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भूमिका
ग्रंथकार ने एक तर्क यह दिया कि पेटी की तरह सूत्र विशद होता है और अर्थ थोड़ा होता है। प्रस्तुत उदाहरण भी ग्राम्य है। क्योंकि उसी पेटी से एक वस्त्र निकालकर अनेक पेटियों को बांधा जा सकता है। इसी प्रकार एक अर्थ से अनेक सूत्र पहले उसी अर्थ के आधार पर बनते हैं। इस दृष्टि से वस्त्रस्थानीय अर्थ ही महत्त्वपूर्ण घटित होता है।' व्याख्या के लक्षण
अर्थ और सूत्र की मीमांसा के बाद सूत्र के लक्षण, दोष और गुण बताए गए हैं। गुण-दोष की चर्चा के अनन्तर सूत्र के उच्चारण की पद्धति का निर्देश है। उस पद्धति का अतिक्रमण होने पर संभावित कठिनाइयों को उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है तथा प्रायश्चित्त का संकेत भी किया गया है। इस समग्र प्रकरण को भाष्य की वृत्ति के साथ पढ़ा जाए तो भाष्यकार की बहुश्रुतता स्वतः मुखर हो जाती है। शास्त्रोक्त विधि से सूत्र का पाठ करने पर उसकी व्याख्या का प्रसंग उपस्थित होता है। भाष्यकार ने व्याख्या के छह लक्षण बताए हैं-संहिता, पद, पदार्थ, पदविग्रह, चालना और प्रत्यवस्थान।२ मतान्तर से व्याख्या के पांच विकल्प निर्दिष्ट किए गए हैं-सूत्रोच्चारण, पद, पदार्थ, पदविक्षेप और निर्णयप्रसिद्धि। सामान्यतः पाठक के लिए उक्त शब्द दुर्बोध प्रतीत होते हैं, किन्तु वृत्ति और भाष्य का हिन्दी अनुवाद सामने होने पर ये बोधगम्य बन जाते हैं।
भाष्यकार का उद्देश्य केवल कल्पसूत्र के सूत्रों की व्याख्या तक सीमित नहीं था। जिस किसी प्रसंग से उन्होंने अपने बहुमुखी ज्ञान को भाष्य की गाथाओं में पिरोने का प्रयास किया है। और तो क्या, संस्कृत-व्याकरण के अनेक पहलुओं को इतनी सहजता से गाथाओं में गूंथ दिया कि व्याकरण के सामान्य नियमों को समझने वाला भी उनके आधार पर व्याकरण के गंभीर ज्ञान को उपलब्ध कर सकता है। सूत्रग्रहण की अर्हता
सूत्र के बारे में विशद विश्लेषण करने के बाद भाष्यकार ने सूत्र-ग्रहण की अर्हता और कल्पसूत्र को ग्रहण करने के योग्य परिषद् की परीक्षा के लिए चौदह दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं-शैलधन, कुटक, चालिनी, परिपूणक, हंस, महिष, मेष, मशक, जलौका, बिडाली, जाहक, गौ, भेरी तथा आभीरी।' प्रत्येक दृष्टान्त को भाष्य गाथाओं में ही कुछ विस्तार से बताया गया है। निष्कर्ष रूप में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि किन दृष्टान्तों के प्रतिरूप शिष्य वाचना के योग्य या अयोग्य होते हैं। अयोग्य शिष्यों को वाचना देने वाले और योग्य शिष्यों को वाचना न देने वाले आचार्य प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
परिषद् की परीक्षा विधि का निरूपण करने के बाद भाष्यकार ने उसके तीन प्रकार बतलाए हैं-ज्ञायक परिषद्, अज्ञायक परिषद् और दुर्विदग्ध परिषद्। इन तीनों परिषदों के स्वरूप एवं प्रकारों की भी विस्तृत चर्चा की गई है। इसी श्रृंखला में लौकिक तथा लोकोत्तर परिषदों के प्रकार भी समझाए गए हैं। समग्र प्रकरण को पढ़ने से प्रतीत होता है कि भाष्यकार की ज्ञान-चेतना कितनी विकसित थी। वृत्तिकार ने भी भाष्यकार के कथ्य को विस्तार से प्रतिपादित कर अपने प्रतिभा-कौशल का परिचय दिया है। प्रथम सूत्र की व्याख्या
'बृहत्कल्पसूत्र' का प्रथम सूत्र है-'नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए'इस छोटे-से सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने एक सौ पिच्यानवे गाथाएं लिखी हैं। छोटा-सा सूत्र और व्याख्या में इतना विस्तार अपने आप में एक आश्चर्य है। भाष्यकार ने सूत्र के प्रत्येक शब्द की समग्र रूप से शल्य-चिकित्सा की है। सूत्र की व्याख्या के लिए जो अनुशासन निर्दिष्ट किया गया है, उसका अनुसरण करते हुए चालना/प्रश्न का उत्थापन और प्रत्यवस्थान/समाधान का खुलकर प्रयोग किया गया है।
१. बृभा. वृ. पृ. ६२,६३। २. बृभा. गा. ३०२। ३. बृभा. गा. ३०९। ४. बृभा. गा. ३२५-३२७।
५. बृभा. गा.३३४-३६३। ६. बृभा. गा. ३६४-३७२। ७. बृभा. गा. ३७८-३९८ वृ. पृ. ११२-११६।
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