Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਇਕ ਬੀਕ ਹੇਹੇ ਵਡੇ ਵਾਰ ਲੰਬੀ । ਬੀਤੇ .ਓ ਨ ਡ ਜ 3 - : • - ਦੀਰੀ . lਰਹੀ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AY णमो पहुं सिरि राइंद सूरिवरस्स' HICH अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (देवीअहिल्या वि.वि., इन्दौर से पीएच.डी. उपाधिप्राप्त) (शोधपंजीयन क्र. - डी.ए./93/1332) :दिव्यकृपा दृष्टि : प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. : आशीर्वृष्टि : राष्ट्रसन्त जैनाचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. : प्रेरणापुष्टि : तपस्वीरत्ना साध्वी शशीकलाश्रीजी म.सा. : सर्जनसृष्टि : साध्वी डॉ. दर्शितकलाश्री © सर्व हक्क प्रकाशक ने आधिन :प्रकाशक: श्री राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-1 KOUCHIATI al Education intemallinal Fat Private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ लेखिका शोधनिर्देशक प्रकाशक : वीर सं. 2533 प्रथम संस्करण- प्रति 1000 वि.सं. 2063 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन साध्वी डो. दर्शितकलाश्री मूल्य रुपये - 200 डो. हर्षदराय धोलकीया, डो. गजेन्द्रकुमार जैन-इन्दौर श्री राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद- १ अक्षरांकन : तपन शाह देव ग्राफिक्स, अहमदाबाद. (फोन : 99253 66776) ख्रि. सं. 2006 संपर्क : श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी जैन ज्ञान मन्दिर 216, राजा राम मोहनराय रोड, प्रार्थना समाज, मुंबई-४ राजेन्द्र सं. 100 मुद्रण : बकुल संघवी 110, सुरती बिल्डींग, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद. (फोन : 079-25322332, मो. : 9328189096, 9825189096) TUEN Shri Raj-Rajendra Prakashan Trust Hathikhana, Ratanpole, Ahmedabad-380001. श्री यतीन्द्र जैन 17 / सी, गुमास्ता नगर, राजस्थान बैंक के सामने, इन्दौर (मध्यप्रदेश) फोन : 0731-2787511 Shri Raj-Rajendra Tirth Darshan Jayantsen Museum Mohankheda Tirth, Rajgadh-454116 (Dist. Dhar) M.P. Phone : (07296) 232320, 235320 For Private & Personal use Orily elloren.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी वर्ष की... पावन पुण्यस्मृति में समर्पित है स्वर्गारोहण शताब्दी वर्ष की पावन पुण्यस्मृति में समर्पित हैं शताब्दी म पावन पुण्यरण समर्पि प्रकटप्रभावी, प्रबलप्रतापी, जगज्ज्योतिर्धर, अप्रतिमयोगीश्वर, ज्ञानाम्बुधि, विश्वकोशकर्ता, विश्वपूज्य, विश्वविख्यात, पा गुरुदेव श्री स्मृति आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के परमपावन करकमलों में श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के ये अमृतबिन्दु | शताब्दी वर्ष की • ज्ञानामृतरसास्वादशीला गुरुदेव चरणरे साध्वी दर्शितकला समर्पिताचा स्मृति . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય પૂ.સાધ્વીજી શ્રી દર્શીતકલાશ્રીજી મ.સા.ની વિદ્વતા, સંકલન શક્તિ અને સંશોધન માટે તેમને શ્રી દેવી અહલ્યા વિશ્વવિદ્યાલય-ઈન્દોર(મ.પ્ર.) દ્વારા પીએચ.ડી.ની પદવીથી અલંકૃત કરાયા. તેઓશ્રીનો આ પરિશ્રમ સરાહનીય અને અનુમોદનીય છે. તેમના દ્વારા તૈયાર કરાયેલ “અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ કી આચારપરક શબ્દાવલી કા અનુશીલન” પુસ્તકના સંકલન માટે તેઓશ્રીની ભૂરી ભૂરી અનુમોદના. પ.પૂ.રાષ્ટ્રસંત આચાર્યદેવેશ શ્રીમદ્ વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મ.સાહેબે આ પુસ્તક પ્રકાશનનો લાભ અમારા શ્રી થરાદ ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘ, મુંબઈને આપ્યો તે બદલ અમો ગૌરવ અનુભવીએ છીએ અને તેઓશ્રીના અત્યંત ઋણી છીએ. પ.પૂ.દાદા ગુરૂદેવ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના સ્વર્ગારોહણ શતાબ્દી વર્ષની ભવ્ય ઉજવણીના પુનિત પ્રસંગે ગુરૂસપ્તમીના મંગળ દિવસે શ્રી મોહનખેડા તીર્થમાં પ.પૂ.વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્ વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની પાવન નિશ્રામાં વિમોચન થઈ રહ્યું છે, એવા આ ગ્રંથને દાદા ગુરૂદેવના ચરણોમાં પુષ્પાંજલી સહ અર્પણ.. પ્રાતઃ સ્મરણીય કલીકાલ કલ્પતરૂ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શતાબ્દી વર્ષના ઉપલક્ષમાં આવા જ્ઞાન અને શાસન પ્રભાવનાના ધાર્મિક કાર્યો અમારા સંઘથી થતા રહે એવા આશીર્વાદની મનોકામના સાથે શ્રી થરાદ ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘ, મુંબઈ દ્વારા ગુરૂ ચરણોમાં સાદર વંદના સહિત સમર્પિત... શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જૈન જ્ઞાનમંદિર ૧૦મી ખેતવાડી, મુંબઈ-૪૦૦૦૦૪ with the telecast Asiati THE (પ્રમુખ : શ્રી થરાદ ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘ, મુંબઈ) સેવંતીભાઈ મણીલાલ મોરખીયા www.jainelibra org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री गोडीजी पार्श्वनाथायनमः ।। (सोनाराशेरी, थराद) RA Communicationational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री महावीरस्वामीने नमः ।। (मोटा महावीर, थराद) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री शंखेश्वरा पार्श्वनाथाय नमः ॥ (श्री शंखेश्वर तीर्थ) 280 SEA Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री नवकारापार्श्वनाथाय नमः ।। (श्री शंखेश्वर तीर्थ) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकाल कल्पतरु गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. (वि.सं. १९४८, थराद) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश रचयिता गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. अपने शिष्य परिवार के साथ 20 (अभिधान राजेन्द्रकोश पूर्णाहूति) वि.सं. १९६०, सुरत P Private & Persol Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वपूज्य, विश्वविख्यानपान स्मरणीयदादागुरुदेव श्रीमद्विजय रागोन्सूरीश्वरजीम.सा. AARY -कहीं श्री राजेन्द्ररि गुरुदेवाय नमः (समाधि मंदिर, श्री मोहनखेडा तीर्थ-म.प्र.) hain Education Tremellahal For Private & Personal use only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपम आशीर्वचन शीर्वचन नम अ अनुप पम नुपम अनुपम आशीर्वचन अनुपम आशीर्वचन 212 21raftf अनुपम आशीर्वा अनुपम आशीर्वचन अतपम आशीर्व विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी गुरुभ्यो नमः राष्ट्रसंत आचार्य विजय जयन्तसेन सूरि विश्व की अजोड कृति, अद्‌भुत ग्रन्थ श्री अभिधान राजेन्द्र कोश, जिसे 10 महिला संपूर्ण विश्व में व्यास है। जिस में जैन जैने तर ग्रन्थों का आशीर्वा संदर्भ असाधारण रूप से अलेखित हैं। प्राकृत संस्कृत में सुशोभित इस ग्रन्थ में बिजनों के लिये विभिन्न प्रकार का मार्गदर्शक संकलन संयोजिल हैं। अनु अभिधान राजेन्द्र कोश की आचार परक अनुप शब्दावली को देख प्रसभा हुई। ओ व्हेलखेडडतीर्थ हिरन 7701200 शीर्वचन बेचन आया दर्शितजीने बी. एच डी कर के ग्रन्थ क संदर्भित बातें को ओर स्पष्ट करने का प्रयास किया है जो अभिनंदनीय है। ग्रन्थ पर भी सीस लिखना सामान्य बात नहीं है। साध्वीजी को अपनी गवेषक रष्टि रख कर यह आलेखन किया है जो प्रशंसनीय है। मेरी ओर से हार्दिक अभिनंदन के साथ अशी वचन देता हूँ किसानी ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय आश की प्रवृद्धिों प्रगति करें। दार्शनिक cred शीर्वचन आशीर्वा र्वच मलाशीव Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d નવી > . 餐 શાય દીસિટ્રય નાક્ તાય સિટ્રાય નમઃ ત્રિસ્તુતિ ચૈન સંઘ ગળતાય રાષ્ટ્રસંત વર્તમાનાચાર્ય શ્રીટ્વિગય ગયંતીત સૂરીશ્રી મ.સા. *^GpJl lt: l: પ્ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी दस्तावेज सत्य की खोज, संयम की आराधना, शब्दों के रहस्योद्घाटन, वाडमय की विविधा तथा दर्शन व तत्व के चिन्तन के दोहन को जीवन के पटल पर परम योगी आचार्य गुरूदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने अनुस्युत कर अप्रतिम प्रतिभा को परिभाषित किया । उनकी जीवन साधना स्वपर कल्याण, समता, सिद्धि, समग्रता एवं सम्यक्त्व के लिए समर्पित थी । उनने आध्यात्मिक अभ्युदय के क्षेत्र में भी स्वावलंबन को मूल्यित कर त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तथा धर्म के वास्तविक स्वरूप को अनावृत्त किया । श्रमणजीवन की मर्यादाओं के अनुपालन तथा जीवन निर्वाह में तप, योग, बोध को सर्वोपरी स्थान व स्थिति पर हृदयंगम करते हुए उनने प्राकृत अर्धमागधी के शब्दो को अर्थ, भावार्थ, व्युत्पति, निर्युक्ति, संदर्भ की छैनियो से तराशा तथा उन्हें 'अभिधान राजेन्द्र कोश' के रूप में व्यवस्थित क्रमबद्ध कर मूर्तिमंत किया। एक एक शब्द को उनने आकार देकर उसमें विस्तृत अनुसंधान के माध्यम से प्राण फूंकने का श्रमसाध्य उपक्रम किया। यहां तक कि इस उदेश्य की प्राप्ति में कहीं कहीं कई शब्द कोष के तीस तीस पृष्ठों को घेरने तक अद्वितीय रूप से विस्तृत हो गये। अभिधान राजेन्द्र कोश केवल शब्दों की क्रमबद्ध सूची ही नहीं, उनके अर्थ भावार्थ का अंकन ही नहीं, उनका रूपपरक या कथ्यपरक विवेचन ही नहीं, बल्कि शब्द का सम्बद्ध विषय में अन्तरण है । वह उसका सम्पूर्ण विवेचन, विश्लेषण एवं विशिष्टीकरण करने में सफल हुआ है। अतएव इसकी श्रेणी साधारण कोश की नहीं बल्कि ज्ञानकोश / विश्वकोश है। भारतीय अध्ययेताओं ने वैदिक संस्कृति के लिए संस्कृत एवं श्रमण संस्कृति के लिए लोकभाषा को माध्यम बनाकर सर्वजन के मस्तिष्क का स्पर्श करने का प्रयास किया है। श्रमण संस्कृति में भी जैनधर्म ने प्राकृत-अर्धमागधी एवं बौद्ध धर्म ने पाली से अपनी संरचनाओं को विवेच्य स्वरूप दिया है। अर्धमागधी के शब्दों से ही जैनागमों का श्रृंगार हुआ है । गुरूदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने इन्हीं शब्दो को कसौटियों पर कस कर उनमें निहित अजस्त्र उर्जा धाराओं का उद्गम किया है। अभिधान राजेन्द्र कोश की शब्दावली आचारपरक तथा दार्शनिक है। उस तक पहुंचकर उनकी व्याख्या करने का कार्य आसान नहीं था, इसके लिए सघन परीश्रम, मेघा तथा तपःपूत प्रयास की आवश्यकता थी। किसी विषय के अंतरतल तक की शोध शैक्षणिक अध्यवसाय की मांग हो सकती है लेकिन पूज्या साध्वी डॉ. श्री दर्शितकलाश्रीजी म.सा. ने इसकी खानापूर्ति से अधिक गहराई तक जाकर विषय उदधिका मंथन करने का प्रयत्न किया है। जिसका परिणाम यह शोधप्रबंध है। जैसा कि साध्वी डॉ. श्री दर्शितकलाश्रीजी ने शोध-प्रबंध की प्रस्तावना में ही उल्लेख किया है- इस शोधकार्य का उद्देश्य जैन परंपरा की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली के एकत्रण, संकलन तथा वर्गीकरण के साथ व्युत्पत्ति तथा निरूक्ति का संदर्भ तो है ही उनके अर्थों की तुलनात्मक समीक्षा भी है। इस दिशा में उनने निश्चित उपलब्धि प्राप्त की है। उनने शब्दो को जैन दृष्टि के साथ ब्राह्मण तथा बौद्ध परम्परा के मतों से भी क्रियात्मक कर प्रस्तृत किया है। विभिन्न सम्प्रदायों में सिद्धांतों की अपनी मौलिकताओं का अंतर इस शोधकार्य द्वारा चिन्हित किया गया है । सात सो पृष्ठों के इस सर्जन ने अभिधान राजेन्द्र कोश को नाभि पर रखकर उसका वाडमय बिम्ब निर्मित किया है। प्रस्तुत वर्ष ज्ञानसम्बुद्ध, धर्मसारथी, विरल विभूति जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के निर्वाण को शताब्दी कालखंड से सुशोभित कर रहा है। इस स्वर्ण प्रसंग पर पूज्य साध्वी डॉ. दर्शितकलाश्रीजी म.सा. का यह शोधप्रबंध शताब्दी नायक के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। साध्वीजी ने गुरूदेवश्री के जीवन को विभिन्न बिन्दुओं के शीर्षकों से युक्त कर उनकी विशेषताओं का सांगोपांग उल्लेख किया है। प्रथम परिच्छेद में गुरुदेवश्री जीवनवृत्त, उनकी गुरु व गच्छ परम्परा, शिष्यवर्तुल, त्रिस्तुतिक सिद्धांत की अवधारणा, उनके व्यक्तित्व की अनूठी विशेषताओं को व्यवस्थित उपादेय बनाया है। यहीं नहीं उनके चातुर्मास की सूची, साहित्य की सूची आदि संकलित कर इसे बहुमुखी बनाया है। साध्वीश्री ने स्वयं संवेगवर्धित विचारो में अनुरंजित होकर प्रवज्या ग्रहण की है तथा जैन शास्त्रोक्त सर्वविरति मार्ग अपनाया है। वे गुरुदेवश्री की परम्परा में ही परम पूज्य राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज के गच्छाधिपत्य में सम्मिलित हैं। पूज्य राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज भी स्वयं शब्दो की अभिव्यंजना, भावों के परिष्करण, चिन्तन की सघनता तथा मूल्यों की समरसता के प्रतीक है। वे तीर्थ प्रभावक, गंभीर व्याख्यानी, संयम दानेश्वरी, कीर्ति हस्ताक्षर सुविशाल गच्छाधिपति हैं। यह ग्रंथ साध्वीजी की गुरुभक्ति का परिचायक है। साथ ही जैनदर्शन के विषयो में, गहन अभिरूचि तथा शोध में समर्पण के भाव भी इससे झलकते है । ज्ञानार्जन एवं विद्याध्ययन तपस्या है। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने पर ही ज्ञान का प्रकाश जीवन में प्रभासित हो पाता है । साध्वी डॉ. दर्शितकलाश्रीजी म.सा. ने अपनी जीवन नौका को तूफानों की ओर घुमाकर उसमें से शांति एवं आत्म प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया है। उनके प्रति वंदना सहित शत शत साधुवाद, सराहना एवं प्रशंसा के भाव अर्पित है। जीवन की अनुभूतियाँ कल्पना के साथ सामंजस्य स्थापित कर साहित्य के रूप अभिव्यक्त होती है। शोधप्रबंध का लेखन शिक्षा के आयाम का निर्माण करता है। यह ग्रंथ अनुभूतिजन्य शैक्षणिक पाठ्यक्रम की पूर्ति है अतएव इसका स्थान असाधारण का कीर्ति बिन्दु बन गया है । आशा है इससे समाज की भक्ति तृषा तथा पाठकों की ज्ञान इच्छा दोनों को सामग्री प्राप्त होगी। धन्यवाद ! सुरेन्द्र लोढा सम्पादक दैनिक 'ध्वज' वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष : अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद मंदसौर (म.प्र.) दिनाक : ६-१२-०६ For Private & Person Forg Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्यरत्ना साध्वीजी श्री शशीकलाश्रीजी म.सा. : वि.सं. १८८८ : शांताबहन : बलु रामचंदभाई जीतमलभाई : पार्वतीबहन : फागण सुद- १०, जन्म जन्मनाम पिता माता दीक्षा वि.सं. २०३२ दीक्षास्थल : थराद दीक्षादाता : आ. श्रीमद्विजय विद्याचंद्रसूरि म.सा. दीक्षा : सा.श्रीमुक्तिश्रीजी म.सा. दीक्षीत नाम : सा. श्री शशीकलाश्रीजी म.सा. विशेष रा६ होष उपर पी. सरो 821 जुन जुन सानंह या तेजो संक्षिप्त सार होन्ही मां ते बज्यो छ त कालीन सान्ह सान्ह जावीण राते शासन मां nYain प्रायम पाथरो जून जून जागज वध ते शासक हेच न गुहव तन शक्ती सत्य की शुभ मंगल लावना शशी कसा श्रीक महाराष साहेबना सुखशातर मोहनखेड़ा तीर्थ ४.१४.०५ ४२ वर्ष की उम्र में दीक्षित होकर पूज्या साध्वीजी दीक्षागुरु एवं वर्तमानाचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेनसूरीश्वरजी म.सा. के असीम आशीर्वाद प्राप्त कर चार वर्षीतप, वीशस्थानक तप, वर्धमान तप की ६८ ओली, ९९ यात्रा आदि अनेकविधतप एवं त्यागमय जीवन व्यतीय करती हुई ४६ शिष्या प्रशिष्या सह सर्वत्र जिनशासन का जयनाद कराती हूई, गुरुगच्छ का गौरव बढा रही है। मंगल आशीर्वाद प्रचंड 'पुण्य की स्वामीनी, समताधारी, सरल स्वभावीनी, तस्वीरत्ना पूज्या गुरुवर्याश्रीने अपनी शिष्या सा. डॉ. दर्शितकलाश्री को भी ईस ग्रंथ के प्रणयन में प्रेरणा एवं आशीर्वाद सह उत्साहवर्धन कीया है। ऐसी प्रसन्नमुखी, नम्रस्वभावी गुरुवर्याश्री के चरणो में शत् शत् वंदन | Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल कामना सर्व सुख का मूल कारण ज्ञान है | ज्ञान प्रकाश करनेवाला है, श्रुतज्ञान से परमार्थ का यथार्थ दर्शन होता है, ज्ञान से क्रिया सम्यग होती है, ज्ञान शीतल ज्योत्सना की तरह सभी लोगों को आल्हादित करता है, ज्ञान वैराग्यवर्धक है, ज्ञान से चारित्र की शुद्धि सद्गति और सिद्धगति प्राप्त होती है। देवदर्लभ मनुष्य जीवन में श्रमणधर्म मिलने के बावजूद भी शास्त्रों के रहस्यज्ञान की प्राप्ति अतीव दुर्लभ है, ऐसे सांप्रत समय में वात्सल्यमयी वीरवाणी से अलंकत जैनागमरहस्यज्ञाननिधि"श्री अभिधान राजेन्द्र कोश" पर आधारित प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन" की रचना में मेरी गुरू वर्या पूज्या सा.डॉ. दर्शितकलाश्री म.सा. ने धीरतावीरतापूर्वक अट्ठम एवं आयम्बिलादि के अति उग्र तप विश्वपूज्य गुरू देवश्री का जप एवं संयम जीवन के सारे अनुष्ठान करते हुए एवं मुझे भी पीएच.डी. सम्बन्धी अध्ययन करवाते हुए सर्व प्रमाद के आलम्बन को सर्वथा छोडकर सारा वक्त सतत अप्रमादी होकर, प्रसन्नतापूर्वक अनन्य श्रद्धा, संवेग एवं सम्यग्ज्ञानाराधना में एकाग्रचित्त होकर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की, जिसकी मैं आद्योपान्त साक्षी हूँ। विश्वपूज्य दादा गुरू देवश्री आचार्यदेवेश की दिव्यरुपाद्रष्टि, संयमदाता गुरू देवश्री आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. की असीम आशीवष्टि, प्रेरणा एवं मार्गदर्शन तथा पूज्या गुरू माता तपस्वीरत्ना साध्वीवर्या श्री शशीकलाश्री म.सा. की अमीद्रष्टि से ओतप्रोत यह ग्रन्थ सभी के लिए सम्यग रत्नत्रय की आराधना एवं स्वस्वरूप की साधना के लिये प्रेरणा-स्त्रोत बने यही मंगल कामना।. - साध्वी डॉ. चिन्तनकलाश्री Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतज्ञता ज्ञापन वि.सं. 2043, अश्विन शुक्ला द्वितीया की मध्यरात्रि को 11.30 बजे का नीरव समय। रानी स्टेशन (राज.), दादावाडी में मैं विश्राम कर रही थी । विश्वपूज्य प्रतिक्षणानुस्मरणीय परम योगीन्द्राचार्य गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज, जिनके प्रति शैशवावस्था से दृढ श्रद्धा, आस्था एवं श्रीचरणों में अडिग विश्वास है, स्वप्नसृष्टि में उनकी मनमोहक छवि प्रगट हुई-दुर्बलतनु किन्तु रजतरश्मियुक्त तेजस्वी काया, कमलवदन, उन्नतभाल, आकर्णनेत्रों से निःसृत अमृतवर्षायुक्त वरदमुद्रा ! उस प्रेय और श्रेय मुद्रा से दृष्टि हट नहीं सकी, मानो स्तभित हो गई। स्वप्निल सृष्टि में ही गुरुदेवश्री स्वमुखारविंद से सुमधुर स्वर में महामंत्र नवकार से कर्णकुम्भयुगल को आपूरित कर गये; शिष्या का जीवन धन्य हो गया । वि.सं. 2043 में संयमजीवन के प्रथम वर्षावास में घटी इस अलौकिक घटना में ऐसे दैदीप्यमान भव्य भवितव्यता के संकेत थे, पर किसे पता था - भविष्य में क्या छिपा है ? कुछ दिन बाद, जिल्दों की नमी दूर करने के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश के सातों भाग मंजूषा से निकाल कर बाहर धूप में रखे, तब कुतूहलवृत्ति से मैंने जिज्ञासावश इसका उपोद्धात देखा 'क्या लिखा है इसमें ?' मैं अल्पसंस्कृतज्ञान के आधार पर उसे समझने का प्रयास करने लगी, तभी मेरी गुरुवर्याश्री ने कहा रहने दे, ये राजेन्द्र कोश के सात भाग है; तूं क्या पढेगी इसे ? गुर्वाज्ञा से मैंने अपने प्रयास को विराम दे दिया, किन्तु अन्तःकरण पर अभिधान राजेन्द्र कोश अंकित हो गया। बस, अब एकमात्र चिन्तन धारा बह चली- कैसे भी हो, इसे पढना तो है। इस घटना के बाद दो साल बीत गए, अहमदाबाद में वि.सं. 2045 का चातुर्मास पूर्ण कर कार्तिक पूर्णिमा को चातुर्मास परिवर्तन किया। दूसरे दिन हमने हिम्मतभाई बैंकर के घर नवरंगपुरा में विश्राम किया, तब वर्तमानाचार्य श्री के सांसारिक भ्राता पोपटलाल धरु दर्शनार्थ आये। उनसे अध्ययन संबंधी चर्चा में आगे पढने की और पीएच. डी. करने की हृदय की भावना प्रकट हो गई। उन्होंने कहा- आप आचार्य श्री के नाम पत्र लिखकर दीजिए और अध्ययन हेतु कटिबद्ध हो जाइये, मैं अध्ययन की आज्ञा दिलवाने का पूरा प्रयास करूँगा । - और अनुक्रम से, फलस्वरुप गुर्वाज्ञा प्राप्त होने पर मैंने अहमदाबाद से 12 वी कक्षा की परीक्षा उतीर्ण की। तत्पश्चात् श्रीयुत सुरेन्द्रजी लोढा, देवेन्द्रजी चपरोत इत्यादि के सहयोग से मंदसौर से बी. ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1993 का चातुर्मास राजेन्द्र उपाश्रय, इन्दौर में हुआ और ज्ञानपंचमी के दिन पुनः राजेन्द्र कोश हाथ में आ गये । अन्तर्मानस में सोयी भावना पुनः जागृत हो गयी । हृदय में अपूर्व हर्षोल्लास एवं मन में दृढ संकल्प हुआ- 'अब तो इसे पढकर ही विराम लेना ।' योगानुयोग, बी. ए. द्वितीय वर्ष के संस्कृत विषय के अध्ययन के तारतम्य में 19 दिसम्बर 1993 को विद्वद्वर्य भाई डो. गजेन्द्र जैन से मेरा परिचय हुआ । लघुसिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन करते-करते साध्वी अवस्था में संयमजीवन की सारी दिनचर्या एवं स्वतन्त्र चातुर्मास की सारी जिम्मेदारियों को क्रियान्वित करते हुए लौकिक शिक्षा ग्रहण करने का एकमेव कारण 'अभिधान राजेन्द्र कोश' पर पीएच. डी., आपके सामने रखा और शोधप्रबंध लिखने की भावी योजना प्रकट की, साथ ही तद्हेतु संपूर्ण मार्गदर्शन एवं सहयोग हेतु आश्वासन माँगा । परमात्मा श्री गोडी पार्श्वनाथ की अचिन्त्य कृपा, परमपूज्य कोशप्रणेता गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर महाराज की दिव्य देदीप्यमान अमृताक्त आशीर्वृष्टि, वर्तमानाचार्य मेरे गुरुदेवश्री की आज्ञा, आशीर्वाद एवं प्रेरणा, दूरदेशस्थ होने पर भी मेरी गुरुमाता का सतत सहयोग - ये सभी शुभ निमित्त उपस्थित होते गये, फलस्वरुप भाई श्री गजेन्द्रजीने मेरी ज्ञानरुचि एवं सतत ज्ञानार्जन की ग्रहणशक्ति देखकर मेरा अनुरोध - विनय स्वीकार कर लिया। आप एवं आपकी धर्मपत्नी अ. सौ. श्रीमती मंजुलता जैन के अविस्मरणीय योगदान, सतत परिश्रम, प्रेरणा, प्रोत्साहन, सहयोग और अनेको विघ्नों में भी समता, सहनशीलता, सरलता के साथ ही ज्ञानप्राप्ति कराने में सहज, सरल, सरस, सुबोध शैलीने मेरे विद्याध्ययन को कभी भी विराम नहीं लेने दिया इसका परिणाम यह हुआ कि बाह्याभ्यन्तर अनेक प्रतिकूलताओं में भी यह ज्ञानाभ्यास चलता रहा, और बी.ए. अध्ययन के बाद संस्कृत विषय में एम.ए. अध्ययन भी पूरा हो गया । अब बारी थी, मेरे मुख्य कार्य की; श्री अभिधान राजेन्द्र कोश का हार्द जानने की। इसके लिए भाई श्री गजेन्द्रजी से ही श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन का अध्ययन आरम्भ किया और अभिधान राजेन्द्र कोश के अध्ययन के पूर्व श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन का संज्ञा - सन्धि प्रकरण प्रकाशित भी हो गया मेरा विषयप्रवेश हो चुका था; अभिधान राजेन्द्र कोश पर शोधप्रबन्ध का निर्देशन प्रौढतापूर्ण हो, इसके लिए भाई श्री गजेन्द्रजीने ही परमादरणीय डो. हर्षदराय धोलकियाजी से निवेदन किया जो अनेक शोधकार्यों के अनुभवी निर्देशक तो हैं ही, साथ ही सतत विहार में रहने वाले साधु-साध्वियों को पीएच. डी. का निर्देशन करने के अनुभवी हैं। विद्वद्वर्य डॉ. धोलकियाजीने पीएच.डी. का निर्देशक बनना सहर्ष स्वीकार कर लिया और विषय चयन से लेकर अब तक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्रिय मार्गदर्शन प्रदान किया। छह वर्षो तक सभी के सहयोग से यह बाललेखनी चलती रही, और मेरी बालचेष्टा के अनुरुप विश्वकोश ‘अभिधान राजेन्द्र' के आचारपरक दार्शनिक शब्दों पर लिखित यह शोध प्रबंध आपके सन्मुख इस रूप में प्रस्तुतियोग्य बन सका । चिरलक्षित एक स्वप्न, विश्वपूज्य गुरुदेव द्वारा प्रणीत श्री अभिधान राजेन्द्र कोश पर शोध-प्रबंध की पूर्णाहूति की इस वेला में उन सभी की आभारी हूँ जिन्होने मेरा मार्ग प्रशस्त किया, मुझे सदैव प्रेरणा, प्रोत्साहन के पीयूष पिलाये, सार्थक - सफल सहयोग किया। सर्वप्रथम मैं नतमस्तक हूँ थीरपुर (थराद - उ. गु.) नगरस्थ - श्री गोडी पार्श्वनाथ परमात्मा के श्रीचरणों में, जिनके प्रगटप्रभावी, प्रबलप्रतापी प्रभापटल से मेरा सम्पूर्ण अन्त:करण ज्ञानलोक से प्रकाशित हुआ एवं परमात्मा अवन्ती पार्श्वनाथ की अविनाशी आभा में, अवन्तिका में विजयादशमी (वि.सं. 2054) के दिन प्रारंभ हुआ यह शोध-प्रबंध राजेन्द्र उपाश्रय, इन्दौर में श्री वासुपूज्य स्वामी की शीतल छाया में प्रगति को प्राप्त हुआ, पुनः रुका, पुनः करेडा तीर्थ में पार्श्वनाथ प्रभु की कृपा से प्राप्तगति यह शोध - प्रबंध फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी, वि.सं. 2059 को श्री थीरपुर / थराद तीर्थ में उन्हीं पावन परमात्मा श्री गोडीजी पार्श्वनाथ की छत्रछाया में साजीजी (गोरजी) के उपाश्रय में पूर्ण हुआ । यद्यपि 'श्रेयासि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि ।' यह एक सूक्ति है, परन्तु 'गुरुकृपा हि बलीयसी' उक्ति के •अनुसार जहाँ गुरुजनों का आशीर्वाद हो वहाँ सभी विघ्न शान्त हो जाते हैं और तदनुसार ही अनेक विघ्न आने पर भी यह कार्य सुचारु रुप से सम्पन्न हो गया। मैं कृतज्ञ हूँ कोशकर्ता विश्वपूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की; जिनके असीम आशीर्वाद, अदृश्य मार्गदर्शन एवं अद्भूत सान्निध्य से मुझे राजेन्द्र कोश की गहन अगम्य शास्त्रीय बातें उनके स्मरणमात्र से समझ में आने लगी । मैं कृतज्ञ हूँ मेरे संयमदाता प. पू. गुरुदेव राष्ट्रसंत वर्तमानाचार्य किन्तु आजीवन विद्यार्थी, ज्ञानालोक के तेजस्वी सूर्य, साहित्यमनीषी श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. 'मधुकर' की, जिन्होने मुझे आज्ञा, आशीर्वाद एवं अध्ययन हेतु अनूकूलताएँ उपलब्ध करायी । साथ ही मैं नतमस्तक हूँ मेरी गुरुमाता सरलमना तपस्विनी साध्वीवर्या प.पू. शशिकला श्री महाराज की जिन्होने शिष्यामोह को छोडकर अध्ययन में स्थिरता हेतु मुझे दूर-दराज क्षेत्रों में चातुर्मास की आज्ञा प्रदान की, प. पू. गुरुवर्याश्री ने मेरी लक्ष्यप्राप्ति में मुझे पूर्ण आशीर्वाद के साथ सफलता प्रदान करायी । इसके साथ ही मेरी अनुगामीनी साध्वी चिन्तनकलाश्रीजी एवं मुमुक्षु कु. संगीता जैनने भी इस शोधग्रन्थ निर्माण में मुझे अतीव सहयोग किया एतदर्थ वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। मैं आभारी हूँ इस शोध-प्रबंध के निर्देशक डो. हर्षदराय धोलकियाजी की, जिन्होने मुझे इस शोध प्रबंध में यथा समय यथायोग्य मार्गदर्शन दिया, इतना ही नहीं मेरे साध्वीजीवन की मर्यादाओं को ध्यान में रखते मुझे कभी किसी भी प्रकार से व्याकुल नहीं होने दिया । विषयवचन, उसकी उपादेयता आदि के विषय में जो मार्गदर्शन अपेक्षित था, प्रो. कु. बी. वाय. ललिताम्बा, विभागाध्यक्ष, तुलनात्मकभाषा एवं संस्कृति अध्ययन शाला, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर ने मुझे सदा मार्गदर्शन देते हुए प्रोत्साह किया जिसका परिणाम यह शोध प्रबंध है। मैं हृदय से प्रो. कु.बी. वाय. ललिताम्बा के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ । ज्ञानलोक की इस अलौकिक यात्रा में मैं इन्हे नहीं भूल सकती - स्व. श्रीमती कंकुबेन बोहरा, (अध्यापिका - श्रीधनचंद्रसूरि जैन पाठशाला, थराद) एवं श्रीमती अ. सौ. रसीला बेन संघवी (सांसारिक बुआ) को, जिन्होने मुझ अज्ञानी को धार्मिक अध्ययन हेतु प्रोत्साहित किया एवं मेरे अध्यात्मज्ञान का द्वारोद्घाटन कराया। साथ ही पूज्य दादी साहिबा स्व. वीराबहने दोशी, स्व. ताराबहन दोशी, पू. दादा जी स्व. मफतलाल दोशी, स्व. पूज्य पिताश्री चन्दुलालजी दोशी एवं मातृश्री श्रीमती सविताबेन दोशी आदि समस्त परिवार जिनकी सदैव एक ही भावना रही 'ज्ञान - ध्यान तप-त्याग में आगे बढकर संघ शासन- गुरुगच्छ की प्रभावना के उत्तमोत्तम कार्य करें एवं हमारे कुल वंश का गौरव बढाते हुए कुलदीपिका बन शासनप्रभाविका बने । ' अभिधान राजेन्द्र कोश पर आधृत इस शोध-प्रबंध की पूर्णाहुति की इस अवधि में मैं अभारी हूं मुझे इसके योग्य बनाने वाले श्री रतिभाई (अहमदाबाद), श्री दिनेशभाई (अहमदाबाद), श्री मदनलालजी जोशी एवं श्री कांतिलालजी पण्डया (मंदसौर, म.प्र.), डॉ. विनायक पाण्डे (इन्दौर), डॉ. नरेन्द्र धाकड (इन्दौर), श्री किरीट भाई (वर्तमान में मुनि श्री प्रशमेशप्रभ विजयजी एवं कु. विमलाबेन (वर्तमान में साध्वी विद्वद्गुणाश्रीजी), आदि विद्वद्वर्ग स्वर्णाभि नक्षत्रपुञ्ज की जिन्होने मेरे अज्ञान को दूरकर मुझे ज्ञान प्राप्ति करायी । - मैं विशेष कृतज्ञ हुं डो. गजेन्द्र कुमार जी जैन सा. के प्रति, जिनके अविरत श्रम, साहस, सरलता, समयबद्धता, सहनशीलता, सहजता, समता, क्षमता एवं ज्ञानातिशयपूर्वक विशिष्ट योगदान के बिना यह शोध-प्रबंध की पूर्णाहुति असंभव सी थी । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं आभारी हूं श्री अभयसागरजी जैन ज्ञान भंडार (इन्दौर) एवं मुनिराज श्री अनुपम सागरजी म.सा. की जिन्होने मुझे शोधप्रबंध हेतु समस्त साहित्य उपलब्ध कराया । श्री राजेन्द्र उपाश्रय-जुनी कसेरा बाखल एवं गुमास्ता नगर के त्रिस्तुतिक जैन श्री संघ - इन्दौर के श्रावक-श्राविकाएँ एवं श्री राजेन्द्र महिला मण्डल, इन्दौर तथा श्रीमती रेखा मेहता, इन्दौर की मैं सविशेष आभारी हुं जिन्होने मेरे इन्दौर के अध्ययनकाल में उनकी विपरीत परिस्थितियों में भी मेरे स्वास्थ्य एवं आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए वैयावृत्त्य का पूरापूरा लाभ उठाया एवं इस ज्ञानार्जन में संपूर्ण सहयोगी बनी रही । साधु के जीवन में श्रीसंघ के सहयोग के बिना मुनिजीवन की मर्यादानुरुप साध्वाचार का पालन करते हुए व्यवहारिक अध्ययन और अभिधान राजेन्द्र कोश जैसे विश्वकोश, एक जैनागम कोश पर शोध-प्रबंध लिखना कथमपि संभव नहीं । तद्हेतु सहयोगी थराद, अहमदाबाद, सुरत, मुम्बई, राजगढ, मंदसौर, धार, इन्दौर, बडनगर, आलोट, महिदपुर सीटी, उज्जैन ( नयापुरा), रतलाम, पिपलोदा, दसाई, निम्बाहेडा. कुक्षी, के श्रीसौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्री संघ, एवं उन श्रीसंघो के गुरुभक्त श्रुतप्रेमी सुश्रावकगण श्री इन्द्रमलजी, धरमचंदजी, सोहनलालजी पारीख, सुरेन्द्रजी लोढा, देवेन्द्रजी चपरोत, मनोहरलालजी पुराणिक, यतीन्द्रजी, हेमन्तजी, मुकेशजी जैन, संजयजी डुंगरवाल, प्रकाशजी डुंगरवाल, रसिकभाई दोशी, भावीनभाई, महेन्द्रभाई, प्रो. एम.एल. सुराणा, समरथमलजी जैन, डॉ. एम.पी. त्रिपाठी, अहमदाबाद स्थित श्री सेवंतीभाई वोरा (सरकार), श्री जीगरभाई संघवी आदि - ख्यातनाम - ज्ञातनाम, अज्ञातनाम प्रत्यक्ष - परोक्ष सहयोग करनेवाले सभी सज्जनगण धन्यवाद के पात्र | अन्तर्बाह्यतः शोभन ज्ञाननिधि के द्वार का उद्घाटन होने पर ही वह किसी के लिए कार्यकारी हो सकती है। इस शोध प्रबन्ध का पौगलिक स्वरुप सम्भव हो सका है कम्यूटर पर प्राकृत संस्कृत- गुजराती - इंग्लिश मिश्रित वर्णसंयोजन से, सचित्रकरण से और सजिल्दीकरण से । देव ग्राफिक्स, अहमदाबाद के संचालक श्री तपन शाहने सम्पूर्ण शोधप्रबन्ध का वर्तमान ग्रन्थ स्वरुप में जितना सुन्दर और यथासम्भव त्रुटिरहित वर्णसंयोजन किया, मैं आप को हृदय से धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ, एवं श्री बकुल संघवी(अहमदाबाद)ने इस ग्रंथ का मुद्रण कार्य पूर्ण कीया यह भी अभिनंदनपात्र है । श्री थराद त्रिस्तुतिक जैन संघ - मुंबई (थरादवाला) ने इस ग्रन्थ-रत्न का प्रकाशन कराकर श्रुतभक्ति का सुंदर लाभ लिया एतदर्थ वे धन्यवाद के पात्र हैं। ज्ञानपंचमी वि.सं. 2061 बाग (जि. धार) म.प्र. മലാല വ CALL नवलगता गताच चच च शोधाध्येत्री साध्वी डो. दर्शितकला Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अभिधान राजेन्द्र एक 'विश्वकोश' के स्वरुप का ग्रंथरन है। इसमें अर्धमागधी प्राकृत भाषा के शब्दों की विस्तृत व्याख्या दी गई है। अर्धमागधी भगवान महावीर के समय जनसामान्य की भाषा थी। इसलिये उस समय अर्थ समझने में अतिरिक्त परिश्रम नहीं करना पड़ता था। परन्तु बारहवीं शताब्दी के बाद अपभ्रंश और फिर धीरे-धीरे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हो गया, इसलिये अर्धमागधी अथवा किसी भी प्राकृत भाषाकी रचनाओं को समझना कठिन हो गया। क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के साथ शब्दों के स्वरुप में भी परिवर्तन हुआ परन्तु आचारपरक अथवा सैद्धान्तिक शब्दावली रुढ हो जाने से और उनका विशेष अर्थ होने से कोशग्रंथो की सहायता के बिना समझना अत्यन्त कठिन है। यह निश्चित है कि सिद्धांतों का व्यवहारिक प्रयोग होना चाहिए, इसलिए आचारपरक ज्ञान और व्याख्या आवश्यक है। इसलिए 'अभिधान राजेन्द्र' कोश में यों तो सभी शब्दों का समान रुप से संकलन किया गया है और फिर उनकी व्याख्या भी दी गई है, फिर भी प्राचीन जैन साहित्य के अर्धमागधीमय होने से जैनधर्म और जैनदर्शन के शब्द अर्धमागधीमय होने से और परमर्षि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के जैन श्रमण परंपरा से सम्बद्ध होने से जैन धर्म और जैन दर्शन का कोई भी विषय उनसे छट नहीं पाया। चाहे वह सैद्धान्तिक विमर्श हो. ऐतिहासिक संदर्भ हो अथवा आचरण विज्ञान जैसा शुद्ध व्यवहारिक दार्शनिक विषय हो; आचार्य की व्यापक दृष्टि में सभी प्रत्यक्ष होते दिखाई देते हैं। इसलिए हमने यहां 'अभिधान राजेन्द्र कोश' को आधार ग्रंथ के रुप में लिया है। इतिहासकारों के अनुसार श्रमण परंपरा प्राग्वैदिक काल के 'इन्डो ईरानियन' कालखण्ड से प्रचलित है। वेदों में भी श्रमण संस्कृत से सम्बद्ध अनेक शब्द प्राप्त होते हैं, जैसे - श्रमण, अर्हत् इत्यादि । 'श्रमण' शब्द स्वयं ही आचार का बोधक है, अर्थात् श्रमण परम्परा आचारप्रधान परम्परा है। इसका अर्थ है : 'तप रुप श्रम के द्वारा आत्मा के छिपे हुए गुणों का विकास करना ।' तप की विधियां स्पष्ट करने के लिये श्रमण परम्परा की एक विशेष शब्दावली है। चाहे सैद्धांतिक पक्ष हो या आचार पक्ष हो, दोनों में ही ऐसे शब्दों की शृंखला है, जिनकी व्याख्या संस्कृत अथवा प्राकृत आदि व्याकरणों अथवा साधारण कोशग्रंथों के माध्यम से नहीं समझाई जा सकती। इसके लिये उस परंपरा के ऋषियों द्वारा, विद्वानों द्वारा रचित कोशग्रंथो की सहायता लेनी पडती हैं। सम्बद्ध विषय पर अद्यावधि हुए कार्य का पुनरवलोकन - अभिधान राजेन्द्र कोश की दार्शनिक शब्दावली पर अभी तक कोई कार्य हुआ हो - ऐसा जानने में नहीं आया है। यद्यपि राजेन्द्रकोश में 'अ' शीर्षक से 'अ' वर्ण के अन्तर्गत वर्णित सिद्धान्तों से सम्बन्धित कुछ दृष्टान्त कथाओं का संकलन वर्तमानाचार्य राष्ट्रसन्त श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज द्वारा दो भागों में प्रस्तुत किया गया है। उद्देश्य एवं लक्ष्य - श्रमण परम्परा अपनी आभ्यंतर शुद्धि के माध्यम से बाह्य विकारों को नष्ट कर आत्मा की चरम उत्कर्ष की अवस्था को प्राप्त करानेवाली पद्धति का पर्याय है। सैद्धान्तिक पक्ष यदि व्यवहारिक रुप में सफल नहीं होता तो उपदेश के कुछ समय बाद वह प्रचलन से बाहर हो जाता है, परन्तु जैन दर्शन का व्यवहारिक पक्ष जैन आचार विज्ञान आज भी भारतवर्ष में श्रमण परंपरा के भिन्न-भिन्न संप्रदायों के रुप में जीवित है। आज के व्यस्ततम जीवन में भोगवाद के बढ़ते प्रभाव में संस्कारयोग्य वय के बालकों को, युवाओं को और यहां तक कि वृद्धों को भी आचार विज्ञान एवं सिद्धांत भाग की घुट्टी पिलाना अति दुष्कर कार्य है, परन्तु सिद्धांतों के अनुरुप आत्मशुद्धि के लिये जैन आचार-विचार का पालन करने का उपदेश करना और सभी अवस्थाओं के जनों में सम्मान, प्रेरणा, पुरस्कार, आत्मिक सुखानुभव आदि के माध्यम से उसे सहज ही प्रचारित किया जा सकता है। इसके लिये आवश्यक है कि आचारपरक शब्दावली का सांगोपांग विवेचन किया जाये। अभी तक इस प्रकार का कोई ग्रन्थ देखने को नहीं मिला, यद्यपि 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में कदम-कदम पर इसका दर्शन होता है। इन शब्दों को एकत्र संकलित कर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की दिव्य दृष्टि से प्राप्त अर्थ और अन्य लेखकों की दृष्टि में उनकी विशेषता और भेद स्पष्ट करने का लक्ष्य रखकर 'अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन' नामक शीर्षक के अन्तर्गत समग्र कार्य को निम्नलिखित उद्देश्यों के साथ प्रस्तुत करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था(1) जैनपरंपरा की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का एकत्र संकलन एवं वर्गीकरण करना, (2) उपर्युक्त शब्दावली का व्युत्पत्ति एवं निरुक्तिमूलक अर्थ प्रस्तुत करना (3) उपर्युक्त शब्दावली के बारे में अन्य कोशग्रंथों एवं जैन साहित्य में दिये गये अर्थों का तुलनात्मक स्वरुप एवं समीक्षा प्रस्तुत करना, और Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) जैन परंपरा के भिन्न-भिन्न संप्रदायों में आचार की सूक्ष्म भिन्नता को रेखांकित करना । विषयवस्तु एवं विधि - जैन परंपरा के आचारपरक दार्शनिक शब्दों का एक क्रियाविशेष के साथ या पदार्थ विशेष के साथ वाच्य-वाचक संबंधी है। जैसे, किसी भी तप करनेवाले को 'श्रमण' नहीं कहा जा सकता, परन्तु जैन परंपरा में दीक्षित होकर उसकी विधियों के साथ आत्मविशुद्धि के लिये तप करनेवाले साधु को ही 'श्रमण' कहा जा सकता है, उसी प्रकार यद्यपि सामान्य निर्वचन होने पर किसी सामान्य पदार्थ का बोध हो सकता है, परन्तु जैन परम्परा में उनका विशेष अर्थ होता है। उस विशेष अर्थ को स्पष्ट करने के लिये साधारण अर्थो के साथ उनकी तुलना करने के लिये जैन आगम ग्रन्थ, जैन कोश ग्रन्थ एवं संस्कृत प्राकृत कोश ग्रन्थ, तथा अन्य दर्शनों के आचार सम्बन्धी ग्रन्थ, समीक्षा ग्रन्थ, शोध प्रबन्ध संबंधित पत्र पत्रिकाएँ आदि सामग्री के रुप में शोध प्रबन्ध संबंधी इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये ली गयी। इसके साथ ही प्रसंगानुसार अभिधान राजेन्द्र कोश में संदर्भ के रुप में संकेतित संदर्भ ग्रंथों का मूल रुप में देखकर प्रत्यक्ष प्रमाणीकरण किया गया। सर्वप्रथम अभिधान राजेन्द्र कोश में से आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का ससंदर्भ संकलन किया गया। तत्पश्चात् इस शब्दावली को जैन सिद्धांतो के आधार पर वर्गीकृत किया गया। यह वर्गीकृत शब्दावली विषयशः अध्यायों में व्यवस्थित की गयी एवं एकवाक्यता का ध्यान रखते हुए प्रत्येक सिद्धान्त का निर्वचन, निरुक्ति, परिभाषा, लक्षण आदि के रुप में किये गये विवेचन को प्रस्तुत करते हुए जैन परंपरा के अन्य कोश ग्रंथों, आगम ग्रंथों एवं समीक्षा ग्रंथों के साथ तुलनात्मक समीक्षा की गयी। जैन परम्परा से भिन्न ब्राह्मण परम्परा अथवा बौद्ध परम्परा में उस शब्द के वाच्य पदार्थ के बारे में जो जो विशेषताएँ प्राप्त हुई उन वाच्यपदार्थो के साथ तुलनात्मक समीक्षा की गयी । समग्र सामग्री का अनुशीलन जैन दर्शन के आचार विज्ञान की दृष्टि से किया गया एवं उसी आधार पर समग्र विषयवस्तु को विभाजित करके शोधप्रबन्ध के रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसकी संक्षिप्त रुप रेखा निम्न प्रकार से है : प्रथम परिच्छेद : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व द्वितीय परिच्छेद : 1. 2. 3. जैन कोशपरम्परा कोश साहित्य और अभिधान राजेन्द्र कोश अभिधान राजेन्द्र कोश की उपादेयता क. पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में ख. भारतीय विद्वानों की दृष्टि में ग. शोध अध्येताओं की दृष्टि में सन्तों की दृष्टि में घ. अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना का उद्देश्य एवं पृष्ठभूमि अभिधान राजेन्द्र कोश का रचनाकाल एवं स्थान अभिधान राजेन्द्र कोश : विषयवस्तु का वर्गीकरण एवं शैली अभिधान राजेन्द्र कोश : स्वरुप एवं प्रकाशन 4. 5. 6. 7. तृतीय परिच्छेद : अभिधान राजेन्द्र कोश की शब्दावली का परिचय 1. साहित्यिक शब्दावली 2. सांस्कृतिक शब्दावली 3. राजनैतिक शब्दावली दार्शनिक शब्दावली 4. चतुर्थ परिच्छेद : आचारपरक शब्दावली का आकलन एवं अनुशीलन क. साधुपरक शब्दावली 1. 2. 3. 4. 5. जैनधर्म का उद्देश्य एवं लक्ष्य जैनधर्म में मुक्ति का मार्ग : सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक् चारित्र चारित्र का सैद्धान्तिक पक्ष गुणस्थान मुनियों की आचारपरक शब्दावली का समीक्षण Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख. श्रावकपरक शब्दावली 1. 2. 3. पञ्चम परिच्छेद : आचारपरक शब्दावली के वाच्यार्थ का विस्तार श्वेताम्बर परम्परा और जैनाचार 1. 2. दिगम्बर परम्परा और जैनाचार 3. 4. 5. इतर परम्परा और जैनाचार 1. षष्ठ परिच्छेद : आचारपरक शब्दावली में निहित कथाएँ एवं सूक्तियाँ अभिधान राजेन्द्र में अनुस्यूत आचारपरक कहानियाँ 2. अभिधान राजेन्द्र में अनुस्यूत आचारपरक सूक्तियाँ सप्तम परिच्छेद : उपसंहार परिशिष्ट 1. मुनि एवं गृहस्थ के आचार में मौलिक अन्तर श्रावकों के आचार में सापेक्ष स्थूलता 2. 3. श्रावाकाचार की दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ब्राह्मण परम्परा और जैनाचार बौद्ध परम्परा और जैनाचार अभिधान राजेन्द्र कोश मुद्रित प्रति का प्रथम पृष्ठ एवं अंतिम पृष्ठ त्रिस्तुतिक सिद्धांतोपदेश : शास्त्रीय प्रमाण सहायक सन्दर्भग्रन्थ सूची शोध-योजना का परिणाम: अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन करने से उन सभी तथ्यों का स्पष्टीकरण हमें प्राप्त हो सकेगा जो कि जैनों के आचरण की पवित्रता और वैज्ञानिक पद्धति को स्पष्ट करते हैं। इससे उन विधियों का भी स्पष्टीकरण हो जायेगा जौ जैनों की विभिन्न शाखाओं में प्रचलित हैं। यद्यपि अभिधान राजेन्द्र कोश ज्ञानपयोनिधि है। शोध-प्रबंध की सीमा एवं मर्यादा में रहकर मैंने आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अध्ययन एवं अनुशीलन किया, साथ ही कोशकार का एवं कोश का परिचय देने के पश्चात् जिज्ञासुओं के लिए अभिधान राजेन्दर कोश के दार्शनिक आदि अन्य शब्दावलियों के भी आस्वाद दिलाने का प्रयास किया है। यद्यपि शोधप्रबंध की सीमा के कारण विस्तार नहीं हो पाया है। यह शोध-प्रबंध विस्तृत लग रहा है जबकि इसे अतिसंक्षिप्त रखने का प्रयास किया गया है। प्रायः मैने आचारपरक दार्शनिक शब्दावली के सभी मुख्य शब्दों को स्पर्श किया है एवं यथायोग्य स्थान देने का प्रयत्न किया है, फिर भी शोध-प्रबंध की मर्यादा के कारण संक्षेप में संकेत ही किया जा सका है; जिज्ञासुओं के लिये अपनी ज्ञानपिपासा की संतुष्टि हेतु अभिधान राजेन्द्र कोश का मंथन करणीय है तथापि संस्कृतप्राकृत से अनभिज्ञ लोगों के लिए तो सात समुद्रसम राजेन्द्र कोश के आस्वाद हेतु यह अमृतकुंभ है। मैं धन्य हूँ जो मुझे इस शोध-प्रबंध के नाते परम पावन, विश्वपूज्य ज्ञानपयोनिधि गुरुदेव श्री के देदीप्यमान ज्ञानवपुः के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । ज्ञानपंचमी fa.fi. 2061 बाग (जि. धार) म.प्र. • ज्ञानामृतरसास्वादशीला गुरुदेव चरणरेणु साध्वी दर्शितकलाश्री । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशंसा. इस शोध-प्रबन्ध में अभिधान राजेन्द्र कोश की शब्दावली का आचारपरक दार्शनिक अध्ययन किया गया हैं । उपसंहार सहित यह शोध-प्रबन्ध सात अध्यायों में विन्यस्त हैं। इसमें अपेक्षित उद्देश्यों की पूर्ति में 1-आचारपरक शब्दों का विषयक्रम से संकलन और वर्गीकरण किया गया है। 2-शब्दों की व्युत्पत्ति और निरुक्ति प्रस्तुत की गई है। 3-शब्दों की अन्य कोशग्रन्थों से तुलना की गई है। 4-विभिन्न जैन परम्परा से सम्बद्ध सम्प्रदायों की भिन्नता आरोपित की गई है। इस शोध प्रबन्ध के अध्यायों का विभाजन परिच्छेद के नाम से किया गया है। प्रथम परिच्छेद में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के जीवन और कर्तृत्व का निरुपण है। द्वितीय परिच्छेद में कोश साहित्य और अभिधान राजेन्द्र कोश का परिचय दिया गया है। तृतीय परिच्छेद में अभिधान राजेन्द्र कोश की साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और दार्शनिक शब्दावली का परिचय दिया गया है। चतुर्थ परिच्छेद में आचारपरक शब्दावली का आकलन और अनुशीलन प्रस्तुत किया गया है। आचारपरक शब्दावली का साधु और श्रावक की दृष्टि से द्विधा विभाजन किया गया है। पञ्चम परिच्छेद में आचारपरक शब्दावली के वाच्यार्थ का विस्तार है। इसमें श्वेताम्बर, दिगम्बर इन दोनों जैन परम्परा एवं ब्राह्मण , बौद्ध और इतर परम्परा में जैनाचारों के अन्तः सम्बन्धो का निरुपण है। षष्ठ परिच्छेद में आचारपरक शब्दावलियों में निहित कथाओं और सूक्तियों का निरुपण किया गया है एवं सप्तम अध्याय में उपसंहार किया गया है। शोध-प्रबन्ध में 'अभिधान राजेन्द्र' की शब्दावलियों के अनुशीलन में जैनाचार की महत्ता और दार्शनिक दृष्टि से अनुशीलन से यह तथ्य विषयों का पर्याप्त ज्ञान है। लगभग 700 पृष्ठों में इस शोध-प्रबन्ध को सघन और त्रुटिरहित शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। अभी तक इस प्रकार का कार्य हमें देखने को नहीं मिला। इससे जिज्ञासुओं और विद्वानों को अत्यन्त लाभ होगा। उत्तम शोध-प्रबन्ध की रचना करनेवाली शोधकर्जी तथा उनके निर्देशक अवश्य ही बधाई के पात्र है। इस शोध प्रबन्ध का प्रकाशन और वितरण अवश्य ही अध्येताओं के लिए महनीय उपयोगी होगा। इसे सद्य और समुचित प्रकाशन करवाने की मेरी दृढ अनुशंसा है। दि. 22-4-2005 प्रो.- रहसबिहारी द्विवेदी-संस्कृत विभाग (रानी दुर्गावती वि.वि.-जबलपुर) साध्वी दर्शितकलाश्री द्वारा 'अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन' - नाम से प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का मैंने अवलोकन किया । यह शोधप्रबन्ध नूतन दृष्टिकोण से ओतप्रोत है । सात परिच्छेदों में प्रस्तुत इस शोधप्रबन्ध में अनुसन्धात्रीने आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व तथा कोश-परम्परा की उपयोगी प्रासङ्गिक चर्चा है तथा फिर चतुर्थ से षष्ठ अध्यायों में आचारपरक शब्दावली का विवेचन किया है । इन अध्यायों में जैनाचार का कोई पक्ष नहीं छूटा है, सामान्यतः सभी पक्षों/बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्याय में अभिधान राजेन्द्र कोश की साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं दार्शनिक शब्दावली का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। शोधप्रबन्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण चतुर्थ परिच्छेद है, जिसमें साध्वाचार एवं श्रावकाचार के आचार संबंधी सिद्धान्तों की चर्चा की गई है। पंचम अध्याय में अन्य परम्पराओं के साथ जैन परम्परा के आचार की तुलना भी महत्त्वपूर्ण है। अभिधान राजेन्द्र कोश अपने आपमें महत्त्वपूर्ण कृति है, जो प्राकृत एवं संस्कृत में निबद्ध है। साध्वी दर्शितकलाने उसके हार्द को हिन्दी भाषा में समझाने का सफल प्रयास करते हए अन्य ग्रन्थों का भी उपयोग किया है। शोधाध्येत्री के श्रम, शोधदृष्टि एवं विश्लेषणात्मक लेखन के आधार पर मैं मौखिक परीक्षा के अनन्तर पीएच.डी. उपाधि प्रदान किए जाने की संस्तुति करता हूँ। प्रो. - धरमचंदजी जैन (जोधपुर वि.वि.) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशंसनीय पुरुषार्थ साध्वी श्री दर्शितकलाश्रीजी द्वारा लिखित “अभिधान राजेन्द्रकोष की आचारपरक एवं दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन" नामक शोध प्रबन्ध का अवलोकन किया । अभिधान राजेन्द्रकोष जैन विद्या का एक विश्वकोष है। यह मूलत: प्राकृत और संस्कृत भाषा में निबद्ध है और जैन धर्म दर्शन के सभी पक्षो को समाहित करता है। पूज्य साध्वीजी ने उस जैन धर्मदर्शन के विश्वकोष रूप महाग्रन्थ का आलोङन - विलोङन कर उसकी आचारपरक एवं दार्शनिक शब्दावली पर यह शोध प्रबन्ध लिखा है । साध्वीजी यह प्रयास सराहनीय है, क्योंकि इस ग्रन्थ के प्रकाशित होने पर इसका लाभ उन सभी विद्धानजनों और जनसाधारण को होगा, जो प्राकृत और संस्कृत भाषाओ से अपरिचित है और इस महाकोश ग्रन्थ को पूजा की वस्तु मानकर संतोष कर लेते है। यह शोध प्रबन्ध अभिधान राजेन्द्र कोश की पदावली को तो अपना आधार बनाता ही है, किन्तु साथ ही उनकी विवेचना में एवं तुलनात्मक प्रस्तुती करण में समकालीन लेखको द्वारा रचित ग्रन्थों को भी भरपूर ससन्दर्भ उपयोग करता है । इस कृति में मेरे द्वारा लिखित जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनो का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन का भी पर्याप्त रूप से ससन्दर्भ निर्देश हुआ है, इस प्रकार साध्वीजी का यह शोधप्रबन्ध जैन धर्मदर्शन की आचारपरक एवं दार्शनिक पदावली का एक सम्यक् तथा व्यापक अनुशीलन प्रस्तुत करता है । उनकी यह कृति जन-जन के अध्ययन का विषय बने उसी में उनके श्रम की सार्थकता है। मैं यह आशा करता हं कि वे भविष्य में भी इस प्रकार के ग्रन्थों का सर्जन करते हुए जैन विद्या की सेवा करती रहेगी। इतिशुभम् । प्रो. सागरमल जैन संस्थापक एवं निर्देशक (प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर) આવકાર વિદુષી સાધ્વી ડૉ. દર્શિતકલાશ્રી લિખિત “અભિધાન રાજેન્દ્ર કોષ કી આચારપરક દાર્શનિક શબ્દાવલી કા અનુશીલન' ગ્રંથને આવકારતાં આનંદ અનુભવું છું. પ્રસ્તુત ગ્રંથ સાધ્વીજીનો પીએચ.ડી. પદવી માટેનો મહાનિબંધ છે. તેમાં ગત શતાબ્દીના એક પ્રતિભાશાળી શ્વેતામ્બરાચાર્ય સ્વનામધન્ય સ્વ. રાજેન્દ્રસૂરિજી દ્વારા સંકલિત પ્રસિદ્ધ “અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ” માં પ્રાપ્ત આચારપરક દાર્શનિક શબ્દોનો વિશેષ અભ્યાસ કરવામાં આવ્યો છે. ૧૪ વર્ષના પરિશ્રમથી સાત ભાગમાં લગભગ ૯૫૦૦ પૃષ્ઠોમાં ૧૦૦ જેટલા ગ્રંથોના સારસંચય જેવો “અભિધાન રાજેન્દ્ર કોષ” એક વિરાટ જૈન વિશ્વકોશ છે. નાનામોટા ૬૦,૦૦૦ શબ્દો અને લગભગ સાડાચાર લાખ શ્લોકના વિસ્તારની વ્યાખ્યા ધરાવતો આ કોશ જેમ તેના વિસ્તાર વિરાટ છે તેમ તેમાં આપેલા અઢળક પ્રાકૃત અને તેમના પર્યાયરૂપ સંસ્કૃત શબ્દોમાં અનેકવિધ વિષયોના નિરૂપણથી વિશિષ્ટ છે. જૈન ધર્મ, દર્શન, સંસ્કૃતિ, આચાર, નીતિ, પ્રાકૃત ભાષા-સાહિત્ય ઈત્યાદિ અનેક વિષયોના આમૂલ સંકલનથી જૈન સાહિત્યમાં અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશનું એક વિશેષ સ્થાન છે. આવા બૃહત્કોશમાંથી તારવીને સાધ્વીજીએ પોતાના મહાનિબંધમાં જૈન પરંપરાની આચારપરક દાર્શનિક શબ્દાવલીનું સંકલન અને વર્ગીકરણ આધુનિક દૃષ્ટિએ કરી આપ્યું છે. સાથે સાથે જ સંગ્રહીત શબ્દોની યથાસ્થાન નિરુક્તિ અને વ્યુત્પત્તિ દ્વારા અર્થની સ્પષ્ટતા કરી આપી છે. આટલું જ નહીં, જૈનાચારના અહીં પ્રયુક્ત શબ્દોની તુલના અન્ય કોશોમાં પ્રાપ્ત થતા સમાન શબ્દો અને અર્થોની સાથે કરી તે તે શબ્દની ચર્ચા-સમીક્ષા કરી છે. ઉપરાંત આચારપરક શબ્દાવલીના વાચ્યાર્થનો વિસ્તાર દર્શાવી જૈન ના ભિન્ન ભિન્ન સંપ્રદાયોમાં તે તે શબ્દના મળતા અર્થનો બોધ કરાવવાની સાથે બ્રાહ્મણ પરંપરા, બૌદ્ધ પરંપરા અને ઈતર ધાર્મિક પરંપરાઓ સાથે તુલના કરી અત્યંત મહત્ત્વપૂર્ણ અને રોચક માહિતી ઉપલબ્ધ કરાવી આપી છે. અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ જેવા માહિતીના સાગરમાંથી સાધ્વીજીએ યોગ્ય રીતે જ આચારવિષયક શબ્દાવલી તારવી તેનું સમીક્ષાત્મક અધ્યયન કરી જૈન સાહિત્યમાં એક ઉત્તમ ગ્રંથનો ઉમેરો કર્યો છે. - ડૉ. રમણીક શાહ ૪૪/૪૫૧, ગ્રીનપાર્ક એપાર્ટમેન્ટ, પૂર્વ-અધ્યક્ષ, પ્રાકૃત-પાલિ વિભાગ, સોલારોડ, નારણપુરા, અમદાવાદ-૧૩ (ગુજરાત યુનિવર્સિટી, અમદાવાદ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર્વગ્રાહી અધ્યયન જુદા જુદા સ્થાનેથી આવતી અનેક સરિતા એકઠી થઈને વિરાટ મહાસાગર રચાય છે. તેવી રીતે અનેક ધર્મદર્શન અને આધ્યાત્મિક ગ્રંથોના ગહન અધ્યયન પછી આચાર્ય શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરિજી મહારાજે શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર બૃહ વિશ્વકોશ” જેવા આગમગ્રંથોના નવનીતના મહાસાગરની રચના કરી છે. આ પ્રજ્ઞાસાગરમાં સમાયેલી પ્રત્યેક જ્ઞાનનદીનું આગવું સૌંદર્ય છે અને તેથી જ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરિજી મહારાજે રચેલા “શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર બૃહવિશ્વકોશ' વિશે જુદા જુદા અભિગમથી અભ્યાસ અને અધ્યયન થતા રહ્યા છે અને થતા રહેશે. જૈન ધર્મનો આ મહાન કોશ એકવિરાટ પ્રતિભાના સ્વામીએ રચેલો જ્ઞાનનો કીર્તિસ્તંભ છે. જ્ઞાનની મુખ્યતા ધરાવતા જૈન ધર્મ માટે તો “શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર બૃહવિશ્વકોશ' એ એની વિશિષ્ટ એવી ધાર્મિક, આગમિક, આધ્યાત્મિક અને સાહિત્યિક રચના છે. છેલ્લા વીસ વર્ષથી ગુજરાતી ભાષામાં સર્વસંગ્રાહકવિશ્વકોશ (જનરલએન્સાઇક્લોપિડીયા)ની રચનાના કાર્યમાં હું જોડાયેલો છું અને આ કેવું ભગીરથ કાર્ય છે એનો મને સાક્ષાતુ અનુભવ છે. જ્યારે પૂજ્ય શ્રીમવિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજે કરેલો આ શાસ્ત્રજ્ઞાનનો પુરુષાર્થ જોઉં છું ત્યારે ઊંડું આશ્ચર્ય અનુભવું છું. આ જ્ઞાનના મહાસાગરમાંની એક નદી એટલે સાધ્વી ડૉ. દર્શિતકલાશ્રીજીએ પીએચ.ડી.ની ઉપાધિ માટે લખેલો “શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ કી આચારપરક દાર્શનિક શબ્દાવલી કા અનુશીલન” નામનો મહાનિબંધ. આ મહાનિબંધની વિશેષતા એ છે કે એમાં આપેલી દાર્શનિક શબ્દાવલી વિશે મૂળગામી અને વિસ્તૃત ચર્ચા કરી છે. સમસ્ત આગમોના સંગ્રહરૂપ અભિધાન રાજેન્દ્ર બૃહ વિશ્વકોશના ગ્રંથોના કુલ ૯૪૩૭ પૃષ્ઠોમાંથી આની પસંદગી કરવામાં આવી છે. આમાં અન્ય દર્શનો સાથેની તુલના પણ આપવામાં આવી છે અને એ રીતે આ ગ્રંથ એક વ્યાપક અને મુળગામી આચારપરક દાર્શનિક શબ્દાવલી આપવાની સાથોસાથ એની તુલનાત્મક ચર્ચા પણ કરે છે. જેમ કે વિશ્વના વિવિધ દર્શનોમાં સમ્યફદર્શન, સમ્યકજ્ઞાન, સમ્યફચારિત્રની સ્વીકૃતિનું કયું સ્વરૂપ છે એ પણ દર્શાવ્યું છે. આ ઉપરાંત આચારપરક શબ્દાવલીમાં આવતી કહાનીઓ અને સૂક્તિઓ પણ દર્શાવીને એક સમગ્રતયા અભ્યાસ અહીં જોવા મળે છે. એવી ઈચ્છા જાગે છે કે શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્રકોશના મહાસાગરમાંથી હજી બીજા ઘણાં મોતીનાં તેજ સાધ્વી ડૉ. દર્શિતકલાશ્રીજી મહાસતીજી પાસેથી આપણને પ્રાપ્ત થતા રહેશે જેથી એ વિરાટ વિભૂતિના શાસ્ત્રીય મહાપ્રયત્નની ઝાંખી મળતી રહે. -પદ્મશ્રી ડૉ. કુમારપાળ દેસાઈ પ્રમુખ - ગુજરાત સાહિત્ય પરિષદ (અમદાવાદ) ગામ આખા ગામમાં પીવું ETIRED Nastatatestatastrotestatar, tatatatestestatatesttast Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહોભાગ્ય વિશ્વપૂજ્ય પ્રાતઃ સ્મરણીય દાદા ગુરુદેવશ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ.સાહેબે આત્મલક્ષી-મોક્ષમાર્ગી એવા જૈનધર્મના શબ્દોનો વિશાળ સંગ્રહ કરી “શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ”ની રચના કરી. શાસ્ત્રો અને સિદાંતોના ઉંડા તલસ્પર્શી અભ્યાસના પ્રભાવે ૬૩ વર્ષની જૈફ ઉંમરે સતત ૪૮૬૩ દિવસ અવિરત પરિશ્રમ કરી, એક અભિધાન સ્વરુપ વિશ્વપ્રસિદ્ધ, વિશ્વ વિખ્યાત, અદ્વિતીય એવા એક મહાન કોશ “શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ”ને તૈયાર કર્યો. આ કોષ અર્ધમાગ્ધી-પ્રાકૃત-સંસ્કૃત ભાષામાં રચાયેલો છે. સંવત ૧૯૪૬ થી સંવત ૧૯૬૦ સુધી આ કોશ માટે સતત કાર્ય ચાલતું રહ્યું. આ કોશ, મહાન પંડિતો અને અભ્યાસીઓ માટે જૈન સિદ્ધાંતોના અનેકવિષયોનો ઉકેલ છે. આવા દાદા ગુરુદેવશ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા.નું શાસન ૧૫૦વર્ષ કરતા પણ વધુ વર્ષોથી તપી રહ્યું છે.. અને તપતું રહેશે. વિશ્વના આ મહાન ગ્રંથરાજમાં અનેક અતિદુર્લભ રહસ્યો છુપાયેલા છે. પૂ.સાધ્વીજી શ્રી દર્શિતકલાશ્રીજી મ.સાહેબને પોતાના ગુરુદ્વારા રચિત શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ ઉપર વધુ અભ્યાસ કરવાની ઈચ્છા થઈ. ૫વર્ષથી પણ વધુ વર્ષ સુધી તેઓએ શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્રકોશ ઉપર ઊંડાણપૂર્વક સંશોધન કરી પીએચ.ડી.(ડૉક્ટરેટ ઓફ ફીલોસોફી)ની ઉપાધી મેળવી. તેઓએ શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશના કેટલાક મોતી સ્વરુપ શબ્દોને પસંદ કરી “અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ કી આચારપરકદાર્શનિક શબ્દાવલી કા અનુશીલન” નામનો વિસ્તૃત મહાનિબંધ તૈયાર કર્યો. ખાસ નોંધનિય છે કે આ મહાનિંબધ રાષ્ટ્રભાષા હિન્દીમાં તૈયાર કર્યો. સંવત ૨૦૬૩એ પૂજ્ય ગુરુદેવનું સ્વર્ગારોહણ શતાબ્દી વર્ષ છે. આ વર્ષ સમગ્ર ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘમાં ભારે ઉત્સાહપૂર્વક ઉજવાઈ રહ્યું છે ત્યારે સાધ્વીજીશ્રીદર્શિતકલાશ્રીજી મ.સા.ને ગુરુદેવ તથા શ્રી રાજેન્દ્રકોશને અનુલક્ષી એક પુસ્તક તૈયાર કરવાની ભાવના થઈ. તેઓશ્રીએ પોતાની પીએચ.ડીદરમ્યાન તૈયાર કરેલ મહાનિબંધને પુસ્તકરૂપે પ્રકાશન કરવાની વર્તમાનાચાર્યરાષ્ટ્રસંત શ્રીમદ્ વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મ.સા. આગળ ઈચ્છા પ્રગટ કરી. શતાબ્દી વર્ષની ઉજવણી પ્રસંગે જ આવા માહિતીસભર પુસ્તકનું વિમોચન થાય તેવા આશયથીપૂજ્ય આચાર્યશ્રીમવિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મ.સાહેબે પોતાના આજ્ઞાનુવર્તી પ્રશિષ્યા સાધ્વીજી શ્રી દર્શિતકલાશ્રીજીને પ્રકાશન કરવાની અનુમતિ પ્રદાન કરી. આચાર્યશ્રીના આશિર્વાદ મળતાં જ સાધ્વીજી શ્રી દર્શિતકલામ.સાહેબે પુસ્તકને પ્રકાશન કરવાની તૈયારી શરૂ કરી. આ પુસ્તકના પ્રકાશન હેતુ તેઓએ પુસ્તકના કોમ્યુટર એન્ટ્રી તથા પ્રકાશન કરાવવાની જવાબદારી અમોને સોંપી. ગુરૂભક્તિ કહીએ કે ગુરૂપ્રેરણા... આવું પડકારરૂપ અને ભગીરથ કાર્ય મળતાંજ મન ઉલ્લાસિત થઈ ગયું. વર્ષોથી મનમાં ઈચ્છા હતી કે શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ ઉપર ગુજરાતી કે હિન્દી ભાષામાં સંશોધન થાય. સાધ્વીજી મ.સાહેબે પોતાની વર્ષોની મહેનત પછી તૈયાર કરેલા મહાનિબંધને પ્રકાશન રૂપે રજુ કરવાની અમે તૈયારીઓ શરૂ કરી. પૂજ્ય આચાર્ય ભગવંત તથા સાધ્વીજી મ.સા.ની સતત પ્રેરણાથી અમે આ કાર્ય સમયસર ચોકસાઈપૂર્વક પુરૂ કરવા કૃતનિશ્ચયી બન્યા. શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશમાં છુપાયેલા અનેક બહુમૂલ્યરનો પૈકી કેટલાક વધુ વિષયો ઉપર વધુ સંશોધન થાય, જેમ કે(૧) અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશમાં આવેલી કથાઓ (૨) ઉપનય અને કથાઓ (૩) તીર્થોની ભાવયાત્રા તથા પરિચય (૪) રાજેન્દ્ર કોશમાં સમાયેલ ઐતિહાસિક શબ્દાવલીનું અનુશીલન (૫) રાજેન્દ્રકોશમાં સમાયેલ જ્યોતિષપરક શબ્દાવલીનું અનુશીલન (૬) રાજેન્દ્રકોશમાં ગણધરવાદ (૭) રાજેન્દ્રકોશમાં તપપરક શબ્દાવલીનું અનુશીલન (૮) રાજેન્દ્રકોશમાં વ્યાકરણપરક શબ્દાવલીનું અનુશીલન (૯) નયવાદ. આવા સંશોધન થતા રહે અને તેમાં કોઈપણ સ્વરૂપે ગુરૂભક્તિ કરવાની તક મળતી રહે તેવી અપેક્ષા.. ફરી એક વખત પૂ.સાધ્વીજી શ્રી દર્શિતકલાશ્રીજી મ.સાહેબે અમારામાં દ્રઢવિશ્વાસ મૂક્યો અને શાસનનું કામ કરવાનું પ્રેરક બળ આપ્યું તે માટે અમો તેઓના ઋણી છીએ. - વોરા સેવંતીભાઈ છોટાલાલ (સરકાર) - સંઘવી જીગરભાઈ ભીખાલાલ (અમદાવાદ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठाङ्क . ......... 9-10 विषयवस्तु प्रथम परिच्छेद - आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व जीवन परिचय ........... जन्म स्थान एवं माता-पिता-परिवार , वंशः पारख परिवार की उत्पत्ति जन्मविषयक निमित्तसूचक स्वप्नदर्शन, जन्म समय, व्यवाहरिक शिक्षा गृहस्थजीवनवृत्तः ....... __ यात्रा एवं विवाह विचार ,व्यापार , वैराग्यभाव साधुजीवनवृत्तः ............ दीक्षा, अध्ययन, बडी दीक्षा, अध्यापन आचार्य पद पर आरोहण : पृष्ठभूमि और प्रक्रिया क्रियोद्धार का बीजारोपण-अभिग्रह-पत्रिका त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का महत्त्व एवं प्राचीनता ........... आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि की गच्छपरम्परा ............ आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि की गुरुपरम्परा श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय गुर्वावली/पट्टावली, श्री विजय प्रमोदसूरीजी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि की शिष्यपरम्परा श्री विजय धनचन्द्रसूरिश्वरजी महाराज, उपाध्याय श्री मोहनविजयजी, श्री प्रमोदरुचिजी श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वर जी महाराज, श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज, श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का शिष्यवृन्द उपसम्पत् शिष्य, हस्तदीक्षित शिष्य वृन्द, साध्वी वृन्द आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ... आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : क्रांति के अग्रदूत आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : उग्र-विहारी विहारान्तर्गत आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि द्वारा कृत यात्राएँ आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि कृत : संघयात्राएँ। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : चातुर्मास सूचि .... आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : सिद्धान्त-प्रचारक . 'आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : सर्वोदयी प्रभावक आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : शासन प्रभावक ....... आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : कृत प्रतिष्ठाएँ एवं अंजनशलाकाएँ,ज्ञानभक्ति, ज्ञान भंडार आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : तीर्थोद्धारक .............. श्री स्वर्णगिरि-जालोरगढ, कोलटा, भांडवपुर, तालनपुर, मोहनखेडा आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : तीर्थरक्षक ..... आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : उग्र तपस्वी ................ आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द सूरि : क्षमाश्रमण ......... आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : वादीमान भञ्जक .......... आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : निष्णात ज्योतिषी ..... आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : निमित्तज्ञानी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : सिद्ध योगी ... आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : महान तन्त्रविद् ... Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : अप्रतिम दार्शनिक अद्वितीय चिन्तक, आकर्षक प्रवचनकार, कथाकार, भाष्यकार सफल निबन्धकार, इतिहासकार, नीतिकार, आशुकवि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : साहित्य सर्जक शब्दर्षि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : श्री म. द्वारा रचित साहित्य की सूचि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि की नित्य जीवन-चर्या अनशन एवं देहत्याग, स्वर्गवास एवं अग्नि संस्कार उपसंहार द्वितीय परिच्छेद - अभिधान राजेन्द्र कोश का विशिष्ट परिचय प्रथम कोश 'निघण्टु' का प्रादुर्भाव कोशलेखन की प्रारंभिक स्थिति 1. जैन कोशपरम्परा प्राचीन कोश साहित्य का इतिहास और परम्परा प्रथम कोशकार : अमरसिंह अमरकोश अन्य कोश परम्परा कवीश्वर धनपाल कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि आचार्य जिनभद्रसूरि आचार्य पद्मनंदि, आचार्य जिनेश्वरसूरि एवं आचार्य बुद्धिसागरसूरि आचार्य महाक्षपणक, पं. अमर कवीन्द्र अन्य जैन कोशकर्ता 4. 5. 6. जैन कोशसाहित्य एवं कोशकारों का संक्षिप्त परिचय श्री धनञ्जय 2. कोश साहित्य और अभिधान राजेन्द्र वस्तुकोश तथा अन्य कन्नड कोश श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि 3. अभिधान राजेन्द्र कोश की उपादेयता कोश की परिभाषा कोशों के प्रकार, शब्दकोश एवं ज्ञानकोश में मौलिक अन्तर अभिधान राजेन्द्र : विश्व कोश क. अभिधान राजेन्द्र कोश: पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में ख. अभिधान राजेन्द्र कोश : भारतीय विद्वानों की दृष्टि में ग. अभिधान राजेन्द्र कोश : शोध अध्येताओं विद्वानों की दृष्टि में घ. अभिधान राजेन्द्र कोश : सन्तो की दृष्टि में अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना का उद्देश्य एवं पृष्ठभूमि अभिधान राजेन्द्र कोश का रचनाकाल एवं स्थान शुभारम्भ, लेखन विधि, समयावधि, अभिधान राजेन्द्र कोश की पूर्णाहुति रचनाविधि के विषय में भ्रम और विशेष वक्तव्य अभिधान राजेन्द्र कोश का एकनिष्ठ परिचय अभिधान राजेन्द्र कोश : भाषा शैली विषयवस्तु का विभाग एवं उसके प्रमाण विषय-विभाग के विषय में भ्रमात्मक उल्लेख का कारण और निराकरण अभिधान राजेन्द्र कोश: नामकरण के विभिन्न अर्थ अभिधान राजेन्द्र कोश: नामकरण अभिधान राजेन्द्र कोश: पृष्ठ संख्या अभिधान राजेन्द्र कोश की प्रस्तावनाएँ अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 1 प्रथम आवृत्ति प्रस्तावना : 22 7 7 7 7 9 9 9 9 7 7 9 9 9 9 9 29 30 31 32 32 42 42 42 45 46 46 46 47 47 47 48 48 48 48 49 50-51 51 51 52 52 53 53-54 88999 RE 2 BBB 6 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवृत्ति प्रस्तावना अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 1 का उपोद्धात अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 2 प्रस्तावना अभिधान राजेन्द्र कोश भाग 3 प्रस्ताव अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 4 घण्टापथ : एक परिचय विमर्श अभिधान राजेन्द्र कोश में प्राप्त मंगलाचरण पद्यों का अनुशीलन विमर्श अभिधान राजेन्द्र कोश के पुष्पिकावचन विशेष विमर्श अभिधान राजेन्द्र कोश : प्रशस्ति अभिधान राजेन्द्र कोश : प्रथम भाग-विषयवस्तु परिचय अभिधान राजेन्द्र कोश : मुख्य विषयवस्तु, परिशिष्ट- 1, परिशिष्ट-2, परिशिष्ट - 3 अभिधान राजेन्द्र कोश : द्वितीय भाग- विषयवस्तु परिचय अभिधान राजेन्द्र कोश : तृतीय भाग- विषयवस्तु परिचय अभिधान राजेन्द्र कोश : चतुर्थ भाग विषयवस्तु परिचय अभिधान राजेन्द्र कोश: पञ्चम भाग विषयवस्तु परिचय अभिधान राजेन्द्र कोश: षष्ठ भाग- विषयवस्तु परिचय अभिधान राजेन्द्र कोश: सप्तम भाग विषयवस्तु परिचय मुद्रण परिचय 7. अभिधान राजेन्द्र कोश का स्वरुप एवं प्रकाशन उपसंहार तृतीय परिच्छेद 1. साहित्यिक शब्दावली 2. सांस्कृतिक शब्दावली 3. राजनैतिक शब्दावली 4. दार्शनिक शब्दावली - अभिधान राजेन्द्र कोश की शब्दावली का परिचय अनेकान्तवाद प्रमाण नय निक्षेप सप्तभङ्गी स्याद्वाद उपसंहार चतुर्थ परिच्छेद आचारपरक शब्दावली का आकलन एवं अनुशीलन क. साधुपरक शब्दावली आचार का महत्त्व, 'आचार' शब्द की व्युत्पत्ति-लक्षण-परिभाषा - विविध अर्थ आचार का वर्गीकरण 1. जैनधर्म का उद्देश्य और लक्ष्य धर्म के प्रकार स्वभाव धर्म लौकिक आचार - जाति स्वभाव-व्यवहार धर्म लोकोत्तर धर्म : भावधर्म जैनधर्म : विश्वधर्म जैनधर्म की विशेषताएँ अधिकारी 8 8 72 K * 69 69 71 75 78 80 81 82 82 83 85 86-87 87 88 88 88 89 89 90 91 91 58 € £ £ £ £ £ £ £ 2 2 2 2 8 * 98 110 111 125 135 140 145 145 147 148 149 150 153 154 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का उद्देश्य और लक्ष्य उपसंहार 2. मुक्ति का मार्ग : सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग शब्द की व्युत्पत्ति- प्रकार-भेद मोक्ष शब्द की व्युत्पत्ति, मोक्ष की परिभाषा, मोक्ष का स्वरुप मुक्त (सिद्ध) का स्वरुप मोक्ष अभावात्मक नहीं है अन्य दर्शनों में मोक्ष सम्यग्दर्शन 3. दर्शन का अर्थ सम्यग्दर्शन की परिभाषा सम्यग्दर्शन के पर्यायवाची नाम एवं नियुक्ति सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की प्रक्रिया सम्यक्त्व का द्विविध वर्गीकरण सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण कर्मों की स्थिति के आधार पर सम्यक्त्व के भेद सम्यक्त्व का दसविध वर्गीकरण सम्यक्त्व के 67 भेद सम्यक्त्व प्राप्ति का फल सम्यग्ज्ञान ज्ञान के प्रकार आभिनिबोधिक/ मतिज्ञान सम्यक् चारित्र श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान सम्यग्ज्ञान का फल चारित्र के भेद सामायिक चारित्र छेदोपस्थापनीय चारित्र परिहारविशुद्धि चारित्र सूक्ष्म संपराय चारित्र यथाख्यात चारित्र सम्यक् चारित्र का फल मोक्षप्राप्ति की प्रक्रिया अन्य दर्शनों में त्रिविध साधना मार्ग उपसंहार चारित्र का सैद्धांतिक पक्ष 1. अविनाशिता का सिद्धांत, 2. नश्वरता का सिद्धांत, 3. स्वतंत्रता का सिद्धांत, 4. बन्ध का सिद्धांत 5. कर्मवाद - कर्मविपाक 6. जीव का उपयोग स्वभाव उपसंहार 7. मोक्ष की सादि अनन्तता - व्यवहार से जीव मूर्त भी है- आत्मा की दशा 8. चारित्र का व्यावहारिक स्वरुप, 9. चारित्र का आधार 155 155 156 156 157 157 158 158 159 159 159 159 159 160 161 161 161 162 165 166 166 166 167 168 169 169 169 171 22222262 172 172 175 175 176 176 176 177 178 179 180 180 181 182-183 1 184 185-186 187 188 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. गुणस्थान ............ जीव एवं उसकी अवस्थाएँ गुणस्थान शब्द के पर्याय 'गुणस्थान शब्द की परिभाषा एवं अर्थ 1. मिथ्यात्व गुणस्थान 2. सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान 3. मिश्र गुणस्थान 4. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान 5. देशविरति गुणस्थान 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान 8. अपूर्वकरण गुणस्थान 9. अनिवृत्ति बादर गुणस्थान 10. सूक्ष्म संपराय गुणस्थान 11. उपशान्तमोह गुणस्थान 12. क्षीणमोह गुणस्थान 13. सयोगी केवली गुणस्थान 14. अयोगकेवली गुणस्थान जैनेतर दर्शनों में आध्यात्मिक विकास की अवधारणाएँ गुणस्थान और वैदिक भूमिकाएँ गुणस्थान और चित्त की अवस्थाएँ गुणस्थान और बौद्धदर्शन सम्मत अवस्थाएँ गुणस्थान में जीवस्थान गुणस्थान में मार्गणास्थान गुणस्थान में भाव उपसंहर कर्मवाद कर्मवाद का महत्त्व कर्म का अर्थ एवं स्वरुप जीव और कर्म का संबंध कर्म के प्रकार कर्म प्रकृति अर्थात कर्मफल 1. ज्ञानावरणीय कर्म 2. दर्शनावरणीय कर्म 3. वेदनीय कर्म 4. मोहनीय कर्म 5. आयुःकर्म 6. नाम कर्म 7. गोत्रकर्म 8. अंतराय कर्म कर्मप्रकृतियों के विविध स्वभाव विपाकाश्रित प्रकृतियों के भेद कर्म की विविध अवस्थाएँ कर्मबंध के कारण मोदक का दृष्टान्त कर्म का स्थितिकाल कर्ममुक्ति विचार उपसंहार Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय ........................... कषाय और गुणस्थान कषाय की परिभाषा भाव कषाय के भेद-प्रभेद क्रोध मान-मद माया लोभ कषाय का स्वरूप कषाय का फल लेश्या ................ लेश्या सिद्धान्त की प्राचीनता लेश्या की परिभाषा लेश्या के प्रकार भाव लेश्या के प्रकार लेश्याओं के वर्ण लेश्या की गन्ध लेश्या के रस लेश्याओं का स्पर्श लेश्याओं के परिणाम लेश्याओं को समजने हेतु जंबुवृक्ष का दृष्टान्त लेश्याओं को समजने हेतु ग्रामघातक का दृष्टान्त लेश्याओं में गति आधुनिक विचार और लेश्यासिद्धान्त भामण्डल, आभामण्डल वर्ण : व्यक्तित्व की गुणात्मक पहचान क्या आभामण्डल दृश्य है ? लेश्या ध्यान लेश्या ध्यान : निष्पत्ति 5. मुनियों की आचारपरक शब्दावली का समीक्षण आचार्य उवज्झाय (उपाध्याय) अनागार साधु और श्रमणाचार ........ अणगार (अनगार) श्रमण साधु साधु के प्रकार स्थविरकल्प और जिनकल्प अनागार के सत्ताईस गुण प्रवज्या ..... अनगार धर्म ............. आचार-गोचर .......... निर्ग्रन्थ श्रमणाचार की विशेषता अष्टादश आचार स्थान गोचरचर्या (आहारचर्या) गोचरी भ्रमण की विधि गोचरी ग्रहण करने की विधि ......... For Private & Personal use only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 उद्गम दोष सोलह उत्पादना दोष दस एषणा दोष ग्रासैषणा दोष दोषित आहार ग्रहण करने के कारण एवं विवेक समाचारी समाचारी के भेद मण्डली षडावश्यक निक्षेपों के अनुसार आवश्यक के प्रकार नामावश्यक अर्थात् आवश्यक के पर्यायवाची नाम स्थापनावश्यक द्रव्यावश्यक भावाश्यक 1. सामायिक 2. चउवीसत्थय/चतुर्विशतिस्तव ............. 3. वंदन ..... गुरुवंदन के 25 आवश्यक गुरु की 33 आशातना गुरुवंदन के 32 दोष गुरुवंदन का फल 4. प्रतिक्रमण ......... प्रतिक्रमण के अर्थ-पर्याय-प्रकार-भेद भावप्रतिक्रमण प्रतिक्रमण योग्य प्रसंग प्रतिक्रमण की आवश्यकता ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण दैवसिक-रात्रिक-पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिक प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण का फल 5. कायोत्सर्ग ....................... 6. पञ्चक्खाण-प्रत्याख्यान ......... प्रत्याख्यान के भेद भाव प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेद प्रत्याख्यान की शुद्धि प्रत्याख्यान का फल 260 260-262 263-264 विहार ............ 270-271 मुनि के निवास योग्य वसति पञ्च महाव्रत ...... व्रत (वय)-महाव्रत ............. सर्वथा प्राणातिपात विरमण : प्रथम महाव्रत ................ अहिंसा, हिंसा, हिंसा के प्रकार, हिंसा-अहिंसा की चतुर्भङ्गी अहिंसापालन हेतु कुछ सावधानियाँ अहिंसापालन का फल सर्वथा मृषावाद विरमण : द्वितीय महाव्रत मृषावाद के प्रकार सत्य के भेद Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-असत्य की चतुर्भङ्गी अलीकवचन बोलने से हानि आदर्श वचन, सत्य के गुण, सत्य बोलने से लाभ सर्वथा अदत्तादानविरमण : तृतीय महाव्रत क. द्रव्य-अदत्तादान विरमण, ख. क्षेत्र अदत्तादान विरमण ग. काल अदत्तादान विरमण, घ.भाव अदत्तादान विरमण तृतीय महाव्रत के सुचारुपालन की विधि अदत्तादान विरमण व्रत के लाभ अदत्तादान ग्रहण से हानि सर्वथा मैथुन विरमण : चतुर्थ महाव्रत ...... ब्रह्मचर्य की नव गुप्ति मैथुन के दोष/अब्रह्मब से हानि ब्रह्मचर्य का माहात्म्य-महिमा ब्रह्मचर्य पालन से लाभ सर्वथा परिग्रहविरमण : पञ्चम महाव्रत ..... उपकरण ओघोपधि- औपग्रहिक उपधि-लाभ ............ जैन मुनि के श्वेतवस्त्र विधान का हेतु सर्वथा रात्रि भोजन विरमण : षष्ठ महाव्रत ........ महाव्रतों का माहात्म्य ......... महाव्रतों में दोष लगने का कारण ............. महाव्रत पालन से लाभ ...... महाव्रतों के रक्षार्थ भावनाएँ ............ प्रथम महाव्रत रक्षार्थ पांच भावनाएँ द्वितीय महाव्रत रक्षार्थ पांच भावनाएँ तृतीय महाव्रत रक्षार्थ पांच भावनाएँ चतुर्थ महाव्रत रक्षार्थ पांच भावनाएँ पञ्चम महाव्रत रक्षार्थ पांच भावनाएँ सद्भावनाओ का फल .... पञ्चाचार ................. 1. ज्ञानाचार, 2. दर्शनाचार, 3. चारित्राचार, 4. तप आचार, 5. वीर्याचार आचार के दोष अष्ट प्रवचनमाता (समिति-गुप्ति) समिति-समितियों के पांच भेद 1. ईर्या समिति, 2. भाषा समिति 3. एषणा समिति 4. आदानभाण्डमात्रक निक्षेपणा समिति 5. उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-शिवाण-परिष्ठापनिका समिति गुप्ति-गुप्ति के भेद मनो गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति गुप्तियों का माहात्म्य दस यतिधर्म ........ (1) क्षान्ति-क्षान्ति की प्राप्ति का क्रम, क्षान्ति के भेद, क्षमा धर्म (2) मार्दव धर्म (3) आर्जव धर्म (4) मुक्ति धर्म (5) तप धर्म (6) संयम धर्म-संयम के भेद (7) सत्य धर्म (8) शौच धर्म (9) आकिञ्चन धर्म (10) ब्रह्मचर्य धर्म, त्याग धर्म Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 310 310 311-312 परिषहजय परिषह के प्रकार परिषहोदय की संख्या आठों कर्म और परिषह गुणस्थान और परिषह दश कल्प .............. द्वादश भिक्षु प्रतिमा ............ प्रतिमा वहन हेतु योग्यता प्रतिमाधारी साधु की दिनचर्या के नियम भावनाएँ .... अणुप्पेहा (अनुप्रेक्षा) भावना के भेद .......... बारह भावनाओं के नाम- 1. अनित्य, 2. अशरण 3, ससार, 4. एकत्व 5. अन्यत्व, 6.असुचित्व, 7. आश्रव, 8. संवर, 9. निर्जरा 10. लोकस्वभाव 11. बौद्धिदुर्लभ, 12. धर्मकोर्हन् भावना मैत्री आदि चार भावनाएँ अन्य अपेक्षा से भावनाओं का वर्गीकरण (क) असंक्लिष्ट भाव भावना/प्रशस्त भावना, (ख) संक्लिष्ट भाव-भावना/अप्रशस्त भावना तप 'तप' शब्द की व्युत्पत्ति, तपकी परिभाषाएँ तप के दो रुप बाह्य तप के छह प्रकार (1) अनशन तप-प्रकार, विधि, काल, अधिकारी (2) ऊनोदरिका तप (3) वृत्ति-संक्षेप (भिक्षाचारी) तप (4) रस-परित्याग तप (5) कायक्लेश तप (6) प्रतिसंलीनता तप आभ्यन्तर तप प्रायश्चित तप, प्रायश्चित के प्रकार प्रतिसेवना प्रायश्चित संयोजना-आरोपणा-परिकुञ्चना प्रायश्चित आलोचना आलोचना के भेद आलोचक : आराधक-विराधक प्रतिक्रमाणार्ह -तदुभय/उभयाह -विवेकाह -व्युत्सर्गार्ह -तपोऽहं प्रायश्चित छेद-मूलार्ह (मूल)-अनवस्थाप्य प्रायश्चित पाराञ्चित-आशातना-प्रतिसेवना प्रायश्चित्त पाराश्चित प्रायश्चित के प्रकार आलोचनादाता की दस विशिष्टताएँ आलोचना करने योग्य व्यक्ति आलोचना के दस दोष प्रायश्चित्त देते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार आलोचना का योग्य साक्षी विनय तप विनय के भेद ज्ञानविनय - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... दर्शनविनय चारित्र विनय मनोविनय वचन विनय काय विनय लोकोपचार विनय विनय का महत्त्व वैयावृत्त्य तप (सेवा) वैयावृत्य के प्रकार वैयावृत्य का फल स्वाध्याय तप ............ स्वाध्याय का फल ध्यान आर्तध्यान रौद्रध्यान धर्म-ध्यान शुक्लध्यान ध्यान के लक्षण ध्यान का अधिकारी ध्यान का साफल्य व्युत्सर्ग ........ कायोत्सर्ग के भेद द्रव्यव्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग कायोत्सर्ग करने की विधि कायोत्सर्ग का हेतु कायोत्सर्ग का प्रमाण कायोत्सर्ग के आगार कायोत्सर्ग के 19 दोष तप के अन्य प्रकार ........ तप:समाधि के चार भेद ........... शुद्ध श्रमणाचार का फल ......... आचार प्रणिधि और उसका फल आचार-समाधि आचार का सार ख. श्रावकपरक शब्दावली .. महाश्रावक श्रावक के भेद अविरत श्रावक विरत/देशविरत (विरताविरत) श्रावक श्रावक चार प्रकार से श्रावक अन्य चार प्रकार से भावश्रावक के छ: क्रियागत गुण भावश्रावक के भागवत 17 लक्षण (गुण) 1. मुनि एवं गृहस्थ के आचार में मौलिक अन्तर सम्यक्त्व व्रत के पालन में अन्तर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 346 346 348 सामायिक में अन्तर विरति में अन्तर जीवदया पालन में अन्तर अणुव्रत-महाव्रतों का अन्तर जीवन व्यवहार में अन्तर पंचाचार पालन में अन्तर पूजा में अन्तर षडावश्यक में अन्तर 2. श्रावकों के आचार में सापेक्ष स्थूलता गम्य धर्म लोकोत्तर धर्म दैनिकचर्या और धर्म आहारचर्मा षड् आवश्यक यतिधर्म परिषह जय 3. श्रावकाचार की शब्दावली का अनुशीलन आदिधार्मिक गृहस्थ आदिधार्मिक के लक्षण मार्गानुसारी की योग्यता (पैतीस गुण) श्रावक के 21 गुण श्रावक के कर्तव्य ........ 1. जिनाज्ञापालन करना 2. मिथ्यात्व का परिहार 3. सम्यक्त्व को धारण करना 4. षडावश्यक में तत्पर रहना 5. पर्वतिथियों में पौषध व्रत करना 6. दान 7. शील शील के प्रकार श्रावक के शील 8. तप 9. भाव 10. स्वाध्याय 11. नमस्कार 12. परोपकार 13. जयणा 14-16 जिनपूजा-जिन-स्तवन, गुरु स्तवन 17. सार्मिक वात्सल्य 18. व्यवहार शुद्धि 19. रथयात्रा 20. तीर्थयात्रा 21. उपशम 22. विवेक 23. संवर 24. भाषा समिति का पालन करना 25-30 षड् जीवनिकाय पर करुणा 31. धार्मिक जनों से सत्संग 32. करणदमन 33. चरण परिणाम 34. संघ बहुमान 359 359 360 360 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत ............ 35. पुस्तक/जिनागम लेखन करवाना 36. तीर्थ/जैन संघ में प्रभावना जिन पूजा .......... जिन पूजा के दो भेद द्रव्यपूजा के प्रकार ........................ दशत्रिक ..................... अष्टप्रकारी पूजा त्रिकाल जिनपूजा जिनपूजा में सप्तशुद्धि पांच अभिगम जिनमंदिर में त्याग करने योग्य 84 आशातनाएँ जिनस्तव जिनथुणणं (जिनस्तवनम्) गुरुथुणणं (गुरुस्तवनम्) भक्ति (भत्ति)......... देशविरति अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत क्रमभिन्नता में आचार्यों की विवक्षा की कारणता सम्यक्त्व व्रत ......... स्थूल प्राणातिप्रातविरमण व्रत स्थूल मृषावाद विरमण व्रत . स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत ............ स्थूल मैथुनविरमण व्रत ........ स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत ............... दिग्वत/दिशापरिमाण व्रत भोगोपभोग परिमाण व्रत ............... बाईस अभक्ष्य बत्तीस अनन्तकाय .......... सचित्त परिमाण आदि चौदह नियम पन्द्रह कर्मादान अनर्थदण्डविरमण व्रत सामायिक व्रत देशावकाशिक व्रत पौषधोपवास व्रत ...... पौषध का स्वरुप पौषध के प्रकार पौषध का फल पौषध करने से लाभ पौषध के अठारह दोष पौषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार अतिथिसंविभाग (अइ(ति) हि संविभाग) शिक्षाव्रत का फल ............ अणुव्रत : एक समग्र दृष्टि ............ श्रावक व्रत ग्रहण विधि ...... उपासक प्रतिमा ............ 'प्रतिमा' शब्द का वाच्यार्थ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 389 389 390 390 प्रतिमा के प्रकार उपासक प्रतिमा उपासक प्रतिमा और उसके भेद दर्शन प्रतिमा व्रत प्रतिमा सामायिक प्रतिमा पौषध प्रतिमा प्रतिमा (दिवाब्रह्मचर्य-रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा ब्रह्मचर्य प्रतिमा सचिताहार त्याग प्रतिमा आरम्भ-त्याग प्रतिमा प्रेष्य-त्याग प्रतिमा उद्दिष्ट-भक्त परिज्ञा श्रमणभूत प्रतिमा क्षुल्लक एलक प्रतिमाधारी श्रावक के गुण प्रतिमा का कालमान . प्रतिमा पालन से लाभ ........ पञ्चम परिच्छेद - आचारपरक शब्दावली के वाच्यार्थ का विस्तार .............. 1. श्वेताम्बर परम्परा और जैनाचार ..... आचार आचार्य उपाध्याय मुनि साधु के गुण साधु के दैनिक कर्तव्य साधु के चातुर्मासिक कर्तव्य पर्युषण पर्व के साधुओं के धर्मकार्य मुनि के उपकरण मार्गानुसारी श्रावक के गुण श्रावक के गुण श्रावक के 14 नियम बारह व्रत ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ श्रावक के कर्तव्य श्रावक के दैनिक कर्तव्य जैनों के संध्या कर्तव्य जैनों के रात्रिकालीन कर्तव्य जैनो के चातुर्मासिक कार्य जैनियों के वार्षिक कर्तव्य जैनियों के जीवन भर के बृहत्कर्तव्य श्रावकों के पर्युषण पर्व के कर्तव्य श्वेताम्बर परम्परा में पूजा विधि अंगपूजा, अग्रपूजा, भावपूजा 2. दिगम्बर परम्परा और जैनाचार पाँच महाव्रत साधु के भेदों के अनुसार गुण आर्यिका श्रावक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक्षिक श्रावक नैष्ठिक श्रावक साधक श्रावक दिगम्बर परम्परा में पूजा विधि ..... दिगम्बर परम्परा और जैनाचार 3. ब्राह्मण परम्परा और जैनाचार अहिंसा : एक सार्वभौम सिद्धान्त पंच यम और पंचमहाव्रत ब्राह्मण परम्परा में रात्रिभोजन त्याग ब्राह्मण परम्परा और पांच समितियां ब्राह्मण परम्परा और गुप्ति वैदिक परम्परा और कल्पविधान ब्राह्मण परम्परा में दश धर्म ब्राह्मण परम्परा में दश धर्मों का महत्त्व ब्रह्मचर्य वैदिक तथा अन्य धर्म परम्पराएँ और प्रतिक्रमण ब्राह्मण परम्परा और द्वादशभावना मैत्र्यादि चार भावनाएँ ब्राह्मण परम्परा और परिषह ब्राह्मण परम्परा में पूजा विधान 4. बौद्ध परम्परा और जैनाचार ... बौद्ध धर्म में अहिंसा का स्थान बौद्ध परम्परा एवं व्रतविधान बौद्ध परम्परा और पांच समितियां बौद्ध परम्परा और गुप्ति बौद्ध परम्परा और कल्पविधान बौद्ध परम्परा में दस धर्म बौद्ध परम्परा में भावना मैत्र्यादि चार भावनाएँ बौद्ध परम्परा और परीषह बौद्ध परम्परा में प्रायश्चित विधान बौद्ध परम्परा और प्रतिक्रमण जैन और बौद्ध परम्परा में श्रमणी-संघ व्यवस्था 5. इतर परम्पराएँ और जैनाचार ... सिक्ख धर्म में अहिंसा इस्लाम धर्म में अहिंसा पारसी धर्म में अहिंसा ईसाई धर्म में अहिंसा इतर परम्पराओं में क्षमा षष्ठ परिच्छेद - आचारपरक शब्दावली में निहित कथाएँ एवं सूक्तियाँ मुहावरा , लोकोक्ति 1. अभिधान राजेन्द्र में अनुस्यूत आचार परक कहानियां 2. अभिधान राजेन्द्र में अनुस्यूत आचार परक सूक्तियां सप्तम परिच्छेद - उपसंहार 1. (क) अभिधान राजेन्द्र कोश मुद्रित प्रति का प्रथम पृष्ठ (ख) अभिधान राजेन्द्र कोश मुद्रित प्रति का अंतिम पृष्ठ त्रिस्ततिक सिद्धांतोपदेश : शास्त्रीय प्रमाण ........ सहायक सन्दर्भग्रन्थ सूची .......... Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व 1. जन्म एवं शिक्षा 2. गृहस्थ जीवनवृत 3. साधुजीवन दीक्षा आचार्य पदवी गच्छ परम्परा शिष्य-परम्परा 4. व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व 5. स्वर्गारोहण Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहँ नमः। णमो पहुं सिरि राइंद सूरिवरस्स। गोडी पार्श्वजिनं थरादनगरस्थं नौमि पादाम्बुजे, राजेन्द्रं च जयंतसेनचरणं नत्वा निजश्रेयसे । जैनाचारनिधानकोशविहितं शब्दावलीमार्गणे, युक्तोऽहं गुरुवृत्तवर्णनविधौ इन्द्रपुरे भक्तितः ॥ प्रथम परिच्छेद आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवने अहिंसा-प्रधान जिस दयामय धर्म की प्ररुपणा की थी वह जैनधर्म के नाम से विख्यात है। उदार और सर्वजन हितकारी यह धर्म सर्वतन्त्र स्वतंत्र है। यह धर्म वीतरागता की प्राप्ति की साधना का सरल मार्ग बतलाकर जीवन में सार्थकता की सौरभ बिखेरता है और उपासक के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सरलता, सहजता, सात्त्विकता और प्रोज्जवलता का कमकुम छिडकता हैं। श्रमण भगवान् चरमतीर्थपति श्री महावीर स्वामी के निर्वाण के साथ ही साधना की सर्वोच्च परम्परा भरत क्षेत्र में अवरुद्ध हो गयी। अवसर्पिणी काल का पांचवा आरा आरम्भ हुआ। श्री गौतम स्वामीजी, सुधर्मास्वामीजी, जंबूस्वामीजी के निर्वाण के साथ ही केवलज्ञानधारियों का क्रम समाप्त हो गया। धीरे धीरे भारत से ज्ञान-विज्ञान की सर्वोच्च और परमोच्च साधना के साधक तथा सिद्धियाँ दोनों लुप्त होते गए। समर्थ मुनिपुंगवों ने शासन-धूरा संभाली, परंतु कालप्रभाव प्रबल रहा। आचार-विचार, तप-त्याग, ज्ञान-ध्यान में सर्वश्रेष्ठ श्रमणसंघ पर काल-प्रभाव से कभी-कभी आचार-शैथिल्य की काली छाया छायी । जब-जब शिथिलता उभरी तब-तब समर्थ शासनप्रभावक और युगप्रभावक युगपुरुषों ने क्रियोद्धार कर के उसका निवारण किया। इस प्रकार इस परम्परा में धर्मशासन को व्यवस्थित रखने वाले स्वनामधन्य क्रियोद्धारक आचार्यवों में चूडामणि तपोगच्छीय श्री जगच्चन्द्रसूरि जी, चैत्रवाला गच्छीय श्री देवभद्र उपाध्याय (वि.सं. 1225), श्री आनंदविमल सूरि जी' (वि.सं. 1582), पंन्यास श्री सत्यविजयजी' आदि अनेक धुरंधर आचार्यादि हुए हैं, जिन्होंने अनेक कष्ट और उपसर्ग सहकर त्याग, विराग और आत्मशुद्धि की परम्परा को सजीव रखा और प्रभु महावीर के सिद्धान्तों को आगे बढाया। इसी परम्परा में विश्वपूज्य विश्वविख्यात श्री अभिधानराजेन्द्र बृहद् विश्वकोश निर्माता आचार्यश्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज हुए हैं, जिनका संक्षिप्त जीवन परिचय आगे दिया जा रहा हैं। 1. श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी पृ. 260 श्री पट्टावली समुच्च प्र.भा.पृ.56 वही पृ. 57 वहीं पृ. 69 4. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जीवन परिचय : विक्रम संवत् 1893 में भरतपुर में अकाल होने से कार्यवश माताजन्म स्थान एवं माता-पिता-परिवार : पिता के साथ आये रत्नराज को उदयपुर में आचार्य श्री प्रमोदसूरि जी के प्रथम दर्शन एवं परिचय हुआ। उसी समय उन्होंने रत्नराज 'श्रीराजेन्द्रसूरिरास' एवं 'श्रीराजेन्द्रगुणमंजरी' के अनुसार वर्तमान की योग्यता देखकर ऋषभदासजी से रत्नराज की याचना की। लेकिन राजस्थान प्रदेश के भरतपुर शहर में दहीवाली गली में पारिख परिवार ऋषभदास ने कहा कि "अभी तो बालक है, आगे अवसर पर बडा के ओसवंशी श्रेष्ठी ऋषभदास रहते थे। आपकी धर्मपत्नी का नाम होगा और उसकी भावना होगी तब देखा जायेगा।"14 केशरबाई था जिसे अपनी कुक्षि में श्रीराजेन्द्रसूरि जैसे व्यक्तित्व को धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रेष्ठी ऋषभदास की तीन गृहस्थजीवनवृत्त - सन्ताने थो; दो पूत्र : बडे पुत्र का नाम माणिकचन्द एवं छोटे पुत्र यात्रा एवं विवाह विचार :का नाम 'रतनचन्द' था, एवं एक कन्या थी जिसका नाम प्रेमा था।' जीवनप्रभा एवं राजेन्द गुणमंजरी के अनुसार रत्नराज के सांसारिक यही 'रतनचन्द' आगे चलकर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि नाम जीवन के व्यापार-व्यवहार के शुभारंभ हेतु मांगलिक स्वरुप से प्रख्यात हुए। तीर्थयात्रा कराने का परिवार में विचार हुआ। माता-पिता की आज्ञा वंश : पारख परिवार की उत्पत्ति : लेकर बड़े भाई माणेकचंद के साथ धुलेवानाथ-केशरियाजी तीर्थ की आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि के अनुसार वि.सं. 1190 पैदल यात्रा करने हेतु प्रयाण किया। पहले भरतपुर से उदयपुर आये, वहाँ से अन्यत्र यात्रियों के साथ केशरियाजी की यात्रा प्रारंभ की। में आचार्यदेव श्री जिनदत्तसूरि महाराज के उपदेश से राठौड वंशीय तब रास्ते में पहाडियों के बीच आदिवासी भीलों ने हमला कर दिया। राजा खरहत्थ ने जैनधर्म स्वीकार किया। उनके तृतीय पुत्र भेंसाशाह उस समय रत्नराज ने यात्रियों की रक्षा की। साथ ही नवकार मंत्र के पांच पुत्र थे। उनमें तीसरे पुत्र पासुजी आहेडनगर (वर्तमान आयड के जाप के बल पर जयपुर के पास अंबर ग्राम निवासी सेठ शोभागमलजी उदेपुर) के राजा चंद्रसेन के राजमान्य जौहरी थे। उन्होंने विदेशी व्यापारी की पुत्री रमा को व्यंतर के उपद्रव से मुक्ति भी दिलायी। सभी के हीरे की परीक्षा करके बताया कि "यह हीरा जिसके पास रहेगा के साथ केशरियाजी की यात्रा कर वहाँ से उदयपुर, करेडा पार्श्वनाथ उसकी स्त्री मर जायेगी।" ऐसी सत्य परीक्षा करने से राजा पासुजी एवं गोडवाड की पंचतीर्थी की यात्रा करके वापिस भरतपुर आये।15 के साथ 'पारखी' विरुद से व्यवहार करने लगे। बाद में 'पारखी' ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि सेठ सोभागमलजी ने रत्नराज शब्द का अपभ्रंश 'पारिख' शब्द बना। पारिख पासुजी के वंशज वहाँ से मारवाड, गुजरात, मालवा, उत्तरप्रदेश आदि जगह व्यापार के द्वारा अपनी पुत्री रमा को व्यंतर दोष से मुक्त किया जाने के हेतु गये। उन्हीं में से दो भाईयों के परिवार में से एक परिवार भरतपुर कारण रमा की सगाई रत्नराज के साथ करने हेतु बात की थी लेकिन आकर बस गया था। वैराग्यवृत्ति रत्नराज ने इसके लिए इंकार कर दिया।16 व्यापार :जन्मविषयक निमित्तसूचक स्वप्नदर्शन : रत्नराज के पिता श्रेष्ठी ऋषभदास का हीरे-पन्ने आदि जेवरात ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्यश्री के जन्म के पहले एवं साथ ही सोने-चांदी का वंश परम्परागत व्यापार था ।17 रत्नराज एक रात्रि में उनकी माता केशरबाई ने स्वप्न में देखा कि एक तरुण ने भी 14 साल की छोटी सी उम्र में चैत्र सुदि प्रतिपदा के दिन व्यक्ति ने प्रोज्जवल कांति से चमकता हुआ रत्न केशरबाई को दिया - परम्परागत हीरा-पन्ना आदि का व्यापार शुरु किया ।18 और केवल "गर्भाधानेऽथ साऽदक्षीत् स्वप्ने रत्नं महोत्तम्म्। निकट के दो महीने में ही व्यापार का पूरा अनुभव प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात् स्वप्नशास्त्री ने स्वप्न का फल भविष्य में पुत्ररत्न की प्राप्ति होना अधिक व्यापार हेतु बडे भाई के साथ भरतपुर से पावापुरी, समेतशिखरजी बताया। आदि तीर्थों की यात्रा कर कलकत्ता पहुंच गये। थोडे समय तक जन्म समय : वहाँ व्यापार करके वहाँ से जलमार्ग से व्यापार हेतु सीलोन (श्रीलंका) आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरि के अनुसार वि.स. 1883 पहुंचे। वहाँ ढाई से तीन साल तक व्यापार करके न्याय-नीतिपूर्वक पौष सुदि सप्तमी, गुरुवार, तदनुसार 3 दिसम्बर ईस्वी सन् 1827 कल्पनातीत धन उपार्जन किया। व्यापार में अत्यधिक व्यस्तता एवं को माता केशरबाई ने देदीप्यमान पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्वोक्त 5. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 2, 5; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 7; जीवनप्रभा स्वप्न के अनुसार माता-पिता एवं परिवारने मिलकर नवजात पुत्र का नाम 'रत्नराज' रखा।। श्री राजेन्द्रसूरिरास में 'रतनचंद' नाम जीवनप्रभा पृ. 4; राजेन्द्र ज्योति, खण्ड 2, पृ. 6 रखा - ऐसा भी पाठ मिलता हैं।12 7. जीवनप्रभा पृ. 3-4; राजेन्द्र ज्योति, खण्ड 2, पृ.6 व्यवहारिक शिक्षा : जीवनप्रभा किञ्चिद्वक्तव्य पृ. 1, 2 आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरि एवं मुनि गुलाबविजय के श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी, श्लोक 30, पृ.8 श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ.9, श्लोक 32, 33; जीवनप्रभा पृ.। अनुसार योग्य उम्र में पाठशाला में प्रविष्ट हुए मेधावी रत्नराज ने केवल जीवनप्रभा पृ. 2; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 9 10 वर्ष की अल्पायु में ही समस्त व्यवहारिक शिक्षा अर्जित की। श्री राजेन्द्रसूरि का रास-पूर्वार्ध खण्ड, 1 ढाल-3 साथ ही धार्मिक अध्ययन में विशेष रुचि होने से धार्मिक अध्ययन जीवनप्रभा पृ. 4; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ.11, 12 में प्रगति की। और अल्प समय में ही प्रकरण और तात्त्विक 14. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पूर्वार्ध ढाल-5, पृ.11 ग्रंथों का अध्ययन कर लिया। तीव्र क्षयोपशम के कारण प्रखरबुद्धि जीवनप्रभा पृ. 5, 6; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 13, 14 16. जीवनप्रभा पृ. 6; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 14 बालक रत्नराज 13 वर्ष की छोटी सी उम्र में अतिशीघ्र विद्या एवं 17. धरती के फूल पृ. 35 कला में प्रविण हो गए। श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार उसी समय 18. विरल विभूति, पृ. 7 For Private & Personal use only 13. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [3] मुनाफा होने के बावजूद भी माता-पिता के वृद्धत्व एवं गिरते स्वास्थ्य बडी दीक्षा :का समाचार पाकर दोनों भाई व्यापार समेटकर वापिस कलकत्ता होकर वि.सं. 1909 में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि त्रीज) के भरतपुर आ गये। दिन श्रीमद्विजय प्रमोद सूरि जी ने उदयपुर (राजस्थान) में आपको वैराग्यभाव : बडी दीक्षा दी। साथ ही श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरि जी एवं श्री देवेन्द्रसूरि माता-पिता की वृद्धावस्था एवं दिन-प्रतिदिन गिरते स्वास्थ्य जी ने आपको उस समय पंन्यास पद भी दिया । 28 के कारण दोनो भाई माता-पिता की सेवा में लग गए। अंतत: रत्नराज अध्यापन :ने उनको अंतिम आराधना करवाई एवं एक दिन के अंतर में माता आपकी योग्यता और स्वयं की अंतिम अवस्था ज्ञातकर पिता दोनों ने समाधिभाव से परलोक प्रयाण किया।20 श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरिने अपने बाल शिष्य धरणेन्द्रसूरि जी (धीर विजय) माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् उदासीन रत्नराज आत्म को अध्ययन कराने का मुनि श्री रत्नविजयजी को आदेश दिया।" चिन्तन में लीन रहने लगे। नित्य अर्ध-रात्रि में, प्रात: काल में कायोत्सर्ग, गुर्वाज्ञा व श्रीपूज्यजी के आदेशानुसार आपने वि.सं. 1914 से 1921 ध्यान, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन आदि में समय व्यतीत करते रहे। तक धीरविजय आदि 51 यतियों को विविध विषयों का अध्ययन सुषुप्त वैराग्यभावना के बीज अंकुरित होने लगे। इतने में उसी समय करवाया और स्व-पर दर्शनों का निष्णात बनाया ।30 (वि.सं. 1902) में पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी का चातुर्मास भरतपुर में श्रीपूज्यश्री धरणेन्द्रसूरिने भी विद्यागुरु के रुप में सम्मान हुआ। आपका तप-त्याग से भरा वैराग्यमय जीवन एवं तत्त्वज्ञान से हेतु आपको 'दफ्तरी' पद दिया। दफतरी पद पर कार्य करते हुए ओत-प्रोत वैराग्योत्पादक उपदेशामृतने रत्नराज के जिज्ञासु मन का समाधान आपने वि.सं. 1920 में राणकपुर तीर्थ में चैत्र सुदि 13 (महावीर किया जिससे रत्नराज के वैराग्यभाव में अभिवृद्धि हुई। फलस्वरुप जन्मकल्याणक) के दिन पांच वर्ष में क्रियोद्धारकरने का अभिग्रह उनकी दीक्षा-भावना जागृत हुई और वे भागवती दीक्षा (प्रवज्या) किया। ग्रहण करने हेतु उत्कंठित हो गये। वि.सं. 1922 का चातुर्मास प्रथम बार स्वतंत्र रुप से 21 साधुजीवनवृत्त - यतियों के साथ झालोर में किया । इसके बाद वि.सं. 1923 का दीक्षा : चातुर्मास श्रीपूज्यश्री धरणेन्द्रसूरि के आग्रह से घाणेराव में उन्हीं के दीक्षा को उत्कण्ठित रत्नराज में उपादान उछल रहा था, केवल । साथ हुआ। निमित्त की उपस्थिति आवश्यक थी। निमित्त का योग विक्रम सं. आचार्य पद पर आरोहण : पष्ठभूमि और प्रक्रिया1904 वैशाख सुदि 5 (पंचमी) को उपस्थित हो गया और इस ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि वर्षाकाल में ही घाणेराव प्रकार अपने बडे भ्राता माणिकचन्द्रजी की आज्ञा लेकर रत्नराज ने में 'इत्र' के विषय में मुनि रत्नविजय का श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि से उदयपुर (राज.) में पिछोला झील के समीप उपवन में आम्रवृक्ष विवाद हो गया। श्री रत्नविजय जी साधुचर्या के अनुसार साधुओं के नीचे श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरि जी से यतिदीक्षा ग्रहण की। इस को 'इत्र' आदि उपयोग करने का निषेध करते थे जबकि धरणेन्द्रसूरि प्रकार आपके दीक्षा गुरु आचार्य श्री प्रमोद सूरि जी थे। अब 19. श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 15, जीवनप्रभा पृ. 16 नवदीक्षित मुनिराज 'मुनि श्री रत्नविजयजी' के नाम से पहचाने 20. विरल विभूति, पृ. 8 से 11; जीवनप्रभा पृ. 7; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 15 जाने लगे। श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 16 से 18; जीवनप्रभा पृ. 6, 7, 8 अध्ययन : जीवनप्रभा पृ. 9; धरती के फूल पृ. 55; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 18; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 6 "पढमं नाणं तओ दया23 अर्थात् ज्ञान के बिना संयम दशवैकालिकसूत्र मूल 4/10 जीवन की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं हैं। -इस बात को निर्विवाद सत्य जीवनप्रभा पृ. 10-11 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 17; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, समझकर गुरुदत्त-ग्रहण-आसेवन शिक्षा के साथ साथ मुनि श्री पृ. 19; राजेन्द्र सूरि अष्टप्रकारी पूजा 4/1, 4 25. जीवनप्रभा पृ. 11 रत्नविजयजीने दत्तवित्त होकर अध्ययन प्रारंभ किया। व्याकरण, काव्य, श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 17 अलंकार, न्याय, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, कोश, आगम आदि विषयों श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी पृ. 4; जीवनप्रभा पृ. 11; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, का सर्वांगीण अध्ययन आरम्भ किया। पृ. 19 मुनि रत्नविजयजीने गुर्वाज्ञा से खरतरगच्छीय यति श्री श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी पृ. 4; जीवनप्रभा पृ. 11; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 20 सागरचंदजी के पास व्याकरण,साहित्य, दर्शन अदि का अध्ययन श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 21; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 18 किया (वि.सं. 1906 से 1909) 14 तत्पश्चात् नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, जीवनप्रभा पृ. 14-15; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 18 टीका, वृत्ति आदि पंचागी सहित जैनागमों का विशद अध्ययन यो हि योग्यग्रामादौ चतुरो मासान् स्थातुं यतीनादिशेत्, अपराधिनाममीषामुचितं दण्डयेत कस्मैचित् पंन्यासोपाध्यायाधुपाधिप्रदाने वि.सं. 1910-11-12-13 में श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास किया। प्रमाणपत्र वितरेत, श्री पूज्यस्याऽऽयव्ययकोषांश्च प्रबन्धयेत, स एवं 'दफतरी' इनकी अध्ययन जिज्ञासा और रुचि देखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने इन्हें निगद्यते। सम्मान्यते चैष तत्पसंप्रदाये महामात्यसाम्येन । विद्या की अनेक दुरुह और अलभ्य आमनायें प्रदान की 125 श्री - कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनीगतो जीवनपरिचयः पृ. 5 टिप्पणी ____32. जीवनप्रभा पृ. 19; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 25, 28, 33 राजेन्द्रसूरि रास (पूर्वाद्ध) के लेखक रायचन्दजी के अनुसार मुनि रत्नविजय विरल विभूति, पृ. 33 . ने ज्योतिषका अभ्यास जोधपुर(राजस्थान) में चंद्रवाणी ज्योतिषी जीवनप्रभा पृ. 15, राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 23 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, के पास किया।26 पृ. 32, 36 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ.16 41. [4]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन एवं अन्य शिथिलाचारी यति इत्र आदि पदार्थ ग्रहण करते थे। श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि आदि समस्त यतिगण से अनुमत करवाया। कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी के अनुसार वि.सं.1923 के पर्युषण पर्व में तेलाधर क्रियोद्धार का बीजारोपण - के दिन शिथिलाचार को दूर करने के लिये मुनि रत्नविजय ने तत्काल श्री राजेन्द्रसूरि रास (पूर्वार्द्ध) के अनुसार दीक्षा लेकर वि.सं. ही मुनि प्रमोदरुचि एवं धनविजय के साथ घाणेराव से विहार कर 1906 में उज्जैन में पधारे तब गुरुमुख से उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत नाडोल होते हुए आहोर शहर आकर अपने गुरु श्री प्रमोदसूरिजी से भृगु पुरोहित के पुत्रों की कथा सुनकर मुनि रत्नविजयजी के भावों संपर्क किया और बीती घटना की जानकारी दी।35 में वैराग्य वृद्धि हुई और इस प्रकार आप 'क्रियोद्धार' करने के विषय इसके साथ अनेक अन्य विद्वान् यतियों ने भी श्री पूज्य में चिंतन करने लगेश्री प्रमोदसूरिजी को शिथिलाचार का उपचार करने हेतु लिखा। तब "इम ध्यावे वैरागियो कां, चिते क्रिया उद्धार। मुनि रत्नविजयजी ने आहोर में अट्ठम तप करके मौन होकर 'नमस्कार जोवे सद्गुरु वाटडी हो, संजम खप करनार ।। महामंत्र' की एकान्त में आराधना की। आराधना के पश्चात् श्री प्रमोदसूरिजी श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार पंन्यास श्रीरत्नविजयजी जब ने रत्नवजिय से कहा- "रत्न !...तुमने क्रियोद्धार करने का निश्चय 35. जीवनप्रभा पृ. 15, 16, राजेन्द्रगुणमञ्चरो, पृ. 23 से 26, श्री राजेन्द्रसूरि किया है सो योग्य है व मुझे प्रसन्नता भी है, परन्तु अभी कुछ समय का रास पत्रांक 33 से 37 ठहरो । पहले इन श्रीपूज्यों और यतियों से त्रस्त जनता को मार्ग दिखाओ, श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 36, 38; विरल विभूति, पृ. 37, 38 फिर क्रियोद्धार करो।" श्री राजेन्द्र सूरि का रास पृ. 38; जीवनप्रभा पृ. 16; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, तत्पश्चात् अपने गुरुदेव प्रमोदसूरीजी से विचार विमर्श कर पृ. 26, 27 मुनि रत्नविजय ने अपनी कार्य प्रणाली निश्चित की।36 38. श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी, जीवन परिचय, पृ. 6 श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 27; श्री राजेन्द्र सूरि का रास, पृ. 38, 39; जीवनप्रभा वि.सं. 1923 में इत्र विषयक विवाद के समय ही प्रमोदसूरि जी ने मुनि रत्नविजय को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य पदवी देना निश्चित 40. श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 28; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 39; जीवनप्रभा कर लिया था। 'श्री राजेन्द्र गुणमंजरी' आदि में उल्लेख है कि वि.सं. पृ.16, 17 1924, वैशाख सुदि पंचमी बुधवार को श्री प्रमोदसूरिजी ने कलमनामा निजपरम्परागत सूरिमंत्रादि प्रदान करके श्रीसंघ आहोर द्वारा किये (1) पेली : प्रतिक्रमण दोय टंक को करणो, श्रावक-साधु समेत करणा-करावणा, पच्चक्खाण-वखाण सदा थापनाजी गये महोत्सव में मुनि श्री रत्नविजयजी को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य की पडिलेहण करणा, उपकरण 14 सिवाय गेणा तथा पद प्रदान किया और मुनि रत्नविजय का नाम 'श्रीमद्विजय मादलिया जंतर पास राखणां नहीं, श्री देहेरेजी नित राजेन्द्रसूरि' रखा गया। आहोर के ठाकुर श्री यशवन्तसिंहजी ने जाणा, सवारी में बैठणा नहीं, पैदल जाणा । परम्परानुसार श्रीपूज्य - आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि को रजतावृत्त (2) दूजी घोडा तथा गाडी ऊपर नहीं बैठणा, सवारी खरच नहीं चामर, छत्र, पालकी, स्वर्णमण्डित रजतदण्ड, सूर्यमुखी, चंद्रमुखी एवं राखणा। दुशाला (कांबली) आदि भेंट दिये।37 मुनि यतीन्द्रविजय लिखित (3) तीजी : आयुध नहीं रखाणा, तथा गृहस्थी के पास आयुध, गेणा रुपाला देखो तो उनके हाथ नहीं लगाणा, तमंचा 'श्रीकल्पसूत्रार्थप्रबोधिनीगतजीवनम्' में इस 'आचार्य पद प्रदान समारोह' शस्त्र नाम नहीं राखणा। का वर्णन निम्नानुसार हैं (4) चोथी : लुगाईयों सुं एकान्त बेठ बात नहीं करणा, वेश्या तथा "श्री गुरु रपि....योग्यसमयं विमश्य नपुंसक वांके पास नहीं बैठणा, उणाने नहीं राखणा। श्रीसंघाऽऽराब्धमहामहेन वैक्रमे 1924 वैशाखसित-पञ्चमी बुधवासरे (5) पांचमी : जो साधु (यति) तमाखु तथा गांजा भांग पीवे, पंन्यासरत्नविजयाय निजपरम्परागतसूरिमंत्रं प्रदाय 'श्रीविजय रात्रिभोजन करे, कांदा-लसण खावे, लंपटी अपच्चक्खाणी होवे-एसा गुण का साधु (यति) होय राजेन्द्रसूरिः' इत्याख्यां दत्वा श्रीपूज्यपदं ददिवान् । तदैव ठक्कुरः तो पास राखणा नहीं। श्रीयशवन्तसिंहः श्रीपूज्यायाऽस्मै स्वर्णयष्टि-चामर-च्छत्र (6) छट्ठी : सचित लीलोतरी, काचा पाणी, वनस्पति कुं विणासणा याप्यमान-सूर्यमुखी-चन्द्रमुखी-महावस्त्रप्रमुखमार्पिपच्च ।"38 नहीं, काटणा नहीं, दांतण करणा नहीं, तेल फुलेल इस प्रकार बालक रत्नराज क्रमशः मुनि रत्नविजय, पंन्यास मालस करावणा नहीं, तालाब कुवा बावडी में हाथ रत्नविजय और अब श्रीपूज्य एवं आचार्य पद ग्रहण करने के बाद धोवणा नहीं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि नाम से पहचाना जाने लगा। आचार्य (7) सातमी : सिपाई खरच में आदमी नोकर जादा राखणा नहीं, जीवहिंसा करे ऐसा नौकर राखणा नहीं। पद ग्रहण करके आप मारवाड से मेवाड की ओर विहार कर शंभूगढ (8) आठमी : गृहस्थी से तकरार करके खमासणा प्रमुख बदले रुपिया पधारे। वहाँ के राणाजी के कामदार फतेहसागरजी ने पुनः पाटोत्सव दबायने लेणा नहीं। किया, और आचार्यश्री को शाल (कामली) छडी, चैवर आदि भेट (७) नवमी : और किसीको सद्दहणा देणा, श्रावकियाने उपदेशकिये। शुद्ध परुवणा देणी, ऐसी परुवणा देनी नहीं जणी में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसरिने शम्भगढ से विहार करते उलटो अणा को समकित बिगडे ऐसो परुवणो नहीं, और रात के बारे जावे नहीं और चोपड, सतरंज, गंजिफा हुए वि.सं. 1924 का चातुर्मास जावरा में किया।40 आचार्य पद पर वगेरा खेल रमत कहीं खेले नहीं, केश लांबा वधावे आरोहण के पश्चात् आपका यह प्रथम चातुर्मास था। जावरा चातुर्मास नहीं, फारखी पेरे नहीं और शास्त्र की गाथा 500 के बाद विक्रम संवत् 1924 के माघ सुदि 7 को आपने नौकलमी रोज सज्झाय करणा। "कलमनामा'41 बनाकर श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि द्वारा भेजे गये मध्यस्थ 42. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 40, 41, 42; जीवनप्रभा पृ. 183; श्री मोतीविजय और सिद्धिकुशलविजय -इन दो यतियों के साथ भेजकर राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 30 से 34 43. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 15 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 11के. अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [5] विहार करते हुए वि.सं. 1920 में राजगढ में पधारे थे तब वहाँ यति सूरीश्वरजी के सदुपदेश से खीमेल (राजस्थान) निवासी किशोरमलजी मानविजय ने उनको अपने गुरु की खाली गादी पर श्रीपूज्य बनकर वालचंदजी खीमावत परिवार के सहयोग से श्री संघ जावरा द्वारा बैठने को कहा, तब आपने 'मुझे तो क्रियोद्धार करना है" -ऐसा क्रियोद्धारस्थली श्री राजेन्द्रसूरि वाटिका-जावरा(म.प्र.) में एक कहकर श्रीपूज्य की गादी पर बैठने से मना कर दिया था। सुरम्य गुरुमंदिर का निर्माण किया गया हैं। क्रियोद्धार का अभिग्रह : क्रियोद्धार प्रत्रिका :वि.सं. 1920 में ही पं. रत्नविजयजी अन्य यतियों के साथ आचार्यश्री द्वारा उपर्युक्त क्रियोद्धार कार्य जिस शुभ मूहुर्त विहार करते हुए चैतमास में राणकपुर पधारे तब भगवान महावीर में किया गया था तत्संबंधी निम्नाङ्कित पत्रिका उपलब्ध हैं "स्वस्ति श्री तीर्थनायकं जिनवरेन्द्र श्रीवर्धमानं प्रणिप्रत्य, के 2389 वें जन्म कल्याणक के उपलक्ष में रत्नविजयजी ने अट्ठम लिख्यते श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर-क्रियोद्धार पत्रिका । श्री (तीन उपवास) तप करके राणकपुर में परमात्मा आदिनाथ की विक्रमादित्य राज्यातीते सं. 1925 वर्षे अषाढकृष्णौ 10 (दशमी) साक्षी से पांच वर्षों में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह लिया था । शनौ (सोमे) रेवति नक्षत्रे शोभनयोगे मिथुनलग्ने क्रियोद्धारसमयं वहीं पारणा के दिन प्रात:काल में मुनि रत्नविजयजी मंदिर से दर्शन शुभम् 1 ता. 15-6-1868 कर बाहर जिनालय के सोपान उतर रहे थे तब किसी अबोध बालिका तस्य लग्नमिदम् - ने आकर कहा- "नमो आयरियाणं' मालछाब तेला छपल हो गया 4 शुं. आप पालणा करो, बाछठ मीनों में करना" ('नमो आयरियाणं' महाराज साहब! तेला (अट्ठम तप) सफल हो गया। आप पारणा करो। (क्रियोद्धार) राहY 3 सू.बु. बासठ महीनों में (के बाद) करना" -ऐसा कहकर वह बालिका दौडकर मंदिर में उद्दश्य हो गई। इस प्रकार उन्हें दिव्य शक्ति के द्वारा क्रियोद्धार करने का संकेत भी मिला 16 - इसके बाद वि.सं. 1922 में जालोर( राजस्थान) चातुर्मास में भी आपको क्रियोद्धार करने की तीव्र भावना हुई । यति महेन्द्र विजयजी, धनविजयजी आदिने भी क्रियोद्धार करने में अपनी सहमति 1/ 8 श. 10 बताई। वि.सं. 1923 में भी जब आप धाणेराव से आहोर पधारे थे क्रियोद्धारक के तत्काल बाद श्री धनविजयजी एवं श्री तब भी आपने आहोर में एक महिना तक अभिग्रह धारण करके प्रमोदरुचिजी आपके पास उपसंपद् दीक्षा ग्रहण करके आपके शिष्य शुद्ध अन्न-पानी ही उपयोग में लिये। इतना ही नहीं अपितु राजेन्द्रसूरि बन गये एवं प्रथम श्रावक-श्राविका के रुप में जावरा निवासी छोटमलजी रास में तो स्पष्ट उल्लेख हैं कि, श्रीपूज्य पद एवं आचार्य पद ग्रहण जुहारमलजी पारख एवं उनकी श्राविकाने गुरुदेवश्री से श्रावक व्रत करने के पश्चात् आपने अपने गुरुश्री प्रमोद सूरिजी48 से भी क्रियोद्धार अंगीकार किये। (उनके वंशज आज भी इन्दौर, रतलाम, आदि जगह हेतु विचार विमर्श करके आज्ञा भी प्राप्त की थी। हैं)। ___ अत: उत्कृष्ट तप-त्यागमय शुद्ध साधु जीवन का आचरण क्रियोद्धार के साथ ही आपने प्राचीन त्रिस्तुतिक परम्परा एवं वीरवाणी के प्रचार के अपने एक मात्र ध्येय की पूर्ति हेतु पूर्वोक्तानुसार का भी पुनरुद्धार किया एवं अपने गच्छ का नाम श्री सौधर्म धरणेन्द्रसूरि आदि के द्वारा नव कलमनामा अनुमत होने के बाद आचार्य बृहत्तपोगच्छ रखा। अत: यहाँ प्रसंगोपात्त त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने वि.सं. 1925 में आषाढ वदि दशमी भी परिचय दिया जा रहा हैंशनिवार/सोमवार, रेवती नक्षत्र, मीन राशि,शोभन (शुभ) योग, मिथुन लग्न में तदनुसार दिनांक 15-6-1868 में क्रियोद्धार करके । 44. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 27 शुद्ध साधुजीवन अंगीकारकिया । उसी समय छडी, चामर, पालखी 45. धरती के फूल पृ. 68, 70 आदि समस्त परिग्रह श्री ऋषभदेव भगवान के जिनालय में श्री 46. धरती के फूल पृ. 71 संघ-जावरा के अर्पित किया, जिसका ताडपत्र पर उत्कीर्ण लेख 47. धरती के फूल पृ. 33 से 38 48. आचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी के अनुसार उनके गुरु श्री श्री सुपार्श्वनाथ के मंदिर के गर्भगृह के द्वार पर लगा हुआ है। प्रमोदसूरिजी एवं उनके बड़े गुरुभ्राता श्री हेमविजयजी के तप-त्याग क्रियोद्धार के समय आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र एवं साधु जीवन का मुनि रत्नविजयजी पर अमीट प्रभाव था। क्योंकि सूरीश्वरजीने अट्ठाई (आठ उपवास) तप सहित जावरा शहर के बाहर उनका जीवन तो साधु के समान ही था। वे अपनी पिछली उम्र में (खाचरोद की ओर) नदी के तटपरवटवृक्ष के नीचे नाण (चतुर्मुख नित्य आयंबिल तप करते थे परंतु धरणेन्द्रसूरि एवं उनके साथवाले यतियों का जीवन शिथिलाचारी था। जिनेश्वरप्रतिमा) के समक्ष केश लोंच किया, पञ्च महाव्रत उच्चारण ____49. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 47; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 35, 36; जीवनप्रभा किये एवं शुद्ध साधु जीवन अंगीकार कर सुधर्मा स्वामी की 68वीं पृ. 19 पाट पर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी' नाम से प्रख्यात । 50. धरती के फूल पृ. 126, 127 51. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 47; अभिधान राजेन्द्र भाग 7, संस्कृत प्रशस्तिहुए । वर्तमान में आपके प्रशिष्यरत्न, राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन 1, मुद्रण प्रशस्ति-2 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का महत्त्व एवं प्राचीनता जैनों के प्रथम तीर्थंकर परमात्मा ऋषभदेव ने वर्तमान अवसर्पिणी काल में गृहस्थावस्था में सर्वप्रथम मानव सभ्यता, असिविद्या, मषिविद्या और कृषिविद्या का आलोक बिखेरा एवं केवलज्ञान के बाद मोक्ष प्राप्ति हेतु समीचीन धर्म की प्ररुपणा की। उस धर्म में देवोपासना को कोई स्थान नहीं था। परन्तु अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समय में यज्ञ-यागों का और देवोपासना का बहुत बोलवाला था। अतः उन्होंने यज्ञ और यज्ञ के निमित्त होने वाली पशुहिंसा का तीव्र विरोध कर अहिंसा प्रधान श्रमण धर्म/जैनधर्म को पुनः प्रकाशित किया। उनके अथक प्रयत्नों से हिंसक यज्ञ-यागों का प्रचलन बंद हो गया। और उनके वीतराग मार्ग के प्रकाशन के कारण देवोपासना भी बंद हो गयी। जैनधर्म में देवोपासना को कोई स्थान नहीं है। यहाँ वीतरागता और वीतराग की आराधना को ही प्रधानता दी गयी हैं। परमात्मा ने आराधकों के लिये आत्मकल्याणकर और मोक्षप्रदायक सामायिकादि छह आवश्यकमय भावानुष्ठानों का प्रतिपादन किया है जो कि आराधक को संसार-भ्रमण से मुक्त करता हैं। भगवान् महावीर के पश्चात् सुधर्मा स्वामी की परंपरा चली। इस परंपरा में सुदेव, सगुरु और सुधर्म की आराधना की जाने लगी। इसी परंपरा में चौथे पाट पर श्री शय्यंभवसूरि महाराज हुए। उन्होंने धर्म का महत्त्व प्रतिपादन करते हुए दशवैकालिक सूत्र के प्रारंभ में कहा "धम्मो मङ्गलमुक्टुिं अहिंसा संजमो तवो।। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो । अर्थात् अहिंसा, संयम और तप ही धर्म हैं। यही उत्कृष्ट मङ्गल है। देवता भी उसे प्रणाम करते हैं, जिसका मन सदा इस धर्म में लगा रहता हैं। त्रिस्तुतिक सिद्धांत अर्थात् सम्यक्त्व एवं व्रत धारण के बाद तीन थुई का सिद्धांत, जिसमें आराधक चैत्यवन्दन करते समय तीन स्तुतियाँ बोलते हैं___1. पहली अघिकृत जिनकी, 2. दूसरी सर्व जिन की और 3. तीसरी जिनागम की वीतराग की आराधना का यही श्रेष्ठतम मार्ग है। यही शुद्ध साधन है और इसी के द्वारा मोक्षरुप शुद्ध साध्य सिद्ध होता है। यह साधना के क्षेत्र में एक निर्मल आचरण हैं। यह सम्यग्दर्शन की रीढ है। इसके अभाव में सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता हैं । यह सिद्धांत आराधक को स्वावलम्बी बनाने की प्रेरणा देता है। इसी सिद्धांत के पालन में वीतरागता का गौरव निहित हैं। इस सिद्धांत ने यह स्पष्ट कर दिया कि वीतरागी ही वंदनीय, पूजनीय तथा अनुक्षण स्मरणीय हैं। जिनागम में जगह-जगह इस त्रिस्तुतिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया हुआ हैं जिसके संबंधित शास्त्रपाठ शोध-प्रबंध के परिशिष्ट क्र.2 पर वर्णित हैं। भगवान् महावीर के पश्चात् हजार वर्ष तक यह सिद्धांत अबाधित रुप से चलता रहा, पर बाद में अन्य धर्मो के प्रभाव से लोग देवोपासक होने लगे और इन तीन थुइयों में चौथी थुई का मत चल पड़ा। चौथी थुई देवी-देवता से संबंधित हैं। श्री बुद्धिसागरसूरि जी महाराज 'गच्छमतप्रबन्ध' में लिखते हैं - "विद्याधर गच्छनां श्री हरिभद्रसूरि थया ते जाते ब्राह्मण हता। तेमणे जैन दीक्षा ग्रहण करी । ते याकिनी साध्वीनां धर्मपुत्र कहेवाता हतां । तेमणे 1444 ग्रंथो बनाव्या । श्रीवीरनिर्वाण पछी 1055 वर्षे स्वर्गे गया । त्यार पछी चतःस्तुतिक मत चाल्यो । इस प्रकार 'चार थुई' का मत प्रारंभ हुआ और सौधर्म गच्छ में देवी-देवताओं की उपासना प्रारंभ हुई। शिथिलाचार बढ गया और देवी-देवताओं के स्तोत्र, स्तुतियाँ, स्तवन आदि रचे जाने लगे। उनसे धन-दौलत, एश्वर्य (ठकुराई) आदि की याचना की जाने लगी। त्रिस्तुतिक सिद्धांत अदृश्य होने लगा, फिर भी परमात्म-प्ररुपित यह सिद्धांत पूरी तरह से लुप्त नहीं हुआ। थराद क्षेत्र (उ.गुजरात) में तीन थुई सिद्धांत यथावत् प्रचलित रहा। थराद में विक्रम की नौंवी शती में थारापदीय/थिरापद्र गच्छ,13 वीं शती में 'आगमिका गच्छ' एवं 16 वीं शती में कडवामति गच्छ' की मान्यता प्रचलित थी। ये सभी गच्छ तीन थुई सिद्धांत का आचरण करते थे। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी जब वि.सं. 1937 में धानेरा पधारे तब थराद के कडवागच्छ के यति श्री लाघाजी साजीने आचार्यश्री को उक्त बात ज्ञात करवाकर साग्रह विनंतीपूर्वक थराद में आपका पदार्पण करवाया था । 52. 53. श्री दशवैकालिका सूत्र 11 ले.आ.श्री.वि. जयन्तसेनसूरि - असली दुनिया, इन्दौर सं., दिनांक 02.09-2000 पृ. 4से उद्धृत गच्छमतप्रबंध अने संघ प्रगति, पृ. 169 थराद-प्राचीन थिरपुर नगर : 'युग युगनी याद' -लेखक कीर्तिलाल बोरा 55. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [7] आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की गच्छपरम्परा भारतीय अध्यात्म परंपरा में किसी भी ऋषि-मुनि को किसी न किसी सम्प्रदाय के गुरु से दीक्षित होना आवश्यक माना जाता है, इसके अभाव में उसे प्रामाणिक नहीं माना जाता। कुछ लोगों के मन में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के गच्छ के विषय में भ्रम है किआचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि का कोई गुरु नहीं था और उन्होंने स्वयं ही दीक्षित होकर अपना मत चलाया। जब कि सत्य यह है कि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि 'सुधर्म गण' की वज्रशाखा में चंद्र कुल में तपागच्छीय परंपरा में हुए है। अतः आचार्यश्री की गच्छपरम्परा के विषय में स्पष्टीकरण प्रस्तुत करना आवश्यक हैं। यहाँ इसलिए प्रसंगवश इनका संक्षिप्त ऐतिहासिक गच्छ परिचय दर्शाया जाता है श्रीमहावीर स्वामी के 9 गच्छ एवं 11 गणधर थे, जिसमें 9 गणधर तो उनकी उपस्थिति में ही निर्वाण को प्राप्त हो चुके थे, और गौतमस्वामी को प्रात: केवलज्ञान की प्राप्ति होने वाली थी, अतः श्रीमहावीर स्वामी ने सुधर्मा स्वामी को संघ की समस्त व्यवस्था एवं उत्तरदायित्व दिया। वर्तमान में जो भी जितने भी साधु-साध्वी हैं वे सब सुधर्मा स्वामी की परंपरा के हैं। उनके नाम से निर्ग्रन्थ गच्छ 'सौधर्मगच्छ' (गण) के नाम से प्रख्यात हुआ भगवान् की 9 वीं पाट पर आर्य सुहस्तिसूरिजी के शिष्य आर्य सुस्थितसूरिजी और सुप्रतिबद्ध सूरिजी हुए। उन्होंने आचार्य पद प्राप्ति के बाद काकंदी नगरी में 'सूरिमंत्र' (जैनाचार्यों ही के द्वारा जपयोग्य विशिष्ट लब्धिविद्यायुक्त महान् प्रभाविक मंत्र) का करोड बार जाप किया। जिससे सौधर्म गच्छ में इनका गच्छ 'कोटिक गण' के नाम से प्रचलित हुआ । कोटिक गण की चार शाखाओं में तृतीय व्रज शाखा हुई। भगवान् महावीर की 13 वीं पाट पर अंतिम दशपूर्वधर युगप्रधान आचार्य श्री वज्रस्वामी हुए।60 उनके शिष्य आचार्य वज्रसेनसूरि हुए। आचार्य वज्रसेन के शिष्य आचार्य चंद्रसूरि के नाम से चंद्र कुल की उत्पत्ति हुई 12 भगवान् महावीर के सोलहवें पाट पर श्री समन्तभद्रसूरिजी हुए, जो अधिकांश वन में ही रहते थे और इसी कारण उनसे इसी परंपरा में वनवासी गच्छ उत्पन्न हुआ। वनवासी गच्छ में आचार्य श्री नेमिचंद्रसूरिजी के पट्टधर श्री उद्योतनसूरि हुए। उन्होंने आबु पर्वत की तलहटी में तेली गाँव में बलवान् ग्रह-नक्षत्र युक्त उत्तम मुहूर्त में संतानवृद्धि का सहज योग देखकर वटवृक्ष के नीचे सर्वदेव आदि आठ पुरुषों को दीक्षा दी। इससे वनवासी गच्छ में वडगच्छ उत्पन्न हुआ।64 वडगच्छ के श्री मणिरत्नसूरि जी के शिष्य श्री जगच्चंद्रसूरि हुए। आपने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार को दूर करने हेतु यावज्जीव अभिग्रहपूर्वक आयम्बिल 5 तप किया। इससे प्रभावित होकर मेवाड नरेश झैलसिंहजी ने वि.सं. 1285 में आपको 'तपा' (अर्थात् तप करने वाला) नामक बिरुद दिया जो आगे जाकर आपके गच्छ के साथ जुडने पर सौधर्म गच्छ...वडगच्छ तपागच्छ कहलाया।66 'तपा' शब्द 'तपस्' का अपभ्रंश है किन्तु जाति वाचक रुढ शब्द होने से 'तपा' रुप में ही प्रयुक्त होता है। कुछ लोग इसके स्थान पर 'तपस्' का प्रयोग करके '...तपोगच्छ' प्रयोग भी करते हैं। इसी तपागच्छ की परंपरा में आचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी हुए जिन्होंने वि.सं. 1925 अषाढ वदि दशमी के दिन क्रियोद्धार के समय अपने गच्छ का नाम श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छ रखा। 56. 57. 61. अ.रा.पृ. 5/256; कल्पसूत्र मूल, स्थविरावली गाथा 5 एवं टीका; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ. 106, 107 अ.रा.भा. 7 - मुद्रण प्रशस्तिश्लोक-1 अ.रा.पृ. 5/256; वही भाग 7, मुद्रणपरिचयश्लोक 1; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ.133 अ.रा.पृ. 5/256; मुद्रणपरिचयश्लोक 1; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ.133 अ.रा.पृ. 5/256; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ. 148 अ.रा.पृ. 5/256; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ. 150 अ.रा.भा. 7; मुद्रणपरिचयश्लोक; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ.158 अ.रा.भा. 7; मुद्रण परिचय अ.रा.भा. 7; मुद्रणपरिचयश्लोक; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ.193 आयंबिल-जिसमें घी, तेल, दूध, दही, गुड-शक्कर एवं कडा विगर (तली चीज) इन छ: विगइ (विकृति) एवं हरी वनस्पति आदि के त्यागपूर्वक केवल उबला हुआ धान्य या रुखी रोटी आदि दिन में एक ही बार एक ही जगह पर बैठकर खाया जाता है उसे जैन सिद्धान्त के अनुसार 'आयंबिल' तप कहते हैं। अ.रा.पृ. 4/1383; 2185; एवं 5/256; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ. 229 अ.रा.भा. 7, मुद्रणपरिचय, श्लोक 2 ; संस्कृतप्रशस्ति, श्लोक । 67. श्रीमत्सौधर्मगच्छः प्रवरमतियुतः कल्पवृक्षः प्रतीतो, गच्छाचारैकचारप्रशमरसधरः सूरिमुख्यो विशालः। संसारोन्मूलनेभश्रमणगणशुभः शान्तिचारुः प्रफुल्लः, सोऽयं सौधर्मगच्छो जयति जगति वो बोधिबीजं तनोतु ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की गुरुपरम्परा श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय गुर्वावली/पट्टावली (शासनपति श्री महावीर स्वामीजी) क्रम आचार्य का नाम क्रम आचार्य का नाम क्रम आचार्य का नाम 1. श्री सुधर्मास्वामीजी 25. श्री नरसिंहसूरिजी 49. श्री देवसुन्दरसूरिजी श्री जम्बूस्वामीजी श्री समुद्रसूरिजी श्री सोमसुन्दरसूरिजी श्री प्रभवस्वामीजी श्री मानदेवसूरिजी 51. श्री मुनिसुन्दरसूरिजी श्री शय्यंभवसूरिजी श्री विबुधप्रभसूरिजी 52. श्री रत्नशेखरसूरिजी श्री यशोभद्रसूरिजी 29. श्री जयानन्दसूरिजी 53. श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी श्री संभूतिविजयजी श्री रविप्रभसूरिजी S4. श्री सुमतिसाधुसूरिजी श्री भद्रबाहुस्वामीजी श्री यशोदेवसूरिजी 55. श्री हेमविमलसूरिजी श्री स्थूलिभद्रसूरिजी श्री प्रद्युम्नसूरिजी 56. श्री आनन्दविमलसूरिजी श्री आर्य महागिरिजी श्री मानदेवसूरिजी 57. श्री विजयदानसूरिजी श्री आर्य सुहस्तिसूरिजी श्री विमलचन्द्रसूरिजी 58. श्री हीरविजयसूरिजी श्री सुस्थितसूरिजी 35. श्री उद्योतनसूरिजी 59. श्री विजय सेनसूरिजी श्री सुप्रतिबद्धसूरिजी श्री सर्वदेवसूरिजी श्री विजय देवसूरिजी श्री इन्द्रदिन्नसूरिजी श्री देवसूरिजी श्री विजय सिंहसूरिजी श्री दिन्नसूरीजी श्री सर्वदेवसूरिजी 62. श्री विजय प्रभसूरिजी श्री सिंहगिरिसूरिजी श्री यशोभद्रसूरिजी 63. श्री विजय रत्नसूरिजी श्री वज्रस्वामीजी (श्री नेमिचन्द्रसूरिजी) श्री क्षमासूरिजी श्री वज्रसेनसूरिजी श्री मुनिचन्द्रसूरिजी श्री विजय देवेन्द्रसूरिजी 15. श्री चन्दसूरिजी श्री अजितदेवसूरिजी 66. श्री विजय कल्याणसूरिजी श्री समन्तभद्रसूरिजी श्री विजयसिंहसूरिजी श्री विजय प्रमोदसूरिजी श्री वृद्धदेवसूरिजी ___ श्री सोमप्रभसूरिजी श्री विजय राजेन्दसूरिजी श्री प्रद्योतनसूरिजी (श्री मणिरत्नसूरिजी) 69. श्री विजय धनचन्द्रसूरिजी श्री मानदेवसूरिजी श्री जगच्चन्द्रसूरिजी 70. श्री विजय भूपेन्द्रसूरिजी श्री मानतुङ्गसूरिजी 45. श्री देवेन्द्रसूरिजी 71. श्री विजय यतीन्द्रसूरिजी श्री वीरसूरिजी श्री विद्यानन्दसूरिजी 72. श्री विजय विद्याचन्द्रसूरिजी श्री विजयदेवसूरिजी 46. श्री धर्मघोषसूरिजी 73. वर्तमान श्रीमद्विजय श्री देवानन्दसूरिजी 47. श्री सोमप्रभसूरिजी जयन्तसेनसूरिजी 24. श्री विक्रमसूरिजी 48. श्री सोमतिलकसूरिजी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के क्रियोद्धारकत्व के विषय में कुछ लोगों में ऐसा भ्रम है कि आपके कोई गुरु नहीं थे, परन्तु यह सत्य नहीं है। आपके गुरु आचार्य श्री प्रमोदसूरिजी थे जैसा कि पूर्व में दीक्षा-प्रकरण में उल्लेख किया गया है। इनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित हैश्री विजय प्रमोदसूरिजी : वृद्धावस्था में जंधाबल क्षीण होने से आपने आहोर में स्थिरवास भगवान् महावीर के प्रवर्तमान शासन में गच्छाधिपति के किया था ।आपके रत्नविजयजी और ऋद्धिविजयजी दो शिष्य थे। जिसमें प्रथम क्रम पर श्री सुधर्मास्वामी का नाम आता है। इस परम्परा के से संघ के आग्रह से वि.सं. 1924 में वैशाख शुक्ल पञ्चमी के दिन 67 वें क्रम पर आचार्य श्रीमद्विजय प्रमोदसूरि आसीन थे। आपका आपने रत्नविजयजी को आचार्य पद देकर श्री विजय राजेन्द्रसूरिजी जन्म डबोक (मेवाड) में गौड ब्राह्मण परमानन्दजी की भार्या पार्वतीबाई नाम से प्रसिद्ध किया। आपने आहोर में वि.सं. 1934 में चैत्र कृष्णा की कुक्षि से वि.सं. 1850 में गुडी पडवा (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) अमावस्या को देह त्याग किया।69 के दिन हुआ था। आपका जन्म का नाम प्रमोदचन्द्र था। आपने 68. श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ, श्रीअभिधानराजेन्द्र कोशवि.सं. 1863 में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि 3) के दिन दीक्षाव्रत द्वितीयावृत्ति अंगीकार किया था। वि.सं. 1893 मे ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन 69. अ.रा.भा. 7, मुद्रणपरिचय, श्लोक 2 ; संस्कृतप्रशस्ति, श्लोक 1, पृ. आपको आचार्य पद प्रदान किया गया। 8,9 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [9] आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की शिष्यपरम्परा आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि के हाथ से करीब 250 दीक्षाएँ हुई थीं परंतु जो लोग आपके कठोर आचार पालन एवं दृढ अनुशासन में नहीं रह पाये वे यत्र-तत्र शिथिलाचारी संवेगी, ढूंढकों, ('ढूँढक' यह एक सम्प्रदाय का नाम है) में मिल गए फिर भी आपका जो भी शिष्य-शिष्या परिवार वर्तमान में हैं वह सभी आचार पालन में दक्ष एवं शासन प्रभावना में अतिशय निपुण हैं। जिसमें कुछेक का यहाँ परिचय दिया जा रहा हैंश्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज: प्रसन्न मुद्रा, विशाल भाल, भद्र प्रकृति, मधुर भाषी, आपका जन्म वि.सं. 1896 में चैत्र शुक्ला चतुर्थी के दिन शान्त-दान्त, कषायों से बचने में प्रतिपल सावधान, स्वच्छ-सुन्दर ओसवंशीय कंकु चोपडा गोत्रीय शा. ऋद्धिकरणजी की धर्मपत्नी लिखावट, वैयावृत्य और स्वाध्यायलीनता मुनि मोहनविजयजी अचलादेवी की कुक्षी से किशनगढ (राज.) में हुआ था। आपका की पहचान थी। जन्म का नाम धनराज था। बारह वर्ष की आयु में ही आपने व्यवहारिक वि.सं. 1959 में आपको गुरुदेव के हाथ से पंन्यास पद शिक्षा ले ली एवं धार्मिक शिक्षा में भी पंचप्रतिक्रमण जीवविचारादि एवं वि.सं.1966 में रानापुर(म.प्र.)में तत्कालीन आ.श्री.वि. धनचंद्र चार प्रकरण, छ: कर्मग्रंथ और प्रवचनसारोद्धारादि ग्रंथ कंठस्थ कर सूरीश्वर जी के हाथ से उपाध्याय पद प्राप्त हुआ। आपके द्वारा लिये थे। श्री सिद्धाचलादि अनेक तीर्थों की यात्रा भी की थी। हस्तलिखित क्रियाविधि और समाचारी ही गच्छ में प्रमाण माने आपने यति श्री लक्ष्मीविजयजी के पास वि.सं. 1917 में अक्षयतृतीया, जायेंगे - ऐसी गुर्वाज्ञा इस गच्छ में अद्यावधि प्रवर्तित है। आपका गुरुवार के दिन धानेरा (गुजरात) में यति दीक्षा ग्रहण की। स्वर्गवास वि.सं. 1977 के पौष सुदि चतुर्थी को कुक्षी, जिला-धार दीक्षा के पश्चात् आपने अनेक छंद, थोकडे, सैद्धांतिक बोल, (म.प्र.) में हुआ था। उत्तराध्ययन सूत्र एवं दशवैकालिक सूत्र कंठस्थ किये। तत्पश्चात् व्याकरण श्री प्रमोदरुचिजी2:- - के अध्ययन हेतु आप पंन्यास श्री रत्नविजयजी (आ.वि. राजेन्द्रसूरि आपका जन्म मेवाड देशीय भींडर गाँव में वि.सं. 1898 जी) के पास आये। यहाँ आपने चन्द्रिका की तीनों वृत्ति एवं पंच में कार्तिक सुदि 5 के दिन शिवदत्त विप्र की धर्मपत्नी मेनावती काव्य का अध्ययन किया एवं शुद्ध साध्वाचार पालन की तीव्र उत्कण्ठा से हुआ था। आपके छोटे भाई रघुदत्त और छोटी बहन रुक्मणी थी। से वि.सं. 1925 में अषाढ वदि दशमी-बुधवार के दिन आचार्यश्री वि.सं. 1913 माघ सुदि 5 गुरुवार को आपने पं. अमररुचि के पास के साथ क्रियोद्धार कर उनके अपसंपत् शिष्य बने। आपको वि.सं. भींडर में ही यति दीक्षा ली। सं. 1925 आषाढ वदि 10 को आपने 1925 में मार्गशीष शुक्ल पंचमी को आचार्यश्री ने खाचरोद में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के साथ क्रियोद्धार करके शुद्ध उपाध्याय पद एवं वि.सं. 1965 में ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी के दिन मुनि जीवन अंगीकार कर आप आचार्यश्री के प्रथम दीक्षोपसंपद् श्रीसंघ ने जावरा में आचार्य पद प्रदान किया। शिष्य बने। जैनागम पञ्जागी एवं अन्य सभी प्रकार से साहित्य के आप संगीत शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे, इसलिए आपको आप अच्छे ज्ञाता थे। श्री संघ में आपको सिद्धांतसर्वज्ञ"आगमचर्चा 'संगीतवारिधि' पद से अलङ्कृत किया गया। गुरुभक्ति, सरलता, चक्रवर्ती' की पदवी प्रदान हुई थी। आपने 'श्री अभिधान राजेन्द्र मृदुता और समत्व की उपासना आपके विशिष्ट गुण थे। श्री हुकमविजयजी कोश' की रचना में गुरुदेवश्री को पूर्ण सहयोग किया। अपनी पाट आपके शिष्य थे। आपका स्वर्गवास वि.सं. 1938 आषाढ वदि 14 पर अपने गुरुभाई श्री दीपविजयजी को अपने उत्तराधिकारी के रुप को वाँगरोद में हुआ था। में घोषित कर आपने वि.सं. 1977 में भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा (महावीर श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज:जन्म वाचन दिन) सोमवार को रात्रि 9.00 बजे वागरा (राज.) में आपका जन्म भोपाल (म.प्र.) में श्रीमाली भगवानजी की देहत्याग किया, जहाँ आज समाधि मंदिर बना हुआ हैं। धर्मपत्नी सरस्वती की कुक्षी से वि.सं. 1945 में अक्षय तृतीया के उपाध्याय श्री मोहनविजयजी: दिन हुआ था। आपका जन्म का नाम 'देवीचन्द' था। बाल्यकाल वि.सं. 1922 में भाद्रपद वदि द्वितीया को आपका जन्म में ही माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् जैसेलमेर निवासी श्रेष्ठी संबूजा (आहोर, (राज.) के निकट) गाँव में ब्राह्मण वरदीचन्द की केसरीमलजी के साथ आप आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के पत्नी लक्ष्मीबाई की कुक्षी से हुआ था। आपका जन्म का नाम मोहन दर्शनार्थ पहुंचे एवं उनके सदुपदेश से वैराग्य वासित होकर वि.सं. था। कर्मसंयोग से 5 वर्ष की वय में आप गूंगे हो गये एवं हाथ- 1952 में अक्षय तृतीया के दिन आलीराजपुर में दीक्षा एवं वि.सं. पैर संधिवात से ग्रस्त हो गए। इसी हालत में आप वि.सं. 1932 1954 माघ सुदि पंचमी को आहोर में बडी दीक्षा ली एवं मुनि में आहोर में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के संपर्क में आये। श्री दीपविजयजी नाम से प्रसिद्ध हुए। आपको वि.सं. 1973 में गुरु कृपा से तत्काल आम पूर्ण स्वस्थ हो गए। तब अपने जीवन विद्वमंडल ने विद्याभूषण' और साहित्य विशारद' -पद से अलंकृत को गुरुचरणों में समर्पित करते हुए वि.सं. 1933 में फाल्गुन सुदि 70. श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरि जीवनचरित्र से उद्धृत द्वितीया के दिन जावरा (म.प्र.) में आपने आचार्यश्री के पास दीक्षा 71. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि काव्य से उद्धृत, धरती के फूल, पृ. 319, 320 ग्रहण की। 72. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि काव्य से उद्धृत, धरती के फूल, पृ. 320-21-22 73. श्रीमद्विजय भूपेन्द्रसूरि जीवन चरित्र Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 [10]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन किया एवं वि.सं. 1980, ज्येष्ट सुदि अष्टमी, शुक्रवार को श्रीसंघ आपको वि.सं. 1972 में वागरा (राज.) में श्रीमद्विजय धनचन्द्र ने आचार्य पद प्रदान किया एवं श्री भूपेन्द्र सूरीश्वर जी नाम घोषित सूरिजी म.सा. ने 'व्याख्यान वाचस्पति', वि.सं. 1980 में जावरा किया। वि.सं. 1990 में अहमदाबाद में हुए अ.भा. जैन श्वे.मूर्तिपूजक में श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने 'उपाध्याय पद' एवं आ. मुनि सम्मेलन में अनेकों आचार्य एवं सैकडों मुनियों के बीच जो सागरानंद जी के साथ शास्त्रार्थ में उसी वर्ष रतलाम नरेश की विद्वमंडली 9 प्रामाणिक आचार्यों की समिति बनी थी, उसमें आप चतुर्थ स्थान की मध्यस्थता में पीताम्बरविजेता' पदवी एवं वि.सं. 1995 में वैशाख पर थे। सुदि दशमी को आहोर में श्रीसंघ ने आचार्य पदवी दी। श्री दानविजयजी आदि 5 साधु एवं अनेक साध्वियाँ आपके आपके मुनि श्री विद्याविजयजी आदि 18 शिष्य थे एवं हस्तदीक्षित हैं। आप स्वभाव से सरल और शांति प्रिय थे। साथ अनेकों शिष्याएं थी। आप विद्वानों से प्रेम रखते थे एवं उन्हें आदर ही जैनागम एवं अन्य जैन-जैनेतर धार्मिक-ग्रंथ, संस्कृत, प्राकृत व्याकरण, और सम्मान देते थे। कोश, अलंकारादि, तर्क, न्याय आदि के प्रकाण्ड मर्मज्ञ विद्वान् थे। आपने मुनि श्री दीपविजयजी के साथ रहकर अभिधान आपने विश्वविख्यात अभिधान राजेन्द्र कोश का संपादन- राजेन्द्र कोश का संपादन-संशोधन एवं प्रकाशन करवाकर गुस्देव संशोधन एवं प्रकाशन कार्य मुनिश्री यतीन्द्र विजयजी के साथ रहकर एवं श्रीसंघ का अभूतपूर्व विश्वास संपादन किया। स्वाध्याय और पूर्ण जिम्मेदारी पूर्वक संपन्न किया। सूक्त मुक्तावली आदि 5 ग्रंथो लेखन आपका प्रिय व्यसन था।आपके शिष्यों ने कभी आपको की टीका, अनुवाद एवं अनेको चैत्यवन्दन-स्तुति-स्तवनादि की रचना किसी से बात करते या फालतू बैठे नहीं देखा । हमेशा दीवाल की। आपकी रचनाओं में प्रचुर अर्थगांभीर्य प्राप्त होता है। आपका की ओर मुख करके सतत लेखन आपकी प्रिय प्रवृत्ति थी। आपने स्वर्गवास वि.सं. 1993 माध शुक्ला सप्तमी को प्रातः आहोर (राज.) तीन थुइ की प्राचीनता, सत्यबोध-भास्कर, पीत पयग्रह मीमांसादि में हुआ। प्राय: 60 के करीब ग्रंथ लिखे। लेकिन आप एवं मुनि दीपविजयजी श्रीमद्विजय यतीन्द्र सरीश्वर जी महाराज : द्वारा लिखित अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग का उपोद्घात आपका जन्म ओशवंशी जायसवाल गोत्रीय दिगम्बर कोई पढे, वह सहज ही आपकी विद्वत्ता के प्रति नतमस्तक हो सम्प्रदायानुयायी श्री बृजलालजी की धर्मपत्नी चम्पादेवी की कुक्षी जाता हैं। मेरी नेमाड यात्रा, मेरी गोडवाड यात्रा आदि में आपने से वि.सं. 1940 कार्तिक शुक्ला द्वितीया, रविवार के दिन धौलपुर विभिन्न गाँव नगरों के लोगों के रहन-सहन एवं स्वभाव के विषय (धवलपुर) राजस्थान में हुआ था। आपका जन्मनाम रामरत्न था। जब में जो बातें लिखी है वह आज भी इतनी ही सत्य साबित होती रामरत्न 5 वर्ष के थे तब माता का स्वर्गवास हो गया और उनके हैं। इतना ही नहीं जैन श्वे. श्रीसंघ के अन्य बडे-बडे विद्वान् आचार्य पिताजी धौलपुर छोडकर भोपाल (म.प्र.) जा बसे। वहाँ रामरत्नने भी आपकी कही हुई बातों को सैद्धांतिक रूप से प्रामाणिक मानते अल्पायु में ही दिगम्बर पाठशाला में पंचमंगल पाठ, तत्त्वार्थ सूत्र, थे एवं विभिन्न विषयों में आपकी सलाह लेते थे। रत्नकरण्डक श्रावकाचार, आलाप पद्धति, द्रव्य संग्रह, देवगुरु धर्म परीक्षा, नित्यस्मरणपाठ का अर्थ सहित अध्ययन किया, साथ ही भक्तामर, आपने आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा पुनः प्रचारित मंत्राधिराज, कल्याण मंदिर, विषापहार आदि स्तोत्र भी कंठस्थ किये। त्रिस्तुतिक सिद्धांत एवं गच्छ की आचार मर्यादा का दृढतापूर्वक पालन 12 वर्ष की अल्पायु में पिता का भी स्वर्गवास हो जाने करने के साथ श्रीसंघ में उन सिद्धांतो का प्रचार-प्रसार कर दृढतापूर्वक से रामरत्न मामा के यहाँ रहे लेकिन वहाँ अनबन होने से वे उज्जैन पालन करवाया। सामाजिक एकता एवं समाज सेवा हेतु आपने अपने में सिंहस्थ का मेला देखने आये। मेले के बाद श्री मक्षीजी तीर्थ अंतिम जीवन में वि.सं. 2016 में 'अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन की यात्रा कर महेन्द्रपुर (वर्तमान महिंदपुर सीटी) में आचार्य श्रीमद्विजय नवयुवक परिषद्' की स्थापना की एवं सामाजिक जागृति हेतु समाज राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के दर्शन किये। मुनि दीपविजयजी का मासिक पत्र 'शाश्वत धर्म' शुरु करवाया। (भोपालनिवासी होने से) आपके पूर्व परिचित थे तथा आचार्यश्री वि.सं. 2017 कार्तिक पूर्णिमा को आपने अपनी पाट पर से प्रथम दर्शन एवं वार्तालाप से प्रभावित आपने अपने विद्वता एवं अपने उत्तराधिकारी के रुप में मुनि श्री विद्याविजयजी को 'आचार्य' ज्ञानगांभीर्य से आचार्यश्री को भी प्रभावित कर आप आचार्यश्री के साथ रहे। विहार में आपके संस्कारी हृदय पर श्रीमद् गुरुदेवश्री के एवं मुनि श्री जयन्तविजयजी को 'युवाचार्य' पद पर घोषित कर शुद्ध क्रियाकलाप, दैनिक दिनचर्या एवं विद्वता का अमिट प्रभाव _ वि.सं. 2017 पौष सुदि तृतीया बुधवार दि. 21-22-1960 को प्रातः पडा। फलस्वरुप रामरत्न ने वि.सं. 1954, आषाढ कृष्णा द्वितीया, 4.00 बजे स्वर्गवासी हुए। श्री मोहनखेडा तीर्थप्राङ्गण में आपका सोमवार के दिन खाचरोद में आचार्यश्री के पास लघु दीक्षा एवं दिव्य, मनोरम, संगमरमरीय गुरुमंदिर आज भी आपकी साक्षात् स्मृति वि.सं. 1955 माघ शुक्ला पंचमी गुरुवार को आहोर (राज.) में बडी करवाता हैं। दीक्षा ली। आपका नाम गुरुदेव ने मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी रखा। श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज':गुरुनिश्रा में नौ साल तक सतत रहने से आपको जैनागमों का तीव्र __आपका जन्म जोधपुर (राज.) में राठौरवंशीय (राजपूत) क्षत्रिय गति से अध्ययन, स्वाध्याय, विहार, प्रतिष्ठञ्जनशलाका, जीर्णोद्धार, गिरधरसिंह की धर्मपत्नी सुन्दरबाई की कुक्षी से वि.सं. 1957 पौष दीक्षा, बडी दीक्षा, उपधान, उद्यापन (उजमणां), संघयात्रा, तीर्थयात्रा, ज्ञानभंडार स्थापना, शास्त्रार्थ, कलह-शांति आदि धर्मकार्यों का सर्वतोमुखी 74. श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ, एवं आचार्य श्रीमद्विजय अनुभव प्राप्त हुआ। एवं बाद में आपने श्री संघ में ये सभी कार्य जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचन वि.सं. 2044 भाण्डवपुर तीर्थ पौष सुदि 3 करवाये। 75. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ - वासक्षेप पृ.22 फरपापा For Private & Personal use only .com. mm Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन शुक्ला प्रतिपदा को हुआ था। आपका जन्म का नाम बहादुरसिंह था। बाल्यकाल में माता-पिता के स्वर्गवास के बाद चाचा कालूसिंह ने आपको नीमच में उपाध्याय श्री मोहनविजयजी को अर्पित किया । उन्होंने आपका नाम ‘प्रभुलाल' रखा एवं आपको श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी (तत्कालीन मुनि यतीन्द्र विजयजी) के पास भेजा। उनके पास अध्ययनरत आपको मुनि यतीन्द्र विजयजी ने वि.सं. 1979, माघ शुक्ल 11 को जावरा में लघु दीक्षा एवं वि.सं. 1980 ज्ञान पञ्चमी (कार्तिक शुक्ल पञ्चमी) को बडी दीक्षा देकर मुनिश्री विद्याविजयजी नाम रखा । गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजीने वि.सं. 2016 भाद्रपद सुदि त्रयोदशी को ' संघप्रमुख' पदवी दी। उनके स्वर्गवास के पश्चात् वि.सं. 2021 फाल्गुन शुक्ल 3 रविवार दि. 16-2-1964 को श्रीसंघ ने आपको आचार्य पदवी देकर आचार्य श्रीमद्विजय 'विद्याचन्द्रसूरि' नाम घोषित किया । गुरुसेवा और वैयावृत्य में आप एक अनुपम आदर्श रुप थे । ढलती उम्र में गुरुदेव के अस्वस्थ होने पर आपने गुरु की माँ जैसी सेवा की थी। आप अतिशय सरल परिणामी थे। ज्योतिष के मर्मज्ञ विद्वान् होने से आपने जहाँ भी प्रतिष्ठादि कार्य करवाये वहाँ संघ की सविशेष उन्नति हुई। आपने कई प्रतिष्ठाञ्जनशलाका-दीक्षादि धर्म कार्यो के साथ श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के अर्ध शताब्दी महोत्सव का सफल संचालन किया। श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वर जी के स्वर्गवास के पश्चात् उनका दिव्य गुरुमंदिर बनवाया एवं मोहनखेड़ा तीर्थ में श्री आदिनाथ जिन मंदिर को पुन: संगमरमर का बनवाकर पुनः प्रतिष्ठा करवाकर उसे विश्व प्रसिद्ध तीर्थ बनाकर अमर यश प्राप्त किया। संस्कृत के मर्मज्ञ विद्वान् आपने शिवादेवीनन्दन, आदीश्वर, दशावतारी आदि संस्कृत महाकाव्य एवं गुरुदेव तथा 'श्री तीर्थंकर महावीर' आदि काव्यों तथा अन्य अनेकों स्तुति-स्तवनादि की रचना की । वि.सं. 2036 आषाढ शुक्ला सप्तमी को श्री मोहनखेडा तीर्थ पर आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पार्थिव शरीर के अग्निसंस्कार के स्थान पर भव्य समाधि मंदिर हैं। आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी महाराज" : आपका जन्म वि.सं. 1993 के कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी (गुजराती) तदनुसार दि. 11/12/1936 को प्रातः 4 बज कर 37 मिनिट पर श्री स्वरुपचन्दजी धरु की धर्मपत्नी श्रीमती पार्वतीबाई की कुक्षि से ग्राम पेपराल (थराद से 17 कि.मी) में हुआ था। आपका जन्म का नाम पूनमचंद था । आपके गगलदास, शांतिलाल, छोटालाल, लहेरचंद नामक चार अग्रज बंधु एवं एक पोपटलाल नामक लघु बांधव हैं। आपके शैशव काल में ही आपके पिताश्री ने व्यापार हेतु थराद में निवास किया था । वहीं वि.सं. 2004 में आपको अपने गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी का चातुर्मास में परिचय हुआ तब से आपके बाल सुलभ मन में दृढ वैराग्य भावना प्रस्फुटित हुई । आपकी दीक्षा वि.सं. 2010 में माघ शूक्ला चतुर्थी, रविवार को सियाणा में हुई। आपका दीक्षा का नाम मुनि जयंतविजयजी घोषित हुआ। आपकी बडी दीक्षा वि.सं. 2012, कार्तिक सुदि एकादशी प्रथम परिच्छेद... [11] को राजगढ़ (म.प्र.) में हुई । एवं वि.सं. 2017 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूज्य गुरुदेवश्री ने मुनि विद्याविजयजी को आचार्य पद पर अपने उत्तराधिकारी के रुप में घोषित करते समय आपको युवाचार्य के पद पर घोषित किया था । तदनुसार आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वर जी के स्वर्गवास के पश्चात् वि.सं. 2040 के माघ शुक्ला त्रयोदशी, बुधवार, दि. 15-2-1984 को भाण्डवपुर तीर्थ (राज.) में समस्त अखिल भारतीय त्रिस्तुतिक श्री संघ एवं विशाल जनमेदनी की उपस्थिति में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए, तब आपका नामकरण आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी रखा गया। मुनि जीवन से ही आपका उपनाम 'मधुकर' है जो कि अध्ययन काल में महाकाव्यों के शिक्षाप्रद सारगर्भित श्लोकों को चुन-चुनकर कंठस्थ करने की आपकी प्रवृत्ति के कारण पंडित श्री करमलकरजी शास्त्री ने दिया था, आपको विद्वत्परिषद्ने साहित्यमनीषी, तीर्थप्रभावक एवं तत्कालीन उपराष्ट्रपतिवर्य (बाद में राष्ट्रपति) डो. शंकरदयाल शर्मा ने वि.सं. 2048 मार्गशीर्ष सुदि द्वितीया, रविवार, दि. 8-12-1991 को जावरा में 'राष्ट्रसंत' की पदवी से अलंकृत किया था । आपने गृहस्थ जीवन में 7 वीं कक्षा तक की व्यवहारिक शिक्षा के साथ-साथ, पांच प्रतिक्रमण, नव स्मरण, प्रकरण, भाष्य, कर्मग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र, योगशास्त्र आदि धार्मिक ग्रंथो का अध्ययन कर लिया था। दीक्षा के पश्चात् आपने जैनागम, धर्मशास्त्र, व्याकरण, तर्क, न्याय, कोश, अलंकार, मीमांसा, ज्योतिष, राजनीति, शील्प, संगीत, अध्यात्म आदि अनेकों विषयों का विशद अध्ययन एवं गुरुप्रदत अनुभव प्राप्त किया। मूल गुजराती भाषी होने 'बावजूद भी आप गुजराती, हिन्दी, मारवाडी, प्राकृत संस्कृत आदि के सिद्धहस्त लेखक एवं वक्ता होने के साथ साथ मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड, अंग्रेजी, ऊर्दू आदि अनेक भाषाओं के ज्ञानी है। इतना ही नहीं, अपितु आप देशके किसी भी प्रदेश में होने पर भी एक साथ अलग-अलग भाषाभाषी व्यक्तियों के साथ उनकी भाषा में बात भी करते हैं। स्वभाव से आप अध्ययनशील, संयमी, मधुरवक्ता, धीरगंभीर, उग्रविहारी, उग्र तपस्वी, विनयी, विवेकी, समभावी, अजातशत्रु, परोपकारी, करुणाधारी, साहित्यस्वष्टा, , हमेशा अपने साधु जीवनचर्या में ज्ञान-ध्यान में व्यस्त रहने वाले, शांतप्रकृति महापुरुष हैं । आप एक समर्थ साधु, अध्यात्म योगी, आत्मज्ञानी, शासनप्रभावक, युगपुरुष, लब्धप्रतिष्ठ स्वनामधन्य आचार्य हैं। मुनि जीवन के प्रारंभ से ही खादी धारण करना, देशप्रेम, राष्ट्रीय कर्तव्यों एवं सामाजिक कर्तव्यों के पालन हेतु देश की युवा शक्ति को प्रेरित करना, आपका अनूठा व्यसन है। स्व. पू. गुरुदेव द्वारा पुनरुद्धरित त्रिस्तुतिक परंपरा के सत्य सिद्धांत के पालन, प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण हेतु आप तन-मन से आजीवन अथक प्रयास कर रहे हैं। मुनि जीवन के प्रारंभ से ही संघ समाज की सेवा, संगठन, संस्कार, निर्माण, उन्नति और विकास हेतु आपका अदम्य पुरुषार्थ तो रहा है लेकिन जब से आपने आचार्य पद पर आरुढ होकर संघ की बागडोर हाथ में ली है तब से आपकी पावननिश्रा और मार्गदर्शन में मुनि मंडल, साध्वीवृन्द, गच्छ, संघ, समाज, दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा हैं। आपके हाथों से सैकडों जिन मंदिर - गुरु मंदिर - उपाश्रय श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ से संकलित 76. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन . धर्मशालादि की अंजनशलाका, प्रतिष्ठा, निर्माण एवं उद्घाटन हुए और हो रहे हैं। सेवा के क्षेत्र में आपकी प्रेरणा से स्कूल, हॉस्पिटल आदि का निर्माण हो रहा है। साथ ही संघ-समाज की सेवा हेतु आपके द्वारा स्थापित श्री अ.भा.राजेन्द्र जैन नवयुवक, महिला, तरुणबालक-बालिका परिषद, गुरु राजेन्द्र फाउन्डेशन ट्रस्ट, श्री राजराजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, नवकार परिषद्, आदि अनेकों संस्थाएँ कार्यरत हैं। आपके सदुपदेश से गुरु जन्मभूमि भरतपुर में श्री राजेन्द्रसूरि जैन कीर्ति मंदिर, श्री राजराजेन्द्र तीर्थ-नेल्लौर, महाविदेह धाम मद्रास, डीसा; नवकार तीर्थ शंखेश्वर-छत्राल, श्री राज-राजेन्द्र जैन तीर्थ दर्शन मोहनखेडा, श्री राज-राजेन्द्र जयन्त धाम, रतलाम, इन्दौर आदि अनेकों तीर्थों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार हुए हैं एवं हो रहे हैं। आपके मुनि नित्यानंद विजयजी आदि 24 शिष्य एवं आपकी हस्तदीक्षित सा. पीयूषलताश्रीजी आदि 96 साध्वियाँ हैं एवं निकट भविष्य में अनेक मुमुक्षु चारित्र ग्रहण करने हेतु लालायित हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का शिष्यवृन्द" क. उपसम्पत् शिष्य 1. श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरिजी (मुनि श्री धनविजयजी) 2. मुनि श्री प्रमोदरुचिजी ख. हस्तदीक्षित शिष्य वृन्द क्रम शिष्य का नाम क्रम शिष्य का नाम 1. श्री मोहनविजयजी म. 12. श्री दीपविजयजी म. 2. श्री विनयविजयजी म. 13. श्री यतीन्द्रविजयजी म. 3. श्री टीकमविजयजी म. 14. श्री केशरविजयजी म. 4. श्री उदयविजयजी म. 15. श्री हर्षविजयजी म. 5. श्री मेघविजयजी म. ___16. श्री चमनविजयजी म. 6. श्री ऋषभविजयजी म. 17. श्री गुलाबविजयजी म. 7. श्री धर्मविजयजी म. 18. श्री चन्द्रविजयजी म. 8. श्री पद्मविजयजी म. 19. श्री नरेन्द्रविजयजी म. 9. श्री रुपविजयजी म. 20. श्री वल्लभविजयजी म. 10. श्री लक्ष्मीविजयजी म. 21. श्री कमलविजयजी म. 11. श्री हिम्मतविजयजी म. साध्वी वृन्दा: वि.सं. 1932 में वरकाणा तीर्थ में आपके करकमलों से प्रथम साध्वी दीक्षा अमरश्रीजी एवं साध्वी लक्ष्मीश्री जी की और तत्पश्चात् राजगढ में साध्वी विद्याश्री जी की हुई। इस परम्परा में साध्वी प्रेमश्री जी, मानश्री जी, कुशल श्री जी, रुपश्री जी, मनोहरश्री जी, भावश्री जी, विनयश्री जी, रायश्री जी आदि 35 साध्वियों की दीक्षा आपके द्वारा संपन्न हुई थी। 77 धरती के फूल पृ. 327, 328 78. धरती के फूल पृ. 