SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीठिका दीकि जो सुना हुआ है अथवा जो उत्तम मेधावी है, उसको सूत्र और अर्थ-दोनों दिए जाते हैं। वह भी उभयकल्पिक है। ४११. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। ___दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा। जो आचार्य असमाप्तसूत्र वाले शिष्य को उपस्थापना देते हैं तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। वह उभय गुरुक होता है-काल से गुरु तथा तप से भी गुरु। जिस शिष्य ने सूत्र समाप्त कर दिया है, उस शिष्य को अर्थ कहे बिना जो उपस्थापना देते हैं उनको चार लधुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वह काल से लघु तथा तप से गुरु होता है। अर्थ का कथन कर देने पर भी जो उसे अभी तक अधिगत-हृदयंगम नहीं कर पाया है, उसको उपस्थापना देने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है, तप से लघु तथा काल से गुरु। जो शिष्य की परीक्षा किए बिना उपस्थापित करता है, उसमें चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, तप और काल दोनों से लघु। (यह प्रायश्चित्त ही नहीं, आज्ञाभंग आदि दोष भी आते हैं। इसलिए षड्जीवनिकासूत्र जिसने अभी तक पढ़ा नहीं है, न उसने उसके अर्थ को अधिगत किया है और न उसकी परीक्षा ली है-ऐसे शिष्य को उपस्थापना नहीं देनी चाहिए। ४१२. जीवा-ऽजीवाभिगमो, चरित्तधम्मो तहेव जयणा य। उवएसो धम्मफलं, छज्जीवणियाएँ अहिगारा॥ षड़जीवनिकाय के पांच अधिकार हैं-१. जीवाजीवाभिगम २. चारित्रधर्म ३. यतना ४. उपदेश ५. धर्मफल। ४१३. पव्वावण मुंडावण, सिक्खावण उवट्ठ संभंजणा य संवसणा। एसो उ दवियकप्पो, छव्विहतो होति नायव्वो॥ द्रव्यकल्प छह प्रकार का होता है-१. प्रव्राजना २. मुंडापना ३. शिक्षापन ४. उपस्थापना ५. सहभोजन ६. संवसन।' ४१४. पढिए य कहिय अहिगय, परिहर उवठावणाए सो कप्पो। छक्कं तीहिं विसुद्धं, परिहर नवगेण भेदेण॥ उपस्थापना कैसे? आचार्य पहले सूत्र पढ़ाए, फिर अर्थ का कथन करे, फिर उसकी परीक्षा करे कि अर्थ अधिगतआत्मसात् हुआ या नहीं, इतना हो जाने पर वह शिष्य छह जीवनिकायों का, तीन की शुद्धि से अर्थात् मन, वचन और काया की विशुद्धि से परिहार करता है। यह परिहार नौ भेदों से होता है। (मन से स्वयं परिहार करता है, दूसरों से परिहार करवाता है और परिहार करने वाले अन्य का अनुमोदन करता है। इसी प्रकार वचन से और काया से भी। यह उपस्थापनाकल्प है।) १. इनकी संपूर्ण विधि वृ. पृ. १२० में है। ४१५. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणम्मि चउगुरुगा। दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि बी लहुगा।। ४१६. पढिते य कहिय अहिगय, परिहरति वियारकप्पितो सो उ। तिविहं तीहि विसुद्धं, परिहर नवगेण मेदेणं॥ सप्तसप्तक (आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कंध की दूसरी चूलिका) अथवा ओघनियुक्ति को न पढ़े हुए एकाकी शिष्य को विचारभूमी में भेजने पर प्रायश्चित्त है-चार गुरुमास। वे तप और काल दोनों से गुरु होते हैं। सूत्र की वाचना दे दिए जाने पर, अर्थ का कथन देने पर भी, अर्थ अधिगत हुआ या नहीं इसकी परीक्षा किए बिना यदि विचारभूमी में भेजा जाता है तो प्रत्येक क्रिया से संबंधित प्रायश्चित्त है चार लघुमास का। ये काल और तप-दोनों से लघु होते हैं। सूत्र को पढ़ लेने, अर्थ का कथन हो जाने, अर्थ के अधिगम की परीक्षा हो जाने पर, वह शिष्य तीन प्रकार के स्थंडिल-सचित्त, अचित्त और मिश्र का विवेक कर तीन करण और तीन योग से अर्थात् नवक भेद से अस्थंडिल का परिहार करता है, वह विचारकल्पिक होता है। ४१७. भेया सोहि अवाया, वज्जणया खलु तहा अणुण्णा य। कारणविही य जयणा, थंडिल्ले होति अहिगारा॥ स्थंडिल के ये अर्थाधिकार हैं१. भेद ५. अनुज्ञा २. शोधि-प्रायश्चित्त ६. कारणविधि ३. अपाय ७. यतना ४. वर्जन ४१८. अच्चित्तेण अचित्तं, मीसेण अचित्त छक्कमीसेणं। सच्चित्त छक्कएणं, अचित्त चउभंग एक्केके। मार्ग की अपेक्षा से अचित्त स्थंडिल के तीन भेद होते हैं.-- १. अचित्त स्थंडिल और अचित्त मार्ग। २. अचित्त स्थंडिल और षट्काय से मिश्रित मार्ग। ३. अचित्त स्थंडिल और सचित्त मार्ग-षट्काय से आक्रांत। इसी प्रकार मिश्र स्थंडिल तथा सचित्त स्थंडिल से संबंधित तीन-तीन भेद हैं। अचित्त, मिश्र और सचित्त। स्थंडिल से संबंधित चतुर्भूगी आगे के श्लोकों में। ४१९. अणवायमसंलोए, अणवाए चेव होति संलोए। आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए। वह चतुभंगी इस प्रकार है१. अनापात असंलोक। ३. आपात असंलोक। २. अनापात संलोक। ४. आपात संलोक। (इन चारों भंगा में संयतों के लिए प्रथम भंग अनुज्ञात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy