति॥ १०१. पच्चोरुहणट्ठा खाणुआतो चिट्ठति तत्थ एवावि।
पक्खविहूणातो पिवीलियातो उड्डुति उ सपक्खा। (प्रश्न है कि अभव्य जीव ग्रंथि के पास कैसे पहुंचते है ? वहां से फिर दूर कैसे हो जाते हैं ? भव्य जीव ग्रंथि का भेदन कर आगे कैसे बढ़ते हैं ? इसमें पिपीलिका का दृष्टांत है-)
कुछ पिपीलिकाएं बिल से निकल कर स्वेच्छापूर्वक इधर-उधर घूमने लगीं। कुछ पिपीलिकाएं अपूर्वकरण के द्वारा स्थाणु पर चढ़ गईं। उनमें से कुछ पिपीलिकाएं स्थाणु पर ही ठहर जाती हैं और कुछ पिपीलिकाएं पांखें प्राप्त कर उड़ जाती हैं। कुछ पंखविहीन पिपीलिकाएं स्थाणु से उतरने के लिए वहीं स्थाणु पर ठहर जाती हैं और कुछ नीचे उतर जाती हैं। जिन पिपीलिकाओं के पंख आ जाते हैं, वे उड़ जाती हैं। (पिपीलिकाओं का इधर-उधर घूमना यथाप्रवृत्तिकरण से, स्थाणु पर आरोहण करना अपूर्वकरण से तथा उड़ना अनिवृत्तिकरण से होता है। इसी प्रकार जीव का ग्रंथि के पास गमन यथाप्रवृत्तिकरण से, ग्रंथि-भेदन अपूर्वकरण से तथा सम्यक्त्व प्राप्ति अनिवृत्तिकरण से होती है।) १०२. जह वा तिण्णि मणूसा, सभयं पंथं भएण वच्चंता।
वेलाइक्कमतुरिया, वयंति पत्ता य दो चोरा॥ १०३. तत्थेगो उ नियत्तो, एगो थद्धो अतिच्छितो एक्को।
कमगति अहापवत्तं, भिन्नेयर धावणं तइए। तीन मनुष्य साथ-साथ एक डरावने मार्ग पर चले। उनका मन भय से आक्रांत था। चलते-चलते वेला बीत न जाए, इसलिए वे तेज चलने लगे। इतने में ही वहां दो चोर आ गए। एक पथिक उनको देखते ही निवृत्त हो गया। दूसरा पथिक वहीं स्तब्ध होकर बैठ गया। तीसरा पथिक दोनों चोरों को पीछे छोड़कर उस स्थान से पलायन कर गया।
पहले पुरुष की क्रमगति यथाप्रवृत्तिकरण, दूसरे पथिक का स्तब्ध हो जाना, भय से टूट जाना अपूर्वकरण तथा तीसरे पथिक का पलायन कर जाना अनिवृत्तिकरण है। १०४. एवं संसारीणं, जोए सव्वाइं तिन्नि करणाई।
भवसिद्धिसलद्धीण य, पंखालपिवीलिया उवमा॥ इसी प्रकार सभी संसारी जीवों के साथ इन तीनों करणों की योजना करनी चाहिए। पर्वोक्त पंखवाली पिपीलिका
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