78 (आचार्यपद की आराधना पीतवर्ण से क्यों ?) सूर्य के समान जिनेश्वरदेव और चन्द्र के समान केवली भगवन्त के अभाव में आचार्य महाराज दीपक के समान है। जैसे-दीपक की शिखा पीत वर्ण की है वैसे आचार्य महाराज भी पीतवर्ण वाले हैं। इसलिए उनकी आराधना पीतवर्ण से होती है। 2. जिन-शासन में आचार्य महाराज राजा के समान हैं । राजा स्वर्ण के बनाये हुए मुकुट आदि अलंकारों से समलंकृत होते हैं । स्वर्ण का वर्ण पीत होता है । यही भाव समझाने के लिए आचार्यपद की आराधना पीतवर्ण से होती है। 3. परवादीरु पी हाथियों को भगाने के लिए आचार्य महाराज केसरी सिंह के समान है। जैसे-केसरी सिंह का वर्ण पीत-पीला है वैसे ही आचार्य महाराज का भी वर्ण पीत-पीला है। यही भाव स्पष्ट करने के लिए आचार्यपद की आराधना पीत वर्ण से होती है। दूसरे के साथ वाद करते हुए जीत हो जाय तो जीतनेवाले को विजयश्री वरती है। आचार्य महाराज परवादी के साथ वाद करके स्वसिद्धान्त का मण्डन और परसिद्धान्त का खण्डन कर विजय प्राप्त करते हैं। विजयश्री के साथ विवाह करने के लिए पीली-पीठी चोल कर सज्ज बने हुए आचार्य महाराज वरराजा के समान हैं। यह भाव प्रदर्शित करने के लिए आचार्यपद की आराधना पीतवर्ण से होती है। मन्त्रशास्त्र में किसी को स्तब्ध और स्तम्भित करने के लिए पीतध्यान धरने का विधान है। महाप्रभावशाली आचार्य महाराज प्रसंग आने पर सबको स्तब्ध कर देते हैं। परतन्त्र को स्तब्ध और स्तम्भित करने में आचार्य महाराज मुख्य हैं, इसलिए उनको पीतवर्ण कहा है । परतन्त्र को स्तब्ध करने के लिए आचार्यपद का आराधनध्यान पीत-पीले वर्ण से ही होता है। ऐसे अनेक कारण पीतवर्ण से आचार्यपद की आराधना में कहे हैं। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [13] आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : व्यक्तित्त्व एवं कर्तृत्व प्रत्येक शताब्दी में सभी परंपराओं में एवं सभी दार्शनिक शाखाओं में दिग्गज विद्वान् होते आये हैं। इसी प्रकार जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय में विक्रम की 20 वीं (ईसा. की 19 वीं) शती में स्वनामधन्य आगममर्मज्ञ विश्वपूज्य आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजने भारतभूमि को अलंकृत किया एवं अपने आचार्यत्व एवं अपनी विलक्षण प्रतिभा से संसार को आलकित किया । डो, अमर जैन के अनुसार उन्नीसवीं सदी में हुए समर्थ शासन प्रभावक पूज्यपाद गुरुदेव जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी उस युग में अपनी उपमा स्वयं थे। अखण्ड बाल ब्रह्मचारी, प्रबल-प्रतापी, प्रगट-प्रभावी उन्होंने स्वयं के जीवन को वीरवचनानुसार यापन किया। उनका जीवन इतना व्यापक और विराट् है कि उनकी परिचय-प्रशस्ति को शब्दों में बांधना उडुप (छोटी नाव) से सागर पार करने के दुःसाहस के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। उन्होंने सामाजिक, धार्मिक, नैतिक क्षेत्रों में अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाकर व्याप्त उदासी, अंधविश्वास और अज्ञानतम को समाप्त करने हेतु क्रियोद्धार करके चेतना का शंखनाद फूंका था। उनकी क्रिया-तत्परता व लक्ष्य के प्रति अविचलदृढताने उस युग व समाज को नई दिशा दी। उन्होंने दिशाभ्रष्ट हुए भ्रान्त जनमानस को अपनी दिव्यप्रभा से सत्य के मार्ग पर स्थापित किया। वे न केवल मूर्धन्य विद्वान थे, अपितु एक सशक्त, दृढ संकल्पी शास्ता और प्रशासक भी थे। उन्होंने जिनशासन की वास्तविकता का वस्तुनिष्ठ मूलयांकन कर उसका अपने जीवन में अक्षरशः पालन किया। 'मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्' -इस उक्ति को उन्होंने अपने निश्छल जीवन में और निष्कपट व्यवहार में चरितार्थ की थी। उनमें ज्ञान था, ज्ञान का अहंकार नहीं था, त्याग था; त्याग का दर्प नहीं था। साधना के कठोर मार्ग पर वीर सैनिक की भांति आप सदैव आगे बढते रहे। उनके बहु-आयामी विराट व्यक्तित्त्व को प्रकट करना शब्दों की शक्ति के बाहर है, फिर भी विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : क्रांति के अग्रदूतः वास्तव में सतत पद-विहार से मुनि जीवन में नानाविध जिस समय आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने क्रियोद्धार किया अनुभव और चारित्र की शुद्धि होती हैं। देश-विदेश का ज्ञान प्राप्त वह समय भारत में ई.स. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का समय था। होता है और शरीर निरोगी रहता हैं। उन दिनों महर्षि दयानंद सरस्वतीने भारत में व्याप्त सतीप्रथा एवं अंधविश्वास गुरुदेवश्री के सतत विचरण से विशाल भू-भाग को से भरे रुढि-रिवाजों को दूर करने हेतु क्रांति शुरु कर दी थी। आचार्य निम्नलिखित लाभ हुए :विजय राजेन्द्रसूरिने भी तत्कालीन समाज में क्रांति के अग्रदूत के (1) यति संस्था का कायाकल्प रुप में जीवन बिताया। यति समाज में छाये शिथिलाचार को अपने (2) श्री संघ पर से यति-शासन की समाप्ति उत्कृष्ट त्याग से दूर किया। आपके 'नवकलमीनामा' ने समाज को (3) शुद्ध साध्वाचार का प्रचार नवोत्थान दिया। समाज को यतियों के त्रास से मुक्त किया और (4) संघ और साधु की टूटी कड़ियों का मेलन श्रीपूज्य तथा यतिपरम्परा को क्रियोद्धार के द्वारा समाप्त किया। (5) जिन-बिंब और जिन-वाणी की आस्था, श्रद्धा एवं प्रचार आचार्य श्रीमद्वविजय राजेन्द्रसूरि : उग्र-विहारी :- (6) तीर्थोद्धार जैन साधु वर्षाकाल में एकत्र निवास करते हैं, शेष-काल (7) जातिय क्लेशों का दफन में गाँवों और नगरों में मर्यादानुसार विहार/भ्रमण करते हैं। तदनुसार विहारान्तर्गत आचार्यश्री द्वारा कृत यात्राएँ :आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी भी अपने जीवन के अंतिम सौराष्ट्र में श्री सिद्धाचलजी, गिरनार, प्रभास-पाटन, दाठा, सप्ताह तक साधु-मर्यादानुसार नंगे पैर विचरण करते रहे। किसी विशेष महुवा, तलाजा, घोघा, कदम्बगिरि, हस्तगिरि कारण की अनुपस्थिति में आप गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच आदि। रात्रि से ज्यादा नहीं रहें। किसी एक प्रदेश या क्षेत्र में कभी आप स्थिर होकर नहीं रहें। यदि विहार में आप चलने लगते तो अच्छे गुजरात में : भरुच, खंभात, भोयणी, शेरीसा, पानसर, अच्छे नवजवानों को भी बहुत पीछे छोड देते थे, इसलिए कविजन शंखेश्वर, भीलडी, उपरियाला, पाटण, पंचासर, लिखते थे चारुप आदि। "राजेन्द्र सूरीश्वरजी बैठे तो खैर तणी खंटी हैं। निजभार मारवाड में वरकाणा, नाडोल, नाडुलाई, मूछाला महावीर, खंध पर ले चलते तो पवन की बुंटी हैं।" राणकपुर, राता-महावीर, बावनवाडा, नांदियाँ, इतना ही नहीं, विहार में स्वयं के सभी उपकरण स्वयं दयाणा, कुंभारिया, आबू-अचलगढ, जीरावला, ही अपने कंधो पर उठाते थे। अपनी एक पुस्तक भी कभी भी भण्डवपुर, जालोरगढ, नाकोडा, जैसलमेर, अपने शिष्य तक को भी उठाने नहीं दी। लोद्रवा, फलोदी, कापरडा, जाकोडा, कोरटा सतत विहार से लाभ : आदि। 'बहता पानी निर्मला पड्या गंदा होय । 79. श्री राजेन्द्र ज्योति, खंड ख पृ. 16 साधु तो रमता भला, दाग लगे न कोय ॥" 80. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि अष्टप्रकारी पूजा ढाल-8 81. जीवनप्रभा (श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : जीवनवृत्त) एवं धरती के फूल दा For Private & Personal use only | Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। [14]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन मेवाड में श्री केशरियाजी, करेडा, उदयपुर, चितौड, इस संघ के सिद्धाचल पहुंचने पर कुछ विद्वेषी तेजोद्वेषियों राजनगर आदि। के द्वारा विघ्न भी उपस्थित किया गया एवं उपर गिरिराज की यात्रा मालवा में : मांडवगढ, तालनपुर, मक्षी, उज्जैन, भोपावर, करते रोकने का प्रयास किया गया था परंतु थराद (थीरपुर क्षेत्र) की मोहनखेडा आदि। वीर एवं सजग प्रजा के सामने द्वेषियों को मैदान से किनारा लेना इनमें आपने केशरियाजी-मक्षी एवं मांडवगढ की कई बार पड़ा। इतना ही नहीं, भक्तिवश संघ के यात्री भक्तोंने गुरुदेवश्री को यात्राएँ कीं। क्रियोद्धार के बाद चार बार सिद्धाचल की, दो बार अपने कंधो पर उठाकर यात्रा हेतु ऊपर चढना शुरु कर दिया तब गिरनार की एवं 7 बार शंखेश्वर की यात्राएँ की जिसमें सिद्धाचल गुरुदेव ने बड़ी मुश्किल से भक्तों का समझाकर उनके कंधे से नीचे की प्रत्येक यात्रा में तेला, गिरनार में बेला, केशरियाजी एवं शंखेश्वर उतर पैदल गिरिराज चढकर संघ सहित आनंद से यात्रा की। में एक-एक अट्ठाई83 एवं कई बार तेला4 तथा मक्षी में 5 बार (2) कडोद से सिद्धाचल :अट्ठम (तेला) का तप किया।85 आचार्यश्री की प्रेरणा से उनकी निश्रा में निकले इस संघ के संघपति खेताजी वरदाजी थे। इन्होंने इस संघ में एवं स्वयं के आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिकृत संघयात्राएँ : नगर में उनके द्वारा निर्मित जिनालय में इन दोनों कार्यों में मिलकर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वजीने समय-समय पर अपने डेढ लाख रुपये खर्च कर जन्म-जीवन और लक्ष्मी को सफल किया प्रवचनो में श्रोताओं को छ'री (समकितधारी, पदचारी, ब्रह्मचारी, सचित्तपरिहारी, एकल आहारी, भू-संथारी) पालक तीर्थ यात्रा संघ (3) खाचरौद से मांडव और मक्षी जी :का महत्त्व समजाया जिससे आपकी प्रेरणा से अनेक श्रावकों द्वारा आचार्यश्री की निश्रा में निकला यह संघ वि.सं. 1954 छोटे-बड़े कई तीर्थों के यात्रा संघ निकले जिसमें से हमें व्यवस्थित में चैत्र वदि दशमी के दिन मक्षी पहुंचा था। इस संघ के संघपति रुप से चार बड़े संघो का विस्तृत वृतान्त प्राप्त हुआ हैं, जिनका चांदमलजी लुणावत ने उस जमाने में 33000 (तैंतीस हजार) रुपयों यहाँ संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा हैं। का खर्च कर सुकृत पुण्य उपार्जन किया था। (1) थराद से सिद्धाचल और गिरनार : (4) खाचरौद से मक्षी जी :यह संघ वि.सं. 1944 में आचार्यश्री के थराद चातुर्मास वि.सं. 1962 के उत्तरार्ध में आचार्यश्री की निश्रा में ठाकुर के बाद उसी वर्ष में निकला था। इस संघ के संघपति संघवी चुन्नीलाल मुणत ने खाचरौद से मक्षी का संघ निकालकर तीस अंबावीदास मोतीचंद पारेख थे। इस संघ में निज गच्छ के साथ हजार रुपये खर्च किये थे। यह संघ वि.सं. 1962 चैत्र वदी दशमी ही अन्य गच्छ के आचार्यो के साथ 125 साधु, 91 साध्वियाँ, 5000 के दिन मक्षी पहुंचा था। इस संघ यात्रा की स्मृति में गुरुदेवश्री श्रावक-श्राविकाएँ, दो जिनालय एवं 101 सेज (वस्त्राच्छादित ने 'वामानंदन वंदन चालो' प्रसिद्ध बृहद् स्तवन बनाया था। बैलगाडियाँ), व्यवस्ता हेतु 400 बैलगाडियाँ, 300 घुडसवार रक्षक, 100 ऊँट-सवार थे। साथ ही अनेक यति-महात्मा, भोजक-गायक और नौकर आदि थे। यह संघ थराद से राधनपुर, शंखेश्वर, अहमदाबाद होकर 82. धरती के फूल पृ. 225 सिद्धाचलजी पहुंचकर यहाँ 15 दिन रुककर अष्टाह्निका महोत्सवपूर्वक 83. वही शांति से यात्रा कर गिरनार की यात्रा करके विरमगाम से पुनः शंखेश्वर 84. केशरियाजी यात्रा वर्णन - श्रीमद् राजेन्द्रसूरि रास - उत्तरार्ध एवं केशरियाजी की यात्रा करके थराद पहुंचा था। इस संघ में उस समय के करीब के चार स्तवन दो लाख रुपये का खर्च हुआ था। इस संघ-यात्रा की याद में 85. धरती के फूल, पृ. 225 आचार्यश्रीने "आज नो दहाडे रे सजनी" - यह स्तवन यात्रा के 86. राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 63 से 65; वि.सं. 2044 में थराद से सिद्धाचल दिन ही बनाया था। का संघ-(संघवी पूनमचंद धरु । पानाचंद धरु) भत्तीए जिणवराणं) भत्तीए जिणवराणं, खिज्जंती पुव्वसंचिया कम्मा। गुणपगरिस बहुमाणो, कम्मवणदवाणलो जेण ॥1॥ भत्तीए जिणवराणं, खिज्जंती पुव्वसंचिआ कम्मा। आरियणमुकारेणं, विज्जा मंता य सिज्झंति ॥2॥ भत्तीए जिणवराणं, परमए खीणपेज्जदोसाणं । आरुग्ग बोहिलाभ, समाहिमरणं च पावंति ॥3॥ - अ.रा.पृ. 4/2106 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [15] आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि : चातुर्माससूचि क्रियोद्धार के पहले यति अवस्था में आचार्यश्री ने गुजरात, महाराष्ट्र, मालवा, मेवाड, मारवाड, और बीकानेर तक विचरण किया। क्रियोद्धार के पश्चात् आपने मालवा, मेवाड, निमाड, मारवाड, गुजरात, सौराष्ट्र और खानदेश तक के विशाल भू-भाग में विचरण किया एवं विहार के अन्तर्गत अनेक स्थानों पर सफल चातुर्मास भी किये 187 क्रियोद्धार के पूर्व : वि.सं. 1904 स्थान आकोला 1905 इन्दौर 1906 1907 1908 1909 1910 1911 1912 1913 सहोपस्थिति श्रीप्रमोदसूरिजी के साथ श्रीप्रमोदसूरिजी के साथ खरतर गच्छीय यति श्री सागरचन्द्रजी के साथ खरतर गच्छीय यति श्री सागरचन्द्रजी के साथ खरतर गच्छीय यति श्री सागरचन्द्रजी के साथ खरतर गच्छीय यति श्री सागरचन्द्रजी के साथ खरतर गच्छीय यति श्री सागरचन्द्रजी के साथ श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरिजी के साथ श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरिजी के साथ श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरिजी के साथ श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी के साथ उनके अध्यापन हेतु श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी के साथ उनके अध्यापन हेतु श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी के साथ उनके अध्यापन हेतु श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी के साथ उनके अध्यापन हेतु श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी के साथ उनके अध्यापन हेतु श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी के साथ उनके अध्यापन हेतु श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी के साथ उनके अध्यापन हेतु श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी के साथ उनके अध्यापन हेतु स्वतंत्र चातुर्मास 21 यतियों के साथ श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी के साथ स्वतंत्र चातुर्मास श्रीपूज्यजी के रुप में उज्जैन मंदसौर उदयपुर नागौर जैसलमेर पाली जैसलमेर किशनगढ चित्रकूट सोजत सिटी शम्भूगढ बीकानेर सादडी भीलवाडा रतलाम अजमेर जालोर घाणेराव 1914 1915 1916 1917 1918 1919 1920 1921 1922 1923 1924 जावरा क्रियोद्धार के पश्चात् : 1925 1926 खाचरोद रतलाम कुक्षी 1935 1936 1927 1937 1928 राजगढ 1938 रतलाम 1939 कुक्षी 1929 1930 1931 1932 1933 रतलाम 1944 थराद भीनमाल 1945 वीरमगाम शिवगंज 1946 सियाणा अलिराजपुर 1947 गुडा 1948 आहोर राजगढ 1949 निम्बाहेडा अहमदाबाद 1950 खाचरौद (पांजरा पोल) 1951 राजगढ़ धोराजी 1952 राजगढ धानेरा 1953 जावरा 1940 1954 रतलाम 1955 आहोर 1956 शिवगंज 1957 सियाणा 1958 आहोर 1959 जालोर 1960 सूरत 1961 कुक्षी 1962 खाचरौद 1962 बडनगर जावरा आहोर आहोर जालोर राजगढ़ 1941 1942 1943 1934 87. धरती के फूल पृ. 223, 224 tion International Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [16]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रचारक : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : सिद्धान्त - आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज एक बहुश्रुत गीतार्थ आचार्य थे । आपश्रीने गुर्वाज्ञा से क्रियोद्धार के पूर्व वि.सं. 1911-12-13में श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास गुरुगमपूर्वक जैनागमों का सविधि अध्ययन किया एवं वि.सं. 1914 से 1921 तक 50 यतियों को पढाया । इतना ही नहीं अपितु क्रियोद्धार के बाद वि.सं. 1925 में खाचरौद चातुर्मास में पुनः पञ्चागी के साथ जैनागम ग्रंथो का स्वाध्याय किया । बाद में भी प्रत्येक चातुर्मास में अलग-अलग सूत्रों का एवं कुक्षी चातुर्मास में व्याख्यान में 45 आगमों का वाँचन किया। इस प्रकार आपने अपने जीवन में बार-बार सतत जैनागम-पञ्चाङ्गी तथा अन्य बहुश्रुताचार्यों के द्वारा निरुपित ग्रंथों का अध्ययन-मनन-परिशीलन किया। जिससे आपको यह ज्ञात हुआ कि आत्मकल्याण हेतु आराधना के मार्ग पर अव्रती देवी-देवताओं की स्तुति, भक्ति, वंदन, पूजन आदि मोक्षमार्ग में बाधक है व वीतराग परमात्मा की आशातना का कारण है - यह जानकर आपने चतुर्थ स्तुति एवं सामायिक, प्रतिक्रमण देववंदन आदि धार्मिक क्रियाओं में प्रविष्ट कुरीतियों का निषेध किया व प्राचीन आगमशास्त्रोक्त त्रिस्तुतिक मत का पुनरुद्धार कर श्री सुदेव-सुगुरु- सुधर्म का प्रचार कर आपने जिनेश्वरदेव और जिनवाणी की सत्यता को पुनः प्रतिष्ठित किया। जैनधर्म को अंधश्रद्धा और कुण्ठित अवधारणाओं से मुक्त कर शुद्ध-देव-गुरु-धर्म के सत्य स्वस्म के उजाले से भर दिया । आपके जिनवाणी सापेक्ष सिद्धान्तोपदेश के मुख्यबिन्दु निम्नानुसार हैं सिद्धान्तोपदेश (1) 88. 'वंदन' शब्द स्तुति और नमस्कार दोनों का बोधक है, इसलिए देव-देवियों को वंदन करना श्रमणों के लिए अनुचित हैं । अकारण उनसे सहायता, प्रार्थना-याचना करना भी अनुचित हैं क्योंकि अव्रती देव-देवियों को वंदन करना आगम विरुद्ध है । (2) चतुर्थ स्तुति में पापोपदेश, धन, पुत्र आदि पौद्गलिक सुख प्राप्ति की प्रार्थना होने से वह भावानुष्ठान सामायिक, प्रतिक्रमण आदि में त्याज्य हैं। अतः उनमें चौथी थुई (स्तुति) करने से जिनाज्ञा भङ्गरूप दोष लगता हैं। (3) जैनागम पंचांगी के अनुसार तीनस्तुति प्राचीन हैं, और प्राचीन काल में शुद्धाचरण से तीन थुई प्रचलित थी, इसलिए तीन स्तुतियाँ करना उचित हैं। (4) चैत्यवंदन के बाद शक्रस्तवादि प्रणिधान पाठ और स्तुतित्रय की जाय अर्थात् चैत्यवंदन उच्चारण करने के बाद शक्रस्तवादि प्रसिद्ध पाँच दण्डक, तीन स्तुतियाँ और प्रणिधान पाठ बोले जायें, तब तक जिनालयों में ठहरना चाहिए। किसी कार्य विशेष के लिए अधिक ठहरना पडे तो अनुचित नहीं हैं । (5) शास्त्रमर्यादानुसार प्रथम और अंतिम जिनेश्वरों के शासन के साधु-साध्वियों को यथा प्राप्त श्वेत- मानोपेत- जीर्णप्रायः और अल्पमूल्य वाले वस्त्र ही रखना चाहिए। रंगीन वस्त्र या रंगे हुए वस्त्र रखना अनुचित है। विशेष परिस्थिति में (मदिरा से लिप्त वस्त्र प्राप्त होने पर या अन्य ऐसे ही विशिष्ट संयोगों में) कल्कादि पदार्थों से वस्त्रों का वर्ण परावर्तन करने की आज्ञा है तथापि वर्तमान युग में ऐसे कोई कारण उपस्थित नहीं हैं, अतः जैन साधु-साध्वियों के लिए रंजित (रंगीन) वस्त्र धारण करना शास्त्रमर्यादा और आचरण से विपरीत हैं। (6) प्रतिक्रमण में श्रुतदेवता क्षेत्रदेवता और भुवनदेवता का कायोत्सर्ग और स्तुति, लघुशांति बृहत्शांति (बडी शांति) के पाठ का विधान और जिनागम पंचांगी और प्राचीनाचार्य प्रणीत ग्रंथों में नहीं है। अतः नित्य प्रतिक्रमण में इनका करना और बोलना अशास्त्रीय और दोषपूर्ण हैं किन्तु साधु-साध्वी के लिए पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 'दुक्खक्खय कम्मक्खय" के कायोत्सर्ग के बाद आज्ञा निमित्तक भुवन क्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग अदोष हैं। (7) ऋद्धिसंपन्न और ऋद्धिरहित, दोनों प्रकार के श्रावकों को सामायिक दंडकोच्चार के बात 'इरियावहियं' करने का शास्त्रों का आदेश है क्योंकि इसके लिए "तिविहेण साहुणो नमिऊण सामाइयं करेमि, करेमि भंते! एवमाइ उच्चरिऊण ईरियावहियाए पडिक्कमइ" इत्यादि आगम टीका ग्रंथो का वचन प्रमाण हैं। अत एव प्रथम त्रियोग से गुरुवंदन कर के सामायिक उच्चारण के बाद 'ईरियावहियं' प्रतिक्रमण करना चाहिए । (8) पात्रादि उपकरण नौकर आदि से उठवाना नहीं, उनसे वस्त्र भी नहीं धुलवाना, अपने निवास स्थान पर लाये हुए वस्त्रपात्रादि लेने की इच्छा नहीं रखना, परदेश से कीमती कंबलादि मंगवाकर नहीं लेना, सदैव एक ही घर का आहार नहीं लेना, बिना कारण वस्त्रों में साबुन-सोडादि खारे पदार्थ नहीं लगाना, कपडे के मोजे नहीं पहनना । वार्तालाप - व्याख्यानादि में उघाडेमुख नहीं बोलना। शोभा प्रदर्शक सोना-चाँदी आदि धातु के फेफ्रेमयुक्त चश्मा नहीं लगाना, सांसारिक समाचार से भरे पत्र गृहस्थों को नहीं देना- ये सभी लोकनिन्दनीय अनाचार होने से मोक्षाभिलाषी जिनाज्ञापालक सभी साधु-साध्वियों को सदैव त्याग करने योग्य हैं। (9) जिनेश्वर भगवान् के बिम्बों की पूजाविधि आगम और पंचांगी में अनेक स्थान पर दिखलाई गयी हैं इसलिए जिनप्रतिमाओं की भक्तिभाव सहित पूजन दर्शनादि साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् के समान ही प्राणियों के कल्याण करने वाले हैं। आपने अपने उपदेशो के माध्यम से समाज में व्याप्त बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, कन्या- विक्रय, दहेजप्रथा, मृत्यु भोज, अंधश्रद्धामय जादू-टोना, कुसंस्कार, जीवहिंसा, पशु-बलि, मांस-मदिरादि एवं नशायुक्त पदार्थो का सेवन, व्यसन, जातिवाद, कहल, कुरीतियाँ आदि को दूर करने हेतु अथक प्रयत्न किया। साथ ही सरल एवं मुग्ध जनता को शिथिलाचारी यतियों के द्वारा तांत्रिक क्रियाओं के द्वारा डरा-धमकाकर धरती के फूल, पृ. 59; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [17] परेशान किया जा रहा था; आपने क्रियोद्धार के द्वारा उसे भी हटाकर लोगों को भयमुक्त किये। गुरुदेवश्री के जीवन काल में आचार्य पद, क्रियोद्धार, प्रतिष्ठादि अन्यान्य अनेक प्रसङ्गों पर आहोर, जावरा, खाचरोद, रतलाम, भीनमाल, शिवगंज, आदि अनेक जगह इन शिथिलाचारी यतियों ने तांत्रिक प्रयोगों द्वारा परेशानियाँ खडी की लेकिन आपने अपने आत्मबल से किसी को तनिक भी नुकसान पहुँचाये बिना सर्वत्र शांति की स्थापना की। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : सर्वोदयी प्रभावक : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के हृदय में सभी जीवों के कल्याण की भावना सदा-सर्वदा बहती रही थी, यही कारण है कि आचार्यश्रीने निज-कल्याण के पुरुषार्थ के साथ-साथ पर-कल्याण हेतु भी सतत प्रयत्न किया अथवा यह कहें कि प्रयत्न न करने पर भी उनकी उपस्थिति मात्र से भी अनेक जीवों का कल्याण हुआ। जैसे तैरती हुई नाव का आश्रय लेनेवाले जीव अवश्य पार उतर जाते हैं। मनुष्य जाति में भिन्न-भिन्न रुचियों, भिन्न-भिन्न स्वभावों, मलेच्छ-आर्य जातियों, समाज-व्यवस्था, वृत्ति-व्यवस्था के आधार पर भी अनेक वर्ग-उपवर्ग देखने को मिलते हैं। आचार्यश्री के जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आये जिनसे सभी जीवों के आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त हुआ और सभी ने किसी न किसी प्रकार का संयम (व्रत, नियम) अवश्य धारण किया। साथ ही यथा शक्ति इस सर्वोदय तीर्थ जिनशासन एवं जिनवाणी के प्रचार में भी कुछ न कुछ अवश्य सहयोग भी दिया। न केवल जैन, अपितु जैनेतर परिवार से भी अनेक आत्माओं ने आपके पास जैनी दीक्षा ग्रहण कर अपना आत्म कल्याण किया। जैसे किशनगढ (राज.) के ऋद्धिकरणजी चोपड़ा के पुत्र धनराज (श्रीमद्विजय धनचंद्रसूरि), भीडर (राज) के ब्राह्मण शिवदत्त के पुत्र (मुनि प्रमोदरुचिजी), सामुंजा (आहोर, राज) के वरदीचन्द के पुत्र उपाध्याय मुनि मोहनविजयजी, भोपाल के फूलमाली भगवानजी के पुत्र (आचार्य श्रीमद्विजय भूपेन्द्रसूरि), धवलपुर के चम्पालाल जायसवाल (दिगम्बर जैन) के पुत्र रामरत्न) (आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि) एवं अन्य अनेक आत्माओं ने आपकी पावन निश्रा में स्वयं के जीवन को धन्य बनाया 189 जैन समाज में तो आचार्यश्री के उपदेशों का प्रभाव था ही, जैनेतर लोग भी कहीं पीछे नहीं रहें। आचार्यश्रीने निम्बाहेडा में वैष्णव मंदिर में श्री भगवद्गीता' के उपर भी प्रवचन दिये थे जिससे अनेकों वैष्णव धर्मी लोगों ने भी उनके उपदेशों को जीवन में ग्रहण कर व्रतादि लिये । इसी प्रकार आचार्यश्रीने कट्टर इस्लामपंथी मेमनों को प्रतिबोध देने हेतु वि.सं 1942 का चातुर्मास ही धोराजी (गुजरात) में किया एवं उन्हें 'कुराने शरीफ' की आयातों के द्वारा उपदेश देकर मांसाहारी से शुद्ध शाकाहारी बनाया, जिसके फलस्वरुप आज भी धोराजी में कई शुद्ध शाकाहारी मेमण परिवार हैं। इसी तरह धानेरा में भी मुसलमानों को मांस-मदिरादि का त्याग करवाया एवं शुद्ध शाकाहारी बनाया। न केवल सामान्य जनता को अपितु बीकानेर नरेश, जोधपुर नरेश यशवंतसिंहजी, आहोर नरेश यशवंतसिंहजी, मोदरा ठाकुर, सिरोही नृप केसरीसिंहजी, रतलाम नरेश रणजीतसिंहजी, झाबुआ नरेश उदयसिंहजी एवं दीवान नारायण सिंह, आगर के राजा, उदयपुर के राणा, धारा नरेश, थराद दरबार अभेसिंहजी, सियाणा ठाकुर, खाचरोद नरेश, जावरा नवाब गोस्त खां, उनके दीवान हजरत नूरखां आदि अनेकों राजानवाब-ठाकुरों ने आपके उपदेशों को श्रवण कर, जीवन में अपनाकर मांस-मदिरा-अभक्ष्य सेवन-शिकार आदि का त्याग किया एवं अपनेअपने राज्य में भी पशु बलि एवं अन्य प्रकार से जीव हिंसा का यथाशक्ति त्याग करवाया।92 थराद के दरबार अभेसिंहजी तो आपके उपदेशों से ऐसे प्रभावित हुए कि उन्होंने वि.सं 1944 में थराद से सिद्धाचल-गिरनार के छ: रीपालक पैदल संघ में पूरी सुरक्षा की व्यवस्था की। स्वयं ने भी अपने जीव में चार बार सिद्धाचल तीर्थ की यात्रा एवं तीर्थनायक की सेवा-पूजादि की। उन्होंने आपसे चतुर्थ व्रत (गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत) भी ग्रहण कर पालन किया। वि.सं. 1958 में विहार में खराडी ग्राम स्थित आपने वहाँ दर्शनार्थ आये सिरोहीनप केसरीसिंहजी को उपदेश देकर आबु तीर्थ पर लिया जाने वाला मुण्डक-वेरा बंद करवाया। वि.सं. 1932 में झालोर में जोधपुर नरेश यशवंतसिंहजी को प्रतिबोधिक कर झालोर के किले । स्वर्णगिरि तीर्थ के उपर स्थित राज्य के शस्त्रादि से भरे मंदिरों को खाली करवाकर जैन संघ के स्वाधीन किये। साथ ही जीर्णोद्धार करवाया एवं 700 स्थानकवासी (ढूंढक मतावलम्बी) परिवारों को उपदेश देकर मंदिर मार्गी बनवाकर स्वर्णगिरि तीर्थ की समुचित व्यवस्था करवाई।95 इस प्रकार उपर के कुछ अनुच्छेदों में यह स्पष्ट किया गया है कि जैन-जैनेतर धर्मावलम्बियों, ब्राह्मण-श्रमणेतर-संस्कृत्यलम्बियों, राणाओं, रियासतदारों, राजाओं, पुरोहितों आदि को आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने अपने आचरण से इतना प्रभावित किया कि ये सब स्वतःस्फूर्त प्रेरणा से आचार्यश्री की धर्मसभाओं में आते और आपके उपदेशों का श्रवण-मनन और निदिध्यासन करते थे। इस प्रकार आचार्यश्री मात्र जैनों के नहीं, मात्र श्वेताम्बरों के नहीं, किसी गच्छ विशेष के नहीं, अपितु सभी जीवों के सर्वतोमुखी अभ्युदयकारक थे। 89. 90. 91. 92. धरती के फूल, पृ. 318 से 326 आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वर जी के प्रवचन, राजेन्द्र उपाश्रय, इन्दौर, अप्रैल सन् 1999 विरल विभूति, पृ. 75.76 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी, धरती के फूल, विरल विभूति, आदि में इनका विस्तृत वर्णन हैं। विरल विभूति पृ. 77. गुरुसप्तमी पर्व वि.सं. 2040 थराद में हुए प्रवचन में से श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 84. से पृ. 86 श्रीराजेन्द्रसूरि का रास-पत्रांक, 80, 81 95. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [18]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : शासन प्रभावकः यद्यपि जिन शासन शाश्वत होने से तथा सर्वज्ञ तीर्थंकर देवाधिदेव के द्वारा प्ररुपित होने से स्वयं ही दीप्तिमान है तथापि इस शासन में चतुर्विध संघ (साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका) में कर्मो के विशिष्ट क्षयोपशम से जिस किसी आत्मा में तप, जप, विद्या, लब्धि, वाद, प्रवचन, धर्मकथा, सिद्धांत ज्ञान, ज्योतिष, कवित्व, योगसाधनादि गुणों में से जो गुण विशिष्ट रुप से प्रगट हो जाय; जिससे स्वतीर्थ (जिन प्रवचन/शासन) की उन्नति हो और जैन-जैनेतर, राजा-प्रजा, आबाल-गोपाल सभी लोग प्रभावित होकर मुक्त कंठ से जिन शासन की उद्भावना/प्रशंसा करें, करावें और अनुमोदना करें, उसे 'शासन प्रभावना'कहते हैं। इस प्रकार जिनशासन की प्रख्याति या जयजयकार करने-कराने वाले और हर संभव प्रयास से शासन मालिन्य (जिनशासन की निन्दा) को रोकनेवाले महान व्यक्तित्व को 'शासन प्रभावक' कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में (1) प्रावचनिक (2) धर्मकथक (3) वादी (4) नैमित्तिक (5) तपस्वी (6) विद्याधारी (7) सिद्ध और (8) कवि - ये दस प्रकार के प्रभावक दर्शाये हैं। तथा प्रकारान्तर से (1) अतिशय धारी , (विशिष्ट ज्ञान या लब्धिवाला) (2) धर्मकथक (3) वादी (4) आचार्य (5) तपस्वी (6) नैमित्तिक (7) विद्याधारी और (8) राजवल्लभ या गणप्रिय (लोकप्रिय) - ये आठ प्रकार के प्रभावक बताये हैं। और प्रकारन्तर से (1) आगमधर (2) धर्मक्रियापालक (3) धर्मकथक (4) वादी (5) कवि (6) तपस्वी (7) सिद्धांत ज्ञाता (8) लब्धिधारी (9) नैमित्तिक और (10) विद्यासिद्ध -ये दस प्रकार के प्रभावक दर्शाये हैं ।98 उपर्युक्त सभी दृष्टिकोणों से आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी अपने बायामी व्यक्तित्व से "तित्थयरसमो सूरि"-इस आगमवचन को, सभी दृष्टिकोणों से जीवनपर्यन्त सर्वात्मना सत्य सिद्ध करने वाले "यावच्चन्द्र-दिवाकरौ" दिगन्त तक समस्त संसार में जिनशासन का अक्षय जयनाद करने-कराने वाले स्वनामधन्य महान शासनप्रभावक हैं। अतः यहाँ कुछ शीर्षकों के अन्तर्गत इनके शासनप्रभावक कार्यो एवं गुणों का विहंगावलोकन कराने का प्रयास कराना सार्थक होगा। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि कृत प्रतिष्ठाएँ एवं अंजनशलाकाएँ : विश्व के प्रांगण में प्रवाहमान जगद्भाव में कल्याणभावप्रदायक जिनमंदिर आत्मशांति का निकेतन है। दुर्भावना के कीचड को दूर करने के लिए जिनमंदिर सतत प्रवाहमान सरिता हैं । आत्मोन्नति हेतु जिनमंदिर निश्कंटक राजमार्ग हैं । स्वयं की सदसत् प्रवृत्तिओं का आत्म निरीक्षण करने हेतु जिनमंदिर दिव्य दर्पण हैं। भावजागृति एवं आत्मा की सुषुप्त शक्ति को जगाने के लिए जिनमंदिर घंटाघर हैं । जिनमंदिर आध्यात्मिक और लोकोत्तर चेतनाशक्ति प्रदायक पावर हाऊस हैं । जिनमंदिर ज्ञानमार्गप्रदायक दीपक है । जिनमंदिर कार है, सच्चा शिक्षक है, सही मार्गदर्शक है। जिनमंदिर जीवन साधना का सदुपदेशक है। जिनमंदिर सद्गुणों को समृद्ध करने हेतु सूर्य है। जिनमंदिर एक विशुद्ध, परम सुखद आलंबन एवं सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा केन्द्र हैं। जिनप्रतिमा साक्षात् कल्पवृक्ष है । भव्य जीवों को मोक्षप्राप्ति हेतु सम्यग् आराधना का यही सर्वश्रेष्ठ आलम्बन है। अञ्जनशलाका, प्राण-प्रतिष्ठा की हुई प्रतिमा परमात्मस्वरूप को प्राप्त हो जाती है। अत: आचार्यश्रीने स्वयं के एवं भव्य जीवों के आत्म-कल्याण एवं आराधना के श्रेष्ठ आलंबनभूत अनेकों जिनमंदिरों का निर्माण करवाकर उनकी प्रतिष्ठा की और सैकंडो जिनप्रतिमाएँ भरवाकर उनकी अञ्जनशलाकाप्राणप्रतिष्ठा की। आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि कृत प्रतिष्ठाएँ एवं अंजनशलाकाओंकी सूचि :1. जालोर के पास स्थित स्वर्णगिरि पर्वत पर अष्टापदावतार चौमुख मंदिर, यक्षवसति महावीर जिनालय, कुमारवसति, पार्श्वनाथ जिनालय - ये तीन जिनालय प्राचीन हैं। वि.सं. 1933 के माघ शुक्ल प्रतिपदा को तीनों जिनालयों की पुनः प्रतिष्ठा की जिसका विशेष परिचय 'तीर्थोद्धार' के प्रसंग में दिया जा रहा हैं। जावरा (मालवा) में पारिख छोटमलजी जुहारमलजी के बनवाये श्री ऋषभदेवजी के जिनालय की प्रतिष्ठा और 31 जिन बिम्बोंकी अंजनशलाका की। कुक्षी (धार) के प्राचीन श्री शांतिनाथ जिनालय का जिर्णोद्धार करवाया व 24 देवगृहमों में विराजमान करने के लिये सं 1935 के वैशाख सु. सप्तमी को प्रतिमाओं की अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा की। 4. आहोर (राजस्थान) के श्री संघ के बनवाये सौध शिखरी जिनालय में वि.सं 1936 के माघ शुक्ल दशमी के दिन सोत्सव, प्राचीन और प्रगटप्रभावी श्रीगोडी पार्श्वनाथ प्रभु की दिव्य, भव्य और मनोहर प्रतिमाजी विराजमान की। 5. श्री मोहनखेडा तीर्थ, (राजगढ (धार, मप्र) से डेढ मील पश्चिम दिशा) में श्री सिद्धाचलदिशि वन्दनार्थ आपके उपदेश से राजगढ निवासी पोरवाड शा. लूणाजी संघवी द्वारा निर्मित जिनमंदिर में विशाल उत्सव सहित 41 जिनबिम्बों की अञ्जनशालाक प्राणप्रतिष्ठा की तथा श्री आदिनाथादि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। 6. धामणदा (धार) में सं 1940 फा. सु. 3 के दिन श्री ऋषभदेवजी आदि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। १०. अ.रा.पृ. 51438 97. अ.रा.पृ. 5/437 98. अ.रा.पृ. 5/928 99. श्रीमद्विजय राजेन्दसूरि स्मारक ग्रन्थ पृ. 127 से 131 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [19] 7. दशाई (धार) में सं 1940 फा.सु. सप्तमी को श्री आदिनाथादि 9 जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका और जिनालय में प्रतिष्ठा की। 8. शिवगंज (राजस्थान) में सं. 1945 के माघ सुदि पंचमी के दिन मेघाजी मोतीजी और वनाजी मोतीजी के द्वारा निर्मित श्री अजितनाथजी और चौमुखजी जिनालय के लिये तथा अन्य ग्राम नगरों के लिये दो सौ पचास जिनबिम्बों की अंजनशलाका सहित उक्त दोनों जिनालयों को भी प्रतिष्ठा की। 9. कुक्षी (मालवा) में वि.सं. 1947 के वैशाख शुक्ला सप्तमी को श्री आदिनाथ जिनालय चौबीस देव कुलिकाओं के लिये 75 जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका और दो जिनालयों की प्रतिष्ठा की। 10. तालनपुर तीर्थ (म.प्र.) में वि.सं. 1950 माघ वदि द्वितीया को जमीन से निकली प्राचीन जिनप्रतिमाओं की एवं पार्श्वनाथजी के चरण युगल की प्रतिष्ठा की। 11. खट्टाली (मालवा) में वि.सं. 1950 के माघ सु. द्वितीया के दिन नूतन जिनालय में विराजमान करने के लिये श्रीनेमीनाथादि तीन प्रतिमाओं की अंजनशलाका की और उन्हें जिनालय में प्रतिष्ठित किया। रिंगनोद (मालवा) में वि.सं. 1951 के माघ सु. सप्तमी को नूतन जिनालय के लिये श्री चन्द्रप्रभ आदि 7 जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका की और उन्हें नूतन जिनालय में प्रतिष्ठित किया। झाबुआ (मालवा) में बावन जिनालय समलंकृत श्री ऋषभदेव जिनालय के लिये दो सौ इक्यावन 251 जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका और प्राणप्रतिष्ठा की। बडी काडोद (मालवा) में खेताजी वरदाजी के पुत्र उदय-चन्दजी के बनवाये सौधशिखरी जिनालय में विराजमान करने के लिये सं. 1953 के वैशाख सुदि सप्तमी को श्रीवासुपूज्य प्रभु आदि 15 प्रतिमाओं की अंजनशलाका की और दो जिनालयों की प्रतिष्ठा का । की। 18. 15. पिपलोदा (मध्य भारत) में सं. 1954 वै.सु सप्तमी को श्री सुविधिनाथादि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। राजगढ (धार) वि.सं. 1954 मार्ग शु. दशमी को श्री शांतिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा की। आहोर (राजस्थान) श्री गोडीपार्श्वनाथ जिनालय की बावन (52) देव कुलिकाओं के लिये तथा अन्यत्र ग्राम नगरों में विराजमान करने के लिये नौ सौ इक्यावन छोटे-बड़े जिनबिम्बों की अंजनशलाका की। यह विशाल और विराट तथा अनुपम महोत्सव वि.सं. 1955 की फाल्गुन वदि पंचमी गुरुवार को हुआ था। इस महोत्सव में मालवा, मारवाड आदि देशों की 35 हजार जनता आई थी। इस प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर श्रीमद् गुरुदेव के सहपाठी और अन्य विद्याशिष्य ऐसे अनेक यति भी आये थे जिनमें श्री मोतीविजयजी, श्री रुपविजयजी, फतेसागरजी और ज्ञानसागरजी मुख्य थे। प्रतिष्ठा उत्सव का जलसा और संघ में गुरुदेव के प्रति आदर स्नेह और भक्ति देखकर यतिगण आश्चर्य में पड़ गया था। क्रियोद्धार के दिन यति श्री महेन्द्रविजयजीने गौरवपूर्ण उज्जवल भविष्य का संकेत दिया था, वह वर्तमान में सत्य सिद्ध हुआ। सियाणा (राजस्थान) में परमाईत महाराजा कुमारपाल द्वारा निर्मित श्री सुविधिनाथ चैत्य के चारों ओर श्रीसंघ निर्मित देवकुलिकाओं के लिए वि.सं. 1958 के माघ सु 13 गुरुवार को महोत्सव सहित अजितनाथादि दो सौ एक जिन प्रतिमाओं कीअंजनशलाका एवं प्राणप्रतिष्ठा करके उनको मंदिर में यथास्थान विराजमान करवाया। 19. कोरटा तीर्थ (राजस्थान) में वि.सं. 1956 के वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को श्री आदिनाथादि प्राचीन प्रतिमाओं की नवनिर्मित विशाल जिनालय में प्रतिष्ठा तथा अन्य स्थानों के लिये दो सौ एक जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका की। आहोर (राजस्थान) में सं. 1956 के माघ वदि प्रतिपदा को श्री राजेन्द्रसूरि धर्मक्रिया मंदिर में स्थित श्री शांतिनाथ गृहचैत्य में सर्वधातु की श्री शांतिनाथादि जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। इसी दिन कडोद (मालवा) निवासी शा. खेताजी वरदाजी के पुत्र उदयचन्दजी के द्वारा बनवाये श्री राजेन्द्र जैनागम बृहद् ज्ञान भंडार में ज्ञान प्रतिष्ठा की। इसमें लगभग 1500 हस्त प्रतियाँ और 10 हजार मुद्रित ग्रंथो का संग्रह है। इस ज्ञानसागर में अनेक दुर्लभ प्राचीन कलाकृतियों से सज्जित प्रतियाँ भी हैं। गुडाबालोतान् (जि. जालोर) में शा. अचलाजी दोलाजी द्वारा निर्मित जिनालय में वि.सं 1956 के माघ सुदि पंचमी को श्री धर्मनाथादि जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। बाग (धार, म.प्र.) में वि.सं. 1961 के मार्गशीर्ष सुदि पंचमी के दिन श्री विमलनाथादि सात जिनबिम्बों की अञ्जनशलाका कर जिनालय में प्रतिष्ठित की। राजगढ (धार) में वि.सं. 1961 के माघ सुदि पंचमी को खजांची दौलतराम चुन्नीलालजी के बनवाये श्री अष्टपदावतार-चैत्य में विराजमान करने के लिये तथा अन्य ग्रामों के लिये श्री ऋषभदेवादि इकयावन (51) जिनबिम्बों की अंजनशलाका एवं प्राणप्रतिष्ठा की। राणापुर (मालवा) के श्वेताम्बर श्री संघ द्वारा निर्मित विशाल जिनालय में विराजमान करने के लिये वि.सं. 1962 के फाल्गुन सुदि तृतीया को धर्मनाथादि ग्यारह जिनप्रतिमाओं की अंजनशलाका प्राणप्रतिष्ठा की और जिनालय में उनकी प्रतिष्ठा करवाई। सरसी (मालवा) में वि.सं. 1962 के ज्येष्ठ सु. 4 को श्रीचन्द्रप्रभुजी आदि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। राजगढ (मालवा) में शा. दौलतराम हीराचन्दजी के बनवाये गुरु मंदिर में वि.सं. 1962 के मागशीर्ष सु. 2 के दिन श्री पार्श्वनाथादि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। 26. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 27. जावरा (मालवा) में शा. लक्ष्मीचन्दजी लोढा के द्वारा निर्मित जिनालय में पोष सुदि सप्तमी, वि.सं. 1962 को श्री शीतलनाथादि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। हमारे संग्रह के एक हस्त पत्र के अनुसार तीन हजार एक सौ पैंतीस (3135) जिनप्रतिमाओं की अंजन शलाका श्रीमद् गुरुदेव के हाथों हुई । इनमें विक्रम संवत् 1955,फाल्गुन वदि पंचमी, गुस्वारको आहोर में सम्मपन्न हुई एक साथ 951 जिनबिम्बों की अंजनशलाका विशाल, महत्त्वपूर्ण एवं अत्यंत प्रभाव संपन्न हैं। इस प्रकार 'विषमकाल जिनबिम्ब जिनागम भवियण कुंआधारा' - इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने अनेकों जिन मंदिरों की प्रतिष्ठा, अंजन शलाका, तीर्थो के जीर्णोद्धार, निर्माण, तीर्थयात्रा, संघ यात्रा के द्वारा अनुपम शासन प्रभावना की, उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान की आराधना में भी पीछे नहीं रहें। ज्ञानभक्ति : बार-बार पंञ्चागी के साथ जैन आगमों के अध्ययन के पश्चात् आपने श्रुत की सुरक्षा हेतु वि.सं. 1938 में आलीराजपुर (राजपुर) चातुर्मास में आगमों की हस्तलिखित प्रतियों का संशोधन किया एवं अशुद्धियाँ दूर कर श्रीसंघ को उपदेश देकर लेखकों से लिखवाया। उसी प्रकार वि.सं 1939 में कुक्षी चातुर्मास में अनेक ग्रंथ लिखवाये। अन्य जगह भी अनेक ग्रंथ लिखे, संशोधित किये एवं लिखवाये ।100 साथ ही अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना कर आगमों को हमेशा के लिये अर्थ सहित सुरक्षित किया, बल्कि यह कहा जाय कि आगमों के अर्थ की सुरक्षा के लिये ही 'अभिधान राजेन्द्र कोश' की रचना की।101 ज्ञान भण्डार : ग्रंथो की सुरक्षा हेतु ज्ञान भंडारों का निर्माण करवाया जिसमें आचार्यश्री की प्रेरणा से कडोद (म.प्र.) निवासी खेताजी-वरदाजी द्वारा आहोर में निर्मित श्री राजेन्द्र जैनागम बृहद् ज्ञान भंडार अतीव प्रशंसनीय एवं दृष्टव्य है। संगमरमर से निर्मित इस ज्ञानभण्डार में 1,500 हस्तलिखित, एवं ताडपत्रीय प्रतियाँ तथा पुस्तकाकार 10,000 ग्रंथ संग्रहित हैं।102 जिसमें अनेक दुर्लभ प्राचीन कलाकृतियों से सज्जित प्रतियां भी है। इसी प्रकार अपनी अंतिम अवस्था में वि.सं. 1962 में राजगढ में हीराचंदजी पुराणी को प्रेरणा देकर 'श्री पार्श्व गौतम राजेन्द्र ज्ञान भंडार' की स्थापना करवायी।103 100. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 83 101. अभिधान राजेन्द्र कोश भा. 1 उपोद्घात पृ. 13 102. श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 89, 90 103. शिलालेख - श्री पार्श्व-गौतम-राजेन्द्र ज्ञान भण्डार, श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर, राजेन्द्र भवन, राजगढ (जि. धार) म.प्र. (सज्झाय जह सुरकरी करीसुं, अमरेसु हरी गिरिसु कणयगिरी । तह धम्मेसु पहाणो, दाणाई चउह जिणधम्मो ॥ तत्थ वि सुनिकाइयकम्म धम्म जलहरसमो तवो पयरो । तत्थ वि य विसेसिज्जइ, सज्झाओ जिणेहिं भणियं ॥2॥ कम्ममसंखिज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो । अन्नयरंमि वि जोगे, सज्झायंमि य विसेसेण ॥3॥ बारसविहंमि वि तवे, सब्भितरबाहिरे कुसलदिटे। नवि अत्थि नवि य होही, सज्झायसमं तवोकम् ॥4॥ सज्झाएण पसत्थं, झाणं जाणइ य सव्वपरमत्थं । सज्झाए वदंतो, खणे खणे जाइ वेरग्गं ॥5॥ अङ्कमहतिरियनरए, जोइसवेमाणिया य सिद्धी य । सव्वो लोगालोगो, सज्झायविउस्स पच्छक्खो ॥6॥ - अ.रा. 7/1145 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [21] आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : तीर्थोद्धारक : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने श्री संघ को उपदेश देकर अपने जीवन में अनेक जिनमंदिरों के निर्माण तो करवायें; साथ ही कई जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार भी करायें इतना ही नहीं अपितु श्री स्वर्णगिरि तीर्थ (जालोर-राज.), कोरटाजी, भाण्डवपुर एवं तालनपुर - इन चारों तीर्थों का जीर्णोद्धार भी कराया एवं सिद्धाचलावतार श्री मोहनखेडा तीर्थ का नवनिर्माण भी कराया, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार हैं आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि कृत तीर्थोद्धार एवं तीर्थस्थापना 1. स्वर्णगिरि - जालोरगढ : वर्तमान में आपके प्रशिष्यरत्न श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी की शास्त्रों में कनकाचल और स्वर्णगिरि आदि नामों से विख्यात प्रेरणा से श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वे. श्रीसंघ के यह तीर्थ राजस्थान में समदडी-भीलडी रेल्वे के जालोर स्टेशन से द्वारा इस तीर्थ का जीर्णोद्धार एवं नवीनीकरण द्रुतगति से हो रहा दक्षिण में स्थित पर्वत पर बने किले में हैं। जहाँ के समस्त निवासी कोट्यधिपति थे एसे स्वर्णगिरि 2. कोस्टा :के किले में (1) श्री महावीर जिनालय (यक्षवसति), (2) चौमुख अहमदाबाद-दिल्ली रेल्वे लाईन पर स्थित जवाईबंध (राजस्थान) चैत्य (अष्टापदावतार), (3) कुमारविहार (पार्श्वनाथ चैत्य) - ये तीन के पास कोरटपुर, कणयापुर, कारंटी और कोरटा आदि नामों से प्रचलित जिनालय प्राचीन हैं। नाहड राजाओं के द्वारा निर्मित श्री महावीर यह तीर्थ 2500 वर्ष प्राचीन हैं ।।10 जिनालय सबसे प्राचीन है।104 श्री जैन सत्यप्रकाश में मुनि श्री न्याय उपकेश गच्छ-पट्टावली के अनुसार श्री वीरनिर्वाण सं 70 विजयजीने लिखा है कि वि.सं. 595 में सुवर्णगिरि में दोशी धनपति ___ में श्री पार्श्वनाथ संतानीय श्री स्वयंप्रभसूरि के शिष्य श्री रत्नप्रभसूरि ने दो लाख द्रव्य खर्चकर यक्षवसति की स्थापना की और प्रद्योतन ने कोरटा और ओसिया में श्री महावीर देव के बिम्बों की एक साथ सूरिजीने उसमें श्री वीर प्रभु की प्रतिष्ठा की ।105 चौमुखजी मंदिर प्रतिष्ठा की थी। यवनों के समय में यह तीर्थ ध्वस्त हो गया एवं के निर्माता अज्ञात हैं। कुमारविहार जिनालय को वि.सं 1221 के जिनालय भग्न हो गये। आज वहाँ एक छोटा सा गाँव एवं चार आसपास परमार्हत राजा कुमारपाल ने कलिकासर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य जिन मंदिर हैंके उपदेश से 72 जिनालयों के रुप में बनवाया था।106 1. श्री महावीर मंदिर :विक्रम की 14 वीं शती तक ये मंदिर एवं यह तीर्थ प्रख्यात कोरटा के दक्षिण की ओर स्थित यह जिनालय सादी शिल्पकला एवं उपासना के केन्द्र थे। धनलोभी एवं धर्मांध शासक अलाउद्दीन का नमूना है। यहाँ पर वि.सं. 1728 में मूलनायक की प्रतिमा खंडित खिलजीने इन मंदिरों को तोडा । तलहटी में नगर के मंदिरों को भी या विलोप हो जाने से श्री जयविजय गणिने नूतन प्रतिमा विराजमान नष्ट किया, और कई मंदिरों को मस्जिद में परिवर्तित कर लिया।107 करवायी।।।। कालान्तर में यह प्रतिमा भी खंडित हो जाने से आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने प्रेरणा देकर जीर्णोद्धार करवाकर श्री विक्रम की 7 वीं शती में जालोर के जोधपुर निवासी मंत्री श्री जयमल मुह्रोत ने स्वद्रव्य से ध्वस्त जिनालयों का पुनरुद्धार करवाकर 104. नवनवइ लक्खधणवइ अलद्धवासे सुवण्णगिरि सिहरे । विसं 1681-86 में कई प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थी।108 नाहडनिवकारवियं थुणि वीरं जक्खवसहीए ॥1॥ - श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 82 कालान्तर में राजकीय कर्मचारियों ने इन मंदिरों में युद्ध 105. श्री जैनसत्यप्रकाश-दीपोत्सवी अंक, सन् 1998 - पृ. 7 सामग्री आदि भरकर चारों ओर कांटे लगा दिये थे। वि.सं. 1932 106. वही पृ. 82.83 के उत्तरार्ध में जालोर पधारने पर गुरुदेवश्री को उक्त बातें ज्ञात हुई। 107. धरती के फूल पृ. 215, 216 श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 83 किले पर राज्य का अधिकार था एवं भीतर प्रवेश की मना थी। 109. (क) धरती के फूल पृ. 215, 216 ऐसे समय में आपने किलाधिकारी विजयसिंह को मिलकर जिनालयों (ख) श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, 83, 84 एवं जिनबिम्बों की आशातना स्वयं जाकर देखी और जोधपुर नरेश (ग) संवच्छुभे त्रयस्त्रिंशन्नन्दैक विक्रमाद्वरे। यशवंतसिंहजी को सारा वृत्तांत बताकर प्रतिबोधित करके पुन: किले माघमासे सिते पक्षे, चन्द्रे प्रतिपदातिथौ ॥१॥ जालंधरे गढे श्रीमान्, श्री यशवंतसिंह राट् । के सभी मंदिर शस्त्रों से खाली करवाकर जिनालयों का सर्वाधिकार तेजसा घुमणिः साक्षात्, खंडयामास यो रिपून् ॥2।। जैन श्रीसंघ को दिलवाया। एवं प्रत्येक महीने में 12 उपवास एवं विजयसिंहश्व किलादार धर्मी महाबली । 18 आयम्बिल के आठ मास तक के उग्र तप सहित वि.सं. 1933 तस्मिन्नवसरे संधैर्जीर्णोद्धारश्च कारितः ॥3॥ का चातुर्मास जालोर में करते हुए मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवा कर चैत्य चतुर्मुखं सूरिराजेन्द्रेण प्रतिष्ठितम् । एवं श्रीपार्श्वचैत्येऽपि प्रतिष्ठा कारिता वर ||4|| ओशवंशी प्रतापमल जी कानूंगा के हाथ से प्रतिमाजी विराजमान करवाकर ओशवंशे निहालस्य चौधरी कानुगस्य च। आचार्यश्री ने नौ (9) उपवास के तप सहित वि.सं. 1933 में माघ सुतप्रतापमल्लेनप्रतिमा स्थापिता शुभ ॥5॥ शुक्ल प्रतिपदा के दिन इन तीनों मन्दिरों की पुनः प्रतिष्ठा की।109 - श्री ऋषभ जिनप्रासादात् उल्लिखतम् ॥ -- श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ तत्पश्चात् आपके शिष्यरत्न श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी एवं 110. धरती के फूल पृ. 215, 216 विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी ने इस तीर्थ का जीर्णोद्धार कार्य करवाया एवं 11. धरती के फूल पृ. 217 108. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [22]... प्रथम पारच्छद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन महावीर स्वामी की नूतन प्रतिमा वि.सं. 1959 में वैशाख सुदि पूर्णिमा, जालोर जिले में भांडवा गाँव के परिसर में स्थित है। यहाँ वर्तमान गुरुवार के दिन प्रतिष्ठा की एवं प्राचीन प्रतिमा लेप करवाकर नूतन में जैनेतरों के 200 घर समृद्ध हैं । जालोर (जाबालीपुर) के राजा परमार चोकी में विराजमान की।112 भाण्डुसिंह ने इसे अपने नाम से बसाया था। विक्रम की 7वीं शती 2. श्री आदिनाथ मंदिर : तक यहाँ जैन श्वेताम्बर परिवारों से समृद्ध 'बेसाला' नामक कस्बा यह मंदिर निकटतवर्ती धोलागिरि की ढालू उपत्यका पर (तहसील) था जिसे मेमन लुटेरों ने ध्वस्त किया एवं जिन मंदिर स्थित हैं। इसे विक्रम की 13 वीं शती में नाहड महामंत्रीने बनवाया को भी तोड दिया किन्तु श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा किसी तरह था। उनके द्वारा निर्मित प्रतिमा खंडित हो जाने से देवसूरगच्छीय बचा ली गयी। श्री शांतिसूरि ने वि.सं. 1903 में मूलनायक की नवीन प्रतिमा प्रतिष्ठित कोमता गाँव के संघवी पालजी विक्रम की 13 वीं शती की थी। वर्तमान में मूलनायक के रुप में वही प्रतिमा है एवं आसपास में संयोगवश श्री महावीर प्रतिमा को एक शकट (ढकी हुई बैलगाडी) की दोनों प्रतिमाएँ श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा प्रतिष्ठित नूतन में बिराजमान कर इसे कोमता ले जा रहे थे तब इसी स्थान बिंब हैं।113 पर आकर बैलगाडी रुक गयी। अनेक प्रयत्न किये पर बैलगाडी 3. श्री पार्श्वनाथ मंदिर : नहीं चली एवं अर्धरात्रि में अधिष्ठायक देव के द्वारा मिले आदेशानुसार उन्होंने वहीं जिन मंदिर बनवाकर वि.सं. 1233 माघ सुदि पंचमी गाँव के मध्य में स्थित इस मंदिर के निर्माता एवं निर्माण के दिन महामहोत्सवपूर्वक प्रतिमाजी विराजमान की। आज भी का समय अज्ञात हैं। मंदिर के एक स्तंभ के शिलालेख के "ॐ प्रतिवर्ष प्रतिष्ठा के दिन पालजी संघवी के वंशज ही आकर मंदिर ना....ढा" लेखाक्षर से इसे मंत्री नाहड के पुत्र ढाकलजीने बनवाया पर ध्वजा चढाते हैं। हो, एसा अनुमान है। पहले 17 वीं शती में कोरटा के किसी इसके पहले इस मूलनायक श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा श्रावक ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। उसमें बिराजित मूलनायक किसने, कब, कहाँ भरवाई और कहाँ, किसने प्रतिष्ठित की थी, श्री शांतिनाथ भगवान् की प्रतिमा खंडित हो जाने से श्री पार्श्वनाथ वह अज्ञात हैं। बाद में वि.सं. 1359 में और वि.सं. 1654 में एवं उनके आसपास की नूतन प्रतिमाएँ आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र दियावट पट्टी के जैन श्वे. श्री सङ्घ ने दो बार इस मंदिर का जीर्णोद्धार सूरीश्वरजीने प्रतिष्ठित की।14। करवाया था। 4. श्री केशरियानाथ मंदिर : इसके बाद वि.सं. 1955 में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर वि.सं 1911 ज्येष्ठ सुदि अष्टमी के दिन उपरोक्त श्री महावीरमंदिर जी विहार करते इधर आये तब समीपवर्ती गाँवों के निवासी श्रीसंघ के कोट का निर्माण कार्य करवाते समय बाई ओर की जमीन के ने यहाँ जैनों के घर नहीं होने से उक्त प्रतिमाजी को यहाँ से नहीं एक टेकरे को तोडते समय श्वेतवर्णी 5 फीट की विशालकाय श्री उठाने एवं मंदिर का जीर्णोद्धार करने हेतु सारी दियावट-पट्टी में भ्रमण आदिनाथ भगवान् की पद्मासनस्थ और 5-5 फीट की दो कायोत्सर्गस्थ कर श्रीसंघ को उपदेश दिया। स्वर्गवास के समय वि.सं. 1963 में राजगढ (म.प्र.) में (खडी) श्री संभवनाथ तथा श्री शांतिनाथ भगवान् की प्रतिमाएँ निकली गुरुदेवश्री ने कोरटा, जालोर (स्वर्णगिरि), तालनपुर और मोहनखेडा थीं। जिन्हें बिराजमान करने हेतु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने श्रीसंघ के साथ इस तीर्थ का भी जीर्णोद्धार करवाने हेतु अपने सुयोग्य शिष्य को उपदेश देकर नया जिन मंदिर बनवाकर वि.सं. 1959 वैशाख श्री यतीन्द्र सूरीश्वर जी (अभिधानराजेन्द्र कोश के संपादक - तत्कालीन सुदि पूर्णिमा के दिन 201 अन्य प्रतिमाओं की अंजनशलाका प्राणप्रतिष्ठा 22 वर्षीय मुनि यतीन्द्र विजयजी) को आदेश दिया था। तदनुसार पूर्वक विराजमान की।116 इस अंजन शलाका में प्रतिष्ठित श्री ऋषभदेव वि.सं. 1988 से 2007 तक यह कार्य चला और वि.सं. 2010 में प्रभु की 32 मण (एक मण = 40 सेर) की सार्वधातुक, दिव्य, मनोहर जेठ सुदि दशमी को यहाँ प्रतिष्ठोत्सव संपन्न हुआ। इस मंदिर में प्रतिमा हरजी (राज) में विराजमान हैं।117 इस एतिहासिक प्रतिष्ठोत्सव बिराजमान परमात्मा की शेष सभी मूर्तियाँ गुरुदेव के द्वारा प्रतिष्ठित का शिलालेख इस प्रकार हैं हैं।19 प्रतिष्ठा प्रशस्ति : वर्तमान में आपके प्रशिष्यरत्न वर्तमानाचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन वीरनिर्वाणसप्ततिवर्षात्पश्चात्पार्श्वनाथसंतानीयः सूरीश्वरजी की प्रेरणा से निर्मित श्वेत संगमरमर के 36 खंभो पर खुले विद्याधरकुलजातो, विद्यया रत्नप्रभाचार्यः ।। कमल में बने चतुर्मुख मंदिर में गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्विधा कृतात्मा लग्ने, चैकस्मिन् कोरंट ओसियायां । की 41 इंच की चतुर्मुख प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं। वीरस्वामिप्रतिमामतिष्ठपदिति पप्रथेऽथ प्राचीनम् ॥2॥ 112. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, 78 देवडा ठक्कुरविजयसिंहे, कोरंटस्थवीरजीर्णबिम्बम् । 113. वही उत्थाप्य राघशुक्ले निधिशरनवेन्दुके पूर्णिमा गुरौ ॥३॥ 114. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, 79 115. वही सुस्थितवृषभलग्ने, तस्य सौधर्मबृहत्तपोगच्छीयः । 116. धरती के फूल पृ. 215, 241 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिः प्रतिष्ठांजनशलाके चक्रे 4118 117. वही पृ. 218 3. भाण्डवपुर/ भाण्डवा : 118. श्री कोरंटपुरमंडन श्रीमहावीरजिनालयस्य प्रतिष्ठाप्रशस्तिः; श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, 79, 80 बालू रेती के टीलों से घिरा हुआ यह तीर्थ राजस्थान के 119. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, 81, 82 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन यहाँ जैनों का एक भी घर न होने पर भी जैनेतर ग्रामीण जनता भद्र परिणामी एवं श्रद्धावान् हैं। वे मंदिर में प्रतिदिन दर्शन हेतु आते हैं एवं विवाह, त्यौहार आदि विशेष प्रसंगों पर बहुत भक्ि करते हैं। इतना ही नहीं शादी के बाद नये दंपति सर्वप्रथम श्री महावीर स्वामी के दर्शन करने अवश्य आते हैं- ऐसी परंपरा हैं । 4. तालनपुर तीर्थ : यह तीर्थ कुक्षी (म.प्र.) से 4 कि.मी. की दूरी पर स्थित हैं । जैनागम-शास्त्रों में तुंगियापुर, तुंगियापत्तन और तारन / तालनपुर के नाम से विश्रुत इस गाँव में विक्रम की 14 वीं, 15वीं शती में 21 जिनालय एवं 5000 जैनों के घर थे। 120 वि.सं. 1916 में यहाँ एक भिलाले के खेत में से भूखनन से श्री ऋषभदेवादि 25/45 प्रतिमाएँ मिलीं। इस पर किसी प्रकार का लेख नहीं है परंतु बनावट से ऐक हजार साल से भी अधिक प्राचीन होना ज्ञात होता हैं। इसके बाद वि.सं. 1928 में मार्गशीर्ष सुदि 14 के दिन बरगद बावडी पर सोये एक मुसाफिर स्वर्णकार के स्वप्नानुसार दूसरे दिन यानी वि.सं 1928 में मार्गशीर्ष सुदि पूर्णिमा के दिन सवा प्रहर दिन चढने पर श्री गोडी पार्श्वनाथजी की प्रतिमा उसी बरगद बावडी के पानी में से तैरती हुई पेटी में से चमत्कारिक रुप से ताजी पूजन की हुई स्थिति में निकली थी। 121 यह प्रतिमा वि.सं. 1022 फाल्गुन शुक्ल पंचमी गुरुवार को श्री बप्पभट्टीसूरिजी के करकमलों से प्रतिष्ठित हैं 1122 आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने श्रीसंघ कुक्षी को उपदेश देकर दो नूतन जिनालय बनवाकर एक में उक्त श्री आदिनाथादि की 25 प्रतिमाएँ एवं एक में श्री गोडी पार्श्वनाथ की प्रतिमा वि.सं. 1950 माघ वदि द्वितीया के दिन प्रतिष्ठित की थीं। 123 5. मोहनखडा तीर्थ 1 24 : यह तीर्थ मध्यप्रदेश के धार जिले में राजगढ से पश्चिम दिशा में 3 कि.मी की दूरी पर हैं। वि.सं. 1938 के शीतकाल में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी राजगढ पधारे तब आपके पास शा लुणाजी दल्लाजी प्राग्वाटने अपनी जीवन शुद्धि की भावना से जीवन के कार्यो की आलोचना की । आलोचना में आचार्यश्री ने जिन मंदिर निर्माण हेतु प्रेरणा दी। तदनुसार वीरामखेडा नामक कस्बे में टेकरी पर स्वस्तिक, पगलिये (कुमकुम) आदि दिव्यसंकेतयुक्त भूमि पर शा. लुणाजी ने शुभमुहूर्त में विधिविधानपूर्वक सौधशिखरी जिनमंदिर बनवाकर आचार्य श्री के करकमलों से स्वयं कृत महोत्सव के साथ वि.सं. 1940 के मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी गुरुवार के दिन श्री ऋषभदेव स्वामी की 31" की श्वेतवर्णी संगमरमर प्रतिमा एवं अन्य प्रतिमाएँ अंजनशलाका और प्रतिष्ठा करवाकर प्रतिष्ठित की थीं। इसके बाद लुणाजी स्वयं इस तीर्थ की व्यवस्था करते रहे। अपने अंत समय में उन्होंने यह तीर्थ राजगढ त्रिस्तुतिक श्रीसंघ को सौंप दिया । वि.सं. 2013 में आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी श्री संघ को इस तीर्थ के विकास एवं उन्नति हेतु प्रेरित किया । अत: वि.सं. 2014 में स्वगच्छीय श्री संघ की बैठक में राजगढ त्रिस्तुतिक श्री संघने इस तीर्थ की समस्त जिम्मेदारी अखिल भारतीय त्रिस्तुतिक श्री संघ को सुपुर्द की। तब से अब तक हुए इस तीर्थ के सर्वतोमुखी विकास का श्रेय उनको एवं उनके शिष्य आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरिजी को हैं । वर्तमान में यहाँ संगमरमर का त्रिशिरवरी मुख्य जिनालय, प्रथम परिच्छेद ... [23] श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी, श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी एवं श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी - इन तीनों गुरुवरों के अग्नि-संस्कार स्थल पर तीन गुरुमंदिर, उपाश्रय, विशाल धर्मशालाएँ, भोजनशाला, गौशाला, गुरुकुल आदि हैं। मोहनखेडा तीर्थ आज देशी-विदेशी असंख्य गुरुभक्तों की परम श्रद्धा का केन्द्र हैं। वहाँ आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के गुरुमंदिर में उनकी उपस्थिति का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, प्रत्येक पुण्यात्मा की सात्त्विक मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं, आत्मा को परम शांति एवं सहज आनंद की अनुभूति होती हैं। उसके समीप में राष्ट्रसंत वर्तमानाचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजीने स्वस्तिकाकार में श्री राज-राजेन्द्र जैन तीर्थ दर्शन ( जयन्त म्युझियम) का निर्माण कराया है जो दर्शनीय है - आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : तीर्थरक्षक: मध्यप्रदेश के निमाड क्षेत्र में 'बावनगजा' दिगम्बर जैन तीर्थ हैं। वहाँ चुलगिरि तीर्थ पर श्री जिनेश्वर परमात्मा की चरणपादुका विराजमान हैं । किन्तु ख्रिस्त सन् 1860 में वैष्णव समाज और दिगम्बर समाज ने इस पर अपना अधिकार बताते हुए बडवानी (जिला धार ) हाईकोर्ट में मुकदमा पेश किया था। कई वर्षो तक इस विवाद का सत्य न्याय नहीं हो सकने पर बडवानी रियासत के राजा ने झाबुआ के दीवान नारायणसिंह की मध्यस्थता में समस्त मुकदमा के अभिलेख प्रस्तुत करते हुए निर्णय हेतु आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी से विनती की। आपने समस्त कागज देखकर अपने सप्रमाण अकाट्य तर्कों से सन् 1984 में 'चूलगिरि जैन श्वेताम्बर तीर्थ है' यह सिद्ध किया 125 120. नेमाड प्रवास गीतिका मुनि जयानंदविजय, वि.सं. 1427, उद्धरित - श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 85 तालनपुर तीर्थ का इतिहास ले. मनोहरलालजी पुराणिक स्वस्ति श्रीपार्श्वजिनप्रसादात्संवत् 1022 वर्ष मासे फाल्गुने सुदि पक्षे 5 गुरुवासरे श्रीमान् श्रेष्ठी श्रीसुखराजराज्ये प्रतिष्ठितं श्री बप्पभट्टी (ट्ट) सूरिभि: तुंगियापत्तने । श्रीगोडीपार्श्वनाथ प्रतिमा पर उल्लिखित लेख, - श्रीगोडी पार्श्वनाथ जैन मंदिर, तालनपुर - 121. 122. - 123. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, पृ. 85 124. मोहनखेड़ा तीर्थ का इतिहास से संकलित (क) श्री राजेन्द्रगुण मञ्जरी पृ. 72 (ख) बावनगजानो फैसलो हस्तलिखित रजिस्टर श्री राजेन्द्र बृहद् जैन ज्ञान भंडार आहोर, कुक्षी (ग) बावनगजानो दियो फेंसलो, वैष्णव हक उटायो रे । राज्यसभा में विजय प्राप्त कर, जैन तीर्थ रोपायो रे ॥4॥ श्री गुरु गुण जीवन-निर्झरी रासपूर्ति पृ. 39 125. अप्पा खलु सययं रक्खिअव्वो, सव्विदिहिं सुसमाहिहिं । अरक्खिओ जाइप उवेइ, सुरक्खि सव्वदुहाण मुच्चइ ॥ अ. रा. पृ. 2/231 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [24]... प्रथम परिच्छेद आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : उग्र तपस्वी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि ने तप को जीवन के अभ्युदय का साधन बनाया था । उन्होंने अपने जीवन में क्रियोद्धार के पश्चात् कभी एकासन से कम तप नहीं किया। आपने संवत्सरी, भगवान महावीर जन्म कल्याणक का अट्टम तप (तीन उपवास); अषाढ शुक्ल 1, कार्तिक: शुक्ला एवं फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी, दीपावली, एवं पर्युषण में बडा कल्प (भाद्रपद वदी 14 एवं अमावस्या) का छट्ठ तप (दो उपवास) एवं शेष दिनों में प्रत्येक माह की सुदि पंचमी, अष्टमी एवं चतुर्दशी तथा वदि अष्टमी एवं चतुर्दशी को उपवास तथा सुदि द्वितीया, एकादशी एवं वदि द्वितीया, पंचमी एवं एकादशी को आयंबिल तप किया 1126 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कायोत्सर्ग में ध्यान किया । 131 जालोर के किल्ले उपर स्थित जिनमंदिरों राजकीय अधिकार से मुक्त कराने हेतु जालोर के किले (स्वर्णगिरि) की अतिसन्तप्त शिलाओं पर तप के साथ आतापना लेकर और रात्रि वि.सं. 1926 में आचार्य श्री रतलाम (म.प्र.) में चातुर्मासार्थ विराजमान थे तब पर्युषण में अट्ठाईधर (प्रथम) के दिन आपने अभिग्रह किया कि कोई युवक स्वेच्छा से आकर श्रावक के बारह व्रत अंगीकार करे तो प्रथम घर में गोचरी (आहार) हेतु जहाँ जाऊँ वहाँ आहार की दो दत्ती (दो बार और पानी की एक दत्ती में वह गृहमालिक जितना आहार- पानी वहेरावें उसी से पारणां करूँगा । इस अभिग्रह के कारण आचार्यश्री के 9 उपवास हो गये तब उनका अभिग्रह पूरा हुआ। इसके बाद श्री रखबचन्दजी भंडारी ने स्वत: करण आत्मप्रेरणा से आचार्यश्री के पास आकर भाद्रपद सुदि 6 के दिन व्रत ग्रहण किये तब आपने एक मध्यमवर्गीय गृहस्थ के यहाँ से गोचरी ग्रहण कर पारणां कियां 127 मध्य प्रदेश के धार जिलान्तर्गत आने वाले नगर कुक्षी के तत्त्वज्ञ श्रावक शिथिलाचारी यतियों से त्रस्त वातावरण में किसी यति को अपने नगर में प्रवेश भी नहीं करने देते थे, एसे समय में वि.सं. 1926 के प्रथम वैशाख मास में गुरुदेवश्री कुक्षी पधारें, तब वसति (ठहरने का स्थान) और शुद्धाहार के अभाव में गाँव के बाहर नाले के पास वटवृक्ष की छाँव में रहकर अठाई (आठ उपवास) तप किया। 9 वें दिन विहार के समय कुक्षी संघने आदर-सत्कारपूर्वक गुरुदेव श्री को कुक्षी नगर में प्रवेश करवाया और सम्यक्त्व सहित त्रिस्तुतिक (तीन थुई) आम्नाय का अनुसरण किया एवं वैशाख सुदि पूर्णिमा के दिन कुक्षी श्रीसंघ के साथ तालनपुर तीर्थ (म.प्र.) की यात्रा की 1128 आचार्यश्री का जीवन तप की उर्जा से ओतप्रोत था । वे सदा ही कठिनतम तप अंगीकार करते थे। एक बार आचार्य श्री राजगढ (म.प्र.) में थे तब स्वेच्छा से अभिग्रह किया कि यदि कोई श्राविका राख वहरावे तो पारणा करना । इस अभिग्रह में 12 उपवास होने पर राजगढ के श्री खजानजी परिवार में श्री लालचन्दजी खजानची की धर्मपत्नी (मैना बाई) के हाथ से आचार्यश्रीने गोचरी वहेरने के समय 'राख' वहोरकर ( ग्रहण कर) पारणां किया। इसी प्रकार की अनेक तपस्याओं के प्रसंगो के उल्लेख यत्रतत्र प्राप्त होते हैं। । 129 वि.सं. 1927 में आपने दिगम्बर सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी पर्वत ( आकोला - मालेगांव के पास महाराष्ट्र में) पर छः महीने तक ध्यानादिपूर्वक सूरिमंत्र की कष्टमय आराधना साधना की। इसी तरह वहाँ अट्ठाई (आठ उपवास) के पारणे फिर अट्ठाई- एसी आठ अट्ठाई करके 'श्री नमस्कार महामंत्र' के प्रथम पद 'नमो अरिहंताणं' पद का सवा करोड बार जाप किया। 130 राजस्थान में मोदरा नगर के समीप चामुंड वन में भी आठ उपवास किये एवं आठ महीने तक की ठंड सहनकर कायोत्सर्ग में ध्यान साधना की । एवं स्वर्णगिरि तीर्थ झालोर (राज.) की प्रतिष्ठा के समय भी 9 उपवास के तपपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई थी । 132 वि.सं. 1931-32 में आहोर के श्रीसंघ में चल रहे वैमनस्य को दूर करने हेतु कई महीनों तक सतत आयंबिल तप किया। 133 इसी प्रकार अपने जीवन के अंतिम वर्षावास में वि.सं. 1963 में बडनगर (म.प्र.) में भी दीपावली के दिनों में अट्ठाई तप कर ग्यारह अंगो का स्वाध्याय (पुनरावर्तन) किया । 134 इसके अतिरिक्त चार बार सिद्धाचल यात्रा में अट्ठम तप (तीन उपवास), दो बार गिरनार की यात्रा में छट्ठ तप (दो उपवास), श्री केशरियाजी तीर्थ में एवं श्री शंखेश्वर तीर्थ में अट्ठाई एवं श्री मक्ष तीर्थ में 5 बार अट्टम (तीन उपवास किया। इस प्रकार आचार्य श्रीने स्वयं के शरीर की ऊर्जाओं का योग व तप से एसा दोहन किया कि उनका प्रभामण्डल तेजस्विता से जाज्वल्यमान बन गया था। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी : क्षमाश्रमणः आचार्यश्री की क्षमा कायर की नहीं अपितु वीर की क्षमा थी । उपकारी को ही नहीं अपितु अपकारी को भी माफ कर देना - यह आपका सहज औदार्य था । विद्वेषी यतियों ने जावरा में व्याख्यान सभा में एवं शिवगंज की प्रतिष्ठा में मंडप के आग लगाई, तथापि आपने उनसे द्वेष करने के बजाय उन्हें क्षमा कर दिया। इतना ही नहीं, अपितु जनता के आक्रोश से उनकी सुरक्षा हेतु उन्हें आपने अपने पास में बैठाया । 135 मुनि धन विजयजी को गोचरी के नियम पालन में मामूली भूलवश आपने गच्छ बाहर कर दिया था परंतु दो वर्ष बाद अपने अंतिम समय में आपने श्रीसंघ को कहा कि "मुनि धनविजयजी की गलती के अनुसार पर्याप्त प्रायश्चित हो चुका है अतः उन्हें वापिस गच्छ में लेकर मेरी पाट पर बैठाकर आचार्य पद से अलंकृत करना" - यह आपके क्षमागुण का अद्भुत और ज्वलंत दृष्टांत हैं । 136 आचार्य श्रीमद्विजय राजेनद्रसूरिः वादीमानभञ्जकः आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का ज्ञान कभी भी कहीं पर भी अहंकार का कारण नहीं बना किन्तु गच्छ में शिथिलाचार 126. धरती के फूल पृ. 225, कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी - जीवन परिचय पृ. 12 127 विरलविभूति, पृ. 60 128 राजेन्द्रसूरि का रास-50 129 राजगढ श्री संघ में हुए गुरुगुणानुवाद के प्रवचन में से सन 1990 130. माङ्गीतुङ्गीपर्वतीयाऽतिविषमगुहायामष्टोपवासं कुर्वन् षाण्मासिक सूरिमन्त्राऽऽराधनम् तथा सत्यपि देहसौकुमार्ये ऽतिशीतकाले नर्मदातीरेऽतिशीतले निर्वासा एव (एक कटीवस्त्रपूर्वक) कायोत्सर्गेण तस्थिवान् । - • कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी जीवन परिचय पृ. 12 131. राजेन्द्रगुणमंजरी, पृ. 55; कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी गत जीवन परिचय पृ. 12 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 80, कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी - जीवन परिचय पृ. 12. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 83,84 132. 133. जीवनप्रभा पृ. 21, राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 54 134 विश्वपूज्य पृ. 98 135. धरती के फूल पृ. 291-92-94 136. विरलविभूति पृ. 94, 95,295 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [25] बढ जाने से और मूर्ति-पूजा आदि भक्ति योग पर सिद्धांत विरोधियों वि.सं. 1933 में आचार्यश्री का चातुर्मास जालोर (राज.) द्वारा आक्षेप किये जाने पर आपने उनको सन्मार्ग पर लाने के लिये में हुआ तब जालोर किले के स्वर्णगिरि तीर्थ के प्राचीन मंदिरों एवं उनके तथा अनेक भव्यजीवों के कल्याण के लिए कई शास्त्रार्थ के जीर्णोद्धार के समय आपने जालोर-गोडवाड निवासी ढूंढियों के किये जिनमें सदा ही विजयी रहे क्योंकि आचार्यश्री में न तो स्वयं साथ वाद किया। इस वाद में आपने तखतमल प्रमुख 700स्थानकवासी के ज्ञान का अभिमान था और न ही वे दूसरों के सम्यक् प्ररुपण जैन परिवारों को सुबुद्धि और शास्त्र युक्ति से निरुत्तर किया एवं उन्हें एवं प्रचार के लिये उन्होंने अनेकत्र अनेक वादियों के मान का भङ्ग मूर्तिपूजक बनाया। वर्तमान गोडवाड पट्टी (राज.) में जो मूर्तिपूजक किया। आचार्यश्री द्वारा किये गये प्रमुख शास्त्रार्थ का यहाँ संक्षिप्त समाज का बाहुल्य देखने में आता है वह इसी का प्रभाव हैं। परिचय दिया जा रहा हैं। वि.सं. 1949 में आचार्यश्री का चातुर्मास निम्बाहेडा था। 1. व्याकरणविषयक वादः तब आपका स्थानकवासी यति नंदराम से मूर्तिपूजा एवं जिनमूर्ति आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का व्याकरण विषयक की मुनि द्वारा प्रतिष्ठा की शास्त्रोक्तता एवं अन्य प्रश्न विषयक वाद ज्ञान प्रकाण्ड विद्वतापूर्ण था अतः आपने इस विषयक शास्त्रार्थ में हुआ जिसका निम्बाहेडा-अदालत (रियासती) में निर्णय किया गया। ज्वलंत विजय प्राप्त की। इस वाद में यति नंदराम द्वारा प्रेषित 9 प्रश्नों के आचार्यश्रीने शास्त्रोक्त एक बार आचार्यश्री वि.सं. 1921 में अजमेर में थे, तब सप्रमाण उत्तर दिये जबकि आचार्यश्री के 4 प्रश्नों में से नंदराम ने यति जयसागरजी की मध्यस्थता में संघ समक्ष खरतरगच्छीय श्रीपूज्य एक का गलत एवं तीन के अति संक्षिप्त उत्तर दिये और शेष 25 मुक्तिसूरि से आपका नवकार मंत्र के प्रथम पद 'नमो अरिहन्ताणं' एवं 15, इस प्रकार कुल 40 प्रश्नो में से एक का भी उत्तर नहीं के 'ण' - वर्ण के अर्थ विषयक वाद हुआ। वादी ने 'णं' वर्ण दिया जिससे यति नंदराम पराजित हुआ एवं आचार्यश्री विजय हुए। को वाक्यालंकारार्थ में पादपूर्तिरुप बताया। इसका निषेध करते हुए साथ ही इस विजय के फलस्वरुप निम्बाहेडा के 60 परिवारों ने आपने जैनेन्द्र व्याकरण की पद्धति पूर्वक कोशादि के द्वारा 'ण' प्रत्यय मूर्तिपूजक बनकर आचार्यश्री की आम्नाय स्वीकृत की145 जो अद्यावधि को षष्ठ्यर्थ का द्योतक बताया। संस्कृत भाषा में हुए इस वाद में 250 परिवारों के विशाल संघ के रुप में विद्यमान हैं। आपकी विजय हुई जिससे जिनशासन की बहुत प्रभावना हुई ।137 इसी प्रकार नीमच में स्थानकवासी यति चोथमल से एवं इसी प्रकार किशनगढ में श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि के पाणिनीय नव्य व्याकरण वि.सं. 1953 में जावरा में146 तथा वि.सं. 1954 में रतलाम में अन्य मतानुयायी भक्त से हुए व्याकरण विषयक शास्त्रार्थ में भी आपकी स्थानकवासी के साथ मूर्ति पूजा विषयक शास्त्रार्थ कर आचार्यश्रीने विजय हुई।138 विजय प्राप्त कर उन्हें अच्छी शिक्षा देकर धर्म प्रभावना की147 । वि.सं. 1958 में बाली (राज.) में सभा के मध्य पं. हेतविजयजी 3. तीन स्तुति - चतुर्थ स्तुति विषयक वादा48 :आप से थुइ (स्तुति) विषयक वाद करने आये परन्तु सूर्यवत् आपको आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने वीतरागता देखकर बोल ही नहीं पाये और उन्होंने स्वयं ही अपनी पराजय स्वीकार एवं जिनवाणी के पुनः प्रचार-प्रसार हेतु क्रियोद्धार के साथ ही वीतराग कर ली एवं आपकी स्तुति की। बाद में आपने संस्कृत एवं प्राकृत प्रणीत जैनागमसम्मत त्रिस्तुतिक सिद्धांत का पुनरुद्धार कर उसी का व्याकरण के माध्यम से 'थुइ' शब्द की सिद्धि बतायी ।।39 प्रचार-प्रसार एवं उपदेश किया अतः देवोपासना और शिथिलता के 2. मूर्तिपूजा विषयक वादः इस युग में उनके मार्ग में जगह-जगह धमकियाँ, प्रलोभन, उपसर्ग आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज श्वेताम्बर आदि आये जिनका उन्होंने धीर-वीर-शूरवीर बन सामना किया, इतना मूर्तिपूजक आम्नाय के आचार्य थे। यद्यपि श्री जिन प्रतिमा पूजन ही नहीं अपितु इस हेतु आपश्री को कई जगह विद्वेषी, कुतर्की, अत्यंत प्राचीनकाल से शास्त्र सम्मत है। लाखों करोडों वर्ष प्राचीन हठाग्रही, कदाग्रही देवोपासकों से शास्त्रार्थ भी करना पडा जिसमें एवं शाश्वत जिनप्रतिमाएँ इस काल में भी प्राप्त है, यथा कुलपाकजी सर्वत्र आप सूर्य की भाँति निर्मल तेज-प्रकाश युक्त प्रकाशित हो तीर्थ में माणिक स्वामी की प्रतिमा बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत विजयी हुए। यहाँ ऐसे कुछेक शास्त्रार्थ का दिग्दर्शन कराया जा रहा स्वामी के समय की है।140 अजाहरा पार्श्वनाथ की प्रतिमा को समुद्र में से प्रगट हुए 7 लाख वर्ष से अधिक समय हुआ है और वह प्रतिमा 13 लाख वर्ष से भी अधिक प्राचीन हैं।141 इसी प्रकार शंखेश्वर 137. श्री राजेन्द्रसूरि का रास; उत्तरार्ध-खण्ड-4, ढाल-३, पृ. 28,29 तीर्थ में मूलनायक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान खंभात तीर्थ में 138. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 29, 30 स्थंभन पार्श्वनाथ, चारुप पार्श्वनाथ की प्रतिमाए पिछली चौबीसी में 139. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 79, 80 9 वें तीर्थंकर श्री दामोदर स्वामी के समय में अषाढी श्रावक द्वारा श्री कुलपाक जी तीर्थ का इतिहास भरवाई हुई है। 42 तथापि श्वेताम्बर जैनों में स्थानकवासी एवं ढूंढकपंथी 141. अजाहरा पाश्वनाथ तीर्थ का इतिहास 142. अ.रा.पृ. 5/903-904; शंखेश्वर तीर्थ का इतिहास लोग इसे नहीं मानते हुए असत्प्रलाप करते हैं। आचार्यश्री के जीवन 143. विरल विभूति, पृ. 65 में भी ऐसे प्रसंगो पर शास्त्रार्थ करने का अवसर आया जिसमें आपने 144. श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 57, 58; श्री राजेन्द्रसूरि अष्टप्रकारी पूजा - 71 अपने शास्त्र-ज्ञान बल, तपोबल और ध्यान बल से सर्वत्र विजय 17; कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी पृ. 10 पाई। 145. श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 70; जीवनप्रभा पृ. 22; प्रश्नोत्तरमालिका ग्रंथ वि.,सं. 1928 में जावरा में ढूंढकपंथी यति गंभीरमल से संपूर्ण, श्री राजेन्द्रसूरि अष्टप्रकारी पूजा-7/9 146. कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी - जीवन परिचय पृ. 10 मूर्तिपूजा विषयक शास्त्रार्थ में आपकी विजय हुई, जिससे जावरा 147. जीवनप्रभा पृ. 22, 23, श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 73 और रतलाम में भारी धर्म प्रभावना हुई। 43 148. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 28 140. श्री कुलमान Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [26]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन वि.सं. 1922 में बिकानेर में भट्टारक उपाश्रय में यति प्रभावित होकर लोगों ने आचार्यश्री का उपदेश ग्रहण किया एवं त्रिस्तुतिक मोतीचन्द्र के साथ मुनिश्री रत्नविजयजी (आचार्यश्री) का वाद हुआ आम्नाय स्वीकृत की।151 जिसमें 'प्रतिक्रमण में क्षेत्र देवता की स्तुति करना' - ऐसी वादी पुनः इसी विषय पर वादीने आचार्यश्री से सेमलिया नरेश की स्थापना थी, जिसे आपने शास्त्रोक्त प्रमाणों से खण्डन कर को निर्णायक बनाकर सेमलिया (जि. रतलाम, म.प्र.) में वाद किया, विजयश्री प्राप्त की। और बीकानेर में प्रशस्य धर्म प्रभावना की। वहाँ भी वादी को करारी हार मिली एवं आचार्यश्री विजयी हुए। वि.सं. 1926 में बडनगर में कुछेक यतियों ने आपसे त्रिस्तुतिक इससे प्रभावित हो सेमलिया नरेश ने आपका उपदेश ग्रहण कर विषयक शास्त्रार्थ किया जिसमें आपकी ज्वलन्त विजय हुई। फलस्वरुप कई व्रत-नियम ग्रहण किये।152 वि.सं. 1940 में अहमदाबाद में यति भक्तों ने सत्य सिद्धांत स्वीकार कर आपकी आम्नाय शरण अंगीकार संवेगी आत्मारामजी के साथ भी इसी त्रिस्तुतिक सिद्धांत विषयक की एवं आपका उपदेश ग्रहण किया।149 वाद पत्रों के द्वारा हुआ, जिसमें भी आचार्यश्री की विजय हुई। वि.सं. 1928 में इन्दौर में संवेगी झवेर सागरजी से तीन यह वाद तत्कालीन 'प्रजाबन्धु' समाचार पत्र (अहमदाबाद से प्रकाशित) थुई-चार थुई विषयक शास्त्रार्थ हुआ जिसमें आपने झवेर सागरजी में मुद्रित हैं।153 की बातों का खंडन किया और विजय प्राप्त की।150 परंतु वादी वि.सं. 1960 में जब आचार्यश्री सूरत (गुजरात) में थे तब ने अपनी कुटिलता नहीं छोडी जिससे वि.सं. 1929 में आचार्यश्री पंन्यास चतुरविजयजी से भी इसी त्रिस्तुतिक विषयक एवं समाचारी के रतलाम चातुर्मास में सार्वजनिक आम जनता के बीच पुनः वाद (साध्वाचार संबंधी नियम) संबंधी वाद हुआ था जिसमें एसी शर्त हुआ। इस वाद में झवेर सागरजी ने तपागच्छीय यति बालचंद्र और थी कि, "पञ्चाशक सूत्र में चतुर्थ थुई सम्मत शास्त्रपाठ मिले तो खरतरगच्छीय यति ऋद्धिकरण को अपनी तरफ से वेतन तय कर राजेन्द्र सूरीश्वरजी को चतुर्थ स्तुति मत अंगीकार करना और यदि न वाद हेतु नियुक्त किया जबकि आचार्यश्री की तरफ से प्रतिवादी मिले तो वादी को राजेन्द्र सूरीश्वरजी दर्शित आगमोक्त तीन स्तुति के रुप में आचार्यश्री स्वयं रहे। साक्षी में रतलाम नरेश, रतलाम एवं बृहत्तपागच्छोय आमन्या अंगीकार करना। लेकिन वादी ने न की समस्त प्रजा एवं पाँच गाँव के महाजन रहे एवं रतलाम नरेश तो पञ्चाशक सूत्र में से चतुर्थ स्तुति सम्मत शास्त्रपाठ बताया और तथा पाँच गाँव के प्रमुख महाजन एवं रतलाम की सभी जातियों न आपकी समाचारी भी अङ्गीकार नहीं की तब सूरत की समस्त के प्रमुख प्रतिनिधि निर्णायक के रुप में रहे। इस वाद में वादी महाजन कोम के प्रतिनिधियों की परिषद्ने आपको विजेता घोषित ने निम्नांकित पाँच प्रश्न पूछे जो निम्नानुसार हैं किया। यह वृतान्त तत्कालीन 'देशी मित्र' समाचार पत्र में मुद्रित (1) जिनपूजा में अल्पपाप का निषेध कहना। है। विशेष रुचिवानों के लिये 'श्री राजेन्द्र सूर्योदय' एवं 'कदाग्रह (2) प्रतिक्रमण में चतुर्थ स्तुति, वैयावच्चगरणं, और दूराग्रहनो शांति मंत्र' - पुस्तकें दृष्टव्य है। सम्मदिट्ठीदेवाए - पाठ कहना। इस वाद के समय वादी पक्ष ने लोगों में असत्प्रलाप कर (3) ललितविस्तरा के कर्ता हरिभद्रसूरि निश्चय से वि.सं. आचार्यश्री का आहार-पानी तक प्राप्त करना दुर्लभ कर दिया तथापि 585 में ही हुए। आचार्यश्री सत्य सिद्धांत पर अडिग रहे एवं इस वर्ष चातुर्मास भी (4) साधु के वस्त्र श्वेत हों या रङ्गीन ? सूरत में कर अभूतपूर्व शासन प्रभावना की।154 (5) मलिन चारित्र युक्त पासत्था को वंदन करना। आचार्य श्रीमदजय राजेन्द्रसूरि : निष्णात ज्योतिषी:वादी के पाँच प्रश्नो का उत्तर निम्नानुसार दिया गया - तर्क और गणित के पूर्ण ज्ञाता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी जिन पूजा शुभानुबंधी मोक्षफल प्रदायक है परन्तु द्रव्यपूजा का जीवन ज्योतिष विज्ञान से अछूता नहीं था, अपितु मुहूर्त एवं में आरंभ संबंधी विराधना के कारण जिन-द्रव्य पूजा फलित दोनों विषयों पर आपका पूर्ण अधिकार था। आपके द्वारा में 'अल्प-पाप-बहुत निर्जरा' कहते हैं। रचित 'श्री अभिधान राजेन्द्र कोश' में गह (ग्रह), नक्खत्त (नक्षत्र), प्रतिक्रमण में उक्त पाठ नहीं कहना, वंदित्तु. सूत्र में पौर्णमासी, अमावस्या, संवच्छर (संवत्सर) आदि शब्दों के अन्तर्गत 'सम्मतस्सय शुद्धि' पाठ कहना । सर्व जगह तीन थुइ आपने ज्योतिष शास्त्र का विशाल ज्ञान अध्येताओं को सहज में उपलब्ध कहना। करा दिया है। आपने ज्योतिष को मात्र जाना ही नहीं, इसका सूक्ष्म ललितविस्तरा के कर्ता हरिभद्र सूरि वि.सं. 1055 में एवं गहन अध्ययन-मनन कर सदैव सहज साधन के रुप में उपयोग स्वर्गवासी हुए हैं। भी किया। श्री महावीर शासन में साधु को श्वेत मानोपेत जीर्णप्राय वस्त्र धारण करना चाहिए। 149. राजेन्द्रगुण मञ्जरी (5) पासत्था को कारण बिना सर्वथा वंदन नहीं करना, 150. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 51 पासत्था को ज्ञान भंडार भी नहीं दिखाना। 151. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 51-77; सिद्धांतप्रकाश ग्रंथ की हस्तलिखित इस प्रकार आचार्यश्री ने वादी के प्रश्नरुप 'निर्णय प्रभाकर' पाण्डुलिपि (ज्ञान भंडार, कुक्षी, म.प्र.) 152. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 78 ग्रंथ के प्रत्युत्तर में आठ दिन में 'सिद्धांत प्रकाश' ग्रंथ की रचना 153. वही पृ. 58 द्वारा वादी के मत का खंडन कर अद्भुत विजय प्राप्त की जिससे 154. श्री राजेन्द्र सूर्योदय - वि.सं. 1959 (गुजराती) प्रथमावृत्ति - सुरत (गुज.) रतलाम में अनुपम धर्म प्रभावना हुई। अन्यत्र भी इससे अतिशय प्र. देशी मित्र मण्डल (1) जिन पून For Private & Personal use only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [27] ज्योतिष संबंधी विशद ज्ञान के कारण उन्होंने सैंकड़ों प्रतिष्ठाएँ करवायी किन्तु कहीं कोई विघ्न उपस्थित नहीं हुआ। आपने ज्योतिष संबंधी 'गतिषष्ठ्या-सारणी', ग्रह-लाघव और स्वरोदय-यंत्रावलीये तीन ग्रंथ लिखे। इसके अलावा आपके द्वारा रचित फलादेश संबंधी कुछ दोहे तत्संबंधी गंभीर ज्ञान के द्योतक हैं।162 आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : निमित्तज्ञानी: आचार्य विजय राजेन्द्रसूरि की ध्यान साधना उत्कृष्ट कोटि की थी। ध्यान के बल पर वे भविष्य को जानते थे। उनके जीवन में कई ऐसी घटनाओं का उल्लेख है जो उन्होंने समय से पूर्व ही ध्यान के बल पर बता दी थी। वि.सं. 1951 में आप कुक्षी में थे तब रात्रि में ध्यानावस्था में आपने कुक्षी नगरी को अग्नि के प्रकोप से जलती देखी। सुबह आपने श्रावकों को बताया कि आज से 19 वें दिन गंगाराम ब्राह्मण के घर से आग शुरु होगी और भयंकर नुकसान होगा। यह बात अक्षरशः सही नीकली।163 जिसमें कुक्षी का बृहद् हस्तलिखित ज्ञान भण्डार जलकर भस्म हो गया। वि.सं. 1953 में कडोद (म.प्र.) निवासी खेताजी वरदाजी के यहाँ चोरी हो गयी और 80,000 का माल चला गया तब गुरुदेव के पास आये। गुरुदेव ने कहा कि सब माल वापिस आ जायेगा। तीन माह के बाद चोर पकडे गये और सब माल वापिस आ गया। जिसका दोनों भाइयों ने धर्म कार्य में सदुपयोग किया।164 श्रावक राचयंदजी के अनुसार आप जब वि.सं. 1922 में बीकानेर (राजस्थान) में थे तब आपके पास एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति ने आकर अपनी जन्मपत्रिका देकर अपनी शेष आयु के बारे में पूछा तब आपने बताया कि आठ दिन मात्र आयु शेष है, वह बात पूर्ण सत्य सिद्ध हुई।155 इसी प्रकार सुश्रावक कोचरजीने आपसे अपना भविष्य पूछा तब आपने उनकी पत्रिका देखकर बताया कि वैशाख सुदि तेरस के दिन आप बीकानेर राज्य के दीवान पद पर आसीन होंगे और वैसा ही हुआ।156 बीकानेर के राजा ने आप से पूछा कि मुझे पुत्र कब होगा? तब आपने राजा की जन्म पत्रिका देखकर जान लिया कि राजा का आयुष्य पांच वर्ष शेष है और उनकी मृत्यु पश्चात कोई दत्तक पुत्र गादी पर बैठेगा। अतः आपने कहा कि पांच साल बाद पुत्र प्रसिद्ध प्रगट होगा। पांच वर्ष के बाद यह बात अक्षरशः सत्य निकली।157 क्रियोद्धार के समय की लग्नकुण्डली देखकर आपने उसी समय भविष्य बताया कि जोधपुर राज्य की स्थापना से 470 वर्ष होने के पश्चात् त्रिस्तुतिक मत का अतिशय प्रचार-प्रसार होगा ।158 यह बात भी आज पूर्ण रुप से सत्य प्रतीत हो रही हैं। इसी तरह वि.सं. 1940 में जब आप अहमदाबाद विराजमान थे तब अहमदाबाद-वाघनपोल में श्री महावीर जिनालय की प्रतिष्ठा थी। उस प्रतिष्ठा मुहूर्त को देखकर आपने कहा कि इस मुहूर्त में प्रतिष्ठा करने पर अग्नि प्रकोप होगा। और भविष्यवाणी के अनुसार भयंकर आग प्रकट हुई। बाद में भगवान् की मूर्ति उठाने को रोकने पर भी भगवान् की मूर्ति उठायी और द्वितीय मुहूर्त में प्रतिष्ठा की तब आपने कहा कि यह मुहूर्त भी सही नहीं है। इस मुहूर्त में प्रतिष्ठा करने पर मूलनायक श्री महावीर स्वामी को विराजमान करने वाला व्यक्ति छ: महीने में मृत्यु को प्राप्त होगा। हठाग्रहियोंने यह बात नहीं मानी और गलत मुहूर्त में प्रतिष्ठा का जो फल आपने बताया था वही हुआ।159 वि.सं. 1955 में आहोर में श्री गोडीजी पार्श्वनाथ मंदिर के ५२ जिनालय की प्रतिष्ठा के समय प्रतिपक्षी वर्ग के यहाँ भी उत्सव का आयोजन होने जा रहा था। तब आपने प्रतिष्ठाकारक से कहा -"यह मुहूर्त उनके अनुकूल नहीं है, इसमें ग्रहगति और संगति विपरीत बैठती है।" तब आपकी बात सत्य साबित हुई, जो विपक्षियों ने नहीं मानी लेकिन उसके दुष्परिणाम स्वरुप प्रतिष्ठाकारक श्रीपूज्य जिनमुक्तिसूरि आहोर आते-आते रास्ते में ही रोग से पीडित होकर दिवगंत हो गए एवं गाँव के ठाकुर, उनका पट्ट हस्ती और महावत का भी देहान्त हो गया160 वि.सं. 1958 में सियाणा में प्राचीन श्री सुविधिनाथ जिनालय की 24 देवकुलिकाओं में स्थापना करने हेतु 24 जिनेश्वरों की अंजनशलाका-प्रतिष्ठा के समय मंडप में जन्म कल्याणक महोत्सव हेतु 60-70 हाथ उँचा मिट्टी का मेरुपर्वत बनाया जा रहा था। वह नीचे से गीला था और उपर मजदूर आदि के भार से गिरने से 5-- 7 मजदूर उसमें दब गये। किसी ने उसी समय आचार्यश्री को सूचना दी, तब स्वरोदय ज्ञान बल से आपने कहा -"जाओ, एक भी नहीं मरा, अब तुम उन्हें जल्दी से निकालो।" और वास्तव में काम करनेवाले सभी लोग मणों मिट्टी के ढेर में दबने के बावजूद स्वस्थ निकले।61 155. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 31 156, वही पृ. 31, 32 157. वही ढाल 11 158. श्रीमद्विजय धनचंद्रसूरि जीवन चरित्र 159. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ - पृ.61 160. श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी श्लोक 459 से 469 161. श्री राजेन्द्र गुणमञ्जरी पृ. 80,81 162. सातमा भुवन तणो धणी, धन भवने पड्यो होय । परण्या पूंठे धन मिले, इम कहे पण्डित लोय ।। पंचमेश धन भवन में, सुत पूठे धनवन्त । धन तन स्वामी एक हों, तो स्वधन भोगन्त ॥ लग्न धनेश चौथे पड्या, कहे मातानी लच्छ। क्रूर ग्रह लग्ने पड्यो, प्रथम कन्या दो वच्छ॥ भौम त्रिकोणे जो हुए, तो लहे पुत्र ज एक। मंगल पूजा दृष्टि सूं, होवे पुत्र अनेका॥ भौम वक्र क्रूर सातमे, पडे मूंडी स्त्री हाथ । भौम अग्यारमें जो पडे, परणे नहीं धननाथ ।। शनि चन्द्र अग्यारमें, पडे स्त्री परणे दोय । चन्द्र भौम छटे पडे, षट् कन्या तस जोय ॥ अग्यारमें क्रूर ग्रह तथा, पंचम शुक्र जो थाय। पेली पुत्री सुत पछे, माता कष्ट सुणाय । क्रूर ग्रह हुए सातमें, कर्कसा पाये नार। बुध एकलो पांचमें, तो जोगी सिरदार ॥ शनिशर दशमे पडे, वाघचित्ताथी लेह। मरे दसमे वली शुक्र जो, अहि डसवाथी तेह ॥ राहु दशम जो हुए, मरे अग्नि में जाण । राजेन्द्रसूरि इम भणे, जातकने अहिनाण ।। - श्री राजेन्द्र ज्योति-पृ. 14 163. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 62 164. वही Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [28]... प्रथम परिच्छेद वि.सं. 1955 में आहोर (राजस्थान) में श्री गोडीजी पार्श्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा एवं 951 जिनबिम्बों की अंजनशलाका हेतु मुहूर्त के प्रसंग में आपने वि.सं. 1956 में होने वाले भयंकर अकाल (छप्पनिया अकाल) की भविष्यवाणी साल भर पहले ही कर दी थी165 और वि.सं. 1956 की शुरुआत में आप शिवगंज में थे तब आपने ध्यान में श्याम सर्प को विषवमन करते देखा जिससे आपने भविष्यवाणी की कि इस साल भयंकर अकाल होगा जो सत्य साबित हुई । 166 इतना ही नहीं अपितु स्वर्गवास के तीन वर्ष पूर्व ही आचार्यश्री को वि.सं. 1960 के शीतकाल में रात्रि में ध्यानावस्था में किसी समय स्वयं की आयु के बारे में भी पता लग गया था। सूरत चातुर्मास में किसी श्रावक के प्रश्न के प्रत्युत्तर में आपने शिष्यों और श्रावकों के बीच बताया भी था कि "मैं अभी तीन वर्ष और भूमण्डल पर विचरूँगा (विहार करूँगा) 1167 इसी प्रकार मांडवगढ का रास्ता छोडकर राजगढ की ओर जाते समय मार्ग में आचार्यश्री की शारीरिक अस्वस्थता के समय किसी शिष्य ने आपके वस्त्र पात्रादि उठाने हेतु आपसे याचना की तब भी आपने उसे नहीं देते हुए सारगर्भित शब्दों मे कह दिया था कि 'अब लम्बा विहार कहाँ करना है, राजगढ ही तो पहुंचना 168 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के गिरिराज पर रहे मुख्य आदिनाथ प्रभु के जिनालय में परमात्मा की प्रतिमा के पीछे जलती हुई पछवाई (जरी भरतवाला रेशमी कपडा) की आग बुझा दी। 170 आचार्य श्री जब जालोर के किले (स्वर्णगिरि तीर्थ) पर ध्यान में स्थित थे तब वहाँ हिंसक शेर आपके पास आकर शांति से बैठ गया लेकिन किसी प्रकार का उपद्रव नहीं किया। 171 एक बार जब आप मोदरा गाँव के निकट चामुंड वन में थे तब वहाँ के ठाकुरने (किसी जगह भील ने) आपको कोई पशु समझकर निशाना लगाकर बाण फेंका। बाण आपसे थोडी सी दूरी पर चरणों में गिरा लेकिन आपको तनिक भी हानि नहीं हुई और ठाकुर ने आकर आपको देखकर क्षमा मांगी। 172 राजेन्द्रगुणमंजरी में ऐसा भी उल्लेख है कि ठाकुर तलवार लेकर मारने दौडा था । 173 आहोर (राजस्थान) के पास सामुजा गाँव निवासी राज पुरोहित वरदीचन्द का पुत्र मोहन, पांच वर्ष की अवस्था से गूंगा हो गया था और संधिवात से ग्रस्त था जो कि आहोर में आपके पास दर्शनार्थ आया तब आपके द्वारा 'वासक्षेप' करने मात्र से ठीक हो गया और आपके हस्तदीक्षित होकर उपाध्याय श्री मोहनविजयजी के नाम से प्रख्यात हुआ | 174 आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिः महान तन्त्रविद्ः अनुभवसिद्ध योगी होने के साथ-साथ आचार्य श्री तन्त्रप्रयोग भी विशद विद्वान थे। आपके मुखारविन्द से मांगलिक श्रवण करने मात्र से राजगढ निवासी श्री चुनीलाल जी खजानची राजगढ स्टेट के खजानची बन गये और उन्होंने राजगढ में अष्टापदावतार जिनालय बनवाकर आपके हाथों प्रतिष्ठा करवाई। 175 उनके पुत्र धार स्टेट के 'रायबहादुर' बने । 176 दरिद्र स्थिति वाले खाचरोद निवासी चुनीलाल जी मुणत को आपके आशीर्वाद से मात्र 15 दिनों में न्यायनीतिपूर्वक व्यापार में इतना धन प्राप्त हुआ कि इन्होंने बडावदा में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय बनवाया एवं मक्षीजी (म.प्र.) तीर्थ का संघ निकाला। 177 आहोर निवासी चमनाजी ने आपके वासक्षेप एवं मांगलिक श्रवण मात्र से मृत्युशय्या पर अपने प्राण बचाये और स्वस्थ दीर्घायु प्राप्त की । 178 इसी प्रकार सूरत के नगरसेठ के पुत्र प्राण बच गये एवं उसकी नष्ट हुई नेत्रज्योति उसे पुन: प्राप्त हुई 1179 वि.सं. 1963 में जब आप बडनगर में चातुर्मासार्थ विराजमान थे तब मारवाड राजस्थान से कुछ श्रावक वहाँ की प्रतिष्ठा आपके द्वारा करवाने हेतु प्रतिष्ठा का मुहूर्त लेने आये तब आपने कह दिया था कि मेरे हाथ से उधर कोई प्रतिष्ठा अब नहीं होना हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : सिद्ध योगी : जैनदर्शन में योग का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि जैनदर्शन प्रायः संपूर्णरुपेण योगसाधनामय है। जैनदर्शन में योग को मोक्ष का अंग माना गया है- ‘मुक्खेण जोयणाओ जोगो' (श्रीहारिभद्रीय योगविंशतिका गा. 1) आचार्य विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज भी बीसवीं सदी के महान योगी पुरुष थे। योगी अपने व्यक्तित्व को अधिकाधिक विकसित करने के लिये साधना करते हैं। भीतर की प्रसुप्त शक्तियों को जगाने के लिये उनका प्रयोग / प्रयास चलता है। आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी की ध्यान योग साधना भी बडी बलवती थी। वे अपनी ध्यान साधना के लिये एकान्त पर्वत, गिरि गुफाओं, कन्दराओं और पर्वतों पर जाते थे। उन्होंने मांगीतुंगी पहाड एवं जालोर के किले (स्वर्णगिरि तीर्थ) के उपर तथा चामुंड वन में बहुत साधना की। क्रियोद्धार के पहले राणकपुर के आसपास के जंगल और पहाडी पर भी उन्होंने ध्यान-चिंतन-मनन आदि किया। अपने दैनिक जीवन में भी वे नित्य रात्रि के तीसरे प्रहर में ध्यान में लीन होकर साधना करते थे। योग साधना एवं लम्बे समय तक एकाग्र ध्यान के कारण उन्हें बहुत सारी उपलब्धियाँ प्राप्त हुई थी जिन्हें हम योगसिद्धि कहते 169 योग साधना के बल पर उन्होंने कई एसे आश्चर्यजनक कार्य किये जिससे उनकी गणना सिद्ध पुरुषों में हुई। योग के बल पर अन्यत्र (थराद या आहोर) रहे हुए आपने सिद्धाचल तीर्थ (सौराष्ट्र) 165. 166. 167. 168. 169. 170. 171. 172. 173. 174. 175. 176. 177. 178. 179. धरती के फूल श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 64 जीवनप्रभा पृ. 31 विश्वपूज्य पृ. 99 श्रीमद् राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 60 श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी के प्रवचन से वि.सं. 2042 गुरु सप्तमी भाण्डवपुर तीर्थ श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 65, 66 श्री राजेन्द्र सूरिश्वरजी, जीवन-दर्शन चित्रपट्ट - मोहनखेड़ा तीर्थ श्री राजेन्द्रगुणमंजरी, पृ. 56 धरती के फूल 321, श्रीमद् राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 127 से 131 श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 96 विरल विभूति, पृ. 73 धरती के फूल पृ. 228 धरती के फूल पृ. 229 श्रीमती कंकुबेन वोहेरा अध्यापिका, श्री धनचन्द्रसूरि जैन पाठशाला, थराद के प्रवचनों से Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [29] इस प्रकार योगसिद्ध आचार्यश्री के आशीर्वाद, कृपादृष्टि, वासक्षेप एवं मांगलिक के प्रभाव से कइयों के जीवन का उद्धार हुआ और उन आत्माओंने आचार्यश्री की प्रेरणा से आत्मकल्याण किया। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी अनेक प्रकार की तांत्रिक, मांत्रिक एवं अन्य चमत्कारिक विद्याओं के ज्ञाता थे। ये विद्याएँ उन्होंने यति श्री सागरचन्द्रजी से अपने यतिजीवन के अध्ययन काल में सीखी थी एवं पञ्चागी सहित जैनागमों के अध्ययन की समाप्ति पर श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरिजीने स्वयं के पास स्थित अपने आम्नाय की सिद्ध अलभ्य विद्याएँ आचार्यश्री की योग्यता देखकर गुरुकृपा या आशीर्वाद के रुप में प्रदान की थी। प्रसंगवश, मिथ्या अभिमान के खंडन या स्व-धर्म प्रभावना या संघरक्षा के प्रसंगो से हमें इनकी तनिक झलक मिलती हैं। वि.सं. 1919 में एक बार मुनि रत्नविजयजी आहोर में थे तब किसी इंद्रजालिक ने इंद्रजाल से आम्रवृक्ष प्रगट किया तब लोक प्रशंसा से वह मिथ्या अभिमान करने लगा। तब गुर्वादेश से यति रत्नविजयजीने (आचार्यश्री का आचार्यत्व के पूर्व का नाम) आकाश में बहुत बडे शरीरवाला एक पुरुष प्रकट किया जिसके अनेकों हाथ थे और प्रत्येक हाथ में विभिन्न शस्त्र थे। इसे देखकर लोग भयभीत होकर भागने लगे तब आपे इसे समेट लिया और अन्य अनेक दृश्य दिखाये ।180 वि.सं. 1922 में बीकानेर (राज.) में एक दिगम्बर श्रावक को मंत्र साधना में कुछ गडबड होने पर सर्पने काय तब मुनि रत्नविजयजी ने उसे स्वस्थ कर दिया था।181 वि.सं. 1933 में जालोर (राज.) में यति तखतमल आदि स्थानकवासियों के अभ्याक्षेप पर आपने खेरादीवास में मुनिसुव्रत स्वामी भगवान् की प्रतिमाजी के मुखारविंद से स्थानकवासियों के प्रश्नों के उत्तर दिलवाये थे।182 जावरा, खाचरौद, भीनमाल आदि जगह कुछ विद्वेषी यतियों ने निन्द्य तांत्रिक प्रयोग किये, लेकिन आपके प्रभाव से किसी प्रकार का नुकसान नहीं हुआ। इतना ही नहीं, शिवगंज प्रतिष्ठा में जब किसी यतिने आग का तंत्र-प्रयोग किया तब गुरुदेव ने नवकार मंत्र बोलकर उस दिशा में मात्र एक मुठ्ठी वासक्षेप उडाया जिससे अग्नि शांत हो गयी।183 उसी प्रकार वि.सं. 1953 में जावरा में व्याख्यान के सभा मंडप में किसी यति भक्त ने आग लगा दी तब जनता का आक्रोश देखकर मामला संभालते हुए गुरुदेवश्रीने किसी मुनि से पात्र में पानी मंगवाकर व्याख्यान-पाट पर बैठे-बैठे ही पात्र के पानी में दोनों हाथ मसलकर धोए। तब हाथों में काला-काला पदार्थ पानी के साथ था। हाथ शुद्ध होते ही आग बुझ गयी और आपश्रीने लब्धि के प्रकट प्रयोग करने के प्रायश्चित स्वरुप अट्ठम तप (तीन उपवास) का प्रत्याख्यान किया।184 वि.सं. 1959 में आचार्यश्री अपनी शिष्य मंडली के साथ राणकपुर की नाल पर एक नाले के पास वटवृक्ष के नीचे अवस्थान किया और सब से कहा कि कोई भी वटवृक्ष की छाया से बाहर न जाये। रात्रि में नाले में शेर पानी पीने आया तब मुनि लक्ष्मीविजयजीने शेर जैसी आवाज को, जिससे छाया से बाहर शेर सामने आकर खडा हो गया जिससे सब साधु और श्रावक घबराने लगे। तब आचार्यश्रीने त्राटक किया, जिससे शेर कुछ क्षण स्थिर बैठ गया और फिर गर्जना करता हुआ छलांग लगाकर पर्वतों के पीछे चला गया।185 बाग (म.प्र.) में 12 जैन परिवार थे परंतु अनेकों प्रयत्न करने पर भी आर्थिक, धार्मिक या पारिवारिक किसी भी तरह से उनकी उन्नति हो नहीं रही थी तब वि.सं. 1962 में कुक्षी चातुर्मास हेतु बाग पधारें आचार्यश्री के सन्मुख वहाँ के तत्कालीन निवासियों के द्वारा इसका कारण पूछने पर आपने बताया कि, बाग के तत्कालीन जिनालय के मूलनायक श्री पार्श्वनाथजी गाँव की राशि के अनुसार संगत नहीं है एवं उनकी दृष्टि गाँव की ओर नहीं होने से नगर एवं श्री संघ की उन्नति नहीं हो रही हैं। तब रामपुरा आये बाग श्री संघ की भावभरी विनंती को स्वीकार कर आपने प्राचीन जिनबिंब एवं जिनालय को उत्थापित कर नये सौधशिखरी जिनालय में नये मूलनायकजी की अञ्जन शलाकाप्राणप्रतिष्ठा की (वि.सं. 1962 मागशीर्ष सु.-2)। उस महोत्सव में वहाँ बाघनी नदी के किनारे श्मसान में जाकर समस्त उपद्रवकारी आसूरी तत्त्वों को तप-ध्यान एवं योगबल से अपने वश में करके बाग श्री संघ एवं बाग नगर को सर्वात्मना समृद्ध कर दिया।86 इस प्रकार आचार्यश्री अनेकों तांत्रिक-मांत्रिक विद्याओं के ज्ञाता होने के बावजूत इन्होंने कभी भी अपनी विद्याशक्ति का दुरुपयोग नहीं किया। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : अप्रतिम दार्शनिकः प्रायः सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैनदर्शन भी जीवन के आँगन में व्यवहृत सफल आचार दर्शन होने के नाते अन्य भारतीय दार्शनिकों की तरह जैनदर्शन के प्रकाण्डविद्वान् सुप्रसिद्ध आत्मान्वेषी अध्यात्मपुरुष आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज एक श्रेष्ठ दार्शनिक थे। ___ आपके द्वारा रचित दार्शनिक ज्ञान का अक्षय खजाना श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के माध्यम से कर्मवाद, नवतत्त्ववाद, नयप्रमाणवाद, अनेकांतवाद, स्याद्वाद, अध्यात्म, सम्यक्त्व, रत्नत्रय, पञ्च परिवर्तन (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भव), नास्तिकवाद आदि का वर्णन द्रष्टव्य ___ आप की कृति 'षड्द्रव्यविचार' में तेरह लेखों के माध्यम से आपने जैन दर्शन की नींव स्वरुप जीवास्तिकाय, अजीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं काल - इन षड्दव्यों का इतने संक्षिप्त शब्दों में और इतनी सरलता से जो सहजसंपूर्ण ज्ञान करवाया हैं वह अन्यत्र दुर्लभ ही है। साथ ही आपके द्वारा रचित 'स्तवन चौबीसी' में जैन धर्म के वर्तमान-चौबीस तीर्थंकरों 180. राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 26 181. वही ढाल-11 182. व्याख्यान - आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वर जी म. गुरुसप्तमी वि.सं. 2044 183. धरती के फूल पृ. 291, 292 184. धरती के फूल पृ. 294 185. वही पृ. 298 186. इस मंदिर का शताब्दी महोत्सव हमने आचार्यश्री के प्रशिष्यरत्न वर्तमानाचार्यदेव श्री वि. जयन्तसेन सूरीश्वरजी की निश्रा में वि.सं. 2062 के बाग (म.प्र.) के चातुर्मास में बाग श्री संघ के साथ मनाया (उसमें हम भी उपस्थित थी)। आज भी बाग का प्रायः प्रत्येक जैन परिवार संघपति (संघवी) हैं एवं सारा नगर सर्वात्मना आबाद है, वह आपही की कृपा का फल है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [30]... प्रथम परिच्छेद की स्तवना / भक्ति के माध्यम जैन दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्णन एवं इतर दर्शनों का खण्डन द्रष्टव्य हैं। इतना ही नहीं अपितु 'तत्त्वविवेक' नामक लघुग्रंथ में भी आपश्रीके द्वारा जैनदर्शनानुसार सुदेव-सुगुरुसुधर्म का स्वरुप भी विशद विवेचनपूर्वक लोकभोग्य सरल भाषा में समजाया गया हैं। अद्वितीय चिन्तकः अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कथाकार: अध्यात्म प्रधान जैन संस्कृति के प्रतिभा संपन्न मूर्धन्यमनीषियों और महर्षियों के चिन्तन और मनन की अन्तः सलिलाओं ने भारतीय मानस को सदैव उर्वर और प्रकाशपूर्ण बनाकर चिरन्तन एवं सनातन सत्यों का उद्घाटन किया है। इसी कडी में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के आध्यात्मिक जागरण ने जैनागम प्राचीन 'त्रिस्तुतिक सिद्धांत का पुनरुद्धार', 'श्वेत वस्त्र धारण', 'क्रियोद्धारपूर्वक शुद्ध साधुजीवन का अंगीकार', 'चिरोलापंथी श्रावकों का पुनर्जातिमिलन आदि अनेक ऐतिहासिक कार्य कर सामाजिक क्रांति के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया हैं। आपके द्वारा रचित 'नीति शिक्षा द्वयपच्चीसी', 108 बोलनां थोकडां, सिद्धांतसार सागर (बोल संग्रह) आदि आपके सार्थक चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इतना ही नहीं स्वगच्छीय साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका की आगमोक्त विधि से नित्य - नैमित्तिक आवश्यक क्रियाओं, द्रव्यानुष्ठान और भावानुष्ठान में आई विकृतियों का शोधन, कलमनामा, मर्यादापट्टक, अनेक शास्त्रार्थों एवं धर्मचर्चाओं में वादी के प्रश्नों का शास्त्रोक्त उत्तर ये सब आप ही के अध्ययन-अध्यापन, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन आदि का सुफल हैं। आचार विचार को प्रभावित करने वाले जीवन के स्वानुभवों पर आधारित, रहन-सहन और विवाद, कदाग्रह एवं जाति-पाँति के भेदभाव से पूर्णतया मुक्त आपके सच्चितन का ही सुफल है कि जैन - जैनेतर, देशी-विदेशी, गृहस्थी - वनस्थी, राजा-रंक, स्त्री-पुरुष, आबाल-वृद्ध, साक्षर निरक्षर सभी जो भी आपके सम्पर्क में आया, जिसने भी आपका साहित्य पढा, आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यही कारण है कि विद्वज्जगत् ने आपको 'विश्वपूज्य' सम्बोधन दिया। आकर्षक प्रवचनकारः आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी केवल लेखन कला में ही प्रवीण नहीं थे, आपके प्रवचन भी अत्यन्त प्रभावी होते थे । आपकी वाणी विद्याजन्य परिस्कार, साधनाजन्य ओज, स्नेहिल मार्दव एवं भाषाकीय मधुरता से ओतप्रोत थी । देशी एवं विदेशी अनेक भाषाओं के मर्मज्ञ विद्वान होने के बावजूद आप शास्त्रों में निहित गूढ तत्त्वों को अत्यन्त सरल शब्दों में व्यक्त कर जन मानस तक पहुँचाते थे। आपकी पीयूषवाणी में "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की भावना साकार होती थी । निरपेक्ष भावों की पावन गंगा के प्रवाह में 'सर्वजनहिताय' सर्वजनसुखाय' की लहरें प्रस्फुट होती थी तथा समन्वयता का महासागर उछलता था जो अपनी मर्यादा की महानता में, जैनाचार और साध्वाचार की सीमाओं में बँधा होने पर भी सभी मतावलम्बियों को अपने में समा लेने की क्षमता रखता था। यही कारण है कि आपके प्रवचनों में मात्र जैन ही नहीं, अपितु अन्यमतावलम्बी क्षत्रिय, चौधरी, घांची, सोनी, कुम्हार, मुसलमान एवं अन्य देशी और विदेशी लोग उपस्थित होकर प्रवचनामृत का पान किया करते थे। अति विशाल एवं नानाविध जैन कथा साहित्य की प्रथा अति प्राचीन हैं। साहित्य की इस विधा पर भी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का पूरा अधिकार था। आप श्री प्रवचनो में छोटीछोटी कथाओं एवं बडे-बडे चरित्रों को अत्यधिक सरल, सुबोध भाषा में समझाते थे; वहीं अनेक कथासंग्रह एवं कथाएँ लिखकर आपने भारतीय साहित्य को भी समृद्ध किया हैं। आपके द्वारा लिखित 'जिनोपदेशमञ्जरी' छोटी-छोटी उपदेशक कथाओं का संग्रह है। कथापञ्चस्थानसार पाँच विभिन्न कथाओं का संग्रह हैं। इसके अलावा आपने पद्य में अघटकुँवर चौपाई, ध्रस्टर चौपाई और मुनिपति चौपाई में उपदेशक कथाओं का रोचक शैली में गेय राग-रागिनी में वर्णित किया है। इसके साथ ही अक्षयतृतीया कथा, होलिका व्याख्यान, दीपमालिका कथा (दीपावली कल्पसार), उत्तमकुमार उपन्यास एवं खर्परतस्कर प्रबंधः आदि कथानक संस्कृत एवं देश्य भाषाओं में लिखे हैं। इतना ही नहीं, अपितु आपके द्वारा रचित श्री अभिधान राजेन्द्र कोश यदि पञ्चशताधिक प्राचीन एवं उपयन कथाओं का अमूल्य खजाना है तो कल्पसूत्रबालावबोध, कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी और श्री अष्टाह्निका व्याख्यान में भी प्रसंगतः अनेक ऐतिहासिक एवं उपदेशक तथा दृष्टांत कथाओं का आपने समावेश किया हैं । कथाओं में शब्दो के माध्यम से हुबहु दृश्य खड़ा कर पाठकों या श्रोताओं को आध्योपांत आकंठ डुबोये रखना एवं उनके अंतः स्थल में उपदेशामृत अनुभव करवाना आपकी कथाओं की मुख्य विशेषता है। भाष्यकार: 'भाष्य' का अर्थ होता है- व्याख्या करना और भाष्यकार का अर्थ होता है व्याख्या करनेवाला । शास्त्रों के मूलग्रंथों के रहस्य एवं गूढ बातों को विविध व्याख्याओं के द्वारा स्पष्ट करने वाला ग्रंथ उस का भाष्य कहलाता है। प्राचीनतम जैन व्याख्यात्मक साहित्य में आगमिक व्याख्याओं का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने भी पूर्वाचार्यों के पथ पर चलते हुए लोकहित के लिए जैनागमों की अनेक रहस्यमयी बातें सरल भाषा में समझाने के लिए प्रयत्न किया। जिस युग में हिन्दी अपनी शैशवावस्था में भी उसी समय में आपने श्री कल्पसूत्र मूल (बारसा सूत्र) के आधार पर श्री कल्पसूत्र बालावबोध (मारवाडी-गुजराती-मालवी मिश्रित भाषा देवनागरी लिपि) एवं श्री उपासक दशांग सूत्र के बालावबोध की रचना की । इसके साथ ही जैनागम सूत्रों के शब्दों के रहस्यों को समझाने के लिए ही अभिधान राजेन्द्र कोश जैसे महान अद्वितीय विश्वकोश की रचना की। साथ ही प्राकृत भाषा के ज्ञान हेतु श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन के आठवें अध्याय- प्राकृत व्याकरण की सदृष्टांत वृत्ति सह श्लोकों में निबद्धकर 'प्राकृत-व्याकृति' की रचना की। इतना ही नहीं, अपितु आम जनता को भी शास्त्र की गहन रहस्यमयी आध्यात्मिक बातें समझायी हैं। जैसे 'चोपड खेलन सजझाय' में जीव को मिथ्यात्व से मोक्ष प्राप्ति तक आत्मिक स्थिति की शुद्धि की प्रेरणा की है तो 'पुंडरिकाध्ययन सज्झाय' में सूत्रकृताङ्ग सूत्र के पुंडरिकाध्ययन में वर्णित मधुबिंदु के दृष्टांत को चार पुरुष और पुंडरीक (कमल) के माध्यम से समझाकर जीव को राग द्वेष, कषाय, कर्म आदि से सावधान रहने का उपदेश दिया हैं। इतना ही नहीं, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अपितु साधु-साध्वियों के लिए उपयोगी जानकर आपने गच्छाचार पन्ना वृत्ति का भी लोकभाषा में भाषान्तर किया जो कि अब प्रकाशित भी हो चुका हैं। इस तरह आप एक सफल भाष्यकार के रुप में पूर्वाचार्यो से कम नहीं थे । सफल निबन्धकार : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी एक सफल निबन्धलेखक थे, जिन्होंने काव्य, गीत, कथा, कोश, व्याख्यान, प्रवचन, संशोधन, सम्पादन आदि साहित्य की प्रत्येक विधा पर सफलता पूर्वक लेखनी चलायी। इसके साथ ही आप गद्यसाहित्य की निबन्धविधा में भी सिद्धहस्त थे । आपके लेख समय समय पर तत्कालीन साहित्य में प्रकाशित हुए हैं। यद्यपि हमें अभिधान राजेन्द्र कोश के अन्तर्गत विभिन्न विषयों पर व्याख्यापरक निबन्धों के अतिरिक्त आपके लेखों में से बहुत कम देखने को मिले तथापि जो प्राप्त हुए उनसे यह अनुभव होता है। कि आपके लेख जैनागमों एवं अन्यान्य शास्त्रों के सारगर्भित प्रमाणों से युक्त थे। जैन पंचांग के निर्माण में आपके द्वारा लिखित लेख तिथि की क्षय वृद्धि सम्बन्धी अनेक समस्याओं का स्वाभाविक समाधान प्रस्तुत करता हैं। इसी प्रकार त्रिस्तुतिक सिद्धान्त पर लिखित शास्त्रार्थों में आपके द्वारा लिखित लेख सर्वमान्य, जैनागमों से प्रमाणित एवं विद्वज्जनों में स्वीकार्य थे जो कि आज भी प्रसिद्ध हैं । इतिहासकार: धर्म-दर्शन और अध्यात्म से रचे-पचे व्यक्तित्व के स्वामी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. एक सफल इतिहासकार थे । आपके द्वारा रचित अभिधान राजेन्द्र कोश में आपने अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का सरल संस्कृत भाषा में वर्णन किया है, वहीं श्री कल्पसूत्र बालावबोध, श्री अष्टाह्निका व्याख्यान में वर्णित अनेक जैन- जैनेतर कथाओं का वर्णन भी किया है जिसके माध्यम से अनेक राजामहाराजा-जैनाचार्य-जैन तीर्थ- जैनेतर तीर्थ ( महाकाल - उज्जैन, प्रयागादि) - अनेक प्राचीन जिन प्रतिमा एवं ऐतिहासिक घटनाओं के प्रामाणिक इतिहास का ज्ञान मिलता है। बृहद् एतिहासिक लेखन के साथ ही पञ्चसप्ततिशतस्थान चतुष्पदी एवं विशंति विहरमान जिन चतुष्पदी में तो अपने गागर में सागर ही भर दिया हैं। इन लघुकाय ग्रंथों में वर्तमान, अतीत, अनागत एवं विहरमान जिनेश्वरों संबंधित एतिहासिक विवरणों का अनुपम संग्रह किया है। इतना ही नहीं अपितु आपने खर्परतस्कर प्रबंध, अक्षयतृतीया कथा, होलिका प्रबंध आदि अनेक एतिहासिक कथा लेखन भी किया हैं । नीतिकार : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का नीतिशास्त्र पोथियों का नीतिशास्त्र नहीं था बल्कि जीवन का जीवन्त धर्मशास्त्र था । यद्यपि आपने नीति विषयक कोई बृहद् ग्रंथ नहीं लिखा तथापि नीति विषयक आपकी जो भी रचनाएँ प्राप्त होती है उसमें आपका दूरदर्शी दिव्य ज्ञानालोक से निष्पन्न युग सापेक्ष अमूल्य चिंतन प्राप्त होता है, जो भव्य और दिव्य आध्यात्मिक अनुभवों का सृजन, आत्म विकास का मंडन, झूठे आडम्बरों और पाखण्डों का खण्डन तथा जीवननिर्माण एवं लोककल्याण का अद्भूत संगम हैं। आपके द्वारा रचित "नीति शिक्षा द्वय पच्चीसी' नामक दो पच्चीसियों में सामान्य गृहस्थ से लगाकर उच्च पदासीन आत्माओं को प्रथम परिच्छेद ... [31] भी पालन करने योग्य महत्त्वपूर्ण शताधिक बातों का संग्रह किया गया है । क्रियोद्धार के पूर्व आपके द्वारा घोषित 'कलमनामा' ही यति संस्था कायाकल्प करने वाला संजीवनी चूर्ण साबित हुआ। साथ ही आपके द्वारा स्वगच्छीय साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका हेतु 'स्वगच्छीय 'मर्यादा - पट्टक', ज्येष्ठ स्थित्यादेशपट्टक, पच्चीस कलम, 35 कलम आदि की रचना नीति - मर्यादा के पालन के प्रति आपकी जागृति एवं आचार-पालन की आसक्ति का अनुभव करवाती हैं । आशु कवि: आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी वि.सं. 1906 से 1910 तक पाँच वर्ष खरतरगच्छीय यति / मुनि श्री सागरचन्द्रजी के पास के अध्ययन काल में ही काव्य- छंद - अलंकार आदि में निपुण हो चुके थे। संगीत शास्त्र एवं अन्य शास्त्रों के प्रखर विद्वान् आचार्य श्री स्वभाव से ही रस-सिद्ध कवि थे। आपके द्वारा निर्मित दो चैत्यवंदन चौबीसी, स्तुति चौबीसी, स्तवन चौबीसी, श्री नवपद एवं श्री महावीर पञ्चकल्याणक पूजा, अघटकुंवर चौपाई एवं अनेकों अन्य स्तवन- स्तुति - सज्झाय, देववंदना माला आदि इसके साक्षी हैं। इनकी रचनाओं में हरिगीत, गीतिका, मंदाक्रान्ता, वसंततिलका, स्रग्धरा, भुजंगप्रयात, शार्दूलविक्रीडित, आर्या, दोहा, चोपाई आदि छंद एवं काफी, भैरवी, हिंडा, माढ, धन्याश्री आदि शास्त्रीय रागरागिनी तथा अनेकों देशी राग-रागिनियों का प्रयोग देखने मिलता हैं। इन रचनाओं में यति, गति, ताल, स्वर, प्रास, अनुप्रास, यमक आदि यथास्थान अद्भुत ढंग से रखे हुए दिखाई देते हैं। साथ ही इनमें उपमा, रूपक, व्याज - स्तुति आदि अनेक अलंकारों का प्रयोग प्राप्त होता है। इनकी रचनाओं में प्राकृत, संस्कृत, मेवाडी, मारवाडी, गुजराती आदि सभी भाषाएँ प्रयुक्त हैं। इन रचनाओं से इन्होंने अपना अमूल्य समय प्रभु-भक्ति में लगाकर स्वयं की तो कर्म-निर्जरा की ही है, साथ ही अर्थ गंभी और आध्यात्मिक भावपूर्ण इन रचनाओं से श्रोताओं को आवश्यक क्रियाओं एवं जैनागम सिद्धांतों की अनेक रहस्यमयी सूक्ष्म बातों का ज्ञान मिलता हैं। इस तरह भक्ति योग के द्वारा आचार्यश्रीने प्रभुभक्ति और जिनवाणी का प्रचार-प्रसार एवं उपदेश का त्रिवेणी संगम अपनी रचनाओं में किया है जो उनके द्वारा प्राप्त ज्ञानामृत का आस्वाद कराती हुई श्रोताओं को परमात्म भक्ति में आकंठ डुबोये रखती हैं । आचार्यश्री के जीवन में घटित वि.सं. 1920 की एक घटना इनके आशु कवित्व को सिद्ध करने को पर्याप्त है जो निम्नानुसार हैं। वि.सं. 1920 में आप राजगढ में बिराजमान थे तब कोई कवि आया। उसने चित्रबंधक का एक कवित्त बनाया। और अहंकार से स्व-प्रशंसा करने लगा तब अन्य लोग भी प्रशंसा के पुल बांधने लगे। उसी समय आपने कवित्त देखकर कहा कि इसमें "वर्णनलघुता दोष' है। तब वहाँ उपस्थित श्रीपूज्यजीने कहा - "अन्य की गलती ढूंढना आसान है, आप कुछ करके दिखाओ तो ठीक।" उसी समय आपने एक कवित्त बनाया, जिसमें आठों दिशा में आठ छंद, दो काव्य, चारों दिशा में चार विचार, और 34 कोष्ठक थे। जिसे देखकर आगंतुक कवि, श्रीपूज्यादि यतिमण्डल, राजगढ का श्रीसंघ एवं अन्य उपस्थित सभाजन आश्चर्यचकित हो गये थे । 187 187. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि का रास, उत्तरार्ध खंड-4, ढाल - 3, पृ. 26, ले. रायचंदजी निवासी: कुक्षी (म. प्र. ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [32]... प्रथम परिच्छेद | आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : साहित्य सर्जक शब्दर्षि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का व्यक्तित्व जितना प्रभावशाली है उनका साहित्यिक जीवन भी उतना ही गौरवपूर्ण "जिस राष्ट्र, समाज और धर्म में उज्जवल साहित्य की सत्परंपरा बनी रहती है वही देश, समाज और धर्म जीवित रहता है।" - इस बात को समझकर आचार्यश्रीने अपने जीवन और श्रम का बहुत बडा अंश इसी ज्ञान ज्योति को जलाये रखने में लगाया । यद्यपि संपूर्ण राजेन्द्र सूरि वाङ्मय का अनुसंधान अभी पूर्ण नहीं हुआ है । अत: यह पूर्णरुपेण नहीं कहा जा सकता कि आचार्यश्री ने किस विषय पर कहाँ, क्या, और कितना लिखा और अभी प्राप्त वाड्मय का भी पूर्ण प्रकाशन नहीं हुआ है फिर भी, जो प्रकाशित है, जो प्राप्त है, उसके आधार पर यहाँ किंचित् प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जा रहा हैं। है। जैनी-दीक्षा के ग्रहण करने के पश्चात् वि.सं. 1905 से 'करणकामधेनुसारणी' ग्रंथ के लेखन से प्रारंभ हुई आपकी लेखनी आपके जीवन के अंतिम चातुर्मास (बडनगर म.प्र. वि.सं. 1963) में 'कमलप्रभा शुद्धरहस्य' के निर्माण तक अविश्रान्त, अबाधगति से चलती ही रही। 188 जिसके फलस्वरुप साहित्य की अनेक विधाएँ न्याय, कोश, व्याकरण, काव्य, कथा, इतिहास, तत्त्वज्ञान, आगम, गणित, ज्योतिष, धर्म-सिद्धांत आदि विषयक श्री अभिधान राजेन्द्र कोशादि अनेक ग्रंथ रचनाओं के द्वारा आपने पूर्णिमा के चंद्र की भाँति साहित्य जगत् को अपनी संपूर्ण कलाओं से प्रकाशित किया । आचार्य श्री के द्वारा प्रणीत साहित्य को यहाँ सारिणी के द्वारा दर्शाने का प्रयत्न किया जा रहा हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. द्वारा रचित साहित्य की सूचि ग्रन्थ का नाम प्रकाशनस्थिति प्रकाशन/ लेखन स्थान सूरत झालोर कुक्षी श्री अभिधान राजेन्द्र कोश अघटकुँवर चौपाई श्री अष्टाह्निका व्याख्यान भाषांतर अक्षय तृतीया कथा (संस्कृत गद्य) उपाशकदशाङ्ग सूत्र बालावबोध एकसो आठ बोलनां थोकडां (गुजराती भाषा) कथासंग्रह पञ्चाख्यानसार कमलप्रभा शुद्ध रहस्य कर्तुरीप्सततमं कर्म (सूत्र व्याख्या) करण कामधेनु सारणी कल्पसूत्र बालावबोध कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी केसरिया स्तवन खर्परतस्कर प्रबन्ध (संस्कृत पद्य) गच्छाचारपयन्ना वृत्ति-भाषान्तर अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन गणधरवाद चैत्यवंदन चौबीसी चोपड खेलन सज्झाय चौमासी देववंदन विधि चौबीस जिन स्तुति चौबीस स्तवन ज्येष्ठस्थित्यादेशपट्टकम् जिनोपदेश मञ्जरी ज्योतिकल्पलता तत्त्वविवेक द्वाषष्ठिमार्गणा यंत्रावली द्वादश पर्वणि कथा संग्रह दीपावली कल्पसार (संस्कृत गद्य) 188. कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी, जीवनपरिचय पृ. 13 के सामने का यन्त्र मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित अमुद्रित मुद्रित अमुद्रित अमुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित अमुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित मुद्रित अमुद्रित मुद्रित अमुद्रित अमुद्रित अमुद्रित वर्ष संवत् वि.सं. 1946-1960 1932 1927 1954 1934 1963 1905 1940 1954 1954 1944 1938 1953 1938 1938 1954 1945 खाचरोद राजगढ - बडनगर झाबुआ (म.प्र.) रतलाम रतलाम/कुक्षी गुजरात (सौराष्ट्र) राजगढ खाचरोद राजगढ राजगढ रतलाम वीरमगाम Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुक्षी मुद्रित मुद्रित । मुद्रित । . . . . . । मुद्रित मुद्रित . . मुद्रित . मुद्रित मुद्रित मुद्रित 1956 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [33] दीपमालिका देववंदन 1961 दीपमालिका कथा (गद्य) देववंदनमाला धातुपाठ तरंग (पद्य) 1932 जालोर ध्रष्टर चौपाई अमुद्रित नवपद ओली देववंदनविधि (देववन्दन माला में) नवपद पूजा (श्री सिद्धचक्र पूजा) मुद्रित 1950 खाचरोद नवपद प्रश्नोत्तर नीतिशिक्षाद्वय पच्चीसी मुद्रित 1954 रतलाम पञ्चसप्तिशतस्थान चतुष्पदी मुद्रित 1946 सियाणा पदवीविचार सज्झाय मुद्रित पञ्चमी (ज्ञानपञ्चमी) देववंदन विधि मुद्रित पाइयसदंबुहि कोष अमुद्रित 1956 शिवगंज पुण्डरीकाध्ययन सज्झाय मुद्रित 1946 सियाणा प्रभुस्तवन सुधाकर मुद्रित प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका मुद्रित 1936 गोलपुरी प्रश्नोत्तरमालिका (प्रश्नोत्तर नवमल्लिका) अमुद्रित 1949 निम्बोहेडा प्राकृतव्याकृति (श्री सिद्धहेम, प्राकृत टीका) 1961 कुक्षी (प्राकृतव्याकरण विवृत्ति) प्राकृतशब्द रुपावली 1961 कुक्षी श्री महावीर पञ्चकल्याणक पूजा 1963 वडनगर स्वगच्छीयमर्यादा पट्टकम् शिवगंज मुनिपतिराजर्षि चौपाई अमुद्रित राजेन्द्रसूर्योदय मुद्रित 1960 सूरत विहरमाणजिन चतुष्पदी 1946 सियाणा स्तुतिप्रभाकर स्वरोदयज्ञान यंत्रावली अमुद्रित सकलैश्वर्यस्तोत्र मुद्रित 1936 गोलपुरी सद्यगाहापहरण (सूक्ति संग्रह) अमुद्रित सर्वसंग्रहप्रकरण (प्राकृत गाथा बद्ध) अमुद्रित (गाहापयरणं संगहो) साधुवैराग्याचार सज्झाय मुद्रित 1946 सियाणा श्रीसिद्धाचल तीर्थ नवाणुं यात्रा-देववंदन विधि सिद्धांतप्रकाश अमुद्रित 1929 रतलाम सिद्धांतसारसागर (सिद्धांत बोल सागर) अमुद्रित 1941 सौराष्ट्र षड्द्रव्य विचार 1927 षड्द्रव्य चर्चा अमुद्रित आवश्यक विधिगर्भित शांतिनाथ स्तवन मुद्रित 1942 धोराजी होलिकाप्रबंध (संस्कृत गद्य) मुद्रित होलिकाव्याख्यान मुद्रित उपरोक्त सूचि हमने जीवनप्रभा, श्रीराजेन्द्रज्योति, श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी, विरलविभूति, विश्वपूज्य, श्रीराजेन्द्रसूरि विशेषांक : शाश्वत धर्म, धरती के फूल आदि ग्रंथो में दी हुई सूचि के अनुसार ग्रंथो को प्राप्त कर, देखकर, उपरोक्त सूचियों से मिलान करके बनाई है। उपरोक्त ग्रंथो में जो सूचियाँ दी है उसमें एक ही ग्रंथ के अनेक नाम होने पर अलग गिना है जबकि हमने मुख्य नाम देकर उसी ग्रंथ का अन्य नाम कोष्टक () में दिया है। इसमें से जितने ग्रंथ प्राप्त हुए या उससे संबंधित विवरण प्राप्त हुआ, वह यथाशक्य देने का प्रयत्न किया है, फिर भी मुद्रित-अमुद्रित कुछ ग्रंथ प्राप्त नहीं होने से उसका परिचय नहीं दिया हैं, जो निम्नानुसार है . मुद्रित मुद्रित . . . . . मुद्रित . मुद्रित कुक्षी . For Private & Personal use only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [34]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. उत्तमकुमार उपन्यास 2. कथासंग्रह पञ्चाख्यानसार 3. कर्तुरीप्सिततमंकर्म (सूत्र व्याख्या) 4. करण कामधेनु सारणी 5. ज्योतिकल्पलता 6. दीपावली कल्पसार 7. धातुपाठ तरंग 8. ध्रष्टर चौपाई 9. मुनिपतिराजर्षि चौपाई 10. स्वरोदयज्ञान यंत्रावली 1. सर्वसंग्रहप्रकरण 12. सिद्धांतसारसागर 13. त्रैलोक्यदीपिका यंत्रावली 14. स्तुतिप्रभाकर उपरोक्त संदर्भ ग्रंथो की सूचि में धनसार - अघटकुमार चौपाई को भी आचार्यश्रीकृत बताया है जबकि अघटकुमार चौपाई और अघटकुँवर चौपाई एक ही ग्रंथ है, जिसका हम परिचय दे चुके हैं और धनसार चौपाई आचार्यश्री के उपसंपद् शिष्य मुनि श्री प्रमोदरुचिजी ने वि.सं. 1932 में झालोर में बनाई थी लेकिन एक ही पुस्तक में दोनों चौपाई छपने के कारण यह भ्रम हुआ है, जो दृष्टव्य है। आगे के अनुच्छेदों में आचार्य श्री की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा हैं 1. अक्षय तृतीय कथा: गुरु द्वारा पूर्वभव वर्णन, दसवीं ढाल में मुनिगुण वर्णन, ग्यारहवी श्री राजेन्द्र कोश विशेषांक : शाश्वत धर्म के अनुसार आचार्य ढाल में पूर्व-भव में जीव हिंसा त्याग एवं अभक्ष्य भक्षण के त्याग विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने इस कथा की रचना वि.सं. 1938 (ईस्वी का व्रत ग्रहण एवं व्रत परीक्षा, बारहवीं ढाल में व्रत पालन-परीक्षा सन् 1881) में आलीराजपुर चातुर्मास के पश्चात् राजगढ में की थी।189 में सफलता, देवी द्वारा उसकी भक्ति एवं पूर्वभव एवं वर्तमान भव यह कथा स्वतंत्र मुद्रित न होकर श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम के सभी पात्रों का परिचय, संयोग एवं फल और तेरहवीं ढाल में भाग में 'अक्खरइतया' शब्द के अन्तर्गत पृ. 133 पर मुद्रित हैं।190 देशविरतिव्रत ग्रहण, कालांतर में जैन-दीक्षा ग्रहण एवं केवलज्ञान प्राप्ति श्रमणपरम्परा के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ को दीक्षा धारण तथा आयुः क्षय होने पर मोक्ष का वर्णन किया हैं।192 करते ही पूर्वभवोपार्जित अंतरायकर्म का उदय होने से एक वर्ष (पर्यन्त प्रस्तुत चौपाई का आधार लेकर इसी कथा को आचार्य निराहार रहना पडा/इसके बाद अक्षय तृतीया के दिन 13 महीने 10 दिन के बाद श्री आदिनाथजीने गजपुर (हस्तिनापुर) नगर में अपने श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी (तत्कालीन यतीन्द्र विजयजी) ने वि.सं. सांसारिक पौत्र सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार के हाथों से इक्षुरस से 1984 गुरु सप्तमी पर्व शुक्रवार को संस्कृत गद्य भाषा में प्रबन्ध के पारणां किया था। इसका वर्णन इस लघुकथा में आलेखित हैं। रुप में लिखा है, जो कि 'चरित्र-चतुष्टय' में मुद्रित हैं।193 2. अघटॉवर चौपाई: 3. अभिधान राजेन्द्र कोश:इस खंड-काव्य की रचना आचार्यश्रीने वि.सं. 1932 में इसका विस्तृत परिचय इसी शोधप्रबन्ध के द्वितीय परिच्छेद जालोर (राज.) में की थी। इस काव्य में आचार्यश्रीने अघटकुमार में दिया जा रहा हैं। के माध्यम से मुनि-निंदा एवं जीव-हिंसा के भाव का विपाक (फल) 4. अष्टह्निका व्याख्यान:तथा सुपात्रदान (जैन मुनि को आहारादि का दान) जिन पूजा एवं इस ग्रंथ की संस्कृत प्रशस्ति के अनुसार खरतरगच्छीय श्री अहिंसा व्रत के पालन के प्रभाव का विशद वर्णन किया हैं। क्षमाकल्याण वाचक द्वारा प्रणीत संस्कृत गद्य अष्टाह्निका व्याख्यान इस काव्य में 13 ढालें है। प्रत्येक ढाल के प्रारंभ में दोहा के इस मारवाडी भाषान्तर की रचना श्री अष्टाह्निका व्याख्यान194 - छंद में 1, 2, 3 या 4 छन्द दिये हैं और प्रत्येक ढाल में विविध 'बाल बोधिनी' टीका के नाम से आचार्य विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजीने देशी-राग-रागिनियों में अघटकुँवर के जीवन का वर्णन किया हैं। वि.सं. 1927 में कुक्षी (म.प्र.) चातुर्मास में कार्तिक कृष्णा तृतीया इसमें प्रथम ढाल में दासी पुत्र का जन्म; दूसरी ढाल में को की है। राजा विक्रमादित्य के दरबार में दासी पुत्र की अवंती के राजा बनने इस ग्रंथ में प्रथम कुक्षीस्थ श्री शान्तिनाथ भगवान् का की ज्ञानगर्भ पुरोहित की भविष्यवाणी और उसे मारने हेतु राजा का मंगलाचरण, तत्पश्चात् प्रथम व्याख्यान में नंदीश्वर दीप में देवगमन, प्रयत्न; तीसरी ढाल में उसे सूखे बगीचे में छोड देना और बालक पर्युषण पर्व में श्रावकों के कर्तव्य, अभयदान के विषय में पाँचों के पुण्य प्रभाव से उद्यान का पल्लवित होना, माली द्वारा उसे दत्तक राणी एवं चोर की कथा, द्वितीय व्याख्यान में जिनदर्शन पर शय्यंभव भट्ट एवं जिनवाणी की महिमा के विषय में रोहिणेय चोर की कथा लेना, मालण के साथ बालक के राजदरबार में जाने पर पुनः पुरोहित तथा सामायिक व्रत के विषय में पुणिया श्रावक की कथा, व्रतभंग की भविष्यवाणी; चौथी ढाल में पुनः उसे मारने हेतु प्रयत्न और के भाव से होने वाली दुर्गति के विषय में आद्रकुमार की कथा, देव मंदिर में उसे छोडना एवं देवधर सार्थवाह द्वारा उसे ले जाना; तृतीय व्याख्यान में पर्वतिथि की आराधना के विषय में सूर्ययशा पाँचवी ढाल में युवक अघटकुँवर का पालकपिता के साथ पुनः विशाला राजा की कथा एवं अनित्य भावना पर भरत चक्रवर्ती की कथा हैं। (उज्जैनी) के दरबार में आना, पुरोहित की पुनः भविष्यवाणी एवं 189. गुरुवंदना विशेषांक : शाश्वत धर्म में आचार्यश्री ने इस कथा की रचना राजा के द्वारा प्रदत्त मथुरा का राज्य संचालन, छट्ठी ढाल में राजा वि.सं. 1940 में मोहनखेडा तीर्थ के शिलान्यास के आसपास की है द्वारा पुनः मारने हेतु प्रयत्न, देवप्रभाव से रक्षा एवं राजकुमारी से विवाह; एसा उल्लेख हैं। सातवीं ढाल में पुन: देवी पूजा के छल से मारने हेतु प्रयत्न, अघटकुँवर 190. अ.रा.भा. 1/133 191. अक्षय तृतीया अर्थात् वैशाख सुदि त्रीज का बचना तथा राजकुमार की हत्या, आठवीं ढाल में राजा विक्रमादित्य 192. धनसार-अघट कुमार चौपाई द्वारा स्व-पाप प्रकाशन, अघट को राज्य प्रदान एवं जैनी दीक्षा ग्रहण 193. चरित्र-चतुष्टय - अंतिम पत्र तथा मनुष्य को पाँचों प्रमाद छोडने का उपदेश; नौंवी ढाल में केवलज्ञानी 194. श्री अष्टाह्निका व्याख्यान - पृ. 57, 58 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [35] 5. उपासकदशा - बालावबोध195: 8. कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी:उपासकदशांग सूत्र में भगवान् महावीर के आनन्द आदि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने इस ग्रंथ की रचना दश श्रावकों के जीवन का वर्णन किया गया हैं। आचार्य विजय रतलाम में वि.सं. 1954 में की थी। यह ग्रंथ श्रीदशाश्रुतस्कन्ध सूत्र राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने लोक-कल्याण हेतु वि.सं. 1954 में खाचरोद के अष्टम अध्ययन रुप श्री भद्रबाहुस्वामी प्रणीत श्रीकल्पसूत्र की में इस ग्रंथ का तत्कालीन मारवाडी-गुजराती-मालवी मिश्रित भाषा संस्कृत टीका हैं। में बालावबोध नाम से अनुवाद किया है। जिससे साधारण-जन भी यह ग्रंथ नौ व्याख्यानो में विभक्त हैं। प्रथम पाँच व्याख्यानो आगमों के ज्ञान का लाभ प्राप्त कर सकें। में महावीर चरित्र, छठे व्याख्यान में पार्श्वनाथ चरित्र, सातवें में नेमिनाथ इस ग्रंथ में प्रथम अनुबन्ध-चतुष्टय हैं। तत्पश्चात् श्री चरित्र, आठवें में आदिनाथ चरित्र एवं नौवें व्याख्यान में स्थविरावली उपाशक दशा सूत्र के दशों अध्ययन (1) आनंद (2) कामदेव (3) एवं समाचारी का वर्णन है। श्री कल्पसूत्र पर रचित अभी तक की चुलणीपिया (4) सुरादेव (5) चुलशतक (6) कुंडकोलिक (7) सद्दालपुत्र अनेक टीकाओं में यह संस्कृत गद्य टीका अन्य टीकाओं की अपेक्षा (8) महाशतक (9) नंदिणीपिया और (10) सालिणीपिया - इन अति सरल, विशाल, रोचक एवं अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण हैं ।198 दश श्रावकों के नाम से हैं। 9. कल्पसूत्र-बालावबोधःइनमें प्रत्येक अध्ययन में एक-एक श्रावक का वर्णन है। श्री महावीर स्वामीने राजगृही के गुणशील चैत्य नामक इनमें श्रावकों के नगर, उद्यान, वनखंड, भगवान् का समवसरण, राजा, स्थान में बारह पर्षदा (तीर्थंकर के समवशरण की सभा) के बीच नौवें प्रत्याख्यानपूर्व के दशाश्रुतस्कंध सूत्र के श्री पर्युषण कल्प नामक परिवार, धर्माचार्य, धर्म कथा, ऋद्धि, भोग, भोग त्याग, बारह व्रत, अध्ययन कहा था।199 उस पर श्री भद्रबाहु स्वामीने 1216 श्लोक व्रत के अतिचार, प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, प्रत्याख्यान, अनशन, प्रमाण श्री कल्पसूत्र (बारसा सूत्र) के नाम से उज्जैन (म.प्र.) में स्वर्गगमन आदि का प्रथम अध्ययन में विस्तार से और शेष में संक्षिप्त ग्रंथ रचना की थी।200 मालवा, मारवाड, गुजरात और पारकर चारों में वर्णन हैं। देश के श्रीसंघ के आग्रह से उस कल्पसूत्र की मूल एवं चूर्णि, इनमें (1) आनंद श्रावक को अवधिज्ञान एवं गौतम स्वामी नियुक्ति, टीकादि पञ्चांगी के साथ प्राचीन ग्रंथ मंगवाकर आचार्यश्रीने द्वारा क्षमा मांगना (2) देव के उपसर्ग में कामदेव और कुंडकोलिक उसके आधार पर मूल ग्रंथ न देते हुए उसी के संक्षेप से अर्थ लेकर श्रावक का अडिग रहना एवं चुलनीपिता, सुरादेव, चुल्लनशतक, सद्दालपुत्र एवं टीका से कुछेक कथाभाग लेकर करीब 5500 श्लोक प्रमाण श्री का चलायमान होना तथा (3) दुष्ट भार्या के कारण महाशतक श्रावक कल्पसूत्र बालावबोध201 नामक इस ग्रंथ की वि.सं. 1940 में वैशाख की गृहस्थ जीवन की विडम्बना भरी स्थिति, साथ ही भार्या रेवती वदि द्वितीया, मंगलवार के दिन पूर्णाहुति की थी।202 को अप्रिय वचन सुनाने की भूल - ये बातें विशेष ध्यान देने योग्य इस ग्रंथ में कुल नव व्याख्यान है। प्रथम व्याख्यान में हैं। आनंद के अलावा महाशतक श्रावक को भी अवधिज्ञान प्राप्त ग्रंथ रचना का हेतु, वाचनविधि, श्री पर्युषण पर्व-कल्पसूत्र एवं श्रीसंघ का महत्त्व, चातुर्मास में विहारादि एवं चातुर्मास बाद भी स्थिरता हुआ था और नंदिनीपिता तथा सालीनिपिता इन दो श्रावकों को कोई के कारण, चातुर्मास योग्य क्षेत्र के गुण, अट्ठम तप पूर्वक कल्पसूत्र उपसर्ग नहीं हुआ। ये सभी श्रावक आयु पूर्ण कर देवलोक में गये, श्रवण आश्रयी नागकेतु की कथा, ऋषिपंचमी की कथा, चौथ की इसका विशद वर्णन लोकभाषा में किया गया हैं। संवत्सरी की कथा, सामुद्रिक शास्त्र-दश आश्चर्य (अच्छेरा) एवं स्वप्न आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी द्वारा कृत हिन्दी शासत्र वर्णन, छटे व्याख्यान की पूर्णाहुति तक विस्तृत श्री महावीर अनुवाद के साथ यह बालावबोध श्री राज-राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट - चरित्र, सातवें व्याख्यान में श्री पार्श्वनाथ एवं श्री नेमिनाथ चरित्र तथा अहमदाबाद से वि.सं. 2054 में दीपमालिका के दिन प्रकाशित हुआ चौवीसों जिनेश्वरों का आपस में अंतर (शासन काल का अंतर), आठवें व्याख्यान में श्री ऋषभदेव चरित्र का वर्णन एवं नौवें व्याख्यान में 6. एक सौ आठबोल का थोकडा: श्री स्थविरावली एवं समाचारी का वर्णन है। अंत में संस्कृत में इस लघु पुस्तिका की रचना आचार्यश्री ने वि.सं. 1934 7 श्लोक प्रमाण प्रशस्ति हैं। में राजगढ चातुर्मास में की थी। इस पुस्तक में मननीय 108 बातों इस ग्रंथ की भाषा मारवाडी-मालवी मिश्रित गुजराती हैं। का अनुपम संग्रह है। अल्पमती जीवों को यह पुस्तक अधिक उपयोगी 195. श्री उपासकदशा - बालावबोध, मुद्रितग्रंथ, प्राक्कथन हैं।196 196. अग्रसेन पुष्पांजलि पत्रिका, गुरुदेव विशेषांक, पृ. 23 7. कमलप्रभा शुद्ध रहस्य: 197. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 92 इसकी रचना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अपने 198. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 89; श्री कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी 199. श्री कल्पसूत्र बालावबोध प्रथमावृत्ति, पृ. 247 जीवन के अंतिम वर्षावास, वि.सं. 1963 में बडनगर (म.प्र.) में 200. श्री कल्पसूत्र बालावबोध प्रथमावृत्ति, पृ. 15 एवं पृ. 247, श्री हनुमंत की थी। यह ग्रंथ मुद्रित हैं। बाग जैन मंदिर - उज्जैन का शिलालेख स्थानकवासी साध्वी श्री पार्वतीबाई महासती की 'सत्यार्थ श्री कल्पसूत्रबालावबोध प्रथमावृत्ति, वि.सं. 1944, प्रस्तावना, पृ. 6 चन्द्रोदय' पुस्तक में श्री महानिशीथ सूत्रोक्त कमलप्रभाचार्य के लिये ____ 202. 'सौधर्मस्वामिनो गच्छे, संति, राजेन्द्रसूरयः । जो असत्य प्रलाप किया है उसी का ही इसमें प्रमाण सहित मार्मिक तेनेयं कल्पसूत्रस्य, वार्ता बालावबोधिनी ।।4।। अब्दे खवेदनंदैके, (1940) माघवे (वैशाखे) च सितेतरे। भाषा में खंडन किया गया हैं। 197 पक्षे दिन द्वितीयायां, मंगले लिखिता त्वियम् ।।6।। - श्री कल्पसूत्रबालावबोध, प्रशस्ति 201. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [36]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक मूर्तिपूजक जैन श्वे. श्री संघ समिति, आहोर (राज.) से प्रकाशित हुआ हैं। के प्रत्येक गाँव-नगर में श्री पर्दूषण महापर्व में भादवा वदि अमावस्या 13. गणधरवादः(बडा कल्प) से संवत्सरी महापर्व तक सभा में इस ग्रंथ के वाँचन गणधरवाद' इन्द्रभूति गौतम आदि उन ग्यारह वैदिक विद्वानों श्रवण की परंपरा हैं। के संशयों के समाधानों का संकलन है जो सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर प्रथमावृत्ति छापने वाले श्रावक भीमसिंह माणेक ने इसमें के शिष्य बनने और गणधर पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व जिज्ञासु कथादि में वृद्धि करके इसे ग्यारह हजार (11,000) श्लोक प्रमाण के रुप में अपना पांडित्य प्रदर्शन एवं भगवान की सर्वज्ञता का परीक्षण कर दिया ।203 जिससे इसे नव वाचना के नियत समय में पढकर करने की आंकाक्षा से उनके समवसरण में उपस्थित हुए थे। पूर्ण करने में अतिशय कष्ट होने द्वितीयावृत्ति में आचार्य श्रीमद्विजय लोकोत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण (समूह) को धारण यतीन्द्रसूरिने अनावश्यक विस्तृत बातें टिप्पणी में देकर संशोधन किया।204 करने वाले तथा तीर्थंकर के प्रवचन को सर्वप्रथम सूत्ररुप में संकलित इस ग्रंथ की प्रथमावृत्ति आचार्यश्री की उपस्थिति में निर्णयसागर प्रेस, करने वाले महापुरुष 'गणधर' कहलाते हैं। जैनानुश्रुति के अनुसार मुंबई से ई.स. 1888, वि.सं. 1944 के फाल्गुन सुदि अष्टमी सोमवार वर्तमान अवसर्पिणी काल के 24 वें तीर्थंकर महावीर का शासन वर्तमान को सियाणा, वागरा तथा आहोर के श्रीसंघों की ओर से प्रकाशित में चल रहा हैं। अतः यहाँ 'गणधरवाद' में भगवान महावीर व उनके की गयी थी।205 गणधरों का प्रसंग वर्णित हैं। आपके प्रशिष्य वर्तमान गच्छाचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन गणधर का नाम शंका सूरीश्वरजीने वि.सं. 2055 में कुक्षी चातुर्मास में इसका हिन्दी अनुवाद (1) इन्द्रभूति (गौतम स्वामी) - जीव का अस्तित्व किया और वि.सं. 2054 में थराद (गुजरात) में गुजराती अनुवाद किया (2) अग्निभूति कर्म का अस्तित्व है जो वहीं से प्रकाशित भी किया गया हैं। (3) वायुभूति तज्जीव-तच्छरीर अर्थात् 10. केसरियानाथ विनंतीकरण बृहत्स्तवन: जीव और शरीर का एकत्व आचार्यश्रीने इस बृहत् स्तवन की रचना वि.सं. 1954 में (4) व्यक्त भूतों का अस्तित्व रतलाम (चातुर्मास) में की थी। 39 गाथा प्रमाण इस स्तवन में आचार्यश्रीने (5) सुधर्मा इहभव-परभव का सादृश्य धुलेवा (राज.) स्थित प्रथम तीर्थंकर केशरीयानाथ श्री ऋषभदेवजी (6) मण्डित बंध-मोक्ष का अस्तित्व के गुण एवं प्रभावों का वर्णन करते हुए अंत में उपालंभ देते हुए (7) मौर्यपुत्र - देवों का अस्तित्व परमात्मा को इस संसार समुद्र से पार उतारने हेतु विनंती की हैं ।206 (8) अकम्पित नारकों का अस्तित्व आचार्यश्रीने इसके अलावा वि.सं. 1956 एवं वि.सं. 1959 में फाल्गुन (9) अचलभ्राता पुण्य-पाप का अस्तित्व पूर्णिमा के दिन धूलेवा की यात्रा के समय भी केशरियाजी के अन्य (10) मेतार्य परलोक का अस्तित्व लघु स्तवनों की रचना की हैं। (11) प्रभास - मोक्ष (निर्वाण) का अस्तित्व 11. खर्परतस्कर प्रबंध : गणधरवाद संबंधी आगमों में वर्णन:परदुःखभंजक महाराजा विक्रमादित्य के शासनकाल में खर्पर' समवयांग में गणधरों के नाम और उनकी आयु संबंधी नामक एक चोर अवन्ती और उके निकटवर्ती प्रदेश की प्रजा को कतिपय बातों का वर्णन किया गया हैं। कल्पसूत्र (बारसा सूत्र) अपने अधम कृत्यों से परेशान करता था। उसे येन-केन प्रकारेण की टीकाओं में गणधरवाद का प्रसंग वर्णित हैं। 'आवश्यक नियुक्ति' परास्त करने का प्रयत्न राजा एवं राजकर्मचारी सभी ने किये, परन्तु में ग्यारह गणधरों के नाम, शिष्य संख्या, संशय का विषय, उनका वे विफल ही रहे। अंत में स्वयं राजा विक्रम ने महाभगीरथ प्रयत्नों वेद पद के अर्थ का अज्ञान और "मैं वेद पद का सही अर्थ प्रकट से उसे परास्त कर ही दिया। उक्त प्रबंध में आचार्य श्रीमद्विय राजेन्द्र करता हूँ" ऐसा भगवान का कथन, इतनी बातों का संकेत किया सूरीश्वरजीने इसी ऐतिहासिक बात का संस्कृत में 800 पद्यों (श्लोकों) गया है। श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक भाष्य में वर्णन किया हैं । 207 में पूर्वपक्ष-उत्तर पक्ष की व्यवस्थित प्रणाली का अनुसरण करके गणधरवाद संभवत: इसी ग्रंथ का नाम उपाध्याय मुनिश्री गुलाबविजयजी की रचना की हैं। ने 'हरिविक्रमनृपचरित्र' लिखा है ।208 यह ग्रंथ अमुद्रित हैं। आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने इन्हीं विशेषावश्यक 12. गच्छाचारपयन्ना-वृत्ति भाषान्तर: भाष्य एवं कल्पसूत्र की प्राचीन टीकाओं के आधार पर 'गणधरवाद' 'श्रीगच्छाचारपयन्ना' मूलग्रंथ (1) आचार्य स्वरुप (2) यति नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें भगवान महावीर ने गौतमादि गणधरों स्वरुप और (3) साध्वी स्वरुप - ये तीन अधिकारों में विभाजित होकर 137 श्लोक प्रमाण हैं। इस पर वि.सं. 1634 में विमलविजय 203. कल्पसूत्र बालावबोध प्रथमावृत्ति, प्रस्तावना पृ. 11 गणिने 5850 श्लोक प्रमाण टीका बनाई है। उसी टीका का भाषान्तर 204. कल्पसूत्र बालावबोध द्वितीयावृत्ति, प्रस्तावना पूज्य आचार्यश्रीने वि.सं. 1944 के पौष महीने में सौराष्ट्र (गुजरात) 205. कल्पसूत्रबालावबोध, प्रथमावृत्ति, प्रस्तावना के पहले मुखपृष्ठ में किया था। भाषान्तर में कहीं कहीं टीका से भी अधिक विवेचन 206. प्रभुस्तवन सुधाकर किया गया है जिसका स्पष्टीकरण गुरुदेव ने मंगलाचरण में ही कर 207. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 90 208. श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 128, श्लोक 414 दिया हैं।209 यह ग्रंथ श्रमण और श्रमणी संघ के समस्त आचार 209. गच्छाचारप्रकीर्णस्य टीका लोकसुभाषया । विचारों का मुख्य विवेचक हैं। प्रत्येक साधु व साध्वी को एक कुर्वे वृत्त्यनुसारेण चाधिका कुत्ररित्यपि ।।2।। - गच्छाचारपयन्ना वृत्तिबार यह ग्रंथ अवश्य पढने योग्य हैं। यह ग्रंथ श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य भाषान्तर, मंगलाचरण - पक्ष H Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं।210 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [37] के मन में रही हुई शंकाओं को स्वयं प्रकट कर वेद के पदों का ये स्तवन प्रभुस्तवन सुधाकर में मुद्रित है। वि.सं. 1938 सही अर्थ करते हुए वेद के पदों से ही उनकी शंकाओं का समाधान में प्रथम भाद्रपद मास में राजगढ (म.प्र.) चातुर्मास में आचार्यश्री किया - इस प्रसंग का वेद-पद एवं उनके अर्थ सहित वर्णन किया ने इन तीनों चतुर्विशतिका की रचना की हैं।215 19. जिनोपदेश मंजरी:'कल्पसूत्र-बालावबोध' के षष्ठ व्याख्यान में 'गणधरवाद' आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'श्री जिनोपदेश मंजरी' वर्णित है एवं आचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी ने 'मिला की रचना वि.सं. 1954 में खाचरोद (म.प्र.) में की थी। इसकी प्रकाश खिला वसंत' ग्रंथ में गणधरवाद का विस्तृत वर्णन किया पृष्ठ संख्या 70 हैं। इस पुस्तक में रोचक कथानकों से जिनेश्वर देव प्रणीत तत्त्वों को यथार्थ रुप से समझाया गया हैं। इसके प्रत्येक 14. चैत्यवंदन चतुर्विशतिका: कथानक की शैली उस समय की लोक भोग्य शैली है। यह पुस्तिका आचार्यश्री ने इसमें वर्तमान चौबीसी के 24 तीर्थंकरों के राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय, खुडाला (राज.) से प्रकाशित की गयी हैं।216 गुण वर्णन स्वरुप संक्षिप्त काव्यों की तीन तीन श्लोक में रचना की 20. ज्ञान पंचमी देववंदन:है जो चैत्यवंदन, देववंदन, प्रतिक्रमणादि धार्मिक क्रियाओं में उपयोगी प्रस्तुत ज्ञानपंचमी के देववंदन में 51 खमासमण के पद होती हैं। एवं पाँच ज्ञान के (मतिज्ञान आदि) पाँच चैत्यवंदन - स्तवन एवं 15. चोपड खेलन (क्रीडा) सज्झायः स्तुति दी है।217 आराधक लोग कार्तिक शुक्ला-5/ज्ञानपंचमी के दिन आचार्यश्री द्वारा रचित इस सज्झाय का स्थान एवं समय ज्ञान के सामने इस क्रिया (विधि) को करते हैं। ज्ञात नहीं है। इसमें 18 गाथा में शतरंज की क्रीडा के दांव-पेंच 21. तत्त्वविवेका:का वर्णन कर आत्मा को उद्देशित कर संसार के दाव-पेच से बचकर श्री अभिधान राजेन्द्र कोशः विशेषांक शाश्वत धर्म के अनुसार शुद्ध संयम जीवन पालन करके अयोगी गुणस्थानक प्राप्त कर सिद्ध इस ग्रंथ की रचना वि.सं. 1945 तदनुसार ईस्वी सन् 1888 में वीरमगाम स्वरुप प्राप्त करने की प्रेरणा दी हैं।212 यह 'प्रभु स्तवन सुधाकर' चातुर्मास में की गयी थी। में पृ. 232 से 234 पर मुद्रित हैं। ___ इसमें आचार्यश्री ने सुदेव-सुगुरु एवं सुधर्म - इन तीन 16. चौमासी देववंदन: तत्त्वों पर श्रेष्ठतम विवेचन बालगम्य भाषा में किया हैं। सरल रीति इस देववंदन माला की रचना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र होने के कारण साधारणज्ञानी व्यक्ति को भी त्रितत्त्व समझने के लिये सूरीश्वरजीने खाचरोद में वि.सं. 1953 में अषाढ सुदि सप्तमी को की यह अत्युत्तम ग्रंथ हैं। इसकी पृष्ठ संख्या 128 हैं। यह ग्रंथ खुडाला है।। (राजस्थान) से मुद्रित हुआ है। इस देववंदन में प्रथ चौबीसों तीर्थंकरों का एक चैत्यवदंन, 22. द्वादश पर्वनी कथा (संग्रह):तत्पश्चात् वर्तमान चौवीसी के श्री आदिनाथ से महावीर तक के 24 ___ आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने इस ग्रन्थ में प्राचीन तीर्थंकरों में से यथाक्रम श्री आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ जैनागम साहित्य एवं अन्य प्रकरणादि ग्रंथों से लोकोत्तर जैन पर्वो एवं महावीर स्वामी के देववंदन और शेष जिनेश्वरों के एक चैत्यवंदन की आराधनाविधि एवं फलदर्शक प्राचीन जैन पर्व कथाओं का बाल एवं एक स्तुति पूर्वक चैत्यवंदन है। इसके बाद श्री सिद्धाचल, जीवों के बोध हेतु लोकभाषा में विभिन्न राग-रागिनियों में रचना सम्मेतशिखर, अष्टापद, आबू एवं गिरनार तीर्थ के चैत्यवंदन - स्तवन कर संग्रह किया हैं।219 मुनि देवेन्द्र विजयजीने इसी पर आधारित स्तुति और अंत में सर्वतीर्थो नामपूर्वक श्री सर्वतीर्थ चैत्यवंदन-स्तवन 'श्री पर्व कथा संचय' नामक हिन्दी ग्रंथ की रचना की हैं। 220 एवं स्तुति है। इसमें कुल 31 चैत्यवंदन, 40 स्तुतियाँ और 11 स्तवन इस ग्रंथ में (1) ज्ञानपञ्चमी (2) कार्तिक पूर्णिमा (3) मौन एकादशी (4) पौष दशमी (5) मेरु-त्रयोदशी (6) चैत्री पूर्णिमा (7) 17. जिनस्तुति चतुर्विशतिका4: अक्षयतृतीया (8) रोहिणी तप (9) पर्युषण (10) दीपमालिका (11) इसमें आचार्यश्री ने 24 तीर्थंकरों के आश्रित कर उनके गुणों चातुर्मास (12) रजः पर्व (होली) - इन द्वादश पर्व संबंधी कथाओं का वर्णन करते हुए एक-एक स्तुति की रचना की है। यह भी का वर्णन हैं। धार्मिक क्रियाओं में अतीव उपयोगी हैं। 210. गणधरवाद का परिचय, 'मिला प्रकाश खिला वसंत' - से उद्धत 18. जिनस्तवन चतुर्विशतिका: 211. प्रभुस्तवन सुधाकर प्रसिद्ध अध्यात्मक योगी श्री आनंदघनजी की तरह आचार्यश्री 212. प्रभुस्तवन सुधाकर ने भी 24 तीर्थकरों के गुणगान करते हुए, विविध देशी गेय राग- 213. देववंदन माला पृ. 222, चौमासी देववंदन रागिनियों में भजनस्वरुप 24 स्तवनों की रचना की हैं। इन स्तवनों 214. प्रभुस्तवन सुधाकर में आचार्यश्री ने प्रभु भक्ति के माध्यम से जैनदर्शन एवं जैनधर्म संवर्त अड-द्वि-नव-शशि, प्रथम भाद्रव प्रसिद्ध । सुखकर सूरि राजेन्द्रनी, राजगढे भई ऋद्ध - ||5|| अंतिम बधाई, के सिद्धांत जैसे-देवाधिदेवत्व, नयवाद एवं प्रमाण, सप्तभंगी, स्याद्वाद, प्रभुस्तवनसुधाकर, पृ. 205 चारों निक्षेप, तीर्थकसे का महादेवत्व, उनके अतिशय-गुण वर्णन, 216. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, पृ. 88 से 92 प्रतिक्रमण, नव तत्त्व, षड्द्रव्य, कर्म सिद्धांत, आत्मा का स्वरुप, 217. देववन्दनमाला, ज्ञानपंचमी देववन्दन अनेकांतवाद, सम्यक्त्व, नास्तिकवाद का खंडन, जिनप्रतिमा की महिमा, 218. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 88 से 92 चारित्र, ब्रह्मचर्य, अवतारवाद का खंडन आदि अनेक विषयों पर रोचक 219. धरती के फूल, पृ. 264 प्रकाश डाला है। 220. श्री पर्वकथासंचय, प्रस्तावना, पृ. । 215. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [38]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 23. दीपावली देववन्दन एवं (शारदा) पूजन विधि:- 28. पञ्च सप्ततिशत स्थान चतुष्पदी:प्रस्तुत देववंदन रचना में जैनविधि से दीपावली चोपडा यह रचना गुरुदेवश्री ने सियाणा (राज.) चातुर्मास वि.सं. पूजन, सरस्वती-लक्ष्मी पूजन, आरती, गौतमाष्टक, दीवाली का जप 1946 में कार्तिक शुक्ला पञ्चमी के दिन पूर्ण की हैं।226 मंत्र, गौतमरास एवं दीपावली देववंदन में भगवान् श्री महावीर स्वामी तपागच्छीय श्री सोमतिलकसूरि विरचित 'सत्तरिसय के निर्वाण कल्याणक का वर्णन एवं उनकी आराधना की महिमा ठाणापगरण, नामक 359 प्राकृत गाथामय ग्रंथ है। और उसकी राजसूरगच्छीय दर्शाई है साथ ही निर्वाण कल्याणक के समय देव-मनुष्यों के कर्तव्यों श्री देवविजयजी रचित अति सरल संस्कृत वृत्ति भी है। प्रस्तुत ग्रंथ का वर्णन एवं परमात्मा देवाधिदेव तीर्थंकर के अतिशयों का वर्णन रचना उसी पर आधारित है। परंतु आचार्यश्री ने पाँच स्थान इतर हैं। इसकी रचना वि.सं. 1961 में कुक्षी चातुर्मास में की हैं 121 जैन ग्रंथो से उद्धत कर इसमें रखे हैं। आचार्यश्रीने इस ग्रंथ में पाँच उल्लास में वर्तमान चौबीसी 24. देववंदनमाला22: के तीर्थंकरों की भवसंख्या, पूर्वभव का परिचय, जिनेश्वरों के पाँचों आचार्य विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने देववंदनमाला ग्रंथ में कल्याणकों का समय एवं तत्संबंधी संपूर्ण जानकारी, परस्पर अंतर, जैनधर्म के विविध पर्वो पर आराधक भव्यात्माओं को धार्मिक क्रिया जिनशासन में इस अवसर्पिणी काल के रुद्र, दर्शनोत्पत्ति, आश्चर्य, करने हेतु विधि सहित पर्वानुसार चैत्यवंदन स्तुति, स्तवन, खमासमण चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव एवं बलदेव आदि की जानकारी दी के पद एवं दोहे आदि की सुंदर शैली में रचना की है जिसका है। कर्ता ने ये समस्त रचना दोहा, चौपाई में एवं विभिन्नगेय रागभावुकजन यथा प्रसंग सुंदर लाभ उठाते हैं। नवपद ओली, दीपावली, रागिनियों में की है। यह प्रशस्ति के साथ सब मिलकर 559 पद्य ज्ञानपंचमी, सिद्धाचल, और चौमासी देववंदन की रचित गुंफित सामग्री प्रमाण हैं 227 का सामूहिक संकलन 'देववंदनमाला' के नाम से प्रकाशित हैं। 29. पदवीविचार सज्झायः25. नवपद ओली देववंदन: आचार्यश्री द्वारा रचित इस सज्झाय का रचना काल एवं स्थान प्राप्त नहीं हुआ है लेकिन अनुमान से यह भी सियाणा में इसमें आसोज एवं चैत्र मास की सुदि 7 से 15 तक नवदिन पूर्वोक्त सज्झायों के साथ रची गयी है क्योंकि इन ग्रंथों में क्रम से जैनधर्म में परम आराध्य शाश्वतयंत्र श्री सिद्धचक्र महायंत्र में विराजित इन्हीं सज्झायों के साथ यह भी मुद्रित है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, इसमें 563 प्रकार के जीवों के 24 दंडकों में से आया हुआ सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तपः इन नव पदों की आराधना हेतु नव जीव देवाधिदेव, केवली, चक्रवर्ती आदि 16 पदवियों में से कौन दिन की क्रियाविधि की सुगमता के लिये प्रत्येक दिन के पद के कितनी और कौन-कौन सी पदवी प्राप्त कर सकता है इसका दंडक अनुसार गुणवर्णनपूर्वक चैत्यवंदन, स्तुतियाँ एवं स्तवन तथा उन पदों प्रकरण के अनुसार वर्णन किया हैं।28 के गुणों के वर्णनपूर्वक खमासमण का पद दिया हुआ हैं। इनमें यह 'प्रभु स्तवन सुधाकर' में पृ 229 से 232 पर मुद्रित क्रमश: नवें पद के 12, 8, 36, 25, 27, 67, 51, 70, 50 गुणों का वर्णन हैं। साथ ही नवपद ओली में त्रिकाल नित्य करने योग्य 30. पाइयसद्दम्बुहि (प्राकृतशब्दाम्बुधि) कोश:देववंदन, पच्चक्खाण पारने एवं संवरने की विधि, संथारा पोरिसी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने इस ग्रंथ की पूर्णाहुति विधि एवं ओलीजी आराधना में आराधक के नियमों का वर्णन भी वि.सं. 1956 में शिवगंज में कीथी।229 यह कोश श्री अभिधान राजेन्द्र दिया हैं।23 बृहत् प्राकृत कोश का संक्षिप्त रुप है। श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ में कहा गया है कि इसके चार भाग हैं। इसमें प्रथम वर्णानुक्रम 26. नवपद प्रश्नोत्तर24: से प्राकृत शब्द, उसका संस्कृतानुवाद, पश्चात् लिङ्गनिर्देश और हिन्दी नवपद में विशेष कर जिन प्रतिमा पूजा सम्बन्धी एवं अन्य नवपद सम्बन्धी प्रश्नों के शास्त्रोक्त उत्तर 'शास्त्रपाठ' प्रमाण सहित 221. देववन्दनमाला 222. वही दिये गये हैं। यह "जिनेन्द्र पूजा संग्रह' में मुद्रित हैं। 223. वही 27. नीतिशिक्षा द्वय पच्चीसी225: नवपद-प्रश्नोत्तर जिनेन्द्रपूजा संग्रह 'नीति शिक्षा द्वय पच्चीसी' नामक दो पच्चीसियों की रचना 225. नीतिशिक्षाद्वाय पच्चीसी - लघुपुस्तिका, प्रथमावृत्ति 226. पंचसप्ततिशतस्थान चतुष्पदी, निर्माण करी हर्षाया रे ।।2।। आचार्य विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने वि.सं. 1954 में रतलाम (म.प्र.) विजय राजेन्द्रसूरीशनी रचना भविकजन के मन भाया रे ॥5॥ चातुर्मास में की थी। इसमें 'यथा नाम तथा गुण'-इस उक्ति के विक्रम उगणी छैताला अब्दे, कार्तिक मास ओपाया। अनुसार 25 बोलों में सामान्य जन-जीवन में व्यवहार योग्य नीतिशिक्षा सौभाग्य पञ्चमी दिन एह भाव सुन, सकल संघ हुलसाया रे ।।6।। मरुधरदेश सीयाणा नगरे, सुविधिनाथ जिनराया । संबंधी बातें हैं। गद्य में रचित इस लघु-पुस्तिका की भाषा सहज - अन्त्य प्रशस्ति, श्री विशंति विहरमानजिन चतुष्पदी, श्री पञ्चसप्ततिशतस्थान सुबोध मारवाडी हैं। चतुष्पदी-पृ. 150, 151 से उद्धृत 227. प्रस्तावना - श्री पञ्चसप्ततिशतस्थान चतुष्पदी वर्तमान आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजीने यह पुस्तिका 228. प्रभु स्तवन सुधाकर ईस्वी सन् 1992 में श्री राज-राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद ने 229 श्री राजेन्द्र अंक, : विशेषांक शाश्वत धर्म में से "गुरुदेव जीवन प्रकाशित करवाई है। विहंगावलोकन 224. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन प्रथम परिच्छेद... [39] में अर्थ हैं ।30 लेकिन 'राजेन्द्र ज्योति' ग्रंथ में 'पाइयसबुंहि' ग्रंथ स्थानांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र की साक्षी पूर्वक दिया गया हैं। के प्रथम पृष्ठ की छाया में हमें हिन्दी अर्थ प्राप्त नहीं हुआ हैं।231 यति नन्दराम के प्रश्नों के उत्तर दिये जाने के पश्चात् आचार्यश्रीने इसमें अभिधान राजेन्द्र कोश की तरह विस्तृत व्याख्याएँ नहीं हैं। चार प्रश्न पूछे जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान से संबंधित यह ग्रंथ अभी तक अप्राप्त एवं अमुद्रित हैं। थे; उसमें प्रथम प्रश्न का प्रत्यत्तर सही नहीं दिया एवं शेष का अति 31. पुंडरीकाध्ययन सज्झायः संक्षेप में उत्तर दिया। तब प्रथम उत्तर को गलत बताने पर ढूंढक आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने इस सज्झाय-पद पंथी यति नन्दराम के द्वारा वितण्डा (मारपीट) की स्थिति उत्पन्न की रचना सियाणा (राज.) में वि.सं 1946 में चातुर्मास में ज्ञानपंचमी/ करने से कोर्ट में शास्त्रार्थ हुआ, वहाँ आचार्यश्री ने यति नन्दराम सौभाग्य पंचमी के दिन की थी। के 9 प्रश्नों में रही अशुद्धियों को बताते हुए प्रश्नों के उत्तर दिये इस सज्झाय में 16 गाथा में जिनवाणी के दूसरे अंगसूत्र एवं अपनी तरफ से और 25 प्रश्न उनके साध्वाचार संबंधी पूछे और सूत्रकृतांग में वर्णित पुंडरीक अध्ययन में गर्भित उपदेश का वर्णन कोर्ट की तरफ से भी पन्द्रह प्रश्न ढूंढकों के साध्वाचार संबंधी पुछवाये है। इसमें परमात्मा महावीर राजा-चार पुरुष-पुष्पकरणी (वापिका) जिसमें से एक का भी यति नंदराम प्रमुख उत्तर ही नहीं दे पाये, पुंडरीक, आस्रव का फल, मिथ्या सिद्धांतवादी, मिथ्यात्वी, एवं शुद्ध जिसके फलस्वरुप आचार्यश्री की विजय हुई और निम्बाहेडा में ढूंढकों साध्वाचार का दृष्टांतपूर्वक फल दिखाकर साधु को जिनमत में श्रद्धा के 60 परिवारों ने आचार्यश्री राजेन्द्र सूरि को गुरु-आम्नाय स्वीकार एवं आस्रव निरोध का उपदेश दिया हैं।232 की। वे श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक 32. प्रभु स्तवन सुधाकर: श्रीसंघ में सम्मिलित हुए। वर्तमान में इन्हीं 60 घरो के 250 से आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने वर्तमान युग में प्राकृत- अधिक घर हैं। यह ग्रंथ अमुद्रित हैं। संस्कृत से अनभिज्ञ जन साधारण के लिये देशी भाषा में जो चैत्यवंदन, 35. प्राकृत व्याकृति एवं प्राकृतशब्द रुपावली:स्तुति, स्तवन एवं सज्झायों का निर्माण किया है वे सभी प्रायः इसका परिचय प्रस्तुत शोध प्रबंध के द्वितीय परिच्छेद में इस पुस्तक में संग्रहित है। इनमें गुणगांभीर्य एवं आध्यात्मिक भाव अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग की विषय वस्तु के अन्तर्गत परिपूर्ण रुप से विद्यमान है। आपके निर्मित पद्यों में अपभ्रंश शब्द दिया हैं। भी हैं जो इनकी शोभा में अतीव वृद्धि करते हैं। 36. महावीर पञ्चकल्याणक पूजा236:33. प्रश्नोत्तर पुष्प वाटिका234: इसमें प्रत्येक पूजा के प्रारंभ में दोहे हैं। दो-दो ढालों में इस ग्रंथ की रचना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी (गीतों में) एक-एक कल्याणक का वर्णन है। प्रत्येक पूजा के अंत ने वि.सं. 1936 में गोलपुरी (जि-झालोर) राजस्थान में की थी। में काव्य एवं मंत्र है। और समस्त पूजा पूर्ण होने के सूचनास्वरुप इस ग्रंथ में उस समय के विवादास्पदप्रश्नों का तथा और भी इतर कलश काव्य की रचना है। पूजा का वर्णन हीडा, जल्लानी, गरबी, प्रश्नों का सुन्दरतम शैली से निराकरण किया गया हैं। प्रश्नों के नानडिया, सोरठ-गिरनारी आदि राग-रागिनियों में किया है, कलश प्रत्युत्तर में गुरुदेव ने शास्त्रीय आज्ञा को श्रेष्ठतम रुप से जनता के 'पारणा' की राग में हैं। समक्ष रखा है। यह ग्रंथ लोकभाषा में होने से साधारण व्यक्ति जैसा कि पूजा में वर्णन किया गया है, प्रथम च्यवन कल्याणक भी इसे सरलता से समझ सकते है। यह ग्रंथ खुडाला (राज.) से पूजा में देवलोक से व्यवन, ऋषभदत्त ब्राह्मण के घर देवानंदा की प्रकाशित हुआ है। कुक्षी में अवतरण, गर्भपरावर्तन आदि का वर्णन है। द्वितीय जन्म 34. प्रश्नोत्तर मालिका35: कल्याणक पूजा में स्वप्नदर्शन, गर्भपालन एवं जन्म का वर्णन है। इस ग्रंथ की रचना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने तृतीय दीक्षा कल्याणक पूजा में इन्द्र द्वारा जन्म-महोत्सव, सिद्धार्थ वि.सं. 1949 में निम्बाहेडा (राज.) में की थी। इस ग्रंथ में ढूंढकपंथी राजा द्वारा जन्म महोत्सव, बालक्रीडा, सांसारिक जीवन एवं दीक्षा नंदराम के साथ मुख्यरुप से मूर्तिपूजा की एवं जिनमूर्ति प्रतिष्ठा की का वर्णन है। चतुर्थ केवलज्ञान कल्याणक पूजा में विहार, तप, पारणे, शास्त्रोक्तमान्यता विषयक शास्त्रार्थ का प्रमाण के साथ उत्तर सहित उपसर्ग, केवलज्ञान, अष्ट प्रातिहार्य, समवसरण, प्रथम देशना आदि वर्णन हैं। का वर्णन हैं। पंचम मोक्ष कल्याणक पूजा में ग्यारह गणधर एवं इस शास्त्रार्थ में प्रथम वादी नंदराम ने त्रस-स्थावर, सूक्ष्म भगवान् महावीर के धर्म-परिवार का वर्णन एव पावापुरी में निर्वाण बादर जीवों के अल्प-बहुत्व, पुद्गल की जधन्य-उत्कृष्ट अवगाहना प्राप्ति का वर्णन हैं। कलश आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी की में वर्णादि; द्वीन्द्रिय, तीर्यंच एवं कृष्ण लेश्यावन्त जीव की गति गुरुपरंपरा एवं ग्रंथ रचना का समय दर्शाया हैं। संबंधी एवं जिन प्रतिमा पूजा एवं प्रतिष्ठा संबंधी स्थानक मान्य 32 230. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ,पृ. 88 आगमों में से मूलसूत्रपाठ के साथ उत्तर मांगा, जो आचार्यश्रीने तत्काल 231. गुरुदेव साहित्य परिचय : राजेन्द्र ज्योति - डो. नेमीचंद जैन द्वारा खींची दे दिया था। जिसमें जिनप्रतिमा पूजाविषयक प्रमाण श्री उपासकदशांगसूत्र, गयी छाया कापी से 232. प्रभुस्तवन सुधाकर भगवतीसूत्र, दशाश्रुतस्कंध, श्रीआचारांगसूत्र, रायप्पसेणीसूत्र 233. प्रभुस्तवन सुधाकर आवश्यकसूत्र, उववाइसूत्र एवं जम्बूद्वीप-पन्नति सूत्र के मूलपाठों की 234. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, पृ. 91 साक्षी से एवं प्रतिष्ठा संबंधी उत्तर श्री अनुयोगद्वारसूत्र, ज्ञाता सूत्र, 235. प्रश्नोत्तरमालिका ग्रंथ की पाण्डुलिपि, श्रीराजेन्द्रसूरि ज्ञानभंडार, कुक्षी (म.प्र.) 236. महावीर पञ्चकल्याणक पूजा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [40]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्री महावीर पञ्चकल्याणक पूजा की रचना आचार्य विजय 40. सकलैश्वर्य स्तोत्र-41:राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजने अपने जीवन में अंतिम वर्षावास के समय आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने इस स्तोत्र की रचना बडनगर में की थी। इसी पूजा के 'कलश' के अनुसार इसकी रचना गोल नगर (जि जालोर) राजस्थान में वि.सं 1936 में की है जैसा वि.सं 1963 की आषाढ सुदि दशमी, स्वाति नक्षत्र और रविवार के कि स्तोत्र के चरम श्लोक के अनुसार ज्ञात होता हैदिन हुई हैं।37 "रसगुणनवचन्द्रे वत्सरे गोलपु-ममुमकृतसुभक्त्या श्रीलराजेन्द्रसूरिः । 37. राजन्द्र सूर्योदय-38 : सकलजिनवराणां सुस्तवं पापनाशं, भवतु सकलसिद्धिप्रापक आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने वि.सं 1960 (गुजराती पाठकानाम् ॥24॥ 1959) में सूरत चातुर्मास में इस ग्रंथ की रचना की है। संस्कृत भाषा में रचित इस स्तोत्र में 23 श्लोक अनुष्टुप इस पुस्तक में सूरत में पंन्यास चतुरविजयजी के साथ छंद में एवं अंतिम 24 वाँ श्लोक मालिनी छंद में हैं। इसमें प्रथम हुए अनादि तीन थुइ और अर्वाचीन चार थुइ एवं शास्त्रीय समाचारी श्लोक में अर्हन्त देव को, द्वितीय में चारों निक्षेप से समस्त जिनेश्वरों (आचार पालन के नियम) संबंधी शास्त्रार्थ का वर्णन किया है को एवं तृतीय से 22 पर्यंत जैन सिद्धांतानुसार महाविदेह में वर्तमान जिसे पढने से पंन्यास चतुरविजयजी एवं उनके भक्तों की जैनागम श्री सीमंधरादि 20 तीर्थंकरों की स्तुति की हैं।242 23 वें श्लोक शास्त्र संबंधी अज्ञानता का सहज परिचय होता है और विजेता में सर्व गणधर-केवलि भगवंत एवं समस्त साधु भगवंतों को वंदन आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के अगाध श्रुतज्ञान का भी किया है। अंतिम 24 वें श्लोक में 'प्रशस्ति' हैं। पाठक को अनुभव होता हैं। इस स्तोत्र की भाषा-शैली प्राञ्जल, भक्तिप्रधान, भाववाही, इसका प्रकाशन उसी समय गुजराती वि.सं. 1959, भाद्रपद अलङ्कार एवं तुक युक्त हैं। इस स्तोत्र पर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य मास/अगस्त 1903 में पुस्तकाकार में एवं 'देशीमित्र' नामक समाचार श्री हेमचंद्राचार्य के सकलार्हत् स्तोत्र का प्रभाव पूर्णरुपेण परिलक्षित पत्रमें हुआ था। होता हैं। यह स्तोत्र अनेक ग्रंथों में मुद्रित है, शाश्वत धर्म मासिक38. विशंति-विहरमान जिन-चतुष्पदी:39: अंक-जनवरी 2001 में यह स्तोत्र हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित इस ग्रंथ की रचना आचार्यश्रीने वि.सं. 1946 में कार्तिक किया गया है। शुक्ल पंचमी (ज्ञान पंचमी) के दिन सियाणा (राज.) में पूर्ण की थी। 'गागर में सागर' समान इस लघु ग्रंथ में चौपाई, हरिगीत 41. स्वगच्छीय मर्यादापट्टकम्43:एवं इकतीसा छंद में जैनागमों के अनुसार पाँच महाविदेह क्षेत्रों में पूर्वाचार्यों की तरह आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने विहरमान वर्तमान बीस जिनेश्वरों के नाम, जननी, जनक, सहधर्मिणी, वि.सं. 1956 में शिवगंज में स्वगच्छीय साधु-साध्वी के लिए आचारलंछन, विजय (देश), नगरी, तनु-वर्ण आदि का वर्णन किया हैं। पालन एवं अनुशासन हेतु आचार नियमों की रचना की जिसे मर्यादापट्टक इसका प्रकाशन वि.सं 1991/इ.स. 1935 में श्री राजेन्द्र प्रवचन कहते हैं। इस मर्यादापट्टक में 25 नियम है जिसमें स्व-गच्छीय साधुकार्यालय-खुडाला (राज.) से किया गया हैं। साध्वी की चैत्यवंदन-(उत्कृष्ट देववंदन)-सामायिक-प्रतिक्रमण-साधु/ 39. शांतिनाथ स्तवन: साध्वी वंदन-आहार-विहार-चातुर्मास-अध्ययन-अध्यापन-उपकरण एवं (आवश्यक हेतु गर्भित लावणी एवं अन्य) अन्य साध्वाचार संबंधी विधियाँ तथा चतुर्विध संघ की अनुशासन श्रावक मूलचन्द फूलचंद के आग्रह से आचार्य श्रीमद्विजय व्यवस्था का वर्णन किया गया हैं। राजेन्द्र सूरीश्वरजीने इस स्तवन की रचना वि.सं. 1942 के आसोज 42. साधुवैराग्याचार सज्झाय :वदि दशमी के दिन धोराजी नगर (गुजरात) चातुर्मास में की थी।240 इस सज्झाय की रचना भी आचार्यश्रीने वि.सं. 1946 में इसमें दो ढालें हैं। आचार्यश्री ने प्रथम काव्य में जैन सिद्धांतानुसार सियाणा (राज.) वर्षावास में की हैं। देववंदन एवं सामायिक विधि एवं द्वितीय में प्रतिक्रमण विधि सूत्रों इसमें 26 गाथा में साध्वाचार के दोषों का वर्णन कर, उसका के नाम एवं क्रियाविधि का महिमा सहित वर्णन किया हैं। प्रायश्चित दंड दिखाकर साधुओं को ज्ञानर्भित वैराग्य वासित जीवन त्रिस्तुतिक सूत्र-साक्षी गर्भित श्री शांतिजिन लावणी : सावधानीपूर्वक यापन करने का निर्देश दिया हैं। जैसा कि इसके नाम से प्रत्यक्ष हैं, आचार्यश्री ने इस लावणी 237. श्री जिनेन्द्र पूजा संग्रह पृ. 63, श्री महावीर कल्याणक पूजा, कलश-4 में प्राचीन त्रिस्तुतिक सिद्धांत के शास्त्रोक्त प्रमाणों के सूत्रों के नामों 238. राजेन्द्र सूर्योदय, प्रस्तावना, प्रथमावृत्ति, सन् 1903 का छः श्लोकों में वर्णन किया है। इसका रचनाकाल या स्थान 239. ग्रंथ, प्रस्तावना श्री पञ्चसप्ततिशतस्थान एवं श्री विहरमान जिन चतुष्पदी प्राप्त नहीं हुआ है किन्तु इसकी रचना से ऐसा ज्ञात होता है कि 240. क. कलश-मूलचन्दसुत फूलचन्द आग्रह, पडिकमणा विधि ज्ञानथी। आवश्यकविधिगभित श्री शान्तिनाथ स्तवन इस लावणी की रचना किसी शास्त्रार्थ के बाद की गयी है जिससे ख. संवत द्वि-चउ-अङ्क - शशी में, दशमी वदि आशोज । गेय स्तवन के माध्यम से जन-साधारण को भी सूत्र-सिद्धांत की जिनजी विधि मारग दियो मुजने ॥23।। -वही जानकारी प्राप्त हो सकें। 241. सकलैश्वर्य स्तोत्र, श्री राजेन्द्र स्तुति समुच्चय पृ. 16 से 18 ये और इसके अतिरिक्त आचार्यश्री द्वारा रचित श्रीशांतिनाथ 242. जैन आगमों के अनुसार जंबुद्वीप के 9, घातकीखंड के दो एवं अर्ध पुष्करावर्त द्वीप के 2 -एसे 5 महाविदेह में 5x4%= 20 तीर्थंकर (एकभगवान् के अन्य भी 12 (बारह) स्तवन 'प्रभु स्तवन सुधाकर में एक विदह में 4-4) वर्तमान में विहरमान हैं। मुद्रित हैं। 243. यह पट्टक कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी में 'जीवनपरिचय' के बाद मुद्रित हैं। 244. प्रभुस्तवन सुधाकर पृ. 222 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [41] 43. सिद्धाचल देववंदन45: कथा के अनुसार ललित विस्तरा के कर्ता श्री हरिभद्रसरि इसमें सिद्धाचल तीर्थ की आराधना-विधि का वर्णन हैं। सिद्धर्ष गणि के समय में हुए हैं। प्रथम 21 खमासमण, तत्पश्चात् चैत्यवंदन, सिद्धाचल के 21 एवं 99 प्र.4. साधु को श्वेत वस्त्र पहनना या रंगीन? नामयुक्त स्तुति एवं स्तवन, सिद्धाचल के उपर दर्शनीय एवं वंदनीय उ.4. महावीर-शासन के साधु को श्वेत-मानोपेत-जीर्णप्राय स्थानों के वर्णन युक्त स्तवन एवं सिद्धाचल तीर्थ की नवाणुं (99) वस्त्र धारण करना - यह उसका अचेलकत्व हैं। यात्रा की विधि एवं यात्रा के नियम दिये हैं। प्र.5. जिसके ज्ञान-दर्शन होय अरु चारित्र मलिन होय, उस पासत्थे 44. सिद्धचक्र (नवपद) पूजा246: कुं वांदणा (वंदन करना)? श्री नवपद पूजा के अंत में दिये गये 'कलश' के अनुसार ___उ.5. पासत्था ( चारित्र एवं शासनद्रोही ) कारण विना सर्वथा श्री नवपद पूजा की रचना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा.ने नहीं वांदणा ।सामान्यतया तो पासत्था अवंदनीय ही है। वि.सं. 1950 में खाचरोद चातुर्मास में की थी। पासत्था को ज्ञान भण्डार भी नहीं दिखाना। प्रस्तुत पूजा में प्रत्येक पूजा के प्रारंभ में हिन्दी एवं प्राकृत हमें प्राप्त 'सिद्धांत प्रकाश' की पाण्डु-लिपि के अनुसार में दोहा एवं भुजंगप्रयात तथा हरिगीत छंदों में प्रारंभिक श्लोक एवं यह ग्रंथ वि.सं. 1930 के जेठ सुदि एकादशी के दिन पूर्ण हुआ गेय रागों में एक-एक पद की दो-दो ढालें (भजन) रचे गये हैं। था। यह ग्रंथ अमुद्रित हैं। अंत में 'धनाश्री' राग में कलश दिया गया है जिसमें 'नवपद' की 46. षड् द्रव्य विचार-48:महिमा, नवपद आराधक श्रीपाल राजा एवं मयणा सुंदरी का वर्णन इस ग्रंथ की रचना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी एवं श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की पाट परंपरा एवं पूजा का रचना समय ने वि.सं. 1927 में कुक्षी (म.प्र.) चातुर्मास में की थी। इस ग्रंथ बताया है। की भाषा मालवी हैं। यह पूजा 'जिनेन्द्र पूजा महोदधि एवं जिनेन्द्र पूजा संग्रह प्रस्तुत ग्रंथ में जैनदर्शन के अनुसार विश्व के मूल छ: तत्त्वों में कई आवृत्तियों में आहोर, खुडाला (राज.), मोहनखेडा (म.प्र.), 1. धर्मास्तिकाय 2 अधर्मास्तिकाय 3.आकाशास्तिकाय 4 पुद्गलस्तिकाय अहमदाबाद (गुजरात) आदि जगह से छप चुकी हैं। 5. जीवास्तिकाय और 6. काल - का स्पष्टीकरण किया गया है। 45. सिद्धांत प्रकाश247: साथ ही नय, प्रमाण एवं सप्तभंगी की सुंदर व्याख्या की हैं। तत्त्वज्ञान वि.सं. 1929 में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के की प्राप्ति एवं समझ के लिये यह ग्रंथ उपयोगी है। रतलाम चातुर्मास में उन्होंने संवेगी झवेरसागरजी और यति बालचन्द्र आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरिने इस ग्रंथ की विस्तृत उपाध्याय से हुए त्रिस्तुतिक सिद्धांत विषयक शास्त्रार्थ के समय प्रतिपक्षी विशद व्याख्या वर्तमान हिन्दी भाषा में की है जो जैन तत्त्वज्ञान को उत्तर देने के लिए इस ग्रंथ की रचना की हैं, जिसके फल स्वरुप के परिपूर्ण एवं सहज-सुबोध एवं सरल भाषा में है। प्रस्तुत ग्रंथ आचार्यश्री विजयी बने थे। हिन्दी व्याख्या सहित आचार्यश्री की प्रेरणा से वि.सं. 2048 में इस ग्रंथ में भूमिका में जैनागमों के अनुसार प्रमाण, निर्णयकर्ता, सूरत चातुर्मास में सूरत श्रीसंघ के अत्थ सहयोग से श्री राज-राजेन्द्र सम्यक्त्व, श्रोता, तपागच्छ और खरतर गच्छ की आचरणा, पंडित आदि ट्रस्ट, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया हैं। के स्वरुप का वर्णन करके वादी के पाँचों प्रश्नों का शास्त्रोक्त उत्तर शास्त्र 47. होलिका आख्यान (प्रबंध):पाठ सहित दिया है। साथ ही इन प्रश्नों में हेत्वाभास आदि दोष भी इस संस्कृत प्रबंध की रचना आचार्यश्री श्रीमद्विजय राजेन्द्र यथास्थान दिखलाये हैं। ये प्रश्नोत्तर संक्षिप्त में निम्नानुसार हैं सूरीश्वरजीने वि.सं. 1961 में मध्यप्रदेश (मालवा) में की थी।249 प्र.1. श्री जिन - द्रव्य पूजा शुभानुबंधी प्रभूततर निर्जरारुप है, भारतीय जनता फाल्गुन महीने के सुदि पक्ष में 'होली' उसमें अल्प-पाप नहीं हैं। नामक पर्व अश्लील चेष्टापूर्ण रीति से मनाती है, जो वास्तव में कर्म उ.1. जिन पूजा से शुभानुबंधी परंपरा से मोक्ष फल है तथापि दव्य पूजा में आरंभ संबंधी विराधना है, उस विराधना सिद्धांतानुसार कर्मबंधन करवाता है। आचार्य श्री ने इस ग्रंथ में इस को धर्म नहीं कहते इसलिए द्रव्य पूजा में अल्पपाप अश्लीलतामय पर्व की उत्पत्ति का वर्णन किया हैं। और सुज्ञजनों बहुनिर्जरा कहते हैं। को इस अन्धानुकरण रुप मिथ्या पर्व से दूर रहने को कहा है। प्र.2. चतुर्थ स्तुति, 'वेयावच्चगराणं' और वंदित्तुसूत्र का यह कथा श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय 'खुडाला' से प्रकाशित 'सम्मादिद्विदेवाए' यह पाठ प्रतिक्रमण में कहना और तीन 'चरित्र चतुष्टय' में मुद्रित हुई हैं। स्तुति मंदिर में कहना। 48. होलिका व्याख्यान (कथा):उ.2. प्रतिक्रमण में चतुर्थ स्तुति और 'वेयावच्चगराणं' नहीं उपरोक्त कथा प्रबंध का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है जो कहना । वंदित्तु में सम्मादिट्ठिदेवाए' पाठ नहीं कहना और कि 'पर्वकथा संचय' में मुद्रित है।250 सर्व जगह तीन स्तुति कहना । मंदिर में प्रतिष्ठादि प्रसंगे 245. देववंदनमाला 'वेयावच्चगराणं' करना कारण की बात हैं, नित्य नहीं। 246. -श्री जिनेन्द्र पूजा संग्रह, पृ. 51, श्रीनवपद पूजा, कलश-श्लोक 5 प्र.3. ललितविस्तरा के कर्ता श्री हरिभद्रसूरि वि.सं 585 में निश्चय 247. सिद्धांतप्रकाश (हस्तलिखित अमुद्रित ग्रंथ), श्रीराजेन्द्र ज्ञानभंडार, कुक्षी से हुए। उ.3. श्री हरिभद्रसूरिनामक अनेक आचार्य हुए है अत: निश्चय 248. षड्द्रव्यविचार ग्रंथ 249. होलिकाऽऽख्यानम्, पृ 17 से उपरोक्त कथन सही नहीं है। और उपमिति भवप्रपंच 250. पर्वकथा संचय (म.प्र) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [42]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की नित्य जीवन-चर्या क्रियोद्धारक आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज जैसे प्रकाण्ड प्रज्ञापुरुष थे वैसे ही उत्कृष्ट क्रियापालक थे। शिथिलता आपको लेशमात्र पसंद नहीं थी।आप दिन में कभी निद्रा नहीं लेते थे। रात्रि में भी सिर्फ एक प्रहल विश्राम करते थे। ध्यान और अनुप्रेक्षा की लीनता में कभीकभी तो कई दिन तक सतत निद्रा का त्याग हो जाता। आप अपने छोटे-बडे समस्त दैनिक कार्य अपने स्वयं के हाथ से करते थे। कैसी भी कडी ठंड में आप उभयकाल प्रतिक्रमण और सज्झाय हमेशा खुले बदन ही करते थे इतना ही नहीं अपितु शीतकाल में कहीं नदी-नाले के किनारे वृक्ष नीचे या पहाड़ियों की गुफा में खुल्ले शरीर ध्यान में लीन हो जाते तो ग्रीष्मकाल में तपी हुई बालु रेत में या पहाड़ियों की तप्त शिलाओं पर आतापना लेते थे। आप हमेशा मुनिजीवन के नियमानुसार निर्दोष आहार ग्रहण करते एवं उस बिना किसी रसलोलुपता के उदरस्थ करते । इतना ही नहीं कडवी तुम्बी के साग के भी गोचरी में आ जाने पर उससे प्रभावित मुनि मोहन विजयजी को भी समभाव हेतु प्रेरित किया। मात्र आहार ही नहीं अपितु आप वस्त्र, पात्र आदि भी निर्दोष ही ग्रहण करते थे। अहमदाबाद में श्रावक मयाचंदभाईने आपको क्रीतदोषयुक्त मलमल का कपडा वहेराने का प्रयत्न किया परन्तु आपने उसका निषेध कर दिया। आप मुनिजीवन की मर्यादानुसार 14 उपकरण एवं आवश्यक ओधोपधि से अतिरिक्त किसी भी वस्तु का संग्रह नहीं करते थे। कडी ठंड में भी साडे चार हाथ की मात्र दो सूती चादर एवं एक ही ऊनी कम्बल मात्र रखते थे। आप नित्यक्रम से आवश्यक क्रिया से निवृत्त होकर या तो साधुश्रावकों से शास्त्र-चर्चा, धर्म-चर्चा या व्याख्यानादि करते या फिर शास्त्र-अध्ययन, स्वाध्याय में लीन रहते । अस्सी (80) वर्ष की आयु तक में कभी भी आपकी लेखनी ने विराम नहीं लिया। अंतिम समय तक आपने स्वाध्याय, साहित्य निर्माण, ध्यान-अनुप्रेक्षा आदि से विराम नहीं लिया अपितु अंतिम चातुर्मास (विसं 1963, बडनगर) के उत्तरार्ध में दीपावली के दिनों में आपने अट्ठाई तप (आठ उपवास) करके आचारांगादि ग्यारह अंगसूत्रों का स्वाध्याय किया।51 अनशन एवं देहत्याग: बडनगर के चातुर्मास के पश्चात् माण्डवगढ की यात्रा के निमित्त विहार करते समय दसाई से मांगोद के रास्ते पर मार्ग में बबूल का विषैला काँटा पैर में चुभ गया, जिसकी असह्य वेदना से (निमित्तज्ञान के बल से) अपना आयुष्य पूर्ण जानकर आचार्यश्री राजगढ पधारे। यहीं पर वि.सं. 1963, पौष सुदि तृतीया के दिन सकल श्रीसंघ की उपस्थिति में आपने अपने प्रतिभासंपन्न शिष्य अठारहवर्षीय मुनि श्री दीपविजयजी एवं 22 वर्षीय मुनि श्री यतीन्द्र विजय जी को अभिधान राजेन्द्र कोश के सम्पादन-संशोधन और प्रकाशन का उत्तरदायित्व दिया। तत्पश्चात् आचार्यश्रीने उपस्थित श्रीसंघ से, 84 लक्ष जीवयोनि से, एवं शिष्य परिवार आदि से सान्तःकरण क्षमापना की। सभी शिष्यों ने भी विरहाकुल हृदय एवं सजल नयनों से त्रिकरण-त्रियोगपूर्वक गुरुदेव से क्षमापना की। और वि.सं. 1963 पौष सुदि तृतीया की संध्या को समस्त आहार, औषध, शरीर, उपधि आदि का त्याग कर यावज्जीव अनशन ग्रहण कर संलेखना व्रत अङ्गीकार किया और पद्मासन में बैठकर 'ॐ अहँ नम:' के ध्यान में लीन हो गये।252 स्वर्गवास: आत्म-साधना में लीन परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने महाप्रयाण की कुछेक मिनिट पहले फिर एक बार सबसे क्षमापना की और दि. 28 दिसम्बर ई.स. 1906 तदनुसार वि.सं 1963, पौष सुदि छठ गुरुवार की रात्रि को आठ बजकर आठ मिनिट पर एक बार आचार्यश्री की आवाज तेज होकर मंद हुई और फिर वे सदा के लिए मौन हो गए 1253 राजगढ में राजेन्द्र भवन में व्याख्यान की पाट के पास जिस स्थान पर आचार्यश्री ने अनशन व्रत अङ्गीकार कर स्वर्गारोहण किया उसी जगह पर वर्तमान में श्वेत संगमरमर की कलात्मक छत्री में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के चरणयुगल प्रतिष्ठित हैं एवं वर्तमान में राजगढ़ श्रीसंघ की ओर से भव्य गुरुमंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है। अग्नि संस्कार: दिनांक 29 दिसम्बर ई.स. 1906/वि.सं. 1963 पौष सुदि सप्तमी शुक्रवार को मध्याह्न में सुंदर चंदन काष्ठ निर्मित एवं सोनेचांदी के तारमय वस्त्रों से सुशोभित वैकुंठी में गुरुदेव के पार्थिक शरीर को विराजमान कर वैकुंठी के साथ राजा-प्रजा एवं श्रीसंघ ने पूरे नगर में अन्तिम यात्रा में घूमते हुए राजगढ से पश्चिम दिशा में गुरुदेवश्री की प्रेरणा से निर्मित श्री मोहनखेडा तीर्थ के प्रांगण में गुरु शरीर का अग्नि-संस्कार किया, जिस समय हजारों भक्त एवं जैन-जनेतर लोग उपस्थित थे। वहीं पर आज सुंदर गुरुमंदिर निर्मित है जिसमें अग्नि संस्कार के स्थान पर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी की दिव्य मूर्ति विराजमान है।254 मूर्ति का चित्र आगे दिया गया हैं। उपसंहार: इस शोध प्रबन्ध का प्रथम परिच्छेद श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के कर्ता श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का संक्षिप्त परिचय के लिए निर्धारित किया गया था। इसमें आचार्यश्री 251. विश्वपूज्य पृ. 98 252. विरल विभूति, पृ. 96; राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ 147; जीवनप्रभा पृ. 36 253. श्री राजेन्द्रगुणञ्जरी पृ. 147; जीवनप्रभा पृ. 36 254. श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 150, 151, 155; परम योगीश्वर पृ 17, 79; जीवनप्रभा पृ. 36 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [43] के व्यक्तित्व के उन पक्षों को प्रस्तुत किया गया है जो एक महर्षि निर्ग्रन्थ गच्छ 'सौधर्म गच्छ' की शाखा 'तपागच्छ' में दीक्षित होकर के महत्त्व को प्रकट करने के लिए अपरिहार्य हैं। क्रियोद्धार के साथ ही अपने गच्छ का संशोधित नामकरण 'श्री सौधर्म आचार्यश्री के साधु जीवन का प्रथम महत्त्वपूर्ण तथ्य यह बृहत्तपागच्छ' किया था।255 है कि आपकी दीक्षा आचार्य श्रीमद्विजय प्रमोदसूरि के हाथों हुई इस परिच्छेद में आचार्यश्री के व्यक्तित्व के प्रमुख बिन्दुओं थी और आचार्य श्रीमद्विजय प्रमोदसूरिने ही अपने पाट पर मुनि श्री का परिचय मात्र दिया गया है जिनके विषय में स्पष्ट सन्दर्भ रत्नविजय जी को आसीन करते हुए आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया प्राप्त होते हैं। आचार्यश्री जितने सिद्ध लेखक थे उतने ही सिद्ध था और आपका नामकरण श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि किया गया था। वक्ता और कवि भी थे जैसा कि विभिन्न सन्दर्भो से प्रमाणित यह और भी स्पष्ट करने योग्य है कि आपने क्रियोद्धार का होता है। आचार्यत्व प्राप्त होने के बाद आप प्राचीन शास्त्रों की अभिग्रह तो यति अवस्था में वि.सं. 1920 में लिया था परन्तु क्रियोद्धार व्याख्या करने और स्वतन्त्र लेखन करने के अधिकारी हो गये का क्रियान्वय वि.सं. 1925, आषाढ वदि दशमी को आचार्य अवस्था और आपने अपने जीवन में स्वतन्त्र लेखन भी किया और शास्त्रों में किया था। इस दिन सोमवार या शनिवार था - इसका निर्णय की तर्कसंगत व्याख्याएँ और भाष्य भी किये जैसा कि पूर्व में ज्योतिषी कर सकते हैं; क्योंकि क्रियोद्धार पत्रिका में दोनों वारों का चित्रण किया जा चुका है। उल्लेख है, जैसा कि इसी शोधप्रबन्ध के पृष्ठ क्र. 8 पर रेखांकित आचार्य श्री के जन्म, दिक्षा, आचार्यत्व, क्रियोद्धार, किया गया हैं। साहित्यसृजन, सल्लेखना, शरीरत्याग और दाहसंस्कार के संक्षिप्त विवरण आचार्यश्री के गच्छ के विषय में यह स्पष्ट करने योग्य के साथ यह परिच्छेद पूर्ण होता है। है कि आपने किसी नये गच्छ की स्थापना नहीं की थी, अपितु भगवान् महावीर के शिष्य पञ्चम गणधर सुधर्मास्वामी के द्वारा स्थापित 255. अ.रा.भा. 7, मुद्रणपरिचय, श्लोक 2 श्री गुरुदेव-वन्दनावली) यन्नामस्मरणेन दुर्दिनचयोऽरं शाकिनीडाकिनीदोषोऽपि प्रलयं प्रयाति विविधा सम्पत्तिरासाद्यते । लोके च प्रियता मुखे मधुरता कार्ये समुत्साहता, तं सन्नौमि सहस्रकृत्वरनिशं राजेन्द्रसूरिं प्रभुम् ॥1॥ यः पूर्व मदमोहकामममतामात्सर्यलोभक्रुधाद्यान् दोषान् सुतरां विजित्य च ततो मिथ्यात्विनो दुर्मदान् । शुद्धं लोकेहितावहं समदिशद् धर्मं शमे शेमुषीप्रागल्भ्यं सततं करोतु कृपया राजेन्द्रसूरिः प्रभुः ॥2॥ मूर्ति कीर्तिमती विलोक्य सुभगां लोके यदीयां बुधा, दृष्टास्तद्गुणवर्गवर्णनमहो नानाविधं संव्यधुः। लोकेषु प्रथितः स्वधर्मनिरतस्तेजस्विताऽलङ्कृतः, कामान्मे परिपूरयेत्स सकलान् राजेन्द्रसूरिः प्रभुः ॥3॥ लोके कीर्तिलता गता दश दिशो यस्यानवद्या दृढा, सर्वान्सज्जनपादपान् सुविपुलानाश्रित्य संराजते । विद्या चाखिललोकलग्नकुमतिध्वान्तं पराधूनयत्, स श्री सङ्घसुमङ्गलाय भवताद्राजेन्द्रसूरिः प्रभुः ॥4॥ यो मिथ्यामतवादिनामतिमदं मानैस्तथा युक्तिभिह॒त्वा तान्समुपादिशद् सुविपुलं धर्मं परं मोक्षदम्। लोके दीनजनोपकारनिरतो मह्यं स विद्यानिधिः, शुद्धं यच्छतु बोधिबीजमनिशं राजेन्द्रसूरिः प्रभुः ॥5॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ पक्षAA FOR श्रीनपार महामं दानोअरिदा ____ लामोसिल ___ लामोआयरिआin मोक्षाया। खानोलोएससाखin सीवनकारी॥ सव्वापरासटो। मंगलं सवेसिंग AGi६ मंगलं ॥२॥ श्री॥श्री॥श्री॥श्री:॥श्री * संपत १८२५ भागशः सुदि १०ना रो४ શ્રીમવિજય રાજેન્દ્રસૂરિ મ.સા.ના સ્વહસ્તે લિખિત શ્રી નવકાર મહામંત્ર Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश : विशिष्ट परिचय 1. जैन कोश परम्परा 2. कोश साहित्य और अभिधान राजेन्द्र कोश 3. अभिधान राजेन्द्र कोश की उपादेयता 4. अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना का उद्देश्य एवं पृष्ठभूमि 5. अभिधान राजेन्द्र कोश का रचनाकाल एवं स्थान 6. अभिधान राजेन्द्र कोश का एकनिष्ठ परिचय 7. अभिधान राजेन्द्र कोश : स्वरुप एवं प्रकाशन Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश का विशिष्ट परिचय विश्व में दो धाराएँ सर्वदा से प्रवाहमान रही हैं- श्रमण परम्परा और ब्राह्मण (वैदिक) परम्परा । हम यहाँ 'ब्राह्मण' शब्द से वर्ण व्यवस्था की ओर संकेत नहीं करता चाहते और न ही 'ब्राह्मण' के उस वाच्यार्थ का संकेत करना चाहते हैं जिसके अनुसार ऋषभदेव के समय व्रतादि में निरत लोगों को 'ब्राह्मण, शब्द से अभिहित किया जाता था, क्योंकि उस अर्थ में तो यदि कोई ब्राह्मण है तो जैनाचार का पालन करने वाला ही सच्चा ब्राह्मण है'। हमारा अभिप्राय यहाँ वैदिक परम्परा से हैं। इस संसार में निसर्ग से ही संसार के चलने की पूरी की पूरी व्यवस्था चली आ रही हैं। इसमें सृष्टि और प्रलय का कोई प्रारंभिक बिन्दु नहीं है, परंतु अज्ञान के कारण प्रकृति के आश्चर्यों को देखकर अज्ञानियों ने इस निसर्ग के प्रारंभ और अन्त के बिन्दु भी निर्धारित किये हैं । कोई इसे ईश्वरकृत मानता है तो कोई अदृष्टकृत मानता है। जैन दर्शन कहता है कि 'इस निसर्ग का करने वाला कोई नहीं है, यह निसर्गतः ही स्वभाव सिद्ध है। संसार का प्रत्येक पदार्थ भाव-स्वभाव संसिद्ध है, और इसीलिए शाश्वत है। अशाश्वत है तो केवल संयोग, जिसके कारण कर्म संसृष्ट यह जीव दुःख उठा रहा है। संसार के सभी विचारकों ने दुःख को हेय (छोडने योग्य) माना है। कुछ ही अज्ञ (मूर्ख) ऐसे हैं जो मधुलिप्त असिधार को चाटना चाहते हैं। इस दुःख से बचने के लिए अपने स्वभाव की खोज-पहचान करने का प्रयास तो सभी ने किया है, परंतु वे मार्ग से भटक गये हैं और उन्होंने इस भटकाव में अनेक मिथ्या सिद्धांतों का प्रतिपादन कर दिया है, जो प्रारंभ में तो किंपाकफल के समान बहुत मधुर होते हैं परंतु अंत में विषवत् होते हैं। इन्ही सिद्धांतों में एक सिद्धांत है - 'शब्द संकेत' का सिद्धांत। कुछ लोगों ने शब्द को ही ब्रह्म मानते हुए नाद और बिन्दु से इस संसार की उत्पत्ति होना बताया है तो कुछ दार्शनिकों ने इसे जड पदार्थ मानते हुए आकाश का गुण अथवा प्रारंभक तत्त्व शब्दतन्मात्रा माना है न्याय दर्शन के अनुसार शब्द और अर्थ में जो संबंध है वह ईश्वर कृत है। इसे ये लोग शक्ति नाम से जानते हैं। " I यदि पातंजल महाभाष्य को देखा जाये तो वहाँ पर एक वचन आता है - "सिद्धे शब्दार्थसंबंधे "” अर्थात् शब्द और अर्थ का संबंध अनादि अनंत है। यद्यपि अर्थ में संकोच - विस्तार इत्यादि अनेक प्रक्रियाएँ भी होती रहती हैं। इसी प्रकार शब्द में भी अनेक परिवर्तन होते रहते हैं, अतः शब्द का कोई एक निश्चित अर्थ नहीं है, परंतु एसा कोई शब्द नहीं रहता जिसका किसी वाच्यार्थ से संबंध न हो। जिनका वस्त्वर्थ नहीं भी हो, उनका ध्वन्यर्थ तो होता है अर्थात् कम से कम उस ध्वनि का तो वह बोध कराता ही है । जैसे 'अस्य' यह कहने से सामान्य निर्देश करने वाले 'इदम्' शब्द के षष्ठी एकवचन 'अस्य' के वाच्यार्थ का बोध होता है । यदि इस अर्थ को भी न लिया जाये तो 'अस्य' का अर्थ 'अस्य' अकार अथवा अकार मात्र का षष्ठयन्त वाच्यार्थ तो प्राप्त होता ही है। कहने का अभिप्राय यह है कि शब्द अनादि है, अर्थ अनादि है और शब्द और अर्थ का संबंध भी अनादि है। इसमें किसी भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा किसी भी नये गढे हुए शब्द के प्रयोग के पूर्व ईश्वर से पूछना पडेगा । जैन दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि शब्द है, उसका वाच्यार्थ है, और दोनों में होनेवाले संभावित परिवर्तन भी होते रहते हैं । यही 'स्याद्वाद' शब्द का अर्थ है। शब्दार्थ का संबंध लोक से सिद्ध होता है, ईश्वर से नहीं ।" जैन दर्शन भी शब्द को पदार्थ मानता है परंतु शब्द को आकाश का गुण नहीं मानता। शब्द तो पुद्गलवर्गणाओं के एक वर्ग भाषा वर्गणा का प्रकटीकरण मात्र है। पुद्गल से प्रारंभ होने के कारण शब्द पौद्गलिक है। 10 जिन लोगों ने स्पर्शशून्यत्वादि हेतु देकर शब्द को गुण सिद्ध किया है, वे साधारण जनता को तो भ्रमित कर सकते हैं, परंतु जिसमें थोडी सी भी सोचने की शक्ति है उसे तो भ्रमित नहीं कर सकते। शब्द के पुद्गलत्व की सिद्धि अभिधान राजेन्द्र कोश में यथावश्यक विस्तार समझायी गयी है। 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. जैन आगम साहित्य: एक अनुशीलन, भूमिका, पृ. 1 कल्पसूत्र बालावबोध, अष्टम व्याख्यान ले श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि शब्दगुणकमाकाशम् । तचैकं विभु नित्यं च । - तर्कसंग्रह द्रव्यखण्ड वही तन्मात्रो गणः पञ्चतन्मात्राणीत्यर्थः । 11. "भूतादेस्तन्मात्रः स तामसस्तैजसादुभयम्।" - सांख्यकारिका 24 पर कृष्णा व्याख्या पं. ज्वालाप्रसाद गौड अस्मात्पदादयमर्थों बोद्धव्य, इतीश्वर संकेत: शक्तिः । - तर्कसंग्रहः, शब्द परिच्छेद । पातञ्जल महाभाष्य, पश्पशाह्निक, जातिव्यक्तिपदार्थ निर्णयाधिकरण में आक्षेपसाधक भाष्य प्रतिनियतवासनावशेनैव प्रतिनियताकारोर्थः, तत्त्वतस्तु कश्चिदपि नियतो नाभिधीयते ॥ - वाक्यपदीय 2/136 9. सिद्धिः स्याद्वादात् 11 / 1 / 2; लोकात् 111/1/3 - सिद्धहेमशब्दानुशासन 10. पुद्गलभाषावर्गणापरमाणुभिरारब्धः पौगलिकः शब्द इन्द्रियार्थत्वाद्रूपादिवत् । - अ. रा. भा. 1-उपोद्धात पृ.11, शब्दाकाश गुणत्वखण्डनम्, एवं भाग 7, 'सद्द' शब्द अ. रा. भा. 1, उपोद्धात पृ. 11, शब्दाकाशगुणत्वखण्डनम् Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [46]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन इस शब्द के अर्थ संकेत का साधन ईश्वर शक्ति या ईश्वर ये निर्वचन इस प्रकार से हैं - 1 वर्णागम 2. वर्णविपर्यय 3. वर्णविकार कृत नहीं है यह बात निम्नलिखित श्लोक से भी सिद्ध हो जाती 4 वर्णनाश और 5 धातु का अर्थ विशेष से संबंध ।। कोशलेखन की प्रारंभिक स्थिति:"शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान वैदिक निघण्टुओं पर निरुक्त लिखने की प्रक्रिया यास्क कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । निरुक्त तक ही सीमित रह गयी परन्तु उस समय प्रचलन में आये वाक्यस्य शेषाद् विवृत्तेर्वदन्ति, कठिन शब्द जो कि लौकिक जनों द्वारा बहुशः प्रयुक्त होते थे, कालान्तर सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ॥''12 में दुरुह हो गये अथवा उनके अर्थ में विस्तार हो गया या परिवर्तन इन शक्तिग्रहों में कहीं पर भी ईश्वर का नाम नहीं आया, हो गया। इसके लिये कवियों एवं कोश विद्या के ज्ञाताओंने अनेकों हाँ, इतना अवश्य है कि पदार्थ का साक्षात्कार करने वाले आप्त के शब्दों का संग्रह करके एक अर्थ में प्रयुक्त अनेक पर्यायवाची शब्दों वाक्य से अवश्य शक्तिग्रह होता है परंतु वह आप्त ऐसे बाध्य नहीं को एक साथ रखने की पर्यायकोश की विधा में कोश लिखे। इसी करता कि 'हे शब्दप्रयोक्ताओ! यह शब्द है, और यह इसका अर्थ प्रकार कुछ विद्वानों ने एक अर्थ पर एक शब्द के अनेक पदार्थो है, आप लोग इस शब्द का इस अर्थ के लिए ही प्रयोग करो।' के वाचक होने की स्थिति में अर्थ निर्धारण के लिये अनेकार्थकोश वह तो केवल प्रत्यक्ष किये हुए शब्दार्थ-संबंध को ही बताता है। लिखना प्रारंभ किया। यद्यपि एक अक्षरवाले शब्द यदा-कदा ही कोशकार भी सिद्ध-शब्दार्थ-संबंध के बारे में ही लिखता है। वह प्रयोग में आते थे और एकाक्षर शब्दों का प्रायः एक अर्थ में ही नियम नहीं करता कि मेरे कोश में आये हुए शब्दों का प्रयोग अमुक प्रयोग होता है, फिर भी, कभी-कभी जो लोग व्युत्पत्ति नहीं जानते अर्थो में ही किया जाय, वह तो केवल प्रचलित, अप्रचलित, गूढ, और केवल कोश के आश्रय से ही अर्थ समझते हैं उनके लिये भिन्न-भिन्न शब्दार्थो को सूचित मात्र करता है। एकाक्षर कोश की आवश्यकता होती है। उदाहरण - 'कुंद' = यह कोश की महिमा बताती हुई एक उक्ति प्रचलित है शब्द एक पुष्प विशेष का वाचक है और प्रसिद्ध है। इसके विपरीत "कोशश्चैव महीपानां, कोशश्चैव विदुषामपि । 'कंद' शब्द उच्चारण और अक्षरविन्यास में 'कुंद' के समान है और उपयोगेन महानेष क्लेशस्तेनविना भवेत् ॥'13 'कंद' शब्द वनस्पति के तने के रुपान्तर के अर्थ में प्रयुक्त होता अर्थात् जैसे राज्य संचालन के लिये राजा के लिये मुद्राकोष है। परंतु जब एकाक्षर कोश से इसकी व्युत्पत्ति समझी जाती है आवश्यक होता है उसी तरह शब्द साधना करने वालों के लिये तब इसका अर्थ मेघ होता है। यथा - कर = जलम् - द = ददाति इति कंदः। शब्दकोश अत्यावश्यक होता है। क्योंकि निरुक्ति और व्युत्पत्ति से ये एकाक्षर कोश कवियों के रचनाकार्य में उपयोगी शब्दों प्राप्त शब्द किसी अर्थ विशेष में रुढ हो जाने से व्याकरण का क्षेत्र के संग्रह होते हैं। इनमें कोशकारों की अपनी विवेकबुद्धि के अनुसार सीमित हो गया। इस अवस्था में कोश ही एक एसा उपाय है, शब्दों का भिन्न-भिन्न वर्गों में वर्गीकरण किया हुआ होता है। इसी जो सिद्ध, असिद्ध, यौगिक, रुढ या योगरुढ आदि सभी प्रकार के आवश्यकता की पूर्ति के लिये कुछ कोशकारों ने अव्यय कोशों का शब्दों का संकेत ग्रहण करा सकता है। भी निर्माण किया। अतः कोश ज्ञान शब्दों के संकेत को समझने के लिये प्राचीन कोश साहित्य का इतिहास और परम्परा:अत्यावश्यक है। साहित्य में शब्द और शब्दों के उचित प्रयोग की संस्कृत साहित्य के इतिहास में कोश निर्माण परम्परा ईसा जानकारी के अभाव में रसास्वादन की प्राप्ति असंभव है। अतएव शब्दों से भी पूर्व में विद्यमान है। भिन्न-भिन्न रचनाकारों ने भिन्न-भिन्न के अभिधेयबोध के लिये कोश व्याकरण से भी अधिक उपयोगी है। पद्धतियों का अवलंबन लेकर आवश्यकतानुसार एवं रुचि के अनुसार कोश द्वारा अवगत वास्तविक वाच्यार्थ से ही लक्ष्य एवं व्यंग्यार्थ का कोशों का निर्माण किया। अवबोध होता है ।। अत: आवश्यकता को देखते हुए आचार्योने लोक 12. शब्दशक्तिप्रकाशिका कल्याण के लिये कोशों का प्रणयन किया। 13. श्रीमज्जयन्तसेन सूरि अभिनन्दन ग्रन्थ, विश्लेषण, पृ29 प्रथम कोश 'निघण्टु' का प्रादुर्भाव: 14. अभिधान चिंतामणि नाममाला, प्रथमकाण्ड, श्लोक ! इतिहासकारों के अनुसार यास्क-निरुक्त से भी पूर्व सर्वप्रथम 15. अभिधान चिंतामणि नाममाला, प्रस्तावना पृ. 8 16. जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ: विश्लेषण, पृ. 29 -डो. रुद्रदेव त्रिपाठी कोश के रचयिता महर्षि कश्यप हुए। उनके इस कोश का नाम 17. वही 'निघण्टु' था।" यास्क-निरुक्त की भूमिकाः प्रथम अध्यायः प्रथम ऊँ समाम्नाय समाम्नातः ..निघण्टवः कस्मात् निगमा इमे भवन्ति..यास्क पादा देखने से इस बात की पुष्टि होती है कि 'निघण्टु' शब्दों निरुक्क 1.1.1 19. वही के वे कोश थे जिनमें वैदिक शब्दों का संग्रह किया जाता था।" 20. देखिये-यास्क निरुक्तः भूमिका - उमाशंकर ऋषि यह निरुक्त वेद के उन कठिन शब्दों का पांच प्रकार से निर्वचन 21. यास्क निरुक्त, भूमिका, द्वितीय अध्याय, पृ 34 करता था जिससे अर्थ को स्पष्ट समझने में सहायता मिल सके 20 22. देखिये - एकाक्षर कोश; के सीर्षेऽप्सु सुखे....। अनेकार्थसंग्रह 1/5 23. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथः विश्लेषण, पृ29, -डो. रुद्रदेव त्रिपाठी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [47] जैन इतिहास के अनुसार यह कोश साहित्य जैनों के बारहवें दृष्टिवाद अंगसूत्र के अन्तर्गत आये सत्प्रवाद पूर्व एवं विद्यानुवाद के 500 महाविद्याओं में अक्षरविद्या के रुप में माना गया है।25 संस्कृत साहित्य की रचनाओं में विकीर्ण रुप से यत्र तत्र निर्दिष्ट अनेक कोश ग्रंथों के नाम उपलब्ध होते हैं। यथा भागुरीकृत त्रिकाण्ड कोश, वाचस्पतिकृत शब्दार्णव, विक्रमादित्य कृत 'संसारावर्त', वररुचिकृत 'नाममाला', व्याडिकृत 'उत्पलिनी कोश' । इसी प्रकार आचार्य आपिशलि और शाकटयन ने भी कोश ग्रंथों की रचना की थी।26 इसके अतिरिक्त और भी कोश हो सकते हैं जो कि वर्तमान में उपलब्ध सभी कोशों के पूर्व रचे गये थे। किन्तु उपलब्ध कोशों में प्रथम कोश के रचयिता -अमर सिंह को माना जाता हैं। प्रथम कोशकार : अमरसिंहः श्री नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार यह अमरसिंह बौद्ध धर्मावलम्बी थे। कुछ विद्वान इन्हें जैन भी मानते हैं । 27 विख्यात संस्कृत अमरकोश जैन कवि अमरसिंहजी द्वारा निर्मित है। कुछ प्रमाणों के अनुसार ये धनंजय के साले थे, (अमरसिंह को यदि भक्तामर स्त्रोत रचयिता आचार्य मानतुङ्गसूरि के गृहस्थ-शिष्य महाकवि धनंजय का साला माना जाये तो अमरसिंह का समय विक्रम की 7 वीं शती माना जायेगा।) प्रचलित अमरकोश में से जैन प्रमाण विषयक कई श्लोकों को हटा दिया गया है और मंगलाचरण के शांतिनाथ-वंदना के श्लोक भी हटा दिये गये हैं। अमरकोश: ___ पण्डित अमरसिंह रचित यह संस्कृत कोश अमरकोश के नाम से प्रसिद्ध है, इसका दूसरा नाम 'नामलिङ्गानुशासन' है। यह कोश पर्यायकोश के रुप में लिखा गया है। संस्कृत जगत में यह कोश सभी जनों में प्रसिद्ध है। इसकी उपयोगिता इसी से सिद्ध हो जाती है कि इसकी अब तक लगभग 50 टीकाएँ हो चुकी है।28 अन्य कोश परम्परा: अमरसिंह के इस कोश के बाद पं. शाश्वतरचित 'अनेकार्थसमुच्चय' हर्षवर्धनरचित 'लिङ्गानुशासन'; पुरुषोत्तमदेवरचित "त्रिकाण्डशेषकोश', 'हारावली', 'वर्णमाला एकाक्षर कोश' और द्विरुप कोश; वामनकृत 'लिङ्गानुशासन' और ऐसे ही अनेक और भी कोश सातवीं शती में लिखे गये । दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में हलायुध का 'अभिधानरत्नमाला' यादव प्रकाश का 'वैजयंती' और भोजराज का 'नाममालिका' नामक कोश प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। बारहवीं शताब्दी में कलिकालसर्वज्ञ जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरिने 'अभिधानचिंतामणिनाममाला', निघण्टुशेष और एक विशाल अनेकार्थ संग्रह कोश की रचना की। इसके अतिरिक्त प्राकृत भाषा के कोश ग्रंथो में अभिवृद्धि करते हुए उन्होंने 'देशी नाममाला' की रचना की 12 इसमें एसे शब्दों का संग्रह किया गया है जिनका अर्थ प्रसिद्धि के आधार पर ही समझा जा सकता है। 24. जैन आगम साहित्य: एक अनुशीलन पृ. 29, 31, 35 25. श्रीमद् जयन्तसेन सूरि अभिनंदन ग्रंथ-विश्लेषण पृ. 31 26. श्रीमद् जयन्तसेन सूरि अभिनंदन ग्रंथ-विश्लेषण पृ. 29 27. अभिधान चिंतामणि नाममाला, प्रस्तावना पृ. 9 28. देखिये अमरकोश, प्रस्तावना 29. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथः विश्लेषण, पृ 30 -डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी 30. वही 31. शासनप्रभावक श्रमण भगवन्तो, भाग 1 में कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य का जीवनवृत्त ___32. वही जय जय नाणदिवायर! परोवयारिकपच्चल । मुणिंद ! गुस्करुणारससायर!, नमो नमो तुज्झ पायाणं ॥ दारिद्दअमुद्दसमुद्दमज्झनिवडंतजंतुपोयाणं । गुस्करुणारससायर ! नमो नमो तुज्झ पायाणं ॥2॥ सग्गापवग्गमग्गा-णुलग्गजणसत्थवाहपायाणं । गुस्करुणारससायर ! नमो नमो तुज्झ पायाणं ॥3॥ चक्कंकुसझसवरकल-सकुलिसकमलाइलक्खणजुयाणं । गुरुकरुणारससायर ! नमो नमो तुज्झ पायाणं ॥4॥ अ.रा.पृ. 7/200 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [48]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. जैन कोश परम्परा जैनागमों के लेखन का कार्य वीर निर्वाण सं 980 या 993 में संपन्न हुआ, अर्थात् वीर निर्वाण बाद 980 वर्ष में 45 आगम एवं अन्य जैन साहित्य लिपिबद्ध हुआ। उस समय यह साहित्य अर्धमागधी प्राकृत में लिखा गया था जो कि उस समय की प्रचलित लोक भाषा थी, इसलिए अर्थ समझने के लिए कोश ग्रंथों की आवश्यकता नहीं होती थी, परंतु दार्शनिक क्रांति के युग में जब जैनाचार्यों ने संस्कृत भाषा में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विषयों पर लेखन कार्य प्रारंभ किया, उस समय कोश ग्रंथों की आवश्यकता भी हुई। इसी बात को दृष्टि में रखकर अल्प क्षयोपशमवाले जीवों के कल्याण के लिये जैनागमों का अर्थ समझने के लिए जैन कोशकारों द्वारा जैन कोश परम्परा प्रारंभ हुई, जिसका विवरण आगे दिया जा रहा है। जैन कोश साहित्य एवं कोशकारों का संक्षिप्त परिचयः संस्कृत अमरकोश (नामलिङ्गनुशासन) के कर्ता अमरसिंह को यदि जैन मान लिया जाये तो, प्रथम जैन कोशकार होने का श्रेय पण्डित अमरसिंह को है। आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन एक जैनाचार्य थे जो कि प्रसिद्ध वैयाकरण भी थे, कोशकार के रुप में उनका नाम भी लिया जाता है, परंतु संप्रति उनकी रचना उपलब्ध नहीं है। उपलब्ध जैन कोशों में श्री धनञ्जयकृत 'अनेकार्थ नाममाला', 'अनेकार्थ निघण्टु' एवं 'एकाक्षरी कोश' कोशरचनाओं में प्रथम माने जाते हैं। अन्य भी अनेक जैन कोशकार हुए, जिनमें से कुछ का यहाँ पर क्रमशः संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। श्री धनञ्जयः 'स्याद्वाद विद्यापति'' बिरुद के धारक श्री धनञ्जय महाकवि थे। अनेकार्थनाममालादि के साथ-साथ इन्होंने द्विसंघानमहाकाव्य और राधवपाण्डवीय काव्य की भी रचना की थी। 'सुदृष्टतरंगिणी' के आधार पर यह ज्ञात होता है कि श्री धनञ्जय एक जैन श्रावक थे। ये अमरकोशकार अमरसिंह के साले थे। द्विसंघानमहाकाव्य के अंतिम पद्य के अनुसार इनकी माता का नाम श्रीदेवी और पिता का नाम वसुदेव था। उनके विद्यागुरु का नाम दशरथ था।' महाकवि धनञ्जय के द्वारा एक शब्द से अनेक शब्द बनाने की योजना प्रारंभ की गयी थी, - 'धर' शब्द के योग से पृथ्वीवाचक शब्द पर्वतवाचक बन जाते हैं - भूधर, कुधर इत्यादि। कवीश्वर धनपाल : जीवन परिचय: 'पाइयलच्छी नामवाला' के कर्ता कवीश्वर धनपाल के पिता का नाम सर्वदेव था। और माता का नाम सोमश्री था। इनके एक ओर भाई शोभन थे जिन्होंने बाद में जैन दीक्षा ली थी, उद्भट विद्वान् थे। कवीश्वर धनपाल ब्राह्मण कुल में जन्मे थे और धारानगरी में भोजराज के पुरोहित थे। इनके छोटे भाई जो कि जैन दीक्षा लेने के बाद शोभन मुनि के नाम से प्रख्यात हुए। एक बार धारा नगरी में आये और कवि धनपाल को प्रतिबोधित किया। तब कवि धनपाल ने जैन धर्म अंगीकार किया। जैन परम्परानो इतिहास भाग-2 के अनुसार कवीश्वर धनपाल दीर्धायु थे। इसके अनुसार 'पाइयलच्छी नाममाला' की रचना संवत् 1029 में की गयी थी। इन्होंने संवत् 1081 से 1084 के आसपास 'तिलकमञ्जरी' की रचना की और इसके बाद ये साचोर (राजस्थान) तीर्थ में भी अनेक वर्षों तक रहे और वापिस धारा (म.प्र.) आये थे। इस प्रकार जैन परम्परानो इतिहास भाग-2 के लेखक त्रिपुटी महाराज (बंधु त्रिपुटी-दर्शन-ज्ञान-न्याय विजय महाराज) ने संभावना के आधार पर इनका जन्म 1010 और स्वर्गवास संवत् 1090 के बाद होना सूचित किया है।10 रचनाएँ: कवीश्वर धनपाल ने पाइयलच्छी नाममाला नामक प्राकृतकोश, धनंजय कोश (संस्कृत) के अतिरिक्त अन्य साहित्य की भी रचना की थी। यथा (1) तिलकमञ्जरी काव्य (2) आचार्य शोभनकृत चतुर्विशति पर टीका (3) सावगधम्म पगरण (4) उषभपंचासिया (5) वीर थुई - (विरोधालंकारमय) स्तुति (6) वीर स्तुति (संस्कृत-प्राकृत स्तुति) (7) सत्यपुरीयमहावीरोत्साह (8) सूराचार्यकृत नाभेय-नेमि द्विसंधान काव्य का संशोधन प्राकत कोशपरम्परा के आद्य कोशकर्ताःकवीश्वर धनपाल : 1444 ग्रंथो के रचयिता, याकिनी महत्तरा के धर्मपुत्र आचार्य हरिभद्रसूरि ने यह स्पष्ट किया है कि जो चारित्र-पालन करने के इच्छुक बालक, स्त्री, अनपढ और मूर्ख व्यक्ति हैं तथा राज्यकार्य 2. 1. शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 167 श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ - विश्लेषण पृ. 31 3. अभिधान राजेन्द्र विशेषांक : शाश्वत धर्म, पृ. 67 - लेखक - इन्द्रमल भगवानजी व्याकरण शास्त्र का इतिहास, पृ....-ले. युधिष्ठिर मीमांसक शाश्वत धर्म : विशेषांक, फरवरी 1990 पृ. 67 धनञ्जय नाममाला, प्रस्तावना श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ : विश्लेषण पृ. 30, 32 8. जैन परम्परानो इतिहास, भाग 2, पृ. 339 9. वही पृ. 340-341 10. वही पृ. 350 वही पृ. 351, 352, 353 12. समरादित्यकेवली चरित्र (समराइच्चकहा), प्रस्तावना, श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ : विश्लेषण पृ. 32 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में रत हैं उन्हें भी भगवान का उपदेश समझ में आ सके, इसलिए भगवान् (तीर्थकरों) के उपदेश अर्धमागधी भाषा में है। सभी का बराबर उपकार हो, इसलिए सर्वज्ञ देव के द्वारा जैन सिद्धांतो का उपदेश प्राकृत भाषा में किया गया है।13 कवीश्वर धनपालने प्राकृतभाषा के शब्दों और देशी शब्दों का संकलन करके 279 गाथाओं में 998 शब्दों का बोध कराने वाली 'पाइयलच्छी नाममाला' नामक प्राकृत कोश की रचना की । इस कोश में उन शब्दों के संस्कृत रुप, संस्कृत व्युत्पत्ति और साथ ही साथ प्रत्ययों की योजना एवं उनके अर्थ दिये गये हैं। 14 यह कोश प्राकृत भाषा के कोशों में प्रथम स्थान पर है 15 इस प्रकार श्री धनपाल - प्राकृत कोश परम्परा के आद्यकर्ता के रुप में गौरवान्वित हैं। इस कोश पर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरिने प्रामाणिकता की मुहर लगाई है और उन्होंने 'व्युत्पत्तिर्धनपालतः' कहकर महाकवि धनपाल का सम्मान किया है" । भोजराजाने उनको 'सिद्धसारस्वत' और 'कूर्चालसरस्वती' ये विरुद दिये थे । 17 कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि : जैन कोशकारों की परम्परा में महाकवि धनंजय और श्री धनपाल के बाद आचार्य हेमचन्द्रसूरि का नाम स्मरण हो आता है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि के सामने सभी सम्मान, उपाधियाँ फीकी पड जाती है। उस समय का ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं है जिस पर हेमचन्द्राचार्य का अधिकारन रहा हो। जिस विषय पर उनकी लेखनी चली है उन विषयों की रचनाएँ आज भी आधिकारिक एवं प्रामाणिक मानी जाती हैं। धंधुका (गुजरात) ग्राम के मोढ जाति के चाचिग और पाहिणीदेवी के पुत्ररत्न चांगदेव का जन्म विक्रम संवत् 1145 की कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था। मात्र 5 वर्ष की अल्प आयु में आचार्य श्री देवचन्द्रसूरि के पास आकर 8 वर्ष की वय में दीक्षित होकर साधु जीवन में मुनि सोमचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। तत्पश्चात् आचार्य पदारुढ होने पर श्री हेमचन्द्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। आचार्य हेमचन्द्रसूरिने श्रीसिद्ध- हेमचन्द्र शब्दानुशासन नामक मौलिक व्याकरण ग्रंथ की रचना की, जिसमें सभी मत-मतांतरों का समावेश है और किसी भी सिद्धांत के विषय में कोई भी वैकल्पिक मतभेद नहीं है। इस व्याकरण ग्रंथ के पूरक साहित्य के रुप में उन्होंने विशाल कोश साहित्य का निर्माण किया। इस कोश साहित्य में पर्यायकोश के रुप में 'अभिधानचिंतामणिनाममाला', निघण्टुशेष और देशी नाममाला तथा अनेकार्थ कोश के रुप में अनेकार्थ संग्रह की रचना की गयी हैं। अभिधानचिंतामणीनाममाला" : अभिधान चिंतामणी नाममाला का संस्कृत शब्दों के पर्यायवाची शब्दों की जानकारी के लिये अमरकोश की अपेक्षा भी अधिक महत्त्व है। इसमें समानार्थक शब्दों का संग्रह किया गया हैं। इस पद्यमय कोश में कुल छः काण्ड हैं। इसके प्रथम देवाधिदेव काण्ड में 86 श्लोक, द्वितीय देव काण्ड में 250 श्लोक, तृतीय मर्त्य काण्ड में 598 श्लोक, चतुर्थ तिर्यक् काण्ड में 423 श्लोक, पंचम नरक काण्ड में 7 श्लोक, और षष्ठ सामान्य काण्ड में 108 श्लोक हैं। इस प्रकार इस कोश में कुल 1542 श्लोक हैं। हेमचन्द्राचार्य द्वितीय परिच्छेद ... [49] ने इसमें रुढ, यौगिक और मिश्र शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखे हैं। आचार्य ने मूल श्लोकों में जिन शब्दों का संग्रह किया है, उनके अतिरिक्त 'शेषाश्च' कहकर कुछ अन्य शब्द जो मूल श्लोको में नही आ सके हैं, को स्थान दिया है। इसके पश्चात् स्वोपज्ञवृत्ति में भी छूटे हुए शब्दों को समेटने का प्रयास किया है। इस प्रकार इस कोश में उस समय तक प्रचलित और साहित्य में व्यवहृत शब्दों को स्थान दिया गया हैं। अभिधानचिंतामणीनाममाला में शब्दो के वर्गीकरण की योजना अभिनव दिखाई देती है। इसका अवलोकन करने से आचार्य की कला का पता चलता है कि कोशग्रंथ के माध्यम से भी जैनत्व का प्रचार एवं संरक्षण कैसे किया जा सकता है ? इस कोश में सर्वप्रथम देवाधिदेव काण्ड की योजना की गयी है। उसमें भी सर्वप्रथम अर्हन् (अरिहंत) देवाधिदेव के पर्यायवाची नाम बताये गये हैं। यहाँ पर तीर्थंकरों के नाम में एक से अधिक नाम वाले तीर्थंकरो की सूची, भूत और भविष्य में होने वाले 24-24 तीर्थंकरों के नाम, उनके गणधरों के नाम एवं उनके लांछन (चिह्न), जन्मभूमियाँ, अंतिम केवली, श्रुतकेवली, इत्यादि का विस्तारपूर्वक परिचय दिया गया है। इस कोश में जैन सिद्धांत के अनुरूप देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति, एवं नरकगति के अनुसार विषयवस्तु का विभाजन किया गया हैं। तत्पश्चात् सामान्य काण्ड में त्रिलोक की रचना से संबंधित पदार्थों के पर्याय नामों और अव्यय शब्दों का संग्रह किया गया हैं। इस प्रकार यह कोश जैन सिद्धांतो के अनुरुप लिखा गया सर्वप्रथम कोश है। अभिधान चितामणि कोश अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इसमें पर्यायवाची शब्दों के साथ ही भाषा - संबंधित बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित हैं। नवीन और प्राचीन शब्दों का अधिकाधिक संग्रह करने के साथ ही आचार्य ने इनमें समन्वय भी स्थापित किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस कोश का बड़ा महत्त्व है। आचार्य ने इस ग्रंथ की 'स्वोपज्ञवृत्ति' में अपने पूर्ववर्ती 56 ग्रंथकार एवं 31 ग्रंथों का उल्लेख किया है। भागुरि तथा व्याडि के संबंध में इस कोश से बडी जानकारी प्राप्त हो जाती है। जहाँ शब्दों के अर्थ में मतभेद उपस्थित होता है वहाँ आचार्य अन्य ग्रंथ एवं ग्रंथकारों के वचन उद्धृत कर उसका स्पष्टीकरण करते हैं । तुलनात्मक दृष्टि से एवं भाषा की विभिन्न दृष्टियों से जानकारी प्राप्त करने के लिये कोश में आये हुए विभिन्न ग्रंथ एवं ग्रंथकारों के वचन पूर्ण सक्षम है । इस कोश की दूसरी विशेषता यह है कि आचार्यश्रीने धनंजय के समान शब्दयोग से अनेक पर्यायवाची शब्दों के बनाने का विधान किया है किन्तु उसमें तत्कालीन प्रचलित एवं प्रयुक्त कविरुढ शब्दों को ही मान्य किया है। 13. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ विश्लेषण पृ. 32 14. 15. 16. अभिधान राजेन्द्र कोश: प्रथम भाग प्रस्तावना पृ. 4, पाइयलच्छी 19. नाममाला श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ : विश्लेषण पृ. 32 अभिधान राजेन्द्र कोश: प्रथम भाग प्रस्तावना पृ. 4, अभिधानचिन्तामणिनाममाला, प्रथम काण्ड 17. जैन सत्यंप्रकाश, दीपोत्सवी विशेषांक सन् 1998, पृ. 130 Medical Science as Known to Acharya Hemchandra Suri-Ch.I 18. अभिधान चिन्तामणि नाममाला ग्रंथ एवं उसकी प्रस्तावना Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [50]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह कोश बड़ा मूल्यवान है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि के द्वारा संकलित शब्दों पर प्राकृत, अपभ्रंश एवं अन्य देशी भाषाओं के शब्दों का पूर्णतः प्रभाव लक्षित होता है। इसमें अनेक ऐसे शब्द देखने को मिलते हैं जो अन्य कोशों में नहीं मिलते । इस कोश की स्वोपज्ञवृत्ति से शब्दों में अर्थ परिवर्तन किस प्रकार होता है तथा अर्थविकास की दिशा कौन सी रही है, यह स्पष्ट होता है। इस प्रकार विभिन्न दृष्टियों से इस कोश का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि अभिधान चिंतामणि नाममाला (स्वोपज्ञवृत्ति सह) संस्कृत साहित्य में सर्वश्रेष्ठ कोश है। शेष-नाममाला: अभिधान चिंतामणिनाममाला के पूरक ग्रंथ के रुप में 207 श्लोक में आचार्य ने शेष नाममाला की रचना की। इसमें प्रथम एवं द्वितीय काण्ड में 90 श्लोक, तृतीय काण्ड में 65 श्लोक, चतुर्थ काण्ड में 40.5 श्लोक, एवं पांचवे तथा छठे काण्ड में 11.5 श्लोक हैं। इसे अभिधानचिंतामणिनाममाला का परिशिष्ट भी कहते हैं । इसका प्रकाशन लिङ्गानुशासन और निघण्टु शेष के साथ ही झवेरी हीराचंद कस्तूरचंद, गोपीपुराः सुरत (गुजरात) से हुआ है।20 अनेकार्थ संग्रहः कोश ग्रंथो की रचना की दूसरी विधा में आचार्य ने 'अनेकार्थ संग्रह' लिखा। इसमें सात काण्ड हैं, और 1930 श्लोक है। ग्रंथ के नाम के अनुसार इसमें एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं। इसकी काण्डयोजना अभिधानचिंतामणिनाममाला के अनुसार है, परंतु शब्दों का वर्गीकरण एक स्वर से प्रारंभ कर छ: स्वरवाले तक के शब्दों को वर्गीकृत कर नये स्वरुप में स्थापित किया गया है। प्रत्येक काण्ड में शब्दों के समायोजन में स्वर और व्यंजन के क्रम को भी लक्ष में रखा गया है और साथ ही अंतिम व्यंजन का भी उतना ही महत्त्व दिया गया है। प्रत्येक शब्द का । अर्थ स्पष्ट करते समय मुख्य शब्द के प्रथमा एकवचन का अपनेअपने लिङ्ग के साथ निर्देश किया गया है, जिसमें लिङ्गभेद के कारण अर्थ-भेद स्पष्ट समझ में आता है। सप्तम काण्ड में अव्यय शब्दों के अनेकार्थत्व का विवरण दिया गया है। इस प्रकार अनेकार्थ संग्रह में 1930 श्लोकों में एक विशाल शब्दराशि का संग्रह किया गया हैं। आचार्य महेन्द्रसूरिने इस पर वृत्ति लिखकर प्रकाशित करवाई हैं। अनेकार्थ संग्रह चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी से ईस्वी सन् 1929 में प्रकाशित हुआ है। देशी नाममाला: कोश साहित्य की पूर्णाहुति के एक भागरुप आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने देशी नाममाला की रचना की। देशी नाममाला के अंत में आचार्य ने लिखा है :- उन्होंने व्याकरण के परिशिष्ट के रुप में संपूर्ण कोश साहित्य की रचना की। देशी नाममाला शब्दानुशासन के आठवें अध्याय (प्राकृत) का परिशिष्ट हैं। देशी नाममाला में वर्णों के अनुक्रम से 783 गाथाओं में 3978 शब्दों का संग्रह किया है। इसमें तत्सम, तदभव और संशययुक्त व्युत्पत्तिवाले प्राकृत शब्द दिये गये हैं और उनका अर्थ स्पष्ट किया गया है। इस कोश के आधार पर आधुनिक भाषाओं के शब्दों की साङ्गोपांग आत्म कहानी लिखी जा सकती हैं। इस कोश में उदाहरण के रुप में आयी हुई गाथाएँ साहित्यिक दृष्टि से अमूल्य हैं, इससे कोश में आये हुए शब्दों का अर्थ अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है। क्योंकि देशी नाममाला में जिस शब्द का अर्थ व्याकरणात्मक व्युत्पत्ति से या शब्दकोश से समझ में न आ सके और जो शब्द प्रचलित (अर्थ की दृष्टि से प्रख्यात) न हों, उन शब्दों के भी अर्थ लक्षणाशक्ति से निकालकर उदाहरण सहित दिये हैं। श्री धनपाल के 'पाइयलच्छी नाममाला' के बाद देशी नाममाला का यह संग्रह अद्वितीय है। सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी इस कोश का बहुत बडा मूल्य है। इसमें संकलित शब्दों से बारहवीं शती की अनेक सांस्कृतिक परम्पराओं का ज्ञान होता हैं।23 निघण्टुशेष: अभिधान चिंतामणि नाममाला के वानस्पतिक द्रव्यों के पर्याय संकलन के पूरक रुप में आचार्यश्रीने पृथक् से कोश ग्रंथ की आवश्यकता का अनुभव किया और इसकी पूर्ति के लिये 'निघण्टुशेष' की रचना की। और यही कारण है कि इसके शीर्षक में 'शेष' शब्द जुडा हुआ है। निघण्टु शेष में छ: काण्डों में कुल 396 श्लोक हैं। काण्ड के नाम आधुनिक वानस्पतिक विज्ञान की आकारिकी के अनुरुप क्रमश: वृक्ष, गुल्म, लता, शाखा, तृण, एवं धान्य रखा है। निघण्टुशेष में लेखन की योजना मौलिक है। इसमें उत्पत्तिभेद और प्रयोगभेद से भी सभी वनस्पतियों का वर्गीकरण करने का सिद्धांत उपपादित किया गया है। वैद्यक शास्त्र की दृष्टि से यह कोश बहुत उपयोगी है ।24 डॉ. सन्तलाल द्विवेदीने सन् 1999 में पूना विश्वविद्यालय में इस ग्रन्थ पर पीएच.डी. स्तर का शोधकार्य प्रस्तुत किया है। आचार्य जिनभद्रसूरि: ईसा की तेरहवीं शताब्दी के आचार्य जिनभद्रसूरि का जन्म विक्रम संवत् 1450 में, दीक्षा वि.सं. 1461 में, आचार्य पद वि.सं. 1475 के माघ सुदि पूर्णिमा को भणसोल में और स्वर्गवास वि.सं. 1514 के माघ वदि 9 को कुंभलमेर में हुआ था। उनके आचार्य पद के समय आचार्य सागरचंद्र ने (1) भादो नाम (2) भणसोल (भाणसोल) गाम (3).भणसाली गोत्र (4) भद्रा करण (5) भरणी नक्षत्र (नक्षत्र में एसी शंका है कि माघ सुदि 15 को कदापि भरणी नक्षत्र नहीं ही होता) (6) भद्रसूरि नाम और (7) भट्टारक पद - ये सात भकार मिलाये थे। उनके गुरु का नाम आचार्य सागरचंद्र सूरि था। 20. Medical Science as Known to Acharya Hemchandra Suri-Part-I Page 40 21. वही 22. वही पृ. 42 23. Medical Science as Known to Acharya Hemchandra Suri-Part-I Page 40 24. A Critical Study of Nighantushesha - Dr. Santial Dwivedi 25. जैन परम्परा नो इतिहास, भाग 2, पृ. 630 For Private & Personal use only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [51] अपवर्ग नाममाला: ने 'शब्दरत्नाकर' और सहजकीर्ति ने सिद्ध शब्दार्णव' कोशों की रचना आचार्य जिनभद्रसूरि ने 'अपवर्गनाममाला' नामक नाम शब्दों की। इसी प्रकार आचार्य श्री राजशेखरसूरिने 'प्रबंधकोश' और किसी के एक आंशिक शब्दकोश की रचना की थी जिसमें कुछ महत्त्वपूर्ण अज्ञात रचयिता ने 'वस्तुरनकोश' और 'एकादिसंख्या संज्ञा कोश' शब्दों का संग्रह किया गया हैं। की रचना की। इसके अतिरिक्त जैन कथा साहित्य का अवलंबन इसके अलावा आचार्य जिनभद्रसूरिने जिणसत्तरि (गा. 220) करके श्री हरिषेण ने बृहत्कथाकोश, आचार्य प्रभाचंद्र ने आराधनाकोश और द्वादशांगीपदप्रमाणकुलक (11.29) की रचना की। इन्होंने गिरनार, नामक गद्यकोश, आचार्य नेमिचंद्रसूरिने आख्यात मणिकोश, आचार्य चित्तौड, मंडोवरादि में प्रतिष्ठा एवं मांडवगढ, जैसलमेर, जालोर, पाटण, ब्रह्मदेवने कथारनकोश, श्री श्रुतदेवने कथाकोश की रचना की। इस खंभात, नागोर आदि नगर में ज्ञानभंडार बनवाये थे। उन्होंने संसार प्रकार जातककथा कोश और बृहत्कथाकोश 9 वीं शताब्दी से बारहवीं को अपने शिष्य-प्रशिष्यों में 18 विद्वानों की आचार्य, उपाध्याय, पंन्यासादि शताब्दी तक लिखे जा चुके थे।34 के रुप में भेट दी।26 आचार्य पद्मनंदिः ____ इसके साथ ही तेरहवीं सदी में जैनाचार्य श्री जिनदत्तसूरि के शिष्य आचार्य श्री अमरचन्द्रसूरि ने वर्णमाला क्रम से प्रत्येक तेरहवीं शती के ही जैनाचार्य श्री पदमनंदि ने वैद्यकविद्या अक्षर का अर्थ बताते हए 21 श्लोक प्रमाण 'एकाक्षरी नाममाला' पर एक निघण्टु नामक कोशग्रंथ की रचना की थी। की रचना की थी। श्री विश्वशम्भु ने भी 115 पद्यों में ऐसा ही आचार्य जिनेश्वरसूरि एवं आचार्य बुद्धिसागरसूरिः 'एकाक्षरी नाममाला कोश' लिखा है। श्री विमलसूरिने 'देश्य शब्द इन दोनों आचार्यो का गृहस्थ नाम क्रमशः श्रीधर और श्रीपति समुच्चय' एवं अकारादि क्रम से 'देश्यशब्द निघण्टु' नामक महत्त्वपूर्ण था। ये दोनों सहोदर ब्राह्मण पुत्र थे। इन्होंने श्रेष्ठी लक्ष्मीधर की प्रेरणा कोश रचनाएँ सोलहवीं शताब्दी में निर्मित की। श्री रामचन्द्रसूरि का से धारा नगरी (म.प्र.) में सुविहित गच्छ के आचार्य वर्धमानसूरि 'देश्य निर्देश निघण्टु' भी इस प्रकार की कोशरचना है। के पास जैन दीक्षा ग्रहण की, और क्रमश: आचार्य पद प्राप्त किया। अभिधान चिंतामणि कोश के द्वितीय परिशिष्ट के रुप आचार्य बनने के पश्चात् प्राकृत भाषा में 40 उपदेशात्मक कथा प्रमाण में श्री जिनदेवसूरि ने 15 वीं शताब्दी में 'शिलोञ्छ नाममाला' कथानककोश की रचना वि.सं. 1108 में डीडवाणा (गुजरात) नगर नामक एक पूर्तिकोश की लगभग 140 या 149 पद्यों में रचना की में की थी। इस कोश के अलावा इन्होंने लीलावती कथा, पंचलिंगी है। श्री पुण्य रत्नसूरि का 'द्वयक्षर कोश' एवं कविवर श्री असंग प्रकरण, षट्स्थान प्रकरण, प्रमालक्ष्मवृत्ति, अष्टकप्रकरण वृत्ति, चैत्यवंदन का 'नानार्थ कोश' भी विद्वतापूर्ण है। टीका आदि ग्रंथों की रचना की थी।28 महोपाध्याय समयसुन्दरगणि रचित 'अष्टलक्षी' (संवत् 1649) आचार्य महाक्षपणकः विश्व साहित्य का अद्वितीय रत्न है। इसकी पृष्टभूमि कुछ ऐसी है :आचार्य महाक्षपणक के बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध एक बार अकबर की सभा में जैनागम का 'एकस्स सुत्तस्स अणंतो नहीं है। उनके द्वारा 'अनेकार्थ ध्वनि मञ्जरी' नामक कोशग्रंथ लिखा अत्थो' इस आगम वाक्य का उपहास हुआ देख इन्होंने सूत्रवाक्य गया। इसमें 220 पद्य हैं, जो तीन भागों में वर्गीकृत है। यह कोश की सार्थकता बतलाने के लिये 'राजानो ददते सौख्यम्' -इस आठ 'शब्दरत्नप्रदीप' के नाम से भी प्रसिद्ध है।29 अक्षरवाले वाक्य के दस लाख, 22 हजार, चार सौ सात अर्थ किये पं. अमर कवीन्द्रः और सभा में सुनाये। पीछे कवि ने उक्त अर्थो में से असंभव या जैन कवि अमर कवीन्द्र जिनका दूसरा नाम अमर पंडित योजना विरुद्ध अर्थो को निकालकर इस ग्रन्थ का नाम 'अष्टलक्षी' भी है, ने 19 श्लोक प्रमाण 'एकाक्षर नाममाला' की रचना की। रखा। इसमें उपरोक्त अष्टाक्षरी वाक्य के आठ लाख अर्थ हैं जो वे गुर्जर प्रदेश के राजा वीसलदेव के समकालीन थे। कि अनेकार्थ शब्द का सबसे बडा अद्वितीय संग्रह हैं।37 अन्य जैन कोशकर्ताःचौदहवीं सदी में सेनसंघ के आचार्य श्रीधरसेनने 'विश्वलोचन 26. जैन परम्परा नो इतिहास, भाग 2, पृ. 474 श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ, विश्लेषण पृ. 32 कोश' जिसका दूसरा नाम 'मुक्तावली कोश' भी है, की रचना की। 28. शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 197 इसी प्रकार राजशेखरसूरि के शिष्य आचार्य सुधाकलश मे 'एकाक्षर श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ, विश्लेषण पृ. 32 नाममाला' की रचना की। सम्राट अकबर के समकालीन जैन विद्वान पद्मसुंदर ने भी सुंदर प्रकाश कोश जिसका दूसरा नाम ‘पदार्थ चिंतामणि' शाश्वत धर्म : विशेषांक, फरवरी 1990 पृ. 67 या शब्दार्णव भी है, की रचना की। उसी समय श्री भानुविजय वही वही पृ. 34 गणिने 'विविक्त नामसंग्रह' जिसका अपरनाम 'नाममाला संग्रह' भी अभिधान राजेन्द्र विशेषांक : शाश्वत धर्म पत्रिका फरवरी 1990; अभिधान है, की रचना की। सोलहवीं शती में जैनाचार्य श्री हर्षकीर्तिसरि राजेन्द्र : प्रथम भाग, प्रस्तावना; 'शासन प्रभावक श्रमण भगवंतो' भा. ने शारदीय नाममाला (मनोरमा नाममाला) की रचना की और श्री 1,2 विमलसूरिने 'देश्य शब्द समुच्चय' नामक कोशग्रंथ की रचना की। 35. ये गुजरात के राजा विसलदेव के राजकीय विद्वान थे। सत्रहवीं शताब्दी में किसी अज्ञात नाम के आचार्य जो कि खरतरगच्छ 36. अभिधान राजेन्द्र विशेषांक : शाश्वत धर्म पत्रिका फरवरी 1990 37. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 6, पृ. 523 (देवचंद्र लालाभाई से संबद्ध थे, ने 'शेषनामाला', श्री साधुकीर्ति के शिष्य सुंदर गणि जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, ग्रन्थांक 81 से उद्धृत) वही Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [52]... द्वितीय परिच्छेद वस्तुकोश तथा अन्य कन्नड कोश: कन्नड कवियों ने कन्नड और संस्कृत शब्दों के परिचायक अनेक शब्दकोशों की रचना की। इन शब्दकोशों में नामवर्म द्वितीय का 'वस्तुकोश' और अभिधान रत्नमाला ( 1145 ई. स.) तथा देवोत्तम का नानार्थरत्नाकर (ई.स. 1600), और श्रृंगार कवि के कर्णाटक सजीवन (ई.स. 1600 ) का उल्लेख है। इसमें अभिधान वस्तुकोश की रचना वररुचि, हलायुध आदि कृतियों का आधार लेकर हुई है। इनमें तीन भाग हैं - अर्थकाण्ड, नानार्थकाण्ड और सामान्यकाण्ड । इसमें प्राचीन कन्नड कवियों द्वारा प्रयुक्त संस्कृत पदों का कन्नड में अर्थ दिया गया हैं । 38 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिः आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि का परिचय प्रथम परिच्छेद में विस्तार से दिया जा चुका है। अब तक के कोश साहित्य में विश्वकोश की शैली में अभिधान राजेन्द्र कोश प्रथम स्थान पर है और जैन कोशग्रंथो में भी विश्वकोश के आकार का यह प्रथम कोश है । इसके अतिरिक्त आपने इसी का संक्षिप्त रुप किंतु अभी तक के कोशों में सबसे विस्तृत 'पाइयसद्दंबुहि' नामक प्राकृतकोश की रचना की थी परंतु इसकी प्रति संप्रति उपलब्ध नहीं है। अभिधान राजेन्द्र कोश का परिचय इसी परिच्छेद में आगे दिया जा रहा है। नागोरी तपोगच्छीय श्री पद्मसुंदर ने वि.सं. 1619 में 'सुंदरप्रकाश 'शब्दनिर्णय' की रचना की। इसके अलावा भी नामकोश, शब्द चन्द्रिका, महेश्वरकृत शब्दभेदनाममाला, नामसंग्रह, सुधाकलशकृत अव्ययैकाक्षर नाममाला, शब्दसंदोहसंग्रह, शब्दरत्नप्रदीप, पञ्चवर्गसंग्रह नाममाला, एकाक्षरी - नानार्थ कोश, एकाक्षर कोश, एकाक्षर नाममालिका, पाइयसद्दमण्णव, अर्धमागधी डिक्शनरी, जैनागम कोश, अल्पपरिचित सैद्धांतिक कोश, जैनेन्द्रसिद्धांत कोश- इत्यादि अनेक कोशग्रंथ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। 39 38. शाश्वत धर्म फरवरी 1990 पृ. 32 39. वही 40. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ विश्लेषण पृ. 33, 34 - डो. रुद्रदेव त्रिपाठी 'न कार्या निन्दा स्वार्थविधातिका' दत्तेऽसौ सर्वसौख्यानि, त्रिशुद्धयाराधितो यतिः । विराधितश्च तैरश्च्य नरकानल्पयातनाः ॥1 ॥ चारित्रिणो महासत्त्वा, व्रतिनः सन्तु दूरतः । निष्क्रियोऽप्यगुणज्ञोऽपि न विराध्यो मुनिः क्वचित् ॥2॥ , याद्दशं ताद्दशं चापि, द्दष्वा वेषधरं मुनिम् । गृही गौतमवद्भक्त्या, पूजयेत्पुण्यकाम्यया ॥3॥ वंदनीयो मुनिर्वेषो, न शरीरं हि कस्यचित् । व्रतिवेषं ततो द्दष्वा, पूजयेत्सुकृती जनः ॥4॥ पूजितो निष्क्रियोऽपि स्या-ल्लज्जया व्रतधारकः । अवज्ञातः सक्रियोऽपि, व्रतेस्याच्छिथिलादरः ॥5॥ दानं दया क्षमा शक्तिः, सर्वमेवाल्पसिद्धिकृत् । तेषां ये व्रतिनं द्दष्वा, न नमस्यन्ति मानवाः ||6|| आराधनीयास्तदमी, त्रिशुद्धया जैनलिङ्गिनः । न कार्या सर्वथा तेषां निन्दा स्वार्थविघातिका ॥7॥ " - अ. रा. पृ. 7/333 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [53] कोश साहित्य और अभिधान राजेन्द्र कथ्य परक । रुपपरक जानकारी से हमारा आशय है शब्द का मानक उच्चारण, मानक वर्तनी, शब्द, वर्ग संबंधी संरचना, लिङ्ग एवंवचन संबंधी सूचना, शब्द की व्युत्पत्ति, उत्पादक रुप, मानक बोलीगत, ग्राम्य, वर्जित आदि । (3) कथ्यपरक जानकारी के अंतर्गत शब्द का वस्त्वर्थ, लक्ष्यार्थ, शब्द से बनने वाले मुहावरे, भिन्न-भिन्न अर्थच्छटाएँ आदि। कोशों के प्रकार :श्री ललितमोहन बहुगुणा के अनुसार कोशों को आठ प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है - (1) संदर्भ कोश (2) शैक्षिक कोश (3) ज्ञान कोश (4) व्याख्या कोश (5) वैचारिक कोश (6) सिद्धांत कोश (7) समकालिक कोश (8) द्विकालिक कोश । डॉ. भोलानाथ तिवारीने कोश के मल तीन प्रकार बताये कोश विज्ञान भाषा विज्ञान की एक शाखा के रुप में माना जाता है क्योंकि भाषा परस्पर साकांक्ष शब्दों के मेल से बने हुए वाक्यों से गठित होती है। अर्थात् भाषा का प्रारंभिक घटक वाक्य है और वाक्य का घटक शब्द है। इस दृष्टि से भाषा विज्ञान के घटक के रुप में शब्द विज्ञान के अंतर्गत कोशविज्ञान को माना जा सकता है।। यद्यपि यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि शब्द का स्वरुप दो प्रकार से हैं : प्रथम, शब्द को एक भौतिक पदार्थ मानकर उसकी उत्पत्ति, उसके द्रव्यत्व, जडत्व, द्रव्यमान, विस्फोट, इत्यादि का दार्शनिक एवं भौतिक अध्ययन किया जाता है। दूसरे शब्द का भाषिक स्वरुप, शब्द और अर्थ का संबंध, एकार्थक और अनेकार्थक स्वरुपवाच्यता, निर्वचन, प्रकृति एवं शब्द की व्युत्पत्ति, व्याकरणिक कोटियाँ, इत्यादि विषयों का अध्ययन भी शब्दशास्त्र में किया जाता है, जिसे हम व्याकरण शास्त्र के नाम से जानते हैं-व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते शब्दा, प्रकृतिप्रत्ययादयो वा येन तद्व्याकरणम्। प्रथम प्रकार के अध्ययन के कुछ अंशों को व्याकरण दर्शन एवं कुछ भाग को भौतिक विज्ञान में सम्मिलित किया जाता है। दूसरे प्रकार के शब्द विज्ञान में व्याकरण शास्त्र के अन्तर्गत ही शब्दार्थ विज्ञान को समाहित किया जाता है, जिसे हम कोशविज्ञान (Lexicology) कहते हैं। वस्तुतः कोश और कोशविज्ञान दोनों में मौलिक अन्तर है। कोश शब्दों का ऐसा संग्रह है जो कि विभिन्न दृष्टियों से शब्दों की जानकारी देने हेतु कोश निर्माण के सिद्धांतो के आधार पर तैयार किया जाता है इसलिए कोश को साधारण भाषा में Lexicography कहते हैं। 'कोष' एवं 'कोश' का अर्थ है - संग्रह। 'कोष' में द्रव्य तथा 'कोश' में शब्दों का संग्रह किया जाता है। कोश की उपलब्ध परिभाषाओं के आधार पर कोश-संकल्पना के मूल घटक हैं- (क) शब्द और (ख) अर्थ । भगवतीप्रसाद निदारिया के अनुसार 'कोश' ऐसा संदर्भ ग्रंथ होता है, जिसमें प्रयोक्ता की अपेक्षाओं के अनुसार शब्द/प्रविष्टि आर्थी संदर्भ/विवेचन क्रमबद्ध, सरल व सामासिक ढंग से प्रस्तुत किये गये हों। यथावश्यक चित्र आदि की मदद से कोश में शब्द/प्रविष्टि को स्पष्ट किया जाता हैं। कोश की परिभाषा: सी.सी. वर्ग के अनुसार "कोश उन समाजीकृत भाषिक रुपों की व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध सूची है जो किसी भाषा-भाषी समुदाय के वाग्व्यवहार से संग्रह किये गये हैं, और जिनकी व्याख्या कोशकार द्वारा इस प्रकार की गयी हो कि योग्य पाठक प्रत्येक रुप का स्वतंत्र अर्थ समझ सके तथा उस भाषिक रुप के सामूहिक प्रकार्य के समस्त तथ्यों से अवगत हो सके।" अर्थ के प्रकार:श्री कृष्णकुमार गोस्वामी के अनुसार अर्थ के सात प्रकार हैं - (क) बोधात्मक (ख) व्याकरणिक (ग) संरचनात्मक (घ) सामाजिक (ड) लक्षणापरक (च) शैलीपरक और (छ) क्षेत्रीय अर्थ । श्री ललितमोहन बहुगुणा के अनुसार हमें 'कोश' से मोटे तौर पर दो प्रकार की जानकारी मिलती है - (1) रुप परक (2) (1) व्यक्ति कोश (2) पुस्तक कोश (3) भाषा कोश । (1) व्यक्ति कोश - किसी एक व्यक्तिद्वारा प्रयुक्त शब्दों का कोश व्यक्ति कोश कहलाता है। शेक्सपियर, मिल्टन, तुलसीदास आदि के कोश इसी प्रकार के कोश हैं। (2) पुस्तक कोश - जब केवल एक पुस्तक में प्रयुक्त शब्दों का कोश बनाया जाये उसे पुस्तक कोश कहते हैं। जैसे, बाईबल कोश, कुरान कोश, मानस कोश (रामचरित मानस कोश आदि)। (3) भाषा कोश- इस तरह के कोशों में एक भाषिक कोश, द्विभाषिक कोश और बहुभाषिक कोशों का समावेश होता हैं। (क) एकभाषा कोश :- एकभाषा कोश में जिस भाषा का शब्द होता है उसी भाषा में उसका अर्थ होता है। संस्कृत पर्याय कोश इसी प्रकार के कोश हैं। (ख) द्विभाषिक कोश :- एक से अधिक भाषाओं के शब्दों के माध्यम से लिखे गये कोशों को बहुभाषा कोश कहते हैं। जैसे - संस्कृत-हिन्दी कोश, अंग्रेजी-हिन्दी कोश इत्यादी। (ग) बहुभाषिक कोश :- ये कोश दो या अधिक भाषाओं के हो सकते हैं। बहुभाषा कोश में अनेक प्रकार के कोशों का समावेश 1. भाषा विज्ञान : शब्द विज्ञान : कोश विज्ञान पृ. 389 -डो. भोलानाथ तिवारी भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र, पृ. 19, - डो. कपिलदेव द्विवेदी; साधुत्वज्ञानविषय सैषा व्याकरणस्मृतिः। -वाक्यपदीय 1/42 देखें, भाषा विज्ञान, प्रवेश, भौतिकविज्ञान, पृ. 35 -डो. भोलानाथ तिवारी 4. भाषा विज्ञान : शब्द विज्ञान पृ. 389, - डो. भोलानाथ तिवारी अनुवाद त्रैमासिकः कोश संकल्पना - भगवती प्रसाद निदारिया सी.सी. वर्ग की परिभाषा - अनुवाद त्रैमासिक : कोश निर्माण प्रक्रिया और अनुवाद में कृष्णकुमार गोस्वामी द्वारा उद्धृत अनुवाद त्रैमासिक : कोश निर्माण प्रक्रिया और अनुवाद कृष्णकुमार गोस्वामी अनुवाद त्रैमासिक : अनुवाद और कोश - ललितमोहन बहुगुणा 7. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [54]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन किया जा सकता है। जैसे - वर्णनात्मक कोश, तुलनात्मक कोश प्रयोगसिद्धि स्पष्ट करने के लिए संस्कृत व्याकरण एवं प्राकृत व्याकरण और ऐतिहासिक कोश इत्यादि । के सूत्रों एवं विधानों का निर्देश किया गया है। शब्दस्वरुप व्याकृत शब्दकोश एवं ज्ञानकोश में मौलिक अन्तर: करने के बाद शब्द के अर्थो का संकेत क्रमश: किया गया है। एक जिस संग्रह में शब्दों के अर्थ, पर्याय, व्याख्याएँ आदि होते शब्द के अनेक अर्थ होने पर, वहाँ पर शब्द के अर्थो को क्रम से हैं उन्हें शब्दकोश कहते हैं, और जिस कोश में किसी शब्द के दिया गया है। अर्थ की प्रामाणिकता हेतु अन्य कोशों का संकेत संबंध की विशेष ज्ञातव्य बातें विस्तारसे दी जाती हैं या विषयवार भी किया गया है। उनका विस्तृत विवेचन होता है, उन्हें ज्ञान कोश अथवा विश्वकोश शब्द का समान्य परिचय देने के बाद उससे संबद्ध विशेष कहते हैं ।। जानकारी दी गयी है। और उससे संबद्ध विषय का पूरा विवेचन अभिधान राजेन्द्र : विश्वकोश: वहाँ प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न ग्रंथों के विभिन्न उद्धरणों को ऊपर कोशसाहित्य का वर्गीकरण करते हुए कोशों के प्रकारों आवश्यकतानुसार उद्धृत किया गया है, जिन पर कोशकारने का वर्गीकरण किया गया हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश-निर्माण का आवश्यकतानुसार स्वयं भी प्रकाश डाला है।। उद्देश्य यह था कि जैन आगमों में प्रयुक्त प्राकृत-अर्धमागधी भाषा इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश प्राकत के, विशेष के शब्दों का ससंदर्भ विस्तार सहित सही अर्थ दिया जा सके। तया जैनागमों से संबद्ध अर्ध-मागधी के सभी शब्दों के विभिन्न तदनुरुप ही अभिधान राजेन्द्र कोश में दिये गये शब्दों का वर्णन प्रयोग बतलाते हुए उनकी व्याख्याएँ प्रस्तुत करता है और आवश्यक करते हुए सबसे पहले प्राकृत शब्द, तत्पश्चात् उसकी संस्कृत छाया जानकारी को विस्तार से विषयवार प्रस्तुत करता है इसलिए यह दी गयी है, संस्कृत छाया देने से ऊस शब्द की व्युत्पत्ति और प्राकृत एक ज्ञानकोश अर्थात् विश्वकोश की श्रेणी में आता हैं। रुप-सिद्धि का कार्य पूरा हो जाता है। संस्कृत छाया के बाद व्याकरणिक 10. शब्द विज्ञान : कोश विज्ञान - भाषा विज्ञान, पृ. 389, 390, 391 कोटियों में शब्द के लिङ्ग, वचन इत्यादि का निर्देश किया गया 11. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3, पृ. 221 नागरी प्रचारिणी सभा, काशी हैं। जहाँ आवश्यक समझा गया है वहाँ पर शब्दसिद्धि । रुपसिद्धि । 12. अभिधान राजेन्द्र कोश, प्रथम भाग, प्रथमावृत्ति प्रस्तावना ['मुणि-पसत्थ दमसासणो') पञ्चमहव्वयजुत्तो, पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तोअ। सब्भितरबाहिरिए, तवोकम्मंमि अज्जुओ॥ निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो। समो असव्वभूएसु, तसेसुथावरेसुअ॥2॥ लाभालाभे सुहेदुक्खे,जीविए मरणे तहा। समोनिंदापसंसासु, तहा माणावमाणओB॥ गारवेसुकसाएसु, दंडसल्लभएसुअ। नियत्तोहाससोगाओ,अनियाणो अबंधणो॥4॥ अणिस्सिओ इहलोए, परलोए अणिस्सिओ। वासीचंदणकप्पोअ,असणेऽणसणेतहा॥5॥ अप्पसत्थेहिँदारहिं,सव्वओपिहियासवो। अज्झप्पझाणजोगेहि,पसत्थदमसासणो॥6॥ - अ.रा.पृ. 6/300 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [55] | 3. अभिधान राजेन्द्र कोश की उपादेयता 'सभी जीवों का कल्याण हो' -इस व्यवहारिक उद्देश्य को लक्ष्य में लेकर तीव्र, मध्यम और मंद बुद्धिवालों को तत्त्व का ज्ञान सरलता से हो सके, इस लिए तीर्थंकरों के उपदेश अर्धमागधी भाषा में हुए। लोग उन अर्थो को ग्रहण करते रहे और अपना कल्याण करते रहे। चतुर्थ काल तक (चौथे आरे तक) आचार्यों की ग्रहणशक्ति अप्रतिम थी, इससे वे गुरु परम्परा से आगमों को ग्रहण करते और जनता को उनकी भाषा में उपदेश करते । ग्रहण और धारणशक्ति की मंदता से आगमों के रक्षण हेतु समस्त जैन श्रुत को प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध किया। प्राकृत भाषा के इन ग्रंथों का विस्तार एवं अर्थ करने के लिये मूल सूत्रों के ऊपर नियुक्तियाँ, भाष्य, चूर्णि और टीकाएँ लिखी गयीं। कालान्तर में इन ग्रंथों का भी अर्थ समझना कठिन हो गया और शब्द का वाच्य-वाचक संबंध ज्ञात न रहने के कारण सप्रसंग अर्थ करना कठिन हो गया। इस कारण से भिन्न-भिन्न कोशकारोंने प्राकृत भाषा के एवं संस्कृत भाषा के कोश ग्रंथ लिखे। परंतु यह पुरा ज्ञान कोशमात्र में ही सीमित रह गया और लोगों को प्राकृत भाषा का अर्थ समझ में न आने से भिन्न-भिन्न अर्थ किये जाने लगे। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो गया कि जैन आगम साहित्य के सभी प्राकृत शब्दों की सप्रसंग एवं ससंदर्भ व्याख्या की जाये और यह व्याख्या कालान्तर तक दूसरों को यथावत् प्राप्त होती रहे, इसलिए अभिधान राजेन्द्र कोश जैसे विशालकाय व्याख्या कोश का जन्म हुआ। यह बात 'अभिधान राजेन्द्र कोश लेखनः पृष्ठभूमि' में विस्तार से बतायी जायेगी। इस महाकोश की उपादेयता अन्य कोशों की अपेक्षा बढ़ जाती है, क्योंकि इसमें जैनागम साहित्य के समस्त प्राकृत शब्दों को अनेक प्रकार से विशिष्ट बनाया गया है। जैसे - प्राकृत के समानान्तर उसका संस्कृत शब्द, प्राकृत शब्द की व्याकरणिक कोटियाँ-लिङ्ग, पुरुष, वचन आदि, एवं व्युत्पत्ति आदि, भिन्न-भिन्न वाच्यार्थ एवं उन अर्थो में प्रयुक्त उस शब्द का प्रयोग किस ग्रंथ में हुआ है, यह संदर्भप्रसंग के साथ स्पष्ट किया गया है, और उपलब्ध मूल सूत्र भी वहीं पर दे दिया गया है, जिससे शब्द का वाच्यार्थ हस्तामलकवत् स्पष्ट हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति किसी संस्कृत शब्द का अर्थ नहीं जानता है और प्राकृत के ध्वनि परिवर्तन के नियमों को थोडा भी जानता है तो वह संस्कृत शब्द का अर्थ इस 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में पा सकता है। उदाहरण के लिये यदि कोई 'पदार्थ' शब्द का अर्थ सस्कृत कोशों से जानकार संतुष्ट नहीं है और वह ध्वनि परिवर्तन के नियमों को जानता है तो वह अभिधान राजेन्द्र कोश में 'पयत्थ' शब्द के अन्तर्गत 'पदार्थ' शब्द की पूरी व्याख्या समझ सकता हैं। यह ग्रंथ मात्र जैन साहित्य संबंधी व्याख्याएँ ही प्रस्तुत नहीं करता, अपितु सभी दर्शनों, व्याकरण, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, गणित, शिल्प, इतिहास, इत्यादि उस समय तक विकसित सभी विद्याओं से संबंधित शब्दोंकी सटीक व्याख्या प्रस्तुत करता है। इससे इस ग्रंथ की उपादेयता सभी साहित्यप्रेमियों के लिये बढ जाती है। जैनाचार संबंधी शब्दों का तो अत्यन्त सूक्ष्म विवरण प्राप्त होता दर्शन के अध्येता विदेशी विद्वानों को उनकी भाषा में शब्द का अर्थ समझाने से संतुष्टि नहीं मिलती। वे शब्द के मूल रुप, व्युत्पत्ति, प्रयोग एवं उससे संबंधित साहित्य को भी समझना चाहते हैं; और ऐसे में यदि एक-एक ग्रंथ को पढा जाये तो शब्दार्थ की प्रतीति होना सीमित हो जायेगा। इस कमी को दूर करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय यह कोश ग्रंथ है। इस कोश ग्रंथ को देखकर कोई भी नातिसंक्षेपविस्तार से किसी भी शब्द को उसके मूल रुप में समझ सकता है। यदि इसकी उपयोगिता के बारे में भिन्न-भिन्न मनीषियों के विचारों को सुना जाय तो हमें इसकी उपयोगिता का सहज ही अनुमान हो सकता है। साथ ही जो शोध आदि गतिविधियों से सीधे जुड़े हुए हैं वे इसकी उपादेयता का प्रत्यक्ष अनुभव भी कर सकते हैं। आगे के उपशीर्षकों में भिन्न-भिन्न मनीषियों द्वारा व्यक्त विचारों को प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे इस ग्रंथ की उपादेयता का अनुमान किया जा सकता है। 1. प्रस्तावना, समराइच्चकहा - श्रीमद् हरिभद्रसूरि 2. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ-विश्लेषण पृ. 31 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ y. [56]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन क अभिधान राजेन्द्र कोश पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में: After 5 years of Abhidhan Rajendra's continuous perusal, I can affirm that no real Indologist can dispense with a copy of this wonderful work. In its special compass, it surpasses even that jewel of lexicography, the Petersburg Dictionary, here we have not only a complete register of words warranted by references and quotations, but a full survey of thoughts, beliefs, legends lying beyond the words whatever is the matter I happen to deals with I begin with consulting my Rajendra & I never fail to get some useful information, shall ever have any thing alive in the field of Brahmanism and Buddhism -Prof Sylvain Levi (University of Paris) I greatly admire all the work of the Late Rajendra Suri, in Particular his Lexicographical achievement in the "Abhidhana Rajendra Kosha". - R.L Turner His 'Abhidhan Rajendra Kosha' on ourselves is a standing monument of his scholarship and dynamic literary activity. - P.K. Gode I wish to say emphatically that in the field of Jainism, no scholar can dispense of consulting the Suri's most valuable magnum opus, the 'Abidhan Rajendra', as the big work was called very appropriately. -Walther Schubring (Hamburg) यह विश्व कोश एक संदर्भ-ग्रंथ की तरह तथा जैन-प्राकृत के अध्ययन के निमित्त अतीव मूल्यवान है। - जार्ज ए गियर्सन ख. अभिधान राजेन्द्र कोश : भारतीय विद्वानों की दृष्टि में: जब विद्यालयों में अच्छे अध्ययन-अध्यापन के लिए 'गोम्मटसार' जैसे पारिभाषिक लाक्षणिक ग्रंथों को चुना जाता है तब इस प्रकार के कोशों की आवश्यकता अधिक अनुभव होती है। बहुतेरे जैन-पारिभाषिक शब्दों के उद्धरण तथा व्याख्याओं के खोजने में रतलाम से प्रकाशित, सात भागों में विभाजित राजेन्द्रसूरि का 'अभिधान राजेन्द्र कोश' उपयोगी सिद्ध हुआ है। डो. हीरालाल जैन, विश्वविद्यालय, नागपुर संपादक - धवन, जयधवल, महाधवल अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रणेता श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने स्वयं ही अपना मार्ग प्रशस्त किया और दूसरों के पथदर्शक बनें। उनका चारित्रिक बल, उनकी विद्वता और निर्भीकता सराहनीय है। उनके विरचित ग्रंथ उनके स्मारक हैं -साहित्यकार बाबू गुलाबराय, एम.ए., संपादक - साहित्य संदेश मेरी राय में 'अभिधान राजेन्द्र' एक विशाल ग्रंथ है जो भारतीय उद्यम और विद्वता का मस्तक ऊंचा करता है। - प्रो. सिद्धेश्वर वर्मा आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी को प्राकृत-संस्कृत आदि भाषाओं का और व्याकरण, शब्द-शास्त्र व सिद्धांत आदि अनेक विषयों पर उनका गंभीर ज्ञान था। तभी तो वे 'अभिधान राजेन्द्र' जैसे महान ग्रंथ का निर्माण कर पाये, जो उन्हें अमर बनाने के लिये पर्याप्त है। -अगरचंद नाहटा मेरे धर्ममित्र श्री प्राग्वाट स्वामी के पास 'अभिधान राजेन्द्र' के विशद सात भाग देखकर भारतीय ज्ञान गाम्भीर्य के विद्योदधि श्री राजेन्द्रसूरि जी की इस चमत्कारपूर्ण अद्वितीय सृजन-क्षमता के प्रति सहज ही नतमस्तक हो गया हूँ। - चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य अभिधान राजेन्द्र कोश के विभिन्न भागों के विहंगावलोकन मात्र से पाठक को जैन धर्म और दर्शन के अपरिहार्य तथ्यों की जानकारी हो जाती है। - के.ए. धरणैन्दैया राजेन्द्रसूरि द्वारा इतने बड़े ग्रंथ की रचना उनकी तपस्या का ही परिणाम है। तपस्या से ही ज्ञान और तेज का प्रकाश होता है। यह तपस्या हमारे जीवन का अंग बने इसलिए कोश का अध्ययन करें। ___ -श्री वीरेन्द्रदत्त ज्ञानी, न्यायमूर्ति, हाइकोर्ट (इन्दौर) ज्ञान का सूरज हर अंधेरे में उजाला करता है। यह कालजयी ग्रंथ है। आगम धर्म मीमांसा की व्याख्या जो राजेन्द्र कोश में है, अन्य कहीं नहीं है। विसंगतियों को सुलझाने का यह अमृतकोश है। ___ -श्री मुरारीलाल तिवारी (विशेष अतिथि : द्वितीयावृत्ति लोकार्पण समारोह, इन्दौर) अभिधान राजेन्द्र कोश लगभग एक हजार पृष्ठों के प्रत्येक ऐसे सात भागों में प्रकाशित है, जिसमें अकारादि क्रम में प्राकृत शब्दों के संस्कृत अर्थ-व्युत्पत्ति-लिङ्ग और ससंदर्भ अर्थ, जैन आगम व अन्य ग्रंथों में उपलब्ध सभी के विभिन्न संदर्भो की सामग्री से युक्त इस ग्रंथराज को प्रमाणिक करने का महाभारत प्रयत्न किया गया है। जैनागमों का एसा कोई विषय नहीं है जो इस कोश में प्राप्त नहीं। -जैन साहित्यनो इतिहास Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [57] _शब्दकोशों की परम्परा में अभिधान राजेन्द्र यथार्थ में एक विशिष्ट उपलब्धि है। श्रीमद् की साधना का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। जब इस कोश का पहला अक्षर लिखा गय तब वे 63 (तिरसठ) साल के थे। सात भागों में तथा 10566 पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोश के समान है जिसमें जिनागमों तथा विभिन्न दार्शनिक ग्रंथों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया है। __-वसंतीलाल जैन, पुणे (महाराष्ट्र) अभिधान राजेन्द्र कोश जैसे अतिविशाल ग्रंथरत्न की रचना उनके सम्यग्ज्ञान के सर्वांगी समर्पण की साहसिक निष्पत्ति है। अन्यथा असंभव सा यह कार्य उनसे होता ही नहीं। अभिधान राजेन्द्र कोश सामान्य कोश नहीं है किन्तु शास्त्र-वचनों की समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थघटन का सर्वश्रेष्ठ सहायक माध्यम है। _ - रमेश आर. झवेरी विश्व पूज्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. साहित्याकाश में एक सूर्य समान उदित हुए, जिन्होंने अपनी ज्ञान ज्योति का प्रकाश संपूर्ण ज्ञान जगत में फैलाया। संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी एवं अन्य भाषाओं के साहित्य को समृद्ध बनाया। राजेन्द्रकोश' रचना एक अक्षय विशाल ज्ञानसागर है एवं यह युगों-युगों तक साहित्य निर्माण में मार्गदर्शन करता रहेगा। __-पं हीरालाल शास्त्री (एम.ए.), निवर्तमान संस्कृत व्याख्याता, शिक्षा सेवा, राजस्थान ज्योतिष सेवा, राजेन्द्रनगर, जालोर (राजस्थान) तपः साधना और ज्ञानमीमांसा से परमपूत जैनधर्माचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का राजेन्द्र कोश इनकी अक्षय शब्द मंजूषा है, जो शब्द यहाँ नहीं है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है। - पं. जयानंद झा, उघ-12 मधुवन हा.बो. बासनी, जोधपुर (राजस्थान) भारतीय वाङ्मय में 'अभिधान राजेन्द्र कोश' एक अद्वितीय, विलक्षण और विराट् कीर्तिमान है जिसमें संस्कृत, प्राकृत, एवं अर्धमागधी की त्रिवेणी भाषाओं और उन भाषाओं में प्राप्त विविध परम्पराओं की सक्तियों की सरल और साड़गोपांग व्याख्याएँ है और दार्शनिक संदर्भो की अक्षय सम्पदा है। लगभग 60 हजार शब्दों की व्याख्याओं एवं साढे चार लाख श्लोकों के ऐश्वर्य से महिमामंडित यह ग्रंथ जैन परम्परा एवं समग्र भारतीय विद्या का अपूर्व भण्डार हैं। -डो. लक्ष्मीमल सिंधवी, भूतपूर्व भारत-ब्रिटेन राजदत, नई दिल्ली जब परम त्यागी, आदर्श संयमी, सुदृढ महाव्रती, प्रकाण्ड विद्वान राजेन्द्रसूरि अपने मानवीय जीवन के साठ से भी अधिक वसंत देख चुके तब उन्होंने 14 वर्षों में अभिधान राजेन्द्र कोश का निर्माण किया। जिसके संदर्भ में 97 ग्रंथों के प्रासंगिक सार का संचयन किया। अभिधान राजेन्द्र कोश विश्व-साहित्य की वह अमूल्य निधि है जिसकी समानता अन्य कोश आज तक नहीं कर सका। इसने अपनी उपस्थिति से विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को केवल गौरव-गरिमा ही नहीं दी बल्कि शताधिक शास्त्र अनुसंधान कर्ताओ को शोध-बोध की दिशा में आशातीत मार्गदर्शन दिया। अर्ध-मागधी भाषा को पुनरुज्जीवित करने का श्रेय इस कोश को हैं। इसने अपने आकार, प्रकार-भार से बतला दिया कि शब्दकोशों की श्रृंखला में इसकी एक अपनी ही मौलिक उपलब्धि है, जो कोश-माला में सुमेरु है। इसकी विराटता और व्यापकता, धर्म और सभा की समन्वयात्मकता, अनुभवगम्य होकर अवर्णनीय बनी है। यह जैनागमों के साथ अन्य दार्शनिक ग्रंथों के उद्धरणों को भी आत्मसात् किए हैं। इसमें व्याख्या-भाग पर्याप्त है। कई शब्दों की व्यवस्था के संदर्भ में शताधिक कथानक भी संग्रहीत हो कोश की नीरसता की इतिश्री कर कोश के प्रति आकर्षण की अभिरुचि को बढा रहे हैं। इसमें शब्दों की जो निरुक्ति दी गयी है, उससे भाषा के भण्डार को समझने व सहेजने में सुविधा होती है। यह शब्द कोश शब्द संग्रह नहीं है, बल्कि इस शब्द कोश में ऐसे शब्दों की प्रचुरता है जिससे धर्म और दर्शन की अनुभूति में अभिवृद्धि होती है और शब्दों का जीवन सुदूरगामी सहस्रशताब्दियों जैसा विदित होता है। मागधी भाषा के अनुक्रम से शब्दों पर विषयों का विस्तृत विवरण इस कोश में उपलब्ध है।.... अपने शिखरस्थ अनुभव-अभ्यास का परिचय उन्होंने कोश में दिया।....अभिधान राजेन्द्र कोश निर्मित कर अपनी वीतरागता और अनासक्ति की जो अभिव्यक्ति की, उसे विश्व के सभी विद्वानों ने शिरोधार्य किया। -श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' एम.ए., शाश्वत धर्म - अ.रा. विशेषांक फरवरी - 1990 पृ. 24 राजेन्द्र कोश जब जेवर बेचकर खरीदा.... प्राकृत शौरसेनी भाषा के अधिकारी विद्वान् पं. हीरालालजी घोर विद्याव्यसनी थे। उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर थी। जैन पं. के वेतन से तब रोटी खर्च ही चलता था। तभी पण्डित जी को पता चला कि सात भागों में बृहत्प्राकृत कोश 'अभिधान राजेन्द्र कोश' नाम से प्रकाशित हुआ है। पण्डितजी की प्रबल इच्छा थी कि यह कोश किसी प्रकार सुलभ हो जाये। उन्होंने अल्प वेतन में से थोडाथोड़ा पैसा जोडा था परन्तु इतने से तो कोश का एक भाग भी नहीं खरीदा जा सकता था। वे जिस संस्था में कार्य करते थे उसके मंत्री से कोश खरीदने के लिए निवेदन किया परन्तु मन्त्री को कोश का इतनी भारी व्यय फिजूल लगा। पण्डित जी निराश हुए लेकिन शब्दकोश लेने का निर्णय कर लिया और अपनी पत्नी के गले, हाथ, पैरों के जेवर बेचकर कोश के सातों भाग एक साथ खरीद लिये। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [58]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन इससे पता चलता है कि साहित्यप्रेमियों के हृदय में अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रति कितनी अगाध श्रद्धा और प्रेम रहा है। -ले. श्री केवलकृष्ण पाठक, (शाश्वतधर्म मासिक, अंक अगस्त 1995, पृ. 43 से उद्धृत) अभिधान राजेन्द्र कोश आधुनिक कोशों की महत्त्वपूर्ण कडी है। जैन पारिभाषिक कोश की दृष्टि से यह प्रथम प्राकृत मानक कोश कहा जा सकता है। उस समय अल्प साधनों के बावजूद आचार्यश्री और उनके संघ ने इतना बडा अभूतपूर्व कोश-ग्रंथ तैयार कर दिया - यह आश्चर्य का विषय है। __- डो. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' ग. अभिधान राजेन्द्र कोश : शोध अध्येताओं की दृष्टि में: यह कोश सब के लिए कुछ न कुछ देने में समर्थ है जिससे अनायास ही सुज्ञों के हृदय की भावनाएँ शब्द बन कर अभिधानराजेन्द्र की प्रशंसा किये विना नहीं रह पाती। यहां कुछ शोधाध्येताओं की भावनाओं को उद्धृत किया जा रहा है मैं जब आचार्य हेमचन्द्र सूरि के साहित्य पर आधारित अपने शोध-प्रबन्ध के सन्दर्भ-संकलन कार्य में संलग्न था, तब गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में मेरी दृष्टि में विशालकाय अभिधान राजेन्द्र आया। इससे दो पांच वर्ष पूर्व मैं इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका का अवलोकन कर चुका था, इससे मैं यह समझ सकता था कि कोश और विश्वकोश में क्या अन्तर हैं और विश्वकोश का शोधप्रबन्ध से क्या सम्बन्ध है। मेरी दृष्टि में अभिधानराजेन्द्र के आते ही मैंने अपने स्वभावके अनुसार प्रस्तावना से लेकर अन्त तक विहंगावलोकन किया। किन्तु सहसा विश्वास नहीं हुआ कि यह कृति एक व्यक्ति के परिश्रम से सम्भव हो सकती है। परन्तु जब आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि महाराज के ज्ञानगाम्भीर्य के बारे में जानकारी हुई तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। आचर्यश्री के जीवन के विषय में उपलब्ध परिचायक साहित्य से मैं पूरी तरह परिचित हुआ और मैंने अभिधान राजेन्द्र के समग्र परिचय की दृष्टि से इसका पुनः अवलोकन किया तो पाया कि न केवल यह जैन विद्या का कोष है अपितु व्याकरण, साहित्य दर्शन, आदि सभी प्राच्य विद्याओं का निधान है। आचार्यश्री के प्रामाणिक लेखन, स्वतन्त्र समीक्षा और सम्प्रदायेतर सहिष्णुत्व का जीता जागता प्रमाण अभिधान राजेन्द्र है। जैन सिद्धान्त के साथ तुलनात्मक प्राच्यविषयों पर शोध में प्रवृत्त होनेवालों के लिए मानों यह चिन्तामणि रत्न हैं। आचार्य हेमचन्द्रसूरि के बाद इस सहस्राब्दी में कलिकालसर्वज्ञत्व का यह दूसरा उदाहरण है। और निःसन्देह यह भारतीयों के लिए और जिनशासनानुयायियों के लिए गौरव का विषय है। -वैद्य गजेन्द्र कुमार जैन, व्याख्याता, शा. आयुर्वेद महाविद्यालय, इन्दौर विश्व-पूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी विरले सन्त थे। उनके जीवन-दर्शन से यह ज्ञात होता है कि वे लोक-मंगल के क्षीर-सागर थे। उनके प्रति मेरी श्रद्धा-भक्ति तब विशेष बढी, जब मैंने कलिकाल कलपतरु श्री वल्लभसूरिजी पर 'कलिकाल कल्पतरु' महाग्रंथ का प्रणयन किया, जो पीएचडी. उपाधि के लिए जोधपुर विश्वविद्यालय ने स्वीकृत किया। विश्व-पूज्य प्रणीत 'अभिधान राजेन्द्र कोश' से मुझे बहुत सहायता मिली। उनके पुनीत पद-पद्मों में कोटिश-वंदन । विश्व-पूज्य अर्धमागधी, प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं के अद्वितीय महापण्डित थे। उनकी अमरकृति 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में इन तीन भाषाओं के शब्दों की सारगर्भित और वैज्ञानिक व्याख्याएँ हैं। उदाहरण के लिए - जैन धर्म में 'नीवि' और 'गहुँली' शब्द प्रचलित हैं। इन शब्दों की व्याख्या मुझे कहीं नहीं मिली। इन शब्दों का समाधान इस कोश में है। 'नीवि' अर्थात् नियम पालन करते हुए विधिपूर्वक आहार लेना। 'गहुँली'-गुरु भगवन्तों के शुभागमन पर मार्ग में अक्षत का स्वस्तिक करके उनकी वधामणी करते हैं और गुरुवर के प्रवचन के पश्चात् गीत द्वारा (गहुँली द्वारा) गहुँली (गीत) गाई जाती है। इनकी व्युत्पत्ति व्याख्या 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में मिली। पुरातन काल में गेहुँ का स्वस्तिक करके गुरुजनों का सत्कार किया जाता था। कालान्तर में अक्षत का प्रचलन हो गया, इसलिए गुरु भगवंतों के सम्मान में गाया जाने वाला गीत भी गहुँली हो गया। स्वर्ण मोहरों या रत्नों से गहुँली क्यों न हो, वह गहुँली ही कही जाती है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से अनेक शब्द जिनवाणी की गंगोत्री में लुढक-लुढक कर, घिस-घिसकर शालीग्राम बन जाते हैं। विश्वपूज्य ने प्रत्येक शब्द के उद्गम-स्रोत की गहन व्याख्या की है अत: यह कोश वैज्ञानिक है, साहित्यकारों एवं कवियों के लिए रसात्मक है तथा जन-साधारण के लिए शिवप्रसाद है। यह कोश वज्रायुध के समान सत्य की रक्षा करने वाला और असत्य का विध्वंस करने वालाहै। यह ग्रंथ 'सत्यं-शिवं-सुन्दरं' की परमोज्जवल ज्योति सब युगों में यावच्चन्द्रदिवाकरौ जगमगाता रहेगा। यह कोश इतना लोकप्रिय है कि देश-विदेश के समस्त विश्वविद्यालयों, श्रेष्ठ महाविद्यालयों एवं शोध-संस्थानों में इसके सातों भाग उपलब्ध हैं। 15-1-1998 -डो जवाहरचन्द्र पाटनी, एम.ए., हिन्दी-अंग्रेजी, पी.एच.डी.गुरु सप्तमी श्री पार्श्वनाथ उम्मेद कालेज, फालना ( राजस्थान) 'विश्व पूज्य' पृ. 18 से 20 से उद्धृत For Private & Personal use only / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन घ. अभिधान राजेन्द्र कोश : सन्तों की दृष्टि में: राजेन्द्र कोश एक अक्षयनिधि है। संसार का एक अनुपम तथा अनूठा साहित्यिक ग्रंथ है। जैन धर्म या दर्शन विषयक किसी भी अनुसंधान के निमित्त 'अभिधान राजेन्द्र' एक अनिवार्यता है । - भट्टारक देवेन्द्रकीति एवं चारुकीर्ति जैन संस्कृति के आधार ग्रंथ आगम हैं, बौद्ध संस्कृति के त्रिपिटक एवं वैदिक संस्कृति के आधार ग्रंथ वेद हैं। प्रस्तुत 'अभिधान राजेन्द्र कोश' नामक महाग्रंथ आगम ग्रंथों को आधार मानकर ही बनाया गया है। आगमों के साथ-साथ इस कोश में नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका आदि व्याख्या ग्रंथ भी ले लिये गये हैं। कहना चाहिए, समग्र जैन संस्कृति और जैन वाङ्मय को बृहदाकार सात मंजूषाओं में सुरक्षित कर दिया गया हैं । ...विश्व भाषाओं में भारोपीय परिवार में प्राकृत भाषा की पारिवारिक भाषा ही मागधी है, जिस पर कि 'अभिधान राजेन्द्र' महाकोश बना है। मागधी प्राचीन युग में मात्र लोकभाषा थी, पर सांस्कृतिक एवं दार्शनिक गौरव पा गयी; क्योंकि भगवान महावीर उस भाषा में बोले । मानना चाहिए कि जैन संस्कृति और मागधी एक-दूसरे की पर्याय बन गयी हैं। इस दृष्टि से अभिधान राजेन्द्र महाकोश कितना महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है जो कि जैन संस्कृति एवं मागधी को एक साथ संजोये चल रहा है। प्रस्तुत कोश में तथारूप समग्र सामग्री संयोजित हो गयी है अतः यह महाग्रंथ एक डिक्शनरी एक कोश ही न रहकर अपने आप में एक अनुपम एवं व्यापक विषय-परक विश्वकोश बन गया है, अर्थात् जैन इन्साइक्लोपीडिया ।..... जिस युग में इसका सृजन हुआ था...... जिसमें इतना बृहद् व मौलिक कार्य महान आचार्य विजय राजेन्द्रसूरि ही कर पाये और उस विधा में आज तक और कोई अन्य आचार्य ऐसा नहीं कर पाया। वे तथा उनके सहयोगी शिष्य युग-युगांतर तक अविस्मरणीय एवं वंदनीय रहेंगें । द्वितीय परिच्छेद ... [59] - मुनिश्री नगराजजी (डी.लीट्) यदि कोई मुझसे पूछे कि जैन साहित्य क्षेत्र में बीसवीं सदी में असाधारण घटना कौन-सी घटी ? तो मैं यही कहूँगा कि वह असाधारण घटना है - 'अभिधान राजेन्द्र' की रचना और उसका प्रकाशन'। महापरिश्रम और महा अर्थसाध्य रचना है यह । आज तो उनकी आकृति अन्तर्देशीय के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय ग्रंथागारों को भी अलंकृत कर रही है। एक ही विषय के बारे में आगमिक और शास्त्रीय जानकारी एक ही स्थान पर विभिन्न रूपों में सरलता और शीघ्रता से प्राप्त करना हो तो एकमात्र इस कोश द्वारा ही वह प्राप्त हो सकती है । इस अनुकूलता के कारण अनेक विद्वान संशोधक इस ग्रंथ से विपुल लाभ उठा रहे हैं। यह ग्रंथ जैनागम कोश स्वरुप है और इसमें समस्त आगमों का व्यवस्थित रुप से संकलन किया है। वर्तमान में अपने विराट प्रयत्न द्वारा अभूतपूर्व सिद्धि संपादन करने का मान जैन साहित्य क्षेत्र में सचमुच आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी ही अपने हक में ले गये, यह कहे बिना रहा नहीं जाता। वे जैन संघ के लिए युग-युग तक अविस्मरणीय भेंट प्रदान कर गये हैं। - - आचार्य यशोदेवसूरि अभिधान राजेन्द्र कोश का निर्माण करके सूरि प्रवर श्री राजेन्द्रसूरि महाराज ने जैन वाङ्मय की उत्कृष्टता एवं गहराई का नाप निकालने के लिये यह एक अति आयत गज ही तैयार किया है। प्राकृत ग्रंथों का अध्ययन करनेवालों के लिए और खासकर जब प्राकृत भाषा का संबंध सहवास, परिचय और गहरा अध्ययन धीरेधीरे घटता - घटता खंडित होता चला हो, तब प्राकृत भाषा के विस्तृत एवं व्यवस्थित शब्दकोश की नितान्त आवश्यकता थी। ऐसे ही युग में श्री राजेन्द्रसूरि महाराज के हृदय में ऐसे विश्वकोश की रचना का जीवन्त संकल्प हुआ। यह उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा एवं उनके युगपुरुषत्व का एक अनूठा प्रतीक हैं। प्राकृत भाषा में पाइयसद्दमहण्णव, जिनागमशब्दकोश, अल्पपरिचित सैद्धांतिक शब्दकोश, आदि अनेक कोशग्रंथ 'अभिधान राजेन्द्र' के पश्चात् तैयार किये गये, किन्तु इन सब के निर्माण में बीजरूप आदिकरण तो श्री राजेन्द्रसूरि महाराज एवं उनके द्वारा निर्मित 'अभिधान राजेन्द्र कोश' ही है। संभव है कि भविष्य में और भी प्राकृत भाषा के विविध कोशों का निर्माण होता रहे, फिर भी 'अभिधान राजेन्द्रकोश' की महत्ता, व्यापकता एवं उपयोगिता कभी घटने वाली नहीं है, ऐसी ही इस कोश की रचना है। आज के जैन- अजैन, पाश्चात्य - पौर्वात्य विद्वानों के लिए भी यह कोश सिर्फ महत्त्व का शब्दकोश मात्र नहीं, किन्तु महत्त्वपूर्ण महाशास्त्र बन गया है। आगमसेवी मुनिश्री पुण्यविजयजी म. વિશ્વવિખ્યાત ‘શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ' સંસારમાં પ્રાપ્ત થતાં કોશો માં વિશેષ મહત્ત્વનો તેમજ અતિવિરાટ કોશ માનવામાં આવે છે વિષયની રીતે તેને પ્રાકૃત, અર્ધમાગધી શબ્દોનો એક મહાસાગર કહેવામાં આવે તો પણ અતિશયોક્તિ નથી. આ કોશની અંદર શબ્દોની વ્યુત્પત્તિ, તદ્વિષયક કલિકાલ સર્વજ્ઞ પૂજ્યપાદ શ્રીમદ્ હેમચન્દ્રાચાર્ય રચિત ‘‘શ્રી સિદ્ધહેમ’’ જૈન વ્યાકરણના આઠમા પ્રાકૃત વિષયક અધ્યાયનું યથાયસ્થાન પુરું દિગ્દર્શન કરાવવામાં આવ્યું છે અને એ પ્રાકૃત શબ્દોને પણ નિયમાનુસાર વ્યાકરણ સૂત્રો દ્વારા સિદ્ધ કરવાનો ઠેર ઠેર નિર્દેશ પ્રયાસ કરવામાં આવ્યો છે જૈનાગમોના પઠનપાઠનમાં તો આ કોશની મહતી ઉપયોગિતા છે. પ્રત્યેક શબ્દ ઉપર તે તે પાઠોમાં પ્રમાણો આપીને તેને લગતી અધ્યયનની પૂરી સામગ્રી સંગ્રહીત કરીને જિજ્ઞાસુઓની સર્વ આકાંક્ષાઓની પૂર્તિ કરવામાં આવી છે. - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [60]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन આ કોશ સાત ભાગોમાં વિભક્ત છે એનું દળ એટલું તો ભારે છે કે એક વ્યક્તિ તેનું વજન ઉંચકી પણ ન શકે બીજું, એમાં માત્રા ક્રમથી અકારાદિ શબ્દોનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે પ્રસ્તુત કોશનું નામ પણ ‘યથાનામ તથાગુણ’ અનુસાર અભિધાન - નામોનો રાજા અને તેમનો પણ ઈન્દ્ર - સર્વોપરિ, આ નામ વાસ્તવમાં સાર્થક લાગે છે. આ કોશના નિર્માતા વીસમી સદીના મહાન પ્રભાવક, સર્વતન્ત્ર-સકલાગમ પારદર્શી, વિશ્વવન્ધ જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્વિજય રાજન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મહારાજ છે. તેમણે તેમની અદ્ભૂત રચનાથી વિશ્વના સર્વ વિદ્વાનોને માત્ર મુગ્ધ જ નથી કર્યા, પરન્તુ ભારે આશ્ચર્યમાં નાખી દીધા છે રચયિતાની અલૌકિક શક્તિ અને વિદ્વત્તાની યશોગાથા સાહિત્યક્ષેત્રે વિશ્વમાં સદાને માટે અમર બનીને નવસર્જનના માર્ગમાં અક્ષુણ્ણ શક્તિ અને સ્ફૂર્તિ પ્રદાન કરતી રહેશે. -મુનિ કલ્યાણવિજય ( राधेन्द्रोशमां : डिथित वस्तव्यमांथी उद्धरित ) अभिधान राजेन्द्र कोश में जैसी गहराई है वैसी व्यापकता भी है। यह कोश मानवीय प्रतिभा का चमत्कार है। यह कोश समूची भारतीय संस्कृति का दर्शन है। 1. सम्यक् चारित्र 2. सम्यक् चारित्र 3. सम्यक् चारित्र 4. सम्यक् चारित्र 5. सम्यक् चारित्र 6. सम्यक् चारित्र 7. सम्यक् चारित्र (दीक्षा) 8. सम्यक् चारित्र 9. सम्यक् चारित्र 10. सम्यक् चारित्र 11. सम्यक्च 12. सम्यक्चारित्र - स्वामी आत्मानंदजी स्वामी रामकृष्ण विवेकानंद आश्रम, रायपुर । (सम्यक् चारित्र आत्मा का ‘अत्युत्तम गुण' है । आत्मा के कर्मशत्रुओं का सर्वथा विनाश करने वाला 'महान् शस्त्र' है। आत्मा की कर्म-निर्जरा का 'अनुपम साधन' है। आत्मा को सम्पूर्णतया अहिंसक जीवन जीने का 'असाधारण स्थान' है। सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान द्वारा संसार-सागर तिराकर मुक्ति किनारे पहुँचानेवाला 'अलौकिक (स्टीमर) जहाज' है । भव्यात्मा को मुक्तिपुरी में शीघ्र ले जानेवाला 'अजोड विशेष दिव्य विमान' है । मुक्तिवधू की 'महान् दूती' है । आत्मा को पंच महाव्रत और छठे रात्रिभोजनव्रत का आजीवन पालन करने की 'भीष्म प्रतिज्ञा' है । आत्मा को अष्ट कर्मरुप बन्धन की बेडी से मुक्त कराकर स्वतन्त्रता दिलानेवाला, अपना अनंतज्ञानादि अखूट खजाना दिखानेवाला तथा मोक्ष का शाश्वत सुख प्राप्त करानेवाला 'अद्वितीय महामन्त्र' है । जगत् में जैनधर्म का - जैनशासन का 'अद्भूत आधार स्तम्भ' है। सर्व सुख का 'मजबूत मूल' है और सिद्धि का 'सच्चा सोपान' है । पंच महाव्रतों का, दस प्रकार के यतिधर्म का, सत्तर प्रकार के संयम का, दस प्रकार की वैयावच्च का, नव प्रकार के ब्रह्मचर्य की गुप्ति का, तीन रत्नत्रयीका, बारह प्रकार के तप का तथा चार कषायनिग्रह का एवं चरणसित्तरीकरणसित्तरी इत्यादि गुणरत्नों का 'अमूल्य खजाना - भण्डार' हैं। - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [61] 4. अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना का उद्देश्य एवं पृष्ठभूमि यं तो आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि को अपने यति/मुनि जीवन में ही अध्यापन एवं शास्त्रार्थ के कई ऐसे अनुभव प्रसंग उपस्थित हुए जिसमें अन्य लोगों के द्वारा शब्द के गलत अर्थ किये जाते जो आपको कतई पसंद नहीं थे और आप उसी समय उन्हें शास्त्र-सम्मत सही अर्थ समझाते। इस तरह आचार्यश्री की व्यक्तिगत आवश्यकता के रुप में यह कोश नहीं बनाया गया होगा - इतना तो निश्चित हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना की पृष्ठभूमि विषयक दो पृथक् पृथक् कथानक प्राप्त होते हैं1. विदेशी विद्वानों से प्रेरित होकर जिज्ञासुओं के हितार्थः- भाषा में उनका अनुवाद, लिङ्ग, व्युत्पत्ति, और वाच्यार्थ को रखकर आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरि के प्रवचनानुसार उसके साथ ही तत्समबन्धी यथाप्राप्त प्राचीन टीका, चूर्णि आदि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्राकृत भाषा और जैन परम्परा एवं का विवरण देकर इसे स्पष्ट किया जाये । यदि वही विषय ग्रंथान्तर बौद्ध परम्परा के आगम ग्रंथों का अध्ययन द्रुतगति से बढता जा में प्राप्त हो तो उसके साथ उसका भी निर्देश किया जाये, तो प्रायः रहा था। और इंग्लेन्ड, फाँस, जर्मनी आदि देशों के विद्वान संस्कृत ___ हमारे द्वारा निजमनोनुकूल लोकोपकार होगा।" और प्राकृत ग्रंथो का अध्ययन करने लगे थे। जर्मनी में भारतीय वि.सं. 1946 में आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी विद्याओं और विशेषकर जैन आगम ग्रंथों का गहराई से अध्ययन का चातुर्मास राजस्थान के जालोर जिले के 'सियाणा' नगर में हुआ। किया जा रहा था। उस समय उन विद्वानों को पारिभाषिक शब्दों उन्होंने देखा की वर्तमान में जिनागमों के अर्थ का मर्म का अर्थज्ञान सम्यक् रुप से नहीं हो रहा था। उस समय ज्ञानपिपासु लोग नहीं समझ पा रहे हैं और इसलिए कुछ लोग जैनागमोक्त शब्दों कुछ विद्वान् भारत आये और गुजरात प्रांत के अहमदाबाद नगर के अर्थों का आगमों से विपरीत निरुपण भी कर रहे थे। और देशी में आ पहुंचे। आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी भी उस और विदेशी विद्वानों को जिनगामों का अध्ययन करने में असुविधा समय अहमदाबाद में ही विराजमान थे। इन आंगतुक विद्वानों का होने का ज्ञान आचार्यश्री को था, इसलिए उनके मन में ये विचार सम्पर्क आचार्यश्री से हुआ और उनकी जैन पारिभाषिक एवं आगमिक बार-बार आते थे कि कुछ ऐसा प्रयत्न होना चाहिए जिससे जिज्ञासुओं शब्दावली संबंधी सभी शंकाओं का समाधान आचार्यश्रीने कर को अर्थ समझने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। दिया। तब उन्होंने आचार्यश्री से पूछा कि "क्या ऐसा कोई जैन 2. आगमों की रक्षा हेतु :पारिभाषिक शब्द कोश नहीं है जो हमारा मार्गदर्शक बने ?" प्रत्युत्तर उपाध्याय श्री मोहन विजयजी, जो कि उस आप्तशिष्यों में आचार्यश्री को कहना पडा, "अभी तो नहीं है।" की स्वाध्याय मण्डली में उस समय वहाँ शामिल थे - के अनुसार अभिधान राजेन्द्र कोश के संशोधकों के अनुसार वि.सं. "एक बार आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी अपने आप्त शिष्यों 1940 की इस घटना के पश्चात् आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने के साथ बैठे हुए थे। वहाँ उन्होंने सभी के समक्ष अपनी यह अभिलाषा अनुभव किया कि कोई प्राकृत प्रकाश आदि व्याकरण के ज्ञाता भी रखी कि "मैं एक नवीन रीति का कोश बनाना चाहता हूँ जिसमें जैनागमों के मूल-सूत्र, नियुक्ति की गाथाएँ और चूर्णि प्रमुख के तात्पर्य जैनागमों का विशेष युक्ति से संयोजन हो और जो कि जिनेन्द्र (स्पष्ट पारिभाषिक अर्थ) अवधारण करने में समर्थ नहीं हो सकता भाषामय आगमों के सदा विद्यमान रहने और कभी भी लुप्त न क्योंकि तीर्थंकर-गणधरादि के द्वारा यह सब अर्ध-मागधी भाषा में होने का उपाय हो।"गुरुदेव की इस इच्छा को सुनकर सभी शिष्योंने ही कहा गया है जो कि सामान्य प्राकृत भाषा से कुछ अलग ही गुरुवर के अनुशासन को शिरोधार्य किया। है। प्राचीन काल में गुरु-शिष्य परम्परा से अंतेवासी शिष्यगण कठिन आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरि के अनुसार इस चर्चा परिश्रम द्वारा अपने-अपने आचार्य के मुख से 'मधुबिन्दु निकर' समान के पश्चात् रात्रि के द्वितीय प्रहर में वे आत्म-चिन्तन में लीन हो सूत्रों और उनके अर्थो को कण्ठस्थ करते थे। परंतु वर्तमान में बुद्धिविकलता गए। उस समय आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी को अंत:प्रेरणा और रत्नत्रयी के क्रमिक इस से ऐसी परिपाटी नहीं है, अत: आचार्य हुई और उन्होंने एक भगीरथ कार्य को संपन्न करने का निश्चय किया। श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी को एसी चिन्ता हुई कि प्रतिदिन यह महान कार्य था- जैन साहित्य के समस्त आगम ग्रंथ, प्रकरण जैन धार्मिक-दार्शनिक शास्त्रों की हानि ही हो रही है। बहुत से ग्रंथ, प्रकीर्णक ग्रंथ आदि ग्रंथो में उपलब्ध सामग्री को एक ही ग्रंथ अपने आपको सुज्ञ मानने वाले लोगों ने निज-स्वार्थ हेतु उत्सूत्र प्ररुपण में उपलब्ध करा देना । अर्थात् जिनवाणी विषयक एक ऐसा शब्दकोश भी करना शुरु किया है और अपने धर्मग्रंथों के विषय में विस्मरण निर्मित करना, जिसमें जिनागम विषयक संपूर्ण सामग्री विद्यमान ही हुआ है। ऐसे समय में क्या किया जाये, जिससे यथाशक्ति आत्मधर्म (जैन धर्म) की उन्नति करके अपने मनुष्य जन्म को सार्थक किया 1. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 1 अंतिम अनुच्छेद एवं पृष्ठ 2 का प्रथम, द्वितीय जाय।। एवं तृतीय अनुच्छेद इस प्रकार के विचार करते बहुत समय पसार हो गया तब 2. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 2 तृतीय अनुच्छेद सहसा एक विचार उत्पन्न हुआ कि "कोई एक ऐसे ग्रंथ की इस 3. - अ.रा.भा. 4, घण्टापथ 'ग्रन्थनिर्माणकारणम्', पृ. 17, उपाध्याय प्रकारकी शैली से रचना की जाये,जिसमें जैनागमों के अर्धमागधी श्रुत्वा पुनस्तमुपदेशवरं प्रहृष्टा मूर्नाऽग्रहीषत गुरोरनुशासनं तत्। -वही ' पृ. 12 भाषा के शब्दों को अकारादि वर्णानुक्रमपूर्वक रखकर संस्कृत 5. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 2 हो Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [62]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 5.अभिधान राजेन्द्र कोश का रचनाकाल एवं स्थान शुभारम्भ : शिष्यों के साथ चर्चा से गुरुदेवश्री को यत्र-तत्र बिखरे हुए तथा जीर्ण-शीर्ण अनमोल ग्रंथों को एक ही ग्रंथ में आबद्ध करने का एसा साधारण बल मिला कि प्रातः होते ही अपने नित्य-नियम के कार्यों से निवृत्त होकर वि.सं. 1946 में आश्विन शुक्ल द्वितीया के दिन प्राकृत के महान् कोश की रचना का शुभारम्भ किया। 'श्री अभिधान राजेन्द्र प्राकत महाकोश' नामक इस विश्वकोश के लेखन कार्य का शुभारंभ स्वयं ग्रंथकर्ता आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ग्रंथ रचना में सहयोगी आचार्य श्रीमद् विजय धनचंद्र सूरीश्वरजी (तत्कालीन मुनि श्री धनविजयजी) एवं ग्रंथ-संशोधक उपाध्याय श्री मोहन विजयजी जो कि ग्रंथ-रचना के प्रारंभ के समय वहीं थे एवं संपादक-द्वय आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी (तत्कालीन मुनि दीपविजयजी), आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी' तथा वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी के अनुसार वि.सं. 1946 आश्विन शुक्ला द्वितीया के दिन राजस्थान के जालोर प्रांत के अन्तर्गत स्थित सियाणा नगरमें श्री हेमचंद्राचार्य के उपदेश से परमार्हत राजा कुमारपाल द्वारा निर्मित श्री सुविधिनाथ जिनालय के निकट संघवी शेरी में स्थित पोरवालों की धर्मशाला (पौषधशाला) में किया था। लेखन विधि : ___ आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज के अनुसार 'अभिधान राजेन्द्र कोश' की रचना के समय आज की तरह पेन, बालपेन आदि आधुनिक लेखन-सामग्री उपलब्ध नहीं थी। आपके अनुसार आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सरीश्वरजी प्रतिदिन नारियल की कटोरी में देशी पद्धति से निर्मित स्याही में भीगा कपडा रखते और बरु की कलमसे दिनभर लिखा करते। सूर्यास्त के पूर्व कपडे को सुखा देते और दूसरे दिन फिर उसी कपडे को पानी में भिगोकर अपना लेखनकार्य प्रारंभ करते।' समयावधि : दृढ संकल्पबल-मनोबल, एवं आत्मिक साहस के साथ चौदह वर्षों तक उनका यह लेखन-कार्य अबाध गति से चलता रहा। इसी बीच उन्होंने मारवाड, गुजरात और मालवा के विभिन्न प्रदेशों में लम्बे-लम्बे उग्र विहार किये। छट-अट्रमादि तपस्याँ भी की, एवं प्रतिष्ठा, अंजनशलाका, भागवती दीक्षा प्रदान आदि अनेक धार्मिक एवं सामाजिक कार्य भी संपन्न किये। समाज के बिछुडे लोगों को भी आपस में मिलाया। चातुर्मास काल को छोडकर, वे गाँव में एक दिन और शहर में 5 दिन से अधिक बिना कारण कहीं कभी भी नहीं ठहरे। ऐसी विषम परिस्थिति में उन्होंने यह कार्य किया- यह बडे आश्चर्य की बात है। सतत विहार में लगे रहना, विपक्षियों के तर्को का उत्तर देना, उपवास-छट्ठ-अट्ठमादि तप करना और अनेक प्रकार के उपसर्ग सहन करना और इन सबके साथ अपने दिमाग का संतुलन न खोते हुए करीब 10,000 रोयल पेजी (मुद्रित) पृष्ठों के ग्रंथ का निर्माण करना। सचमुत ही बडा कठिन कार्य है परंतु श्रीमद् अपने निश्चय में अडिग रहे, अन्ततः उन्होंने यह महान् 'ज्ञानकोश' (विश्वकोश) पूरा कर ही लिया। अभिधान राजेन्द्र कोश की पूर्णाहूति : "वासे पुण्णरसंकचन्दपडिए चित्तम्मि मासे वरे, हत्थे भे सुहतेरसीबुहजए पक्खे य सुम्भे गए। सम्म संकलिओ य सूरयपरे संपण्णयं संगओ; राइंदायरिएण देउ भुवणे राइंदकोसो सुहे॥" __ अर्थात् विक्रम संवत् 1960 (पूर्ण-0, रस-6, अंक-9' चंदपिडे-1, 'अङ्कानां वामतो गतिः'- इस नियम के अनुसार 1960) में चैत्र मास में शुक्ल पक्ष में तेरस, बुधवार के दिन हस्त नक्षत्र के योग में आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने सूर्यपुर/सूरत (गुजरात) में यह राजेन्द्र कोश पूर्ण किया। वर्तमान उदयपुर (मूलतः निम्बाहेडा, जि. चितौड, राजस्थान) के निवासी श्री ओमप्रकाश डांगीने अभिधान राजेन्द्र कोश के निर्माण की कालगणना करते हुए लिखा है कि "इस कोश का निर्माण 13 साल, 6 महिने और 3 दिन में पूरा हुआ था।"10 प्रारंभ की तिथी से समापन की तिथी तक कालगणना करने पर यह समय साधारण रुप से 13 वर्ष, 6 महिने और 11 दिन होता है, परंतु तिथियों के क्षय के कारण 8 दिन का अंतर संभव है। रचनावधि के विषय में भ्रम और विशेष वक्तव्य : ग्रंथकर्ता के शब्दों में अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रारंभ एवं समापन की जो तिथियाँ दी गयी हैं उस पर कालगणना करते हुए इसकी रचनावधि 13 वर्ष, 6 महिने और 3 दिन मानी है। किन्तु 1. अ.रा.भा. 7, प्रशस्ति संस्कृत श्लोक 10 2. वही, श्लोक 9 उपाध्याय श्री मोहन विजयजी विरचित गुर्वष्टकम्, श्लोक, अ.रा.भा.3, प्रथमावृत्ति उपोद्घात पृ. 2 एवं मुनि श्री दीपविजयजी रचित गुर्वष्टकम्, अ.रा.भा.3, प्रथमावृत्ति तथा मुनिश्री यतीन्द्र विजयजी रचित गुर्वष्टक-श्लोक, अ.रा.भा.3, प्रथमावृत्ति 5. श्री अभिधान राजेन्द्र कोश विशेषांक : शाश्वत धर्म, फरवरी- 1990. पृ. 19 वही, पृ. 20, वि.सं. 2060, माघ सुदि नवमी, आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरि के प्रवचन, सियाणा (राजस्थान) 7. श्री अभिधान राजेन्द्र कोश विशेषांक : शाश्वत धर्म, फरवरी- 1990, पृ. 20 वही 9. अ.रा.भा. 7 के अंत में प्राकृत में लिखित प्रशस्ति श्लोक ___10. विश्वपूज्य, प्रस्तावना 8. For Private & Personal use only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [63] हमारी कालगणना के अनुसार यह अवधि 13 वर्ष 6 महिने और • वि.सं. 1940 से वि.सं. 1961 (प्राकृत विवृत्ति-परिशिष्ट अ.रा.को.) 11 दिन होती है। जो कि तिथियों की क्षयवृद्धि के कारण 8 दिन तक वर्ष/संवत् गिनने पर यह सिद्ध होता है कि, अभिधान का अंतर है। इसलिए इस अवधि पर अंत:साक्ष्य उपलब्ध होने के राजेन्द्र कोश का निर्माण 22 वर्षों में हुआ। कारण संशय के लिये कोई अवकाश नहीं हैं। संशोधकद्वयने जैन दीक्षा ग्रहण (वि.सं. 1953 एवं 1954) परंतु उपोद्घात के लेखक संशोधक द्वय के शब्दों में 22 के साथ ही जैनागमों का तीव्र गति से गंभीर अध्ययन करते वर्ष तक परिश्रम करके इस ग्रंथ की रचना हुई। इस कथन से समय अपने गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. रचनावधि में महान अंतर दृष्टिगोचर होता हैं। क्योंकि अंत: साक्ष्य से निर्माणाधीन श्री अभिधान राजेन्द्र कोश (मूलग्रंथ का निर्माण से बलवान बाह्य साक्ष्य नहीं होता इसलिए संशोधकद्वय ने विषयवस्तु वि.सं. 1946 से) एवं उसका प्रथम उपक्रम (पाइय सदबुहि) के विभाग की भांति ही अंत: साक्ष्य के विरुद्ध मतभेद किया हैं। के बारे में असंदिग्ध जानकारी प्राप्त की होगी। हमारी दृष्टि में इसका समाधान यह है कि इसकी रचना 'अभिधान राजेन्द्रः' के नाम से आरब्ध हुआ 'पाइय सदबुहि' तो उपर्युक्त अवधि में पूरी हुई, लेकिन मूल विषय-वस्तु के अतिरिक्त वि.सं. 1960 में सूरत (गुजरात) में पूर्ण हुआ एवं उसके परिशिष्ट भी इसके अग्र भाग और पश्चम भाग भी अवयवी के ही अवयव के रुप में प्राकृत विवरण (व्याकृति/विवृत्ति) वि.सं. 1961 होते हैं, इसलिए इसकी सत्यता हेतु हम प्राकृत कोश (प्रथम उपक्रम में कुक्षी (म.प्र.) में पूर्ण हुआ। अत: संशोधकद्वय की दृष्टि जो कि, 'श्री अभिधान राजेन्द्रः' के नाम से प्रारंभ हुआ और बाद में प्रथम उपक्रम (वि.सं. 1940) से परिशिष्ट (वि.सं. 1961) में इसे 'पाइय सदबुहि' नाम दिया गया) के प्रारंभ की तिथि निम्नाङ्कित तक अभिधान राजेन्द्र कोश के निर्माण में 22 वर्ष लगे। तथ्यों के आधार पर प्राप्त कर सकते हैं - यह कथन युक्तियुक्त ठहरता हैं। वि.सं. 1940 में राजगढ चातुर्मास करके उसी वर्ष फाल्गुन उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर संशोधक द्वय का यह कथन सु. सप्तमी को धामन्दा (म.प्र.) में प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात् कथमपि असमीचीन नहीं है कि 22 वर्षों का परिश्रम इस उग्रविहारी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के वि.सं. ग्रंथ की रचना में लगा। १९४० में ही अहमदाबाद पहुँचते ही विदेशी विद्वानोंने हमने यहाँ पर रचनावधि का सामञ्जस्य बैठाने का प्रयास उनसे संपर्क किया हो और उनसे हुए वार्तालाप से आचार्यश्रीने किया है, इसमें हमारी कोई दुरभिसंधि नहीं है किन्तु उपर्युक्त सभी उसी समय संकल्प करते हुए जैनागम संबंधी प्राकृत शब्दकोश तथ्य युक्तियों एवं ठोस प्रमाणों पर आधारित है। की रचना का प्रारंभ किया हो, तो यह समय वि.सं. 1940 11. अ.रा.भा. 7, अंतिम प्राकृत एवं संस्कृत प्रशस्ति ही माना जायेगा। 12. अभिधान राजेन्द्र, उपोद्घात पृ. 2 13. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि का रास, उत्तरार्द्ध, अंतिम ढाल-लेखक रायचंदजी [ 'सर्वेषां भाजनं विनयः' । "विणया णाणं णाणाउ, देसणं दंसणाहिं चरण तु । चरणाहिंतो मोक्खो, मुक्खे सुक्खं अणाबाहं ॥॥" "विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषा फलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरति-विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥2॥ संवरफलं तपोबल-मथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् । तस्माक्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥3॥ योगनिरोधाद् भवस-न्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां, सर्वेषां भाजनं विनयः ॥4॥ - अ.रा.पृ. 6/337 www.jalnelibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [64]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 6. अभिधान राजेन्द्र कोश का एकनिष्ठ परिचय के C. D. माध्यम से में एक पुस्तक के रुप में भी निबद्ध किया जाये तो भी विषय-वस्तु का विभाग अवश्यंभावी हो जाता है आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने निजबुद्धि के अनुसार वैज्ञानिक ढंग से संपूर्ण विषय-वस्तु को 7 (सात) भागों में विभक्त किया था, जिसे यथावत रुप में प्रकाशित कर श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्रीसंघने जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत किया हैं। इस विषय में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के शब्दो में ही प्रस्तुत विषय के समर्थन में प्राप्त प्रमाण अग्रलिखित हैं 1. सप्तम भाग को छोड़कर सभी (1 से 6) भागों को प्रारंभ करते हुए मंगलाचरण दिये गये हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य श्री बुद्धिपूर्वक विषय-वस्तु के विभाग करते हुए शिष्टपरम्परा के अनुसार मंगलाचरण किया है। तृतीय भाग के मंगलाचरण में 'तइयम्मि' 4 | अभिधान राजेन्द्र कोशकी रचना की पृष्ठभूमि जैनागम साहित्य को समझने में सहायक, पूर्ण एवं वैज्ञानिक शब्दकोश का न होना रहा है। इस कारण आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने जैन आगमों को समझने में सहायक हो सकनेवाले इस महाकोश की रचना की है। आचार्यश्री का कथन है कि "इसमें जैनआगमों के सभी विषयों के सभी शब्दों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । 2 संपादकों के द्वारा प्रशस्ति लिखते समय यह स्पष्ट किया गया है कि "इस कोश में सर्वज्ञ के द्वारा निरुपित, गणधर के द्वारा निवर्तित ( रचित) सूत्र, उन पर उपलब्ध सभी प्राचीन सूत्र, वृत्ति, भाष्य, निर्युक्ति, चूर्णि आदि में गुंथे हुए सभी दार्शनिकसिद्धांत, इतिहास, शिल्प, वेदांत, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि में दर्शित शब्दों के वाच्य पदार्थों के युक्तायुक्तत्व का निर्णय किया गया है । यह कोश विस्तृत भूमिका, उपोद्घात, प्राकृत-व्याकृति, प्राकृत शब्दों के रुप-इत्यादि परिशिष्टों से अलंकृत है - " श्री सर्वज्ञ प्रपित - गणधर निवर्तिताऽद्यस्विनोपलभयंमानाऽशेष- सूत्र - तद्वृत्ति-भाष्य-निर्युक्ति-चूर्ण्यादिनिहितसकलदार्शनिक सिद्धान्तेतिहास- शिल्प- वेदान्त-न्याय-वैशेषिकमीमांसादि-प्रदर्शितपदार्थयुक्ता युक्तत्त्वनिर्णायकः । बृहद् भूमिको - पोद्घात-व्याकृति-प्राकृतशब्द-स्मावल्यादिपरिशिष्टसहितः । अभिधान राजेन्द्र कोश अर्धमागधी भाषा के साथ-साथ सभी प्राकृत भाषा भेदों का मौलिक कोश ग्रंथ है । इस शब्दकोश में छोटे-बड़े 60,000 शब्द, सहस्राधिक सूक्तियाँ, 500 से अधिक कथोपकथाएँ, साढे चार लाख श्लोक संग्रहीत है। इस कोश में आये हुए शब्दों पर व्याख्या भाग प्रचुर रुप में उपलब्ध है अभिधान राजेन्द्र कोश : भाषा शैली: 1 अभिधान राजेन्द्र कोश में आये हुए शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने के लिये आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि ने इस कोश में सबसे पहले अकारादि वर्णानुक्रम से प्राकृत शब्द, इके बाद उसका संस्कृत में अनुवाद दिया है। इसके बाद लिङ्ग, व्युत्पत्ति और तत्पश्चात् उन शब्दों के जैनागमों में प्राप्त विभिन्न अर्थ संदर्भ सहित दिये हैं और यथास्थान आवश्यकतानुसार शब्द की सिद्धि व्याकरण के सूत्रों के साथ दी है । यथास्थान समास आदि का भी संकेत दिया है। विषय वस्तु का विभाग एवं उसके प्रमाण: अभिधान राजेन्द्र कोश में करीब 60,000 शब्दों का ससंदर्भ अर्थ एवं विस्तृत व्याख्या दी गयी है। इतनी विशालकाय विषयवस्तु को एक पुस्तकाकार में निबद्ध किया जाना असंभव है। क्योंकि उपलब्ध कागज का भार ही इतना हो जाता है, जो किसी व्यक्ति से सहजतया उठाया जाना संभव नहीं है और फिर यदि ऐसा मान भी लिया जाये तो उस पुस्तक को एक जिल्द में बाँधना संभव नहीं हो सकता। इस पर भी यदि आधुनिक युग में कम्प्यूटर यंत्र 2. 3. 4. यद्यपि सप्तम भाग के प्रारंभ में (मुद्रित ग्रंथ में) मंगलाचरण नहीं दिया है परंतु अन्त में ग्रंथकर्ता के द्वारा पूर्णता विषयक लोक प्राकृत भाषा में एवं ग्यारह श्लोकप्रमाण प्रशस्ति संस्कृत भाषा में दी है किन्तु इसमें सप्तम भाग का या सप्तम भाग की समाप्ति का उल्लेख नहीं किया गया परंतु प्रशस्ति से यह ग्रंथ यही पर समाप्त हुआ ऐसा अभिप्राय होता है | 1. 2. 3. 4. 5. 6. इस प्रकार चतुर्थ भाग के मंगलाचरण में 'चउत्थभागं'' ('चतुर्थभागं'संस्कृत) की, पञ्चम भाग के मंगलाचरण में 'भागम्मि य पञ्चम्मि ('भाग पंचमें' - संस्कृत) और इसी प्रकार षष्ठ भाग के मंगलाचरण में 'छट्टे भागे' ('षष्ठे भागे' - संस्कृत) 7 शब्द के द्वारा क्रमशः तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठ भाग के प्रारंभ की सूचना दी गयी है। 7. घण्टापथ के बाद का श्लोक- अ. रा. भा. 4 प्रथमावृत्ति की प्रस्तावना एवं उपोद्घात- अ. रा. भा. 1 अभिधान राजेन्द्र का प्रथम (मुख्य) पृष्ठ, प्रथमावृत्ति । वाणिं जिणाणं चरणं गुरुणं, काऊण चित्तम्मि सुयप्पभावा । सारंगहीऊण सुयस्स एयं वोच्छामि भागे तइयम्मि सव्वं ॥ नमिऊण वद्धमाणं, सारं गहिऊण आगमाणं च । अहुणा चउत्थभागं वोच्छं अभिहाणराइंदे ॥ - अ. रा. भा. -3- मंगलाचरण वीरं नमेऊण सुरेसपुज्जं सारं गहेऊणं साहूण सङ्काण य बोहयं तं वोच्छामि भागम्मि य पञ्चम्म | - अ. रा. भा. 5, मंगलाचरण सिरि वद्धमाणसामि नमिऊण जिणागमस्स गहिऊण । सारं छट्ठे भागे, भवियजणसुहावहं वोच्छं ॥ अ. रा. भा.6, मंगलाचरण 8. (क) वासे पुण्णरसंकचन्दपडिए चित्तम्मि वासे वहे, हत्थे भे सुहतेरसीबुहजए पखेय सुम्भे गए । सम्मं संकलिओ य सूरयपुरे संपुण्णयं संगओ, राइंदायरिएण देउ भुवणे इंदकोसो सुहं || (ख) - अ. रा. भा. -4 मंगलाचरण तयागमाओ। - अ. रा. भा. 7, प्राकृत में पूर्णता सूचक प्रशस्ति श्लोक धनवन्यभूत्तर्कयुगाङ्गपृथ्वीवर्षे सियाणानगरेऽस्य सृष्टिः । पूर्णोऽभवत् सूर्यपुरे ह्यविघ्नं शून्याङ्गध्येकमिते सुवषे ॥ - अ. रा. भा. 7, प्रशस्ति संस्कृत श्लोक - 10 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [65] 5. षष्ठ-भाग की समापिका पुष्पिका के अंतिम वाक्य में षष्ठ प्रारंभ की और एक विशाल शब्द राशि का संकलन कर अभिधान भाग समाप्त होने की सूचना दी गयी है। इससे सिद्ध होता राजेन्द्र नामक प्राकृत-संस्कृत पर्याय कोश की चार भाग में है कि इससे आगे का भाग जिस पर यह ग्रंथ समाप्त हो जाता रचना की, जिसे बाद में 'पाइयसईबुहि' नाम दिया गया - है, इस ग्रंथ का सप्तम भाग है। यह इसके प्रथम पृष्ठ को देखने से ज्ञात होता है। इसमें पहले इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि इस ग्रंथ की विषय मूल प्राकृत शब्द देकर पश्चात् उसके अनेक अर्थ संस्कृत में वस्तु सात ही भागों में विभक्त है न कि चार भागों में । दिये गये हैं। ('तीर्थकर' मासिक के अभिधान राजेन्द्र कोश विषय-विभाग के विषय में भ्रमात्मक उल्लेख का कारण विशेषांक में एवं राजेन्द्र ज्योति में 'पाइयसईबहि' के प्रथम और निराकरण: पृष्ठ की हस्तप्रति की छायाप्रति मुद्रित की गयी है।) ऊपर कह आये हैं कि प्रस्तावना उपोद्धात में विषय वस्तु __ (3) चूंकि आचार्यश्री एक संदर्भ कोश की रचना करना चाहते थे का विभाग 4 भागों में किये जाने का उल्लेख है। यह उल्लेख प्रस्तावना इसलिए ऊपर वर्णित प्राकृत-संस्कृत पर्याय कोश से संतुष्ट और उपोद्घात के लेखकों (अभिधान राजेन्द्र के सम्पादकों) द्वारा नहीं हुए, यद्यपि इसमें जैनागम साहित्य में प्राप्त अर्ध-मागधी किये गये हैं जिनको मूल रूप से नीचे उद्धृत किया जा रहा है भाषा के शब्दों का संकलन किया जा रहा था। (1) "......अर्थात् 'अभिधान राजेन्द्र' नाम का कोश मागधी ) श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ के पृष्ठ क्रमांक 88 के अनुसार भाषा में रचकर चार भागों में विभक्त कर दिया" 110 'पाइयसदबुहि' ग्रंथ में पहले प्राकृत फिर उसके संस्कृत पर्याय (2)........। यद् -'अभिधानराजेन्द्र' नाम कोशः और तदनन्तर हिन्दी अर्थ दिये गये हैं। प्राकृतभाषाप्रभेदभूतमागध्यां विरचय्य चतुर्षु भागेषु विभक्तः ।। (5) आचार्यश्री के समय में हिन्दी की भाषा के रुप में प्रतिष्ठा उपरिलिखित दोनों उल्लेखों से यह भ्रम होना स्वाभाविक हो चुकी थी और संस्कृत के ज्ञाता कम थे, अतः कोश को है कि अभिधान राजेन्द्र कोश चार भागों में ही लिखा गया हो। लोकोपयोगी बनाने के लिये आचार्यश्रीने दूसरे उपक्रम में अपने परंतु संशोधकद्वय ने ही सातों भागों का संशोधन करके उनकी प्रशस्तियाँ प्राकृत कोश का प्राकतृ-संस्कृत-हिन्दी पर्याय कोश के रुप लिखी हैं। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया है- 'षष्ठ भाग समाप्त हुआ।" में लेखन प्रारंभ किया। निश्चित ही यह भी प्रथम उपक्रम अर्थात् षष्ठ भाग से आगे भी कोई भाग है और वह आनुपूर्वीक्रम के अनुरुप चार भागों में विभक्त किया गया होगा। से अर्थात् क्रमभाव संबंध से सप्तम भाग ही होता है। चूंकि आगे (6) परंतु आचार्यश्री के अभीष्ट संदर्भ कोश की पूर्ति इस प्राकृतकी विषय-वस्तु पूरी होने के साथ ही यह ग्रंथ भी समाप्त हो गया, संस्कृत-हिन्दी पर्याय कोश से भी नहीं होती थी, इसलिए इसलिए यहाँ पर सप्तम भाग के अंत में ग्रंथ समाप्ति की प्रशस्ति आचार्यश्री ने तीसरे उपक्रम में ससंदर्भ कोश की रचना दी गयी है। प्रारंभ की जिसका कि वि.सं. 1946 आश्विन शुक्ल द्वितीया यदि सप्तम भाग के अंत में भी 'समाप्तश्चाऽयं सप्तमो भागः' को सियाणा (राजस्थान) नगर में प्रारंभ होने का उल्लेख -ऐसी प्रशस्ति होती तो उससे क्रमभाव संबंध से यह ज्ञात होता अभिधान राजेन्द्र कोश में प्राप्त होता है और यह तीसरे कि इसके आगे भी कोई विषय-वस्तु है। अतः न्याय के सिद्धांत उपक्रम में लिखा हुआ कोश 'अभिधान राजेन्द्र कोश' के पर क्रमभाव को दृष्टि में रखकर 'समाप्तश्चायं सप्तमो भागः।' ऐसा नाम से विख्यात हैं। उल्लेख नहीं किया है, और ऐसा उल्लेख न करने से संशोधकद्वय ने (7) श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ एवं अभिधान राजेन्द्र विशेषांक: यह सिद्ध किया है कि इस ग्रंथ के सात ही भाग हैं, आठवाँ नहीं। शाश्वत धर्म में उल्लेख है कि 'पाइयसइंहबुहि' की पूर्णाहुति अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यदि इस ग्रंथ के वि.सं. 1956 में शिवगंज में हुई। इससे यह सिद्ध होता है सात ही भाग हैं, न्यूनाधिक नहीं, तो परम विद्वान, आगमज्ञाता, कि आचार्यश्रीने प्रथम उपक्रम के प्राकृत-संस्कृत पर्याय कोश अभिधान राजेन्द्र कोश के संशोधकद्वय एवं प्रस्तावना के लेखक, से पूर्ण संतुष्ट न रहने पर भी उसका लेखन कार्य जारी रखा उपाध्याय श्री मोहन विजयजीने अपने लेखन में चार भागों में विभाग और उससे संतुष्ट न होने पर दूसरे उपक्रम के प्राकृत-संस्कृतकरने का निर्देश करने की त्रुटि कैसे की होगी? यह आश्चर्य का हिन्दी' पर्याय कोश का लेखन प्रारंभ किया और उससे भी विषय है, अर्थात् त्रुटि नहीं की है। उनका कथन भी आंशिक संतुष्ट न होने पर संदर्भ कोश का तृतीय उपक्रम किया। और रुप से समीचीन जान पडता है, जिसके विषय में हमारा अभ्युपगम साथ ही प्रथम और द्वितीय उपक्रम के कोशों को लोकोपयोगी निम्न प्रकार से हैं मानते हुए दोनों का भी लिखना जारी रखा जो कि चार भागों (1) आचार्य विजय जयन्तसेनसूरि के प्रवचन के अनुसार आचार्य में विभक्त था। विजय राजेन्द्रसूरि ने कोश ग्रंथ का प्रणयन प्रारंभ किया 9. ----समाप्तोश्वाऽयं भागः । अ.रा.भा.6, पृ.1458 था लेकिन संतुष्टि न होने पर दूसरी बार फिर से लेखन 10. अ.रा.भा. .... प्रथम आवृत्ति की प्रस्तावना - पृ. 2 (उपाध्याय मुनि श्री कार्य आरम्भ किया। फिर भी उन्हें संतुष्टि न होने पर तीसरी मोहन विजयजी) बार लेखन शुरु किया जिसका परिणाम 'अभिधान राजेन्द्र 11. अ.रा.भा. 1 उपोद्घात, पृ. 2 (संशोधक मुनि दीपविजयजी एवं मुनि कोश' हैं। यतीन्द्र विजयजी) (2) हमारा अभ्युपगम यह है कि आचार्यश्रीने वि.सं. 1940 में विदेशी 12. पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः । प्रमेयकमलमार्तण्ड, परोक्ष विद्वानों की मुलाकात के बाद 'प्राकृत कोश' की आवश्यकता परिच्छेद सूत्र 3/8 पूर्वोत्तरचारिणोः कृतिका-शकटोदयादिस्वरुपयोः कार्यकारणयोअनुभव की और अल्प-काल के बाद ही उसकी प्रणयन प्रक्रिया श्चाग्निधूमादिस्वरुपयोः क्रमभावः....। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [66]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (8) तृतीय उपक्रम वस्तुतः प्रथम उपक्रम का ही विस्तार है। चूंकि । संशोधकों के ज्ञान में चार भागों में विभक्त हो गया। प्रथम और द्वितीय उपक्रमों में यह ग्रन्थ चार भागो में विभक्त (10) 'संस्कार बलवान होता है और यही कारण है कि जिन था, इसलिए 'कारणानुरुपं कार्यम्, इस सिद्धांत के अनुसार संशोधकोंने पूरे अभिधान राजेन्द्र कोश का एक-एक अक्षर 'अभिधान राजेन्द्र कोश' का लेखन प्रारंभ होने के साथ ही पढकर अपने स्वयं के हाथों से आठ-आठ वर्षों तक यह भी सिद्धांततः स्थापित हो चुका था कि अभिधान राजेन्द्र उसे संशोधित किया और स्वयं सात भागों में प्रकाशित कोश की विषय-वस्तु चार भाग में विभाजित हैं। चूंकि एक करवाया, तथापि अभिधान राजेन्द्र कोश के बुद्धिस्थ चार साथ तीन उपक्रम चल रहे थे इसलिए प्रथम दो उपक्रमों की विभाग का उल्लेख प्रस्तावना एवं उपोद्घात में संशोधित गति भी मंद हो गयी होगी और इस प्रकार 'पाइयसबुहि' नहीं किया जा सका। की रचना वि.सं. 1956 में पूर्ण हो सकी होगी। हमने यहाँ 10 बिन्दुओं में तथ्यों को उपस्थित करके (9) चूंकि इन कोशों की रचना एक लम्बे समय तक चलती रही अपने अभ्युपगम को सिद्ध किया है कि अभिधान राजेन्द्र कोश और 'पाइयसदबुहि' वि.सं. 1956 में पूर्ण हो गया जो कि का चार भागों में विभक्त होना - क्यों संकेतित किया गया चार भागों में विभक्त था, और जिस पर तीसरा उपक्रम 'अभिधान है। विद्वानों का कर्तव्य है कि हमारे इस अभ्युपगम पर सयुक्तिक राजेन्द्र कोश' भी आधृत था, यह स्वाभाविक है कि भविष्य विचार करें। में पूरा होने वाला बुद्धिस्थ अभिधान राजेन्द्र कोश' भी जानकारों | 'ते प्राप्वन्ति महोदयम् ।' | जय देवाधिदेवाऽऽधि - व्याधिवैधुर्यनाशन !। सर्वदा सर्वदारिद्रय-मुद्राविद्रावणक्षमः ॥ अगण्यपुण्यकासण्य - पण्याऽऽपणवृषध्वज!। जयसन्देहसन्दोह-शैलदम्भोलिसन्निभ! ॥2॥ स्फुरत्कषायसन्ताप-संपातशमनाम्त !। जय संसारकान्तार - दावपावक पावन ॥3॥ सदा सदागमाम्भोज - विबोधनदिनप्रभुम् !। नत्वा नत्वा भवे भावि, भविनः पतनं खलु ॥4॥ ये देवदेव गंभीर-नाभे! नाभेय! भूरिभिः । त्वद्गुणैः स्वं नियच्छन्ति, ते मुक्तां स्युर्महाद्भुतम् ॥5॥ देव ! त्वन्नामसन्मन्त्रो, येषां चित्ते चकास्ति न। मोहसर्पविषं तेषां, कथं यातु क्षयं क्षणात् ॥6॥ परिस्पृशन्ति ये नित्यं, त्वदीयं पदपङ्कजम्। तेषां तीर्थेश्वरत्वाऽऽदि-पदवी न दवीयसी 7॥ नमः सद्दर्शनज्ञान-वीर्याऽऽनन्दमयाय ते । अनन्तजन्तुसन्तान-त्राणप्रवणचेतसे ॥8॥ एवं युगाऽऽदितीर्थेशं, ये स्तुवन्ति सदा नराः । देवेन्द्रवृन्दवन्दायस्ते, प्राप्नुवन्ति महोदयम् ॥७॥ - अ.रा.पृ. 6/69 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [67] अभिधान राजेन्द्र कोश : नामकरण के विभिन्न अर्थ (2) श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के अंतिम भाग की प्राकृत पुष्पिका में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने इस कोश का नाम 'राइंद कोस' अर्थात् 'राजेन्द्र कोश' दिया है ...राइंदायरियेण देउ भूवणे राइंदकोसो सुहं ।।15। (3) आगे इसके बाद कर्ता स्वयं आचार्य विजय राजेन्द्रसूरि के द्वारा लिखित 11 श्लोक प्रमाण संस्कृत प्रशस्ति में इस कोश का नाम 'अभिधान राजेन्द्र प्राकृत महाकोश' दिया गया हैं।16 (4) और सप्तम भाग के अंत में मुद्रण - परिचय में इस कोश का नाम 'राजेन्द्र कोश' दिया हैं।17 इस प्रकार इस कोश का प्रचलित नाम 'अभिधान राजेन्द्र कोश' एवं पूरा नाम 'श्री अभिधान राजेन्द्र प्राकृत महाकोश' ज्ञात होता हैं। इस प्रकार प्रस्तुत विश्वकोश का प्रचलित नाम 'अभिधान राजेन्द्रः कोश:' है जिसका अर्थ निम्नानुसार है अभिधानानां (नामधेयानां/नाम शब्दानां) राजा-इति षष्ठययनाच्छेषे (सिद्ध हेम. 3-1-76) सूत्र से षष्ठी तत्पुरुष समास होकर राजन् सखेः (सिद्ध हेम. 7-3-106) सूत्र से समासान्त अट् प्रत्यय लगने पर 'अभिधान राज' शब्द बनता है। अभिधानराज्ञां इन्द्रः इति-पुनः उसी सूत्र से षष्ठी तत्पुरुष समास करने पर 'अभिधान राजेन्द्रः' शब्द बनता हैं। अभिधान राजेन्द्रः स च कोश: इति-कर्मधारय समास करने पर अभिधान राजेन्द्रः कोशः शब्द बनता है अथवा अभिधानराजेन्द्र -कृतः कोशः इति अभिधान राजेन्द्रः कोशः (मध्यमपद लोपी समास) शब्द निष्पन्न हुआ। 'अभिधान राजेन्द्रः कोशः' - इस में तीन शब्द है अभिधान = संज्ञा, शब्द, नाम, तुल्य नाम में अर्थज्ञान, उच्चारण आदि (अ.रा.पृ.1/733) राजेन्द्र = राजाओं के इन्द्र/चक्रवर्ती राजा = राजा, गौतम स्वामी आदि गणधर, आचार्य भगवंत (जिन शासन के राजा) इन्द्र = शोभनीय, ऐश्वर्य कोश = भण्डार, खाजाना अभिधान राजेन्द्र कोश में कोश/कोष शब्द के अनेक अर्थ दर्शाये हैं यथा, अण्डा, मिले हुए सोना-चांदी, अर्धविकसित फूल, समूह, दिव्य का एक प्रकार, शब्द पर्यायज्ञापक नाम, पानपात्र, शराब पीने का प्याला, कोवा, नेत्रकोष, आश्रय, धान्य भण्डार, भाण्डागार, खजाना, वारकपात्र, म्यान, प्रत्याकार, चर्मकोश, भण्डार, दो हजार धनुष्य प्रमाण नाप, कान्यकुब्ज देश (अ.रा.पृ. 3/681) इस प्रकार आचार्यश्रीने 'कोश' शब्द के अनेक अर्थ दर्शाये हैं जिसमें से यहाँ पर कोश शब्द का खजाना या भण्डार' यह अर्थ अभीष्ट हैं। अतः 'अभिधान राजेन्द्रः कोशः' का शाब्दिक अर्थ निम्नानुसार अभिधान राजेन्द्र कोश : पृष्ठ संख्या मूल ग्रंथ पृष्ठ अतिरिक्त पृष्ठ संख्या संख्या 893 1215 + + अभिधान राजेन्द्र कोश भाग क्र. भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 भाग 6 भाग7 योग कुल पृष्ठ संख्या 1050 1227 1385 1440 1635 + + 1363 1415 + 1627 __+ _1468 + 1251 + 5 08 08 1476 + 1260 9232 + 0241 9437 13. अ.रा.भा. I, उपोद्घात पृ. 2, मूल ग्रंथ पृ. 1 अ.रा.भा. 4, मंगलाचरण- अहुणा चउत्थभागं.....वोच्छं अभिहाणराइंदे ।।1।। अ.रा.भा. 7, पृ. 1250 प्राकृत प्रशस्ति श्लोक 1 अ.रा.भा. 7, पृ. 1250 संस्कृत प्रशस्ति श्लोक 8, 11 राजत्येष सुसाधुमुद्रणमितो राजेन्द्रकोशः शुभः ।। अ.रा.भा. 7, मुद्रणपरिचय, श्लोक 5 (1) नामों के चक्रवर्ती का खजाना (2) शब्दों के राजा का ऐश्वर्य भण्डार (3) शब्दचक्रवर्ती का भण्डार (4) गौतमादि गणधरों के द्वारा जैनागम स्म में गूंथा हुआ सुसमृद्ध ज्ञान का अक्षय खजाना । अभिधान राजेन्द्र कोशः - नामकरण: अभिधान राजेन्द्र कोश 'अर्हम्' इस मंगलवाची शब्द के साथ वर्णानुक्रम से 'अ' -इस एकाक्षर शब्द से प्रारंभ हुआ है। तदन्तर - (1) इस कोश का नाम 'अभिधान राजेन्द्रः' ऐसा दिया गया है एवं चौथे भाग के मंगलाचरण में 'अभिहाण राइंद'14 अर्थात 'अभिधान राजेन्द्र' एसा नाम दिया गया है। लोगस्स सारधम्मो, धम्म पि य नाणसारियं बिंति । नाणं संजमसारं, संजमसारं च निव्वाणं ॥ - अ.रा.पृ. 6/741 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [68]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अभिधान राजेन्द्र कोश की प्रस्तावनाएँ अभिधान राजेन्द्र कोश भाग 1 प्रथम आवृत्ति : प्रस्तावनाः अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में (1) प्रथम आवृत्ति की प्रस्तावना उपाध्याय श्री मोहन विजयजी द्वारा लिखी हुई प्राप्त होती है। इसकी पहली विशेषता यह है कि यह हिन्दी भाषा में लिखी गई है जबकि प्रथम भाग के ही उपोद्घात, द्वितीय भाग की प्रस्तावना, तृतीय भाग का प्रस्ताव और चतुर्थ भाग का घण्टापथ साहित्यिक संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। हिन्दी भाषा में लिखने का कारण यह हो सकता है कि पहले अपने अभिप्राय को सरल भाषा में जन-जन तक पहुंचाया जाये तभी इस कोश को पढने की या देखने की प्रवृत्ति लोगों में बनेगी। और अन्य प्रस्तावों की भाषा संस्कृत इस कारण से है कि चूंकि अन्य दार्शनिकों की भाषा संस्कृत है, उनके द्वारा स्वीकृत तत्त्वों को उनकी ही भाषा में समझना और उनके मिथ्या सिद्धांतों का खंडन करना उसी भाषा में शोभा देता है जिस भाषा में पूर्वपक्ष हो। और एक कारण यह भी हो सकता है कि अन्य दार्शनिक कहीं यह न समझ बैठें कि "जैनाचार्य न्याय की संस्कृत भाषा जानते ही नहीं है।" उपाध्याय श्री मोहन विजयजीने प्रस्तावना का प्रारंभ ठीक उसी प्रकार किया है जिस प्रकार से उपोद्घात का किया है। परंतु आगे जैन धर्म को दयाधर्म, आचार धर्म, क्रिया धर्म और वस्तु धर्म - इन चार भागों में विभाजित बताया है। तत्पश्चात् अर्धमागधी भाषा और सामान्य प्राकृत भाषा के अन्तर का संकेत करते हुए वर्तमान पंचम काल में स्मरणशक्ति रत्नत्रय के ह्रास की दशा को देखकर श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय भट्टारक 1008 श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने धर्मग्रंथ (जैनागमों) के अर्थ को स्पष्ट करने के लिये अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना की ऐसा बताया गया है । तदनन्तर ग्रंथ को लिखने के नियमों की सूची और अध्ययन आदि के संकेत बताये गये हैं। इन्हीं नियमों में प्राकृत शब्दों के विषय में भी कुछ नियमों का संकेत किया गया है। इस परिचय से एक तथ्य यह भी उभरकर आता है कि अभिधान राजेन्द्र कोश में शब्दों के लिङ्ग, व्युत्पत्ति और समासइन व्याकरणिक कोटियों का ध्यान रखा गया है। प्रस्तावना में प्राकृत शब्दों के लिङ्ग एवं संस्कृत शब्दों के लिङ्ग में विलक्षणता का परिचय एवं उसके विषय में अन्य लक्षण ग्रंथकारों के समर्थन - असमर्थन का भी संकेत किया है। प्रस्तावना का एक बडा भाग संपूर्ण अभिधान राजेन्द्र कोश के एकनिष्ठ परिचय से व्याप्त है। सबसे पहले प्रथम भाग के कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषयों का परिचय दिया गया है। इसमें तेरह शब्द समाहित हैं। इसके बाद प्रथम भाग में जिन शब्दों पर कथा या उपकथाएँ आयी हैं उनकी सूची दी गयी हैं। आगे पृष्ठों में भी ठीक इसी प्रकार से प्रत्येक भाग के कतिपय शब्दों का परिचय और फिर उस भाग में आये हुए शब्दों पर आयी कथाओं-उपकथाओं का संकेत किया गया है। इस शोध-प्रबंध में एवं समस्त अभिधान राजेन्द्र कोश के अन्तर्गत आयी हुई कथाओं एवं उपकथाओं की सूची ग्रंथ के परिचय के अन्तर्गत दी गयी है तथा आचारपरक शब्दों पर आयी हुई कहानियों (कथाओं) की संक्षिप्त विषय-वस्तु षष्ठ परिच्छेद में दी गयी है इसलिए यहाँ विस्तार करना उचित नहीं है। प्रस्तावना में एक सूची ओर दी हुई जिसमें (अकार से ककार तक के शब्दों के अन्तर्गत कोष्ठक में आये हुए शब्दों की अकाराद क्रम से सूची दी गयी है ।) इस सूची को देखने से यह ज्ञात होता है कि वस्तुतः ये कोष्ठकान्तर्गत शब्द या तो उसी शब्द के समानान्तर प्राकृत शब्द है अथवा उस शब्द के पाठान्तर है। जैसे -'अइइ' इसका समानान्तर शब्द 'अदिइ' (दकार से लोप न होने कारण), 'अइति' (दकार की लोप होने से और तकार का लोप न होने से ), 'अदिति' (दकार और तकार का लोप न होने से संस्कृत का शब्द) इसी प्रकार 'अङ्गुलि' और 'अङ्गुली' संस्कृत भाषा के ही समान डीप्रत्ययान्तर पाठान्तर हैं। इसके आगे प्राकृत भाषा के व्याकरण की विशेषता के कारण होने वाले वर्णविकार, वर्णागम, वर्णादेश, लोप, वचन - परिवर्तन, एक विभक्ति के स्थान पर दूसरी विभक्ति का विधान, प्राकृत के स्वरों और व्यञ्जनों की स्थिति, प्राकृत शब्दों के स्वरान्तत्वकी व्यवस्था, द्विवचन का अभाव, स्वर- मात्रा परिगणन के प्राकृत पिङ्गल सूत्र के सिद्धांत और अपवाद इत्यादि व्याकरण नियमों का स्पष्टीकरण 'आवश्यक कतिपय संकेत' उपशीर्षक से किया है। इसके आगे एक उपशीर्षक 'प्रकीर्णक विषय' दिया गया है। इसमें आगमों में वल्लभीपुरीय एवं माधुरीय वाचना भेद और दृष्टिवाद अङ्ग के विच्छेद की चर्चा की गयी है । यहीं पर प्राकृत भाषा की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है और कुमारिल भट्ट के कटाक्ष का सटीक जवाब दिया गया है। यहीं पर आगे संस्कृत व्याकरण एवं प्राकृत व्याकरण के आचार्यों एवं व्याकरणों का संकेत किया गया है। आगम-ग्रंथों में कहीं पर सूत्रों की टीका या चूर्णि का न पाया जाना और कहीं पर छन्दों में पढनें में असंगति पाया जाना - इन दो विषयों का संकेत करते हुए संप्रति प्राप्त (45 आगमों के नाम, उनकी मूल श्लोक संख्या, उनपर पृथक-पृथक आचार्यों द्वारा निर्मित बृहद्वृत्ति, लघुवृत्ति, निर्युक्ति और भाष्यादिक, और उनका श्लोकसंख्याप्रमाण बताया गया हैं। इनमें 11 अंग, 12 उपांग, और दश पयन्ना के साथ छः छेद ग्रंथ, चार मूल सूत्र और दो चूलिका ग्रंथों का निर्देश किया गया है।) इस प्रकार उपाध्याय श्री मोहन सूत्र विजयजी के द्वारा हिन्दी में लिखित प्रस्तावना पूर्ण होती हैं। