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पीठिका
व्यत्याम्रेडित, अपरिपूर्ण तथा घोष रहित ऐसा सूत्रोच्चारण करने पर उसका प्रायश्चित्त है - मासलघु ।'
३००. जं तु निरंतरदाणं, जस्स व तस्स व तबस्स तं गुरुगं ।
गंपुण संतरदाणं, गुरू वि सो खलु भवे लहुओ ।। प्रायश्चित्त के तीन प्रकार- दानप्रायश्चित्त तपः प्रायश्चित्त तथा कालप्रायश्चित्त । ये तीनों गुरु-लघु- दोनों प्रकार के होते है। जिस किसी तपस्या का गुरुक तेला आदि तथा अगुरुक निर्विकृतादि का निरंतर प्रायश्चित्त आता है, वह है (गुरु) दान प्रायश्चित जो तेले आदि का प्रायश्चित्त सान्तर दिया जाता है वह गुरुक होते हुए भी लघु है। ३०१. काल तवे आसज्ज व गुरू वि होइ लहुओ लहू गुरुगो । कालो गिम्हो उ गुरु, अट्ठाइ तवो लहू सेसो ॥ काल और तप के आधार पर गुरु भी लघु हो जाता है और लघु भी गुरु हो जाता है। काल की अपेक्षा ग्रीष्मकाल गुरु है और तप अष्टम आदि। शेष काल और तप लघु है। ३०२. संहिया य पयं चेव, पयत्थो पयविग्गहो । चालणा य पसिद्धी य, छव्विहं विद्धि लक्खणं ॥ संहिता, पद, पदार्थ, पदविग्रह, चालना और प्रसिद्धि (प्रत्यवस्थान) व्याख्या के ये छह लक्षण हैं। इनको जानो । ३०३. सन्निकरिसो परो होइ संहिया संहिया व जं अत्था ।
लोगुत्तर लोगम्मि य, हवइ जहा धूमकेउ त्ति ॥ सूत्र में दो अथवा अनेक पद का अर्थप्रदायी सन्निकर्ष होता है, वह है-संहिता अथवा जिसमें अर्थ संहित होते हैं वह है संहिता संहिता के दो प्रकार है-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक है-यथा धूमकेतुः इसमें यथा धूम और केतु ये तीन पद हैं।
३०४. तिपर्य जह ओवम्मे, धूम अभिभवे केउ उस्सए अत्थो ।
को सुत्ति अग्गि उत्ते, किंलक्खणो दहण - पयणाई ॥ 'यथा धूमकेतुः यह तीन पदों वाला संहितासूत्र है। पदार्थ यथा शब्द उपमा के अर्थ में, 'धूम' शब्द परिभव के आर्य में 'केतु' शब्द उच्छ्रय के अर्थ में प्रयुक्त है। ऐसा क्या है ? वह है अग्नि । उसका लक्षण क्या है ? दहन, पचन, प्रकाशन आदि में समर्थ
३०५. जइ एव सुत्त सोवीरगाई वि होंति अग्गिमक्खेवो ।
न वि ते अग्गि पइन्ना, कसिणम्मिगुणन्निओ हेऊ ॥ ३०६. दिवंतो घडगारो, न वि जे उक्खेवणाइ तक्कारी । जम्हा जहुत्तऊसमन्निओ निगमणं अम्मी ॥ दहन, पंचन, प्रकाशन आदि में अग्नि समर्थ है तो शुक्ल
१. वृत्तिकार का कथन है कि लघु के ग्रहण से गुरु का भी ग्रहण होता है। गुरुक के तीन पर्यायवाची शब्द हैं-गुरुक, अनुद्घाती तथा कालक । लघुक के तीन पर्यायवाची है-लघुक, उद्घातित तथा शुक्ल ।
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(शिव) सौवीरक आदि भी दहन करते हैं, करीष आवि भी पचन में समर्थ हैं, खद्योत, मणि आदि प्रकाशन करने में समर्थ हैं, फिर भी वे अग्नि नहीं है । वह आक्षेप 'चालना' है।
प्रतिज्ञा वाक्य है- शुक्ल आदि पदार्थ अग्नि नहीं है। समस्त गुणों से अन्वित है यह हेतु है । दृष्टांत है घटकार । घट का संपूर्ण निर्वर्तक घटकार होता है परंतु वह घट के उत्क्षेपण आदि का कर्ता नहीं होता। इसी प्रकार प्रस्तुत प्रसंग में भी जो दहन करता है, पकाता है, प्रकाशन करता है, वह अपने स्वगतलक्षण से ऐसा करता है। वही यथोक्तगुण-समन्वित परिपूर्ण अग्नि है, शुक्ल आदि नहीं। यह निगमन है।
तग्गुणलद्धी हेऊ, दिट्टंतो होइ
३०७. उत्तरिए जह दुमाई, तदत्थहेऊ अविग्गहो चेव । को पुण बुमुत्ति बुत्तो, भण्णइ पत्ताइउववेओ ॥ ३०८. तदभावे न दुमु त्ति य, तदभावे वि स दुमुत्तिय पइन्ना । रहकारो ॥ लोकोत्तर में जहा दुमस्स पुफ्फेसु भ्रमरो आवियह रसं' यह संहिता है। पद यथा क्रम, पुष्प, समर, आपिबति रस पदार्थ - यथा उपमा के अर्थ में द्रुम-ढुंगती धातु से जो ऊपर जाता है वह है द्रुम-वृक्ष । पुष्प-जो विकसित होते हैं वे फूल । भ्रमर-भ्रम- अनवस्थान धातु से भ्रमर अर्थात् निरंतर घूमने वाला पां पाने आइ मर्यादायां धातु से आपिबतिपीना रस रस्ते आस्वाद्यते इति रसः रस का आस्वाद लेना। यहां व्यस्तपद होने के कारण पद-विग्रह नहीं है। चालना - प्रश्नकर्त्ता पूछता है- द्रुम का लक्षण क्या कहा है? आचार्य कहते हैं - जो पत्र, पुष्प आदि से युक्त होता है, वह है द्रुम। प्रश्नकर्ता कहता है- क्या इनके अभाव में उसका द्रुमत्व नष्ट हो जाता है ? वह द्रुम नहीं रहता ? प्रत्यवस्थान- उनके अभाव में भी वह द्रुम है यह प्रतिज्ञा वचन है । तद्गुणलब्धि होने के कारण यह हेतु है । दृष्टांत है- रथकार । रथकार रथ बनाने का प्रयत्न न करते हुए भी उसमें रथकर्तृत्व की लब्धि है। इसी प्रकार पत्र-पुष्पों के शटित हो जाने पर भी वह म है, क्योंकि उसमें उस गुणलब्धि की निवृत्ति नहीं हुई है। ३०९. सुत्तं पयं पयत्थो, पयनिक्खेवो य निन्नयपसिद्धी ।
पंच विगप्पा एए दो सुत्ते तिन्नि अत्थम्मि ॥ सूत्रोच्चारण, पद, पदार्थ, पदविक्षेप (पदार्थनोदना), निर्णयप्रसिद्धि व्याख्या के ये पांच विकल्प हैं। इन प्रथम दो २. जैसे प्रायश्चित्त है-चार लघुक अथवा षट्लघुक-वहां तेला अथवा चोला सान्तर दिया जाता है।
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