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________________ २२२ २१७१. अविभूसिओ तवस्सी, निक्कामोऽकिंचणो मयसमाणो । इयगारीसुं समणे, लज्जा भय संथवो न रहो ॥ संयमी मुनि अविभूषित होता है वह तपस्वी, निष्काम, अकिंचन, मृत के सामन होता है अतः ऐसे श्रमण के प्रति स्त्रियों की अवज्ञा होती है। श्रमण गृहस्थ स्त्रियों से लज्जा तथा भय रखते हैं। अतः वह उनसे संस्तव नहीं रख सकता, एकांत में उनसे मिल नहीं सकता। २१७२. निन्यया व सिणेहो, वीसत्थतं परोप्पर निरोहो । दाणकरणं पि जुज्जह, लग्गइ तत्तं च तत्तं च ॥ मुनि की साध्वियों से निर्भयता होती है। दोनों में परस्पर स्नेह होता है, परस्पर विश्वसनीयता होती है. दोनों में निरोध वस्तिनिग्रह होता है, दोनों में परस्पर वस्त्र पात्र आदि का लेन-देन चलता है, अतः जैसे तप्त लोहे से तम लोहा संबंधित हो जाता है, वैसे ही साधु-साध्वी भी निरोध से संतप्त होकर परस्पर संबंधित हो जाते हैं। २१७३. वीयार- भिक्खचरिया - विहार- जइ चे इवंदणादीसुं । 3 कज्जेसुं संपडिताण होंति दोसा इमे दिस्स ॥ विचारभूमी में जाते-आते, भिक्षाचर्या, विहार, यति और चैत्यवंदन आदि कार्य के लिए जाते परस्पर साधु-साध्वी के मिलने से, एक दूसरे को देखने से ये दोष होते हैं। २१७४. दूरम्मि दिट्ठि लहुओ, अमुगो अमुगि ति चउलहू होंति । किकम्मम्मि य गुरुगा, मिच्छत्त पसज्जणा सेसे ॥ साधु-साध्वी यदि दूर से भी एक दूसरे को देख ले तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता है यदि परस्पर एक-दूसरे को पहचान लेते हैं कि वह अमुक-अमुक है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि साध्वी वंदना करती है तो चतुर्गुरु शैक्ष मुनि यह देखकर मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। शेष अन्य विशेष व्यक्ति शंकाविष्ट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है । २१७५ विद्रे संका भोइय घाडिय नाई य गाम बहिया य , चत्तारि छ च्च लहु गुरू, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ साध्वी को साधु के प्रति कृतिकर्म करते हुए देखकर शंका होती है भोजिक ग्रामरक्षक अपनी भार्या को कहता है तो चतुर्लघु, घाटिक-मित्र को कहता है तो चतुर्गुरु, ज्ञातिजनों को कहने पर षड्लघु, अज्ञातीजनों को कहने पर षड्गुरु, ग्राम में कहने पर छेद, गांव के बाहर कहने पर मूल, ग्राम की सीमा में कहने पर अनवस्थाप्य और सीमा के बाहर कहने पर पारंचिक प्रायश्चित आता है। Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् २१७६. कुवियं नु पसादेती, आओ सीसेण जायए विरहं । आओ तलपन्नविया, पडिच्छई उत्तिमंगणं ॥ २१७७. इइ संकाए गुरुगा, मूलं पुण होइ निव्विसंके तु । सोही वाऽसन्नतरे, लक्ष्गतरी गुरुतरी इरे ॥ यह तर्कणा होती है कि क्या यह साध्वी कुपित साधु की प्रसन्न करना चाहती है ? अथवा मस्तक झुका कर यह एकांत की याचना कर रही है ? अथवा इस साधु द्वारा चुटकी बजाकर प्रज्ञापित किए जाने पर साध्वी शिर नमाकर उसको स्वीकार कर रही है? इन शंकाओं के होने पर चतुर्गुरु, यदि निर्विशंकरूप से यह निश्चित हो जाता है कि साध्वी का कृतिकर्म साधु को प्रसन्न करने के लिए है तो दोनों को मूल प्रायश्चित्त आता है। भोजिक आदि के निकटतम संबंधी के जान लेने पर शोधि है लघुकतर तथा मित्र या ज्ञाति के जान लेने पर वही प्रायश्चित्त गुरुतर हो जाता है। २१७८. विस्ससइ भोइ - मित्ताइएस तो नायओ भवे पच्छा। जह जह बहुजणनायं, करेह तह वहुए सोही । वह भोजिक मित्र आदि में विश्वास करता है अतः कुछ भी गोपनीय नहीं रखता। ज्ञातिजनों को बाद में ज्ञापित करता है जैसे-जैसे यह बात बहुत जनों को ज्ञात करता है, वैसे वैसे प्रायश्चित्त बढ़ता है। २१७९. डिसेहो जम्मि पदे, पायच्छितं तु ठाइ पुरिमषए। निस्संकियम्मि मूलं मिच्छत्त पसज्जणा सेसे ॥ भोजिक ने भोजिका से कहा तब भोजिका उसका प्रतिषेध करती हुई कहती है ऐसा नहीं हो सकता तो प्रायश्चित्त भी उपरत हो जाता है। भोजिका आदि पद में जो प्रतिषेध है, उससे पूर्वपद- शंका आदि में प्रायश्चित्त रहता है। कुपित को प्रसन्न करने के लिए ही कृतिकर्म करती है, यह निःशंकित हो जाने पर मूल प्रायश्चित्त आता है। शेष में मिध्यात्व आदि की प्राप्ति होती है। २१८०. किइकम्मं तीए कयं मा संक असंकणिज्जचित्ताई। न वि भूयं न भविस्सइ, एरिसगं संजमधरं ॥ भोजिका आदि प्रतिषेध यह कह कर करती है-साध्वी ने अमुक प्रयोजन से साधु का कृतिकर्म किया ऐसी आशंका अशंकनीयचित्त में नहीं करनी चाहिए। संयमधारी साधुसाध्वियों में न ऐसा कभी हुआ न होता है और न होगा। २१८१. पढम-बिइयातुरो वा, सइकाल तवस्सि मुच्छ संतो वा । रच्छामुहाइ पविसं, नितो व जणेण दीसिज्जा ॥ कोई मुनि पहले और दूसरे परीषह से क्षुधा और पिपासा से आकुल होकर गांव के रथ्यामुख आदि स्थानों में प्रवेश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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