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [69] द्वितीय आवृत्ति : प्रस्तावना: जैन दर्शन में कारणवाद का निषेध नहीं है। अभिधान राजेन्द्र अभिधान राजेन्द्र कोश की द्वितीय आवृत्ति की अपनी अलग कोश में ही कार्य-कारणवाद पर एक विशाल संकलन उपलब्ध होता है। हो सकता है कुछ जैनमतावलम्बी भी अन्य शाखाओं से प्रभावित कहानी है। आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा 'सर्वजनहिताय' और 'सर्वजन सुखाय' रचित अभिधान राजेन्द्र होकर ईश्वर की उपादानता इत्यादि मानते हों, पर वे सच्चे जैन नहीं कहे जा सकते; भले ही उनकी क्रिया या उनका चारित्र जैनानुकूल कोश, निःसंदेह सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक परम्परा के क्यों न हों। जैन दर्शन अपने कल्याण और अकल्याण में लिये अत्यन्त गौरव का ग्रंथ है। परन्तु लेखक और संशोधकों आत्मा को ही उपादान मानता है । इसी प्रकार कार्य होते समय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह ग्रंथ न केवल त्रिस्तुतीक परम्परा जिसकी उपस्थिति सहायक के रुप में होती है, उसे जैन दर्शन निमित्तकारण केलिये, न केवल श्वेताम्बर आम्नाय के लिए, न केवल जैन संप्रदाय मानती है। केवली प्रणीत धर्म प्रत्येक संसारी जीव को ईश्वरत्व के लिए, न केवल दार्शनिकों के लिए है, अपितु, इसका व्यक्तित्त्व ज्योतिष, भूगोल, गणित, इतिहास, भाषा विज्ञान और व्याकरण विधाओं प्राप्त करने में निमित्त रुप है। उस धर्म में प्रवेश के लिये के लिए भी इनके अध्येताओं और संशोधकों एवं संसार के समस्त सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी सहायक कारण है और आज जब विद्वद् जगत् के लिए उपयोगी है। ये शब्द बहुत सीमित हैं और प्राकृत भाषा या अर्ध-मागधी भाषा प्रचलन में नहीं है तब अभिधान राजेन्द्र कोश का हार्द बहुत अधिक है, इसलिए शब्दों में जिनवाणी का रहस्य जानने के लिये अभिधान राजेन्द्र कोश सामर्थ्य न होने पर भी यह कहा जा सकता है कि संसार के समस्त कुंजी के समान है। इस बात को आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन प्राणियों का कल्याण करने में यह ग्रंथ समर्थ हैं। सूरीश्वरजी ने द्वितीय आवृत्ति की प्रस्तावना में स्पष्ट किया है। अतः यह ज्ञात हुआ कि इस परम उपयोगी ग्रंथराज की अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 1 का उपोद्घात:आवश्यकता बहुत अधिक है और प्रकाशक-त्रिस्तुतिक संघ के पास श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के संशोधकोंने ग्रंथ का परिचय इसकी प्रतियाँ नहीं हैं, जैसे इस बात की हलचल हुई, वैसे ही कराने के उद्देश्य से संस्कृत में एक विस्तृत 'उपोद्घात' लिखा है वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी (तत्कालीन मुनिराज जो कि अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में प्रस्तावना के बाद श्री जयन्त विजयजी) के सामने इस कोश को पुनः प्रकाशित करने निबद्ध है। या प्रकाशित करने की अनुमति देने का प्रस्ताव कुछ लोगों क द्वारा रखा गया। उस समय आचार्यश्री दक्षिण देश के विहार में थे। वे प्रस्तावना और उपोद्घात को देखने से ऐसा ज्ञात होता है जब चातुर्मासार्थ मद्रास में विराजमान थे उस समय, तत्काल बाद कि प्रस्तावना के प्रथम अनुच्छेद की सामग्री उपोद्घात के प्राथमिक गुरुसप्तमी के दिन आयोजित विद्वद्गोष्ठी में इस ग्रंथ के पुनर्मुद्रण की 9(नौ) अनुच्छेदों की सामग्री से मिलती-जुलती है। इसलिए यह आवश्यकता पर जोर दिया गया परंतु कुछ अपरिहार्य कारणों से प्रकाशन प्रश्न अवश्य आता है कि संशोधक महादयों ने प्रस्तावना लिखने का कार्य प्रारंभ होते ही स्थगित करना पड़ा। के बाद उपोद्घात लिखने का विचार क्यों किया? और यदि उसी इस मजबूरी का अनुचित लाभ दिल्ली के लोकेस प्रेसके से मिलती-जुलती सामग्री रखनी थी, तो प्रारंभिक अनुच्छेदों के बाद मालिक नरेन्द्रभाई ने उठाया और पूर्वानुमति के बिना ही इसे प्रकाशित विषय-वस्तु क्यों बदल दी (उपोद्घात में स्याद्वाद, सप्तभङ्गी का करके अतिशय महंगे दामों में बेचकर व्यवसायिक लाभ उठाया। निरुपण, समवाय का खंडन, सत्ता पदार्थ का खंडन, अपोह का खंडन, इस बात की जानकारी वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेन वेदों के अपौरुषेयत्व का खंडन, शब्द के गुणत्व का खंडन, संसार सूरीश्वरजी को हुई और तब आपने श्री भाण्डवपुरतीर्थ ( राजस्थान) के अद्वैतत्त्व का खंडन, और ईश्वर-व्यापकत्व का खंडन करते हुए पर हो रहे श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्री संघ के अधिवेशन में इस ग्रंथराज के पुनः प्रकाशन का प्रस्ताव अंत में जैन सिद्धांत के अनुरुप एकेन्द्रिय जीवों के भी भाव शुद्ध रखा, वैसे ही श्री संघ ने इस आदेश को स्वीकृत कर उसी समय ज्ञान का समर्थन-इन विषयों का प्रतिपादन किया गया है।) इस ग्रंथ के पुनः प्रकाशन की घोषणा की और फिर अनेक श्रेष्ठियों, इसका उत्तर खोजने पर ऐसा प्रतीत होता है कि संशोधक गुरुभक्तों एवं विद्वाद्जनों के सहयोग से इस ग्रंथ का पुनः प्रकाशन महोदयों ने पहले तो उपोद्घात लिखा होगा जिसमें की प्राय: सभी हुआ। भारतीय दर्शनों के सिद्धांतों का खण्डन करते हुए जैनों के प्रमुख अभिधान राजेन्द्र कोश की द्वितीय आवृत्ति की प्रस्तावना सिद्धांत स्याद्वाद का विचार किया होगा, परंतु यह विषय संस्कृत में आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी ने आत्मा और कर्म में होने से और दर्शन जैसा रुक्ष विषय होने से अध्येताओं को इस के अनादि-संबंध का सोदाहरण चित्रण करते हुए, आठों कर्मों का कोश को खोलते ही अत्यन्त कठिन विषय का दर्शन न हो और स्वरुप सोदाहरण समझाया है। इसका विस्तार द्वितीय आवृत्ति असंस्कृतज्ञ भी ग्रंथ का परिचय प्राप्त कर सकें, इसके लिए प्रस्तावना की प्रस्तावना एवं अभिधान राजेन्द्र कोश के भाग-3 में 'कम्म' शब्द बाद में लिखी होगी। कहने का अभिप्राय यह है कि यद्यपि प्रस्तावना पर देखा जा सकता है। उपर्युक्त अनादि-सान्त-कर्म-सिद्धांत जैन दर्शन में जितना 1. श्री अभिधान राजेन्द्र कोश विशेषांक : शाश्वत धर्म, फरवरी-1990 - स्पष्ट रुप से समझाया गया है उतना अन्यत्र कहीं नहीं समझाया गया। मुनि नगराजजी का लेख कर्म सिद्धांत जैन सिद्धांतो में एक प्रमुख सिद्धांत हैं। इसी प्रकार 2. कल्पसूत्र बालावबोद, पञ्चम व्याख्यान जैन दर्शन के अन्य प्रमुख सिद्धांत हैं, आत्मवाद, अनेकांतवाद, 3. अ.रा.भा.1, प्रथमावृत्ति प्रस्तावना, पृ. 1, 2 एवं उपोद्घात पृ.1, 2 अनुच्छेद षड्द्रव्यवाद, नवतत्त्ववाद और सादि-अनंत मोक्षवाद । 1 से For Private & Personal use only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [70]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के बाद उपोद्घात को रखा गया है परंतु उपोद्घात प्रस्तावना के पूर्व वह वाक्य सापेक्ष कथन को सूचित करता है। यद्यपि जैनागमों में लिखा जा चुका था। यही कारण है कि उपोद्घात में आयी हुई प्रयुक्त सभी वाक्यों में 'स्यात्' यह विशेषण देखने को नहीं मिलता अन्य सामग्री प्रस्तावना से अत्यन्त भिन्न है। फिर भी जैन शासन का समग्र कथन 'स्यात्' के ही अधिकार उपोद्घात प्रारंभ करते हुए यह बताया गया है कि संसार में होता है इसलिए इसकीअनुवृत्ति सभी वाक्यों में होती रहती है। के सभी प्राणी संसार के क्लेशों से अपने आप को बचाना चाहते उपोद्घात में स्याद्वाद' के सातों भङ्गों को सोदाहरण समझाया गया हैं परंतु हेयोपादेय में विवेक न कर सकने के कारण सही हानोपाय का अनुसरण नहीं कर पाते । धर्म के बिना कोई भी उपाय नहीं है ऊपर सातों भागों के नाम दिये जा चुके हैं। इन सातों परंतु इस समय सैंकडों मत चल रहे हैं तो यह कैसे पता चले भङ्गों के मूल में तीन भङ्ग है - (1) स्याद् अस्ति (2) स्याद कि कौन सा तो सही धर्म है और कौन सा धर्माभास है ? नास्ति और (3) स्याद् अवक्तव्य । - उपोद्धात में भङ्गों के जैन दर्शन में धर्म की कसौटी रखी गयी हैं कि जो राग- उदाहरण में निम्नाङ्कित उदाहरण दिया गया है - सभी 'कुम्भ' आदि द्वेष से रहित अहिंसा है, वही परम धर्म है; राग-द्वेष को जीतने वाले पदार्थ स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के रुप में अस्त्यात्मक है और परत्रिकालवर्ती सभी पदार्थो को एकसाथ ही प्रत्यक्ष जानने वाले वर्धमान द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से नास्ति रुप है। यही द्रव्यभगवान का यह शासनकाल है और उनका सिद्धांत है - "अहिंसा यही पदार्थ सत् और असत् के युगपत् कथन की अशक्यता के कारण परम धर्म है।" जो लोग हिंसा गर्भित अहिंसा को अपनाने का उपदेश कथंचित् अवक्तव्य भी है। करते हैं, वे मधुलिप्त असिधार को जीभ से चाटने का उपदेश करते सप्तभङ्गों का स्पष्टीकरण करने के बाद 'स्याद्वाद' हैं। जैन दर्शन में हिंसा और अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन किया गया सिद्धांत की सिद्धि आचार्यश्री मल्लिषेण सूरि विरचित 'स्याद्वादमञ्जरी' है जिसे विभिन्न दृष्टांतों से भी यत्र-तत्र समझाया गया है। अभिधान टीका (अन्ययोगव्यच्छेदद्वात्रिंशिका - आचार्य हेमचंद्रसूरि) के अनुसार राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में 'अद्दगकुमार' और 'अहिंसा' शब्दों की गयी है। वहाँ पर नैयायिको को सर्वथा अनित्य प्रतीत में उपलब्ध विस्तार से जैनों की अहिंसा का एक चित्र खींचा जा होने वाले दीपक में भी नित्यानित्यत्व-रुप विरोधी धर्मयुगल सकता हैं। की सिद्धि की गयी है। और सर्वथा नित्य माने जानेवाले उपोद्घात में यद्यपि अभिधान राजेन्द्र कोश के निर्माण का आकाश का भी नित्यानित्यत्व सिद्ध किया गया है। इसका मूल आधार अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका की निम्नांङ्कित कारिका प्रयोजन और प्रचार-प्रसार की आवश्यकता का उल्लेख भी किया गया है जो कि साधारण बात है कि कहीं प्रस्तावना में तो कहीं पुष्पिका "आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । में इन दोनों बिन्दुओं पर अवश्य कुछ न कुछ लिखा हुआ मिलता तन्नित्यमेवैकमानित्य मन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः। ॥" है परंतु इसको अत्यन्त संक्षिप्त करते हुए संशोधक महोदय अपने मूल प्रतिपाद्य की ओर बढ़ जाते हैं और दार्शनिक विमर्श का प्रारंभ करते उपोद्घात में नित्यानित्यत्व का कारण पदार्थ के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य बताये गये हैं। जैन दर्शन का यह प्रमुख सिद्धांत हुए सभी विषयों का उद्देश-कथन करते हैं - नाम-कथनकरने के बाद संशोधक महोदय सबसे पहले 4. वही, उपोद्घात प्रथम अनुच्छेद, पृ. । सप्तभड़ी को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि "एक ही वस्तु 5. ....... भगवतो वर्धमानस्यैवाऽऽसन्नोपकारित्वेनानेकान्त-जयपताका में एक-एक धर्म के बारे में प्रश्न पूछे जाने के कारण बिना किसी प्रादुर्भूयात् । यतस्त एव विमलके वलालो के न कालत्रय वर्तिसामान्यविशेषात्मक निखिलपदार्थसार्थवेत्तारः, ..अवितथवस्तुविरोध के पृथक् और एकत्रित विधि-निषेधों की कल्पना से 'स्यात्' तत्त्वप्रवक्तारः... रागद्वेषविजयकर्तारः, ...तेषामहिंसा परमो धर्म इति । -इस पद से अंकित सात प्रकार का वाक्य-प्रयोग 'सप्तभङ्गी' कहा यद्यपि पृथग्भूतेष्वितो धर्माभासेष्वपि किंपाकपाकोलिप्त-पायसदेश्या जाता है। उपोद्घात में कहा है हिंसागर्भिताऽहिंसा भगवती यत्र तत्र विलोक्यते तस्या विधृक्षा एकत्र वस्तुन्यकै कधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः मधुदिग्धधाराकरा करवालाग्रलोलरसनानामिव जनानां न सुखाकरोतीति एकत्रामत्रे संपृक्तविषमधूकल्पेव न युक्ता । जन्मादिदुः खमुमुक्षूणां प्राधान्येन समस्तयो विधिनिषेधयो: कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तया कारणता तस्या नोपलभयते, अपि तु यद्यंशतस्तत्र दयाऽभिनिविष्टा, हिंसाऽपि वाक्यप्रयोगः सप्तभङ्गी। तय॑न्यांशतो जागर्ति, यथा संसारमोचकानामिदमैदंपर्यम् यदि सप्तभङ्गी: नरपशुशकुनिष्वन्यतमः कोऽपि भवेऽस्मिन् संसारवेदनामनुभवति, तर्हि तस्येतो देहतः पृथक्करणमेव दयापरवशानां कर्त्तव्यमिति । सप्ततन्तुप्रवणानां यज्वानां 1. स्याद् अस्ति 2. स्याद नास्ति तु ताद्दक्षमवसरमासाद्य दयापात्राणामनन्यगतिकानां छागतिकानां विशसनमेवो 3. स्याद् अस्तिनास्ति 4. स्याद् अवक्तव्य वंगतिप्रापणमित्यादि ग्रन्थेऽस्मिन्नेव प्रथमभागे 'उद्दगकुमार' 'अहिंसा' 5. स्याद् अस्ति अवक्तव्य 6. स्याद् नास्ति अवक्तव्य शब्दयोरुपरि विशेषस्तिर: प्रेक्षणीयो जिज्ञासूनामिति । अ.रा.भा.1, उपोद्घात पृ. । 7 स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य । 6. वही, उपोद्घात पृ.2 तृतीय अनुच्छेद 'स्याद्वाद' शब्द में दो शब्द हैं -'स्याद्' और 'वाद'। 7. वही, चतुर्थ अनुच्छेद यहाँ पर 'स्याद्' का अर्थ अनेकांत से हैं। स्यात् (कथिचित्) अर्थात् 8. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 2, अंतिम अनुच्छेद किसी अपेक्षा से। किसी भी वाक्य में 'स्याद' विशेषण देने पर 9. वही, उपोद्घात पृ. 2, 3 10. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 3, 4; अन्ययोग व्यवच्छेदिका कारिका-5 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [71] है और सभी जैन आम्नायों में समान रुप से स्वीकृत है। प्रायः सभी मंत्र - विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतः पाणिरुत विश्वतः पाद्।8' । दर्शनों ने प्रकारान्तर से 'स्याद्वाद' का प्रयोग तो किया है परंतु सिद्धांत -इस मंत्र को भी उद्धृत किया गया है। अर्थात् वैदिक परम्परा के के रुप में स्वीकार नहीं किया। लोक में भी 'स्याद्वाद' सिद्धांत का अनुयायी कहे जानेवाले दर्शनों के ईश्वर व्यापकत्व का सिद्धांत एक व्यवहार देखा जाता है।। | उपोद्धात में इसे एक रुपक के द्वारा समझाया साथ ही प्रत्याख्यात किया गया है। गया हैएक राजा को एक पुत्र और एक पुत्री है। राजा की पुत्री विपक्षियों के सिद्धांतो का खंडन करने के बाद भावेन्द्रिय के पास सोने का घडा है। पुत्र ने पिता से कहकर उसे तुडवाकर और द्रव्येन्द्रिय के सिद्धांत के माध्यम से जैनदर्शन के उस सिद्धांत मुकुट बनवाया। घडे के नाश होने पर पुत्री को क्लेश हुआ, मुकुट का प्रतिपादन किया गया है जिसमें छद्मस्थ संसारी जीव को कम बनने पर पुत्र को हर्ष हुआ। परंतु राजा यह सोचकर कि 'सोना तो से कम मति ज्ञान और श्रुतज्ञान अवश्य होते हैं। यथावत् है", दोनों ही अवस्थाओं में निर्विकार रहा। यहाँ कलश इस प्रकार उपोद्धात में जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धांत अहिंसावाद का नाश पदार्थ के व्यय का संकेत करता है, मुकुट का निर्माण पदार्थ से प्रारंभ करते हुए स्याद्वाद का प्रतिपादन और सर्वथा एकान्तवादियों के उत्पादन का संकेत है, और स्वर्ण की यथास्थिति पदार्थ के ध्रौव्य के प्रमुख सिद्धांतो का खंडन करते हुए अंत में पुन: जैन दर्शन के का संकेत है। इस प्रकार एक ही पदार्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भाव-श्रुतज्ञान का प्रतिपादन करते हुए उपोद्घात का समापन किया - ये तीनों ही रहते हैं। गया है। इसके साथ ही द्रव्य से नित्य और प्रमाण से अनित्य, एसे अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 2 स्याद्वाद का आधार बताते हुए स्याद्वाद का महत्त्व बताया है। इसके आगे उपोद्घात में वैशेषिकों के 'समवाय' पदार्थ प्रस्तावना:और 'सत्ता' का खंडन अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका और उसकी __ अभिधान राजेन्द्र कोश भाग-2 की प्रस्तावना उपाध्याय टीका 'स्याद्वादमञ्जरी' के अनुसार किया है। यहीं पर बौद्धों के श्री मोहन विजयजी द्वारा लिखी गयी है। प्रस्तावना में चार भाग 'अपोह' सिद्धांत का प्रत्याख्यान भी बडे विस्तार से किया गया हैं। प्रस्तावना को प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम यह बताया गया है कि वर्णानुक्रम से प्राकृत भाषा पर इस प्रकार का कोई कोश उपलब्ध नहीं था, और इसलिए सकल संघ के द्वारा अनुनय किये जाने 'अपौरुषेयत्वव्याघात' उपशीर्षक के अन्तर्गत वेदों की पर इस श्रेष्ठ कोश की रचना हुई। यहीं पर अभिधान राजेन्द्र कोश अपौरुषेयता का खंडन स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार किया गया है। न्याय के निर्माण की पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए यह भी कहा गया दर्शन के जगत्कर्तृत्व सिद्धांत का खंडन भी इसी क्रम में किया है। । है कि जैनदर्शन के जिज्ञासु विदेशी लोग जो कि बौद्धों 'शब्द आकाश का गुण है' - यह न्यायदर्शन का सिद्धांत से जैनदर्शन को अलग न मानते हुए तत्त्व को नहीं समझ है। स्थूल रुप से देखने पर यह बहुत ही सुग्राह्य है क्योंकि मनुष्य । पा रहे हैं, उन्हें जैनदर्शन का रहस्य और बौद्ध दर्शन से में अधिकतम पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जो क्रमशः शब्द, स्पर्श,रुप, रस जैन दर्शन का भेद, दोनों में तुलनात्मक तरतमता ज्ञात और गंध -इन पांच विषयों का ग्रहण करती हैं । नैयायिक इन्हें क्रमशः हो सके, और जीव, अजीव आदि तत्त्वों को सूक्ष्म निरीक्षण आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी का विशेष गुण बताते हैं। इस बद्धि से समझने के लिए संबंधित शब्द में ही पूरी जानकारी तरह यथासंख्यस्थिति भी गणितीय सिद्धांत पर सही प्रतीत होती है। उपलब्ध हो सके; थोडा सा भी श्रम न उठाना पडे - पुनश्च कर्णविवर को आकाश और कृष्णतारा (आंख की पुतली) के इसके लिए यह ग्रंथ उपयोगी है। अग्रभाग को तेज बताते हुए षड्दर्शन में इन्द्रियों की उत्पत्ति पांच अभिधान राजेन्द्र कोश की उपयोगिता के विषय में जितना महाभूतों से बताते हुए 'तुल्ययोनीन्द्रियार्थग्रहण' के सिद्धांत से भी लिखा जाये उतना कम है। उपाध्यायश्री इसकी उपयोगिता के बारे यह सत्य प्रतीत होता है कि "शब्द आकाश का गुण ही है" परंतु में आगे और भी लिखते हैं और बताते हैं कि आजकल प्रचलित सूक्ष्म निरीक्षण करने पर शब्द का गुणत्व खंडित हो जाता है, और हिन्दी भाषा के जो शब्द हैं उनमें से कौन से शब्द परावर्तित होकर इसी कारण बहुत ही ठोस हेतुओं के आधार पर जैनदर्शन ने शब्द के संस्कृत भाषा में प्राप्त होते हैं अथवा संस्कृत भाषा से परावर्तित को पौद्गलिक (मूर्त) सिद्ध किया है। यही बात उपोद्घात 11. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 3, 4 में 'शब्दाकाशगुणत्वखंडन' उपशीर्षक के अन्तर्गत कही गयी हैं। 12. "प्रध्वस्ते कलशे शुशोच तनया मौलौ समुत्पादिते, पुत्रः प्रीतिमुवाह कामपि नृपः शिश्राय मध्यस्थताम् । शब्द के गुणत्व का खंडन करने के बाद संशोधक महोदय पूर्वाकारपरिक्षस्तदपराकारोदयस्तद्वया-धारश्वैक इति स्थितं त्रयमयं तत्त्वं ने बादरायण व्यास द्वारा प्रवर्तित वेदांत दर्शन के अद्वैतवाद का खंडन तथा प्रत्यथात् ।।2।। - पञ्चाशत् से उद्धृत, अ.रा.भा.। उपोद्घात पृ.4 किया है। 13. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 4 का अंतिम अनुच्छेद, पृ.5 14. वही पृ. 5 का अंतिम अनुच्छेद, पृ. 6,7,8,9 नैयायिकों का जगत्कर्ता ईश्वर और अद्वैत वेदांतियों का ब्रह्म 15. वही 9,10 - दोनों ही सर्वव्यापक माने गये हैं। इस दृष्टि से न्याय दर्शन 16. वही, उपोद्घात पृ.। के और वेदांत दर्शन के सिद्धांतों के खंडन के बाद, 17. वही 11, 12 18. वही, 'ईश्वर व्यापकत्व खण्डनम्', पृ.13 ईश्वरव्यापकत्व का खंडन किया गया है। यहाँ पर वेदों के 19. वही, पृ. 13 का अंतिम अनुच्छेद Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [72]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन होकर हिन्दी भाषा में प्राप्त होते हैं यह सब ग्रंथ के अवलोकन से सतीर्थ्य मुनि श्री दीपविजयजी एवं मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने महान निर्विवाद ज्ञात हो जाता है अर्थात् शोधार्थियों के लिये और श्रम किया है। भाषाविज्ञानविदों के लिये भी यह ग्रंथ परम उपादेय है। अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 3 जितना भाषाविदों के लिए उतना ही दार्शनिकों के लिए भी यह प्रस्ताव : उपयोगी है। प्रस्तावना के दूसरे क्रम में 'विषय सूचना' -यह उपशीर्षक तृतीय भाग के प्रस्ताव में तीर्थंकर भगवान् के और उनके देते हुए द्वितीय भाग में आये हुए शब्दो में से कुछ महत्त्वपूर्ण अनुयायी गणधरों के अनन्तजीवरक्षा के निमित्त परीषहसहत्व शब्दों की ओर संकेत किया गया है। जैसे :- आउ ('आयुष') का संकेत करते हुए सुधर्मास्वामी के द्वारा जो प्रश्नोत्तर रुप में कार्यशब्द में आयुः की पुनरावृत्ति, अनित्यत्व, अल्पत्व, दीर्धायुः, शुभदीर्धायुः, कारण भाव का विमर्श किया गया है उसी अर्थ को स्पष्ट करते अशुभदीर्धायुः, आयुष्य के हेतु, आयुःकर्म, गतिभेद से आयु: के भेद, हुए नवांगी टीकाकार श्रीमद्विजय अभयदेवसूरी के अभिप्राय को श्री आयुः का बंध इत्यादि विषयों का उल्लेख किया गया है। आगे इसके अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रतिपादित किया गया है, इसका सारांश वर्णन की विशेषता बताते हुए जलकाय (अपकाय) के जीवों की तृतीय भाग के प्रस्ताव में बताया गया है20 । कार्य-कारण भाव का भी युक्ति से सिद्धि की गयी है। और सचित्ताचित और मिश्रयोनियों प्रसंग इस प्रकार से है - का भी विवेक किया गया है, और जो लोग जल के प्रयोग में विवेक सम्यग्दर्शन आदि साधन, मोक्ष साध्य रुप के ही हैं, अन्य नहीं रखते उनके द्वारा जलकाय के जीवों की हिंसा होती हैं, यह किसी अर्थ के साधन नहीं है। अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि तो साधन प्रतिपादित किया गया है। इस प्रकार 'आउक्काय' शब्द के अन्तर्गत है और मोक्ष साध्य है। रत्नत्रय और मोक्ष में यह कार्य-कारण भाव यह एक सैद्धांतिक विमर्श उपस्थापित किया गया है। है। यह कार्य-कारण-भाव संबंध उभय-नियम प्रकार का है अर्थात् 'आउट्टि' शब्द में ज्योतिष के विषय को उठाते हुए अण्डज सम्यग्दर्शन आदि 'मोक्षरुप साध्य' के ही साधन हैं, इसी प्रकार मोक्ष जीवों की और पृथ्वी-कायिक जीवों की किस स्थान से आगति और भी सम्यग्दर्शनादि साधन का ही साध्य है, अन्य किन्हीं साधनों का गति होती है-यह प्रतिपादित करते हुए मिथ्यावादियों के सिद्धांतों नहीं। इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक से उभयविध कारण-कार्यत्व का खंडन किया है। सिद्ध किया है। 'आगम' शब्द में आगम के प्रणेता को सिद्ध करते हुए साध्य मोक्ष है इसलिए प्रधान है। वह मोक्ष 'मोक्ष का कि प्रामाणिक पुरुष के द्वारा प्रणीत होने से ही आगम की जो विपक्ष बंध है', उसके क्षय से होता है। अर्थात् कर्मबंध की प्रमाणिकता सिद्ध होती है। लेकिन ऐसा कोई आगम प्रमाण नहीं संपूर्ण निर्जरा से कर्म का संपूर्ण रुप से विच्छेद हो जाना ही मोक्ष हो सकता जिसका कोई प्रामाणिक पुरुष कर्ता न हो । यहीं पर कणादमत है । यहाँ पर पक्ष और विपक्ष इन दोनों तत्त्वों के माध्यम से कारण का पक्ष में रहना और विपक्ष में न रहना-सूचित किया गया है। में स्वीकृत शब्द प्रमाण का अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव' मोक्ष का विपक्ष बंध है; कर्मो का आत्मा से संबंध बंध भी बताया गया है। इसी संदर्भ में बौद्धों के अपोहवाद, अर्थ कहलाता है। बंध की यह परम्परा अनादि है। इसका क्षय अनुक्रम के स्वरुप, वाच्य-वाचक संबंध का भी विचार किया गया से होता है। इस सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए पंचमांग (भगवती है। यहीं पर वैयाकरणों के 'स्फोटवाद' को स्पष्ट करते हुए जैन सूत्र) में जो प्रश्नोत्तर श्री सुधार्मस्वामी के द्वारा गुम्फित किया है वह मत में शब्द की वाचकता, नित्यता,शब्दार्थ में संबंध,आगमों है 'क्रियामाण का कृतवत् व्यपदेश होना। के भेद और आगमों की नियामकता इत्यादि बहुत सारे विषयों यहाँ पर शंका होना स्वाभाविक है कि कार्य 'सत्' है अथवा का प्रतिपादन किया गया है। 'असत्', इसलिए इसका विस्तृत विमर्श 'कार्य-कारण भाव' शब्द की व्याख्या में अभिधान राजेन्द्र कोश की व्याख्या में दिया गय द्वितीय भाग के अन्य शब्दों का परिचय देते हुए 'आणा' अर्थात् आज्ञा के विषय में कहा गया है कि तीर्थंकर की आज्ञा 'बंध' कर्म का होता है और बंध के नाश से मोक्ष होत को अन्यथा (भंग) करने में दोष है, और उसका प्रायश्चित और इससे संबंधित बहुत सारे विषय जो कि आज्ञा-व्यवहार के अन्तर्गत है- इस सिद्धांत को नास्तिक चार्वाक नहीं मानता। चार्वाक की युक्तिर आते हैं, 'आणा' शब्द के अन्तर्गत व्याख्यायित हैं। इसी प्रकार का अपने तर्कों से जो खंडन श्रीमद् रत्नप्रभाचार्य ने किया है, उसव 'आयरिय' शब्द के अन्तर्गत श्रेष्ठ आचार्य से संबंधित तथ्यों की संक्षिप्त परिचय इस प्रस्ताव में देते हुए कहा गया है "चूंकि पुद्ग चर्चा का संकेत किया गया है। इसके अतिरिक्त एक छोटी सी एक जाति है इसलिए इसमें विशिष्ट संयोगादि की कल्पना गौरव सूची भी दी गयी है। 20. अ.रा.भा.3, प्रस्ताव, प्रथम अनुच्छेद, पृ.1 प्रस्तावना के अगले भाग में निर्दिष्टों ग्रंथों की संकेत सूची 21. वही और उसकी उपयोगिता के बारे में बताया गया है। 22. स च मोक्षो विपक्षक्षयात्। तद्विपक्षश्व बन्धः । -वही अंत में उपलब्ध पाण्डुलिपियों की जीर्णता इत्यादि के कारण 23. .... तद् विपक्षश्व बन्धः । स च मुख्यः कर्मभिरात्मनः संबन्धः। तेषां पाठ-भेद के कारण कहा गया है कि इस कोश में कहीं पाठ भेद कर्मणा प्रक्षयेऽयमनुक्रम उक्त:- 'चलमाणे' इत्यादि । - अ.रा.भा प्रस्ताव, प्रथम अनुच्छेद पृ.1 से, कहीं मुद्रणदोष से, और कहीं दृष्टिदोष इत्यादि से होनेवाली अशुद्धियों 24. ....... सदसत्कार्यवादरुपस्याऽ ऽत्मनोऽर्थस्यागाधत्वमद को विद्वान् लोग सुधार कर पढ़ें। .....'कज्जकारणभाव' शब्दे। इस ग्रंथ के संशोधन में उपाध्याय श्री मोहनविजयजी के -वही द्वितीय अनुच्छे Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [73] चार्वाक मत में स्वीकृत 'तत्त्वचतुष्टयवाद' का आधार जैनों "यथैघांसि समिद्धोऽग्नि भस्मसात् कुस्ते क्षणात् । के 'पुद्गलैकतत्त्ववाद' से खंडित हो जाता है। इसलिए ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि, भस्मसात् कुस्ते तथा ॥" "भूतेभ्यश्चैतन्योत्पादः" - एसा जो चार्वाकों का सिद्धांत कर्म का क्षय दो प्रकार से होता है -(1) तप के द्वारा और (2) है, वह खंडित हो जाता है। उपभोग के द्वारा । जो कर्म ज्ञानाग्नि से नष्ट नहीं किये जाते उनका क्षय चूंकि चार्वाकके मत में प्रत्यक्ष के अतिरिक्त कोई प्रमाण उपभोग से ही होता हैस्वीकृत नहीं है, और वह प्रत्यक्ष भी मूर्त पदार्थो का प्रत्यक्ष है, आत्मा नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटि-शतैरपि । अमूर्त पदार्थ है, इसलिए न तो उनके मत में उनका प्रत्यक्ष हो सकता परंतु यहाँ पर यह शंका होना स्वाभाविक है कि कर्मो का है और न ही आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि हो सकती है। इसलिए उपभोग करने पर यदि उनका नाश हो जाता है तो उपभोग करके श्रीमद् रत्नप्रभाचार्य के अनुसार इस प्रस्ताव में आत्मा को ही कर्मों का नाश क्यों न किया जाये, और उपभोग करते हुए ही प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम-प्रमाण से सिद्ध किया गया मोक्ष क्यों न प्राप्त किया जाये? उसका समाधान करते हुए कहा गया है कि "उपभोग के समय अन्य कर्मो के निमित्त की अभिलाषा यहाँ कहा गया है कि मैं सुखी, मैं दु:खी -इत्यादि तद्वान् के साथ मन-वाणी और शरीर की क्रिया होती है इसलिए जैसे ही सः (तत्) -ऐसा मत्वर्थीय ज्ञान आत्मा का बोधक होता है, क्योंकि आरब्ध कर्मो का उपभोग किया जाता है वैसे ही नये कर्मों का बंध आत्मा को सुख-दुःख आदि का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। 'अनुमान' से भी आत्मा सिद्ध होती है। व्यावृत्तिहेतु से भी होता जाता है और इस प्रकार कर्मों के उपभोग से आत्यन्तिक आत्मा और शरीरेन्द्रियविषय में प्रत्यक्ष भेद है, अर्थात् शरीरेन्द्रियविषय क्षय संभव नहीं हो पाता है। इसलिए कर्मो के आरब्ध होने के पहले तो विशेष्य हैं और आत्मा उसका विशेषण है। यहाँ पर आश्रय- ही संचित अवस्था में तप के द्वारा नाश कर देने पर ही कर्मो से आश्रयी संबंध है, अर्थात् शरीरादि तो आश्रय है और आत्मा आश्रयी आत्यान्तिक मुक्ति होती है, यह सिद्ध हुआ''||34 है। इस प्रकार से आत्मा शरीर से अत्यन्त व्यावृत्त होने से अनुमान यहाँ पर एक जैन सिद्धांत की शंका को भी उपस्थापित से भी आत्मा सिद्ध होती है। किया गया है कि "यदि मोक्ष सुख की इच्छा से ही यदि तप में आगम में भी आत्मा का स्वरुप बताते हुए कहा गया है स्थित हो तो उसके भी सरागत्व होगा और राग होने से कर्म बंध कि जीव 'उपयोग' लक्षणवाला है। 'आगम' शब्द के अन्तर्गत आत्मा होगा ही।" इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि "संसार की सिद्धि की गयी है। इस प्रकार तीनों प्रमाणों से आत्मा को उत्पादव्यय के कारण रुप, कर्म के निमित्तरुप, शरीर-वाणी और मन ध्रौव्ययुक्त प्रतिपादित किया गया है। परंतु बौद्धों की आत्मा तो बुद्धिक्षण की परम्परा मात्र है; 25. ......., समुदायदशायामभिव्यक्तिस्वीकारादिति चेत् ।...; क्षीणस्ते कोई ध्रुव पदार्थ नहीं है, इसलिए उन्हें चार्वाकों से भी निम्न स्तर तत्त्वचतुष्टयवादः, सर्वेषां भूम्यादीनामुपादानोपादेयभावप्रसंगेन का बताया गया । क्योंकि एक क्षण में ज्ञात पदार्थ उसी क्षण के जैनाभिप्रतेपुद्गलैकतत्वादप्रसंगादिति न भूतेभ्यश्चैतन्योत्पादः सद्वादः।" - साथ नष्ट हो जाने पर स्मरण और प्रत्यभिज्ञा आदि सिद्ध नहीं होते28 | अ.रा.भा., प्रस्ताव, द्वितीय अनुच्छेद, पृ. 2,3 ततः प्रत्यक्षादात्मा सिद्धिसौधमध्यमध्यासामास । नन्वात्मनः कि रुपं, यत् बौद्धों का क्षणवाद प्रत्याख्यात करते हुए यह कहा गया है कि "जो प्रत्यक्षेण साक्षाक्रियते ? यद्येवम्, सुखोदेरपि कि रुपं, यद् न्यायवैशेषिकों का आत्मा का विशेषगुणत्व, कपिल का मानसप्रत्यक्षसमधिकाम्यमिष्यते ? । नन्वादनन्दादिस्वभावं प्रसिद्धमेवरुप प्रकृति-विकार स्वरुप, बौद्धों का वासना स्वभाव और सुखादेः, तर्हि तदाधारत्वमात्मनोऽपि रुपमवगच्छतु भवान्। ...अहं सुखीति ब्रह्मवादी (वेदांती) का अविद्या स्वस्म है -यह सब तु ज्ञप्तिरात्मनोऽपि प्रकाशिका 11211- अनुमानतोऽप्यात्मा प्रसिध्यत्येव । - वही पृ.3 प्रत्याख्यात हो जाता है।" इन सबका विशेष विवेचन अभिधान 27. "उपयोगलक्षणो जीवः" इत्यागमप्रदीपोऽप्यात्मानमुद्योतयति। -वही राजेन्द्र कोश में 'कम्म' शब्द के अन्तर्गत किया गया है। 28. ....... बौद्धास्तु बुद्धिक्षणपरम्परामात्रमेवाऽऽत्मानमाम्नासिषुः न इसके आगे 'कम्म' शब्द के अन्तर्गत प्रतिपादित कर्म का पुनमौक्तिककण-निकरनिरन्तरानुस्यूतैकसूत्रवत् तदन्वयिनमेकम्। ते मूर्तत्व सिद्ध करने के लिये विमर्श किया गया है किन्तु आत्मा अमूर्त लोकायतलुण्टके भ्योऽपि पापीयांस:तद्भावेऽपि तेषां है और कर्म मूर्त है, तब इनमें संबंध कैसे हो सकता है? और किस स्मरणप्रत्यभिज्ञाऽऽद्यघटनात् । -वही पृ. 3; अनुच्छेद-3 प्रकार का संबंध हो सकता है ? यह शंका स्वाभाविक है। इसका 29. ततो यद् यौगैरात्मविशेषगुणलक्षणम्, कापिलैः प्रकृतिविकारस्वरुपम्' सौगतैः वासनास्वभावम्, ब्रह्मवादिभिरविद्यास्वरुपम् चाऽदृष्टमवादिा...कम्म शब्दे समाधान करते हुए कहा गया है कि 'अमूर्त जीव और मूर्त कर्म 246 पृष्ठे...1- वही पृ. 5 में संयोग प्रकार का संबंध है।' जैसे कि घट इत्यादि मूर्त पदार्थों अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, तृतीय अनुच्छेद, पृ. 6 का अमूर्त आकाश के साथ संयोग सम्बन्ध होता है । इस प्रकार बीज और अंकुर के दृष्टांत से जीव और कर्म का संबंध स्पष्ट करते 32. अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, पृ. 6; अ.रा.भा.3, पृ. 334 33. अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, पृ. 6; अ.रा.भा.3, पृ. 334 हुए कर्म का अनादित्व भी यहाँ पर सिद्ध किया गया है। और उन 34. न चोपभोगात् प्रक्षये कर्मान्तरस्यावश्यंभावात् संसारानुच्छेदः, मिथ्यात्वियों का खंडन किया गया है जो कहते हैं कि "स्वतंत्रजीव समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्यावगत- कर्म सामथ्र्योत्पाकर्मो से बंध जाते हैं।" कर्म और कर्म का फल बताने के बाद दितयुगपदशेषशरीरद्वाराऽवाप्ताशेषभोगस्य कमान्तरोत्पत्ति मिथ्याज्ञानजनितानुसंघानविकलस्य कर्मान्तरोत्पत्त्यनुपपतेः । न च कर्म के क्षय का विचार किया गया है। यहाँ सिद्धांत को उद्धत किया मिथ्याज्ञानाभावेऽभिलाषस्यैवासंभवात् भोगानुपपति: तदुपभोगं विना कर्मणां गया है प्रक्षयानुपपत्ते ज्ञानतोऽपि तदर्थितया प्रवृत्तेः। -अ.रा.भा.3, प्रस्ताव, पृ.7 26. वही For Private & Personal use only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [74]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के आरंभ रुप न होने से मोक्ष सख की अभिलाषावालों क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । के रागित्व नहीं होता।"35 यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ यहाँ पर टिप्पणी में कर्म-द्वैविध्य के माध्यम से एक और यहीं पर शुद्ध क्रिया और अशुद्ध क्रिया का विवेचन किया सैद्धान्तिक शंका को स्थापित किया गया है कि "तीर्थंकरों के विहार्यमाण गया है। अशुद्ध क्रिया से व्यक्ति कुशील होता है। इसका पूरा विवेचन देश में तीर्थंकरों के अतिशय से 25 योजन तक अथवा 12 योजन 'कुशील' शब्द के अन्तर्गत किया गया है। तक वैरादि नहीं होते हैं तो उन्हीं तीर्थंकरों को उपसर्ग आदि क्यों केवली द्वारा प्ररुपित क्रियाओं का पालन करने से ही केवलज्ञान होते हैं ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि, "कर्म दो उत्पत्ति होती है। इसीलिये केवलज्ञान के प्रस्ताव के निरुपण में प्रकार के होते हैं - सोपक्रम और निरुपक्रम । सोपक्रम का अर्थ है, यहाँ सर्वज्ञ की सिद्धि की गयी है। क्रमप्राप्त केवलियों के भेद बताने जिसका उपचार संभव हो और निरुपक्रम का अर्थ है जिसका कोई के बाद उनके कवलाहार के संबंध में श्वेतम्बरों की दिगम्बरों के साथ उपचार संभव न हो। जैसे उपचार से साध्य व्याधि तो दूर हो सकती जो विप्रतिपत्ति हैं उसका उल्लेख करते हुए वेदनीय कर्म के सद्भाव है परंतु असाध्य व्याधि दूर नहीं होती; उसे तो भोगना ही पडता के कारण क्षुधा इत्यादि का होना संगत है, इसमें कोई सिद्धांत हानि है। उसी प्रकार सोपक्रम कर्मों से होनेवाले वैर आदि जिनातिशय नहीं है। इस प्रकार का पूरा विवेचन 'केवली' शब्द के अन्तर्गत से शांत हो जाते हैं परंतु निरुपक्रम कर्म होने पर तीर्थंकरों को भी देखना चाहिए। उपसर्ग आदि होते हैं जैसे गोशालक इत्यादि के द्वारा किये गये उपसर्ग। बौद्धों का कर्म विषयक सिद्धांत और उसकी विप्रतिपत्ति 'कर्म' शब्द के विस्तार का परिचय देते हुए आगे यह कहा इत्यादि बहुत सारे विषय कर्म के ही प्रसंग में 'खणियवाइ' शब्द गया है कि ज्ञानवरणादि कर्मो के भेद-प्रभेद, बंध-उदय, इत्यादि के अन्तर्गत देखना चाहिए। कर्म के ही प्रसंग में गच्छऔर गच्छ की का समग्र विवेचन 'कम्म' शब्द में दिया गया है। जैन दर्शन में सार्थकता 'गच्छ' शब्द के अन्तर्गत प्रतिपादित की गयी है। कर्म की ही प्रधानता है। सभी तीर्थंकरों ने यही प्रतिपादित किया गुणस्थान का कर्मों के साथ विशेष संबंध होने से गुणस्थान शब्द में जैनदर्शन सम्मत गुणस्थान सिद्धांत का सांगोपांगविवेचन कयण्ण' शब्द के अन्तर्गत कतज्ञता के विषय में 'गुणट्ठाण' शब्द के अन्तर्गत किया गया है, जो इसी शोध-प्रबंध 'विमलकुमार' का दृष्टांत दिया गया है तो 'कला' शब्द के में उचित स्थान पर दिया गया है। अन्तर्गत पुरुष की 72 कलाओं का वर्णन किया गया है। इस प्रकार कर्म के ही प्रसंग में 'गोयरचरिया,शब्द के अन्तर्गत भिक्षाटन क्रमप्राप्त सभी शब्दों का सभी प्रकार से अर्थ स्पष्ट किया गया है । "कल्लाणग' शब्द के अन्तर्गत षट्कल्याणकत्व का खंडन 35. न च मुमुक्षोरपि मुक्ति सुखाभिलाषेण प्रवर्तमानस्य सरागत्वं, करते हुए 'पंचकल्याणकवाद' को तर्को से सिद्ध किया है। सम्यग्ज्ञानप्रतिबन्धकरागविगमस्य सर्वज्ञत्वाऽ न्यथाऽनुपपत्या प्राक् प्रसाधितत्वाद्, भवोपग्राहिकर्मनिमित्तस्य तु वाग्बुद्धिशरीराऽऽम्भप्रवृत्तिरुपस्य 'कसाय' शब्द के अन्तर्गत कषायों का अष्टविधत्व, कर्मद्रव्य सातजनकस्य शैलेश्यवस्थायां मुमुक्षोरभावात्, प्रवृत्तिकारणकषाय, नोकर्मद्रव्य-कषाय - इस प्रकार कषायों का दो वर्गों में विभाजन त्वेनाभ्युपगम्यमानस्य मोक्षसुखाभिलाषस्याप्यसिद्धेर्न मुमुक्षोः रागित्वम् । करते हुए उपपत्ति कषाय, प्रत्यय कषाय, आदेश कषाय, रस कषाय, -वही पृ.7 36. .......ननु तीर्थंकरा यत्र विहरन्ति, तत्र देशे पश्चविंशतियोजनानि, आदेशान्तरेण भावकषाय, का प्रतिपादन किया गया हैं। इनमें नाम कषाय, स्थापना द्वादशानां योजनानां मध्ये तीर्थकरातिशयान्न वैरादयोऽनर्था भवन्ति।... तत्कथं कषाय और द्रव्य कषाय जोड देने से कषाय का अष्टविधत्व हो जाता श्रीमन्महावीरे भगवति पुरिमताले नगरे व्यवस्थिते एवाभग्रसेनस्य पूर्ववणितो है। इनका समग्र विवेचन शोध प्रबंध में यथास्थान किया जायेगा। व्यतिकरः संपन इति? कर्म च द्विधा-सोपक्रम निरुपक्रमं च। तत्र यानि 'काल' शब्द के अन्तर्गत काल की सिद्धि, लक्षण, भेद, वैराऽऽदीनि सोपक्रमसंपाद्यानि, तान्येव जिनातिशयादुपशाम्यन्ति, संदोषधात्साध्यव्यधिवत् । यानि तु निरुपक्रमकर्मसंपाद्यानि तान्यवश्य दिगम्बर मत का अभिप्राय, अन्य मतान्तरों का खंडन कर्म के प्रसंग विपाकतो वेद्यानि असाध्यव्याधिवत् । अत एव सर्वातिशयसंपत्समन्वितानां से किया गया है। कर्म के ही प्रसंग से कृतिकर्म का भी प्ररुपण जिनानामाप्यनुपशान्तवैरभावा गोशालकादय उपसर्गान् विहितवन्त इति । - किया गया है। आगे कर्म क्रिया के अधीन होने से क्रिया का स्वरुप वही पृ. 7 टिप्पणी। 37. -वही प्र.8 बताते हुए साध्यावस्थाक्रिया और सिद्धक्रिया का 'वाक्यपदीय' के अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, पृ. 8 अनुसार स्पष्टीकरण करते हुए पुनः द्रव्यक्रिया और भावक्रिया का भेद 'कल्लाणग' शब्दे वीरस्य तीर्थकरनामकर्मयोगात् पञ्च कल्याणकानि निरुप्य प्रभेदपूर्वक जैन सिद्धांतानुसार विवेचन किया गया है। यहीं पर षट्कल्याणक वादिमतनिराकरणम्। -वही मिथ्याक्रिया, प्रयोगक्रिया इत्यादि क्रिया का पंचविंशतिविधत्व (25 कर्मक्रिययोभित्रवस्तुत्वेऽपि कर्मणः क्रियाऽधीनत्वात् 'किरिया' शब्दे क्रियायाः स्वरुपनिरुपणे तीर्थान्तरीयमतसंग्रहः - वही पृ.9 प्रकार) सूचित किया गया है। ये सब (25) हेय क्रियाएँ हैं। 41. ..... क्रियास्वरुपैरपि क्रियायाः पञ्चविंशतिविधत्वम् ।....ज्ञानं आत्मोन्मुख ज्ञान एवं क्रिया से मोक्ष होता है। यहाँ पर क्रिया स्वरुपरमणरुप स्वरुपाभिमुखवीर्यप्रवृत्तिक्रिया, एवं ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः । तत्र ज्ञानम्है जो कि चारित्र, वीर्य और गुणों के एकत्व की परिणति की साधिका स्वपरावभासनरुपम्, क्रिया-स्वरुपरमणरुपा, तत्र चारित्रवीर्यगुणैकत्वपरिणतिः क्रिया सा साधिका। अ.रा.भा., प्रस्ताव पृ. 10 हैं। । यहाँ पर कहा गया है ......घातिकर्मोद्भवा अज्ञानादिका दोषाः प्रसिद्धाः तदभावेऽपि वेदनीयोद्भवा क्रियाविरहितं हन्त ! ज्ञानमात्रमनर्थकं, क्षुधा किं न स्यात् । न हि वयं भवन्तमिव तत्वमनालोच्य क्षुत्पिपासाऽऽदिनैव गतिं विना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितं ॥ दोषानभ्युपगमो, येन निर्दोषस्य केवलिनः क्षुधाऽद्यभावः स्यात; - अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, पृ. ॥ 42. | Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [75] का समग्र विवेचन किया गया है जो इसी शोध प्रबंध में यथास्थान और समर्पण का परिचय देते हुए तृतीय भाग का 'प्रस्ताव' अलंकृत दिया गया है। किया है। __ चैत्यवंदन भी भावक्रिया से संबंधित होने से 'चेइय' अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 4 शब्द के अन्तर्गत कर्म के ही प्रसंग में चैत्यवंदन एवं चैत्यों का घण्टापथ : एक परिचयःपंचविधत्व प्रतिपादित किया गया है। साथ ही ढूंढकमतीय चैत्यवंदन अभिधान राजेन्द्र कोश की मुख्य वस्तु के अतिरिक्त सहायक संबंधी विप्रतिपत्ति का भी प्रतिपादन किया गया है। यहीं पर विषय-वस्तु में प्रस्तावना, उपोद्घात परिशिष्ट, मंगलाचरण एवं प्रशस्ति चैत्य संबंधी अनेक विषयों के साथ ही प्रतिमा का फलदत्व, प्रतिमा आदि को समाहित कर उसका परिचय दिया गया है। इसी क्रम का प्रामाण्य, बिंबकारण विधि एवं बिंब-प्रतिष्ठाविधि, जिनचैत्य में अभिधान राजेन्द्र कोश के चतुर्थ भाग में उपाध्याय श्री मोहन विजयजी के अंदर व्यंतरायतन विधान इत्यादि बहुत से विषयों का विवेचन के द्वारा लिखा गया चतुर्थ भाग का 'घण्टापथ' भी प्रस्तावना के किया गया है। रुप में लिखा गया है, इसे चतुर्थ भाग की दूसरी प्रस्तावना कहा चैत्य और चैत्यवंदन का भी विस्तार बहुत है। 'चेइयंवंदन' जा सकता है। शब्द के अन्तर्गत त्रिविध वंदना, चतुर्विश-तिस्तवः, चैत्यवंदनवेला, जैसा कि पूर्व में विमर्श किया जा चुका है, अभिधान राजेन्द्र चैत्यवंदनविधि इत्यादि बहुत से विषय वर्णित हैं । जो शोध प्रबंध कोश की विषय-वस्तु का विभाजन चार भागों में होने का उल्लेख में यथास्थान विवेचित हैं" तृतीय भाग के प्रस्ताव के अन्त में वलभीपुर में हुई प्रथम संशोधकद्वय, मुनिश्री दीपविजयजी एवं मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी द्वारा किया गया है, जब कि यह ग्रंथराज सात भागों में प्रणेता द्वारा स्वयं वाचना एवं उसमें लिये गये निर्णय के अनुसार अनेक आगम ग्रंथों ही विभक्त किया था - ऐसा सिद्ध भी कर आये हैं। उपाध्याय श्री का निर्माण एवं भद्रबाहुस्वामी इत्यादि आचार्यों के द्वारा निर्मित नियुक्ति, मोहन विजयजी ने 'घण्टापथ' लिखते हुए इसे 'चतुर्थ भाग- घण्टापथ' भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति इत्यादि की रचना का संकेत किया गया यह नाम दिया है और यह उपलब्ध चतुर्थ भाग की प्रस्तावना के है। वहाँ कहा गया है कि पंचमकाल में काल प्रभाव से पठन बाद निबद्ध किया गया है। पाठन से पराङ्मुख, दुःखों से अभिभूत और विस्मरणशील 'घण्टापथ' में अनेकत्र यह उल्लेख किया गया है कि अमुक मनुष्यों के जैनागमरुपी सागर में तैरना कथमपि संभव नहीं विषय तृतीय भाग की प्रस्तावना में कहा गया है, जैसे -"यद्यपि था, इसलिए जैनागमों का लेखन एवं उसकी व्याख्याएँ तृतीयभागप्रस्तावे समासेन निरुपितोऽयं विषयः प्रयत्नप्रयतैहुई। उनमें से भी केवल 45 आगम ही प्राप्त होते हैं। उन रस्माभिस्तथापि वाचकवर्गमन:पोषाय कदाग्रहग्रहिलतोषाय सोहापोहं भगवतां आगमों को भी इस छोटी सी आयु में उदरपूरण में लगे हुए तीर्थकृतां रागद्वेषविप्रमुक्तत्त्वमेवोद्घाट्यते.... " लोग दृष्टिगोचर भी नहीं कर सकते, ऐसा विचार करके श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने समस्त आगमों के संग्रह रुप ___43. ....। कर्मसम्बन्धादेवीचैत्यवन्दनविधानविषये 'चे इय' शब्दे इस अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना की। दुण्ढकमतीयविप्रतिपत्तिप्रतिपादनपुरस्सरं तद्भमसंशोधनं । ...चैत्यस्य पञ्चविधत्वं...भावार्हद्दर्शनम् यथा भव्यानां स्वर्गतफलं प्रत्यव्यभिचारि,.....जैसा कि महानुभावों का स्वभाव होता है तदनुसार ही संशोधक वही पृ.12 महोदयों ने अनेक कारणों से बाधाएँ आने पर भी इस श्रेष्ठ कोश 44. अ.रा.भा.3. प्रस्ताव, पृ.14 का संपादन किया फिर भी, अंत में अपने स्खलन को मिथ्यादुष्कृत 45. ततः श्री वर्द्धमानस्वामिनिर्वाणादनन्तरं खीस्टस्य 454 (ई.) वर्षादारभ्य 467 उक्तिपूर्वक क्षमापना की है। (ई.) वर्षमध्ये श्री वलभीपुरे श्रमणदेवर्द्धिगणिक्षमा श्रमण अंत में तीन गुर्वष्टक दिये हुए हैं। प्रथम गुरु-अष्टक उपाध्याय संघाधिपतिशासनावसरे बहवो जैन विद्वांसः... निर्माय्याने कशः सूत्रादर्शपुस्तकानि तत्तनगरे पुस्तकभाण्डागाराणि व्यधुः...ततस्तदुपरि श्री मोहनविजयजी द्वारा रचित है। इसमें आठ श्लोक गुरुदेवश्री की विस्मृतपदार्थसार्थस्मृतिलभमानानां जनानां स्मरणकृते श्री भद्रबाहुस्वामिप्रभृतयो उपासना विषयक है एवं नौवां श्लोक उपसंहार विषयक है। इसके छठे भूयांसो विद्वांसो नियुक्ति भाष्यचूणिटीका व्यरचयत ।... श्लोक में प्रस्ताव के ही अनुरुप राजेन्द्र कोश के निर्माण के हेतु का भयंकरदुर्भिक्षराज्यविप्लवादिवशतः प्रभुताग्रन्था विलयपथमभजन् ...तथाऽपि संकेत किया गया है और अंतिम श्लोक में गुरु-अष्टक के पढने का फल तेषां मध्ये पञ्चचत्वारिशदागमाः साम्प्रतमपि... विलन्त्येव । हन्त ! बताते हुए कहा है- "जो मनुष्य इस गुरु-अष्टक को पढता है तेषामपि स्वल्पीयसाऽऽयुषा न क्षमः स्वोदरपूरणं विधाय कोऽपि विलोकितुमपि विचार्यैव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरमहानुभावः कोशममुं वह भाव-शुद्धि के कारण अनुपम सुख प्राप्त करता है और सकलागमसंग्रहात्मकं व्यरचयनिति । जन्मांतर में मुक्ति प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता हैं।" -अ.रा.भा.3, प्रस्ताव, पृ. 14 अंतिम अनुच्छेद दूसरा गुरु-अष्टक मुनि श्री दीपविजयजी (श्रीमद्विजय भूपेन्द्र 46. जैनाऽऽगमस्य न च संचरणं तथाऽस्ति, कालप्रभावत इतीव विचिन्त्य चित्ते । सूरीश्वर जी) द्वारा रचित है। इसके भी छठे श्लोक में और नौवें श्लोक संपूर्णजैनवचनैकनिधानभूतं, राजेन्द्रकोशमतुलं निरमापयद् यः ॥6।। में वे ही विषय वर्णित हैं जो कि पहले गुरु-अष्टक में आये हैं"। गुर्वष्टकं पठति यः प्रयतस्तु भक्त्या, श्रीमोहनेन मुनिना रचितं मनुष्यः । संप्राप्य सौख्यमतुलं ननु भावशुद्धे-र्जन्मान्तरे भवति मुक्तिपदाधिकारी 19॥ मुनि यतीन्द्र विजय (श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरि) द्वारा विरचित - प्रथमगुर्वष्टकम्। तीसरे गुरु-अष्टक में राजेन्द्र कोश निर्माण का कारण पांचवें श्लोक 47. .....निखिलमपि निजाङ्गोपाङ्गमेकत्र कृतवा, व्यरचयदमलं यो में वर्णित है+8 और नौवें श्लोक में गुरु-अष्टक पठन का फल बताया भव्यराजेन्द्रकोशम् ||6|| - द्वितीय गुर्वष्टकम् गया है। ___48. भवस्थान् जनान् दुःषमारप्रसूतानमन्दाज्ञताध्वान्तनष्टान् निरीक्ष्य। इस प्रकार तीनों संशोधकोंने अपने गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा निधानं समस्ताऽऽगमानामकार्षीत् तदुद्धारहेतुं च राजेन्द्रकोशम् ।।5।। 49. अ.रा.भा.4, 'घण्टापथ' -पृ.1, प्रथम अनुच्छेद । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा [76]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन "एतेन तृतीयभागप्रस्तावोपन्यस्तपराभि- स्वभावभूत है। इनमें आत्मा परिणामीनित्य है। इसके ज्ञानावरणीय संघानविमुखत्वं भगवतस्तीर्थकरस्य राग-द्वेषजेतृत्वेन कर्मो के अत्यन्त प्रकर्ष होने पर भी ज्ञान का निरन्वय विनाश नहीं सर्वतोभावेन समर्थितम् ।'50 हो पाता। क्योंकि यदि ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से धर्मी और धर्म दोनों का निरन्वय विनाश मानेंगे तो स्वभाव के ही लोप का प्रसंग “अथ (जमालि प्रसंगादेव) तृतीयभागप्रस्ता-वस्य आ जायेगा। लेकिन रागादि तो कर्म विपाक के उदय से सम्पादित पञ्चमे पृष्ठे ‘चत्वार्येव भूतानि तत्त्वं न तु तद्व्यतिरिक्तो होने से सत्ता में आते हैं, इस कारण से कर्म का निर्मूल नाश हो भवान्तरानुसरण-व्यसनवानात्मतिचार्वाक चर्चा पराकरणं जाने से उन रागादि दोषों का भी निर्मूल नाश हो जाता है । इत्यादि विधाय जीवसिद्धस्यपादिता, इह तु...।" प्रकार से तीर्थंकरों के रागद्वेष विप्रमुक्तत्व की सिद्धि की गयी है। जैसा कि 'घण्टापथ' शब्द से ही ध्वनित होता है कि इस रागादि दोषों की कारणता के विषय में चार्वाक मत को उपस्थित में उपाध्यायश्री कुछ विशेष ध्वनित करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश करते हुए उसका भी प्रत्याख्यान इसी अनुच्छेद में किया गया है। के उद्देश्य एवं अध्ययन विधि के बारे में कहना चाहते हैं कि 'यह चार्वाकों का कहना है कि ये रागादि लोभादि कर्मों के विपाक और उदय से नहीं होते हैं, किन्तु कफ आदि प्रवृत्ति के कारण होते हैं। कोश मात्र शब्दार्थ का संग्रहनहीं है, मात्र आगमों की शब्दावली जैसे: -कफ से राग, पित्त से द्वेष और वात से मोह । इसलिए चूंकि का विवेचन नहीं है, लेकिन इसमें आये हुए शब्दों की व्याख्या कफादि तो शरीर में सदा ही रहते हैं अतः वीतरागत्व तो संभव नहीं में यथास्थान वादियों के मतों का खंडन करते हुए 'स्याद्वाद' हैं। इस प्रतिज्ञा का खंडन करते हुए कहा गया है कि हेतु तो और उसके उपदेष्टा तीर्थंकरों के शासन की युक्तियुक्तता तब कहा जायेगा जबकि हेतुमान का व्यभिचरण न करता हो। लेकिन प्रतिपादित की है।' इस प्रकार 'घण्टापथ' में जैन शासन के लक्ष्य ऐसा नहीं होता; कफ प्रकृति वालों में भी द्वेष आदि देखे जाते हैं और उद्देश्य के साथ वीतरागत्व, तीर्थंकरत्व और स्याद्वाद का परिचय और पित्तप्रकृति में भी राग और मोह देखे जाते हैं। इत्यादि प्रकार दिया गया है। यहाँ पर सादि-अनंत मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधनभूत से चार्वाकों के मत का विभिन्न युक्तियों से खंडन किया गया है।57 धर्म और वस्तु के स्वभावरुप धर्म दोनों का ही विशेष रुप से परिचय 50. वही, पृ.4, प्रथम अनुच्छेद। दिया गया है जो कि एक दूसरे से अनुस्यूत हैं, अर्थात् निवृत्ति 51. वही, पृ. 5 द्वितीय अनुच्छेद। के साधन-स्वरुप धर्म (चारित्र), वस्तु (जीव द्रव्य) के 52. रागद्वेषाऽ ऽ धन्तरङ्गारविप्र मुक्तां पराभिसंधानाध्ययनविमुखासहभावी धर्म का ही क्रियात्मक स्म है। इस शोध-प्रबंध का स्तत्त्वपारावारतलस्पर्शिनः परदुर्गतिसमापनदुर्भगजनताप्रकारान्तर से विषय भी यही है। घण्टापथ के प्रथम अनुच्छेद में निरीक्षणसमुत्पन्नकरुणरसो -द्गारपुलकितान्तः करणा दरीदृश्यन्ते, तद्वचनसुधासारणीसमवगाहन- सुखैषिणः पुरोभागिभिन्नां के वा न भवेयुः? यह बताया गया है कि तीर्थंकर राग-द्वेष से मुक्त होते हैं और इसी -अ.रा.भा.4, घण्टापथ, पृ.1, प्रथम अनुच्छेद कारण उनका उपदेश सदा ही समीचीन होता है; कभी भी असमीचीन 53. ननु तीर्थकृतां रागाऽऽदिभिः सहाऽऽत्यान्तिको वियोगोऽसंभवः, नहीं होता, असमीचीनता में कारण वैकल्य होने से। इस विषय प्रमाणबाधनात् । तच्च प्रमाणमिदम् यदनादिमद् न तद्विनाशमाविशति, में उपाध्यायश्री ने पहले पूर्वपक्ष स्थापित किया है और फिर उत्तर यथाऽऽकशम्, अनादिमन्तञ्चरागाऽऽदय इति । किञ्च रागाऽऽदयो धर्माः. पक्ष, अनुयोग-प्रत्यनुयोग द्वारा पूर्वपक्ष का खंडन करते हुए सिद्धांत ते च धर्मिणो भिन्नां, अभिन्ना वा ?। यदि भिन्नास्तहि सर्वेषामविशेषेण वीतरागत्वप्रसङ्गः, रागेभ्यो भिन्नत्वात् विवक्षितपुरुषवत् । अथाभिन्नास्तहि को स्थापित किया है। तत्क्षये धर्मिणोऽप्यात्मनः क्षयः, तदभिन्नत्वात् । तत्स्वरुपवत्, इति कुतस्तेषां यहाँ पर प्रश्न के रुप में पूर्वपक्ष स्थापित किया गया है वीतरागत्वम् ? तस्यैवाऽभावादिति । -वही कि "तीर्थंकरों के रागादि दोषों का आत्यान्तिक नाश असंभव है क्योंकि 54. ...यद्यपि रागा ऽऽदयो दोषा अनादिमन्तः, तथापि कस्यचित् स्त्रीशरीराऽऽदिषु रागादि अनादि सम्बद्ध हैं और जो-जो अनादि होते हैं वे नष्ट नहीं यथा ऽवस्थित-वस्तुतत्त्वावगमेन तेषां रागाऽऽदीनां प्रतिपक्षभावनात: होते, जैसे आकाश। दूसरे यदि ये रागादि जीव से भिन्न धर्म हैं प्रतिक्षण-मपचयो दृश्यते, ततः संभाव्यते-विशिष्टकालाऽऽदिसामग्रीसद्भावे या अभिन्न धर्म ? दोनों ही पक्षों में प्रमाण से बाधा है। यदि भिन्न भावनाप्रकर्षविशेषभावतो निर्मूलमपि क्षयः । - वही 55. द्विविधं हि बाध्यम् - सहभूतस्वभावभूतम्, सहकारिसंपाद्यस्वभावभूतं च । है तो सभी जीवों के वीतरागत्व का प्रसंग आ जायेगा और यदि तत्र यत् सहभूतस्वभावभूतं, तन्न कदाचिदपि निरन्वयविनाशमाविशति, ज्ञानं अभिन्न है तो धर्म का नाश होने से धर्मी के नाश होने का प्रसंग चाऽऽत्मनः सहभूतस्वभावभूतम्, आत्मा च परिणामी नित्यः, ततोऽत्यन्त आ जायेगा।" प्रकर्षवत्यपि ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मोदये न निरन्वयविनाशो ज्ञानस्य इसके उत्तर में कहा गया है कि यद्यपि रागादि अनादि है फिर रागाऽऽदयस्तु लोभाऽऽदिकर्मविपाकोदयसंपादितसताकाः, ततः कर्मणो भी विशेष अवस्था में स्त्री आदि के शरीर में रागादि होने पर भी वस्तु निर्मूलमपगमे तेऽपि निमूर्लमपगच्छन्ति । तत्त्व का ज्ञान होने पर उसके प्रति रागादि कम होते जाना देखा जाता है -अ.रा.भा.4, घण्टापथ, पृ.1, प्रथम अनुच्छेद 56. अत्राऽऽहुर्बार्हस्पत्यां -"नैते रागाऽऽदयो लोभाऽऽदिकर्मविपाकोदयनिबन्धनाः, और कभी-कभी लब्धि के योग से उसका निर्मूल क्षय भी हो जाता किन्तु कफादिप्रकृति- हेतुकाः।" ....ततो न वीतरागात्वसंभवः । -वही है । इत्यादि प्रकार से प्रथम शंका का समाधान किया गया। दूसरी पृ.2 शंका का समाधान निम्न प्रकार से किया गया हैं : तथाहि -स तद्धेतुको, यो यं न व्यभिचरति----वातप्रकृतेरपि दृश्यते रागद्वेषौ, बाध्य दो प्रकार का होता है - सहभूतस्वभावभूत और सहकारी कफप्रकृतेरपि द्वेषमोहौ, पित्तप्रकृतेरपि मोहरागौ, ततः कथं रागाऽऽदयः संपाद्यस्वभावभूत । उनमें से जो सहभूतस्वभावभूत होता है वह कभी कफदिहेतुकाः? ---अथपक्षान्तरं गृह्णीथाः -यदुत न कफहेतुको रागः, भी निरन्वय विनाश को प्राप्त नहीं होता अर्थात् धर्म और धर्मी दोनों किन्तु कफादिसाम्यहेतुकः । तथाहि कफादिदोषसाम्ये विरुद्धव्याध्यभावतो का नाश एक साथ ही संभव होता है। आत्मा और ज्ञान सहभूत रागोद्भवो दृश्यत इति। तदपि न समीचीनम् । -वही Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन इसी में आगे शुक्र आदि धातुओं की राग हेतुता का खंडन किया गया है। वहाँ कहा गया है कि यदि शुक्र धातु ही राग का कारण है तो उसकी उपस्थिति में सभी स्त्रियों के प्रति राग उत्पन्न हो जाना चाहिये लेकिन नहीं होता " । - यहाँ किसी अन्य मत का संकेत करते कहा कि रागादि दोष पृथ्वी आदि भूतों के धर्म हैं, जैसे कि पृथ्वी और जल की बहुलता होने पर राग, तेज और वायु की बहुलता होने पर द्वेष, और जल और वायु की बहुलता होने पर मोह होता है। इस सिद्धांत का भी उचित रीति से खंडन किया गया है। और अन्त में यह कहा गया है कि तीर्थकरों के रागादि रहितता होती है ऐसा सिद्ध किया है । और इसलिए 'जिन' शब्द की व्युत्तपत्ति से रागद्वेष आदि शत्रुओं को जीतने का अर्थ लेना बताया गया है। 'राग' नष्ट हो जाने पर मित भाषण में कोई कारण न रहने से जिनवर के वचनों की उपादेयता स्वतः सिद्ध हो जाती है और प्रामाणिकता भी। जिनेन्द्र देव के वचनों की प्रामाणिकता का प्रकरण प्रस्तुत करते हुए यह प्रश्न उठाया गया है कि जैसा कि श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि कहते हैं कि जिनेन्द्र के वचन मिध्यात्वियों के दर्शनों का समूह है तो भला उसकी प्रामाणिकता क्यों मानी जानी चाहिए"। जैसे: एक वाक्य मिथ्या है, ऐसे अनेक मिथ्या वाक्यों का समूह भी मिथ्या ही हो सकता वह सम्यग् कैसे हो सकता है ? जैसे विष द्रव्य के कणों का समूह कभी अमृत नहीं हो सकता उसी प्रकार अनेक मिथ्यावादियों के सिद्धांत मिलकर कभी सम्यग् नहीं हो सकते। इस पूर्व पक्ष का खंडन करते हुए कहा गया है कि परस्पर संयोगविशेष प्राप्त होने पर अनेक विर्षों का समूह अमृत का कार्य करता है और दूसरे स्वतंत्र विष से पीडित रोगी को उस विष समूह का प्रयोग चिकित्सा के रुप में किया जाता है। इसी प्रकार मधु और धृत के विशिष्ट संयोग से द्रव्यान्तर उत्पन्न होते हुए विष का कार्य होने लगता है और मृत्यु का कारण होता है। इसलिए निरपेक्ष रुप से नैगमादि नय तो दुर्नय हैं परंतु सापेक्ष कथन करने पर वे ही नय सुनय कहे जाते हैं। इत्यादि प्रकार से स्याद्वाद के सातों भंगों का सापेक्ष रुप कथन होने से सम्यक् प्रतिपादन किया गया है। इसके विस्तार का संकेत करते हुए कहा गया है कि अभिधान राजेन्द्र कोश के 'जिणवयण' शब्द के अन्तर्गत इसका विशेष विस्तार है 3 । जिनवचन की प्रामाणिकता के विषय में एक प्रसिद्ध कथा 'जमालि की कथा' के नाम से उल्लेखित है जिसमें 'क्रियमाणं कृतम्' - इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है, और इस सिद्धांत को न माननेवाले जमालि की ओर संकेत किया गया है। इसी जमालि की कथा का प्रसंग तृतीय भाग की प्रस्तावना में भी आया है। इस कथा में 'चार ही भूत तत्त्व हैं' -इस सिद्धांत का खंडन किया गया है, ऐसा कहा गया है। उसके आगे की कथा 'घण्टापथ' में संकेतित की गयी है। वहाँ बताया गया है कि भगवान महावीर जमालि को संबोधित करते हुए बोले कि 'जीव और अजीव ये दो प्रकार के तत्त्व हैं।' यहाँ पर जीव का विशेष विवरण करते हुए जीव के प्राणों, भिन्न-भिन्न प्रकार से जीव के भेदों, जीव के स्वभाव, जीव के अनादित्त्व और अनिधनत्व आदि धर्मो संकेत करते हुए यह कहा गया है कि विशेष जानकारी के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश में 'जीव' शब्द देखना चाहिए" । द्वितीय परिच्छेद ... [77] योग और ध्यान संबंधी विवरण जानने के लिए 'जोगविहि' और' झाण' शब्द को देखना चाहिए।67 इसके आगे नमस्कार महामंत्र संक्षेप - विस्तार के लिए स्पष्टीकरण दिया गया है, पंचविध नमस्कार ही योग्य है। इससे संक्षिप्त नमस्कार भी उचित नहीं और इससे विस्तृत नमस्कार भी उचित नहीं" । 'णय' शब्द, 'णरग' शब्द, 'णाण' शब्द 'णिगोय' शब्द और 'णिव्वाण' शब्दों के अन्तर्गत आयी हुई विषय वस्तु का दिग्दर्शन कराते हुए निर्वाण को प्राप्त करने वाले जीवों में से तीर्थंकर जीवों के विषय में परिचय प्रारंभ किया गया है। वहाँ कहा गया है कि " जो तीर्थ की स्थापना करते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं।" ये अचिन्त्य प्रभाव और महान् पुण्य वाले तीर्थंकर नाम कर्म के प्रभाव से होते है । यहाँ पर तीर्थ की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि जिससे जीव मिथ्यादर्शन, अविरति की गंभीरता से युक्त महाभीषण कषाय-स्पी पाताल पर आश्रित अत्यन्त कठिनाई से जीतने योग्य मोहरूपी आवर्तवाले विचित्र दुःखों के समूहों को उत्पन्न करनेवाले, राग-द्वेष पवन से 'क्षुब्ध, संयोग-वियोग की तरंगों से युक्त, प्रबल मनोरथों 58. ....शुक्रोपचारहेतुको रागो नान्यहेतुक इति। तदपि न युक्तम् । ... रुपरहितायापमि कपि रागदर्शनात् । - वही 59. एतेन यदपि कश्चिदाह पृथिव्यादिभूतानां धर्मा एते रागाऽऽदयः । तथाहि - पृथिव्यम्बुभूयस्त्वे रागः, तेजोवायुभूयस्त्वे द्वेषः, जलवायुभूयस्त्वे 60. एतेन सिद्धं रागादिविरहवत्त्वं तीर्थकृतां भगवताम् । अतएवं रागद्वेषाऽऽदिशत्रून् जयन्त्यभिभवन्तीति तीर्थकृत्पर्यायस्य जिनशब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं च भावयन्ति भावुकाः । - अ. रा. भा. 4, घण्टापथ, पृ. 3, प्रथम अनुच्छेद ....तथापि मिथ्यादर्शनसमूहमयत्वाद् जिनवचनस्य कथं प्रामण्यमङ्गीकरणीयम् ? | जिनवचनस्य मिध्यात्विदर्शनसमूहरूपत्वं तु श्रीसिद्धसेनदिवाकरोऽप्यभ्युपगच्छति । - अ.रा.भा.4, घण्टापथ, पृ. 3, प्रथम अनुच्छेद दृश्यन्ते हि विषाऽऽदयोऽपि भावाः परस्परसंयोगविशेषमवाप्तां समासादितपरिणत्यन्तरा अगदरूपतामात्मसात्कुर्वाणाः, मध्वाज्यप्रभृतयस्तु विशिष्टसंयोगावाप्तद्रव्यान्तरस्वभावा मृतिप्राप्तिनिमित्तविषरुपतामासादयन्तः । 61. 62. 63. 64. 65. 66. 67. 68. 69. वही -वही पृ.3 -वही पृ.4 अथ (जमालि प्रसङ्गादेव) तृतीयभागस्य प्रस्तावस्य 2 पृष्ठे चत्वार्येव भूतानि तत्त्वम्, न तु तद्व्यतिरिक्तो भवान्तरानुसरणव्यसनवानात्मेति चार्वाकचर्चापराकरणं विधाय जीवसिद्धिरुपपादिता । - वही, पृ. 5 की अन्तिम पंक्ति एवं पृ.6 की प्रथम दो पंक्तियाँ - अ. रा. भा. 4, पृ.6, घण्टापथ -वही पृ. 7 तस्मात् संक्षेपतोऽपि पञ्चविध एवं नमस्कारो, न तु द्विविधः, अव्यापकत्वात् । विस्तरतस्तु नमस्कारो न विधीते, अशक्यत्वात् । अ. रा. भा. 4, पृ. 7 घण्टापथ, द्वितीय अनुच्छेद ....तीर्थ करणशीलास्तीर्थ कराः, महापुण्यसंज्ञिततन्नामकर्मविपाकत::... - वही पृ. 9 अचिन्त्यप्रभाव Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [78]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन की लहरों से भरे हुए जन्म-जरा-मरण-रुपी जलवाले संसार है इसीलिए उपाध्याय श्री मोहन विजयजीने 'धम्म' शब्द का परिचय सागर से तरते हैं, उसे तीर्थ कहते हैं। देते हुए अपने कथन को विराम दिया है। वस्तुतः तो चतुर्थ भाग यहाँ पर तीर्थंकरों के तीर्थप्रवर्तन स्वरुप को बताते हुए असर्वज्ञत्व में नकारादि शब्दों का विवेचन पूरा हो जाता हैं। के बारे में पूर्वपक्ष स्थापित किया गया है और फिर उसका खंडन विमर्श:किया गया है। इस विषय का विशेष वर्णन 'तित्थयर' शब्द पर अभिधान राजेन्द्र कोश का क्लेवर इतना विस्तृत है कि किया गया है। उसके प्रत्येक भाग का सामान्य एवं विशेष परिचय देना आवश्यक इसके आगे स्तव प्रकरणका विस्तार किया गया है कि द्रव्य था। आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने जिस उद्देश्य से और स्तव और भाव स्तव - दो प्रकार के स्तव होते हैं। इनमें से साधुओं जिस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना की है को और श्रावकों को कौन सा स्तव उपादेय होता है- इसकी सहेतुक उसको यदि प्रस्तुति के माध्यम से न समझाया जाता तो अध्येताओं और विद्वानों को इसके उपयोग की सही दिशा नहीं मिल पाती। चर्चा की गयी है। इसका विशेष विस्तार 'थय' शब्द के अन्तर्गत प्रस्तुति चाहे स्वयं रचयिता के द्वारा की जाये या फिर संपादक देखना चाहिए, ऐसा संकेत दिया है। या संशोधक के द्वारा की जाये, उसमें ग्रंथ का समग्र चित्र एकसाथ इसके आगे स्थविरकल्प (थविरकप्प) पर विचार किया गया दृष्टिपथ में आ जाता है। अभिधान राजेन्द्र कोश के संशोधकद्वय मुनि हैं। यहाँ कहा गया है कि दो प्रकार के साधु होते हैं - गच्छप्रतिबद्ध श्री दीप विजयजी एवं यतीन्द्र विजयजी का अपने गुरुदेव आचार्य और गच्छबहिर्गत । इन दोनों के पुनः दो-दो भेद होते हैं-जिनकल्पिक श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के साथ प्रत्यक्ष सान्निध्य रहा है। और स्थविर कल्पिक। इन सब में क्या विशेषता हैं ? इसका संकेत यही नहीं, संशोधकद्वय का इस ग्रंथ के लेखन में भी सक्रिय सहयोग भी यहाँ पर किया गया हैं। 72 रहा है। और ग्रंथ के प्रथम-प्रकाशन काल में इन्होंने ही इस ग्रंथराज इसके आगे द्रव्य-स्तव और भाव-स्तव का संकेत करते का संपादन एवं संशोधन भी किया है। हुए द्रव्य-गुण-पर्याय का जैन सिद्धांतानुसार विवेचन करते हुए यह तात्पर्य यह है कि संशोधक द्वय के हृदय-कुम्भ अभिधान संकेत किया गया है कि वैशेषिक रीति से प्रतिपादित द्रव्य-सिद्धांत राजेन्द्र कोश के तत्त्व से पूर्ण भरे हुए थे, उन्हें इस ग्रंथ की आत्मा का खंडन 'दव्व' शब्द में देखना चाहिए। का जितना साक्षात्कार हुआ होगा उतना अन्य किसी को हो सके, आगे दान प्रकरण का प्रारंभ करते हुए दीक्षा के अधिकारी यह असंभव सा प्रतीत होता है। का विवेचन किया गया है। 'दीक्षा' दुःख की निवारक कही गयी हमने यहाँ कुछ पत्रों में ही सीमित सामग्री के माध्यम से है। इसी के साथ दुःख का स्वरुप बताते हुए गर्भ से लेकर आगे उपलब्ध सभी प्रस्तावों का परिचय दिया है। अभिधान राजेन्द्र कोश की विषय-वस्तु के परिचय के प्रसंग में यह संकेत कर दिया गया तक के दुःखों का संकेत किया गया है। चारों गतियों के दुःखों है कि इस कोश का विभाजन सात ही भागों में हुआ है परंतु पांचवें, का संकेत करते हुए यह कहा गया है कि इसका विशेष विवरण छठे और सातवें भाग में किसी भी शीर्षक से प्रस्तावना नहीं दी 'दुःख' शब्द के अन्तर्गत आया हुआ है।74 गयी है जबकि प्रथम भाग में तीन प्रकार से प्रस्ताव प्राप्त होता हैं : जिन वचनों में श्रद्धा-अश्रद्धा का प्रकरण प्रारंभ करते हुए (1) प्रस्तावना (2) उपोद्धात और (3) द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना । 'दोकिरिय' शब्द के अन्तर्गत आये हुए 'आर्यगङ्ग' के चरित्र का इनमें से प्रस्तावना उपाध्याय श्री मोहन विजयजी (आचार्य श्रीमद् संक्षिप्त उल्लेख करते हुए जिनवचन में अश्रद्धा का उदाहरण दिया गया विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के अन्तेवासी शिष्य) द्वारा हिन्दी भाषा में है। तत्पश्चात् जिनवचनों में श्रद्धा और जिनाज्ञा का पालन करना जैनों 70. ....येने ह जीवा जन्ममरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगंभोरं का परम धर्म है - ऐसा प्रस्ताव रखते हुए 'धर्म' शब्द से लोक महाभीषणकषायपातालं सुदुर्लध्यमोहाऽऽवर्तरौद्र विचित्रदुःखौधदुष्टश्वापदं में गृहीत दो अर्थों का संकेत किया गया है। सबसे पहले वस्तु का रागद्वेषपवनविक्षोभितं संयोगवियो-गवीचीयुक्तं प्रबलमनोरथवेलाकुलं स्वभाव ही धर्म है - इस सिद्धांत का प्रतिपदान किया गया है। सुदीर्घसंसारसागरे तरन्ति तत्तीर्थमिति ।-वही और इसके बाद क्रम प्राप्त मोक्ष के साधन भूत चारित्र स्म धर्म का 71. अथ द्रव्यस्तव-भावस्तवयोः...द्रष्टव्यं प्रज्ञावद्भिः ।-वही, पृ. 10, द्वितीय विस्तृत विवेचन किया गया है। यहाँ पर रात्रि भोजन त्याग का अनुच्छेद भी संकेत किया गया है। जोकि जैन धर्म का प्रथम सोपान है। वही, पृ.10, तृतीय अनुच्छेद 73. वैशेषिकरीत्या द्रव्यप्रतिपादनं, तत्खण्डनं च 'दव्य' शब्दे 2465 पृष्ठे द्रष्टव्यम् । किन्तु आजकल धर्म के नाम से अनेक मिथ्यामतों का __-अ.रा.भा.4, पृ.4, घण्टापथ पृ.11 प्रचलन हुआ है, उस पर विचार करना चाहिए.7 ऐसा उल्लेख करते 74. अ.रा.भा.4, पृ.4, घण्टापथ पृ.11-12 हुए विभिन्न प्रचलित मतों के गुण-दोषों का वर्णन करते हुए धर्म .....द्विधा हि धर्मशब्दस्य प्रवृतिर्लोके विलोक्यते । तथाहि - सर्वत्र वस्तुनि ध्यान की कल्याणकारकता बताई गयीहै। इसका विस्तार 'धम्म' यद् वस्तुनः स्वभावः स धर्म उच्यते ...दुर्गतौ प्रपतन्तं जीवं धारयतीति शब्द के अन्तर्गत किया गया है। और अन्त में 'घण्टापथ' का धर्मं । -वही, पृ. 12, द्वितीय अनुच्छेद उपसंहार किया गया है। 76. .....अतः कान्तारे दुर्भिक्षे, ज्वराऽऽदौ महति समुत्पन्ने रात्रौ श्रमणाः सर्वाऽऽहारं यद्यपि 'धम्म' शब्द के बाद भी चतुर्थ भाग में अनेक शब्द न भुञ्जते... वही, पृ.14 77. ....साम्प्रतमनेकानि धर्माभिधेयधुराधराणि मिथ्यात्विमतानि प्रचलितानि सन्ति, आये हैं लेकिन उनका परिचय सीधे ही 'अभिधान राजेन्द्र' से प्राप्त ततो विवेक: कर्तव्यः। किया जा सकता है और इसे भूमिका में लिखना आवश्यक नहीं -वही, पृ. 15, तृतीय अनुच्छेद Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [79] लिखी गयी है जबकि उपोद्घात मुनिश्री दीपविजयजी एवं यतीन्द्र है। यहीं पर व्याकरण के कुछ नियमों का भी स्पष्टीकरण किया गया विजयजी के द्वारा संस्कृत भाषा में निबद्ध किया गया है। और प्रथम है। यहाँ पर व्याकरणिक कोटियों की विलक्षणता, परिचय एवं तत्सम्बद्ध भाग में ही द्वितीयावृत्ति की प्रस्तावना 'द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना' - मतभेदों का भी संकेत किया गया है। शीर्षक से वर्तमान आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरि द्वारा हिन्दी द्वितीय आवृत्ति की प्रस्तावना यद्यपि संक्षिप्त है किन्तु उसमें में निबद्ध की गयी है। द्वितीय भाग में 'प्रस्तावना' शीर्षक से एक महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा की गयी है जिसके बिना अभिधान उपाध्याय श्री मोहन विजयजी ने संस्कृत में प्रस्तावना लिखी है। राजेन्द्र कोश के महत्त्व पर पूरा ध्यान नहीं जा सकता, वह हैं - जबकि तृतीय भाग में "प्रस्ताव" शीर्षक से उपाध्याय श्री मोहन 'कोश परम्परा एवं जैन कोश परम्परा' का परिचय। विजयजी, श्री दीप विजयजी एवं श्री यतीन्द्र विजयजी -संशोधकों यहाँ यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि इन प्रस्तावों के के द्वारा संस्कृत में लिखा गया है। चतुर्थ भाग में यही प्रस्तावना लेखन चतुष्टय में से किसी ने भी पंचम, षष्ठ एवं सप्तम भाग में संशोधकद्वय के द्वारा 'घण्टापथ' नाम से लिखी गयी है। संक्षिप्त भी प्रस्ताव क्यों नहीं लिखा? इस विषय में हमारा मन्तव्य उपर्युक्त सभी प्रस्तावों का परिचय यद्यपि दिया जा चुका यह है कि यद्यपि इन अंतिम तीनों भागों में जैन दर्शन/धर्म संबंधी है परंतु फिर भी इन सब का सापेक्ष समालोचन करना आवश्यक प्रतीत होता है। अतिमहत्त्वपूर्ण शब्द आये हैं, फिर भी, चूंकि उन सिद्धांतों का परिचय सभी प्रस्तावों में यह सामान्य रुप से देखा गया है कि पूर्व के चार भागों में आये शब्दों के परिचय के साथ ही दिया जा प्रायः सभी में अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना का प्रयोजन, पृष्ठभूमि चुका है इसलिए पिष्ट-पेषण न करते हुए अनावश्यक विस्तार से बचा और उपयोगिता पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा प्राप्त होता है। दूसरी गया है। समानता यह है कि सभी में जैन दर्शन/जैन धर्म के विशेष सिद्धांतों इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश जैसे विशालकाय ग्रंथ का परिचय या तो विवेचन पद्धति से दिया गया है या तो फिर को प्रस्तुत करने के लिये संशोधक महोदयों ने विभिन्न-शीर्षकों से पूर्वपक्ष और उत्तर पक्ष के माध्यम से दिया गया है। तीसरी समानता प्रस्तावनाएँ लिखी है। इन प्रस्तावनाओं को देखने से ही अभिधान यह है कि संबद्ध भागों में आये हुए विशिष्ट शब्दों का विवेचनात्मक राजेन्द्र कोश अध्येताओं के सामने मानो प्रस्तुत हो ही जाता परिचय दिया गया है। है और अध्येताओं को जिज्ञासा शांत करने में तनिक भी अन्य विशेषता यह है कि प्रथम भाग में संदर्भ ग्रंथ सूचि, परेशानी नहीं होता। संकेत सूची का भी समावेश किया गया है। इसके साथ ही प्राकृत शब्दों के गठन और पाठान्तर का संकेत भी विवेचित किया गया 78. अ.रा.भा.1, प्रथमावृत्ति प्रस्तावना શ્રમણશંઘનો ઉપકા) આ વિશ્વવંદ્ય શ્રમણ-શ્રમણી વર્ગ સર્વ કોઈને ઘણો ઉપયોગી છે. મનુષ્યમાં भानवता, नीति, व्यवहारशुद्धि, स६ज्ञान, ध्या, हान, सहायार, सेवा वगेरे Gथ्य સંસ્કારોને ઉત્પન્ન ક૨ના૨, સિંચન ક૨ના૨, પોષણ ક૨ના૨, વૃદ્ધ દ૨ના૨ આજ વર્ગ છે. સાધુપુરૂષના એક વચન માત્રથી અનેક ભવ્ય મનુષ્યોનાં હદય પરિવર્તન થાય છે જે હજાશે રાજકીય કાયદાઓથી પણ શક્ય નથી. આત્મકલ્યાણનું માર્ગદર્શન કરાવનાર યુગ યુગના દીવા જેવા ગંભીર શાસ્ત્ર/સાહિત્ય ગ્રંથોનું સર્જન કરી તેનો અમર વારસો આપના૨ પણ જેન શ્રમણ વર્ગ જ છે. સíહત્ય સર્જકો પ્રધાનપણે શ્વેતામ્બર સાધુઓઆચા-નઓ છે. શ્રી મહાવીર છંધિત પ્રવચન-આગમ સાહિત્યની “પંચાગ'માં મૂળ આગમ પ૨ નર્યુક્ત, ભાષ્ય, ચૂર્ણ, અવચૂર્ણ, ટીડા, વૃત્તિ વગેરે ઉત્પન્ન કરવા ઉપરંત તે આગમને અનુલક્ષીને ધમર્ક ગ્રન્થો તથા સાહિત્ય પ્રદેશોમાં વિહરી છે તે વિષયની કાવ્ય, भाडाव्य, नाट5, 5था, बाजरी, व्यारा, 5६, डोष ज्योतिष, न्याय, तई આદ áવધ વિષયોની કૃતિઓના ચર્ચાયતા, સંસારત્યાગ કરી શ્રમણ દીક્ષા લઈ ધમોપદેશક તરીકે સ્થાને સ્થાને વિહા૨ ઠ૨ના૨ આચાર્ય ભગવંતો અને તેમની શિષ્ય પરંપરા જ છે. જેનો ઉપકાર ક્યારેય કયાંય ભૂલી શકાય જ નહિ. . Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [80]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अभिधान राजेन्द्र कोश में प्राप्त मंगलाचरण पद्यों का अनुशीलन मंगलाचरण : भाग-1 प्राकृत :जयति सिरिवीरवाणी, बुहविबुहनमंसिया या सा। वत्तव्वयं से बेमि, समासओ अक्खरक्कमसो ॥ संस्कृत :जयति श्रीवीरवाणी, बुधविबुधनमस्कृता या सा। वक्तव्यं तस्यां ब्रवीमि, समासतो ऽक्षर क्रमशः ॥ अर्थ : सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट तत्त्वज्ञान के पंडितों (गणधरों) और विशेषज्ञों (श्रुतधर, पूर्वधर) के द्वारा जो नमस्कृत (वन्दित) है, वह अनंतश्री से विभूषित चरम तीर्थंकर महावीर स्वामी (वीर) की वाणी जयवंत वर्तो । उसके विषय में जो कुछ भी वर्णनीय है, वह संक्षेप में वर्णानुक्रम से कहता हूँ। अर्थ : श्री वर्धमान (वीर जिनेश्वर) की वाणी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके (उनके) समस्त (कथनीय) प्रवचन वक्तव्य को और उनके शब्दों के विषय में अक्षर क्रम से कहूँगा। अर्थ : जिनेश्वर की वाणी, गुरु के चरण एवं श्रुत (ज्ञान) के प्रभाव को चित्त में धारण करके, इस श्रुत के समस्त सार को ग्रहण करके तीसरे भाग में कहूँगा। मंगलाचरण : भाग-2 प्राकृत :सिरिवद्धमाणवाणि, पणमिअ भत्तीइ अक्खर कमसो। सद्दे तेसु य सव्वं, पवयणवत्तव्वयं वोच्छं ।। संस्कृत :श्रीवर्धमानवाणी, प्रणम्य भक्तित: अक्षरक्रमशः । शब्देषु तेषु च सर्वं, प्रवचनवक्तव्यं वक्ष्यामि। मंगलाचरण : भाग-3 प्राकृत :वाणिं जिणाणं चरणं गुरुणं, काऊण चित्तम्मि सुयप्पभावा। सारं गहीऊण सुयस्स एयं, वोच्छामि भागे तइयम्मि सव्वं ।। संस्कृत :वाणीं जिनस्य चरणं गुरोः, कृत्वा चित्ते श्रुतप्रभाव । सारं गृहीत्वा श्रुतस्य अस्य, वक्ष्यामि भागे तृतीयें सर्वं ।। मंगलाचरण : भाग-4 प्राकृत :नमिऊण वद्धमाणं, सारं गहिऊण आगमाणं च। अहुणा चउत्थभागं, वोच्छं अभिहाणराइंदे ।। संस्कृत :नत्वा वर्धमानं, सारं गृहीत्वा आगमानां च। अधुना चतुर्थभागं, वक्ष्यामि अभिधान राजेन्द्रे ॥ मंगलाचरण : भाग-5 प्राकृत :वीरं नमेऊण सुरेसपुज्जं, सारं गहेऊणं तयागमाओ। साहूण सड्डाण य बोहयं तं, वोच्छामि भागम्मि य पंचमम्मि । संस्कृत :वीरं नत्वा सुरेशपूज्यं, सारं गृहीत्वा तस्यागमेभ्यः । साधुं श्रावकं च बोधयितुं तं, वक्ष्यामि भागे च पंचमे ॥ मंगलाचरण : भाग-6 प्राकृत :सिरि वद्धमाणसामि, नमिऊण जिणागमस्स गहिऊण । सारं छठे भागे, भवियजणसुहावहं वोच्छं । संस्कृत :श्री वर्धमानस्वामिनं, नत्वा जिनागमस्य गृहीत्वा सारं षष्ठे भागे, भविकजनसुखावह वक्ष्यामि ।। अर्थ : वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके, आगमों के सार को ग्रहण करके अब (मैं) 'अभिधान राजेन्द्र' (कोश)के (विषय में) चौथे भाग को कहूँगा। अर्थ : देवेन्द्रों के पूज्य ऐसे महावीर स्वामी को नमस्कार करके उनके आगमों (जैनागमों) में से सार ग्रहण करके साधु और श्रावकों को बोध कराने के लिये उसे पांचवें भाग में कहूँगा। अर्थ :श्री वर्धमान (24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी) को नमस्कार करके, जिनागमों के सार को ग्रहण करके भव्य जीवों के सुख के लिये छठवें भाग में कहूँगा। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [81] विमर्श: कहलाते हैं। और इस प्रकार ये गुरु दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जिनमें देवादिदेवत्व प्रगट हुआ है अर्थात् जगद्गुरु तीर्थंकर और यहाँ पर आचार्य का अभिप्राय यह है कि भगवान महावीर दूसरे वे जिनमें देवाधिदेवत्व प्रकट नहीं है। इसलिए प्रथम प्रकार अपने गुणों के कारण सर्ववन्द्य है और उनकी वाणी भी सर्ववन्द्य के गुरु को जैन सिद्धांत में सुदेव/देव कहते हैं। और द्वितीय प्रकार है। उसको ग्रहण करने एवं धारण करनेवाले गणधर, पूर्वधर, श्रुतधर के गुरु को सुगुरु/गुरु गुरु कहते है। इसके साथ ही उनके उपदेशों आदि पूर्वाचार्यों, उपाध्यायों एवं सभी साधुजनों के साथ-साथ को अर्थात् उनकी वाणी को भी उन्हीं के बराबर महत्त्व दिया गया गुणग्राहक श्रावक, श्राविकाओं के द्वारा सर्वथा वंदनीय है। उस है क्योंकि कोई भी गुरु स्वतः उपकारी नहीं है। वाणी ही वह महत्त्वपूर्ण वाणी के विषय में जो कुछ भी कहना चाहता हूँ उसे संक्षेप माध्यम है जिससे वे उपकारी होते हैं, इसलिए जैन परम्परा में जिनवाणी में वर्णानुक्रम से कहता हूं। को भी इन त्रिरत्न में सम्मिलित किया गया है। यही कारण है कि यहाँ पर वीर की वाणी को नमस्कार करते हुए परंपरया आचार्यश्रीने प्रथम भाग में वीरवाणी को नमस्कार किया है। वीर को भी नमस्कार किया गया है। वीर की वाणी को ग्रहण करने यह स्पष्ट है कि आचार्यश्रीने मंगलाचरणों में देव, के लिए सभी ज्ञाता और गुपग्राहक अभिभूत होते हैं। उनको ग्रहण गुरु एवं शास्त्र (जिनवाणी) - इन तीनों को नमस्कार करने में सरलता है। इसलिए संक्षेप में वर्णानुक्रम से उसके बारे में किया है और वाणी का और आगमों का महत्त्व प्रतिपादित आचार्यदेव वर्णन करते हैं। 'समासओ' का अर्थ यह है कि आचार्यदेव किया है। इस प्रकार मंगलाचरण में परम्परा का संकेत किया अपनी आयु मर्यादा की दृष्टि से जितना कथन कर सकते हैं वह गया है। संक्षेप में ही संभव है। और दूसरे, जो वाणी के ग्राहक हैं वे विस्तार आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने मंगलाचरण पद्यों से ग्रहण नहीं कर सकते हैं, अतः संक्षेप में वर्णन किया गया है में कहीं पर भी यह नहीं कहा है कि मैं शब्दों का अर्थ बतानेवाला कोश बनाऊंगा, अपितु यह स्वीकार किया है कि भगवान महावीर और 'वत्तव्वयं' कहने से अभिप्राय है कि यद्यपि वीर की वाणी की वाणी अर्थात् जिनागमों का सार लेकर उस वाणी के विषय अत्यन्त गंभीर है और पदार्थों का स्वभाव अनिर्वचनीय है, फिर भी में जो वक्तव्य है और उसमें गुम्फित जो शब्द हैं, उन पर जो भी संकेत रुप से लोक व्यवहार में वाणी के द्वारा पदार्थ का स्वरुप जिस वक्तव्य है, उसे अक्षरक्रम से कहूँगा । इससे यह स्पष्ट है कि आचार्यश्री प्रकार से कहा जा सकता है वह उसका वक्तव्य स्वरुप है, उसे ही का प्रयोजन शब्दकोश अथवा विश्वकोश का निर्माण नहीं है, अपितु आचार्यश्री कहते हैं। अनिर्वचनीय स्वरुप तो केवलिगम्य है अथवा अंतरंग यही है कि भगवान महावीर की वाणी का विशिष्ट विवेचन यह कि स्याद्वाद नय का जो 'अवक्तव्य' भंग है उसको गौण करके लोगों को उपलब्ध हो। पदार्थ के अस्ति-नास्ति वक्तव्य स्वरुप को मुख्य करके, वक्तव्य स्वरुप क्योंकि लोगों को यह ज्ञात ही नहीं है कि शास्त्र में है उसके बारे में आचार्यदेव कहते हैं। किन सिद्धांतो का कथन किस अर्थ और किस अपेक्षा से हैं, अत: यहाँ पर विशेष दृष्टव्य यह है कि छहों भागों में प्राप्त मंगलाचरणों लोगों को शब्दार्थ के माध्यम से शास्त्र का सही अर्थ में से प्रथम भाग, द्वितीय भाग एवं तृतीय भाग में अंतिम तीर्थंकर उपलब्ध हो; भ्रम का निवारण हो और सिद्धांतो का ज्ञान वीरजिन का स्मरण करते हुए उनकी वाणी को नमस्कार हो इसीलिये आचार्यश्रीने आगमों में अंतर्निहित शब्दों का किया गया है; इसके साथ ही तृतीय भाग के मंगलाचरण में गुरु कोश-पद्धति से व्याख्यान किया है। को भी नमस्कार किया गया है; चतुर्थ, पंचम एवं षष्ठ भाग में 'वीर', . इस प्रकार निश्चित हो जाता है कि इस रचना के अध्ययन एवं 'वर्धमान स्वामी' नाम से अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के अधिकारी वे जीव हैं जो संसार के दुःखों से भयभीत हैं और को नमस्कार किया गया है। भोगों को हेय (त्याज्य) मानते हैं और मोक्ष के अभिलाषी हैं और उपर्युक्त नमस्कार आचार्य की शासन परम्परा को सूचित संहनन एवं मनोबल के अनुसार मुक्ति मार्ग में प्रवृत होते हैं। यह करता है। जैन परम्परा में यह सिद्धान्त प्रतिपादित है कि इस संसार कोश साधु एवं श्रावकों के लिए अथवा जो साधु अथवा श्रावक में विकास और ह्रास से युक्त एक कालचक्र है जिसमें दो भाग हैं बोध प्राप्त करने के इच्छुक हों उन्हें सम्यग्ज्ञान कराने के लिए लिखा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। प्रत्येक कल्पार्ध में काल के छ:-छ: भाग हैं। इसके चतुर्थ काल में जैन धर्म के उपदेशक 24 तीर्थंकर गया है। अर्थात् आचार्यश्री की दृष्टि में प्राणी मात्र इस ग्रंथ का होते हैं। जो तीर्थंकर जिस समय होते हैं उससे अगले तीर्थंकर की उपयोग करने का अधिकारी है। अर्थात् इस ग्रंथ का कोई लौकिक दिव्यध्वनि (उपदेश) के पूर्व तक पूर्ववर्ती तीर्थंकर का शासनकाल प्रयोजन नहीं है, अपितु पारमार्थिक और अलौकिक प्रयोजन है।83 कहलाता है। इसी आधार पर इस अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का शासन संप्रत प्रचलित है। और यही कारण है कि आचार्यश्री ने अंतिम तीर्थंकर श्री वीर को एवं उनकी वाणी को 79. जय वीयराय ! जगगुरु....1 -'जयवीयराय' सूत्र (२. गौतमस्वामी), दो नमस्कार किया है। प्रतिक्रमण-सूत्र 18 जो उपदेश करता है वही गुरु होता है, यह सामान्य परम्परा 80. अ.रा.भा.1,2 मंगलाचरण अ.रा.भा.1, उपोद्घात पृ.2 है। और इस प्रकार जैन मतानुयायियों के पारम्परिक गुरु भी भगवान 82. अ.रा.भा.5, मंगलाचरण महावीर है" । परंतु जिस आचार्य से दीक्षा ली जाये वे गुरु भी गुरु 83. अ.रा.भा.6, मंगलाचरण 81. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [82]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अभिधान राजेन्द्र कोश के पुष्पिकावचन ) भाग-3 "मत्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाऽऽननग्रामणीराजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः । संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशो, धन्य- सरिपदाड़ितोविजयराजेन्द्रात्परोऽन्योऽस्तिकः?॥ और भाग-4 दुप्सभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाऽऽननग्रामणी - राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः । संघस्योपकतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान् ?॥ अर्थ : भाग 3 और भाग 4 के अंत में यह पुष्पिका संशोधकों ने लिखी है- ऐसा इसकी रचना से ज्ञात होता है, क्योंकि पुष्पिका में कहा है- उन्मत्त और अहंकारी विपक्षीरुपी हाथियों को दमन करने में केशरी सिंह के समान आचार्य विजय राजेन्द्रसूरिने इस अभिधान राजेन्द्र कोश के निर्माण से जैनागमों को प्रकाशित किया और संघ पर वैसा ही प्रत्यक्ष उपकार करने में हमेशा तत्पर हैं। भाग 3 की पुष्पिका के अनुसार अन्य कौन धन्य भागी है? अथवा भाग 4 की पुष्पिका के अनुसार आचार्य विजय राजेन्द्रसूरि के अतिरिक्त अन्य कौन एसा पुण्यावान् है ? अर्थात् (इस काल में) न तो ऐसा कोई जिनवाणी में आस्तिक धन्यभागी है और न कोई ऐसा पुण्यशाली है जो अभिधान राजेन्द्र कोश जैसी रचना करके और प्रतिवादियों के झुंड को जीतकर श्री संघ पर प्रगट उपकार करने में समर्थ हो। विशेष विमर्श: इस पुष्पिका में संशोधकों का अभिप्राय यह है कि अभिधान राजेन्द्र प्राकृत महाकोश जैसे जैनागमों के समस्त शब्दों से परिपूर्ण कोश की रचना के लिए जिनेश्वर परमात्मा एवं उनकी वाणी अर्थात् जिनवाणी जिसमें संग्रहीत है, ऐसे जैनागमों पर दृढ-श्रद्धा होना आवश्यक है। साथ ही एसे कोश की रचना श्रम साध्य और कष्ट साध्य तो है ही, इसके साथ ही कर्ता में शुद्ध सम्यक्त्व, अडिग श्रद्धा और ज्ञान का तीव्र क्षयोपशम, नैतिक-चारित्रिक बल भी आवश्यक है। जैनागमों का तलस्पर्शी ज्ञान, आवश्यक संदर्भ ग्रंथो की प्राप्ति, उनका वाचन-चिंतन-मनन-संशोधन, शब्द संकलन, ग्रंथ रचना हेतु उचित सामग्री की प्राप्ति आदि कठिनतम श्रम एवं इतने लम्बे समय तक धैर्य, गाम्भीर्य, दिव्य तप-साधना के अलावा असंभव सा है। क्योंकि ये सारे ग्रंथ अधिकांश ज्ञान भंडारों में सुरक्षित एवं समाज के अधिकार में रहते हैं, अत- इन्हें प्राप्त करने में समय भी ज्यादा लगता है और कठिनाईयाँ भी बहुत आती हैं। हस्तलिखित पत्रों की एक प्रति भी बडी मुश्किल से मिलती है। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने कोश रचना में संलग्न रहते हुए 14 वर्ष की दीर्ध समयावधि में अपने साध्वाचारों का चुस्तरुप से पालन करते हुए विहार, दीक्षा, प्रतिष्ठा, अंजन शलाका, संघ-यात्राएँ, तपश्चर्या, विपक्षियों से शास्त्रार्थ एवं संघ, समाज, और गच्छ के अन्य कार्य करते हुए, अन्य साहित्य का भी निर्माण किया, और ऐसी व्यस्त दिनचर्या में साधनों के अभाव के उस युग में इस ग्रंथराज जैसे अप्रतिम विश्वकोश का निर्माण किया। ऐसा कठिन परिश्रमी, तीव्र ज्ञान के क्षयोपशम का स्वामी, ग्रंथरचना के सामर्थ्यवाला अनुपम पुण्यशाली और अकेले एक ही व्यक्ति इतने बडे विश्वकोश का निर्माण करने का सौभाग्यशाली हो - यह बात आज के कम्प्युटर युग में भी संभव नहीं है अतः संशोधकों ने कहा"धन्यः सूरिपदाङ्कितो विजय राजेन्द्रात्परोऽन्योऽस्ति कः?" और कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजय राजेन्द्रात्परः पुण्यवान् ! अनुपम बीज वीतरागता पर श्रद्धा अर्थात् दोषों के विजय पर श्रद्धा । यह श्रद्धा दोष-विजेताओं के प्रति भक्तिराग उत्पन्न करती है, जिससे आत्मा में जीवरुपी ताम्र को शुद्ध काञ्चन समान सर्व दोषरहित एवं सर्वगुणसहित शिवस्वरुप बनाने की शक्ति पैदा होती है। श्रुतधर्म में श्रद्धा यानी वीतराग प्ररुपित शास्त्रोक्त पदार्थों एवं तत्त्वों में विश्वास । उन पदार्थों और तत्त्वों को जानने-समजने से चारित्रधर्म की प्राप्ति होती है। चारित्रधर्म की श्रद्धा एवं उसके पालन के परिणाम स्वरुप शुभ और कल्याणकारी फल के प्रति अखण्ड विश्वास, - यह सद्भक्ति और सदाचरण की प्रेरणा का अनुपम बीज है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [83] | अभिधान राजेन्द्र कोश : प्रशस्ति । वासे पुण्णरसंकचन्दपडिए चित्तम्मि मासे वरे, हत्थे भे सुहतेरसी-बुहजुए पक्खे य सुब्भे गए। सम्मं संकलिओ य सूरयपुरे संपुण्णयं संगओ, राइंदायरिएण देउ भुवणे राइंदकोसो सुहं ॥3 अभिधान राजेन्द्र कोश की पूर्णाहुति पर रचित अंतिम एक श्लोक प्रमाण प्राकृत पुष्पिका में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि कहते हैं "विक्रम संवत् 1960 के वर्ष में, श्रेष्ठ चैत्र मास में, शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी बुधवार के दिन, हस्त नक्षत्र में सूर्यपुर में (सूरत में ) सम्यक् प्रकार से संपूर्ण संकलन कर आचार्य राजेन्द्रसूरिने संसार को शुभ राजेन्द्र कोश दिया। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी विरचित संस्कृत प्रशस्ति और हिन्दी अनुवाद श्लोक : शाखाप्रशाखाभिरतिप्रवृद्धे, वीरोक्तिविस्तारविधानदक्षे । सद्धर्म्यसौधर्मबृहत्तपाऽऽख्य-गच्छे जगत्यां जनितप्रतिष्ठे॥॥ श्रुतावगाहप्रवरा महान्तः, सच्छासनाऽशेषधुरं वहन्तः । श्रीसङ्घवाटी परिफुल्लयन्तः, सूरीन्द्रमुख्या बहवो बभुवुः ।। अर्थ : अंतिम श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के शासन में हुए अनेक गणधर-श्रुतधर-पूर्वधर आचार्य भगवंतों की महिमा के गुणगान करते हुए आचार्य विजय राजेनद्रसूरीश्वरजी ने कहा है शाखा और प्रशाखाओं से अत्यन्त प्रकृष्टतापूर्वक वृद्धिप्राप्त, वीरवाणी का विस्तार करने की विधि में चतुर, संसार में लब्धप्रतिष्ठित आर्य सुधर्मास्वामी से सौधर्मबृहत्तपागच्छ नामक गच्छ में श्रुत के सागर का पार पाने में अत्यन्त श्रेष्ठ, महान सुशासन की सकल धुरा को वहन करनेवाले और श्री संघवाटिका को प्रफुल्लित करनेवाले कई श्रेष्ठ आचार्य भगवंत हुए। श्लोक : तदन्वयेभूद वररत्नसूरिः, स्वब्रह्मतेजस्वितया करिष्णु। भानु नभोगं हरिमब्धिवासं, त्रिषट्तमं पट्टमलङ्करिष्णुः ७॥ अर्थ : आगे स्व-गुरु परम्परा दर्शाते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि कहते हैं कि उन सुधर्मास्वामी की परम्परा में श्री रत्नसूरि हुए, जिनके अपने ब्रह्मचर्य के प्रभाव से सूर्य आकाश में (भ्रमण करने) गया और विष्णुने समुद्र में वास किया। ऐसे श्री रत्नसूरिने तिरसठवीं पाट शोभायमान की। श्लोक : निरन्तरऽ चाम्लकरः सुखेन, क्षमा-श्रुत प्राज्यमतिप्रवृद्धः। वृद्धक्षमासूरिरलञ्चकार, तत्पट्टमेरुं सावितेव धीरः ॥4॥ अर्थ : हमेशा आयंबिल तप करनेवाले, क्षमा एवं श्रुतज्ञान के साम्राज्य में अत्यन्त तल्लीन, धैर्यवान् श्री वृद्धक्षमासूरिने उनके पाटरुपी मेरुपर्वत को सूर्य की तरह अलंकृत किया। श्लोक : स्वपरसमयवेदी षट्सु भाषासु दक्षो, विजितयवनवृन्दो मेघपाटीयभर्तुः । सदसि जनसमक्षं श्रीलदेवेन्द्रसूरिः, समभवदतितेजाः पट्टकेऽमुष्य जिष्णुं ॥6॥ अर्थ : इनकी पाट पर स्वपर सिद्धांत के ज्ञाता, छ: भाषाओं में चतुर, मेघपाट देश के राजा की भरी सभा में लोगों के समक्ष यवन समूह (विदेशीवादी) को जिसने जीत लिया ऐसे अतिशय तेजस्वी और जितेन्द्रिय श्री देवेन्द्रसूरि हुए। 84. 85. अ.रा.पृ. 7/1250 अ.रा.पृ. 7/1250-51 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [84]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्लोक: शिश्राय तत्पट्टमशेषकाल-विन्मारजित्स्वाऽन्यशुभं करिष्णुं । नैमित्तिकानां प्रथमश्च लोके, कल्याणसूरिगणितप्रवीणः ॥6॥ अर्थ : स्व-पर का शुभ करनेवाले, ज्योतिषियों की दुनिया में प्रथम, (सर्वश्रेष्ठ) गणितकला में प्रवीण ऐसे श्री कल्याणसूरिने इनकी पाट का (पाट पर) बहुत लम्बे समय तक आश्रय किया । श्लोक : अन्वर्थनामा समभूत् प्रमोद सूरिर्जगज्जीवसुमोदहेतुः।। समाधिलीनो निजकर्मदक्ष- स्तदासनेऽखण्डितशीलशाली 7॥ अर्थ : उनके पाट पर बालब्रह्मचारी, निजकार्य में चतुर, समाधि में लीन रहनेवाले जगत के जीवों के आनन्द का कारण 'यथानाम तथागुण' युक्त श्री प्रमोदसूरि हुए। श्लोक: तत्पट्टमेरावुदियाय भानु-जैनागमाब्धि परिमथ्य कोशम् । राजेन्द्रसूरिर्जगदर्चनीयो-ऽभिधानराजेन्द्रमसावकार्षीत् ॥8॥ अर्थ : उनके पाट रुपी मेरु पर उदय के लिये जैनागमोंरुपी समुद्र का समस्त प्रकार से मंथन करके सूर्य समान जगत पूज्य यह अभिधान राजेन्द्र कोश राजेन्द्रसूरिने बनाया (निर्माण किया)। श्लोक : अस्मत्पट्टप्रभावी धनविजयमुनिर्वादिवन्दप्रजेता, श्रीलोपाध्यायवर्यः प्रतिसमयमदाद् भूरिसाहाय्यमेषः । कोशाब्धेरस्य सृष्टौ सकलजनपद श्लाधनीयत्वलिप्सोः, सद्विद्वन्मानसाब्जे दिनकरसमतां यास्यमानस्य लोके ॥७॥ अर्थ : मेरे पाटप्रभावक, वादिवृन्द विजेता, उपाध्यायवर्य मुनि श्री धनविजयने इस (कोश निर्माण) में प्रतिसमय प्रशंसनीय सहयोग दिया। इस कोशरुपी समुद्र की रचना इस संसार में सभी देशों में प्रशंसनीय हो और सज्जनों और विद्वानों की सभा में सूर्य समान प्रकाशमान हो, ऐसी इच्छा रखता हूँ॥9॥ श्लोक: धन्वन्य भूत्तर्कयुगाङ्कपृथ्वी-वर्षे सियाणानगरेऽस्य सृष्टिं । पूर्णोऽभवत् सूर्यपुरे ह्यविनं, शून्याङ्गनिध्येकमिते सुवर्षे ॥10॥ कोश की शरुआत एवं पूर्णाहुति के बारे में प्रकाश डालते हुए आचार्यश्रीने कहा है, धन्य सियाणा नगर में विक्रम संवत् 1946 में इसका शुभारंभ हुआ था (जो) विसं. 1960 के सुवर्ष में निर्विन रुप से सूर्यपुर (सुरत-गुजरात) में पूर्ण हुआ। श्लोक: तावन्महान् प्राकृतकोश, एष,यावत् क्षितौ मेस्वीन्दवः स्युः । सज्जैनजैनेतरविज्ञवर्गमानन्दयेत् कोकमिवोष्णरश्मिः ॥1॥ अर्थ : अंत में कोश के दीर्घायुष्य एवं उसकी चिरंजीविता हेतु प्रसन्न मन से शुभेच्छा प्रकट करते हुए आचार्यश्रीने कहा है जहाँ तक मेरुपर्वत और सूर्य-चन्द्र रहो वहाँ तक यह प्राकृत महाकोश चिरंजीव हो अर्थात् यह कोश यावच्चन्द्रदिवाकरौ (शाश्वत) रहो और जैन-जैनेतर सज्जन विद्ववर्ग इससे उसी प्रकार आनंदित हों जैसे सूर्य की किरणों से चकवा-चकवी प्रसन्न हो जाते हैं। अर्धमागधी क्या है ? समवयांग सत्र. व्याख्याप्रजप्ति सत्र. औपपातिक सत्र और प्रज्ञापना सत्र में तथा अन्यान्य प्राचीन जैन ग्रन्थों में जिस भाषा को अर्धमागधी (आधे मागध देशमें बोलीजानेवाली) नाम दिया गया है; स्थानांग और अनुयोग द्वार सूत्रमें जिस भाषा को 'ऋषिभाषिता' कही गई है और सम्भवतः इसी 'ऋषिभाषिता' पद से आचार्य हेमचन्द्रादिने जिस भाषा की (आर्ष = ऋषियों की भाषा) संज्ञा रखी है वह वस्तुतः एक ही भाषा है अर्थात् अर्धमागधी, ऋषिभाषिता और आर्ष ये तीनों एक ही भाषा के भिन्न-भिन्न नाम हैं, जिनमें पहला उसके उत्पत्ति स्थान से और बाकी के दो उस भाषा को सर्वप्रथम साहित्य में स्थान देनेवालों से सम्बन्ध रखते हैं। आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण में आर्ष प्राकृत के लक्षण एवं उदाहरण से यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि, जैन सूत्रों की भाषा यही अर्ध-मागधी, ऋषिभाषिता या आर्ष है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [85] अभिधान राजेन्द्र कोश : प्रथम भाग - विषयवस्तु परिचय श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में मुखपृष्ठ के ब्राद अन्तर्पष्ठ है, जिसमें मंगलाचरण के रुप में णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स' -कहकर चरमतीर्थपति, वर्तमान-शासनपति जैनों के 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर को नमस्कार किया है। तत्पश्चात् आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर, आचार्य श्रीमद्विजय धनचन्द्र सूरीश्वर, आचार्य श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वर, आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वर एवं आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी को उनके विशेषण क साथ नमस्कार किया गया है। तत्पश्चात् द्वितीयावृत्ति के प्रकाशन के उपदेशक के रुप में आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी के पट्टालंकार परमपूज्य तीर्थप्रभावक, साहित्यमनीषी, आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी एवं संयमवर: स्थविर मुनिराज श्री शांति विजयजी महाराज के उपदेश से 'अखिल भारतीय श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय जैन श्वेतैम्बर त्रिस्तुतिक संघ' द्वारा प्रदत्त द्रव्यसहाय से अभिधान राजेन्द्र कोश प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद' -ने श्री वीर संवत् 2513/ ईस्वी सन् 1986/श्री राजेन्द्रसूरि (स्वर्गवास) संवत् 78 में इस कोश की (पूरे सातों भागों की) 1050 प्रति प्रकाशित करवायी - ऐसा उल्लेख हैं। अन्तर्पष्ठ के बाद इस कोश की द्वितीय आवृत्ति का प्राप्ति स्थान : श्री अभिधान राजेन्द्र कोश प्रकाशन संस्था C/o. श्री राजेन्द्र सूरि ज्ञान मन्दिर, श्री राजेन्द्र सूरि चौक, रतन पोल, अहमदाबाद; और 'मुद्रक - पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी नयन प्रिंटिंग प्रेस, क. 261 गांधी रोड, ढींकवावाडी, अहमदाबाद-1' बताया गया है। तत्पश्चात् पंडित शितिकण्ठ शास्त्री, श्री वसंतीलालजैन एवं रमेश आर झवेरी की कोश विषयक सम्मतियाँ हैं। इसके आगे गुरुदेव । श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का रंगीन छायाचित्र हैं। तत्पश्चात् 'कोश प्रकाशन संस्था' द्वारा दो पृष्ठों में द्वितीयवृत्ति' का प्रकाशकीय निवेदन हैं, जिसमें गुरुदेव एवं कोश के प्रति संक्षिप्त उद्गार, द्वितीयावृत्ति प्रकाशन का कारण, प्रकाशन का निर्णय, प्रकाशन में सहयोगी एवं प्रेरक आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी एवं अन्य मुनि-मण्डल, साध्वी-मण्डल के प्रति आभार प्रदर्शन एवं द्वितीयावृत्ति के प्रकाशन के सुकृत-सहयोगी भाग्यशालियों की नामावली दी गयी हैं। - इसके बाद आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी द्वारा लिखित द्वितीयावृत्ति की प्रस्तावना है जिसका परिचय इस शोधप्रबंध के इसी अनुच्छेद में यथास्थान दिया गया हैं। - इसके बाद गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी को इस कोश निर्माण में जिनका प्रशंसनीय भागीरथ सहयोग प्राप्त हुआ था । और जिनके सान्निध्य में इस कोश का संपादन, मुद्रण, प्रकाशन का कार्य प्रारंभ हुआ था उन पूज्यगुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के दीक्षोपसंपद् शिष्य पट्टप्रभाकर, चर्चाचक्रवर्ती, आगम रहस्यवेदी, श्रुतस्थविरमान्य, श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय आचार्य श्रीमद्विजय धनचंद्र सूरीश्वरजी महाराज का रंगीन छायाचित्र हैं। तत्पश्चात् श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली है जिसमें श्री महावीरस्वामी के शासन नायक पंचम गणधर श्री सुधर्मा सस्वामी से वर्तमानचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी तक के 72 आचार्यो की क्रमशः नामावली है जो इस शोध प्रबंध में प्रथम परिच्छेद में दी गयी हैं। - इसके बाद ऊपर श्री राजेन्द्र कोश के सातों भाग; बीच में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी एवं एक ओर क्रमशः आचार्य श्रीमद्विजय धनचंद्रसूरि, आचार्य श्रीमद्विजय भूपेन्द्रसूरि, उपाध्याय मुनि श्री गुलाबविजयजी तथा दूसरी ओर उपाध्याय मुनि श्री मोहनविजयजी, आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी एवं आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचंद्रसूरि तथा विश्व-पूज्य गुरुदेव के बराबर नीचे वर्तमानचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी का समूह-छायाचित्र हैं। ___तत्पश्चात् मुनि यतीन्द्र विजयजी द्वारा 15 पृष्ठों में ग्रंथकर्ता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का संक्षिप्त जीवन-परिचय है जो मुनि यतीन्द्र विजय ने विक्रम संवत् 1969 में विजयादशमी के दिन वागरानगर (राजस्थान) में लिखा गया था, एसा इसकी प्रशस्ति से ज्ञात होताहैं।88 हमने इस शोध प्रबंध के प्रथम परिच्छेद में इस जीवन-परिचय को आवश्यक संक्षेप-विस्तार के साथ लिखने का प्रयास किया हैं। तत्पश्चात् श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय पट्टावली है जिसमें सुधर्मास्वामी से श्री विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी तक के 67 आचार्यो की नामावली है। इसके बाद उपाध्यायमुनि श्री मोहन विजयजी द्वारा लिखित प्रथम आवृत्ति की 35 पृष्ठीय प्रस्तावना दी है जिसका विशद परिचय हमने शोध-प्रबंध के इसी परिच्छेद में दिया है। इसके बाद श्री अभिधान राजेन्द्र कार्यालय, रतलाम (मालवा) द्वारा लिखित आभारप्रदर्शन है जिसमें कोश निर्माण का संक्षिप्त परिचय, कोश प्रकाशन : प्रथमावृत्ति मुद्रण का निर्णय, प्रकाशन-कार्य एवं कोश के प्रकाशन तथा प्रचार-प्रसार में सहयोगी मुनिराजों एवं सद्गृहस्थों के प्रति आभार व्यक्ति किया गया है एवं मालवा, गुजरात, मारवाड के सुकृत-सहयोगी संघो की नामावली दी गयी हैं। इसके आगे आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी कृत 18 पृष्ठीय संक्षिप्त प्राकृत रुपावली देने के बाद मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी एवं मुनि श्री दीपविजयजी द्वारा निर्मित 13 पृष्ठीय 'उपोद्घात', गुरुमहिमादर्शित 1 श्लोक एवं तीन परिशिष्टों के रुप में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा निर्मित (1) 54 पृष्ठों में प्राकृत व्याकृति (2) 8 पृष्ठीय सिद्ध-हेमचन्द्र शब्दानुशासन के आठवें अध्याय रुप प्राकृत व्याकरण के प्राकृत सूत्रों की अकारादि अनुक्रमणिका एवं (3) 18 पृष्ठीय संक्षिप्त प्राकृत रुपावली दी गयी है जिसका प्रस्तुत शोध प्रबंध के इसी परिच्छेद में यथास्थान विस्तृत परिचय दिया गया हैं। 86. अंतिम संस्कृत प्रशस्ति-श्लोक ९ 87. कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी, जीवनपरिचय, पृ. 15 88. "नवरसनिधिविधुवर्षे, यतीन्द्रविजयेन वागरा नगरे। अश्विनशुक्लदशम्यां, जीवनचरितं व्यलेखि गुरोः ॥ -अ.रा.भा.1/5 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [86]... द्वितीय परिच्छेद मुख्य विषयवस्तु: मूल ग्रंथ के प्रारंभ में एक श्लोक प्रमाण मंगलाचरण एवं 893 पृष्ठों में केवल अकार से प्रारंभ होनेवाले करीब 10,000 शब्दों का वर्णन हैं। इस प्रकार कोश की द्वितीय आवृत्ति के प्रथम भाग में पृष्ठ के अलावा कुल 163 + 893 = 1056 पृष्ठ हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की विषयवस्तु का विवरण :विषयवस्तु पृष्ठ संख्या अन्तर्दृष्ठ सम्मतियाँ प्रकाशकीय निवेदन द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना पट्टावली ग्रंथकर्ता का संक्षिप्त जीवन परिचय पट्टावली आभार प्रदर्शन उपोद्घात गुरु महिमा श्लोक प्राकृत व्याकृति सूत्र - अनुक्रमणिका प्राकृत-रुपावली प्रथम भाग समाप्ति सूचक लेख प्राकृत भेद 1. आर्ष प्राकृत 2. शौरसेनी प्राकृत 1 1 2 7 1 15 1 - 4 - 13 1 163 + 893 मूलग्रंथ = 1056 परिशिष्ट - 1 विक्रम की 12वीं - 13 वीं शती में हुए भारत के महान ज्योतिर्धर कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य प्रणीत 'श्रीसिद्धहेमचेन्द्रशब्दानुशासनम्' नामक व्याकरण ग्रंथ के अष्टम अध्याय (प्राकृत) की यह अष्टादशशत (118) श्लोक प्रमाण 'प्राकृतव्याकृति ' नामक टीका आचार्य विजय राजेन्द्रसूरि ने वि. सं. 1961 में विजयादशमी के दिन मध्य भारतस्थ कुक्षी नगर में चातुर्मास में रहकर की थी। 89 वहीं सिद्धहेमशब्दानुशासन, अष्टम अध्याय पर अनुष्टुप्छंद में निबद्ध सोदाहरण' प्राकृतव्याकृति (विवरण, विवृति) ' दी गयी हैं। जैसा कि पुष्पिका से ज्ञात होता है, 'प्राकृत विवरण' और 'प्राकृतविवृति' ये दोनों नाम इसी व्याकृति के हैं ।" इस 'प्राकृत विवरण' में निम्न प्रकार से विषय विभाग भी किया गया हैं क्र. 1 54 8 श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन, अष्टम अध्याय का अंश अध्याय 8, पाद-1 से पाद 4 सूत्र 259 तक 2 पाद - 4 सूत्र 260 से 286 तक 3 पाद - 4 सूत्र 287 से 302 तक 4 3. मागधी प्राकृत 4. पैशाची प्राकृत पाद - 4 सूत्र 303 से 324 तक 5 5. चूलिका पैशाची - पाद - 4 सूत्र 325 से 358 तक " 6. अपभ्रंश प्राकृत पाद - 4 सूत्र 359 से 448 तक ” प्राकृतव्याकृति के अंत में समाप्तिसूचक पुष्पिका दी है। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पुष्पिका में आचार्य श्रीमद्विजय राजेनद्रसूरिने लिखा हैं जो भाषा भगवान के वचनों के कारण श्रेष्ठ ख्याति एवं प्रतिष्ठा को प्राप्त हुई हैं; आज भी (वर्तमानमें) जिस भाषा में सकल ग्यारह अंग बने हुए हैं, वह प्राकृत भाषा दुःषम काल के प्रभाव से वर्तमान में बोल-चाल में नहीं रही। अतः इसके पुनः संचार के लिये मैंने विवरण के अन्तर्गत चार पादों में इसकी ( प्राकृत भाषा की) प्रतिष्ठा की 198 18 इसके बाद 'प्रशस्ति' ग्रंथकर्ता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने स्वयं 7 श्लोक प्रमाण संस्कृत भाषा में लिखी हैं प्राकृत प्रशस्ति में स्वीय गुरु की आचार्य विजय रत्नसूरि से प्रमोदसूरि तक की पट्टावली अर्थात् गुरु परम्परा बतायी हैं। द्वितीय श्लोक में कर्ता ने लिखा है कि मैं जैनाचार्य भट्टारक राजेन्द्रसूरि उनका शिष्य उनके (प्रमोदसूरि के) पट्ट पर हुआ। मेरे गच्छ के कार्य अच्छी तरह करते हुए विभिन्न ग्रंथों के अच्छे विचारों से सुंदर चातुर्यपूर्ण धर्म प्रचार में उद्यत (मुझे) अभिधान राजेन्द्र के निर्माण में बहुत परिश्रम हुआ । मेरे शिष्यद्वय दीपविजय और यतीन्द्रविजय की विनंती से मैं यह पद्यमयी 'प्राकृत विवृत्ति' बनाता हूँ। पुनः मुख्य शिष्य मोहन विजय ने आग्रहभरी विनंती की कि 'यह विवृत्ति बनाने से सभी जिज्ञासु लोगों के ऊपर उपकार के साथ इस कार्य से महान लाभ होगा', अतः वि.सं. 1960 में कुक्षी चातुर्मास में विजयादशमी के दिन हेमचंद्राचार्यरचित प्राकृत सूत्रार्थ बोधदायिनी पद्यमयी सुंदर छन्दोबद्ध इस विवृत्ति की रचना की। अंत में ग्रंथकर्ता अपनी नम्रता बताते हुए कहते हैं कि - श्री महावीर प्रभु की प्रीति से मैंने यह विवृत्ति प्राय: सावधानीपूर्वक की है परंतु यदि (प्रमादवश) कुछ भी स्खलना हुई हो ( तो विद्वद्वर्ग) मुझे माफ करें। 99 89. 90. 91. 92. 93. 94. 95. 96. 97. 98. 99. प्रशस्तिः अत एव विक्रमाब्दे, भूरसनवधुमिते दशम्यां तु । विजयाख्यायां चातुर्मास्येऽहं कूकसी नगरे ॥15॥ नत्वा वीरं वन्द्यवन्द्यं, रागद्वेषविवर्जितम् । प्राकृतव्याकृतिरियं छन्दोबद्धा विरच्यते ॥ अ. रा. प्रथम परिशिष्ट पृ. 1 मंगलाचरण "या भाषा भगवद्वचोभिरगमत् ख्यातिं प्रतिष्ठां परां । यस्यां सन्त्यधुनाऽ प्यमूनि निखिलान्येकादशाङ्गानि च ॥ तस्यां संप्रति दुःषमारवशतो जातोऽप्रचारः पुनः । संचाराय मया कृते विवरणे पादाश्चतुर्थोगतः ||3|| अ. रा. भा. 1, प्रथम परिशिष्ट पृ. 54 हेमचन्द्रसंर चितप्राकृतसूत्रार्थ प्रबोधिनीं विवृत्तिम् । पद्यमय सच्छन्दोवृन्दै रम्यामकार्षमिमाम् ||6|| श्रीवीरजिनप्रीत्यै, प्रायो विवृत्तिः कृताऽवघानेन । स्खलनं क्वपि यदि स्यान्मिथ्या मे दुष्कृतं भूयात् ||7|| - प्रशस्ति श्लोक क्रमांक 6 और 7 - प्रथम परिशिष्ट पृ. 54 प्रथम परिशिष्ट, पृ. 1 से 49 अ. रा. भा. 1 - प्रथम परिशिष्ट, पृ. 44, 45 अ. रा. भा. 1 अ. रा. भा. 1- प्रथम परिशिष्ट, पृ. 45 से 46 अ. रा. भा. प्रथम परिशिष्ट, पृ. 46 अ. रा. भा. 1- प्रथम परिशिष्ट, पृ. 45 से 46, 47 अ. रा. भा. प्रथम परिशिष्ट, पृ. 47 से 54 प्रशस्ति अ. रा. भा. 1 प्रथम परिशिष्ट पृ. 54 अ. रा. भा. 1/ 54, प्रशस्ति श्लोक क्रमांक 1 से 7 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अभी तक व्याकरण शास्त्र पर जितने टीका ग्रंथ लिखे गये वे सब गद्य में हैं, जबकि यह टीका पद्य में है, यह इसकी अपनी विशेषता हैं। पद्य होते हुए भी यह टीका सरल, सुंदर एवं सुबोध स्त्रीलिङ्ग 100 परिशिष्ट-2 परिशिष्ट-2 में श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन के आठवें अध्याय के अन्तर्गत आये हुए समस्त प्राकृत सूत्रों की संस्कृत भाषा के वर्णानुक्रम से अनुक्रमणिका दी है। साथ ही उन सूत्रों के व्याकरणस्थ क्रम भी दर्शाये हैं। संभवतया इसकी रचना प्राकृत व्याकृति के बाद हुई होगी अथवा संशोधकों ने इस रचना का श्रम उठाया हो - ऐसा भी हो सकता है क्योंकि 'अभिधान राजेन्द्र विशेषांकः शाश्वत धर्म' में प्रकाशित श्रीमद् राजेन्द्रसूरि वाड्मय में इसका उल्लेख नहीं हैं 1101 परिशिष्ट - 3 अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में परिशिष्ट क्रमांक3 में 'संक्षिप्त प्राकृत शब्द स्पावलि' दी है। इसकी रचना वि.सं. 1961 में 'प्राकृत व्याकृति' के साथे ही कुक्षी चातुर्मास में की गयी हैं। 102 वर्तमान में जनता में प्राकृत भाषा का प्रचार नहीं रहने से आधुनिक अभ्यासियों को अभ्यास करते समय शब्दों शुद्ध रूप याद करने में अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पडता हैं । अतः जैसा कि इसकी प्रशस्ति में स्वयं आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने कहा है- जैन तथा जैनेतर सभी बालक इन्हें पढे, इसलिए मैंने यह प्राकृत-शब्द रुपावलि बनायी हैं 103 इस तरह इस रुपावलि का संकलन करके आचार्यश्रीने विद्यार्थियों के अभ्यासकाठिन्य को दूर कर दिया। इसमें प्रत्येक शब्द-विभक्ति पर अनेक वैकल्पिक रुप भी यथास्थान दिखलाये हैं। प्राकृत शब्द रुपावलि के अन्तर्गत आये शब्द रुप - अकारान्त पुल्लिंग वृक्ष पुल्लिंग गोपा इकारान्त पुल्लिंग गिरि गामणी ईकारान्त पुल्लिंग अकारान्त पुल्लिंग कारान्त पुल्लिंग ऋकारान्त पुल्लिंग नकारान्त राजन् शब्द का अकारान्त नकारान्त पुल्लिंग आत्मन् शब्द का आकारान्त सर्वादि गण के अकारान्त पुल्लिंग शब्द आकारान्त पुल्लिंग अकारान्त पुल्लिंग पुल्लिंग में - गुरु खलपू पितृ, भर्तृ 'राय' शब्द 'अप्पा' शब्द सर्व विश्व उभय, अन्य, कतर, अवर, इतर यद्, तत्, एक शब्द के तीन रुप किम् एतद् इदम्, अदस् । : प्रस्तुत रुपावलि में स्त्रीलिङ्ग में आकारान्त में रमा, इकारान्त में रुचि, ईकारान्त में नदी, स्त्री (इत्थी), स्त्री (थी), उकारान्त में धेणु, अकारान्त में वधू (वहु), ऋकारान्त में मातृ (माआ), दुहितृ (दुहिआ), सर्वनाम : स्त्रीलिङ्ग सर्वनाम में यद्' तद्, किं एतद् इदम् शब्द के दो-दो रुप (वैकल्पिक के साथ) एवं अदस् शब्द के रुप दिये हैं। नपुंसकलिङ्ग द्वितीय परिच्छेद ... [87] : इस प्राकृत शब्द रुपावलि में आचार्यश्री ने नपुंसकलिङ्ग अकारान्त में मङ्गल, इकारान्त में वारि, उकारान्त में मधु, और सर्वनाम में यद्, एतद्, इदम्, अदस्, और किम् शब्द के रुप दिये हैं। संख्यावाचि शब्दों में पञ्च, द्वि, त्रि, कति, चतुर् और सर्वनाम में युष्मद् एवं अस्मद् शब्दों के रुप दिये हैं । इस प्रकार आचार्यश्री ने इस रुपावलि में प्राकृत में पुल्लिंग में कुल 24 शब्दों के 26 रुप दिये हैं (एक शब्द के तीन रुप हैं) । स्त्रीलिङ्ग में 14 शब्दों के 20 रुप दिये हैं। और नपुंसकलिंग में 8 शब्दों के रुप दिये हैं। इस प्रकार कुल 46 शब्दों के 54 रुप इस प्राकृत शब्द रुपावलि में संकलित करके विद्यार्थी जगत् पर अनन्य उपकार किया हां। इस रुपावलि के अंत में संस्कृत में एक श्लोक प्रमाण पुष्पिका दी है जिसका वर्णन पूर्व में किया जा चूका हैं। अभिधान राजेन्द्रकोश : द्वितीय भाग विषयवस्तु परिचय: अभिधान राजेन्द्र कोश के भाग-२ के प्रारंभ में उपाध्याय श्री मोहन विजयजी द्वारा संस्कृत भाषा में लिखित प्रस्तावना दी गई है । तत्पश्चात् भाग - २ के प्रारम्भ में ग्रन्थकर्ता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने मंगलाचरण किया हैं मंगलाचरण :सिरिवद्धमाणवाणि, पणमिअ भतीइ अक्खरकमसो । सद्दे तेसु य सव्वं, पवयणवत्तव्वयं वोच्छं ||1|| मुख्य विषय वस्तु : द्वितीय भाग में 'आ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक एक से शुरु होकर 'आहोहिय' (आभोगिक) शब्द के साथ पृष्ठ क्रमांक 556 पर समाप्त होता है। - 'इ' वर्ण पृष्ठ क्र 557 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 679 पर 'इहलोगसंसप्पओग' (इहलोकासंसाप्रयोग) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। और 'ईकार' पृष्ठक्रमांक 679 से शुरू होकर 'ईहिय' (ईक्षित) शब्द के साथ पृष्ठ क्रमांक 685 पर समाप्त हुआ हैं । 100. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथः श्री राजेन्द्र खण्ड पृ. 89 अभिधान राजेन्द्र : विशेषांकः शाश्वत धर्म, पृ. 11 से 14 101. 102. 103. वही पठन्तु बालकाः सर्वे जैनानामितरे तथा । तस्मान्मयेयं प्राकृत - शब्दरुपावलिः कृताः ||1|| अ. रा. भा. 1 - परिशिष्ट-3, पृ. 18 - Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [88]... द्वितीय परिच्छेद 'उ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 686 से शुरू होकर पृष्ठ क्रमांक 1208 पर 'उहटु' (उद्धृत्य ) अव्यय के साथ पूर्ण हुआ है । और 'ऊकार' पृष्ठ क्रमांक 1209 से शुरु होकर 'ऊहापन्नत' (ऊहाप्रज्ञ ) शब्द के साथ पृष्ठ क्रमांक 1215 पर समाप्त हुआ है। इसके साथ ही द्वितीय भाग भी समाप्त होता है। श्री अभिधान राजेन्द्र कोश : तृतीय भाग : विषय वस्तु परिचय: अभिधान राजेन्द्र कोश की प्रथमावृत्ति में तृतीय भाग में कोश - संशोधक / संपादक उपाध्याय श्री मोहन विजयजी, मुनि दीपविजयजी वं मुनि यतीन्द्र विजयजी द्वारा संस्कृत भाषा में 'प्रस्ताव' शीर्षक से प्रस्तावना लिखी गयी है। तत्पश्चात् भाग 3 के प्रारंभ में ग्रंथकर्ता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने तीसरे भाग के प्रारंभ की सूचना स्वरुप मंगलाचरण किया है मंगलाचरण : अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन मंगलाचरण: नमिऊण वद्धमाणं, सारं गहिऊण आगमाणं च । अहुणा चउत्थ भागं वोच्छं अभिहाणराइंदे ॥1॥ वाणि जिणाणं चरणं गुरुणं, काऊण चित्तम्मि सुयप्पभावा । सारंगहीऊण सुयस्स एयं, वोच्छामि भागे तइयम्मि सव्वं ॥1॥ मुख्य विषय वस्तु: तृतीय भाग में 'ए' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 74 पर एहिय (एहिक) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। 'ऐ' वर्ण पर एक मात्र शब्द 'ए' (अयि ) अव्यय है जो इसी पृष्ठ पर दिया गया हैं । 'ओ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 75 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 161 पर “ओहोवहि' (ओधोपधि) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। प्राकृत में औकार न होने से औकारादि शब्द राजेन्द्र कोश में कहीं भी नहीं है । 'क' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 162 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 687 पर 'कोहुप्पत्ति' (क्रोधोत्पत्ति) शब्द के साथ समाप्त होता है। 'ख' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 688 से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 733 'खोल्ल' (खोल) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। 'ग' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 774 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 1036 पर 'गोहो' (देशी शब्द ) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। 'घ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1037 से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 1046 पर 'घोसाली' (देशी शब्द ) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। 'च' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1047 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 1338 पर 'चोव्वार' (चतुर्वार) शब्द साथ समाप्त हुआ है। 'छ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1339 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 1363 पर 'छोहो' (देशी शब्द ) क्षोभ शब्द के साथ समाप्त होता है। इसके साथ ही तृतीय भाग भी समाप्त होता है। श्री अभिधान राजेन्द्र कोश : चतुर्थ भाग : विषय वस्तु परिचय: अभिधान राजेन्द्र कोश के चतुर्थ भाग के प्रारंभ में संशोधको के द्वारा संस्कृत भाषा में 'घण्टापथः ' शीर्षक से प्रस्तावना दी गई हैं। तत्पश्चात् भाग - ४ के प्रारंभ में ग्रन्थकर्ता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने चौथे भाग के प्रारंभ की सूचना स्वरुप मंगलाचारण किया है और है। पृष्ठ चौथे भाग में पृष्ठ 1363 से 'ज' वर्ण से प्रारंभ हुआ है क्रमांक 1658 'ज्झर' (क्षर) शब्द (धातु) पर समाप्त हुआ 'झ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1659 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 1675 पर 'झोसेहि' (देशी शब्द ) शब्द पर समाप्त हुआ है। 'ट' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1676 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 1678 पर 'टोलगई' (टोलागति) शब्द पर समाप्त हुआ है। 'ठ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1679 से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 1732 पर 'ठीण' (स्त्यान) शब्द पर समाप्त हुआ है। 'ड' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1733 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 1735 पर 'डोहल' (दोहद) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। पृष्ठ क्रमांक 1736 पर 'ढ' वर्ण शुरु होकर उसी पृष्ठ पर देह (देशी शब्द ) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। कार पृष्ठ क्रमांक 1737 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 2166 पर 'णहूसा' (स्नूषा) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। 'त' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 2167 से प्रारंभ होकर 'तोसिय' (तोषित) शब्द पर समाप्त हुआ है । 'थ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 2370 से प्रारंभ होकर 'थोहरी' (थोहरी) शब्द के साथ पृष्ठ क्रमांक 2418 पर समाप्त हुआ है। 'द' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 2420 से शुरु होकर 'द्वितवर' (द्वितवर) शब्द के साथ पृष्ठ क्रमांक 2643 पर समाप्त हुआ है। 'ध' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 2644 से शुरु पृष्ठ क्रमांक 2770 पर 'ध्रुवु' (ध्रुवम्) शब्द के साथ पृष्ठ क्रमांक समाप्त हुआ है 'न' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 2771 से शुरु होता है, और 'नोमालिया' (नवमालिका) शब्द के साथ पृष्ठ क्रमांक 2777 पर समाप्त होता है। इसके साथ ही चतुर्थ भाग भी समाप्त होता है। अंत में संशोधकों ने प्रशस्ति सूचक एक श्लोक शार्दूल विक्रीडित छंद में दिया है, जिसमें कहा है कि दप्त भ्रांत विपक्षियों के दमन करने में सिंह समान, राजेन्द्र कोश नामक कोश की रचना से जैन श्रुत को प्रकाशित करनेवाले संघ के उपकारी सूरिपद सुशोभित विजय राजेन्द्रसूरि से बढकर अन्य कौन पुण्यवान है (अर्थात् अन्य कोई नहीं है) । श्री अभिधान राजेन्द्र कोश : पञ्चम भाग : विषय वस्तु परिचय: अभिधान राजेन्द्र कोश के पाँचवें भाग में ग्रंथकर्ता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने पाँचवे भाग के प्रारंभ होने की सूचना स्वरुप मंगलाचरण किया हैमंगलाचरण: वीरं नमेऊण सुरेसपुज्जं, सारं गहेऊण तयागमाओ । साहूण सट्ठाण य बोहयं तं वोच्छामि भागम्मि य पंचम्मि ॥ 'प' वर्ण पृष्ठ क्रमांक एक से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 1140 पर (प्रिय) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। 'फ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1141 से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 1163 'फोस' शब्द के साथ समाप्त हुआ है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 'ब' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1164 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 1133 बोहिसत (बोधिसत्व) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। 'भ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 1134 से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 1627 पर भोल (देशी) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। इसके साथ ही पंचम भाग भी समाप्त होता है। श्री अभिधान राजेन्द्र कोश : षष्ठ भाग : विषय वस्तु परिचय: अभिधान राजेन्द्र कोश के छठवें भाग में ग्रंथकर्ता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने छुट्टे भाग के प्रारंभ होने की सूचना स्वरुप मंगलाचरण किया हैं - मंगलाचरण : सिरिवद्धमाणसामिं, नमिऊण जिणागमस्स गहिऊण सारं छट्टे भागे, भविजयजण सुहावहं वोच्छं ||1| मुख्य विषय वस्तु: छट्टे भाग में पांचवें भाग से चले आ रहे मकारादिशब्द प्रकरण पृष्ठ क्रमांक 1 से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 466 पर 'मोहोदय' (मोहोदय) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। यकार का प्राकृत में वर्ण परिवर्तन के नियमानुसार 'ज' होता है। अतः राजेन्द्र कोश में प्राकृत यकारादि शब्द नहीं हैं। 'र' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 467 से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 589 पर 'रोहेडं' (रोधयित्वा) अव्यय के साथ समाप्त हुआ है। 'ल' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 590 से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 757 पर 'ल्हिक्क' (नष्ट) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। 'व' वर्ण पृष्ठ क्रमांक 758से प्रारंभ होकर पृष्ठ क्रमांक 1468 पर 'व्रासु' (व्यास) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। इसके साथ छठा भाग भी समाप्त होता हैं। द्वितीय परिच्छेद ... [89] श्री अभिधान राजेन्द्र कोश : सप्तम भाग : विषय वस्तु परिचय: अभिधान राजेन्द्र कोश का यह अंतिम भाग हैं। इसमें मंगलाचरण नहीं हैं। इस भाग में 'श' 'ष' 'स' और 'ह' इन चार अक्षरों के शब्द पर ही विवेचन किया गया हैं। - पृष्ठ 1 पर 'शकारादि' शब्द हैं जो 'श' वर्ण से शुरु होकर 'शोभन' शब्द पर समाप्त होता हैं । पृष्ठ क्रमांक 2 पर 'ष' वर्ण मात्र दिया हैं। 'षकार' का प्राकृत में 'स' आदेश होने से 'षकारादि' शब्द सादि शब्दों के अन्तर्गत दिये हैं। पृष्ठ क्रमांक 3 से ‘स' वर्ण शुरु होता हैं और पृष्ठ क्रमांक 1171 पर 'सौअरिय' शब्द के साथ समाप्त हुआ हैं। पृष्ठ क्रमांक 1172 से 'ह' वर्ण प्रारंभ हुआ हैं। और पृष्ठ क्रमांक 1250 पर 'ह्व' शब्द के साथ समाप्त हुआ हैं । इसके बाद पृष्ठ क्रमांक 1250 पर प्राकृत में ग्रंथ समाप्ति सूचक प्रशस्ति प्राकृतभाषामय शार्दूलविक्रीडित छन्द में दी गयी हैं। तत्पश्चात् संस्कृत में 11 श्लोकों में आर्या छन्द में ग्रंथकार की गुरु परम्परा, ग्रंथ प्रारंभ एवं ग्रंथ समाप्ति का स्थान एवं समय आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने स्वयं दर्शाया हैं। और यही पर कोश परिपूर्ण हुआ हैं। तत्पश्चात् अन्तिम पृष्ठ पर मुद्रणप्रशस्ति दी गयी हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम एवं अंतिम पृष्ठ की मुद्रित प्रति की छाया (स्कैन्ड) प्रतिलिपि शोध प्रबन्ध के परिशिष्ट क्र. 1 में दी गई हैं। अरिहंता तेण वुच्चंति इंदियविसयकसाए, परीसहवेयणाए उवसग्गे । एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति ॥1॥ अट्ठविहं पि य कम्मं, अरिभूयं होइ सव्वजीवाणं । तं-कम्ममरीहंता, अरिहंता तेण वुच्चंति ॥2॥ अरिहंति वंदनमं- सणाणि अरिहंति पुयसक्करं सिद्धिगमणं च अरिहा, अरिहंता तेण वुच्चति ॥3॥ देवासुरमणुएसु य, अरिहा पूया सुरुतमा जम्हा । अरिणो हंताऽरिहंता, अरिहंता तेण वुच्चंति ॥4॥ - अ.रा. पृ. 1/7678 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [90]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन मुद्रण परिचय कोश के अन्त में दिये गये मुद्रणपरिचय से यह ज्ञात होता है कि सौधर्मबृहत्तपागच्छ के आचार्य श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरि (मुनि श्रीदीपविजय जी की आचार्य अवस्था का नाम) के काल में चन्द्राशाङ्ककलाधिनाथ वर्ष में अर्थात् ('अंकानां वामतो गतिः' इस सिद्धान्त के अनुसार) विक्रम संवत् 1981 के चैत्र मास कृष्ण पक्ष सप्तमी मंगलवार के दिन, जयेष्ठा नक्षत्र में रतलाम नामक नगर में इस कोश का सन्द इस विषय में जो प्रशस्ति प्राप्त होती हैं वह निम्न प्रकार से हैं श्री सुधर्मा स्वामी से निर्ग्रन्थ गच्छ उत्पन्न हुआ,( उस गच्छ में) आर्य सुस्थितसूरि से कोटिक (कोटि) गच्छ ( उसी गच्छ में ) आचार्य चन्द्रसूरि (चन्द्रप्रभसूरि) से चन्द्रगच्छ (कुल)। उसी गच्छ में आचार्य सामन्तभद्र से वनवासी गच्छ उत्पन्न हुआ। इसी गच्छ में सर्वदेव सूरि से बड गच्छ, (उसी गच्छ में ) आचार्य जगच्चन्द्र सूरि से तपागच्छ की उत्पत्ति हुई। ( उसी परम्परा में) आचार्य श्रीमद्विय राजेन्द्र सूरि से 'सौधर्म बृहत्तपागच्छ' प्रसिद्ध हुआ। इस सौधर्मबहत्तपागच्छ के शासन की धरा को धारण करने वाले आचार्यों के समूह में अलंकार स्वस्म आजन्म निष्कलङ्कशील से शोभित देहयष्टि वाले आचार्य राजेन्द्र सूरि की अन्तिम आज्ञा से संशोधकद्वय के आज्ञाकारी शिष्यसमूह की सहायता से (इस ग्रंथराज को) संशोधित किया गया और मदापित किया गया । व्याख्यानदक्ष, सच्चरित्र, विद्वद्गणवन्दित, साधुवृन्दपूजित, चारित्रपालक, जैनाचार्य श्रीमद्विजय धनचन्द्र आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि के पाट पर आसीन किये गये । दमयुक्त, क्षमायुक्त, पूज्यतायुक्त, प्रशमहृदय, संयम में विचरण करनेवाले, सौम्य, रम्य, गम्भीर, लोकहितैषी, श्रेष्ठ, आप्तता आदि गुणों से युक्त भूपेन्द्र सूरि ( मुनि श्रीदीपविजयजी की आचार्य अवस्था का नाम ) जब श्रीमद्विजय धनचन्द्र सूरि के पाट पर आसीन थे', उसी काल में चन्द्राशाडूकलाधिनाथ वर्ष में अर्थात् ('अंकानां वामतो गतिः' इस सिद्धान्त के अनुसार) विक्रम संवत् 1981 (कलाधिनाथ-1, अङ्क-9,आशा-8, चन्द्र-1= 1783 ) के चैत्र मास कृष्ण पक्ष सप्तमी मंगलवार के दिन, ज्येष्ठ नक्षत्र में रतलाम नामक नगर में इस कोश का स निर्ग्रन्थगच्छ: समभूत्सुधर्माऽऽख्यात्सुस्थिताऽऽर्यादथ कोटिकाऽऽह्वः । चन्द्रोऽपि चन्द्रप्रभ-चन्द्रसूरेः सामन्तभद्राद् वनवासिगच्छः ॥1॥ श्रीसर्वदेवाद् वट आविरासीत्, तपा जगञ्चन्द्रमुनीन्द्रवर्यात् । सौधर्मसंयुक्तबृहत्तपाऽऽख्यो राजेन्द्रसूरेजगति प्रसिद्धि ||2|| एतद्गच्छसुशासनीयसुधुरप्रोद्वाहिसूख्रिजााडलङ्करयिसाधुकर्म विधिवत् संशोधकस्याऽऽज्ञया। आजन्माऽनधशीलशोभिततनो राजेन्द्रसूरीशितुः । संघातान्तिमया विनेयनिवहै: संशोध्य मुद्रापितः ।।3।। व्याख्यानी सच्चरित्रः सुबुधगणनतः सेवितः साधुवगैजैनाचार्यः क्रियावान् हि विजयधनचन्द्रोऽस्य पट्टेऽभिषिक्ते। दान्ते क्षन्ते महान्ते प्रशमितहृदये संयमे सञ्चरिष्णौ सौम्ये रम्ये गभीरे सकलजनहिते वर्तमाने सदाप्तौ ।।4।। चन्द्राशाङ्ककलाधिनाथसहिते वर्षेऽसिते पक्षके, चैत्रे मासि धरासुतस्य दिवसे ज्येष्ठाख्यातारायुते । सप्तम्यां रतलामनामकपुरे भूपेन्द्रसूरेश्वरे, राजत्येष सुसाधुमुद्रणमितो राजेन्द्रकोश: शुभः ॥5॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद ... [91] 7. अभिधान राजेन्द्र कोश का स्वरुप एवं प्रकाशन अभिधान राजेन्द्र कोश के पुनर्मुद्रण का कार्य किया। यह कार्य नयन प्रिन्टिंग प्रेस, अहमदाबाद में 1 वर्ष के समय में पूर्ण हुआ । लोकार्पण': अभिधान राजेन्द्र कोश को समझने के लिये प्राकृत भाषा एवं संस्कृत भाषा का ज्ञान होना आवश्यक हैं क्योंकि यह कोश पर्यायकोश के रुप में अथवा किसी लोकोक्ति कोश के रुप में अथवा अन्य किसी पुस्तक कोश के रुप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है, अपितु इसे संदर्भ कोश, ज्ञान कोश एवं व्याख्या कोश के रुप में प्रयुक्त किया जा सकता है। वस्तुस्थिति यह है कि यह कोश किन्हीं विशेष संदर्भों का विवेचन प्रस्तुत नहीं करता हैं और न ही किन्हीं विशेष शब्दों की व्याख्या ही प्रस्तुत करता है, अपितु जैन आगमों में प्रयुक्त प्राकृत भाषा के शब्दों का संदर्भ सव्याख्या विवरण प्रस्तुत करता हैं । स्वरुप : अभिधान राजेन्द्र कोश सात भागों में विभक्त 'प्राकृत विश्वकोश' हैं। यह ग्रंथ प्रथम रतलाम से एवं द्वितीयावृत्ति के समय अहमदाबाद से "सुपर रोयल चौपेजी" आकार में मुद्रित हैं। हमारे संशोधनानुसार इस ग्रंथ में कुल 9,211 पृष्ठों में मूल ग्रंथ, 200 पृष्ठों में अन्य प्रस्तावना, परिशिष्ट एवं प्रशस्त्यादि सामग्री मुद्रित हैं। सभी भागों में हिन्दी प्रस्तावना, पट्टावल्यादि देने से सातों भागों के प्रायः साढे नौ हजार पृष्ठ हैं। इस ग्रंथराज में आचार्यश्रीने अकारादि वर्णानुक्रम से जैनागमों के करीब 60,000 (साठ हजार) प्राकृत शब्द; 4,50,000 (साढे चार लाख श्लोक, सहस्राधिक सूक्तियाँ, 500 से अधिक शब्दों पर विभिन्न विषयाधीन कथा - उपनय कथा, कहानियाँ एवं महापुरुषों का परिचय आदि ऐतिहासिक सामग्री दी हैं। ग्रंथ संपादक आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी के अनुसार इस ग्रंथ का संदर्भ इस प्रकार रखा हैं - "प्रथम अकारादि वर्णानुक्रम से प्राकृत शब्द, उसके बाद उनका संस्कृत में अनुवाद, तत्पश्चात् लिंगनिर्देश, व्युत्पत्ति, और उनका जैनागमों में प्राप्त अर्थ दिखाया गया हैं । बडे-बडे शब्दों पर अधिकार सूची क्रम से दी गयी हैं, जिससे अध्येता को प्रत्येक बात सुगमता से प्राप्त हो सकती हैं। जैनागमों का ऐसा कोई भी विषय बाकी नहीं रहा है जो इस महाकोश में न आया हो। केवल इस कोश के ही देखने से संपूर्ण जैनागमों का बोध हो सकता हैं । आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि के अनुसार जब अभिधान राजेन्द्र कोश की प्रथमावृत्ति अप्राप्य सी हो गयी तब दिल्ली की एक संस्था ने इसके कुछ भाग प्रकाशन करने का नाजायज लाभ उठाया और उसे अतिशय महँगा कर दिया तब आपकी निश्रा में श्री सौधर्म बृहत्तपोच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्री संघ ने द्वितीय आवृत्ति के प्रकाशन का निर्णय लिया और 'श्री अभिधान राजेन्द्र कोश प्रकाशन समिति' का गठन हुआ। समाज के सम्यग्ज्ञान प्रेमी उदारमना गुरुभक्तों एवं श्री संघों के सहयोग से आचार्यश्री के मार्गदर्शन में अखिल भारतीय त्रिस्तुतीक जैन श्री संघ के अध्यक्ष जैन रत्न श्री गगलदास हालचंद संघवी, अहमदाबाद के नेतृत्व में कोश प्रकाशन समितिने आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी के अनुसार अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम संस्करण का सामूहिक सातों भागों का लोकार्पण समारोह नहीं हो सकता था क्योंकि वह लगभग 17 वर्ष के लम्बे समयांतराल में छपकर तैयार हुआ था। अतः जैसे-जैसे इसके प्रथमादि भाग छपते गये वैसे-वैसे उसका श्रीसंघ, समाज, विद्वद्वर्ग एवं आचार्य श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरि एवं साधु साध्वी द्वारा प्रचार-प्रसार होता गया । अभिधान राजेन्द्र कोश के इस द्वितीय संस्करण का प्रकाशन होने पर उसके लोकार्पण समारोह के पूर्व श्री राजेन्द्र उपाश्रय / श्री वासुपूज्य स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर - जूनी कसेरा बाखल, इन्दौर (जहां मैंने इस शोध-प्रबन्ध की रचना संबंधी महत्त्वपूर्ण कार्य किया) में श्रुतभक्ति हेतु परमात्म भक्ति स्वरुप अष्टाहिका महोत्सव का आयोजन हुआ एवं 28 जून 1987 को वहां से अभिधानराजेन्द्र कोश की विशाल शोभायात्रा निकाली गयी जो वैष्णव महाविद्यालय पर धर्मसभा में परिवर्तित हुई । वहाँ अखिल भारतीय श्रीसौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्रीसंघ एवं श्री अभिधान राजेन्द्र कोश प्रकाशन समिति द्वारा इस द्वितीय संस्करण का लोकार्पण समारोह इस भागीरथ कार्य के प्रेरणादाता आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी एवं मुनिराज श्री अरुण विजयजी तथा भारत के प्रसिद्ध विद्ववर्ग यथा प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. प्रभाकर माचवे (दिल्ली), (अहमदाबाद), श्रीमती आशा लैया (सागर), प्रो. एल. सी. जैन (जबलपुर), शा. इन्द्रमलजी भगवानजी (मद्रास), पं. हीरालाल शास्त्री (जालोर), डो. नेमीचंद जैन (इन्दौर) की निश्रा में अषाढ सुदि द्वितीया, रविवार विक्रम संवत 2044 (मारवाडी)/ 2043 (गुजराती) तदनुसार दि. 28-6-1987 को वैष्णव महाविद्यालयः राजमोहल्ला, इन्दौर में रामकृष्ण विवेकानंद आश्रम, रायपुर के स्वामी आत्मानंदजी के करकमलों से करवाया एवं इसकी प्रथम प्रति आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि को भेंट की गयी । प्रथमावृत्ति के और द्वितीय आवृति के मुद्रण को देखने से ज्ञात होता है कि प्रथम संस्करण में उपलब्ध सामग्री को पुनः वर्ण संयोजन में न लेते हुए केवल उसके पत्रों की मुद्रप्रति (ट्रेसिंग प्रिन्ट) बनाकर ऑफसेट विधि से मुद्रण कराया गया हैं। द्वितीयावृत्ति में यदि कुछ अधिक प्राप्त होता हैं तो केवल इतना ही, कि प्रकाशकीय निवेदन, द्वितीयावृत्ति की प्रस्तावना और समूह छायाचित्र - अतिरिक्त हैं। उपसंहार : शोध प्रबन्ध के इस द्वितीय अध्याय में अभिधान राजेन्द्र कोश का नातिसंक्षेपविस्तरतः परिचय देने का प्रयत्न किया हैं। वस्तुतः यह कोश न केवल जैन कोशपरम्परा में अपितु समग्र प्राकृत कोशपरम्परा में मील का पत्थर हैं। इसकी उपादेयता प्राकृत और संस्कृत दोनों शाखाओं में समान रूप से सिद्ध हैं । 1. अभिधान राजेन्द्र विशेषांकः शाश्वत धर्म, पृ. 91, 92 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [92]... द्वितीय परिच्छेद इतना ही नहीं इसके साथ ही जैनविद्या के अध्येताओं के लिए यह एक निर्णायक मत उपलब्ध कराता हैं। इस ग्रन्थ का रचनाकाल वह काल है जब प्राकृत भाषा का कोई मानक कोश उपलब्ध नहीं था। आज भी इसके जैसा दूसरा अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कोई कोश तैयार नहीं हो सका हैं। हमने इसके रचनाकाल, स्थान, उद्देश्य, रचना की पृष्ठभूमि, विषयवस्तु विभाग, नामकरण एवं विषयवस्तु का पूर्ण परिचय देने का प्रयत्न किया हैं, जो कि अध्याय की सामग्री से स्पष्ट 1 वंदामि विणयपणओ, संघमहामंदरगिरिस्स ! सम्मदंसणवरवइर - द्दढरुढगाढावगाढपेढस्स । धम्मवररयणमंडिअ - चामीयरमेहलागस्स ॥ 1 ॥ नियमूसियकणयसिला - यलुञ्जलजलंतचित्तकूडस्स । नंदणवणमणहरसुरभि - सीलगंधुद्धमायस्स ॥ 2 ॥ जीवदयासुंदरकं - दरुद्दरियमुणिवरमइंदइन्नस्स । उस धाउपगलं - तरयणदित्तोसहिगुहस्स ॥। 3 ॥ संवरजलपगलियउ - ज्झरपविरायमाणहारस्स । सावगजणपउरखं - तमोरनच्चंतकुहरस्स ॥ 4 ॥ विणयनयपवरमुणिवर - फुरंतविज्जुलंतसिहरस्स । विविहगुणकप्परुक्खग फल भर कुसुमाउलवणस्स ॥ 5 ॥ नाणवररयणदिप्पं- तकंतवेरुलियविमलचूलस्स । वंदामि विणयपणओ, संघमहामंदरगिरिस्स ॥ 6 ॥ परतिर्थिकों के वासनारुप जल के प्रवेश का अभाव होने से शंकादि दूषणरहित दृढ, जीवादि पदार्थों के सम्यग्बोध द्वारा प्राप्त प्रथमभूमिकायुक्त, प्रतिसमय विशुद्धयमान प्रशस्त अध्यवसायरुढ, उत्तरगुणरुप रत्नजडित मूलगुणरुप मेखलावाले श्रेष्ठ धर्मरत्न से अलंकृत सम्यग्दर्शनरुप श्रेष्ठ वज्रमय पीठवाले श्री संघरुप महामंदरगिरि/ सुमेरु को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 1 ॥ अशुभ अध्यवसाय के परित्याग एवं प्रतिसमय कर्ममल नष्ट होने से उज्जवल चित्तरुपी कूट (छोटे शिखर) युक्त इन्द्रियनोइन्द्रिय (मन) के दमन / नियमरुपी कनकशिला (आसन) वाले, उत्तरोत्तर सूत्रार्थ स्मरण से तेजस्वी, तत्त्वज्ञानी, आमर्ष्यादि विविध लब्धि से मनोहर, शीलरुपी सुगंधवाले मुनि (जहाँ) संतोष / आनन्द प्राप्त करते है / रमण करते है ऐसे श्री संघरुप महामंदरगिरि/सुमेरु को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 2 ॥ स्व-पर-निर्वृत्ति के हेतुभूत जीवदयारुपी गुफा / कन्दरा में निवास करनेवाले, कर्मशत्रुओं को नष्ट करने में प्रबल उत्साही, शाक्यादि परवादीरुप मृगों को जीतने में मृगेन्द्र ( अन्य दर्शनियों की) कुयुक्तियों के नाशक सेंकडो हेतुरुपी रत्नों से तेजस्वी, श्रुतरत्त्रों से दीप्तिमान, आमर्ष्यादि लब्धियों से जाज्वल्यमान मुनिवरों से व्याप्त व्याख्यानशालारुप गुफावाले श्री संघरुप महामंदरगिरि (सुमेरु) को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 3 ॥ करने प्राणातिपातादि पञ्चास्रव के प्रत्याख्यानरूप, कर्ममल से आत्मा को निर्मलकारी, सांसारिक ताप की आकुलता को दूर में श्रेष्ठ जलरुप संवर तत्त्व का सतत प्रवाह जिसके गले का (मूल्यवान) हार है (जिसका शृंगार है) ऐसे स्तुति-स्तोत्र-स्वाध्यायादि के द्वारा केकारव करनेवाले विधितत्पर श्रावकरुपी मयूर जहाँ जिनमंदिरों/जिनमण्डपादि में नृत्य करते हैं, ऐसे श्री संघरुप महामंदरगिरि/ सुमेरु को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 4 ॥ जहाँ जिनशासनरुप गगनांगण में विविध ऋद्धि आदि रुपी पुष्पों से परिपूर्ण, गच्छरुपी गुच्छों में शोभायमान, मूलोत्तर गुणरुप धर्मरुपी फलदान में तत्पर विशिष्ट कुलोत्पन्न होने से विविध गुणों से कल्पवृक्ष के समान, श्रेष्ठ विनय - विवेकयुक्त, तपस्वी, तेजस्वी मुनिगणरुप विद्युत् से आचार्यादि श्रेष्ठ प्रावचनिकरुपी शिखर (सदा) देदीप्यमान होते हैं, ऐसे श्री संघरुप महामंदरगिरि को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 5 ॥ जहाँ जीवादि पदार्थों के यथावस्थित बोध से विमल बुद्धिवाले, परमनिवृत्ति (मोक्ष) के हेतुरुप सम्यग्ज्ञानरुप श्रेष्ठ र से प्रकाशमान भव्यजनरुप मनोहर, तेजस्वी, वैडूर्यमय विमल शिखर देदीप्यमान होते है, ऐसे श्रीसंघरुप महामंदरगिरि को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ || 6 | Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय। तृतीय परिच्छेद Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की शब्दावली का परिचय 1. साहित्यिक शब्दावली 2. सांस्कृतिक शब्दावली 3. राजनैतिक शब्दावली 4. दार्शनिक शब्दावली Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की शब्दावली का परिचय इस शोध प्रबन्ध का तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की शब्दावली का परिचय प्रस्तुत करने के लिए निर्धारित किया गया है। अभिधान राजेन्द्र कोश की संरचना देखने से यह ज्ञात हो जाता है कि यह कोई साधारण शब्द कोश नहीं है किन्तु यह विश्वकोश स्वरुप में निबद्ध किया गया है जिसका (मूलविषय) प्राकृत शब्दावली में भी विशेषतः जैनागम साहित्य में प्रयुक्त शब्दों के हार्द को एकत्र प्रस्तुत करना है। इसमें आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने कोशरचना के सिद्धांतो के अनुस्म वर्णानुक्रम से शब्दों का चयन, उनकी व्याकरणिक कोटियाँ, निक्ति, व्युत्पत्ति सप्रमाण देते हुए क्रमप्राप्त अर्थो को क्रमशः देते हुए उनकी व्याख्या की है। कहीं एक-एक शब्द पर निबन्धात्मक विस्तृत व्याख्या भी दी गयी है तो कहीं पर शब्दार्थ को स्पष्ट करते हुए आगे बढने का क्रम दिखाई देता है। चूँकि इसमें जैनागमों में प्रयुक्त शब्दो की व्याख्या है और जैनागमों में अनेक विषयो पर लिखे गये शास्त्र हैं, इसलिए यह समझना उचित नहीं है कि इसमें मात्र जैन अध्यात्म या जैन दर्शन सम्बन्धित शब्दों का ही समावेश होगा, किन्तु इस कोश में निहित शब्दराशि अनेक विषयों पर प्रकाश डालती है। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी पिछली शताब्दी में हुए हैं । तबतक विद्वानों के प्रिय विषय साहित्य, व्याकरण, राजनीति, अर्थशास्त्र, दर्शन, भूगोल, सामाजिकवृत्त होते थे और इनमें प्रयुक्त शब्दावली संस्कृत से होते हुए प्राकृत भाषा में भी तद्भव के रुप में प्रयुक्त होने लगी, इसलिए प्राचीन विषयों की शब्दावली अभिधानराजेन्द्र कोश में प्राप्त होती है। शोधप्रबन्ध की रुपरेखा बताते समय यह प्रयास किया गया था कि अपने विषय से स्खलित न होते हुए केवल उन शब्दों पर ध्यान केन्द्रित किया जाय जो आचरपरक दार्शनिक हों। किन्तु ऐसा करने से अभिधानराजेन्द्र कोश के स्वस्म का पूरा परिचय प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए हमने इस शोधप्रन्ध में आचारपरक दार्शनिक शब्दावली से अतिरिक्त शब्दराशि का परिचय देने की आवश्यकता अनुभव की, इसलिए तृतीय अध्याय को शब्दावली का परिचय देने का स्थान बनाया गया जिसमें चार प्रकार की शब्दराशि के लिए चार उपशीर्षक बनाये गये हैं। साहित्यिक शब्दावली, सांस्कृतिक शब्दावली, राजनैतिक शब्दावली और दार्शनिक शब्दावली -इन चार उपशीर्षकों में केवल उन्हीं शब्दों का समावेश किया गया है जो विशेष महत्त्व के हैं। परिचय में शब्द के साथ ही कोष्टक में उसके लिंग को पुल्लिंग (पु.), स्त्री, और नपुंसक (न.) संकेतो से दर्शाया गया है और कोष्टक के बाहर अभिधानराजेन्द्र कोश में उसके स्थान-भाग और पृष्ठ को दर्शाने में तिर्यग् रेखा से पृथक् किया गया है जैसे भाग 1, पृ. 35 = 1/35) जहाँ तक दार्शनिक शब्दावली का प्रश्न है उसमें आचारपरक दार्शनिक शब्दावली तो इस शोध प्रबन्ध का ही विषय है इसलिए उनको यहाँ लेना तर्कपूर्ण नहीं था, किन्तु आचरण से भिन्न जो तत्त्वमीमांसा, प्रमाणमीमांसा, तर्कविद्या से संबन्धित शब्द हैं उन्हीं का संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास किया है जो कि आगे के शीर्षको में व्यवस्थित हैं। (यहाँ पर 'नय' पृ. 126 एवं निक्षेप पृ. 135) शब्द का परिचय 'प्रमाण' शब्द के अन्तर्गत दिया गया है) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [94]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. साहित्यिक शब्दावली इस शीर्षक में साहित्य अर्थात् शब्द और अर्थ से संबन्ध विशेष का परिचय दिया गया है भले ही वे नवरसचिरवाङ्मय से सम्बद्ध हों या व्याकरण से। यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों का संकेत मात्र से परिचय कराया जा रहा हैं। अंकलिवि - अङ्कलिपि (स्त्री.) 1/35 'ब्राह्मी' आदि लिपि में अंकों के द्वारा लेखनविधिरुप बारहवीं लेख्य विधि 'अंकलिपि' है। अंग-अङ्ग (न.) 1/36 अभिधान राजेन्द्र कोश में 'अंग' शब्द के आमंत्रण विषयक, अलंकार विषयक, देहावयव, लौकिक वेदों के शिक्षा, कल्प आदि अंग और लोकोत्तर (जैन) प्रवचन के आचारांग आदि द्वादशाङ्ग-इत्या अनेक अर्थ किये हैं। अडयालकोडगरइय - अष्टचत्वारिंशत्कोष्ठकरचित (त्रि.) 1/257 अडतालीस (48) कोष्ठक भेदों से युक्त विचित्र छन्द रचना । (छन्दोबद्ध गोपुर रचना विशेष) 'कावणमाला' -इस प्रकार की रचना अप्पक्खर-अल्पाक्षर (न.) 1/614 महान् अर्थयुक्त अल्प अक्षरवाले सूत्रों को 'अल्पाक्षर' कहते हैं, जैसे -'सामायिक सूत्र' । अबद्धसुय-अबद्धश्रुत (न.) 1/680 गद्यात्मक श्रुत (आगम ग्रंथ) को 'अबद्धश्रुत' कहते हैं। आगमसत्थ-आगमशास्त्र (नपु.) 1/96 विधिपूर्वक, सकलश्रुतज्ञानविषयक व्याप्ति के द्वारा, मर्यादापूर्वक यथावस्थित प्ररुपणारुप ज्ञान जिसके द्वारा सीखा जाय, जाना जाय (बोध प्राप्त किया जाय) उसे 'आगम शास्त्र' कहते हैं। विशेषावश्यक भाष्य में आगम शास्त्र का अर्थ 'श्रुतज्ञान' किया गया है। आदंस/आदंयं/आदरिस/आदस्स लिवि - आदर्श लिपि (स्त्री.) 2/238 ब्राह्मी लिपि की लेखन विधि को 'आदर्श लिपि', कहते हैं। आ(य) रियवेद - आर्यवेद (पुं.) .. स्वयं के स्वाध्याय के लिए तीर्थंकरों की स्तुतिरुप और श्रावक धर्म के प्रतिपादक भरत चक्रवर्तीकृत वेद जैन दर्शन में 'आर्यवेद' कहे गये हैं। आयासलिवि - आयासलिपि (स्त्री.) 2/390 ब्राह्मीलिपि की अठारह प्रकार की लेखनविधि में पंद्रहवीं लेखनविधि को 'आयासलिपि' कहते हैं। अवणास-उपन्यास (पुं.) 2/926 प्रयत्नपूर्वक चिन्तनपूर्वक की गई शास्त्र रचना 'उपन्यास' कहलाती है। इसके चार भेद हैं- 1. तद्वस्तुक, 2. अन्यवस्तुक, 3. प्रतिनिभ और 4. हेतु । इनका विशेष परिचय अभिधान राजेन्द्र कोश में उन-उन शब्दों पर दिया गया है। एकसेस - एकशेष (पुं.) 3/31 समान रुपवाले और एक विभक्तियुक्त अनेक सामासिक पदों में से समान होने पर जब एक ही पद शेष रहता है, उसे एकशेष कहते हैं। ओज - ओजस् (न.) 3/91 साहित्य विधा में ओज का अर्थ गौडी रीति, भाषा का गुण, और रस में वीर-वीभत्स और रौद्र रस से भी क्रमप्राप्य आधिक्य को 'ओज' कहते हैं। अन्यत्र 'ओज' शब्द के परमाणु, राग-द्वेष रहित चित्त, विषम राशि (गणित परिभाषा गत), मानसिक स्थिरता, विद्यादिरुप बल, शारीरिक ओज, स्त्री संबन्धी रक्त विशेष (आर्तव), उत्पत्ति देश में आहत योग्य पुद्गल समूह, ज्ञानेन्द्रियों की पटुता, स्वकार्य करने की शक्ति, चित्त के विस्तार रुप दीप्तिमत्ता आदि अर्थ किये गये हैं। कत्थ - कथ्य (नपुं.) 3/219 जिसमें कथा गायी जाती है, उसे 'कथ्य' कहते हैं। यह काव्य का एक भेद है। काव्व - काव्य (न.) 3/393 कवि के अभिप्राय, कविकृत गद्यपद्यात्मक ग्रंथ, स्तुति, वर्णन, को 'काव्य' कहते हैं। काव्य के चार प्रकार हैं - (1) गद्य (2) पद्य (3) कथ्य और (4) गेय । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कव्वरस - काव्यरस ( 3/393 कवि के अभिप्राय की अनूभूति 'काव्यरस' कहलाता है। उससे उत्पन्न चित्तविकार इसका सहकारी कारण है। अथवा बाह्य अर्थावलम्बन से मानसिक वस्तुविकार 'भाव' कहलाते हैं; भाव का उत्कर्ष 'रस' कहलाता है। वह रस नौ प्रकार का है- 1. वीर, 2. श्रुंगार, 3. अद्भूत, 4. रौद्र, 5. विस्मय, 6. बीभत्स, 7. हास्य, 8. करुण और 9 प्रशान्त । कहा - कथा (स्त्री.) 3/402 उनके (कथा नायक के) नामोच्चारण, गुणोत्कीर्तन, चरित्रवर्णनादि रुप वचन पद्धति, वाक्य प्रबन्ध, या शास्त्र को 'कथा' कहते हैं। यहाँ पर कथा, विकथा के भेद-प्रभेदों का वर्णन किया गया हैं- जैसे- अर्थकथा, धर्मकथा, कामकथा, मिश्रकथा, श्रृंगारकथा, तपोनियमकथा, उत्सर्गकथा, आस्तिकनय कथा, निश्चयनय कथा, पर्यायास्तिक नय कथा; नैयायिकोक्त वादादि कथा, प्रकीर्णकथा, अपवादकथा, इत्यादि । अभिधान राजेन्द्र कोश में इसी शब्द के अन्तर्गत कथा कहने की विधि, स्थान, समय, द्रव्यादि अनुकूलता आदि का किया गया है। वर्णन कोस कोष (श) पुं., न.- 3/681 साहित्य विधा में शब्द पर्यायज्ञापक अभिधान (नाम) के संग्रह को 'कोश' कहते हैं। यहाँ अन्य अर्थ में अण्ड, सोने के कुण्ड, मुकुट, समूह, दिव्य का भेद, पनसादिक के मध्य का 'कोवा' नामक पदार्थ पानपात्र, पानी भरने की कोश (चषक), शिम्बा, धान्यनिधि, नेत्रकोष, बर्तनघर, आश्रय, लक्ष्मी का भंडार, शस्त्रों का समूह, तलवार का आवरण, प्रत्याकार, त्वचा का प्रथम आवरण में कोशवत् आकार (कोशिका), घर, कान्यकुब्ज और दो हजार धनुष्क प्रमाण माप आदि के लिये 'कोस (कोश)' शब्द प्रयुक्त हैं। ग्रंथ - ग्रंथ (पुं.) 3/793 जिसके द्वारा अर्थ का ग्रथन किया जाय उसे, श्रुत को, शब्द संदर्भ को और शास्त्र को 'ग्रन्थ' कहते हैं । अन्यत्र जिस बाह्य आभ्यन्तर निमित्त से जीव कर्म बन्धन से ग्रथित होता (बँधता) है, उसे 'ग्रंथ' कहते हैं। यहाँ तत्संबन्धी अनेक प्रकार के भेद-प्रभेद का वर्णन किया गया है। गज्ज - गद्य (न.) 3/812 सूत्र और अर्थ, दोनों के द्वारा मधुर, सहेतुक ( उपपति सहित) आनुपूर्वीबद्ध (क्रमबद्ध), विशिष्ट छन्द रचना रहित / पाद रहित, अर्थ से विरामयुक्त किन्तु पाठ से विरामरहित, बडा, ( अंत में मृदुपाठ्य) काव्य 'गद्य' कहलाता हैं । गमिय गमिक (न.) 3/841 - - तृतीय परिच्छेद... [95] भङ्गयुक्त शास्त्र, गणितादि युक्त शास्त्र, प्रायः गाथा, श्लोक, वेष्टक आदि से सदृश पाठवाले दृष्टिवादादि अंग सूत्र एवं उत्तराध्ययना सूत्र को 'गमिक सूत्र' कहते हैं । गाहा - गाथा (स्त्री.) 3/872 संस्कृत (प्राकृतादि) भाषा में निबद्ध 'आर्या' छंद को 'गाथा' कहते हैं। यहाँ 'गाथा' छंद के भेद-प्रभेदों के लक्षणपूर्वक वर्णन किया गया है। अन्यत्र 'गाथा' का अर्थ प्रतिष्ठा और घर भी किया गया है। गीतिया - गीतिका (स्त्री.) 3 / 901 पूर्वार्ध के समान उत्तरार्ध के लक्षण वाले 'आर्या' छंद को 'गीतिका' कहते हैं। गीत गाने की कला को भी गीतिका कहते हैं । गीय - गीत (न.) 3/901 गाने योग्य रचना, गान, ध्रुवकादि छंद निबद्ध, पद-स्वर ताल के अवधानपूर्वक का गान्धर्व 'गीत' कहलाता है। गीत कला में सात स्वर, इक्कीस मूर्च्छना और उनपचास तान युक्त स्वरमण्डल होता है। इसी शब्द के अन्तर्गत गीत के और गीतकार के गुण-दोषों का भी वर्णन किया गया हैं। गेय - गेय (न.) 3/948 तन्त्री, ताल, वर्ण, ग्रह, लय की समानतायुक्त, गान योग्य, स्वर संचार के द्वारा गीतिप्राय निबद्ध काव्य रचना को 'गेय' कहते हैं। गौडी - गौडी (स्त्री.) 3 / 1340 समासबहुल काव्यरचना को गौडीकाव्य कहते हैं । अन्यत्र गुड से निष्पन्न मदिरा को भी गौडी कहा जाता है। छन्द - छन्दस् (पु. न. ) 3 / 1340 वेद के चतुर्थ अङ्ग, पद्य वचन के विषय में लक्षण शास्त्र और छंद (बनाने की) कला के विषय में छंद शब्द का प्रयोग होता हैं। संस्कृत पुलिङ्ग में छंद शब्द का अर्थ अभिलाषा, अभिप्राय, प्रार्थना, गुर्वादेश रहित आचरण और गुरु का अभिप्राय किया हैं । छंदोणिबद्ध - छन्दोनिबद्ध (न.) 3 / 1343 छन्दः शास्त्र के नियमों के अनुसार (संस्कृतादि भाषा के) पद्य को 'छन्दोनिबद्ध' कहते हैं। निज्जुत्ति नियुक्ति (स्त्री.) 4/2060 निश्चयपूर्वक अर्थप्रतिपादक युक्ति, श्रीभद्रबाहुस्वामीकृत व्याख्यान ग्रंथ, व्याख्या के उपायभूत सत्पदप्ररूपणा को 'निर्युक्ति' कहते हैं । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [96]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जिस सूत्र के विषय में जिसके द्वारा श्रुत के अनुसार जीवाजीवादि अर्थ की प्रस्तुति की जाय, उसे व्यवस्थित किया जाय, उसे 'नियुक्ति' कहते हैं। पज्ज - पद्य (त्रि.) 5/210 छन्दोबद्ध वाक्य को 'पद्य' कहते हैं। पद्य तीन प्रकार के हैं(1) सम - श्लोक के चारों पादों में समान (संख्या में) अक्षरों का होना। (2) अर्धसम - श्लोक के प्रथम और तृतीय पाद और द्वितीय या चतुर्थ पाद में गुरु लघु आदिपूर्वक समान अक्षर होना। (3) विषम - सभी पादों में विषम अक्षर होना पय - पद (न.) 5/502 जिसके द्वारा अर्थ का ज्ञान होता है, उसे 'पद' कहते हैं। पदार्थ के विषय में पहचान (ज्ञान प्राप्त) करने में परस्पर सहकारी रुप से स्थित, पदान्तरवर्ती वर्णो से पराङ्मुख अन्योन्य वर्णो की अपेक्षा का मिलाप (संहति) 'पद' कहलाता हैं। वाक्यार्थ में वाक्य में अन्तर्भावित ऐसे ही पदों की संहति को 'वाक्य' कहते हैं। पद के नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि चार भेद हैं। और उनके अनेक प्रभेद हैं। इसमें भाव पद के नौवें मातृक पद नाम के 'ग्रथित' नामक भेद में गद्य, पद्य, गेय और चौर्ण पद समाविष्ट है। अन्य प्रकार से पद के (1) नाम (2) निपात (3) उपसर्ग (4) आख्यात और (5) मिश्र - ये पाँच प्रकार हैं। सामान्यतः जहाँ शब्द के अर्थ की परिसमाप्ति हो, उसे 'पद' कहते हैं परंतु द्वादशांगी में तो तथाविध आम्नाय का अभाव होने से वहाँ एक पद को 'पद' माना हैं। जैसे - आचारांग के 18,000 पद। पाठ - पाठ (पु.) 5/824 ग्रहण शिक्षा, आसेवन शिक्षा, जिससे अभिधेय विषय को पढा जाय/प्रकट किया जाय, उसे 'पाठ' कहते हैं। प्रबन्ध - प्रबन्ध (पुं.) 5/435 उपांगो में कथित वृत्तान्त (प्रपञ्च कथा) परक ग्रंथ को 'प्रबन्ध' कहते हैं। पोत्थग - पुस्तक (न.) 5/1121 जिस पर वर्णादि लिखा जाता है ऐसा ताडपत्रादि का छेद करके पन्ने रुप बनाकर उसे संपुट रुप में ग्रहण करना - 'पुस्तक' कहलाता हैं। (अ.रा.भा. 5 'पोत्थकम्म' शब्द) पुस्तक पाँच प्रकार के होते हैं(1) गंडी दीर्घ, बहुत पन्नोंवाला, समचोरस पुस्तक 'गंडी पुस्तक' कहलाता हैं। (2) कच्छपी - अंत में पतला, मध्य में मोटा, थोडे या ज्यादा पन्नोंवाला पुस्तक 'कच्छपी पुस्तक' हैं। (पृ. 3/186, 5/122) (3) मुष्टि चार अंगुल लम्बा या गोलाकार पुस्तक 'मुष्टि पुस्तक' कहलाता हैं। (4) संपुट दो फलकवाला पुस्तक 'संपुट' कहलाता है। (5) छेवाडी - लम्बी, छोटी, या थोडे या अधिक पत्रोंवाली पुस्तक 'छेवाडी' कहलाती हैं। (अ.रा.भा. 3/1362, 5/1122) यहाँ पर जिनसिद्धांत संबंधी पुस्तकलेखन का फल एवं जिनसिद्धांत के पुस्तकारूढ होने का काल, स्थानादि का वर्णन किया गया है। पोराण - पुराण (त्रि.) 5/1123 जैन साहित्य में तीर्थंकरभासित अर्थ के विषय में गणधरनिबद्ध ग्रंथविशेष को 'पुराण' कहते हैं। बन्धण - बन्धन (न.) 5/1191 साहित्यविधा में मयूर-बन्ध आदि काव्य रचना के लिए 'बन्धन' शब्द का प्रयोग होता हैं। अन्यत्र कर्मबन्धन, रज्जु-लोहशृंखलादि से बन्धन के विषय में भी 'बन्धन' शब्द प्रयुक्त हैं। बंभी - ब्राह्मी (स्त्री.) 5/1284 जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की सुमंगला नामक पत्नी से उत्पन्न पुत्री का नाम ब्राह्मी था। जैनागमों के अनुसार परमात्मा ऋषभदेव ने अपने गृहस्थजीवन में अपनी पुत्री ब्राह्मी को संस्कृतादि लिपि का जो अक्षरज्ञान दिया, उसे ब्राह्मी लिपि कहते हैं। ब्राह्मी लिपि की लेखनविधि के अठारह प्रकार हैं - 1. ब्राह्मी 2. यवनालिका 3. दोष ऊरिका 4. बारोटरी 5. खरडाडिका 6. महाराजिका 1. उच्चस्तरिका 9. भोगवजत्रा 10. वेदन्तिका 11. निह्निका 12अंकलिपि 15. आदर्श लिपि 14. गान्धर्वलिपि 13. गणितलिपि 16. माहेश्वरलिपि 17. दामिलिपि 18. बोलंति लिपि भइरव - भैरव (न.)5/1334 Jain Education international नाटक, काव्य आदि में वर्णित भयानक रस को 'भैरव' रस कहते हैं। शास्त्रीय संगीत में 'भैरव' नामक 'राग' (तर्ज) हैं। