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पीठिका
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परावर्तन करने वाले वर्ण परावर्तन करने वाले) तथा जो विद्यासिद्ध, अंजनसिद्ध और देवता द्वारा छादित (परिगृहीत) हैं तथा जो बीज आदि हैं-इन सबको अवधिज्ञानी प्रत्यक्षतः जानता है।
जो पृथ्वी में वृक्षों में तथा पर्वतों में द्रव्य है-निधियां हैं उनकी तथा जो शरीर आदि गत वन्य है, जो परमाणु हैं तथा जी सुख-दुःख आदि है इन सबको अवधिज्ञानी प्रत्यक्षतः जानता है। यह द्रव्यतः अवधिज्ञान है।
असमत्तपज्जाया ॥
३३. अच्चतमणुक्लद्धा वि ओहिनाणस्स हाँति पच्चक्खा। ओहिन्नाणपरिगया, दव्वा चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा अत्यंत अनुपलब्ध पदार्थ भी अवधिज्ञानी के लिए प्रत्यक्ष होते हैं। अवधिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ असमासपर्यायवाले होते हैं अर्थात् द्रव्य के सारे पर्याय अवधिज्ञान के द्वारा जाने नहीं जा सकते। केवल केवलज्ञानी ही उन्हें जान सकता है। ३४. ख्रित्तिम्मि उ जावइए, पासइ दव्वाइं तं न पासइ या । काले नाणं भइयं, को सो दव्वं विणा जम्हा ॥ क्षेत्रतः अवधिज्ञान - जघन्यतः अथवा उत्कर्षतः जितने क्षेत्र के अवधिज्ञान की शक्ति प्राप्त है, वह उतने क्षेत्रगत रूपी द्रव्यों को देख सकता है, किन्तु उस क्षेत्र को नहीं देख सकता। (क्योंकि क्षेत्र अमूर्त होता है ।)
कालतः अवधिज्ञान-कालविषयक अवधिज्ञान विकल्पित होता है-कभी होता है. कभी नहीं होता। वह ऐसा कौन-सा द्रव्य है जो द्रव्य की पर्याय के बिना अन्य काल द्रव्य हो ? क्योंकि काल द्रव्य की ही अवस्था विशेष है। कहा भी है'दव्वस्स चेव सो पज्जातो इति। अतः वह अवधिज्ञानी के प्रत्यक्ष होता है। पर्यायों में भी कुछेक पर्यायों को ही अवधिज्ञानी जान पाता है।
भावतः अवधिज्ञान अवधिज्ञानी भावतः अनंत भावों को जानता है। यह अनंत सभी भावों का अनंतवां भाग है। ३५. तं मणपजवनाणं, जेण वियाणा सन्निजीवाणं । व
मणिज्जमाणे, मणदव्वे माणसं भावं ॥ संज्ञी जीवों द्वारा मनन में व्याप्त मनोद्रव्यों को देखकर जिस ज्ञान से मानसिक भाव को जान लिया जाता है, वह मनः पर्यवज्ञान है।
१. क्योंकि यहां यदि हम कालद्रव्य को समयक्षेत्र भावी स्वीकार करते हैं तो वह केवल समयमात्र का होता है और 'समयमात्र काल' अरूपी होने के कारण वह अवधिज्ञान का विषय नहीं बनता ।
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३६. जाग य पिजणो वि हु, फुडमागारेहिं माणसं भावं । एमेव अत्थे ॥ तस्सुवमा, मणदव्वपमासिए सामान्य पुरुष भी स्फुट आकारों के द्वारा निश्चित रूप से मानसिक भावों को जान लेता है। इसी प्रकार मनः पर्यवज्ञानी के भी मनोद्रव्य द्वारा प्रकाशित अर्थ-विषयक उपमा जाननी चाहिए (अर्थात् सामान्य पुरुष की भांति ही मनःपर्यवज्ञानी भी मनोद्रव्यगत आकारों को देखकर उन-उन मानसिक भावों को जान लेता है।)
३७. पंकसलिले पसाओ, जह होइ कमेण तह हमो जीवो ॥ केवलं जाव ॥ आवरणे झिज्जते विसुज्झए पंकिल-गुदला पानी कतकचूर्ण के योग से क्रमशः साफ होता है, वैसे ही यह जीव भी अपने कार्मिक आवरणों को क्षीण करता हुआ तब पूर्ण शुद्ध होता है जब उसे कैवल्य की प्राप्ति होती है। २
३८. दव्वादिकसिणविसयं, केवलमेगं तु अणिवारियवावारं, अणंतमक्किप्पियं
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केवलन्नाणं । नियतं ॥
केवलज्ञान का विषय है समस्त द्रव्य । वह केवलअसहाय अर्थात् अन्य ज्ञान से निरपेक्ष, एक अनन्यसदृश, अनिवारित व्यापार अर्थात निरंतर उपयोगवाला, अनंत, अविकल्पित-विकल्परहित (भेदरहित) तथा नियत - सर्व कालिक होता है।
३९. पच्चक्ख परोक्खं वा, जं अत्थं ऊहिऊण निद्दिसइ ।
तं होइ अभिणिबोहं, अभिमुहमत्थं न विवरीयं ॥ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष विषय की तर्कणा कर निश्चयपूर्वक कहता है, वह ज्ञान अर्थ के प्रति अभिमुख होने के कारण आभिनिबोधिक ज्ञान है जो अर्थाभिमुख नहीं होता वह आभिनिबोधिक ज्ञान नहीं है।
४०. अत्थानंतरचारिं नियतं चित्तं तिकालविसयं तु ।
अत्थे य पडुप्पण्णे, विणियोगं इंदियं लहइ ॥ वह दो प्रकार का है-इन्द्रियनिश्रित तथा अनिन्द्रियनिश्चित (मनोनिश्रित) मन अर्थानन्तरचारी होता है अर्थात् इन्द्रियाँ का अपने विषय में व्याप्त होने के पश्चात् मन व्यापृत होता है। वह नियतार्थविषय होता है अर्थात् एक काल में एक ही विषय में व्याप्त होता है, अनेक विषयों में नहीं। मन त्रिकाल अतीत, वर्तमान और भविष्य विषयवाला
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२. यह जीव भी अपूर्वकरण गुणस्थान से प्रारंभ कर क्षपणश्रेणी में आरूढ़ होकर विशुद्ध-विशुद्धतर अध्यवसायों के प्रभाव से कर्मावरण को क्षीण करता हुआ कैवल्य को प्राप्तकर पूर्णरूप से घातीकर्मों से मुक्त हो जाता है।
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