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पीठिका सदृशता से बाहुलेय (काली गाय आदि) का ज्ञान कर लेता है। वह कहता है-ऐसा होता है 'बाहुलेय'। इसी प्रकार पदार्थ के परोक्ष होने पर भी विपक्षतः उसका वाचक अक्षर प्राप्त कर लेता है। जैसे-सर्प को देखकर नकुल का अनुमान तथा नकुल को देखकर सर्प का अनुमान हो जाता है। ५१. एगत्थे उवलद्धे, कम्मि वि उभयत्थ पच्चओ होइ।
अस्सतरि खर-ऽस्साणं, गुल-दहियाणं सिहरिणीए॥ उभयधर्मवाली किसी एक वस्तु को देखकर दोनों वस्तुओं का प्रत्यय वाचक अक्षर प्राप्त हो जाता है। जैसे अश्वतर- खच्चर को देखकर गधे का और घोड़े का दोनों का ज्ञान हो जाता है। इसीप्रकार शिखरिणी को देखकर गुड़ और दही-- दोनों का अक्षरलाभ हो जाता है। ५२. पुव्वं पि अणु अणुवलद्धो, घिप्पइ अत्थो उ कोइ ओवम्मा॥
जह गोरेवं गवयो, किंचिविसेसेण परिहीणो।। पहले कोई पदार्थ अनुपलब्ध (अज्ञात) होने पर भी वह उपमा से गृहीत होता है, जैसे-गाय के सदृश होता है गवय।। वह किंचित् विशेषण से रहित होता है अर्थात् उसके गलकंबल नहीं होता। (वन में परिभ्रमण करते हुए किसी व्यक्ति ने गवय देखा। तत्काल उसे-'यथा गौस्तथा गवयः' की उपमा याद आ जाती है और उस उपमा से उसे गवय का अक्षरलाभ हो जाता है।) ५३. अत्तागमप्पमाणेण अक्खरं किंचि अविसयत्थे वि।
भवियाऽभविया कुरवो, नारग दियलोय मोक्खो य॥
आप्तागम को प्रमाण मानने वाले व्यक्तियों के लिए अविषयभूत पदार्थों का भी अक्षरलाभ होता है। जैसे-भव्य- अभव्य, देवकुरु-उत्तरकुरु, नारक, देवलोक, मोक्ष-आप्तागम के प्रमाण के अनुसार इनका अक्षरलाभ ज्ञान होता है। यह आगमोपलब्धि है। ५४. ओसन्नेण असन्नीण अत्थलंभे वि अक्खरं नत्थि।
अत्थो च्चिय सन्नीणं, तु अक्खरं निच्छए भयणा॥ असंज्ञी प्राणियों के अर्थलाभ-पदार्थ की उपलब्धि होने पर भी उनको उत्सन्न-एकांततः अक्षरलाभ नहीं होता। (वे नहीं जान पाते कि यह शंख का शब्द है।) संज्ञी जीवों के ही पदार्थ की उपलब्धि होते ही अक्षरलाभ हो जाता है। निश्चय करने में भजना-विकल्प है। (जैसे-यह शब्द शंख का ही है। यह शब्द शाऊँ का ही है-ऐसा निश्चय होता भी है और नहीं भी होता।)
५५. अत्थाभिवंजगं वंजणक्खरं इच्छितेतरं वदतो।
रूवं व पगासेणं, वंजति अत्थो जओ तेणं॥ ईप्सित अथवा अनीप्सित (विवक्षित अथवा अविवक्षित) बोलते हुए व्यक्ति का जो अर्थाभिव्यंजक अभिधान होता है वह व्यंजनाक्षर है। प्रश्न है उसे व्यंजनाक्षर क्यों कहा जाता है? अभिधानाक्षर क्यों नहीं कहा जाता? जैसे अंधकार में स्थित रूप-घट आदि प्रकाश से व्यंजित होता है, प्रकट होता है, इस कारण से उसे व्यंजनाक्षर कहा जाता है। ५६. तं पुण जहत्थनियतं, अजहत्थं वा वि वंजणं दुविहं।
एगमणेगपरिययं, एमेव य अक्खरेसुं पि॥ ५७. सक्कय-पाययभासाविणियुत्तं देसतो अणेगविहं।
अभिहाणं अभिधेयातो होइ भिण्णं अभिण्णं च॥ व्यंजन के दो प्रकार हैं-यथार्थनियत तथा अयथार्थ । अथवा व्यंजन के दो प्रकार हैं-एक पर्यायवाला और अनेक पर्यायवाला। अथवा अक्षर आदि के आधार पर व्यंजन के दो भेद हैं-एकाक्षर तथा अनेकाक्षर।'
अथवा व्यंजन के दो प्रकार हैं-संस्कृतभाषाविनिर्युक्त, प्राकृतभाषाविनियुक्त।
अनेक देशों के आधार पर उसके अनेक प्रकार हैं।
अभिधान अर्थात् व्यंजनाक्षर अभिधेय से दो प्रकार का होता है-भिन्न अथवा अभिन्न। ५८. खुर-अग्गि-मोयगोच्चारणम्मि जम्हा उ वयण-सवणाणं।
ण वि छेदो ण वि दाहो, ण वि पूरण तेण भिण्णं तु॥
क्षुर, अग्नि, मोदक आदि के उच्चारण से तथा श्रवण से न मुंह का और न कान का छेदन होता है, न दाह होता है और न पूरण होता है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि अभिधेय से अभिधान भिन्न होता है। ५९. जम्हा उ मोयगे अभिहियम्मि तत्थेव पच्चओ होइ।
ण य होइ सो अणत्ते, तेण अभिण्णं तदत्थातो॥ मोदक शब्द का उच्चारण करने पर, सुनने पर उसी में अर्थात् मोदक में ही प्रत्यय होता है। अन्यत्र में वह प्रत्यय नहीं होता। प्रत्यय होता है संबद्धता के कारण। अतः यह जाना जाता है कि अभिधान अपने अर्थ से अभिन्न होता है-संबद्ध होता है। ६०. एक्कक्कमक्खरस्स उ, सप्पज्जाया हवंति इयरे य। संबद्धमसंबद्धा, एक्केक्का ते भवे दुविहा॥
अनेक पर्याय-जीव, सत्त्व, प्राणी आदि। एकाक्षर-धी, श्री, आदि। अनेकाक्षर-वीणा, लता, माला आदि।
१. यथार्थनियत-अन्वर्थयुक्त-क्षपयतीति क्षपणः आदि, अयथार्थ-नेन्द्र गोपयति तथापि इन्द्रगोपकः, न पलमश्नाति तथापि पलाशः।
एक पर्याय-अलोक आदि।
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