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [97] अन्यत्र 'भैरव' शब्द का अर्थ शंकर, अवतार, भय का साधन और भयंकर भी किया गया हैं। भास - भाष्य (न.) 5/1521 गाथा निबद्ध सूत्र-व्याख्यानरुप ग्रंथ को 'भाष्य' कहते हैं। अन्यत्र श्रूयमाण जप, कथ्य, वचन, प्रकाश, गोष्ठ, कुक्कुर, शुक्र ग्रह, भास पक्षी, भस्म (राख) आदि अर्थों में भी 'भास' शब्द प्रयुक्त होता हैं। भासा - भाषा (स्त्री.) 5/1522 भाषण, वचन, बोली जाने वाली वाणी को 'भाषा' कहते हैं। यहाँ विभिन्न प्रकार से भाषा के भेद-प्रभेद, वाक्शुद्धि का फल, भाषण विधि, 'अपौरुषेयी वेदभाषा' मत का निराकरण आदि विषय वर्णित हैं। महुर - मधुर (त्रि.) 6/230 सुनने योग्य सूत्र-अर्थ दोनों और सुनने में सुन्दर, आह्लादकारी, गंभीर (घोष महाध्वनि युक्त एसी ग्राह्य दुर्गम्य अर्थ भी सुनने मात्र से श्रोता की समझ में आ जाय ऐसी भाषा को मधुर भाषा कहते हैं। अन्य अर्थ में राग, स्वर, गुड, शक्कर, कोकिल स्वर के अर्थ में 'मधुर' शब्द प्रयुक्त हैं। . माउयकखर - मातृकाक्षर (न.) 4/235; माउया - मातृका (स्त्री.) 4/235 अकारादि अक्षरों को 'मातृका' कहते हैं। इसमें प्रायः ऋ, ऋ, लु, ल-ल्ल-इन पाँच वर्णो को नहीं गिनते। राग मंडल - रागमण्डल (न.) 4/546 वसन्तादि रागों के समूह को 'रागमण्डल' कहते हैं। लिवि - लिपि (स्त्री.) 4/659 लेप्यविधि और अक्षर लेखन प्रक्रिया को लिपि कहते हैं। लिपि के अठारह प्रकार निम्नानुसार हैं1. हंस, 2. भूत, 3. यक्षी, 4. राक्षसी 5. उड्डी, 6. यवनी, 7. तूर्की, 8. किरी 9. द्राविडी/द्रविड 10. सिंधी 11. मालवीनि 12. नडी, 13. नागरी, 14. लाट, 15. पारसी, 16. अनिमित्ती 17. चाणक्यी 18. मूलदेवी। वक्क - वाक्य (न.) 6/7770 एक अर्थ (की पुष्टि करने वाले अनेक शब्दों (पदों) का मेलाप वाक्य कहलाता हैं। वचन को वाक्य कहते हैं। यहाँ वाक्य के द्रव्य और भाव रुप भेद के भी दिग्दर्शन कराया गया हैं। वण्ण - वर्ण (पु.) 6/818 साहित्य में अकार-ककारादि वर्ण, जिसके द्वारा अर्थ प्रकट किया जाय, जिसके द्वारा वस्तु का वर्णन किया जाय, प्रशंसा, धन्यवाद को वर्ण कहते हैं। वत्तिअ - वार्तिक (न.) 6/833 'वृत्ति' अर्थात् सूत्र विवरण के व्याख्यान को भाष्य अथवा 'वार्तिक' कहते हैं। गणधरादि उत्कृष्ट श्रुतधर आत्माओं के व्याख्यान और सूत्र के विषय में गुरुपरम्परागत व्याख्यान को 'वार्तिक' कहते हैं। वयण - वचन (न.) 6/888 वाक्य रचना में विवक्षित अर्थ का कथन 'वचन' कहलाता हैं। यहाँ वचन के विभिन्न प्रकार से अनेक भेद-प्रभेद का परिचय दिया गया हैं। विभासा - विभाषा-(स्त्री.) 6/1203 विविध भाषा, विषय विभाग के व्यवस्थापनपूर्वक की गयी व्याख्या, विविध पर्यायवाची शब्दों के द्वारा (वाच्य पदार्थ का) स्वरुप कथन, श्रुत के शेष-विशेष रूप भाषा और अर्थकथन 'विभाषा' कहलाता हैं। 'विभाषा' को भाष्य या वार्तिक भी कहते हैं। समास - समास (पुं.) 7/425 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने समास के अनेक अर्थ बताते हुए साहित्यिक दृष्टि से दो या उससे अधिक पदों के एकीकरण को, विस्तार के संक्षिप्तकरण को समास कहा हैं। मुख्यतया समास सात प्रकार के हैं (1) द्वन्द्व (2) बहुव्रीहि (3) कर्मधारय (4) द्विगु (5) तत्पुरुष (6) अव्ययीभाव और (7) एकशेष समास । (अनुयोगद्वार सूत्र) राजेन्द्र कोश में यथास्थान इनकी व्याख्या भी दी गई हैं। समास दोष - समास दोष । (पुं.) 7/425 साहित्य में समास विधि प्राप्त होने पर समास न करना समास विधि प्राप्त न होने पर समास करना समास-दोष हैं। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [98]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 2. सांस्कृतिक शब्दावली सांस्कृतिक शब्दावली से अभिप्राय यह है कि वे शब्द जो मानव की जीवनपद्धति से जुडे हए हों, वे चाहे परम्परागत संस्कारों की सूचना देते हों अथवा आजीविकार्जन, जाति-व्यवस्था, वर्णव्यवस्था, उपासनापद्धति या मनोरंजन से सम्बद्ध हों । इस शीर्षक के अन्तर्गत अभिधान राजेन्द्र कोश में आये हुए ऐसे ही कुछ शब्दों का परिचय दिया जा रहा हैं। अइहिपूआ - अतिथिपूजा (पुं.) 1/33 सतत प्रवृत्ति के कारण जिनके आने की तिथि निश्चित नहीं है ऐसे तिथि पर्व आदि लौकिक व्यवहार के त्यागी, भोजन समय उपस्थित महात्मा/भिक्षु विशेष को 'अतिथि' कहते हैं। उनका आहारादि दान के द्वारा सत्कार (भक्ति) करना 'अतिथिपूजा' हैं। 'अतिथिपूजा' को भारतीय संस्कृति में देवपूजावत् माना गया है। यह लोकोपचार विनय का भेद हैं। अट्टणसाला - अट्टनशाला (स्त्री.) 1/238 व्यायामशाला को 'अट्टनशाला' कहते हैं, जहाँ लोग व्यायाम, योगासन, मल्लयुद्धादि करते हैं। अणाहसाला - अनाथशाला (स्त्री.) 1/329 आरोग्यशाला को 'अणाहशाला' कहते हैं। अपारंगम - अपारङ्गम (त्रि.) 1/606 अनन्तसंसारवासी, सर्वज्ञों के उपदेश से रहित स्वरु चिविरचित, शास्त्रवृत्तियुक्त कुतीर्थिकों को अपारङ्गम कहते हैं। आगंतार - आगन्तार (पुं.) 2/60 आगमणगिह - आगमनगृह (न.) 2/90 पथिकादि को रहने की धर्मशाला को 'आगंतार' या 'आगमनगृह' कहते हैं। आगारिय - आगारिक (न.) 2/106 गृहस्थ को 'आगरिक' कहते हैं। आधायकिच्च - आघातकृत्य (न.) 2/113 अग्निसंस्कार, जलाञ्जलिप्रदान, पितृपिण्ड आदि मरणकृत्य को 'आघातकृत्य' कहते हैं। आजीविया - आजीविका (स्त्री.) 2/117 जीविका, वृत्ति, जीवनयापन हेतु व्यापार को 'आजीविका' कहते हैं। उसके सात प्रकार हैं (1) वणिकों के लिए व्यापार (2) वैद्यादि को विद्या (3) किसानों को कृषि (4) गोपालकों के लिए पशुपालन (5) चित्रकार आदि के लिए शिल्प (6) सेवकों के लिए सेवा (7) भिक्षाचरों (द्रमक) के लिए भिक्षा आणय - आनय (पुं.) 2/130 वेदादि अध्ययन हेतु देशान्तरगमन और उपनयन संस्कार को 'आनय' कहते हैं। आपण - आपण (पुं.) 2/271 क्रय-विक्रय बाजार, दुकानको 'आपण' कहते हैं। आपणवीहि - आपणवीथि (स्त्री.) 2/271 'बाजार' को 'आपणवीथि' कहते हैं। आभीर - आभीर (पुं.) 2/313 . अहीर नामक शुद्र जाति और आभीर देशवासी लोगों को 'आभीर' कहते हैं। आय - आय (पुं.) 2/320 ज्ञानादि की प्राप्ति, द्रव्यादि का लाभ, धन का आगम, द्रव्यादि निमित्त आठों प्रकार के कर्मरुप आस्रव की प्राप्ति को 'आय' कहते आम समाज को और साधुओं को हितशिक्षा देते हुए यहाँ आचार्यश्रीने कहा है कि, आय को देखकर ही खर्च करना चाहिए। लक्ष्मी का लाभ के अनुसार ही दान, भोग, परिवार और अतिथि आदि में व्यय करना चाहिए। 'आय' का चार भाग करके एक-एक भाग क्रमश: बचत, व्यापार, धर्म एवं परिवार पोषण में रखना चाहिए। पंचाशक सूत्र में आधी कमाई धर्म में वापरने का भी कथन हैं। आयतण - आयतन (न.) 2/326 वन, स्थान, धार्मिक लोगों का मिलन स्थान, आश्रय, देव मंदिर, मंदिर के पास की धर्मशाला, ज्ञानादि रत्नत्रयधारक साधु आदि, यथाविध अर्थकथन रुप निर्णय, विश्राम स्थान, यज्ञ स्थान, बन्ध हेतु, आविष्कार, चोरपल्ली, दस्युओं का अड्डा आदि के लिए Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [99] 'आयतन' शब्द का प्रयोग किया गया हैं। आलय - आलय (पुं.) 2/423 'आलय' शब्द के आधार, आश्रय, आवास, गृह, स्थान, उपाश्रय, वसति (साधुओं को रहने योग्य स्त्री, पशु, नपुंसक रहित स्थान), दानवों (देवशत्रुओं) का अत्यन्त भयंकर खांडव वन आदि अर्थ होते हैं। इभ्य - इभ्य (पुं.) 2/653 वणिक, राजा, हस्ति (हस्तिपक/हस्तिपालक), महा धनपति, सूंड में कदली दण्ड उठाया हुआ हाथी जिससे ढक जाय इतने द्रव्य का स्वामी 'इभ्य' कहलाता हैं। इब्भजाइ - इभ्यजाति (स्त्री.) 2/653 __ आर्य जाति को 'इभ्य जाति' कहते हैं । जाति आर्य के छः प्रोकार हैं - (1) अम्बष्ठा (2) कलन्दा (3) विदेहा (4) वैदिगाइया (5) हरिता (6) चुंचुणा इयरकुल - इतरकुल (न.) 2/654 अन्त-प्रान्त कुल को 'इतरकुल' कहते हैं। उच्छव-उत्सव (पुं.) 2/762; ऊसव - उत्सव (पुं.) 2/1214 जिसमें विशिष्ट खान-पानादि हो, या विशिष्ट पर्व दिन जिसमें सामान्य लोग भी साधु के पास धर्मश्रवण करते हैं, या आनंदजनक व्यापार, विवाहादि तथा इन्द्र-महोत्सवादि को 'उत्सव' कहते हैं । उडय - उटज (पुं.) 2/778 पत्तों आदि से निर्मित शाला (झोपडी) या तापसाश्रम, को 'उटज' कहते हैं। उत्तमकुल - उत्तमकुल (न.) 2/783 उग्रकुल, भोगकुल, चान्द्रादि कुल को 'उत्तमकुल' कहते हैं। उवगरण - उपकरण (न.) 2/905 जिसके द्वारा उपकार किया जाता हो / क्रिया की जाती है, उन्हें 'उपकरण' कहते हैं। हाथी, घोडा, रथ, आसन, पलंग, धन, धान्य, स्वर्णादि, वस्त्र, कामभोग के साधन आदि 'उपकरण' कहलाते हैं। धर्म शरीर के पालन हेतु जिसके द्वारा व्रती का उपकार होता है उसे भी ‘उपकरण' कहते हैं । ज्ञानादि के साधन, दण्ड, रजोहरण, वस्त्र, पात्र आदि व्रती के उपकरण है। यदि उपकरण का यत्न (जयणा) पूर्वक उपयोग नहीं किया जाय तो उसे 'अधिकरण' कहते हैं। अधिकरण से पाप कर्मो का बन्ध होता है। कड - कट (पुं.) 3/202 उत्कट, आचार, कटदि, नल नामक तृण, शव, शवरथ, श्मशान, वंशकट, संथारा (शय्या), अंतरयुक्त वांसमय भाग के लिये 'कड' शब्द का प्रयोग किया जाता है। अन्यत्र पर्वत का एक भाग, प्रेत, एक प्रकार की औषधि, बाण, समय, आचार, आवरणकारक, तृण, क्रियाकारक, द्यूतक्रीडा के साधनरुप द्रव्य के लिये 'कड' शब्द 'कट' अर्थ में और 'निष्पादि', परिकर्मित, अनुष्ठित, निर्वतित कार्य के लिए 'कृत' अर्थ में प्रयुक्त हैं। आसन अर्थ में तृणादि के द्वारा निष्पन्न, वांस की सली के द्वारा निष्पन्न, चमडे का, खाट आदि, कंबल तथा तन्तु आदि से निर्मित आसन भेद और योगासन में 'उत्कटासन' के लिए 'कट' शब्द प्रयुक्त हैं। कडग घर - कटकगृह (न.) 3/203 वंशदल (वांस के पत्ते या चटाई) के द्वारा निर्मित गृह को 'कटकगृह' (वाँस की झोपडी) कहते हैं। कम्मशाला - कटकगृह (न.) 3/345 जहाँ कुम्हार घडे आदि बनाता है उस कुम्हारवाडे को 'कम्मशाला' कहते हैं। कला - कला (स्त्री.) 3/376 विविध विषय संबन्धी ज्ञान को 'कला' कहते हैं। यहाँ शास्त्रोक्त 72 (बहत्तर) कलाएँ वर्णितहैं। 'कला' शब्द के मात्रा, काल, अंश, देहस्थ धातु का भेद, धूल, नौका, कपट आदि अन्य अर्थ भी किये गये हैं। कुडुंब - कुटुम्ब (पुं., न.) 3/579 पोष्यवर्ग, भाई, संतान, स्वजन वर्ग आदि को 'कुटुम्ब' कहते हैं। कुत्तिआवण - कुत्रिकापण, कुत्रिजापण (पुं.) 3/584 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [100]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन देवताष्ठित होने से जहाँ स्वर्गादि तीनों लोक की संभव वस्तुओं की प्राप्ति करानेवाली दुकान या विभिन्न धातु से निष्पन्न सर्व वस्तु जहाँ प्राप्त हो ऐसी दुकान को 'कुत्रिकापण' कहते हैं। यहाँ कुत्रिकापण का स्वरुप, वहाँ की वस्तुओं का मूल्य एवं तत्संबंधी कथाएँ वर्णित हैं। कुलाचार - कुलाचार (पुं.) 3/600 कुल के सिद्धांत, कुल संबन्धी आचार 'कुलाचार' कहलाता हैं। जैसे शक कुलों में पितृशुद्धि, आहीरों में मथनी की शुद्धि इत्यादि । खेत्त - क्षेत्र (न.) 3/756 जीव एवं अजीव के निवास योग्य स्थान, खेत, गाँव आदि योग्य स्थान, जनपद, गाँव, नगर आदि के लिए 'क्षेत्र, शब्द का प्रयोग किया जाता है। क्षेत्र शब्द के अन्यत्र धर्मास्तिकाय आदि की वृत्ति जहाँ होती है उसे, साधु के निवास योग्य स्थान, भरत-ऐरावतादि क्षेत्र, जिन चैत्यादि सप्त क्षेत्र, देह, अन्तःकरण, स्त्री-परिवार, लोकांत में सिद्ध स्थान, कलत्र आदि अर्थ भी किये गये हैं। यहाँ साधु के लिए चातुर्मास योग्य स्थान (क्षेत्र) के गुण-दोष का विस्तृत वर्णन किया गया हैं। खेत्तकप्प - क्षेत्रकल्प (पुं.) 3/767 देश विशेष के आचार को, देश (क्षेत्र) विशेष के अनुसार कल्प्याकल्प्य (वस्तु, खाद्य पदार्थादि के विषय में) 'क्षेत्रकल्प' कहलाता यहाँ साधु योग्य क्षेत्र की विशेषता वर्णित हैं। गम्म - धम्म - गम्य धर्म (पुं.) 3/842; ग्राम्य धर्म (पं.) विवाह के पक्ष में वर के द्वारा पाणिग्रहण के योग्यायोग्य कन्या संबन्धी नियम 'गम्य धर्म' कहलाता है। जैसे - दक्षिण देश में मामा की लडकी के साथ शादी कर सकते हैं लेकिन उत्तर देश में उसका निषेध हैं। किसानादि के आचार धर्म, मैथुन, (व्यवाय) को 'ग्राम्य धर्म' कहते हैं। गिह - गृह (न.) 3/895; गेह - गेह 3/948 महल, आवास, बन्धा हुआ मकान, घर, गृहस्थत्व को 'गिह' कहते हैं और वास्तुविद्याविधान से युक्त मकान को 'गेह' कहते हैं। गोट्ठिधम्म - गोष्ठी धर्म (पुं.) 3/950 वसन्तादि उत्सवों में इस प्रकार करना-इत्यादि समवयस्क मित्रों की आपसी व्यवस्था का पालन 'गोष्ठी धर्म' कहलाता हैं। गोट्टी - गोष्ठी (स्त्री.) 3/953 महत्तर (मुखिया) आदि पाँच पुरुषों से युक्त, जनपद विशेष, परस्पर बातचीत और पोष्यवर्ग को 'गोष्ठी' कहते हैं। गोत्त - गोत्र (न.) 3/954 उच्च-नीच कुलोत्पत्ति लक्षण पर्याय विशेष, यथार्थ कुल और उस प्रकार के एक पुरुष के द्वारा उत्पन्न वंश को 'गोत्र' कहते हैं। गोत्र कर्म के लिये भी 'गोत्र' शब्द का प्रयोग होता हैं। घंघसाला - घशाला (स्त्री.) 3/1037 यात्री के ठहरने हेतु हवा-ताप आदि रहित अतिरिक्त स्थान (धर्मशाला) को 'घंघसाला' कहते हैं। घरग - गृहक (न.) 3/1042 सुखेच्छु लोगों के मैथुन सेवा के लिए वनखण्ड के मध्य में बने 'वास भवन/मोहन घरगर्भ गृह को 'घरग' कहते हैं। यहाँ पर आलीगृहक, कदली गृहक, लता गृहक, माली गृहक (वनस्पति के घर), अवस्थान गृहक, प्रेक्षणक गृहक, मज्जन गृहक, प्रसाधन गृहक, शाला गृहक, कुसुम गृहक, गन्धर्व गृहक, आदर्श गृहक इत्यादि गृहकों का वर्णन किया गया हैं। घोस - घोष (पुं.) 3/1046 यहाँ आभीरपल्ली, गोकुल, गोष्ठ, गोपाल, शब्द, निनाद, अनुवाद, उदात्तादि स्वरविशेष, कण्ठस्थानीय वर्ण, ध्वनि, घण्टारव, मेघगर्जन, कांस्यपात्र, मशक, घोषलता, घोषवान्, कुमारों के इन्द्र के लिए 'घोस' शब्द प्रयुक्त हैं। घोसण - घोषण (न.) 3/1046 ध्वनि और उद्घोषणापूर्वक के व्यापार के लिए 'घोषण' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। चंददरिसणिया - चन्द्रदर्शनिका (स्त्री.) 3/1071 नवजात बालक का जन्म के दो दिन बाद चन्द्रोदय के समय चन्द्रदर्शन महोत्सव 'चन्द्रदर्शनिका' कहलाता हैं। चंदसूरदंसावणिया - चंदसूरपासणिया - चन्द्रसूर्यदर्शनिका (स्त्री.) 3/1096 नवजात बालक के जन्म के तीसरे दिन चन्द्र-सूर्य दर्शन के उत्सव को 'चन्द्रसूर्यदर्शनिका' कहते हैं। चक्कसाला - चक्रशाळा (स्त्री.) 3/1104 तेल की घाणी (जहाँ तेल निकाला जाता है) को 'चक्कसाला' कहते हैं। चक्कियसाला - चाक्रिकशाला (स्त्री.) 3/1104 तेल बेचने के स्थान को 'चाक्रिकशाला' कहते हैं। F O Private Personal use www.janelorary.org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चट्टसाला चट्टशाला (स्त्री.) 3 / 1111 चट्ट = विद्यार्थी, छोटे बालकों की अध्ययनशाला को 'चट्टशाला' कहते हैं । चाउव्वण - चातुर्वर्ण (न.) 3/1171 चातुर्वण दो प्रकार से हैं (1) लौकिक क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र ( 2 ) लोकोत्तर - श्रमण- श्रमणी - श्रावक-श्राविकारुप चतुर्विध संघ चित्तसभा - चित्रसभा (स्त्री.) 3 / 1183 चित्रकार्ययुक्त मण्डप को 'चित्रसभा' कहते हैं। चिया चिता (स्त्री) 3 / 1187 'शव' के अग्नि संस्कार के लिए जो ईन्धनयुक्त अग्नि होती है उसे 'चिता' कहते हैं । चूलाकम्म- चूडाकर्मन् (न.) 3/1025; चोलअ चोलग (न.) 3/1337 बालकों का मुण्डन संस्कार 'चूडाकर्म' या 'चोलग' कहलाता हैं। - चोल्लग - चोल्लक (पुं.) 3 / 1338 छेयारिय - छेकार्चा (पु.) 3 / 1361 परिपाटी भोजन और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के मित्र का कल्याण भोजन 'चोल्लक' कहलाता हैं। जणोवयार जनोपचार (पुं.) 4/1381 शिल्प का उपदेश देनेवाले (सीखानेवाले) आचार्य को 'छेकाचार्य' कहते हैं। - स्वजनादि की लौकिक पूजा - सत्कार को 'जनोपचार' कहते हैं । 2. राजस 3. तामस जाग - याग (पुं.) 4/1446 - जज्ञ - यज्ञ (पुं.) 4/1389 यहाँ याग, विष्णु, नागादि की पूजा, प्रतिदिन अपने अपने इष्टदेवता की पूजा, धूपसहित यज्ञ, धूपरहित दानादि क्रियारुप यज्ञ आदि के लिए 'यज्ञ' शब्द प्रयुक्त है। यहाँ यज्ञ के तीन भेद बताये गये हैं 1. सात्त्विक फल की आकांक्षा रहित, सविधि, मन की समाधि के लिये जो ( सद्ध्यान रुप) यज्ञ किया जाय, उसे सात्त्विक यज्ञ कहते हैं। फल की प्राप्ति के लिये, अथवा कपटपूर्वक किया गया यज्ञ राजस यज्ञ हैं। विधिरहित, असृष्ट अन्न, मंत्ररहित, दक्षिणारहित और श्रद्धारहित यज्ञ तामसयज्ञ है । अन्य प्रकार से यज्ञ के द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ और ज्ञान यज्ञ ये चार प्रकार हैं। यहीं पर अध्यापनरुप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरुप पितृयज्ञ, होमरुप देवयज्ञ, बलिरुप भूतयज्ञ और अतिथिपूजारुप नृयज्ञ ( मनुष्य यज्ञ) - ये ( मीमांसक मत में) गृहस्थ के करने योग्य पाँच यज्ञ हैं, यह भी बताया गया हैं। जाणसाला - यानशाला - 4/1550 - देवपूजा और अश्वमेघादि लौकिक यज्ञ को 'याग' कहते हैं । जहाँ वाहन बनाये जाते हैं उसे 'यानशाला' कहते हैं। गरधम्म - नगर धर्म (पुं.) 4/1793 जाय - जात (न.) 4 / 1451 समूह, जन्म, प्रकार, व्यक्ति, वस्तु, उत्पन्न, विभिन्न देशोत्पन्न विनेय अनुग्रह के लिए एकार्थवाची शब्द और उत्पत्ति, धार्मिक व्यक्तियों के समूह को 'जात' कहते हैं। यहाँ इसके नाम, स्थापन, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छः निक्षेपों का वर्णन किया गया है। 1 जायकम्म - जातकर्मन् (न.) 4/1451 प्रसव कर्म, नाल छेदनादि कर्म, मन्त्रित सर्षप, प्राशनादि कर्म तथा अशुचि निवारण एवं जन्म संबन्धी संस्कार को 'जातकर्म' कहते णट्ट - नाट्य (न.) 4/1799 हैं। जत्ता - यात्रा (स्त्री.) 4/1390; जिणजत्ता जिनयात्रा (स्त्री.) 4/1492 यान में जाना या तप-नियम- संयोगादि में प्रवृत्ति, देवदर्शनोत्सव, रथयात्रा, अष्टाह्निका महोत्सव, तीर्थयात्रा, चैत्यपरिपाटी, चैत्ययात्रा, राजा का गमन, देशान्तरगमन, गमन क्रिया, यापन और उपाय को 'जत्ता' कहते हैं। और अर्हदुत्सव के निमित्त रथयात्रा को 'जिनयात्रा' कहते है। नगरवासी नागरिकों के आचार-नियमादि को 'नगर धर्म' कहते हैं। - तृतीय परिच्छेद ... [101] नृत्य, हाथ-पैर - मुख की भाव-भंगिमा, ताण्डव नृत्य, गीतरहित नृत्य को 'नट्ट' कहते हैं। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [102]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन णिगम - निगम (पुं.) 4/2028 बहुल वणिक् जाति के निवास स्थान, वणिकजन-प्रधान स्थान, वणिक जनों से अधिष्ठित सन्निवेश, वणिकों के समूह, नगर के वणिक (व्यापारी) विशेष आदि को तथा निश्चित अर्थ और विचित्र अभिग्रह को 'निगम' कहते हैं। णिसेज्जा - निषद्या (स्त्री.) 4/2147 स्त्रियों का निवास स्थान, स्त्रीकृत माया, धर्मशाला और क्षुद्र खाट को भी 'निषद्या' कहते हैं। तिवग्ग - त्रिवर्ग 4/2324 धर्म, अर्थ, काम; तीनों समय; और सूत्र, अर्थ और तदुभय (सूत्रार्थ) को 'त्रिवर्ग' शब्द से कहा जाता हैं। तूह - तीर्थ (न.)4/2341 शास्त्र, यज्ञ, क्षेत्र, उपाय, स्त्रीरज; नदी आदि में उतरने हेतु घाट, विद्यादि गुणयुक्त पात्र, उपाध्याय, मंत्री, योनि, दर्शन, ब्राह्मण, आगम, निदान, अग्नि, कुएँ के पास का जलाशय, दैहिक-मानसिक और भौमिक पवित्र स्थान को 'तीर्थ' कहते हैं। दिविसेवा - दृष्टिसेवा (स्त्री.) 4/2517 हावभावानुसार दृष्टि से दृष्टि का मिलन 'दृष्टिसेवा' कहलाती हैं। दिसासुद्धि - दिक्शुद्धि (स्त्री.) 4/2538 समयानुसार शंख ध्वनि श्रवण, पूर्ण कलशादि का सम्मुखागमन, शुभ गंध आदि स्वाभाविक शुद्धि (शुभ शकुन) को 'दिक् शुद्धि' कहते हैं। धण - धन (न.) 4/2644 धान्योत्पादन, वस्तु, अर्थ, सोना-चाँदी आदि, गाय-भैंस आदि, गुड-शक्कर-मिश्री आदि, बर्तनादि, जायफलादि, कंकु-गुडादि, तैलादि, रत्नादि को 'धण' कहते हैं। ज्योतिष में धनिष्ठा नक्षत्र को भी 'धन' कहते हैं। यहाँ धन सार्थवाह को भी प्राकृत में 'धण' कहा हैं। धण्णणिहि - धान्यनिधि (पुं.) 4/2662 'अनाज' रखने के कोठार को 'धान्यनिधि कहते हैं। पणियगिह - पण्यगृह (न.) 5/380; पणियघर - पण्यगृह (न.) 5/380 बर्तन की दुकान, मिट्टी के बर्तन जहाँ मिलते हैं -कुम्हार की दुकान को 'पण्यगृह' कहते हैं। पणियसाला - पण्यशाला (स्त्री.) 5/380 जहाँ कुम्हार मिट्टी आदि के बर्तन बनाते हैं या बेचते हैं, उस दुकान को 'पण्यशाला' कहते हैं। परिवार - परिवार (पुं.) 5/634 स्वयं को छोडकर स्त्री, बालकादि तथा दास-दासी, नौकर आदि युक्त (कुटुम्ब) को परिवार कहते हैं। परिसा - पर्षत् (स्त्री.) 648 कुमत में प्रवृत्त ढोंगियों के मत का जिनके अन्तःकरण में असर न हो, गुण-दोष रुप विशेष परिज्ञान में कुशल, दोष होने पर भी दोष का त्याग कर केवल गुणग्राहक महाजन, नगरवासी, कोविद (विद्वान), मंत्री या रहस्यवालों (अन्तःपुर महत्तरिका, आचार्य और आलोचना ग्रहण करने वाला साधु) की बैठक या सभा को 'परिसा' (परिषद्) कहते हैं। यहाँ पर्षदा के लौकिक और लोकोत्तर भेद से अनेक प्रकार से भेद-प्रभेद वर्णित हैं। साथ ही चरमेन्द्र से लगाकर अच्युत देवलोक तक के इन्द्रों की पर्षदा का भी वर्णन किया गया हैं। पुरवर धम्म - पुरवर धर्म (पुं.) 5/1010 प्रत्येक शहर में रहन-सहन, भाषा आदि के भिन्न-भिन्न नियम 'पुरधर्म' शब्द से कहे जाते हैं। पूजण - पूजन (न.)5/1073 सत्कार-पुरस्कार, वस्त्र-पात्रादि दान, सुगंधि माला आदि के द्वारा अर्चन, गुर्वादि को द्रव्य दान-अन्नदान-सत्कार-प्रणाम-सेवा आदि 'पूजन' कहलाता हैं। पूया - पूजा (स्त्री.) 5/1073 प्रशस्त-मन-वचन-कायपूर्वक का पूजन, सत्कार, गायत्रीपाठादि संध्यार्चन, पुष्पादि से अर्चन, सुगंधिमाला-वस्त्र-पात्र-अन्न-पानी दान आदि, यथोचित पुष्प-फल-आहार-वस्त्रादि प्रदान आदि द्रव्यपूजा, स्तवनादि, चैत्यवंदन, स्वरुप भावना, गुणैकत्वरुप स्वरुप साधना-भावपूजा कहलाती हैं। यहाँ साधु की भावपूजा, श्रावक द्वारा भावपूर्वक की गयी द्रव्यपूजा, गुरुपूजा, उचित-प्रतिपत्तिपूजा, बहुश्रुतपूजा आदि के स्वरुप का वर्णन किया गया है। पोसहसाला - पौषधशाला (स्त्री.) 5/1139 लोकोत्तर पर्व के दिनों में पौषध (अनुष्ठान विशेष पूर्वक गृहस्थ का व्रतयुक्त साधुवत् जीवन), आदि ग्रहण करने एवं धार्मिक जनों को आराधना करने के लिए 'निरवद्य' साधारण स्थान को 'पौषधशाला' कहते हैं। यह यथावसर साधुओं को ठहरने के लिए उपाश्रय रुप में भी उपयोग में आती हैं। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [103] बंभण - ब्राह्मण (पुं.) 5/1271 अन्य दर्शनी पुराण के अनुसार ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मनुष्य ब्राह्मण कहलाते हैं जबकि, जैन दर्शनानुसार श्री ऋषभदेव के ज्ञानोत्पन्न (ज्ञान रुप कुक्षी से व्रत अंगीकार करनेवाले) अहिंसा के पालक और उपदेशक श्रावक ही 'ब्राह्मण' कहलाते हैं। बणिय - वणिज (पुं.) 5/1285 जो दुकान में बैठकर या बिना दुकान के व्यापार करते हैं, व्यापार ही जिनकी आय का साधन हैं, उन्हें 'वणिक' (वणिज) कहते हैं। ज्योतिष में 'वणिज' नामक एक कारण भी हैं। वणियधम्म - वणिजधर्म (पृ.) 5/1285 व्यापारी के लिए न्याय (प्रामाणिकता) पूर्वक व्यापार करना 'वणिज धर्म' हैं। यहाँ अन्यायी व्यापारियों को 'प्रत्यक्ष चोर' की उपाधि देते हुए उनकी प्रपञ्च लीला का निदर्शन किया गया हैं। बहुकम्म (ण) - बधूकर्म 5/1297; बहुकर्मन् (न.) विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा किये जानेवाले कार्यो को 'बहुकर्म' कहते हैं। अन्य अर्थ में महाकर्म (महारम्भ-समारम्भ) अर्थात् एसे भारी कर्म जिससे अत्यधिक कर्मबन्ध हो, उसे 'बहुकर्म' कहते हैं। भट्टायार - भ्रष्टाचार (त्रि.) 1341 ज्ञानाचारादि आचार या सदाचार का सर्वथा सर्वांग संपूर्ण नाश 'भ्रष्टाचार' कहलाता हैं। भाउअदूईआ-भातृद्वितीयापर्व - 5/1486 भ्रातृद्वितयापर्व शब्द में नन्दिवर्धन राजा के उसकी बहिन के द्वारा कार्तिक सुदि द्वितीया के दिन सम्बोधित किये जाने और अपने घर आमन्त्रित कर भोजन कराने आदि की कथा का संकेत किया गया हैं। मंगल - मङ्गल (पुं.) 6/5 वाञ्छित की प्राप्ति, श्रेय, कल्याण, गीत, विघ्नक्षय, दुरित के नाश हेतु स्वस्तिकादि, सुवर्ण, चन्दन, दही, अक्षत, दूर्वा, श्वेत सर्षप (सिद्धार्थ), दर्पण आदि, विवाहादि में पवित्र कलश (सफेद कलश), कमल, नन्दावर्त, वरमाला, गुलदस्ता, इष्टदेवतादि को नमस्कार, जयविजयादि शब्द, स्तुति आदि मंगल के निमित्तों को 'मंगल' कहते हैं। यहाँ मंगल के भेद-प्रभेद का नय-निक्षेपपूर्वक वर्णन किया गया हैं। ज्योतिष में अङ्गारक नामक ग्रह को 'मंगल' कहते हैं। मडयदाह/मडासय/मसाण - श्मशान (न.) 6/169 यहाँ मडयदाह, मडासय और मसाण - ये तीनों शब्द जहाँ मृतक को अग्नि संस्कार होते हैं - 'श्मशान' लिए प्रयुक्त हैं। मढ - मठ (पुं.) 6/74 व्रतियों के आश्रय स्थान को 'मठ' कहते हैं। मणु - मनु (पुं.) 6/94 वैदिक मान्यतानुसार मनुष्यों के परम मूल पुरुष को, मनु के ग्रंथ को और मनुष्य को 'मनु' कहते हैं। महच्चपरिसा - महार्च्य परिषद् (स्त्री.) 6/173 प्रधान पुरुषों (मुख्य व्यक्तियों) की सभा या पूज्यों की सभा महा» परिषद् कहलाती हैं। महाजण - महाजन (पुं.) 6/186 विशिष्ट पर्षदा को 'महाजन' कहते हैं। महालय - महालय (पुं.) 6/210 महान् व्यक्तियों का निवास स्थान, महत्ता प्राप्त स्थान, राजमार्ग, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररु प मोक्षमार्ग, क्षेत्र या स्थिति रुप महान् स्थान और उत्सव के आश्रय भूत स्थान को 'महालय' कहते हैं। महुस्सव - महोत्सव (पुं.) 6/233 बहुत लोग या बहुत गाँवों के लोग मिलकर जो उत्सव मनाते उसे 'महोत्सव' कहते हैं। मिलक्खु - मलेच्छ (पुं.) 6/301 अव्यक्त भाषा और समाचार, जिनका समस्त व्यवहार सदाचार से विरुद्ध हो, आर्य देशोत्पन्न लोगों के द्वारा कही गई बात का निश्चयार्थ न जाननेवाले और बर्बर, शबर, पुलिन्द आदि हीन जाति के लोग 'मलेच्छ' कहलाते हैं। लेहसाला - लेखशाला (स्त्री.) 6/696 अक्षरविन्यास शिक्षणशाला को 'लेखशाला' कहते हैं। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [104]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन लोयाचार - लोकाचार (पु.) 6/755 प्राणियों के द्वारा किये गये कषाय हेतुक कर्मोपादान, संसार भ्रमण के हेतुभूत अनुष्ठान को 'लोकाचार' कहते हैं। वण्ण - वर्ण (पुं.) 6/818 ब्राह्मणत्वादि चारों वर्ण, पीतादि वर्ण, अर्धदिग्व्यापि और सर्वदिग्वापी साधुवाद युक्तता लक्षण, श्रमणादि चतुर्विध संघ, वन्दन, संयम, मोक्ष, शरीर को अलंकृत करने का साधन, शरीर की छबि आदि के लिए 'वर्ण' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। वत्थु - वस्तु (न.) 6/871; वास्तु (न.) 6/880 द्रव्य, पदार्थ, हेय-ज्ञेय-उपादेय पदार्थ/गुण आदि, गुणी, आचार्यादि महापुरुषों के विषय में नमस्कार योग्यता विषयक वर्णन, अधिकारित्व, पूर्वान्तर्गत अध्ययनगत भागविशेष, पक्ष (न्याय में), भाव, आदि अर्थ में वत्थु शब्द का 'वस्तु' पर्याय प्रयुक्त हैं। 'वास्तु' अर्थ में मकान के प्रकार वर्णित हैं, जैसे - सेतु- भूमिगृह; केतु - प्रासाद, गृह आदि; खात-भूमिगृह; उच्छ्रित-एकदो मंजिला भवन/गृह आदि; खातोच्छ्नि - भूमिगृह सहित प्रासाद । यहाँ भूमि परीक्षा की विधि बताते हुए कहा गया है कि घर या भूमि के मध्य एक हाथ-लम्बा-चौडा-गहरा खड्डा करके उसी मिट्टी को पुनः भरने पर यदि मिट्टी आदि कम पड़े तो हीनभूमि, सम रहे तो बराबर और मिट्टी अधिक हो जाय (बच जाय) तो भूमि धन्य, लाभदायक और उत्तम जानना। व्यवसाय सभा - व्यवसाय सभा (स्त्री.) 6/901 व्यवसाय की हेतुभूत सभा और देवेन्द्र की शास्त्रवाचनपूर्वक तत्त्वनिश्चयकरण सभा 'ववसाय सभा' कहलाती हैं। ववहारि (ण) - व्यवहारिन् (त्रि.) 6/635 ___ व्यापार, क्रय-विक्रय आदि के कर्ता को व्यवहारी (व्यापारी) कहते हैं। यहाँ द्रव्य और भाव व्यापारी के भेद-प्रभेद और लक्षण दर्शाये गये हैं। वाणपत्थ - वानप्रस्थ (पुं.)6/1070 ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति इन चार आश्रमों में तृतीय वानप्रस्थाश्रम में गृहस्थ का वन में जाकर निवास करना 'वानप्रस्थ' (आश्रम) हैं। यहाँ अनेक प्रकार के वानप्रस्थों का परिचय दिया गया हैं। वावरणसाला - व्यावरणशाला (स्त्री.) 6/1101 जहाँ स्वयंवर हेतु अग्निकुण्ड में अग्नि नित्य प्रज्वलित रहता है उसे 'व्यावरण शाला' कहते हैं। वित्ति - वृत्ति (स्त्री.) 6/1191 राजाज्ञापूर्वक की जानेवाली आजीविका, पन्द्रह प्रकार के कर्मादान, विविध अभिग्रह धारण करना, जीवन उपाय-जिससे नियुक्त पुरुष के पास 12 लाख स्वर्ण (मोहर) हो वह, आहार का 32 कवल परिमाण, अनुष्ठान, निवृत्ति, घ्राणेन्द्रिय (तांत्रिक परिभाषा में), सूत्र का विवरण, समुदाय, लक्षण, अवयवी का अवयव, और समवाय को 'वृत्ति' कहते हैं। विवाह - विवाह 56/1237 चारों वर्ण के विवाह योग्य कुलीन 12 वर्ष की कन्या और 16 वर्ष का पुरुष विवाह पूर्वक कुटुम्ब उत्पादन-परिपालनरुप व्यवहार करते हैं, उसे विवाह करते हैं या युक्तिपूर्वक वर निर्धारित करके अग्निदेवता आदि की साक्षीपूर्वक 'पाणिग्रहण करना' विवाह कहलाता है। विवाह के आठ प्रकार हैं - 1. ब्रह्म विवाह अलंकृत कन्यादान 2. प्राज्यापत्य विवाह विभवविनियोगपूर्वक कन्यादान 3. आर्ष विवाह गाय के जोडे के दानपूर्वक का विवाह 4. देव विवाह यज्ञ के लिए ऋत्विज को कन्यादान 5. गान्धर्व विवाह माता-पिता-बन्धु आदि के द्वारा प्रामाणित न होने पर भी परस्पर अनुरागपूर्व का विवाह 6. आसुर विवाह शर्तपूर्वक बन्धन होने से कन्यादान 7. राक्षस विवाह कन्या की अनिच्छापूर्वक कन्याग्रहण 8. पैशाच विवाह सोती हुई या प्रमादग्रस्त कन्या का ग्रहण यहाँ पर यह भी सूचित किया गया है कि वर-वधु की इच्छापूर्वक किया गया विवाह अधर्म्य होने पर भी 'धर्म्य हो जाता है। शुद्धस्त्री की प्राप्ति विवाह का हेतु है। विवाह का फल सुजातपुत्र, संतति की प्राप्ति, स्वच्छंदचित्त की निवृत्ति, गृहकार्य की सुव्यवस्था, जाति की आचार विशुद्धि, देव-अतिथि-बन्धु आदि का सत्कार हैं। गृहकर्म विनियोग, परिमित अर्थसंयोग, अस्वतन्त्रता और सदाचार पालन 'कुलवधू' की रक्षा के उपाय हैं। वेस - वेश (पुं.) नेपथ्य 6/1463, वेश्य (पुं.) साधुवेश; वैश्य (पुं.) वणिक; वेष (पुं.) वस्त्राभरण, नेपथ्य, निर्मल वस्त्र धारण; वेष्य (पुं.) वेषोचित ऋषभदेव द्वारा गृहस्थावस्था में उपदिष्ट अग्नि आदि की उत्पत्ति के द्वारा लोहा, चकमक (अयस्कार) के द्वारा शिल्प तथा व्यापार के द्वारा जीवन यापन करनेवाले, तृतीय वर्ण के लोगों को 'वैश्य' कहते हैं। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [105] वैश्य के लिए वेसिय-वैशिक (6/1465) शब्द भी प्रयुक्त हैं। शस्तवाह - सार्थवाह (पुं.) 7/1 सार्थ (व्यापारियों का समूह) के अधिपति को सार्थवाह कहते हैं। सार्थवाह के लिए सत्थवाह (7/336) और सत्थिग (वही) शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। संघ- सङ्घ (पुं.) 7/77 'संघ' शब्द का अर्थ गुणों के समूह, समुदाय, कुलसमुदाय, गण, साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रुप चतुर्विध संघ, गुणरत्नपात्र सत्वसमूह संतिकम्मंत - शान्तिकान्त (न.) 7/145 जहाँ शान्ति कर्म किया जाता हैं उसे 'संतिकम्मंत' कहते हैं। संबाह - सम्बाध 7/205 तत्कालीन समाज में चारों वर्णो के लोगों के निवास स्थान, कोठार, धान्यादि रखने का सुरक्षित स्थान और अनेक प्रकार के लोगों से संकीर्ण स्थान को 'संबाह' कहते हैं। सज्जण - सज्जन (पुं.) 7/278 सदाचारी मनुष्य को सज्जन कहते हैं। यहाँ आचार्यश्रीने द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका की बत्तीसवीं द्वात्रिंशिका के अनुसार सज्जन के भेदोपभेद दर्शाते हुए उनके गुण, लक्षणों का वर्णन किया हैं। सत्थ (त्रि.) सार्थ (त्रि.) 7/335 ___व्यापारादि के विषय में सामूहिक रुप से गमनागमन करनेवाले समूह को 'सार्थ' कहते हैं। सार्थ भण्डी, वह्निका, भारवाहक, औदरिका और भिक्षाचर - रुप पाँच प्रकार से हैं। सत्थविहान - सार्थविधान (नपुं.) 7/336 यहाँ पर गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य तथा द्रव्य - क्षेत्र-काल भाव से चार-चार प्रकार के सार्थ का परिचय दिया हैं। सक्कार - सत्कार (पुं.) 7/263 सम्मान के रुप में वस्त्राभरण, आहार-पानी, धनदान, गुणकीर्तन, स्तवन-वन्दन, अभ्युत्थान-आसनदान, वन्दन, अनुगमन, अत्यादर, विनय-वंदन आदि रु प सत्कार किया जाता हैं। सत्थिग - स्वस्तिक (पुं.) 7/337 स्वस्तिक भारतीय संस्कृति में और जैन परम्परा में मंगल का प्रतीक हैं। सदायार - सदाचार 7/337 सर्वोपकार, प्रियवचन, प्रसत्राकृति, स्नेह वर्षा आदि सज्जन के व्यवहार को सदाचार कहते हैं। सदाचार भारतीय संस्कृति का प्राण हैं, श्रावक का मुख्य गुण हैं। सभा - सभा (स्त्री.) 7/396; सहा - सभा (स्त्री.) 7/603 सभ्य लोगों के या बहुत लोगों के सामूहिक रुप से बैठने के स्थान को 'सभा' कहते हैं। वाचनालय, कथा-विनोद-के लिए ठहरने का स्थान, या आगन्तुकों को ठहरने का स्थान-को भी सभा (सभा-भवन) कहते हैं। सभावइ - सभापति (पुं.) 7/396 प्रज्ञा, आज्ञा, ऐश्वर्य, क्षमा, माध्यस्थ्य गुणों से युक्त सभानायक को 'सभापति' कहते हैं। सिक्खा - शिक्षा (स्त्री.) 7/810 अभ्यास, व्यापार, ग्रहण शिक्षा, आसेवन शिक्षा (साधु जीवन की आचरण शिक्षा), उद्यमपूर्वक ग्रहण करने योग्य बात को शिक्षा कहते हैं। यहाँ शिक्षा ग्रहण के विधि-निषेध का भी वर्णन हैं। सिट्ट - शिष्ट (पं.) 7/816 व्रतधारी, ज्ञानवृद्धि की सेवा करनेवाला, सज्जन-संमत, विशिष्ट व्यक्ति, क्षीणदोष (जिसके दोष नष्ट हो गए है ऐसा) सम्यग्दृष्टि मनुष्य "शिष्ट' कहलाता है। सिट्टाचार-शिष्टाचार (पुं.) 7/818 शिष्टों के द्वारा आचरण किया गया व्यवहार 'शिष्टाचार' कहलाता हैं। तणकटेण व अग्गी, लवणजलो वा नइसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं कामभोगेहिं ॥ -अ.रा.पृ. 3/443 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [106]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन | 3. राजनैतिक शब्दावली | राजनैतिक शब्दावली शीर्षक के अन्तर्गत राजा, राज्य और प्रशासन से संबन्धी शब्दों का परिचय प्रस्तुत किया गया हैं। राज्य के सात अंगों से सम्बद्ध शब्दावली का परिचय देने के लिए भी यह शीर्षक उपयुक्त है किन्तु अधिक विस्तार से बचते हुए केवल संकेत देने का प्रयास किया गया हैं। अंतेउर - अन्तःपुर (न.) 1/101 राजा की स्त्रियों (रानियों) के निवास स्थान को 'अंत:पुर' कहते हैं। अभोग्य यौवनाओं का जुर्णतःपुर, भोग्य यौवनाओं का नवंतःपुर, और राज कन्याओं का कन्यांत:पुर - इस प्रकार अंत:पुर के तीन प्रकार हैं। ये अंत:पुर राजमहल में होते हैं अथवा वसंतोत्सवादि के निमित अंत:पुर का स्त्री वर्ग उद्यान में आने पर वह भी अंत:पुर जैसा हो जाता हैं। दंडघर, दंडरक्षक, द्वारपाल और कंचुकी तथा महत्तर (पुरुष) अंत:पुर के रक्षक होते हैं। अंत:पुर राग-द्वेष का निमित्त होने से जैनागमों में जैन साधु को अंत:पुर में प्रवेश करने का निषेध किया हैं। अकम्हा दंड - अकस्माद् दण्ड (पुं.) 1/122 राजादि के द्वारा अन्य को दण्ड देने पर अन्य निर्दोष को उस दण्ड के द्वारा दण्डित करने की क्रिया 'अकस्माइंड' कहलाती हैं। अच्चीकरण - अर्चीकरण (न.) 1/195 राजादि के गुणों का प्रशंसा रुप से वर्णन 'अर्चीकरण' कहलाता हैं। वह संयम बाधक, शरीर बाधक, उपसर्गजनक, वैर-विरोधकारक होने से भिक्षु के लिए अर्चीकरण निषिद्ध हैं। अट्टारससेणि - अष्टादशश्रेणि (स्त्री.) 1/253 ____ 1. कुम्हार, 2. पटेल, 3. सोनी, 4. दर्जी (सूचकार), 5. गांधी, 6. नाई (कासवगा), 7. माली, 8. कार्यकर, नौकर, दास., 9. तंबोली, 10. चमार, 11. यंत्रपीलक, 12. मलेच्छ (गंछिअ) 13. रंगकार-छीपा (छिपय) 14. कसारा, 15. जुलाहा (बुनकर) 16.....(गुआर) 17. भील, 18. मच्छीमार - ये अठारह प्रकार की राजा की प्रजा होती हैं। अमच्च - अमात्य (पुं.) 1/734 जिसने राजा के साथ में जन्म लिया हो, जो राज्य और राजा की हितचिंता करनेवाला हो, जो राजा को भी शिक्षा और हितशिक्षा देता हो, जो व्यवहार कुशल और नीतिकुशल हो उसे 'अमात्य' कहते हैं। आईरण - आजीरण (त्रि.) 2/9 युद्ध में विजय प्राप्त करनेवाले को और राज्यावस्था में संग्राम विजेता (राजा) को 'आजीरण' कहते हैं। आउहधरिय - आयुधगृहिक (पुं.) 2/52 आयुधशाला के अध्यक्ष (अधिकारी, रक्षक) को 'आयुधगृहिक' कहते हैं। आरक्खिय - आरक्षिक (पुं.) 2/402 कोटवाल (नगर रक्षक) को 'आरक्षिक' कहते हैं। उत्तरसाला-उत्तरशाला (स्त्री.) 2/795 क्रीडा गृह, हस्तिशाला, अश्वशाला और राजा के मूल गृह से अलग राजा का दूसरा अलग गृह 'उत्तरशाला' कहलाता हैं। उवरोह - उपरोध (पुं.) 2/935 राजनीति में अन्य शत्रु राजा के सैन्य के द्वारा नग/राज्य को घेरना - 'उपरोध' कहलाता हैं। अन्य जगह 'उपरोध' शब्द का अनुरोध, आवरण, बाधा, संघट्टन, नगर के किले के बाहर चारों और खाई इत्यादि अर्थ होते हैं। कर - कर (पुं.) 3/356 प्रजा के द्वारा राजादि को देने योग्य भाग (धन, द्रव्य) को 'कर' कहते हैं। कोडुंबिय - कौटुम्बिक (त्रि.) 3/677 ___ 'राजा' एवं राजकुटुम्ब के मुख्य सेवक को कौटुम्बिक' (पुरुष) कहते हैं। गणराय - गणराज (पुं.) 3/821 प्रयोजन उपस्थित होने पर जहाँ 'गण' (प्रजा, समुदाय) निर्णय करता है, ऐसे गणप्रधान राजा को 'गणराज' कहते हैं। अन्यत्र इसका अर्थ 'सेनापति' भी किया हैं। गुम्मिय - गौल्मिक (पुं.) 3/934 जो राजपुरुष अपने स्थान पर रहता हुआ मुसाफिरों की रक्षा करता हैं, उसे 'गौल्मिक' कहते हैं। यह आरक्षकों का वरिष्ठ अधिकारी होता हैं। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन गोव - गोप (पुं.) 3 / 1011 यहाँ पर गोरक्षक, ग्रामरक्षक, भूमिरक्षक, समुदायाध्यक्ष आदि अर्थो में 'गोप' शब्द प्रयुक्त हैं। णाय - नायक (पुं.) 4 / 2002 अभिधान राजेन्द्र कोश में राजनीति में राष्ट्रमहत्तर ( राष्ट्रपति), नगरादि के प्रधान (मंत्री), अधिपति, स्वामी, मजदूरों के नेता, चक्रवर्ती, राजा, और प्रधान के अर्थ में 'नायक' शब्द प्रयुक्त हैं। दंडणीइ - दण्डनीति (स्त्री.) 4 / 2422 अपराधियों को अनुशासित करने के लिए दण्ड देने की व्यवस्था/ नीति दण्डनीति कहलाती हैं। कुलकरों के राज्य में तत्कालीन समय में जैनागमों के अनुसार सर्वप्रथम हकार, मकार और धकार ( धिक्कार) दंडनीति प्रारंभ हुई थी। (अ. रा. भा. 3 पृ. 593 'कुलगर' शब्द) बल - बल (पुं.) 5 / 1287 शक्ति का संग्रह, सामर्थ्य, शारीरिक बल, मानसबल, देह प्राण, संहननविशेष से उत्पन्न प्राणशक्ति, भारवहनादि सामर्थ्य, हस्ति आदि वाहन, पायबल, अश्वबल, हस्तिबल और रथ बल रुप चतुरंगी सेना, सैन्य एवं अन्यान्य राजा, परिव्राजक आदि के नाम के लिए यहाँ बल शब्द प्रयुक्त हैं । यहाँ लौकिक शरीर बल में तीर्थंकर का सर्वश्रेष्ठत्व एवं दशविध अन्य प्रकार के बलों का उल्लेख किया गया हैं। 1 महत्तर - महत्तर ( त्रि. ) 6 / 174 ; महत्तरंग महत्तरक (पुं.) 6/174 अन्तःपुर के व्यवस्थापक, अन्तःपुर रक्षक (कशुंकी को छोडकर), गाँव का मुखिया, अपने आश्रित जनों का मुख्य पुरुष एवं राज्य के कर्मचारी (कार्यवर्ती) को 'महत्तर' या 'महत्तरग' कहते हैं । महामंति महामन्त्रिन् (पुं.) 6/208 - मन्त्री मण्डल के वरिष्ठ (मुख्य) मंत्री को 'महामंत्री' कहते हैं। रज्ज - राज्य (नपुं. ) 6/476 जितने देशों में एक राजा की आज्ञा प्रवर्तित होती हैं, उतने देशप्रमाण राष्ट्र को 'राज्य' कहते हैं। स्वामी (राजा) अमात्य, राष्ट्र, कोश (निधि), बल (सेना), और सुहृत् ( मित्र, दूत) - इन सात अङ्गो से युक्त 'राज्य' होता है । रज्ज धर्म- राजधर्म (पुं.) 6/478 प्रति राज्य में भिन्न कर (टेक्स) आदि को भरना 'राज्यधर्म' हैं। रज्जवइ - राज्यपति (पुं.) 6/478 स्वतन्त्र राजा को 'रज्जवइ' कहते हैं। रज्जाहिवड़ - राज्याधिपति (पुं.) 6/478 राजा और महामंत्री को 'राज्याधिपति' कहते हैं । रज्जुग सभा - रज्जुकसभा (स्त्री.) 6/481 तृतीय परिच्छेद... [107] राज्य के हिसाब-किताब हेतु लिपिकों की लेखशाला (कार्यालय) को 'रज्जुगसभा' कहते हैं। राइट्टि - राजर्द्वि (स्त्री.) 6 / 509 राजसंपति को राईट्ठि कहते हैं । वह तीन प्रकार की होती हैं : 1. अतियाम ऋद्धि 2. निर्याण (नगरनिर्गमन) ऋद्धि और 3. काष्ठागार ऋद्धि (बल, वाहन, कोष आदि) । राय - राजन् (पुं.) 6/547 जो राज्य करते हैं ऐसे चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, महामाण्डलिक एवं सामान्य राज्यकर्ता को राजा कहते हैं। वह आत्माभिसिक्त और पराभिसिक्त - ऐसे दो प्रकार के होते हैं। राजा के गुणों का वर्णन करते हुए आचार्यश्रीने कहा है- राजा पाँचों प्रकार के कामभागों के सेवन में स्वाधीन, निरुद्विग्न, व्यापारविप्रमुक्त, निर्दोष, स्वस्तिकादि राजलक्षणों से विभूषित, प्रमुदित, निर्दोषमातृक, करुणायुक्त, मर्यादापालक, क्षेमंकर, पालक, रक्षक, शान्तिकर्ता, कल्याणकारी, समृद्ध, विपुल ऋद्धि एवं पुष्कल सैन्ययुक्त संपूर्ण पंचेन्द्रिय पूर्ण, उत्तमलक्षण युक्त, सुरुप, शृङ्गारयुक्त, विद्वान् एवं व्यवहारपटु होता हैं । रायणीइ राजनीति (स्त्री.) 6 / 550 राहहाणी राजाओं की नीति, राजाओं को राज्य संचालन हेतु जानने योग्य साम आदि (साम, दाम, दंड, भेद) उपाय और उन विषयों के प्रतिपादक शास्त्रों को 'राजनीति' कहते हैं। रायलक्खण राजलक्षण (न.) 6 / 558 राज्य सूचक चिह्न और शुभ लक्षणयुक्त अङ्गोपाङ्ग 'राजलक्षण' कहलाते हैं । राजधानी (स्त्री.) 6/559 जहाँ राजा का राज्याभिषेक किया जाता है, जहाँ राजा स्वयं रहता है, राज्य के बीच स्थित मुख्य नगरी को 'राजधानी' कहते हैं। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [108]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन संतिधर - शान्तिगृह (नपुं.) 7/145 जहाँ राजाओं के शान्तिकार्य, होमादि किये जाते हैं, उसे 'शान्तिगृह' कहते हैं। सत्तंग - सप्ताङ्ग (नपुं.) 7/313 राज्य के (1) राजमंत्री (2) मंत्री निवास (3) अर्थलाभ (4) कोश (निधि) (5) राष्ट्र (6) दुर्ग (7) सैन्य लक्षण रुप - ये सात अंग हैं। अट्ठिजुद्ध - अस्थियुद्ध (न.) 1/255 'जिस युद्ध में प्रतिपक्षी के उपर हड्डियों से प्रहार किया जाता है, उसे 'अस्थियुद्ध' कहते हैं। आइ - आजि (स्त्री.) 2/2 राजनीति में 'संग्राम' और 'युद्धभूमि' के अर्थ में 'आजि' शब्द प्रयुक्त हैं। साथ ही अन्य जगह इसका क्षण, मार्ग और मर्यादा अर्थ भी होता है। आउह - आयुध (न.) 2/52 'शस्त्रो' को आयुध कहते हैं। इनके तीन प्रकार हैं - (1) प्रहरण - हाथ में पकडकर प्रहार किया जाय, जैसे तलवार आदि (2) हस्तमुक्त - हाथ से फेंककर प्रहार किया जाय - चक्रादि (3) यन्त्रमुक्त - बाण आदि। ये सब युद्ध के साधन होने से उन्हें 'आयुध' कहते हैं। आरक्ख - आरक्ष (पुं.) 2/402 सैन्य रक्षक को 'आरक्ष' कहते हैं। कयकरण - कृतकरण (त्रि.) 3/347 प्रकरणानुसार धनुर्विद्या के अभ्यास के विषय में और सहस्र योधा के साथ युद्ध करनेवाले योधा के लिए 'कयकरण' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। अन्यत्र विविध तपस्या के द्वारा परिकर्मित शरीर और अनेक प्रकार के अनुष्ठान के लिए भी 'कयकरण' शब्द का प्रयोग देखने में आता हैं। कवय - कवच (पु.) 3/386 योद्धा के द्वारा युद्ध के समय शस्त्रादि की धार से रक्षा हेतु धारण किये जानेवाले लोहमय आवरण (वस्त्र) को 'कवच' कहते हैं। चउरंगिणी - चतुरङ्गिणी (स्त्री.) 3/1055 हस्ति, अश्व, रथ और पैदल - इन चार प्रकार की सामूहिक सेना को 'चउरंगिणी' कहते हैं। चमू - चमू (स्त्री.) 3/1118 सेना के लिए 'चमू' शब्द का प्रयोग किया गया हैं। यह शब्द प्रमाणविशेष युक्त सैन्यबल के अर्थ में भी परिभाषित हैं। जुज्झ - युद्ध (नपुं.) (घा.) 4/1576 शत्रुओं के प्राणनाश के अध्यसाय पूर्वक शस्त्र फेंकने का व्यापार, संग्राम, आयुध फेंकना, तथा मुष्ठी आदि से परस्पर ताडन, बाहुयुद्ध, आदि को 'युद्ध' कहते हैं। यहाँ द्रव्य से संग्राम, भाव से परिषह सहन को 'युद्ध' कहा हैं। द्रव्य युद्ध अनार्य और भाव युद्ध आर्य माना गया है। जुझंग - युद्धाङ्ग (नपुं.) 4/1576 रथ, हस्ति, अश्वादि वाहन, कवच, खड्ग आदि शस्त्र, तथा युद्ध में कौशल्य, प्रावीण्य, नीतिज्ञता, दाक्षिण्य, व्यापार, स्वस्थ पंचेन्द्रियपूर्ण शरीर-आदि को युद्धांग कहते हैं। जुज्झणीइ - युद्धनीति (स्त्री.) 4/1576 युद्ध में व्यूह रचना, संग्राम में प्रवेश और निर्गमन आदि को 'युद्धनीति' कहते हैं। जुज्झाइजुज्झ - युद्धतियुद्ध (नपुं.) 4/1576 जिसमें शत्रु का अवश्य घात हो, उसी प्रकार से शस्त्रों का क्षेपण होता है, ऐसे महायुद्ध को 'युद्धातियुद्ध' कहते हैं। जोह - योध (पुं.) 4/1658 शत्रुओं को नष्ट करने वाले सैनिकों को योध (योद्धा) कहते हैं। धणुबल - धनुर्बल (नपुं.) 4/2658 धनुर्धारी सेना को 'धणुबल' कहते हैं। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [109] धण - धन्व (नपुं.) 4/2659; धन्वन् (नपुं.) 4/2659 यहाँ पर धनुष और चाप के लिए 'धण' शब्द प्रयुक्त हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 'धन' - इस प्राकृत शब्द के अन्य अर्थ निम्नानुसार बताये हैं - 'धण ध्वाने (भ्वादि), ध्वण (ध्वन चुरादि), धन धान्योत्पदने (जुहोत्यादि), -इन धातुओं के अर्थ में (अ.रा. 4/2644); वस्तु, धन, सोना-चाँदी, गाय-भैंस घोडे आदि; गुड-शकर, गणिम (जायफलादि), धरिम (कुकुम आदि), मेय (तेल-घी-आदि), परिच्छेद्य (रत्न-वस्त्रादि) ये चार प्रकार के धन; स्नेह, धनिष्ठा नक्षत्र, राजगृही का धन सार्थवाह (4/2645); धन्य, धनार्थी, धनलाभ योग्य, साधु, पुण्यवान्, श्रेयस्कर, सत्पुरुष, अश्वकर्ण वृक्ष, कृतार्थ, अर्थशास्त्र, ज्ञान-दर्शन-चारित्ररुपी धन, काकन्दी एवं राजगृह का धन सार्थवाह, पार्श्वनाथ प्रभु का प्रथम भिक्षादाता श्रावक, अनुत्तरोपपातिकदशांग के तृतीय अध्ययन का नाम, आमलकी, धन्याक, सुरादेव श्रावक की भार्या, मरुदेश, धान्य, इत्यादि (अ.रा. 4/2695) अर्थों में 'धण' शब्द का प्रयोग किया गया है। बल - बल (नपुं.) 5/1287) ___संहननविशेष के कारण उद्भूत प्राण बल (प्राण) है। यह शारीर और मानस दो प्रकार का होता हैं। महासंगाम - महासंग्राम (पुं.) 6/214 चक्रव्यूह आदि व्यूहरचनापूर्वक सैन्य को व्यवस्थित करके किया जानेवाला युद्ध 'महासंग्राम' कहलाता है। महसत्थ - महाशस्त्र (नपुं.) 6/214 उन अस्त्रों की उद्भुतशक्ति के कारण 'नागबाण' आदि दिव्य अस्त्रों को 'महाशस्त्र' कहते हैं । महासिलाकंटय - महाशिलाकंटक (पुं.) 6/219 जिस युद्ध में हस्ति, अश्वादि को तृणादि से किया गया प्रहार भी बडी शिला के प्रहार जैसी वेदना उत्पन्न करता था ऐसा राजा कोणिक और राजा चेटक के बीच हुआ सौधर्मेन्द्र और चमरेन्द्र की सहाययुक्त महायुद्ध 'महासिलाकंटक' के नाम से प्रसिद्ध हैं। रहमुशल - रथमुशल (पुं.) 6/499 जहाँ चमरेन्द्र देव के प्रभाव से (बिना योद्धा के) मुशलयुक्त रथने दौडकर महाजनों का क्षय किया, एसे राजा कोणिक के पुत्रों और राजा चेटक का ऐतिहासिक युद्ध 'रथमुशल' संग्राम के नाम से जाना जाता हैं। वुग्गह - व्युद्गु (पुं.) 6/1411 दण्डादि प्रहार पूर्वक किये जानेवाले युद्ध को 'व्युद्ग्रह' कहते हैं । संगाम - संग्राम (पुं.) 7/76 ___ बडे लोगों के समक्ष होते क्लेश (तंदुलीय सूत्र) या रण के अग्रिम भाग के युद्ध को संग्राम (सूत्रकृतांग 1/3/1) कहते हैं । संगामिया - संग्रामिकी (स्त्री.)7/76 युद्ध का समय उपस्थित होने पर सामन्तादि की जानकारी हेतु जो वाद्य (नगाडा) बजता हैं, उसे 'संगामिया' कहते हैं । सणाह - सन्नाह (पुं.) 7/306 तलवार आदि शस्त्र को सन्नाह कहते हैं । सत्थ - शस्त्र (नपुं.) 7/334 तलवारादि आयुध को 'सत्थ' कहते हैं। अग्नि, विष आदि स्वकायिक, परकायिक भेद से द्रव्य उपकरण है, जबकि, असंयम से दुर्ध्यान में लीन मन-वचन-काय भाव-शस्त्र हैं। जीवों के ऊपर शासन के लिए शस्त्र होते हैं। . सव्वबल - सर्वबल (न.) 7/594 हस्तिसैन्यादि समस्त सैन्य के विषय में 'सव्वबल' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। सहस्सजोहि - सहस्रयोधिन् (पुं.) 7/603 सहस्र मल्लों (योद्धाओं) के साथ एकाकी ही युद्ध करनेवाले योद्धा को 'सहस्रयोधी' कहते हैं । सूर - शूर (पुं.) 7/1029-30 युद्ध में जो वीर होते हैं उनको 'शूर' कहते हैं। "चलं राज्यैश्वर्यं धनकनकरसार: परिजनो, नृपत्वाद् यल्लभ्यं चलममरसौख्यं च विपुलम् । चलं रुपारोग्यं चलमिह चलं जीवितमिदं, जनो दृष्टो यो वै जनयति सुखं सोऽपि हि चलः ॥ -अ.रा.पृ. 1/845 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [110]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 4. दार्शनिक शब्दावली दर्शन का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। यदि व्यापक दृष्टि से देखा जाये तो प्रत्येक विषय (शास्त्र) का अपना एक दर्शन होता है किन्तु यहाँ पर मात्र उन शब्दों को समाहित किया गया है जो समीक्षकों की परिभाषा में दर्शन विषय से सम्बद्ध हैं। इसमें तत्त्वमीमांसा, प्रमाणमीमांसा-दोनों ही दर्शन शाखाओं का समावेश है। आचारपरक शब्दावली का विस्तार पूरे शोध प्रबन्ध में किया गया होने से यहाँ उसका ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा गया हैं एवं तर्कविद्या को प्रमाण के अन्तर्गत मान कर उसे कोई पृथक शीर्षक नहीं दिया गया हैं। अइंदिय - अतीन्द्रिय (त्रि) 1/1 इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा अगम्य, आगम और उपपत्ति के द्वारा जानने योग्य (केवल युक्ति के द्वारा नहीं जानने योग्य) पदार्थ अतीन्द्रिय कहलाते हैं। अउअसिद्ध - अयुतसिद्ध 1/34 किसी के द्वारा नहीं जोडे गए, अपने आप स्वयं जुड़े हुए पदार्थ (समवाय) को 'अयुतसिद्ध' कहते हैं। यह वैशेषिक दर्शनोक्त पदार्थ गुण हैं। अकिरियावाइन् - अक्रियावादिन् 1/126 __ वस्तु के यथावत् क्रिया स्वरुप को न प्रतिपादित करते हुए भिन्न प्रकार से कहने वाले अक्रियावादी कहे जाते हैं। एकान्तवादियों में वस्तु के क्रियारुप को भिन्न प्रकार से प्रतिपादन किया जाता है। कुत्सित के अर्थ में नञ्-समास के द्वारा 'अक्रिया' शब्द निष्पन्न होता है। 'अक्रियावादिन्' के भिन्न-भिन अर्थ किये गये हैं, यथा 1. प्रतिक्षण अनवस्थित पदार्थ के क्रिया संभव ही नहीं हैं, उत्पत्ति के अनन्तर ही उसका विनाश हो जाने से -एसा मानने वाले। 2. जीवादि पदार्थ की सत्ता ही नहीं है- ऐसा मानने वाले। 3. माता-पिता उत्पत्तिकारण नहीं है- ऐसा मानने वाले। अक्रियावादियों के चौरासी भेद किये गये हैं जीव स्वतः काल से नहीं है, जीव परतः काल से नहीं हैं, इसी प्रकार यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा इस प्रकार इन पांच भंगो से पृथक्-पृथक् दो-दो भेद करने पर बारह विकल्प हो जाते हैं। जिस प्रकार जीवतत्त्व संबन्धी बारह भेद हैं, उसी प्रकार अजीव, आस्रव आदि छह पदार्थो से भी बारह-बारह भेद बनते हैं। इस प्रकार समस्त भेदविकल्प चौरासी हो जाते हैं। अभिधान राजेन्द्र में अक्रियावादियों में बौद्धों और सांख्यों का भी उल्लेख किया गया है। चार्वाक् तो साक्षात् अक्रियावादी ही हैं। इस शब्द के अन्तर्गत अक्रियावादियों का खंडन भी किया गया है। अग्गिहोत्तवाइ (ण) - अग्निहोत्रवादिन - 1/180 ___अग्निहोत्र (यज्ञ) से स्वर्ग गमन की इच्छावाले एवं ऐसी प्ररुपणा करनेवालों को 'अग्निहोत्रवादी' कहते हैं। यहाँ इनका कुशीलत्व बताया हैं। अजाणिया - अज्ञिका (स्त्री) 1/202 मुग्ध स्वभाववाली, सम्यग्परिज्ञान तथा विशिष्ट गुणरहित पर्षदा को 'अजाणिया' पर्षदा कहते हैं। अजीव - अजीव (पुं.) 1/203 जीव से भिन्न अजीव द्रव्य, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय एवं कालद्रव्य को 'अजीव' कहते हैं। यहाँ अजीव द्रव्य की द्रव्यादि चारों निक्षेपों से भेद प्रभेद पूर्वक व्याख्या की गई हैं। इसके साथ ही 'अजीवकाय', अजीव द्रव्यविभक्ति, अजीवपर्याय, अजीवप्रज्ञापना, अजीवराशि, अजीवविचय, अजीवाभिगम आदि शब्दों पर भी अजीव द्रव्य के बारे में संक्षिप्त चर्चा की गई हैं। अज्झत्थ - अध्यात्म (व) 1/227, 229 आत्मा से संबंधित, मन संबंधी, ध्यान, सुख, दुःख, धर्मध्यानादि भावना के विषय में 'अध्यात्म' शब्द का प्रयोग होता हैं। अज्झत्तओग - अध्यात्मयोग (पुं.) 1/227 निरामय (रागद्वेषरहित) नि:संग शुद्धात्मभावना से भावित अंत:करण के स्वभाव धर्म को 'अध्यात्मयोग' कहते हैं। अध्यात्मज्ञाता अणुव्रत या महाव्रतयुक्त, जिनागम-तत्त्वचिन्तनरुप जीवादि पदार्थो के स्वरुप का चिन्तक, मैत्र्यादि भावयुक्त होता है। अज्झवसाण - अध्यवसान (न) 1/232 अति हर्ष या विषाद से तत्संबन्धी अधिक चिन्तन को, राग, भय और स्नेह रुप अध्यवसाय, अन्तःकरण की प्रवृत्ति, मन के परिणाम | Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [111] और प्रकर्ष प्रयत्न को 'अध्यवसान' कहते हैं। अज्झवसाय - अध्यवसाय (पुं.) 1/232 जैनागमों में सूक्ष्म आत्म परिणामों को 'अध्यवसाय' कहते हैं जिसे नैयायिक-आत्म धर्म, वेदान्ती-बुद्धिधर्म, बौद्ध-इन्द्रियवृत्ति, सांख्यसात्त्विक चित्तवृत्ति और वाचस्पति कोश-उत्साह कहते हैं। अट्ठबुद्धिगुण - अष्टबुद्धिगुण (पुं) 1/247 शुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारणा, ऊहा, अपोह, अर्थविज्ञान और तत्त्वज्ञान - ये आठ बुद्धि के गुण हैं। जो मनुष्य इसे धारण करता है उसका कभी भी अकल्याण नहीं होता। अणाइसिद्धांत - अनादि सिद्धांत (पुं.) 1/306 अनादि काल से सिद्ध वाच्य-वाचक संबन्धरुप अन्त (वचन, वाक्य, सिद्धांत) को 'अनादि सिद्धांत' कहते हैं । अणागत कालग्गहण - अनागत कालग्रहण - 1/306 भविष्यकाल (निमित्तज्ञानादि से संभावित अनुमानित भविष्यवाणी) संबन्धी ग्राह्य वस्तु के भेद रुप काल ग्रहण को 'अणागत कालग्गहण' कहते हैं। यह अनुमान प्रमाण का एक भेद है। जैसे-मेघगर्जना, प्रदक्षिणावर्त वायु, नक्षत्र-योग आदि से सुवृष्टि की भविष्यवाणी करना। अणिक्कावाई (ण)-अनेकवादिन् (पुं.) 1/331 जो लोग सभी पदार्थों में सर्वथा नितान्त भेद मानते हैं उन्हें अनेकवादी कहते हैं। उनका तर्क यह है कि यदि पदार्थो को कथञ्चित् अभिन्न माना जाये तो जीव, अजीव, बद्ध, मुक्त, सुखी, दु:खी आदि के एक होने से दीक्षा आदि प्रयत्न व्यर्थ हो जायेंगे। अणुओग - अणु (नु) योग - (पुं) 1/340 'महान् अर्थ का सूत्र के साथ योग होना' - 'अनुयोग' कहलाता हैं। अनुकूल योग या व्याख्यान में अर्थप्ररुपणा संबन्धी विधिप्रतिषेध को भी 'अनुयोग' कहते हैं। यहाँ पर आचार्यश्रीने 23 द्वारों में अनुयोग के द्वारों के नाम, निक्षेपद्वार, नामस्थापनानुयोग, द्रव्यानुयोग, उसके भेद और उनका स्वरुप, क्षेत्रानुयोग, कालानुयोग, वचनानुयोग, भावानुयोग और उसके प्रकार, अनुयोग विषयक द्रव्यों का परस्पर समावेश या भजना (विकल्प), एकार्थिकों की वक्तव्यता, अनुयोग शब्दार्थनिर्वचन, अनुयोगविधि, प्रवृत्तिद्वार, गुरु-शिष्य की चतुर्भङ्गी, अनुयोगाधिकारी, अनुयोग का विषय (किसको कौन से शास्त्र का अनुयोग करना), श्रुतज्ञानानुयोग, अनुयोगलक्षण, योग्यताद्वार, कथाधिकार, चरणकरणादि अनुयोग के चार प्रकार का निरुपण और आचार्य आर्यरक्षितसूरि के द्वारा अनुयोगों का पृथक्करण इत्यादि बातों का यथासंक्षेप-विस्तारपूर्वक वर्णन किया हैं। अणुभव - अनुभव (पुं.) 1/392 स्मृति से भिन्न ज्ञान 'अनुभव' हैं। विषयानुरुप होने की बुद्धि की वृत्ति 'अनुभव' कहलाती हैं। अनुभव को नैयायिक-प्रत्यक्षादि चारों प्रमाणों से, वेदान्ती और मीमांसक अर्थापत्ति और उपलब्धि - इन दो भेदों से, वैशेषिक और बौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान से, सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द - इन तीन प्रमाणों से, और चार्वाक मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण से मानते हैं। अणुमान - अनुमान (पुं.) 1/101 थी 409 लिङ्ग-लिङ्गी संबन्ध के ग्रहण से स्मरणानन्तर देश-काल और स्वभाव से विशेष अर्थ जिस ज्ञान विशेष के द्वारा ज्ञात किया जाता है, उसे 'अनुमान' कहते हैं। लिङ्ग और लिङ्गी में अविनाभाव संबन्ध होने से और साध्य निश्चायक होने से अनुमान भ्रान्तिरहित होता हैं। यह प्रमाण का द्वितीय भेद हैं। यहाँ पर आचार्यश्रीने स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार अनुमान प्रमाण को नहीं माननेवाले चार्वाकों का युक्तिपूर्वक खंडन किया है। साथ ही रत्नाकरावतारिकानुसार स्वार्थ और परार्थानुमान का एवं अनुमान के पूर्ववत्, शेषवत् और अदृष्ट साधर्म्यवत् - इन तीनों भेदों की उनके भेदप्रभेद सह विस्तृत चर्चा की है और सामान्य, विशेष रुप भेदपूर्वक दृष्ट अनुमान की भी चर्चा की हैं। इसके साथ ही अनुयोगद्वार सूत्रानुसार अनुमान के अतीत-प्रत्युत्पन्न और अनागत - इन तीनों कालाश्रित भेदों का विस्तृत वर्णन करने के बाद प्रमाण के आधार-रुप वाक्यों के प्रतिज्ञादि दश अवयवों का दशवैकालिक नियुक्ति के आधार पर एवं पक्षादि पाँच अवयवों का रत्नाकरावतारिका के आधार पर वर्णन किया अणेगंतवाय - अनेकान्तवाद (पुं) 1/423 ____ इस विश्व में अनन्त वस्तुएँ हैं। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक हैं। अतः अनेकान्तवाद उन अनन्त धर्मों को भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से देखकर पदार्थ का सत्य स्वरुप समझाने का उपाय करता हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'अनेकान्त' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा हैं "अम्यते गम्यते निश्चीयते इति अन्तः धर्मः । ('अणेगन्तप्पग' शब्दके अन्तर्गत) न एको ऽनेकः । अनेकाश्चऽसावन्तश्चानेकान्तः । स आत्मस्वभावो यस्य वस्तु जातस्य तदनेकान्तात्मकम् ।। 1. अ.रा.भा. 1/423 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [112]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जिसके द्वारा निश्चय किया जाता है वह 'अन्त' हैं और 'अन्त' शब्द का अर्थ है-धर्म, जो एक न हो वह अनेक है; अनेकधर्मयुक्त पदार्थ ही अनेकान्त हैं। 'अनेकान्त' युक्त वाद अनेकान्तवाद हैं। 'अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वम् - यह जैनदर्शन का सिद्धान्त हैं। पदार्थ अनन्तधर्मात्मक होने से एक पदार्थ को अनेक दृष्टिकोण से देख सकते हैं। सभी धर्म परस्पर विरोधी नहीं है। परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले विपरीत धर्म भी एक ही पदार्थ में विभिन्न अपेक्षाओं से निहित होते हैं। जैसे कि एक मनुष्य में उपाधिभेद से अनेक धर्म हैं, अनेकों का संबंध है, उन सम्बन्धों से पुकारा जानेवाला वह किसी का पिता है किसी का पुत्र, किसी का मामा है किसी का भांजा, इत्यादि। उसमें अनेकधर्म (संबंध) होने से वह अनेक संज्ञाओ से सम्बोधित किया जाता है। देखने पर एक ही व्यक्ति में पुत्रत्व-पितृत्व आदि परस्पर विरोधाभासी धर्म हैं, किन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुतः एक में सभी धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से सन्निहित हैं। इस तरह विभिन्न अपेक्षा से एक ही वस्तु में विभिन्न धर्म रहते हैं। मुख्य और गौण अपेक्षा ही इसका आधार हैं। पदार्थ के नित्यअनित्य, सत्-असत् इत्यादि धर्म अपेक्षा से ही कहे जा सकते हैं। बिना अपेक्षा के पदार्थ का सम्यक् स्वरुप नहीं समझा जा सकता है। प्रस्तुत कोश में "अर्पितानर्पितसिद्धेः।"4 इस तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र का विश्लेषण इस प्रकार किया हैं वक्ता जब एक धर्म का प्रतिपादन करता है तो दूसरा धर्म गौण कर देता है, और जब दूसरे धर्म को कहता है तो अन्य धर्म को गौण कर देता हैं। यही पदार्थ के कथन का क्रम हैं। एक वस्तु में अपेक्षापूर्वक परस्पर विरोधी पृथक्-पृथक् धर्मो को स्वीकार करना ही सापेक्षवाद है। सत्य सदा बह्वायामी होता हैं। सत्य कभी भी एकान्तिक रुप से सम्पूर्ण नहीं होता; सत्य सदा सापेक्ष होता हैं। इस प्रकार विश्व के प्रत्येक पदार्थ में सापेक्ष रीति से अनन्त धर्म विद्यमान हैं। प्रस्तुत कोश में वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता को बड़े ही रोचक ढंग से उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुत किया गया हैं घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिः स्वयम् । शोकप्रमोद-माध्यस्थं, जनो याति सहेतुकम् । अर्थात् स्वर्णघट, स्वर्णमुकुट और स्वर्ण खरीदने के इच्छुक तीन व्यक्ति स्वर्णकार के पास जाते हैं। स्वर्णकार कलश को गलाकर स्वर्णमुकुट बना रहा था। उसे देखकर स्वर्ण कलशार्थी शोकातुर हुआ, तो मुकुट का इच्छुक प्रसन्न । किन्तु जो स्वर्ण चाहता था, उसे न तो हर्ष हुआ न तो विषाद, वह मध्यस्थ रहा। इसका कारण क्रमशः घट का नाश, मुकुट की उत्पत्ति और स्वर्ण की नित्यता थी। इसी संदर्भ में एक और अन्य उदाहरण दिया गया हैं पयोव्रती न दध्यति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवती नोभे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् । दूधमात्र के व्रतवाला दहीं नहीं खाता और दही के व्रतवाला दूध नहीं पीता, गोरस के व्रतवाला दूध-दहीं दोनो नहीं लेता। इसलिए पदार्थ में तीनों गुण विद्यमान हैं - उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य। उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि गोरस में दहीं के भाव की उत्पत्ति है, दूध के भाव का व्यय है और गोरसत्त्व की स्थिरता हैं, अतः इस तत्त्व के रहस्य को समझनेवाला कोई भी मनीषी स्याद्वाद का विरोधी नहीं हो सकता हैं। उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयिनाथ ! द्रष्टयः । न च तासु भवान् प्रह्वाष्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्वोदधिः ।। अर्थात् जैनदर्शनरुप समुद्र में अनेक सरिताएँ विभिन्न दर्शनों के रुप में समाविष्ट है परंतु उन-उन सरिताओं में समुद्र नहीं होता। वैसे अन्य दर्शनों में जैनदर्शन नहीं है, परन्तु अनेकांत दृष्टि से वे सभी अन्य दर्शन जैनदर्शन का एक अंश हैं। अपनी समन्वय भावना का परिचय देते हुए आचार्यश्रीने राजेन्द्र कोश में कहा है - विभिन्न मिथ्या दर्शनों का समूह, अमृत तुल्य, क्लेशनाशक और मुमुक्षु आत्माओं के लिए सहज-सुबोध-परमात्म-जिनप्रवचन का मंगल हो। क्योंकि अनेकान्त दृष्टि से युक्त होने पर मिथ्या दर्शनों का समूह भी सम्यग्दर्शन बन जाता हैं।' एकान्त और अनेकान्त में मौलिक भेद यह है कि एकान्त कथन में 'ही' का आग्रह करता हैं और अनेकान्त कथन में 'भी' का 2. तत्त्वं परमार्थभूतं वस्तु, जीवाऽऽजीवलक्षणं, अनन्तधर्मात्मकमेव,..... -अ.रा.पृ.1/425 3. अ.रा.भा. 1/430 4. अ.रा.भा. 7/315, 316; तत्त्वार्थ सूत्र-5/31 अ.रा.पृ. 1/425 वही 7. अ.रा.पृ. 4/1885 एवं 1890 भई मिच्छा दंसण - समूह महियस्स अमयसारस्स । जिण वयणस्य भगवओ, संविग्ग सुहाहि समस्स || -अ.रा.पृ. 4/1503 9. अ.रा.पृ. 7/707 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [113] आग्रह रहता हैं इतना ही नहिं अपितु अनेकान्त कथन में 'भी' के सदाग्रह की प्रधानता रहती हैं। एकान्त को मिथ्यात्व कहा गया है और जिनाज्ञा को अनेकान्त; एकान्त कथन मिथ्या है जबकि सापेक्षकथन (अनेकान्त वचन) सत्य हैं।10 समस्त विवादों-कलहों का हल निकालने के लिए, चाहे वह व्यावहारिक हो या आध्यात्मिक, धार्मिक हो या सामाजिक, सर्वत्र अनेकान्त की गति है और उसी का प्रभाव है। इस तथ्य को दृष्टिपथ में रखते हुए आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने भी अनेकान्त को नमन किया हैं। वे लिखते हैं - जेण विणा लोगस्सवि, ववहारो सव्वहा ण णिव्वडई । तस्स भुवणैकगुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स ॥" जिसके बिना लोक का भी व्यवहार सर्वथा चल ही नहीं सकता, ऐसे संसार के एकमात्र गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार हो। इसी तरह 'अनेकान्त' को दिगम्बराचार्य अमृतचन्द्र ने भी नमस्कार किया है परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्ध-सिन्धुरविधानम् सकलनयविलसितानां विरोध-मन्थनं नमाम्यनेकान्तम् ॥2 अनेकान्त दृष्टि के माध्यम से बौद्धिक प्रगति, सहिष्णु जीवन, विश्वबन्धुत्व आदि भी संभव हो सकते हैं। स्याद्वादी सहिष्णु होता है। इसके आगे आचार्य हेमचन्द्रसूरि द्वारा प्रणीत अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका और उस पर आचार्य मल्लिषेणसूरिकृत स्याद्वादमंजरी टीका के आश्रय से सर्वथा एकान्तवाद का खंडन और कथञ्चिद् एकान्त और अनेकान्त का मंडन प्रस्तुत किया गया हैं। इसी प्रकरण में क्रमप्राप्त बौद्धादि दर्शनों का भी खंडन किया गया हैं। अण्णाणियवाई (ण) अज्ञानिकवादिन् (पुं.) 1/493 ___ 'अज्ञान ही श्रेय (कल्याणकारी) हैं।' -इस प्रकार प्रतिज्ञा करके वाद करने वालों को 'अज्ञानवादी' कहते हैं। अत्थणय - अर्थनय (पुं.) 1/509 जिस नय में अर्थ की प्रधानता पूर्वक शब्दों का निरुपण हो उसे 'अर्थनय' कहते हैं। इस दृष्टि से शब्दनय ही अर्थनय है। वह संग्रहनय, व्यवहार नय और ऋजुसूत्र नय के द्वारा कहे गये वचनों के अर्थ को आश्रित (मुख्य) करके वाक्य को ग्रहण करता हैं। अत्थवाय - अर्थवाद (पुं.) 1/511 शब्द के अर्थ को प्रधान करके (1) स्तुति या (2) निन्दा - इन दोनों प्रकार से किये गये वाद को 'अर्थवाद' कहते हैं। अत्थावत्ति - अर्थापत्ति (स्त्री) 1/512 '(शब्द के) अर्थ के पक्ष में अनुक्त अर्थ की सिद्धि' अर्थापति कहलाती हैं। अथवा प्रत्यक्षादि छ: प्रमाणों के द्वारा प्रसिद्ध अर्थ जिसके बिना उत्पन्न नहीं होता उस अर्थ की प्रकृष्ट कल्पना को 'अर्थापत्ति' कहते हैं, जैसे -'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्कते' -देवदत्त मोय है (और) दिन को नहीं खाता, अर्थात् 'रात को खाता हैं।' यह अर्थापत्ति है। दार्शनिक अर्थापत्ति को अनुमान प्रमाण के अन्तर्गत मानते हैं। अत्थावत्तिदोस - अर्थापत्तिदोष (पुं) 1/513 जहाँ अर्थापत्ति के द्वारा अनिष्ट का आलाप किया जाता हैं वहाँ 'अर्थापत्तिदोष' उत्पन्न होता हैं। जैसे 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः ।' - इस वाक्य से यदि ऐसी अर्थापत्ति की जाय कि, 'अब्राह्मणो हन्तव्यः' -तो यह 'अर्थापत्तिदोष' हैं। अस्थिकाय- अस्तिकाय (पुं.) 1/513 अभूवन् - भवन्ति - भविष्यन्ति - अर्थात् भूत - वर्तमान और भविष्य रुप त्रैकालिक भावों को 'अस्ति' कहते हैं। उनके प्रदेशों के समूह/काय को 'अस्तिकाय' कहते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीवादि छ: द्रव्यों में जीवास्तिकाय जीव अस्तिकाय है और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय - ये चार अजीव आस्तिकाय हैं। इसमें धर्म-अधर्म-आकाश और जीव ये चार अरुपी 'अस्तिकाय' हैं। यहाँ पर उनके प्रदेशों के अल्प-बहुत्व, तुल्यत्व, विशेषाधिकत्व, बताया गया हैं और इन अस्तिकायों के अस्तिकायत्व की प्रमाण सहित विस्तृत दार्शनिक चर्चा की गई हैं। अत्थिक्क - आस्तिक्य (न.) 1/517 तत्त्वान्तर का श्रवण होने पर जिनोक्त तत्त्वों एवं अतीन्द्रिय जीव-परलोकादि भावों (पदार्थो) पर श्रद्धा 'आस्तिक्य' कहलाता हैं। अस्तिकाय पदार्थ उनकी श्रद्धा का विषय हैं। अस्थित्त - अस्तित्व (न.) 1/517 जो अर्थक्रियाकारित्व है वह परमार्थ से सत् है। -इस आगमवचनानुसार जो सत् रूप होता है, जिसकी सद्भूतता से व्यवहार उत्पन्न 10. अ.रा.पृ. 2/135 11. सम्पति तर्क - 3/70 12. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय - 2 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [114]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन होता है (चलता है) वह 'अस्तित्व गुण' है। वह सत्पदार्थों में धर्म-धर्मी में अभेदभाव से हैं। यहाँ अस्तित्व-नास्तित्व के सद्-असत् परिणामों की भी आचार्यश्री ने चर्चा की हैं। अस्थिवाय - अस्तिवाद (पुं.) 1/519 पदार्थो की सत्ता स्वीकार करना अस्तिवाद है। यदि लोक को वस्तुरुप से स्वीकार न किया जाये तब तो अनाचार ही है। अस्तिवाद में 'मोक्ष है' 'कर्म है' आदि अस्तिरुप सिद्धांतों को स्वीकार किया जाता हैं। अभिधानराजेन्द्र में 'अस्तिवाद' शब्द के अन्तर्गत संसारिक जीवों के आस्रव-बन्ध का अस्त्यात्मकत्व सिद्ध करते हुए मुक्त जीवों में इनका अभाव भी प्रतिपादित किया गया है। इसी प्रकार संवर और निर्जरा तत्त्व का भी प्रतिपादन सुन्दर रीति से किया गया हैं। पूरे प्रकरण में अनेकान्तवाद के आश्रय से सातों तत्त्वों की अस्ति-नास्तिरूपता प्रदर्शित की गयी हैं। अपुणबन्धय - अपुनर्बन्धक (पुं.) 1/606 जो जीव एक बार मिथ्यात्व की ग्रंथि का भेदन करके सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद पुनः 70 कोडाकोडी सागरोपम की मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं करता अर्थात् पुनः एसे संकिष्टतम भावों से पाप कर्म नहीं करता/बाँधता उसे अपुनर्बंधक कहते हैं। अपुनर्बंधक आत्मा पाप कार्यों को तीव्र भाव से नहीं करता, भोगोपभोग और विषय भोगों में अधिक आसक्तिपूर्वक रमण नहीं करता, देशकालानुसार देव-अतिथि-माता-पिता प्रमुख की सेवा करता है, मार्गानुसारी के गुणों से युक्त होता है, क्षुद्रता, लोभ, अतिदैन्यता, मात्सर्यादि भवाभिनन्दी दोषों को उनके प्रतिपक्षी औदार्यादि गुणों से नष्ट करता है, गुणों की वृद्धि करता है, स्वयंकृत अकृत्यों की आलोचनादि के द्वारा शुद्धि करता है, तीव्र राग-द्वेष से दूर रहता है, तात्त्विकी प्रकृति से युक्त होता है और शान्त, दान्त तथा शुद्धानुष्ठान एवं शुभभाव युक्त होता हैं। अपोरिसीय - अपौस्य (त्रि.) 1/612 पुरुष परिमाण से अधिक (जलादि) को और मीमांसको के मत में पुरुष के द्वारा अकृत (नहीं बनाये गये वेद) को 'अपौरुषेय' कहते हैं। अपोह - अपोह (पुं.) 1/612 राजेन्द्र कोश में अपाय नामक मतिज्ञान का भेद, उक्ति और युक्ति के विरुद्ध अर्थ से हिंसादि के प्रति अपाय व्यावर्तन का विशेषज्ञान, छठवाँ बुद्धि गुण, प्रतिलेखना का एक प्रकार (जिससे वस्त्र-पात्रादि में जीव के रह जाने की संभावना नहीं होती), बौद्धमान्य वाद (सिद्धांत) विशेष (अपोहवादी बुद्धि के द्वारा बाह्य रुप से गृहीत आकार को शब्दार्थ कहते हैं - सम्मतितर्क, 2 काण्ड, सद्दत्थ - अ.रा.भा.7) को 'अपोह' कहा गया हैं। अप्पवाइ (ण)- आत्मवादिन् (पुं. 1/616) 'पुरुष ही सब कुछ हैं' -एसी प्रतिज्ञावाले वादी को 'आत्मवादी' कहते हैं। अप्पा - आत्मन् (पुं.) 1/616 अतति सातत्येन गच्छति इति आत्मा; ज्ञान, दर्शन, सुख आदि अनित्य पर्यायोंकी सिद्धि 'आत्मा' शब्द की इस निरुक्ति से संभव है। अप्पबहुय (ग)- अल्पबहुत्व (नं.) 1/617 किस द्वार के / भेद के जीव किससे अल्प या अधिक हैं, उसका विचार करना 'अल्प-बहुत्व' कहलाता हैं। यहाँ पर दिग्, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयम, उपयोग, आहार, भासक, परीताः (प्रत्येक शरीरों के शुक्लपाक्षिक जीव) पर्याप्ति, सूक्ष्म, संज्ञी, भव (भवसिद्धि), अस्तिकाय, चरम द्वार, जीव, क्षेत्र, बन्ध, पुद्गल, महादण्डक, इन 27 द्वारों से जीवों के अल्पबहुत्व का विस्तृत विचार किया गया हैं। अप्पियणय - अर्पितनय (पुं.) 1/673 'विशेष ही (सब कुछ) है, सामान्य नहीं' -एसी मान्यतावाले 'नय' को 'अर्पितनय' कहते हैं। अफलवादि (ण)- अफलवादिन् (पुं.) 1/673 'किसी भी क्रिया का (कुछ भी) फल नहीं होता हैं' -एसी मान्यतावालों को 'अफलवादी' या 'अक्रियावादी' कहते हैं। यहाँ पर आचार्यश्रीने 'सूत्रकृतांग' के अनुसार अन्यतीर्थिकों के अफलवादित्व का विस्तृत वर्णन किया हैं। अब्भुवगमसिद्धांत - अभ्युपगमसिद्धांत (पुं.) 1/680 जो दव्य है वह नित्य हैं या अनित्य - इस प्रकार के विचार को, स्वैच्छिक वादकथा को, अपरीक्षित अर्थ जैसे 'शीतो वह्निः, खरस्य शृङ्गम्' - इत्यादि की विशेष परीक्षा को 'अभ्युपगम सिद्धांत' कहते हैं। अबज्झसिद्धांत - अबाध्यसिद्धांत (पुं.) 1/700 कुतीर्थिकों के द्वारा निष्पादित कुहेतु के समूहों के द्वारा खंडित होने में अशक्य स्याद्वादरुप सिद्धांत को, तथा एसेस्याद्वाद सिद्धांत के प्रस्मक वचनातिशय संपन्न तीर्थंकरों को (बहुव्रीहि समास से) अबाध्यसिद्धांत कहते हैं। अभाव - अभाव (पुं.) 1/709 'अभाव' शब्द जैनागमों में अशुभभाव, अन्य की अपेक्षा से पदार्थ का अभाव (अविद्यमानता), निषेध, विनाश और असत्ता इन अर्थों में प्रयुक्त हैं। यहाँ पर प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव, तथा विद्यमान अभाव और अविद्यमान अभाव इस प्रकार अभाव के भेदों की भी व्याख्या की गई हैं। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [115] अलोग (य) - अलोक (पुं.) 1/785 लोक से विपरीत, धर्मास्तिकायादि द्रव्यों (तथा द्रव्यों की वृत्ति) से रहित मात्र अनन्ताकाशास्तिकायवाले क्षेत्र को 'अलोक' कहते अवत्तव्व - अवक्तव्य (त्रि.) 1/794 आनुपूर्वी (क्रम) या अनानुपूर्वी (अक्रम) से अकथ्य वक्तव्य को 'अवक्तव्य' (अनिर्वचनीय) कहते हैं। अवयव - अवयव (पुं.) 1/796 अवयवी या अनुमिति वाक्य के एक भाग को 'अवयव' कहते हैं। जैसे - पाद (पैर) शरीररूपी अवयवी का एक अवयव है और 'प्रतिज्ञा' आदि अनुमिति वाक्य का अवयव है। अवाय - अपाय (पुं.) 1/802 जैनागमों में अपाय शब्द का प्रयोग अनर्थ, हेय द्रव्यों का ग्रहण, उदाहरण का एक भेद, विनाश, विश्लेष, अनिष्टप्राप्ति आदि अनेक किये हैं। प्रसंगतः यहाँ द्रव्यादि चारों प्रकार के अपायों की उदाहरण सहित चर्चा की गई हैं। अविज्जा - अविद्या (स्त्री.) 1/806 जैनदर्शन में 'अविद्या' का अर्थ अग्राह्य, अवमनन और अतत्त्वग्रहण किया गया है। वेदान्त में इसे 'माया' (अनिर्वचनीय) और योगशास्त्र में क्लेश कहा गया है और काम, स्वप्न, भय और उन्माद को अविद्या का कार्य (उपप्लव) कहा गया हैं। असमवाइकारण - असमवायिकारण (नपुं.) 1/841 जो समवेत न हो अर्थात् उपादान कारण के समानान्तर कारणता को प्राप्त न हो;समवायिकारण रुप द्रव्यान्तर से दूरवर्ती होते हुए कारणता को प्राप्त होनेवाले को असमवायिकारण कहते हैं। समवायिकारण में रहनेवाले कारण को असमवायिकारण कहते हैं। अहेउवाद - अहेतुवाद - 1/891 जो वस्तु के स्वरुप का प्रतिपादक होने पर भी उससे विपरीत होता है उसे 'अहेतुवाद' कहते हैं। यह धर्मवाद का भेद हैं। आइधम्मिय - आदिधार्मिका पुं.) 2/6 अपुनर्बधक आत्मा को 'आदिधार्मिक' कहते हैं। प्रथम प्रारंभ किये गये स्थूल धर्माचार से युक्त आदिधार्मिक आत्मा मार्गानुसारी के 35 गुणों से युक्त होता है (मार्गानुसारी के 35 गुणों का वर्णन चतुर्थ परिच्छेद में किया जायेगा)। आउलवाय - आकुलवाद (पुं.) 2/50 __ सत् और असत् (पदार्थ) के (विषय में) परस्पर संकीर्ण वाद को 'आकुलवाद' कहते हैं। आगम - आगम (पुं.) 2/61 आगमन, प्राप्ति, लाघव, अवबोध, आय, लाभ, उत्पत्ति, व्याकरणोक्त आगमविधि, साम आदि उपाय, जिसके द्वारा स्वत्व की प्राप्ति हो उसे 'आगम' कहते हैं। आप्तवचन से प्रकट अर्थसंवेदन को आगम कहते है। यहाँ उपचार से आप्तवचन को भी आगम कहा है। व्यवहार सूत्र में आठवें पूर्व तक के ज्ञान को श्रुत और नौवें पूर्व से आगे के 14 पूर्व तक के ज्ञान को आगम' कहा हैं क्योंकि, उससे अतीन्द्रिय पदार्थो का ज्ञान होता है। स्थानांग सूत्र में 'आगम' को प्रमाण का भेद माना गया है। स्थानांग के अनुसार जिससे अर्थ ज्ञान की प्राप्ति हो उसे आगम कहा हैं। यहाँ पर राजेन्द्र कोश में 'आगम' शब्द पर आगम के भेद, स्वतः प्रामाण्य, पौरुषेयत्व, आप्तप्रणीत आगम की ही प्रमाण रूप में स्वीकृति, वेदागम का अप्रमाण्य, मूलागम की प्रमाणता-इतरागम की अप्रमाणता, आगम-विषय, आगमप्रमाण का अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव, संवादित्व, अर्थ का स्वरूप वाच्य-वाचक भाव, धर्म मार्ग और मोक्षमार्ग में आगम प्रामाण्य, शब्द संबंधी विस्तृत विचार एवं जिनागम की सत्यता, पूजासत्कार आदि विषय वर्णित हैं। आगमववहार - आगमव्यवहार (पु.) 2/92 जिसके द्वारा मर्यादा, अभिविधि या अर्थ का बोध हो, उसे 'आगम' कहते हैं। केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी या नौपूर्वी महात्मा के व्यवहार को 'आगम व्यवहार' कहते हैं। यहाँ पर आगम व्यवहार के प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद का अनेक प्रभेदों सहित विस्तृत वर्णन किया गया हैं। आगासाइवाइ - आकाशादिवादिन् (पुं.) 2/112 ___अमूर्त पदार्थों के भी साधनसमर्थ वादियों को 'आकाशातिवादी' कहते हैं। आजीवियसमय - आजीविकसमय (पु.) 2/117 गोशालक द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत विशेष को यहाँ 'आजीविकसमय' कहा गया है। गोशालक का मत है, जिनकी आयु समाप्त नहीं हुई है ऐसे जीवों को खाया जा सकता है; सभी जो प्राणी असंयत हैं उन्हें डण्डा इत्यादि से मारकर, तलवार आदि से काटकर, शूल आदि से भेद कर पक्ष्म केश आदि अपद्रव्य को हटाकर आहार के रुपमें ग्रहण किया जा सकता हैं। अत्तछठ्ठ - आत्मषष्ठ 1/502; आत (य) छठ्वाइ(न्)- आत्मषष्ठवादिन् (पुं.)2/176 इस संसार में पृथ्वी आदि पांच महाभूत हैं और छट्ठा आत्मा है, लोक में आत्मा शाश्वत है, न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है,; सर्वभाव नियतिभाव में अन्तर्भावित है (नियति के आधीन है) - एसा प्ररुपण करनेवालों को 'आत्मषष्ठवादी' कहते हैं। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [116]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आता (स्त्री) आत्मन् (पुं.)2/187 'आता' शब्द 'आत्मन्' के अर्थ में है। जैनदर्शन अनेक जीवों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। उसी के आश्रय से 'आता' शब्द के अन्तर्गत सभी आत्माओं की समानता अर्थात् एकविधत्व का प्रतिपादन भी किया जाता है। अभिधानराजेन्द्र में आत्मैकविधत्वसिद्धांत को प्रथम क्रम पर लिया गया है। यह एकविधत्व स्वभावसाम्य की अपेक्षा से हैं। अन्य अपेक्षाओं से आत्मा के अनेकविध वर्गीकरण अभिधानराजेन्द्र कोश में स्पष्ट किये गये हैं। यहीं पर लक्षण, अस्तित्व, कर्तृत्व, विभुत्व, एकत्व, क्रियावत्त्व, ज्ञानवत्त्व, नित्यानित्यत्व आदि अनेक विषयों का जैनसिद्धान्तानुसार सन्दर्भो के माध्यमों से परिचय दिया गया हैं। विषयवस्तु की बहुलता होने से यहाँ पर विवेचन नहीं दिया जा सका हैं। आभास - आभास (पुं.) 2/275 दुष्ट हेतु या उपाधितुल्यता के कारण भासमान (दृश्यमान) प्रतिबिम्ब को 'आभास' कहते हैं। यह आभास हेत्वाभास, प्रमाणाभास, आगमाभास, प्रत्यक्षाभास, प्रत्यभिज्ञाभास, दृष्टान्तभास, उपनयाभास, निगमनाभास, तर्काभास आदि अनेक प्रकार से है, जो अभिधान राजेन्द्र कोश में यथास्थान वर्णित हैं। इस्सर - ईश्वर (पुं.) 2/664 अणिमादि आठ प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त पुरुष को ईश्वर कहते हैं । भिन्न-भिन्न दर्शनों में ईश्वर के स्वरुप की भिन्न-भिन्न कल्पना की गयी हैं। पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार क्लेशजनित कर्मों एवं कर्मविपाक से अस्पृष्ट पुरुषविशेष को 'ईश्वर' कहते हैं। योग दर्शन में स्वीकृत ईश्वर कभी संसार में नहीं आया है और संसार को बनाता भी नहीं हैं। ईश्वरजगत्कर्तृत्वादी न्यायदर्शन में ईश्वर को जगत् का निमित्तकारण (कर्ता) माना गया है, वह ईश्वर सर्वव्यापक है, और वही इस संसार को बनाता हैं, और वही प्राणियों को स्वर्ग-नरक आदि में प्रेरित करता है। अन्य ईश्वर-स्वरुपों से न्यायाभिमत ईश्वर में यह विशेषता हैं। ___ अभिधानराजेन्द्र में ईश्वर शब्द के अन्तर्गत ईश्वरजगत्कर्तृत्व का जैनसिद्धान्तसम्मत विस्तृत खंडन प्रस्तुत किया गया हैं। वहाँ पर अन्ययोगव्यवच्छेद्वात्रिंशिका की कारिका - 'कर्तास्ति कश्चिज्जगतः स चैकः स सवर्गः स सर्वगः स्ववशः स नित्यः । स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥' पर आचार्य मल्लिषेण सूरि कृत स्याद्वादमंजरी टीका के आधार पर ईश्वर के जगत्कर्तृत्व, एकत्व आदि का खण्डन किया गया है। पतञ्जलिकल्पित ईश्वर का खण्डन आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत शास्त्रवार्तासमुञ्चय के आश्रय से किया गया है। विशेष जानकारी के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश का अवलोकन करना चाहिए। ईहा - ईहा (स्त्री.) 2/684 सत् पदार्थो के अन्वयी और व्यतिरेकी अर्थो के विचार-विमर्श को 'ईहा' (मतिज्ञान का एक भेद) कहते हैं। चेष्टा, सदर्थ के अभिमुख वितर्क, दीर्घचिन्तन, को भी 'ईहा' कहते हैं। 'ईहा' पांच इन्द्रियों और मन-इन छ: से संबंधित होने से छ: प्रकार की होती हैं। उग्गह - अवग्रह (पुं.) 2/725 अनिर्देशित सामान्य मात्र से रुपादि अर्थ का ग्रहण 'अवग्रह' कहलाता है। यह श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का भेद हैं। उड्डत्तासामण - उर्ध्वता सामान्य (न.) 2/779 पूर्वापर पर्यार्यों में रहे हुए साधारण (सामान्य) द्रव्य को 'ऊर्ध्वता सामान्य' कहते हैं, जैसे- मुकुट, कडे आदि में स्वर्ण । उदाहरण - उदाहरण (न.) 2/821 उत्पत्ति धर्म से साध्य-साधर्म्य से तद्धर्मभावरुप दृष्टान्त को 'उदाहरण' कहते हैं। यहाँ उदाहरण के भेद-प्रभेद का परिचय दृष्टव्य हैं। उवओग - उपयोग (पु.) 2/887 वस्तु के विषय ज्ञान (परिच्छेद) के प्रति जीव जिसके द्वारा जोडा जाता है, उसे 'उपयोग' कहते हैं। ज्ञान के संवेदन का प्रत्यय और जीव के बोधरुप तत्त्वभूत व्यापार को भी उपयोग कहते हैं। यहाँ पर उपयोग के भेद-प्रभेद का विस्तृत वर्णन किया गया है। उवणय - उपनत (न.) नृत्य का प्रकार; उपनय (पुं.) 2/923 गुणकीर्तन, स्तुति, उपसंहार के विषय में दृष्टान्त और दृष्ट अर्थ की सामान्य (प्रकृत) योजना; नय के समीपवर्ती हेतु का साध्यधर्म में उपसंहरण 'उपनय' कहलाता हैं। सद्भूत व्यवहार, असद्भूत व्यवहार और उपचरितसद्भूत व्यवहाररुप कथात्रिक को भी 'उपनय' कहते हैं। यहाँ इसके भेद-प्रभेद का विस्तृत परिचय दिया गया है। उवणयाभास - उपनयाभास (पुं.) 2/925 उपनय के समान प्रतीत होनेवाला परन्तु उपनय के लक्षणयुक्त न हो, उसे 'उपनयाभास' कहते हैं। जब साध्य धर्म का साधन धर्म में या साधन धर्म का दृष्टान्त धर्म में उपसंहरण होता है, तब 'उपनयाभास' होता हैं। For Private & Personal use only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [117] अवणयावणयचउक्क - उपनयापनय चतुष्क (न.) 2/925 उपनय, अपनय के चारों प्रकार के वचन मिलाकर सोलह वचनों के वचन चतुष्क को 'उपनयापनय चतुष्क' कहते हैं। उवणासोवणय-उपन्यासोपनय (पुं.) 2/926 वादी के द्वारा अभिमत अर्थ की सिद्धि के लिए वस्तु का लक्षण कहने पर उसके विघटन के लिए प्रतिवादी के द्वारा जो विरु द्ध अर्थवाला उपनय या पर्यनुयोग उपन्यास अथवा उत्तर उपनय किया जाय, उसे 'उपन्यासोपनय' कहते हैं। उवमाण - उपमान (न.) 2/932 जिसके द्वारा द्राष्यन्तिक अर्थ की उपमा दी जाय, जो उपमान-उपमेय के निर्णायक रुप समान आलंबन हो - उसे 'उपमान' कहते हैं। यहाँ 'उपमान' प्रमाण के विषय में जैन सिद्धांतानुसार विस्तृत दार्शनिक चर्चापूर्वक इसे 'अनुमान' प्रमाण के अन्तर्गत माना गया हैं। उवलद्धि - उपलब्धि (स्त्री.) 2/940 'उवलद्धि' का संस्कृत रुपान्तर 'उपलब्धि' हैं। यह शब्द प्रमाणविज्ञान में बहुलता से प्रयुक्त हैं। अभिधानराजेन्द्र में उपलब्धि का अर्थ 'ज्ञान' किया गया हैं। यह 'ज्ञान' गुणवाच्यार्थवान् न होकर क्रिया (भाव) अर्थ में समझना चाहिए, जैसा कि स्पष्ट होता है उपलम्भनमुपलब्धिः ज्ञाने । अर्थात् पदार्थ का आत्मज्ञान में प्रतिबिम्बन होना। इस प्रकार प्रत्यक्षादि सभी प्रमाणों से उपलब्धि हो सकती हैं। किन्तु यहाँ 'उपलब्धि' शब्द विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यहाँ पर इसके पाँच कारण बताकर पाँच भेद किये गये हैं - सादृश्यतः, विपक्षतः, उभयदर्शनतः, औपम्यत: और आगमतः - ये पाँच उपलब्धियाँ होती हैं। अभिधानराजेन्द्र में इन सभी को भेद-प्रभेद और उदाहरण के साथ समझाया गया है। आगे प्रकारान्तर से भी उपलब्धि के दो भेद किये गये हैं : अविरुद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि। पुनः इनके भी उपभेदों का विस्तार से विवेचन करते हुए बौद्धादि मतों में स्वकृत उपलब्धि के स्वरुप का निरसन किया गया हैं। जिज्ञासु को यह सब 'अभिधान राजेन्द्र' से देखना चाहिए। ऊहा - ऊहा (स्त्री.) 2/1215 वितर्कात्मक तर्कबुद्धि और अध्याहार को 'ऊहा' कहते हैं। एगंतदिट्ठि - एकान्तदृष्टि (त्रि.) पृ 3/4 जिसकी दृष्टि निश्चयपूर्वक जीवादि तत्त्वों के विषय में (स्थिर) होती हैं उसे 'एकान्तदृष्टि' कहते हैं। 'एकान्तदृष्टि' शब्द का प्रयोग 'निष्प्रकम्प (दृढ) सम्यक्त्व' के विषय में होता हैं। एगंतवाय - एकान्तवाद (पुं.) पृ. 3/5 पदार्थ-निरुपण के विषय में नियमपूर्वक 'नित्य' या 'अनित्य' एक ही पक्ष के ग्रहण की प्रतिज्ञापूर्वक किये जानेवाले वाद को 'एकान्तवाद' कहते हैं। जैनदर्शन की दृष्टि में पदार्थ (वस्तु, सत्) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त होने से (तत्त्वार्थ सूत्र 5/30) एकान्तवाद का ग्रहण 'मिथ्यात्व' है अतः यहाँ पर प्रसंगत: आचार्यश्री ने सम्मतितर्क और स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार एकान्तवाद का खंडन भी किया हैं। और एकान्तवादियों के दोष बताते हुए कहा है- एकान्तवाद में सुख-दुःख, पुण्य-पाप आदि नहीं घटते । एकान्तवादी स्व (पक्ष की) प्रशंसा, एवं पर (पक्ष की) निंदा के आग्रही होने के कारण सर्वदा अनंत संसार में भ्रमण करते हैं। एगप्प - एकात्मन् (पुं.) 3/14; एकप्पवाय - एकात्मवाद (पुं.) 3/14 चेतन-अचेतन सर्व पदार्थ एक ही आत्मा के विवर्त हैं - इस प्रकार की अद्वैतवादियों की प्ररुपणा/प्रतिज्ञा 'एकात्मवाद' कहलाती हैं। एगस्सय - एकाश्रय (त्रि) 3/31 जिसका एक ही आश्रय/आधार/आलंबन होता है, उसे 'एकाश्रय' कहते हैं। 'एकाश्रय' शब्द का प्रयोग अनन्यगति, एकाधारवृत्ति और वैशेषिक दर्शनोक्त गुण के भेद के रुप में होता हैं। कज्जकारणभाव - कार्यकारणभाव (पुं.) 3/187 कार्य और कारण के सम्बन्ध को 'कार्यकारणभाव' कहते हैं। हेतु-हेतुमद्भाव के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। जैसे - घट और दण्ड में 'घट' दण्ड के प्रति कार्य है और 'दण्ड' घट का कारण है। अन्यान्यदर्शनों में 'कार्यकारणभाव' निम्नानुसार हैं (1) सत्कार्यवाद (2) असत्कार्यवाद (3) सदसत्कार्यवाद बौद्ध असत् कारण से कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। नैयायिक उत्पत्ति के पूर्व असत्कारणव्यापार से कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। सांख्य उत्पत्ति के पहले भी सत्कारण व्यापार मानते हैं। वेदान्ती सत् से विवर्त की उत्पत्ति मानते हैं। यहाँ इन सब का तर्कपूर्वक खंडन करते हुए कथंचित्सत् और कथंचित् असत् रुप पदार्थ से कार्य की उत्पत्ति होती हैं - ऐसे जैन सिद्धांत की प्ररुपणा की हैं। कज्जसम - कार्यसम (न) 3/201 'कार्यसम' शब्द के अर्थ में प्राकृत शब्द 'कज्जसम' आया है। यह जात्युत्तर (जाति) नामक अनुमान दोष हैं। सभी दर्शनों में Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [118]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रमाणमीमांसा में 'कार्यसम' जात्युत्तर का स्वरुप बताया गया हैं। अभिधानराजेन्द्र में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा प्रणीत सम्मतितर्क प्रकरण को उद्धत करते हुए इसका स्वरुप बताया गया हैं। जैसे कार्यत्वसामान्य के अनित्यत्वसाधकरुप से उपन्यास स्वीकार कर लेने पर धर्मभेद से विकल्पनवाले बुद्धिमत्कारणत्व के विषय में पृथ्व्यादि के कार्यत्वमात्र से साध्य अभीष्ट होने पर कार्यत्व आदि के विकल्पन से उपस्थित करनेवाले के, सामान्य कार्यत्व और नित्यत्व के विपर्यय में बाधकप्रमाण के बल से व्याप्ति की सिद्धि में कार्यत्वसामान्य शब्दादि धर्मी में उपलभ्यमान अनित्यत्व को साधता हैं। इस प्रकार वहाँ पर कार्यत्वमात्र के ही हेतुरुप से उपन्यास होने पर जो धर्मविकल्पन किया जाता है वह पूरे अनुमान के उच्छेदकरुप से कार्यसम जाति को प्रस्तुत करता हैं; यथा 'कार्यत्वान्यत्वलेशेन यत्साध्यासिद्धिदर्शनम्' । कम्म - कर्म (न.) 2/243 जिस क्रिया, व्यापार या योग से कार्य की निष्पत्ति होती हैं उसे तथा अनुष्ठान और सावध (जीवहिंसामय) कार्य को 'कर्म' कहते हैं। . ___ यहाँ पर कर्म के भेद-प्रभेद, भङ्ग, स्वरुप, शिलाभेद, नैयायिक-वैयाकरण सम्मत कर्म पदार्थ निरुपण, कर्म निक्षेप, स्वरुप, सिद्धि, कर्म के मूर्तत्व का आक्षेप एवं परिहार, जगद्विचित्रतापूर्वक कर्म की सिद्धि, जीव और कर्म का संबन्ध, अनादित्व, हेतुत्व, कर्म का पुण्यत्वपापत्व, सत्ता एवं अकर्मवादी, मूर्तवादी, ईश्वरवादी, स्वभाववादी, गोष्ठामाहिल, क्रियावादी आदि के मत का वर्णन कर उनका खंडन किया गया है। कम्मवाइ (ण) - कर्मवादिन् (पुं.) 6/341 जगत की समस्त विचित्रता केवल कर्म से ही कर्म के फल (विपाक) स्वरुप होती हैं। कर्म से ही सब कुछ है, पुरुष नहीं। इस प्रकार की कर्म के पक्ष में प्रतिज्ञा करके वाद करनेवाले को 'कर्मवादी' कहते हैं। इस सिद्धांत के द्वारा नियतिवादी और ईश्वरवादियों का निरासन किया गया हैं। कारण - कारण (न.) 3/465 जिसके द्वारा क्रिया की निष्पत्ति होती है, उस हेतु को 'कारण' कहते हैं। यहाँ पर कारण के भेद-प्रभेद का वर्णन किया गया है, साथ ही कारण और कार्य के भेदाभेद स्वरुप की दार्शनिक चर्चा जैन सिद्धांतानुरुप की गई हैं। कारणदोस - कारणदोष (पुं.) 3/468 'साध्य' के प्रति 'हेतु' के व्यभिचार को 'कारणदोष' कहते हैं। कालाच्चयावदिट्ठ - कालात्ययापदिष्ट (पुं.) 3/490 तत्संबन्धी क्रिया का समय (काल) बीत जाने के बाद अर्थ (पदार्थ) के एक देश (भाग) को कहनेवाले हेतु को 'कालात्ययपदिष्ट हेतु' (कालात्ययापदिष्ट दोष से गृहीत हेतु) कहते हैं। कालवाइ (ण) - कालवादिन् (पुं.) 3/492 "समस्त जगत काल (समय) के द्वारा निर्मित है, संसार में जो कुछ होता है, वह सब काल के आधीन है। जैसे, ऋतु विभाग, मनुष्य की शिशु-बाल-युवा-वृद्धादि अवस्थाएँ, फल-फूल आदि की उत्पत्ति आदि सभी कार्य काल से ही होते हैं" - इस प्रकार की प्ररुपणा करनेवाले वादी को 'कालवादी' कहते हैं। किरियावाइ - क्रियावादिन् (पुं.) 3/555 "ज्ञानादि रहित केवल क्रिया ही स्वर्ग और मोक्ष का साधन हैं। परलोक साधना के लिये केवल क्रिया ही पर्याप्त हैं" - एसी प्ररुपणा करनेवालों को 'क्रियावादी' कहते हैं। यहाँ पर क्रियावादी के 180 भेद भी दर्शाये हैं। . कुतक्क - कुतर्क (पुं.) 3/581 शब्द और अर्थ के विकल्परुप, अविद्या से निर्मित, प्रायः अज्ञान से उत्पन्न, सत्कार्य का अहेतु, कुटिल आवेशरुप तर्क को 'कुतर्क' कहते हैं। यहाँ कुतर्क का स्वरुप एवं फल (हानि), बताकर मुमुक्षुओं के लिये उसे त्याज्य बताया गया है। खणियवाइ - क्षणिकवादिन् (पुं.) 3/704 सर्व पदार्थो के एकान्त क्षणभङ्गरत्व (क्षण मात्र में नाश) प्रतिपादक बौद्धो को 'क्षणिकवादी' कहते हैं। यहाँ पर बौद्धों के पांच स्कन्ध की पूर्वपक्ष में प्ररुपण कर उसका निरसन, क्षणिकत्व का प्ररुपणपूर्वक खंडन, उसके स्वीकार में होनेवाली व्यवहार हानि का विचार, वासना का निरुपण, सर्वथा विनाश रुप अभाव का प्ररुपण, क्षणभङ्गवाद में अनुत्पन्न व्यवहार का निरुपण, क्षणभङ्गवाद मानने से दीक्षा की विफलता बताते हुए अश्वमित्रादि बौद्धों को शिक्षा दी गई हैं। खाई - ख्याति (स्त्री.) 3/735 __दार्शनिक शब्द 'ख्याति' के लिए प्राकृत भाषा में 'खाई' शब्द प्रयुक्त हुआ हैं। ज्ञान के विषय में दर्शनशास्त्र में चार प्रकार की ख्याति मानी गयी हैं; 'अख्याति' 'अन्यथाख्याति', 'आत्मख्याति' और 'असत्ख्याति' । अख्याति का पर्याय विवेकाख्याति और अन्यथाख्याति का पर्याय विपरीताख्याति भी हैं। 'ख्याति' विवेचन प्रकरण में अनिर्वचनीय ख्याति नामक एक उपभेद भी बताया गया है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन यहाँ सभी ख्यातियों को उदाहरण देकर समझाया गया है, यथा 1. 'यह रजत हैं' इस ज्ञान में पुरोवर्ती शुक्तिशकल का आलम्बन होकर 'रजत' में 'यह' विशेषण दिया गया हैं, यहाँ पर प्रत्यक्ष 'रजत' से स्मृतिशक्ति भी प्रसंगयुक्त है जो कि विवेक से प्रतिभासित नहीं होती। इस प्रकार यह अविवेकख्याति हैं । 2. 'यह रजत है' - यह तो प्रतिभासमान वस्तुस्वरुप है वह न तो ज्ञानधर्म है ( क्योंकि ज्ञानधर्म तो अनहंकारास्पद होता है) और नही अर्थधर्म है (क्योंकि उसके द्वारा साध्य अर्थक्रिया का वहाँ (ज्ञान में) अभाव हैं। इस प्रकार वहाँ असत् ही प्रतिभासित होता है। इस प्रकार यह असत्ख्याति है । 3. प्रतीतिसिद्ध अर्थ ही विपर्यज्ञान में प्रतिभासित होता है। मरीचिकाचक्र में जल पदार्थ की प्रतिभा है, उस देश की ओर उपसर्पण होने पर उत्तरकाल में जल के प्रतिभास का अभाव होने से उसकी असत्ता है, किन्तु जब दूर खड़े रहकर देखने पर जल प्रतिभासित होता है तब तो जल पदार्थ का ज्ञान होता है जो कि वहाँ नहीं है। इस प्रकार यह प्रसिद्धार्थख्याति है (अभिधान राजेन्द्र में विपरीतख्याति इसे ही कहा गया हैं) । 4. 'शक्ति' में 'यह रजत है' ऐसा रजतप्रतिभास होता है जबकि उस शुक्तिबाह्य पदार्थ का प्रतिभास बाधककारण होने से उपपन्न नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि जैसा प्रतिभासित होता हो पदार्थ भी वैसा ही हो, क्योंकि वहाँ भ्रान्तत्व के अभाव का प्रसंग आयेगा। इसलिए अनादि अविद्यारुप वासना-संस्कार के सामर्थ्य से ज्ञान का ही यह आकार बाहर प्रतिभासित होता हैं । यह आत्मख्याति हैं । गुण (पुं, नपुं. ) - गुण (पुं.) 3 / 905 'गुण' शब्द के अनेक वाच्य हैं, जैसे-धनुष की प्रत्यंचा, अप्रधान, शुभ्र, प्रशस्तता । इसके अतिरिक्त द्रव्याश्रित 'धर्म' के अर्थ में भी गुण शब्द का प्रयोग हैं। गुणविशेष को भी गुण कहा जाता है, जैसे-स्मृति, जिज्ञासा, चिकीर्षा, जिगमिषा, आशंसा इत्यादि जीव के ज्ञानगुण के विशेष है। ज्ञान - ज्ञान विशेष, दर्शन-दर्शनविशेष और चारित्र - चारित्रविशेष भी गुण शब्द से कहे जाते हैं। तृतीय परिच्छेद... [119 ] अभिधानराजेन्द्र में उपरोक्त साधारण परिचय देते हुए गुण के पन्द्रह निक्षेप, मूल स्थान रूप गुण, गुण का लक्षण, गुण और पर्याय में भेद, द्रव्य, गुण और पर्याय में भेद, जैनदर्शन में स्वीकृत गुण आदि विषयों का परिचय दिया गया हैं। गुणविसेसासय- गुणविशेषाश्रय (पुं.) 3 / 930 द्रव्य, गुण और कर्म के समुदाय को 'गुणविशेषाश्रय' कहते हैं । यहाँ प्रस्तुत शब्द का अनेक प्रकार से विग्रह कर उसका परिचय दिया गया हैं। चव्वाग - चार्वाक (पुं.) 3 / 1166 लोकायत, भूतवादी, आत्मा-परलोक-मोक्ष- पुण्य-पाप आदि को नहीं माननेवालों को 'चार्वाक' कहते हैं। ये शरीरनाश के साथ ही आत्मा का भी नाश मानते हैं। चाउज्जाम - चातुर्याम (पुं.) 3 / 1168 अहिंसा, सत्य, अदत्तादान (अचौर्य) और अपरिग्रह रुप चार महाव्रतमय धर्म को 'चातुर्याम' धर्म कहते हैं। ये मैथुन विरमण व्रत को अचौर्य और अपरिग्रह के अन्तर्गत मानते हैं । जैनों के मध्य के 22 तीर्थंकर चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं। छल छल (न.) 3 / 1352, 1353 वंचना और कूट (कपट) प्रयोग को 'छल' कहते हैं। इसके तीन प्रकार हैं- वाक्छल, सामान्यछल और उपचार छल । जइच्छावाइ - यदृच्छावादिन् (पुं.) 4 / 1364 बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति के प्ररुपक वादी को 'यदृच्छावादी' कहते हैं । जाइ - जाति (स्त्री.) 4/1437 'जाई' शब्द का संस्कृत रुपान्तर 'जाति' है। जाति शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है, जैसे- जन्म, योनि, क्षत्रियादि वर्ण, सामान् सत्ता। इनमें सत्ता/सामान्य दार्शनिक पदार्थ हैं। यहाँ जैनदर्शन में स्वीकृत सत्ता एवं सामान्य का स्वरुप बताते हुए न्याय-वैशेषिकोक्त सत्ता / सामान्य का स्वरुप एवं जातिबाधकसंग्रह आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा की गयी हैं। जीव जीव (पुं.) 4/1519 जो प्राणों को धारण करता है, जीवन बिताता (जीता) है, उपयोग (ज्ञान- दर्शनादि) रुप लक्षणवाला है, उसे 'जीव' कहते हैं । यहाँ पर चारों निक्षेप से जीव द्रव्य की सिद्धि, जीव का लक्षण, जीव का कथंचित् नित्यानित्यत्व, जीव और चैतन्य का भेदाभेद, जीव के विषय में नय का उपदेश, जीवों के भेद-प्रभेद, जीव का स्वरुप, उसके भङ्ग, जीव का प्रमाण एवं गत्यादि द्वारों से जीव का विस्तृत वर्णन किया गया है। जुत्ति - युक्ति (स्त्री.) 4 / 1577 सर्व प्रमाण नयगर्भित, लिङ्गज्ञानादि के विषय में अनुमान के साधन को 'युक्ति' कहते हैं । वह असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक दोष रहित पक्षधर्मत्व, सपक्षत्व, विपक्षत्व व्यावृत्ति रुप होती हैं। - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [120]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जोग - योग (पुं.) 4/1613 अप्राप्त ईप्सित वस्तु की प्राप्ति, बीजाधानादि भेद, पोषण, क्षेमकरण, संयोग, मेलन, वर्मादि धारण, शब्दादि का प्रयोग, सामुदायिक शब्द के अवयवार्थ के संबन्ध में, विधिकर्तानुकूल परिवार एवं संपत्ति के विषय में, द्रव्य से मन-वचन-काय के व्यापार के विषय में 'योग' शब्द का प्रयोग होता हैं। यहाँ पर योग के द्रव्य-भाव, प्रशस्त-अप्रशस्त, मन-वचन-काया, सालम्बन-निरालम्बन, स्वकीय-परकीय, स्थान-वर्ण-अर्थ-आलम्बनएकाग्रता, प्रतीति-भक्ति-वचन-असङ्ग अनुष्ठान, संप्रज्ञात-असंप्रज्ञात, आत्मा-परमात्मा, वृषभानुजात-वेणुकानुजात-मञ्च-मञ्चादिमञ्च, छत्र-छत्रादिछत्रयुगनद्ध-धन-प्रीणित-मण्डुकप्लुत आदि अनेक भेदों का विस्तृत वर्णन किया गया हैं। णाणवाइ - ज्ञानवादिन् (पुं.)4/1993 यथावस्थित वस्तु (तत्त्व) के परिज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती हैं- ऐसी प्रतिज्ञापूर्वक वाद या प्ररुपणा करनेवालों को 'ज्ञानवादी' कहते हैं। णास - नाश (पुं)4/2015 'णास' अर्थात् ध्वंस, अभाव। 'नाश' दो तरह से होता है(1) रुपान्तर परिणाम-यथा अंधकार का तेजस में। (2) अर्थान्तर परिणाम- जैसे परमाणु से अणु की उत्पत्ति या अणु से द्वयणुक की उत्पत्ति । णत्थिअ - नास्तिक (पुं.) 4/1805 जीव नहीं है या परलोक नहीं है- एसी जिसकी बुद्धि है, उसे 'नास्तिक' कहते हैं। जीव नहीं है, जन्म नहीं है, (जीव को) इस लोक या परलोक में पुण्य-पाप आदि कुछ स्पर्श नहीं करता, सुकृत-दुष्कृतों का फल नहीं है, शरीर पंचमहाभूत रुप है, वातयोगयुक्त होने से प्राणवायु के द्वारा सभी क्रियाओं में प्रवर्तित होता है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच महाभूत (स्कन्ध) हैं, मन को मनजीविका कहते हैं, वायु जीव है, इस भव के प्रत्यक्ष जन्म रुप जीव का एक ही भव है, शरीर नाश के साथ आत्मा का और तत्कृत सर्व शुभाशुभ कर्मो का नाश होता हैं अतः परलोकादि कुछ भी नहीं है- एसी प्ररुपणा करनेवाले सभी लोगों को 'नास्तिक' कहा हैं। यहाँ आत्मा (धर्मी) के विषय में एक 'चार्वाक' ही नास्तिक प्रतीत होता है और धर्म (आत्मा के विविध धर्म) के विषय में सभी परतीर्थिक 'नास्तिक' प्रतीत होते हैं। णाहिय - नास्तिक (पुं.) 4/2016 जैनागमों में आत्मा, परलोक, मोक्ष-कुछ भी नहीं है एसी मान्यतावाले चार्वाक (लोकायतों) को धर्मी (आत्मा) के विषय में नास्तिक और सभी परतीर्थको को धर्म के विषय में 'नास्तिक' कहा हैं णाय - न्याय (पुं.) 4/2002 जिसके द्वारा निश्चय से मोक्ष में जाने रुप गमन क्रिया हो उसे न्याय कहते हैं। अभिष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए सम्यग् उपाय को 'न्याय' कहते हैं। जीवन कर्म के अनादिकालीन आश्रय-आश्रयी भावसंबन्ध को जो दूर करता है, उसे 'न्याय' कहते हैं। अन्यत्र श्रुतोपदेश, निर्णायक, लोगों के अर्थ (धन), भूमि, द्रव्य आदि से सम्बन्धित लम्बे विवाद को भी दूर करना, मुमुक्षुओं के लिए आचरणीय सन्मार्ग, जिससे वस्तु की 'संवित्ति' प्राप्त होती हो, प्रस्तुत अर्थ का साधक प्रमाण, उपपत्ति, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य और शूद्रों का आजीविका रुप अनुष्ठान, विचलन रहित मार्ग और अतिदेश 'न्याय' कहलाता हैं। णिगमण - निगमन (न.) 4/2029 निश्चित गमन, निश्चित विषय में साध्य धर्म की पुनः प्राप्ति 'निगमन' कहलाता है। यह 'अनुमान' प्रमाण का दसवाँ अवयव हैं। यहाँ 'निगमनभास' की भी व्याख्या करते कहा है कि, "साधन धर्म के साध्यधर्म में अथवा साध्यधर्म को दृष्टान्त धर्म में उपसंहरित करना 'निगमनाभास' कहलाता हैं। णिग्गहट्ठाण - निग्रहस्थान (न.) 4/20533; निग्गहट्ठाण - निग्रहस्थान - 4/2773 निग्रहस्थान के अन्तर्गत निग्रहस्थान का स्वरुप बताते हुए प्रतिज्ञाहानि आदि बाईस निग्रहस्थानों को स्पष्ट किया गया है। साधनाभास में साधनबुद्धि और दूषणाभास में दूषणबुद्धि विप्रतिपत्ति है, और साधन में दोष न दिखा सकना और दूषण का उद्धार न कर सकना अप्रतिपत्ति है, विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति भेद से निग्रहस्थान दो प्रकार का है। बाईस निग्रहस्थानों को तत्तत् शब्दों के अन्तर्गत भी स्पष्ट किया गया णितियावाइ (ण) - नित्यावादिन् (पुं.)4/2071 मोक्ष की स्थिति नित्य नहीं है अर्थात् मोक्षप्राप्त जीव भी संसार में पुनः लेते है-ऐसी प्ररुपणा करनेवालों को 'नित्यावादी' कहते हैं। णिमित्तकारण-निमित्तकारण (न.) 4/2082 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [121] णिमित्त (निमित्त) शब्द की व्याख्या में इसे हेतु का एक भेद माना गया हैं। सहकारिकारण और निमित्तकारण भेद से दो अर्थों में 'निमित्त' शब्द का प्रयोग होता है - यह उल्लेख भी वहाँ है, किन्तु 'निमित्तकारण' शब्द के अन्तर्गत उदाहरण के द्वारा अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पट का निमित्त तन्तु ही है, क्योंकि तन्तुओं के बिना पट की उत्पत्ति नहीं हो सकती; और पटगत तानादि चेष्टा के बिना भी पटोत्पत्ति नहीं होती, तान आदि चेष्टा में वेमा (काष्ठयन्त्र) कारण हैं। 'निमित्तकारण' शब्द के अन्तर्गत अन्यद्रव्यकारणभेदे'(आवश्यकचूर्णि) कहकर उपादानकारणभिन्न द्रव्य को भी निमित्तकारण कहा गया हैं। इस प्रकार 'निमित्तकारण' की व्याख्या में कुछ अस्पष्टता आ गयी हैं। दर्शनशास्त्र में उपादान द्रव्यरुप कारण को तो समवायिकारण कहा गया है और उपादानभिन्न सहोपस्थित (सहकारि) द्रव्यरुप कारण को निमित्तकारण कहा गया हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में जो पटतन्तु का उदाहरण दिया है वह भी उपादान कारण में सही घटित होता है। निमित्तकारण के उदाहरण में इसे दिया जाना विचारणीय विषय हैं। हमारे विचार से कार्य की उत्पत्ति में सहायकरुप से उपस्थित रहनेवाले कारण को निमित्त कारण कहते हैं। जिस सहकारिकारण (द्रव्य) के बिना कार्य की उत्पत्ति असंभव है, एसे कारण को 'निमित्तकारण' कहते हैं। जैसे - जुलाहा पट का निमित्त कारण है क्योंकि, जुलाहा के बिना पटरुप कार्य की निर्वृत्ति हो नहीं सकती। णियइ - नियति (स्त्री.)4/2085%; णियइवाइ (ण) - नियतिवादिन् (पुं.) 4/2087 जगत में जीवों को जो भी सुख, दुःख आदि का अनुभव होता हैं वे सभी भाव 'नियति' के अधीन है; काल, ईश्वर, स्वभाव, कर्म पुरुषार्थकृत कारणजन्य नहीं - एसी प्ररुपणा करनेवालों को 'नियतिवादी' कहते हैं। णियावाइ (ण) - नियतवादिन् (पुं.)4/2108 लोक नित्य है, वस्तु (पदार्थ) नित्य है, उत्पाद और व्यय (विनाश) आविर्भाव और तिरोभाव मात्र है। एकान्तरुप से ऐसी प्ररुपणा करनेवालों को 'नियतवादी' कहते हैं। णिव्वाण - निर्वाण (न.) 4/2121 आत्मा की कर्मजनित विकार से रहित स्वरुप स्थिति, सर्वद्वन्द्वमुक्त स्थिति, सकल कर्म के विरह से उत्पन्न सुख, सकल कर्मक्षयरुप आत्यन्तिक सुख, परम पद, मोक्ष स्थान की प्राप्तिरुप, कर्मक्षयरुप, ईषत्प्राग्भार नामक पृथ्वी के उपर लोकांत स्थित क्षेत्र (स्थान) को 'निर्वाण' कहते हैं। णिव्वाणवाइ (ण) निर्वाणवादिन (पं.) 4/2129 'निर्वाण' (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए तदनुरु प मार्ग के उपदेशक 'तीर्थंकरो' को 'निर्वाणवादी' कहते हैं। तक्क - तर्क, तत्क (पुं.) तक्र (नपु.) 4/2129 तर्क के अतिरिक्त 'तक्क' शब्द का संस्कृत में तक्र = छाछ और तत्क अर्थात् ईदृश (एसा) रुप भी होता हैं। संभवित पदार्थ/अर्थ के अस्तित्व के अध्यवसायरुप ऊहा को 'तर्क' कहते हैं। संशय उपर उठने के लिये सत् अर्थ की विचारणारुप (चिंतनात्मक) ज्ञान विशेष को 'तर्क' कहते हैं। रत्नाकरावतारिका के अनुसार - 'उपलम्भ - अनुपलम्भरुप प्रमाण के द्वारा जिसकी उत्पत्ति संभव है - एसा त्रिकालवर्ती साध्य-साधन संबन्ध का आद्य आलम्बन जिसके होने पर ही होता है, एसी आद्याकार संवेदनरुप ऊहा को 'तर्क' कहते तक्वाभास - तीभास - (पु.) 4/2170 तर्क का (तर्क के) लक्षण से रहित होना या तर्क की व्याप्ति का असत् होना तर्काभास' कहलाता हैं। तज्जीवतच्छरीरवाइ (ण) - तज्जीवतच्छरीरवादिन् (पुं.) 4/2172 जैसे पृथिव्यादि पांच भूतों से शरीर उत्पन्न होता है, वैसे उसी से आत्मा उत्पन्न होती है। बाल, पंडित, मूर्ख आदि प्रत्येक के शरीर में अलग-अलग आत्मा है। वह शरीर व्यापी है, सर्वव्यापी नहीं। शरीर का नाश होने पर आत्मा का भी नाश होता है। देहनाश होने पर आत्मा को अन्यत्र जाता नहीं देखा जाता है, परलोक आदि नहीं है, आत्मा स्वयंकृत कर्मो के फल का भोक्ता नहीं है" -इस प्रकार की प्ररुपणा करनेवाले नास्तिकों को 'तज्जीवतच्छरीरवादी' कहते हैं। तत्त - तत्व (नपुं.) 4/2180 स्वाभाविक पदार्थ (परम अर्थ), पदार्थ का स्वरुप, परमार्थ से उत्पन्न, परस्पर निरपेक्ष सामान्य विशेषात्मक जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध संवर, निर्जरा, मोक्षरुप तत्त्व; तथा धर्म-अधर्म-आकाश-पुद्गल-जीव-कालरुप द्रव्य; और नित्यानित्य स्वभावयुक्त सामान्यविशेषात्मक शाश्वत चौदह रज्जुलोकरुप लोक (जगत, संसार) को 'तत्त्व' कहते हैं। तयणवत्थुक - तदन्यवस्तुक (पुं.) 4/2196 'तयण्णवत्थुक' प्राकृत शब्द का रुपान्तर 'तदन्यवस्तुक' हैं। 'तदन्यवस्तुक' शब्द उपन्यास और उदाहरण के भेद के रुप में प्रयुक्त Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [122]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं। अन्यवस्तु के उपन्यास से भिन्न उत्तरभूत वस्तु जिस उपन्यासोपनय में कही जाये उस उपन्यासोपनय को तदन्यवस्तुक कहते हैं। जैसे 'जले चरन्ति इति जले पतितानि जलचरा' - एसा कहने पर इसका खंडन करने के लिए पतन से भिन्न उत्तर कहते है- और जो गिरा कर खाता है या ले जाता है (चर भक्षणे/गमने च) वे क्या होते हैं? जल और स्थल में गिरे हुए पत्र जलचर-स्थलचर आदि जीव नहीं बन जाते, जैसे-मनुष्य आदि में आश्रित जीव (जू आदि) मनुष्यचर नहीं बन जाते । इसी तरह सभी जलगत जलचर नहीं हो जाते। तिरिक्खसामण - तिर्यक् सामान्य (पुं)4/2318 (एक ही जाति की) भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में तुल्य (एक समान) परिणति को 'तिर्यकसामान्य' कहते हैं। जैसे भिन्न-भिन्न सभी घटों में 'घटत्व'। दव्व - द्रव्य (नपुं.) 4/2462 जो स्वपर्यायों को प्राप्त करता है और छोडता है, उन-उन पदार्थों में गमन करता है, उसे द्रव्य कहते हैं। तथा रुप-रसादि गुणों के समुदाय रुप घटदि को द्रव्य कहते हैं। तद्योग्य भूत और भविष्य के पर्याय वर्तमान में प्राप्त नहीं होने पर भी जो उसके योग्य है उसे ही 'द्रव्य' कहते हैं। जो स्वगुण और स्वपर्याय का आधार तीनों काल में सदा स्वजाति की अपेक्षा से एक रुप में रहता है, पर पर्याय में परावर्तित नहीं होता है, उसे 'द्रव्य' कहते हैं। द्रव्य के सहभावी धर्म को 'गुण' और क्रमभावी धर्म को 'पर्याय' कहते हैं। जैन दर्शन में जीवअजीव-धर्म-अधर्म-आकाश (अस्तिकाय) और काल - ये छः द्रव्य हैं जिनका अभिधान राजेन्द्र कोश में यथास्थान विस्तृत परिचय दिया गया है। (आहार संबन्धी द्रव्यों का वर्णन शोध प्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में किया जायेगा।) दिटुंत - दृष्टांत (पुं)4/2509 विवक्षित साध्य-साधन के संबन्ध का अविनाभावरुप प्रमाण के द्वारा जहाँ परिच्छेद (विभाग, अंत) होता हो, उसे 'दृष्टान्त' कहते हैं। नंदीसूत्र में उसे साध्य की उपमाभूत माना है। विशेषावश्यक भाष्य में दृष्टान्त का अर्थ 'उदाहरण' किया है। और वाचस्पति कोश में दृष्टांत का अर्थ 'मरण' भी किया है। 'दृष्टान्त' के द्वारा अर्थ की प्रतिपत्ति होती हैं। दिट्टतभास - दृष्टान्तभास (पुं.) 4/2510 जिसमें साध्य अर्थ की प्रतिपत्ति न होती हो, एसे दुष्ट दृष्टान्त को 'दृष्टान्तभास' कहते हैं। यहाँ पर साधर्म्य एवं वैधम्य दृष्टान्तभास के 9-9 प्रभेदों का भी विस्तृत वर्णन किया गया हैं। देवउत्तवाइ (ण) - देवोप्तवादि (न) (पुं.) 4/2614 देव-किसान के द्वारा बीज वपन (बोवणी) करके - यह लोक (संसार) निष्पादित (उत्पन्न) किया गया है- एसी प्ररुपणा करनेवालों को 'देवोप्तवादी' कहते हैं। धम्मवाय - धर्मवाद 4/2731 जिस वाद में धर्म की प्रधानता हो उसे धर्मवाद कहते हैं। स्थानांग, ठाणा 10 में इसका स्वरु प बताया गया है- स्वशास्त्र के तत्त्वज्ञान से युक्त मध्यस्थ एवं पापभीरु के द्वारा तत्त्वबुद्धि से किया गया वाद धर्मवाद कहलाता हैं। पइणा - प्रतिज्ञा (स्त्री.)5/4 साध्य वचन के निर्देश को 'प्रतिज्ञा' कहते हैं। जैनागमों में आप्त वचन के निर्देश को भी प्रतिज्ञा कहते हैं। सूत्रकृतांग में 'नियम' को भी प्रतिज्ञा कहा हैं। पड़णाविरोह - प्रतिज्ञा विरोध (पुं.) 5/5 हेतु के विरोध को 'प्रतिज्ञाविरोध' कहते हैं। पइणासणास - प्रतिज्ञा संन्यास (पुं.)5/5 पक्ष के प्रतिषेध के विषय में प्रतिज्ञात अर्थ के अपनयन को 'प्रतिज्ञासंन्यास' कहते हैं। पड़णाहानि - प्रतिज्ञाहानि (स्त्री.) 5/5 हेतु के अनेकान्तिक होने पर प्रतिदृष्टान्त धर्म का स्वदृष्टान्त में जानेरुप 'निग्रहस्थान' को 'प्रतिज्ञाहानि' कहते हैं। यह निग्रहस्थान का एक भेद हैं। पएस - प्रदेश (पुं.) 5/22 देश का छोटा भाग, जो अलग से (पदार्थ के) टुकडेरुप भाग नहीं हो फिर भी भाग कहलाता हो, धर्म-अधर्म आकाश-जीव और पुद्गलों का निरवयवत्व, पदार्थ का निरंश अवयव में परिणाम, नपा हुआ परिमाण, राज्य का एक भाग और कर्म के दलिकों का संचय'प्रदेश' कहलाते हैं। पंचभूतवाइ - पञ्चभूतवादिन् (पुं.) 5/50 "पृथ्वी आदि पांच ही भूत हैं, 'आत्मा' इनसे अलग पदार्थ नहीं है" - एसी प्रतिज्ञापूर्वक वाद करनेवाले नास्तिकों को 'पञ्चभूतवादी' कहते हैं। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [123] पक्ख - पक्ष (पुं.) 5/67 जिसके द्वारा गिरता है वह, शरीर का दोनों तरफ का हिस्सा, निकट किसी का एक भाग, 15 दिन प्रमाण कालमान, 'पक्ष' कहलाता हैं। 'पक्ष' शब्द की दार्शनिक व्याक्या 'अनुमान' शब्द के अन्तर्गत अभिधान राजेन्द्र कोश के, प्रथम भाग में दी गयी हैं। पक्खाभास - पक्षाभास (पुं.) 5/67 प्रतीतसाध्यधर्मविशेषण, निराकृतसाध्यधर्मविशेषण और अनभीप्सितसाध्यधर्मविशेषण 'पक्षाभास' कहलाता हैं। पयरणसम - प्रकरणसम (न)5/71 यह हेत्वाभास का ही एक भेद हैं। जिस हेतु के कारण प्रकरण का चिन्तन हो, वही निर्णय के लिए ले लिया जाये तो उस हेतु को प्रकरणसम हेत्वाभास कहा जाता हैं। जैसे- वादी ने कहा कि 'शब्द अनित्य है, नित्य धर्मानुपलब्धि के कारण' । इस पर प्रतिवादी ने कहा -'यदि इस प्रकार से अनित्यता सिद्ध करना चाहते हो तो नित्यता की सिद्धि भी हो सकती हैं, जैसे - शब्द नित्य (है), अनित्य धर्मानुपलब्धि के कारण। पच्चक्ख - प्रत्यक्ष (न.) 5/73 व्यवहार में 'अक्ष' का इन्द्रिय अर्थ करने पर 'इन्द्रियों' की अधीनतापूर्वक जो उत्पन्न होता है, वह 'प्रत्यक्ष' है जबकि ज्ञान के विषय में जैन दर्शन में 'अक्ष' शब्द का अर्थ 'आत्मा' करने पर जो जीव के प्रति साक्षात् (ज्ञान) होता है, जो इन्द्रिय और मन से निरपेक्ष हो उसे 'प्रत्यक्ष' कहते हैं। व्यवहार में चक्षुरादि इन्द्रिय देखने की क्रिया में प्रत्यक्ष मानी जाती हैं। अध्यात्म ज्ञान में जैनागमों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष और शेष तीन अवधि, मनः पर्यव और केवलज्ञान को 'प्रत्यक्ष' माना गया हैं। जैन दार्शनिक भाषा में अनुमानादि की अधिकता से विशेष प्रबलतर ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम या क्षय से जो विशेष (ज्ञान) स्पष्ट होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। यहाँ प्रत्यक्ष के व्यवहारिक पक्ष में वैशेषिकों का मत बताकर जैनागमोक्त प्रत्यक्ष का लक्षण बताकर प्रत्यक्ष के भेद प्रभेद बताते हुए इन्द्रियप्रत्यक्ष - पांचों इन्द्रियों के भेद से पाँच प्रकार का और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष अवधि ज्ञान आदि तीन प्रकार का बताकर उनका विस्तृत परिचय दिया गया हैं। पच्चक्खाभास - प्रत्यक्षाभास (पुं.) 5/121 'प्रत्यक्ष' ज्ञान नहीं होने पर भी प्रत्यक्षवद् दिखाई देता हो, उसे 'प्रत्यक्षाभास' कहते हैं। इसके दो भेद हैं1. सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास - जैसे बादल में गन्धर्व नगर का ज्ञान, या दुःख में सुख का ज्ञान। 2. पारमार्थिक प्रत्यक्षभास - जैसे शिवराजर्षि का असंख्यात द्वीप- समुद्रों में से सात द्वीप-समुद्र का ही ज्ञान । पज्जाअ - पर्याय (पुं.) जो आते हैं, फिर चले जाते हैं लेकिन पदार्थ की तरह ध्रुव नहीं रहते, उसे 'पर्याय' कहते हैं। जीव और अजीव पदार्थ के मनुष्यत्व, बालत्व आदि कालकृत अवस्थारुप अर्थ को 'पर्याय' कहते हैं। यहाँ पर पर्याय के स्व-पर, युगपद्भावी-क्रमभावी, शब्द-अर्थ, स्वाभाविक-अपेक्षिक, अतीत-अनागत-वर्तमान, आदि अनेक प्रकारों का परिचय दिया गया हैं। पडिसेह - प्रतिषेध (पं.)5/369 निराकरण, निवर्तन, निषेध और वस्तु के असत् अंश को 'प्रतिषेध' कहते हैं। प्रतिषेध के चार प्रकार हैं (1) प्रागभाव (2) प्रध्वंसाभाव (3) इतरेतराभाव और (4) अत्यन्ताभाव । पडुप्पण्णदोस - प्रत्युत्पन्नदोष (त्रि.) 5/371 सर्वथा वस्तु की प्राप्ति होने पर अकृताभ्यागम, कृतविनाश आदि वर्तमानकालिक विशेष दोष को 'प्रत्युत्पत्र दोष' कहते हैं। पद्धंसाभाव - प्रध्वंसाभाव (पुं.) 5/434 पदार्थ की उत्पत्ति होने पर तत्संबन्धी पहले उत्पन्न हुए कार्य का अवश्यंभावी विघटन (नाश) उस कार्य का 'प्रध्वंसाभाव' कहलाता है। जैसे-कलश रुप पदार्थ (कार्य) की उत्पत्ति होने पर तत्संबन्धी पूर्वोत्पन्न कपाल, कदम्बादि का नाश। प्रमाण - प्रमाण (नपुं.) 5/443 जिस साधन से प्रकर्षतापूर्वक संशयादि रहित स्वाभाविकरुप से पदार्थ को जाना जाय, जिससे हेय-उपादेय, प्रवृत्ति-निवृत्ति रुप पदार्थ भेद किया जाय और जो स्व-पर व्यवसायी ज्ञान है उसे 'प्रमाण' कहते हैं। प्रमाणमीमांसा दर्शन शास्त्र का महत्त्वपूर्ण विषय है औह जैनदर्शन में प्रमाण के बारे में मौलिक विचार उपलब्ध हैं। जैनदर्शन सम्मत प्रमाण को निम्नलिखित अभिलेख से समझा जा सकता हैं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [124]... तृतीय परिच्छेद 1. 5. 6. ऐन्द्रिय पंचेन्द्रियजन्य ज्ञान 7. सांव्यवहारिक 8. मानस देशावधि अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रमाण स्मृति आगम (श्रुत) दर्शन के उद्भव और विकास का मूल जिज्ञासा है। जिज्ञास्य पदार्थों में लौकिक एवं अलौकिक जगत में उपलब्ध पदार्थो का तात्विक विश्लेषण करने के साथ ही जीव के चरम लक्ष्य और उसके उपाय को भी समाहित किया गया हैं। यद्यपि भिन्न-भिन्न दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किये हैं किन्तु 'ऋते ज्ञानान्न मुक्ति: ' यह सिद्धान्त किसी न किसी रुप में सभी भारतीय मनीषियों में स्वीकृत हैं । जैन सिद्धान्त में सम्यग्दर्शनपूर्वक के सम्यग्ज्ञान को कार्यकारी बताया गया हैं। सम्यग्ज्ञान का अभिप्राय आत्मा के ज्ञान गुण के कारण किसी भी अंश से लौकिक एवं अलौकिक पदार्थों का सम्यग् निश्यच हैं अर्थात् जैन सिद्धान्त में आत्मा के ज्ञान गुण को ही प्रमाणभूत माना गया हैं इसलिये मोक्षमार्ग प्रकरण में यह स्पष्ट किया गया हैं कि मोक्ष का सक्रिय उपाय सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही होता हैं । 2 जैन सिद्धान्त में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के साथ ही सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती हैं । किन्तु उसमें सम्यग्दर्शन का स्थान प्रथम हैं। दूसरे क्रम पर सम्यग्ज्ञान है। सर्वदेश ज्ञान और एक देश ज्ञान की अपेक्षा से ज्ञान की तरतम अवस्थाएँ अनेक होती हैं किन्तु उन्हें अध्ययन की दृष्टि से पाँच वर्गो में रखा गया मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव, केवल 13 सम्यग्विशिष्ट ये कोटियां प्रमाणभूत हैं। प्रत्यक्ष दशवैकालिक मूल 4/10 तिलोयपण्णत्ती 1/83 पारमार्थिक अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान सर्वावधि ऋजुमति इसी सिद्धान्त को भिन्न-भिन्न जैन दार्शनिकों ने अपने-अपने शब्दों में कहा है। किसी ने सम्यगज्ञान को प्रमाण कहा है तो किसी ने 'सम्यगनेकान्त' को प्रमाण कहा हैं।' इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा गया हैं कि जो ज्ञान 'स्व' और 'पर' का निश्चयात्मक ज्ञान है, वह 'प्रमाण' हैं।' क्योंकि जब तक 'स्व' और 'पर' के भेदपूर्वक ज्ञान नहीं होता तब तक हेयउपादेयत्वपूर्वक का विचार और प्रवृत्ति निवृत्ति का निर्धारण नहीं हो सकता। जो यहाँ पर 'स्व' और 'पर' शब्दों का प्रयोग किया गया हैं। वह स्वात्म द्रव्य की अपेक्षा परात्म द्रव्य को भी परत्वेन ही ग्रहण करता हैं। इस प्रकार 'पर' शब्द स्वात्मद्रव्य से भिन्न सभी अन्य चेतन पदार्थ 'पर' शब्द से अभिहित हैं। वह ज्ञायक आत्माओं के स्व- द्रव्य से भिन्न सभी 'पर' द्रव्यों को यथावस्थित स्वरुप से निश्चयात्मक ज्ञान करानेवाला तत्तदधिष्ठित सम्यग्ज्ञान 'प्रमाण' कहा गया हैं अर्थात् अन्य आत्मा के द्वारा गृहीत निश्चयात्मक ज्ञान का साधनभूत प्रमाण तदितर ( उससे भिन्न) आत्मा के लिए कार्यकारी न होने से प्रमाणभूत नहीं ठहरता । " आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'स्व-पर व्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्' -सूत्र को उद्धृत करते हुए यह स्पष्ट किया है कि इस सूत्र संज्ञा तर्क (चिन्ता) (प्रत्यभिज्ञा) मुण्डकोपनिषद् 2. पढमं नाणं तो दया। 3 तत्वार्थसूत्र - 1/9; अ.रा. पृ. 4/1938 4. तत्प्रमाणे । तत्वार्थसूत्र - 1/10 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' । तत्वार्थवार्तिक 1/86 स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । अ.रा. पृ. 5/442; सूत्रकृतांग 1/12/2 स्वात्मा ज्ञानस्य स्वरुपम् परः स्वस्मादन्यः, अर्थ इति यावत् । तौ विशेषेण यथाऽवस्थितस्वरुपेण, अवस्यति निश्चिनोतीत्येवंशीलं यत् तत् स्वपरव्यवसायि । - अ. रा. पृ. 5/443 केवलज्ञान विपुलमति अभिनिबोध (अनुमान) परोक्ष - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [125] में दिया गया ज्ञान का विशेषण -'स्वपर व्यवसायि' स्व-समय प्रसिद्ध अर्थात् जैन सिद्धान्त द्वारा प्रतिष्ठित 'दर्शन' अर्थात् प्रमाण-प्रमेय मीमांसा रुप शास्त्र में प्रयुक्त प्रमाणभूत 'ज्ञान' का है। इससे व्यावृत्तिरुप यह अर्थ भी सुनिश्चित किया है कि अज्ञानरुप व्यवहारमूलक स्वरुप प्रवणता को ग्रहण नहीं करते हुए अर्थात् असद्भूत और मिथ्याज्ञान से भिन्न सद्भूत और सम्यग्ज्ञान का यह विशेषण हैं। इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक द्वारा 'स्व-पर व्यवसायि' विशेषण का सार्थकत्व स्पष्ट करते हुए अन्ययोगव्यवच्छेदपरक व्यावृत्ति स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि इस विशेषण से नैयायिक कल्पित सन्निकर्षादि अचेतन की प्रमाणभूतता पराकृत (दूर) कर दी जाती हैं। साथ ही बौद्धों के द्वारा स्वीकृत निर्विकल्प ज्ञान की प्रामाणिकता भी इसी से परास्त हो जाती हैं ।10 'व्यवसायि' विशेषण का दूसरा प्रयोजन जैन सिद्धान्त में संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरुप मिथ्याज्ञान से ज्ञान का व्यवच्छेद करना हैं ।।। प्रमाण के स्वरुप के प्रकरण से आचार्यश्री ने अद्वैतवादी, मीमांसक, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक - इन वेदोपजीवी दार्शनिकों के द्वारा प्रतिपादित प्रमाण के स्वरुप के प्रत्याख्यान के साथ ही भूतचैतन्यवादी लौकायतिक एवं अन्य वेद प्रतिगामी दार्शनिकों के प्रमाण स्वरुप का भी प्रत्याख्यान किया है। प्रमाण शब्द के अन्तर्गत आचार्यश्रीने जिन विषयों का विमर्श किया हैं उनकी सूची निम्नानुसार हैं। 1. प्रमाण का लक्षण 2. प्रमाण ज्ञान ही है - इसका समर्थन 3. सन्निकर्ष विचार 4. नायनरश्मि विचार 5. निर्विकल्पकज्ञानप्रामाण्यवादियों का प्रतिपादन, ज्ञान के 'व्यवसायिक' विशेषण का समर्थन 6. ज्ञान का स्वतः -परतः प्रामाण्य, जैमिनी मत का निराकरण 7. मीमांसक मत निराकरण 8. द्रव्यादि चार प्रकार का प्रमाण 9. वाद के विषय में विचार एवं धर्मवाद की कर्तव्यता की मुख्यता का विधान 10. प्रमाण के स्वरुपपूर्वक प्रमाण की संख्या 11. प्रमाण के फल 12. प्रमाण और प्रमाण के फल को एकान्त अभिन्न माननेवाले बौद्धों के मत का निराकरण । इन विषयों के अन्तर्गत संशय-विपर्यय-अनध्यवसायरुप तीन प्रकार के मिथ्याज्ञान के स्वरुप को भी स्पष्ट किया गया हैं जो कि प्रमाणभूत तो नहीं हैं, परन्तु प्रमाण से विपरीतता युक्त होने के कारण प्रमाण के विषय हैं। क्योंकि जब तक मिथ्याज्ञान का स्वरुप न समझा जाय तब तक उससे व्यावृत्ति होना संभव नहीं। यह समस्त विवरण आचार्यश्री के स्वयं के शब्दों में गुंफित और अत्यधिक विस्तृत है, साथ ही इस शोध-प्रबन्ध की परिधि से बाहर है इसलिए जिज्ञासुओं को वहीं से अवलोकन करना चाहिए। जैनसिद्धान्त में प्रमाण के साथ प्रमाणैकदेश (नय) को भी स्वीकार किया गया है, और वह चार प्रकार के निक्षेपों के द्वारा पदार्थो का सम्यग्ज्ञान कराते हैं अतः यहीं पर नयों का विवरण भी दिया जाना उचित हैं। णय - (नय) (पुं.) 4/1852 'नय' शब्द की सार्थकता : 1. अनेक अंशवान् वस्तु के एकांश का अवलंबन करके वस्तु को ज्ञान का विषय बनाने हेतु ज्ञान की ओर ले जाना 'नय' हैं। अथवा वस्तु की ओर से ज्ञान के आश्रय में जिसके द्वारा ले जाया जाय, उसे 'नय' कहते हैं। 2. अमुक स्वभाव से अमुक स्वभाव का परिच्छेद जिससे किया जाय, उसे 'नय' कहते हैं । 'नय' शब्द का प्रयोग अनंतधर्मात्मक वस्तु के एकांश के परिच्छेद के अर्थ में किया गया है। 3. अनंत धर्मात्मक वस्तु से नियत एक धर्म के अवलंबन से वस्तु को प्रतीति का विषय बनाने के अर्थ में 'नय' शब्द प्रयुक्त हैं। 9. ज्ञायते प्राधान्येन विशेषो गृह्यतेऽनेनेति ज्ञानम् । एतच्च विशेषणम् - अज्ञानपुरस्य व्यवहार धुराधौरेयतां अनादधानस्य सन्मात्रगोचरस्य स्वसमयप्रसिद्धस्य दर्शनस्य,... - अ.रा.पृ. 5/443 10. सन्निकर्षाऽऽदेश्चाऽचेतनस्य नैयायिकाऽऽदिकल्पितस्य प्रामाण्यपराकरणार्थम् । तस्याऽपि च प्रत्यक्षरुपस्य शाक्यैर्निविकल्पकतया प्रामाण्येन जल्पितस्य,... I - वही 11. संशयाविपर्ययानध्यवसायानं च प्रमाणत्वव्यवच्छेदार्थं व्यवसायीति... । वही 12. अ.रा.पृ. 5/477 13. नयत्यनेकांशाऽऽत्मकं वस्त्वेकांशावलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपयतीति, नीयते वा अनेन तस्मिन् ततो वा नयनं नयः । - अ.रा.पृ. 4/1852; उत्तराध्ययन, | अध्ययन 14. नीयते परिच्छिद्यतेऽनेनास्मादिति वा नयः । अनंतधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छितौ । - वही 15. अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो नियतैकधर्मात्मकावलम्बनेन प्रतीतौ प्रापणे । - वही Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [126]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 4. वस्तु तत्त्व को अवबोध गोचर प्राप्त करानेवाले को 'नय' कहते हैं।16 उपर्युक्त चार निरुक्तियों को 'नय' शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिए संग्रह करते हुए आगे निरुक्ति के रुप में विशेषावश्यक भाष्य की गाथा को उद्धृत करते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि "वक्ता के द्वारा वस्तु की होनेवाली पर्यायों का बोध कराया जाना 'नय' हैं।" अथवा "अनंत धर्मों से आकुलित वस्तु के एक अंश का ग्राहक ज्ञान 'नय' हैं।" इसको और स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि "प्रायः एक वस्तु की अनेक पर्यायों में से विवक्षित पर्याय का आश्रय करके जो परिच्छेद वक्ता के द्वारा कराया जाता है, उसे 'नय' कहते हैं"18 | आचार्यश्रीने यह स्पष्ट किया है कि जिनवाणी में वस्तु अनंत धर्मात्मक स्वीकृत है और जिनेन्द्र देव का प्रवचन केवलज्ञान रुप प्रमाण से ज्ञात पदार्थ का बोधक है। इसी प्रकार 'नय' भी वस्तु के प्रतिनियत धर्म के व्यवहार की सिद्धि करता है। इसलिए 'नय' भी प्रमाण स्वरुप हैं।19 आलाप पद्धति में 'नय' की प्रामाणिकता स्पष्ट करनेवाला यह कथन प्राप्त होता हैं - "प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने का नाम 'नय' हैं। अथवा श्रुतज्ञान का विकल्प नय है अथवा ज्ञाता का अभिप्राय नय है अथवा नाना स्वभावों से ही वस्तु को पृथक् करके जो एक स्वभाव में वस्तु को स्थापित करता हैं, वह 'नय' हैं।20 अभिप्राय यह है कि श्रुतज्ञान स्वयं ही प्रमाणरुप हैं (मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाणरुप है)। उस प्रमाण के द्वारा अधिगत पदार्थ के एक अंश का ग्रहण करते हुए वक्ता अपने अभिप्राय से जो सापेक्ष कथन करता है, वह 'नय' हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड में सापेक्ष कथन का स्पष्टीकरण करते हुए यह कहा गया है कि "वस्तु के प्रतिपक्षी धर्मों का निराकरण न करते हुए ज्ञाता के अभिप्राय जो कि वस्तु के एक अंश का ग्रहण करता है, को 'नय' कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'णय' (नय) शब्द के अन्तर्गत निम्नाङ्कित विषयों का वर्णन किया गया हैं1. नयनिरुक्ति 2. नयलक्षणनिरुपणपूर्वक नयतत्त्वप्ररुपण 3. नय के स्वरुप की उपपत्ति 4. वस्तुओं के अनन्तधर्मात्मकत्व का निरुपण 5. नय किसे कहते हैं ? नय के भाग 6. नय का आपेक्षिकत्व 7. अपेक्षात्मक वाक्य - नय 8. सामान्य-विशेष विचार 9. सप्तभङ्गी में नय विभाग 10. एकत्र अनेक आकार-प्रमाणधी 11. नयों के प्रमाणाप्रमाणत्व का निर्णय 12. सम्मति तर्क आदि ग्रन्थों में जो अभिनिवेष्टितेतर नय का खंडन है, उसके साधन निमित्त बौद्धादि नय परिग्रह भी शुद्ध पर्यायादि वस्तु की प्राप्ति के कारण से मिथ्यारुप नहीं हैं। - उसका निरुपण 13. नयविभाग में द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक रुप से संक्षेप से नय के दो प्रकार 14. संग्रह-विशेष, द्रव्य-पर्याय के लिये सामान्य-विशेष रुप शब्दवाच्य विचार 15. द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय में नैगमादि नयों का अन्तर्भाव। . 16. नैगमादि सात मूल नयों के विचार में नैगमादि नयों के मतों का संग्रह 17. सिद्धसेन दिवाकर के मत से छ: नय, नैगम नय का संग्रह और व्यवहार नय में अन्तर्भाव . 18. प्रस्थकवसति प्रदेश के. दृष्टान्त से नय प्रमाण परामर्श 19. प्रस्थक दृष्टान्त 20. वसति दृष्टान्त 21. प्रदेश दृष्टान्त 16. 'नयंतीति नया वत्थुतत्तं अवबोहगोयरं पावयंति त्ति ।' अ.रा.पृ. 4/1852 17. स नयइ तेण तहिं वा, तओऽहवा वत्थुणो व जं नयणं । बहुहा पज्जायाणं, संभवओ सो नओ नाम ॥- विशेषावश्यकभाष्य, गाथा-914 18. स एव वक्ता संभवद्भिः पर्यायैर्वस्तु नयति गमयतीति नयः । अथवा नीयते परिच्छिद्यते अनेन, अस्मिन्, अस्माद् वेति नयः, अनन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकांशग्राहको बोध इत्यर्थः । यदि वा बहुधा वस्तुनः पर्यायाणां संभवाद्धिवक्षितपर्यायेण यन्नयनमधिगमनं परिच्छेदनमसौ नयो नाम । - अ.रा.पृ. 5/1853 19. अ.रा.पृ. 5/1853 20. प्रमाणेन वस्तुसंग्रहीतार्थेकांशो नयः श्रुतविकल्पो वा, ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः । नाना स्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नयः । जिनवरस्य नयचक्र, पृ. 15में 'आलाप पद्धति' से उद्धृत 21. अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. 606 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 22. सभी नयों की अपने-अपने स्थान में 23. सात सौ नय 24. असंख्यात नय - मतान्तर निरुपण 25. निक्षेपनय योजना 26. द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक का युगपत् विचार 27. सव्यपेक्षा - एक दूसरे की अपेक्षा से उनका प्रमाणत्व 28. जिस नय से जिस दर्शन की उत्पत्ति हुई है उसका सामान्य निरुपण 29. निश्चय और व्यवहार नय में सभी नयों का अन्तर्भाव 30. दिगम्बर मत में नय 31. व्यवहार नय से सांख्य का प्रवर्तन 32. वेदान्ती और सांख्य दर्शन का शुद्धाशुद्धत्व 33. नैगम नय का संग्रह और व्यवहार नय में अन्तर्भाव 34. जो शब्द नय है, वे ही अर्थ नय है, उनका निरुपण 35. नयोत्पादित अपरिमित दर्शनों में सम्यक्त्व, मिथ्यात्व का निरुपण 36. नयफल विचार 37. ज्ञान क्रिया नय द्वार में संग्रहादि नयों के समवतार के स्वरुप का निरुपण 38. नयों की पार्थक्यता भिन्नता में उनका समवतार है या नहीं उसका निरुपण 39. आलोचना के विषय में आठ प्रकार के नय 22 शुद्धता नय के भेद अभिधान राजेन्द्र कोश में अत्यन्त कम शब्दों में लेकिन स्पष्टतम स्वरुप के साथ 'नय' के दो मुख्य भेद कहे गये हैंनिश्चय और व्यवहार नयः लोक व्यवहारपरक अभ्युपगम को प्रधानता देनेवाले 'नय' को व्यवहार नय कहते हैं। जैसे- भ्रमर (भौंरा) में काले रंग की अधिकता होने से व्यवहार में एसा कहा जाता है कि भौरा काला है किन्तु स्थूल शरीर में पाँच वर्णों के पुद्गलों का संधात होने से निश्चय नय के अनुसार उसी भ्रमर को पाँच वर्णवाला कहा जाता हैं अर्थात् व्यवहार नय लोक व्यवहार परक और निश्चय नय परमार्थपरक हैं। 23 द्रव्यार्थिक नयः द्रव्यार्थिक नय की व्याख्या करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि अतीत-अनागतवर्तमान काल में जो द्रवित होता है अर्थात् परम्परा से एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी एसे क्रमबद्ध पर्यायों को ग्रहण करता रहता है, वह द्रव्य हैं। 24 केवल द्रव्य की ही मुख्यता से जिस नय का अर्थ अर्थात् प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय हैं। 25 यह नय द्रव्य मात्र की प्ररूपणा करता है अर्थात् द्रव्य-पर्यायस्वरुप वस्तु में मुख्यरुप से द्रव्य का अनुभव कराता हैं; सामान्य को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय हैं, 26 अथवा द्रव्य में आस्तिक है, पर्याय में नहीं वह द्रव्यार्थिक नय हैं । 27 22. अ. रा. पृ. 4/1853 23. अ. रा. पृ. 4/1892; विशेषावश्यक भाष्य-3098 - आचार्यश्रीने उत्तराध्ययन सूत्रोक्त द्रव्यार्थिक नय की व्याख्या उद्धृत करते हुए कहा है कि तदाकार अनुयायियों को उसी का सद्बोध कराने का विषय होने से समस्त स्थास - कोश- कुश-कपाल आदि आकारों का अनुयायी मृदादि द्रव्य ही सत्पदार्थ है, क्योंकि स्थास, कोसादि में द्रव्य रुप से तो मृद द्रव्य के अलावा अन्य कुछ भी प्राप्त नहीं होता । अतः वह ( द्रव्यार्थिक नय) तरंगादियुक्त सरोवर का जल केवल अपद्रव्य है उसी तरह तथा आविर्भाव तिरोभाव की मात्रा से युक्त सभी भेद-प्रभेद को गौण करके द्रव्य को ग्रहण करता हैं। 28 अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक नय है29, जिनका परिचय आगे दिया जायेगा । तृतीय परिच्छेद... [127 ] 24. अ. रा. पृ. 4/2462; आवश्यक मलयगिरि 1/2 25. अ.रा. पृ. 4/2466; पश्चाधअयायी 1 / 518 26. अ. रा.पू. 4 / 2467; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लो. 31-32 की टीका; रत्नाकरावतारिका, परिच्छेद 7 27. अ. रा.पू. 4 / 2467; आवश्यक मलयगिरि 1 / 2: 28. 'निखिलस्थासको शकुटकपालद्याकारानुयायि वस्तु सत् तस्यैव तत्तादाकारानुयायिनः सद्बोधविषयत्वात्, स्थासकोशाऽऽविर्भावतिरोभावमात्रान्वितं समूच्छितसर्वप्रभेदनिर्भेदबीजं द्रव्यमागृहीततरङ्गाऽऽदिप्रभेदस्तिमितसरः सलिलवत् ।' अ.रा.पृ. 4/2471; 4/2471; उत्तराध्ययन सूत्र सटीक, । अध्ययन 29. अ.रा. पृ. 4/1856; 4/1856; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक 31, 32 की टीका Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [128]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रस्तुत कोश में आचार्यश्रीने इसके शुद्ध-अशुद्ध दश भेदों का भी विस्तृत वर्णन किया है जो हमने संक्षिप्त में सारणी में दर्शाने का प्रयास किया हैं। इसके विस्तृत स्वरुप के जिज्ञासु के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश दृष्टव्य हैं। पर्यायार्थिक नयः अभिधान राजेन्द्र कोश में पर्याय की व्याख्या करते हुए कहा है -धर्म, पर्यव, पर्याय, पर्यय ये सब ‘पर्याय' के पर्यायवाची नाम हैं। सर्वथा भेद (अन्तर) को प्राप्त करना पर्याय हैं 2 अथवा द्रव्य के गुणों के विशेष परिणमन को पर्याय कहते हैं अथवा द्रव्य के क्रमभावी परिवर्तन को पर्याय कहते हैं।34 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'पर्यायार्थिक नय की परिभाषा बताते हुए कहा है कि "पर्याय ही जिसका अर्थ (प्रयोजन) है, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं।35" पञ्चाध्यायी के अनुसार "द्रव्य के अंश" को पर्याय कहते हैं। इनमें से जो विवक्षित अंश है, वह जिस नय का विषय हैं - वह पर्यायार्थिक नय है। मोक्षशास्त्र में पर्यायार्थिक नय के विशेष, अपवाद अथवा व्यावृत्ति नाम बताये हैं।" आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार "सर्वभावों की अनित्यता का अभ्युपगम (बोध) करानेवाला यह नय मूल नय का भेद हैं ।38 पर्यायार्थिकनय द्रव्य, गुण, पर्याय में भेद का ज्ञापक हैं - 1. मृद् (मिट्टी) आदि द्रव्य, 2. रुपादि गुण, 3. घटादि पद के कम्बुग्रीवापृथुबुध्नादि पर्याय। उसमें उपचार और अनुभूति उपचारलक्षणा है अर्थात् पर्यायार्थिक नय अनुभूति और उपचार से द्रव्य-गुण-पर्याय में अभेद भाव भी मानता हैं; जैसे घटादि पदार्थ मृद् द्रव्य से अलग नहीं है। ज्ञानलक्षणा से इसमें मृद् द्रव्य, रुपादि गुण और कम्बुग्रीवादि पर्याय की प्रतीति होती हैं।" पर्यायार्थिक नय के भेद :- नय के मुख्य सात भेद में से (4) ऋजुसूत्र (5) शब्द (6) समभिरुढ (7) एवंभूत - ये चार पर्यायार्थिक नय हैं।40 अभिधान राजेन्द्र कोश में पर्यायार्थिक नय के नित्य-अनित्य, सादि-अनादि, शुद्ध-अशुद्ध की अपेक्षा से छ: भेद भी बताये गये हैं, जो संक्षेप में निम्नानुसार है - 1. अनादि नित्य - यह भेद शुद्ध पर्यायार्थिक कहलाता है। जैसे - मेरु पर्वत अचल हैं। 2. सादि नित्य - सिद्ध आत्मा का स्वरुप 3. सदनित्य - सत्ता की गौणता अध्रुव होने से उत्पाद-व्यय का ग्राहक यह नय अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय हैं। जैसे एक ही समय में द्रव्य की पूर्वपर्याय का नाश और अपर पर्याय की उत्पत्ति होती हैं। नित्याऽशुद्ध - यह नय द्रव्य की सत्ता अर्थात् ध्रुवता को ग्रहण करता है। जैसे - श्याम घट को पकाने पर उसके रक्त होने से उसमें शुद्ध रुप सत्ता का ग्रहण करने पर 'नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक' नय होता हैं। नित्य-शुद्ध - उपाधि होने पर द्रव्य के निरुपाधिक स्वरुप का ग्रहण करानेवाला नय नित्यशुद्ध पर्यायार्थिक नय है। जैसे -- अष्ट कर्मो से उपाधियुक्त हुआ संसारी जीव निरुपाधिक रुप से सिद्ध कर्मोपाधि रहित जीव के समान ही नित्य शुद्ध है। यह नय उपाधि से रहित शुद्ध द्रव्य का ही ग्रहण कराता हैं। अशुद्धानित्य - जो अशुद्ध भी हो और अनित्य भी हो, उसे ग्रहण करानेवाला अशुद्धनित्य पर्यायार्थिक नय है। जैसे - संसारी जीव कर्मोपाधि के कारण अशुद्ध भी है और जीव की संसारी दशा विनश्वर होने से संसारी जीव अशुद्धानित्य हैं। सात नय : सामान्यतया जैन दर्शन में सात नय प्रचलित हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में विभिन्न जैनागमानुसार नैगमादि सातों नयों का वर्णन करते हुए कहा है1. नैगम नय : सामान्य-विशेष (भेदाभेद) का ग्राहक होने से जिसको अनेक (प्रकार के) ज्ञान के द्वारा जाना जाय, वह नैगम नय है अथवा निश्चित (प्रयोजना लक्ष्यरुप) अर्थबोध में जो कुशल है - वह नैगम नय है अथवा जिसके बोध का मार्ग एक नहीं अपितु अनेक है वह नैगम नय है। अथवा जो अर्थबोध में कुशल है वह नैगम नय हैं। अथवा महासत्तारुप सामान्य विशेष ज्ञान के द्वारा एक प्रकार के मान से जो नहीं 6. 30. अ.रा.पृ. 4/24693; 2470 31. अ.रा.पृ. 5/211 32. अ.रा.पृ. 5/211; नियमसार, गाथा 14 की टीका 33. अ.रा.पृ. 5/211; प्रज्ञापनासूत्र, 5 पद; पञ्चास्तिकायसंग्रह 10 की टीका; जिनागमसार, पृ. 459-460 34. अ.रा.पृ. 5/211; आवश्यक मलयगिरि-1 अध्ययन; पञ्चाध्यायी 1/165; 35. अ.रा.पृ. 5/229; रत्नाकरावतारिका परिच्छेद-7; नियमसार-गाथा 19 की टीका 36. पञ्चाध्यायी-1/519, जिनागमसार, पृ. 682 37. श्री मोक्षशास्त्र-1/33 की टीका, पृ. 93 38. अ.रा.पृ. 5/229; सम्मतितर्क काण्ड 39. अ.रा.पृ. 5/229; द्रव्यानुयोग तर्कणा 5/3 40. अ.रा.पृ. 5/229; रत्नाकरावतारिका, परिच्छेद 7 41. अ.रा.पृ. 5/229, 230; द्रव्यानुयोगतर्कणा, अध्याय 6 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [129] जाना जाता वह नैगम नय हैं।42 अथवा 'निगम' का अर्थ 'जनपद' (देश) करने पर लोक में देश विशेष में जो शब्द जिस अर्थ विशेष के लिए नियत है, वहाँ पर उस अर्थ शब्द के (वाच्य-वाचक के) संबंध को जानने का नाम नैगम नय हैं। जैसे -मिट्टी के घडे के घी भरने हेतु ले जाने पर उसे घी के घड़े ले जा रहा हूँ - एसा कहना, उस प्रदेश विशेष में घडा, कुंभ कलशादि कहना। अभिधान राजेन्द्र में नैगम नय के विभिन्न ग्रंथो के अनुसार अनेक प्रकार के भेद दर्शाये गये हैं- यथा विशेषावश्यक भाष्य में इसके तीन भेद किये गये हैं 1. सर्वविशुद्ध - निर्विकल्पमहासत्ताग्राहक 2. विशुद्धाविशुद्ध - गाय, बैल, बछडे आदि के लिए 'गोत्व' सामान्य ग्राहक 3. सर्वविशुद्ध-विशेषवादी - गाय को गाय और बैल को बैल कहना। रत्नाकारावतारिका में धर्म-धर्मी की अपेक्षा से नैगम नय के तीन भेद किये गये हैं।5 1. धर्म - आत्मा सचेतन हैं। 2. धर्मी - वस्तु पर्यायवान् द्रव्य होता हैं। 3. धर्म-धर्मी - क्षणमात्र सुखी विषयासक्त जीव। तत्त्वार्थसूत्र में नैगम नय के दो भेद दर्शाये गये हैं161. सर्वपरिक्षेपी-समग्रग्राही - 'घट' पदार्थ में सोने, चांदी, पीतल, मिट्टी, लाल, काला, सफेद इत्यादि का भेद न करके 'घट' मात्र को ग्रहण करना। 2. देश परिक्षेपी-देशग्राही - विशेष अंश का आश्रय करके प्रवृत होनेवाला, जैसे घट को मिट्टी का या ताँबे का इत्यादि विशेष रुप से ग्रहण करना। 2. संग्रह नय : विशेषादि भेद रहित सामान्य मात्र को ग्रहण करनेवाला संग्रह नय हैं। यह सामान्य-विशेष आदि सब को एकसाथ ग्रहण करता हैं। इसके दो भेद हैं 1. परसामान्य - यह भेद रहित अंतिम सामान्य को ग्रहण करता है, जैसे-द्रव्य मात्र सत् हैं। 2. अपर सामान्य - सत्तारुप महासामान्य की अपेक्षा लघु जैसे द्रव्यत्व आदि सामान्य को अपर सामान्य कहते हैं । द्रव्यानुयोग तर्कणा में इन्हें सामान्यसंग्रह और विशेषसंग्रह के नाम से कहा गया हैं। 3. व्यवहार नय : संग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्थों का निषेध नहीं करते हुए विधान करके जो विशेष परामर्श करते हुए उसी को माने/स्वीकार करें, वह व्यवहार नय हैं।50 उदाहरण - जैसे जो सत् है, वह द्रव्य है या पर्याय ? एसा विमर्श करना । 4. ऋजुसूत्र नय : अतीत-अनागत (भूत-भविष्य) के त्यागपूर्वक जो केवल वर्तमान का बोध कराता है, वह ऋजुसूत्र नय हैं।52 यह नय वर्तमान वस्तु के लिङ्ग, वचन और निक्षेप की भिन्नता भी सामान्य रुप से ग्रहण करता हैं। यह नय स्वानुकूल कार्य प्रत्यय को ग्रहण करता है, परानुकूल को नहीं । 5. शब्द नय : शब्द के लिङ्ग, काल, कारक, वचन आदि के भेद के अर्थभेदपूर्वक बोध करानेवाले नय को शब्दनय कहते हैं। शब्दनय लिंगादि के भेद से अर्थ भेद कराता है, परन्तु पर्यायवाची शब्दों को समान मानता हैं।54 42. (क) सामान्यविशेषग्राहकत्वात्तस्यानेकेन ज्ञानेन मिनोति परिच्छिनत्तीति नैगमः । अथवा निगमा निश्चितबोघाः, तेषु कुशलो भवो वा नैगमः । अथवा नैको गमोऽर्थमार्गो यस्य स प्राकृतत्वेन नैगमः । निगमेषु वाऽर्थबोधेषु कुशलो भवो वा नैगमः। स्थानांग-3/3, अ.रा.पृ. 4/2157 (ख) .....नैकमानैर्महासत्ता-सामान्यविशेषज्ञानैमिमीते मिनोति वा नैगमः । (स्थानांग-7 वाँ ठाणां); अ.रा.पृ. 4/2157; विशेषावश्यक भाष्य-2/86-87 43. तत्वार्थभाष्य । 1/35, पृ. 61,62 44. अ.रा.पृ. 4/2157: विशेषावश्यकभाष्य 2188; 45. अ.रा.पृ. 4/1856; रत्नाकरावतारिका-7/7 से 10 46. तत्वार्थसूत्र 1/35 एवं उस पर भाष्य, पृ. 61, 62 47. अ.रा.पृ. 4/1856; 7/73; तत्वार्थभाष्य 1/35 48. अ.रा.पृ. 4/1856; रत्नाकरावतारिका 7/14, 15, 16, 19, 20 49. अ.रा.पृ. 773, 74; द्रव्यानुयोगतर्कणा - 6/12 50. अ.रा.पृ. 4/1856; रत्नाकरावतारिका - 7/23 51. वही, वही 7/24 52. अ.रा.पृ. 2/770; 4/1856; रत्नाकरावतारिका - 7/28 53. अ.रा.पृ. 2/770; 54. अ.रा.पृ. 2/770; 7/366 से 369; रत्नाकरावतारिका - 7/32-33; विशेषावश्यकभाष्य 2227 से 2235; स्थानांग 7/3, नयोपदेशतर्कणा 33 से 35 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [130]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन उदाहरण - (क) लिङ्ग - बालः, बाला। काल - बभूव, भवति, भविष्यति । कारक - बालकेन, बालकाय इत्यादि। वचन - तटः, तटौ, तटाः । आदि में भेद करना (ख) घट-कलश-कुम्भ आदि को समान मानना । 6. समभिरूढ नय : यह नय पर्यायवाची शब्दों में भी निरुक्ति भेद से अर्थ भेद ग्रहण करता हैं। जैसे - शक्र, पुरन्दर, इन्द्र आदि शब्द इन्द्र के वाचक होने पर भी समभिरुढ नय इसे भिन्न-भिन्न रुप से ग्रहण करता हैं। समभिरुढ नय के अनुसार 'घट' शब्द घट के लिए प्रयुक्त होगा और कलश का अर्थ विवाह आदि माङ्गलिक कार्यो का मङ्गल कलश होगा अतः शब्द नय की दृष्टि में अभिन्न दिखाई देनेवालें घट और कलश समभिरुढ नय की दृष्टि में भिन्न हैं।55 7. एवंभूत नय : जिस पदार्थ का जिस शब्द से बोध कराया जाता हो, उस पदार्थ में उसके बोधक शब्द के व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थानुसार क्रिया जिस काल में प्राप्त होती है, तब ही उस पदार्थ को उस शब्द के द्वारा संबोधन करना/सत्यरुप में ग्रहण करना एवंभूत नय हैं।56 जैसे राजा जिस समय राजचिह्न मुकुटादि धारण कर राजसभा में राजसिंहासन पर बैठकर राज्य संबंधी कार्य कर रहा हो, उसी समय उसे राजा कहना, अन्यत्र नहीं 57 जिस समय किसी देव या यज्ञ के द्वारा जब वह पुरुष या बालक दिया गया हो उसी समय उसका नाम देवदत्त या यज्ञदत्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं 158 इस प्रकार एवंभूत नय प्रत्येक वस्तु को जिस समय वह अपने नाम के अनुसार क्रिया करता हो, उसी समय उसे स्वीकार करता है, अन्यथा नहीं करता। नयसंख्या व्यवस्थापन: समीक्षा दृष्टि : अभिधान राजेन्द्र कोश में द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक नयों का विवरण प्रस्तुत करने के बाद 'नय' शब्द के 29 वें बिन्दु में निश्चय और व्यवहार - इन दो मूल नयों को स्वीकार किया गया है। आगे द्रव्यार्थिक नय का विवरण देते हुए अभिधानराजेन्द्र, भाग 4, पृ. 2469 पर द्रव्यार्थिक नय के 10 भेद बताये हैं। इसी प्रकार अभिधान राजेन्द्र के पञ्चम भाग में पर्यायार्थिक नय के छ: भेद बताये हैं (अभिधान राजेनद्र, 5/229)। भेद-प्रभेदों और लक्षणों को देखने से एसा प्रतीत होता है कि कहीं पर तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो भेद किये गये हैं और कहीं पर निश्चय और व्यवहार - ये दो भेद किये गये हैं। यहाँ यह प्रश्न होना स्वाभाविक है - क्या ये दोनों नय युगल आपस में पर्यायवाची है? या उनका कुछ अलग स्वरुप हैं? इनके भेद-प्रभेदों को देखने से हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते, इसलिए डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल द्वारा लिखित 'जिनवरस्य नयचक्रम्' में लिखित भेद समीक्षा के आधार पर उक्त प्रश्न का समाधान दिया जा रहा है। वहाँ पर मूल नयों की सूचना देनेवाली तीन कारिकाओं को उद्धृत किया गया हैं। द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र-गाथा 182 को उद्धत करते हुए कहा गया है कि "निश्चय और व्यवहार ये दो मूल नय हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों निश्चय-व्यवहार के हेतु हैं।" इसी तरह इसी की 183 वीं गाथा में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक को मूल नय कहा गया हैं। पञ्चाध्यायीकारने इन दोनों नययुगलों को अनर्थान्तर बताते हुए कहा है कि "पर्यायार्थिक अथवा व्यवहार ये दोनों एक ही हैं। इसी प्रकार का एक प्रयास 'आलाप पद्धति' में भी किया गया हैं। जिसमें कहा गया है कि द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र की गाथा 182 में नयों के मूल भेद जो निश्चय और व्यवहार माने गये हैं उसमें से निश्चय नय तो द्रव्याश्रित है और व्यवहार नय पर्यायाश्रित है; एसा समझना चाहिए 162 डो. हुकमचन्द भारिल्ल का मानना यह है कि उपर्युक्त प्रयास समन्वय मात्र है, किन्तु निश्चय-व्यवहार और द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक आपस में पर्यायवाची नहीं है क्योंकि द्रव्य स्वभावप्रकाशकनयचक्र गाथा 182 में निश्चय और व्यवहार को मूल नय स्वीकारने के तत्काल बाद गाथा 183 में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों को मूल नय कहा गया हैं। स्पष्ट है कि लेखक कुछ और स्पष्ट करना चाहते हैं इसलिए मूल नय के ये दोनों प्रकार दिखाये गये हैं। दोनों कारिकाओं को देखने से यह लगता है कि निश्चय और व्यवहार तो मूल नय हैं और द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय उनके हेतु हैं। इसका और स्पष्ट करते हुए डो. भारिल्ल का कहना है कि हेतु-हेतुक सम्बन्ध का भी दो प्रकार से अर्थ किया जा सकता हैं 55. अ.रा.पृ. 4/1857; 7/417, स्थानांग 3/3, रत्नाकरावतारिका 7/36-37, विशेषावश्यकभाष्य 2236 से 2250 56. अ.रा.पृ. 3/50,51; 41/1857, रत्नाकरावतारिका 7/40, 41 57. अ.रा.पृ. 3/51 58. अ.रा.पृ. 4/1857 69. "णिच्छयववहारणय मूलमभेयाणयाण सव्वाणं । णिच्छयसाहणहेउ पज्जयदव्वत्थियं मुणह ॥" - द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र 182; आलापपद्धति, गाथा 3 60. 'दो चेव य मूलणया भणिया दव्वत्थ पज्जयत्थगया । अण्णे असंखसंख्या ते तब्भेया मुणेयव्वा । - द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र 182, गाथा 183 61. 'पर्यायार्थिक नय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचार मात्रः स्यात् । - पञ्चाध्यायी-1/521 62. आचार्य शिवसागर स्मृति ग्रंथ, पृ. 561 से जिनवरस्य नयचक्रं, पृ. 26 पर उद्धरित Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [131] "यहाँ पर द्रव्यार्थिक नय निश्चय नय का और पर्यायार्थिक नय व्यवहार नय का हेतु है - एसा कहने के स्थान पर यह भी कहा जा सकता है कि 'द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक' -दोनों ही नय निश्चय-व्यवहार दोनों नयों के हेतु हैं। क्योंकि द्रव्याथिक के अनेक भेदों को अध्यात्म में व्यवहार कहा जाता है तथा पर्यायार्थिक के अनेक भेदों का कहीं-कहीं निश्चय के रुप में भी कथन मिल जायेगा 163 डॉ. हुकमचन्द भारिल्लने 'आलाप पद्धति'64 के कथन के आधार पर इन दोनों नय युगलों को अलग-अलग शैली के नय युगल बताया हैं (1) आगम पद्धति के नय - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक (2) अध्यात्म पद्धति के नय - निश्चय और व्यवहार डो. हुकमचन्द भारिल्ल ने 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' के आधार पर नय युगलों में हेतु-हेतुक संबन्ध बताकर आगम को अध्यात्म का हेतु बताते हुए उनमें हेतु-हेतुक संबन्ध बताया हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय को तो निश्चय-व्यवहार के हेतु होने से मूल नय कहा गया हैं। हमने यहाँ सभी मतों का संग्रह करके निम्न अभिलेखों के द्वारा नयों के वर्गीकरण को प्रस्तुत करने का प्रयास किया हैं 63. जिनवरस्य नयचक्रम्, पृ. 27, 28 - ले. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल 64. पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयौ द्वौ, निश्चयो व्यवहारश्च । - आलापपद्धति, पृ. 228 65. विशेष विवरण हेतु 'जिनवरस्य नयचक्रम्' - ले. डॉ. हुमकचन्द भारिल्ल का अवलोकन करें । (शास्त्र परलोकविधौ शास्त्रात्, प्रायो नान्यदपेक्षते । आसन्नभव्यो मतिमान्, श्रद्धाधनसमन्वितः॥1॥ उपदेश विनाऽप्यर्थ-कामौ प्रति पटुर्जनः। धर्मस्तु न विना शास्त्रा-दिति तत्रादरो हितः ॥2॥ अर्थाऽऽदावविधानेऽपि, तदभावः परं नृणाम्। धर्मेऽविधान्तोऽनर्थः, क्रियोदाहरणात्परः । ॥ तस्मात्सदैव धर्मार्थी,शास्त्रयत्नः प्रशस्यते । लोके मोहान्धकारेऽस्मिन्, शास्त्राऽऽलोक प्रवर्तकः ।। पापामयौषधं शास्त्र, शास्त्रे पुण्यनिबन्धनम्। चखं सर्वत्रगं शास्त्र,शास्त्र सर्वार्थसाधनम् ॥5॥ न यस्य भक्तिरेतस्मि-स्तस्य धर्मक्रियाऽपि हि। अन्धप्रेक्षाक्रिया तुल्या, कर्मदोषादसत्फला ॥6॥ यः श्राद्धो मन्यते मान्या-नहङ्कारविवर्जितः। गुणरागी महाभाग स्तस्य धर्मक्रिया परा ॥ यस्य त्वनादरः शास्त्रे, तस्य श्रद्धादयो गुणाः। उन्मत्तगुणतुल्यत्वा-न प्रशंसाऽऽस्पदं सताम् ॥8॥ मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जलं वस्त्रस्य शोधनम्। अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः ॥७॥ शास्त्रभक्तिर्जगद्वन्धै-र्मुक्तिदूती परोदिता। अत्रैवेयमतो न्याय्या, तत्प्राप्त्यासन्न भावतः 10॥ -अ.रा.पृ.4/2720 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [132]... तृतीय परिच्छेद नय कोष्टक : 1. नय66 निश्चय नय67 68 व्यवहार नय शुद्धनिश्चय नय (केवलज्ञानी आत्मा) अशुद्धनिश्चय नय मत्यदिज्ञानी आत्मा (छद्मस्थ)) 69 सद्भूत व्यवहार नय असद्भूत व्यवहार नय अनुपचरित (शुद्ध सद्भूत व्यवहार) उपचरित (अशुद्धसद्भूत व्यवहार) अनुपचरित (संश्लेषित असद्भूत व्यवहार) उपचरित (असंश्लेषित असद्भूत व्यवहार) सोपाधिक निरुपाधिक अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 66. अ.रा., पृ. 4/1892; आलापपद्धति, द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र, पृ. 228; बृहद्र्व्य संग्रह, गाथा 3 की टीका, पृ. 19; द्रव्यानुयोगतर्कणा-8/13; 67. अ.रा., पृ. 4/1892, तत्र निश्चयो द्विविधः; शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च । - द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र से जिनवरस्यनयचक्रं, पृ. 74 पर उद्धृत; द्रव्यानुयोगतर्कणा 8/1-2, 68. अ.रा.पृ. 4/1892; द्रव्यस्वभावप्रकाश नयचक्र, पृ. 228; जिनवरस्य नयचक्रम, पृ. 