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________________ विषयानुक्रमणिका= गाथा संख्या विषय ३५५६ अनेक शय्यातर वसति होने पर उनसे शय्यादिक ग्रहण संबंधी चर्चाएं। ३५५७-३५६२ एक वसति के पिता-पुत्र दोनों के स्वामी होने पर, उनसे पिंडादिक ग्रहण करने की यतनाएं और लगने वाले दोषों का स्वरूप। ३५६३-३५६७ शय्यातर के देशान्तर जाने पर उसकी अनेक पत्नियों वाली वसति से पिंडादि ग्रहण संबंधी यतनाएं और दोषों का वर्णन। ३५६८ देशान्तर जाने का इच्छुक कोई व्यक्ति यदि गांव के बाहर रहता है उससे पिंडादिक ग्रहण करने की कल्पनीय-अकल्पनीय विधि। ३५६९-३५७३ देशान्तर के लिए प्रस्थित वणिक् से पिंडादिक ग्रहण संबंधी यतनाएं और उनका संखड़ी, अटवी आदि पदों द्वारा निरूपण। ३५७४-३५७८ महत्तर, अनुमहत्तर ललितासन, कटुक और दंडपति से परिगृहीत गोष्ठियों का वर्णन। उनसे संबंधित वसति, पिंड आदि ग्रहण करने की यतनाएं आदि। ३५७९-३५८१ शय्यातर के गोकुल से दूध आदि ग्रहण करने की कल्पनीय विधि। ३५८२-३५८४ अपवाद पद में अनेक शय्यातर होने पर एक शय्यातर की स्थापना। शेष शय्यातरों का भक्तपान कल्पनीय। सूत्र १४ ३५८५ संसृष्ट पिंड ग्रहण की वर्जना। ३५८६ वानव्यंतर को बलि चढ़ाने के लिए किए हुए भक्त का ग्रहण-अग्रहण दोषकारी। ३५८७ 'संखड़ी' के प्रकार। उसमें शय्यातर का भोजन मिश्रित न हो तो उसका ग्रहण कल्पनीय। ३५८८-३५९१ भद्रक और प्रान्त शय्यातर का चिंतन। ३५९२ प्रान्त शय्यातर के पिंड को ग्रहण न करने का परिणाम। ३५९३-३५९५ अन्य भोजन से संसृष्ट शय्यातर के पिंड को ग्रहण करने के अनेक दोषों का वर्णन। सूत्र १५,१६ ३५९६ शय्यातर के वाटक से बाहर निष्कासित असंसृष्ट पिंड लेने में दोष। ३५९७ सागारिक दृष्ट का परिहार करने के कारण। ३५९८ संसृष्ट पिंड का ग्रहण अनुज्ञात कब और कैसे? गाथा संख्या विषय ३५९९ प्रसंग आदि दोष कब नहीं ? ३६००-३६०२ सागारिक पिंड की कल्पनीयता कब और कैसे? सूत्र १७ ३६०३-३६०५ असंसृष्ट को संसृष्ट करने में प्रायश्चित्त का विधान तथा संयम और आत्मविराधना आदि दोष। ३६०६ संयत भाजन में डाला हुआ द्रव्य का अपहरण होने पर कर्मबंध विषयक मत-मतान्तर। कर्मबंध कब तक? उसका समाधान। ३६०७ संयत द्वारा स्पृष्ट भोजन से होने वाले दोष। ३६०८ संसृष्ट भोजन कराने, अनुमोदना करने से लगने वाले दोष। ३६०९,३६१० लोकोत्तर मर्यादा और लौकिक मर्यादा का अतिक्रमण होने पर अथवा स्वयं करने तथा दूसरों से करवाने पर प्रायश्चित्त। ३६११ एक द्रव्य को दूसरे में प्रक्षिप्त करने पर कलह आदि दोषों की उत्पत्ति। ३६१२ स्वयं संयती संसृष्टपिंड कब कर सकती हैं ? ३६१३ संसृष्ट किससे कराया जाए? उसकी प्रज्ञापना। ३६१४,३६१५ गीतार्थ-अगीतार्थ मुनियों के कौन सा सागारिक पिंड ग्रहणीय ? संसृष्ट कराने का हेतु। सूत्र १८,१९ ३६१६ आहृत सागारिक पिंड का प्रतिपादन। ३६१७-३६२४ आहृतिका का अर्थ तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से उसका स्वरूप तथा अवान्तर भेद। ३६२५ पहले और चौथे भंग के आधार पर कुछ आचार्यों की सागारिक द्वारा अपरिगृहीत आहृतिका के ग्रहण के कल्पनीयता की पुष्टि। ३६२६ कुछेक आचार्यों की प्ररूपणा-जो आहृतक शय्यातर के घर से निष्कासित है, दूसरों के हाथ में है, वह कल्पनीय है। ३६२७-३६३० आचार्य द्वारा सूत्र में विधि, वारणा और विधि से निरूपण तथा पूर्वापर विरुद्ध और पारंपरिक अर्थ से युक्त प्रमाण सूत्र की संगति का निर्देश। ३६३१ अगीतार्थ सागारिक आहृतिका पिंड का ग्रहण क्यों करते है ? ३६३२-३६३४ आहृतिका कब और कैसे कल्पनीय होती है? उसका वर्णन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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