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________________ २२४ बृहत्कल्पभाष्यम् (चौथा आदेश) २१९७.गड्डा कुडंग गहणे, गिरिदरि उज्जाण अपरिभोगे वा। अथवा भिक्षु आदि सभी के तप और काल से विशेषित पविसंते य पविद्वे, निते य इमा भवे सोही॥ चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है। अथवा मास आदि से प्रारंभ कर अथ साधुओं को देखकर वे साध्वियां गढ़े में, कुडंगचतुर्गुरुक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। सभी भंगों में यह बांस की जालियों में, बहुत वृक्षाच्छादित निकुंज में, पर्वत प्रायश्चित्त तप और काल से अविशेषित होता है। कन्दरा में, उद्यान में अथवा अपरिभोग्य स्थान में प्रवेश २१९२.दिह्रोभास पडिस्सुय, संथार तुअट्ट चलणउक्खेवे। करती हुई, प्रविष्ट तथा निकलने पर ये प्रायश्चित्त साधुओं फंसण पडिसेवणया, चउलहुगाई उ जा चरिमं॥ को आते हैं। प्रविष्ट होकर संयत-संयती एक दूसरे को देखते हैं तो २१९८.दूरम्मि दिढे लहुओ, अमुई अमुओ त्ति चउगुरू होति। चतुर्लघु, परस्पर बोलते हैं तो चतुर्गुरु, स्वीकार करने पर ते चेव सत्त भंगा, वीयारगए कुडंगम्मि॥ षड्लघु और संस्तारक करने पर षड्गुरु, सोने पर छेद, दूर से साधु यदि साध्वी को और साध्वी को साधु देख पैर का उत्क्षेप करने पर मूल, स्पर्श करने पर अनवस्थाप्य लेते हैं तो लघुमास, अमुक साध्वी है या अमुक साधु है-इस और प्रतिसेवना करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त का प्रकार पहचान लेने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। कोई विधान है। संयत कुडंग में विचारार्थ पूर्व प्रविष्ट है, उससे संबंधित सात २१९३.पविसंते जा सोही, चउसु वि भंगेसु वन्निया एसा। भंग, पूर्ववत् होते हैं। निक्खममाणे स च्चिय, सविसेसा होइ भंगेसु॥ २१९९.आभीराणं गामो, गामदारे य देउलं रम्म। संयती संयत के प्रवेश करने पर जो शोधि-प्रायश्चित्त आगमण भोइयस्स य, ठाइ पुणो भोइओ तहियं॥ कहा है, वही शून्यगृह आदि से निर्गमन करते के चारों भंगों एक आभीरों का गांव था। ग्राम के द्वार पर एक रम्य में सविशेष प्रायश्चित्त आता है। देवकुल था। एक बार भोजिक वहां आया। वह भोजिक उस २१९४.अंतो वियार असई, अचियत्त सगार दुज्जणवते वा।। देवकुल में ठहर गया। बाहिं तु वयंतीणं, अपत्त-पत्ताणिमे दोसा।। २२००.महिलाजणो य दुहितो, ग्राम के अभ्यन्तर में विचारभूमी के अभाव में, अप्रीतिक निक्खमण पवेसणं च सिं दुक्खं। शय्यातर की भूमी में अथवा वह पुरोहड दुर्जनमनुष्यों द्वारा सामत्थणा य तेसिं, परिवृत है तो वहां से ग्राम बाहर जाते हुए स्थंडिल भूमी को गो-माहिससन्निरोधो य॥ प्राप्त या अप्राप्त के विषय में ये दोष होते हैं। आभीर की औरतें बहुत दुःखी हो जाती हैं। इस स्थिति २१९५.वीयाराभिमुहीओ, साहुं दट्टण सन्नियत्ताओ। में साध्वियों के निष्क्रमण और प्रवेश दुष्कर हो जाता है। लहुओ लहुया गुरुगा, छम्मासा छेद मूल दुगं॥ पर्यालोचन हुआ कि महिलाजनों को बाधा होती है। अतः विचारभूमी के अभिमुख जाती हुई साध्वियां साधु को किसी उपाय से इस भोजिक को अन्यत्र भेज देना चाहिए। देखकर यदि निवर्तित होती है तो लघुमास, आगाद अतः उन्होंने वहां गाय और भैंस आदि को बांधकर निरोध परितापना होने पर चतुर्गुरु, महादुःख होने पर षडलघु, कर डाला। मूर्छा होने पर षड्गुरु, दुःख पाने पर छेद, श्वास कृच्छ्र हो २२०१.विगुरुब्वियबोंदीणं, खरकम्मीणं तु लज्जमाणीओ। जाए तो मूल, समुद्घात होने पर अनवस्थाप्य और मृत्यु हो भंजंति अणिंतीओ, गोवाड-पुरोहडे महिला॥ जाने पर पारांचिक प्रायश्चित्त विहित है। २२०२.इति ते गोणीहिं समं, धिइमलभंता उ बंधिउं दारं। २१९६.एसो वि तत्थ वच्चइ, नियत्तिमो आगयम्मि गच्छामो। गामस्स विवच्छाओ, बाहिं ठाविंसु गावीओ॥ लहुओ य होइ मासो, परितावणमाइ जा चरिमं॥ भोजिक के कर्मकर जो वस्त्राभूषणों से अलंकृत थे, उनसे _ 'यह मुनि भी उसी विचार भूमी में जा रहा है'-यह लज्जा करती हुई स्त्रियां बाहर न जाती हुई गोवाटक तथा सोचकर यदि साध्वियां निवर्तित हो जाती हैं और सोचती हैं पुरोइड में ही शंका से निवृत्त होने लगी। मुनि के लौट जाने पर हम जाएंगी तो लघुमास का प्रायश्चित्त यह सोचकर आभीरी स्त्रियां धैर्य को प्राप्त न करती हुई आता है और संज्ञानिरोध से होने वाला अनागाढ़, परितापन अपने साथ बिना बछड़ों के केवल गायों को लेकर बाहर आदि में पूर्व श्लोकोक्त चरम-पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आईं और गांव के द्वार पर उन्हें बांध दिया। वे गाएं अपने प्राप्त होता है। बछड़ों के लिए सारी रात जोर-जोर से चिल्लाने लगी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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