________________
३६८
जाने पर या अनिसृष्ट-न दिए जाने पर ग्रहण - अग्रहण करने में ये दोष होते हैं।
३५८७. उप्पत्तियं वा वि धुवं व भोज्जं,
तस्सेव मज्झम्मि उ वाडगस्स ।
अमिस्सिते सागरिचोल्लगम्मि,
अहिं सो चेव उ तस्स पिंडो ॥ शय्यातर के वाटक के मध्य देवकुलिका को वानमंतर देव के उद्देश्य से लोग संखडी करते हैं। वह दो प्रकार की होती है- औत्पत्तिकी अर्थात् आकस्मिक, जब कभी की जाने वाली और ध्रुव अर्थात् पर्वतिथियों (नवमी, दशमी) में की जाने वाली। वहां अन्य भोजनों के साथ शय्यातर को भोजन मिश्रित न हो तो वह भोजन लिया जा सकता है। केवल वही भोजन शय्यातरपिंड होता है, जो शय्यातर का अपना है।
३५८८. भद्दो तन्नीसाए, पंतो घेप्पंते दहूणं भणइ । अंतोघरे ण इच्छह, इह गहणं दुट्ठधम्मो त्ति ॥ जो शय्यातर भद्रक होता है, वह देवबली के साथ अपने निश्रा के भोजन का प्रक्षेप कर देता है। जो शय्यातर प्रान्त होता है, वह उसको ग्रहण करते हुए देखकर कहता है - अन्तरगृह में दिया जाने वाला पिंड आप लेना नहीं चाहते और इस प्रकार ग्रहण करते हैं। आप दुष्टधर्मा हैं।
३५८९. तेसु अगिण्हंतेसु य, तीसे परिसाए एवमुप्पज्जे ।
को जाणइ किं एते, साहू घेत्तुं ण इच्छंति ॥ जब वे साधु शय्यातर के निवेदनापिंड नहीं लेते, तब संखडी करने वाले लोगों की परिषद् को यह चिंता होती है - कौन जानता है कि ये साधु इस शय्यातरपिंड को लेना क्यों नहीं चाहते ?
३५९०. नूनं से जाति कुलं व गोत्तं,
Jain Education International
आगंतुओ सो य तहिं सगारो ।
भूणग्धऽसोयं व ततो च्चएवि, जं अम्ह इच्छंति ण सेज्जदातुं ॥ निश्चित ही ये साधु शय्यातर के कुल और गोत्र को जानते हैं। वह शय्यातर इस गांव में आगंतुक है (बाहर से आया हुआ है। ) । इसलिए इसके कुल और गोत्र को कोई नहीं जानता। वे लोग सोचते हैं यह शय्यातर 'भ्रूणघ्न'बालमारक है, अशौच है इसलिए ये मुनि इसके भोजन को छोड़कर हमारा पिंड लेना चाहते हैं । शय्यादाता के पिंड को लेना नहीं चाहते ।
३५९१. ओभामिओ णेहि सवासमज्झे,
चंडालभूतो य कतो इमेहिं ।
गेहे वि णिच्छंति असाधुधम्मा,
अतो परं किं व करेज्ज अण्णं ॥ तब शय्यातर यह सोचता है - मैं अपने सहवासीलोगों के मध्य इन श्रमणों से अवमानित हुआ हूं। मैं इनके द्वारा चंडालतुल्य बना दिया गया हूं। ये असाधुधर्मा मुनि मेरे घर से पिंड लेना भी नहीं चाहते। इससे आगे अब वे मेरा और क्या करना चाहते हैं ?
३५९२. राओ दिया वा वि हु णेच्छुभेज्जा,
बृहत्कल्पभाष्यम्
एगस्स गाण व सेज्जछेदं ।
अद्वाण णिता व अलंभे जं तू,
पावेज्ज तं वा वि अगिण्हमाणा ॥ तब वह रात में या दिन में श्रमणों को प्रतिश्रय से निकाल देता है। इस प्रकार एक या अनेक मुनियों के लिए शय्या का व्यवच्छेद कर देता है। तब अध्व में निर्गत मुनि वसति के अलाभ से जो परिताप आदि प्राप्त करते हैं उसके मूल जनक वे मुनि हैं जिन्होंने उस शय्यातर के पिंड को ग्रहण नहीं किया था ।
३५९३. संसस्स उ गहणे, तहियं दोसा इमे पसज्जंति ।
तण्णीसाए अभिक्खं, संखडिकारावणं होज्जा ।। अन्य भोजन से संसृष्ट शय्यातरपिंड ग्रहण करने से ये दोष उसकी निश्रा से उत्पन्न होते हैं - वह शय्यातर यह सोचता है - यदि अन्यपिंड से संसृष्ट मेरा पिंड इन श्रमणों को कल्पता है तो मैं बार-बार इनको पिंड दूंगा - यह सोचकर बार-बार संखडी करने के लिए लोगों को प्रेरित करता है।
३५९४. अलऽम्ह पिंडेण इमेण अज्जो !,
साहू ण इच्छंति इमस्स दोसा,
For Private & Personal Use Only
भुज्जो ण आणेति जहेस इत्थं ।
अम्हे विवज्जेमु ण को वि एस ॥ तब साधु गृहस्थों को कहते हैं - आर्य ! इस संसृष्टपिंड से हमारा बहुत हो चुका। वे ऐसा इसलिए कहते हैं, जिससे कि वह शय्यातर फिर पिंड नहीं लाता। यह सुनकर गृहस्थ सोचते हैं- 'यदि इस शय्यातर के दोष के कारण मुनि यह पिंड लेना नहीं चाहते तो हम भी इसके साथ दान ग्रहण आदि का व्यवहार की वर्जना करेंगे। यह आगंतुक होने के कारण यह जान नहीं सकेगा।
www.jainelibrary.org