108 69. वही Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय कोष्टक : 2 शुद्ध द्रव्यार्थिक (कर्मोपाधि रहित) शुद्ध द्रव्यार्थिक द्रव्यार्थिक द्रव्याथिक 71 शुद्ध द्रव्यार्थिक अशुद्ध भेदकल्पनारहित द्रव्यार्थिक (नित्यतावद् 73) 70. अ. रा. पृ. 4 / 1876; सम्मतितर्क, काण्ड 1/12 71. अ. रा.पू. 4/2469; 2470 द्रव्यानुयोगतर्कणा 5/9 से 19 72. अ.रा.पृ. 5/229, 230; द्रव्यानुयोगतर्कणा 6/2 से 7 73. द्रव्य के नित्य होने के कारण सत्ता को मुख्य और उत्पाद व्यय को गौण मानने से । अनादित्य अशुद्ध द्रव्यार्थिक कर्मोपाधि के कारण नय सादिनित्य सदनित्य अशुद्ध द्रव्यार्थिक उत्पादव्यय सापेक्ष नित्योऽशुद्ध नित्यशुद्ध अन्वयद्रव्यार्थिक भेद कल्पना ग्रहण करने से पर्यायार्थिक 72 स्वद्रव्यादिग्राही परद्रव्यादि ग्राही गुणपर्याययुक्त द्रव्य को एक मानने से द्रव्यार्थिक नय अशुद्धनित्य परमभाव ग्राही द्रव्यार्थिक नय अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [133] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय74 [134]... तृतीय परिच्छेद 76 समास नय 75 व्यास नय (अनेक विकल्प से अनेक प्रकार से) _77 द्रव्याथिक पर्यायार्थिक 78 नैगम 80 संग्रह व्यवहार सर्वविशुद्ध केवल सामान्यवादी विशेषविशुद्ध सामान्यविशेषवादी सर्वविशुद्ध विशेषवादी सामान्य (सर्वव्यापक धर्मास्तिकादि तक द्रव्य की प्राप्ति होने पर छः द्रव्यों की प्राप्ति) संग्रह विशेष (देशव्यापक) सामान्य संग्रहभेदक जीव के भेद प्रभेद व्यवहार का संग्राहक विशेष संग्रहभेदक व्यवहार 82 संग्रह धर्मयुग्मगोचर धर्मीयुग्मगोचर धर्मधर्मी-आलम्बन से एक द्वित्रि चार पांच छह पर (द्रव्य सत् है) अपर (अवान्तर सामान्य ग्राही) सतत, आगामी पृष्ट पर... 74. अ.रा.पृ. 4/1855 75. अ.रा.पृ. 4/1855; सर्वार्थसिद्ध-1/33 की टीका; पंचाध्यायी-1/589; गोम्मटसार, कर्मकांड, गाथा 894; सम्मतितर्क 3/47 76. अ.रा.पृ. 4/1855, द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र गाथा-183, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 31, 32; पञ्चाध्यायी-1/516, 517 77. अ.रा.पृ. 4/1856, 2470 78. अ.रा.पृ. 4/2157 79. अ.रा.पृ. पृ. 4/1856 80. अ.रा.पृ. 773, 774 81. अ.रा.पृ. 7/74; नयोपदेश सटीक-23 82. अ.रा.पृ. 4/1856 83. अ.रा.पृ. 6/932, 933; विशेषावश्यकभाष्य 2215, 2219 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [135] नय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ एवंभूत सूक्ष्म (क्षणिकपर्याय) स्थूल (मनुष्यादिपर्याय) शब्द समभिरुढ एवंभूत निक्षेप प्रमाण और नयों का निक्षेप से सीधा सम्बन्ध है क्योंकि निक्षेप निहित वस्तु स्वरुप को ही प्रमाण और नयों के द्वारा जाना जाता हैं इसलिए नयों के परिचय के बाद निक्षेपों को महत्त्व दिया जाना उचित हैं। तत्वार्थ सूत्र में प्रथम अध्याय में प्रमाणोल्लेख के पूर्व ही निक्षेपों का संकेत किया गया है। वहाँ कहा गया है कि जीवादि सात तत्त्वों का न्यास नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव नामक चार निक्षेपों से ही सम्भव हो पाता है। इन चार निक्षेपों में न्यस्त सात तत्त्वों को प्रमाण और नयों के द्वारा जाना जाता है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्य आदि विस्तारक ग्रन्थों में इनका विस्तार समझाया गया हैं। शास्त्रों (जैनागम ग्रंथो) का, उनमें आये हुए अध्ययन, उद्देश्य आदि को नामादि भेदों के द्वारा व्यवस्थित/नियत/निश्चित करना 'निक्षेप' कहलाता हैं। 7 आचारांग में यथाभूत अर्थनिरपेक्ष अभिधान (नाम) मात्र को 'निक्षेप' कहा हैं ।88 अनुयोग द्वार सूत्र में आवश्यकादि के यथासंभव नामादि भेदों की प्ररुपणा को 'निक्षेप' कहा हैं।89 जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति में क्रमानुसार प्राप्त व्याख्यायित शास्त्रों के नामादि के न्यास को 'निक्षेप' कहा है 190 निक्षेप के भेदो की व्याख्या करने से पूर्व अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि तत्त्ववेत्ता जिन-जिन जीवादि पदार्थों को जानता हो, उनका भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव -इन निक्षेपचतुष्टयपूर्वक चिन्तन करना चाहिए। और जिन पदार्थो के बारे में वह नहीं जानता हो, उनका भी निक्षेपचतुष्टयपूर्वक चिन्तन करना चाहिए। क्योंकि एसी कोई भी वस्तु नहीं है जो नामादिनिक्षेप से व्यभिचरित हो। निक्षेप तीन प्रकार से :1. ओघनिष्पन्न : श्रुत शास्त्र के अध्ययनादि के द्वारा निष्पन्न 'ओघनिष्पन्न' कहलाता हैं। वह चार प्रकार से है- अध्ययन, अक्षीण, आय, क्षपण।2 क. अध्ययन जिससे शिष्य के द्वारा गुरु के पास क्रमपूर्वक अध्ययन किया जाय । पढा जाय, उसे अध्ययन कहते हैं। यह विशिष्ट अर्थध्वनि के संदर्भ रुप श्रुत का भेद हैं। वह सूत्र, अर्थ और तदुभय भेद से तीन प्रकार का हैं, जिसके अनेक प्रभेद भी राजेन्द्र कोश में दर्शाये गये हैं। ख. अक्षीण अ.रा.भा.1 पृ. 149 पर जो क्षय को प्राप्त नहीं होता, उसे 'अक्षीण' कहा है परन्तु यहाँ सामायिकादि श्रुत के विषय में भाव-अध्ययनादि को 'अक्षीण' कहते हैं। ग. आय ओघनिष्पन्न निक्षेप के द्वारा सामान्यतः जिससे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और सामायिकादि का लाभ होता है ऐसे अङ्ग, अध्ययन, उद्देश्यादि श्रुत को 'आय' कहते हैं। यहाँ इसके विभिन्न भेद-प्रभेद भी वर्णित 84. अ.रा.पृ. 4/1856, 5/229, तत्वार्थसूत्र 1/33 पर सर्वार्थसिद्धि टीका; श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 31, 32 नी टीका 85. अ.रा.पृ. 2/270 86. तत्वार्थसूत्र 1/35 एवं उस पर तत्त्वार्थ भाष्य 87. अभिधानराजेन्द्र, पृ. 4/2027; विशेषावश्यकभाष्य 912 88. आचारांग- 1/2/1 89. अ.रा.पृ. 4/2027 90. अ.रा.पृ. 4/2027; जंबुद्वीप प्रज्ञति, । वक्षस्कार 91. जत्थ य जं जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि अन जाणेज्जा, चउक्कगं निक्खिवे तत्थ ।। - अ.रा.पृ. 4/2027 92. अ.रा.प्र.4/2027,3/128 93. अ.रा.पृ. 1/231 94. अ.रा.पृ. 3/128 95. अ.रा.पृ. 3/128, 2/321 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [136]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन घ. क्षपण सामायिकादि श्रुत के विषय में भाव-अध्ययन को 'क्षपण' कहते हैं। यहाँ इसके नामादि भेद-प्रभेद भी बताये गये हैं। 2. नाम-निक्षेप :नाम निक्षेप चार प्रकार का हैंक. नाम निक्षेप - अर्थात् (1) अमुक नाम का पदार्थ या (2) नाम जैसे कि इन्द्र नाम का बालक अथवा (3) इन्द्र यह नाम। इसी प्रकार जैनत्व के किसी भी गुणविहीन एकमात्र नाम से जैन, अथवा 'जैन' यह नाम निक्षेप से जैन है। ख. स्थापनानिक्षेप - अर्थात् मूल व्यक्ति की मूर्ति, चित्त, फोटो आदि या आकृति । यह मूर्ति आदि में मूल वस्तु की स्थापना अर्थात् धारणा की जाती है। जैसे मूर्ति को लक्ष्य करके कहा जाता है, 'यह महावीर स्वामी है। मानचित्र में कहा जाता है- 'यह भारत देश हैं', 'यह अमेरिका है' -इत्यादि व्यवहार स्थापना निक्षेप से हैं। ग. द्रव्यनिक्षेप द्रव्य निक्षेप का अर्थ है मूल वस्तु की पूर्व-भूमिका, कारण-अवस्था अथवा उत्तर अवस्था की आधार रुप वस्तु, या चित्त के उपयोग से रहित क्रिया। जैसे कि भविष्य में राजा होनेवाले राजपुत्र को किसी अवसर पर 'राजा' कहा जाता है, वह द्रव्य राजा है। तीर्थंकर होनेवाली आत्मा के विषय में तीर्थंकर बनने से पहले भी 'मेरु पर तीर्थंकर का अभिषेक होता है' इत्यादि वचन कहे जाते हैं। अथवा जब समवसरण पर बैठकर तीर्थ की स्थापना नहीं कर रहे हैं किन्तु विहार कर रहे हैं, तब भी उन्हें तीर्थंकर कहा जाता हैं। यह तीर्थंकर अवस्था की आदान भूत अथवा आधारभूत वस्तु हैं। इसी प्रकार चंचल चित्त से किया जानेवाला प्रतिक्रमण यह द्रव्य प्रतिक्रमण है, द्रव्य आवश्यक क्रियाभेद हैं। घ. भावनिक्षेप नाम विशेष का अर्थ यानी भाव, वस्तु की जिस अवस्था में ठीक प्रकार से लागू हो, उस अवस्था में वस्तु का भाव निक्षेप माना जाता हैं। जैसे कि समवसरण में देशना दे रहे हैं तब तीर्थंकर शब्द का अर्थ यानी भाव तीर्थ को करनेवाले, देशना देकर तीर्थ को चलानेवाले - यह लागू होता है। अतः वे तीर्थंकर भाव-निक्षेप में गिने जाते हैं। 'साधुत्व के गुणोंवाला साधु 'देव-सभा में सिंहासन पर ऐश्वर्य समृद्धि से शोभायमान इन्द्र' आदि भाव-निक्षेप के दृष्टान्त हैं। यहाँ जैसे 'द्रव्य-निक्षेप' कारणभूत पदार्थ में प्रयुक्त होता है वैसे ही बिल्कुल कारण भूत नहीं, किन्तु आंशिक रूप से समान दिखायी देनेवाली तथा उस नाम से संबोधित गुणरहित मिलती-जुलती वस्तु में भी प्रयुक्त होता है। जैसे कि अभव्य आचार्य भी द्रव्य आचार्य हैं। प्रात:काल किये जानेवाला दातुन, स्नानादि भी द्रव्य आवश्यक क्रिया हैं। एक व्यक्ति में भी चारों निक्षेप घटित हो सकते हैं। शब्दात्मक नाम यह नाम निक्षेप है। आकृति यह स्थापना निक्षेप है। कारण भूत अवस्था यह द्रव्य निक्षेप है। उस नाम की भाव-अवस्था यह भाव निक्षेप हैं। 3. सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप : सूत्र के आलापक यानी 'पाठों' की नाम-स्थापनादि भेदपूर्वक व्यवस्था या निष्पत्ति को 'सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप कहते हैं। निक्षेप का फल : अभिधान राजेन्द्र कोश में निक्षेपपूर्वक पदार्थ चिन्तन का फल बताते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि "वस्तु के अप्रस्तुत अर्थ को दूर करने और प्रस्तुत अर्थ को प्रकट करने में निक्षेप फलवान् (सफल) हैं। यहीं पर आचार्यश्रीने निक्षेप के विन्यास, गणनिक्षेपण, मोक्ष, मोचन (मुक्ति) और परित्याग-अर्थ भी बताया हैं 100 पमेज्ज - प्रमेय (त्रि.) 5/497 जैनागमों में द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु को 'प्रमेय' कहा है। यहाँ न्यायोक्त आत्मा, शरीरादि प्रमेयों का संक्षिप्त में खंडन किया गया हैं। पयत्थ - पदार्थ (पुं.) 5/504 क्रिया-कारक के विधानपूर्वक यथावस्थित अर्थज्ञान की प्ररुपणा के द्वारा जो वाच्य बने उसे 'पदार्थ' कहते हैं। यहाँ जैनागमानुसार चार-सात-आठ-नव (नवतत्त्व) प्रकार से पदार्थ का वर्णन किया गया है। साथ ही न्यायोक्त षोडशपदार्थवाद का खंडन किया गया है। परमाणु - परमाणु (पुं.) 5/540 पुद्गल के अत्यन्त सूक्ष्म (अविभाज्य) अंश को 'परमाणु' कहते हैं। यहाँ परमाणु के भेदों का परिचय दिया गया हैं। परिणाम - परिणाम (पुं.) 5/592 आत्मा का बहुत लम्बे काल तक पूर्वापर विचारजन्य धर्मविशेष, सर्वप्रकार से जीव-अजीव आदि पदार्थो के जीवत्वादि के अनुभव का प्रभाव, कथंचित् स्थिर वस्तु की पूर्वावस्था का त्याग और उत्तरावस्था में गमन, पदार्थ की पर्यायान्तर की प्राप्ति और द्रव्य का तद्रुप 97. 96. अ.रा.पृ. 3/128, 2/733 98. अ.रा.पृ. 4/2027; अनुयोगद्वारसूत्र तृतीयद्वार 100. अ.रा.पृ. 4/2027 99. अ.रा.पृ. 4/2027, तत्वार्थसूत्र 1/5 पर तत्वार्थ भाष्य अ.रा.पृ. 4/2027; व्यवहारसूत्र, । उद्देश Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [137] वर्तन 'परिणाम' कहलाता हैं। यहाँ जीवाजीव, गति, पुद्गल और उनके भेद-प्रभेद का वर्णन एवं उनके परिणाम तथा तदनुसार कर्मबन्ध का वर्णन किया गया हैं। परिहरणदोस - परिहरणदोष (पुं.) 5/658 वादी के द्वारा स्वदर्शन में उपन्यस्त दोष का असम्यक् परिहार 'परिहरण दोष' कहलाता हैं। परोक्ख - परोक्ष (न.) 5/697 इन्द्रिय और मन की व्यवधान/सहायता से आत्मा को असाक्षात्कारी अर्थप्रत्यय होता है, उसे 'परोक्ष' कहते हैं। जो अस्पष्ट होता है, उसे 'परोक्ष' कहते हैं। प्रवाय - प्रवाद (पुं.) 5/787 उत्कृष्ट रुप से स्वाभिमत अर्थ का प्रतिपादन, अन्योन्य पक्ष-प्रतिपक्ष के भाव से मात्सर्यभाव, आचार्य का पारम्परिक उपदेश, प्रकृष्ट वाद और सर्वज्ञ के वाक्य को 'प्रवाद' कहते हैं। यहाँ सर्वज्ञ वचनानुसार अन्यतीर्थिकों के प्रवाद (प्रलापों) की परीक्षा की गई हैं। प्रागभाव - प्रागभाव (म.) 5/822 वस्तु की उत्पत्ति के पूर्व वस्तु का जो अभाव होता है, उसे 'प्रागभाव' कहते हैं। जिसकी निवृत्ति होते ही कार्य की उत्पत्ति होती है, उसे 'प्रागभाव' कहते हैं। पुरिसवाइ (ण) - पुरुषवादिन् (पुं.) 5/1038 पुरुष ही सब कुछ है, जो हुआ-हो रहा है और होगा, वह सब पुरुष के अधीन है-ऐसी प्रतिज्ञा के साथ वाद करनेवाले ईश्वरवादियों को 'पुरुषवादी' कहते हैं। पुहत्त - पृथकत्व (न.) 5/1065 'पृथकत्व' शब्द राजेन्द्र कोश में विस्तार, बहुत्व, पार्थक्य, ग्रन्थविभाग, नैयायिक संमत गुण का एक भेद इत्यादि अर्थो में प्रयुक्त हैं। सम्मति तर्क के अनुसार संयुक्त द्रव्य भी जिस कारण से 'यह भिन्न है' - एसा ज्ञान होता है, उसके भेद (अपोद्धार) व्यवहार का कारण 'पृथक्त्व' नामक गुण है -एसा महर्षि कणाद ने कहा है। यहाँ पर स्थानांग सूत्र एवं सम्मति तर्क के आधार पर 'पृथक्त्व' की विस्तृत व्याख्या दी गई हैं। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द और मूर्तस्वभावयुक्त, संघातभेदनिष्पन्न, पूरण-गलन स्वभाववाला द्रव्य 'पुद्गल' कहलाता है। यहाँ पुद्गल का स्कंध, देश, प्रदेश और परमाणु - इन चारों भेद एवं उनके प्रभेदपूर्वक विस्तृत परिचय दिया गया हैं। फोड - (स्फोट) (पुं.) 5/1161 पूर्व-पूर्व के उच्चरित वर्ण के अनुभवसहित चरमवर्ण के द्वारा व्यङ्ग्य अर्थ के प्रत्यायक अखंड शब्द को स्फोट कहते हैं। यह विषय व्याकरण दर्शन का है। अभिधानराजेन्द्र में जैनसिद्धान्तसम्मत अर्थप्रत्ययसिद्धान्त को सम्मतितर्क, प्रथमकांड की 32 वीं गाथा की टीका के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। बन्ध - बन्ध (पुं.)5/1164 जीव और कर्मपुद्गल का संश्लेष, जीव के द्वारा नये कर्मो का ग्रहण, कषाययुक्त आत्मा का कार्मण वर्गणा के पुद्गलों से संश्लेष, आठों प्रकार के कर्म पुद्गलों के द्वारा जीव के प्रत्येक प्रदेश को चिपकना, प्रकृति-स्थिति-अनुभाग (रस) और प्रदेशात्मक कर्मपुद्गलों की जीव का स्वयं के व्यापार क्रिया द्वारा स्वीकार करना 'बन्ध' कहलाता है। यहाँ 'बन्ध' तत्त्व के भेद, प्रभेद, शुभाशुभ निमित्त से होनेवाले बन्ध का विभिन्न द्वारों से विवेचन करके अंत में कहा है कि, जयणा (जीवदया) में यत्नशील आत्मा को कर्मबन्ध नहीं होते। बंभवादि (ण) - ब्रह्मवादिन् (पुं.) 5/1282 ब्रह्माद्वैतवादी को 'ब्रह्मवादी' कहते हैं। वें 'ब्रह्म सत् जगन्मिथ्या' -एसी प्ररुपणा करते हैं। बुद्धि - बुद्धि (स्त्री.)5/1326 सांख्योक्त महत्तत्व के नाम से कथित जडबोध, अध्यवसाय, मत्यादि पाँचो प्रकार का ज्ञान, उपयोगरुप विशेष ज्ञान, शब्दार्थ के श्रवणमात्र का ज्ञान 'बुद्धि' कहलाता है। यहाँ बौद्धोक्त बुद्धि के क्षणिकत्त्व का निरास, बुद्धि के गुण एवं जैनागमोक्त औत्पादिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि का वर्णन किया गया हैं। भाव - भाव (पुं.) 5/1492 सत्ता, स्वभाव, अभिप्राय, चेष्टा, आत्मा, जन्म, सुख, पदार्थ, विभूतिवान प्राणी आदि के विषय में चिन्तन, नाट्योक्ति, हृदयगत अवस्था मानस विकार, चित्ताभिप्राय, मानसिक परिणाम, अन्तःकरण की परिणति, सत्श्रद्धानरुप अध्यवसाय, धर्मश्रवण से विरति (त्याग) के प्रति उत्पन्न उत्साह, स्त्री चेष्टा, घट-पटादि वस्तु आदि विषय में 'भाव' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। यहाँ भाव निर्वचन, 'सर्व शून्य' मत का पूर्वपक्ष, उसका निराकरण, विभिन्न प्रकार से भाव की व्याख्या, भाव द्वार, औपशमिकादि भावों का कर्म के विषय में चिन्तन, लौकिक-लोकोत्तर प्रशस्त अप्रशस्त भाव वर्णन एवं तत्संबन्धी दृष्टांत वर्णित हैं। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [138]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन भूयवाद - भूतवाद (पुं.) 5/1600; भूयावाद - भूतवाद (पुं.) 5/1601 अनुगत-व्यावृत्त, अशेष-विशेष, सभेद-प्रभेद सहित समग्र सद्भूत पदार्थ या प्राणी संबन्धी वाद 'भूतवाद' कहलाता हैं। मण - मनस् (नपुं.) 6/74 'मण' शब्द का संस्कृत रुपान्तर 'मनस्' हैं। संस्कृत में 'मण' शब्द मान विशेष (तौल) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 'मनस्' शब्द दर्शनशास्त्र में प्रयुक्त है। जिसके द्वारा जाना जाय/बोध किया जाय/मनन किया जाय उसे 'मन' कहते हैं। अभिधानराजेन्द्र में 'मनस्' शब्द के अन्तर्गत आत्मा और मन का पार्थक्य, मन की अप्राप्यकारिता, द्रव्य मन और भाव मन-ये दो भेद, मन की देहमात्रव्यापिता एवं विपक्ष का खंडन, द्रव्य मन की बहिर्गति, मन के व्यञ्जनावग्रह न होना-इन विषयों का पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष सहित विस्तृत विवेचन किया गया हैं। मयंतर - मतान्तर (नपुं.)6/106 रागादि रहित होने से जिनेश्वरों का मत अविरुद्ध और एक ही होता है। एक ही विषय में एक आचार्य के मत से विरुद्ध दूसरे मत को 'मतान्तर' कहते हैं। जैसे युगपत्केवलदर्शन और केवलज्ञान के उपयोग में सिद्धसेन दिवाकर और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का मत । यह मतभेद/मतान्तर आचार्यों के अलग अलग वाचना, सम्प्रदायादि दोषों के कारण होते हैं। माउयाणुओग - मातृकानुयोग (पुं.) 6/285 उत्पाद-व्यय-ध्रुव लक्षणा त्रिपदी के अनुयोग को 'मातृकानुयोग' कहते हैं। मियप्पवाद - मितात्मवाद (पुं.) 6/235 "आत्माएँ सीमित है, अतः आत्मा मोक्ष में जाकर पुनः संसार में जन्म लेती हैं" -इस प्रतिज्ञा पूर्वक किये जानेवाले वाद को 'मितात्मवाद' कहते हैं। मियावादि - मितवादिन् (पुं.) 6/286 परिमित अक्षर बोलकर वाद करनेवालों को 'मितवादी' कहते हैं मूलपयत्थ - मूलपदार्थ (पुं.)6/377 कणाद ऋषि परिकल्पित द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय रुप छ: पदार्थों को 'मूल पदार्थ' कहते हैं। मोक्ख - मोक्ष 6/431 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री सर्वथा त्याग, अत्यन्त अलग भाग, मुक्ति, संसार के प्रतिपक्ष रुप, दुःख का नाश, कृतकर्मनाश, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र के द्वारा कर्म का अत्यन्त नाश, जीव के रागादि एवं रोगादि दुःखों के क्षयरुप अवस्थाविशेष, सर्वकर्मनाश और आत्मा के स्वाभाविक स्वरुप की प्राप्ति को 'मोक्ष' कहते हैं। यहाँ पर आचार्यश्रीने 'मोक्ष' तत्त्व का जैन दर्शन सम्मत विस्तृत विवेचन तो किया ही है साथ ही अन्य दर्शन सम्मत 'मोक्ष' के अन्यदर्शनमान्य स्वरुप का खंडन भी किया हैं। लक्खण - लक्षण (नपुं.)6/591 जिस चिह्न द्वारा पदार्थ का बोध होता है, जो पदार्थ का स्वरुप है, उसे लक्षण कहते हैं। यहाँ पर आचार्यश्रीने नाम लक्षण, स्थापना लक्षण, द्रव्य लक्षण, सामान्य लक्षण, उत्पाद लक्षण, विगम लक्षण, नाश लक्षण, वीर्य लक्षण और भाव लक्षण का विस्तृत वर्णन किया है, साथ ही विनाशवादी सौगतों का खंडन भी किया हैं। लिंग - लिङ्ग (नपुं.) 6/656 जिस विशेषण (चिह्न) के द्वारा अतीन्द्रियार्थ या परोक्ष पदार्थ या विषय का ज्ञान होता है, उसे 'लिङ्ग' कहते हैं। यहाँ साधु के बाह्यवेशरुप लिङ्ग का स्वरुप एवं उसके महत्त्व की विस्तृत चर्चा की गई हैं। लोगायत - लोकायत (नपुं.) 6/750 प्रत्यक्ष मात्र प्रमाणवादी, जडमात्र पदार्थवादी बृहस्पति के मत (सिद्धांत, शास्त्र) को 'लोकायत' कहते हैं। वइसेसिय - वैशेषिक (पुं.) 6/764 _ 'विशेष' नामक अतिरिक्त पदार्थ के प्ररुपक कणाद शिष्य को और उनके सिद्धांत (शास्त्र, दर्शन, मत) को 'वैशेषिक' कहते हैं । वत्तव्वया - वक्तव्यता (स्त्री.)6/831 अध्ययनादि में प्रति अवयव के यथासंभव प्रतिनियत अर्थ कथन को 'वक्तव्यता' कहते हैं। यहाँ स्वसमय, परसमय और स्वसमयपरसमय -इन तीनों भेद से 'वक्तव्यता' का वर्णन किया गया हैं। वत्थु - वस्तु (न.) 6/879; वास्तु (न.) 6/880 जो रहता है वह, द्रव्य, पदार्थ, जिसमें गुण रहते हैं, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त द्रव्य, पूज्यपुरुष को किये गये नमस्कार, पूर्वान्तर्गत अध्ययन स्थानीय ग्रंथ विशेष, जिसमें साध्य-साधन धर्म रहते हैं वह, पक्ष आदि अनेक अर्थो में 'वस्तु' शब्द प्रयुक्त हैं। साथ ही यहाँ पर मकान के खात आदि के विषय में 'वास्तु' अर्थ में भी 'वस्तु' शब्द प्रयुक्त हैं । वाइ (ण) - वादिन् (पु.) 6/1054 वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति रुप चतुरङ्ग सभा में प्रतिक्षेपपूर्वक स्वपक्ष की स्थापना के लिए जो अवश्य बोलता है, उसे 'वादी' कहते हैं। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [139] वाद (य) - वाद (पुं.) 6/1075 चर्चा, विकथन, स्वदर्शन स्थापनारुप पूर्वपक्ष और पञ्चवयव, त्र्यावयव वाक्य के द्वारा प्राप्त छलजातिरहित भूतान्वेषण समर्थन को 'वाद' कहते हैं। __ अभिधानराजेन्द्र में भिन्न-भिन्न ग्रंथो के सूत्र एवं श्लोकों को उद्धृत करके उनका विशेष विवेचन किया हैं । समग्र विवेचन में वाद का लक्षण, जिगीषु का लक्षण, वाद के अंग, वादी-प्रतिवादी के लक्षण और कर्म, सभ्य का स्वरुप और उनके कर्तव्य, सभापति का स्वरुप और उसके कर्तव्य, वाद की सीमा, शुष्कवाद-विवाद-धर्मवाद भेद से त्रिविध भेद एवं स्वरुप बताते हुए एकान्तवाद में दूषण स्पष्ट किये गये हैं। अन्त में किसी के मत को दूषित न करने का उपदेश दिया गया हैं। समग्र विवेचन अत्यन्त विस्तार से दिया गया हैं, अत: जिज्ञासु को वहीं देखना चाहिए। विकप्प - विकल्प (पं.)6/1127%; विगप्प-विकल्प (पं.)6/1136 भेद, प्रकार, अध्यवसाय मात्र, चित्तविभम्र, अवस्तु विषय में शब्द बुद्धि, शब्द ज्ञान का अनुपाती वस्तुशून्य अर्थ, शब्दार्थ, बहुतों में अनेक समुदायि भेद के अवधारण को 'विकल्प' कहते हैं । विणयवादि (ण) - विनयवादिन् (पुं.) 6/1184 जो केवल विनय रुप क्रिया से ही साध्य की सिद्धि को इच्छते हैं, उन्हें 'विनयवादी' कहते हैं। विणाणवाइ - विज्ञानवादिन् (पुं.) 6/1187 नीलादि शेषविकल्पशून्य पारमार्थिक रागादि वासनाविशेष रहित बोध (ज्ञान) लक्षण के प्रतिपादक 'बौद्धों' को 'विज्ञानवादी' कहते हैं । यहाँ पक्ष-प्रतिपक्ष के तर्कपूर्वक स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार विज्ञानवाद का खंडन भी किया गया हैं। विप्परियास - विपर्यास 6/1196 तत्त्व में अतत्त्व और अत्त्व में तत्त्व का अभिनिवेश, हित में अहित की बुद्धि, जन्म, जरा-मरण-रोग-शोकादि उपद्रव, अनेक प्रकार से परिभ्रमण, अब्रह्मचर्य और पर्यायान्तर को 'विपर्यास' कहते हैं । विभज्जवाय - विभज्यवाद (पुं.) 6/1201 विभज्यवाद अर्थात् स्याद्ववाद । सर्वत्र अस्खलित अविसंवादी लोक व्यवहार के द्वारा सर्वव्यापी स्वानुभव सिद्ध कथन (वाद) को अथवा सम्यग् अर्थ को विभाग/पृथक्/अलग करके कहना - 'विभज्यवाद' कहा जाता हैं। विरुद्ध - विरुद्ध (त्रि.)6/1230 दर्शनशास्त्र में 'विरुद्ध' शब्द हेत्वाभासभेद के लिए प्रयुक्त है । साध्य के विपर्यय से ही जिसकी अन्यथानुपपत्ति निश्चित की जाये उसे विरुद्ध कहते हैं । अर्थात् साध्य के विपर्यय से, अविनाभूत हेतु साध्याविनाभाव भ्रान्ति के कारण प्रयुक्त किया जाता है तब वह विरुद्ध नामक हेत्वाभास होता है। जैसे पुरुष या तो नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, प्रत्यभिज्ञानादिमान् होने से । इस उदाहरण को स्पष्ट करते हुए आचार्यश्रीने विरुद्ध हेत्वाभास के चार भेदों को भी सोदाहरण समझाया हैं। विवक्ख - विपक्ष (पुं.) 6/1233 विवक्षित वस्तु धर्म के विपरीत धर्म को, विरुद्ध पक्ष को, और साध्यादि के विपर्यय को 'विपक्ष' कहते हैं। विवाय - विवाद (पुं.) 6/1237 विरुद्ध वाद, विप्रतिपत्ति से युक्त वचन, क्रोध कषाय, वाक्कलह तथा लब्धि, ख्याति के लालची अनुदारचित्त मनुष्यों के द्वारा छल जाति युक्त वाद को 'विवाद' कहते हैं । यहाँ पर विवाद के भेद बताकर विवाद के दोषों का वर्णन किया गया हैं । विसेस - विशेष (पुं.)6/1264 द्रव्य के सामान्यविशेषात्मक होने से वैशिषिकोक्त विशेष पदार्थ का स्वरुप एवं खंडन तो 'जाति' शब्द के अन्तर्गत दिया गया हैं। किन्तु यहाँ पर जैन सिद्धांत सम्मत विशेष का विवरण करते हुए उसके दो भेद किये गये हैं; अन्त्यविशेष - जो सकल साधारणरुप हैं और अनन्त्यविशेष अर्थात् अवान्तरविशेष । वीमंस - विमर्श (पुं.) 6/1331 ___ ईहा को, यथावस्थित वस्तु स्वरुप के निर्णय को और क्षयोपशम विशेष से स्पष्टरुप से सद्भूत अर्थविशेष के अभिमुख, व्यतिरेक धर्म के त्याग और अन्वय धर्म के अत्यागपूर्वक अन्वय धर्म के विचार को 'विमर्श' कहते हैं। वैसेसिय - वैशेषिक (पुं.) 6/1465 'विशेष' नामक पदार्थ के प्ररुपक कणाद ऋषि के शिष्य को वैशेषिक कहते हैं। यहाँ वैशेषिकोक्त सत्ता पदार्थान्तर है, सत् पदार्थो में भी सत्ता क्वचित् किसी-किसी में रहती हैं, ज्ञान आत्मा से भिन्न और औपाधिक है, मुक्ति (मोक्ष) ज्ञान और आनंदमय नहीं है- इन सिद्धांतो का खंडन स्याद्वादमञ्जरी को उद्धृत करते हुए किया गया हैं। संतअसंतकज्जवाय - सदसद्कार्यवाद (पुं.) 7/128 उत्पत्ति के पहले कथंचित् असत् और कथंचित् सत् कार्य के उत्पादक वाद को 'सदसद्कार्यवाद' कहते हैं (7/128) (अत्तछठ्ठ शब्द -1/502) । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [140]... तृतीय परिच्छेद संतकज्जवाय - सत्कार्यवाद (पुं.) 7/128 उत्पत्ति के पहले कार्य है (सत् कार्यम्) - इस प्रकार के वाद को 'सत्कार्यवाद' कहते हैं । संसय - संशय (पुं.) 7/250 अनिश्चित, अनिर्धारित या चलायमान अर्थज्ञान को 'संशय' कहते हैं । सज्झ - साध्य (त्रि. ) अनुमान के प्रकरण में साधन के द्वारा सिद्ध करने योग्य पदार्थ को 'साध्य' कहते हैं । सत्तभंगी - • सप्तभङ्गी (स्त्री.) 7 / 315 एक ही वस्तु में एक एक धर्म के पर्यनुयोग (जिज्ञासा) के कारण बिना किसी विरोध के अर्थात् बिना किसी बाधा के अलगअलग और समुदित विधिरुप और निषेधरूप कथनों की कल्पना के द्वारा 'स्यात्' पद से चिह्नित सात प्रकार से वाणी का प्रयोग 'सप्तभङ्गी' कहलाता हैं । जैन शासन इसी नय के द्वारा संसार की समस्त चेतन अचेतन वस्तुओं का निर्णय करता हैं- विशेषतः नवं तत्त्वों का अधिगम (ज्ञान) प्रमाण और नय के द्वारा होता है। जिसमें तत्त्वों का संपूर्ण रुप से ज्ञान हो, वह प्रमाणात्मक अधिगम है, और जिसके द्वारा इनके केवल एक देश का ज्ञान हो वह नयात्मक अधिगम हैं। 101 एकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणाविरुद्धा विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी विज्ञेया 104 अविरुद्ध नाना धर्मो का निश्चय ज्ञान सप्तभङ्गीनय के ज्ञात वाक्यों द्वारा होता हैं। संशय हो सकता है कि इस नय के सात ही वाक्य क्यों है, अधिक या न्यून क्यों नहीं ? तो उत्तर है कि जिज्ञासु को किसी वस्तु के निश्चय करने में सात संशयों से अधिक नहीं हो सकते, इसलिये इस नय में सात वाक्य हैं, जो इन सात संशयों के निवारक हैं। इस नय के सात भंग ये हैं 1. स्यादस्ति घटः स्यात् घट है । 2. स्यान्नास्ति घटः स्यात् घट नहीं है । 3. स्यादस्ति नास्ति च घटः, स्यात् घट है और नहीं भी है । ये दोनों भेद सप्तभंगीनय में विधि और निषेध की प्रधानता से होते हैं, अतः यह नय प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी दोनों कहलाता हैंसप्तानां भंगानां वाक्यानां समाहारः समूहः सप्तभंगी । 102 सप्तभिः प्रकारैः वचनविन्यासः सप्तभंगीति गीयते । 103 अर्थ 4. स्यादवक्तव्यो घटः, स्याद् घट अवक्यव्य है, अर्थात् ऐसा है कि उसके विषय में कुछ कह नहीं सकते । 5. स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घटः स्यात् घट है और अवक्तव्य भी है। इन वाक्यों में ‘स्यात्' शब्द अनेकान्त रुप अर्थ बोधक है। इस के प्रयोग से वाक्य में निश्चयरुप एक अर्थ ही नहीं समझा जाता है, बल्कि उसमें जो दूसरे अंश मिले हुए हैं उनकी ओर भी दृष्टि पडती हैं। इन वाक्यों में 'अस्ति' शब्द से वस्तु में धर्मो की स्थिति सूचित होती हैं । यह स्थिति अभेदरूप आठ प्रकार से हो सकती हैं संबन्ध अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 6. स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च घटः स्यात् घट नहीं है और अवक्तव्य भी है। 7. स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घटः स्यात् घट है, नहीं भी है और अव्यक्तव्य भी है । के पुनः कालादयः? इतिचेदुच्यते । कालः, आत्मरुपं, अर्थ, सम्बन्धः, उपकारः, गुणिदेशः, संसर्ग, शब्दः इति । 105 अर्थात् (1) काल (5) उपकार प्रत्येक स्थिति का उदाहरण - काल (3) अर्थ (7) संसर्ग (4) संबन्ध (8) शब्द : आत्मरुप : : : (2) आत्मरुप (6) गुणिदेश घट में जिस काल में अस्तित्व धर्म है उसी काल में उसमें पट-नास्तित्व अथवा अवक्तव्यत्वादि धर्म है । इसलिए तत्त्व में इन सब अस्तियों की एक समय ही स्थिति है, अर्थात् काल के द्वारा अभेद स्थिति हैं । जैसे घट अस्तित्त्व का स्वरुप है वैसे ही वह और धर्मो का भी स्वरुप है उसमें अस्तित्व के सिवा और धर्म भी हैं। वे धर्म जिस स्वरुप से घट में रहते हैं, वही उनका आत्मरुप हैं । जो घट रुप द्रव्य पदार्थ के अस्तित्व धर्म का आधार है, वही घट द्रव्य अन्य धर्मो का भी आधार है । (अखण्ड पूर्ण द्रव्य को अर्थ कहा जाता है) । अभेदरूप अस्तित्व का घट के साथ जो स्यात् संबन्ध है, वही स्यात् संबन्ध रुपादि अन्य सब धर्मो का भी घट के साथ है | अतः सम्बन्ध की दृष्टि से भी अस्तित्व और अन्य गुणों में अभेदवृत्ति हैं । 101 प्रमाणनयैरधिगमः । - तत्वार्थसूत्र 1/6 102. तत्वार्थराजवार्तिक 1/6/51 103. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका कारिका 23 पर स्याद्वादमञ्चरी टीका 104. तत्वार्थराजवार्तिक 1/6 105. सप्तभंगतरंगिणी पृ. 33 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [141] उपकार :- अपने स्वरुपमय वस्तु को करना - जो यह अस्तित्व का उपकार घट के साथ है, वही अपना वैशिष्टय संपादन उपकार अन्य धर्मो का भी हैं। गुणीदेश :- घट के जिस देश में अपने रुप से अस्तित्व धर्म है उसी देश में अन्य की अपेक्षा से अस्तित्त्व आदि संपूर्ण धर्म भी हैं। संसर्ग जिस प्रकार एक वस्तुत्व स्वरुप से अस्तित्व का घट में संसर्ग है । वैसे ही एक वस्तुत्व रुप से अन्य सब धर्मो का भी संसर्ग हैं। शब्द :- जो 'अस्ति' शब्द अस्तित्व धर्म स्वरु प घट आदि वस्तु का भी वाचक है, उसी वाच्यत्वरुप शब्द से सब धर्मो की घट आदि पदार्थों में अभेदवृत्ति हैं। इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता से वस्तु में सब धर्मो की अभेदरुप से स्थिति रहती हैं। और पर्यायार्थिक नय की प्रधानता से यह स्थिति अभेदोपचाररुप से रहती हैं। अनेकांतवाद की सूचना इन दोनों के द्वारा होती हैं ।106 पूर्वोक्त सात वाक्यों में घट वस्तु दी है। इसके चार रुप हैं । अर्थात् निजरुप, पररुप, द्रव्यमय और पर्यायरुप। इनमें से वस्तु का निजरुप चार प्रकार से होता है, अर्थात् नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। उदाहरण :- घट का नाम घट है; कुंडी, नांदी आदि नहीं है । घट की स्थापना वही क्षेत्र है, जहाँ पर घट रखा हुआ है; दूसरा क्षेत्र नहीं । घट का द्रव्य मृत्तिका है, सुवर्ण नहीं । घट का काल वर्तमान है, भूत, भविष्यत् नहीं । घटकी मृतिकादि उसका द्रव्यरुप अर्थात निजरुप है । मृतिका से जो सैकडों चीजें बनती हैं, जैसे -कुंडी, मटका, नाँदी आदि ये उसके पर्यायरुप हैं। सप्तभंगी नय के प्रत्येक वाक्य का स्पष्ट विवरण1. स्यादस्ति घट:/स्यात् घट है इसका अर्थ है कि घट अपने निजरूप से हैं अर्थात् नाम स्थापना (क्षेत्र) द्रव्य और भाव (काल) से हैं। टेढी गर्दनरुप से घट का नाम है। मृत्तिका इसका द्रव्य है जहाँ वह रखा है वह स्थान उसका क्षेत्र है। जिस समय में वह वर्तमान है वह उसका काल है। इन चीजों के देखते घट है। 'स्यात्' इस बात को बताता है कि घट में केवल ये ही धर्म नहीं है जो प्रधानता से बताये गये है, बल्कि और भी हैं। यह अनेकांतार्थ वाचक है। इस वाक्य में सत्ता प्रधान है। 2. स्यान्नस्ति घट: -स्यात् घट नहीं है इसका अर्थ है कि 'घट' पर-नाम, पर-रू प, पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, और पर-काल से नहीं है। घट का निजरूप तो टेढी गर्दन थी लेकिन इस रुप से पृथक् जो रुप है- जैसे चपय लम्बा आदि वह इसमें नहीं है जैसे पट वृक्षादि का रुप । घट का द्रव्य मृत्तिका है, लेकिन परद्रव्य सुवर्ण, लोहा, पत्थर, सूत इत्यादि हैं - जो घट में नहीं है। घट का क्षेत्र तो वही स्थान था जहाँ वह रखा था यानि पट या पत्थर, दूसरा स्थान पृथ्वी, छतादि जो नहीं है। घट का निजकाल तो वर्तमान था, दूसरा काल भूत या भविष्यत् काल है। इसमें असत्ता प्रधान है। परन्तु यह नहीं समझना चाहिए कि इसमें घट का निषेध है। नहीं कहने से घट का अस्तित्त्व चला नहीं गया बल्कि गौण हो गया ओर पर-स्वरूप की प्रधान हो गई है। वह वाक्य पहले वाक्य का निषेधरु प से विरुद्ध नहीं है। बल्कि इसमें असत्ता प्रधान है और सत्ता गौण है। 3. स्यादस्ति नास्ति च घटः । स्यात् घट है और नहीं भी है। पहले घट के निजरुप की सत्ता प्रधान होने से घट का होना बताया है और फिर घट के पर-स्वरुप की असत्ता प्रधान होने से उसका नहीं होना बताया है। घट के निजरुप को देखा जाय तो घट है और पररुप को देखा जाय तो घट नहीं है। स्यादवक्तव्यो घट: - स्यात् घट अवक्तव्य है - घट के निजरु प की सत्ता और उसके पररु प की असत्ता - इन दोनों को एक ही समय में प्रधान समझा जाय तो घट अवक्तव्य हो जाता है, अर्थात् एसी वस्तु हो जाता है जिसके विषय में कुछ कह नहीं सकते हैं। एक ही समय में असत्ता और सत्ता की प्रधानता मानने से घट का रूप अवक्तव्य हो जाता हैं। 5. स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घट: - स्यात् घट है और अवक्ततव्य भी है - द्रव्य रूप से तो घट है, लेकिन उसका द्रव्य और पर्याय रुप एक काल में ही प्रधान भूत नहीं है। सत्ता सहित अवक्तव्य की प्रधानता है। घट के द्रव्य अर्थात् मृत्तिकारुप को देखें तो घट है परन्तु द्रव्य (मृत्तिका) और उसके परिवर्तनशीलरुप दोनों को एक समय में ही देखें तो वह अवक्तव्य है। 6. स्यानास्ति चावक्तव्यश्च घटः । स्यात् घट नहीं है और अवक्तव्य भी हैं। घट अपने पर्याय रुप की अपेक्षा से नहीं है क्योंकि वे रुप क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं। लेकिन प्रधानभूत द्रव्य पर्याय उभय की अपेक्षा से वह अवक्तव्य का आधार है, इसमें असत्तारहित अवक्तव्यत्व की प्रधानता है। स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घट: - स्यात् घट है नहीं भी है और अवक्तव्य भी है। द्रव्य पर्याय पृथक्-पृथक् की अपेक्षा से सत्ता असत्ता सहित मिलित तथा साथ ही योजित द्रव्य पर्याय की अपेक्षा से अवक्तव्यत्व का आश्रय घट है। मृत्तिका की दृष्टि से घट है। उसके क्षण-क्षण में रुप बदलते हैं, इस पर्याय दृष्टि से घट नहीं है। इन दोनों को एक साथ देखो तो घट अवक्तव्य है। 106. विशेष विवरण के लिए देखें - स्याद्वादः एक अनुशीलन पृ. 110-III ले. आचार्य देन्द्र मुनि शास्त्री Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [142]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सत्ता - सत्ता 9/323 अन्य दर्शनों (न्यायवैशेषिकादि) में द्रव्य, गुण और कर्म -इन तीन पदार्थों में सत्ता का संबन्ध माना जाता है और सामान्य, विशेष और समवाय-इन तीन में नहीं माना जाता । जैन दर्शन में जो पदार्थ है उसे अस्तिरुप कहा जाता हैं (यह अस्ति शब्द त्रैकालिक सत्ता का बोधक अव्यय है) -अस्ति इति सत् । 'सत्' का भाव ही सत्ता है ('सत्' शब्द से भाव अर्थ में तल् प्रत्यय होकर नित्य स्त्रीलिङ्ग 'सत्ता' शब्द निष्पन्न होता है)। इसे ही अस्तित्व भी कहते हैं और वह अस्तित्व वस्तु का स्वरुप है जो कि सभी पदार्थों में निर्विशेष रुप से रहता हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने यहाँ (अ.रा.पृ. 7/324 से 329) पर वैशेषिक मान्य सत्ता पदार्थ का विस्तृत खंडन किया है। साथ ही जैन सिद्धान्तोक्त ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मो के भेद-प्रभेदों की सत्ता की काल मर्यादा का भी वर्णन किया हैं। सद् - शब्द (पुं.) 7/338 जिसके द्वारा वस्तु (पदार्थ) का प्रतिपादन होता है, जो श्रोत्रिन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य नियत क्रमवाले वर्ण-समूह, तथा ध्वनि को 'शब्द' कहते हैं। राजेन्द्र कोश में यहाँ पर आचार्यश्रीने जैनागमोक्त शब्द के भेद-प्रभेद का दिग्दर्शन करवाकर भिक्षु को मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों के प्रति राग-द्वेष से दूर रहने का निर्देश किया हैं। साथ ही शब्द के विषय में न्याय-वैशेषिक और सौगत (बौद्ध) आदि द्वारा मान्य 'शब्द आकाश का गुण हैं' -इत्यादि सिद्धांतों का विशद खंडन किया है। सबैभवाइ - शब्दब्रह्मवादिन् (पुं.) 7/369 जो केवल शब्द को ही सत् मानते हैं उन्हें 'शब्दब्रह्मवादी' कहते हैं। व्याकरण-दर्शन के अनुयायी समस्त संसार को शब्दानुविद्ध मानते हैं। समवाइकारण - समवायिकारण (नपुं.) 7/422 ( अपृथक् रुप से एकीभाव से समवाय जिसमें रहता हैं वह 'समवायि' है । समवायि के कारण को 'समवायिकारण' कहते हैं। जैसे तन्तु में पट । समवाय - समवाय (पुं.) 7/423 अभिधान राजेन्द्र कोश में समवाय शब्द के अनेक अर्थ दिये गये हैं, जैसे- व्यापारियों के समूह, मित्रों का मिलन, जीवाजीवादि पदार्थ का अर्थ सहित रहने का स्थान, विभिन्न आत्माओं का मिलन स्थान, किसी के द्वारा नहीं जोडे गये किन्तु स्वयं (अपने आप) जुड़े हुए आधार्य-आधारभूत पदार्थो के 'इह प्रत्यय' हेतु सम्बन्ध (इह प्रत्यय हेतुभूत समवाय की व्याख्या राजेन्द्र कोश में 'धम्म' शब्द पर हैं)। (समवाय संबंधी विशेष व्याख्या 'धम्म' शब्द अ.रा.पृ. 4/2664 पर की गई है।) समाहि - समाधि (पुं.) 7/425 यहाँ राग-द्वेष के त्याग रुप धर्म ध्यान आदि समाधि के अनेक अर्थ बताते हुए आचार्यश्री ने समाधि के विविध प्रकारों का विस्तृत वर्णन किया हैं। एकाग्रनिरुद्ध चित्त में समाधि होती हैं। द्रव्य समाधि और भाव समाधि - ये दो समाधि भेद हैं। स्वरुपमात्र निर्भास होना अर्थात् ध्येयस्वरुप का निर्भासमात्र जिसमें हो वह समाधि है, वही ध्यान है। यहीं पर आगे द्रव्य समाधि आदि का स्वरुप विस्तार से समझाया गया है। सम्मत्त - सम्यकत्व (न.) 7/482 सम्यक्त्व अर्थात् जीवाजीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा, जीव के मोक्ष के अविरोधी प्रशस्त भाव, सम्यग्दर्शन, प्रशस्त सम्यक्त्व-मोहनीय के अनुवेदन से उत्पन्न उपशम सम्यक्त्व, जीव के मिथ्यात्व मोहनीय के क्षयोपशमादि से उत्पन्न परिणाम, तत्त्वों में रुचि, शम, संवेगादि लक्षणो से युक्त आत्मपरिणाम । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में यथास्थान इसका विस्तृत वर्णन हैं। सव्वतंतसिद्धांत - सर्वतन्त्रसिद्धांत (पुं.) 7/592 प्रमाण के द्वारा प्रमेय के ग्रहणपूर्वक जिस सिद्धांत के अर्थ की सभी तन्त्रों/विषयों में गति होती है, उसे 'सर्वतन्त्रसिद्धांत' कहते हैं। सहकारि (ण) - सहकारिन् (पुं.) 7/601 कार्य के मूल कारण के सहयोगी को सहकारि (कारण) कहते हैं । सहाववाइ- स्वभाववादिन् (पुं.) 7/604, 4/2172 समस्त जगत का स्वभाव ही जीवत्व, अजीवत्व, भव्यत्व, मूर्तत्वादि के स्वरुप निर्माण में कारण (करण-साधन) हैं पुण्य-पाप नहीं -एसी जिनकी मान्यता है उनको 'स्वभाववादी' कहते हैं। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [143] यहाँ स्वभाव भावरुप है या अभावरुप? वह कार्यगत हेतु है या कारणगत ? इत्यादि तर्को से स्वभाववादियों के ऊपर दूषणजाल खडा कर उसका खंडन किया गया हैं। सामण्णय - सामान्यनय (पुं.) 7/643 'आत्मा' आदि पदार्थो के एकत्व के अभिप्रायवाला सामान्य नय है । सामान्य विशेषरहित होता है, जैसे - कि 'खरविषाण' यहाँ पर आचार्यश्रीने अद्वैतवाद का खंडन किया हैं। सामण्णविसेस - सामान्यविशेष (पुं.) 7/646 अनेक पदार्थों में समानता और भेद के बोध का हेतुभूत क्रमश: सामान्य और विशेष हैं । द्रव्यत्वादि में अपने-अपने आधार विशेषों में अनुगत आकार प्रत्यय के वचन हेतु सामान्यविशेष हैं। अनेको घट का समान आकार होने पर घट सामान्य से 'यह घट है, यह भी घट है, यह भी घट है- एसी प्रतीति होती है और विशेष से यह मिट्टी का है, यह स्वर्ण का है, यह तांबे का हैं-एसी प्रतीति होती है। यहाँ पर आचार्यश्री के द्वारा आवश्यक मलयगिरि, सूत्रकृतांग, स्थानांग, अनेकान्त जयपताका आदि ग्रंथो के आधार पर विस्तृत दार्शनिक चर्चा की गयी हैं। जाति प्रकरण में सामान्य-विशेष नामक पदार्थो का आश्रय करके खंडन-मंडन प्रस्तुत किया गया है, किन्तु यहाँ पर अनुवृत्तबोध और व्यावृत्तबोध के हेतुभूत उपरोक्त पदार्थो के बारे में बोधकारणतापरक विचार-विमर्श प्रस्तुत किया गया हैं। यहाँ पर लगभग 55 पृष्ठों में पूरे प्रकरण को आचार्य हरिभद्र सूरि प्रणीत अनेकान्तजयपताका, तृतीय अधिकार की विषयवस्तु को उद्धत करते हुए बौद्धसम्मत और वैशेषिकसम्मत अनुवृतबोध और व्यावृत्तबोध में सामान्य-विशेष की पृथक-पृथक् कारणता का खंडन किया गया हैं । सायवादिन् - सातवादिन् (पुं.) 7/775 (अक्रियावादी का भेद) भारतीय विचारकों के दो वर्ग हैं - 1. क्रियावादी - संयम के साथ मोक्षरुप सुख में विश्वास करता हैं। 2. अक्रियावादी पारमार्थिक सुख को स्वीकार नहीं करता हुआ विषयसुख को ही प्राथमिकता देता है। विषय सुख को ही साय/ सात अर्थात् 'साता' कहते हैं। इसको सिद्धांत रुप से स्वीकार करनेवालों को 'सायवादिन्' कहते हैं। सिद्धंत - सिद्धांत (पुं.) 7/845 जिस कारण के द्वारा प्रमाण (पूर्वक कसौटी) से अर्थ सिद्ध होकर अंत को प्राप्त होता है, उसे सिद्धांत कहते हैं । 'सिद्धांत' शब्द का प्रयोग आगम और आर्षवचन के अर्थ में भी होता है। यहाँ सिद्धांत के आगम - नो आगम, सर्वतन्त्र-प्रतितन्त्र, अधिकरण-अभ्युपगम सिद्धांत -एसे भेद भी दर्शाये गये हैं। सियवाय- स्यावाद (पुं.) 7/855 स्यादवाद का अर्थ एवं स्वरुप - प्राकृत शैली के 'सियवाय' शब्द को संस्कृत में स्याद्वाद कहते हैं। स्यादस्तीत्यादिको वादः स्याद्वाद इति गीयते । (अ.रा.पृ. ७/८५५) इसमें दो शब्द संयुक्त है - स्यात् + वाद्, जिसका अर्थ है - कथञ्चिद् अथवा किसी अपेक्षा से और वाद का अर्थ-कथन या प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। प्रस्तुत कोश में 'स्यात्' शब्द कथञ्चिद्07 अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं। और यह 'किसी अपेक्षा' अर्थ का द्योतक हैं। इसे ही दार्शनिक शब्दावली में कथञ्चिद् (अपेक्षा से) कहा जाता हैं। जिसका दूसरा नाम अपेक्षावाद भी है इसके अतिरिक्त 'स्याद्' शब्द आशंका के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। आशंङ्का नाम विभाषा । स्यादिति कोऽर्थं ? कदाचित् भवेत् कदाचित् न भवेत् 108 - स्यात् किसे कहते हैं ? इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- किसी अपेक्षा से होता है और किसी अपेक्षा से नहीं होता है अतः स्याद्वाद न तो संशयवाद है न तो अनिश्चयवाद। हिन्दी में स्याद् का अर्थ शायद किया जाता है जबकि जैनदर्शन में इसका अर्थ कथञ्चित् या किसी अपेक्षा से किया गया हैं। अतः स्याद्वाद शायदवाद नहीं हैं। अनेकान्तवाद् और स्यावाद जैनदर्शन के दो विशिष्ट शब्द हैं। अनेकान्तवाद सिद्धांत है और स्यावाद उसके निरुपण की पद्धति । प्रस्तुत कोश में स्याद्वाद का विश्लेषण करते हुए प्रतिपादित किया हैं स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम । ततः स्यादवादः अनेकान्तवादो नित्यानित्यद्यनेकधर्मबलैक-वस्त्वभ्यगम इति 1109 'स्यातू' शब्द अव्यय है और अनेकान्त का द्योतक है इसलिए स्याद्वाद को अनेकान्तवाद भी कहा जाता है। अनेकान्तवाद का अर्थ हैं : एक वस्तु में अनेक विरोधी गुणों या धर्मों को स्वीकार करना, और स्याद्वाद का अर्थ है : विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन करना। अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्यादवादः ।।10 अनेकात्मक वस्तु भाषा द्वारा प्रतिपादित करनेवाली पद्धति ही स्यादवाद हैं। 107. अ.रा.भा. 1 उपोद्घात पृ. 2; रत्नाकरावतारिका, परिच्छेद 4 108. अ.रा.पृ. 7/856; व्यवहारसूत्रवृत्ति, उद्देश 109. अ.रा.पृ. 1/423; 7/855; अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, कारिका 5 पर स्याद्वादमञ्चरी टीका 110. लधीयस्त्रीय टीका - 62 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [144]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रस्तुत कोष में स्याद्वाद के लिए विभज्यवाद शब्द का प्रयोग भी हुआ है यथा- विभज्यवादः स्याद्वादः।।1 विभाज्यवाद का विश्लेषण करते हुए यह बताया गया है कि विचारशील व्यक्ति यदि किसी विषय में असंदिग्ध हो तो भी उस विषय में अनाग्रही रहे तथा सदा विभज्यवाद अर्थात् स्याद्वाद युक्त वचन का प्रयोग करें।112 इसी सन्दर्भ में यह भी कहा गया हैं - 'णयाऽऽसियाय वियागरेज्जा 1113 साधक स्याद्वाद से रहित वचन न बोले। आगे ओर भी कहा गया है कि, "जिनप्रवचन-तत्त्ववेदिनो मिथ्यावादित्व परिजिहीर्षया सर्वमपि स्यात्कारपुरस्सरं भाषन्ते, नतु जातुचिदापि स्यात्कारविरहितम्, यद्यपि च लोकव्यवहारपथमवतीर्णा न सर्वदा साक्षात्स्यात्पदं प्रयुञ्जते तथापि तत्राप्रयुक्तेऽपि सामर्थ्यात्स्याच्छब्दो दष्टव्यः प्रयोजकस्य कुशलत्वात् ।।। प्रस्तुत कोश में स्याद्वाद के विषय में ऐसा कहा गया है कि स्यादस्ति-स्यादनास्ति आदि सप्तदृष्टियों से समन्वित एसा स्याद्वाद द्रव्यार्थिक - पर्यायार्थिक नय के बिना नहीं रह सकता। अभिधान राजेन्द्र कोश में स्याद्वाद को नमस्कार करते हुए उसकी महत्ता पर प्रकाश डाला हैं स्याद्वादाय नमस्तस्मै, यं विना सकला क्रिया । लोकद्वितयभाविन्यौ, नैव साङ्गत्यमासते ॥15 लोक को दूसरे रुप में ढालनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ जिसके बिना साङ्गत्य (असंवादिता) को प्राप्त नहीं होती, एसी उस स्याद्वाद को प्रणाम हो। जैनदर्शन की यह अभिनव (मौलिक) अवधारणा है, जो प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है एवं धर्म-सद्भाव, अभेदभाव और विश्व-कल्याण की नित्य प्रवाहमान् अमृत निर्झरी हैं। सुणवाय - शून्यवाद (पुं.) 7/939 यहाँ पर सब पदार्थ शून्य है, क्योंकि प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिति अवस्तु है। प्रमाता (आत्मा) इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता अतः प्रत्यक्ष, अनुमान या आगम प्रमाता (आत्मा) को सिद्ध नहीं कर सकता। अविद्या की वासना से बाह्य पदार्थों के अभाव में उनका (घट, पटादि का) ज्ञान होता है अतः प्रमेय भी कोई पदार्थ नहीं है। प्रमेय के अभाव में प्रमाण और प्रमाण के अभाव में प्रमिति की व्यवस्था नहीं बनती। अतः सर्वथा शून्य मानना ही वास्तविक तत्त्व है एसा शून्यवादी (माध्यमिक) बौद्धों का पूर्वपक्ष हैं। आचार्यश्री ने स्याद्वादमञ्जरी के आधार पर निम्नाङ्कित तर्को से इसका खंडन करते हुए कहा है - प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिति प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध होता हैं। जैसे - 'मैं सुखी हूँ', 'दुःखी हूँ' - आदि अहं प्रत्यय से प्रमाता, बाह्य पदार्थों का ज्ञान अनुभव से होने पर ही वासना की निष्पत्ति होने से प्रमेय; प्रमेय की सिद्धि होने से जानने रुप क्रिया का करण प्रमाण और पदार्थ के ज्ञान से पदार्थ संबन्धी अज्ञान का नाश होने से प्रमाण के फलरुप प्रमिति की सिद्धि होती हैं। हेउ - हेतु (पुं.) 7/1241, 7/1244 जो ज्ञेय का बोध कराता है उसे हेतु कहते हैं, जैसे - 'एतद् द्वारमधुना' (यह द्वार अब कहा जायेगा)। 'हेतु' शब्द के अनुपपत्ति लक्षण, प्रमेय का प्रमिति के विषय में कारण उपस्थित होने पर प्रमाण, साध्यार्थगमक युक्तिविशेष आदि अर्थ यहाँ पर दर्शाये गये हैं। 'हतु' शब्द के अन्तर्गत प्रमाणशास्त्र में प्रयुक्त हेतु का स्वरुप, भेद, त्रिलक्षण (पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व) हेतु प्रकार, हेतु प्रयोग प्रकार, प्रयोगनियम आदि विषयों को रत्नाकरावतारिका, तृतीय परिच्छेद के अनुसार स्पष्ट किया गया है। हेउ अंतर - हेत्वन्तर (पुं.) 7/1245 'हेत्वन्तर' पाँचवे निग्रहस्थान का भेद हैं। हेउ आभास - हेत्वाभास (पुं.) 7/1245%; हेउ दोस - हेतुदोष 7/1245 अहेतु में हेतु का आभास (हेतु नहीं होने पर भी हेतु की प्रतीति) होना हेत्वाभास कहलाता है। उसे हेतु दोष भी कहते हैं। यहाँ असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक - ये तीनों प्रकार के हेत्वाभास का वर्णन किया गया हैं। हेतु-परिचय के अनन्तर जैन दर्शन सम्मत तीन हेत्वाभासों का परिचय रत्नाकरावतारिका षष्ठ परिच्छेद के आधार पर दिया गया हैं। उपसंहार : तृतीया परिच्छेद के अन्तर्गत हमने राजेन्द्र कोश में आये हुए महत्त्वपूर्ण साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और दार्शनिक शब्दों की ओर संकेत करके यह स्पष्ट करने का प्रयास किया हैं कि अभिधान राजेन्द्र न केवल जैनविद्या का कोश है, अपितु इसमें ज्ञान की सभी शाखाओं के लिए कुछ न कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध हैं। उपरोक्त चार शीर्षक तो केवल दिग्दर्शन मात्र हैं, अभिधान राजेन्द्र में अन्य अनेक विषयों के महत्त्वपूर्ण शब्दों की ससन्दर्भ व्याख्याएं हैं। चारे वह गणित विषय हो या भूगोल हो, ज्योतिष हो या वास्तु शास्त्र, सभी विषयों के शब्दों पर आधिकारिक और प्रामाणिक जानकारी इस कोश में उपलब्ध है। हमने केवल उपरोक्त चार शीर्षकों तक अपनी सीमा इसलिए निर्धारित की है कि शास्त्र तो अनन्त है, और समय अल्प है, साथ ही विघ्नों की कथा का अन्त नहीं हैं, इसलिए इतने मात्र से ही दिग्दर्शन कराया हैं। जिज्ञासुओं को चाहिए कि वे मूल ग्रन्थ का अवलोकन कर अपने लिए उपयोगी सामग्री का संग्रह करें। 111. अ.रा.पृ. 6/1180, 1201; सूत्रकृतांग सटीक 1 श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 14 113. अ.रा.पृ. 6/1179; सूत्रकृतांग 1/14/19 115. अ.रा.पृ. 7/856; स्थानांग, ठाणा 9 112. 114. अ.रा.पृ. 6/1201; सूत्रकृतांग 1/14/22 अ.रा.पृ. 7/855 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद आचारपरक शब्दावली का आकलन एवं अनुशीलन क. साधुपरक शब्दावली 1. जैनधर्म का उद्देश्य एवं लक्ष्य 2. जैनधर्म में मुक्ति का मार्ग 3. चारित्र का सैद्धान्तिक पक्ष 4. गुणस्थान 5. मुनियों की आचारपरक शब्दावली का समीक्षण ख. श्रावकपरक शब्दावली 1. मुनि एवं गृहस्थ के आचार में मौलिक अन्तर 2. श्रावकों के आचार में सापेक्ष स्थूलता 3. श्रावकाचार की दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद आचारपरक शब्दावली का आकलन एवं अनुशीलन क. साधुपरक शब्दावली समस्त भारतीय धर्मप्रचारक उपदेष्टा होने के साथ-साथ दार्शनिक भी थे। वे अपने उपदेश में जिन सिद्धांतो की प्ररुपणा करते थे अपने जीवन में उन्हें आचारान्वित भी करते थे। श्रमणपरम्परा के तीर्थंकरोंने अपने केवलज्ञान के दिव्यप्रकाश में जो जाना, देखा और उनमें से जिन सिद्धांतों का उपदेश दिया, उनका अपने जीवन में आचरण में पालन भी किया। धर्म आचरण की वस्तु है और जैनधर्म तो विशेषतया श्रुत और चारित्र (ज्ञानपूर्वक आचरण) मय है। अभिधानराजेन्द्र कोश में जैनागम ग्रन्थों के पारिभाषिक शब्दों का विवेचन किया गया है। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का विषय भी 'अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन' है। अतएव प्रस्तुत शोध की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली के अनुशीलन के पूर्व हम यहाँ पर प्रसंग प्राप्त जैनधर्म, उसका उद्देश्य, लक्ष्य, लक्ष्य(मोक्ष) प्राप्ति का मार्ग, सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र और चारित्र (आचार) का सैद्धांतिक पक्ष एवं चारित्र की क्रमिक शुद्धि एवं मोक्ष की परम्परागत प्राप्तिरूप गुणस्थानक आदि विषयों की चर्चा करेंगे । तत्पश्चात् चारित्र के व्यवहार पक्ष में मुनि एवं श्रावकों की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का यथा प्रसंग विवेचन/ अनुशीलन प्रस्तुत किया जायेगा। 'आचार' भारतीय साधना का प्राण है। भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान है और जीवन की सार्थकता आचार में निहित है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने कहा है- एगे चरेज्ज धम्मां' - अर्थात् भले ही कोई साथ न दे, अकेले ही सद्धर्म का आचरण करना चाहिए। उपनिषत् काल में भी पठित स्नातक को कुलपति प्रयाणकाल में 'धर्मं चर' - यह निर्देश करते थे। तथागत बुद्ध भी आचार को प्राथमिकता देते थे। जैनागमों में 'आयारो पढमो धम्मो कहा है। मनुस्मृति में भी कहा है - 'आचारः प्रथमो धर्मों नृणां श्रेयस्करो महान् । - उत्तम आचार ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है और मनुष्यों के लिए कल्याणकारी है। आचार का महत्त्व: मानव जीवन की विविध साधनाओं में आचार का अत्यन्त महत्व है। आचार जीवन को सौम्य, निर्मल, सात्त्विक एवं सर्वांगपूर्ण बनाने की दिव्य साधना है जिससे जीव आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त करके जन्म-जरा-मरण से मुक्त होकर परम पद की प्राप्ति करता है। वस्तुतः आचार साधना का मूलाधार है। जैन साधना-पद्धति आचार-प्रधान है। जैन-दर्शन के अनुसार आचारविहीन ज्ञान निरर्थक है। आचार ही मानव को मानवता के श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन करता है। विश्व के प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय या समाज की अपनी-अपनी परम्परा रही है परन्तु जैन धर्म एवं दर्शन में आचार के स्वरुप, भेद-प्रभेद, साधना-प्रक्रिया आदि को लेकर जितना सूक्ष्म एवं गंभीर चिन्तन किया गया है, उतना अन्यत्र विरल ही है। जैन मनीषियों ने आचार पर चिन्तन के साथ ही उसे अपने जीवन में उतारने हेतु विशेष बल भी दिया इसलिये जैन-संस्कृति की आचार-संहिता अत्यधिक कठोरतम है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने आचार के संबंध में व्यापक चिन्तन किया है जिसे हमने इस शोध प्रबन्ध में यथास्थान वर्णित किया है। जब तीर्थकर धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं; तब सर्वप्रथम वे आचार का ही उपदेश देते हैं क्योंकि आचार ही परम और चरम कल्याण का साधकतम हेतु माना गया है। जैन साधना पद्धति में मानव-जीवन में चरम एवं परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति, सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण-इन तीनोंके समन्वय से होती है। आचार्य उमास्वातिने कहा भी है- 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः। तथापि जैन साधना में आचार की प्रधानता को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। अभिधान राजेन्द्र कोश में सम्यक् चारित्र को मोक्ष का प्रधान कारण कहा है -'तस्मात् चारित्रमेव प्रधानं मुक्तिकारणम्।" क्योंकि आचारविहीन श्रद्धा या ज्ञान से कार्य नहीं चल सकता अतः इन दोनों को क्रियात्मक रुप देने हेतु श्रद्धा व ज्ञान की अपेक्षा आचार अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसलिये आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - चरणाहितो मोक्खो अर्थात् चारित्र से ही मोक्ष होता है। इतना ही नहीं राजेन्द्र कोश में आचार को जीवात्मा का मूल आधार बताते हुए 1. अ.रा.पृ. 1/544; प्रश्न व्याकरण-2/3 2. 'आयारो पढमो धम्मो।' - आचारांग सूत्र 3. मनुस्मृति 4. सव्वेसि आयरो तित्थस्स पवत्तणे पढमया। आचारांग नियुक्ति, गाथा 8 5. आचारशास्त्रं सुविनिश्चितं यथा जगाद वीरो जगते हिताय यः। अ.रा. पृ.2/376 एवं 389 6. तत्त्वार्थ सूत्र -1/1 7. अ.रा.पृ. 3/1143; आवश्यक बृहदृत्ति, अध्ययन-3 8. अ.रा.पृ. 6/337; आचारांग वृत्ति-1/211 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [146]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कहा है- जीवाहारो भण्णइ आयारो।' आचार व्यक्ति के जीवन का दर्शन कराने वाला दर्पण है। आचारहीन साधना निष्प्राण शरीरवत् है अत: अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - न नाणमित्तेण कज्ज निष्फत्ति ।। अर्थात् (आचारहीन) मात्र ज्ञान प्राप्त करने से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती। आचारहीन ज्ञान मात्र एक बोझ है। इसी बात को कहते हुए आचार्यश्रीने कहा है "जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी, न हु चंदणस्सा। एवं खु णाणी चरणेण हीणो, णाणस्स भागी, न हु सुग्गइए।"" सुश्रुत संहिता में भी इसी संदर्भ में कहा है "यथा खरश्चन्दनभारवाही भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य । एवं हि शास्त्राणि बहून्यधीत्य चार्थेषु मूढाः खरवद् वहन्ति ॥"12 पाश्चात्य विचारक स्वीनोंकने आचाररहित ज्ञान को केवल दिखाने के लिए रखी उपयोग रहित शीशे की आँख के समान कहा है। इसी संदर्भ में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा है - 'चारित्रहीन बौद्धिक ज्ञान सुगन्धित शव के समान है।13 चारित्रहीन साधक की स्थिति बताते हुए राजेन्द्र कोश में कहा है - 'चरणगुण विष्पहीणो बुडुइ सुबुहुंपि जाणंतो ।।4 अर्थात् चारित्रहीन साधक बहुत से शास्त्र पढ लेने पर भी संसार समुद्र में डूबता है। क्योंकि सुबहुंपि सुयमहियं, कि काही चरणविप्पहीणस्स? अंधस्स जह पलीत्ता, दीवसय सहस्स कोडिवि ॥15 अर्थात् जैसे प्रज्वलित करोडों दीपक अंधे को प्रकाश नहीं दे सकता वैसे ही चारित्रहीन शास्त्रज्ञानी को ढेर सारे शास्त्रों का अध्ययन भी किसी काम का नहीं है। इससे विपरीत जिस प्रकार देखते व्यक्ति को एक दीपक भी काफी प्रकाश देते है, उसी प्रकार सच्चरित्रवान साधक को अल्पज्ञान भी प्रकाश देनेवाला होता है। इसी बात के संदर्भ में राजेन्द्र कोश में कहा है "अप्पं पि सुयमहीयं, पयासयं होइ चरणजुत्तस्स । इक्को वि जह पईवो, सचक्खुअस्सो पयासेइ ॥6 इसी बात को चीन के विचारक कन्फ्युशियसने निम्न शब्दों में कहा है उत्तम व्यक्ति शब्दों से सुस्त और चारित्र से दृढ होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं की ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। ज्ञान का फल विरति अर्थात् त्यागमय आचार है।। राजेन्द्र कोश में ज्ञानयुक्त क्रिया का महत्त्व बताते हुए आचार्यश्री ने ज्ञान-क्रिया के समन्वय पर प्रकाश डालते हुए कहा है नाणकिरियाहिं मोक्खो। ज्ञान और क्रिया (ज्ञानयुक्त आचरण) से ही मोक्ष होता है इतना ही नहीं अपितु "हयनाणं कियाहीणं' 20 अर्थात् आचारहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञानहीन आचार नष्ट होता है। इसी बात को ओर अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है "संजोग सिद्धीइ फलं वयंति, न हे (ह) एग चक्केण रहो पयाइ। अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपत्ता नगरं पविट्ठा ।।। अर्थात् संयोग-सिद्धि ही फलदायिनी होती है। जैसे अंधा और पंगु मिलकर वन के दावानल से बचकर नगर में पहुँच गये वैसे ही ज्ञान-क्रिया युक्त साधक भी मोक्ष को प्राप्त करता है। सामान्यतया साहित्य जगत् एवं व्यवहारिक जगत में आचार शब्द आचार या 'सदाचरण' अर्थ में प्रयुक्त है परन्तु जैनागमों में अनेक भावनाओं से युक्त आचार शब्द बायामी व्यापक अर्थ रखता है अतः आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार शब्द के अनेक अर्थ प्रस्तुत किये हैं। 9. अ.रा.पृ. 3/1343; दशवैकालिक नियुक्ति 215 10. अ.रा.पृ. 4/1989; आवश्यक नियुक्ति 1151 11. अ.रा.पृ. 6/443; आवश्यक नियुक्ति 100; संबोधसत्तरी प्रकरण - 81 12. सुश्रुत संहिता, सूत्र स्थान 4/4 13. जैन दर्शन वाटिका, पृ. 101 14. अ.रा.पृ. 6/442; आवश्यक नियुक्ति 97 15. अ.रा.पृ. 6/442; आवश्यक नियुक्ति 98; चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक-66 16. अ.रा.पृ. 6/443; आवश्यक नियुक्ति 99 17. जैन दर्शन वाटिका पृ. 99 18. ज्ञानस्य फल विरतिः। अ.रा. पृ. 6/337; प्रशमरति प्रकरण 72 19. अ.रा.पृ. 3/1126 20. अ.रा.पृ. 6/443; संबोधसत्तरि प्रकरण, आवश्यक नियुक्ति 101 21. अ.रा.पृ. 6/443-444; एवं पृ. 4/19888; आवश्यक नियुक्ति-102 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 'आचार' शब्द की व्युत्पत्तिः 'आचार' शब्द को प्राकृत में आयार और संस्कृत में 'आचार' कहा है। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'आचार' शब्द का व्युत्पतिलभ्य अर्थ बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है- 'आचार' शब्द 'आ' उपसर्गपूर्वक 'चरगतिभक्षणयोः' धातु से निर्मित है। 'आ' उपसर्गपूर्वक गतिभक्षणार्थक 'चर' धातु में घञ् प्रत्यय जोडने पर 'आचार' शब्द बनता है। 22 आ - मर्यादया वाऽऽचारो - विहारः आचार: 23 आ - उपसर्ग, 'चार' चरणं चारः । अनुष्ठाने परिभ्रमणे 124 आ - मर्यादायां चरणं चारः मर्यादया काल-नियमादि लक्षणया चार आचार: 125 अर्थात् काल-नियमादि लक्षण से मर्यादापूर्वक चलना 'आचार' आचार का लक्षण: अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार का लक्षण बताते हुए आचार्यश्रीने कहा है - आ मज्जाया वयणो, चरणं चारोत्ति तीए आयारो । सो होई नाण दंसण चारित्ततवविरियवियप्पो 126 अर्थात् आचार का लक्षण 'मर्यादापूर्वक चलना' / जीवन बीताना है और वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य पाँच प्रकार हैं। जैन मर्यादा में जो अनुष्ठान, जीवन व्यवहार या आचरण ज्ञानादि पंचविध आचारों अनुकूल हों, वह आचार कहलाता है और जो इनसे प्रतिकूल हों वह अनाचार । परिभाषा: शास्त्रीय दृष्टि से ‘आचार' की परिभाषा बताते हुए राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने कहा है 'आचारो मोक्षार्थमनुष्ठानविशेष' इति । आचारः शास्त्रविहितो व्यवहार इति 17 अर्थात् जो अनुष्ठान अथवा प्रवृत्ति मोक्ष के लिये हों, या जो आचरण या व्यवहार अहिंसादि धर्म से सम्मत एवं शास्त्रविहित हों, वह आचार है और इसके विपरीत जो हो वह अनाचार है । आचार की परिभाषा को बताते हुए राजेन्द्र कोश में और भी कहा हैआचरणमाचारः । आचर्य्यते इति वाडडचारः । पूर्वपुस्प्राचरिते ज्ञानाद्यासेवनविधौ । 28 आचर्य्यते गुणवृद्धये इत्याचारः 129 इस प्रकार मोक्षलक्षी प्रवृत्ति, शास्त्रविहित व्यवहार, पूर्वपुरुषों के द्वारा आचरित ज्ञानादि आसेवनविधि, और गुणवृद्धि हेतु किया जाने वाला आचरण भी 'आचार' कहा जाता है। आचरण शब्द के विविध अर्थ: उपर्युक्त परिभाषाओं के अतिरिक्त 'आचार' शब्द के विविध अर्थ बताते हुए राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने कहा है 1. ‘आचारो ज्ञानाचारादिः पञ्चाधा आमर्यादया वा चारो विहार आचार: । '30' आचारे साधु सामाचार्य्या विषये' इति । ' आचारो ज्ञानादिविषयमनुष्ठानमिति 2 2. श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादीनि आचरणीये आचारे | 3 3. साध्वाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिरिति भावार्थ: 14 आचरणमाचारोऽनुष्ठानं इति 1 35 अर्थात् अभिधान राजेन्द्र कोश में ज्ञानाचारादि पंचविध आचारों में मर्यादापूर्वक चलने के अर्थ में, साधु-समाचारी विषयक आचरण के अर्थ में, ज्ञानादि आसेवनरुप अनुष्ठान विशेष के अर्थ में, श्रुतज्ञानादि विषयक आसेवनरुप अनुष्ठान विशेष जो काल-अध्ययन आदि विषयक आचरण के अर्थ में, साधुओं द्वारा आचरित ज्ञानादि आसेवन विधि के अर्थ में, अनुष्ठान विशेष के अर्थ में किये जानेवाले आचरण के अर्थ में, इत्यादि विभिन्न अर्थो में 'आचार' शब्द प्रयुक्त है। 22. अ. रा. पृ. 2/368; भगवती सूत्र सटीक पथम शतक, प्रथम उद्देशक 23. (चार) इति 'चर' गतिभक्षणयो:, भावे घञ् (चर्येति) 'गदमद' चरयं चानुपसर्गे । इत्यनेन कर्मणि ध । भावे वा यत् (चरणमिति) भावे ल्युट्ा । अ. रा.पू. 3/1172; आचारांग 1/5/1 24. अ. रा. पृ. 6/368; आवश्यक मलयगिरि 25. अ. रा. पृ. 2 / 330; एवं 368; विशेषावश्यक वृत्ति एवं स्थानांग सटीक 5 वाँ ठाणां; आउर पच्चखाण पयन्ना, 24, 33, 66 26. अ. रा. पृ. 2/368; आचारोंग सूत्र सटीक, 1/3, गच्छाचार पयन्ना चतुर्थ परिच्छेद... [147] 27. अ. रा. पृ. 2/368; नन्दीसूत्र वृत्ति 28. अ. रा. पृ. 2/368; यशोविजयजी कृत अष्टक - सटीक 29. अ.रा. पृ. 2/368; भगवतीसूत्र सटीक 1/1 30. अ. रा. पृ. 2/368; प्रश्नव्याकरणसूत्र सटीक, संवर द्वार-3 31. अ. रा. पृ. 2/368; ज्ञाताधर्मकथा सूत्र सटीक 32. अ. रा. पृ. 2/368; भगवतीसूत्र सटीक 2 / 1, आवश्यक बृहद्दत्ति 33. अ. रा. पृ. 2/368; भगवतीसूत्र सटीक 1/1 34. अ. रा. पृ. 2/368; सूत्र कृतांग सूत्र सटीक 2/5 35. अ.रा. पृ. 2/368; दशवैकालिक सूत्र सटीक, 3 रा अध्ययन Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [148]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आचार का वर्गीकरण : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार का निक्षेप की दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा गया है- आचारस्य तु चतुर्धा निक्षेपः । स चायं नामाचारः स्थापनाचारो द्रव्याचारो भावाचारश्च ।36 अर्थात् निक्षेप की दृष्टि से आचार चार प्रकार का है - 1. नामाचार 2. स्थापनाचार 3. द्रव्याचार और 4. भावाचार । नामन, धावन, वासन, शिक्षापन आदि द्रव्याचार है7 और दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य को भावाचार कहा गया आचार के मुख्य पाँच भेद : जैनागमों में मुख्य रुप से आचरणीय ज्ञानादि पाँच वस्तुएँ बतायी गयी हैं : दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार - ये पाँच प्रकार का भावाचार है। इसलिए संक्षेप में भावाचार के पाँच भेदों का उल्लेख करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है दंसण नाण चरित्ते, तव आयारे य वीरियायारे। एसो भावायारो, पंचविहो होई नायव्वो । अभिधान राजेन्द्र कोश में इन पाँच आचारों के भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन आचार्यश्री ने किया है। जिसे हमने यथा संक्षेपविस्तारपूर्वक पूरे शोध प्रबंध में यथास्थान वर्णित किया है। सामान्य भाषा में सदाचार और उसके विपरीतार्थक दुराचार, अनाचार, कदाचार, आदि अनेक शब्दों का प्रचलन है। किन्तु धर्म और दर्शन के क्षेत्र में प्रयुक्त आचार शब्द से उपरोक्त विलोमार्थक शब्दों से निरपेक्ष मात्र श्रेष्ठ आचार ही अभीष्ट है, आचार शब्द से केवल मर्यादित और श्रेष्ठ आचरण का ग्रहण किया जाता है। सभी दार्शनिकों ने आचरण को धर्म कहा है। मनुस्मृति में कहा गया हैं -"आचारः प्रथमो धर्मः नृणां श्रेयस्करो महान् ।" जैन आगमों में तो बल पूर्वक प्रतिपादित किया गया है कि चारित्र ही धर्म है। जैन सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का स्वभाव, वस्तु के स्वरुप के यथावत् श्रद्धान की रुचि और तदनुसार आचरित क्रिया तीनों का सन्तुलित समन्वय करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि ये तीनों भिन्न भिन्न न होकर एक ही हैं। जैनागमों में धर्म के स्वरुप पर विशद चर्चा उपलब्ध होती है। आगामी शीर्षक में संक्षेप में जैन धर्म और उसके उद्देश्य एवं लक्ष्य के विषय में किंचित् प्रस्तुत किया जा रहा है। 36. नामण धावण वासण, सिक्खावण सुकरणाविरोहीणि । दव्वाणि जाणि लोए, दव्वायारं वियाणाहि ॥ अ.रा.पृ. 2/368; आचारांग वृत्ति 37. पंचविहे आयारे पण्णत्ते, तं जहा-णाणायारे, दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे वीरियायारे ।। अ.रा.पृ. 2/369; नंदीसूत्र, सूत्र 32; स्थानांग सूत्र-5 वाँ ठाणां 38. दुविहे आयारे पणत्ते, तं जहा-णाणायारे चेव नोणाणायारे चेव । नाणायारे दुविहे पणत्ते, तं जहा दंसणायारे चैव नोदंसणायारे चेव । नोदंसणायारे दुविहे पणत्ते, तं जहा-चरित्तायारे चेव नो चरित्तायारे चेवा (अ.रा. पृ. 2/368; दशवैकालिक सूत्र सटीक,अ-3) नोचरित्तायारे दुविहे पणत्ते, तं जहा-तवायारे चेव वीरियायारे चेव । - अ.रा.पृ. 2/369; स्थानांग सटीक, ठाणां 2 39. अ.रा. पृ. 2/368; आचारांग नियुक्ति, गाथा 181 40. ज्ञानं श्रुतज्ञानं तद्विषय आचारः। श्रुतज्ञानविषये कालध्ययनविनयाध्यापनाऽऽदिरुपे व्यवहारे। - अ.रा.पृ. 4/1994 41. अ.रा.पृ. 2/369; स्थानांग सूत्र सटीक, ठाणां-2 (सदाचार लोकापवादभीरुत्वं,दीनाभ्युद्धरणाऽऽदरः। कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं,सदाचारः प्रकीर्तितः ॥ सर्वत्र निंदासंत्यागो,वर्णवादश्च साधुषु। आपद्यदैन्यमत्यन्तं,तद्वत्संपदिनम्रता । प्रस्तावे मितभाषित्व-मविसंवादनंतथा। प्रतिपन्नक्रियाचेति,कुलधर्मानुपालनम्।B॥ असद्व्यपरित्यागः,स्थानेचैतत्क्रिया सदा। प्रधानकार्ये निर्बन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम्।। लोकाचारानुवृत्तिश्व,सर्वत्रौचित्यपालनम्। प्रवृत्तिहितेनेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि।5॥ __ - अ.रा.पृ. 7/337 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [149] 1. जैनधर्म का उद्देश्य और लक्ष्य 'धर्म' (धम्म) शब्द धृ धातु से 'मन्' प्रत्यय जोडने पर बनता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'धर्म' शब्द मुख्यतया तीन अर्थो में प्रयुक्त है 1. वत्थुसहावो धम्मो (वस्तुस्वभावो धर्मः) - वस्तु का स्वभाव धर्म है। 2. दंसणमूलो धम्मो (दर्शनमूलो धर्मः) - धर्म दर्शनमूलक है। 3. चारित्तं खलु धम्मो (चारित्रं खलु धर्मः) - चारित्र ही वास्तविक धर्म है। वस्तुस्वभावरुप धर्म को बताते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - धर्म का एक अर्थ स्वभाव होता है। धर्म का एक अन्य अर्थ धर्मास्तिकाय होता है, धर्म का अर्थ धर्मास्तिकाय का धर्म (गति सहयाक स्वभाव) होता है', धर्म का अर्थ जीवादि द्रव्यों का स्वभाव होता है, धर्म का अर्थ द्रव्य के सहभावी और क्रमभावी पर्याय भी है तथा परिणाम, स्वभाव और शक्ति भी धर्म के पर्याय हैं। मर्यादा के अर्थ में 'धर्म' शब्द का अर्थ धर्म, स्थिति, समय और व्यवस्था भी होता है। 'धर्म' की आध्यात्मिक व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - "जो दुर्गति (पतन के गड़े) में पड़ते हुए प्राणियों को बचाता है और सद्गति ( उन्नति के स्थान) में पहुँचाता है, वह 'धर्म' कहलाता है। आचार्यश्रीने द्रव्य के अपने स्वभाव / . स्वरुप को धर्म कहा है। 'जैनधर्म' शब्द के घटक 'धर्म' शब्द का अर्थ आचरणरुप धर्म है। इसी में दर्शनमूलकता और वस्तुस्वभावता (जीव की) निहित जहाँ दूसरे समस्त धार्मिक लोगों के द्वारा दूसरों को गठने की बुद्धि से जो भी ध्यान, अध्ययनादि किया जाय अथवा जैनधर्म के साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाओं के द्वारा अविधि या अनुपयोग (मन, वचन, काया की एकाग्रता रहित) से जो भी चैत्यवंदन, प्रतिक्रमण स्वाध्यायादि अनुष्ठान किया जाय अथवा पार्श्वस्थादि (जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र से दूर रहते हैं, चारित्र में सबल दोष लगाते हैं, गुणी संयमियों के दोष देखते हैं, परंतु मुनिमार्ग धर्म के प्रकार :धर्म के दो प्रकार - अभिधान राजेन्द्र कोश में 1. द्रव्य धर्म और 2. भाव धर्म बताया है। धर्म के तीन प्रकार - जैनेन्द्रसिद्धांतकोश में धर्म तीन प्रकार से बाताया गया है - 1. अस्तित्व धर्म 2. श्रुत धर्म 3. चारित्र धर्म ।12 धर्म के चार प्रकार - निक्षेप द्वार से धर्म का वर्णन करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने धर्म के चार प्रकार दर्शाये हैं - 1. नाम धर्म 2. स्थापना धर्म 3. द्रव्य धर्म 4. भाव धर्म ।। नाम धर्म - कोई सचेतन पुरुष का 'धर्म' (धर्मदास, धर्चन्द्र, धर्मकुमार, धर्म राजा इत्यादि) ऐसा नामकरण किया जाय, वह 'नाम धर्म' है।। स्थापना धर्म - मंदिर, मूर्ति, उपाश्रय, पौषधशाला; नवकारवाली, शास्त्र, चरवला, आसन, ओधा, मुखपट्टिका, पात्र आदि धार्मिक उपकरण, देव-गुरु के चरणचिह्न (पगलिया), चित्र आदि, स्थापनाचार्य या अन्य जिस किसी वस्तु की धर्मायतन के रुप में स्थापना की जाय वह 'स्थापना धर्म' कहलाता है।15 द्रव्य धर्म - जीवास्तिकाय आदि षड् द्रव्यों का उत्पादन-व्ययध्रुव रुप धर्म ।16 अथवा पदार्थ (द्रव्य) का तिक्त, मधुरादि रस भी द्रव्यधर्म है। द्रव्यधर्म तीन प्रकार से है1. अस्तिकाय धर्म - जीवास्तिकायादि षड् द्रव्यों का अपना-अपना स्वभाव; जैसे-धर्मास्तिकाय का गतिसहायक स्वभावादि अस्तिकाय धर्म कहलाता है। 2. प्रचार धर्म - इन्द्रिय विषयक धर्म, प्रकर्षगमन आदि ।। 3. विषय धर्म - प्राणियों को विषाद पहुँचाना, रुप-रागादि में प्रवृत करना, भोगोपभोग में आसक्त रहना, आदि विषयधर्म है।20 जीव की अनादिकालीन प्रवृत्ति होने से इसे धर्म कहा गया है (भावधर्म की अपेक्षा से नहीं)। सचित शरीर के उपयोग रुप स्वभाव को भी द्रव्य धर्म कहते हैं। बिना भाव के धार्मिक अनुष्ठान । धर्मक्रिया भी द्रव्यधर्म' है। 1. अ.रा.पृ. 4/2663,2665 2. अ.रा.पृ. 4/2663; जैनेन्द्रसिद्धांत कोश, पृ. 2/464 नवतत्त्व प्रकरण, गाथा-8; भगवती सूत्र 2/2; अनुयोगद्वारसूत्र समवयांग | स.; स्थानांग 2/1 वही 5. समवयांग, 10 स., स्थानांग, 9 वाँ ठाणां 6. स्थानांग, 2 ठा. | उ. 7. स्थानांग, 9 वाँ ठाणां 8. आचारांग चूर्णि, 2 अध्ययन प्रतिमाशतक सूत्र सटीक; अ.रा. पृ. 4/22665 9. दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून, यस्माद्वारयते पुनः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः ॥ अ.रा. पृ. 2/773, एवं पृ. 4/2665 10. अ.रा.पृ. 4/2667 11. अ.रा.पृ. 4/2663, 2667 12. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 2, पृ. 467; मूलाचार-557 13. अ.रा.पृ. 4/2667, 68, सूत्रकृतांग नियुक्ति-2/39 14. अ.रा.पृ. 4/2663, 2668 15. अ.रा.पृ. 4/2668 16. अ.रा.पृ. 4/2667, 2668 17. अ.रा.पृ. 4/2667 18. अ.रा.पृ. 4/2668, 2718 19. अ.रा.पृ. 4/2668 20. अ.रा.पृ. 4/2668 21. अ.रा.पृ. 4/2668 22. अ.रा.पृ. 4/2671, 2667 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [150]... चतुर्थ परिच्छेद के पास रहते हैं) के द्वारा बिना भाव से केवल परचित्तरञ्जन (लोकरञ्जन) हेतु जो अनुष्ठानादि किया जाय वह सब 'द्रव्यधर्म' है इसी प्रकार ग्राम- देश - कुल- राष्ट्र - पशु-नगरादि धर्म, तथा गम्य धर्मादि भी द्रव्यधर्म है तथा गृहस्थ के द्वारा गृहस्थ को दिया गया दान (अनुकंपादिपूर्वक या प्रीति-सत्कारादि) भी द्रव्यधर्म है । 24 कुतीर्थिक (एकांतवादी) बौद्ध, संन्यासी आदि अन्यलिङ्गी का धर्म भी द्रव्यधर्म है, 25 तथा उनको अन्न, जल, वस्त्र, निवास स्थान, शयन, आसन, शुश्रूषा, वन्दन, और संतोष या चित्त प्रसन्नता दान भी द्रव्यधर्म है । 26 द्रव्य के छह सामान्य धर्मो को भी द्रव्यधर्म कहते हैं, ये निम्नलिखित हैं स्वभाव धर्म (द्रव्य स्वभाव ): अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन भाव होने पर आत्मा के सब प्रदेशों में सर्व गुण साधारणतया प्रकट होते हैं; तब उनमें हानि वृद्धि नहीं होती । 33 लौकिक आचार: गम्य धर्मः 1. अस्तित्त्व " - द्रव्य का सदा सत् अर्थात् विद्यमान रहना अस्तित्त्व गुण है। इस गुण के होने से द्रव्य में सद्रूपता का व्यवहार होता है । प्रत्येक द्रव्य अपने गुण पर्याय और प्रदेश की अपेक्षा से सत् (विद्यमान हैं) 2. वस्सुत्व28 - वस्तुत्व का अर्थ है जाति या व्यक्तित्व रुप से वस्तु का अपना स्वयं का अलग अस्तित्त्व बनाए रखना । वस्तुत्व के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न होती है। धर्मादि छहों द्रव्य एक क्षेत्र में एक साथ मिलकर रहने पर भी एक दूसरे से अपने वस्तुत्व के कारण भिन्न हैं। एक आकाश प्रदेश में धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, जीवों के अनन्त प्रदेश और पुद्गल के अनन्त परमाणु रहे हुए हैं; परन्तु अपने-अपने स्वभाव में रहते हुए वे एक दूसरे की सत्ता में नहीं मिलते। इसी से उनका वस्तुत्व स्वतन्त्र है । 3. द्रव्यत्व - अपने अपने (स्वाभाविक / सहभावी गुणयुक्त:) द्रव्य की अपनी-अपनी (क्रमभावी) पर्याय प्राप्त करना 'द्रव्यत्व' कहलाता है । 29 सब द्रव्य भिन्न-भिन्न रुप से अपनी-अपनी क्रिया करते हैं। भिन्न-भिन्न अर्थक्रिया करने को द्रव्यत्व कहते हैं। 4. प्रमेयत्व " - अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रमेय का लक्षण बताते हुए कहा है - " द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमेयम् ।" अथवा प्रमाण के द्वारा जानने योग्य स्व- पर स्वरुप प्रमेय है। प्रमेय का भाव अर्थात् प्रमाण का विषय होना प्रमेयत्व है। अर्थात् ज्ञान के द्वारा ज्ञान होना यही प्रमेयत्वज्ञेयत्व है। सभी पदार्थ केवलज्ञान स्म प्रमाण के विषय हैं, इसलिए प्रमेय हैं। 5. प्रदेशत्व (सत्त्व ) 2 - उत्पाद (उत्पति), व्यय (विनाश) और ध्रुवत्व (स्थिरता) को सत्त्व कहते हैं - उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । प्रत्येक द्रव्य की सत्ता उसके स्वरुप से है। किसी द्रव्य का स्वरुप तो साकार है, जैसे पृथ्वी आदि; और किसी द्रव्य का स्वरुप निराकार है, जैसे आकाश, आत्मा, काल आदि । किन्तु निराकार होने का अर्थ यह नहीं है कि उसकी सत्ता ही नहीं है, अपितु यह है कि निराकार का भी उसके प्रदेश (अविभागी प्रतिच्छेद) रुप द्रव्य पदार्थ (जो कि भौतिक तत्वों के समान न होने से इन्द्रियग्राह्य नहीं है) के रुप में अस्तित्व है। प्रत्येक द्रव्य का यह स्वरुप ही उसका प्रदेशत्व है। 6. अगुरुलघुत्व - अगुरुलघुत्व द्रव्य का वह धर्म है जिसके कारण द्रव्य के किसी भी अंश का किसी भी काल और किसी भी क्षेत्र में नाश नहीं होता। इस अगुरुलघु स्वभाव का कभी नाश नहीं होता। आत्मा में भी अगुरु लघु गुण है। इसमें गुणों का आविर्भाव तिरोभाव तब तक ही होता है; जब तक कर्मो का आवरण है। किन्तु क्षायिक 'गम्य' शब्द 'गम्लृ' धातु से बना है, 34 जिसका साधारण अर्थ 'गमन करना' है: 'धर्म' विशेष्य से संबद्ध विशेषण के रुप में प्रयुक्त 'गम्य' शब्द का अर्थ 'प्राप्ति' भोग और उपभोग करने से है । भोग के अन्तर्गत वे पदार्थ आते हैं जिनका एक बार ही सेवन किया जा सकता है; जैसे - खाद्य पदार्थ, स्पर्श, पुष्पमालादि आदि 135 उपभोग में वे पदार्थ आते हैं जिनका सेवन अनेक बार किया जाता है जैसे वस्त्र, गृह आदि 136 योगरूढ अर्थ के साथ 'गम्य' शब्द वैवाहिक संबंध अथवा कि मैथुनी सहसंबंध का नियमन करता है। इसी विषय को रेखांकित करते हुए आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में 'गम्य धर्म' में यह स्पष्ट किया है कि दक्षिणापथ में मामा की पुत्री से सह संबंध हो सकता है जबकि दूसरी ओर उत्तरापथ में इसे निषिद्ध माना गया है। 37 यह तो संकेत- मात्र हैं। सहसंबंध के विषय में चिकित्सा शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश दिये गये हैं कि समागम करनेवालों को अतुल्यगोत्र होना चाहिए। तत्पश्चात् स्त्री और पुरुषों की अलग-अलग विशेषताएँ बताई गई है जो समागम कर सकते हैं। इसके विपरीत वहाँ यह भी बताया गया है कि किससे समागम नहीं करना चाहिए। चूंकि समागम में सक्रिय, भागीदार पुरुष होता है इसलिए निषेध उसे ही निर्दिष्ट किये गये हैं। जैसे कि रजस्वाला, रुग्णा, गर्भिणी स्त्रियों से समागम नहीं करना चाहिए 139 खाद्य पदार्थ और गंध अर्थात् गंधाश्रय पुष्पादि एक बार ही सेवन करने योग्य होते हैं; इसके बाद वे सेवन के योग्य नहीं 23. । ...... विधीयते एष मया पुनः समस्तान्यधार्मिकै धर्मबुद्धया परप्रतारणबुद्धया वा विधीयमानः सर्वोऽपि ध्यानाध्यायनादिः द्रव्यधर्म एव । तथा स्वदर्शनप्रतिपन्नानां श्रमणाऽऽदीनां चतुर्णामपि यच्चैत्यवन्दनप्रतिक्रमणस्वाध्यायाऽऽद्यनुष्ठानसे वनमविधिनाऽनुपयोगेन तथा परोपरोधपरचित्तरञ्जनवतां पार्श्वस्थादीनां च यदनुष्ठानं तदपि द्रव्य धर्म एव...... । - अ. रा.पृ. 4/2668 अ. रा. पृ. 4/2668, 2669 अ. रा. पृ. 4/2667 अ. रा. पृ. 4/2474 अ. रा. पृ. 1/517, 518 अ.रा. पृ. 6/880 24. 25. 26. 27. 28. 29. 30. 31. 32. 33. 34. 35. 36. 37. अ.रा. पृ. 4/2462, 4/2471 षड् द्रव्य विचार, पृ. 104 105 अ. रा. पृ. 5/497; जैनेन्द्र सिद्धानन्त कोश, पृ. 3/146 अ. रा. पृ. 7/312; षड् द्रव्य विचार, पृ. 106 107 अ. रा. पृ. 1/15 पोरदुपधात् । अष्टाध्यायी 3.1.98 अति यत्प्रत्ययः । अ. रा.पू. 5/1603; उत्तराध्ययन, 33 अध्ययन अ. रा. पृ. 2/997 तत्र गम्यधम्र्म्मो यथा दक्षिणापथे मातुलदुहिता गम्या, उत्तरापथे पुनरगम्यैव । - अ.रा. पृ. 4/2668 38. अतुल्यगोत्रस्य रजः क्षयान्ते रहोविसृष्टं कमिथुनीकृतस्य । किं स्याञ्चतुष्पातप्रभवं च षड्भ्यो यत्स्त्रीषु गर्भत्वमुपैति पुंसः । - चरकसंहिता, शारीरस्थान (अतुल्यगोत्रीय 2/3) 39. चरक संहिता, शरीर स्थान Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [151] रहते - इन्हें भी आचार्यश्रीने गम्य-धर्म से सूचित किया है। इसके रहते हों50, उसे 'देश' कहा है। उसे ही 'राष्ट्र' भी कहते हैं ।। साथ ही जैन शासन में कुछ एसे पदार्थों को भी सूचीबद्ध किया राष्ट्रीय विधि-विधान, नियमों एवं मर्यादाओ का पालन करना; देश गया हैं जो भोग्य नहीं हैं, जैसे - 22 अभक्ष्य एवं 32 अनंतकाय के विकास, उन्नति, एकता एवं हित के लिये प्रयत्न करना; हर परिस्थिति आदि। में देश का गौरव बढाना एवं बनाये रखना; उस क्षेत्र से संबंधित जाति स्वभाव : उचित देशाचार का पालन करना-देश धर्म है।52 पशु धर्म : 3. नगर धर्म:पशुओं के तीन कार्य प्रमुख रुप से गिनाये गये हैं - आहार, अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने वृक्ष या पर्वतादि निद्रा एवं मैथुन। से युक्त स्थान को 'नकर' अर्थात् 'नगर' कहा है।53 ग्रामों के मध्य आहारनिद्राभयमैथुनं च, में स्थित व्यवासियक केन्द्र रुप मुख्य गाँव को 'नगर' कहते हैं ।54 समानमेतत्पशुभिर्नराणाम्। नगर में रहनेवाले नागरिकों के आवश्यक कर्तव्य जैसे कि धर्मो हि तेषां अधिको विशेषो, नगर की सुव्यवस्था, शांति, सुरक्षा, नागरिक-नियमों का पालन, हितधर्मेण हीना पशुभिः समानाः। - महाभारत चिंता, संरक्षण, संवर्धन करना-नगर धर्म है। साथ ही बोलचाल में यहाँ 'पशुधर्म' शब्द से पशुओं के मैथुन संबंधी गम्यागम्य नगर के अनुरुप भाषा का प्रयोग, स्त्रियों का घर से बाहर गमनागमन - अविवेक को संकेतित किया गया है। चूंकि पशु विवेक रहित होते हैं अतः उनमें यह विचार नहीं पाया जाता कि अमुक मेरी माता आदि भी नगर धर्म है। है, अमुक मेरी बहिन है आदि। जो मनुष्य काम-मनः प्रविचार में युगीन संदर्भ में गाँवों का और नगर में आये ग्रामीणों का विवेक नहीं रखते उनकी तुलना पशुओं से की गयी है। यह पशुधर्म शोषण न करना, गाँवों के संपूर्ण विकास हेतु प्रयत्न करना, यह भी मनुष्य योनि में अत्यन्त निन्द्य है। नगर-धर्म है। व्यवहार धर्म : 40. एवं भक्ष्याभक्ष्यपेयापेयविभाषा कर्तव्येति । अ.रा. पृ. 4/2668 41. अ.रा. पृ. 2/928 1. राज्य धर्म: 42. 'पशुधर्मो मात्रादिगमनलक्षणः।' वही, भाग 4/2668; मात्रादिगमनलक्षणे प्रत्येक राज्य के नीति-नियम, अधिकार और कर्तव्य, कर, पश्वाचारे। -वही, भाग 5, पृ.813 जीवन-शैली, मर्यादाएँ, भाषा, वेश-भूषा आदि अलग-अलग होते 43. अ.रा. पृ. 4/2669, 6/478 हैं। राज्य में रहने वाले या आगंतुक सभी को इसका पालन करना। 44. अ.रा. पृ. 4/1388,2628,2630 45. अ.रा. प. 4/13883; आचारांग 1/615; प्रश्नव्याकरण सूत्र-3, आस्त्रव द्वारा - यह राज्य धर्म है। साथ ही राज्य विरुद्ध षड्यंत्र नहीं रचना, 46. अ.रा. पृ. 4/1388 आचारांग, 1/615 कर चोरी नहीं करना, राज्य के हित एवं विकास तथा सुख-शांति 47. अ.रा. पृ. 4/1388 आचारांग, 1/615, वाचस्पत्यभिधान कोश एवं समृद्धि हेतु प्रयत्न करना - यह भी राज्य-धर्म है। 48. अ.रा. पृ. 4/2628 स्थानांग, 3/3 2. देश धर्म : 49. अ.रा. पृ. 4/2668; हारिभद्रीय अष्टक-12 अभिधान राजेन्द्र कोश में जणवय (जनपद), देस (देश), 50. अ.रा. पृ. 4/1388 भगवतीसूत्र- 9/6 और देसड (देश)- ये देश के पर्यायवाची शब्द हैं। राजेन्द्र कोश 51. अ.रा. पृ. 4/1388 52. अ.रा. पृ. 4/2628-29; स्थानांग, 10/760; जैन, बौद्ध और गीता का में जैनागमों के अनुसार जहाँ लोगों का निवास हो,45 जो क्षेत्र साधुओं समाज दर्शन, पृ. 99 के विहार-योग्य हो अर्थात् जहाँ जैन साधु-साध्वी विचरण करते हों, 53. अ.रा. पृ. 4/1792-93 एवं 2771 जहाँ बहुत लोग आते-जाते हो", जिसका जो जन्मस्थान हो, जो 54. अ.रा. पृ. 4/1793 ग्राम-नगरादि से युक्त हो", जो मनुष्य लोक हो अर्थात् जहाँ मनुष्य 55. अ.रा. पृ. 4/1793 एवं 2669 जलदान पानीयं प्राणिनां प्राणा-स्तदायत्तं हि जीवनम् । तस्मात्सर्वास्ववस्थासु, न क्वचिद्वारि वार्यते ॥ अन्नेनापि विना जन्तुः, प्राणान् धारयते चिरम् । तोयाभावे पिपासार्तः, क्षणात् प्राणैर्वियुज्यते ॥2॥ तृषितो मोहमायाति, मोहात् प्राणान् विमुञ्चति । तस्माज्जलमवश्यं हि, दातव्यं भेषजैः समम् ॥७॥ - अ.रा.पृ. 4/1426 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [152]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन लोकोत्तर धर्म : भाव धर्म भाव धर्म: 1. सामान्य - सर्वजनसाधारण के अनुष्ठान रुप और 'दंसण मूलो धम्मो'56 - इस अर्थ में 'धर्म' शब्द का 2. विशिष्ट - सम्यग्दर्शन, अणुव्रत, द्वादशव्रत रुप तथा क्षमादि 10 धर्मरुप। अर्थ करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - सम्यग्दर्शनादि के विषय में कर्मक्षय में कारणभूत आत्मपरिणाम को चित्त का हेतु या चित्त से उत्पन्न होने के कारण चारित्र (आचरण, क्रिया, सदनुष्ठान) को 'भाव धर्म' कहते हैं। धर्म कहते हैं। सम्यग्दर्शन के मूल गुण और उत्तर गुण की संहति अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि "शास्त्रोक्त रुप धर्म के अर्थ में 'धर्म' शब्द का प्रयोग होता है। धर्म सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानक्रियारुप मोक्ष के कारण एवं सुखादि के एकान्तिक कारण ज्ञान-चारित्र रुप है। रुप होने से जीवों को सुगति में धारण करने से (सुगति प्राप्त करवाने अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने धर्म की व्याख्या करते के कारण) इसे 'धर्म' कहते हैं। इस भावधर्म के पालन से जीव हुए कहा है कि शुद्ध अनुष्ठानजनित (शुद्ध भावपूर्वक की गई सेवा-पूजा, को मैत्री (परहितचिन्ता), करुणा (परदुःखविनाश), प्रमोद (परसुखसृष्टि) दर्शन, वंदन, सामायिक, पौषधादि धर्मक्रिया से उत्पन्न), कर्मरुप मल और मध्यस्थता (दूसरें के दोषों को दूर करने में असमर्थ होने पर (राग-द्वेष) को दूर करने रुप लक्षणयुक्त, निर्वाण के बीज रुप सम्यग्दर्शनादि समभाव या उपेक्षा) गुण प्राप्त होता है21 (और) समतापूर्वक मध्यस्थ के लाभ रुप जीव की शुद्धि ही धर्म है। अतः सिद्धांत से अविरुद्ध भाव धारण करने के लिए तीर्थंकरों ने भाव धर्म कहा है। यह होने के कारण अनुष्ठान/धर्मक्रिया को 'धर्म' कहते हैं।60 भाव धर्म ही वास्तव में जैनधर्म है अतः सप्रसंग हम यहाँ 'जैनधर्म' 'चारित्तं खलु धम्मो'61 - इस अर्थ में 'धर्म' पद की की चर्चा करेंगे। व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है 56. जैनेन्द्र सिद्धन्त कोश, पृ. 2/465; दर्शनपाहुड 12; पंचाध्यायी-716 दुर्गति में पडे हुए प्राणियों का उद्धार करके उनको शुभस्थान में 57. अ.रा.पृ. 4/2665; सूत्रकृतांग, 2/5 अध्ययन; धारण करने के कारण इसे धर्म कहते हैं अथवा दुर्गतिस्पी खाई में 58. अ.रा.पृ. 4/2665 पडे हुए प्राणियों के उद्धार के लिये जीव के परिणाम को धर्म कहते । 59. अ.रा.पृ. 4/2665; सूत्रकृतांग -2/5/15; जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, 2/467 हैं, अथवा दुर्गति में पडे हुए प्राणियों का उद्धार कर उन्हें सुगति में 60. I..... इत्थं च शुद्धनुष्ठानजन्या कर्मलापगमलक्षणा सम्यग्दर्सनादिस्थापित करना - धर्म है। धर्म का अर्थ आचार, कुशल अनुष्ठान, निर्वाणबीजलाभफला जीवशुद्धिरेव धर्मः । यच्चेहाविरुद्धवचनादनुष्ठानं धर्म इत्युच्यते । अ.रा. पृ. 4/2666 संसार के उद्धार का स्वभाव, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग8, अभ्युदय 61. अ.रा.पृ. 4/2665 और मोक्ष की सिद्धि का साधन, पुण्य-लक्षण रुप आत्म-परिणाम भी 62. अ.रा.पृ. 4/2665; दशवैकालिक सूत्र सटीक 1/1; सूत्रकृतांग 1/11; है । भाव-धर्म या चारित्र धर्म के अर्थ में यति और श्रावक के आचार 63. अ.रा.पू. 4/2665 को', श्रुत और चारित्र धर्म के लिए कर्मक्षय के कारणभूत आत्मपरिणाम 64. अ.रा.पृ. 4/2665; स्थानांग, 1, ठाणां, सूत्रकृतांग 1/11 को, सर्वज्ञ भगवंतो के द्वारा प्ररुपित अहिंसादि लक्षण को,73 65. अ.रा.पृ. 4/2665 66. विशेषावश्यक सभाष्य, गाथा 1918 सम्यक्त्वी4, क्षमा आदि दशविध यतिधर्म को 5, प्राणातिपातविरमण 67. सूत्रकृतांग 1/6 आदि श्रावक धर्म को6, श्रुत और चारित्र धर्म को", दानादि श्रावक 68. अ.रा.पृ. 4/2665: आचारांग 1/3/1 धर्म को, और क्षायिक चारित्र को अभिदान राजेन्द्र कोश में 'धर्म' 69. धर्मसंग्रह सटीक, 1 अधिकार कहा है। 70. आवश्यक बृहदृत्ति, 4 अध्ययन; सूत्रकृतांग 2/5 आगे अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने लोकोत्तर धर्म 71. धर्मसंग्रह सटीक, 2 अधिकार 72. सूत्रकृतांग, 2/5 को 1. ज्ञान 2. दर्शन और 3. चारित्र रुप से तीन प्रकार से भी बताया 73. दर्शनशुद्धि सटीक, 1 तत्त्व है; वह प्रत्येक पाँच-पाँच प्रकार से है 74. दर्शनशुद्धि सटीक, 1 तत्त्व; सूत्रकृतांग 1/15; 1. ज्ञान - मति-श्रुत-अवधि-मनः पर्यव और केवलज्ञान। 75. अ.रा.पृ. 1/279; सूत्रकृतांग 1/1/1; -तत्त्वार्थसूत्र 9/6 2. दर्शन - औपशमिक, सास्वादा, क्षायोपशमिक वेदक 76. अ.रा.पृ. 4/2666 और क्षायिक सम्यकत्व। 77. अ.रा.प. 4/2665: उत्तराध्ययन 25 अध्ययन; सूत्रकृतांग 2/5 78. संथारग पयत्रा सटीक 3. चारित्र - सामायिक, छेदोपस्थापनीय, सूक्ष्म संपराय, 79. स्थानांग, 3/1; सूत्रकृतांग 2/5 परिहार विशुद्धि और यथाख्यात चारित्र । 84. अ.रा.पृ. 4/1938 भाव धर्म के चार प्रकार: 85. अ.रा.पृ. 4/2626 1. दान 2. शील 3. तप और 4. भाव । यह भाव धर्म (1) 86. अ.रा.पृ. 4/26683; तत्त्वार्थसूत्र 9/18 87. अ.रा.पृ. 4/2668 साधु और (2) गृहस्थ - आचरणकर्ता के भेद से दो प्रकार का है। जैन 88. अ.रा.पृ. 4/2669 श्रमण दीक्षा ग्रहण के दिन से सकल सावद्ययोग के त्यागपूर्वक 89. अ.रा.पृ. 4/266 गुरूपदेश से अहिंसापूर्वक यथाशक्ति अनशनादि तप का आचरण 90. अ.रा.पृ. 4/2669 करता है, उसका जो धर्म/स्वभाव, वहभाव धर्म-श्रमण धर्म है । 91. अ.रा.पृ. 4/2667; श्रमण धर्म का आचरण करने में असमर्थ लोगों के लिए उसी का स्थूल 92. अ.रा.पृ. 4/2672 रुप गृहस्थ धर्म है। गृहस्थ धर्म भी दो प्रकार से हैं 93. अ.रा.प्र. 4/2676 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन मुनाफा होने के बावजूद भी माता-पिता के वृद्धत्व एवं गिरते स्वास्थ्य का समाचार पाकर दोनों भाई व्यापार समेटकर वापिस कलकत्ता होकर भरतपुर आ गये। 19 वैराग्यभाव : माता-पिता की वृद्धावस्था एवं दिन-प्रतिदिन गिरते स्वास्थ्य के कारण दोनो भाई माता-पिता की सेवा में लग गए। अंततः रत्नराज ने उनको अंतिम आराधना करवाई एवं एक दिन के अंतर में मातापिता दोनों ने समाधिभाव से परलोक प्रयाण किया | 20 माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् उदासीन रत्नराज आत्मचिन्तन में लीन रहने लगे। नित्य अर्ध-रात्रि में, प्रातः काल में कायोत्सर्ग, ध्यान, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन आदि में समय व्यतीत करते रहे । सुषुप्त वैराग्यभावना के बीज अंकुरित होने लगे। इतने में उसी समय (वि.सं. 1902) में पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी का चातुर्मास भरतपुर में हुआ। आपका तप त्याग से भरा वैराग्यमय जीवन एवं तत्त्वज्ञान से ओत-प्रोत वैराग्योत्पादक उपदेशामृतने रत्नराज के जिज्ञासु मन का समाधान किया जिससे रत्नराज के वैराग्यभाव में अभिवृद्धि हुई । फलस्वरुप उनकी दीक्षा - भावना जागृत हुई और वे भागवती दीक्षा ( प्रवज्या) ग्रहण करने हेतु उत्कंठित हो गये | 21 साधुजीवनवृत्त - दीक्षा : दीक्षा को उत्कण्ठित रत्नराज में उपादान उछल रहा था, केवल निमित्त की उपस्थिति आवश्यक थी। निमित्त का योग विक्रम सं. 1904 वैशाख सुदि 5 (पंचमी) को उपस्थित हो गया और इस प्रकार अपने बड़े भ्राता माणिकचन्द्रजी की आज्ञा लेकर रत्नराज ने उदयपुर (राज.) में पिछोला झील के समीप उपवन में आम्रवृक्ष के नीचे श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरि जी से यतिदीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार आपके दीक्षा गुरु आचार्य श्री प्रमोद सूरि जी थे । अब नवदीक्षित मुनिराज मुनि श्री रत्नविजयजी' के नाम से पहचाने जाने लगे 122 अध्ययन : "पढमं नाणं तओ दया 23 अर्थात् ज्ञान के बिना संयम जीवन की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं हैं। इस बात को निर्विवाद सत्य समझकर गुरुदत्त - ग्रहण - आसेवन शिक्षा के साथ साथ मुनि श्री रत्नविजयजीने दत्तवित्त होकर अध्ययन प्रारंभ किया। व्याकरण, काव्य, अलंकार, न्याय, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, कोश, आगम आदि विषयों का सर्वांगीण अध्ययन आरम्भ किया । मुनि रत्नविजयजीने गुर्वाज्ञा से खरतरगच्छीय यति श्री सागरचंदजी के पास व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि का अध्ययन किया (वि.सं. 1906 से 1909) 124 तत्पश्चात् निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि पंचागी सहित जैनागमों का विशद अध्ययन वि.सं. 1910-11-12-13 में श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास किया । इनकी अध्ययन जिज्ञासा और रुचि देखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने इन्हें विद्या की अनेक दुरुह और अलभ्य आमनायें प्रदान की 125 श्री राजेन्द्रसूरियस (पूर्वार्द्ध) के लेखक रायचन्दजी के अनुसार मुनि रत्नविजय ज्योतिष का अभ्यास जोधपुर (राजस्थान) में चंद्रवाणी ज्योतिषी के पास किया । 26 बडी दीक्षा : वि.सं. 1909 में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि त्रीज) के दिन श्रीमद्विजय प्रमोद सूरि जी ने उदयपुर (राजस्थान) में आपको दीक्षा दी। 27 साथ ही श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरि जी एवं श्री देवेन्द्रसूरि जी ने आपको उस समय पंन्यास पद भी दिया 128 अध्यापन : आपकी योग्यता और स्वयं की अंतिम अवस्था ज्ञातकर श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरिने अपने बाल शिष्य धरणेन्द्रसूरि जी (धीर विजय) को अध्ययन कराने का मुनि श्री रत्नविजयजी को आदेश दिया। 29 गुर्वाज्ञा व श्रीपूज्यजी के आदेशानुसार आपने वि.सं. 1914 से 1921 तक धीरविजय आदि 51 यतियों को विविध विषयों का अध्ययन करवाया और स्व- पर दर्शनों का निष्णात बनाया। 30 श्रीपूज्य श्री धरणेन्द्रसूरिने भी विद्यागुरु के रुप में सम्मान हेतु आपको 'दफ्तरी' पद दिया । 1 दफतरी पद पर कार्य करते हुए आपने वि.सं. 1920 में राणकपुर तीर्थ में चैत्र सुदि 13 ( महावीर जन्मकल्याणक ) के दिन पांच वर्ष में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह किया 132 वि.सं. 1922 का चातुर्मास प्रथम बार स्वतंत्र रुप से 21 यतियों के साथ झालोर में किया 33 इसके बाद वि.सं. 1923 का चातुर्मास श्रीपूज्य श्री धरणेन्द्रसूरि के आग्रह से घाणेराव में उन्हीं के साथ हुआ। 34 : आचार्य पद पर आरोहण पृष्ठभूमि और प्रक्रियाऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि वर्षाकाल में ही घाणेराव में 'इन' के विषय में मुनि रत्नविजय का श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि से विवाद हो गया। श्री रत्नविजय जी साधुचर्या के अनुसार साधुओं को 'इत्र' आदि उपयोग करने का निषेध करते थे जबकि धरणेन्द्रसूरि 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. प्रथम परिच्छेद... [3] 28. 29. 30. 31. 32. 33. 34. श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 15, जीवनप्रभा पृ. 16 विरल विभूति, पृ. 8 से 11; जीवनप्रभा पृ. 7; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 15 श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 16 से 18; जीवनप्रभा पृ. 6, 7, 8 जीवनप्रभा पृ. 9; धरती के फूल पृ. 55; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 18; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 6 दशवैकालिकसूत्र मूल 4/10 जीवनप्रभा पृ. 10-11; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 17; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 19; राजेन्द्र सूरि अष्टप्रकारी पूजा 4/1, 4 जीवनप्रभा पृ. 11 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 17 श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी पृ. 4; जीवनप्रभा पृ. 11; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 19 श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी पृ. 4; जीवनप्रभा पृ. 11; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 20 श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 21 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 18 जीवनप्रभा पृ. 14-15; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 18 यो हि योग्यग्रामादौ चतुरो मासान् स्थातुं यतीनादिशेत्, अपराधिनाममीषामुचितं दण्डयेत कस्मैचित् पंन्यासोपाध्यायाद्युपाधिप्रदाने प्रमाणपत्र वितरेत्, श्री पूज्यस्याऽऽयव्ययकोषांश्च प्रबन्धयेत, स एवं 'दफतरी' निगद्यते । सम्मान्यते चैष तत्पसंप्रदाये महामात्यसाम्येन । - कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनीगतो जीवनपरिचयः पृ. 5 टिप्पणी जीवनप्रभा पृ. 19; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 25, 28, 33 विरल विभूति, पृ. 33 जीवनप्रभा पृ. 15, राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 23 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 32, 36 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन एवं अन्य शिथिलाचारी यति इत्र आदि पदार्थ ग्रहण करते थे। श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि आदि समस्त यतिगण से अनुमत करवाया।42 कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी के अनुसार वि.सं.1923 के पर्युषण पर्व में तेलाधर क्रियोद्धार का बीजारोपण - के दिन शिथिलाचार को दूर करने के लिये मुनि रत्नविजय ने तत्काल श्री राजेन्द्रसूरि रास (पूर्वाद्ध) के अनुसार दीक्षा लेकर वि.सं. ही मुनि प्रमोदरुचि एवं धनविजय के साथ घाणेराव से विहार कर 1906 में उज्जैन में पधारे तब गुरुमुख से उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत नाडोल होते हुए आहोर शहर आकर अपने गुरु श्री प्रमोदसूरिजी से। भृगु पुरोहित के पुत्रों की कथा सुनकर मुनि रत्नविजयजी के भावों संपर्क किया और बीती घटना की जानकारी दी।35 में वैराग्य वृद्धि हुई और इस प्रकार आप 'क्रियोद्धार' करने के विषय इसके साथ अनेक अन्य विद्वान् यतियों ने भी श्री पूज्य में चिंतन करने लगेश्री प्रमोदसूरिजी को शिथिलाचार का उपचार करने हेतु लिखा। तब "इम ध्यावे वैरागियो कां, चिंते क्रिया उद्धार । मुनि रत्नविजयजी ने आहोर में अट्ठम तप करके मौन होकर 'नमस्कार जोवे सद्गुरु वाटडी हो, संजम खप करनार ।। महामंत्र' की एकान्त में आराधना की। आराधना के पश्चात् श्री प्रमोदसूरिजी श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार पंन्यास श्रीरत्नविजयजी जब ने रत्नवजिय से कहा- "रत्न !..तुमने क्रियोद्धार करने का निश्चय 35. जीवनप्रभा पृ. 15, 16, राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 23 से 26, श्री राजेन्द्रसूरि किया है सो योग्य है व मुझे प्रसन्नता भी है, परन्तु अभी कुछ समय का रास पत्रांक 33 से 37 ठहये। पहले इन श्रीपूज्यों और यतियों से त्रस्त जनता को मार्ग दिखाओ, 36. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 36, 38; विरल विभूति, पृ. 37, 38 फिर क्रियोद्धार करो।" 37. श्री राजेन्द्र सूरि का रास पृ. 38; जीवनप्रभा प. 16: श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, तत्पश्चात् अपने गुरुदेव प्रमोदसूरीजी से विचार विमर्श कर पृ. 26, 27 मुनि रत्नविजय ने अपनी कार्य प्रणाली निश्चित की। श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी, जीवन परिचय, पृ. 6 श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 27; श्री राजेन्द्र सूरि का रास, पृ. 38, 39; जीवनप्रभा वि.सं. 1923 में इत्र विषयक विवाद के समय ही प्रमोदसूरि पृ.16 जी ने मुनि रत्नविजय को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य पदवी देना निश्चित 40. श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 28; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 39; जीवनप्रभा कर लिया था। 'श्री राजेन्द्र गुणमंजरी' आदि में उल्लेख है कि वि.सं. पृ.16, 17 1924, वैशाख सुदि पंचमी बुधवार को श्री प्रमोदसूरिजी ने 41. कलमनामा निजपरम्परागत सूरिमंत्रादि प्रदान करके श्रीसंघ आहोर द्वारा किये (1) पेली : प्रतिक्रमण दोय टंक को करणो, श्रावक-साधु समेत करणा-करावणा, पच्चक्खाण-वखाण सदा थापनाजी गये महोत्सव में मुनि श्री रत्नविजयजी को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य की पडिलेहण करणा, उपकरण 14 सिवाय गेणा तथा पद प्रदान किया और मुनि रत्नविजय का नाम 'श्रीमद्विजय मादलिया जंतर पास राखणां नहीं, श्री देहेरेजी नित राजेन्द्रसूरि' रखा गया। आहोर के ठाकुर श्री यशवन्तसिंहजी ने जाणा, सवारी में बैठणा नहीं, पैदल जाणा। परम्परानुसार श्रीपूज्य - आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि को रजतावृत्त (2) दूजी : घोडा तथा गाडी ऊपर नहीं बैठणा, सवारी खरच नहीं चामर, छत्र, पालकी, स्वर्णमण्डित रजतदण्ड, सूर्यमुखी, चंद्रमुखी एवं राखणा। (3) तीजी : आयुध नहीं रखाणा. तथा गृहस्थी के पास आयध, दुशाला (कांबली) आदि भेंट दिये 37 मुनि यतीन्द्रविजय लिखित गेणा रुपाला देखो तो उनके हाथ नहीं लगाणा, तमंचा 'श्रीकल्पसूत्रार्थप्रबोधिनीगतजीवनम्' में इस 'आचार्य पद प्रदान समारोह' शस्त्र नाम नहीं राखणा। का वर्णन निम्नानुसार हैं (4) चोथी : लुगाईयों सुं एकान्त बेठ बात नहीं करणा, वेश्या तथा "श्री गुरुरपि....योग्यसमयं विमश्य नपुंसक वांके पास नहीं बैठणा, उणाने नहीं राखणा। श्रीसंघाऽऽराब्धमहामहेन वैक्रमे 1924 वैशाखसित-पञ्चमी बुधवासरे (5) पांचमी : जो साधु (यति) तमाखु तथा गांजा भांग पीवे, पंन्यासरत्नविजयाय निजपरम्परागतसूरिमंत्रं प्रदाय 'श्रीविजय रात्रिभोजन करे, कांदा-लसण खावे, लंपटी अपच्चक्खाणी होवे-एसा गुण का साधु (यति) होय राजेन्द्रसूरिः' इत्याख्यां दत्वा श्रीपूज्यपदं ददिवान् । तदैव ठक्कुरः तो पास राखणा नहीं। श्रीयशवन्तसिंहः श्रीपूज्यायाऽस्मै स्वर्णयष्टि-चामर-च्छत्र (6) छट्ठी : सचित लीलोतरी, काचा पाणी, वनस्पति कुं विणासणा याप्यमान-सूर्यमुखी-चन्द्रमुखी-महावस्त्रप्रमुखमार्पिपच्च ।"38 नहीं, काटणा नहीं, दांतण करणा नहीं, तेल फुलेल इस प्रकार बालक रत्नराज क्रमश: मुनि रत्नविजय, पंन्यास मालस करावणा नहीं, तालाब कुवा बावडी में हाथ रत्नविजय और अब श्रीपूज्य एवं आचार्य पद ग्रहण करने के बाद धोवणा नहीं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि नाम से पहचाना जाने लगा। आचार्य (7) सातमी : सिपाई खरच में आदमी नोकर जादा राखणा नहीं, जीवहिंसा करे ऐसा नौकर राखणा नहीं। पद ग्रहण करके आप मारवाड से मेवाड की ओर विहार कर शंभूगढ (8) आठमी : गृहस्थी से तकरार करके खमासणा प्रमुख बदले रुपिया पधारे। वहाँ के राणाजी के कामदार फतेहसागरजी ने पुन: पाटोत्सव दबायने लेणा नहीं। किया, और आचार्यश्री को शाल (कामली) छडी, चवर आदि भेट (9) नवमी : और किसीको सद्दहणा देणा, श्रावकियाने उपदेशकिये। शुद्ध परुवणा देणी, ऐसी परुवणा देनी नहीं जणी में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिने शम्भूगढ से विहार करते उलटो अणा को समकित बिगडे ऐसो परुवणो नहीं, और रात के बारे जावे नहीं और चोपड, सतरंज, गंजिफा हुए वि.सं. 1924 का चातुर्मास जावरा में किया।40 आचार्य पद पर वगेरा खेल रमत कहीं खेले नहीं, केश लांबा वधावे आरोहण के पश्चात् आपका यह प्रथम चातुर्मास था। जावरा चातुर्मास नहीं, फारखी पेरे नहीं और शास्त्र की गाथा 500 के बाद विक्रम संवत् 1924 के माघ सुदि 7 को आपने नौकलमी रोज सज्झाय करणा। "कलमनामा"1 बनाकर श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि द्वारा भेजे गये मध्यस्थ ___42. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 40, 41, 42; जीवनप्रभा पृ. 18; श्री मोतीविजय और सिद्धिकुशलविजय -इन दो यतियों के साथ भेजकर राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 30 से 34 43. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 15 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गु.च. 11के. 10 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [5] विहार करते हुए वि.सं. 1920 में राजगढ में पधारे थे तब वहाँ यति सूरीश्वरजी के सदुपदेश से खीमेल (राजस्थान) निवासी किशोरमलजी मानविजय ने उनको अपने गुरु की खाली गादी पर श्रीपूज्य बनकर वालचंदजी खीमावत परिवार के सहयोग से श्री संघ जावरा द्वारा बैठने को कहा, तब आपने 'मुझे तो क्रियोद्धार करना है" -ऐसा क्रियोद्धारस्थली श्री राजेन्द्रसूरि वाटिका-जावरा( म.प्र.) में एक कहकर श्रीपूज्य की गादी पर बैठने से मना कर दिया था। सुरम्य गुरुमंदिर का निर्माण किया गया हैं। क्रियोद्धार का अभिग्रह : क्रियोद्धार प्रत्रिका :वि.सं. 1920 में ही पं. रत्नविजयजी अन्य यतियों के साथ आचार्यश्री द्वारा उपर्युक्त क्रियोद्धार कार्य जिस शुभ मूहुर्त में किया गया था तत्संबंधी निम्नाङ्कित पत्रिका उपलब्ध हैंविहार करते हुए चैतमास में राणकपुर पधारे तब भगवान महावीर "स्वस्ति श्री तीर्थनायकं जिनवरेन्द्र श्रीवर्धमानं प्रणिप्रत्य, के 2389 वें जन्म कल्याणक के उपलक्ष में रत्नविजयजी ने अट्ठम लिख्यते श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर-क्रियोद्धार पत्रिका । श्री (तीन उपवास) तप करके राणकपुर में परमात्मा आदिनाथ की विक्रमादित्य राज्यातीते सं. 1925 वर्षे अषाढकृष्णौ 10 (दशमी) साक्षी से पांच वर्षों में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह लिया था। शनौ (सोमे) रेवति नक्षत्रे शोभनयोगे मिथुनलग्ने क्रियोद्धारसमयं वहीं पारणा के दिन प्रात:काल में मुनि रत्नविजयजी मंदिर से दर्शन शुभम् 1 ता. 15-6-1868 कर बाहर जिनालय के सोपान उतर रहे थे तब किसी अबोध बालिका तस्य लग्नमिदम् - ने आकर कहा- "नमो आयरियाणं' मालछाब तेला छपल हो गया 4 शुं./ 2 आप पालणा करो, बाछठ मीनों में करना" ('नमो आयरियाणं' महाराज साहब ! तेला (अट्ठम तप) सफल हो गया । आप पारणा करो। (क्रियोद्धार) राह / 3 सू.बु. बासठ महीनों में (के बाद) करना" -ऐसा कहकर वह बालिका दौडकर मंदिर में उद्दश्य हो गई। इस प्रकार उन्हें दिव्य शक्ति के द्वारा क्रियोद्धार करने का संकेत भी मिला।46 - इसके बाद वि.सं. 1922 में जालोर( राजस्थान)चातुर्मास X में भी आपको क्रियोद्धार करने की तीन भावना हुई । यति महेन्द्र विजयजी, धनविजयजी आदिने भी क्रियोद्धार करने में अपनी सहमति 8 श. बताई। वि.सं. 1923 में भी जब आप धाणेराव से आहोर पधारे थे क्रियोद्धारक के तत्काल बाद श्री धनविजयजी एवं श्री तब भी आपने आहोर में एक महिना तक अभिग्रह धारण करके प्रमोदरुचिजी आपके पास उपसंपद् दीक्षा ग्रहण करके आपके शिष्य शुद्ध अन्न-पानी ही उपयोग में लिये। इतना ही नहीं अपितु राजेन्द्रसूरि बन गये एवं प्रथम श्रावक-श्राविका के रुप में जावरा निवासी छोटमलजी रास में तो स्पष्ट उल्लेख है कि, श्रीपूज्य पद एवं आचार्य पद ग्रहण जुहारमलजी पारख एवं उनकी श्राविकाने गुरुदेवश्री से श्रावक व्रत करने के पश्चात् आपने अपने गुरुश्री प्रमोद सूरिजी से भी क्रियोद्धार अंगीकार किये। (उनके वंशज आज भी इन्दौर, रतलाम, आदि जगह हेतु विचार विमर्श करके आज्ञा भी प्राप्त की थी।" अत: उत्कृष्ट तप-त्यागमय शुद्ध साधु जीवन का आचरण क्रियोद्धार के साथ ही आपने प्राचीन त्रिस्तुतिक परम्परा एवं वीरवाणी के प्रचार के अपने एक मात्र ध्येय की पूर्ति हेतु पूर्वोक्तानुसार का भी पुनरुद्धार किया एवं अपने गच्छ का नाम श्री सौधर्म धरणेन्द्रसूरि आदि के द्वारा नव कलमनामा अनुमत होने के बाद आचार्य बृहत्तपोगच्छ रखा । अतः यहाँ प्रसंगोपात्त त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने वि.सं. 1925 में आषाढ वदि दशमी भी परिचय दिया जा रहा हैंशनिवार/सोमवार, रेवती नक्षत्र, मीन राशि,शोभन (शुभ) योग, मिथुन लग्न में तदनुसार दिनांक 15-6-1868 में क्रियोद्धार करके 44. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 27 शुद्ध साधु जीवन अंगीकार किया। उसी समय छडी,चामर, पालखी 45. धरती के फूल पृ. 68, 70 आदि समस्त परिग्रह श्री ऋषभदेव भगवान के जिनालय में श्री 46. धरती के फूल पृ. 71 संघ-जावरा के अर्पित किया, जिसका ताडपत्र पर उत्कीर्ण लेख धरती के फूल पृ. 33 से 38 48. आचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी के अनुसार उनके गुरु श्री श्री सुपार्श्वनाथ के मंदिर के गर्भगृह के द्वार पर लगा हुआ है। प्रमोदसूरिजी एवं उनके बडे गुरुभ्राता श्री हेमविजयजी के तप-त्याग क्रियोद्धार के समय आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र एवं साधु जीवन का मुनि रबविजयजी पर अमीट प्रभाव था। क्योंकि सूरीश्वरजीने अट्ठाई ( आठ उपवास)तप सहित जावरा शहर के बाहर उनका जीवन तो साधु के समान ही था। वे अपनी पिछली उम्र में नित्य आयंबिल तप करते थे परंतु धरणेन्द्रसूरि एवं उनके साथवाले यतियों (खाचरोद की ओर) नदी के तटपरवटवृक्ष के नीचे नाण(चतुर्मुख का जीवन शिथिलाचारी था। जिनेश्वरप्रतिमा) के समक्ष केश लोंच किया, पञ्च महाव्रत उच्चारण 49. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 47; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 35, 36; जीवनप्रभा किये एवं शुद्ध साधु जीवन अंगीकार कर सुधर्मा स्वामी की 68वीं पृ. 19 पाट पर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी' नाम से प्रख्यात धरती के फूल पृ. 126, 127 51. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 47; अभिधान राजेन्द्र भाग 7, संस्कृत प्रशस्तिहुए । वर्तमान में आपके प्रशिष्यरत्न, राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन 1, मुद्रण प्रशस्ति-2 For Private & Personal use only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का महत्त्व एवं प्राचीनता जैनों के प्रथम तीर्थंकर परमात्मा ऋषभदेव ने वर्तमान अवसर्पिणी काल में गृहस्थावस्था में सर्वप्रथम मानव सभ्यता, असिविद्या, मषिविद्या और कृषिविद्या का आलोक बिखेरा एवं केवलज्ञान के बाद मोक्ष प्राप्ति हेतु समीचीन धर्म की प्ररुपणा की। उस धर्म में देवोपासना को कोई स्थान नहीं था। परन्तु अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समय में यज्ञ-यागों का और देवोपासना का बहुत बोलवाला था। अतः उन्होंने यज्ञ और यज्ञ के निमित्त होने वाली पशुहिंसा का तीव्र विरोध कर अहिंसा प्रधान श्रमण धर्म/जैनधर्म को पुनः प्रकाशित किया। उनके अथक प्रयत्नों से हिंसक यज्ञ-यागों का प्रचलन बंद हो गया। और उनके वीतराग मार्ग के प्रकाशन के कारण देवोपासना भी बंद हो गयी। जैनधर्म में देवोपासना को कोई स्थान नहीं है। यहाँ वीतरागता और वीतराग की आराधना को ही प्रधानता दी गयी हैं। परमात्मा ने आराधकों के लिये आत्मकल्याणकर और मोक्षप्रदायक सामायिकादि छह आवश्यकमय भावानुष्ठानों का प्रतिपादन किया है जो कि आराधक को संसार-भ्रमण से मुक्त करता हैं। भगवान् महावीर के पश्चात् सुधर्मा स्वामी की परंपरा चली। इस परंपरा में सुदेव, सगुरु और सुधर्म की आराधना की जाने लगी। इसी परंपरा में चौथे पाट पर श्री शय्यंभवसूरि महाराज हुए। उन्होंने धर्म का महत्त्व प्रतिपादन करते हुए दशवकालिक सूत्र के प्रारंभ में कहा "धम्मो मङ्गलमुक्टुिं अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो । अर्थात् अहिंसा, संयम और तप ही धर्म हैं। यही उत्कृष्ट मङ्गल है। देवता भी उसे प्रणाम करते हैं, जिसका मन सदा इस धर्म में लगा रहता हैं। त्रिस्तुतिक सिद्धांत अर्थात् सम्यक्त्व एवं व्रत धारण के बाद तीन थुई का सिद्धांत, जिसमें आराधक चैत्यवन्दन करते समय तीन स्तुतियाँ बोलते हैं 1. पहली अधिकृत जिनकी, 2. दूसरी सर्व जिन की और 3. तीसरी जिनागभ की वीतराग की आराधना का यही श्रेष्ठतम मार्ग है। यही शुद्ध साधन है और इसी के द्वारा मोक्षरुप शुद्ध साध्य सिद्ध होता है। यह साधना के क्षेत्र में एक निर्मल आचरण हैं। यह सम्यग्दर्शन की रीढ है । इसके अभाव में सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता हैं। यह सिद्धांत आराधक को स्वावलम्बी बनाने की प्रेरणा देता है। इसी सिद्धांत के पालन में वीतरागता का गौरव निहित हैं। इस सिद्धांत ने यह स्पष्ट कर दिया कि वीतरागी ही वंदनीय, पूजनीय तथा अनुक्षण स्मरणीय हैं। जिनागम में जगह-जगह इस त्रिस्तुतिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया हुआ हैं जिसके संबंधित शास्त्रपाठ शोध-प्रबंध के परिशिष्ट क्र.2 पर वर्णित हैं। भगवान् महावीर के पश्चात् हजार वर्ष तक यह सिद्धांत अबाधित रुप से चलता रहा, पर बाद में अन्य धर्मों के प्रभाव से लोग देवोपासक होने लगे और इन तीन थुइयों में चौथी थुई का मत चल पडा। चौथी थुई देवी-देवता से संबंधित हैं। श्री बुद्धिसागरसूरि जी महाराज 'गच्छमतप्रबन्ध' में लिखते हैं - "विद्याधर गच्छनां श्री हरिभद्रसूरि थया ते जाते ब्राह्मण हता। तेमणे जैन दीक्षा ग्रहण करी । ते याकिनी साध्वीनां धर्मपुत्र कहेवाता हतां । तेमणे 1444 ग्रंथो बनाव्या । श्रीवीरनिर्वाण पछी 1055 वर्षे स्वर्गे गया । त्यार पछी चतुःस्तुतिक मत चाल्यो । इस प्रकार 'चार थुई' का मत प्रारंभ हुआ और सौधर्म गच्छ में देवी-देवताओं की उपासना प्रारंभ हुई। शिथिलाचार बढ़ गया और देवी-देवताओं के स्तोत्र, स्तुतियाँ, स्तवन आदि रचे जाने लगे। उनसे धन-दौलत, एश्वर्य (ठकुराई) आदि की याचना की जाने लगी। त्रिस्तुतिक सिद्धांत अदृश्य होने लगा, फिर भी परमात्म-प्ररुपित यह सिद्धांत पूरी तरह से लुप्त नहीं हुआ। थराद क्षेत्र (उ.गुजरात) में तीन थुई सिद्धांत यथावत् प्रचलित रहा। थराद में विक्रम की नौंवी शती में थारापद्रीय/थिरापद् गच्छ, 13 वीं शती में आगमिका गच्छ' एवं 16 वीं शती में 'कडवामति गच्छ' की मान्यता प्रचलित थी। ये सभी गच्छ तीन थुई सिद्धांत का आचरण करते थे। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी जब वि.सं. 1937 में धानेरा पधारे तब थराद के कडवागच्छ के यति श्री लाघाजी साजीने आचार्यश्री को उक्त बात ज्ञात करवाकर साग्रह विनंतीपूर्वक थराद में आपका पदार्पण करवाया था F 52. 53. 54. 55. श्री दशवैकालिका सूत्र 1/1 ले.आ.श्री.वि. जयन्तसेनसूरि - असली दुनिया, इन्दौर सं., दिनांक 02.09-2000 पृ. 4से उद्धृत गच्छमतप्रबंध अने संघ प्रगति, पृ. 169 थराद-प्राचीन थिरपुर नगर : 'युग युगनी याद' -लेखक कीर्तिलाल बोरा Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अन्य दर्शनों में मोक्ष जैन दर्शन की तरह आत्मवादी न्याय-वैशेषिकादि सभी दर्शनोंने मोक्ष को स्वीकार तो किया है, लेकिन उनमें इतनी विभिन्नताएँ है कि एक का विचार - प्रस्तुतीकरण दूसरें से नहीं मिलता तथापि प्रसंगवश यहाँ अन्यदर्शनों में स्वीकृत मोक्ष की परिभाषाओं का संक्षिप्त में वर्णन किया जा रहा है । न्याय-वैशेषिक- न्याय-वैशेषिक के अनुसार सुख-दुःख चेतना आदि सभी आत्मा के आगन्तुक गुण है। मुक्तात्माओं के शरीर-विच्छेद के साथ-साथ आगन्तुक गुणों का भी अभाव हो जाता है। उनका मानना है कि सुषुप्तावस्था जिस प्रकार सुख-दुःख से रहित अवस्था होती है, उसी प्रकार मोक्षावस्था में भी आत्मा सुख-दुःख से रहित होती है। नींद की अवस्था अस्थायी होती है, परन्तु मोक्षावस्था स्थायी होती हैं। अद्वैत वेदान्त - अद्वैत वेदान्त में मोक्ष पूर्ण चैतन्य और आनन्द की अवस्था है। अनादि अविद्या से मुक्त होकर आत्मा का ब्रह्म में विलीन हो जाना ही 'मोक्ष' है। वस्तुतः आत्मा ब्रह्म ही है, परन्तु वह अज्ञान से प्रभावित होकर अपने को ब्रह्म से पृथक् समझने लगता है। यही बन्धन है। अनादि अज्ञान का आत्यन्तिक अभाव ही मोक्ष है । मीमांसा - मीमांसा दर्शन के अनुसार चैतन्यरहित अवस्था ही आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है। इस दृष्टि से मोक्ष सुख-दुःख से परे है । इस अवस्था में न चैतन्य रहता है, न ही आनन्दा' । सांख्य- सांख्य दर्शन के अनुसार मूल प्रकृति के निवृत्त हो जाने पर पुरुष एकान्तिक और आत्यन्तिक रुप से कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है। इस प्रकार प्रकृति से निवृत्त होना ही मोक्ष है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा को आनन्द की अनुभूति नहीं होती, क्योंकि वे पुरुष को स्वभावतः मुक्त और त्रिगुणातीत मानते हैं । योग - योगदर्शन यम, नियम आदि योग की अष्टांग प्रक्रिया के द्वारा चित्तवृत्तिनिरोध से मोक्ष की सिद्धि स्वीकार करता है । बौद्ध बौद्ध दर्शन में दीपक के बूझने की तरह चित्तसन्तति के अभाव को मोक्ष माना गया हैँ - I चार्वाक - चार्वाक दर्शन का कहना है। यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा धृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ? ॥ - ऐसी मान्यतावाले इस दर्शन के अनुसार पृथ्वी आदि चार या पाँच भूतों के संयोग से उत्पन्न शक्ति को नाम आत्मा है और जैसे ही शरीर बिखरा कि उसका नाश हो जाता है। इस शरीर का बिखराव / मृत्यु का नाम ही मोक्ष है। चार्वाक दर्शन में कहा है मरणमेव अपवर्गः ।' उपसंहारः सभी प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं - यह कहने के लिए किसी शास्त्रीय आधार की आवश्यकता नहीं है। यद्यपि कुछ कुतार्किक इसके विरोध में अनेक तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं। और यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि कुछ प्राणी दुःख भी चाहते हैं, और उथले रूप में विचार करने पर यह सही भी प्रतीत हो सकता है। एसा पाया गया है कि किसी पशु में आत्महत्या की प्रवृत्ति पायी जाती है। बहुत से मनुष्य भी एसा करते हैं। किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। जो जीव सांसारिक वर्तमान दुःखों के प्रति अत्यन्त असहिष्णु होते हैं वे वर्तमान को लक्ष्य करके एसा करने में प्रवृत्त हो सकते हैं किन्तु उसका मूल भी दुःख से निवृत्ति की लालसा ही है । चरक संहिता में कहा गया है कि सभी प्राणी सुख के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं किन्तु उनके ज्ञान और अज्ञान के अनुसार उनकी प्रवृत्ति सही और गलत हो जाती हैं सुख का मार्ग क्या है ? और दुःख का मार्ग क्या है ? यही खोज महत्त्वपूर्ण है। यदि मार्ग सही है, तो मंजिल अवश्य मिलेगी, किन्तु यदि मार्ग ही गलत है तो उस पर कितना भी चला जाये, उससे कभी मंजिल नहीं मिलेगी। 1. इस अध्याय में जैनधर्म का उद्देश्य एवं लक्ष्य स्पष्ट करते हुए शास्त्रीय आधारों से यह प्रस्तुत किया गया है कि जैनधर्म का उद्देश्य एवं लक्ष्य है दुःखों से निवृत्ति अर्थात् 'मोक्ष' । यह मोक्ष कैसा प्राप्त हो अर्थात् मोक्ष का मार्ग क्या है ? कोन सा है ? यह जानने के लिए भी प्रयत्न आवश्यक है। आगे के शीर्षक में 'मोक्ष का मार्ग' विषय को लक्ष्य में लेकर अनुशीलन प्रस्तुत किया जा रहा है। 2. चतुर्थ परिच्छेद... [157] 3. 4. 5. 6. सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृतयः । ज्ञानाऽज्ञानविशेषात्तु मार्ग मार्गप्रवृत्तयः ॥ 8 7. 8. ज्ञानं सुखं वा मोक्षेऽवातिष्ठते सत्तातत्त्वादिति नैयायिकाः । - अ.रा., पृ. 6/431 बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्म संस्काररुपाणां नवानामात्मानो वैशेषिकगुणानामत्यन्तोच्छेदो मोक्षः ।" - वही, पृ.6/431-432 सच्चिदानन्दलक्षणं ब्रह्मपरमार्थत तत्संप्राप्तिर्मोक्ष इति । अविद्यानिवृत्तिर्मोक्षः । - वही पृ. 6/447 - अ.रा., पृ. 6/431 अ.रा., पृ. 6/432 प्रकृतिपुरुषदर्शनान्निवृतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरुपावस्थानं मोक्षः इति सांख्यां । वही, पृ. 6/447 पताञ्जल योगदर्शन दीपस्येवास्य जीवस्य नाशो ध्वंस एव निर्वाणम् ? यथाऽऽहुः सौगतविशेषा केचित् । - अ.रा., पृ. 4/2122 2127 स्याद्वादमञ्जरी-20 चरकसंहिता, सूत्रस्थान, 28/35 धर्मगुरु कौन ? " 'जो जेण शुद्ध धम्मम्मि, ठाविओ संजएण गिहिणा वि । सो चेव तस्स जायइ, धम्मगुरुधम्मदाणओ ॥" अ.रा. पृ. 3/349 - Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [158]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 2. मुक्ति का मार्ग : सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने जैनागमानुसार जैन धर्म का उद्देश्य, लक्ष्य तथा फल मोक्ष बताया गया है, अतः भव्यात्मा के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के लिए तदनुरुप मार्ग पर चलना नितान्त आवश्यक है। इसलिए आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में 'मोक्ष' की प्राप्ति के लिए मुक्ति का मार्ग या 'मोक्षमार्ग' का भी वर्णन किया है। मोक्षमार्ग शब्द की व्युत्पत्ति: मोक्षमार्ग के दो भेद : निश्चय और व्यवहार :___ 'मोक्षमार्ग' शब्द 'मोक्ष' और 'मार्ग' इन दो पदों से बना (1) व्यवहार मोक्षमार्गःहै। 'मोक्ष' का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। 'मार्ग' की व्याख्या षद्रव्य, नवतत्त्व, पञ्चस्तिकाय का श्रद्धान सम्यग्दर्शन, उन्हीं करते हुए आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि "मार्ग पदार्थों का अभिगम या अंग, पूर्व संबंधी आगम ज्ञान सम्याज्ञान और शब्द मृजु शुद्धौ धातु से घञ् प्रत्यय होने पर निष्पन्न होता है । जिससे तप में चेष्टा या रागादि का परिहार या अहिंसादि व्रत-शील का पालन सम्यक् चारित्र है। यही रत्नत्रय व्यवहार से 'मोक्षमार्ग' है।14 अतिचारादि दोषों की पाप-प्रक्षालन के द्वारा शुद्धि होती है, उसे 'मार्ग' (2) निश्चय मोक्षमार्ग:कहते हैं । अथवा जो शिव अर्थात् मोक्ष का अन्वेषण करता है, उसे । जो आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र के द्वारा मार्ग कहते हैं। सर्वज्ञोक्त, संविग्न, अशठ, गीतार्थों के द्वारा आचरित, समाहित होता हुआ करने-छोडने के विकल्पों से अतीत हो जाता आगम सम्मत, जिसका सज्जनों के द्वारा, मार्गानुसारियों के द्वारा और है, वह आत्मा निश्चय नय से 'मोक्षमार्ग' कहा गया है।5। अथवा महाजनों के द्वारा अनुसरण किया गया हो, शिष्टाचार से अविरुद्ध प्रवृत्ति विशुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षणवाले जीव का अपने स्वभाव में निश्चल 'मार्ग' कहलाती है। अवस्थान करना ही 'मोक्षमार्ग' है।6।। मोक्ष मार्ग के प्रकार: उत्तराध्ययन सूत्र के अठाइसवें अध्ययन में कहा है कि "दर्शन द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका में तीन प्रकार के मार्ग बताये गये हैं के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं है उसका आचरण -1. यति धर्म (साधु धर्म) 2. श्रावकधर्म और 3. संविज्ञापाक्षिक' । सम्यक् नहीं होता। सम्यक् आचरण के अभाव में आसक्ति से मुक्त अभिधान राजेन्द्र कोश में दो प्रकार से भी मार्ग बताया गया है- नहीं हुआ जाता है और जो आसक्ति से मुक्त नहीं उसका निर्वाण 1. दव्य स्तव - द्रव्य (धन) व्ययपूर्वक जिनभवन निर्माण, या मोक्ष नहीं होता"17 | अत: मोक्षप्राप्ति हेतु मोक्षमार्ग के साधन जिनबिम्बपूजादि करणरुप। के रुप में इन तीनों की अनिवार्यता होने से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों को समवेत रुप में मोक्ष का साधन माना गया है। | अतः 2. भावस्तव - जिस स्तव में आत्मा के शुद्ध परिणाम होते हैं, उन्हें मोक्ष का प्रधान कारण होने से अब यहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और भावस्तव कहते हैं । अन्तरात्मा की प्रीतिपूर्वक तथाविध कर्मों के क्षय/ सम्यक् चारित्र का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। उपशम/क्षयोपशम की उपेक्षा सर्वविरति, देशविरति को अङ्गीकार करने का भाव 'भावस्तव' है। बाह्याभ्यन्तर बारह प्रकार के तप, सत्रह प्रकार का संयम और हिंसादि पांचों आस्रवों के त्याग रुप तपसंयमयुक्त; और अठारह 1. अ.रा., पृ. 6/37 हजार शोलाङ्ग रथ के धारक सुसाधु भगवंतो के द्वारा जीवाजीवादि 2. अ.रा., पृ. 6/37; विशेषावश्यक भाष्य-1381 3. अ.रा., पृ. 6/37-38; द्वात्रिशिद् द्वात्रिंशिका-3/1-2-3 तत्त्वों के लक्षण सहित प्रतिपादन करनेवाले समस्त (त्रिलोकवर्ती) अ.रा., पृ. 6/40; द्वात्रिशिद् द्वात्रिशिका-3/29 जगत के उन समस्त जीवों के हित और रक्षण के लिए सदुपदेशदानपूर्वक 5. अ.रा., पृ. 6/40; दर्शनशुद्धि प्रकरण-4/8 जो 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररुप' मार्ग का उपदेश करते हैं, वही प्रशस्त अ.रा., पृ. 6/41 7. भाव मार्ग या सम्यग्मार्गरुप मोक्षमार्ग है। आगे आचार्यश्रीने विभिन्न अ.रा., पृ. 6/447,448 8. उत्तराध्ययन, अध्ययन 32 रुप से 'मोक्षमार्ग'शब्द के निम्न अर्थ बताये है 9. प्रश्नव्याकरण 5, संवद्धार __ "उत्तराध्ययन सूत्र में जिससे आठों कर्मो का नाश हो उसे , 10. सूत्रकृतांग 1/13 प्रश्नव्याव्याकरण में मोक्ष के मार्ग को', सूत्रकृतांग में सम्यग्दर्शन ज्ञान 11. गच्छाचार पयन्ना, 2 अधिकार 12. जीतकल्प, । प्रतिच्छेद चारित्र को, गच्छाचारपयन्ना में निर्वाण पथ को", जीतकल्प में जिनपूजा 13. अ.रा., पृ. 6/448 को, नंदीसूत्र में सकल कर्मजाल के हेतु रुप मिथ्यात्व, अज्ञान, 14. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/335; पञ्चस्तिकाय 160; समयसार 155%3B जीवहिंसादि को अर्थात् सकल कर्मो के नाश के लिए सम्यग्दर्शनादि तत्त्वार्थसार 9/4; परमात्म प्रकाश- 2/31 15. पञ्चास्तिकाय मूल 161; तत्त्वार्थसार 9/3; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/335 के अभ्यास को मोक्षमार्ग कहा है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार 16. पञ्चास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति 158/229/12; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/335 सम्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप को समुच्चित रुप से यहाँ मोक्षमार्ग कहा 17. उत्तराध्ययन 28/30 गया है। 18. तत्त्वार्थसूत्र 11 पर तत्त्वार्थ भाष्य Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [159] सम्यग्दर्शन जैन परम्परा में सम्यक्-दर्शन, सम्यक्त्व और सम्यक्-दृष्टि शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में हुआ है। यद्यपि आचार्य जिनभद्रने विशेषावश्यकभाष्य में सम्क्त्व और सम्यक्-दर्शन के भिन्न-भिन्न अर्थों का निर्देश किया है। सम्यक्त्व वह है जिसके कारण श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं। सम्यक्त्व का अर्थ-विस्तार सम्यग्दर्शन से अधिक व्याप्त है, फिर भी सामान्यतया सम्यग् दर्शन और सम्यक्त्व शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त किये गये हैं। वैसे सम्यग्दर्शन शब्द में सम्यक्त्व निहित है। दर्शन का अर्थ: दर्शन शब्द जैनागमों में अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जीवादि पदार्थों के स्वरुप को देखना, जानना, श्रद्धा करना 'दर्शन' है। सामान्यतया दर्शन शब्द देखने के अर्थ में व्यवहृत होता है लेकिन यहाँ दर्शन शब्द का अर्थ नेत्रजन्य बोध मात्र नहीं है। उसमें इन्द्रिय-बोध, मनोबोध और आत्मबोध सभी सम्मिलित है। दर्शन शब्द के अर्थ के संबंध में जैन-परम्परा में काफी विवाद रहा है। दर्शन को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकोंने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है-2 । नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने पर दर्शन शब्द का प्रयोग उसके दृष्टिकोणपरक । अर्थ का द्योतक है । तत्त्वार्थसूत्र और उत्तराध्ययन सूत्र में 'दर्शन' शब्द का अर्थ 'तत्त्वश्रद्धा' के रुप में और परवर्ती जैन साहित्य में देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने सम्मत (सम्यक्त्व) शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है - जीव का स्वयं का भाव (स्वभाव) - प्रशस्त, मोक्ष से अविरोधीभाव, प्रशम-संवेगादि लक्षणवान् आत्मधर्म, सम्यग्भाव, तत्त्वार्थश्रद्धान, सम्यग्दर्शन, मिथ्यात्वमोहनीय के क्षयोपशमादि से उत्पन्न जीव के परिणाम, ज्ञान-दर्शन-चारित्र के परवर्ती प्रयोजनरुप सामायिक, जीवादि पदार्थों में श्रद्धा 'सम्यक्त्व' सम्यग्दृष्टि या सम्यग्दर्शन कहलाता है। आचार्य कुंदकुंदने दर्शन पाहुड में सम्यग्दर्शन की परिभाषा देते हुए कहा है - "छ: द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्व जिनोपदिष्ट हैं। जो उनके यथार्थ स्वरुप का श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। किन्तु जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन कहा है किन्तु निश्चयनय से आत्मा ही सम्यग्दर्शन है-6 | मोक्ष प्राभृत में कहा है कि "हिंसारहित धर्म में अठारह दोषों से रहित देव में और निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन है" 7 नियमसार में कहा है कि "आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन होता है28 तथा समस्त दोषों से रहित और समस्त गुणमय आप्त होते हैं। रत्नकरंडक श्रावकाचार में परमार्थ आप्त, परमार्थ आगम और परमार्थ तपस्वियों का जो अष्टांग सहित, तीन मूढता रहित तथा मदविहीन श्रद्धान है, उसे 'सम्यग्दर्शन' कहते है । अत: मिथ्या दर्शनादि की निवृत्ति हेतु सूत्रकारने दर्शन आदि तीनों के साथ 'सम्यक्' विशेषण का प्रयोग किया है। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान और क्रिया मोक्ष के साधन है। सम्यग्दर्शन की परिभाषा: अपने-अपने स्वभाव में स्थित तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं।।। अथवा मिथ्योदयजनित विपरीत अभिनिवेश से रहित पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, जीवादि सात या नौ तत्त्व का यथातथ्य श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । अथवा दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशमरुप अन्तरङ्ग कारण से जो तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस अन्तङ्ग कारण की पूर्णता कहीं निसर्गतः (स्वभावतः) होती है और कहीं अधिगम (परोपदेश) से होती है । सामान्य रुप से सम्यग्दर्शन एक है, निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है, शब्दों की अपेक्षा से संख्यात प्रकार का तथा श्रद्धान करनेवालों की अपेक्षा से असंख्यात प्रकार का है और श्रद्धा योग्य पदार्थों एवं अध्यवसायों की अपेक्षा से अनन्त प्रकार का है। जिसकी दृष्टि सम्यक् (आत्मस्वरुप चिन्तनपरक) है, वह सम्यग्दृष्टि है। उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र कहलाते हैं। सम्यग्दर्शन के पर्यायवाची नाम एवं नियुक्ति: आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु स्वामीने कहा है कि "सम्यग्दृष्टि, अमोह, शुद्धि, सद्भाव, दर्शन, बोधि, अविपर्यय, सुदृष्टि आदि इसके पर्याय है। सम्यग्दृष्टि की नियुक्ति करते आपने आगे कहा है-"जो सम्यग् अर्थों का दर्शन करे, वह सम्यग्दृष्टि है। विचारों में अमूढता 'अमोह' है। मिथ्यात्वरुपी मल का दूर होना 'शुद्धि' है। भावों की उपस्थिति 'सद्भाव' है। यथास्थित अर्थ का होना 'दर्शन' है। सुन्दर दृष्टि 'सुदृष्टि' है। इस प्रकार सात प्रकार से सम्यक्त्व की निरुक्ति की गयी है।5 रनकरंडक श्रावकाचार में इसका एक नाम सदृष्टि भी आया है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की प्रक्रिया: प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में रहनेवाली विकासगामिनी एसी 19. विसेषावश्यक भाष्य 1787-90 20. अ.रा.पृ. 7/482, 7/506 21. अ.रा., पृ. 4/2425 22. जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ.48 23. अ.रा.पृ. 4/2425 24. अ.रा.पृ. 7/485 तत्त्वार्थसूत्र 1/2; उत्तराध्ययन सूत्र 28/35 25. अ.रा.पृ. 7/482; तत्त्वार्थसूत्र-1/2; उत्तराध्ययन सूत्र 28/35 26. दर्शनपाहु गाथा 19, 20; समयसार, गाथा, 201, 202 27. मोक्षपाहुड, गाथा-90 28. नियमसार, गाथा-5 29. रत्नकरंडक श्रावकाचार, गाथा-4 30. नाणकिरियाहिं मोक्खो ।- विशेषावश्यक भाष्य-3 31. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।-तत्त्वार्थसूत्र-1/2 32. पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति 107, 169, 24 33. प्रणिधान विशेषहितद्वैविध्यजनितव्यापारं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। - तत्त्वार्थ राजवार्तिक 34. तन्निसर्गादधिगमाद्वा ।-तत्त्वार्थसूत्र-1/3 35. आवश्यक नियुक्ति 1/862 36. सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वराः विदुः।- रत्नकरंडक श्रावकाचार, दर्शनाधिकार 3 37. अ.रा.पृ. 7/507 से 511 आवश्यक नियुक्ति, गाथा 107 एवं आवश्यक दीपिका टीका, पृ. 37 से 39 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [160]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अनेक आत्माएँ होती है; जो राग-द्वेष की तीव्रता को थोडा सा दबाये हो; तो उसका ऊपर ऊपर से मैल दूर करना उतना कठिन और श्रमसाध्य होने पर भी मोह की प्रधान शक्ति दर्शनमोह को शिथिल किये हुए नहीं है, जितना कि चिकनाहट को दूर करना । यदि एक बार चिकनाहट नहीं होती। इस कारण वे आध्यात्मिक लक्ष्य के प्रति सर्वथा दूर हो जाये तो फिर शेष मैल को दूर करने में विशेष श्रम नहीं अनुकूलगामिनी न होने पर भी अन्य आत्माओं की अपेक्षा अपने बोध पडता और वस्त्र को उसके असली स्वरुप में सहज ही लाया जा और चारित्र में अच्छी होती हैं। ये आत्माएँ यद्यपि आध्यात्मिक दृष्टि सकता है। से सर्वथा आत्मोन्मुख न होने का कारण मिथ्यादृष्टि, विपरीत दृष्टि जैसे उक्त तीनों प्रकारों के बल प्रयोगों में चिकनाहट को या असद् दृष्टि कहलाती है; तथापि सद्वृष्टि के निकट होने के कारण दूर करनेवाला बल प्रयोग ही विशिष्ट है। वैसे ही दर्शनमोह को जीतने उपादेय मानी जाती हैं। के पहले विकासगामिनी आत्मा को उसके रक्षक राग-द्वेष के तीव्र सद्-असद् दृष्टिवाली आत्मा का परिचय देते हुए कहा है संस्कारों को शिथिल करने के लिए तीन बार बल प्रयोग करना पडता कि "जिसमें आत्मा का स्वरुप भासित होता है और उसकी प्राप्ति है। उनमें दूसरी बार किया जानेवाला बल प्रयोग (अपूर्वकरण) ही के लिए ही मुख्य प्रवृत्ति होती है; वह सद्दृष्टि है और इसके विपरीत प्रधान है। क्योंकि उसके द्वारा राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रंथि भेदी जाती जिसमें आत्मा का स्वरुप न तो यथावत् भासित होता है और न है और राग-द्वेष की अति तीव्रता मिटा देने पर दर्शन मोह पर जय उसकी प्राप्ति के लिए ही प्रवृत्ति होती है, वह असद्दृष्टि है। इन लाभ प्राप्त करना सहज हो जाता है। दोनों के बोध, वीर्य और चारित्र के तर-तम भाव को लक्ष्य में रखकर दर्शन मोह को जीतते ही उसके मिथ्यात्व नामक प्रथम चार-चार भेद होते हैं। इनमें विकासगामिनी आत्माओं का समावेश गुण स्थान की समाप्ति हो जाती है, स्वरुप-बोध की भूमिका बँध हो जाता है। जाती है और पर-रुप में होनेवाली स्वरुप की भ्रांति दूर हो जाती शारीरिक और मानसिक दुःखों की संवेदना के कारण अज्ञात है तथा उसके प्रयत्नों की गति उल्टी न होकर सीधी हो जाती है। रुप में ही 'गिरि-नदी-पाषाण न्याय से आत्मा का आवरण कुछ शिथिल याने वह आत्मा कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक कर सहज शुद्ध परमात्महो जाता है और इसके कारण उसके अनुभव एवं वीर्योल्लास की आभा भाव के दर्शन करने लगती है। कुछ बढती है और विकासगामिनी आत्मा के परिणामों में कुछ शुद्धि आत्मा की इस अवस्था को जैन-दर्शन में अन्तरात्म-भाव व कोमलता बढ़ती है। इस कारण वह राग-द्वेष की तीव्रतम दुर्भेद्य कहा गया है; क्योंकि यहआत्म-मंदिर का प्रवेश द्वार है। इसमें प्रवेश ग्रंथि को विखंडित करने की योग्यता बहुत अंशों में प्राप्त कर लेती करके उस मंदिर में अधिष्ठित परमात्म-भाव का दर्शन किया जाता है। यहाँ पर अज्ञान तप के द्वारा आयुष्य कर्म के सिवाय अन्य सात है। अथवा इसे मोक्ष-प्रासाद के प्रवेश द्वार की प्रथम सीढी भी कह कर्मो की स्थिति में से जब संख्यात कोडाकोडी भाग आत्मा के द्वारा सकते हैं। क्षय कर के नष्ट कर दिया जाता है एवं अत्यन्त दुर्भेद्य मिथ्यात्व की _आत्मा की यह अवस्था विकासक्रम की चौथी भूमिका अर्थात् ग्रन्थि का भेदन करने के लिए जीव ग्रंथि के पास पहुँचता है और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। इसे पाकर आत्मा सर्वप्रथम आध्यात्मिक भव्यात्मा 'यथाप्रवृत्तिकरण' अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन सुख-शान्ति का अनुभव करती है। इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि करण करता है । इस अज्ञानपूर्वक दुःखसंवेदनाजनित अति आत्मशुद्धि यथार्थ आत्म-स्वरुपोन्मुख होने के कारण विपरीताभिनिवेश रहित होती के लिए जैन दर्शन में 'यथाप्रवृत्तिकरण' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका शास्त्रीय नाम सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व का द्विविध वर्गीकरण :इसके बाद जब कुछ और अधिक आत्मशुद्धि एवं वीर्योल्लास (अ) निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्वकी आभा बढती है; तब मिथ्यात्व की उस दुर्भेद्य ग्रंथि का भेदन किया जाता है। इस ग्रंथिभेदकारक आत्माशुद्धि की क्रिया को 'अपूर्वकरण' 1. निश्चय सम्यक्त्व - राग, द्वेष और मोह का अत्यल्प हो जाना, कहते है; क्योंकि एसा करणपरिणाम विकासगामिनी आत्मा के लिए पर-पदार्थो से भेद ज्ञान एवं स्वरुप में रमण, देह में रहते हुए देहाध्यास अपूर्व होता है। यह उसे प्रथम बार प्राप्त होता है। का छूट जाना, निश्चय सम्यक्त्व के लक्षण हैं। मेरा शुद्ध स्वरुप अनन्त इसके बाद आत्मशुद्धि और वीर्योल्लास की मात्रा कुछ अधिक ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त आनन्दमय है। पर-भाव या आसक्ति बढती है; तब आत्मा मोह की प्रधान शक्तियों पर (दर्शनमोह पर) ही बंधन का कारण है और स्वस्वभाव में रमण करना ही मोक्ष का अवश्य विजय प्राप्त करती है अत: विजयकारक आत्मशुद्धि के लिए सेतु है। मैं स्वयं ही अपना आदर्श हूँ, देव, गुरु और धर्म मेरी आत्मा जैन दर्शन में 'अनिवृत्तिकरण' शब्द का उपयोग किया गया है। ही है, एसी दृढ श्रद्धा का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है। आत्मउक्त तीन प्रकार की शुद्धियों में दूसरी अपूर्वकरण नामक केन्द्रित होना यही निश्चय सम्यक्त्व है। शुद्धि ही अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को 2. व्यवहार सम्यक्त्व- वीतराग में देवबुद्धि (आदर्श बुद्धि), रोकने का अतिदुष्कर श्रमसाध्य कार्य इसी के द्वारा किया जाता है, पाँच महाव्रतों का पालन करनेवाले मुनियों में गुरुबुद्धि और जिन प्रणीत वह सहज नहीं है। एक बार इस कार्य में सफलता मिल जाने पर धर्म में सिद्धान्तबुद्धि रखना-व्यवहार सम्यक्त्व है। फिर चाहे विकासगामिनी आत्मा ऊपर की किसी भूमिका से पतित (इ) निसर्गज सम्यक्त्व और अधिगमज सम्यक्त्व"भी हो जाये; तो भी वह पुनः कभी भी अपने लक्ष्य को/आध्यात्मिक 1. निसर्गज सम्यक्त्व - जिस प्रकार नदी के प्रवाह में पड़ा पूर्ण विकास को प्राप्त कर ही लेती है। इस आध्यात्मिक परिस्थिति हुआ पत्थर बिना प्रयास के ही स्वाभाविक रुप से गोल हो जाता का कुछ स्पष्टीकरण एक दृष्टांत द्वारा करते हैं। है, उसी प्रकार संसार में भटकते हुए प्राणी को अनायास ही जब जैसे कोई मैला वस्त्र हो और उसमें चिकनाहट भी लगी कर्मावरण के अल्प होने पर यथार्थता का बोध हो जाता है, तो एसा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [161] सत्य-बोध निसर्गज होता है। बिना किसी गुरु आदि के उपदेश के, और एक बार प्रकट होने पर कभी नष्ट नहीं होता है। शास्त्रीय स्वाभाविक रुप में स्वत: उत्पन्न होनेवाला, सत्य-बोध निसर्गज सम्यक्त्व भाषा में यह सादि-अनन्त होता है। कहलाता है। 3. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - मिथ्यात्वजनक उदयगत 2. अधिगमज सम्यक्त्व - गुरु आदि के उपदेश रुप निमित्त (क्रियमाण) कर्म-प्रकृतियों के क्षय हो जाने पर और अनुदित से होनेवाला सत्य-बोध या सम्यक्त्व अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता (सत्तावान या संचित) कर्म-प्रकृतियों का उपशम हो जाने पर जो सम्यक्त्व प्रकट होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण: यद्यपि सामान्य दृष्टि से यह अस्थायी ही है, फिर भी एक अपेक्षा भेद से सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण भी किया गया है। लम्बी समयावधि (छाछठसागरोपम से कुछ अधिक) तक अवस्थित जैसे कारक, रोचक और दीपक। रह सकता है। 1. कारक सम्यक्त्व- जिस यथार्थ दृष्टिकोण के होने पर व्यक्ति सास्वादन सम्यक्त्व - औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सदाचरण या सम्यक्त्व चारित्र की साधना में अग्रसर होता है वह की भूमिका में सम्यक्त्व के रस का पान करने के पश्चात् जब कारक सम्यक्त्व है। साधक पुनः मिथ्यात्व की ओर लौटता है तब सम्यक्त्व को 2. रोचक सम्यक्त्व- जिसमें व्यक्ति शुभ को शुभ और अशुभ वमन करते समय सम्यक्त्व का भी कुछ आस्वाद रहता है। को अशुभ के रुप में जानता हो और शुभ प्राप्ति की इच्छा भी करता जीव की एसी स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व कहलाती है। हो, लेकिन उसके लिए प्रयास नहीं करता। सत्यासत्य विवेक होने 5. वेदक सम्यक्त्व - जब जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की पर भी सत्य का आचरण नहीं कर पाना रोचक सम्यक्त्व है। भूमिका से क्षायिक सम्यक्त्व की प्रशस्त भूमिका पर आगे बढता 3. दीपक सम्यक्त्व - जिसमें व्यक्ति अपने उपदेश से दूसरों में है और इस विकास-क्रम में जब वह सम्यक्त्व मोहनीय कर्मतत्त्व जिज्ञासा उत्पन्न कर देता है और परिणामस्वरुप होनेवाले उनके प्रकृति के कर्म दलिकों का अनुभव कर रहा होता है, तो सम्यक्त्व यथार्थ बोध का कारण बनता है। दीपक सम्यक्त्ववाला व्यक्ति वह की यह अवस्था 'वेदक सम्यक्त्व' कहलाती हैं । वेदक सम्यक्त्व है जो दूसरों को सन्मार्ग पर लगा देने का कारण बन जाता है, लेकिन के अनन्तर जीव क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। स्वयं कुमार्ग का ही पथिक बना रहता है। जैसे कोई नदी के तीर वस्तुतः सास्वादन और वेदकसम्यक्त्व सम्यग्दर्शन की मध्यान्तर पर खडा व्यक्ति किसी मध्य नदी में थके हुए तैराक का उत्साहवर्धन अवस्थाएँ हैं - पहली सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर गिरते समय कर उसे पार लगने का कारण बन जाता है, यद्यपि न तो स्वयं तैरना और दूसरी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर जानता है और न ही पार होता है। बढते समय होती है। सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण एक अन्य प्रकार से भी सम्यक्त्व का दसविध वर्गीकरण:किया जाता है, जिसका आधार कर्म-प्रकृतियों का क्षयोपशम है। उपरोक्त सम्यक्त्व के औपशमिकादि पाँच भेद के निसर्ग जैन सिद्धान्त में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व और अधिगम दोनो प्रकार के भेद से दस प्रकार होते हैं अथवा सम्यग्दर्शन मोह, मिश्र मोह और सम्यक्त्व-मोह -ये सात कर्म प्रकृतियाँ सम्यक्त्व की उत्पत्ति के आधार पर उसके निसर्ग-उपदेशादि अग्रलिखित दश (यथार्थ बोध) की विरोधी हैं। भेद होते हैं। इनमें सम्यक्त्व मोहनीय को छोड शेष छः कर्म प्रकृतियाँ 38. अ.रा.पृ. 4/1982: आवश्यक नियुक्ति, गाथा 106 एवं उस पर दीपिका उदय में होती है तो सम्यक्त्व का प्रगटन नहीं हो पाता । सम्यक्त्वमोह टीका मात्र सम्यक्त्व की निर्मलता और विशुद्धि में बाधक है। कर्म- 39. अ.रा.पृ. 7/482-483 प्रकृतियों की तीन स्थितियाँ हैं - (1) क्षय (2) उपशम और 40. अ.रा.पृ. 71482-483 41. अ.रा.पृ. 7/483, 484; स्थानांग 2/9/70 (3) क्षयोपशम । इसी आधार पर सम्यक्त्व का यह वर्गीकरण किया अ.रा., पृ. 7/483; प्रवचन सारोद्धार टीका-957; श्रावक प्रज्ञप्ति-33 गया है (1) औपशमिक सम्यक्त्व (2) क्षायिक सम्यक्त्व और 43. श्रावक प्रज्ञप्ति-49 (3) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के भेद से तीन प्रकार से। औपशमिक 44. श्रावक प्रज्ञप्ति-49 क्षायिक-क्षायोपशमिक और सास्वादन के भेद से चार प्रकार से 45. श्रावक प्रज्ञप्ति-50 और औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-सास्वादन और वेदक के 46. अ.रा.पृ. 7/483; प्रवचनसारोद्धार 958; विशेषावश्यक भाष्य 2675; श्रावक भेद से पाँच प्रकार से होता है। प्रज्ञप्ति 43 47. अ.रा.पृ. 7/483; प्रवचनसारोद्धार 962; विशेषावश्यक भाष्य-528 कर्मों की स्थिति के आधार पर सम्यक्त्व के भेदः 48. अ.रा.प. 3/99; विशेषावश्यक भाष्य 529, 530; श्रावक प्रज्ञप्ति 45, 1. औपशमिक सम्यक्त्व - उपर्युक्त (क्रियमाण) कर्म 46, 47 प्रकृतियों के उपशान्त (दबाई हुई) होने पर जो सम्यक्त्व 49. अ.रा.प. 3/688; विशेषावश्यक भाष्य गाथा 533: श्रावक प्रज्ञप्ति 48 गुण प्रगट होता है वह औपशमिक सम्यक्त्व है। इसमें 50. अ.रा.पृ. 3/690; विशेषावश्यक भाष्य गाथा 532; श्रावक प्रज्ञप्ति 44 51. अ.रा.पृ. 7/483 एवं 794; विशेषावश्यक भाष्य-531 स्थायित्व का अभाव होता है। शास्त्रीय दृष्टि से यह अन्तर्मुहर्त ___52. अ.रा.पृ. 6/1432: विशेषावश्यक भाष्य-533 (48 मिनट) सेअधिक नहीं टिकता है। 53. अ.रा.पृ. 7/483, 484; प्रवचनसारोद्धार 149/963; उत्तराध्ययन सूत्र 28/ क्षायिक सम्यक्त्व - उपर्युक्त सातों कर्म-प्रकृतियों के क्षय 31;प्रज्ञापनासूत्र, गाथा 132; निशीथसूत्र 1/23; स्थानांग 10/104 हो जाने पर जो सम्यक्त्व रुप यथार्थ बोध प्रकट होता है; 54. अ.रा.पृ. 7/483, 484, पृ. 7/506; प्रवचनसारोद्धार 149/964; स्थानांग वह क्षायिक सम्यक्त्व है। यह यथार्थ बोध स्थायी होता है 10/3; उत्तराध्ययन सूत्र-28/17 से 27 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [162]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. निसर्ग रुचि - जो यथार्थ दृष्टिकोण व्यक्ति में स्वत: ही उत्पन्न हो जाता है, वह निसर्गरुचि सम्यक्त्व है। 2. उपदेश रुचि - वीतराग की वाणी को सुनकर जो यथार्थ दृष्टिकोण या श्रद्धान होता है, वह उपदेश रुचि सम्यक्त्व है। 3. आज्ञा रुचि - वीतराग के नैतिक आदेशों को मानकर जो यथार्थ दृष्टिकोण उत्पन्न होता है अथवा तत्त्व-श्रद्धा होती है वह आज्ञारुचि सम्यक्त्व है। 4. सूत्र रुचि - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रंथो के अध्ययन के आधार पर जो यथार्थ दृष्टिकोण या तत्त्व-श्रद्धान होता है, वह सूत्ररुचि सम्यक्त्व है। 5. बीज रुचि - यथार्थता के स्वरुप के बोध को स्वचिन्तन के द्वारा विकसित करना, बीजरुचि सम्यक्त्व है। 6. अभिगम रुचि - अंग साहित्य और अन्य ग्रंथों का अर्थ एवं व्याख्या सहित अध्ययन करने से जो तत्त्व बोध एवं तत्त्व श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह अभिगम रुचि सम्यक्त्व है। 7. विस्ताररुचि - वस्तु तत्व के अनेक पक्षों का विभिन्न अपेक्षाओं। एवं प्रमाणों के द्वारा अवबोध कर उनकी यथार्थता पर श्रद्धा थिता पर श्रद्धा करना, विस्तार-रुचि सम्यक्त्व है। क्रिया रुचि - प्रारंभिक रुप में साधक जीवन की विभिन्न क्रियाओं के आचरण में रुचि हो और उस साधनात्मक अनुष्ठान के फलस्वरुप यथार्थता का बोध हो, वह क्रिया रुचि सम्यक्त्व 2.सुदृष्ट परमार्थ संस्तव - ज्ञान-दर्शन-चारित्रयुक्त मुनियों की सेवा, भक्ति, विनय, वैयावृत्यादि करना, उनके प्रति हार्दिक बहुमान रखना - 'सुदृष्टपरमार्थ संस्तव' नामक द्वितीय श्रद्धा कहलाती है। 3. व्यापन्न दर्शन वर्जन - जिस आत्माओं ने सम्यकत्व ग्रहण करके उसका त्याग वमन कर दिया हो, एसे पतित जीवों का तथा निह्नव, यथाच्छंद, पार्श्वस्थ, कुशील, वेष विडंबक, शिथिलाचारी और अज्ञानी जीवों के परिचय का त्याग करना और उनसे दूर रहना 'व्यापन्न दर्शन' नामक तृतीय श्रद्धा है। 4. कुदर्शन देशना परिहार/त्याग - शाक्यादि परदर्शनी, अन्यधर्मी, मिथ्यादृष्टि जीवों के परिचय का त्याग करना, एसे लोगों के पास धर्मश्रवण नहीं करना - यह 'कुदर्शन परिहार' नामक चतुर्थ संक्षेप रुचि - जो वस्तु तत्व का यथार्थ स्वरुप नहीं जानता और जो आहेत प्रवचन में प्रवीण भी नहीं है लेकिन जिसने अयथार्थ को अंगीकृत भी नहीं किया, जिसमें यथार्थ ज्ञान की अल्पता होते हुए भी वह मिथ्यात्व धारी नहीं है, वह संक्षेप रुचि सम्यक्त्व है। 10. धर्म रुचि - तीर्थंकर प्रणीत सत् के स्वरुप, आगम साहित्य एवं नैतिक नियमों पर श्रद्धा रखना, उन्हें यथार्थ मानना - धर्म रुचि सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के 67 भेद :4 प्रकार की श्रद्धा 3 प्रकार के सम्यक्त्व के लिङ्ग 10 प्रकार का विनय 3 प्रकार की शुद्धि 5 प्रकार के सम्यक्त्व 8 प्रकार के जैन शासन के के दूषण प्रभावक 5 प्रकार के सम्यक्त्व 5 प्रकार के सम्यक्त्व के लक्षण भूषण प्रकार की जयणा 6 प्रकार का सम्यक्त्व का आगार प्रकार की सम्यक्त्व 6 प्रकार के सम्यक्त्व के स्थान की भावना चार श्रद्धान:1. परमार्थ संस्तव - जिनेश्वर कथित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन नव तत्त्वों के रहस्यों को यथार्थज्ञानपूर्वक जानकर उनमें श्रद्धा रखना। यदि इतनी ज्ञानदशा न भी हो तो भी 'जं जिणेहिं पन्नत्तं तमेव सच्चं' एसी दृढ श्रद्धा रखना - 'परमार्थ संस्तव' कहलाता है। सम्यकत्व के तीन लिङ्गा:1. शुश्रूषा - कोई युवक, परिणीत स्त्री (पत्नी) युक्त और संगीतज्ञ पुरुष की संगीत श्रवण की आसक्ति से भी अतिशय श्रुतराग - धर्मरागपूर्वक धर्म श्रवण करना - 'श्रुताभिलाष' अर्थात् 'शुश्रूषा' नामक प्रथम लिङ्ग है। 2. धर्मराग धर्मरुचि - भूखे, अरण्य को पार कर आये हुए ब्राह्मण के तीव्र इच्छापूर्वक के मनोहर घेवर के भोजन से भी अधिक तीव्र इच्छापूर्वक धर्मपालन की इच्छा होना 'धर्मराग' नामक द्वितीय लिङ्ग है। 