________________
पीठिका =
४. अलंकारयुक्त-उपमा आदि अलंकारों से युक्त। ५. उपनीत-उपसंहारयुक्त। ६.सोपचार काहल अर्थात् व्यर्थ। वह होता है अनुपचार।
इसके विपरीत होता है सोपचार। ७.मित श्लोक और पदों से परिमित। ८. मधुर-मधुर तीन प्रकार का होता है-सूत्रमधुर,
अर्थमधुर, और उभयमधुर। २८५. अप्पक्खरमसंदिद्धं, सारवं विस्सओमुहं।
अत्थोभमणवज्जं च, सुत्तं सव्वन्नुभासियं॥ २८६. अत्थेसु दोसु तीसु व, सामन्नभिहाणओ उ संदिद्धं।
जह सिंधवं तु आणय, अत्थबहुत्तम्मि संदेहो॥ २८७. उय-वइकारो ह त्ति य, हीकाराई य थोभगा हुंति।
वज्ज होइ गरहियं, अगरहियं होइ अणवज्जं॥ श्लोक २८३ में 'च' शब्द व्यवहृत है। उसके आधार पर सूत्र के निम्न छह गुण और गृहीत हैं
१. अल्पाक्षर-जिसमें अक्षर अल्प हो। २. असंदिग्ध संदिग्ध वह होता है जहां प्रयुज्यमान शब्द
के दो-तीन अर्थ होते हों। जैसे किसी ने कहा-सैन्धव लाओ। सैन्धव के अनेक अर्थ हैं, जैसे-वस्त्र, अश्व, पुरुष, लवण आदि इस प्रकार अर्थ-बहुलता से संदेह होता है। ३. सारवत्-नवनीतभूत। ४. विश्वतोमुख सर्वत्र मान्य अर्थवाला। ५. अस्तोभ-उत, वै, हा, हि आदि अक्षरों का अकारण प्रक्षेप होने पर वह स्तोभक कहलाता है। इनसे रहित
अस्तोभ है। ६.अनवद्य-अवध का अर्थ होता है गर्हित। अनवद्य
अर्थात् अगर्हित। २८८. अहीणऽक्खरं अणहियमविच्चामेलियं अवाइद्धं ।
अक्खलियं च अमिलियं, पडिपुन्नं चेव घोसजुयं॥ सूत्रोच्चारण विधि-अहीनाक्षर, अधिकाक्षररहित, अव्यत्यानेडित, अव्याविन्द्र, अस्खलित, अमिलित, प्रतिपूर्ण और घोषयुक्त। (इनके अर्थ आगे की गाथाओं में) २८९. तित्त-कडुओसहाई, मा णं पीलिज्जऊ ण ते दे।
पउणइ न तेहि अहिएहिं मरइ बालो तहाहारे॥
अहीनाक्षर-हीन के दो प्रकार हैं-द्रव्यहीन और भावहीन। द्रव्यहीन का यह उदाहरण है
एक स्त्री का पुत्र ग्लान हो गया। वैद्य ने औषधी दी। स्त्री ने सोचा-ये औषधियां तिक्त और कटु हैं। ये इस बालक को पीड़ित न कर दें, इसलिए वह औषधियां बालक को नहीं
देती। बालक स्वस्थ नहीं होता, मर जाता है। अधिक औषधियां देने पर भी बालक स्वस्थ नहीं होता, मर जाता है। इसी प्रकार हीन या अधिक आहार से भी मृत्यु हो जाती है। २९०. अक्खर-पयाइएहिं, हीणऽइरेगं च तेसु चेव भवे।
दोसु वि अत्थविवत्ती, चरणे य अयो य न य मुक्खो ।। सूत्र को अक्षर अथवा पदों से हीन या अतिरेक रूप में पढ़ने पर अर्थव्यापत्ति-अर्थ का विसंवाद होता है। अर्थ के विसंवाद से चरण का विसंवाद होता है और उससे मोक्ष का अभाव होता है। २९१. विज्जाहर रायगिहे, उप्पय पडणं हीणदोसेणं।
सुणणा सरणा गमणं, पयाणुसारिस्स दाणं च।
राजगृह में भगवान् महावीर समवसृत हुए। एक विद्याधर वंदना कर लौट रहा था। विद्या के कुछ अक्षरों की विस्मृति हो जाने पर वह आकाश में उत्पतन-पतन करने लगा। उसका आकाश-गमन अवरुद्ध हो गया। अभयकुमार ने यह देखा। विद्याधर से पूछा। उसने सारी बात बताई। अभय ने कहा यदि तुम मुझे विद्या सिखाओगे तो मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूं। विद्याधर ने यह स्वीकार कर लिया। अभय ने कहा-विद्या का एक पद सुनाओ। विद्याधर ने पद सुनाया। अभय को पदानुसारी लब्धि प्राप्त थी। उस लब्धि से उसने विस्मृत अक्षरों की स्मृति करा दी। विद्याधर अभय को विद्या देकर आकाशमार्ग से चला गया। २९२. पाडलऽसोग कुणाले, उज्जेणी लेहलिहण सयमेव ।
अहिय सवत्ती मत्ताहिएण सयमेव वायणया। २९३. मुरियाण अप्पडिहया, आणा सयमंजणं निवे णाणं।
गामग सुयस्स जम्म, गंधव्वाऽऽउट्टणा कोइ। २९४. चंदगुत्तपपुत्तो य, बिंदुसारस्स नत्तुओ। __ असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कागिणिं ।।
पाटलिपुत्र नगर में अशोक राज्य कर रहा था। वह चन्द्रगुप्त का पौत्र और बिन्दुसार का पुत्र था। उसका पुत्र कुणाल उज्जयनी में था। एक बार अशोक ने स्वयमेव कुणाल के नाम एक लेख (संदेश) लिखा। कुणाल को पढ़ाया जाए। सौतेली मां ने 'अधीयतां' के 'अ' कार पर बिन्दु लगा दिया। अब वह शब्द 'अंधीयतां' हो गया। मात्रा की अधिकता हो जाने के कारण संदेश को पढ़ने वाले, उस शब्द को नहीं पढ़ते थे। तब कुमार ने स्वयं उसे पढ़ा। उसने सोचा-मौर्यवंश की आज्ञा अप्रतिहत होती है, यह मन में विचार कर उसने तप्तशलाका से स्वयं आंखों को आंज दिया। राजा ने यह जाना तो परितप्त होकर कुणाल को गांव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org