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________________ पहला उद्देशक करे, अथवा कोई तपस्वी मुनि विश्राम करने के लिए वहां प्रवेश करे, अथवा कोई मूर्च्छा को दूर करने के लिए वहां जाए, या कोई भिक्षाटन में थक कर विश्राम करने के लिए वहां जाए तो वे मुनि वहां जाते या लौटते हुए उसको कोई साध्वी देख लेती है अथवा इन्हीं प्रयोजनों से वहां जाती हुई या निर्गमन करती हुई साध्वी को साधु देख लेता है। २१८२. संजओ दिद्रो तह संजई य दोणि वि तहेव संपत्ती । रच्छामुहे व होज्जा, सुन्नघरे देउले वा वि॥ यहां चतुर्भंगी इस प्रकार होती है ९. वहां प्रवेश करते हुए साधु को देखा, साध्वी को नहीं। २. साध्वी को देखा, साधु को नहीं । ३. दोनों को देखा। ४. दोनों को नहीं देखा। जिन कारणों से साधु वहां गया है, उन्हीं कारणों से साध्वी भी वहां गई है। वह स्थान रथ्यामुख या शून्यगृह या देवकुल हो सकता है। । २१८३. वणी पुवपविद्वा, जेणायं पविसते जई इत्य एमेव भवति संका, वइणि दण पविसंतिं ॥ देखने वाले को यह शंका होती है- पहले यहां व्रतिनीसाध्वी प्रविष्ट हुई है इसलिए मुनि इसमें प्रवेश कर रहा है। इसी प्रकार साध्वी को वहां प्रवेश करते हुए देखकर भी यहीं शंका होती है। २१८४. उभयं वा दुदुवारे, दट्टु संगारउ त्ति ते पुण जइ अन्नोन्नं, पासंता तत्थ न वो द्वार वाले देवकुल में दोनों को प्रवेश करते हुए देखकर, गृहस्थ के मन में यह शंका होती है इन दोनों का परस्पर कोई संकेत किया हुआ है। यदि वे परस्पर एक दूसरे को देख लेते तो प्रवेश नहीं करते। २१८५. एमेव ततो णिते, भंगा चत्तारि होंति नायव्या । चरिमो तुल्लो दोसु बि, अदिद्वभावेण तो सत्त ॥ इसी प्रकार उन स्थानों से निकलते हुए साधु-साध्वी विषयक चतुभंगी होती है ५. वहां से निकलते हुए साधु को देखा, साध्वी को मन्नंति । विसंता ॥ ६. साध्वी को देखा, साधु को नहीं। ७. दोनों को देखा। ८. दोनों को नहीं देखा । दोनों के अदृष्टभाव के आधार पर अंतिम भंग, दोनों में अर्थात् प्रवेश और निर्गमन में, समान है। Jain Education International २२३ २१८६. एक्किक्कम्मि य भंगे, दिट्ठाईया य गहणमादीया । सत्तमभंगे मासो, आउभयाई अ सविसेसा ॥ प्रत्येक भंग में दृष्ट आदि में शंका आदि दोष होते हैं। दोनों को वहां प्रविष्ट करते हुए देखकर राजपुरुषों द्वारा ग्रहण और आकर्षण होता है, यह दोष है। सातवें भंग में मासलघु तथा आत्म-पर समुत्थ विशेष दोष होते हैं। २१८७. चरमे पढमे बिझ्ए, तइए भंगे व होहमा सोही मासो लहुओ गुरुओ, चउलहु-गुरुगा य भिक्खुस्स ॥ ( इस विषयक पांच आदेश हैं -) यह पहला आदेश है। चरम भंग अर्थात् जिसमें दोनों साधु-साध्वी दृष्ट नहीं हैं, प्रथम भंग में साधु दृष्ट है, द्वितीय भंग में साध्वी दृष्ट है, तृतीय भंग में दोनों दृष्ट हैं। इन भंगों में यथाक्रम यह शोधि है-लघुगास, गुरुमास, चतुर्लघु और चतुर्गुरु । २१८८. वस व उवज्झाए, आयरिए एगठाणपरिवृद्धी । मासगुरुं आरब्भा, नायव्वा जाव छेदो उ॥ वृषभ, उपाध्याय और आचार्य इनके एक-एक स्थान की वृद्धि करनी चाहिए। मासगुरु से आरंभ कर छेद पर्यन्त प्रायश्चित स्थान जानने चाहिए। (वृषभ के चतुर्थ भंग में मासुगुरु, प्रथम में चतुर्लघु, द्वितीय में चतुर्गुरु और तृतीय में षड्लघु उपाध्याय के चतुर्लघु से प्रारंभ कर षड्गुरुक पर्यन्त और आचार्य के चतुर्गुरु से प्रारंभ कर छेद पर्यन्त ।) २१८९. अहवा चरिमे लहुओ, चउगुरुगं सेसएस भंगेसु । भिक्खुस्स दोहि विलहू, काल तवे दोहि वी गुरुगा ॥ (दूसरा आदेश ) - अथवा चरम भंग में लघुमास, शेष तीन भंगों में चतुर्गुरु । ये प्रायश्चित्त भिक्षु के लिए दोनों अर्थात् तप और काल से लघु होते हैं, वृषभ के काल से गुरु, उपाध्याय के तप से गुरु और आचार्य के दोनों से गुरु होते हैं। २१९०. मासो विसेसिओ वा, तइयादेसम्मि होइ भिक्खुस्स । गुरुगो लहुगा गुरुगा, विसेसिया सेसगाणं तु ॥ (तीसरा आदेश ) - अथवा भिक्षु के लिए चारों भंगों में लघुमास, काल और तप से विशेषित प्रायश्चित्त है। शेष अर्थात् वृषभ, उपाध्याय और आचार्य के क्रमशः गुरुमास, चार लघुमास और चार गुरुमास यह भी काल और तप से विशेषित होता है। २१९१. अहवा चउगुरुग च्चिय, मासाइ जाव गुरुगा, For Private & Personal Use Only विसेसिया हुंति भिक्खुमाईणं । अविसेसा हुंति सव्वेसिं ॥ www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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