3. वैयावृत्त्य - प्रमादरहित होकर विद्यासाधक की विद्या साधना की तरह संपूर्ण प्रमादरहित होकर सुदेव-गुरु की भक्ति, सेवा करना, "वैयावृत्त्य" नामक तृतीय लिङ्ग है। सम्यकत्व में 10 प्रकार के विनय:1. अरिहंत - तीर्थंकर 2. सिद्ध-अष्ट कर्म क्षयपूर्वक 3. चैत्य - जिन प्रतिमा मोक्ष प्राप्त परमात्मा 4. सूत्र - जैनागम 5. धर्म - क्षमादि 10 धर्म 6. साधु - मुनि 7. आचार्य - धर्म शासन के नायक 8. उपाध्याय - पाठक ___9. प्रवचन - चतुर्विध संघ 10. दर्शन - सम्यकत्व इन दशों का (1) भक्ति (2) बहुमान (3) गुणस्तुति (4) हेलना त्याग (छद्मस्थतावश यदि उनमें कोई दोष हो तो साधु आदि के दोषों को प्रकट नहीं करना और (5) आशातना त्याग - इन पाँच प्रकारों से विनय करना "विनय" कहलाता है। सम्यक्त्व की तीन शुद्धियां:1. मनः शुद्धि-जिनेश्वर परमात्मा और उनके द्वारा प्ररुपित जैन धर्म के अलावा संसार के सभी देव और उनके द्वारा दर्शित धर्म झूठ है - एसे पक्षयुक्त निर्मल बुद्धि प्रथम 'मनःशुद्धि' कहलाती है। 2. वचन शुद्धि - जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति, सेवा, पूजा, उपासना से स्वयं के निकाचित कर्मोदय के कारण जो कार्य नहीं हुआ वह अन्य 55. अ.रा.पृ. 7/484; सम्यक्त्वसप्ततिका 5/6; धर्मरत्नप्रकरण 1/1 से 16 56. अ.रा.पृ. 7/484; सम्यक्त्वसप्ततिका 11, 12; प्रज्ञापना सूत्र-गाथा-131 57. अ.रा.पृ. 7/484, 485, 500; सम्यकत्वसप्ततिका-13 58. अ.रा.पृ. 6/1451571484, 485, सम्यकत्वसमतिका-11 59. अ.रा.पृ. 7/484, 485; सम्यकत्वसप्ततिका-25 Jain Education Thematonai Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन देव से या उनकी सेवा - भक्ति से कैसे होगा ? अर्थात् कभी भी नहीं हो सकता - एसे वचन बोलना, दूसरी 'वचन शुद्धि' कहलाती है। 3. काय शुद्धि - चाहे कोई देव शरीर का छेदन-भेदन करे या कितनी ही पीडा दे, तो भी वे सब सहन करें परन्तु जिनेश्वर परमात्मा के अलावा अन्य देवी-देवता को नमस्कार नहीं करना तीसरी 'काय शुद्धि' कहलाती है। सम्यक्त्व के दूषण" ( अतिचार ) : 1. शंका - वीतराग या अर्हत् के कथनों पर शंका करना उसकी यथार्थता के प्रति संदेहात्मक दृष्टिकोण रखना । 2. आकांक्षा स्वधर्म को छोड़कर पर धर्म की इच्छा करना, नैतिक एवं धार्मिक आचरण के फल की कामना करना । नैतिक कर्मों की फलासक्ति भी साधना मार्ग में बाधक तत्व मानी गयी है। 3. विचिकित्सा - नैतिक अथवा धार्मिक आचरण के फल के प्रति संशय करना । अर्थात् सदाचरण का प्रतिफल मिलेगा या नहीं - एसा संशय करना । - 4. मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा जिन लोगों का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है एसे अयथार्थ दृष्टिकोण (मिथ्यात्व) वाले व्यक्तियों अथवा संगठनो की प्रशंसा करना । - 5. मिथ्यादृष्टियों का अति परिचय साधनात्मक अथवा नैतिक जीवन के प्रति जिनका दृष्टिकोण अयथार्थ है उनसे घनिष्ट संबंध रखना । चारित्र के निर्माण एवं पतन दोनों पर संगति का प्रभाव पडता है अतः सदाचारी पुरुष का अनैतिक आचरण करनेवाले लोगों से अति परिचय या घनिष्ठ संबंध रखना उचित नहीं माना गया है। सम्यक्त्व के आठ प्रभावक" :1. प्रवचन - प्रभावक (प्रावचनिक) जो द्वादशांगीरुप प्रवचनों या गणिपिटकों के अतिशय ज्ञान द्वारा युगप्रधान शैली में जनता को प्रभावित करता है, जनता में आगम ज्ञान के प्रति प्रकृष्ट भावना पैदा करता है, अपने युगलक्षी प्रवचनों से जनजीवन को धर्माचरण के लिए प्रेरित करता है, वह 'प्रवचन प्रभावक' कहलाता है। 2. धर्मकथा प्रभावक जो विविध युक्ति, दृष्टान्त आदि के द्वारा जनता को सुन्दर सदुपदेश देने की शक्ति रखता हो और जनता को धर्मकथा से प्रभावित करके धर्मबोध देता हो, वह 'धर्मकथा - प्रभावक' कहलाता है। है 3. वाद प्रभावक (वादी) - जो वादी, प्रतिवादी सभ्य और सभापति रुप चतुरंगिणी सभा में प्रतिपक्ष की युक्तियों का खंडन करके स्वपक्ष की स्थापना करने में सक्षम हो और इस प्रकार अपनी तर्क शक्ति से लोगों को प्रभावित कर धर्म ( शासन) प्रभावना करता हो, उसे 'वाद प्रभावक' कहते हैं। 4. निमित्त प्रभावक जो भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालसम्बन्धी लाभालाभ का विज्ञ हो तथा निमित्त शास्त्रज्ञ हो, और अपने उक्त ज्ञान से जनता को उसके भूत, भविष्य एवं वर्तमान के जीवन से धर्म बोध देकर धर्म साधना की ओर आकर्षित करता हो, वह निमित्त प्रभावक होता है। - 5. तपस्या- प्रभावक (तपस्वी) - अठ्ठम आदि विविध तपस्या एवं कठीन अभिग्रहपूर्वक तप करके जनता को आत्मशक्ति का परिचय देने तथा तपस्या करके आत्मशुद्धि द्वारा आत्मशक्ति प्रकट करने के लिए प्रभावित करनेवाला तपस्या प्रभावक होता है। चतुर्थ परिच्छेद... [163] 6. विद्या - प्रभावक - प्रज्ञप्ति, रोहणी आदि विविध विद्यादेवियों सिद्ध करके तदधिष्ठित विद्याएँ प्राप्त करने वाला विद्या प्रभावक होता है। विद्याप्रभावक अपनी विद्या के द्वारा शासन पर आये हुए विविध उपसर्गों, कष्टों और आपत्तियों को दूर कर शासन प्रभावना करता है। 7. सिद्धि - प्रभावक - वैक्रिय आदि विविध लब्धियों तथा अणिमा आदि विविध सिद्धियाँ, तथा अंजन, पादलेप आदि आकर्षक तंत्र प्रयोग जिसे प्राप्त हो, और संघ की प्रभावना के लिए उनका प्रयोग करता हो, वह सिद्धि प्रभावक कहलाता है। 8. काव्य-प्रभावक (कवि) - गद्य, पद्य आदि में विविध वर्णनात्मक प्रबंध या कविता आदि की रचना करके जनता को उस लेख, निबंध, कथा या कविता आदि के द्वारा धर्माचरण में प्रेरित करके धर्म के प्रति प्रभावित करनेवाला काव्य-प्रभावक कहलाता है। सम्यक्त्व के 5 भूषण" : सम्यक्त्व के साथ जिनके जुडने से उसकी शोभा बढे, उसे सम्यक्त्व भूषण कहते हैं। जिन शासन की शोभा बढानेवाले ये भूषण पाँच हैं - अन्य ग्रंथो में निम्नांकित आठ अन्य प्रकार बताये गये है 2 1. अतिशेषर्द्धि प्रभावक० ३ 2. धर्मकथा प्रभावक 3. वादी 4. आचार्य 6. नैमितिक 8. राजगणसम्मत प्रभावक 1. जिनोक्त धर्म में स्थिरता: किसी का मन आपत्ति, शंका आदि कारणों से धर्म से चलायमान हो रहा हो, कोई व्यक्ति धर्म से डिग रहा हो, उसे समझाबुझाकर उपदेश या प्रेरणा देकर धर्म में स्थिर करना अथवा अन्य सम्प्रदाय में ऋद्धि-समृद्धि, आडम्बर या चमत्कार देखकर स्वयं भी जिनशासन के प्रति अस्थिर न होना। यह जिनोक्त धर्म में स्थिरता नामक गुण हैं। 5. क्षपक तपस्वी 7. विद्याप्रभावक 2. धर्म ( शासन) प्रभावना : धर्मकथा, वादी - जय, उग्रतप, गुरु- प्रवेशोत्सव, स्वामिवात्सल्य, सुपारी-बदाम-नारियल - सिक्के आदि की प्रभावना (बाँटना) के द्वारा स्व- तीर्थ की उन्नति करना, जिसमें जो गुण विशिष्ट हो उससे शासन (धर्म सङ्घ) को दिप्तीमान करना, सर्व प्रकार से शासन - मालिन्य को रोकना और जिसे जिनशासन प्राप्त न हुआ हो, उसे विभिन्न प्रभावनाओं, प्रचार-प्रसार के विभिन्न निमित्तों द्वारा जिन शासन से प्रभावित करना -धर्म प्रभावना या शासन प्रभावना कहलाती है। 66 इस प्रकार प्रभावना करनेवाले प्रभावकों के आठ प्रकार है : 61. 62. 60. 31... 4/2436; 7/35; 3/164, 6/1190, 7/484, 485, 497; सम्यक्त्वसप्ततिका-28-30 63. 64. 65. 66. अ.रा. पृ. 5/437, 7/484-485; सम्यक्त्वसप्ततिका - 31, 32 समकित सड़सठ बोलनी सज्झाय, पृ. 111 विवेचक महेता, सूरत (गुजरात) जंघाचारणादि लब्धि से प्रभावना करना सम्यक्त्वसप्ततिका -40 से 42; अ.रा. पृ. 7/484, 485 एवं तत्तच्छब्दे अ.रा. पृ. 4/2410-11 अ. रा.पू. 5/438-39-40 धीरजलाल डी. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [164]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. प्रवचनिक, 2. धर्मकथाकार, 3. वादी, 2. संवेग - संवेग का अर्थ है मोक्ष की अभिलाषा। सम्यग्दृष्टि 4. नैमित्तिक 5. तपस्वी, 6. विद्यावान्, जीव राजा और इन्द्र के वैषयिक सुख को भी दुःखमिश्रित होने के 7. सिद्धिप्राप्त और 8. कवि। कारण दुःखरुप मानते हैं, वे मोक्षसुख को ही एकमात्र सुख रुप मानते 3. भक्ति: हैं। कहा भी है - सम्यकत्वी मनुष्य इन्द्र के सुख को भाव से अभिधान राजेन्द्र कोश में जिनेश्वर परमात्मा की सेवा, पूजा, दुःख मानता है और संवेग से मोक्ष के बिना और किसी वस्तु की आङ्गी, भव्य महोत्सव, जाप, आराधना, गुर्वादि के सम्मुखगमन, प्रार्थना नहीं करता, वही संवेगवान् होता है। अभ्युत्थान, आसन प्रदान, पर्युपासना, अञ्जलिबद्ध प्रणाम, अनुगमन 3. निर्वेद - निर्वेद शब्द का अर्थ है संसार से उदासीनता, वैराग्य, आदि उचित उपचार द्वारा श्री जिनेश्वर द्वारा स्थापित चतुर्विध संङ्ग की सेवा, विनयादि करना 'भक्ति' है। साधु, साध्वी, श्रावक और अनासक्ति । सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन रखना, क्योंकि उसके श्राविकारुप चतुर्विध धर्मसंघ 'शासन' कहलाता है। जिन शासन के अभाव में साधना के मार्ग पर चलना संभव नहीं होता। वस्तुतः आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, नवदीक्षित, रुग्ण (रोगी), कुल, गण, निर्वेद निष्काम-भावना या अनासक्त दृष्टि के विकास का आवश्यक संघ, साधु, ज्ञानी-आदि संघस्थ व्यक्तियों की सेवा करना; वैयावृत्य अंग है। (वैयावच्च) करना, उनको आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, उपाश्रय (वसति 4. अनुकम्पा - दुःखी जीवों पर दया करने की इच्छा अनुकम्पा या स्थान), पट्ट (पाट), चौकी, आसन आदि धर्म-साधना में आवश्यक है। पक्षपात रहित होकर दुःखी जनों के दुःख को मिटाने की भावना उपकरण देना उनकी औषध-भेषज्य आदि के द्वारा सेवा करना, विहार ही वस्तुतः अनुकम्पा है। अपनी शक्ति के अनुसार दुःखी व्यक्ति में कठिन मार्ग में उनको सहायक बनना, चतुर्विध सङ्घ पर छाये के दुःख का प्रतिकार करके उसका दु:ख दूर करना 'द्रव्य अनुकम्पा' हुए विघ्नों या उपसर्गो का निवारण करना - ये सभी सेवा-भक्ति के विभिन्न प्रकार है। इनसे शासन की शोभा बढती है, इसीलिए है। मन से दुःखी के प्रति कोमल हृदय रखकर दया से परिपूर्ण "भक्ति" को सम्यक्त्व का तीसरा भूषण बताया है। जिनभक्ति से होना ‘भाव अनुकम्पा' है। कर्मक्षय, आरोग्य, बोधिलाभ एवं समाधिमरण की प्राप्ति होती है। 5. आस्तिक्य - आत्मा है, आत्मा को अपनी शुभाशुभ प्रवृत्तियों (भक्ति का विशेष वर्णन आगे प. 4 ख 3 में किया जायेगा) के अनुसार फलस्वरुप मिलने वाला देवलोक, नरक गति, परलोक 4. जिनशासन में कुशलता: आदि है। संसार में प्राणियों की विभिन्नता का कारण कर्म है, धर्म के सिद्धान्तों को समझाने तथा धार्मिकों पर आई हुई कर्म फल है, इस प्रकार जो मानता है, वह आस्तिक है। जैन उलझनों को सुलझाने, समस्या हल करने की कुशलता भी अनेक दर्शन के अनुसार जो पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म-सिद्धान्त और आत्मा व्यक्तियों को धर्मसंघ में स्थिर रखती है; संघ सेवा के लिए प्रेरित के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है। जिनेश्वरोंने करती है। अतः कुशलता सम्यक्त्व का भूषण है। जो कहा है, वही सत्य है और शंकारहित है - एसे शुभ परिणामो 5. तीर्थ सेवा: से युक्त और शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित हो, वही सम्यक्त्वी नदी के घाट की तरह संसार से सुखपूर्वक पार उतरने के माना जाता है। लिए तीर्थ होता है। यह तीर्थ दो प्रकार का होता है- जिस भूमि पर तीर्थंकरों का जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण हुआ हो, उस सम्यक्त्व की छ: जयणा:स्थान को लोक प्रचलित भाषा में 'तीर्थ' कहा जाता है, इसे द्रव्यतीर्थ अन्य धर्मी के धर्म गुरु, अन्य धर्मियों के देव, और अन्य कहते हैं। और भावतीर्थ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रुप चतुर्विध धर्मियों के अधिकार में रहे जिन चैत्य (जिन मंदिर) और जिन प्रतिमा संघ श्रमण संघ होता है। एसे तीर्थ की सेवा करना तीर्थ सेवा है । को (1) वंदन (2) नमन (3) आलाप (बिना बुलाये बोलना) और (इस का विशेष वर्णन आगे प. 4 ख 3 में किया जायेगा) (4) संलाप (बार-बार बोलना) (5) दान (6) प्रदान (वारंवार दान, सम्यक्त्व के पाँच लक्षण: सत्कारादि) - इन छ: प्रकार के व्यवहार का त्याग करना, सम्यक्त्व अभिधान राजेन्द्र कोश में सम्यक्त्व के पाँच अंगों का विधान ___ की "छ: जयणा" कहलाती है। है। सम्यक्त्व के पाँच अंग इस प्रकार है - यद्यपि अनिवार्य कारण उपस्थित होने पर इन में जयणा 1. सम - सम्यक्त्व का पहला लक्षण है सम। प्राकृत भाषा में (छूट) भी होती है। वह जयणा अनेक प्रकार से है। 'सम' शब्द के संस्कृत भाषा में तीन रुप होते हैं - 1. सम, 2. सम्यक्त्व के छः आगार:शम, 3. श्रम । 'सम' शब्द के दो अर्थ है, पहले अर्थ में सभी प्राणियों सम्यक्त्वी जीव यद्यपी मिथ्यादृष्टि देव-गुरु को वंदन नहीं को अपने समान समझना। इस अर्थ में यह 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' करें तथा अन्य धर्म या अन्य धर्मी के सेवा-पूजा भी नहीं करें तथापि के सिद्धान्त की स्थापना करता है जो अहिंसा का आधार है। दूसरे (1) राजा (2) गण (3) बल (4) देव (5) गुरु और (6) वृत्ति अर्थ में इसे वित्तवृत्ति का समभाव कहा जा सकता है अर्थात् सुखदुःख, हानि-लाभ एवं अनुकूल-प्रतिकूल दोनों स्थितियों में समभाव 67. अ.रा., पृ. 5/1365-66, 4/1500 रखना, चित्त को विचलित नहीं होने देना। 'शम' इसका अर्थ होता 68. अ.रा., पृ. 4/2242,2245,2314 है शांत करना अर्थात् वासनाओं को शांत करना, श्रम इसका अर्थ 69. अ.रा., पृ. 7/484, 501, 502; सम्यक्त्व सप्ततिका - 43 से 45 70. अ.रा., पृ. 7/484: सम्यक्त्व सप्ततिका-46 से 50 है - सम्यक् 'प्रयास' या पुरुषार्थ । 71 अ.रा., पृ. 7/484; सम्यक्त्वसप्ततिका-51 से 54 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन भारतीय अध्यात्म परंपरा में किसी भी ऋषि-मुनि को किसी न किसी सम्प्रदाय के गुरु से दीक्षित होना आवश्यक माना जाता है, इसके अभाव में उसे प्रामाणिक नहीं माना जाता। कुछ लोगों के मन में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के गच्छ के विषय में भ्रम है किआचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि का कोई गुरु नहीं था और उन्होंने स्वयं ही दीक्षित होकर अपना मत चलाया। जब कि सत्य यह है कि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि 'सुधर्म गण' की वज्रशाखा में चंद्र कुल में तपागच्छीय परंपरा में हुए है । अतः आचार्यश्री की गच्छपरम्परा के विषय में स्पष्टीकरण प्रस्तुत करना आवश्यक हैं। यहाँ इसलिए प्रसंगवश इनका संक्षिप्त ऐतिहासिक गच्छ परिचय दर्शाया जाता है आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की गच्छपरम्परा श्री महावीर स्वामी के 9 गच्छ एवं 11 गणधर थे, जिसमें 9 गणधर तो उनकी उपस्थिति में ही निर्वाण को प्राप्त हो चुके थे, और गौतमस्वामी को प्रातः केवलज्ञान की प्राप्ति होने वाली थी, अतः श्रीमहावीर स्वामी ने सुधर्मा स्वामी को संघ की समस्त व्यवस्था एवं उत्तरदायित्व दिया। वर्तमान में जो भी जितने भी साधु-साध्वी हैं वे सब सुधर्मा स्वामी की परंपरा के हैं ।" उनके नाम से निर्ग्रन्थ गच्छ 'सौधर्मगच्छ' (गण) के नाम से प्रख्यात हुआ 157 भगवान् की 9 वीं पाट पर आर्य सुहस्तिसूरिजी के शिष्य आर्य सुस्थितसूरिजी और सुप्रतिबद्ध सूरिजी हुए। उन्होंने आचार्य पद प्राप्ति के बाद काकंदी नगरी में 'सूरिमंत्र' (जैनाचार्यो ही के द्वारा जपयोग्य विशिष्ट लब्धिविद्यायुक्त महान् प्रभाविक मंत्र) का करोड बार जाप किया। जिससे सौधर्म गच्छ में इनका गच्छ 'कोटिक गण' के नाम से प्रचलित हुआ । 58 कोटिक गण की चार शाखाओं में तृतीय व्रज शाखा हुई 159 56. 57. 58. 59. 60. 61. 62. 63. 64. 65. भगवान् महावीर की 13 वीं पाट पर अंतिम दशपूर्वधर युगप्रधान आचार्य श्री वज्रस्वामी हुए ।" उनके शिष्य आचार्य वज्रसेनसूरि हुए।" आचार्य वज्रसेन के शिष्य आचार्य चंद्रसूरि के नाम से चंद्र कुल की उत्पत्ति हुई 102 भगवान् महावीर के सोलहवें पाट पर श्री समन्तभद्रसूरिजी हुए, जो अधिकांश वन में ही रहते थे और इसी कारण उनसे इसी परंपरा में वनवासी गच्छ उत्पन्न हुआ । 63 वनवासी गच्छ में आचार्य श्री नेमिचंद्रसूरिजी के पट्टधर श्री उद्योतनसूरि हुए। उन्होंने आबू पर्वत की तलहटी में तेली गाँव में बलवान् ग्रह-नक्षत्र युक्त उत्तम मुहूर्त में संतानवृद्धि का सहज योग देखकर वटवृक्ष के नीचे सर्वदेव आदि आठ पुरुषों को दीक्षा दी। इससे वनवासी गच्छ में वडगच्छ उत्पन्न हुआ 164 वडगच्छ के श्री मणिरत्नसूरि जी के शिष्य श्री जगच्चंद्रसूरि हुए। आपने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार को दूर करने हेतु यावज्जीव अभिग्रहपूर्वक आयम्बिल” तप किया। इससे प्रभावित होकर मेवाड नरेश झैलसिंहजी ने वि.सं. 1285 में आपको 'तपा' (अर्थात् तप करने वाला) नामक बिरुद दिया जो आगे जाकर आपके गच्छ के साथ जुडने पर सौधर्म गच्छ...वडगच्छ तपागच्छ कहलाया 16 'तपा' शब्द 'तपस्' का अपभ्रंश है किन्तु जाति वाचक रुढ शब्द होने से 'तपा' रुप में ही प्रयुक्त होता है। कुछ लोग इसके स्थान पर 'तपस्' का प्रयोग करके '...तपोगच्छ' प्रयोग भी करते हैं। इसी तपागच्छ की परंपरा में आचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी हुए जिन्होंने वि.सं. 1925 अषाढ वदि दशमी के दिन क्रियोद्धार के समय अपने गच्छ का नाम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छ रखा । 7 66. 67. प्रथम परिच्छेद... [7] अ.रा.पृ. 5/256; कल्पसूत्र मूल स्थविरावली गाथा 5 एवं टीका; शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 106, 107 अ. रा. भा. 7 मुद्रण प्रशस्तिश्लोक-1 अ.रा.पृ. 5/256; वही भाग 7, मुद्रणपरिचयश्लोक 1; शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 133 अ.रा. पृ. 5/256; मुद्रणपरिचयश्लोक 1; शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 133 अ. रा. पृ. 5/256; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ. 148 अ. रा. पृ. 5/256; शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 150 अ.रा.भा. 7; मुद्रणपरिचयश्लोक शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 158 अ. रा. भा. 7; मुद्रण परिचय अ. रा. भा. 7; मुद्रणपरिचयश्लोक शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 193 आयंबिल - जिसमें घी, तेल, दूध, दहीं, गुड-शक्कर एवं कडा विगर (तली चीज) इन छः विगइ (विकृति) एवं हरी वनस्पति आदि के त्यागपूर्वक केवल उबला हुआ धान्य या रुखी रोटी आदि दिन में एक ही बार एक ही जगह पर बैठकर खाया जाता है उसे जैन सिद्धान्त के अनुसार 'आयंबिल' तप कहते हैं। अ.रा.पृ. 4/1383; 2185; एवं 5 / 256; शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 229 अ. रा. भा. 7, मुद्रणपरिचय, श्लोक 2; संस्कृतप्रशस्ति, श्लोक 1 श्रीमत्सौधर्मगच्छः प्रवरमतियुतः कल्पवृक्षः प्रतीतो, गच्छाचारैकचारप्रशमरसधरः सूरिमुख्यो विशालः । संसारोन्मूलनेभश्रमणगणशुभः शान्तिचारु: प्रफुल्लः, सोऽयं सौधर्मगच्छो जयति जगति वो बोधिबीजं तनोतु ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8]... प्रथम परिच्छेद क्रम आचार्य का नाम 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. RELEASE 2 2 2 2 2 10. 11. 13. 14. 15. 16. 12. श्री सिंहगिरिसूरिजी 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की गुरुपरम्परा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय गुर्वावली / पट्टावली " ( शासनपति श्री महावीर स्वामीजी ) क्रम आचार्य का नाम 24. श्री सुधर्मास्वामीजी श्री जम्बूस्वामीजी श्री प्रभवस्वामीजी श्री शय्यंभवसूरिजी श्री यशोभद्रसूरिजी श्री संभूतिविजयजी श्री भद्रबाहुस्वामीजी श्री स्थूलभद्रसूरिजी श्री आर्य महागिरिजी श्री आर्य सुहस्तिसूरिजी श्री सुस्थितसूरिजी श्री सुप्रतिबद्धसूरिजी श्री इन्द्रदिनसूरिजी श्री दिन्नसूरीजी श्री वज्रस्वामीजी श्री वज्रसेनसूरिजी श्री चन्द्रसूरिजी श्री समन्तभद्रसूरिजी श्री वृद्धदेव श्री प्रद्योतनसूरिजी श्री मानदेवसूरिजी श्री मानतुङ्गसूरिजी श्री वीरसूरिजी श्री विजयदेवसूरिजी श्री देवानन्दसूरिजी श्री विक्रमसूरिजी अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 25. 26. 27. श्री मानदेवसूरिजी 28. श्री विबुधप्रभसूरिजी 29. श्री जयानन्दसूरिजी 30. श्री रविप्रभसूरिजी 31. श्री यशोदेवसूरिजी 32. 33. 34. 35. 36. 37. 38. 39. 40. 41. 42. 43. 44. 45. श्री नरसिंहसूरिजी श्री समुद्रसूरिजी 46. 47. 48. श्री प्रद्युम्नसूरिजी श्री मानदेवसूरिजी श्री विमलचन्द्रसूरिजी श्री उद्योतनसूरिजी श्री सर्वदेवसूरिजी श्री देवसूरिजी श्री सर्वदेवसूरिजी श्री यशोभद्रसूरिजी (श्री नेमिचन्द्रसूरिजी ) श्री मुनिचन्द्रसूरिजी श्री अजितदेवसूरिजी श्री विजयसिंहसूरिजी श्री सोमप्रभसूरिजी (श्री मणिरत्नसूरिजी ) श्री जगच्चन्द्रसूरिजी श्री देवेन्द्रसूरिजी श्री विद्यानन्दसूरिजी श्री धर्मघोषसूरिजी श्री सोमप्रभसूरिजी श्री सोमतिलकसूरिजी 68. क्रम 69. 49. 50. 51. 52. 53. 54. 55. 56. 57. 58. 59. 60. 61. 62. 63. 64. 65. 66. 67. 68. 69. 70. 71. 72. 73. आचार्य का नाम श्री देवसुन्दरसूरिजी श्री सोमसुन्दरसूरिजी श्री मुनिसुन्दरसूरिजी श्री रत्नशेखरसूरिजी श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी श्री सुमतिसाधुसूरिजी श्री हेमविमलसूरिजी श्री आनन्दविमलसूरिजी श्री विजयदानसूरिजी श्री हीरविजयसूरिजी श्री विजय सेनसूरिजी श्री विजय देवसूरिजी श्री विजय सिंहसूरिजी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के क्रियोद्धारकत्व के विषय में कुछ लोगों में ऐसा भ्रम है कि आपके कोई गुरु नहीं थे, परन्तु यह सत्य नहीं है । आपके गुरु आचार्य श्री प्रमोदसूरिजी थे जैसा कि पूर्व में दीक्षा - प्रकरण में उल्लेख किया गया है। इनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है श्री विजय प्रमोदसूरिजी : भगवान् महावीर के प्रवर्तमान शासन में गच्छाधिपति के प्रथम क्रम पर श्री सुधर्मास्वामी का नाम आता है । इस परम्परा के 67 वें क्रम पर आचार्य श्रीमद्विजय प्रमोदसूरि आसीन थे । आपका जन्म डबोक (मेवाड) में गौड ब्राह्मण परमानन्दजी की भार्या पार्वतीबाई की कुक्षि से वि.सं. 1850 में गुडी पडवा (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) के दिन हुआ था। आपका जन्म का नाम प्रमोदचन्द्र था । आपने वि.सं. 1863 में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि 3) के दिन दीक्षाव्रत अंगीकार किया था । वि.सं. 1893 मे ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन आपको आचार्य पद प्रदान किया गया। श्री विजय प्रभसूरिजी श्री विजय रत्नसूरिजी श्री क्षमासूरिजी श्री विजय देवेन्द्रसूरिजी श्री विजय कल्याणसूरिजी श्री विजय प्रमोदसूरिजी श्री विजय राजेन्द्रसूरिजी वृद्धावस्था में जंधाबल क्षीण होने से आपने आहोर में स्थिरवास किया था | आपके रत्नविजयजी और ऋद्धिविजयजी दो शिष्य थे। जिसमें से संघ के आग्रह से वि.सं. 1924 में वैशाख शुक्ल पञ्चमी के दिन आपने रत्नविजयजी को आचार्य पद देकर श्री विजय राजेन्द्रसूरिजी नाम से प्रसिद्ध किया। आपने आहोर में वि. सं. 1934 में चैत्र कृष्णा अमावस्या को देह त्याग किया 169 श्री विजय धनचन्द्रसूरिजी श्री विजय भूपेन्द्रसूरिजी श्री विजय यतीन्द्रसूरिजी श्री विजय विद्याचन्द्रसूरिजी वर्तमान श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरिजी श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ श्रीअभिधानराजेन्द्र कोशद्वितीयावृत्ति अ. रा. भा. 7, मुद्रणपरिचय, श्लोक 2; संस्कृतप्रशस्ति, श्लोक 1, पृ. 8,9 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [9] आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की शिष्यपरम्परा आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि के हाथ से करीब 250 दीक्षाएँ हुई थीं परंतु जो लोग आपके कठोर आचार पालन एवं दृढ अनुशासन में नहीं रह पाये वे यत्र-तत्र शिथिलाचारी संवेगी, ढूंढकों, ('ढूँढक' यह एक सम्प्रदाय का नाम है) में मिल गए फिर भी आपका जो भी शिष्य-शिष्या परिवार वर्तमान में हैं वह सभी आचार पालन में दक्ष एवं शासन प्रभावना में अतिशय निपुण हैं। जिसमें कुछेक का यहाँ परिचय दिया जा रहा हैंश्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज: प्रसन्न मुद्रा, विशाल भाल, भद्र प्रकृति, मधुर भाषी, आपका जन्म वि.सं. 1896 में चैत्र शुक्ला चतुर्थी के दिन शान्त-दान्त, कषायों से बचने में प्रतिपल सावधान, स्वच्छ-सुन्दर ओसवंशीय कंकु चोपडा गोत्रीय शा. ऋद्धिकरणजी की धर्मपत्नी लिखावट, वैयावृत्य और स्वाध्यायलीनता मनि मोहनविजयजी अचलादेवी की कुक्षी से किशनगढ़ (राज.) में हुआ था। आपका की पहचान थी। जन्म का नाम धनराज था । बारह वर्ष की आयु में ही आपने व्यवहारिक वि.सं. 1959 में आपको गुरुदेव के हाथ से पंन्यास पद शिक्षा ले ली एवं धार्मिक शिक्षा में भी पंचप्रतिक्रमण जीवविचारादि एवं वि.सं. 1966 में रानापुर(म.प्र.)में तत्कालीन आ.श्री.वि. धनचंद्र चार प्रकरण, छ: कर्मग्रंथ और प्रवचनसारोद्धारादि ग्रंथ कंठस्थ कर सूरीश्वर जी के हाथ से उपाध्याय पद प्राप्त हुआ। आपके द्वारा लिये थे। श्री सिद्धाचलादि अनेक तीर्थों की यात्रा भी की थी। हस्तलिखित क्रियाविधि और समाचारी ही गच्छ में प्रमाण माने आपने यति श्री लक्ष्मीविजयजी के पास वि.सं. 1917 में अक्षयतृतीया, जायेंगे - ऐसी गुर्वाज्ञा इस गच्छ में अद्यावधि प्रवर्तित है। आपका गुरुवार के दिन धानेरा (गुजरात) में यति दीक्षा ग्रहण की। स्वर्गवास वि.सं. 1977 के पौष सुदि चतुर्थी को कुक्षी, जिला-धार दीक्षा के पश्चात् आपने अनेक छंद, थोकडे, सैद्धांतिक बोल, (म.प्र.) में हुआ था। उत्तराध्ययन सूत्र एवं दशवैकालिक सूत्र कंठस्थ किये। तत्पश्चात् व्याकरण श्री प्रमोदरुचिजी2:- - के अध्ययन हेतु आप पंन्यास श्री रत्नविजयजी (आ.वि. राजेन्द्रसूरि आपका जन्म मेवाड़ देशीय भींडर गाँव में वि.सं. 1898 जी) के पास आये। यहाँ आपने चन्द्रिका की तीनों वृत्ति एवं पंच में कार्तिक सुदि 5 के दिन शिवदत्त विप्र की धर्मपत्नी मेनावती काव्य का अध्ययन किया एवं शुद्ध साध्वाचार पालन की तीव्र उत्कण्ठा से हुआ था। आपके छोटे भाई रघुदत्त और छोटी बहन रुक्मणी थी। से वि.सं. 1925 में अषाढ वदि दशमी-बुधवार के दिन आचार्यश्री वि.सं. 1913 माघ सुदि 5 गुरुवार को आपने पं. अमररुचि के पास के साथ क्रियोद्धार कर उनके अपसंपत् शिष्य बने । आपको वि.सं. भींडर में ही यति दीक्षा ली। सं. 1925 आषाढ वदि 10 को आपने 1925 में मार्गशीष शुक्ल पंचमी को आचार्यश्री ने खाचरोद में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के साथ क्रियोद्धार करके शुद्ध उपाध्याय पद एवं वि.सं. 1965 में ज्येष्ठ शक्ला एकादशी के दिन मुनि जीवन अंगीकार कर आप आचार्यश्री के प्रथम दीक्षोपसंपद श्रीसंघ ने जावरा में आचार्य पद प्रदान किया। शिष्य बने। जैनागम पञ्जाङ्गी एवं अन्य सभी प्रकार से साहित्य के - आप संगीत शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे, इसलिए आपको आप अच्छे ज्ञाता थे। श्री संघ में आपको सिद्धांतसर्वज्ञ''आगमचर्चा ___ 'संगीतवारिधि' पद से अलङ्कृत किया गया। गुरुभक्ति, सरलता, चक्रवर्ती' की पदवी प्रदान हुई थी। आपने 'श्री अभिधान राजेन्द्र मृदुता और समत्व की उपासना आपके विशिष्ट गुण थे। श्री हुकमविजयजी कोश' की रचना में गुरुदेवश्री को पूर्ण सहयोग किया। अपनी पाट आपके शिष्य थे। आपका स्वर्गवास वि.सं. 1938 आषाढ वदि 14 पर अपने गुरुभाई श्री दीपविजयजी को अपने उत्तराधिकारी के रुप को वाँगरोद में हुआ था। में घोषित कर आपने वि.सं. 1977 में भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा (महावीर श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा:जन्म वाचन दिन) सोमवार को रात्रि 9.00 बजे वागरा (राज.) में आपका जन्म भोपाल (म.प्र.) में श्रीमाली भगवानजी की देहत्याग किया, जहाँ आज समाधि मंदिर बना हुआ हैं। धर्मपत्नी सरस्वती की कुक्षी से वि.सं. 1945 में अक्षय तृतीया के उपाध्याय श्री मोहनविजयजी: दिन हुआ था। आपका जन्म का नाम 'देवीचन्द' था। बाल्यकाल वि.सं. 1922 में भाद्रपद वदि द्वितीया को आपका जन्म में ही माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् जैसेलमेर निवासी श्रेष्ठी संबूजा (आहोर, (राज.) के निकट) गाँव में ब्राह्मण वरदीचन्द की केसरीमलजी के साथ आप आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के पत्नी लक्ष्मीबाई की कुक्षी से हुआ था। आपका जन्म का नाम मोहन दर्शनार्थ पहुंचे एवं उनके सदुपदेश से वैराग्य वासित होकर वि.सं. था। कर्मसंयोग से 5 वर्ष की वय में आप गूंगे हो गये एवं हाथ- 1952 में अक्षय तृतीया के दिन आलीराजपुर में दीक्षा एवं वि.सं. पैर संधिवात से ग्रस्त हो गए। इसी हालत में आप वि.सं. 1932 1954 माघ सुदि पंचमी को आहोर में बडी दीक्षा ली एवं मुनि में आहोर में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के संपर्क में आये । श्री दीपविजयजी नाम से प्रसिद्ध हुए। आपको वि.सं. 1973 में गुरु कृपा से तत्काल आप पूर्ण स्वस्थ हो गए। तब अपने जीवन विद्वमंडल ने विद्याभूषण' और साहित्य विशारद' -पद से अलंकृत को गुरुचरणों में समर्पित करते हुए वि.सं. 1933 में फाल्गुन सुदि 70. श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरि जीवनचरित्र से उद्धृत द्वितीया के दिन जावरा (म.प्र.) में आपने आचार्यश्री के पास दीक्षा 71. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि काव्य से उद्धृत, धरती के फूल, पृ. 319, 320 ग्रहण की। 72. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि काव्य से उद्धृत, धरती के फूल, पृ. 320-21-22 73. श्रीमद्विजय भूपेन्द्रसूरि जीवन चरित्र Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10]... प्रथम परिच्छेद किया एवं वि.सं. 1980, ज्येष्ट सुदि अष्टमी, शुक्रवार को श्रीसंघ ने आचार्य पद प्रदान किया एवं श्री भूपेन्द्र सूरीश्वर जी नाम घोषित किया । वि.सं. 1990 में अहमदाबाद में हुए अ.भा. जैन श्वे. मूर्तिपूजक मुनि सम्मेलन में अनेकों आचार्य एवं सैकडों मुनियों के बीच जो 9 प्रामाणिक आचार्यों की समिति बनी थी, उसमें आप चतुर्थ स्थान पर थे। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आपको वि.सं. 1972 में वागरा (राज.) में श्रीमद्विजय धनचन्द्र सूरिजी म.सा. ने 'व्याख्यान वाचस्पति', वि.सं. 1980 में जावरा में श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने 'उपाध्याय पद' एवं आ. सागरानंद जी के साथ शास्त्रार्थ में उसी वर्ष रतलाम नरेश की विद्वदुमंडली की मध्यस्थता में 'पीताम्बर विजेता' पदवी एवं वि.सं. 1995 में वैशाख सुदि दशमी को आहोर में श्रीसंघ ने आचार्य पदवी दी । आपके मुनि श्री विद्याविजयजी आदि 18 शिष्य थे एवं अनेकों शिष्याएं थी। आप विद्वानों से प्रेम रखते थे एवं उन्हें आदर और सम्मान देते थे । श्री दानविजयजी आदि 5 साधु एवं अनेक साध्वियाँ आपके हस्तदीक्षित हैं। आप स्वभाव से सरल और शांति प्रिय थे। साथ ही जैनागम एवं अन्य जैन-जैनेतर धार्मिक ग्रंथ, संस्कृत, प्राकृत व्याकरण, कोश, अलंकारादि, तर्क, न्याय आदि के प्रकाण्ड मर्मज्ञ विद्वान् थे । आपने विश्वविख्यात अभिधान राजेन्द्र कोश का संपादनसंशोधन एवं प्रकाशन कार्य मुनिश्री यतीन्द्र विजयजी के साथ रहकर पूर्ण जिम्मेदारी पूर्वक संपन्न किया। सूक्त मुक्तावली आदि 5 ग्रंथो की टीका, अनुवाद एवं अनेको चैत्यवन्दन - स्तुति-स्तवनादि की रचना की। आपकी रचनाओं में प्रचुर अर्थगांभीर्य प्राप्त होता है। आपका स्वर्गवास वि.सं. 1993 माघ शुक्ला सप्तमी को प्रातः आहोर (राज.) में हुआ। श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वर जी महाराज" : 74 आपका जन्म ओशवंशी जायसवाल गोत्रीय दिगम्बर सम्प्रदायानुयायी श्री बृजलालजी की धर्मपत्नी चम्पादेवी की कुक्षी से वि.सं. 1940 कार्तिक शुक्ला द्वितीया, रविवार के दिन धौलपुर (धवलपुर) राजस्थान में हुआ था। आपका जन्मनाम रामरत्न था । जब रामरत्न 5 वर्ष के थे तब माता का स्वर्गवास हो गया और उनके पिताजी धौलपुर छोडकर भोपाल (म.प्र.) जा बसे। वहाँ रामरत्नने अल्पायु में ही दिगम्बर पाठशाला में पंचमंगल पाठ, तत्त्वार्थ सूत्र, रत्नकरण्डक श्रावकाचार, आलाप पद्धति, द्रव्य संग्रह, देवगुरु धर्म परीक्षा, नित्यस्मरणपाठ का अर्थ सहित अध्ययन किया, साथ ही भक्तामर, मंत्राधिराज, कल्याण मंदिर, विषापहार आदि स्तोत्र भी कंठस्थ किये । 12 वर्ष की अल्पायु में पिता का भी स्वर्गवास हो जाने से रामरत्र मामा के यहाँ रहे लेकिन वहाँ अनबन होने से वे उज्जैन में सिंहस्थ का मेला देखने आये। मेले के बाद श्री मक्षीजी तीर्थ की यात्रा कर महेन्द्रपुर (वर्तमान महिंदपुर सीटी) में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के दर्शन किये। मुनि दीपविजयजी (भोपालनिवासी होने से) आपके पूर्व परिचित थे तथा आचार्य श्री से प्रथम दर्शन एवं वार्तालाप से प्रभावित आपने अपने विद्वता एवं ज्ञानगांभीर्य से आचार्य श्री को भी प्रभावित कर आप आचार्यश्री के साथ रहे । विहार में आपके संस्कारी हृदय पर श्रीमद् गुरुदेव श्री के शुद्ध क्रियाकलाप, दैनिक दिनचर्या एवं विद्वता का अमिट प्रभाव पडा । फलस्वरुप रामरत्न ने वि.सं. 1954, आषाढ कृष्णा द्वितीया, सोमवार के दिन खाचरोद में आचार्यश्री के पास लघु दीक्षा एवं वि.सं. 1955 माघ शुक्ला पंचमी गुरुवार को आहोर (राज.) में बडी दीक्षा ली। आपका नाम गुरुदेव ने मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी रखा। गुरुनिश्रा में नौ साल तक सतत रहने से आपको जैनागमों का तीव्र गति से अध्ययन, स्वाध्याय, विहार, प्रतिष्ठञ्जनशलाका, जीर्णोद्धार, दीक्षा, बडी दीक्षा, उपधान, उद्यापन (उजमणां), संघयात्रा, तीर्थयात्रा, ज्ञान भंडार स्थापना, शास्त्रार्थ, कलह-शांति आदि धर्मकार्यो का सर्वतोमुखी अनुभव प्राप्त हुआ। एवं बाद में आपने श्री संघ में ये सभी कार्य करवाये। आपने मुनि श्री दीपविजयजी के साथ रहकर अभिधान राजेन्द्र कोश का संपादन-संशोधन एवं प्रकाशन करवाकर गुरुदेव एवं श्रीसंघ का अभूतपूर्व विश्वास संपादन किया । स्वाध्याय और लेखन आपका प्रिय व्यसन था । आपके शिष्यों ने कभी आपको किसी से बात करते या फालतू बैठे नहीं देखा । हमेशा दीवाल की ओर मुख करके सतत लेखन आपकी प्रिय प्रवृत्ति थी । आपने तीन थुइ की प्राचीनता, सत्यबोध - भास्कर, पीत पटाग्रह मीमांसादि प्रायः 60 के करीब ग्रंथ लिखे। लेकिन आप एवं मुनि दीपविजयजी द्वारा लिखित अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग का उपोद्घात कोई पढे, वह सहज ही आपकी विद्वत्ता के प्रति नतमस्तक हो जाता है । मेरी नेमाड यात्रा, मेरी गोडवाड यात्रा आदि में आपने विभिन्न गाँव नगरों के लोगों के रहन-सहन एवं स्वभाव के विषय में जो बातें लिखी है वह आज भी इतनी ही सत्य साबित होती हैं। इतना ही नहीं जैन श्वे. श्रीसंघ अन्य बडे-बडे विद्वान् आचार्य भी आपकी कही हुई बातों को सैद्धांतिक रूप से प्रामाणिक मानते थे एवं विभिन्न विषयों में आपकी सलाह लेते थे । आपने आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा पुनः प्रचारित त्रिस्तुतिक सिद्धांत एवं गच्छ की आचार मर्यादा का दृढतापूर्वक पालन करने के साथ श्रीसंघ में उन सिद्धांतो का प्रचार-प्रसार कर दृढतापूर्वक पालन करवाया। सामाजिक एकता एवं समाज सेवा हेतु आपने अपने अंतिम जीवन में वि.सं. 2016 में 'अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्' की स्थापना की एवं सामाजिक जागृति हेतु समाज का मासिक पत्र 'शाश्वत धर्म' शुरु करवाया। वि.सं. 2017 कार्तिक पूर्णिमा को आपने अपनी पाट पर अपने उत्तराधिकारी के रुप में मुनि श्री विद्याविजयजी को 'आचार्य' एवं मुनि श्री जयन्तविजयजी को 'युवाचार्य' पद पर घोषित कर वि.सं. 2017 पौष सुदि तृतीया बुधवार दि. 21-22-1960 को प्रातः 4.00 बजे स्वर्गवासी हुए। श्री मोहनखेडा तीर्थप्राङ्गण में आपका दिव्य, मनोरम, संगमरमरीय गुरुमंदिर आज भी आपकी साक्षात् स्मृति करवाता है। श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज' 5 : आपका जन्म जोधपुर (राज.) में राठौरवंशीय (राजपूत) क्षत्रिय गिरधरसिंह की धर्मपत्नी सुन्दरबाई की कुक्षी से वि.सं. 1957 पौष 74. 75. श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ एवं आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचन वि.सं. 2044 भाण्डवपुर तीर्थ पौष सुदि 3 श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ - वासक्षेप पृ.22 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [169] विषय-क्षेत्र एवं विशुद्धि की अपेक्षा से अवधिज्ञान सभी संसारी जीवों में पाये जाते हैं।33 और अवधिज्ञान के भवप्रत्यय के तीन भेद/24:-- और गुणप्रत्यय - इन प्रकारों में से पहला देव और नारकों तथा चरमशरीरी एवं तीर्थंकर (जो उसी भव में तीर्थंकर बनने वाले होते) को और देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। इनसे विषय, क्षेत्र दूसरा भेद मनुष्य और तिर्यंचों में संभव है।34 | मन:पर्यवज्ञान सर्वविरतिधर और पदार्थो के ज्ञान में उत्तरोत्तर अधिक विस्तार और अधिक विशुद्धि साधु को ही होता है और केवलज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्वी संयमी को पायी जाती है। देशावधि एक बार प्राप्त होकर छूट भी सकता है होता है।35 । (क्वचित् कोई आत्मा अन्यलिङ्ग से केवलज्ञानी होती है अत: वह प्रतिपाती है परन्तु परमावधि और सर्वावधि ज्ञान उत्पन्न तो उनका भी भावचारित्र तथा प्रकार का विशुद्ध ही होता है।361 होने के बाद केवलज्ञान की प्राप्ति तक कभी नहीं छूटने के कारण अप्रतिपाती है। ये दोनों तद्भव मोक्षगामी मुनियों के ही होते हैं। सम्यग्ज्ञान का फल:यहाँ पर अवधिज्ञान के चार, चौदह और अनन्त भेद भी दर्शाये मोक्ष के कारणभूत, आसन्नकाल में विरतिफलदायक एवं गये हैं। परंपरा से मोक्षफलप्रदायक 37 सम्यग्ज्ञान को मनीषियोंने बिना समुद्र मन:पर्यवज्ञान: (मंथन) का पीयूष, बिना औषध का रसायन एवं अन्य की अपेक्षा दूसरों के मनोगतं अर्थ को जाननेवाला ज्ञान मनःपर्यव ज्ञान से रहित ऐश्वर्य (वैभव) कहा है।138 है। यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुदगल द्रव्यों को साक्षात् ज्ञान से ज्ञानावरण दूर हटता है (नष्ट होता है), अज्ञान का जाननेवाला है। चिन्तक जैसा सोचता है मन में उसके अनुरुप पर्यायें। नाश होता है, पदार्थ के हेय-उपादेयत्त्व का ज्ञान होता है, सद्-असद् पुद्गल द्रव्यों की आकृतियाँ बन जाती है। वस्तुतः मनःपर्यव का का विवेक होता है।39, व्रतों दोषों का ज्ञान होने से नीति मार्ग/न्याय अर्थ है मन की पर्यायों का ज्ञान125 । मार्ग/सदाचरण/चारित्र में निरतिचार प्रवृत्ति होती है।40, विषयाभिलाषा मनःपर्यव ज्ञान के दो भेद हैं - (1) ऋजुमति और (2) नष्ट होती है।41, वैराग्य उत्पन्न होता है, सदनुबंध (अच्छे संस्कार) विपुलमति । ऋजुमति सरल मन, वचन, काया से विचार किये गये की प्राप्ति होती है।42 । ज्ञानी आत्मा विनययुक्त होती है, गुरुभक्ति पदार्थों को जानता है पर, विपुलमति मनःपर्यव ज्ञान सरल और कुटिल करती है।143 दोनों तरह से विचार किये गये पदार्थों को जानता है। ऋजुमति की ज्ञान चारित्र का हेतु है। ज्ञान से दोषों का परिहार, गुणों अपेक्षा विपुलमति अधिक विशुद्ध होता है। ऋजुमति एक बार होकर की सेवा एवं धर्म की साधना होती है। ज्ञानयुक्त क्रिया से पूर्वसंचित छूट भी सकता है, किन्तु विपुलमति मनःपर्यवज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त बना रहता है, इसलिए इसे 'अप्रतिपाती' कहते हैं। दोनों कर्मों का नाश होता है। बहुश्रुत के मुख से जिनवचन को सुनकर प्रकार का मनः पर्यवज्ञान संयमी मुनियों को ही होता है।20। भव्यात्माएँ संसार-अरण्य को पार करती है। ज्ञान से जीव चारित्र अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी की शुद्धि का ज्ञाता बनकर अतिचारों को दूर करता है।144 और विषय की अपेक्षा अन्तर है। अवधिज्ञान के द्वारा ज्ञात किये ज्ञानी आत्मा के आनंदरुप नन्दनवन में इन्द्र की तरह (निश्चित गये पदार्थ के अनन्तवें भाग तक के सूक्ष्म और विशुद्ध स्वरुप को होकर) रमण करता है।145 मन:पर्यवज्ञानी जानता है। 127 124. अ.रा.पृ. 3/152, 3/157 केवलज्ञान: 125. अ.रा.पृ. 6/85; भगवती सूत्र 8/2 126. अ.रा.पृ. 6/85; स्थानांग-2/1; तत्त्वार्थसूत्र 1/24 लोकालोक के त्रिकालवर्ती रुपी-अरुपी समस्त द्रव्यों और 127. तत्त्वार्थसूत्र 1/26 उनकी समस्त पर्यायों को युगपत् प्रत्यक्ष जाननेवाला ज्ञान केवलज्ञान 128. अ.रा.पृ. 3/642 है। केवलज्ञानी को सर्वज्ञ कहते हैं। समस्त ज्ञानावरण कर्म के समूल 129. तत्त्वार्थसूत्र 1/11 विनष्ट होने पर यह ज्ञान उत्पन्न होता है। यह पूर्णरुप से निरावरण 130. वही 1/12 और निर्मल ज्ञान है। इस ज्ञान के उत्पन्न होते ही मति आदि चारों 131, तत्त्वार्थसूत्र 1/32; अ.रा.पृ. 4/1945, 1946 क्षायोपशमिक ज्ञान इसमें अन्तर्भावित हो जाते हैं। केवलज्ञान आत्मा 132. अ.रा.पृ. 6/56, 85; विशेषावश्यक भाष्य-812 की ज्ञान-शक्ति का पूर्ण विकसितरुप है।28। यहाँ पर केवलज्ञान 133. अ.रा.पृ. 6/56 की दार्शनिक सिद्धि की चर्चा की गई है तथा भवस्थ और सिद्ध 134. तत्त्वार्थसूत्र 1/22-23 एवं उस पर तत्त्वार्थभाष्य; अ.रा.पृ. 6/56 की अपेक्षा से केवलज्ञान के भेद-प्रभेद की भी चर्चा की गई है। 135. अ.रा.पृ. 6/56, 85 इन पाँच ज्ञानों में मन और इन्द्रियों की सहायता अपेक्षित 136. नवतत्त्वप्रकरण, पृ232 होने से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परीक्षा और आत्मा से उत्पन्न होने 137. अ.रा.पृ. 4/1980 के कारण (अन्य इन्द्रियादि की अपेक्षा नहीं होने से) अवधिज्ञान, 138. वही, ज्ञानासार-5/8 मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष कहलाते हैं।30 । मति, श्रुत और 139. अ.रा.पृ. 4/1979 140. अ.रा.पृ. 4/1980 अवधि - ये तीन ज्ञान मिथ्या भी होते हैं।31, शेष दो ज्ञान अर्थात् 141. अ.रा.पृ. 4/1981 मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान सम्यग् ही होते हैं।क्योंकि ये दोनों 142. अ.रा.पृ. 4/1979 ज्ञान मिथ्यात्व के कारणभूत मोहनीय कर्म के अभाववाली विशुद्ध 143. अ.रा.पृ. 4/1980 आत्मा में ही संभव है।37 | मतिज्ञान और श्रुतज्ञान चारों गति के 144. अ.रा.पृ. 7/991 145. अ.रा.पृ. 4/1980 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [170]... चतुर्थ परिच्छेद सम्यग्ज्ञान के एक पद के भी चिन्तक को जिनेश्वर परमात्माने आराधक कहा है क्योंकि वह आत्मा वीतरागमार्ग में संवेगदायक एक पद के भी ज्ञान को अन्तसमय तक नहीं छोड़ता । 146 इतना ही नहीं अपितु सिद्धान्त के महानिशीथ सूत्र में परमात्मा महावीरस्वामीने कहा है कि, हे गौतम! सिद्धांत के एक अक्षर को भी जो जानता है वह मरणांत कष्ट आने पर भी अनाचार का सेवन नहीं करता ।47 इससे उसकी गुण समृद्धि नष्ट नहीं होती इसीलिए सुविहित आत्मा आराधनायुक्त होकर तीसरे भव में मोक्ष को प्राप्त होती है । 148 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अतः भव्य जीव को हितशिक्षा देते हुए राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि, हे जीव ! मत्सर (ईर्ष्या) का सर्वथा त्याग करके सिद्धिनगर रुप सन्मार्ग को प्रकट करने के लिये ज्ञानरुप मणि (रत्न) के उद्योत को प्राप्त करने हेतु सर्व प्रकार से प्रयत्न कर। 149 146. अ.रा. पृ. 7/991 147 अ.रा.पु. 7/990, महानिशीथ अ-6 148. अ.रा. पृ. 7/991 149. अ.रा. पृ. 7/990, जीवाभिगम सूत्र - अ. - 11, गा.-70 मा परिभमह इह भोगा विसमिव मुह-महुरा परिणामदारुणविवागा । सिवनयरमहागोउर - निविडकवाडोवमा भोगा ॥1॥ भोगा सुतिक्खबहुदु - क्खलक्खदवहुयबहिं धण समाणा । धम्मडुमउम्मूलक्षण - समीरलहरीसमा भोगा ॥12 ॥ जं भुत्तमणाइभवे, जीवेणाहारभूसणाईयं । एत्थ पुंजियं तं, अहरेइ धरुधरं धरणि ॥3॥ पाइँ जाइँ सुमो - रमाइँ पाणाइँ पाणिणो पुवि । विज्जंति ताइ न हु तत्ति - याइ सलिलाइ जलहीसु ॥4॥ पुप्फाणि फलाणि दला - णि जाणि भुत्ताणि पाणिणा पुव्वि । विज्जंति न तिहुयणतरु- गणेसु किर वट्टमाणेसु ॥5॥ भुत्तूणं सुइसुंदरे सुरबहूसंदोहदेहाइए, भोए सायरपल्लमाणमणहे देवत्तणे जं नरो । रज्जतीत्थिकलेवरेसु असुईपुत्रेसु रिट्ठोवमा मन्ने तित्तिकरा जियाण न चिरं भुत्ता वि भोगा तओ ॥6॥ ता पडिबुज्झइ बुज्झह, मा भोगपरव्वसं मणं काउं । दुत्तरअणोरभवजल - निहिम्मि परिभमहदुक्खत्ता ॥ 7 ॥ - अ. रा. पृ. 5/1067 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सम्यक् चारित्र 'चारित्र' शब्द 'चर् गतिभक्षणयोः धातु से इत्र प्रत्यय लगने पर निष्पन्न होता है 150 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने "चारित्र" पद को समजाते हुए कहा है 151 (1) जिससे (जीव) अनिन्दित आचरण करता है, (2) चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम (3) चरित्र (4) अन्य जन्मों में उपार्जित आठों प्रकार के कर्मसंचय को दूर करने के लिए सर्व सावद्ययोग की निवृत्ति (5) सर्वविरतिमय क्रिया ( 6 ) मुमुक्षुओं के द्वारा जिसका आचरण करके निवृत्ति (मोक्ष) में पहुँचा जाय (7) चारित्र मोहनीय कर्म के क्षय से प्रकट हुआ आत्मा का विरतिरुप परिणाम, (8) जिससे मोक्ष प्राप्त किया जाय (9) मूल उत्तर गुणों का समूह (10) अज्ञान के द्वारा संचित कर्मों को दूर हटाना (स्वंय की आत्मा में सेकर्मों को रिक्त करना) (11) सर्व संवर (12) चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न आत्म (जीव) परिणाम (13) सावद्ययोग निवृत्ति - - (14) बाह्य सदनुष्ठान (15) सत्क्रिया - सच्चेष्ठा को चारित्र कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने एवं जैनेन्द्र सिद्धात कोश में शुल्लक वर्णीने चारित्र की परिभाषाएँ निम्नानुसार दी गई है 152 | 1. तत्त्वार्थ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना 'चरण' कहलाता है। अर्थात् मन, वचन, काया से शुभ कर्मों में प्रवृत्ति करना चरण है। जिससे हित को प्राप्त करते हैं और अहित का निवारण करते हैं, उसको चारित्र कहते हैं । अथवा सज्जन जिसका आचरण करते हैं, उसको चारित्र कहते हैं, जिसके सामायिकादि भेद हैं। 3. संसार की कारणभूत बाह्य और अन्तरङ्ग क्रियाओं से निवृत्त होना चारित्र है । 4. पुण्य व पाप दोनों का त्याग करना चारित्र है। 5. योगियों के द्वारा प्रमाद से होनेवाले कर्मास्रव से रहित होना चारित्र है । 6. अपने में अर्थात् ज्ञान स्वभाव में ही निरन्तर चरना चारित्र है । 7. स्वरुप में रमण करना चारित्र है । 8. जीवस्वभाव में अवस्थित रहना ही चारित्र है, क्योंकि स्वरुप में चरण करने को चारित्र कहा है । 9. रागादि का परिहार करना 'चारित्र' है। 10. जो सदा प्रत्याख्यान करता है, प्रतिक्रमण करता है और आलोचना (प्रायश्चित का एक भेद) करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है । अनन्तर अकर्तव्य का त्याग करना चारित्र है । 11. यह करने योग्य कार्य है- एसा ज्ञान होने के 12. हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन सेवा तथा परिग्रह इन पाँचों पापों की प्रणालियों से विरक्त होना चारित्र है । 13. समस्त पापयुक्त मन, वचन, काया के त्याग से संपूर्ण कषायों से रहित होने से निर्मल, परपदार्थों से विरक्ततारुप चारित्र है। 14. अशुभ कार्यो से निवृत होना और शुभ कार्यों में प्रवृत होना चारित्र है । व्यवहार नय से उसको व्रत, समिति और गुप्तिरुप कहा है। 15. मन-वचन-काया से, कृत-कारित अनुमोदना के द्वारा जो पापरूप क्रियाओं का त्याग है उसको 'सम्यक् चारित्र' कहते हैं । 2. 150. अ. रा.पू. 3/1141 151. अ.रा. पृ. 3/1141 पर उद्धृत 152. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/ 282 से 284 चतुर्थ परिच्छेद... [171] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [172]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अशुभ से निवृत्ति और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति होना सम्यक् चारित्र है।53 | अथवा संसार के कारणभूत राग-द्वेष आदि की निवृत्ति के लिए ज्ञानवान पुरुष का शरीर और वचन की बाह्य क्रियाओं से तथा अभ्यन्तर मानसिक क्रियाओं से विरत होना सम्यक् चारित्र है।54 | यह सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही होता है, किन्तु सम्यग्ज्ञान भी बिना सम्यग्दर्शन के नहीं होता। इसलिये सम्यक्त्व के बिना सम्यक् चारित्र भी संभव नहीं है। सम्यक् चारित्र में 'सम्यक्' विशेषण अज्ञानपूर्वक आचरण की निवृत्ति के लिए दिया है। चारित्र के भेदः सामान्य से चारित्र एक प्रकार का है। चारित्र मोह के उपशम, क्षय व क्षयोपशम से होनेवाली आत्मविशुद्धि की दृष्टि से चारित्र एक है। बाह्य व अभ्यन्तर निवृत्ति अथवा निश्चय-व्यवहार की अपेक्षा से चारित्र दो प्रकार का है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक अथवा उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य के भेद से चारित्र तीन प्रकार का है। तथा चातुर्याम की अपेक्षा से अथवा छद्यस्थों के सराग और वीतराग तथा सर्वज्ञों का सयोग और अयोग इस तरह वह चार प्रकार का है। सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात के भेद से वह पाँच प्रकार का है155 | इसी तरह विविध निवृत्तिरुप परिणामों की दृष्टि से यह चारित्र संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्परुप है। सामायिक चारित्र: समय आत्मा को कहते हैं। 'समय' शब्द से जात अर्थ में तद्धित 'इक' प्रत्यय लगाने से 'सामायिक' शब्द निष्पन्न होता है। अर्थात् जो आत्मा के आश्रय से उत्पन्न दशा उसे सामायिक कहते हैं। अतः आत्मा का आश्रय ग्रहण करने की क्रिया सामायिक है। 'सामायिकक्रिया' चारित्र का भेद है। श्रावक और मुनि दोनों के आचरण में सामायिक को समान रुप से सम्मिलित किया गया है। सामायिक व्रत गृहस्थ का प्रथम शिक्षाव्रत है। सामायिक अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र का परस्पर सम्यक् समायोजन।56 सामायिक का व्युत्पतिलभ्य अर्थ: ___ जैन वाङ्मय में 'सामायिक' और 'सामयिक' - ये दो शब्द इस चारित्रभेद के नाम के लिए प्रयुक्त हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में इस अर्थ में केवल 'सामायिक' शब्द का संकलन किया गया है; 'सामयिक' शब्द का अर्थ सिद्धान्त अर्थ में प्रयुक्त 'समय' शब्द को आधार मानकर बताया गया है "सामायिक (सामइय-पुं.)समयः सिद्धान्तस्तदाश्रितः सामायिकः 1157" 'सामायिक' शब्द की व्युत्पत्ति-निरुक्ति के विषय में विचार करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अनेक आगम ग्रन्थों को भी उद्धृत किया है। विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार 'सामायिक' शब्द की निरुक्ति निम्न प्रकार से है रागद्वेषविरहितः समः, तस्य प्रतिक्षणं अपूर्वापूर्वकर्मनिर्जराहेतुभूताया विशुद्धेरायो लाभः समायः, स एव सामायिक। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'सामायिक' शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए उसका समाधान भी किया है समानां ज्ञानदर्शनचारित्राणां आयः समायः ।समाय एव सामायिकं, विनयादिपाठात् स्वार्थे ठक् । आह-समयशब्दस्तत्र पठ्यते तत्कथं समाये प्रत्ययः? उच्यते - 'एकदेशविकृतमनन्यवद् भवतीति न्यायात्, तञ्च सावद्ययोगविरतिस्पं, ततश्च सर्वमप्येतच्चारित्रं अविशेषतः सामायिकम् ।।58 आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी इतने से ही सन्तुष्ट नहीं हुए, और इसलिए, 'संजम' शब्द के अन्तर्गत पुनः अन्यान्य आगम ग्रन्थों के उद्धरणों के साथ 'सामायिक' शब्द की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की - तत्र समो रागादिरहितः, तस्य आयो गमनं प्रवृत्तिरित्यर्थः समायः । समाये एव, समाये भवं, समायेन निर्वत्तं समायस्य विकारोऽशोवा, समायो वा प्रयोजनमस्येति सामायिकम् । उक्तं च रागद्दोसविरहिओ, समो त्ति अयणं अउ त्ति गमणं ति । समगमणं ति समाओ स एव समाइयं नाम ॥ अहवा भवं समाए, निव्वत्तं तेण तम्मयं वा वि। जं तप्पओयणं वा, तेण सामाइयं नेयं ॥ अहवा समाइ सम्मत्तनाणचरणाइ तेसु तेहि वा। अयणं अओ समाओ, स एव समाइयं नाम ॥ अहवा समस्स आओ, गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो। अहवा समाणमाओ (समानामायो)णेओ समाइयं नाम । अथवा साम्नि मैत्र्या वा अयस्तस्य वा आयः समायः, स एव समायिकं अहवा सामं मेत्ती, तत्थ अओ तेण व त्ति सामाओ। अहवा सामस्साओ, लाभो सामाइयं नाम ।159 अनेकार्थसंग्रह में 'समय' शब्द के अनेक अर्थ दिये गये हैं, यथा समयः शपथे भाषासम्पदोः कालसंविदोः । सिद्धान्ताचारसंकेतनियमासरेषु च । क्रियाकारे च निर्देशे......160 (संविद् = ज्ञान, क्रियाकार = व्यवस्थापन।) अभिधानचिन्तामणिनाममाला में भी 'समय' का अर्थ 'सिद्धान्त' किया गया है - ___ "राद्धसिद्धकृतेभ्योऽन्त आप्तोक्तिः समयागमौ ॥"161 किन्तु, रत्नकरण्डकश्रावकाचार में 'सामायिक' शब्द का प्रयोग सामायिक नामक चारित्र के अर्थ में किया गया है देशावकाशिकं वा समायिकं प्रोषधोपवासो वा। 153. असुहादो विणिवित्ति सुहे पविति य जाण चारितं । - द्रव्य संग्रह-45 154. संसारकारणविनिवृत्ति प्रत्यागुणस्य ज्ञानवतो बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषोपरमः सम्यक्चारित्रम् । सर्वार्थसिद्धि, 131 155. अ.रा.पृ. 1/861 862; 3/1143; तत्त्वार्थसूत्र 9/18 पर तत्त्वार्थभाष्य; 156. विशेषावश्यक भाष्य-3483, अ.रा.पृ.-7/710 157. अ.रा.पृ. 7/637 158. अ.रा.पृ. 7/701 159. अ.रा.पृ. 7/88 160. अनेकार्य संग्रह 2/502-503 161. अभिधानचिन्तामणिनाममाला 2/156 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन वैयावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥ 162 आसमयमुक्तिमुक्तं पञ्चाधानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामायिकाः सामायिकं नाम शंसन्ति 11163 मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धं पर्यङ्कबन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञा || 164 एकान्ते सामायिकं निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु । चैत्यालयेषु वापि, परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ||165 तत्त्वार्थवार्तिक 7/21/7 में 'सामायिक' शब्द की निरुक्ति निम्न प्रकार से दी गयी है एकत्वेन गमनं समयः । समयः प्रयोजनमस्येति वा, समय एव सामायिकं ।. किन्तु यहाँ पर यह नहीं बताया गया है कि 'समय' शब्द से 'ठक्' प्रत्यय का विधान किये जाने पर आदिस्वरवृद्धि के साथ साथ द्वितीय स्वर में किस सिद्धान्त से वृद्धि होती है । यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि ऊपर वर्णित 'सामायिक' शब्द जिसका अर्थ 'सिद्धान्त' है, पुल्लिङ्ग है, जबकि तप के अर्थ में प्रयुक्त 'सामायिक' शब्द का नपुंसक लिङ्ग में प्रयोग है। अभिधान राजेन्द्र कोश में व्याख्यात 'सामायिक' शब्द भी नपुंसकलिङ्ग है। व्याकरण की दृष्टि से 'समाय' शब्द से ठक् प्रत्यय का विधान किये जाने पर 'सामायिक' शब्द की, इसी प्रकार 'समय' शब्द से सामायिक की सिद्धि सुकर है। सामायिक का स्वरुपः यह गृहस्थ का प्रथम शिक्षाव्रत है। 'सामायिक' शब्द की अनेक प्रकार से व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने सामायिक के निम्नांकित सोलह अर्थ बताये है 166 1. रागद्वेष से रहित समभावी आत्मा का प्रतिक्षण अपूर्व - अपूर्व कर्मनिर्जरा का हेतुभूत विशुद्धिरुप लाभ 2. समभावी आत्मा को (सम्यग् ) ज्ञान - दर्शन - चारित्र का लाभ सावद्ययोग की विरति (त्याग) 3. 4. रागद्वेष के त्यागपूर्वक का कथन 5. 6. सम्यग्वाद संक्षेप में मोक्षगमन में आत्मा के कर्म या जीव से उत्पादव्यय - ध्रौव्य रुप त्रिपदी के ज्ञान की वृत्ति और विस्तार से द्वादशाङ्गी का सामूहिक अर्थ पाप रहितता 7. 8. 9. 10. संसार के लाभ (भ्रमण) की निवृत्ति सम्यग्ज्ञानपूर्वक पाप का त्याग त्याज्य प्रत्येक वस्तु का नियम (प्रत्याख्यान) पूर्वक त्याग 11. समता / समभाव का लाभ 12. गुणों (ज्ञानादि) का लाभ 13. (सर्व जीवों के प्रति ) मैत्री का लाभ 14. कषायरहितता' 15. सावद्ययोग (पाप व्यापार) का त्याग और निरवद्य योग (रत्नत्रय) का सेवन 16. आर्त - रौद्र ध्यान के त्यागपूर्वक धर्म ध्यान के द्वारा शत्रुमित्र, मिट्टी स्वर्ण में समभाव । सामायिक के पर्यायवाची 167 नाम: (1) सामायिक समभाव (2) सामयिक - समस्त जीवों के प्रति दयापूर्वक वर्तन ( 3 ) सम्यग्वाद - राग-द्वेष रहित सत्य कथन (4) समास अल्प अक्षरों में कर्मविनाशक तत्त्वबोध (5) संक्षेप अल्प अक्षरों में गंभीर द्वादशांगी (6) अनवद्य - पापरहित आचरण (7) परिज्ञा - पाप - परिहार से वस्तु-बोध (8) प्रत्याख्यान - त्याज्य वस्तुओं का त्याग । मन-वचन-काया से सर्वसावद्य प्रवृत्ति न करना, न कराना और न अनुमोदन करना - इस प्रकार त्रिविध-त्रिविध (तिविहं-तिविहेणं) सर्वथा सर्वप्रकार की सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करना सर्वविरतिधर साधुसाध्वी का सामायिक चारित्र है। सामायिक चारित्रधारी साधु अतीत में हुई सावद्य प्रवृत्ति की निंदा करता है, वर्तमान का संकोच करता है और भविष्य के हिंसा त्याग का प्रत्याख्यान करता है। 168 चतुर्थ परिच्छेद... [173] - चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की उपमा से भी अधिक निरुपम सुख के हेतुभूत संसार भ्रमण रुप क्लेशनाशक प्रतिक्षण अपूर्व ज्ञान दर्शन चारित्र पर्यायों से समागम करवाने रुप प्रयोजन के लाभ रुप क्रिया अनुष्ठान को 'सामायिक' कहते हैं। 169 अथवा सावद्ययोग से मुक्त, आर्त-रौद्र ध्यान से रहित गृहस्थ साधक का मन-वचन-काया की चेष्टा के त्यागपूर्वक समभाव में दो घडी ( एक मुहूर्त या 48 मिनिट) तक रहना - सामायिक व्रत है । 170 अथवा ज्ञानादि से युक्त सर्वविरतिधर मुनि का स्त्री- पशु - नपुंसक आदि से रहित निरवद्य स्थान ( वसति) में परिषह या उपसर्ग में समभावपूर्वक भय रहित होकर रहना - जिनेश्वर परमात्माने मुनि का सामायिक चारित्र कहा है । 171 अथवा गृहस्थ जीवन में ऋद्धिमान् या अऋद्धिवान् श्रावक का जिन मंदिर / पौषधशाला / उपाश्रय / मुनियों के पास / अपने घर पर / निरवद्य, एकान्त और पवित्र स्थान पर 48 मिनिट तक सामायिक पाठ के उच्चारण पूर्वक विधि सहित सामायिक ग्रहण कर धर्मध्यानादि करना 'सामायिक व्रत' है। 172 रत्नकरंडक श्रावकाचार के अनुसार "आत्मा के गुणों का चिन्तन कर समता का अभ्यास करना 'सामायिक' है। समय आत्मा को कहते हैं173। सामायिक में गृहस्थ प्रतिदिन 162. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 5/91 163. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 5/97 164. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 5/98 165. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 5/99 166. अ.रा. 7/710 167. अ.रा. 7/517, 709, 710; विशेषावश्यक भाष्य-2787, 2792 से 2798, 3377, 3478, 3479, 168. अ.रा. 7/88, 517, 703, 710 169. अ.रा. 77757; आवश्यक निर्युक्ति- 1046 विशेषावश्यक भाष्य-3539 170. अ.रा. 7/702, 703 171. अ.रा. 7/703, धर्मसंग्रह - 2/37, योगशास्त्र- 3/82 172. अ.रा. 7/703, 704; आवश्यक बृहद्वृत्ति, छठा अध्ययन 173. अ.रा. 7/710; विशेषावश्यक भाष्य-3483 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [174]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन दोनों संध्याओं में एक स्थान पर बैठकर समस्त पापों से विरत हो आत्म-ध्यान का अभ्यास करता है।74 | 'सामायिक' ध्यान का सर्वश्रेष्ठ साधन है। मन की शुद्धि का श्रेष्ठ उपाय है। पाँचों व्रतों की पूर्णता सामायिक में हो जाती है।75 | सामायिक में व्रती गृहस्थ "संसार अशरण, अशुभ, नाशवान् और दुःखमय है परन्तु इसके विपरीत मोक्ष सुख-शांति का आगार और चिरन्तन (शाश्वत) है।76 । इस प्रकार की भावनाओं के द्वारा अपने वैराग्य को दृढ कर के समता में स्थिर होता है। इस अभ्यास में णमोकार मंत्र का जाप सहायक होने से वह भी सामायिक है परन्तु सामायिक में शब्दोच्चारण की अपेक्षा चिन्तन की ही मुख्यता है। वस्तुतः समभाव ही सामायिक है। निन्दा और प्रशंसा, मान और अपमान, स्वजन और परजन सभी में जिसका मन समान है, उसी जीव को सामायिक होती है, समभाव की साधना होती है।771 जो त्रस और स्थावर सभी जीवों के प्रति समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है - एसा परमज्ञानी केवली भगवान ने कहा है|7| जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में तल्लीन है, उसी की सच्ची सामायिक है, एसा केवली भगवान ने कहा है।791 तृण और काञ्चन में, शत्रु और मित्र में, प्रीति और अप्रीति के, विषय के समभाव और निरभिषङ्ग अर्थात् अनुचित प्रवृत्ति से रहित उचितप्रवृत्तिप्रधान चेष्ठायुक्त चित्त को 'सामायिक' कहते हैं।60 । जैसे आकाश सर्वभावों (पदार्थों) का आधार है वैसे सामायिक गुणों का आधार है, सामायिक से रहित आत्मा चारित्रादि गुण से युक्त नहीं होता, इसलिए "सामायिक शारीरिक और मानसिक दुःखों को नाश करने का और मोक्ष का निरुपम उपाय है"- एसा जिनेश्वर परमात्मा ने कहा है181 | 'सामायिक' श्रमण जीवन का प्राथमिक रुप है और गृहस्थ जीवन का अनिवार्य श्रेष्ठ कर्तव्य है।82 | सामायिक करने से सामायिक काल में गृहस्थ साधु जैसा होता है अतः श्रावक को बार-बार सामायिक करनी चाहिए।831 हिंसारम्भ से बचने के लिए केवल सामायिक ही प्रशस्त है। उसे श्रेष्ठ गृहस्थधर्म जानकर बुद्धिमान लोगों को आत्महित तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए सामायिक करनी चाहिए।84 | सामायिक का फल/लाभ:. सामायिक से ऊर्ध्वलोक (देव भव), अधोलोक (पूर्व निकाचित कर्म बंध के उदय से नरक गति) और तिर्यग्लोक में सम्यक्त्व एवं श्रुत का लाभ होता है। ढाई द्वीप (मनुष्य क्षेत्र) में उत्पन्न हुए तिर्यंच को देशविरति और मनुष्य भव में देशविरति तथा सर्वविरति की भी प्राप्ति होती है। सामायिक सत्र में भी आवश्यकों की साधना186: (1) 'सामाइयं' पद से सामायिक आवश्यक की साधना (2) प्रथत 'भंते' पद से चतुर्विंशति (जिन वंदन) आवश्यक ___ की साधना (3) द्वितीय 'भंते' पद से गुरुवंदन आवश्यक की साधना (4) 'पडिक्कमामि' पद से प्रतिक्रमण आवश्यक की साधना (5) 'अप्पाणं वोसिरामि' पद से कायोत्सर्ग आवश्यक की साधना (6) 'पच्चक्खामि' पद से प्रत्याख्यान आवश्यक की साधना सामायिक द्वारा चार भावनाओं की पुष्टि: सामायिक की साधना द्वारा मुमुक्षु साधक अपने जीवन में मैत्री आदि चार भावनाओं को पुष्ट करता है। सामायिक में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की साधना गर्भित है। सर्व जीवों के प्रति स्व-तुल्य की भावना से मैत्री-भाव की पुष्टि होती है। सामायिक ग्रहण करते समय "प्रणिपात सूत्र" और "चउविसत्थो सूत्र" का उपयोग किया जाता है। चौबीस तीर्थंकरो को नमस्कार प्रमोद-भावना का प्रतीक है। सामायिक में 'करेमि भंते" सूत्र ग्रहण करने के बाद 'इरियावहियं सूत्र' का पाठ किया जाता है, किसी भी आत्मा को जानते हुए, न जानते हुए कुछ भी दुःख दिया हो तो उसके लिए क्षमायाचना की जाती है। दूसरे को दुःख देने की वृत्ति / प्रवृत्ति की निन्दा करने से कारुण्यभावना की पुष्टि होती है। सामायिक करते समय समभाव/मध्यस्थ भाव में रहना होता है। राग, द्वेष, शत्रु-मित्र के प्रति तटस्थ भाव धारण किया जाता है, यहां तक कि पापी आत्माओं के प्रति भी मध्यस्थ-भाव ही धारण किया जाता है, इससे माध्यस्थभावना की पुष्टि होती है। सामायिक द्वारा तपाराधना: सामायिक में बाह्य और अभ्यन्तर तप-धर्म की आराधना समाविष्ट है। सामायिक करते समय साधक चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है अतः अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रसत्याग की आराधना हो जाती है। दूसरी ओर स्थिर-आसन होने से 'कायक्लेश' और संलीनता तप भी आ जाते हैं। ___ इरियावहीयं सूत्र के द्वारा सामायिक में 'प्रायश्चित्त तप' की आराधना गर्भित है, नमस्कार मन्त्र के स्मरण आदि के द्वारा "विनय तप' की आराधना गर्भित है, जिज्ञासा व गुर्वाज्ञा का पालन होने से देव-गुरु की वैयावृत्त्य तप की आराधना गर्भित है और सतत जाप, ज्ञानाराधना, धर्मचर्चा आदि शुभप्रवृत्ति होने से स्वाध्याय और ध्यान तप की आराधना गभित है। सामायिक में काया की ममता के त्याग रुप कायोत्सर्ग होने से 'कायोत्सर्ग तप' की आराधना भी रही हुई है। इसी तरह सतत शुभवृत्ति और शुभप्रवृत्ति (जाप, ध्यान, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय) होने से भाव-धर्म की भी आराधना हो जाती है।88 | सामायिक के पाँच अतिचार189 : . (1) मनोदुष्प्रणिधान(2) वाचोदुष्प्रणिधान (3) कायदुष्प्रणिधान 174. रत्नकरंडक श्रावकाचार-97 175. वही-101 176. वही-104 177. संबोधसत्तरी-25 178. अ.रा. 7/715; विशेषावश्यक भाष्य-2680 179. अ.रा. 7/715; नियमसार-126; विशेषावश्यक भाष्य-2679 180. अ.रा. 7/711; पञ्चाशक-11/5 181. अ.रा. 77702 182. अ.रा. 7/7153; विशेषावश्यक भाष्य-2681, 2682 183. अ.रा. 7/716; वि.आ.भा.2690 184. अ.रा. 777153; विशेषावश्यक भाष्य-2681, 2685 185. अ.रा. 7/7183; वि.आ.भा.-2695 186. श्रावककर्तव्य, भाग 1, "सामायिक आवश्यक" 187. श्रावककर्तव्य, भाग 1, "सामायिक आवश्यक" 188. श्रावककर्तव्य, भाग 1, "सामायिक आवश्यक" 189. अ.रा. 7/703 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (4) सामायिक की समयावधि का ध्यान नहीं रखना (5) अव्यवस्थित (उपयोग रहित होकर) सामायिक करना । सामायिक के बत्तीस दोष 190 : सामायिक व्रत का सम्यग्रुप से परिपालन करने के लिए मन, वचन और शरीर के 32 दोषों से बचना भी आवश्यक है। 32 दोषों में दस दोष मन से, दस दोष वचन से और बारह दोष शरीर से संबंधित है। 1. मन के दस दोष: 1. अविवेक 2. किर्ती की लालसा, 3. लाभ की इच्छा 4. अहंकार 5. भय के वश या भय से बचने के लिए साधना करना 6. निदान (फलाकांक्षा) 7. फल के प्रति संदिग्धता 8. रोष अर्थात् क्रोधादिभावों से युक्त होना 9. अविनय और 10. मनोयोग पूर्वक साधना नहीं करना या बहुमान भाव से रहित होकर सामायिक करना । 2. वचन के दस दोष: 1. असभ्य वचन बोलना 2. बिना विचारे बोलना 3. अधिक वाचाल होना 4. संक्षेप में बोलना अथवा अयथार्थ रुप में बोलना 5. जिन वचनों से संघर्ष उत्पन्न हो एसे वचन बोलना 6. विकथा (स्त्री, राज्य भोजन एवं देश / लोक के संबंध में चर्चा करना) 7. हास्य (हँसी-मजाक करना 8. अशुद्ध उच्चारण करना 9. असावधानीपूर्वक बोलना 10. अस्पष्ट उच्चारण करना या गुनगुनाना या सूत्र पाठ बोलने में गडबड करना । 3. शरीर के बारह दोष: 1. अयोग्य आसन से बैठना 2. बार-बार स्थान बदलना 3. दृष्टि की चंचलता 4. हिंसक क्रिया करना अथवा उसको करने का संकेत करना 5 सहारा लेकर बैठना 6. अंगों का बिना किसी प्रयोजन के आंकुचन और प्रसारण करना 7. आलस्य 8. शरीर के अंगों को मोडना 9. शरीर के मलों का विसर्जन करना 10. शोकग्रस्त मुद्रा में बैठना, बिना प्रमार्जन के अंगों को खुजलाना 11. निद्रा और 12. शीत के कारण वस्त्र पहनना या गर्मी के कारण वस्त्र का संकुचन करना आदि। छेदोपस्थापनीय चारित्र जिसमें दीक्षा/संयम जीवन के पूर्व पर्याय (दीक्षा अवधि) का छेद करके नये पर्याय उपस्थापन करने में आता हो, उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं । वह दो प्रकार का है | 1. अनतिचार भरत और एरावत क्षेत्र में प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन काल में साधु-साध्वी को दीक्षा के समय सामायिक चारित्र आरोपण कराने के कुछ समय बाद महाव्रतों का आरोपण कराया जाता है; (वर्तमान में जिसे बृहद् (बडी) दीक्षा या पक्की दीक्षा करते हैं); अथवा एक तीर्थंकर के शासन का साधु दूसरे तीर्थंकर के संघ में (अर्थात् जैसे श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर के शासन के चातुर्याम महाव्रतधारी साधु श्री महावीर शासन में) पुनः दीक्षित होने पर उन्हें चार के बजाय पाँच महाव्रतों का आरोपण कराया जाय, वह अनतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। 2. सातिचार मूलगुण अर्थात् महाव्रतों का भङ्ग होने पर पूर्व दीक्षापर्याय का छेद करके पुनः महाव्रतों का उच्चारण/ आरोपण कराना 'सातिचार छेदोपस्थापनीय' चारित्र है । - - चतुर्थ परिच्छेद... [175] परिहारविशुद्धि चारित्र : जिस चारित्र में 'परिहार' नामक विशिष्ट तप के द्वारा कर्म निर्जरा रुप विशुद्धि होती है उसे 'परिहार विशुद्धि चारित्र' कहते हैं। 192 इस चारित्र के पालन में 9 साधुओं का ही समुदाय होता है। इनमें से 4 साधु परिहार तप की विधि के अनुसार परिहार तप करते हैं, चार साधु उनकी वैयावृत्त्य करते हैं और एक साधु वाचनाचार्य के रुप में रहते हैं, उन्हें 'चारित्राचार्य' भी कहते हैं । वाचनाचार्य इन आठों साधुओं को वाचना (सूत्रादि के पाठ) देते हैं। यद्यपि ये सभी साधु श्रुतातिशय संपन्न होते हैं तथापि आचार पालन हेतु एक को वाचनाचार्य के रुप में स्थापित करते हैं। विधि :- ग्रीष्म ऋतु में जघन्य से उपवास, मध्यम छठ्ठ, उत्कृष्ट अट्ठम; शीतकाल में जघन्य छ, मध्यम अट्ठम, उत्कृष्ट चार उपवास; चातुर्मास (वर्षाऋतु) में जघन्य अट्ठम, मध्यम चार उपवास, उत्कृष्ट पाँच उपवास के तप का विधान है। वे इसमें से ऋतु के अनुसार तप करते हैं और पारणे में आचाम्बिल (आयंबिल) तप करते हैं। उनमें से 4 साधु छः माह तक यह तप करने के बाद सेवा करनेवाले 4 साधु यह तप करते हैं और तपस्वी साधु उनकी वैयावृत्त्य करते हैं, तत्पश्चात् वाचनाचार्य यह तप करते है तब एक साधु वाचनाचार्य बनता है और एक साधु उनकी वैयावृत्त्य करता है। तपस्वी के अतिरिक्त शेष सभी साधु आयंबिल तप करते हैं। इस प्रकार यह तप 18 महीने में होता है 193 परिहार तप पूर्ण होने के बाद ये साधु पुनः इसी तप का सेवन करते हैं अथवा जिनकल्प या स्थविरकल्प भी स्वीकार करते हैं 194 | नियम : परिहार कल्प के तपस्वी साधु अनेकविध अभिग्रह धारण करते हैं । वे आँख में गिरा हुआ तिनका भी स्वयं अपने हाथ से बाहर नहीं निकालते, किसी भी प्रकार के अपवाद का सेवन नहीं करते 195, तृतीय पहर में ही आहारचर्या एवं विहार करते हैं एवं शेष काल में कायोत्सर्ग करते हैं। तृतीय प्रहर पूर्ण होने पर वे एक कदम भी नहीं चलते 1196 गोचरी के समय भी सात पिण्डेषणा में से पहली और दूसरी पिण्डेषणा का त्याग करके शेष पाँच में से कोई भी एक पिण्डेषणानुसार भोजन और अन्य एक पिण्डेषणा द्वारा अचित्त जल ग्रहण करते हैं।97 । इनको निद्रा भी प्रायः अल्प ही होती है198 । ये तपाराधन के समय में नया अध्ययन नहीं करते परंतु पूर्व में अधीत ज्ञान का पुनरावर्तन (स्वाध्याय) अवश्य करते हैं। किसी को दीक्षा नहीं देते (उपदेश दे सकते हैं) 199 । तपकाल में इन्हें रोगादि वेदना भी नहीं होती। 190. दो प्रतिक्रमण सूत्र सार्थ (सामायिक पारने का सूत्र - विवेचन) 191. अ.रा. 3/1142; 3 / 1359; विशेष आवश्यक भाष्य 1267-68-69; स्थानांग 5/2; तत्त्वार्थसूत्र 9 / 18 पर भाष्य 192. अ. रा. 5/691; तत्वार्थसूत्र 9/18 पर तत्त्वार्थभाष्य एवं सर्वार्थसिद्धि 193. अ.रा. 5/693,694 194. अ.रा. 5/694,696 195. अ.रा. 5/696 196. अ.रा. 5/691 197. अ.रा. पृ. 5/696 198. अ.रा. पृ. 5/696 199. अ.रा. पृ. 5/695 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [176]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन __ वज्रऋषभनाराच नामक प्रथम संहननवाले जघन्य से नवपूर्व यथाख्यात चारित्र के ये चारों भेद क्रमशः 11वें, 12वें, 13वें उत्कृष्ट से किञ्चिद् न्यून दशपूर्व के ज्ञाता मुनि ही इस चारित्र को और 14 वें गुणस्थान में होते हैं (गुणस्थानों का परिचय अगले शीर्षक तीर्थंकर के पास या जिन्होंने तीर्थंकर के पास यह चारित्र ग्रहण किया में दिया जा रहा है)। इसमें 11 वें में मोहनीय का सर्वथा उपशम हुआ हो, एसे साधु के पास ही इस चारित्र को ग्रहण कर सकते होता है और शेष तीनों में क्षय होता है। यद्यपि 14 वें गुणस्थान हैं200। यह चारित्र भरत और एरावत क्षेत्र में ही दो पुरुष युग-(पाट का काल पाँच ह्रस्वाक्षर मात्र ही है तथापि स्वरुपरमण की अपेक्षा परम्परा) तक ही होता है, महाविदेह क्षेत्र में नहीं होता201 | इस चारित्र से उन्हें भी यथाख्यात चारित्र है अन्यथा आत्मा के 'चारित्र' नामक के दो प्रकार से दो-दो भेद हैं - गुण का वहाँ अभाव मानना पडेगा209 | (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, 1. क. निर्विशमानकः वीर्य और उपयोग - यह आत्मा का लक्षण होने से (देखें नवतत्वप्रकरण, इस चारित्र को आराधन करते समय आराधक साधु गाथा 6)। 'निर्विशमानक' कहलाते हैं अत: इस चारित्र को भी 'निर्विशमानक' । सम्यक् चारित्र का फल:कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने सम्यक् चारित्र के ख. निर्विष्टकाय/निविष्टकायिकः फल का वर्णन करते हुए कहा है कि, "चारित्रधारी को नियमा समकित परिहार तप पूर्ण करने के बाद वे साधु निविष्टकाय अथवा होता है। ज्ञान-दर्शन सम्पूर्ण फल नहीं देते जबकि चारित्र संपूर्ण फल निविष्टकायिक कहलाते है2021 देता है। श्रमण जीवन में सभी सद्गुण प्रकट होते है। श्रमण से 2. अ. इत्वरकथिकः ही तीर्थ/शासन होने से चारित्रधारी श्रमण के ज्ञान-दर्शन से तीर्थ और एक बार परिहार तप पूर्ण करने के बाद पुनः उसी तप उससे प्रवचन (शासन/चतुर्विध सङ्घ) व्यवस्थित रहता है अतः श्रमण का सेवन करने वाले मुनि इत्वरकथिक कहलाते हैं। इसके प्रभाव का नरक में जन्म नहीं होता। इतना ही नहीं अल्पज्ञानी (विशिष्ट से इन्हें रोगादि तथा देव, मनुष्य, तिर्यंचकृत उपसर्ग नहीं होते। आगमधर, श्रुतधर की अपेक्षा से) किन्तु सम्यक् चारित्रधारी अवश्य आ. यावत्कथिकः मोक्ष प्राप्त करता है। आगे चारित्र की महिमा बताते हुए कहा है कि, परिहार तप पूर्ण करने के बाद जिनकल्प स्वीकार करनेवाले सम्यकत्व का भी सार चारित्र है; ज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) का मुनि 'यावत्कथिक' कहलाते हैं। जिनकल्प की स्वीकृति के पश्चात् (भी) सार चारित्र है और चारित्र का सार निर्वाण है अतः पूर्वकृत कर्मोदय से इन्हें उपसर्गादि की संभावना रहती है203 । दीक्षा सार्थक होती है 210 सूक्ष्म संपराय चारित्र: ___ चारित्र से नये कर्मों का बंध नहीं होता और पूर्वोपार्जित 'संपराय' अर्थात् कषाय; जिसके कारण जीव संसार में भ्रमण कर्मों की निर्जरा होती है। ज्ञान प्रकाशक होने से जीव को मार्ग दिखाता करता है; कषाय को संपराय कहते हैं। जिस चारित्र में सूक्ष्म लोभ है जबकि चारित्र कर्ममल को दूर कर जीव शुद्ध होता है। गुप्तिविशुद्धिरुप कषाय के अंश अवशेष रुप होते हैं उसे अथवा सूक्ष्मसंपराय नामक चारित्र का फल मोक्ष है। और चारित्र निर्वाण का मुख्य कारण दशम गुणस्थानवर्ती संयतात्मा के चारित्र को 'सूक्ष्म संपराय चारित्र' है। क्योंकि जीव को केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर भी तत्क्षण मुक्ति कहते हैं। यह क्षपक उपशमक दोनों को होता है2041 नहीं होती अपितु शैलेशी अवस्था में मोक्ष होता है। अत: संयमयथाख्यात चारित्र: तपरुप चारित्र का फल निर्वाण/मोक्ष है। चारित्र की महत्ता को 'यथाख्यात । अथाख्यात' अर्थात् जैसा जिनेश्वर परमात्मा ने दृष्टांत से दर्शाते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा हैकहा है वैसा श्रेष्ठ चारित्र अर्थात् सर्वथा कषाय रहित (अकषाय) चारित्र "कोई व्यक्ति स्वर्णजडित भूमितलवाले स्वर्ण के जिनमंदिरों से सारी को 'यथाख्यात चारित्र' कहते है2051 पृथ्वी सुशोभित करें तो भी तप-संयमयुक्त चारित्र की तुलना (बराबरी) सर्वार्थसिद्धि में "समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय नहीं कर सकता 1212 से, जैसा आत्मा का स्वभाव है उसी के अनुभवरुप चारित्र को 'यथाख्यात 200. अ.रा.पृ. 5/692, 693 चारित्र' कहा है206 | अशुभ रुप मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा 201. अ.रा.पृ. 5/694 क्षीण हो जाने पर जो वीतराग संयम होता है, उसे यथाख्यात चारित्र 202. अ.स.पृ. 5/691 कहते है207 | कषायों के सर्वथा अभाव से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि 203. अ.रा.पृ. 5/696 विशेष को 'यथाख्यात चारित्र' कहते है208 । 204. अ.रा. 5/1025; भगवतीसूत्र 8/2 205. अ.रा.पृ. 1/861 भेद-प्रभेदः 206. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ.3/370; सर्वार्थसिद्ध 9/18/436/9; द्रव्यसंग्रह छद्मस्थ और केवली की अपेक्षा से यथाख्यात चारित्र दो टीका 35/148/7 प्रकार का है तथा उनके भी गुणस्थान की अपेक्षा से दो-दो भेद हैं 207. पंचसंग्रह, प्राकृताधिकार 1/133, 243; गोम्मटसार, जीवकाण्ड 475/883 1. उपशांत मोह (कषाय) वीतराग छद्मस्थ यथाख्यात 208. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/370 चारित्र 209. अ.रा.पृ. 1/861, 862, 3/143; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ.3/370%; 2. क्षीणमोह वीतराग छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र तत्त्वार्थसूत्र 9/18 पर भाष्य 3. सयोगीकेवली यथाख्यातचारित्र 210. अ.रा.पृ. 3/1126-27:44-45 211. अ.रा.पृ. 3/1126-27 4. अयोगीकेवली यथाख्यातचारित्र 212. अ.रा.पृ. 3/1445 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [177] मोक्ष प्राप्ति की प्रक्रिया: (34) उपधि प्रत्याख्यान - जिनकल्पी अवस्था में रजोहरण और अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने मुखवस्त्रिका (मुहपत्ति) के अतिरिक्त शेष उपधि का त्याग (35) आहार प्रत्याख्यान - सदोष आहार का त्याग उत्तराध्ययन सूत्र को उद्धृत करते हुए भव्यात्मा की सम्यक्त्व से मोक्ष (36) कषाय प्रत्याख्यान - क्रोधादि का त्याग प्राप्ति तक के क्रमिक आचरण का वर्णन निम्नानुसार किया है213 (37) योग प्रत्याख्यान - मन-वचन-काया की प्रवृत्ति का त्याग (1) सम्यक्त्व से संवेग - मोक्षभिलाषा (38) शरीर प्रत्याख्यान - परिस्थिति प्राप्त होने पर शरीर का भी (2) निर्वेद - संसार से विरक्ति (वैराग्य) त्याग (3) धर्मश्रद्धा - धर्म में श्रद्धा एवं रुचि (39) साहाय्य प्रत्याख्यान - सहायकों की सेवा लेने का त्याग (4) गुस्साधर्मीशुश्रुषा - तत्त्वोपदेष्टागुरु एवं साधार्मिक की सेवा (40) भक्तपान प्रत्याख्यान - अनशन ग्रहण करना (5) आलोचना-गुरु के पास पापों का प्रकटीकरण (41) सद्भाव प्रत्याख्यान - सद्भावपूर्वक पुनः नहीं करने रुप परमार्थ (6) निन्दा - आत्मा साक्षी से स्वयं के द्वारा किये गये पापों की वृत्ति से त्याग निन्दा (42) प्रतिस्पता - स्थविरकल्पी साधु योग्य वेश धारण करना (7) गर्हणा - दूसरे लोगों के सामने स्वयं के दोषों का प्रकाशन (43) वैयावृत्त्य (गुर्वाज्ञा प्राप्त करके) गुरु के कार्य करना, साधुओं (8) सामायिक - शत्रु-मित्र के प्रति समभाव की गोचरी (आहारादि) लाना (9) चतुर्विशतिस्तव - 24 जिनों का नाम पठन लोगस्सादि सूत्रों (44) सर्वगुणसंपन्नता - ज्ञानादिगुणयुक्त बनना का पाठ करना (45) वीतरागता - राग-द्वेष का निवारण (10) वन्दन - द्वादशावर्त वंदनपूर्वक गुरुवन्दना (46) क्षान्ति - क्षमा (11) प्रतिक्रमण - पाप से निवृत्ति (47) मुक्ति - निर्लोभता (12) कायोत्सर्ग - अतिचार की शुद्धि हेतु काय ममत्व का त्याग, (48) भार्दव - मान त्याग कायोत्सर्ग (काउसग्ग) (49) आर्जव - सरलता (13) प्रत्याख्यान - पच्चक्खाण । मूल-उत्तर गुण को धारण करना (50) भावसत्य - अन्तरात्मा की शुद्धि (14) स्तवस्तुतिमङ्गल - नमुत्थुणं, आदि स्तव या स्तुति कहना अथवा (51) करण सत्य - प्रतिलेखन (पडिलेहण) आदि क्रिया में आलस्य जिन भक्ति हेतु स्तवन या एकादि से 108 तक स्तुति कहना का त्याग करना (15) काल प्रतिलेखना - अस्वाध्याय के चार काल (व्याघात काल) (52) योग सत्य - मन-वचन-काया के योगों में सत्यता का प्रतिलेखन करना अर्थात् शास्त्र-निषिद्ध काल में सूत्रादि (53) मनोगुप्तित्व - अशुभ विचार से मन का गोपन करना अध्ययन का त्याग करना। (54) वचन गुप्तित्व - अशुभ वाणी से गोपन करना (16) प्रायश्चित्तकरण - लगे हुए पापों की निवृत्ति हेतु तप करना। (55) काय गुप्तित्व - काया के अशुभ व्यापार से गोपन करना (17) क्षमापना - कृत अपराध की क्षमापना करना (56) मनः समाधारण - मन को शुभ स्थान में स्थिर करना (18) स्वाध्याय - वाचनादि पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना (57) वचन समाधारणा - वचन को शुभ स्थान में स्थिर करना (19) वाचना - गुरु के समीप सूत्राक्षरों का ग्रहण (58) काय समाधारण - काया को शुभ स्थान में स्थिर करना (20) प्रतिपृच्छना - गुरु के आगे संदेह पूछना (59) ज्ञान संपन्नत्व - श्रुतज्ञान से युक्त होना (21) परिवर्तना - सूत्र पाठ को बार-बार पढना (60) दर्शन संपन्नत्व - सम्यक्त्व से युक्त होना (22) अनुप्रेक्षा - सूत्र (के अर्थ, रहस्य) का चिन्तन करना (61) चारित्र संपन्नत्व - यथाख्यात चारित्र युक्त होना (23) धर्म कथा - धर्म संबंधी वार्ता कहना (62) स्पर्शेन्द्रियनिग्रह (24) श्रुताराधना - सिद्धान्त की आराधना करना (63) रसनेन्द्रियनिग्रह (25) एकाग्रमनः सन्निवेसना - चित्त को ध्येय में स्थिर करना (64) ध्राणेन्द्रियनिग्रह (26) संयम - आस्रवों का त्याग करना (65) चक्षुरिन्द्रियनिग्रह (27) तप - 12 प्रकार का तप करना (66) श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह (28) व्यवदान - कर्म निर्जरा करना (67) क्रोध पर विजय (29) सुखशातन - विषय सुख की स्पृहा का निवारण करना (68) मान पर विजय (30) अप्रतिबद्धता - नीरागी बनना (69) मायापर विजय (31) विविक्तशयनासनसेवना - स्त्री-पशु-नपुंसकादि से रहित शयन, (70) लोभ पर विजय आसानादि वापरना (71) प्रेय्यद्वेषमिथ्यादर्शन विजय - प्रेय्य - प्रेमराग, द्वेष-अप्रीति, (32) विनिवर्तना - पांचों इन्द्रियों के विषयों से विशेष निवर्तन (दूर मिथ्यादर्शन-सांशयिकादि मिथ्यात्व (या अन्य दर्शन) पर विजय (72) शैलेशीकरण - चौदहवें गुणस्थान में स्थान प्राप्त करना (33) संभोग प्रत्याख्यान - एक मण्डली में भोजन का प्रत्याख्यान, (73) अकर्मता - कर्मो का अभाव अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति गीतार्थ अवस्था में जिनकल्प ग्रहण करने पर एक मण्डली में भोजन त्याग 213. अ.रा. 7/504; 505; उत्तराध्ययनसूत्र सटीक, अध्ययन 29; रहना) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [178]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अन्य दर्शनों में त्रिविध साधना मार्ग जैन दर्शन में जैसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रुप साधना/मोक्ष/मुक्ति मार्ग दर्शाया गया है वैसे अन्य दर्शनों में भी त्रिविध साधनामार्ग का संकेत प्राप्त होता है। बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा या वीर्य, श्रद्धा और प्रज्ञा रुप त्रिविध मार्ग का विधान है। वैसे बुद्ध ने सम्यग्दृष्टिसंकल्प-वाणी-कर्मान्त-आजीव-व्यायाम-स्मृति और समाधि (प्रत्येक पद सम्यग्विशिष्ट है) रुप अष्टांग मार्ग का उपदेश दिया है लेकिन यह अष्टांग मार्ग भी त्रिविध साधना मार्ग में अंतर्भूत है, जैसे-सम्यग्वाचा, सम्यक् कर्मान्त और सम्यग् आजीव का अन्तर्भाव शील में सम्यग् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि का अन्तर्भाव चित्त, श्रद्धा या समाधि में और सम्यक् संकल्प और सम्यग्दृष्टि का अन्तर्भाव प्रज्ञा में होता है। गीता में ज्ञानयोग, भक्ति योग और कर्मयोग के नाम से त्रिविध साधना मार्ग का वर्णन प्राप्त होता है। गीता में मोक्ष की उपलब्धि के साधन के रुप में प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है।5। योग-दर्शन में भी ज्ञानयोग-भक्तियोग और क्रियायोग के रुप में इसी त्रिविध साधना मार्ग का वर्णन है:16 | वैदिक परम्परा में ब्रह्म के तीन पक्ष सत्य, सुन्दर और शिव माने गये हैं और उसकी प्राप्ति के लिए ज्ञान, भाव/श्रद्धा और सेवा / कर्म रुप त्रिविध साधनामार्ग माना गया है। उपनिषदों में श्रवण (श्रद्धा), मनन (ज्ञान) और निदिध्यासन (कर्म) रुप त्रिविध साधनामार्ग दर्शाया है17 | पाश्चात्य दर्शन में भी तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं-18 "(1) स्वयं को जानो - Know thyself (2) स्वयं को स्वीकार करो - Accept thyself (3) स्वयं ही बन जाओ - Be thyself सांख्य दर्शन भी त्रिविध दुःखो की अत्यन्त निवृत्ति मोक्ष है, यह मान्य करता है । सांख्य दर्शन में विवेक ख्याति (सम्यग्दर्शन), भेद ज्ञान (सम्यग्ज्ञान), तत्त्वाभ्यास (सम्यक् चारित्र) द्वारा पुरुष जीवन्मुक्तावस्था (जैन दर्शनानुसार सयोगीकेवल्यावस्था) प्राप्त करता है220 न्यायदर्शन में षोडश सत्पदार्थो के तत्त्वज्ञान (यथार्थ ज्ञान) से निःश्रेयस अर्थात् 'मोक्ष की प्राप्ति होना स्वीकार किया गया है21 | वैशेषिक दर्शन में श्रद्धादि धर्म से तत्त्व ज्ञान की उत्पत्ति और तत्त्व ज्ञान को मोक्ष का हेतु/उपाय कहते हैं अर्थात् धर्म से तत्त्व ज्ञान प्राप्त होने पर तत्त्व ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है222 | शांकर भाष्य में आत्म विद्या से मोक्ष की प्राप्ति होना स्वीकार किया गया है। आचार्य शंकर ने गीताभाष्य में कहा है कि सम्यग्दर्शन से पुरुष संसार के बीजरुप अविद्यादि दोषों का अन्मूलन न कर सके, एसा कदापि संभव नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दर्शन से पुरुष निश्चित रुप से निर्वाण प्राप्त करते है24 । इस प्रकार जैन दर्शन की तरह अन्य दर्शनों में भी त्रिविध मोक्षमार्ग का वर्णन किया गया है, चाहे वहाँ उसका स्वरुप जैन दर्शनानुसार हो या उससे भिन्न भी हो परंतु अधिकांश जैनेतर दर्शनों ने सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रुप मोक्षमार्ग को किसी न किसी रुप में स्वीकृत किया है। प्रसिद्ध दर्शन समीक्षक डॉ. सागरमल जैन ने इसे निम्न तालिकानुसार दर्शाया है225 : विश्व के दर्शनों में सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की स्वीकृति का स्वरुप | जैनदर्शन | बौद्धदर्शन | गीता | योग दर्शन | वैदिक दर्शन | उपनिषद् | पाश्चात्य दर्शन | सम्यग्ज्ञान ज्ञान/ ज्ञान मनन Know thyself प्रज्ञा परिप्रश्न ऋतम्भरा (ज्ञान) प्रज्ञा सम्यग्दर्शन चित्तसमाधि (श्रद्धा) भाव/श्रद्धा श्रवण भक्ति (श्रद्धा)/ Accept thyself विवेकख्याति (भक्ति ) प्रणिपात (श्रद्धा) सेवा/कर्म शील/वीर्य कर्म/सेवा निदिध्यासन Be thyself सम्यक् चारित्र अभ्यास (क्रिया) 214. सम्मादिट्ठि सुत, मज्झिमनिकाय; महापरिनिव्वाणसुत्त, दीर्धनिकाय; महासत्तिपट्ठान सुत, दीर्धनिकाय; धम्मचक्कपवत्तन सुत्त, संयुक्तनिकाय 215. गीता 4/34, 4/39 216. योगसूत्र-4/26-30-31-54 एवं उन पर योगभाष्य 217. बृहदाण्यकोपनिषद्-2/4/5 218. साइकोलोजी एन्ड मारल्स, पृ. 180 219. सांख्यसूत्र 1/1 जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरुप-184 पर उद्धृत 220. सांख्यसूत्र 3/78, वही, 6/58 जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरुप पृ. 186 पर उद्धृत 221. न्यायसूत्र 1/1 222. वैशेषिक सूत्र 1/1/2; 1/1/4 प्रशस्तपाद भाष्य, धर्म प्रकरण । 223. ब्रह्मसूत्र-1/1/1 पर शांकरभाष्य 224. गीता 18/12 पर शांकरभाष्य 225. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 2, पृ.23 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [179] इस प्रकार जैन दर्शन और अभिधान राजेन्द्र कोश की तरह अन्य भारतीय दर्शनों में भी मोक्ष की प्राप्ति हेतु त्रिविध साधना मार्ग का वर्णन किया गया है। उपसंहार: इस शीर्षक में यह विमर्श प्रस्तुत किया गया है कि सुख का उपाय अर्थात् दुःख की अत्यन्तनिवृत्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान से युक्त सम्यक्चारित्र है। यह मार्ग जीव को परोन्मुखता से दूर करता हुआ स्वोन्मुख बनाता है और जब जीव पूर्ण स्वोन्मुख हो जाता है तब उसकी रागद्वेषमूलक प्रवृत्तियां समाप्त हो जाती हैं। परिणाम स्वरुप दुःख नष्ट हो जाता है। किन्तु यहाँ प्रश्न यह आता है कि एसा कैसे सम्भव हो पाता है ? इस स्वोन्मुखता का, इसकी प्रक्रिया का सैद्धान्तिक आधार क्या है? इन सबका उतर पाने के लिए आगामी शीर्षक में चारित्र के सैद्धान्तिक पक्ष का अनुशीलन प्रस्तुत किया जा रहा है। (तप जगत में सद्धर्म का 'प्रारग' तप है. सचेतन-आत्मा का 'भारा' तप है। 3. गुणीजनों के गुण की 'खान' तप है। कर्म मूल को निर्मूल करने के लिये शस्त्ररुप 'कृपाण तप है। भवव्याधि को सर्वथा मिटाने के लिये 'रामबाण इलाज' तप है। आत्मा की 'इच्छा का निरोध' तप है। जैनधर्म-जैनशासन की 'विजयपताकाध्वज' तप है। 8. जैनधर्म यानी जैनशासन में सद्ज्ञान यह धूपसली, दर्शन यह सौरभ-सुगन्ध तथा संयम-तप यह धूपसळी के जल जाने से उत्पन्न होती हुई फोरम है। 9. विश्व में स्व या पर के श्रेय का 'प्रतीक' तप है। 10. कर्म निर्जरा का 'अनुपम साधन' तप है। 11 . देह की तथा आहार की ममता को समाप्त करने के लिये 'महान् शास' तप है। 12. उद्यापन यानी उजमणां तपधर्म का ही होता है, इसलिये जगत में 'श्रेष्ठ-उत्तम' तप है। 13. शुभ साधना-आराधना का 'बीज-ओज' तप है। 14. कर्म-मल को दूर करने के लिये 'जल तुल्य' अर्थात् पानी के समान तप है। 15. विश्वभर का 'महान् औषध' तप है। 16. जगत में सूर्य के समान अज्ञानरुपी अंधकार को शमन करने से ज्ञानरुपी नेत्र को निर्मल करने वाला तथा तच्वातत्त्व की जानकारी दिखाने वाला तप है। सम्यग्दृष्टियों में 'शुभ शिरोमणि' तप है। 18. आलम में अपूर्व कोटि का धर्म तप है। 19. उत्कृष्ट मंगलरुप तथा भावमंगलरुप भी तप है। 20. कर्मरुपी वृक्ष को मूल से उखाडनेवाले 'गजराज-हाथी' के समान तप है। 21. इन्द्रियरुपी उन्मत्त अश्वों को काबू में अर्थात् वश में रखने के लिये 'लगाम' के समान तप है। 2. अपूर्व 'कल्पवृक्ष' के समान तप है। (तप का मूल संतोष है, देवेन्द्र और नरेन्द्र आदि की पदवी तपरुपी कल्पवृक्ष के पुष्प-फूल है तथा मोक्ष-प्राप्ति, तपरुपी कल्प-वृक्ष का फल है।) 23. समस्त लक्ष्मी का बिना सांकल का 'बन्धन' तप है। 24. पापरुपी प्रेत-भूत को दूर करने के लिये अक्षर रहित 'रक्षामन्त्र' तप है। 25. पूर्व उपार्जन किये हुए कर्मरुपी पर्वत को भेदने के लिये 'वज्र' के समान तप है। 26. कामदेवरुपी दावानल की ज्वाला समूह को बुस्काने लिये 'जल-पानी' के तुल्य तप है। 7. लब्धि और लक्ष्मीरुपी लता-वेलडी का 'मूल' तप है। 28. विघ्नरुपी तिमिर-समूह का विनाश करने में दिन समान तप है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [180]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 3. चारित्र का सैद्धांतिक पक्ष 'चारित्र' को बिन्दु बनाने से कथ्य की सीमा सांसारिक जीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति से भिन्न अर्थात् निवृत्त्युन्मुख प्रवृत्ति के विस्तार से बंध जाती है। अनादि अविद्यावासना से दूषित संस्कारवान् शरीरी को यह अस्वाभाविक प्रतीत हो सकती है किन्तु यह उसके शरीरबद्ध होने के कारण है। शरीर-रहित जीवन के निवृत्तिमात्र शेष रह जाती है। यहाँ पर प्रयुक्त 'चारित्र' शब्द व्यावहारिक एवं पारमार्थिक, दोनों तलों को स्पर्श करता है। वस्तुतः चारित्र पालन करना या चारित्र धारण करना व्यवहार चारित्र की ओर संकेत है। जहाँ निष्क्रियत्वमात्र शेष रह जाता है वहाँ स्वरुप के अनुभव के अतिरिक्त कुछ भी संपन्न करने के लिए नहीं बचता। यह द्विपक्षीय चारित्र जैनधर्म में मुख्यपने से प्रतिपादित है अर्थात् 'चारित्र ही धर्म है। - एसा कहा गया है। यहाँ स्वाभाविक जिज्ञासा यह होती है कि चारित्र क्यों, किसके द्वारा धारण किया जाये, और चारित्र का आधार क्या है ? इस विषय में कुछ एसे सार्वभौम तत्त्वों की ओर संकेत किया जा सकता है जिन्हें आस्तिक-नास्तिक आदि सभी विचारधाराओं के अनुयायी समान रुप से स्वीकार करते हैं। इस तथ्य को प्रथमतः संक्षेप में इसप्रकार से कह सकते हैं कि जो भी यह जगत् का प्रपञ्च है वह सब तभी सप्रयोजन ठहरता है जबकि इसका ज्ञाता कोई नित्य पदार्थ हो। चरक संहिता में अनात्मवादियों का खंडन करते हुए कहा गया है कि प्रकाश-अंधकार, ज्ञान-अज्ञान, शुभकर्म-अशुभकर्म आदि विरोधी युगलों की सार्थकता तभी सिद्ध होती है जबकि इन पदार्थों का जाननेवाला कोई शाश्वत पदार्थ हो और वह शाश्वत पदार्थ जीव है। इस प्रकार चारित्र का प्रथम सैद्धांतिक आधार है अविनाशिता का सिद्धांत । से जड स्वरुप का नहीं होता। अविनाशिता के सिद्धांत से यह स्फटिक के समान साफ हो जाता है कि जीव शाश्वत है। अत: यदि उसे मोक्ष प्राप्त करना है तो चारित्र धारण करना क्रियाकारी है। 2. नश्वरता का सिद्धांत: किन्तु यदि एकान्त रुप से सभी पदार्थो को शाश्वत (नित्य) मान लिया जावे तब तो दुःख का कभी नाश ही न हो। जबकि लोक में भी यह देखा जाता है कि अमुक व्यक्ति दु:खी था, कुछ काल पश्चात् (भले ही भ्रम वश ही सही) वह सुख अनुभव करता है अर्थात् दुःख नष्ट हो सकता है। इसलिए पदार्थ एकांतरुप से शाश्वत भी नहीं है। कोई भी पदार्थ अवस्था की अपेक्षा से नश्वर भी है। अर्थात् अवस्था अपने क्षण के पश्चात् नष्ट हो ही जाती है इसीलिए तो उसका नाम 'अवस्था' है। अवस्था दो तरह से हो सकती है -- 1. स्वतंत्र पदार्थ की स्वतंत्र अवस्था 2. दो या दो से अधिक 1. अविनाशिता का सिद्धांत: दर्शनशास्त्र की भिन्न-भिन्न विचारधाराओं में किसी न किसी पदार्थ को शाश्वत माना गया है। शाश्वत का अर्थ है जिसकी न तो उत्पत्ति होती हो और न ही नाश। इस विषय में सांख्य-योग का मत यह है कि चतुर्विशति तत्त्वों को उत्पन्न करनेवाली समग्र संसार की कारणभूत अव्यक्त नामक प्रकृति स्वयं अकारण है अर्थात् उसकी उत्पत्ति नहीं होती। इसी प्रकार पुरुष जो नित्य पदार्थ है वह भी अनादि है। तात्पर्य यह है कि द्वैतवादी सांख्य के जड और चेतन पदार्थ अनादि हैं। इनमें परिणाम (परिवर्तन) तो हो सकता है किन्तु इनका नाश नहीं हो सकता। वेदांत दर्शन के सिद्धांत में तो एक ही पदार्थ है - ब्रह्म। ब्रह्म में वास्तविक परिवर्तन नहीं होता किन्तु अज्ञान के कारण विवर्त होता है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार पाँच महाभूत नित्य पदार्थ हैं, इनका नाश नहीं होता अर्थात् प्रलय नहीं होता। चार्वाक दर्शन में भी चार भूतों को अनादिसिद्ध पदार्थ माना गया है। यहाँ तक कि जिस बौद्ध दर्शन में 'सत्' पदार्थ का लक्षण ही क्षणिक रुप में किया गया है वहाँ भी किसी आरंभिक 'क्षण' की कल्पना नहीं है। अर्थात् एसा कोई भी क्षण नहीं है जिसके पहले 'क्षण' न रहा हो; अर्थात् क्षणिकवाद की सत्ता भी तभी है जब अनादि क्षण को स्वीकार कर लिया जाये। आकाश का कोई छोर नहीं है इसलिए इसे अनादि-अनंत कहा जाता है। जिसका आदि अन्त नहीं हो उसे ही शाश्वत अथवा नित्य कहा जाता है, शब्दमात्र का अन्तर है किन्तु अभिप्राय एक ही है। आकाश और काल की तरह सभी पदार्थो के विषय में यह कहा जा सकता है कि उसका न किसी खास क्षण में उत्पाद हुआ है और न ही किसी खास क्षण में उसका विनाश ही होगा। गीता में कहा गयाहै कि असत् पदार्थ की सत्ता नहीं (उत्पाद नही) और सत् पदार्थ की असत्ता (नाश) नहीं होती। इसी प्रकार का कथन पंचास्तिकाय में भी आया है। __कहने का तात्पर्य यह है कि पदार्थ अविनाशी है। उसका रुपान्तर तो होता है किन्तु वह रुपान्तर भी जड से चेतन और चेतन 1. चारित्तं खलु धम्मो। - अ.रा. 4/2663, 2665 2. अत्र कर्म फलं चात्र ज्ञानं चात्र प्रतिष्ठितम् । अत्र मोहः सुखं दुःखं जीवितं मरणं स्वता। भास्तमः सत्यमनृतं वेदाः कर्म शुभाशुभम् । न स्युं कर्ता च बोद्धा च पुरुषो न भवेद्यदि। नाश्रयो न सुखं नातिन गति गतिर्न वाक् । न विज्ञानं न शास्त्राणि न जन्म मरणं न च। न बन्धो न च मोक्षः स्यात् पुरुषो न भवेद् यदि ।..... न चेत् कारणमात्मा स्याद् भादयः स्युरहेतुकाः । न चैषु सम्भवेज्ज्ञानं न च तैः स्यात् प्रयोजनम् । - चरकसंहिता, शारीरस्थान, 2/37, 39-42 3. अ.रा.प. 1/806:7793 4. सर्वभूतानां कारणमकारणं सत्त्वरजस्तमोलक्षणमष्टरुपमखिलस्य जगतः सम्भवहेतुव्यक्तं नाम। - सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान, 113 5. अनादिपुरुषो नित्यः..... - चरकसंहिता, शारीरस्थान 1/59 अनादेश्चेतनाधातोर्नेष्यते परनिर्मितिः। - चरकसंहिता, सूत्रस्थान, 11/13 6. नाऽसतो विद्यते भावो नाभावो विद्यतेऽसतः । गीता 2/16 7. भावस्स णत्थि णासो पत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। - पंचस्तिकाय 15 8. अ.रा.पृ. 1/845 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [181] पदार्थो की संयोगावस्था। जैन सिद्धांत में दो शब्दों का प्रयोग होता रुप में लिया जा सकता है। हम हल्दी को पीला देखते हैं और है: 'स्वभाव-परिणाम' और 'विभाव-परिणाम' विभावपरिणाम स्वतंत्र चूना को सफेद । किन्तु जैसे ही दोनों को मिलाया जाता है वैसे द्रव्य के नहीं होते । यद्यपि प्रत्येक 'सत्' अपने आप में पूर्ण एवं ही वर्णान्तर (रक्तवर्ण) दृष्टिगोचर होता है। यहाँ पर भी पीत और स्वतंत्र है परन्तु यहाँ स्वतंत्र कहने का आशय यह है कि जिन की श्वेत वर्ण तिरोभूत हुए हैं और रक्त वर्ण उद्भूत हुआ है। यह उदाहरण पौद्गलिक संयोगी अवस्थाएँ नहीं होतीं वे विभाव रुप परिणत होते किसी को पूरी कल्पना लग सकता है। किन्तु हम पूछ सकते हैं नहीं देखे जाते । उदाहरण के लिए आकाश और पुद्गल की संयोगी अवस्थाएँ नहीं होती (जबकि पुद्गल को अवगाह देने का कार्य आकाश कि जब हम हल्दी का पीतवर्ण देखते हैं तो हल्दी से परावर्तित ही करता है)। इसी प्रकार काल और पुद्गल की भी संयोग होकर होकर हमारी आँख के पर्दे (रेटिना) पर पड़ता है, और हमारी आँख कोई अवस्था नहीं बनती जबकि पुद्गल भी काल सापेक्ष ही वर्तन भी उसे विविक्त रुप से पहचानने में समर्थ हो तभी हम देख सकते करता है। हैं। इसी प्रकार चूने के विषय में भी समझना चाहिए। किन्तु जब जैन सिद्धांत में जड वर्ग में पुद्गल, आकाश और काल हम हल्दी और चूना की संयोगी अवस्था को देखते हैं तब वही के अतिरिक्त दो और तत्त्व स्वीकृत हैं : धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य। रक्त वर्ण का क्यों प्रतीत होते है ? उत्तर स्पष्ट है कि जैसे ही ये किन्तु चारित्र के सैद्धांतिक पक्ष के विवेचन में इनका परिचय देना दोनों मिल जाते हैं वैसे ही उस संयोगी पर्याय में रक्त प्रकाश को आवश्यक नहीं है। क्योंकि चारित्र का परिणाम मोक्ष है और उसके परावर्तित करने की सामर्थ्य उद्भूत हो जाती है और तब रक्तवर्ण भौतिक पक्ष में चेतन पदार्थ का पुद्गल संयोग से सदा के लिए प्रकाश हमारी आँखे से प्रतीत होने लगता है। अभिप्राय यह है की (आत्यान्तिक) पृथग्भाव ध्वनित होता है इसलिए यहाँ केवल पुद्गल । सूक्ष्म परमाणुओं का व्यवस्थापन जिस प्रकार का होगा वैसा ही वर्ण और चेतन, इन दो पदार्थों की स्वतंत्रता, और संयोगावस्था की नश्वरता हमें प्रतिभात होगा। हम यह भी कह सकते हैं कि परमाणु का अपना मात्र विचारणीय है। कोई वर्ण नहीं, किन्तु संयोग अवस्था में उनके व्यवस्थापन के अनुसार 3. स्वतंत्रता का सिद्धांत: प्रकाश परावर्तन होता है और हमें पदार्थ का वर्ण दिखाई देता है। प्रत्येक चेतन (आत्मा) अपने आप में पूर्ण हैं और नितान्त अर्थात् तत्तत् प्रकाश परावर्तन की उद्धृत पुद्गलशक्ति को ही उसका रुप से स्वतंत्र है। चेतन पदार्थ का चेतन पदार्थ से कभी संयोग वर्ण कहा जा सकता है। कांचशकल यदि स्थालीवत् हो तो प्रकाश नहीं होता जबकि चेतन का पुद्गल से संयोग होता है। इसी तरह उस में से पार हो जाता है किन्तु यदि वही प्रिज्म के रुप में ढाल पुद्गल परमाणु यद्यपि अपने आप में पर्ण हैं किन्तु उनका अपनी दिया जाये तो हमें सप्तवर्णी प्रकाश दिखाई देने लगता है। योग्यतानुसार दूसरे परमाणुओं से संयोग होता है जिससे स्कन्ध बनता इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्येक द्रव्य है। किन्तु अन्य द्रव्य किसी अन्य द्रव्य में कोई परिवर्तन नहीं करा स्वतंत्र है और एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को परिवर्तित नहीं कर सकता। सकता; कोई अचेतन, चेतन पदार्थ को जड नहीं बना सकता और 4. बन्ध का सिद्धांत:इसका उल्टा भी नहीं हो सकता। 'मोक्ष' चारित्र का परिणाम है।, एसा स्वीकार करने पर यदि कोई प्रश्न करे कि ओक्सिजन और हाइड्रोजन मिलकर मोक्ष का विपरीत 'बन्ध' भी अधिकरण के रुप में स्वीकृत हो जाता जल बन जाता है तो एक द्रव्य को परिवर्तित करने में दूसरा द्रव्य है। सांख्य शास्त्र में 'बन्ध' को संयोग नाम से भी जाना जाता है। कारण कैसे नहीं हुआ? इसका उत्तर यह है कि यहाँ 'जल' उनकी जैन सिद्धान्त में स्वीकृत षड् द्रव्यों में से केवल पुद्गल और जीव संयोगी पर्याय है किन्तु आक्सीजन ने हाइड्रोजन को जल में नहीं में बंध हो सकता है।3; अन्य द्रव्यों में बंध योग्यता नहीं है। बदला है अन्यथा जल में केवल हाइड्रोजन ही होता। दूसरे यह भी तत्त्वार्थश्रद्धान प्रकरण में बंध तत्त्व से जीव और कार्मण कि 'ओक्सिजन' हाइड्रोजन को बदल कर ओक्सीजन नहीं बना लेता वर्गणा (पुद्गल) का अभिप्राय अभीष्ट है। जबकि यहाँ उभय प्रकार अन्यथा जल में केवल ओक्सीजन तत्त्व ही होता। का बन्ध अभीष्ट है। तत्त्वार्थसूत्र में बन्ध का मौलिक आधार स्निग्ध यहाँ यह प्रश्न भी होता है कि यदि द्रव्यान्तर में परिवर्तन और रुक्ष गुण बताये गये हैं। । बन्ध की पूरी प्रक्रिया में यही स्पष्ट नहीं होता हो तब तो स्नान आदि के लिए ऑक्सिजन आदि का 9. अ.रा.पृ. 5/592-93 उपयोग होना चाहिए, किन्तु देखा जाता है कि संयोगी अवस्था 10. क. अ.रा. 5/504-507, पृ. 6/880 जल का उपयोग तो स्नान में होता है किन्तु स्वतंत्र ओक्सीजन/ ख. अण्णदविएण अण्णदव्वस्स णो कीरदे गुणुप्पादो। तम्हा दु सव्वदव्वा हाईड्रोजन का उपयोग स्रान के लिए नहीं होता। इसका उत्तर यह उप्पज्जन्ते सहावेण । समयसार 372 11. अ.रा.प्र.3/1126 है कि द्रव्य विशेषों के संयोग से गुणविशेष उद्भूत होते हैं (नवीन 12. क. सांख्यकारिका 21, 44 उत्पन्न नहीं होते) और गुणविशेष तिरोहित होते हैं (उच्छेद नहीं ख. स्वस्वामिशक्त्यों स्वरुपोपलब्धिहेतुः संयोगः।। -पातञ्जल योगदर्शन होता)। जैसे द्रवता-शीतता युक्त जल का अग्नि से संयोग होने 2/23 13. अ.रा. 5/1165 पर द्रवता-शीतता तिरोभूत हो जाते हैं (नष्ट नहीं होते) और वायव्यता 14. अ.रा.पृ. 5/1164; सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । उष्णता उद्भूत हो जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र 8/2 यहाँ पर हल्दी और चूना के संयोग को भी उदाहरण के 15. स्निग्ध रुक्षत्वात्बन्धः । न जघन्यगुणानाम् । गुणसाम्ये सदृशानां । -तत्त्वार्थसूत्र 5/33-35 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [182]... चतुर्थ परिच्छेद किया गया है कि कैसे स्निग्ध (स्नेह गुणवान् ) और रुक्ष (खर गुणवान् ) पदार्थों में बन्ध होता हैं। यह बन्ध परमाणु स्तर पर अथवा द्वयणुकादि स्तर पर भी हो सकता है" । अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन यदि निश्चय से (वास्तविक रुप में) परमाणु और जीव में बन्ध माना जाये तो (तब तो जीव और पुद्गल की जिस संयोगी पर्याय से विचार आरम्भ करें वही असम्भव होगी) मृत्यु असंभव हो जाये और शिशु की वृद्धि न हो, गर्भाधानादि ही न हो। किन्तु यह बन्ध अवास्तविक होता है इसलिए मृत्यु आदि सम्भव होते हैं। यहाँ पर यह प्रश्न भी हो सकता है कि जीव और पुद्गल ये दो विरोधी द्रव्य हैं, जीव में स्नेहादि गुण नहीं और पुद्गल में ये गुण हैं, तब दो विरोधी द्रव्यों में बन्ध कैसे संभव है और संभव हो भी गया तो एक द्रव्य विजातीय द्रव्य पर प्रभाव क्यों डालता है ? पूर्व में यह स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है और यहाँ बन्ध का सिद्धान्त स्वीकार किया जा रहा है, फिर तो यह विपरीत कथन प्रतिभासित होता है क्योंकि लोक में भी स्वतंत्र को बद्ध नहीं कहा जाता और बद्ध को स्वतंत्र नहीं कहा जाता । यदि एसा संशय हो तो उसे अनेकान्त दृष्टि से दूर कर लेना चाहिए। बन्ध होना भी व्यवहार नय का कथन है। निश्चय से तो एक द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य को स्पर्श भी नहीं कर पाता। एक परमाणु दूसरे परमाणु को कभी स्पर्श नहीं कर पाता। लौह जैसे घनपिण्ड में भी एक परमाणु दूसरे परमाणु को स्पर्श नहीं करता और प्रत्येक परमाणु एक दूसरे से निश्चित दूरी बनाये रखते हैं। उससे अधिक समीप हो जाने की उनकी सामर्थ्य नहीं होती। जैसे ऋण चुम्बक और ऋण चुम्बक (दो ऋणचुम्बकों) को समीप ले जाने पर एक दूरी के बाद वे पास नहीं जा सकते। इतना ही नहीं, हम किसी घन लौहपिण्ड को हाथ से छूते हैं तब भी एक परमाणु दूसरे परमाणु को स्पर्श नहीं कर पाता किन्तु निश्चित दूरी से ही हम उसके गुण को समझते है। इसी प्रकार उसी पिण्ड को हाथ से पकड कर उठाते समय भी किसी परमाणु को छुए बिना ही पकड़ते हैं और उठाते हैं। यह सब परमाणु की निजशक्ति से सम्भव होता है। आत्मा और शरीर, आत्मा और कर्म (कार्मण शरीर) के बन्ध के विषय में भी एसा ही है। शरीर का कोई परमाणु आत्मप्रदेश को नहीं छूता और कार्मण शरीर का परमाणु भी आत्मप्रदेश को नहीं छूता । इसका कारण यह है कि आत्मा तो निराकार है 17 जबकि स्पर्श तो परमाणु का धर्म है18 | जब आत्मा निराकार है, उसमें स्पर्श नहीं है; उसमें स्निग्धतारुक्षता नहीं है तब शरीर परमाणु आत्मा के साथ कैसे बंध रहते हैं अर्थात् आत्मा स्वतंत्र होने से वह शरीर के बाहर क्यों नहीं आताजाता ? इसका उत्तर यह है कि शरीर परमाणुओं का आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं होता किन्तु एकक्षेत्रावगाह अवस्थान होता है। इसी प्रकार कर्म परमाणुओं का भी आत्म प्रदेशों से समानक्षेत्रावगाह होता है। समानक्षेत्रावगाह होकर भी शरीर की गति होने पर आत्मप्रदेश भी और कार्मण शरीर भी समान गति करते रहते हैं। यही बन्ध कहा जाता है। किन्तु कर्मबन्ध के विषय में यह विशेष है कि जीवन उन कर्मों के विपाक के कारण होनेवाले फल का भोग भी करता है । भोग के बाद वे कर्म उस प्रचय से विच्छिन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार आत्मप्रदेशों के कम्पन से नये कर्म परमाणु कार्मण शरीर में जुड़ते जाते हैं। किन्तु वस्तुतः तो कोई परमाणु आत्मप्रदेशों को स्पर्श नहीं करता। इसीलिए सांख्य दर्शन में यह कहा गया है कि पुरुष न तो बद्ध होता है और न मुक्त, किन्तु प्रकृति ही बद्ध होती है और प्रकृति ही मुक्त होती है" । प्रकृति ही कर्म की कर्ता है और वह फल की भोक्ता भी है 20 | पहले हम यह स्पष्ट करलें कि यह तो निश्चित है कि जीव पदार्थ शरीररूप जड से बद्ध है (अन्यथा शरीर गति करे तब आत्मा पीछे छूट जाये) । जो बंधता है वह छूटता है (यदि एसा न हो तो मृत्यु असंभव हो जाये) । अव केवल यह पक्ष बचता है कि दो विजातीय पदार्थ कैसे बंधते सकते हैं? इसका उत्तर यह हो सकता है कि बंधे तो हैं न ? भले ही वे कैसे ही बंधे हों। जब बंधे तो किसी शक्ति के कारण ही बंधे है। पुद्गल परमाणुओं में आत्मप्रदेशों से बंधने की शक्ति होने से ही वे बंधते हैं 21 (समानक्षेत्रावगाह करते हुए 'कर्म' संज्ञा पाते हैं) । यह पूरा का पूरा सिद्धान्त कर्मवाद के नाम से जाना जाता है। 5. कर्मवादः - जैन सिद्धान्त में कर्मसिद्धान्त पर विशद चर्चा की गयी है । यद्यपि पातञ्जल योग दर्शन में भी इसी प्रकार के सिद्धान्त पर आश्रित चर्चा है 22 किन्तु वह सूक्ष्म विवेचन नहीं करती। बौद्ध दर्शन में अनादिवासना - संस्कार नाम से यही सिद्धान्त दृष्टिगोचर होता है। सर्वत्र बन्ध की स्वकृति होने से यह तो स्वीकृत हो ही जाता है कि यह बन्ध की प्रक्रिया दो पदार्थों में होती है, उनमें एक है आत्मा और दूसरा है कर्म । आत्मा चेतन है और कर्म जड है। इसी से जैन सिद्धान्त में 'कर्म' पदार्थ को द्रव्यपक्ष में पुद्गल माना गया है जिसे कार्मणवर्गणा (का परिवर्तित रुप) कहते हैं और क्रियासापेक्ष है आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन । इस प्रकार आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन के निमित्त से कार्मणवर्गणा परिस्पन्द्यमान आत्मप्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह अवस्थान करता हुआ विपाक की योग्यता युक्त हो जाता है उसे कर्म कहते 23 । यहाँ पर जीव के भाव तो निमित्त होते हैं और कार्मणवर्गणा पुद्गल की कर्मरुप पर्याय नैमित्तिक । किन्तु इससे न तो जीव पुद्गल के रुप में बदलता है न पुद्गल जीव के रुप में 24 । 16. द्वयधिकादिगुणानां तु । तत्त्वार्थसूत्र 5/36 - 17. नित्यावस्थितान्यरुपाणि । - तत्त्वार्थसूत्र 5/4 स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्रला: -वही 5/23 18. 19 तस्मान्न बद्धयतेऽ श्रद्धा न मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः । सांख्यकारिका 62 20. वही 21. अ. रा.पू. 5/1165 22. क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरममृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः । पातञ्जल योगदर्शन 1/24 क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । पातञ्जल योगदर्शन 2/12 अ.रा.पृ. 3/245, ; तत्त्वार्थ सूत्र - 8/25 23. 24. क. जीव परिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमन्ति । पुग्गलकम्मनिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि । ण वि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अणोरणणिमित्तं तु कत्ता आदा सएण भावेण । ख. अ.रा. 3/245, 250, 'कम्म' शब्द पर Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [183] फिर कर्म और आत्मा के संयोग का स्वरुप क्या है, और ज्ञान से वंचित हो ही जाता है। यही कहलाता है "जैसी करनी उसके परिपाक की क्या सीमा है? इत्यादि प्रश्न हमारे सामने हैं। तैसी भरनी।" वे विचार और क्रिया न केवल आत्मा पर ही प्रभाव वर्तमान में आत्मा की स्थिति अर्धभौतिक जैसी हो रही है। (जैसे डालते हैं किन्तु आसपास के वातावरण पर भी अपना तीव्र, मन्द अग्नितप्त लौह का गोला अपने प्रत्येक कण में अग्नि से युक्त हो)। और मध्यम प्रभाव छोडते हैं । शरीर, मस्तिष्क और हृदय पर तो उसका उसका ज्ञान विकास, क्रोधादिविकार, इच्छा और संकल्प आदि सभी, प्रभाव निराला ही होता है। इस तरह प्रतिक्षणवर्ती विचार और क्रियाएँ बहुत कुछ शरीर, मस्तिष्क और हृदय की गति पर निर्भर करते हैं। यद्यपि पूर्वबद्ध कर्म के परिपाक से उत्पन्न हुई हैं पर उनके उत्पन्न मस्तिष्क का एक केन्द्र निष्क्रिय होते ही सारी स्मरण-शक्ति समाप्त होते ही जो आत्मा की नयी आसक्ति, अनासक्ति, राग, द्वेष और तृष्णा हो जाती है और मनुष्य पागल और बेभान हो जाता है। शरीर के आदि रुप परिणति होती है ठीक उसी के अनुसार नये-नये संस्कार प्रकृतिस्थ रहने से ही आत्मा के गुणों का विकास और उनका अपनी और उसके प्रतिनिधि पुद्गल सम्बद्ध होते जाते हैं और पुराने झडते उपयुक्त अवस्था में संचालित रहना बनता है। बिना इन्द्रिय आदि जाते है। इस तरह यह कर्मबन्धन का सिलसिला तब तक बराबर उपकरणों के आत्मा की ज्ञानशक्ति प्रकट ही नहीं हो पाती । स्मरण, चालु रहता है जब तक आत्मा सभी पुरानी वासनाओं से शून्य होकर प्रत्यभिज्ञान, विचार, कला, सौन्दर्याभिव्यक्ति और संगीत आदि सम्बन्धी पूर्ण वीतराग या सिद्ध नहीं हो जाता। प्रतिभाओं का विकास भीतरों और बाहरी दोनों उपकरणों की अपेक्षा कर्मविपाक26:रखता है। विचारणीय बात यह है कि कर्मपुद्गलों का विपाक कैसे आत्मा के साथ अनादिकाल के कर्मपुद्गल (कार्मण शरीर) होता है? क्या कर्मपुद्गल स्वयमेव किसी सामग्री को जुटा लेते का सम्बन्ध है, जिसके कारण वह अपने पूर्ण चैतन्य रुप में प्रकाशमान हैं और अपने आप फल दे देते हैं या इसमें कुछ पुरुषार्थ की भी नहीं हो पाता। यह शंका स्वाभाविक है कि 'चेतन पर अचेतन अपेक्षा है ? अपने विचार, वचन व्यवहार और क्रियाएँ अन्ततः संस्कार द्रव्य क्यों प्रभाव डालता है?' इसका उत्तर इस छोर से नहीं दिया तो आत्मा में ही उत्पन्न करती हैं और उन संस्कारों को प्रबोध देनेवाले जा सकता, किन्तु दूसरे छोर से दिया जा सकता है - आत्मा अपने पुद्गल द्रव्य कार्मण शरीर से बँधते हैं। ये पुद्गल शरीर के बाहर पुरुषार्थ और साधनाओं से क्रमश: वासनाओं और वासना से उद्बोधक से भी खिंचते हैं और शरीर के भीतर से भी। उम्मीदवार कर्मयोग्य कर्मपुद्गलों से मुक्ति पा जाता है और एक बार शुद्ध (मुक्त) होने पुद्गलों में से कर्म बन जाते हैं। कर्म के लिए एकविशेष प्रकार के बाद उसको पुनः कर्मबन्धन नहीं होता, अतः हम समझते के सूक्ष्म और प्रभावी पुद्गल द्रव्यों की अपेक्षा होती है। मन, वचन हैं कि दोनों पृथक् द्रव्य हैं। एक बार इस कार्मणशरीर से संयुक्त और काया की प्रत्येक क्रिया, जिसे योग कहते हैं, परमाणुओं में हलनआत्मा का चक्र चला तो फिर कार्य-कारण व्यवस्था जमती जाती है। आत्मा एक संकोच-विकासशील (सिकुडन और फैलनेवाला) चलन उत्पन्न करती है और उसके योग्य परमाणुओं को भीतर से बाहर द्रव्य है जो अपने संस्कारों के परिपाकानुसार छोटे-बडे स्थूल शरीर खींच लेती जाती है। यों तो शरीर स्वयं एक महान् पुद्गल पिंड के आकार हो जाता है। देहात्मवाद (जडवाद) की बजाय देहप्रमाण है। इसमें असंख्य परमाणु श्वासोच्छ्वास तथा अन्य प्रकार से शरीर आत्मा मानने से सब समस्याएं हल हो जाती है। में आते-जाते रहते है। इन्ही में से छटकर कर्म बनते जाते हैं। आत्मा देहप्रमाण भी अपने कर्मसंस्कार के कारण ही होता जब कर्म के परिपाक का समय आता है, जिसे उदयकाल है। कर्मसंस्कार छूट जाने के बाद उसके प्रसार का कोई कारण नहीं कहते हैं, तब उसके उदयकाल में जैसी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रह जाता; अत: यह अपने अंतिम शरीर के आकार का बना रहता की सामग्री उपस्थित होती है वैसा उसका तीव्र, मध्यम और मन्द है, न सिकुडता है और न फैलता है। एसे संकोच विकासशील फल होता है। नरक और स्वर्ग में औसतन असाता और साता की शरीर प्रमाण रहनेवाले, अनादिकार्मणशरीर से संयुक्त, अर्धभौतिक आत्मा सामग्री निश्चित है। अत: वहाँ क्रमशः असाता और साता का उदय की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक विचार और वचनव्यवहार अपना एक संस्कार अपना फलोदय करता है और साता और असाता प्रदेशोदय के रुप तो आत्मा और उसके अनादिसाथी कार्मण शरीर पर डालते हैं। संस्कार में अर्थात् फल देनेवाली सामग्री की उपस्थिति न होने से बिना फल तो आत्मा पर पड़ता है, पर उस संस्कार का प्रतिनिधि द्रव्य उस दिये ही झड जाते है। जीव में साता और असाता दोनों बँधी हैं, कार्मण शरीर से बँध जाता है जिसके परिपाकानुसार आत्मा में वही किन्तु किसीने अपने पुरुषार्थ से साता की प्रचुर सामग्री उपस्थित भाव और विचार जाग्रत होते हैं और उसी का असर बाह्यसामग्री की है तथा अपने चित्त को सुसमाहित किया है तो उसको आने पर भी पडता है, जो हित और अहित में साधक बन जाती है। वाला असाता का उदय फल विपाकी न होकर प्रदेशविपाकी ही होगा। जैसे कोई छात्र किसी दूसरे छात्र की पुस्तक चुराता है या उसकी स्वर्ग में असाता के उदय की बाह्य सामग्री न होने से असाता का लालटेन इस अभिप्राय से नष्ट करता है कि 'वह पढने न पावे' प्रदेशोदय या उसका साता रुप में परिणमन होना माना जाता है। तो वह इस ज्ञान विरोधक क्रिया और विचार से अपनी आत्मा में इसी तरह नरक में केवल असाता की सामग्री होने से वहाँ साता एक प्रकार का विशिष्ट कुसंस्कार डालता है। उसी समय इस संस्कार का या तो प्रदेशोदय ही होगा या उसका असाता रुप से परिणमन का मूर्तरुप, पुद्गल द्रव्य आत्मा के चिरसंगी कार्मणशरीर से बँध हो जायेगा। जाता है। जब उस संस्कार का परिपाक होता है तो उसे बँधे हुए जगत् के समस्त पदार्थ अपने-अपने उपादान और निमित्त कर्मद्रव्य के उदय से आत्मा स्वयं उस हीन और अज्ञान अवस्था के सुनिश्चित कार्यकारणभाव के अनुसार उत्पन्न होते हैं और सामग्री में पहुँच जाता है जिससे उसका झुकाव ज्ञानविकास की ओर नहीं हो पाता । वह लाख प्रयत्न करे, पर अपने उस कुसंस्कार के फलस्वरुप 25. अ.रा.पृ. 7/821 26. अ.रा.पृ. 3/342 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [184]... चतुर्थ परिच्छेद के अनुसार जुटते और बिखरते हैं। अनेक सामाजिक और राजनैतिक मर्यादाएँ साता और असाता के साधनों की व्यवस्थाएँ बनाती हैं। पहले व्यक्तिगत संपत्ति और साम्राज्य का युग था तो उसमें उच्चतम पद पाने में पुराने साता के संस्कार कारण होते थे, तो अब प्रजातंत्र युग में जो भी उच्चतम पद हैं, उन्हें पाने में भी संस्कार सहायक के होंगे। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन होने को प्रतिसमय तैयार बैठी हैं, उनमें से उपयुक्त योग्यता का उपयुक्त समय में विकास करा लेना, यही नियति के बीच पुरुषार्थ का कार्य है। इस पुरुषार्थ से कर्म भी एक हद तक नियंत्रित होते हैं । 6. जीव का उपयोग स्वभाव" : चारित्र के सैद्धांतिक पक्ष को आधार प्रदान करने वाला एक पक्ष है जीव का उपयोग स्वभाव। क्योंकि यदि जीव का स्वभाव 'उपयोग' न हो तो चारित्र अर्थात् कर्मसंवर और कर्मनिर्जरा का कारण भूत क्रियाकलाप आधारहीन रह जाता है। इसी प्रकार बन्ध की भी सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। उपयोग का अर्थ है चैतन्य परिणति 28 | चैतन्य ही जीव का असाधारण धर्म है जो इसे अन्य द्रव्यों से अलग करता है। अनादि काल से जीव एसा ही है और अनंत काल तक एसा ही रहेगा । यद्यपि इसके संसारी अवस्था में विभाव परिणाम अनेक प्रकार के हो सकते हैं जिन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है : शुभोपयोग और अशुभपयोग। स्वभाव परिणाम को शुद्धपयोग कहते हैं । द्रव्य संग्रह में इन तीनों को लक्ष्य में रखकर जीव को कर्ता और भोक्ता और सिद्ध भी कहा है। 29 वस्तुतः विभाव परिणाम भी पूर्णतया जीव के नहीं है किन्तु पुद्गल - संयोगावस्था में होने वाले परिणाम हैं। कारण, यदि ये जीवमात्र के परिणाम होते तो इनमें कभी मुक्ति नहीं हो सकती थी लेकिन यह तो लोकव्यवहार में भी देखा जाता है कि जीव का कोई परिणाम दूसरे ही क्षण नष्ट हो जाता है। जैसे किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर क्रोध आने पर उसका बुरा कर लेने के बाद क्रोध शान्त हो जाता है अर्थात् क्रोध आता भी है इसीलिए जाता भी है। इसी प्रकार सभी विभावों के बारे में समझना चाहिए। ये सभी भाव पुद्गल के निमित्त से होते हैं। उदाहरण के लिए क्रोध किसी मूर्तिमान् पर ही आता है और उसे (मूर्तिमान् को) ही विकृत किया करता है; और पुद्गलबद्ध जीव को ही क्रोध करते देखा जाता है मुक्त जीवों को नहीं। और यह भी कि क्रोध का परिणाम भी नेत्ररक्तिमा, कम्प आदि और विखंडन (वधच्छेद) आदि पुद्गल में ही देखे जाते हैं। इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने तो इन्हें पौद्गलिक भाव तक कह दिया है। जगत् के प्रत्येक कार्य में किसी-न-किसी के अदृष्ट को निमित्त मानना न तो तर्कसिद्ध है और न अनुभवगम्य ही। इसी तरह यदि परम्परा से कारणों की गिनती की जाय तो कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी। कल्पना कीजिए आज कोई व्यक्ति नरक में पड़ा हुआ असाता के उदय में दुःख भोग रहा है और एक दरी किसी कारखाने में बन रही है जो 20 वर्ष बाद उसके उपयोग में आयेगी और साता उत्पन्न करेगी तो आज उस दरी में उस नरक स्थित प्राणी के अदृष्ट को कारण मानने में बडी विसंगति उत्पन्न होती है । अतः समस्त जगत् के पदार्थ अपने-अपने साक्षात् उपादान और निमित्तों से उत्पन्न होते हैं और यथासंभव सामग्री के अन्तर्गत होकर प्राणियों के सुख और दुःख में तत्काल निमित्तता पाते रहते हैं। उनकी उत्पत्ति में किसी-न-किसी के अदृष्ट को जोडने की न तो आवश्यकता ही है और न उपयोगिता ही और न कार्यकारण व्यवस्था का बल ही उसे प्राप्त है। कर्मो का फल देना, फलकाल की सामग्री पर निर्भर करता है । जैसे एक व्यक्ति के असाता का उदय आता है, पर वह किसी साधु के सत्संग में बैठा हुआ तटस्थ भाव से जगत् के स्वरुप को समझकर स्वात्मानंद में मग्न हो रहा है। उस समय आनेवाली असाता का उदय उसे व्यक्ति को विचलित नहीं कर सकता, किन्तु वह बाह्य असाता की सामग्री न होने से बिना फल दिये ही झड़ जायेगा । कर्म अर्थात् पुराने संस्कार । वे संस्कार अबुद्ध व्यक्ति के ऊपर ही अपना कुत्सित प्रभाव डाल सकते हैं, ज्ञानी पर नहीं । यह तो बलाबल का प्रश्न है। यदि आत्मा वर्तमान में जागृत है तो पुराने संस्कारों पर विजय पा सकता है और यदि जागृत नहीं है तो वे कुसंस्कार ही फूलते - फलते जायेगे। आत्मा जब से चाहे तब से नया कदम उठा सकता है और उसी समय से नवनिर्माण की धारा प्रारंभ कर सकता है। इसमें न किसी ईश्वर की प्रेरणा की आवश्यकता है और न "नाऽभुक्तं क्षीयते कर्म" के अटल नियम की अनिवार्यता ही है। जगत् का अणु-परमाणु ही नहीं किन्तु चेतन आत्माएँ भी प्रतिक्षण अपने उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य स्वभाव के कारण अविराम गति से पूर्व पर्याय को छोड़ उत्तर पर्याय को धारण करती जा रही हैं। जिस क्षण जैसी बाह्य और आभ्यन्तर सामग्री जुटती जाती है उसकी के अनुसार उस क्षण का परिणमन होता जाता है। हमें जो स्थूल परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी असंख्य सूक्ष्म परिणमनों का जोड और औसत है। इसी में पुराने संस्कारों की कारण सामग्री के अनुसार सुगति या दुर्गति होती जाती है। इसी कारण सामग्री के जोड़-तोड और तरतमता पर ही परिणमन का प्रकार निश्चित होता है। वस्तु के कभी सदृश, कभी विसदृश, अल्पसदृश, अर्धसदृश और असदृश आदि विविधप्रकार के परिणमन हमारी दृष्टि से बराबर गुजरते हैं। यह निश्चित है कि कोई भी कार्य अपने कार्यकारण भाव को उल्लंघन करके उत्पन्न नहीं हो सकता । द्रव्य में सैकडों ही योग्यताएँ विकसित दूसरे यह कि यदि क्रोधादि भाव जीव का स्वभाव परिणाम होता तो क्रोध हमेशा बना रहना चाहिए किन्तु सदा क्रुद्ध तो कोई नहीं देखा जाता । और यह भी कभी नहीं देखा गया कि जब जीव अचेतन परिणतिवाला हुआ हो। सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव में भी चेतनत्व को ही लक्षण स्वीकार किया गया है। कहने का अभिप्राय यह है कि इच्छा-द्वेष आदि भी संयोगी अवस्था में होनेवाले जीव के विभाव परिणाम कहे जाते हैं उस परिणाम में भी जीव तो उसका ज्ञाता मात्र रहता है, सुख दुःख आदि विकार तो वेदन विभाव परिणाम के कारण होता है स्वभाव से तो ज्ञानमात्र ही वेदन होता है। अर्थात् निश्चय से तो पुद्गल ही कर्म का कर्ता भी है और भोक्ता भी । 27. 28. 29. अ. रा. पृ. 2/ 287; 4/1519 उपयोगो लक्षणम् । - तत्त्वार्थसूत्र 2/8 जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्गढई ॥ द्रव्यसंग्रह, गाथा 2 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चूँकी यह कर्मास्रव, बन्ध और उसके विपाक स्वरुप फल का भोग जीव की संयोगी अवस्था में किया जाता है इसीलिए व्यवहार से ये जीव के कहे जाते हैं। इस विषय में सांख्यों का सिद्धान्त भी इसी प्रकार का है । जैसे जीव के अशुभ उपयोग व्यावहारिक दृष्टि से कहे गयें हैं, वैसे ही शुभ ( राग, करुणा आदि ) भाव भी समझने चाहिए। इन दोनों विभाव परिणामों अर्थात् अशुभोपयोग और शुभोपयोग से भिन्न शुद्धोपयोग जीव का स्वभाव परिणाम है जैसे ज्ञान और आत्मसंवेदन (स्वानुभव) । कारण कि ज्ञान सदा ही अंश मात्र में तो अनुभूत होता ही रहता है और मुक्तावस्था प्राप्त होने पर वह पूर्णता को प्राप्त और अक्षय हो जाता है अर्थात् उसमें तरतमता नहीं आती । 7. मोक्ष की सादि अनन्तताः जैन सिद्धान्त में मोक्ष को सादि अनन्त माना गया है । 30 अर्थात् एक बार मोक्ष हो जाने पर उस अवस्था का कभी अन्त नहीं होता, क्योंकि बन्ध के हेतुओं का अभाव हो जाता है और पूर्व के कर्म नष्ट हो जाते हैं" । इसकी पुष्टि पतञ्जलि ने भी की है - कर्माशय नष्ट हो जाने पर जन्म-आयु और भोग नहीं होते। अक्षपाद गौतम का भी यही मत है कि एसे किसी पुरुष को जन्मता नहीं देखा गया जो वीतराग हो (वीतरागजन्मादर्शनात् ३) तथा यह भी कहा गया है कि जिसके क्लेश नष्ट हो गये हों उसकी प्रवृत्ति प्रतिसन्धान के लिए निमित्त नहीं होती 34। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिनके वीतरागता नहीं है (जो राग-द्वेष आदि विभागों से युक्त है), उनके संसार का चक्र प्रवर्तमान रहता है। अर्थात् राग-द्वेषमूलक प्रवृत्ति ही संसार की कारण है। जैसे ही यह रागद्वेष समाप्त होता है वैसे ही अन्तहीन वीतरागता आरंभ हो जाती है। इसका दूसरा अभिप्राय यह भी है कि जो जीव संसारी है वह पहले कभी भी मुक्त नहीं हुआ । अनादि संसार का स्वरुप जैन आगमों में बताया गया है। कि संसारी जीव का अनादि निवास निगोद अवस्था में रहता है। फिर जैसे जैसे उसका विकास होता है वह पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय पर्याय से होता हुआ पंचेन्द्रिय तक विकसित होता है। यदि उसके परिणाम अत्यन्त अशुभ होंगे तो वह पुनः निगोद अवस्था को प्राप्त करता है। इस प्रकार अनादि निगोद और सादि निगोद अवस्थाएँ होती हैं इन्हें असांव्यवहारिक (नित्य) निगोद और सांव्यवहारिक (इतर) निगोद कहा गया है35 | आत्मा स्थूल शरीर और सूक्ष्म कर्मशरीर से बद्ध मिलता है। इसका ज्ञान संवेदन, सुख, दुःख और यहाँ तक कि जीवनशक्ि भी शरीराधीन है। शरीर में विकार होने से ज्ञानतंतुओं में क्षीणता आ जाती हैं और स्मृतिभ्रंश तथा पागलपन आदि देखे जाते हैं । संसारी आत्मा शरीरबद्ध होकर ही अपनी गतिविधि करता है। यदि आत्मा शुद्ध होता तो शरीर सम्बन्ध का कोई कारण नहीं था । शरीर सम्बन्ध या पुनर्जन्म के कारण हैं राग, द्वेष, मोह और कषायादिभाव । शुद्ध आत्मा में ये विभाव परिणाम हो ही नहीं सकते। चूँकि आज ये विभाव और उनका फल शरीर सम्बन्ध प्रत्यक्ष से अनुभव में आ रहा है, अतः मानना होगा कि आज तक इनकी अशुद्ध परम्परा ही चली आई है। भारतीय दर्शनों में यही एक एसा प्रश्न है, जिसका उत्तर विधिमुख से नहीं दिया जा सकता । ब्रह्म में अविद्या कब उत्पन्न चतुर्थ परिच्छेद... [185] हुई? प्रकृति और पुरुष का संयोग कब हुआ ? आत्मा से शरीर सम्बन्ध कब हुआ ? इन सब प्रश्नो का एक मात्र उत्तर है- 'अनादि' से । किसी भी दर्शनने एसे समय की कल्पना नहीं की है जिस समय समग्र भाव से ये समस्त संयोग नष्ट होंगे और संसार समाप्त हो जायगा । व्यक्तिशः अमुक आत्माओं से पुद्गलसंसर्ग या प्रकृतिसंसर्ग का वह रुप समाप्त हो जाता है जिसके कारण उसे संसरण करना पडता है। इस प्रश्न का दूसरा उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि यदि शुद्ध होते तो इनका संयोग ही नहीं हो सकता था। शुद्ध होने के बाद कोई एसा हेतु नहीं रह जाता जो प्रकृतिसंसर्ग, पुद्गल सम्बन्ध या अविद्योत्पत्ति होने दे। इसी के अनुसार यदि आत्मा शुद्ध होता तो कोई कारण उसके अशुद्ध होने का या शरीर सम्बन्ध का नहीं था। जब ये दो स्वतंत्रसत्तायुक्त द्रव्य हैं तब उनका संयोग चाहे वह कितना ही पुराना क्यों न हो, नष्ट किया जा सकता है और दोनों को पृथक-पृथक किया जा सकता है। उदाहरणार्थ खदान से सर्वप्रथम निकाले गये सोने में कीट आदि मैल कितना ही पुराना या असंख्य काल से लगा हुआ क्यों न हो, शोधक प्रयोगों से अवश्य पृथक् किया जा सकता है और सुवर्ण अपने शुद्ध रुप मे लाया जा सकता है। 36 तब यह निश्चय हो जाता है कि सोने का शुद्ध रुप यह है तथा मैल यह है। सारांश यह कि जीव और पुद्गल का बंध अनादि से है और वह बंध जीव के अपने राग-द्वेष आदि भावों के कारण उत्तरोत्तर बढता जाता है। जब ये रागादिभाव क्षीण होते हैं, तब वह बंध आत्मा में नये विभाव उत्पन्न नहीं कर सकता और धीरे-धीरे या एक झटके में ही समाप्त हो सकता है। चूँकि यह बंध दो स्वतंत्र द्रव्यों का है, अतः टूट सकता है या उस अवस्था में 30. 31. 33. 34. 35. अ. रा. पृ. 2 / 287; 7/821 बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् । कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । 36. -तत्त्वार्थसूत्र 10/2-3 दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुर ॥ 32. सत्सु क्लेशेषु कर्माशयो विपाकारम्भी भवति न उच्छिन्नक्लेशमूलः । पातंजल योगदर्शन 2/13 पर व्यासभाष्य - तत्त्वार्थसूत्र 10/7 पर तत्त्वार्थधिगम भाष्य न्यायसूत्र 2/2/25 "न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय हीनक्लेशस्या।' न्याय सूत्र 4 / 1 /64 (क) द्विविधा जीवा सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्चेति । तत्र ये निगोदावस्थात उद्वृत्य पृथिवीकायिकादिभेदेषु वर्तन्ते ते लोकेषु दृष्टि पथमागताः सन्तः पृथिवीकायिका दिव्यवहारमनुपतन्तीति व्यवहारिका उच्यन्ते । ते च यद्यपि भूयोऽपि निगोदावस्थामुपयान्ति तथापि ते सांव्यवहारिका एव, संव्यवहारे पतितत्वात् । ये पुनरनादिकालादारभ्य निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते ते व्यवहारपतातीतत्वादसांव्यवहारिकाः । - प्रज्ञापनाटीकायां सू. 234 (ख) गोलाश्च असंख्येयाः असंख्यनिगोदो गोलको भणितः । एकैकस्मिन् निगोदे अनन्तजीवा ज्ञातव्यां ||||| सिध्यन्ति यावन्तः खलु इह संव्यवहारजीवराशितः । आयान्ति अनादिवनस्पतिराशितस्तावन्तस्तस्मिन् ॥2॥ • अन्ययोगगव्यचच्छेदद्वात्रिंशिका, श्लोक 29 पर स्याद्वादमंजरी टीका में प्रज्ञापनासूत्र से उद्धृत (ग) एकनिगोदशरीरे जीवा द्रव्यप्रमाणतो दृष्टा । सिद्धैरनन्तगुणाः सर्वेण व्यतीतकालेन ॥ -गोम्मटसार जीवकाण्ड 195 प्रथम कर्मग्रंथ गाथा - १ पर विवेचन पृ.5 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [186]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तो अवश्य पहुँच सकता है जब साधारण संयोग बना रहने पर भी आत्मा की दशा :आत्मा उससे निस्संग और निर्लेप बन जाता है। आज का विज्ञान हमें बताता है कि जीव जो भी विचार आज इस अशुद्ध आत्मा की दशा अर्धभौतिक जैसी हो करता है उसकी ढेडी-सीधी; और उथली-गहरी रेखाएँ मस्तिष्कमज्जा रही है। इन्द्रियाँ यदि न हों तो सुनने और देखने आदि की शक्ति में खिंचती जाती हैं, और उन्हीं के अनुसार स्मृति तथा वासनाएँ उबुद्ध रहने पर भी वह शक्ति जैसी-की-तैसी रह जाती है और देखना और होती हैं। जैसे अग्नि से तपे हुए लोहे के गोले को पानी में छोडने सुनना नहीं होता। विचारशक्ति होने पर भी यदि मस्तिष्क ठीक नहीं पर वह गोला जल के बहुत से परमाणुओं को अपने भीतर सोख है तो विचार और चिन्तन नहीं किये जा सकते। यदि पक्षाघात हो लेता है और भाप बनाकर कुछ परमाणुओं को बाहर निकालता है। जाय तो शरीर देखने में वैसा ही मालूम होता है पर सब शून्य हो जब तक वह गर्म रहता है, पानी में उथल-पुथल पैदा करता है। जाता है। निष्कर्ष यह कि अशुद्ध आत्मा की दशा और इसका सारा कुछ परमाणुओं को लेता है, कुछ को निकालता है, कुछ को भाप विकास बहुत कुछ पुद्गल के अधीन हो रहा है। और तो जाने दीजिए, बनाता, यानी एक विचित्र ही परिस्थिति आसपास के वातावरण में जीभ के अमुक-अमुक हिस्सों में अमुक-अमुक रसों के चखने की उपस्थित कर देता है। उसी तरह जब वह आत्मा राग-द्वेष आदि निमित्तता देखी जाती है। यदि जीभ के आधे हिस्से में लकवा मार से उत्तप्त होता है; तब शरीर में एक अद्भूत हलन-चलन उत्पन्न करता जाय तो शेष हिस्से से कुछ रसों का ज्ञान हो पाता है, कुछ का है। क्रोध आते ही आँखे लाल हो जाती हैं, खून की गति बढ जाती नहीं। इस जीवन के ज्ञान, दर्शन, सुख, राग, द्वेष, कला, विज्ञान है, मुँह सूखने लगता है, और नथने फडकने लगते हैं। जब कामवासना आदि सभी भाव बहुत कुछ इसी जीवन पर्याय के अधीन हैं। जागृत होती है तो सारे शरीर में एक विशेष प्रकार का मंथन शुरु एक मनुष्य जीवन भर अपने ज्ञान का उपयोग विज्ञान या होता है, और जब तक वह कषाय या वासना शान्त नहीं हो लेती धर्म के अध्ययन में लगाता है, जवानी में उसके मस्तिष्क में भौतिक तब तक यह चहल-पहल और मंथन आदि नहीं रुकता। आत्मा उपादान अच्छे और प्रचुर मात्रा में थे, तो उसके तन्तु चैतन्य को जगाये के विचारों के अनुसार पुद्गल द्रव्यों में भी परिणमन होता है और रखते थे। बुढापा आने पर जब उसका मस्तिष्क शिथिल पड जाता उन विचारों के उत्तेजक पुद्गल आत्मा के वासनामय सूक्ष्म कर्मशरीर है तो विचार शक्ति लुप्त होने लगती है और स्मरण मन्द पड जाता में शामिल होते जाते हैं। जब-जब उन कर्म पुद्गलों पर दबाव पडता है। वही व्यक्ति अपनी जवानी में लिखे गए लेख यदि बुढापे में है तब-तब वे फिर रागादि भावों को जगाते हैं। फिर नये कर्म पुद्गल पढता हैं तो उसे स्वयं आश्चर्य होता है। कभी-कभी तो उसे यह आते हैं और उन कर्म पुद्गलों के परिपाक के अनुसार नूतन रागादि विश्वास ही नहीं होता कि यह उसीने लिखा होगा। मस्तिष्क की भावों की सृष्टि होती है। इस तरह रागादि भाव और कर्म पुद्गलों के संबंध का चक्र तब तक बराबर चालू रहता है, जब तक कि यदि कोई ग्रंथि बिगड जाती है तो मनुष्य पागल हो जाता है। दिमाग अपने विवेक और चारित्र से रागादि भावों को नष्ट नहीं कर दिया का यदि कोई केन्द्र अतिक्रियाशील या निष्क्रिय हो गया तो उन्माद, जाता। सन्देह, विक्षेप और उद्वेग आदि अनेक प्रकार की धाराएँ जीवन को सारांश यह कि जीव की ये राग-द्वेषादि वासनाएँ और पुद्गल ही बदल देती है। मस्तिष्क के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार के कर्मबन्ध की धारा बीज-वृक्षसन्तति की तरह अनादि से चालु है। चेतन भावों को जागृत करने के विशेष उपादान रहते हैं। पूर्वसंचित कर्म के उदय से इस समय राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते आज भिन्न भिन्न भावों को उत्तेजित करने के लिए भिन्न हैं और तत्काल में जो जीव की आसक्ति होती है, वही नूतन कर्मबन्ध भिन्न प्रकार की रासायनिक दवाएँ प्रयुक्त की जाती हैं और उनसे कराती है। यह आशंका करना कि 'जब पूर्वकर्म से रागादि और रागादि राग, द्वेष, निद्रा, मद, मोह आदि भाव उत्पन्न होते हुए भी देखे जाते से नये कर्म का बन्ध होता है तब इस चक्र का उच्छेद कैसे हो हैं। इन भावोत्तेजक भौतिक द्रव्यों के प्रभाव को देखकर हम इस सकता है?' उचित नहीं है; कारण यह है कि केवल पूर्व कर्म के निश्चित परिणाम पर तो पहुँच ही सकते हैं कि हमारी सारी पर्याय फल का भोगना ही नये कर्म का बन्धक नहीं होता, किन्तु उस शक्तियाँ जिनमें ज्ञान, दर्शन, सुख, धैर्य, राग, द्वेष और कषाय आदि भोग काल में जो नूतन रागादि भाव उत्पन्न होते हैं, उनसे बन्ध होता शामिल हैं, इस शरीर पर्याय के निमित्त से विकसित होती है। शरीर है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि के पूर्वकर्म के भोग नूतन रागादि के नष्ट होते ही समस्त जीवन भर में उपार्जित ज्ञानादि पर्याय शक्तियाँ भावों को नहीं करने से निर्जरा के कारण होते हैं जब कि मिथ्यादृष्टि प्रायः बहुत कुछ नष्ट हो जाती है। परलोक तक इनके कुछ सूक्ष्म नूतन रागादि से बंध ही बंध करता है। सम्यग्दृष्टि पूर्वकर्म के उदय संस्कार ही साथ में जाते हैं। से होनेवाले रागादिभावों को अपने विवेक से शांत करता है और व्यवहार से जीव मूर्त भी है : उनमें नई आसक्ति नहीं होने देता। यही कारण है कि उसके पुराने जैनदर्शन में व्यवहार से जीव को मूर्त मानने का अर्थ है कर्म अपना फल देकर झड जाते हैं और किसी नये कर्म का उनकी कि अनादि से यह जीव शरीर सम्बद्ध ही मिलता आया है। स्थूल जगह बन्ध नहीं होता। अतः सम्यग्दृष्टि तो हर तरफ से हल्का हो शरीर छोडने पर भी सूक्ष्म (कार्मण) शरीर सदा इसके साथ रहता चलता है; जब कि मिथ्यादृष्टि नित्य ही नयी वासना और आसक्ति है। इसी सूक्ष्मशरीर के नाश को ही मुक्ति कहते हैं। चार्वाक का के कारण तीव्रता से कर्मबन्धनों में जकडता जाता है। देहात्मवाद देह के साथ ही आत्मा की समाप्ति मानता है जब कि जिस प्रकार हमारे भौतिक मस्तिष्क पर अनुभवों की सीधी, जैन के देह परिमाण-आत्मवाद में आत्मा की स्वतंत्र सत्ता होकर भी टेढी, गहरी, उथली आदि असंख्य रेखाएं पडती रहती हैं, जब एक उसका विकास अशुद्ध दशा में देहाश्रित यानी देहनिमित्तिक माना प्रबल रेखा आती है तो वह पहले की निर्बल रेखा को साफ कर उस गया है। जगह अपना गहरा प्रभाव कायम कर देती है और यदि विजातीय Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [187] संस्कार की है तो उसे पोंछ देती है। अन्त में कुछ ही अनुभव रेखाएँ अपना गहरा या उथला अस्तित्व कायम रखती हैं। इसी तरह आज जो राग-द्वेषादिजन्य संस्कार उत्पन्न होते हैं और कर्मबन्धन करते हैं; वे दूसरे ही क्षण शील, व्रत और संयम आदि की पवित्र भावनाओं से धुल जाते हैं या क्षीण हो जाते हैं। यदि दूसरे ही क्षण अन्य रागादिभावों का निमित्त मिलता है, तो पूर्वबद्ध पुद्गलों में और भी काले पुद्गलों का संयोग तीव्रता से होता जाता है। इस तरह जीवन के अन्त में कर्मो का बन्ध, निर्जरा, अपकर्षण (हानि), उत्कर्षण (वृद्धि), संक्रमण (एक दूसरे के रुप में बदलना) आदि होते-होते जो कर्मराशि अवशिष्ट रहती है वही सूक्ष्म कर्म-शरीर के रुप में परलोक तक जाती है। जैसे तेज अग्नि पर उबलती हुई बटलोई में दाल चावल, शाक आदि जो भी डाला जाता है उसकी ऊपर-नीचे अगल-बगल में उफान लेकर अन्त में एक खिचडीसी बन जाती है, उसी तरह प्रतिक्षण बँधनेवाले अच्छे या बुरे कर्मो में, शुभ भावों से शुभ कर्मो में रस-प्रकर्ष और स्थिति वृद्धि होकर अशुभ कर्मों में रसहीनता और स्थितिच्छेह हो जाता है। अन्त में एक पाकयोग्य स्कन्ध बच रहता है, जिसके क्रमिक उदय से रागादि भाव और सुखादि उत्पन्न होते हैं। अथवा जैसे पेट में जठराग्नि से आहार का मल, मूल, स्वेद आदि के रुप से कुछ भाग बाहर निकल जाता है, कुछ वहीं आत्मसात् होकर रक्तादि रुप से परिणत होता है और आगे जाकर वीर्यादि रुप बन जाता है। बीच में चूर्ण आदि आदि के संयोग से उसकी लघुपाक (शीघ्रता से पचना), दीर्धपाक (कठिनता से पचना) आदि अवस्थाएँ भी होती हैं, पर अन्त में होनेवाले परिपाक के अनुसार ही भोजन सुपाच्य या दुष्पाच्य कहा जाता है, उसी तरह कर्म का भी प्रतिसमय होनेवाले अच्छे और बुरे भावों के अनुसार तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मध्यम, मृदुतर और मृदुतम आदि रुप से परिवर्तन बराबर होता रहता है और अन्त में जो स्थिति होती है, उसके अनुसार उन कर्मो को शुभ या अशुभ कहा जाता है। यह भौतिक जगत् पुद्गल और आत्मा दोनों से प्रभावित होता है। जब कर्म का एक भौतिक पिण्ड, जो विशिष्ट शक्ति का स्रोत है, आत्मा से सम्बद्ध होता है, तो सूक्ष्म और तीव्र शक्ति के अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं और प्राप्त सामग्री के अनुसार उस संचित कर्म का तीव्र, मन्द और मध्यम आदि फल मिलता है। इस तरह यह कर्मचक्र अनादि काल से चल रहा है और तब तक चालू रहेगा जब तक कि बन्धकारक मूल रागादिवासनाओं का नाश नहीं कर दिया जाता। बाह्य पदार्थो के - नोकर्मो के समवधान के अनुसार कर्मो का यथासंभव प्रदेशोदय या फलोदय रुप से परिपाक होता रहता है। उदयकाल में होनेवाले तीव्र, मध्यम और मन्द शुभाशुभ भावों के । अनुसार आगे उदय में आनेवाले कर्मो के रसदान में भी अन्तर पड जाता है। तात्पर्य यह कि कर्मों का फल देना, अन्य रुप में देना या न देना, बहुत कुछ हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। इस तरह जैन दर्शन में यह आत्मा अनादि से अशुद्ध माना गया है और प्रयोग से यह शुद्ध हो सकता है। एक बार शुद्ध होने के बाद फिर अशुद्ध होने का कोई कारण नहीं रह जाता। 8. चारित्र का व्यवहारिक स्वरुप: यह तो संसार के स्वरुप से ही स्पष्ट है कि संकल्पतः धारणीय चारित्र निगोद से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक संभव ही नहीं है क्योंकि वहाँ कर्तव्याकर्तव्य का विवेक हो नहीं सकता। किन्तु संज्ञी अवस्थाओं में भी देवयोनि में यह चारित्र धारण नहीं किया जाता। चारित्र धारण करने के लिए मनुष्य योनि और तिर्यञ्च संज्ञी पंचेन्द्रिय योनि ही बचती हैं। अर्थात् जहाँ एक ओर चारित्र का उपादान आत्मा का स्वरुप है वहीं दूसरी ओर निमित्त भी तदनुरुप आवश्यक है। यदि चारित्र के प्रवृत्तिपक्ष और निवृत्तिपक्ष देखे जायें तो यह हस्तमालकवत् स्पष्ट हो जाता है कि वर्जनापक्ष मनुष्य योनि के लिए ही कहा गया है। चाहे वह असत्य वचन का त्याग हो या परस्त्री गमन या वेश्यावृत्ति का त्याग हो अथवा परिग्रह का त्याग या परिमाण - ये सब के सब मनुष्य योनि से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार प्रवृत्तिपक्ष में चतुर्विशति स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि सब मानव के करणीय हैं। यद्यपि तिर्यग्योनि में भी अनेक जीवों के अमुक व्रतरुप चारित्र धारणा किये जाने के अनेक दृष्टान्त पुराणों में आये है किन्तु उन सबका सम्बन्ध किसी न किसी रुप में मानव योनि के जाति-स्मरण (पूर्वजन्म के स्मरण) से जुड़ा हुआ है। संक्षेप में हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि चारित्रधारण का सीधा सम्बन्ध मनुष्य योनि से है। जब हम इस चारित्र के विकास की भूमिकाओं की ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमें एक अन्य निमित्त की जानकारी मिलती है कि अशुभोपयोग और शुभोपयोग के समूल नाश के लिए मनुष्य योनि में भी वज्रऋषभनाराच संहनन का होना आवश्यक है। इसके अभाव में जीव के राग-द्वेष भाव नष्ट नहीं हो पाते। इसका कारण यह है कि शरीर संहनन की दृढता के बिना पौद्गलिक प्रभावों से मन शीघ्र ही प्रभावित हो जाता है और मन की एकाग्रता नहीं हो पाती। मन ही बन्ध और मोक्ष में निमित्त कारण हैं। सिद्धान्त को समझने का विस्तार बहुत है, जैसे - एकाग्र होने के साथ चिन्ता का रोकना ध्यान कहलाता है38; इस ध्यान के प्रकार, उनमें कषायों की तरतमता (लेश्या), उनके साथ-साथ कर्मों की क्षयोपशम की स्थिति, परिषहजय आदि चारित्र का ही विस्तार है। किन्तु संक्षेप में इसे रागद्वेषनिवृत्तिमूलक अहिंसा कहा जाता है। 9. चारित्र का आधार : जैसा कि पूर्व में कहा गया है, जीव के दो तरह के परिणाम होते हैं : स्वभाव परिणाम और विभाव परिणाम । विभाव परिणाम भी शुभ और अशुभ रुप से दो प्रकार के हैं, इन्हीं दो वर्गों में समस्त विकारी भाव समाये हुए हैं। इन्हें दूसरे प्रकार से (पर्यायवाची नामों से नहीं) राग और द्वेष के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जाता है। न्यायदर्शन में रागद्वेषमोह रुप त्रैराश्य में मोह को भी सम्मिलित किया गया है। जैन सिद्धान्त में मोह को तो प्रथमतः ही घातक माना गया है (दर्शनमोह और चारित्रमोह नाम से इसका बहुत विस्तार से विवेचन है), इसके 37. क. धन्यकुमार चरित्र, सुनन्दा-रुपसेन अधिकार, जीव-विचार प्रकरण -महेसाणा प्रकाशन ख. कल्पसूत्र बालावबोध, पंचम व्याख्यान, चंडकौशिक सर्प उपसर्गाधिकार 38. क. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् आ मुहूर्तात् । -तत्त्वार्थसूत्र 9/27-28 ख. तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्। - पातञ्चलयोगदर्शन 3/2 39. तत्रैराश्यं रागद्वेषमोहार्थान्तराभावात् । न्यायदर्शन 4/1/3 40. तत्त्वार्थसूत्र 8/10 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [188]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन उदय में चारित्र की भूमिका (सम्यक् श्रद्धा) ही नहीं बन पाती। पीडित मनुष्यतनधारियों को आत्मवत् समझकर धर्म के क्षेत्र में सम्यक् श्रद्धा के बाद ज्ञानपूर्वक चारित्र में राग और द्वेष को नष्ट करने समान रूप से अवसर देनेवाली धर्मसभा आयोजिक की। तात्पर्य पर परम अहिंसा प्रगट होती है जिससे आत्मा के शुद्ध परिणामों की यह कि अहिंसा की विविध प्रकार की साधनाओं के लिए आत्मा हिंसा नहीं हो पाती । अहिंसा का स्वरुप पुरुषार्थसिद्धयुपाय में निम्नलिखित के स्वरुप और उसके मूल अधिकार-मर्यादा का ज्ञान उतना ही प्रकार से बताया गया है आवश्यक है जितना कि पर पदार्थो से विवेक प्राप्त करने के लिए अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । 'पर' पुद्गल का ज्ञान । बिना इन दोनों का वास्तविक ज्ञान हुए तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। सम्यग्दर्शन की वह अमरज्योति नहीं जल सकती, जिसके प्रकाश यही भीतरी अहिंसा समग्र अन्त:चारित्र और बहि: चारित्र में मानवता मुसकुराती है और सर्वात्मसमता का उदय होता है। की नीव है। लौकिक अहिंसा का बीज भी यही है। इसलिए अहिंसा इस आत्मसमानाधिकार का ज्ञान और उसको जीवन में उतारने को ही चारित्र का आधार कहा जाता है। की दृढनिष्ठा ही सर्वोदय की भूमिका हो सकती है। अतः वैयक्तिक अहिंसा की साधना का मुख्य आधार जीव तत्त्व के स्वरुप दुःख की निवृत्ति तथा जगत् में शान्ति स्थापित करने के लिए जिन और उसके समान अधिकार की मर्यादा का तत्त्वज्ञान ही बन सकता व्यक्तियों से यह जगत् बना है उन व्यक्तियों के स्वरुप और अधिकार है। जब हम यह जानते और मानते हैं कि जगत् में वर्तमान सभी की सीमा को हमें समझना ही होगा। हम उसकी तरफ से आँख आत्माएँ अखंड और मूलतः एक-एक स्वतंत्र समान शक्तिवाले द्रव्य मूंदकर तात्कालिक करुणा या दया के आँसू बहा भी लें, पर उसका हैं। जिस प्रकार हमें अपनी हिंसा रुचिकर नहीं है, हम उससे विकल स्थायी समाधान नहीं कर सकते । अतः जैन सिद्धान्त ने बन्धनमुक्ति होते हैं और अपने जीवन को प्रिय समझते हैं; सुख चाहते हैं, दुःख के लिये जो 'बंधा है तथा जिससे बंधा है' (बन्ध और बन्धकृत) से घबडाते हैं उसी तरह अन्य आत्माएँ भी यही चाहती हैं। यही इन दोनों तत्त्वों का परिज्ञान आवश्यक बताया। बिना इसके बन्ध हमारी आत्मा अनादिकाल से सूक्ष्म निगोद, वृक्ष-वनस्पति, क्रीडा- परम्परा के समूलोच्छेद करने का सङ्कल्प ही नहीं हो सकता और मकोडा, पशु-पक्षी आदि अनेक शरीरों को धारण करती रही है और न चारित्र के प्रति उत्साह ही हो सकता है। चारित्र की प्रेरणा तो न जाने इसे कौन-कौन शरीर धारण करना पडेंगे। मनुष्यों में जिन्हें विचारों से ही मिलती है। हम नीच, अछूत आदि कहकर दुरदुराते हैं और अपनी स्वार्थपूर्ण सामाजिक, उपसंहार :राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्थाओं और बन्धनों से उन समानाधिकारी सुख का उपाय अर्थात् दुःख से अत्यन्तनिवृत्ति का मार्ग मनुष्यों के अधिकारों का दलन करके उनके विकास को रोकते हैं, सम्यग्दर्शन-ज्ञान से युक्त सम्यक्चारित्र है। और पूरे सम्यक्चारित्र उन नीच और अछूतों में भी हम उत्पन्न हुए होंगे। आज मन में दूसरों का सार भावात्मक अहिंसा अर्थात् रागादि विकारी भावों की उत्पत्ति के प्रति उन्हीं कुत्सित भावों को जाग्रत करके उस परिस्थिति का न होना है। वस्तुतः यह कथन भी एकांगी है; इसमें केवल निर्माण अवश्य ही कर रहे हैं जिससे हमारी उन्हीं जातियों में उत्पन्न नकारात्मक पक्ष का कथन किया गया है। रागादि की उत्पत्ति न होने की अधिक संभावना है। उन सूक्ष्म निगोद से लेकर मनुष्यों होने पर क्या होता है और कैसे होता है, यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः तक के हमारे सीधे संपर्क में आनेवाले प्राणियों के मूलभूत स्वरुप रागादि विकारी भावों की उत्पत्ति के अभाव में जीव की पूर्ण और अधिकार को समजे बिना हम उन पर करुणा, दया आदि के स्वभावोन्मुखता हो जाती है, और पूर्ण स्वानुभव की प्रक्रिया आरम्भ भाव ही नहीं ला सकते, और न समानाधिकारमूलक परम अहिंसा हो जाती है। एक बार इस प्रकार के पूर्ण स्वानुभव की प्रक्रिया के भाव ही जागृत कर सकते हैं। चित में जब उन समस्त प्राणियों हो जाने के बाद परोन्मुखता का कोई कारण न होने से जीव सदा में आत्मौपम्य की पुण्यभावना लहर मारती है तभी हमारा प्रत्येक ही उसी अवस्था में बना रहता है। उच्छ्वास उनकी मंगल कामना से भरा हुआ निकलता है और इस यहाँ जितने सरल और अल्प शब्दों में और अल्प समय पवित्र धर्म को नहीं समजनेवाले संघर्षशील हिंसकों के शोषण और में यह कह दिया गया है वह सब इतनी सरलता से नहीं जाता, दलन से पिसती हुई आत्मा के उद्धार की छटपटाहट उत्पन्न हो सकती कारण कि जीव अनादि वासना से दूषित है, और उसके ये संस्कार है। इस तत्त्वज्ञान की सुवास से ही हमारी परिणति परपदार्थों के संग्रह शीध्र नहीं छूटते, जैसे तम्बाकू, गाँजा, भाँग, मदिरा आदि का नशा और परिग्रह की दुष्प्रवृत्ति से हटकर लोककल्याण और जीव सेवा शीध्र नहीं छूटता किन्तु धीरे धीरे और दृढ मन से और बहुत कम की ओर झुकती है। अतः अहिंसा की सर्वभूतमैत्री उत्कृष्ट साधना लोगों का ही छूटता है। अविद्या के इस संस्कार को छोड़ने से आत्मा के लिए सर्वभूतों के स्वरुप और अधिकार का ज्ञान तो पहले चाहिये के विकास की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। आत्मा का विकास ही। न केवल ज्ञान ही, अपितु चाहिये उसके प्रति दृढ निष्ठा।। किस प्रक्रिया से होता है, कितने चरणों में होता है, उसे जैनागम इसी सर्वात्मसमत्व की मूलज्योति महावीर बननेवाले में 'गुणस्थान' शब्द से कहा गया है। गुणस्थान का स्वरुप समझने क्षत्रिय राजकुमार वर्धमान के मन में जगी थी और तभी वे प्राप्त के लिए आगे 'गुणस्थान' नाम से एक शीर्षक आरम्भ किया जा राजविभूति को बंधन मानकर बाहर-भीतर की गांठे खोलकर रहा है। परमनिर्ग्रन्थ बने और जगत् में मानवता को वर्ण भेद की चक्की में पीसने वाले तथोक्त उच्चाभिमानियों को झकझोरकर एक बार स्ककर सोचने का शीतल वातावरण उपस्थित कर सके । उनने अपने त्याग और तपस्या के साधक जीवन से महत्ता का मापदण्ड ही बदल दिया और उन समस्त त्रस्त, शोषित, अभिद्रावित और 41. पुरुषार्थसिद्धयुपाय Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [189] | 4. गुणस्थान | पिछले शीर्षक में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि अनादि संसार के दुःखो से आत्यन्तिक मुक्ति के लिए मोक्षमार्ग का आलम्बन लेना ही एक मात्र उपाय है। वह उपाय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररुप रत्नत्रय नाम से जाना जाता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक क्रियान्वित चारित्र से संसारदुःख के कारणभूत कर्मों की आत्यन्तिक निर्जरा हो जाने से जीव की जो शुद्ध अवस्था प्रगट होती है वह अनन्त होती है। किन्तु यह अवस्था प्राप्त करना क्रमशः ही सम्भव होता है। इस क्रम में आत्मा के गुणों का विकासोन्मुख आविर्भाव होता जाता है और अन्त में आत्मा की सभी शक्तियों का सम्पूर्ण उदय हो जाता है। विकासोन्मुख आत्मा की जो जो अवस्थाएँ होती हैं, उनका वर्गीकरण 14 स्थानों के रुप में किया गया है, जैनसिद्धान्त में इन्हें 'गुणस्थान' नाम से जाना जाता है। यहाँ पर गुणस्थानों के स्वरुप पर किंचित् प्रकाश डाला जा रहा है। संसार में विद्यमान अनन्त जीवों को आत्यंतिक सुख इष्ट जन्म-मरण रुप संसार से छूट जाते हैं परन्तु संसारी जीव उस समय है और अहर्निश उसकी प्राप्ति की आकांक्षा से प्रेरित होकर वे तक जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहकर विविध प्रकार के शरीर धारण आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की ओर अग्रसर हैं। उन सब में विविध करते रहते हैं जब तक कि वे मुक्त नहीं हो जाते। प्रकार की विषमताएँ और विविधताएँ है, बाह्य और अभ्यन्तर जीवन इस दृष्टि से किये गये संसारी जीवों के वर्णन के तीन की बनावट में विभिन्नताएँ है। प्रकार हैं - जीवस्थान, मार्गणास्थान और गणस्थान। इसमें से दर्शनान्तरों ने एवं सभी सामान्य विचारकों ने इन विभिन्नताओं प्रत्येक के चौदह-चौदह भेद हैं। के कारणों की मीमांसा की है और किसी न किसी रूप में अथवा 'गुणस्थान' शब्द के पर्यायःप्रकारान्तर से जैन दर्शन की तरह कर्म को सुखदुःख का कारण 'गुणस्थान' गुण और स्थान इन दो शब्दों के योग से निष्पन्न माना है। पारिभाषिक शब्द है। इसकी पारिभाषिक व्याख्या करने के पूर्व जैन इसके अतिरिक्त जो दर्शन आस्तिक अर्थात् आत्मा, पुनर्जन्म, दर्शन में इसके प्रयोग और प्रचार के इतिहास पर दृष्टिपात कर लेना उसकी विकासशीलता तथा मोक्ष पाने की योग्यता माननेवाले हैं, उन्होंने युक्ति-संगत होगा। किसी न किसी रूप में आत्मा के क्रमिक विकास का विचार किया 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग आगमोत्तर-कालीन टीकाकारों है। यह विचार जैनदर्शन में गुणस्थान, योगदर्शन में चित्तभूमियाँ', एवं आचार्यों द्वारा रचित कर्मग्रंथों एवं अन्य धार्मिक ग्रंथो में किया वैदिकदर्शन में भूमिकाएँ', एवं बौद्धदर्शन में अवस्थाओं के नाम गया है। किन्तु आगमों में गुणस्थान के बदले जीवस्थान शब्द का से प्रसिद्ध है। गुणस्थानों के वर्णन में जैसी सूक्ष्मता और विस्तृतता प्रयोग देखने में आता है और आगमोत्तरकालीन ग्रंथो में जीवस्थान जैनदर्शन में है वैसी अन्य दर्शनों में नहीं है, फिर भी कुछ न कुछ शब्द के लिए भूतग्राम शब्द प्रयुक्त किया गया है। समवयांग सूत्र समानता है। उसका प्रस्तुत शोध प्रबंध में यथास्थान संकेत किया में जीवस्थानों की रचना का आधार कर्मविशुद्धि कहा है और उसकी जायेगा। लेकिन इससे पूर्व गुणस्थानों के माध्यम से यहाँ जैन दर्शन टीका में अभयदेवसूरिजीने भी गुणस्थानों को ज्ञानावरणादि कर्मो की के विचार को प्रस्तुत करते हैं, जिससे यह ज्ञात हो सकेगा कि कर्मों तरतमता से उत्पन्न बताया है। उनके अभिप्रायानुसार आगमों में जिन से आवृत होने पर भी स्वभावतः उत्क्रान्तिशील आत्मा विकास पथ 1. अस्ति नास्ति दृष्टं मतिः । पाणिनि अष्टाध्यायी 4/4/60 पर बढती हुई स्वरुपबोध एवं स्वरुपलाभ द्वारा जन्म-मरण के चक्र 2. अ.