SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका कल्पशब्द : अर्थमीमांसा नन्दीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत आगम का नाम कल्पसूत्र है। वृत्तिकार ने कल्पशब्द के अनेक अर्थ बताते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा। औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः। सामर्थ्य, वर्णन, छेदन, क्रिया, उपमा और अधिवास-इन अर्थों में कल्प शब्द प्रयुक्त हो सकता है। प्रत्येक अर्थ का उदाहरण के रूप में प्रयोग किया गया है, जैसेसामर्थ्य-वर्षाष्टप्रमाणश्चरणपरिपालने कल्पः समर्थ इत्यर्थः। आठ वर्ष की अवस्था वाला साधुत्व का पालन करने में समर्थ है। वर्णन-अध्ययनमिदमनेन कल्पितम, वर्णितमित्यर्थः। इस अध्ययन का वर्णन इसके द्वारा किया गया है। छेदन-केशान् कर्त्तर्या कल्पयति, छिनत्तीत्यर्थः । कैंची (कतरनी) से केश काटता है। क्रिया-कल्पिता मयाऽस्याऽऽजीविका कृता इत्यर्थः। मैंने इसके लिए आजीविका की व्यवस्था की। उपमा-सौम्येन तेजसा च यथाक्रममिन्दुसूर्यकल्पाः साधवः। सौम्यता और तेजस्विता के आधार पर साधुओं को क्रमशः चन्द्रमा और सूर्य से उपमित किया जा सकता है। अधिवास-सौधर्मकल्पवासी शक्रः सुरेश्वरः । देवेन्द्र शक्र सौधर्म नामक प्रथम स्वर्ग में वास करता है। कल्पसूत्र के प्रसंग में उपर्युक्त सभी अर्थों में कल्पशब्द का प्रयोग घटित हो सकता है।' भाष्यकार द्वारा कृत मंगल कल्प शब्द की व्याख्याविधि बताने के इच्छुक भाष्यकार ने अपने लक्ष्य की सफलता के लिए मंगल का प्रयोग किया है। मंगल के लिए उन्होंने नन्दी शब्द का प्रयोग किया है। यह पंचात्मक ज्ञान का प्रतीक है। पंचात्मक ज्ञान के अपेक्षा भेद से कई प्रकार किए गए हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से वह दो प्रकार का है। प्रत्यक्षज्ञान के तीन भेद हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। परोक्षज्ञान के दो भेद हैं-आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान। श्रुतज्ञान के चौदह प्रकार हैं। अथवा श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-अंगगत/अंगप्रविष्ट और अनंगगत/अंगबा। यहां प्रकृत है मंगलार्थ नंदी। उसका कथन करना चाहिए। मंगल के निमित्त पांच ज्ञानों की प्ररूपणा की गई। किन्तु यहां श्रुतज्ञान का अधिकार है, प्रसंग है। क्योंकि श्रुतज्ञान से ही शेष ज्ञानों का तथा अनुयोग का कथन होता है। यहां प्रदीप का दृष्टान्त ज्ञातव्य है। जिस प्रकार प्रदीप घट आदि पदार्थों का तथा स्वयं का प्रकाशक होता है, वैसे ही श्रतज्ञान शेष ज्ञानों तथा स्वयं का अनयोगकारक श्रुतज्ञान का अधिकार है। उस श्रुतज्ञान के भी उद्देशक, समुद्देशक, अनुज्ञा और अनुयोग-ये चार अंग होते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में अनुयोग का अधिकार है। १. बृभा. वृ. पृ. ४। ३. बृभा. गा. १४८॥ २. बृभा. गा.३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy