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==बृहत्कल्पभाष्यम्
होता है। इन्द्रियां केवल वर्तमान अर्थ में ही विनियोग-व्यापृत होती हैं। ४१. मतिविसयं मतिनाणं, मतिपुव्वं पुण भवे सुयन्नाणं।
तं पुण समतिसमुत्थं, परोवदेसा व सव्वं पि॥ मतिज्ञान मतिविषयक अर्थात् मति के अनुसार होता है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। सारा श्रृतज्ञान दो भेदों में विभक्त हैं-स्वमतिसमुत्थ तथा परोपदेशसमुत्थ।
(प्रत्येकबुद्ध तथा पदानुसारीप्रज्ञा वालों के श्रुतज्ञान स्वमतिसमुत्थ होता है और सामान्य व्यक्तियों के वह परोपदेशसमुत्थ होता है।) ४२. अक्खर सण्णी सम्म, साइयं खलु सपज्जवसियं च।
गमियं अंगपविटुं, सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥ परोपदेशसमुत्थ श्रुतज्ञान के चौदह प्रकार हैं। १. अक्षरश्रुत ८. अनादिश्रुत २. अनक्षरश्रुत ९. सपर्यवसितश्रुत ३. संज्ञिश्रुत १०. अपर्यवसितश्रुत ४. असंज्ञिश्रुत ११. गमिकश्रुत ५. सम्यकश्रुत १२. अगमिकश्रुत ६. मिथ्याश्रुत . १३. अंगप्रविष्ट
७. सादिश्रुत १४. अनंगप्रविष्ट । ४३. अक्खरतिगरूवणया, पढमनयादेसतो न तं खरति।
अभिलप्पा पुण भावा, होति खरा अक्खरा चेव॥
अक्षर के तीन प्रकार हैं-संज्ञाक्षर, लब्धि-अक्षर तथा व्यंजनाक्षर। इन तीनों की प्ररूपणा करनी चाहिए। प्रथमनय अर्थात् नैगमनय के आदेशानुसार अक्षर कभी अपने स्वभाव से चलित नहीं होता। जो अभिलाप्य भाव हैं, वे दो प्रकार के हैं-क्षर और अक्षर। (क्षर हैं घट आदि तथा अक्षर हैं धर्मास्तिकाय आदि)। ४४. संठाणमगाराई, अप्पाभिप्पायतो व जं जस्स।
लद्धी पंचविगप्पा, जस्सुवलब्भो उ जो अत्थो॥
अकार आदि का जो संस्थान है, वह संज्ञाक्षर है। अथवा अपने अभिप्राय से जिस अक्षर का जो संस्थान किया जाता है उसको संज्ञाक्षर कहते हैं। लब्ध्यक्षर के पांच प्रकार हैं, जैसे--श्रोत्रन्द्रियलब्ध्यक्षर, जिह्वेन्द्रियलब्ध्यक्षर, चक्षुरिन्द्रियलब्ध्यक्षर, घ्राणेन्द्रियलब्ध्यक्षर तथा स्पर्शनेन्द्रियलब्ध्यक्षर। (छठा है-नोइन्द्रियलब्ध्यक्षर।) पांच इन्द्रियों तथा मन के द्वारा जो उपलभ्य अर्थ है, उसके द्वारा जो अक्षरों की उपलब्धि होती है वह श्रोत्रेन्द्रिय आदि का लब्ध्यक्षर है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय से शंख शब्द सुना। उसके बाद जो दो अक्षरों 'शंख' की लब्धि है, वह श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षर है।
४५. सामन्न विसेसेण य, दुविहुवलद्धी उ पढमिय अभेया।
तिविहा य अणुवलद्धी, उवलद्धी पंचहा बिइया।। अथवा उपलब्धि (उपलब्ध्यक्षर) के दो प्रकार हैंसामान्य और विशेष। अर्थात् सामान्यलब्ध्यक्षर और विशेषलब्ध्यक्षर। जो प्रथम सामान्योपलब्धि है वह अभेदात्मक होती है। अनुपलब्धि के तीन प्रकार हैं और जो दूसरी-विशेष उपलब्धि है वह पांच प्रकार की है। ४६. अच्चंता सामन्ना, य विस्सुती होइ अणुवलद्धीओ।
सारिक्ख विवक्खोभय, उवमाऽऽगमतो य उवलद्धी॥ ___ अनुपलब्धि के तीन प्रकार ये हैं अत्यंत से अर्थात् एकांत से, सामान्य से और विस्मृति से। उपलब्धि के पांच प्रकार ये हैं-सदृशता से, विपक्ष से, उभय से-सदृशता और विपक्ष-दोनों से, उपमा से तथा आगम से। ४७. अत्थस्स दरिसणम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवइ।
दु8 पि न याणते, बोहिय पंडा फणस सत्तू।। पदार्थ को देखने पर भी अक्षरों की लब्धि एकांततः नहीं हो सकती। जैसे-बोधिक अर्थात् पश्चिम दिशावासी लोग 'पनस' को देखकर भी 'यह पनस है' ऐसा नहीं जान पाते। क्योंकि पनस उनके लिए अत्यंत परोक्ष है। इसी प्रकार पांडुमथुरावासी 'सत्तू' को देखकर भी 'ये सत्तू हैं', ऐसा नहीं जान पाते। (क्योंकि वहां सत्तू होते ही नहीं। यह एकांततः अनुपलब्धि है।) ४८. अत्थस्स उग्गहम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवति।
सामन्ना बहुमज्झे, मासं पडियं जहा द8॥ पदार्थ को जान लेने पर भी, उसकी अन्य पदार्थ के साथ सामान्यता-सदृशता होने के कारण एकांततः उसे अक्षरलब्धि नहीं होती। जैसे बहूत धान्यों के बीच पड़े हुए उड़द को देख लेने पर भी, उसे उसका अक्षरलाभ नहीं होता। (यह सामान्य से अनुपलब्धि है।) ४९. अत्थस्स वि उवलंभे, अक्खरलद्धी न होइ सव्वस्स।
पुव्वोवलद्धमत्थे, जस्स उ नामं न संभरति॥ पदार्थ का उपलंभ हो जाने पर भी सभी के उस विषयक अक्षरलब्धि नहीं होती। जिसको विवक्षित अर्थ विषयक पूर्व उपलब्ध नाम स्मृति में नहीं है तो उसे उस वस्तु की अक्षर. लब्धि नहीं होती। (यह विस्मृति से होने वाली अनुपलब्धि है।) ५०. सारिक्ख-विवक्खेहि य, लभति परोक्खे वि अक्खर कोइ।
सबलेर-बाहुलेरा, जह अहि-नउला य अणुमाणे॥
कोई व्यक्ति पदार्थ के परोक्ष होने पर भी सादृश्य के कारण उसका वाचक अक्षर प्राप्त कर लेता है। जैसे कोई 'शाबलेय' (चितकबरी गाय आदि) को देखकर उसकी
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