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________________ बृहत्कल्पभाष्यम् उपलभ होता है वैसे ही असंज्ञी प्राणियों में जितनी इन्द्रियां मिथ्यादृष्टि द्वारा परिगृहीत लोकोत्तर श्रुत भी मिथ्याश्रुत हो होती हैं उतने ही प्रकार का अव्यक्त उपलंभ होता है। जाता है। ८३. तुल्ले छेयणभावे, जे सामत्थं तु चक्करयणस्स। ८९. आभिणिबोहमयावं, वयंति तप्पच्चयाउ सम्मत्तं। तं तु जहक्कमहीणं, न होइ सरपत्तमादीणं॥ जा मणपज्जवनाणी, सम्मट्ठिी उ केवलिणो॥ ८४. एवं मणविसईणं, जा पडुया होइ उग्गहाईसु। आभिनिबोधिक का जो अपाय है, वह यथार्थविनिश्चय का तुल्ले चेयणभावे, न होइ अस्सणिणं सा तु॥ प्रतीक है। उसे पूर्वाचार्य सम्यक्त्व का प्रत्यय कहते हैं। इस छेदन करने की तुल्यता होने पर भी जो सामर्थ्य चक्ररत्न प्रत्यय से सम्यक्त्व मनःपर्यवज्ञानी तक घटित होता है। में होता है, वह यथाक्रमहीन शरपत्र आदि में नहीं होता। उससे आगे अपाय नहीं होता। केवली केवलज्ञान के प्रत्यय उसी प्रकार मनोग्राही विषय वाले प्राणियों में अवग्रह से ही सम्यग्दृष्टि हैं। आदि में जो पटुता होती है वह चेतना भाव की तुल्यता होने ९०. उवसमियं सासायण, खओवसमियं च वेदगं खइयं। पर भी असंज्ञी प्राणियों में नहीं होती। सम्मत्तं पंचविहं, जह लब्भइ तं तहा वोच्छ। ८५. जेसि पवित्ति-निवित्ती, इट्ठा-ऽणिद्वेसु होइ विसएसु। सम्यक्त्व पांच प्रकार का होता है-औपशमिक, सासादन ते हेउवाउ सन्नी, वेहम्मेणं घडो नायं॥ (सास्वादन), क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक। इनकी जिन द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों में इष्ट विषय में प्रवृत्ति और प्राप्ति जैसे होती है, वैसे मैं कहूंगा। अनिष्ट विषय में निवृत्ति होती है, वे हेतुवाद से संज्ञी हैं। यहां ९१. बंधद्वितीपमाणं, सामित्तं चेव सव्वपगडीणं । वेधर्म्य से घट का दृष्टांत है।' को केवइयं बंधइ, खवेइ वा कित्तियं कोइ॥ ८६. होइ असीला नारी, जा खलु पतिणो न रक्खए सेज्ज। सबसे पहले कर्मों के बंध-स्थिति का प्रमाण कहना तं पि य हु होति सीलं, असोहणं तेण उ असीला॥ चाहिए। तदनन्तर सर्वप्रकृतियों की सत्ता के आधार पर ८७. एवं खओवसमिए, जे वटुंते उ नाणविसयम्मि। स्वामित्व का कथन करना चाहिए। फिर कौन कितनी ते खलु हवंति सण्णी, अण्णाणी होति अस्सण्णी॥ प्रकृतियों का बंध करता है और कौन कितनी प्रकृतियों का जो नारी पति की शय्या का संरक्षण नहीं करती, वह क्षय करता है, यह बताना चाहिए। अशीला होती है। यद्यपि पति की शय्या का अरक्षण शील है, ९२. आउयवज्जा उ ठिई, मोहोक्कोसम्मि होइ उक्कोसा। फिर भी वह अशोभन होने के कारण, वह नारी अशीला मोहविवज्जुक्कोसे, मोहो सेसा य भइयाउ॥ कहलाती है। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति में आयुष्य कर्म इसी प्रकार ज्ञान के विषय में जो क्षायोपशमिक भाव में के अतिरिक्त शेष सभी कर्मों की स्थिति उत्कृष्ट होती है, सम्यग्ज्ञानी हैं, वे संज्ञी हैं और जो अज्ञानी हैं वे है। मोहविवर्ज अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की असंज्ञी हैं। उत्कृष्ट स्थिति में मोहनीय तथा शेष कर्मों की स्थिति ८८. अंगा-ऽणंगपविट्ठ, सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं। कदाचित् उत्कृष्ट होती है और कदाचित् नहीं। यह भजना है। आसज्ज उ सामित्तं, लोइय लोउत्तरे भयणा॥ ९३. अंतिमकोडाकोडीऍ होइ सव्वासि कम्मपगडीणं। स्वरूपतः अंग-अनंगप्रविष्ट श्रुत लोकोत्तरिक है। वह पलियाअसंखभागे, खीणे सेसे हवइ गंठी॥ सम्यकश्रुत है। लौकिक श्रुत मिथ्याश्रुत है। स्वामित्व की आयुष्य कर्म के अतिरिक्त शेष सभी कर्मप्रकृतियों की अपेक्षा लौकिक और लोकोत्तरिक श्रुत में सम्यक-मिथ्या की जब अंतिम कोटीकोटि स्थिति होती है और उसमें भी भजना है अर्थात् लौकिक श्रुत भी कभी सम्यक्श्रुत हो जाता पल्योपम के असंख्येयतम भाग के क्षीण होने पर, शेष हे और लोकोत्तर श्रुत भी कभी मिथ्याश्रुत हो जाता है। स्थिति वाले कर्म दलिकों के रहते सम्यग्दर्शन की अंतरायसम्यग्दृष्टि द्वारा परिगृहीत लौकिक श्रुत भी सम्यग्श्रुत और भूत ग्रंथी का भेदन होता है। १. वह दृष्टांत इस प्रकार है-द्वीन्द्रिय आदि प्राणी संज्ञी हैं क्योंकि पुरुष की भांति इष्ट विषय में उनकी प्रवृत्ति और अनिष्ट विषय में उनकी निवृत्ति देखी जाती है। जो संज्ञी नहीं हैं उनकी ऐसी प्रवृत्ति और निवृत्ति नहीं होती, जैसे घट। इसी प्रकार स्थावर जीवों की भी ऐसी प्रवृत्ति और निवृत्ति नहीं होती, अतः वे असंज्ञी हैं। इस प्रकार हेतुवाद के आधार पर संज्ञी और असंज्ञी का कथन किया गया। दृष्टिवादोपदेश के आधार पर कहा जा सकता है कि जो सम्यकदृष्टि हैं वे संज्ञी हैं, शेष सभी मिथ्यादृष्टि असंजी हैं। 'सम्मट्ठिी सन्नी, दिट्ठीवायस्स होति उवएसा। सेसा होति असन्नी, कालिय तह हेउसन्नी।।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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