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=बृहत्कल्पभाष्यम्
पहली है-पूरयंतिका-महाजनों से पूरित। दूसरी है- ३८४. आवासगमादी या (जा), सुत्तकड पुरंतिया भवे परिसा। छत्रान्तिका वितीर्णछत्रवाली। तीसरी है बुद्धिपर्षत्-स्वसमय दसमादि उवरिमसुया, हवति उ छत्तंतिया परिसा॥ में कुशल। चौथी है-मंत्री पर्षद और पांचवी है रोहिणीया-- इसी प्रकार लोकोत्तर पर्षद् के पांच प्रकारों की व्याख्या अन्तःपुर-महत्तरिका।
यह है-आवश्यक सूत्र से प्रारंभ कर सूत्रकृतांग पर्यन्त श्रुत ३८०.नीहम्मियम्मि पूरति, रण्णो परिसा न जा घरमतीति। का अध्ययन कर लेने वाली पर्षद् पूरयंती कहलाती है।
जे पुण छत्तविदिन्ना, अयंति ते बाहिरं सालं॥ दशाश्रुतस्कंध से उपरितन सारे श्रुत का अध्ययन करने ३८१. जे लोग-वेय-समएहिं कोविया तेहिं पत्थिवो सहिओ। वाली पर्षद् छत्रान्तिका कहलाती है। (इसमें परिणामिक
समयमतीतो परिच्छइ, परप्पवायागमे चेव॥ शिष्यों का निवारण नहीं किया जाता, किन्तु जो ३८२. जे रायसत्थकुसला, अतक्कुलीया हिता परिणया य। अपरिणामिक और अतिपरिणामिक हैं उनका निवारण किया
माइकुलीया वसिया, मंतेति निवो रहे तेहिं॥ जाता है।) ३८३. कुविया तोसेयव्वा, रयस्सला वारअण्णमासत्ता। ३८५. लोइय-वेइय-सामाइएसु सत्थेसु जे समोगाढा।
छण्ण पगासे य रहे, मंतयते रोहिणिज्जेहिं॥ ससमय-परसमयविसारया य कुसला य बुद्धिमती॥ पूरयंतिका पर्षद् राजा के कहीं बाहर जाने पर, महाजनों ३८६. आसन्नपतीभत्तं, खेयपरिस्समजतो तहा सत्थे। से पूरित वह राजा की पर्षद् घर नहीं जाती, जब तक कि कहमुत्तरं च दाहिसि, अमुगो किर आगतो वादी। राजा लौट कर नहीं आ जाता।
जो लौकिक, वैदिक और सामयिक शास्त्रों का सम्यक छत्रवितीर्णा पर्षद्-जिनको राजा द्वारा छत्र दिए गए हों। अवगाहन कर चुके हैं, जो स्वसमय तथा परसमय के वे राजा की बाह्यशाला तक आ सकते हैं। वे छत्रधारी विशारद हैं, जो कुशल हैं, वह बुद्धिमती पर्षत् है। इस पर्षत होते हैं।
के साथ श्रम करने से शीघ्र प्रतिभा उत्पन्न होती है तथा जो __ बुद्धि पर्षत्-जो लौकिक, वैदिक और सामयिक सिद्धांतों शास्त्र आदि की व्याख्या करने में निरंतर खेद-परिश्रम में कोविद होते हैं, उन पार्षदों सहित राजा की पर्षद् होता है, उस पर विजय प्राप्त कर ली लाती है। यह बुद्धिपर्षत होती है। अवसर प्राप्त होने पर वह राजा परप्रवादों बुद्धिपर्षत् सिखाती है कि अमुक वादी के आ जाने पर किस के जानकार उन कोविदों की परीक्षा करता है अथवा उन प्रकार से उत्तर देना चाहिए। इस प्रकार उसके साथ प्रवीण पार्षदों का परप्रवाद के आगम संबंधी ज्ञान की परीक्षा अभ्यास करने पर परवादी का सुगमतापूर्वक निग्रह किया करता है।
जा सकता है। ___ मंत्री परिषद्-जो राजशास्त्र (कौटिल्य आदि शास्त्र) में ३८७. पुव्वं पच्छा जेहिं, सिंगणादितविही समणुभूतो। कुशल होते हैं, जो राजकुल से संबद्ध नहीं हैं, जो हितान्वेषी लोए वेदे समए, कयागमा मंतिपरिसा उ॥ हैं, जो वय प्राप्त हैं, जो मातृकुलीय-माता के संबंध से संबद्ध मंत्रीपर्षद् वह होती है जिसके सदस्य पूर्व गृहवास में तथा हैं, जो राजा के अधीन हैं, उनके साथ राजा मंत्रणा करता है। पश्चात् श्रमणभाव में 'शृंगनादितविधि का अनुभव कर चुके यह मंत्री पर्षत् है।
हैं तथा जो लौकिक, वैदिक और सामयिक आगमों का रोहिणीया पर्षद्-इस परिषद् के सदस्यों का कार्य है कि पारायण कर चुके हैं। रानी राजा से कुपित हो जाए तो उसको राजी करना, ३८८. गिहवासे अत्थसत्थेहिं कोविया केइ समणभावम्मि। मनाना। जो रानी रजस्वला हो जाए उसकी सूचना राजा को कज्जेसु सिंगभूयं, तु सिंगनादिं भवे कज्ज। देना। जिसका वारक (बारी) हो उसकी सूचना देना। रानी जो गृहवास के समय अर्थशास्त्र में, श्रमण अवस्था में अन्य में आसक्त हो तो राजा को कहना। जो राजकन्या स्वसमय-परसमय में जो कोविद् हैं, वे मंत्रीपर्षद् के सदस्य विवाहयोग्य हो गई है, वह राजा को बताना। इनके अतिरिक्त हैं। जो सभी कार्यों में शृंगभूत अर्थात् मुख्य होता है, जो भी अन्य गुप्त अथवा अगुप्त तथा एकान्त में मंत्रणा-योग्य शृंगनादित' कहलाता है। हैं वे सारे विषय अथवा रतिकार्यों की इस रोहिणीया परिषद् ३८९. तं पुण चेइयनासे, तद्दव्वविणासणे दुविहभेदे। के सदस्यों से राजा मंत्रणा करता है।
भत्तोवहिवोच्छेदे, अभिवायण-बंध-घायादी। १. वे राजा, भट्ट, भोजिक आदि होते हैं तथा वे राजा की बाह्य शाला तक २. शृङ्गनादितविधिः-सर्वेषु कार्येषु मध्ये शृङ्गभूतं यत् कार्यं तत् आ जा सकते हैं। शेष लोगों की वर्जना की जाती हैं।
शृङ्गनादितमुच्यते।
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