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________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् साधनों से अथवा साधनों के अभाव से वह प्रयोजन सिद्ध २६. केसिंचि इंदियाइं, अक्खाइं तदुवलद्धि पच्चक्खं। नहीं हो सकता। वह सिद्ध होता है अविपरीत साधनों के द्वारा। तं तु न जुज्जइ जम्हा, अग्गाहगमिंदियं विसए॥ २२. जयवि य तिट्ठाण कयं, तह वि ह दोसो न बाहए इयरो। कुछेक दार्शनिक (वैशेषिक आदि) इन्द्रियों को अक्ष मानते तिसमुन्भवदिटुंता, सेसं पि हु मंगलं होइ । ____ हैं। उनकी उपलब्धि-ज्ञान को वे प्रत्यक्ष मानते हैं। (वे कहते यद्यपि मंगल तीन स्थानों आदि, मध्य और अंत में किया हैं-'चाक्षुषादिविज्ञानं प्रत्यक्षम्')| उनका यह सिद्धांत उचित जाता है, फिर भी इतर अर्थात् अपान्तराल में अमंगल का नहीं है क्योंकि इन्द्रियां (पौद्गलिक होने के कारण) विषय दोष बाधा नहीं पहुंचाता। इसको सिद्ध करने के लिए यह की ग्राहक नहीं होती। दृष्टांत है। तीन द्रव्यों से अर्थात् गुड़, आटा और घृत से २७. न वि इंदियाई उवलद्धिमति विगतेसु विसयसंभरणा। मोदक बनता है। मोदक आदि, मध्य और अन्त में अर्थात् जह गेहगवक्खाई, जो अणुसरिया स उवलद्धा। पूरा मोदक मीठा-मीठा ही होता है। उसी प्रकार शेष शास्त्र इन्द्रियां उपलब्धिमान् नहीं हैं, क्योंकि विषय के अतीत भी मंगल ही मंगल है। हो जाने पर भी, उस विषय की स्मृति होती है, जैसे-गृह २३. न वि य हु होयऽणवत्था, न वि य हु मंगलममंगलं होइ। के गवाक्ष में उपलब्ध अर्थों का, गेहगवाक्ष के अतीत हो अप्पपराभिव्वत्तिय, लोणुण्हपदीवमादि व्व॥ जाने पर भी उन विषयों का स्मरण होता है। जो अनुस्मर्ता (शिष्य ने कहा-शास्त्र स्वयं मंगल है। नंदी शास्त्र से है, उसको वे विषय प्राप्त हो जाते हैं। (अर्थात आत्मा भिन्न नहीं है। उसे अन्य मंगल के रूप में प्रस्तुत करना अनुस्मर्ता है।) अनवस्था दोष है।) आचार्य कहते हैं-निश्चित रूप से २८. धूमनिमित्तं नाणं, अग्गिम्मिं लिंगियं जहा होइ। अनवस्था नहीं होती और न मंगल अमंगल होता है। तह इंदियाइलिंगं, तं नाणं लिंगियं न कह। आत्मपराभिव्यक्तितः अर्थात् नंदी स्वयं मंगल है और शास्त्र जैसे धूम के निमित्त से होने वाला अग्नि का ज्ञान लैंगिक भी उसको मंगल करता है अथवा शास्त्र स्वयं मंगल है और होता है, वैसे ही इन्द्रिय आदि लिंग हैं, उनसे होने वाला ज्ञान नंदी भी उसको मंगल करती है तो दोनों के योग से और लैंगिक कैसे नहीं होगा? अधिक मंगल होता है। जैसे दो लवणों का एकीकरण अधिक २९. अपरायत्तं नाणं, पच्चक्खं तिविहमोहिमाईयं। लवणता पैदा करता है। दो उष्ण एकत्रित होने पर वे उष्णतर जं परतो आयत्तं, तं पारोक्खं हवइ सव्वं ।। हो जाते हैं तथा दो प्रदीपों का प्रकाश मिलने पर प्रकाश की जो अपरायत्त ज्ञान है वह प्रत्यक्ष है। वह अवधिज्ञान आदि अधिकता होती है। वैसे ही दो मंगलों का एकत्रीकरण विशेष तीन प्रकार का है। जो परायत्त ज्ञान है, वह सारा परोक्ष है। मंगल को उत्पन्न करता है। ३०. ओहि मणपज्जवे या, केवलनाणं च होति पच्चक्खं। २४. नंदी चतुक्क दव्वे, संखब्बारसग तूरसंघातो। आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं चेव पारोक्खं॥ भावम्मि नाणपणगं, पच्चक्खियरं च तं दुविहं॥ प्रत्यक्ष ज्ञान तीन हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा नंदी के चार निक्षेप हैं-नामनंदी, स्थापनानंदी, द्रव्यनंदी केवलज्ञान। परोक्ष ज्ञान दो हैं-आभिनिबोधिकज्ञान तथा तथा भावनंदी। द्रव्यनंदी है-शंख आदि बारह प्रकार का तूर्य श्रुतज्ञान। (वाद्य) संघात।' भावनंदी है-पांच ज्ञान। ज्ञानपंचक के दो ३१. विवरीयवेसधारी, विजंजणसिद्ध देवताए वा। प्रकार हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। छाइय सेवियसेवी, बीयादीओ वि पच्चक्खा। २५. जीवो अक्खो तं पड़, जं वट्टति तं तु होई पच्चक्खं। ३२. पुढवीइ तरुगिरिया सरीरादिगया य जे भवे दव्वा। परतो पुण अक्खस्सा, वट्टतं होइ पारुक्खं॥ परमाणू सुहदुक्खादओ य ओहिस्स पच्चक्खा॥ जीव अक्ष है। उसके प्रति प्रवर्तित होने वाला ज्ञान अवधिज्ञान चार प्रकार का है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः प्रत्यक्ष है। जो अक्ष से परतः ज्ञान होता है वह है परोक्ष। और भावतः। (आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है तथा इन्द्रिय और मन द्रव्यतः अवधिज्ञान-वेष का परिवर्तन करने वाले (नेपथ्य से होने वाला ज्ञान परोक्ष है।) का परिवर्तन करने वाले, गुटिका का प्रयोग करने वाले स्वर १. भंभा मुकुंद मद्दल, कडंब झल्लरि हुडुक्क कंसाला। को जानता है, वह है अक्ष-आत्मा। काहला तलिमा वंसो, पणवो संखो य बारसमो॥ अश्नुते-ज्ञानेन व्याप्नोति सर्वान ज्ञेयानिति अक्षः-जो ज्ञान के द्वारा २. अश्नाति-भुक्ते यथायोगं सर्वानानिति अक्षः-जो यथायोग सभी अर्थों सभी ज्ञेयों को जानता है, वह है अक्ष-आत्मा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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