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दूसरा उद्देशक ३६५९.उवगरणं चिय पगयं,
तस्स विभागो उ बितिय-चरिमम्मि। आहारो वा वुत्तो,
इदाणि उवधिस्स अधिकारो॥ पूर्वसूत्र में उपकरण का अधिकार था। अतः उपकरण के विभाग की प्ररूपणा द्वितीय उद्देशक के अंतिम दो सूत्रों में है। अथवा पूर्वसूत्र में आहार का कथन था, प्रस्तुत सूत्र में उपकरण का अधिकार है। ३६६०.ताई विरूवरूवाई देइ वत्थाणि ताणि वा घेत्तुं।
सेस जतीणं देज्जा, तत्थ इमे पंच कप्पंति॥ शय्यातर उन विरूपरूप वस्त्रों को अपने पूज्य कलाचार्य आदि को देता है। वे पूज्य व्यक्ति उनमें से बचे वस्त्रों को यतियों को देते हैं। उन दीयमानवस्त्र में से इन पांच प्रकार के वस्त्रों को ग्रहण करना कल्पता है। ३६६१.जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिंदियं च पंचिंदी। ___एक्केवं पि य एत्तो, होति विभागेणऽणेगविहं॥
जंगम प्राणियों से उत्पन्न जंगिक कहलाता है। वह द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय प्राणियों से निष्पन्न होता है। इनमें प्रत्येक विभाग के अनेक प्रकार होते हैं। ३६६२.पट्ट सुवन्ने मलए, अंसुग चीणंसुके च विगलेंदी।
उण्णोट्टिय मियलोमे, कुतवे किट्टे त पंचेंदी॥ विकलेन्द्रिय से निष्पन्न-पट्टसूत्रज, सुवर्ण-सुवर्ण वर्णवाले सूत्र कई कृमियों के होते हैं, उनसे निष्पन्न, मलयज-मलय देश में उत्पन्न, अंशुक-चिकने या सूक्ष्म तंतुओं से बना, चीनांशुक-कोशिकार नामक कृमि से निष्पन्न अथवा चीन देश में निष्पन्न। पंचेन्द्रिय से निष्पन्न और्णिक, औष्ट्रिक, मृगरोमज, कुतप छाग के रोम से निष्पन्न और किट्टपंचेन्द्रिय प्राणी (छाग आदि) के रोम से निष्पन्न । ३६६३.अतसी-वंसीमादी, उ भंगियं साणियं च सणवक्के।
पोत्तय कप्पासमयं, तिरीडरुक्खा तिरिडपट्टो॥ अतसीमय अथवा वंशकरीत से निर्मित भांगिक, सनवृक्ष की छाल से निर्मित सानक, कार्पासमय पोतक तथा तिरीटवृक्ष की छाल से निर्मित तिरीटपट्टक कहलाता है। ३६६४.पंच परूवेऊणं पत्तेयं गेण्हमाण संतम्मि।
कप्पासिगा य दोण्णि उ, उण्णिय एक्को य परिभोगो।। इन पांच प्रकार के वस्त्रों (जांगिक, भांगिक, सानक, पोतज और तिरीटपट्ट) की प्ररूपणा कर प्रत्येक साधु के प्रायोग्य वस्त्र ग्रहण करते हुए यदि प्राप्ति हो तो कासिक कल्प और एक और्णिक कल्प का उपभोग करना चाहिए।
३६६५.एक्कोन्नि सोत्ति दोण्णी,
तिण्णि वि गेण्हिज्ज उण्णिए लहुओ। पाउरमाणे चेवं,
अंतो मज्झे व जति उण्णी॥ एक और्णिक और दो सौत्रिक कल्प-प्रत्येक मुनि के लिए ग्राह्य है। यदि तीनों कल्प और्णिक या सौत्रिक ग्रहण किए जाते हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त है। यदि एक और्णिक कल्प को ही प्रावरण के काम में लेता है, अथवा अन्तर या मध्य में और्णिक (दोनों सौत्रिक कल्पों के मध्य भाग में) का प्रावरण करता है तो भी मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। ३६६६.अभिंतरं व बाहिं, बाहिं अभिंतरं करेमाणे।
परिभोगविवच्चासे, आवज्जइ मासियं लहुअं॥ जो मुनि प्रावरणों का व्यत्यय करता है अर्थात् अभ्यंतर प्रावरण को बाहर और बाहर प्रावरण को अभ्यन्तर में प्रयोग करता है, उसे मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। (विधि यह है-सौत्रिक भीतर और और्णिक बाहर।) ३६६७.छप्पइय-पणगरक्खा , भूसा उज्झायणा य परिहरिया।
सीतत्ताणं च कतं, खोम्मिय अभिंतरे तेण॥
और्णिक को भीतर रखने पर जूंएं पड़ जाती हैं और उसमें पनक लग सकती है। विधियुक्त उसका परिभोग होने पर पनक की रक्षा हो सकती है। सौत्रिक को बाहर रखने से विभूषा होती है। इस विधि से परिभोग करने पर 'उज्झायणा'-दुर्गन्ध का भी परिहार हो जाता है। इससे शीतत्राण भी होता है। अतः क्षौमिक अर्थात् कासिक वस्त्र को भीतर ओढ़ा-पहना जाए। ३६६८.कप्पासियस्स असती, वागय पट्टे य कोसियारे य।
असती य उण्णियस्सा, वागत कोसेज्ज पट्टे य॥ यदि कासिक वस्त्र की प्राप्ति न हो तो वल्कज, उसके अभाव में पट्टवस्त्र और उसके अभाव में कौशिकारवस्त्र ग्रहण करे। और्णिक वस्त्र के अभाव में वल्कज, उसके अभाव में कौशेय, उसके अभाव में पट्टज वस्त्र ग्राह्य होता है। ३६६९.ण उण्णियं पाउरते तु एक्वं,
दोण्णी जता खोम्मिय उण्णियं च। दो सुत्ति अंतो बहि उण्णि तीसु,
दुगादि उण्णी वि बहिं परेणं॥ केवल एक और्णिक कल्प का प्रावरण न करे। अकेले सौत्रिक कल्प का प्रावरण किया जा सकता है। जब दो कल्पों का परिभोग करना होता है तब सौत्रिक भीतर और और्णिक बाहर। तीनों कल्पों का परिभोग, करना हो तो दो सौत्रिक भीतर और एक और्णिक बाहर। यदि दो-तीन
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