रा.पृ. 3/913 को भेद कर अपने स्वरुप में कैसे स्थित होती है। . 3. क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चितभूमयः । पातञ्जल योगसूत्र जीव एवं उसकी अवस्थाएँ : योगवासिष्ठ, उत्पत्तिप्रकरण सर्ग 117/2 तीन लोक में अनन्त जीव हैं। 'जीव' शब्द की व्याख्या भारतीय दर्शन, बौद्धदर्शन, पृ. 129, 130-ले. बलदेव उपाध्याय करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा गया है कि जो प्राणों को इहोत्तरोत्तरेगुणारुढानां जन्तूनामसंख्येयगुणनि राभाक्त्वम्, उत्तरोत्तरगुणाश्व यथाक्रमं विशुद्धयप्रकर्षरुपाः सन्तो धारण करता है वह जीव है। वहाँ 'जीव' का विशेष परिचय देते गुणस्थानकान्युच्यते । अ.रा.पृ. 3/913-914 गुणट्ठाण शब्द हुए कहा है-"मिथ्यात्वादि से कलुषितरुप से सातावेदनीयादि कर्मों 7. जीव-जीवितुं प्राणान् धारयितुम् । अ.रा.पृ. 4/1519 का निवर्तक, उन कर्मो के फल का भोक्ता, नरकादि भवों में कर्मो 8. अ.रा.पृ. 4/1522; संसारिणो मुक्ताश्च । तत्त्वार्थसूत्र 2/10 का संसर्ता एवं कर्मों का नष्ट करनेवाला जो है उसे जीव, सत्त्व, 9. क. जीव......युक्तः संबद्धो ज्ञानाऽऽवरणादिकर्मसंयुक्तः।" अ.रा.पृ. 4/ 1519 प्राणी या आत्मा कहते हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने ख. "संसरणं ज्ञानावरणादिकर्मयुक्तानां गमनं स एषामस्तीति संसारिणः।" जीवों के भेद बताते हुए कहा है -अ.रा.पृ. 7/256 "नाना संसारिमुक्ताख्यो, जीवः प्रोक्तो जिनाऽऽगमे" क. ".....व्यपगतसमस्तकर्मसङ्गमाः सिद्धः।" अ.रा.पृ. 4/1522 अर्थात् जीव के संसारी और मुक्त - ये दो भेद हैं। ज्ञानावरणादि ख. गुणस्थान क्रमरोह, 129, 130, 131 11. अ.रा.पृ. 4/1525, एवं 4/1548; कर्मग्रन्थ 4/3 कर्मो से युक्त जीव संसारी कहलाता है और समस्त कर्मो से मुक्त 12. अ.रा.पृ. 4/924, 925, 926; 4/1551, 1552; 6/50 जीव 'मुक्त' या 'सिद्ध' कहलाता है। 1 मुक्त जीव तो सदा के लिये 13. अ.रा.पृ. 3/914 कर्मग्रंथ 2/1,2 For Private & Personal use only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [190]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चौदह जीवस्थानों के नामों का उल्लेख है; वे ही नाम गुणस्थानों क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था से होनेवाले परिणामों का स्थान के हैं। ये चौदह जीवस्थान कर्मो के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम अथवा परमपद अर्थात् मोक्षरुपी प्रासाद के शिखर पर चढने हेतु आदि भावाभावजनित अवस्थाओं से बनते हैं तथा परिणाम और परिणामी मिथ्यादृष्टि से अयोगी केवली पर्यन्त के जीवों का स्वरुप (दर्शाने) में अभेदोपचार होने से जीवस्थान को गुणस्थान कहते हैं।।। षट्खंडागम- वाली सोपान पंक्ति (निःश्रेणी)। उन उन परिणामों से युक्त जीव धवला टीका के अनुसार जीवगुणों में रहता है, अतः 'जीवसमास' उस उस गुणस्थानवाले कहे जाते हैं। शब्द का प्रयोग देखने में आता है और इसका कारण स्पष्ट करते विकास की ओर अग्रसर आत्मा यद्यपि उस प्रकार की संख्यातीत हुए लिखा है कि कर्म के उदय से उत्पन्न गुण औदयिक और कर्म आध्यात्मिक भूमिकाओं का अनुभव करती है; लेकिन उन सब का के उपशम से उत्पन्न गुण औपशमिक है, कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न संक्षेप में वर्गीकरण करके चौदह विभाग किये गये हैं। वे चौदह गुण क्षायोपशमिक है, कर्म के क्षय से उत्पन्न गुण क्षायिक है और गुणस्थान कहलाते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में उनके नाम निम्नानुसार कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना स्वभावतः होने है - वाला गुण पारिणामिक है। इन गुणों के सहचारी होने से जीवसमास (1) मिथ्याष्टि (2) सास्वादन सम्यष्टि शब्द का प्रयोग देखने में आता है तथा संक्षेप और ओघ, सामान्य (3) सम्यग्-मिथ्याष्टि (मिश्र) (4) अविरत सम्यगष्टि और जीवसमास-ये चारों गुणस्थान के पर्यवाची नाम है।5। (5) देशविरत (6) प्रमतसंयत इस प्रकार हम देखते हैं कि आगमों में यद्यपि 'गुणस्थान' (7) अप्रमतसंयत (8) निवृत्ति (अपूर्वकरण) शब्द का प्रयोग नहीं है, लेकिन उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा जिस आशय (9) अनिवृत्ति बादर संपराय (10)सूक्ष्म संपराय की अभिव्यक्ति करने के लिए 'गुणस्थान' शब्द का उपयोग किया (11) उपशान्तकषाय वीतराग-छद्मस्थ (12)क्षीण-कषाय वीतरागगया है, उसके लिए वहाँ 'जीवस्थान' शब्द रखा है। आगमोत्तरकालीन (13) सयोगी केवली छद्मस्थ साहित्य में 'गुणस्थान' शब्द के अधिक प्रचलित होने का कारण (14) अयोगी केवली यह है कि औदयिक, औपशमिक, क्षयोपशमिक और क्षायिक गुण गोम्म्टसार एवं बृहद्रव्यसंग्रह में 'सास्वादन' गुणस्थान का तो जीव में कर्म की अवस्थाओं से संबंधित हैं, किन्तु पारिणामिक नाम 'सासादन' और 'सासन' दिया है। भाव एक एसा गुण है, जिसमें किसी अन्य संयोग की अपेक्षा नहीं 1 मिथ्यात्व गणस्थ 1. मिथ्यात्व गुणस्थान :होती16, वह स्वाभाविक है। अतः इस गुण की प्रमुखता के कारण अभिधान राजेन्द्र कोश में मिथ्यात्व का परिचय देते हुए अभेदोपचार से जीव को भी गुण कहा और गुण की मुख्यता से आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने लिखा है - दर्शनमोहनीय पश्चाद्वर्ती साहित्य में संभतः 'गुणस्थान' शब्द मुख्य एवं जीवस्थान' कर्म के भेद मिथ्यात्व की प्रबलतम स्थिति यहाँ होने से इस शब्द गौण हो गया। कारण कुछ भी रहा हो, लेकिन आगमों और गुणस्थान का नामकरण किया गया है। मिथ्यात्व मोहनीय के उदय पश्चाद्वर्ती साहित्य में शाब्दिक भेद होने पर भी गुणस्थान व जीवस्थान से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा, प्रतिपत्ति, विश्वास) मिथ्या (विपरीत) शब्द का आशय एक ही है। इसमें किसी प्रकार की मत-भिन्नता हो जाती है, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। यद्यपि मिथ्यावादी की नहीं है। अर्थात् 'गुणस्थान' शब्द आगमों में उल्लिखित 'जीवस्थान' दृष्टि विपरीत है। फिर भी वह किसी अंश में यथार्थ भी होती शब्द का पर्याय है। है। क्योंकि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु-पक्षी आदि रुप में गुणस्थान शब्द का परिभाषा एवं अथ:- जीव को जानता और मानता है। वह अहिंसा सत्य आदि गुणों 'गुणस्थान' शब्द का अर्थ गुणों (आत्मशक्तियों) का स्थान। को उत्तम मानता है। यह उसका गुण है और इसी गुण की अपेक्षा अभिधान राजेन्द्र कोश में 'गुणस्थान' शब्द की परिभाषा देते हुए से मिथ्यादृष्टि जीव के स्वरुप विशेष को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने लिखा है - "तत्र गुणा हैं। इसका अपर नाम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। ज्ञानदर्शनचारित्रस्मा जीवस्वभावविशेषाः, स्थानं पुनरत्र तेषा मिथ्यात्व को भी गुणस्थान मानने का कारण यह है कि शुद्धिविशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरुपभेदः, तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा 14. भूयग्गाम - भूतग्राम । भूतानि जीवास्तेषां ग्रामः समूहो भूतग्रामः । जीवसमूहे इति कृत्वा गुणानां स्थानं गुणस्थानम्।" इसे ही और स्पष्ट किया चउद्दस भूयग्गामा पण्णत्ता। तं गया है - जहा-सुहुमा अपज्जत्तया.....त्वसंज्ञिनः इति । अथवा चतुर्दशभूतग्रामाः चतुर्दश इहोत्तरोत्तरगुणारुढानां जन्तुनामसंख्येयगुण निर्जरा गुणस्थानकानि। गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 3 पर सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका, पृ. 82 भाक्त्वम्, उत्तरोत्तरगुणाश्च यथाक्रमं अविशुद्धयपकर्ष-विशुद्धि 16. अ.रा.पृ. 6/1500, 6/615: 3/907 प्रकर्षरुपाः सन्तो गुणस्थानकान्युच्यते । 17. अ.रा.पृ. 5/1599, 1600 अथवा 18. अ.रा.प. 3/913,914 परमपदप्रासादशिखरारोहणसोपानकल्पे मिथ्यादृष्टया- 19. गुणा ज्ञानोदयस्तेषां स्थानं नाम स्वरुपभित् । दिका - योगिकेवलिपर्यवसाने जीवानां स्वस्प -भेदो। । शुद्धयशुद्धिप्रकर्षापकर्षोत्थात्र प्रकीर्त्यते ॥1133।। - द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग ___अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्ररुप जीवस्वभाव-विशेष, आत्मा ___3/1133 20. अ.रा.प. 3/914, गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 9, 10 के विकास की क्रमिक अवस्था अथवा आत्मगुणों या आत्मिक 21. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 9; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 130 की टीका शक्तियों के आविर्भाव की, उनके शुद्ध कार्यरुप में परिणत होते 22. अ.रा.पृ. 6/272, 274, 277; गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 15 व टीका; रहने की तरतम भावापन्न अवस्था में क्रमश: शुद्ध और विकास सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पृ. 91; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1134 करती हुई आत्म-परिणति का स्थान अथवा कर्मों की उदय, उपशम, से 1140; गुणस्थान क्रमारोह गाथा 6 15. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [191] जिस प्रकार सघन बादलों का आवरण होने पर भी सूर्य की प्रभा सर्वथा आच्छादित नहीं हो जाती, किन्तु कुछ न कुछ खुली रहती है, जिससे दिन रात का व्यवहार किया जाता है। उसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय होने पर भी जीव का दृष्टिगुण सर्वथा ढंक नहीं जाता, किन्तु आंशिक रुप में एक का प्रकार अव्यक्त स्पर्श मात्र उपयोग होता है। यदि यह न माना जाये, तो निगोदिया जीव अजीव कहलायेगा। इसलिए मिथ्यात्व को गुणस्थान माना जाता है। इस गुणस्थानवी जीव की आध्यात्मिक स्थिति पूर्ण रुप से निम्नतम स्तर की होती है तथा राग, द्वेष आदि के वशीभूत होने से वह आध्यात्मिक सुखों से सर्वथा वंचित रहता है। सुदेव में देव बुद्धि, सुगुरु में गुरु बुद्धि और सुधर्म में धर्म बुद्धि सम्यक्त्व है, जब कि सुदेव में देवबुद्धि का अभाव और सुगुरु में गुरुबुद्धि का अभाव और सुधर्म में धर्मबुद्धि का अभाव; इसी प्रकार कुगुरु में गुरुबुद्धि और कुदेव में देवबुद्धि और कुधर्म में धर्मबुद्धि मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाली मिथ्या पर्यायों का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धावाला होता है। जिस प्रकार पितज्वर से युक्त जीव को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता, कडवा लगता है; उसी प्रकार मिथ्यात्वी जीव को यथार्थ धर्म का श्रवण, मनन, चिन्तन अच्छा नहीं लगता । वह दोषदर्शन की ओर उन्मुख रहता है । इसीलिए मिथ्यादृष्टि को सम्यक्त्वी नहीं कहते। मिथ्यात्व के भेदः अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने मिथ्यात्व के अनेक भेद-प्रभेद दर्शाये है25 | स्थानांगसूत्र में मिथ्यात्व के (1) अक्रिया - असम्यक्रिया (2) अविनय और (3) अज्ञान - ये तीन भेद बताये है26 । सम्मति तर्क में मिथ्यात्व के षट् स्थान पर निम्नामुसार बताये हैं - (1) आत्मा नहीं है (2) वह नित्य नहीं है (3) कर्ता नहीं है (4) भोक्ता नहीं है (5) निर्वाण नहीं है और (6) मोक्ष का उपाय नहीं है। धर्मरत्न प्रकरण के अनुसार मिथ्यात्व के पांच प्रकार है-8 :1. आभिग्राहिक मिथ्यात्व - तत्व के स्वरुप का स्पष्ट बोध नहीं होने पर भी जो अज्ञानी व्यक्ति अपनी वंश-परम्परा से प्राप्त पदार्थ का इस प्रकार से स्वीकार करता है कि उसे अनेक युक्तिप्रयुक्ति के द्वारा कोई तत्त्व का वास्तविक अर्थ समझाने का प्रयत्न करे तो भी समझे नहीं, और अपने पकडे हुए अर्थ को छोड़ने के लिए तैयार न हो, उसे आभिग्राहिक मिथ्यात्व कहते हैं। कुदर्शन के आग्रही व्यक्तियों में इस प्रकार का मिथ्यात्व होता है। सम्यग्दृष्टि आत्मा में कभी भी अपरीक्षित सिद्धांत का पक्षपात नहीं होता। अतः जो व्यक्ति परीक्षापूर्वक सत्य तत्त्व को स्वीकार करता है और असत्य तत्त्व का खंडन करता है, उसे आभिग्राहिक मिथ्यात्व नहीं कह सकते। सम्यग्दृष्टि आत्मा आगम से बाधित कुलाचार को महत्त्व नहीं देती। नामधारी जैन भी यदि आगम से बाधित कुलाचार को प्रधानता देकर अपने कुलाचार का आग्रह रखे तो वह भी आभिग्राहिक मिथ्यात्व ही है। जो व्यक्ति स्वयं तत्त्व की परीक्षा करने में असमर्थ हो, किन्तु तत्त्वपरीक्षक गीतार्थ गुरु के आश्रित रहकर जिनवचन में श्रद्धावान् हो तो उसे सम्यक्त्वी मानना चाहिये। 2. अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व - सत्य-असत्य की परीक्षा बिना सभी दर्शनों को समान मानना अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व है। एसे मिथ्यात्वी में स्वदर्शन की बात का विशेष आग्रह नहीं होता। इस मिथ्यात्वदृष्टि में तत्त्व विषयक अज्ञान अवश्य होता है, किन्तु किसी प्रकार का आग्रह नहीं होता है। वह अपनी बात के ही समान दूसरों की बात को भी सत्य मानकर स्वीकार लेता है। 3. आभिनिवेशिक मिथ्यात्व - अपना पक्ष असत्य सिद्ध होने पर भी उस बात को सत्य सिद्ध करने के लिए आग्रहशील बनना, आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व सम्यक्त्व से पतित आत्मा को ही होता है। सम्यग्दर्शन को अप्राप्त आत्मा इस मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करती। सम्यग्दृष्टि आत्मा कभी अशुभ कर्म के उदय से जिनप्रणीत आगम से विरुद्ध बात को स्वीकार कर लेती है, पश्चात् कोई सत्य तत्त्व को समझाने वाला मिले तो भी वह उस सत्य का स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता और अपने झूठे अर्थ को ही सत्य सिद्ध करने के लिए सदैव प्रयत्नशील होता है। इस प्रकार विपरीत पदार्थ के आग्रह के कारण वह सम्यगदर्शन से भ्रष्ट होता है और मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। इस प्रकार का मिथ्यात्व आभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहलाता है। जमाली ने पहले महावीर भगवान के पास दीक्षा ली। शास्त्रों का गहन अध्ययन कर वे श्रुतपारगामी बने । एक बार शारीरिक अवस्वस्थता के कारण उन्होंने अपने शिष्यों को संथारा तैयार करने को कहा। गुर्वाज्ञा होते ही वे शिष्य संथारा तैयार करने लगे। अभी संथारे की क्रिया आरम्भ हुई ही थी, तभी शिष्यों को उन्होंने पूछा 'संथारा तैयार हो गया?' उन शिष्यों ने 'कडेमाणे कडे (क्रियामाणं कृत)' इस भगवद्वचनानुसार 'हाँ' कह दिया। तभी जमाली ने आकर देखा संथारा तैयार नहीं है। बस, इसके साथ ही उसके हृदय में 'कडेमाणे कडे' भगवद्वचन के प्रति संदेह हो गया। इस प्रकार जिनवचन में संदेह हो जाने के कारण वे सम्यक्त्व से भ्रष्ट हुए और अनेक युक्ति-प्रयुक्तियों से समजाने पर भी वे सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए। अत: आभिनिवेशिक मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। 4.सांशयिक मिथ्यात्व - जिनप्ररुपित तत्वों में शंकाशील होकर उनके सर्वज्ञत्व में शंकाशील होने को सांशयिक मिथ्यात्व कहते हैं। अर्थात् जिनवचन की प्रामाणिकता में संशय पैदा होना सांशयिक मिथ्यात्व कहलाता है। 5. अनाभोगिक मिथ्यात्व - साक्षात् और परम्परा से तत्त्व की 23. सव्वजीवाणं वि य , अक्खरस्स अणंतमो, भागो निच्च उग्घाडिओ चिट्ठइ | जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेण जीवो अजीवत्तणं पाउणिज्जा ॥ मिच्छत्तं वेदंतो जीवो, विवरीय दंसणो होदि । जय धम्म रोचेदि हु, य दुई खु रसं जहा जरिदो ॥-गोम्मटसार जीवकांड-17 25. अ.रा.पृ. 6/272-273 26. स्थानांग - 3/3, वही 27. अ.रा.पृ. 6/273; सन्मति तर्क 3/54 28. अ.रा.पृ. 6/273; धर्मरत्नप्रकरण, द्वितीय अधिकार 29. अ.रा.पृ. 2/278 30. अ.रा.पृ. 1/309, 6/273 31. अ.रा.पृ. 6/273 32. अ.रा.पृ. 7/244 33. अ.रा.पृ. 1/309 For Private & Personal use only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [192]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अप्रतिपत्ति (अस्वीकृति/अप्राप्ति) को अनाभोगिक मिथ्यात्व कहते हैं। एकेन्द्रिय आदि जीवों को जो मिथ्यात्व होता है, वह अनाभोगिक मिथ्यात्व है। स्थानांग सूत्र निर्दिष्ट 10 प्रकार के मिथ्यात्व (1) धर्म में अधर्मबुद्धि - श्रीजिनप्रणीत धर्म को अधर्म कहना। (2) अधर्म में धर्मबुद्धि - हिंसा, जूठ आदि आस्रवयुक्त दुःखदायी अधर्म को धर्म कहना। (3) मार्ग में उन्मार्गबुद्धि - पाँचो आस्रव का त्याग करके सम्यक्त्व सहित संवरभाव के सेवनरुप धर्ममार्ग को उन्मार्ग (अधर्म) कहना। (4) उन्मार्ग में मार्गबुद्धि-कुदेव-कुगुरु-कुधर्म के सेवनरुप उन्मार्ग को सन्मार्ग कहना। (5) साधु में असाधुबुदधि - 27 गुण युक्त तरण-तारण काष्ठ की नाव सदृश शुद्ध धर्मप्ररुपक सर्वविरतिधर साधु को असाधु कहना। (6) असाधु में साधु बुद्धि- आरंभपरिग्रहासक्त विषय-कषाययुक्त, लोभी, चमत्कारादि की बातों के द्वारा जूठी श्रद्धा करानेवाले लोहे की नाव जैसे असाधु को साधु कहना। जीव में अजीव संज्ञा - एकेन्द्रियादि जीवों को अजीवरुप समजना । जैसे वनस्पति, जल, पृथ्वी आदि को सजीव नहीं मानना, अण्डे अहिंसक है - एसा कहना। अजीव में जीव संज्ञा - जगत्प्रत्यक्ष अक्रिय एसे काष्ठपाषाण सुवर्णादि धातुओं को उपकारी के रुपमें जीव रुप में मानना। (9) मूर्त में अमूर्त संज्ञा - जगत में प्रत्यक्ष पूरण-गलन स्वभाववाले वर्ण-गंध-रस-स्पर्शयुक्ति अजीव पुद्गल द्रव्यों को अरुपी कहना । जैसे - वायुकाय जीवों के शरीर (पुद्गल) रुपी हवा को अरुपी कहना। (10) अमूर्त में मर्त संज्ञा - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन चारों अरुपी द्रव्यों को रुपी कहना। जैसे मुझ छद्मस्थ को आत्मा (परमात्मा) का रुप दिखता है - ऐसा कपटपूर्वक कहना। छ: प्रकार का मिथ्यात्व (1) लौकिक देवगत मिथ्यात्व - राग-द्वेषादि युक्त, अनेक रुप-स्वरुप धारण करनेवाले, स्त्री सङ्गी चमत्कारी, कदाग्रही, अभिमानी, विशेष शक्तिवान् देव देवी को आत्मशुद्धार्थे देवबुद्धि से मानना या पूजा-सत्कार इत्यादि करना। (2) लौकिक गुरुगत मित्यात्व - अठारह पापस्थान में लीन, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह में आसक्त, मनस्वी कुगुरु/कुबुद्धिदायकों को गुरुबुद्धि से मानना। (3) लौकिकपर्वगत मिथ्यात्व - इस लोक में प्रकट विषयासक्ति उत्पन्न करनेवाले और भावि सांसारिक विषयसुख के लिए विषयासक्त कुगुरु के द्वारा बताये पर्व दिनो में तत्संबंधी विधिविधान करना। (4) लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व - श्री अरिहन्तादि की मूर्ति के सामने अपने इसलोक-परलोक के सख की इच्छा से मन्नत लेना, याचना करना। (5) लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व - निर्ग्रन्थ उतम साधु भगवन्तों की भक्ति करके उनसे संसार-सुख की याचना करना अथवा साधु धर्म का उच्छेद कर मनमाना साधु जीवन जीनेवालों को सुसाधु (धर्मोपदेशक) मानकर उनकी सेवा सुश्रुषा करना। इससे जीव दुर्लभबोधि बनता है। (6) लोकोत्तरपर्वगत मिथ्यात्व- लोकोत्तर जिनप्रणीत पर्वदिनों में आत्म-कल्याणकारी रत्नयत्री की आराधना के बजाय विपरीत रुप से आराधना करना। चार प्रकार का मिथ्यात्व: (1) प्ररुपणा मिथ्यात्व - श्रीजिनप्रणीत नयप्रमाण सापेक्ष चार प्रकार के पुरुषार्थ संबंधी विपरीत प्ररुपणा करना। (2) प्रवर्तन मिथ्यात्व - उपरोक्त लौकिक-लोकोत्तर देवगुरु-धर्म गत मिथ्यात्व में से किसी भी प्रकार का मिथ्याचरण करना। (3) परिणाम मिथ्यात्व - जूठा हठवाद या एकांतदृष्टि रखना, जिनप्रणीत नवतत्त्वमय जगत्स्वरुप को स्याद्वादशैली से यथार्थ नहीं जानना, शास्त्रार्थ का कुतर्कपूर्वक अपलाप करना । (4) प्रदेश मिथ्यात्व - आत्मा के साथ बंधा हुआ मिथ्यात्व मोहनीय सत्ता में रहना। पंचेन्द्रिय जीवों में भी जो मुग्ध हैं और तत्त्व-अतत्त्व को समझने की शक्ति से रहित हैं, उन जीवो में भी अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है। मिथ्यात्व प्राप्ति के कारण: अभिधान राजेन्द्र कोश में मिथ्यात्व की प्राप्ति के चार कारण बताये हैं - (1) मतिभेद अर्थात् बुद्धिभ्रम से। (2) पूर्वाग्रह से (3) संसर्ग से और (4) अभिनिवेश अर्थात् कदाग्रह से। व्यवहार सूत्र के छठे उद्देश के अनुसार मतिभेदादि से क्रमशः जमालि, गोविंद, श्रावक भिक्षु और गोष्ठामाहिल मिथ्यात्वी हुए थे। काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद : काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद हैं - (1) अनादिअनन्त (2) अनादि-सान्त और (3) सादि-सान्त । प्रथम भेद का अधिकारी अभव्य जीव अथवा जाति भव्य (जो जीव कभी मुक्त नहीं होता) जीव है। दूसरा भेद उसकी अपेक्षा से हैं जो जीव अनादिकालीन मिथ्यादर्शन ग्रंथि का भेदन कर सम्यग्दृष्टि बन जाता है। यह जीव भव्य कहलाता है। तीसरा भेद उस जीव की अपेक्षा से हैं जो एक बार सम्यकत्व प्राप्त करने के बाद पुन: मिथ्यात्वी हो जाता है। इस जीव की अपेक्षा से प्रथम गुणस्थान की आदि (आरम्भ) तब होती है, जब वह सम्यक्त्व से पतित हो कर प्रथम गुणस्थान में आता है। अर्थात् उच्च गुणस्थान से पतित हो कर गिरतेगिरते मिथ्यात्व गुणस्थान में आने वाले जीव की अपेक्षा से सादिसान्त विकल्प है और जिसको एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी 34 सिद्धांतसार पृ. 62 35 सिद्धांतसार पृ. 63 36 सिद्धांतसार पृ. 64, 65 37. अ.रा.पृ. 6/269; 6/274; व्यवहारसूत्र 6 उद्देश Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [193]] है; वह निश्चित ही मोक्षगामी होता है। क्योंकि जिस जीव के लिए पर्याप्त नारकों में, पर्याप्त और अपर्याप्त-दोनों प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यंचो मिथ्यात्व की आदि हुई; उस मिथ्यात्व का अंत अवश्यंभावी है। को, देवता में भवनपति से उपरिम |ब्रेयक तक के पर्याप्त-अपर्याप्त तीसरे भेद की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान की जघन्य । देव-देवियों में एवं पर्याप्त मनुष्य स्त्री-पुरुष दोनों में होना संभव होता और उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और देशोनअर्धपुद्गल परावर्तनकाल 3. मिश्र गुणस्थान: अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार इसका पूरा नाम सम्यग्2. सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान : मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है; किन्तु संक्षेप में समझने के लिए इसे मिश्र यह दूसरे गुणस्थान का नाम है। प्राकृत भाषा में 'सासायण' गुणस्थान कहते हैं। दर्शन मोहनीय के तीन पुंजों सम्यक्त्व (शुद्ध), शब्द शुद्ध है। इसके संस्कृत में दो रुप मिलते हैं। सास्वादन और मिथ्यात्व (अशुद्ध) और सम्यग्-मिथ्यात्व (अर्धशुद्ध) में से जब अर्धशुद्ध सासादन। अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जो जीव औपशमिक पुंज का उदय होता है, तब जैसे शक्कर से मिश्रित दही का स्वाद सम्यक्त्व से तो च्युत हो गया है; परन्तु जिसने अभी मिथ्यात्व को कुछ खट्टा और कुछ मीठा अर्थात् मिश्र होता है; इसी प्रकार जीव प्राप्त नहीं किया है; एसे मिथ्यात्व के अभिमुख जीव के सम्यक्त्व की दृष्टि भी कुछ सम्यक् (शुद्ध) और कुछ मिथ्या (अशुद्ध) अर्थात् का जो आंशिक आस्वादन शेष रहता है। इस कारण प्रस्तुत गुणस्थान मिश्र हो जाती है। इसी से वह जीव सम्यक् मिथ्यादृष्टि को प्राप्त को सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत होता है और उसका स्वरुप-विशेष सम्यग्-मिथ्यादृष्टिमिश्र गुणस्थान होनेवाला जीव सम्यक्त्व की आसादना करता है; अत: इसे सासादन कहलाता है। इसमें एक ही जीव को एक ही काल में सम्यक्त्व और कहा जाता है। इस गुणस्थानवी जीव को सम्यक्त्व का स्वाद मिथ्यात्व रुप मिश्र परिणाम होते हैं । इस अवस्था में जीव सर्वज्ञप्रणीत चखने को मिलताहै; किन्तु पूरा रस नही मिलता यह प्रतिपाती सम्यक्त्व तत्त्वों पर न तो एकान्त रुचि करता है और न ही एकान्त अरुचि । की अवस्था है। सम्यक्त्व से पतन कराने में कारण है- अनन्तानुबंधी जैसे नारिकेल द्वीप में उत्पन्न मनुष्य को अन्न के प्रति प्रीति या अप्रीति कषाय का उदय । अर्थात् अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क में से किसी नहीं होती है वैसे मिश्र गुणस्थानवर्ती आत्मा भी मध्यस्थ रहता है । भी एक कषाय का उदय होने पर जीव सम्यक्त्व से पतित होगा दोलायमान स्थिति रहने से मिश्र गुणस्थान में न तो जीव और इस पतनोन्मुख स्थिति का दर्शक सासादन गुणस्थान है। इस स्थिति का काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट पर - भव संबंधी आयु का ही बंध कर सकता है और न ही उसका से छह आवलिका है। उक्त कथन का सारांश यह है कि उपशम मरण होता है। क्योंकि कोई भी जीव मरण को प्राप्त होता है तब सम्यक्त्व के काल में से जब जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से सम्यक्त्व या मिथ्यात्वरुप दोनों परिणामों में से किसी एक को प्राप्त छह आवलिका प्रमाण काल शेष रहे, तब जो औपशमिक सम्यक्त्वी करके ही मर सकती है। जो कि मिश्र गुणस्थान में संभव नहीं जीव अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक के भी उदय से सम्यक्त्व की विराधना होने पर सम्यक्त्व को छोडकर 38. गुणस्थान क्रमारोह मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है; किन्तु जिसने अभी तक मिथ्यात्व 39. सहेव तत्त्वश्रद्धानं रसास्वादनेन वर्तते इति सास्वादनः । समवायांगवृत्ति, को प्राप्त नहीं किया है; तब तक के लिए सम्यग्दर्शन गुण की जो पत्र 26; गुणस्थान क्रमारोह 12; अव्यक्त अतत्त्व श्रद्धानरुप परिणति होती है; उसे सास्वादन सम्यग्दृष्टि अ.रा.पृ. 7/794-95; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग3, श्लोक 1141 से 1144 40. अ.रा.पृ. 7/796 गुणस्थान और एसे स्वरुप विशेषवाले जीव को सास्वादन सम्यग्दृष्टि 41. अ.रा.पृ. 7/794, 795; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1146, 1147, कहते हैं। 1152, 11533; इसे अभिधान राजेन्द्र कोश में एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गोम्मटसार, जीवकांड 8 गया है- जिस प्रकार पर्वत से गिरने पर और भूमि पर पहुँचने से 42. (क) काल के सब से सूक्ष्म अंश को समय कहते हैं और असंख्यात पहले मध्य का जो काल है; वह न तो पर्वत पर ठहरने का काल समय की एक आवलिका होती है। यह एक आवली प्रमाण काल है और न ही भूमि पर ठहरने का। वह तो अनुभव काल है। इसी भी एक मिनिट से बहुत छोटा होता है। (ख) अ.रा.पृ. 7795; (ग) द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1145 प्रकार अनन्तानुबंधी कषायों में से किसी एक का उदय होने से सम्यक्त्व 43. अ.रा.पृ. 777943; गोम्मटसार - जीव कांड गाथा 19 व टीका परिणामों के छूटने और मिथ्यात्व प्रकृति का उदय न होने से 44. अ.रा.पृ. 7/794; श्री समयसार नाटक/चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, दोहा 20 मिथ्यात्वपरिणामों के न होने पर मध्य के अनुभव काल में जो परिणाम का अर्थ, पृ. 372 होते हैं, उन्हें सास्वादन गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान के समय जिनागमसार, पृ. 175; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1152, 53 यद्यपि जीव का झुकाव मिथ्यात्व की ओर होता है; तथापि जिस 45. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ और पूर्णता, पृ. 31 46. अ.रा.प. 3/516, 517 प्रकार खीर खाकर उसका वमन करनेवाले को खीर का विलक्षण गोम्मटसार, जीवकांड 21; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1154, 1155 स्वाद अनुभव में आता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व से गिर कर मिथ्यात्व ____47. अ.रा.पृ. 3/517; गोम्मटसार, जीवकांड 22; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, की ओर उन्मुख हुए जीव को भी कुछ काल के लिए सम्यक्त्व श्लोक 1154, 1155 गुण का विलक्षण आस्वादन अनुभव में आता है। इसीलिए इस गुणस्थान (घ) सम्यग्मिथ्यारुचिमिश्रः, सम्यग् मिथ्यात्व पाकतः । को सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है । यह गुणस्थान सुदुष्करः पृथग्भावो, दधिमिश्रगुडोपमः।। -सं. पंचसंग्रह 1/22 नरक आदि चारों गतियों के जीवो में पाया जाता है। नरक गति में ___48. कर्मग्रंथ: गाथा 1/16 49. गुणस्थान क्रमारोह 16 For Private & Personal use only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [194]... चतुर्थ परिच्छेद है । इसी तरह सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संयम (सकल संयम या एक देश संयम) को भी ग्रहण नहीं कर सकता। इस गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं हो सकता । मिथ्यात्व मोहनीय के अर्धविशुद्ध पुंज की स्थिति अन्तर्मुहूर्त पर्यंत होने से मिश्र गुणस्थानक का काल अन्तर्मुहूर्त पर्यंत है । तत्पश्चात् प्राणी अवश्य मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । । 4. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान: अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को समझने के लिए सर्वप्रथम विरत और अविरत को समझना आवश्यक है। राजेन्द्र कोश में अविरति की परिभाषा देते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने कहा है - " सावद्ययोगेभ्यो निवृत्त्यभावे ''52 अर्थात् जीवहिंसामय व्यापार / प्रवृत्ति के त्याग का अभाव, को अविरति और एसे सावद्यप्रवृत्ति करने वाले, नियमरहित जीव को अविरत कहते हैं । और हिंसादि सावद्य व्यापारों के त्याग तथा पापजनक प्रयत्नों से अलग हो जानेको विरति कहते हैं । चारित्र और व्रत ये विरति के अपर नाम हैं । अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि स्पर्शादि पांच इन्द्रिय और छठवाँ मन-इन छः की अपने अपने विषयों में नियमरहितता या स्वतंत्रता और पृथ्वी आदि छः काय जीवों की हिंसा - ये 12 प्रकार की अविरति होती हैं 4 | धान राजेन्द्र कोश के अनुसार उपशम या क्षायोपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्ववाला जीव सावद्ययोग की विरति को मोक्ष कारण जानता हुआ भी अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से किसी भी व्रतों का पालन या 12 में से एक भी प्रकार की विरति का पालन करने के लिये प्रयत्न या उद्यम न करता हो उसे 'अविरत सम्यग्दृष्टि' कहते हैं। उसका स्वरुप विशेष अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है 55 अविरति को बंध का हेतु एवं राग द्वेष को दुःख का कारण मानता हुआ, पापकर्म की निंदा करनेवाला, जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता होने पर भी व्रत ग्रहण करने में असमर्थ आत्मा इस गुणस्थान को प्राप्त करती है" । अभिधान राजेन्द्र कोश में जो जीव व्रतों को न जानता है, न इच्छुक है और न पालन करता है उसके आठ भंग बताये हैं। इसमें केवल चरम भंग में विरति है शेष अविरत के हैं। यहाँ (1) से विरति एवं ( 5 ) से अविरति सूचित की गयी हैआठ भंग S S S S S S | ' 5 S अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन संविज्ञ पाक्षिक आत्माएँ अविरतसम्यग्दृष्टि कहलाती हैं। क्योंकि वे व्रतों का यथाविधि ग्रहण एवं पालन नहीं करते लेकिन उन्हें यथार्थ अवश्य मानते हैं 59 | 1 S ' S S । सम्यग्दृष्टि जीव केवली द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में यदि विपरीत श्रद्धान कर लेता है तो गुरुजनों द्वारा उसे शास्त्र का अर्थ समझाये जाने पर असमीचीन श्रद्धा को छोडकर यथार्थ श्रद्धा धारण कर लेता 58। जिनको व्रतों का ज्ञान है और या तो स्वीकारते नहीं है, पालन नहीं करते हैं या बिना स्वीकारे पालन करते हैं या स्वीकार कर छोड देते हैं एसे वासुदेवादि, सम्यग्दृष्टि देव, अनुत्तरविमानवासी देव, और 5. देशविरति गुणस्थान : - अभिधान राजेन्द्र कोश में देशविरत गुणस्थान की व्याख्या करते हुए कहा है – “प्रत्याख्यानावरण (सकल-संयम का घातक) कषाय का उदय होने से जो जीव पापजनक क्रियाओं से सर्वथा निवृत्त तो नहीं हो सकते; किन्तु अप्रत्याख्यानावरण (एकदेशसंयम का घातक) कषाय का उदय न होने से देश (अंश) से पापजनक क्रियाओं से निवृत्त होते हैं; वे देशविरत श्रावक कहलाते हैं। उनकी इस आंशिक त्यागमयी अवस्था को देशविरत गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान का दूसरा नाम विरताविरत गुणस्थान भी है; क्योंकि इस गुणस्थानवर्ती जीव सर्वज्ञ वीतराग के कथन में श्रद्धा रखता हुआ त्रस जीवों की हिंसा से विरत होता ही है; किन्तु निष्प्रयोजन स्थावर जीवों की भी हिंसा नहीं करता है। अर्थात् त्रस जीवों के त्याग की अपेक्षा विरत और स्थावर जीवों की अपेक्षा से अविरत होने से विरताविरत कहलाता है"। संयतासंयत, देशसंयत इसके अपर नाम है। सम्यक्त्व सहित अहिंसादि पांच अणुव्रत, दिग्व्रतादि तीन गुणव्रत एवं सामायिकादि चार शिक्षाव्रत इस प्रकार श्रावक के कुल बारह व्रत है। इनका पालन करनेवाला देशविरत कहलाता है 2 | कई श्रावक इनमें से सम्यक्त्व सहित एक, दो, तीन, चार पांच या बारह व्रत अंगीकार कर तथा श्रावक की सम्यक्त्वादि 11 प्रतिमाओं का पालन करके आत्म कल्याण करते हैं। कई एसे भी श्रावक होते हैं जो पापकर्मों अनुमति के सिवाय अन्य किसी प्रकार से भाग नहीं लेते। 50. गोम्मटसार जीव कांड 23, 24 51. 52. 53. 54. 55. द्रव्यलोकप्रकाश सर्ग -3 श्लोक 1156 अ. रा. पृ. 1/808 (क) विरतिविरतम्, तत्पुनः सावद्ययोगे प्रत्याख्यानम् । अ.रा. पृ. 1/809 (ख) विरमणं विरति:, सम्यक्त्वपूर्विकायां सावद्यारम्भान्निवृत्तौ । अ.रा. पृ. 6/1228 अथवा प्रत्याख्यानेषु निवृत्तिपरिणामे, अ. रा.पू. 6/1229 (ग) हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् । - तत्वार्थ सूत्र - 7/9 (क) द्वादशप्रकाराऽविरतिः । मनः स्वान्तं, करणानीन्द्रियाणिपञ्च तेषां स्वस्वविषये प्रवर्तमानानां अनियमो नियन्त्रणं तता षण्णां पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरुपाणां जीवानां वधो हिंसेति । - अ.रा. पृ. 1/808 (ख) द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1158 से 60 (क) यः पूर्ववर्णितोपशमिकसम्यग्दृष्टिः क्षायोपशमिक क्षायिक सम्यग्दृष्टिर्वा परममुनिप्रणीतां सावद्ययोगविरतिं सिद्धिसौधाध्यारोहणनिः श्रेणीकल्पां जानन्नप्रत्याख्यानकषायोदयविघ्नित्वान्नभ्युपगच्छति, न च तत्पालनाय यतत इत्यसावविरतसम्यग्दृष्टिरुच्यते । अ.रा. पृ. 1/809 (ख) गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 26 का उत्तरार्ध व टीका अ. रा. पृ. 1/809 वही 56. 57. 58. गोम्मटसार, जीवकांड 27 59. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ और पूर्णता, पृ. 37 60. अ. रा.पू. 4/2632-33, गोम्मटसार जीवकांड-30; द्रव्यलोकप्रकाश 3/1161 गोम्मटसार जीवकांड 31 अ. रा. पृ. 7/785; योगशास्त्र 2/1; 61. 62. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [195] इस गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है । यह गुणस्थानक पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय कर्मभूमिज मनुष्य एवं तिर्यंच जो कि आर्य खंड (देश) में जन्मे हुए हैं उनको ही प्राप्त होता है। उसमें भी जिसने इस गुणस्थानक को प्राप्त करने से पहले देवायु के अलावा अन्य गति के आयुः का बंध न किया हो वे ही देशविरत गुणस्थान को प्राप्त होते हैं। सम्यग्दृष्टि देशविरत तिर्यंच आयु पूर्णकर आठवें एवं मनुष्य 12 वें देवलोक तक के देवलोक में जन्म लेते हैं। 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान: अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने 'प्रमत संयत' का परिचय देते हुए लिखा है - "प्रमाद्यन्तिस्म संयमयोगेषु सीदन्तिस्म,..... किञ्चित् प्रमादवति सर्वविरते, षष्ठगुणस्थानवति," अर्थात् जो जीव चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व प्राप्त करके मोह के बादलों को बिखेर देता है और सम्यक्त्व के प्रकाश में आगे बढ़ता है तब देशविरत गुणस्थान प्राप्त करने के पश्चात् या चतुर्थ गुणस्थान से सीधा ही पंच महाव्रतों के स्वीकारपूर्वक संयम ग्रहण करके सीधे छठे गुणस्थानक को प्राप्त कर सकता है। इस गुणस्थान में रहा हुआ जीव सर्वविरति का पालन करता है; पर प्रमाद के कारण उसके पुरुषार्थ में कुछ कभी रह जाती है, फिर भी संयम में दृढ रहता है। इस कारण से इस जीव को 'प्रमतसंयत' और उनके गुणस्थान को 'प्रमत्तसंयत गुणस्थान' कहते हैं । इनके गुणों की विशुद्धि देशविरत गुणस्थान की अपेक्षा से प्रकर्षमान एवं अप्रमत्तसंयत की अपेक्षा से अपकर्षमय होती है। यह एवं इससे आगेवाले गुणस्थान कर्मभूमियों में रहने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्यों को आठ वर्ष की उम्र होने पर ही प्राप्त होता है । इस गुणस्थान का काल एक जीव की अपेक्षा से जघन्य एक समय एवं प्रमत्ताप्रमत की अपेक्षा से उत्कृष्ट रुप से देशोनपूर्वक्रोड वर्ष का है एवं केवल प्रमत की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त का है। 7. अप्रमतसंयत गुणस्थान: अप्रमत संयत गुणस्थान की व्याख्या करते हुए आचार्यश्री ने राजेन्द्र कोश में लिखा है -"--1न प्रमत्तोऽप्रमतः, नास्ति वा प्रमत्तमस्याऽसावप्रमत्तः सचासौ संयतश्चाप्रमत्तसंयतः । सर्वप्रमादरहिते सप्तमगुणस्थानकवर्तिनि अर्थात् सर्वप्रमाद रहितं संयमी आत्मा याने साधु (मुनि) को अप्रमत्तसंयत और भावविशुद्धि के अनुसार उसके गुणस्थान-विशेष को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। गोम्मटसार में कहा है कि "सम्यग्दर्शनपूर्वक सकल संयम की विद्यमानता में संज्वलन तथा नोकषाय कर्म के मन्द उदय के समय प्रमादरहित होनेवाली वीतराग दशा को अप्रमत्त संयत गुणस्थान कहते हैं। " यह गुणस्थान प्रायः जिनकल्पी, परिहार विशुद्धि चारित्रवाले, एवं प्रतिमाधारी साधु को होता है। छठे गुणस्थान में रहा हुआ जीव अपने आत्म गुणों का विकास करता है। वह अज्ञान, निद्रा, विकथा आदि अथवा मद्य, विषय, कषाय, विकथा आदि प्रमाद को दूर करने का प्रयत्न करता है तब अप्रमत्त अवस्था में जीव इस सातवें अप्रमत्त संयम गुणस्थान को प्राप्त करता है। अप्रमत्त दो प्रकार के हैं - (1) कषाय अप्रमत और (2) योग अप्रमत्त । कषाय अप्रमत्त भी दो प्रकार के हैं - (1) क्षीण कषाय (2) निग्रहपरक । इनकी स्थिति बताते हुए लिखा है - योग अप्रमत्त आत्मा मन-वचन-काय के योगों से गुप्त रहता है अर्थात् अकुशल मन आदि का निरोध करके कुशल मन आदि का उदीरणापूर्वक एकीभाव करते हैं। क्षीणकषाय आत्मा क्रोधादि का निरोध करती है। उदय में आये हुए को निष्फल करते हैं। इस गुणस्थान में सामान्य जीव केवल अंतर्मुहूर्त तक ही रहता है। इसका जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सामान्य जीव की अपेक्षा से अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सयोगकेवली की अपेक्षा से देशोनपूर्वकोटि वर्ष है75 | सामान्य जीव छटे और सातवें गुणस्थान के बीच झूलता रहता है। इस पंचम काल में भरतक्षेत्र में जीव के छठा-सातवाँ गुणस्थान ही हो सकता है। इसके आगे के गुणस्थान चतुर्थ काल में ही संभव है। 8. अपूर्वकरण गुणस्थान: जिस गुणस्थान में पहले कभी नहीं हुई एसी क्रिया को अपूर्वकरण कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - आठवें गुणस्थानवर्ती जीवों के अध्यवसायों की शुद्धि पूर्व के गुणस्थानों की अपेक्षा अधिक होने से इस गुणस्थान में स्थितिघात, रसघात आदि का पूर्व की अपेक्षा अपूर्वविधान होने के कारण इस गुणस्थान को 'अपूर्वकरण गुणस्थान' कहते हैं।। इस गुणस्थानकवर्ती त्रैकालिक अनंत जीवों के अध्यवसाय स्थानों की संख्या लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों के बराबर है परन्तु इनकी विशेषता यह है कि इस गुणस्थानक में समान समयवर्ती 63. अ.रा.पृ. 3/915 64. कर्मग्रंथ 2/6 पर विवेचन (महेसाणा प्रकाशन) 65. अ.रा.पृ. 4/2632, द्रव्यलोकप्रकाश 3/1163-64 66. अ.रा.पृ. 3/442, गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 32 की टीका; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 13, पृ. 82 67. अ.रा.पृ. 3/443, द्रव्यलोकप्रकाश, 3/1164, 65 68. स च संयममष्टासु वर्षेषु गतेष्वेव लभते ।-अ.रा.पृ. 3/442 69. "....महान्ति चाप्रमत्तान्तर्मुहूततापेपिक्षया प्रमत्तान्तर्मुहूर्तानि कल्प्यन्ते । एवं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणानां प्रमताद्धानां सर्वासां मीलनेन देशोनपूर्वकोटी यावदुत्कर्षतः प्रमत्तसंयतता स्यादिति ।" - अ.रा.पृ. 3/442 70. अ.रा.पृ. 1/597 71. द्रव्यलोकप्रकाश 3/1166 72. गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 45 व टीका 73. (क)....अज्ञाननिद्राविकथादिषष्ठप्रमादरहिते.....ते च प्रायो जिनकल्पिक परिहार-विशुद्धिक-यथालन्दकल्पिक-प्रतिमाप्रतिपन्नां, तेषां सततोपयोगसम्भवात् । अ.रा.पृ. 1/597, (ख) द्रव्यलोकप्रकाश 3/1166 74. अ.रा.पृ. 1/597 75. अ.रा.पृ. 1/597; जिनागमसार, पृ. 184 76. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता, पृ. 40 77. (क) । तत्र च प्रथम समय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः, अन्यश्च स्थितिबन्धः, इत्येते पञ्चाप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्तां प्रवर्तन्ते इत्यपूर्वकरणम् । अ.रा.पृ. 3/611 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [196]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अनेक जीवों के अध्यवसाय यद्यपि आपस में पृथक्-पृथक् (न्यूनाधिक की अनिवृत्ति के कारण इस गुणस्थान का पूरा नाम अनिवृत्ति बादर शुद्धिवाले) होते हैं; तथापि सम-समयवर्ती बहुत से जीवों के अध्यवसाय संपराय गुणस्थान' है। तुल्य शुद्धिवाले होने से इस गुणस्थान को 'निवृत्ति' गुणस्थान भी कषायों की न्यूनता के कारण विशुद्धिवाले इस गुणस्थान कहते हैं। में होनेवाले परिणामों के द्वारा आयु:कर्म के सिवाय शेष सात कर्मो जो जीव संयम के घातक प्रत्याख्यानवरण कषाय का उदय की गुणश्रेणिनिर्जरा, गुण संक्रमण, स्थिति, भाग और अनुभाव खंडन न रहने से तीन करण करता है; वह अपूर्वकरण नामक गुणस्थान होता है। इसके अंतिम समय में पहुंचने पर कर्मो का जघन्य स्थितिबंध में आता है। उपशम और क्षपक इन दोनों श्रेणियों का प्रारंभ यद्यपि ___होने लगता है एवं सत्ता का भी ास होता है। नौवें गुणसथान से होता है; किन्तु उस की आधारशिला इस गुणस्थान इस गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण में रखी जाती है। आठवाँ गुणस्थान दोनों प्रकार की आधारशिला बनाने और एक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतने ही अध्यवसाय के लिए है। अत: अपूर्वकरण गुणस्थानक को श्रेणिगत माना है, स्थान इस गुणस्थान के है, परिणाम तुल्य शुद्धिवाले है। अतः यहाँ जैसे-राज्य-योग्य कुमार को राजा कहा जाता है। आठवें गुणस्थान पर समसमयवर्ती जीवों के परिणामों में सादृशता एवं भिन्नसमयवर्ती में क्षपक श्रेणीवाला मोहनीय कर्म का क्षय करके दसवें गुणस्थान जीवों के परिणामों में..विसदृशता होती है। से सीधा बारहवें गुणस्थान को प्राप्त करके अपने उपलब्ध आत्म क्षपक एवं उपशमक दोनों ही प्रकार के जीव इस गुणस्थान स्वरुप से अध:पतन नहीं करता, बल्कि आगे बढता हुआ पूर्ण स्वरुप को प्राप्त होते हैं। क्षपक जीव चढते समय एवं उपशमक जीव चढतेको प्राप्त कर लेता है। उतरते दोनों ही समय इस गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। चारित्र मोहनीय आठवें गुणस्थान में वर्तमान जीव पाँच बातों-पदार्थो का अपूर्व विधान कर्म के साथ-साथ अन्य ओर भी कर्मों का क्षय करनेवाले क्षपक करता है और उपशमन करने वाले उपशमक कहलाते हैं। उनके कार्य को क्रमश: 1. स्थितिघात:- कर्मों की लंबी स्थिति को अपवर्तनाकरण के द्वारा क्षपक श्रेणी और उपशमश्रेणी कहते हैं । घयकर छोटी करना स्थितिघात है। अर्थात् जो कर्मदलिक आगे उदय 10. सूक्ष्म संपराय गुणस्थान:में आनेवाले हैं; उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा अपने उदय के नियत सूक्ष्म संपराय गुणस्थान की स्थिति बताते हुए अभिधान समय से हट देना और शीघ्र उदय में आने योग्य बनाकर वर्तमान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'सुहमसंपराय' एवं 'सुहुमसंपाय गुणट्ठाण' के उदय योग्य के साथ भोग लेना स्थितिघात कहलाता है। शब्द में इसका विवेचन करते हुए लिखा है - "संपराय अर्थात् 2. रसघात:- बँधे हुए कर्म के फल देने की तीव्र शक्ति को लोभ । यहाँ संज्वलन लोभ कषाय के सूक्ष्म खंडों का उदय रहता अपवर्तनाकरण के द्वारा मंद कर देना रसघात कहलाता है। है। जिस प्रकार धुले हुए गुलाबी रंग के कपडे में लालिमा/सुर्थी 3. गुणश्रेणी:- जिन कर्मदलिकों का स्थितिघात किया गया था की सूक्ष्म आभा रह जाती है, उसी प्रकार इस गुणस्थान में रहने उन्हें समय के क्रम से अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना गुणश्रेणी है। वाला जीवसंज्वलन लोभ के सूक्ष्म खंडों का वेदन करता है।" स्थापित करने का क्रम इस प्रकार है अतः इस गुणस्थान का नाम भी सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक है। उदय समय से लेकर अन्तर्मुहर्त पर्यन्त के जितने समय यहाँ क्षपक एवं उपशमक दोनों श्रेणिवाले जीव होते हैं जो होते है, उनमें से उदयवली के समयों को छोड़कर शेष रहे समयों मोहनीय कर्म की एकमात्र प्रकृति संज्वलन लोभ का क्षय या उपशमन में से प्रथम समय में जो दलिक स्थापित किये जाते है; वे कम करते हैं। वे दोनों ही प्रकार के जीव सूक्ष्म लोभ के कारण यथाख्यात होते हैं। दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे अधिक दलिक होते चारित्र की पूर्ण स्वरुप स्थिरता से कुछ ही न्यून रहते हैं। क्षपक हैं। इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त चरम समय तक असंख्यातगुणे अधिक श्रेणिवाले जीव यहाँ से सीधे ही 12 वें क्षीणमोह गुणस्थान को और समझने चाहिए। 4. गुण संक्रमण:- पहले बँधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बंध रही शुभ प्रकृतियों में स्थानान्तरित/परिणत कर देना गुण संक्रमण 78. (क) । एतच्च गुणस्थानकं प्रपत्रानां कालत्रयवतिनो नानाजीवानापेक्ष्य सामान्यतोऽसंख्येयलोकाकाश-प्रदेशप्रमाणान्य-ध्यवसायस्थानानि है। प्रथम समय में अशुभ प्रकृतियों के जितने दलिकों का शुभ प्रकृतियों भवति ।...युगपदेतद् गुणस्थानप्रविष्टानां च परस्परमध्यवसायस्थानमें संक्रमण होता है उससे दूसरे आदि समयों में क्रमशः प्रथमादिक व्यावृत्तिलक्षणा निवृत्तिरप्यस्तीति निवृत्तिगुणस्थानकमप्येतदुच्यते। की अपेक्षा असंख्यातगुणे अधिक दलिकों का संक्रमण होता है। - अ.रा.पृ. 3/611 5. अपूर्व स्थितबंध:- पूर्व की अपेक्षा अत्यन्त अल्प स्थिति के 9. अयं च अपूर्वकरणो द्विधा - क्षपक: उपशमकञ्च । क्षपणोपशमनार्हत्वा च्चैवमुच्यते, राज्याईकुमारराजवत् । कर्मो का बंध करना अपूर्वस्थिति बंध है। न पुनरसौ क्षपयत्युपशमयति वा । - अ.रा.पृ. 1/611 आठवें गुणस्थानक का समय-जघन्य से मरण की अपेक्षा गुणस्थानक क्रमारोह-73 से एक समय एवं उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। अ.रा.पृ. 1/611 9. अनिवृत्ति बादर गुणस्थान: 82. अ.रा.पृ. 1/611 83. अ.रा.पृ. 1/335; द्रव्यलोकप्रकाश 3/1187, 88, 89 अनिवृत्ति अर्थात् जहाँ से वापिस लौटना न पडे। श्री अभिधान 84. अ.रा.पृ. 1/335, द्रव्यलोकप्रकाश 3/1192,93; गोम्मटसार, जीवकांड, राजेन्द्र कोश के अनुसार इस गुणस्थान प्राप्त जीव के यहाँ पर अनंतानुबंधी गाथा 56,57 की टीका आदि तीन कषायचतुष्क तो उपशान्त या क्षय हो जाते हैं; किन्तु संज्वलन 85. अ.रा.पृ. 11916, द्रव्यलोकप्रकाश 3/1194-95 कषाय चतुष्क की पूरी निवृत्ति नहीं होने से अथवा यहाँ जीव के 86. अ.ग.पू. 7/1024, गोम्मटसार, जीवकांड 59, 60 भाव पुनः विषयों की ओर उन्मुख नहीं होने से भावों/अध्यवसायों __87 अ.रा.पृ. 71025, गोम्मटसार, जीवकांड 60; द्रव्यलोकप्रकाश 3/1196 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन उपशम श्रेणिवाल जीव 11 वें उपशांत मोह गुणस्थान को प्राप्त कर है । इस गुणस्थान की जघन्य एक समय मरण की अपक्षा से एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक स्थिति है । 11. उपशान्तमोह गुणस्थान: अभिधान राजेन्द्र कोश के द्वितीय भाग में उपशांत मोह गुणस्थान का परिचय देते हुए आचार्यश्रीने कहा है- कषाय और राग (माया-लोभ) के उपशान्त (उदय नहीं) होने पर भी छद्म अर्थात् घातीकर्म शेष रहते हैं । अतः इस गुणस्थान को उपशान्तकषायछद्मस्थवीतराग गुणस्थान भी कहते है। मोहकर्म के उपशान्त हो जाने से इस गुणस्थान में वीतरागता तो होती है; किन्तु ज्ञान, दर्शन आदि आत्मगुणों को आवृत करनेवाले कर्म विद्यमान रहते हैं। इस कारण वीतरागता होने पर भी वह अल्पज्ञ छद्मस्थ है। दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का उपशमन होते ही जीव इस गुणस्थान को प्राप्त करता है। जिस तरह गंदे पानी में कतकफल या फिटकडी आदि डालने से उसका मल नीचे बैठ जाता है और स्वच्छ पानी ऊपर आ जाता है वैसे ही इस गुणस्थान में शुक्लध्यान से मोहनीय कर्म को अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता है। इस कारण जीव के परिणामों में एकदम वीतरागता, निर्मलता और पवित्रता आ जाती है। इसी कारण इसे उपशान्तमोह या उपशान्तकषाय भी कहते हैं । यह गुणस्थान उपशम श्रेणी का अंतिम स्थान है। अतः यह जीव ग्यारहवें गुणस्थान से अवश्य गिरता है। इस गुणस्थान की कालमर्यादा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । यदि गुणस्थान का समय पूरा होने के पहले कोई जीव भव (आयु) के क्षय से गिरता है; तो वह अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है और चौथे ही गुणस्थान को प्राप्त करता है । और इस गुणस्थान में उन सब प्रकृतियों के बंध, उदय आदि को प्रारंभ कर देता है, जितनी प्रकृतियों के बंध आदि की संभावना इस गुणस्थान में है 2 परन्तु भवायु के शेष रहते हुए गुणस्थान का समय पूरा हो जाने पर जो जीव अवरोहण करता है; वह पतन के समय आरोहण क्रम के अनुसार गुणस्थान को प्राप्त करता है और उस उस गुणा के योग्य कर्म प्रकृतियों का बंध, उदय, उदीरणा करना प्रारंभ कर देता है। अर्थात् अवरोहण के समय आरोहण क्रम के अनुसार तत् तत् गुणस्थान की प्रकृतियों का बंध आदि करता है और गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने पर गिरनेवाला कोई जीव छठे गुणस्थान, कोई पाँचवे गुणस्थान, कोई चौथे और कोई तीसरे, दूसरे गुणस्थान में होते हुए पहले तक आ सकता है या आठवें गुणस्थान से वापिस क्षपक श्रेणी को प्राप्त हो सकता है । 12. क्षीणमोह गुणस्थानः इस गुणस्थान का परिचय देते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने लिखा है कि "मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने के पश्चात् यह गुणस्थान प्राप्त होता है।" सत्ता सहित मोहनीय का सर्वथा क्षय हो जाने से वीतरागता प्राप्त होने पर भी तीन छद्म घातीकर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अंतराय अभी विद्यमान होने से इस गुणस्थान का पूरा नाम 'क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ' है" । चतुर्थ परिच्छेद... [197] इस गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट काल स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और पूर्व में अबद्धायुः क्षपक श्रेणीवाले जीव ही इस गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। इस गुणस्थानवर्ती जीव के भाव स्फटिक मणि के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल होते हैं। इस गुणस्थानवर्ती जीव नीचे नहीं गिरता अतः उसका पतन नहीं होता। क्षपक श्रेणिवाला जीव नियम से आठवर्ष से ऊपर की उम्रवाला होता है। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती अप्रमत्त आत्मा शुक्ललेश्या एवं शुक्लध्यान युक्त होती है" । 13. सयोगी केवली गुणस्थान: सयोगी केवली गुणस्थान को समझने के लिये पहले 'योग' शब्द को समझना आवश्यक है। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'जोग' शब्द का परिचय देते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने द्रव्य से मन-वचन और काया के बाह्य व्यापार को 'योग' कहा है" । भावयोग की व्याख्या करते हुए कहा है " तद्यथा प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च । तत्र प्रशस्तः सम्यक्त्वादिः । आदि शब्दाद् ज्ञानावरण-परिग्रहः । प्रशस्तता चास्य प्रशस्यते युज्यते अनेनात्माऽऽपवर्गेणेत्यन्वर्थबलात् । इतरो मिथ्यात्वादियोगो विपरीतोऽप्रशस्तः, युज्यतेऽनेनाऽऽत्मा अष्टविधेन कर्मणेति व्युत्पत्तिभावात्" ।" अर्थात् भाव योग दो प्रकार का है प्रशस्त और अप्रशस्त । सम्यक्त्वादि को प्रशस्त योग या जो आत्मा को अपवर्ग अर्थात् मोक्ष 88. गुणस्थान क्रमारोह गाथा 73 एवं 42, जैन तत्त्वज्ञान चित्रावली प्रकाश पृ. 38 89. अ. रा. पृ. 7/1025 90. अ. रा. पृ. 2/983, 984, गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 61 व टीका; सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पृ. 167, 168 (क) अधोमले यथा नीते, कतके नाम्भोऽस्तु निर्मलम् । उपरिष्टात्तथाशान्तः, मोहो ध्यानेन मोहतो | संस्कृत पंचसंग्रह 1/47 (ख) गोम्मटसार, जीवकांड 61 (ग) द्रव्यलोकप्रकाश 3/1197, 98 92. अ. रा. पृ. 3 / 916, द्रव्यलोकप्रकाश 3/1207, 1208, 1211, 1212 93. (क)....। यः पुनरेकंवारं प्रतिपद्यते तस्य क्षपक श्रेणिर्भवेदपि उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी - " .. जो इक्कसि उवसमसेढि पडिवज्जइ तस्स खवगसेढी हुज्जति" एष कार्मग्रंथिकाभिप्रायः । सिद्धान्ताभिप्रायेण त्वकस्मिन् भवे एकमेव श्रेणि प्रतिपद्यते । अ.रा. पृ. 2/1046 (ख) द्रव्यलोकप्रकाश-3/1207, 1208 91 अ. रा.पू. 31746, द्रव्यलोकप्रकाश- 3/1216-17, गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा व टीका; सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पृ. 168; समयसार, गाथा 33 व अर्थ; 95. अ. रा. भा. 3, 'खवगसेढि' शब्द द्रव्यलोकप्रकाश 3/1235/36 96 (क) .... क्षपक श्रेणिप्रस्थापक: सोऽवश्यं मनुष्यो वषाष्टिकाच्चो परिवर्तमानः । तत्र पूर्वविदप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि एतां प्रतिपद्यते । अ. रा. पृ. 3/738 (ख) लेश्यायामपि च पूर्वशुक्ललेश्यायामासीत्...। - वही, पृ. 3929 (ग) "क्षपक श्रेणिप्रतिपन्नः मनुष्यो वषाष्टिकोपरिवर्ती अविरतादीनां अन्यतमः अत्यन्तशुद्धपरिणामः अत्तमसंहननः तत्र पूर्वविद् अप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि केचन धर्मध्यानोपगतः इत्याहुः ।। • कर्मग्रंथ लघुवृत्ति; द्रव्यलोकप्रकाश, पृ. 272, सर्ग 3 की गाथा 1218 की टिप्पणी से उद्धृत 94. 97. 98. अ. रा. पृ. 4 / 1613 अ. रा.पू. 4/1613 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [198]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में जोडे उसे प्रशस्त योग और इससे विपरीत जो मिथ्यात्वादि योग क्षय करके उर्ध्व (उच्च) गति मोक्ष को प्राप्त होते हैं उसे अयोग है जिससे कि आत्मा को आठों प्रकार के कर्म बंधते हैं उसे अप्रशस्त कहते हैं। द्रव्य योग रहित या शैलेशी अवस्था प्राप्त उस जीव विशेष भाव योग कहते हैं। को अयोगी कहते हैं।051 इन द्रव्ययोगवाले जीव को योगी कहते हैं अथवा रत्नयत्रय अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जब.सयोगी केवली मन, हेतु प्रयत्नशील साधक को योगी कहते हैं और मन-वचन-काया के वचन और काया के योगों का निरोध कर योग रहित होकर शुद्ध व्यापार के रोधक आत्मा को भी योगी कहते हैं। आत्मस्वरुप को प्राप्त कर लेते हैं, तब उन्हें अयोगी केवली और उनके जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-इन चारों स्वरुप विशेष को अयोगीकेवली गुणस्थान कहते हैं106। घोतीकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान आदि को प्राप्त कर चुके है; यह गुणस्थान चारित्र-विकास और स्वरुप-स्थिरता की चरम जिससे वे बिना इन्द्रिय सहायता के समस्त चराचर तत्त्वों को अवस्था है। इस गुणस्थान में (अ, इ, उ, ऋ, ल) इन पाँच हस्व हस्तामलकवत् देखने, जानने लगते हैं और जो योग से सहित है स्वरों के उच्चारण में जितना समय लगता है; उतने समय में आत्मा एवं जिनमें आत्मवीर्य, शक्ति, उत्साह, पराक्रम प्रकट हुआ है तथा उत्कृष्ट शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु पर्वत सदृश स्थिति को प्राप्त कर के जिनमें शरीर आदि की प्रकृति शेष है; वे सयोगी केवली है100 | अन्त में देहत्याग करके सिद्धावस्था को प्राप्त करती है। उस अवस्था उन्हें केवलज्ञानी केवली, जिन, जिनेन्द्र या जिनेश्वर भी कहा जाता को परमात्मपद, स्वरुप, सिद्ध, मुक्ति, निर्वाण, ब्रह्मस्थिति, अपुनरावृत्ति, है। सयोगी केवली में यदि कोई तीर्थंकर हो तो वे तीर्थ की स्थापना अपुनर्भवस्थान और मोक्ष आदि नामों द्वारा भी जाना जाता है। करते हैं और देशना देकर तीर्थ प्रवर्तन करते हैं। केवली भगवान इस गुणस्थान में मोक्ष प्राप्त करने की प्रक्रिया प्रारंभ होती सयोगी अवस्था में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन (कुछ है। यह मोक्ष का प्रवेशद्वार है और तीनों योगों का निरोध करने से कम) क्रोड पूर्व वर्ष तक रहते हैं।01 । आयोगी अवस्था प्राप्त होती है।071 मन, वचन और काया इन तीनों साधनों (कारणों) की अपेक्षा आयुःक्षय का समय निकट आने पर सयोगी केवली भगवान से केवली भगवान को मनोयोग, वचनयोग और काययोग - ये तीन बादर काययोग से बादर मनोयोग एवं बादर वचनयोग का निरोध करते योग होते हैं। कोई मनः पर्यवज्ञानी साधु या अनुत्तर विमानवासी देव हैं। अन्त में सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म क्राययोग का निरोध करते करते सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति ध्यान से अपने शरीर के मुख, उदर आदि पोले, अपने स्थान पर रहकर शब्द द्वारा न पूछकर भगवान को मन द्वारा भाग को पूर्ण करते हुए शरीर के 2/3 भाग प्रमाण आत्मप्रदेशों को प्रश्न आदि पूछते हैं, तब उनके प्रश्न का उत्तर केवली भगवान मनोयोग संकुचित (धनस्वरुप) करते हैं। बाद में वे अयोगी केवली भगवान् द्वारा देते हैं जिसे प्रश्नकर्ता मनःपर्यवज्ञान या अवधिज्ञान द्वारा समझ समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं। और अ, इ, लेते हैं। धर्मोपदेश देने के लिये वचनयोग का तथा हलन-चलन उ, ऋ, ल - इन पाँच हस्वाक्षर बोलने जितने समय मात्र का शैलेशीकरण आदि क्रिया में काययोग का उपयोग केवलज्ञानी करते हैं।02 । गोम्मटसार करके चारों अघाती क्रमो का क्षय कर एक समय मात्र में ऋजुगति में भी केवली भगवान को मनोयोग पूर्वक वचनयोग का स्वीकार से ऊर्ध्वगमन कर लोक के अग्र भाग में स्थित मोक्षधाम (सिद्धक्षेत्र) किया है1031 को प्राप्त कर लेते हैं1081 केवली भगवान सयोगी अवस्था में अपनी आयु के अनुसार रहते हैं। जिन केवली भगवान के शेष रहे चारों अघाती कर्मो में 99. ।योगोऽस्य विद्यते इति योगी।....मनोवाक्कायरोधके...सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र योगः सद्योग उच्यते ।...त्नयत्ररुपमोक्षोपायिनी। -अ.रा.पृ. 4/1587 से आयु कर्म की स्थिति व पुद्गल परमाणुओं की अपेक्षा वेदनीय, 100. अ.रा.पृ. 7131,गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 63, 64 व टीका; नाम और गोत्र इन कर्मों की स्थिति और पुद्गगल परमाणु अधिक द्रव्यलोकप्रकाश 3/1245 से 1248 होते हैं; वे समुद्घात करते हैं। इसे केवली-समुद्घात कहते हैं। समुद्घात 101. अ.रा.पृ. 1/597, 3/931 के द्वारा वे आयुकर्म की स्थिति एवं पुद्गल परमाणुओं के बराबर वेदनीय, 103. अ.रा.पृ. 7/277, 3/647; द्रव्यलोकप्रकाश 3/1249 से 51 104. अ.रा.पृ. 1/207; 3/661: 3/731 नाम और गोत्र कर्म की स्थिति व पुद्गगल परमाणुओं को कर लेते - 105. क. द्रव्यलोकप्रकाश 3/1261 हैं। जिन केवलज्ञानियों के वेदनीयादि तीनों अघाती कर्मो की स्थिति ख. शैलेशीकरणे, सकलयोगचापल्यरहिते योगे और पुद्गल परमाणु आयु कर्म के बराबर है; उन्हें समुद्घात करने च।....तत्रायोगद्योगमुख्याद्, भवोपग्राहिकर्मणाम् । क्षयं कृत्वा की आवश्यकता नहीं होने से वे नहीं करते। । प्रयात्युच्यैः परमानन्द मंदिरम् ।.।।। -द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 25; अ.रा.पृ. 1/207 14. अयोगकेवली गुणस्थानः ग. .....न सन्ति योगा यस्य।...शैलेश्यवस्थायम् । अ.रा.पृ. 1/207; भा.3 सयोगी केवली भगवान अपने आयुष्य के अंतिम समय पृ. 647 106. क. गोम्मटसार जीवकांड 65 में अयोगी केवली गुणस्थान में प्रवेश करते हैं। 'अयोगी' शब्द की ख. न योगी अयोगी, अयोगी चासौ केवली च अयोगी केवली। तस्य व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र गुणस्थानमयोगीकेवली गुणस्थानम् । सूरीश्वरजीने लिखा है - शैलेशीकरण की अवस्था में आत्मा की - अ.रा.पृ. 1/208 सकल योगों की चपलता से रहित स्थिति को अयोग कहते हैं। द्वात्रिंशद् । 107. ....स ततो देहत्रयमोक्षार्थमनिवृत्तसर्ववस्तुगतम्....। अ.रा.पृ. 1/208 108. अ.रा.पृ. 1/208; 3/732, जिनागमसार, पृ.199; विशेषावश्यक भाष्यद्वात्रिशिका के अनुसार सयोगी आत्मा योगों से भवोपग्राही कर्मों का 3059-64, 68, 69, 82, 89; द्रव्यलोकप्रकाश -3/126 से 67 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [199] जैनेतर दर्शनों में आध्यात्मिक विकास की अवधारणाएँ पूर्व में यह संकेत किया गया है कि सभी आस्तिकवादी दर्शनों को आध्यात्मिक विकास इष्ट एवं अभिप्रेत है। वैदिक दर्शन भी प्राय: आस्तिकवादी है। अत: जैन दर्शन की तरह वैदिक परम्परा में भी आत्म विकास के संबंध में विचार किया गया है। विशेषतया योगवासिष्ठ, पातंजल योग आदि ग्रंथों में आत्मा की भूमिकाओं के बारे में कुछ अधिक वर्णन किया गया है। वर्णन शैली की भिन्नता होने पर भी वस्तुत्व के विषय में प्रयोजनभूत दृष्टि की अपेक्षा से भेद नहीं के बराबर है। 1.बीजजागृत :- जागरण के आदि में मायावश चैतन्य से प्राणधारण आदि क्रिया रुप उपाधि से भविष्य में होने वाले चित्त, जीव आदि नाम शब्दों और उनके अर्थो का भाजनरुप तथा जागृत का बीजभूत जो प्रथम चेतन है; उसे बीजजागृत कहते हैं।24। अर्थात् इस भूमिका गुणस्थान और वैदिक भूमिकाएँ : जैन ग्रंथो में मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीव को जो लक्षण बतलाया है कि अनात्मा अर्थात् आत्मभिन्न जडतत्त्व में जो आत्मबुद्धि करता है; वह मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा है।09; वही लक्षण योगवासिष्ठ-10 तथा पातंजल योगसूत्र।। में भी अज्ञानी जीव का है। जैसे जैन ग्रंथों में मिथ्यात्वमोह का संसारवृद्धि और दुःख रुप फल वर्णित है।12 वैसे ही वही बात योगवासिष्ठ13 में अविद्या से तृष्णा और तष्णा से दुःख का अनुभव तथा विद्या से अविद्या का नाश। यह क्रम जैसा वर्णित है, वैसा ही क्रम जैन शास्त्रों में मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान के निरुपण द्वारा यथा प्रसंग वणित किया गया है। योगवासिष्ठ में जो अविद्या का विद्या से और विद्या का विचार से नाश बताया है।15; वह जैन शास्त्रों में माने हुये मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिकज्ञान से - क्षायोपशमिक ज्ञान के नाश के समान है। जैन शास्त्रों में मुख्यतया मोह को ही बंध का (संसार का) कारण माना है, वैसे ही योगवासिष्ठ16 में भी रुपान्तर से वही बात कही गयी है। जैन शास्त्रों में जैसे ग्रंथिभेद का वर्णन है; वैसे ही योगवासिष्ठ-17 में भी है। योगवासिष्ठ में स्वरुपस्थिति को ज्ञानी का और स्वरुपभ्रंश को अज्ञानी का लक्षण माना गया है।18; तो जैन शास्त्रों में भी सम्यग्दृष्टि का-सम्यगज्ञान का और मिथ्यादृष्टि का क्रमशः वही स्वरुप बताया गया है। योगवासिष्ठ में सम्यग्ज्ञान का जो लक्षण है।19, वह जैन शास्त्रों के अनुकूल है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति स्वभाव और बाह्य निमित्त इन दो प्रकारों से बतलायी है। योगवासिष्ठ में भी ज्ञानप्राप्ति'20 का वैसा ही क्रम सूचित किया गया है। इसी प्रकार के जैन दर्शन के अन्य विचारों के अनुरुप और दूसरे विचार भी योगवासिष्ठ में देखने को मिलते हैं; जो तुलनात्मक दृष्टि से मननीय है। जैनदर्शन में आत्मविकास के क्रम को बतलाने के लिए जैसे चौदह गुणस्थान माने गये हैं; वैसे ही योगावासिष्ट में भी चौदह भूमिकाओं का बडा रुचिकर वर्णन है। उनमें सात अज्ञान की और सात ज्ञान की भूमिकाएँ है।21 | जौ जैन परिभाषा के अनुसार क्रमशः मिथ्यात्व की और सम्यक्त्व की सूचक हैं। अज्ञान की सात और ज्ञान की सात भूमिकाओं के नाम इस प्रकार हैं अज्ञान की सात भूमिकाएँ-बीजजागृत, जागृत, महाजागृत, जागृतस्वप्न, स्वप्न, स्वप्नजागृत और सुषुप्तका । ज्ञानकी सात भूमिकाएँ-शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, परार्थाभाविनी और तुर्यगा।2। कुल मिलाकर ये चौदह भूमिकाएँ हैं; जिनका स्वरुप क्रमशः इस प्रकार है 109. आत्मधिया समुपातकायादिः कीर्त्यतेऽत्रि बहिरात्मा । - योगशास्त्र प्रकाश 12 110. यस्याज्ञानात्मनो ज्ञस्य, देह एवात्मभावना। उदितेति रुपैवाक्षरिपवो एवात्मभावना ॥ - योगवासिष्ठ, निर्वाण प्रकरण, पूर्वार्ध, सर्ग 6 TIL. क. अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या । -पातंजल योगदर्शन, साधनपाद, सूत्र 5 ख. अविद्या मोहः, अनात्मन्यात्मरभिमान इति। __-पातंजल योगदर्शन, भोजदेववृत्ति, पृष्ठ 141 112. विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहासवो ह्ययम्। भवोच्च तालमुत्तालप्रपंचमधितिष्ठति ॥ -ज्ञानसार, मोहाष्टक 5 113. अज्ञानात्प्रसृता यस्मात् जगत्पर्णपरंपरा ।। 114, जन्मपर्णादिना रन्ध्रा, विनाशच्छिद्रचक्षुका । भोगा भोगरसा पूर्णा, विचारैक घुणक्षता ॥ - योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग 8/11 115. योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग 9/23, 24 116. अविद्या संसृतिर्बन्धो, माया मोहो महत्तमः । कल्पितानीति नामानि, यस्या सकलवेदिभिः ।। - -योगवाशिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग 1/20 117. ज्ञाप्तिर्हि ग्रंथिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता। मृगतृष्णाम्बुबुद्धयादि, शान्तिमात्रात्मकस्त्वसौ ॥ -वही, सर्ग 118/23 118. स्वरुपावस्थितिर्मुक्तिस्तद्भशोऽहंत्ववेदनम् । एतत् संक्षेपतः प्रोक्तं, तज्ज्ञत्वात्मत्वलक्षणम् ॥ -वही, सर्ग 117/5 119. अनाद्यनन्तावभासात्मा, परमात्मेह विद्यते । इत्येको निश्चयः स्फारः, सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधाः।। -वही, सर्ग 79/2 120. एकस्तावद् गुरुप्रोक्तादनुष्ठानाच्छनैः शनैः। जन्मना जन्माभिर्वापि सिद्धिदः समुदाह्यतः ॥ द्वितीयस्त्वात्मनैवाशु, किंचिद् व्युत्पत्रचेतसा । भवति ज्ञानसम्प्राप्तिराकाशफलपातवत् ॥ -योगवाशिष्ठ, उपशम प्रकरण, सर्ग 7/3,4 121. अज्ञान भूः सप्तपदा, ज्ञभुः सप्तपदैव हि। पदान्तराण्यसंख्यानि भवन्त्यन्यान्यथैतयोः ॥ -योगवाशिष्ठ उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग, 117/2 ____122. बीजजागृत्तथा जागृन्महाजागृत् तथैव च । जागृतस्वप्नस्तथा स्वप्नः, स्वप्नजागृत्सुषुप्तकम् ।। 123 इति सप्तविधो मोहः पुनरेव परस्परम् ॥ -योगवाशिष्ठ उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग, 117/11, 12 124. भविष्यच्चित्त जीवादि, नामशब्दार्थभाजनम् ।। बीजरुपं स्थितं जागृद, बीजजागृत उच्यते ॥ -वही, सर्ग 117/14 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [200]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में जागृति की योग्यता बीजरुप में रहती है। इसे वनस्पति आदि 13. पदार्थाभाविनी :- पूर्वोक्त पाँच भूमिकाओं के अभ्यास से शुद्ध निकाय के जीवों में मान सकते हैं। बाह्य, अभ्यन्तर सभी पर पदार्थो पर से इच्छाओं के नष्ट हो जाने 2. जागृत :- बीजजागृति के बाद 'मैं और मेरा' (अहं और मम) पर आत्मस्वरुप में जो दृढ स्थिति होती है; उसे पदार्थाभाविनी एसी जो प्रतीति होती है; उसे जागृत कहते हैं।25। अर्थात् इसमें अवस्था कहते हैं।361 अहंत्व एवं ममत्व बुद्धि अल्पांश में जागृत होने से इसे जागृत 14. तुर्यगा :- पूर्वोक्त छह भूमिकाओं के चिरकालीन अभ्यास से भूमिका कहा गया है। कीडे-मकोडे, पशु-पक्षी आदि में यह भूमिका भेदभाव का नितान्त भान भूल जाने से एक मात्र स्वभाव में स्थिर मान सकते हैं। हो जाना तुर्यगा अवस्था है। यह जीवनमुक्त जैसी अवस्था होती है। 3. महाजागृत :- एहिक या जन्मान्तरीय दृढाभ्यास से दृढता को इसके बाद विदेहमुक्ति तुर्यातीत स्थिति हैं137 । प्राप्त जागृत प्रत्यय महाजागृत है126 | अर्थात् इसमें ममत्व बुद्धि विशेष अज्ञान की भूमिकाओं में उत्तरोत्तर अज्ञान का प्राबल्य होने रुप से पुष्ट होने के कारण इसे महाजागृत कहते हैं। यह भूमिका से उन्हें अविकास काल और ज्ञान की भूमिकाओं में क्रमशः ज्ञानविकास देव और मानवसमूह में संभव मानी जा सकती है। में वृद्धि होने से उन्हें विकास क्रम की श्रेणियाँ कह सकते हैं। ज्ञान 4. जागृतस्वप्न :- जागते हुए भी भ्रम में पडे रहना जागृतस्वप्न की सातवीं भूमिका तुर्यगा में विकास पूर्णता को प्राप्त करता है और है।27। उसके बाद की स्थिति मोक्ष है। विकास की पूर्णता को प्राप्त स्थिति 5. स्वप्न :- निद्रा अवस्था में आये हुए स्वप्न का जागने के पश्चात् को जैन दृष्टि से अरिहंत और उसके बाद की तुर्यातीत स्थिति को भी भान होना, अनुभव करना स्वप्नावस्था है।28 | सिद्धदशा कह सकते हैं। 6. स्वप्नजागृत :- जागने पर भी चिरकाल तक स्वप्न के स्थायित्व गुणस्थान और चित्त की अवस्थाएँ :की कल्पना में डूबे रहना, उसे सत्य मानना स्वप्नजागृत हैं।9। वर्षों आध्यात्मिक भूमिकाओं का मध्यम मार्ग की दृष्टि से जैन तक प्रारंभ रहे स्वप्न का इसमें समावेश होता हैं। शरीरपात हो जाने दर्शन में जैसे चौदह गुणस्थानों के रुप में वर्गीकरण है और संक्षेपदृष्टि पर भी यह चलता रहता है। से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन अवस्थाओं में वर्गीकरण 7.सुषुप्तक :- जिसमें प्रगाढ अज्ञान के कारण जीव की जड जैसी किया गया है, वैसे ही योगदर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाओं का स्थिति हो जाती है; उसे सुषुप्तक कहते हैं।30 | वर्णन देखने में आता है। तुलनात्मक दृष्टि से उपयोगी होने से उनका अज्ञान की उक्त सात अवस्थाओं में से सुषुप्ति के सिवाय यहाँ उल्लेख करते हैं। छह अवस्थाएँ कर्म फल की भोगभूमिरुप होने से कर्मज हैं। सुषुप्ति चित्त की पाँच अवस्थाओं के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं तो उद्भूत कर्मो का योग से क्षय होने पर, दूसरे कर्मो का अनुदय _ - मूढ, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्धा38 | होने पर और मध्यकाल में भोग्य सकल स्थूलसूक्ष्म प्रपंच के विलीन 1. मूढ :- इस भूमिका में तमोगुण की प्रधानता होती है; जिससे हो जाने पर प्रपंच के बीज अज्ञान मात्र के शेष रहने से अज्ञानोपहित कर्तव्य और अकर्तव्य का भान भूला कर क्रोधादि के द्वारा यह भूमिका चैतन्य शेषरुप ही हैं; जो जीव की जडावस्था है। इस प्रकार की बुरे कार्यों से जोडती है। इस अवस्था में न तो सत्य को जानने 'जडावस्था का ही अपर नाम सुषुप्ति है। की जिज्ञासा होती है और न ही धर्म के प्रति रुचि होती है। यदि अज्ञान की सात भूमिकाओं का कथन करने के बाद अब 125. योगवासिष्ठ, उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग 117/15, 16 ज्ञान की सात भूमिकाओं का स्वरुप बतलाते हैं 126. अयं सो मदं तन्मम, इति जन्मान्तरोदितः। 8.शुभेच्छा :- आत्मावलोकन की वैराग्य युक्त इच्छा को शुभेच्छा पीवारः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजागृतदिति स्फुरन् । कहते हैं। -वही, सर्ग 117/16, 17 9.विचारणा :- शास्त्रभ्यास, गुरुजनों के संसर्ग तथा वैराग्य और 127. यज्जागृतो मनोराज्यं, जागृत स्वप्न स उच्यते । -वही, सर्ग 117/12 128. वही अभ्यास पूर्वक प्रवृत्ति विचारणा कहलाती है।32 | 129. वही 21, 22 10. तनुमानसा :- शुभेच्छा और विचारणा के कारण इन्द्रियविषयों 130. (..............) जडा जीवस्य या स्थितिः। में अवसक्तता रुप जो तनुता (सविकल्प समाधिरुप सूक्ष्मता) होती 131. वैराग्यपूर्वमिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः । है; वह तनुमानसा नामक भूमिका है।33 । - योगवासिष्ठ, उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग 118/8 11.सत्त्वापति :-शुभेच्छा, विचारणा और तनुमानसा इन तीनों भूमिकाओं 132. वही 9 133. विचारणाशुभेच्छभ्यामिन्द्रियोर्थेऽवसक्तता । याऽत्र सा तनुता भावात् प्रोच्यते के अभ्यास से बाह्य विषयों में संस्कार न रहने के कारण चित्त में तनुमानसा ।। - वही 10 अत्यन्त विरक्ति होने से माया, माया के कार्य और तीनों अवस्थाओं 134. वही, सर्ग 118/11 से शोधित सब के आधार, सत्पात्र रुप आत्मा में स्थित याने निर्विकल्प 135. दशा चतुष्टयाभ्यां सादसंसंग फलेन च। समाधिरुप जो स्थिति है, वह सत्वापत्ति है।34 सूलसत्वचमत्कारात् प्रोक्ताऽसंसक्ति नामिका ॥ -वही, सर्ग 118/12 12. असंसक्ति:- पूर्वोक्त चार ज्ञान-भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य 136. वही 13, 14 और आभ्यन्तर विषयाकारों से और उनके संस्कारों से असंबंधरुप समाधि 137. वही 15, 16 भविष्यद् दुःखबोधाढ्या सौषुप्ती सोच्यते गतिः॥ -वही, सर्ग 117/22, परिणाम से चित्त में वृद्धि को प्राप्त हुआ निरतिशय आनन्द नित्य 23. अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ब्रह्म भाव साक्षात्काररुप चमत्कार उत्पन्न होना अर्थात् 138. क. क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तमभूमयः । -योगदर्शन अनासक्ति की प्रबलता से मन में निरतिशय आनन्द का प्रादुर्भाव व्यासभाष्य होना असंसक्ति है।35 | ख. योगदर्शन, भोजदेववृत्ति, पृष्ट 8 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [201] रुचि होती भी है; तो धनसंग्रह करने की और प्राणियों को दु:ख आत्मा के विकास की स्थिति का कुछ भी ज्ञान नहीं हो सकता। देने की ओर होती है और असत्य, चोरी आदि पाप-कर्मों में प्रवृत्ति गुणस्थानों का संबंध आत्मा से हैं, चित्त से नहीं । अतः इन चित्तवृत्तियों होने की ओर होती है। सारांश यह है कि मूढवृत्तिवालों का जीवन की गुणस्थानों के साथ एक देश से तुलना हो सकती है, पूर्णत: नहीं। अज्ञान में ही व्यतीत होता है। एसी अवस्था अविकसित बुद्धिवाले इनसे इतना संकेत अवश्य मिलता है कि वैदिक दर्शनों में आध्यात्मिक मनुष्यों एवं पशुओं में देखने को मिलती है। उत्क्रान्ति के संबंध में कुछ न कुछ विचार अवश्य किया गया है। 2. क्षिप्त :- इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है। रजोगुण गुणस्थान और बौद्धदर्शन सम्मत अवस्थाएँ :की प्रबलता से चित्त सदैव चंचल रहता है। यह क्षिप्तभूमि दैत्य दानवों की होती है। रजोगुण और तमोगुण का मिश्रण होने पर क्रूरता, यद्यपि सामान्य से बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है; लेकिन उसने कामांधता, लोभ आदि की प्रवृत्तियाँ वृद्धिगत होती हैं और सतोगुण आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया है। उसने आत्मा की का मिश्रण होने पर नैतिक प्रवृत्तियों में मन अनुरक्त रहता है। संसारासक्त संसार व मुक्त आदि अवस्थाएँ मानी हैं। अत: उसमें आत्मा के विकास मानव में इस अवस्था को माना जा सकता है। के संबंध में चिन्तन किया गया हैं और आत्मा के विकास के क्रम 3. विक्षिप्त :- इस अवस्था में सतोगुण प्रधान होता है। रजोगुण का वर्णन किया गया हैं। और तमोगुण दबे हुए और गौण होते हैं। सत्त्व गुण की अधिकता बौद्ध ग्रंथो में स्वरुपोन्मुख होने की स्थिति से लेकर स्वरुप की वृत्ति दु:ख के साधनों को विशेषता से नष्ट करके सुख के साधनों की पराकाष्टा प्राप्त कर लेने की स्थिति का वर्णन हैं। यह वर्णन पाँच में लगी रहती है। वह धार्मिक वृत्ति की ओर उन्मुख होती है; किन्तु प्रकार के विभागों में विभाजित हैं - धर्मानुसारी, सोतापन्न, सकदागामी, रजोगुण के कारण चित्त विक्षिप्त बना रहता है। अनागामी और अरहा । इनमें धर्मानुसारी वह कहलाता है, जो निर्वाणमार्ग 4. एकान:- चित्त का प्रशस्त विषयों में एकाग्र होना, स्थिर रहना के अभिमुख हो; किन्तु अभी तक प्राप्त नहीं हुआ हो। इसे जैन एकाग्र वृत्ति हैं। जब रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव कम हो जाता मान्यता के अनुसार मार्गानुसारी कह सकते हैं। जो आत्मा अविनियत, है; तब चित्त की चंतलता को छोडकर मन किसी एक प्रशस्त विषय पर स्थिर हो जाता है और सदीर्ध काल तक चिन्तन की धारा उसी धर्मिनियत और संबोधि-परायण हो; उसे सोतापन्न कहते हैं । सोतापन्न प्रशस्त विषय पर केन्द्रित रहती है। विचार शक्ति में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता आत्मा सातवें जन्म में अवश्य निर्वाण प्राप्त करती हैं। सकादागामी एवं प्रशस्तता बढती जाती है। किसी वस्तु पर मन के केन्द्रित हो वह है, जो एक ही बार जन्म ग्रहण करके मोक्ष जानेवाला हो। जो जाने से वह वस्तु उसके वशीभूत हो जाती है। इस स्थिति में ही इस लोक में जन्म ग्रहण न करके सीधे ही मोक्ष जाने वाला हो; योग की शक्ति अभिव्यक्त होती है। इस भूमि को संप्रज्ञात योग, वह अनागामी है और जो संपूर्ण-समस्त आस्रवों का क्षय करके कृत सबीज समाधि भी कह सकते हैं। कार्य हो जाता है, उसे अरहा कहते हैं। प्रकारान्तर से इनके नामों 5. निरुद्ध :- चित्त की संपूर्ण वृत्तियों व संस्कारों का जिस अवस्था ___ का उल्लेख इस प्रकार भी देखने को मिलता है। पुथुज्जन, सोतापन्न, में लय हो जाते है; उसे निरुद्ध अवस्था कहते हैं। इस अवस्था सकदागामी औपपातिक और अरहा । पुथुज्जन का अर्थ सामान्य मानव को असंप्रज्ञात या निर्बीज समाधि भी कहते हैं। इसके प्राप्त होने है। इसके दो भेद हैं- अंध पुथुज्जन और कल्याणपुथुज्जन । इन दोनों पर साधक का चित्त के साथ संबंध टूट जाता है और वह अपनी का क्रमशः जैन दर्शन के अनुसार मिथ्यात्व और अविरत सम्यग्दृष्टि शुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है।391 की भूमिका मान सकते हैं140 | चित्त की उक्त पाँच अवस्थाओं में से मूढ और क्षिप्त इन दो अवस्थाओं में रजोगुण और तमोगुण का अत्यधिक प्रकर्ष रहता जैन शास्त्रों में जैसे बंध की कारण कर्म प्रकृतियों का है। साधक निःश्रेयस प्राप्ति के लिए प्रयत्न ही नहीं कर पाता। इन वर्णन है, वैसे ही बौद्ध दर्शन में निम्नलिखित दस संयोजनाएँ अवस्थाओं में आध्यात्मिक विकास के लिए अवकाश ही नहीं रहता। बतायी गयी हैविक्षिप्त अवस्था में जब सतोगुण की अधिकता होती है; तब साधक सक्काय, दिट्ठि, विचिकिच्छा, सीलव्वत पराभास, कामराग, कभी कदाचित् सात्त्विक विषयों में प्रवृत्ति करने का प्रयत्न करता है; परीघ, रुपराग, अरुपरता, मान, उदघच्च और अविज्जा141 | आदि की लेकिन रजोगुण और तमोगुण का भी अस्तित्व रहने से, समाधि में पाँच औद्भागीय और शेष पाँच उड्ढभागीय कही जाती है। चित्त की अस्थिरता रहने से उसे योग की कोटि में स्थान नहीं दिया इनमें से प्रथम तीन संयोजनाओं के क्षय होने पर सोतापन्न जा सकता। एकाग्र एवं निरुद्ध ये दो अवस्थाएँ सतोगुणवाली हैं। अवस्था प्राप्त होती है। पाँच औद्, भागीय संयोजनाओं के नाश होने पर अत: इनके समय में ही जो समाधि होती है; वही योग सहायक औपपातिक अनागामी अवस्था एवं दसों संयोजनाओं का नाश होने पर है और तभी आध्यात्मिक उत्कान्ति का क्रम आरंभ होता है। निरुद्ध अरहा (अरिहंत, सयोगी केवली) अवस्था प्राप्त होती है। यह वर्णन जैन अवस्था के अनन्तर आत्मा की जो स्थिति बनती है, वह मोक्ष है। शास्त्रगत कर्मप्रकृतियों के क्षयक्रम से मिलता जुलता है। गुणस्थानों के साथ यदि इन अवस्थाओं की तुलना की जाये सोतपन्न आदि चार अवस्थाएँ चौथे से लेकर चोदहवें गुणस्थान तो यह कहा जा सकता है कि पहली दो अवस्थाएँ जैनागमोक्त पहले मिथ्यात्व गुणस्थान की सूचक हैं। तीसरी विक्षिप्त अवस्था मिश्र गुणस्थान तक की भूमिकाओं के विचारों की प्रतिरुपक कहला सकती हैं। की सूचक है। चौथी अवस्था में आध्यात्मिक विकास किस क्रम से होता है, यह नहीं बताया गया है। इससे मात्र इतना ही संकेत मिलता है 139. तद्रा द्रष्टुं स्वरुपेऽवस्थानम्। पातंजल योगदर्शन 1/3 10. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ और पूर्णता, पृ. 69 कि सामान्य चित्त की चार भूमिकाएँ हो सकती हैं। लेकिन इससे 141. मराठी में भाषान्तरित दीधनिकाय, पृष्ठ 175 की टिप्पणी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [202]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अथवा यों कह सकते हैं कि उक्त चार अवस्थाएँ चतुर्थ आदि गुणस्थानों की प्राप्ति का कारण बताते हुए कहा है- पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म एसे की संक्षेप हैं। महासंक्लिष्ट परिणाम के कारण मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त होता है। पूर्व बौद्ध दर्शन में बोधिसत्त्व का जो लक्षण हैं।42; वह जैन भव में प्राप्त सम्यक्त्व का वमन कर जो जीव अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय दर्शन के सम्यग्दृष्टि के समान है। जो सम्यग्दृष्टि होता है; वह ग्राहस्थिक (पृथ्वी-अप्-वनस्पति) में, अपर्याप्त विकलेन्द्रिय और अपर्याप्त संज्ञि आरंभ-समारंभ में लग कर भी तप्तलोह-पदन्यासवत् सकंप एवं पापभीरु और असंज्ञि पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं एसे लब्धि पर्याप्त परन्तु करण होता है। यही रुप बौद्ध दर्शन में स्वीकार किया गया है कि बोधिसत्व अपर्याप्त जीवों को ही सास्वादन गुणस्थान उत्पत्ति के प्रथम समय में शरीर मात्र से अवश्य सांसारिक प्रवृत्ति में पड़नेवाला होता है; किन्तु होता है बाद में तो सभी जीव मिथ्यात्व गुणस्थान को ही प्राप्त करता हैं। और जब तीर्थंकर होने वाली आत्मा या अन्य कोई क्षायिक सम्यक्त्वी चित्तपाती (मन से लगने वाला) नहीं होता143 । आत्मा अथवा तीर्थंकर के अलावा अन्य कोई क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी बौद्ध दर्शन मान्य उक्त आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं आत्मा पूर्व भव का क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व लेकर यहाँ का सामान्यतः यह मन्तव्य है कि पहली अवस्था में आध्यात्मिक पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय रुप में जन्म लेती है तब वह लब्धि पर्याप्त परन्तु विकासवाले और अविकासवाले दोनों प्रकार के जीव हो सकते हैं। करण अपर्याप्त अवस्था में सीधे ही अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जो विकास की ओर उन्मुख हैं वे तो धर्मानुसारी (कल्याण पुथुज्जन) उत्पन्न होती है इस प्रकार इस अपेक्षा से अपर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय को हैं और उसके पूर्व आत्मा की जो दशा है उसे अंध पुथुजन कहते मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरत सम्यग्दृष्टि - ये तीन गुणस्थान प्राप्त हैं। सोतापन्न आदि शेष अवस्थाएँ निश्चित रुप से विकास के क्रम होते हैं।48 । मिश्र गुणस्थनक केवल पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव को ही की दर्शक हैं एवं अरहा अवस्था सशरीरी पूर्ण विकास की स्थिति प्राप्त होता है। अतः अपर्याप्त अवस्था में इसकी प्राप्ति नहीं होती। को बतलाती है और उसके बाद निर्वाण होता हैं।144 मिथ्यात्वी में से सम्यक्त्व प्राप्त कर कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्ति की इस प्रकार यद्यपि बौद्ध दर्शन में आत्मविकास का वर्णन योग्यता होने से पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय अवस्था में मनुष्य को सभी अर्थात् चौदह गुणस्थान प्राप्त होते हैं और सम्यक्त्वी देव तथा नारक को अवश्य लिया गया है, लेकिन उसमें गुणस्थानों के वर्णन की तरह अविरत सम्यग्दृष्टि तक और तिर्यंच को देशविरति तक के गुणस्थान प्राप्त क्रमबद्धता के दर्शन नहीं होते। इसलिए आंशिक तुलना हो सकती होते हैं।4। है; पूर्ण नहीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मविकास के इच्छुक दर्शनों 142. कायपातिन एवेह, बाधिसत्त्वाः परोदितम् । न चित्तपातिनस्तावदेतदभादि ने अपने-अपने ढंग से विकासक्रम का उल्लेख किया है। इसलिए युक्तिमत् ।। -- योगबिन्दु 271 यह तो कहा जा सकता है कि मोक्ष को स्वतंत्र पुरुषार्थ मान कर 143, एवं च यत्परैरुक्तं, बधिसत्वस्य लक्षणम्। विचार्यमाणं सनीत्या, तदप्यत्रोपपद्यते। उसकी उपलब्धि सभी को इष्ट है; पर उनमें क्रमबद्ध धारा के दर्शन तप्तलोहपदन्यासतुल्यावृत्ति क्वचिद्यदि । इत्युक्ते कायपात्येव चित्तपाती न अवश्य नहीं होते। जैन दर्शन में इसकी सविस्तार चर्चा हुई है; जो संस्मृतः ॥ गुणस्थान के रुप में पूर्व में बतायी गयी है। -सम्यग्दृष्टि द्वात्रिंशिका 10, || गुणस्थान में जीवस्थान 144. आध्यात्मिक विकास की भूमिका एवं पूर्णता-62 ___ गुणस्थान में वर्णित आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया जीव 145. अ.रा.पृ. 3/916-918: 4/1548-1552; कर्मग्रंथ 4, मार्गणास्थानप्रकरण - पर विवेचन - आचार्य श्रीमद्विजय वीरशेखरसूरि, पृ. 4, 30,31 ही करता है, अजीव नहीं। अतः प्रसंगवश राजेन्द्र कोश145 में और 146. समयसार, 65; समयसार वैभव, पृ. 71 समयसा[46 में जीवों के उक्त 14 भेदों का वर्णन किया गया है। साथ 147. अ.रापृ. 3/916, 917, 918 ही राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने ये जीव 14 गुणस्थानों में से कौन-कौन 148. अ.रा.पृ. 3/917, 918 से गुणस्थान प्राप्त करते हैं उसका भी वर्णन किया है।47 । इन गुणस्थानों 149. वही ('संघो गुणसंघातो') संघो गुणसंघातो, संघाय विमोयगो य कम्माणं । __ रागद्दोसविमुक्को, होइ समो सव्वजीवाणं ॥1॥ परिणामिय बुद्धीए, उववेतो होइ समणसंघो उ । कज्जे निच्छियकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो ॥2॥ सीसे कुलव्वए वा, गणव्वए संघवए य समदरिसी । ववहारसंथवेसु य, सो सीयघरोवमो संघो ॥3॥ - आरा.पृ. 6/921 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [203] गुणस्थान में जीवस्थाना50 क्र. गुणस्थानक का नाम 1. मिथ्यात्व x 2. सास्वादन |10. सूक्ष्म संपराय 11.उपशान्तमोह वीतराग छदास्थ क्र. जीवों के भेद x5. देशविरति 1. अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय |xxx 2. पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय V]xxxxxxxxxxxxx xx 3. अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय VIxxxxxxxxxxxx पृथ्वीकाय,अप्काय,वनस्पति | - - - - - - तेजःकाय, वायुकाय VIxxxxxxxxxxxxx - - x x 14. पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय Nxxxxxxxxxxxx 5. अपर्याप्त द्वीन्द्रिय VIV]xxxxxxxxxxxx x x 6. पर्याप्त द्विन्द्रिय x 7. मिथ्यात्व x x 9. अनिवृत्ति बादर र x 1 x | x |I.उपशान्तमोह वीतराग Tx12. क्षीणमोह वीतराग छद्मस्थ | x |13. सयोगी केवली xx 14. अयोगी केवली x | xxxx x x x 3. मिश्र x x x 2 || ||x/xxxxxxxxxx 4. अविरति x x x xx xxx xxx xxx xx x x x 8. अपूर्वकरण x | < x x x x x x x xxxx xxx xx 6. प्रमत x x |||||xxxx xx x x x x x 2 x x x x x x x xxxxxx x x x x x x x <| xxxxxxxxxxxxx 7. अपर्याप्त त्रीन्द्रिय VIVIXxxxxxxxxxxx 8. पर्याप्त त्रीन्द्रिय VIxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxxxx x x x Vxxxxxxxxxxxx |xxxxxxxxxxxxx 9. अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय 10. पर्याप्त चतुरिन्द्रिय 11. अपर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय 12. पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय 13. अपर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय 14. पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय देव, नारक तिर्यंच मनुष्य x x xxx vxvxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxNIA x म VIVVIxxxxxxxxx 2 NNNNN 150. अ.रा.प. 3/916, 917, 4/1548, 1582 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ blo Requeuje w juoasneuosial TIBAJd Joy Jeuoneuwarup uoneonpauier IL-Of there - - HIL Puksh276-776/E E ISI 14. अयोगी केवली 12.क्षीणमोह 13. सयोगी केवली 6. प्रमत वितराग छयस्थ 11. उपशान्तमोह 7. अप्रमत 13. मिश्र | 10. सूक्ष्म संपराय वितराग छयस्थ 9. अनिवृत्ति | 8. अपूर्वकरण बादर संपराय 4. अविरति 5. देवविरति 2. सास्वादन 1. मिथ्यात्व क्र. गुणस्थान मार्गस्थान xxx xx xxx xx2 |x/xixxx |x/x]xx 2 xxxx Xxx x] x |x/x/xxINNIMIM नरक गति १ Xxx xx xxxNNNNM तिर्यंच गति २ NAL | INNINNAM मनुष्य गति ३ |xxxxIMAN देव गति ४ x/x/x/x/x/x/x|| एकेन्द्रिय |x/xxx द्विन्द्रिय x x x Ixxxxxxx|त्रीन्द्रिय ७ xxxXIM चतुरिन्द्रिय ८ MMNAMMMM पंचेन्द्रिय ९ | xxxlxxx| पृथ्वीकायिक १० INI जलकायिक ११ X|| तेजस्कायिक १२ XI वायुकायिक १३ INM वनस्पतिका. १४ MMMMMMM त्रस १५ XIA IN IN IMMMMMMMM मनोयोग IN MMMMMMMM वचनयोग १७ | M MMMMMMMM काययोग x |xMMMMMMAAM पुरुष वेद १९ x x IMAAMANA स्त्रीवेद २० x IMMMMMMMM नपुंसकवेद २१ | MAINMMMMMM क्रोध कषाय २२ |x/ MMMMMMMMमान कषाय २३ X INNNNNNNN माया कषाय २४ xxx |x NANNAINMM लोभकषाय २५ । IN IMANANxxx| मति ज्ञान २६ MINIMINIMIMMxxx| श्रुत ज्ञान २७ XIXI AJNANANMxxx| अवधि ज्ञान २८ IININNxxxx[*] मनःपर्यवज्ञान २९ xx xxxxxxxx केवल ज्ञान ३० | |x x ||x/xlx|x/M मति अज्ञान ३१ xx [४] x xxxx]XIMMINश्रुत अज्ञान ३२ XXX | | xxxxxxx NMMविभंगावधि ३३ | xxxx xxxxxxxxxxxx xxxxx Cxxxxx xxxxxxxxxx |x/ xx xxx xcxxxxx---xxxxxxxxxxxxx |xxxxxxx xxxx x ८८८८xxxxxxx/22212x xxx | xx xx xx x Ishaninaina I Rate Ensure 2pnjabe "[roz] Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Biokutiquaure-mww. juoasneuosial TIBAJd Joy Jeuoneuwarup uoneonpauier 14. अयोगी केवली 13.सयोगी केवली 12.क्षीणमोह 11. उपशान्तमोह 6. प्रमत वितराग छद्मस्थ 7. अप्रमत 10. सूक्ष्म संपराय वितराग छद्मस्थ 9. अनिवृत्ति 3. मिश्र 8. अपूर्वकरण बादर संपराय 4. अविरति 5. देवविरति 2. सास्वादन 1. मिथ्यात्व क्र. गुणस्थान मार्गस्थान |४| ४ xxxxxxx असंयम ४० x x x x x x x x |x/-xxxxxxxxxxxxxxxxx x >Xxx>xxx>> x x x x x >]xx 7 |x/x/>xxx >> | ४ | | IMNMxxxxx सामायिक ३४ xxxx छेदोपस्थापनीय ३५ xxxx| परिहारविशुद्धि ३६ सूक्ष्मसांपराय ३७ x x xx/x] |XI यथाख्यात ३८ x |x/xXIX| |xx| देशसंयम ३९ MIN NAAMAAMANA चक्षुदर्शन ४१ IMIMNNNNNN अचक्षुदर्शन ४२ INAININNNINxxx अवधिदर्शन ४३ | ४ |x/xxxxxxxxx केवलदर्शन ४४ ___x |x/x/xlxINAAM कृष्ण लेश्या ४५ x xxxxXMAA नील लेश्या ४६ x |x/x1x1|NAAM कापोत लेश्या ४७ INNAMMMMM तेजो लेश्या ४८ |xx XMMMMMMM पद्म लेश्या ४९ NMMMMMMMMM Yok yer 40 |x x x x xkkx XXXXXXXXN अभव्य ५२ x |xXMMMMMXIX|| वेदक सम्यकत्व५३ IN INNNIMINxxx| उपशम सम्य ५४ IN IMMININNXXX क्षायिक सम्य ५५ |xx Xxx|XXINNA मिश्र सम्यक्त्व ५६ x xxxxxXIMM सास्वादनसम्य ५७ | xxxxxxx|| मिथ्यात्व ५८ IMIMININNAMसंज्ञी ५९ |x xxxxxXINMअसंज्ञी |AL NNNNNNNNN आहारी x x x xxxlxINXINM ६२ V / M "DR Rhesh Inym 79 mins [soz] "2mjhode Eeehenge Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [206]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन गुणस्थान में भाव अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने गुणस्थान में औपशमिक आदि पांचो भाव और सांनिपातिक भाव का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है जो संक्षेप में निम्नानुसार है। भाव: 'भाव' शब्द का परिचय देते हुए 'भावनं भावः' इस अर्थ में 'भाव' शब्द की व्याख्या करते हुए राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने लिखा है - 1. भवन्ति विशिष्टहेतुभिः स्वतो वा जीवानां तत्तद्रूपतया भवनं भावः । भवन्त्येभि-रुपशमाऽऽदिभिः पर्यायैरिति भाव:1521 2. औदयिकाऽऽदिके वस्तु परिणाम विशेष भवन्तीति भाव:153 । अर्थात् जीवों के या जीवों में स्वतः या विशिष्ट हेतुओं (निमित्तों) के द्वारा होने वाले या होते तद्रूप परिवर्तन को भाव कहते हैं। जिनागमसार में केवल जीव द्रव्य में पाये जाने वाले इन विशेष भावों को जीव के असाधारण भाव कहे हैं।54 | भाव के प्रकार: श्री अभिधान राजेन्द्र कोश में जीव के ये असाधारण भाव एवं अनेक अवांतर प्रकार निम्नानुसार बताये हैं : (1) औपशमिक भाव 2 (2) क्षायिक भाव 9 (3) क्षायोपशमिक भाव 18 (4) औदयिक 21 और (5) पारिणामिक 3, इस प्रकार ये वेपन (53) भावभेद जीव के भाव हैं।55 । 1. औपशमिक भाव156 :-कर्मो का फलदानसमर्थ रुप से अनुभव (उदय का अभाव) उपशम हैं। उपशम से युक्त भाव औपशमिक भाव कहलाता है। जिसमें मोहनीय कर्म का प्रदेश और विपाक दोनों तरह से अनुदय हो वह उपशम भाव कहलाता हैं। भाव कर्म का उपशम गुणस्थान क्षेत्र 1. उपशम सम्यक्त्व दर्शन मोहनीय के उपशम से होता है। 4 से 11 2. उपशम चारित्र मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम से होता है। 8 से 11 2. क्षायिक भाव:57:- कर्मो के सर्वथा क्षय से आत्मा को जो अत्यन्त शुद्ध भाव प्रगट होता है, उसे क्षायिक भाव कहते हैं। भाव कर्म का उपशम गुणस्थान क्षेत्र 1. क्षायिक सम्यक्त्व दर्शनत्रिक और अनंतानुबंधी चतुष्क के क्षय से 2. केवलज्ञान केवलज्ञानावरण के क्षय से 3. केवलदर्शन केवलदर्शनावरण के क्षय से 4. क्षायिक चारित्र मोहनीय के सर्वथा क्षय से 5-9 दानादि 5 लब्धियाँ तत्तत् अंतराय कर्म के क्षय से 4-14 13, 14 13, 14 12-14 13, 14 3. क्षायोपशमिक भाव158:- उदय में आये हुए कर्मो का क्षय और अनुदित कर्मो के उपशम से जीव को क्षायोपशमिक भाव प्राप्त होता है। यह भाव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय - इन चार घाती कर्मों में ही होता हैं। गुणस्थान क्षेत्र भाव 5 लब्धियाँ 1क्षायोपशमिकसम्यक्त्व 1 देशविरति कर्म का क्षयोपशम तत्संबंधी अंतराय के क्षायोपशम से दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से दर्शनत्रिक और अनंतानुबंधी चतुष्क तथा अप्रत्याख्यानीय चतुष्क के क्षयोपशम से 1 से 12 4 से 7 5 वाँ 152. अ.रा.पृ. 5/1500; भाग 2, 'आणुपुव्वी' शब्द, पृ. 153 153. अ.रा.पृ. 5/1500 154. जिनागमसार, पृ. 127, प्रश्न 1 155. अ.रा.पृ. 5/1500; तत्त्वार्थसूत्र 2/1-7, पञ्चाध्यायी, 2/961-963 एवं अर्थ; कर्मग्रंथ 4/64 का विवेचन, पृ. 10, 11, 12, 13 - आ. वीरशेखरसूरि 156. अ.रा.पृ. 5/99, तत्त्वार्थसूत्र 2/2; कर्मग्रंत 4, पृ. 10-11, -आ. वीरशेखरसूरि 157. अ.रा.पृ. 3/688-89; तत्त्वार्थसूत्र 2/2; 4; जिनागमसार पृ. 133-136 158. अ.रा.पृ. 3/689-90 तत्त्वार्थसूत्र 2/2,5; जिनागमसार पृ. 136-138 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [207] 1 सर्वविरति 10 उपयोग (2 केवल के बिना) अनंतानुबंधी-अप्रत्याख्यानीय-प्रत्याख्यानीयकषाय चतुष्क (12 कषाय) के क्षयोपशम से ज्ञानचतुष्कः तत्संबंधी ज्ञानावरण के क्षयोपशम से दर्शनत्रिकः तत्संबंधी दर्शनावरण के क्षयोपशम से कुज्ञानत्रिकः तत्संबंधी ज्ञानावरण के क्षयोपशम एवं उसके साथ ही मोहनीय के उदय 6 से 10 4 से 12 4 से 12 1,2,3 यहाँ इतना विशेष है कि दर्शनत्रिक में अवधि दर्शन के क्षयोपशम में विभंगज्ञानी को अवधि दर्शन की प्राप्ति होने से सिद्धांतकार ने अवधि दर्शन को 1 से 12 गुणस्थान बताये हैं। जबकि कर्मग्रंथ में कर्मप्रकृति के गुणस्थान प्राप्ति के वर्णन में प्रथम तीन गुणस्थान में अवधि दर्शन का निषेध करने से कर्मग्रंथकार ने अवधि दर्शन के 4 से 12 गुणस्थान बताये हैं।59 | 4. औदयिक भाव160 :- तत्संबंधी कर्मो के उदय से जीव को जो विकारी भाव उदय में आते हैं, उसे औदयिक भाव कहते हैं। क्रमांक भाव भाव संख्या कर्मोदय की कारणता गति4 तत्संबंधी गति नाम कर्म के उदय से प्राप्त होता भाव । कषाय तत्संबंधी कषाय मोहनीय कर्म के उदय से प्राप्त होता भाव। 3 तत्संबंधी वेद मोहनीय कर्म के उदय से प्राप्त होता भाव । लेश्या तत्संबंधी लेश्या के उदय से प्राप्त होता भाव । मित्यात्व मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से प्राप्त होता भाव । अज्ञान मोहनीय कर्म के उदय से प्राप्त होता भाव । असंयम चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से प्राप्त होता भाव । असिद्धत्व आठों कर्म के उदय से प्राप्त होता भाव । 21 वेद कुल पाँच निद्रा आदि भी औदयिक भाव ही कहलाते हैं परन्तु ग्रंथकार ने यहाँ 21 की ही विवक्षा की हैं। इन 21 भंगों के गुणस्थान मार्गणास्थान और गुणस्थान के टेबल में बताये हैं। 5. पारिणामिक भाव61 :- जीव के परिणाम से जो भाव प्राप्त होता है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। या जिस कारण से मूल पदार्थ में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो वैसा जीव और धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों में रहा हुआ स्वतः सिद्ध स्वभाव। जैसे - (1) जीवत्व (2) भव्यत्व (3) अभ्यत्व 6. सांनिपातिक भाव162:- दो, तीन भावों के संयोग से उत्पन्न होने वाले भावों को सांनिपातिक भाव कहते हैं। सांनिपातिक भाव के 26 भंग होते हैं जिसमें से 20 असंभवित हैं और 6 भंग संभवित हैं, उन्हें यहाँ बता रहे हैं। 1. क्षायिक पारिणामिक : सिद्ध भगवान् को होता है। 2. क्षायिका औदयिक पारिणामिक :- भवस्थ केवली भगवान् को 13 वें सयोगी केवली गुणस्थान में होता है। 3. क्षायोपशमिक औदयिक पारिणामिक :-चारों गति के क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीवों को चतुर्थ गुणस्थान में होता है। तिर्यंच 4, 5 वें गुणस्थान में और मनुष्य को 4 से 7 गुणस्थान में होता है। उपशम क्षायोपशमिक औदयिक पारिणामिक :- 4 गति के उपशम सम्यक्त्वी जीवों को उपरोक्तानुसार 4 से 7 गुणस्थान तक होता है। क्षायिक क्षायोपशमिक औदयिक पारिणामिक :- चारों गति के क्षायिक सम्यक्त्वी जीवों को उपरोक्तानुसार 4 से 7 गुणस्थान तक होता है। उपशम क्षायिक क्षायोपशमिक औदयिक पारिणमिक :- उपशम श्रेणी में रहे क्षायिक सम्यक्त्वी जीव मनुष्य को 8 से ____ 11 गुणस्थान में यह भंग रहता हैं। भावों का महत्त्वा: समस्त द्रव्यों का अपना अपना पारिणामिक भाव होता है। जीवों के औपशमिक आदि पाँच भाव होते हैं। सभी संसारियों के 159. षडशीति चतुर्थ कर्मग्रंथ, भावप्ररुपणा, द्वार, पृ. 10-11, -ले. विवेचक आचार्य श्रीमद्विजय वीरशेखरसूरि 160. अ.रा.पृ. 3/87; तत्त्वार्थसूत्र, 2/1-7;जिनागमसार, पृ. 148 से 160; कर्मग्रंथ 4/64, 65, 66 161. अ.रा.पृ. 5/875 162. अ.रा.पृ. 7/360-7; चतुर्थ कर्मग्रंथ, पृ. 12, 13 -ले. आ.वीरशेखरसूरि 163. धवलासार, पृ. 300; जिनागमसार, पृ. 168 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [208]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन औदयिक भाव होता ही है। और औपशमिक भाव के बिना धर्म की शरुआत नहीं होती। छद्मस्थ संसारियों के क्षायोपशमिक भाव होता है। और केवली, क्षायिक सम्यक्त्वी, क्षायिक चारित्री के क्षायिक भाव होते हैं। उपसंहार: गिरकर नीचे के गुणस्थान में रखा जाता है और यदि फिर सम्हलता प्रस्तुत प्रकरण में 'गुणस्थान' के विषय में अनुशीलन किया है तो अपक श्रेणी पर आरू ढ होकर बारहवें क्षीणकाषायवीतरागछद्मस्थ गया है। यहाँ 'गुण' शब्द भाव का वाचक हैं। जैन आगम में जीव अवस्था को पार कर के सयोग केवली नामक तेरहवें गुणस्थान में के पाँच भाव बताये गये हैं। इन्ही भावों का अंशतः आविर्भाव । पहुँचता हैं। और आयु समाप्त होने पर 14 वें गुणस्थान से होता हुआ तिरोभाव और पूर्णतः प्रकटीभाव 14 गुणस्थानों द्वारा स्पष्ट किया गया मुक्त हो जाता हैं। है। इसमें पाँचवाँ गुणस्थान देशविरति (असंयतासंयत) मनुष्य और ये गुणस्थान मोक्षमार्गी मनुष्यों में कर्म एवं कषायप्रभेदों के तिर्यञ्च, दोनों के हो सकता है। किन्तु प्रमत्तसंयत नामक षष्ठ गुणस्थान उतार-चढाव के कारण होते हैं। छठे गुणस्थान से आगे की सभी से लेकर आगे की स्थिति केवल मनुष्ययोनि में ही सम्भव हो पाती अवस्थाएं मात्र संयमी साधुओं में सम्भव हो पाती हैं। जैसे जैसे है। आठवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के गुणस्थानों को दो उत्कृष्टता आती है वैसे वैसे उसके गुणस्थान-क्रमारोहण होता जाता श्रेणियों में रखा जाता है- उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। अपूर्वकरण है और कषायों का रस कम होता जाता हैं। क्रमशः कषाय के कम (अष्टम), अनिवृत्तिकरण (नवम), सूक्ष्मसांपराय (दशम) और होने से कर्मों के बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता भी घटती जाती उपशान्तकाषाय वीतराग छद्मस्थ (एकादश), इन्हें उपशमश्रेणी में रखा है और अन्त में जीव कर्मरहित, अकषायी, अलेशी होता हुआ चरम जाता है; और अपूर्वकरण (अष्टम), अनिवृत्तिकरण (नवम), सूक्ष्मसांपण्य अयोगी केवली गुणस्थान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होता है। आगे के (दशम) और क्षीणकाषाय वीतराग छद्मस्थ (द्वादश), इन्हें क्षपकश्रेणी शीर्षक में कर्म, कषायों एवं लेश्या के बारे में संक्षिप्त अनुशीलन में रखा जाता है। उपशमश्रेणी पर आरुढ जीव एक बार नियम से प्रस्तुत किया जा रहा हैं। श्री अरिहन्त-तीर्थंकरदेवों की आज्ञा 1. विश्व के सूक्ष्मतव्य इत्यादि (वस्तु-पदार्थो) को दर्शाने वाली होने से उत्तम है। 2. सर्वदा स्थायी होने से अनादि अनन्त है। 3. सभी जीवों को अनाशक तथा हितकारिणी होने से 'भूतहिता' है। 4. सत्य वस्तु को प्रगट करनेवाली होने से 'भूतभावना रुप' है। 5. कल्पवृक्ष और चिन्तामणि रत से भी अधिक फल देनेवाली होने से 'अमूल्य है। 6. अपरिमित अर्थ को कहनेवाली होने से 'अमिता' है। 7. अन्य प्रवचनों की आज्ञा द्वारा अजेय होने से 'अजिता' है। 8. महान अर्थ वाली होने से 'महार्था' है। 9. महा सामर्थ्य सम्पन्न होने से 'महानुभावा' है। 10. विश्व के समस्त वव्यादिक का प्रतिपादन करनेवाली होने से 'महाविषया' है। श्री अरिहन्त-तीर्थकर भगवन्तों की इन्हीं दस आज्ञाओं को श्रुतकेवली व श्रीगणधर भगवन्तों ने श्री द्वादशांगी में गूंथा है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [209] कर्मवाद समस्त भारतीय सन्तों ने, महर्षियों ने, तत्त्वचिन्तकों ने कर्मवाद पर गहरा चिन्तन किया है। जैन, बौद्ध, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक आदि सभी दार्शनिकों ने कर्मवाद के सम्बन्ध में अनुचिन्तन किया, जिसकी प्रतिच्छाया धर्म, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, कला आदि समस्त विधाओं पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। किन्तु जैन परम्परा में कर्मवाद का जैसा सुव्यवस्थित वैज्ञानिक रुप उपलब्ध है- वैसा अन्यत्र नहीं है। अर्थात कर्मवाद का महत्त्व : कर्मवाद की गवेषणा का प्रमुख कारण विश्व के विशाल मंच पर सर्वत्र छाया हुआ विविधता, विचित्रता एवं विषमता का एक छत्र साम्राज्य है। कर्माधीन जीव-जन्म, जरा और मरण के भय से भयभीत चारों गतियों और चौरासी लाख योनियों में अलग अलग रुपों और अलग अलग स्थितियों में भटकता रहता है। प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख तथा तत्सम्बन्धी अनेक अवस्थाएँ कर्म की विचित्रता एवं विविधता पर ही आधारित है।सब संसारी जीवों के कर्मबीज भिन्न होने से उनकी स्थिति-परिस्थिति, सूरत-शक्ल में विलक्षणता है। मानव जाति को ही देखें - मनुष्यत्व सब में समान है, पर कोई राजा है तो कोई रंक, कोई बुद्धिमान है तो कोई मूर्ख, कोई धनी है तो कोई निर्धन, कोई सबल है तो कोई निर्बल, कोई रोगी है तो कोई निरोगी, कोई भाग्यशाली है तो कोई भाग्यहीन, कोई रुपवान है तो कोई रुपहीन - यह जो अन्तर है,उसका कारण है - अपनेअपने 'कर्म' । प्राणीमात्र को जो सुख और दुःख की उपलब्धि होती। है, वह स्वयं किये गये कर्मों का ही प्रतिफल है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल प्राप्त करता है। एक प्राणी किसी अन्य प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता। प्रत्येक प्राणी का कर्म स्वसम्बद्ध होता है, परसम्बद्ध नहीं। जैन परम्परा में जिस अर्थ में कर्म शब्द प्रयुक्त हुआ है उस अर्थ में अथवा उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य दर्शनों में निम्न शब्दों का प्रयोग किया गया है : माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अद्दष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि । माया, अविद्या और प्रकृति शब्द वेदान्त दर्शन में उपलब्ध है। अपूर्व शब्द मीमांसा दर्शन में प्रयुक्त हुआ है। वासना शब्द बौद्ध दर्शन में विशेषरुप से प्रसिद्ध है। आशय शब्द विशेषकर योग तथा सांख्य दर्शन में उपलब्ध है। धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार शब्द विशेषतया न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में प्रचलित हैं। दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि अनेक ऐसे शब्द हैं जिनका साधारणतया सब दर्शनों में प्रयोग किया गया हैं। इस प्रकार चार्वाक को छोडकर सभी भारतीय दर्शनों ने किसीन-किसी रुप में अथवा किसी-न-किसी नाम से कर्म की सत्ता स्वीकार की है। कर्म का अर्थ एवं स्वरुपः कर्म शब्द की निष्पत्ति 'कृ' धातु से हुई है - जिसका शाब्दिक अर्थ है- 'करना', 'कार्य', 'प्रवृत्ति' या 'क्रिया' । जीवन व्यवहार में जो भी कार्य किया जाता है, वह 'कर्म' है। जैन दर्शन के अनुसार जब मन-वचन और काया के योग से संसारी जीव रागद्वेषयुक्त प्रकृति करता है, तब आत्मा सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है और उनके द्वारा विभिन्न आत्मिक संस्कारों को उत्पन्न करता है, वे कर्म है। कर्म वह स्वतन्त्र वस्तु भूत पदार्थ है, जो जीवकी राग-द्वेषात्मक क्रिया से आकृष्ट होकर आत्मा के साथ लग जाता है। आत्मा में चुम्बक की तरह अन्य पुद्गल परमाणुओं को अपनी ओर आकर्षिक करने की शक्ति है और वह उन परमाणुओं को लोहे की तरह आकर्षित करती है। यद्यपि ये पुद्गल परमाणु भौतिक हैं- अजीव हैं - तथापि जीव की राग-द्वेषात्मक मानसिक, वाचिक और कायिक शारीरिक क्रिया के द्वारा आकृष्ट होकर-दूध और पानी की तरह आत्मा के साथे एकमेक हो जाते हैं। जीव के द्वारा कृत होने के कारण वह कर्म कहा जाता है। 'कीरइ जिएण हेऊहिं जेणं तो भण्णए कम्मं । ____ अर्थात् जीव की क्रिया का हेतु कर्म है। सारांश यह है कि, राग-द्वेष से युक्त संसारी जीव शुभ या अशुभ परिणति में रमण करता है तब कर्मरुपी पुद्गल उससे आकृष्ट होकर आत्मा के साथ चिपककर जो अच्छा-बुरा फल देते हैं, उन्हें 'कर्म' कहते हैं। जीव और कर्म का संबंध: आत्मा जिस शरीर/देह में रहता है वह देह मूर्त है और भवान्तर में जाते समय कार्मण शरीर साथ में रहता है। इस प्रकार धर्म-अधर्म के कारणभूत शरीर संसारी जीव को अवश्य साथ में रहता ही है। आत्मा यद्यपी अमूर्त है परन्तु संसारी जीव की आत्मा एकान्तिक अमूर्त नहीं है अत: जैसे स्वस्थ व्यक्ति में भी मदिरापान, विषभक्षण आदि का उपघात/प्रभाव होता है और शुद्ध पौष्टिक खानपान औषध आदि का भी प्रभाव देखा जाता है, वैसे अमूर्त आत्मा में भी मूर्त कर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है। जैसे लोहे के गोले में अग्नि संपूर्ण व्याप्त होकर रहता है वैसे आत्मा के सभी प्रदेशों में (आठ रुचक प्रदेश को छोडकर) जीव को कर्म का संबंध होता हैं। कर्म के प्रकार : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कर्म के 10 प्रकार निम्नानुसार दर्शाये हैं - 1. नाम कर्म - किसी व्यक्ति या पदार्थ का 'कर्म' एसा नाम होना। स्थापना कर्म - पुस्तकादि के पन्नो में कार्मण वर्गणाओं की सद्भाव-असद्भावरुप स्थापना । 3. दव्य कर्म - यह दो प्रकार का है कास 1. अ.रा.पृ. 3/246 2. कर्मविपाक हिन्दी अनुवाद प्रस्तावना पृ. 23 - पं. सुखलालजी संघवी 3. अ.रा.पृ. 3/241 4. अ.रा.पृ. 3/245, कर्मग्रंथ-1/1 5. अ.रा.पृ. 3/249-50 6. अ.रा.पृ. 3/244-45 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [210]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (1) द्रव्य कर्म/कर्म द्रव्य - कार्मण वर्गणा के अन्तःपाती ढंक देती है और ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनती हैं, वे ज्ञानावरणीय बन्धयोग्य, बद्ययमान (वर्तमान में जिसका बंध हो रहा कर्म कही जाती हैं।12 है), बद्ध (पूर्व संचित) एवं उदीरणा (अनुदित कर्मों को जैसे आँखों पर पट्टी बन्धी हो तो कुछ भी दिखाई नहीं उदय में लाकर क्षय करना) इन चारों प्रकार के कर्म पुद्गलों देता, ठीक उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा की निर्मल दृष्टि को को द्रव्य कर्म कहते हैं। आवृत्त कर देता है। ज्ञानदृष्टि पर पडा कर्मावरण आत्मा को स्वभाव (2) नो कर्म द्रव्य :- कृषिवलादि के द्वारा किया जाता से विभाव की ओर धकेल देता हैं, आत्मा के स्वाभाविक ज्ञानगण कृषिकर्मादि। को आवृत्त कर देते हैं।13 4. प्रयोग कर्म : जीव के द्वारा मन-वचन-काया के 15 योगों ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं: 1. मतिज्ञानावरण, के प्रयोगपूर्वक किया जानेवाला कर्म।' 2. श्रुतज्ञानावरण, 3. अवधिज्ञानावरण, 4. मनःपर्यय, मनःपर्यव अथवा समुदान कर्म - प्रयोग कर्म के द्वारा एकरुपतापूर्वक ग्रहण मनःपर्यायज्ञानावरण और 5. केवलज्ञानावरण । मतिज्ञानावरणीय कर्म की गई कार्मण वर्गणाओं का सम्यग् प्रकार से मूल-अत्तर मतिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को आच्छादित प्रकृत्ति, स्थिति-रस-प्रदेश बंध भेद की मर्यादा के द्वारा देशघाती करता है। श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्रों अथवा शब्दों और सर्वोपघाती कर्मप्रकृतियों का स्पृष्ट-बद्ध निघत्त-निकाचित के पठन तथा श्रवण से होनेवाले अर्थज्ञान का निरोध करता है। अवस्थापूर्वक स्वीकार करने रुप कर्म को समुदान कर्म कहते अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना होनेवाले रुपी द्रव्यों के ज्ञान को आवृत करता है। 6. इरियापथिक कर्म- जैन साधु के द्वारा प्रवचन, संघ, गच्छादि मन:पर्यायज्ञानावरणीय कर्म मनःपर्यायज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन की कार्यों हेतु यतनापूर्वक गमनागमन करते समय निष्कषाय भावपूर्वक सहायता के बिना संज्ञी-समनस्क-मनवाले जीवों के मनोगत भावों जो कर्म होता है, वह इरियापथिक कर्म है।' को जानने वाले ज्ञान को आच्छादित करता है। केवलज्ञानावरणीय आधा कर्म - दुःखरुप भौतिक/वैषयिक निमित्तों को सुखरुप कर्म केवलज्ञान अर्थात् लोक के अतीत, वर्तमान एवं अनागत समस्त और सुखरुप व्रत-नियमादि को दुःखरुप मानने के निमित्त पदार्थों को युगपत् - एकसाथ जाननेवाले ज्ञान को आवत करता हैं ।।4 से आठों कर्मों का बंध-होना, 'आधा कर्म' कहलाता है। कर्मावरण के द्वारा ज्ञानशक्ति के आच्छादन के बावजूद आत्मा 8. तप कर्म - स्पृष्टादि से निकाचित तक के कर्मों की निर्जरा में ज्ञानांश तो अवश्य ही रहता है - आत्मा सर्वथा ज्ञानशून्य अथवा हेतु 12 प्रकार का तप करना। ज्ञान रहित नहीं बनता। तभी तो वह जीवरुप में रहता है। उसमें 9. कति कर्म - अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय को कर्मनिर्जरा चेतना व अनुभूति की क्षमता बनी रहती है। यदि ज्ञानावरणीय कर्म हेतु भावपूर्वक द्वादशावर्त वंदन कनरा । आत्मा को सर्वथा ज्ञानशून्य बना दे, तो जीव-अजीव में जड़-चेतन में फिर भेद ही नहीं रहेगा। जिस प्रकार काली घटनाओं से घटाटोप 10. भावकर्म - अबाधाकाल का उल्लंघन करके जीव के द्वारा नभ-मण्डल सूर्य के प्रकाश को आवृत्त तो करता है, पर इतना नहीं उदीरणा करके प्रदेश विपाक से भव-क्षेत्र-पुद्गल और कि रात और दिन का अन्तर ही न मालूम हो। अर्थात् प्रकाशांश जीवविपाकी कर्मप्रकृतियों के अनुभावारस को जो पुद्गल तो रहता ही है - ठीक उसी प्रकार प्रगाढ ज्ञानावरणीय कर्मों का देते हैं, वे भावकर्म हैं। उदय होने पर भी-आत्मा जड पदार्थों से अलग रह सके, अपना कर्म प्रकृति अर्थात् कर्मफल: स्वरुप कायम रख सके, उतनी चेतना, उतना ज्ञान तो उसका अवश्य जैन कर्मशास्त्र में कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ मानी गई ही अनावृत्त रहता है। हैं। ये प्रकृतियाँ प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनूकूल एवं प्रतिकूल ज्ञानावरणीय कर्म बन्ध के कारण:फल प्रदान करती हैं। इन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं : 1. ज्ञानावरण, जिन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म के परमाणु आत्मा से संयोजित 2. दर्शनावरण, 3. वेनीय, 4. मोहनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र होकर ज्ञान शक्ति को कुंठित करते हैं, वे निम्न छः प्रकार के हैऔर 8. अन्तराय । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय - प्रदोष, निव, मार्क्सय, अन्तराय, आसादन और उपघात । ये चार घाती प्रकृतियाँ हैं। क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूलगुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य) का घात होता है। शेष चार अघाती प्रदोष (प्रद्वेष) - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों पर प्रकृतियाँ हैं क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करती। द्वेष रखना, तत्त्वज्ञान का निरुपण/वर्णवाद करते समय मन ही मन इतना ही नहीं, ये आत्मा को ऐसा रुप प्रदान करती हैं जो उसका 7. अ.रा.पृ. 5/46 निजी नहीं अपितु पौद्गलिक-भौतिक हैं।" 8. अ.रा.पृ. 3/244, 7/452 1. ज्ञानावरणीय कर्म: 9. अ.रा.पृ. 2/655 पदार्थ को जानना ज्ञान है। जो कर्म आत्मा की ज्ञानशक्ति 10. अ.रा.पृ. 3/258, कर्मग्रंथ-1/3 11. अ.रा.पृ. 3/247-48 को आवृत्त करें, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र 12. अ.रा.पृ. 4/1995; 3/258 कोश के अनुसार ज्ञानावरण अर्थात् पदार्थ के स्वरुप के विशेष 13. अ.रा.पृ. 3/259; 4/1995-96 बोध की प्राप्ति में मत्यादि पाँचो ज्ञान को अपने प्रभाव से आच्छादित ___14. अ.रा.पृ. 4/259; 4/1995-96 करनेवाला आवरण। जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को ढंक 15. अ.रा.पृ. 4/1996 देते हैं, उसी प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की जान शक्ति को 16. तत्त्वार्थ सूत्र-6/10; तत्त्वार्थ राजवातिक-6/10; सर्वार्थ सिद्धि-6/10 कर्मविपाक-पृ. 57 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में तत्त्वज्ञान के प्रति, उसके वक्ता के प्रति या उसके साधनों के प्रति द्वेष रखना। ईर्ष्या, पैशून्ययुक्त परिणामों का नाम प्रदोष / प्रद्वेष हैं। निह्नव - बहाना बनाकर 'मैं नहीं जानता' या 'यह ऐसा नहीं है' - इस प्रकार ज्ञान - ज्ञानी का अपलाप करना, छिपाना, अहंकारवश या अपनी विद्वता प्रदर्शित करने हेतु ज्ञानदाता गुरु का नाम छिपाना अथवा उत्सूत्र प्ररूपणा करना, निह्नव कहलाता है। (निह्नव= छिपना, गुप्त रखना) मात्सर्य - स्वयं विद्वान् और शास्त्र के अभ्यासी होते हुए और ज्ञान ग्राहक पात्र भी योग्य और अधिकारी होने पर भी बहाना बनाकर ज्ञान नहीं देने की कलुषित वृत्ति मात्सर्य भाव हैं। अन्तराय - विघ्न डालना ज्ञान प्राप्ति में भोजन, स्थान, विद्याभ्यास हेतु छात्रों को या साधु-साध्वी को उचित समय, ज्ञानोपकरण पुस्तकादि या ज्ञानदाता की प्राप्ति में बाधा डालना । आसादन आशातना - ज्ञानदाता को वाणी या शरीर से ज्ञान देते रोकना, प्रशंसनीय विद्या, ज्ञान, बुद्धि आदि की प्रशंसा न करना; अनुमोदन न करना, विशिष्ट ज्ञानी को हीनकुलादि का बताना, उनके संबंधित मर्मभेदी बातों को लोक में प्रकाशित करना आसादन कहलाता हैं। उपघात - नाश करना। ज्ञानी, ज्ञान के साधन, ज्ञान के स्थान / पाठशालादि का नाश करना अथवा किसी के उचित कथन में अपनी विपरीत मति, बुद्धि, इच्छा के कारण दोष निकालना, दूषण देना - उपघात कहलाता हैं। इसी प्रकार निषिद्ध स्थान (श्मसान, अशुचियुक्त भूमि आदि, निषिद्ध काल (असज्झाय काल) में अभ्यास करना, ज्ञानी, विद्यागुरु का विनय न करना, पुस्तकादि को भूँक लगाना, ज्ञान के साधन को पैरों से हटाना, उनको तकिये के रुप में उपयोग में लेना, पुस्तकों को भण्डार में पडे-पडे सडने देना किन्तु सदुपयोग नहीं होने देना, पुस्तकादि को योग्य स्थान पर न रखना, उन्हें उदर-पोषण के लक्ष्य से बेचना तथा ऐसे अन्य कार्य करने से ज्ञानावरणीय कर्मों का बन्ध होता हैं। दर्शनावरणीय कर्म- जो दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व को आवृत्त करे, वह दर्शनावरण कहलाता | पदार्थ के सामान्य बोध स्वरुप दर्शन की प्राप्ति में अपने प्रभाव से जो रुकावट डालता है वह दर्शनावरण कहलाता है। जीव के व्यापार के द्वारा आकृष्ट हुई कार्मण वर्गणाओं के अन्तर्गत मिथ्यात्वादि संबंधी कार्मण वर्गणाओं के विशिष्ट पुद्गल समूह का आवरण 'दर्शनावरणीय कर्म' कहलाता हैं। 17 दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर- प्रकृत्तियाँ हैं : 1 1. चक्षुर्दर्शनावरण, 2. अचक्षुर्दर्शनावरण, 3. अवधिदर्शनावरण, 4. केवलदर्शनावरण, 5. निद्रा, 6. निद्रा-निद्रा, 7. प्रचला, 8. प्रचलाप्रचला और 9. स्त्यानर्द्धि- स्त्यानगृद्धि । आँख के द्वारा पदार्थों के सामान्य धर्म के ग्रहण को चक्षुर्दर्शन कहते हैं। इसमें पदार्थ का साधारण आभासमात्र होता है। चक्षुर्दर्शन को आवृत करनेवाला कर्म चक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है। आँख को छोडकर अन्य इन्द्रियों तथा मन से जो पदार्थों का सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुर्दर्शन कहते है। इस प्रकार के दर्शन का आवरण करने वाला कर्म अचक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है । इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा न रखते हुए आत्मा द्वारा रुपी पदार्थों का सामान्य बोध होने का नाम अवधिदर्शन चतुर्थ परिच्छेद... [211] है। इस प्रकार के दर्शन को आवृत करनेवाला कर्म अवधिदर्शनावरण कहलाता है। संसार के अखिल त्रैकालिक पदार्थों का सामान्यावबोध केवलदर्शन कहलाता है। इस प्रकार के दर्शन का आवरण करनेवाला कर्म केवलदर्शनावरण के नाम से प्रसिद्ध है। निद्रा आदि अंतिम पाँच प्रकृतियाँ भी दर्शनावरणीय कर्म का ही कार्य है। जो सोया हुआ प्राणी थोडी सी आवाज से जग जाता है अर्थात् जिसे जगाने में परिश्रम नहीं करना पडता उसकी नींद को निद्रा कहते हैं। जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उस कर्म का नाम भी निद्रा है। जो सोया हुआ प्राणी बडे जोर से चिल्लाने, हाथ से जोर से हिलाने आदि से बडी मुश्किल से जागता है उसकी नींद एवं तन्निमित्तक कर्म दोनों को निद्रानिद्रा कहते हैं। खड़े-खडे या बैठे-बैठे नींद लेने का नाम प्रचला है। उसका हेतुभूत कर्म भी प्रचला कहलाता है। चलते-फिरते नींद लेने का नाम प्रचलाप्रचला है। तन्निमित्तभूत कर्म को भी प्रचलाप्रचला कहते हैं। दिन में अथवा रात में सोचे हुए कार्यविशेष को निद्रावस्था में सम्पन्न करने का नाम स्त्यानर्द्धि- स्त्यानगृद्धि है। जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उसका नाम भी स्त्यानर्द्धि अथवा स्त्यानगृद्धि है । 18 दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की दर्शन शक्ति को प्रगट नहीं होने देता तथा उपरोक्त पाँचों निद्राएँ प्राप्त दर्शन को समूल नष्ट कर देती है। जिस प्रकार द्वारपाल दर्शनार्थी को राजदर्शन से वंचित रखकर महल के अंदर प्रवेश में रुकावट डालता है उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्म-दर्शन से वंचित रखकर मुक्ति-महल में प्रवेश करने में रुकावट डालता है। 19 दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के कारण: ज्ञानावरणीय कर्म के समान ही छः प्रकार के अशुभ आचरण के द्वारा दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है 1. 2. 3. 4. सम्यग्दृष्टि की निन्दा (छिद्रान्वेषण) करना अथवा उसके प्रति अकृतज्ञ होना, मिथ्यात्व या असत् मान्यताओं का प्रतिपादन करना, शुद्ध द्दष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक बनना, सम्यग्द्दष्टि का समुचित विनय एवं सम्मान नहीं करना, सम्यग्द्दष्टि पर द्वेष करना, 5. 6. सम्यग्द्दष्टि के साथ मिथ्याग्रह सहित विवाद करना । 20 वेदनीय कर्म :- अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जिसके कारण सांसारिक सुख-दुःख (शाता - अशाता) की संवेदना होती है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। 21 वेदनीय कर्म के उदय से आत्मा को सुख या दुःख का वेदन होता है । 22 यह आत्मा के अव्याबाध (सदा आनन्दमय रहना) सुख के गुण को आवृत्त करता है। यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बनाकर अनन्त दुःख के समुद्र में धकेल देता है । वेदनीय कर्म दो प्रकार का होता है साता वेदनीय इसके उदय से जीव अनुकूल सांसारिक विषय, भोजन, वस्त्र आदि तथा शारीरिक एवं मानसिक 17. अ. रा. पृ. 4/2437; जै. सि.को. 3/419 18. वही पृ. 4/2437-38; 3/259, जै. सि.को. - 3/420, प्रथम कर्मग्रथं 10, तत्त्वार्थ सूत्र - 8 / 6; उत्तराध्ययन सूत्र-33/5,6 19. अ.रा.पू. 4/2438 20 तत्त्वार्थ सूत्र 6 / 11; जैन विद्या के आयाम पृ. 6/211 21. अ. रा.पृ. 3/260; 6/1448 22. जै.सि.को. 3/591 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [212]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सुख का अनुभव करता है। असाता वेदनीय- इसके उदस ये प्रतिकूल वस्तु के प्राप्त होने पर जीवनयात्रा में मदद मिलने से उसके सदगणों विषयों का - प्रतिकूल शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का संयोग की वृद्धि होती है।। होने से दुःख-वेदना-असाता उत्पन्न होती है। सराग संयमादि योग - इस पद में सराग, संयम, आदि वेदनीय कर्म मधुलिप्त असिधार की तरह है। शहद लगी और योग इन चार शब्दों को ग्रहण किया गया है। अत: इस पद तलवार की धार को चाटनेवाला शहद की मधुरता पाकर क्षणभर के का पूरा अर्थ जानने के लिए पद गत चारों शब्दों के अर्थ अब बतलाये लिए तो सुख पाता है, किन्तु जीभ कट जाने से उसे असह्य दुःख जा रहे हैं। जो संसार के कारणों के त्याग के प्रति उत्सुक है; परन्तु का अनुभव भी करना पडता है। इस उपमा का अभिप्राय यही है मन से अभी तक राग के संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं अथवा पूर्वोक्त कि सांसारिक सुख थोडा है और दुःख अधिक। कहा गया है कि कर्म के उदय से जिनके कषाय शान्त नहीं हुए है; पर कषाय निवारण 'खणमित्त सुक्खा, बहुकाल दुक्खा'-सांसारिक सुख अल्पकाल का के लिए जो तैयार है; उन्मुख है; उन्हें सराग कहते हैं।" है और दुःख दीर्धकाल तक रहता है। प्राणियों की रक्षा करना और इन्द्रियों की वैषयिक प्रवृत्ति शातावेदनीय कर्म के कारण - दस प्रकार का शुभाचरण को रोकना अथवा प्राणियों एवं इन्द्रियों के विषय में अशुभ प्रवृत्ति करने वाला व्यक्ति सुख-संवेदना रुप सातावेदनीय कर्म का बन्ध का त्याग करना संयम कहलाता है। रागी जीव का संयम अथवा करता है - (1) पृथ्वी, पानी आदि के जीवों पर अनुकम्पा करना। राग सहित संयम सराग संयम कहलाता है। इसके साथ संलग्न आदि (2) वनस्पति, वृक्ष, लतादि पर अनुकम्पा करना । (3) द्वीन्द्रिय आदि व योग शब्द का अर्थ यह है कि सराग संयम के अतिरिक्त संयमा प्राणियों पर दया करना । (4) पंचेन्द्रिय पशुओं एवं मनुष्यों पर अनुकम्पा संयम, अकाम निर्जरा, बालतप इन रुपों में भी यथोचित ध्यान देना । करना । (5) किसी को भी किसी प्रकार से दुःख न देना (6) किसी आंशिक अणुरुप कुछ संयम स्वीकार करना यानि अणुव्रत को स्वीकार भी प्राणी को चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो एसा कार्य न करना। (7) करना - अंगीकार करना संयमा संयम है। किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनना। (8) किसी भी प्राणी क्षान्ति - क्रोधादि दोषों का शमन करना। क्रोध, को रुदन नहीं कराना। (9) किसी भी प्राणी को नहीं मारना और मान, अहंकार, द्वेष आदि के कारण उपस्थित होने पर भी (10) किसी भी प्राणी को प्रताडित नहीं करना। कर्मग्रन्थों में एवं शुभ परिणामों से उनकी निवृत्ति करना अथवा उन्हें शमित तत्त्वार्थसूत्र में भी यही कारण दर्शाये गये हैं। करना शान्ति कहलाता है। वेदनीय कर्म के बन्ध हेतु : शौच - लोभवृत्ति और तत्समान दोषों का, स्वद्रव्य का साता वेदनीय के बन्धहेतुओं में कुछ के नाम इस प्रकार त्याग नहीं करना, पर द्रव्य का अपहरण करना, धरोहर को हडप लेना हैं - भूत अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान, सराग संयम आदि, योग, आदि रुप लोभ के विभिन्न प्रकारों का त्याग करना, उनसे निवृत्त शान्ति और शौच ।26 होना, उनका शमन करना शौच है। भूत अनुकम्पा - आयु व नाम कर्मोदय के कारण विविध इसी प्रकार गुरुजनों, माता-पिता, धर्माचार्य, विद्या, शिक्षा गतियों में विद्यमान आत्माओं को भूत कहते हैं। भूत, प्राणी, जीव, देने वाला, ज्येष्ठ भ्राता आदि की सेवा करना, वृद्ध, बाल, सत्व ये समानार्थक शब्द हैं, लेकिन परिचय के लिए कुछ अन्तर ग्लान आदि की वैयावृत्य करना, धर्मात्माओं को उनके धार्मिक कर लिया जाता है। जैसे भूत शब्द वानस्पतिक जीवों का संसूचक कृत्य में सहायता पहुंचाना, धर्म में अपने आपको स्थिर रखना है; प्राणी शब्द द्वीन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों का तथा जीव तथा प्राणियों को दुःख, शोक, ताप न पहुँचाना, उन्हें आक्रन्दित शब्द पंचेन्द्रिय जीवों का और सत्व शब्द पृथ्वी, जल, अग्नि और न करना, उनका वध न करना आदि कारणों से साता वेदनीय वायु इन चतुर्विध स्थावरकाय के जीवों का परिचायक है। अनुकम्पा कर्म का बन्ध होता है। अर्थात् कारुण्य भाव रखना यानि जगत् के जीवों के दुःखों, कष्टों, दुःख - बाह्य या आन्तरिक निमित्त से पीडा का होना संकट, विपत्तियों को अपना ही दुःख आदि मानना, समझना, अनुभव दुःख है। चाहे फिर यह निमित्त विरोधी पदार्थो के मिलनेरुप, इष्ट करना अनुकम्पा कहलाती है। 'आत्मवत्-सर्व भूतेषु' की भावना को का वियोग और अनिष्ट के संयोगरुप या निष्ठुर वचन आदि किसी साकार रुप देना अनुकम्पा है।28 भी रुप में हो। व्रती अनुकम्पा - हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह शोक - किसी हितेषी के साथ सम्बन्ध टूटने से, अनुग्रह से विरत होना, इन्हें त्यागना व्रत कहलाता है। अल्पांश रुप से व्रत धारण करनेवाले गृहस्थ श्रावक और सर्व सावद्य त्यागी श्रमण 23. अ.रा.पृ. 3/260; 6/1448 इन दोनों पर विशेष प्रकार से अनुकम्पा व्रत्यनुकम्पा है अर्थात् 24. अ.रा.पृ. 6/1448; जै.सि.को. 3/592 25. कर्मग्रंथ-1/55; तत्त्वार्थ-सूत्र-6/13 निरतिचार रुप से उनके व्रत पालन में, संयमाराधना में सहायक 26. तत्त्वार्थ-सूत्र-6/3 बनना व्रत्यनुकम्पा है। 27. राजवार्तिक पृ. 522 दान - न्यायोपाजित वस्तु को दूसरों के लिए उपकार 28. कर्मप्रकृति गाथा 45 भावना से नम्रतापूर्वक अर्पण करना दान कहलाता है। यह अर्पण 29. तत्त्वार्थ-सूत्र-7/1 उसके कर्ता और स्वीकार करनेवाले दोनों के लिए उपकारक होता 30. तत्त्वार्थ-सूत्र-7/33 31. सर्वार्थसिद्धि-6/12 है। अर्पण करनेवाले का मुख्य उपकार यह है कि उस वस्तु से 32. राजवार्तिक पृ. 522 उसका ममत्व हट जाता है; अतः उसे संतोष एवं समभाव की 33. तत्त्वार्थ-सूत्र-6/11 प्राप्ति होती है तथा स्वीकार करनेवाले का यह उपकार है कि उस 34. सर्वार्थसिद्धि-6/11 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन करनेवाले बन्धु आदि से विच्छेद होने से उसका बार-बार विचार करके जो चिन्ता, खेद, विकलता आदि मोह कर्म विशेष - शोक के उदय से होनेवाले विकलतायुक्त परिणामों को शोक कहते हैं 135 ताप - पराभवकारी कठोर वचनों के सुनने, अपमान होने आदि से मन के कलुषित होने के कारण तीव्र संताप का होना ताप कहलाता है 136 आक्रन्दन - परिताप के कारण अश्रुपात, अंग विकार, सिर फोडना, छाती पीटना आदिपूर्वक रोना आक्रन्दन है। 37 वध - आयुः, इन्द्रिय, बल, प्राण आदि का विघात करना वध कहलाता 138 परिवेदन वियुक्त, बिछुडे हुए व्यक्ति के गुणों का स्मरण होने पर अति संक्लेशपूर्वक करुणाजनक रुदन करना परिवेदन कहलाता है | 39 उक्त कारणों के अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य कार्यों से भी असातावेदनीय कर्म का विशेष बन्ध होता है। जैसे जीवों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने से, स्वयं धर्म का पालन न करने और दूसरे को भी पालन न करने देने से, धार्मिकजनों के प्रति अनुचित आचरण करने से, मद्य-मांस आदि का सेवन करने से, व्रत-शीलतपादि के आधारकर्मों का उपहास करने से, मूक प्राणियों (गाय, बैल, कुत्ता, तोता, मैना आदि) का छेदन-भेदन, अंग-उपांग आदि विकृत करने से, अशुभ परिणामों से, इन्द्रिय विषयों में तीव्र लालसा रखने से एवं विविध प्रकार के अन्यान्य निन्दनीय आचरण करने आदि से असाता वेदनीय कर्म के तीव्र अनुभाव और स्थितिवाला बन्ध होता है। सातावेदनीय कर्म का विपाक उपर्युक्त शुभाचरण के फलस्वरुप प्राणी निम्न प्रकार की सुखद संवेदना प्राप्त करता है- (1) मनोहर, कर्णप्रिय, सुखद स्वर श्रवण करने को मिलते हैं, (2) सुस्वादु भोजनपानादि उपलब्ध होती है, (3) वांछित सुखों की प्राप्ति होती हैं, (4) शुभ वचन, प्रशंसादि सुनने का अवसर प्राप्त होता है, (5) शारीरिक सुख मिलता है। 40 असातावेदनीय कर्म के कारण जिन अशुभ आचरणों के कारण प्राणी को दुःखद संवेदना प्राप्त होती है वे 12 प्रकार के हैं - (1) किसी भी प्राणी को दुःख देना, (2) चिन्तित बनाना, (3) शोकाकुल बनाना, (4) रुलाना, (5) मारना और (6) प्रताडित करना, इन छः क्रियाओं की मन्दता और तीव्रता के आधार पर इनके बारह प्रकार हो जाते हैं 141 तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार 2 - (1) दुःख (2) शोक (3) ताप (4) आक्रन्दन (5) वध और (6) परिदेवन ये छ: असातावेदनीय कर्म के बन्ध केकारण हैं, जो 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा पर आधारित तत्त्वार्थसूत्र का यह दृष्टिकोण अधिक संगत है । कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय के बन्ध के कारणों के विपरीत गुरु का अविनय, अक्षमा, क्रूरता, अविरति, योगाभ्यास नहीं करना, कषाययुक्त होना, तथा दान एवं श्रद्धा का अभाव असातावेदनीय कर्म के कारण माने गये हैं । अशाता वेदनीय कर्म के विपाक : (1) कर्ण - कटु, कर्कश स्वर सुनने को प्राप्त होते है, (2) अमनोज्ञ एवं सौन्दर्यविहीन रुप देखने को प्राप्त होता है, (3) अमनोज्ञ गन्धों की उपलब्धि होती है, (4) स्वादविहीन भोजनादि मिलता है, (5) अमनोज्ञ, कठोर एवं दुःखद संवेदना उत्पन्न करनेवाले स्पर्श की प्राप्ति होती है, (6) अमनोज्ञ मानसिक अनुभूतियों का होना, (7) निन्दा चतुर्थ परिच्छेद... [213] अपमानजनक वचन सुनने को मिलते हैं और (8) शरीर में विविध रोगो की उत्पत्ति से संबंधी का दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं । 43 प्राय: करके देव एवं मनुष्य गति में साता वेदनीय और तिर्यंच और नरक गति में असाता वेदनीय का उदय होता है तथापि देवता को देवलोक से च्यवन काल में, मनुष्यों में इष्टवियोग- अनिष्टसंयोग, वध-बंधनादि से असाता वेदनीय का भी उदय होता है। उसी प्रकार चक्रवर्ती आदि के हस्ति, अश्व आदि तिर्यंचो को भी सातावेदनीय का उदय होता है । उसी प्रकार नारकी के सतत असाता में भी जिन जन्मकल्याणकादि के समय साता वेदनीय का अनुभव होता है। 44 मोहनीय कर्म : मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। जिस तरह मदिरापान मनुष्य की बुद्धि को मूच्छित कर उसे ऐसा मूढ और बेसुध बना देता है कि मनुष्य की बुद्धि नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। जिन कर्म-परमाणुओं से आत्मा की विवेक-शक्ति कुंठित होती है और अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति होती है, उन्हें मोहनीय कर्म कहते हैं। मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव 'स्व' पर का, कर्तव्य-अकर्तव्य का, सत्-असत् का भान भूलकर होश - हवास खो देता है जिन कर्म-परमाणुओं से आत्मा की विवेक - शक्ति कुंठित होती है और अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति होती है, उन्हें मोहनीय कर्म कहते हैं । स्वभाव से विभाव में भटका जीवन पुत्र, परिवार, स्त्री, मकान, शरीर, सम्पत्ति, पद आदि परपदार्थों को अपना समजकर उसी में ममत्व बुद्धि रखता हैं । ममकार और अहंकार से भरा मोहनीय कर्म-वेष्टित जीव, इनके संयोग से सुख तथा वियोग से दुःख और शोक का अनुभव करता है। 45 I उत्तराध्ययन में कहा गया है"- कम्मं च मोहप्पभवं वयन्तिअर्थात् कर्म मोह से उत्पन्न होता है। मोह की ही लीला है - समस्त संसार । इसीलिए मोहनीय कर्म को कर्मो का राजा कहा गया है। आठों कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे बलवान और भयंकर होता है। अतः मोक्षाभिलाषी प्रत्येक प्राणी को सबसे पहले इसी कर्म को नष्ट करने का प्रयास करना पडता है। सेनापति के मरते ही जिस प्रकार सारी सेना भाग जाती है, ठीक उसी प्रकार मोहनीय कर्म के नष्ट होते ही सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं। मोहनीय कर्म की मुख्य दो उत्तर - प्रकृतियों हैं : दर्शनमोह अर्थात् दर्शन का घात और चारित्रमोह अर्थात् चारित्र का घात । जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही समझने का नाम दर्शन है। यह तत्त्वार्थश्रद्धानरुप आत्मगुण है। इस गुण का घात करनेवाले कर्म का नाम 35. वही 36. 37. 38. सवार्थसिद्धि-6/11 39. राजवार्तिक पृ. 519 40. जै. सि.को. 3/592 41. 42. 43. 44. 45. सवार्थसिद्धि - 6 / 11; कर्मप्रकृति- 145 टीका राजवार्तिक पृ. 519 46. जै. सि.को. 3/592, अ.रा. पृ. 3/250 तत्त्वार्थ सूत्र - 6 /12 जै. सि.को. - 3/592 अ. रा.पू. 6/1448 अ. रा. पृ. 6/451; जै. सि.को. 3/341-42 उत्तराध्ययन अ. 33 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [214]... चतुर्थ परिच्छेद दर्शनमोहनीय है। जिसके द्वारा आत्मा अपने यथार्थ स्वरुप को प्राप्त करता है उसे चारित्र कहते हैं । चारित्र का घात करनेवाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। दर्शनमोहनीय कर्म के पुनः तीन भेद हैः सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय। सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक-कर्मपरमाणु शुद्ध होते हैं। यह कर्म शुद्ध-स्वच्छ परमाणुओंवाला होने के कारण तत्त्वरुचिरुप सम्यक्त्व में बाधा नहीं पहुँचाता किन्तु इसके उदय से आत्मा को स्वाभाविक सम्यक्त्वकर्मनिरपेक्ष सम्यक्त्व - क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होने पाता । परिणामत: उसे सूक्ष्म पदार्थो के चिन्तन में शंकाएँ हुआ करती है । मिथ्यात्वमोहनीय के दलिक अशुद्ध होते हैं। इस कर्म के उदय से प्राणी हित को अहित समझता है और अहित को हित विपरीत बुद्धि के कारण उसे तत्त्व का यथार्थ बोध नहीं होने पाता। मिश्रमोहनीय के दलिक अर्धविशुद्ध होते हैं। इस कर्म के उदय से जीव को न तो तत्त्वरुचि होती है, न अतत्त्वरुचि । इसका दूसरा नाम सम्यक् मिथ्यात्वमोहनीय है । यह सम्यक्त्व - मोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय का मिश्रितरुप है। जो तत्त्वार्थ श्रद्धान और अतत्वार्थ- श्रद्धान इन दोनों अवस्थाओं में से शुद्ध रुप से किसी भी अवस्था को प्राप्त नहीं करने देता । मोहनीय के दूसरे मुख्य भेद चारित्र मोहनीय के दो भेद है : कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय। कषाय मोहनीय मुख्यरुप से चार प्रकार का है : क्रोध, मान, माया और लोभ । क्रोधादि चारों कषाय तीव्रतामंदता की दृष्टि से पुनः चार-चार प्रकार के हैं : अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन | इस प्रकार कषायमोहनीय कर्म के कुल सोलह भेद है। जिनके उदय से प्राणी में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन दर्शनमोहनीय कर्म के बन्ध हेतु: दर्शन मोहनीय के बन्ध हेतुओं में से कुछेक इस प्रकार हैं - केवलज्ञानी, श्रुत, संघ, धर्म और देवों का अवर्णवाद 48 करने से तथा असत्य मार्ग का उपदेश और सन्मार्ग का अपलाप करने से दर्शन मोहनीय कर्म का तीव्र बन्ध होता है। 49 केवलज्ञानी का अवर्णवाद:- ज्ञानावरण कर्म का अत्यन्त क्षय हो जाने से जिनको स्वाभाविक अनन्त ज्ञान प्रकट हो गया है तथा जिनका ज्ञान इन्द्रिय, कालक्रम और दूरदेशादि के व्यवधान से अतिक्रान्त है एवं परिपूर्ण हैं, उन्हें केवलज्ञानी कहते हैं। अर्थात् निरावरण और परिपूर्ण ज्ञानवाले केवलज्ञानी कहलाते हैं 150 लेकिन ऐसे केवलज्ञानी में भी दुर्बुद्धि से असत्य दोषों को बताना - जैसे सर्वज्ञता स्वीकार न करना और ऐसा कहना कि सर्वज्ञ होकर भी उसने मोक्ष के सरल और सीधे उपाय जो जनसाधारण की समझ में आ जाये, ऐसा न बताकर, जिनका आचरण शक्य नहीं, ऐसे दुर्गम उपाय बताये। वीतरागत्व व सर्वज्ञत्व अर्हन्त में नहीं है, क्योंकि जगत के समस्त प्राणी ही राग, द्वेष और अज्ञान से परिवृत देखे जाते हैं। स्त्री, वस्त्र, इत्र आदि सुगन्धी पदार्थ, पुष्पमाला, वस्त्रालंकार आदि ये ही सुख के कारण हैं। इन पदार्थों का अभाव होने से सिद्धों को सुख नहीं है। सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है; किन्तु वे सिद्धों नहीं है, अतः वे सुखी नहीं है। इस प्रकार के कुतर्कों को केवलज्ञानी का अवर्णवाद कहते हैं । कषाय का स्वभाव एवं काल:- अनन्तानुबन्धी क्रोधादि के प्रभाव से जीव अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करता है। यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरतिरुप श्रावकधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती। इसकी अवधि एक वर्ष है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सर्वविरतिरुप श्रमणधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती। इसकी स्थिति चार महीने की है। संज्वलन कषाय के प्रभाव से श्रमण यथाख्यात चारित्ररुप सर्वरिति प्राप्त नहीं कर सकता। यह एक पक्ष की स्थितिवाला है। उपर्युक्त कालमर्यादाएँ साधारण दृष्टि-व्यवहार नय से है। इनमें यथासंभव परिवर्तन भी हो सकता है। कषायों के उदय के साथ जिनका उदय होता है अथवा जो कषायों को उत्तेजित करते हैं उन्हें नोकषाय कहते हैं। नोकषाय के नौ भेद हैं: 1. हास्य, 2. रति, 3. अरति 4. शोक, 5. भय, 6. जुगुप्सा, 7. स्त्रीवेद, 8. पुरुषवेद और 9. नपुंसकवेद । स्त्रीवेद के उदयसे स्त्री को पुरषके साथ संभोग करने की इच्चा होती है। पुरुषवेद के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ संभोग करने की इच्छा होती है । नपुंसकवेद के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ संभोग करने की कामना होती है। यह वेद संभोग की कामना के अभाव के रुप में नहीं अपितु तीव्रतम कामाभिलाषा के रुप में है जिसका लक्ष्य स्त्री और पुरुष दोनों हैं। इसकी निवृत्ति तुष्टि चिरकाल एवं चिरप्रयत्नसाध्य है । इस प्रकार मोहनीय कर्म की कुल 28 उत्तर प्रकृतियाँभेद होते हैं : 3 दर्शनमोहनीय + 16 कषायमोहनीय + 9 नोकषायमोहनीय। 47 श्रुतका अवर्णवाद :- केवली द्वारा उपदिष्ट और अतिशय बुद्धिवाले गणधरों द्वारा उनके उपदेशों का स्मरण कर जो ग्रन्थों की रचना की जाती है; उन रचना ग्रन्थों को श्रुत कहते हैं। 51 ऐसे शास्त्रों में द्वेष बुद्धि से मिथ्या दोषों का आरोप करना, वर्णन करना श्रुत का अवर्णवाद है। संघ का अवर्णवाद :- सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को धारण करनेवाले श्रमण आदि चतुर्विधगण ( श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविका ) समुदाय को संघ कहते है। 52 लेकिन चतुर्विध संघ के मिथ्या दोष प्रकट करना संघ का अवर्णवाद है। जैसे कि साधु व्रत - नियम आदि का व्यर्थ क्लेश उठाते हैं, ये तो भिक्षा माँगकर अपना जीवन निर्वाह करने वाले हैं, ये तो भिखारियों से भी गये गुजरे हैं, ये साधु केशलुंचन, उपवासादि के द्वारा अपनी आत्मा को दुःख देते हैं, इसलिए इनको आत्मवध का दोष क्यों न लगेगा ? पाप-पुण्य दृष्टिगोचर नहीं होते हैं; तो भी ये उनका और उनके नरक, स्वर्ग आदि फलों का वर्णन करते हैं, उनका यह वर्णन झूठा होने से उन्हें सत्यव्रत कैसे हो सकता है ? श्रावकों के बारे में यह कहना कि दान आदि शिष्ट प्रवृत्तियाँ को ये नहीं करते; इन लोगों में नैतिक जीवन तो पाया ही नहीं जाता इत्यादि यह सब संघ का अवर्णवाद है । धर्म का अवर्णवाद :- सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट आगमों में प्रतिपादित अहिंसा, संयम, तप ही धर्म है 13 लेकिन अहिंसा आदि महान धर्मों 47. अ.रा. पृ. 6/462-63; जै. सि.को. 3/341-42-44 48. सर्वार्थसिद्धि-6/13 49. स्थानांग -5/2/426; तत्त्वार्थ सूत्र - 6/14 राजवार्तिक पृ. 523; सवार्थसिद्धि - 6 / 13 50. 51. सवार्थसिद्धि-6/13 52. 53. वही दशवैकालिक - 1/1 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [215] में मिथ्या दोषों का वर्णन करना-धर्म का अवर्णवाद है। जैसे यदि अग्नि के धुएँ से मारता है। (5) जो किसी त्रस प्राणी के मस्तक धर्म सुखदायक है, तो वह उत्पत्ति के अनन्तर ही सुख क्यों उत्पन्न का छेदन करके मारता है। (6) जो किसी त्रस प्राणी को छल से नहीं करता? मारकर हँसता है। (7) जो मायाचार करके तथा असत्य बोलकर अपना देवों का अवर्णवाद :- अर्थात् देवों की निन्दा करना। जैसे देव अनाचार छिपाता है। (8) जो अपने दुराचार को छिपाकर दूसरे पर मद्य, मांस, बलि आदि के आकांक्षी है, देव हैं ही नहीं, यदि हों कलंक लगता है। (9) जो कलह बढाने के लिए जानता हुआ मिश्र तो भी हमारे लिए किस काम के? क्योंकि वे यदि शक्तिशाली है; भाषा बोलता है। (10) जो पति-पत्नी में मतभेद पैदा करता है तथा तो हमारी सहायता क्यों नहीं करते? वे बड़े वैभवशाली माने जाते उन्हें मार्मिक वचनों से लज्जित कर देता है । (11) जो स्त्री में आसक्त हैं; तो अपने वैभव से दीन-दुःखी जीवों को सुखी क्यों नहीं बना व्यक्ति अपने-आपको कुंवारा कहता है। (12) जो अत्यन्त कामुक देते ? व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मचारी कहता है। (13) जो चापलूसी करके असत्मार्ग का उपदेश :- संसार की वृद्धि करनेवाले कार्यों के बारे अपने स्वामी को ठगता है। (14) जो जिनकी कृपा से समृद्ध बना में इस प्रकार का उपदेश करना कि ये मोक्ष के हेतु हैं। जैसे-देवी है, ईर्ष्या से उनके ही कार्यों में विघ्न डालता है। (15) जो प्रमुख देवताओं के सामने पशुओं की हिंसा करने को पुण्य कार्य बताना, पुरुष की हत्या करता है। (16) जो संयमी को पथभ्रष्ट करता है। दीपावली आदि पर्वो पर जुआ खेलने का उपदेश देना, इसे पुण्य (17) जो अपने उपकारी की हत्या करता है। (18) जो प्रसिद्ध पुरुष कार्य बताना इत्यादि। की हत्या करता है। (19) जो महान् पुरुषों की निन्दा करता हैं । (20) सन्मार्ग का अपलाप करना:- 'न मोक्ष है, न पुण्य-पाप है और जो न्यायमार्ग की निन्दा करता है। (21) जो आचार्य, उपाध्याय एवं आत्मा ही नहीं है। तप करके शरीर को निरर्थक सुखाना है। आत्मज्ञान गुरु की निन्दा करता है। (22) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु का की शिक्षा देनेवाले ग्रन्थों को-शास्त्रों को पढना तो समय बरबाद करना अविनय करता है। (23) जो अबहुश्रुत होते हुए भी अपने-आपको है। खाओ, पीओ, ऐश-आराम करो। मरने के बाद न कोई आता बहुश्रुत कहता है। (24) जो तपस्वी न होते हुए भी अपने-आपको ही है और न कोई जाता ही है। पास में धन न हो, तो कर्ज ले तपस्वी कहता है। (25) जो अस्वस्थ आचार्य आदि की सेवा नहीं कर मौज शौक करो। जो कुछ भोग लोगे, वही तुम्हारा है।' इत्यादि करता। (26) जो आचार्य आदि कुशास्त्र का प्ररुपण करते हैं। (27) उपदेश देकर कुछ भोलेभाले जीवों को सन्मार्ग से हटाना, सन्मार्ग जो आचार्य आदि अपनी प्रशंसा के लिए मंत्रादि का प्रयोग करते का अपलाप करना है। हैं। (28) जो इहलोक और परलोक में भोगोपभोग पाने की अभिलाषा उपर्युक्त हेतुओं में अन्य सभी सम्यक् श्रद्धा विघातक विचारों करता है। (29) जो देवताओं की निन्दा करता है या करवाता है। व कार्यों का समावेश हो जाता है। जिनसे दर्शन मोहनीय का विशेष (30) जो असर्वज्ञ होते हुए भी अपने आपको सर्वज्ञ कहता है।56 बन्ध हो सकता है। दर्शन मोहनीय सभी कर्मों में प्रधान है और आयुः कर्म:इसके तीव्र बन्ध से जीव को अनन्तकाल तक संसार में भटकना अभिधान राजेन्द्र कोश में आउ शब्द अप, आतु, आकु (गु), पडता है। चारित्र मोहनीय के बन्ध हेतु :- कषायोदयात्तीव्रात्म-परिणामश्चारित्र और आयुस् अर्थ में प्रयुक्त होता हैं। मोहस्य ।54 अर्थात् स्वयं क्रोधादि कषायों को करना और दूसरों में 'आयुस्'की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि, कषाय भाव उत्पन्न करना, कषाय के वश हो कर अनेक अशोभनीय "जो प्रतिसमय भुगतने में आता है, जिसके कारण जीव नरकादि प्रवृत्तियाँ करना आदि; ये सब कषाय और नोकषायरुप चारित्रमोहनीय गति में जाता है, जो एक भव से दूसरे भव में संक्रमण करते समय कर्म के बन्ध कारण है। अन्तर में राग-द्वेष-क्रोध आदि परिणामों जीव को अवश्य उदय में आता है, जन्मान्तर में अवश्य उदय में की अधिकता होने पर ही व्यक्ति अशिष्ट वचन बोलता है, अहंकार आनेवाला, जिसके कारण से तद्भव प्रायोग्य शेष सभी कर्म विशेषरुप में डूब जाता है, मन-वचन-काया की अन्यथा प्रवृत्ति करता है, दीन से उदय में आते हैं, भवोपग्राही कर्मविशेष, आयुः भवस्थिति के दुःखी की हँसी मजाक उडाता है। इन्द्रिय विषयों में आसक्ति रखता कारणभूत कर्म-पुद्गल, जीवित, जीव का शरीर सम्बन्ध का काल, है और ईर्ष्या द्वेष आदि करता है। इसीलिए कषाय से उत्पन्न होनेवाले - को आयु:/आयुःकर्म कहते हैं।57 जितने भी आत्म परिणाम है; उन सब को चारित्र मोहनीय कर्म का आयुः कर्म के प्रकार :- आयुः दो प्रकार की है7बन्ध कारण कहा गया है। 1.भवायु - भव अर्थात् देह । शरीर धारण कराने में समर्थ कर्मग्रन्थ में दर्शनमोह और चारित्रमोह के बन्धन के कारण आयु को भवायु कहते हैं अथवा भवप्रधान आयु भवायु कहलाती अलग-अलग बताये गये हैं। दर्शनमोह के कारण हैं-उन्मार्ग देशना, है, वह देह के नाश के साथ ही नष्ट होती है। सन्मार्ग का अपलाप, धार्मिक सम्पत्ति का अपहरण और तीर्थंकर, मुनि, यह भी भोग्यमान भवाय और उसी में आगामी भव की चैत्य (जिन-प्रतिमाएँ) और धर्म-संघ के प्रतिकूल आचरण । चारित्रमोह बध्यमान भवायु इस तरह दो प्रकार की है।58 कर्म के बन्धन के कारणों में कषाय, हास्यादि तथा विषयों के अधीन होना प्रमुख हैं। समवायांगसूत्र में तीव्रतम मोहकर्म के बन्धन के 54. तत्वार्थ-सूत्र-6/15, प्रथम कर्मग्रंथ-56, कर्म प्रकृति-147, जै.सि.को.-3/ तीस कारण बताये गये हैं- (1) जो किसी त्रस प्रणी को पानी में डुबाकर मारता है। (2) जो किसी त्रस प्राणी को तीव्र अशुभ अध्यवसाय 55. दशवैकालिक-1/56-57 56. अ.रा.पृ. 6/462 से 465 से मस्तक को गीला चमडा बांधकर मारता है। (3) जो किसी त्रस 57. अ.रा.पृ. 2/9-10 प्राणी को मुँह बाँधकर मारता है। (4) जो किसी त्रस प्राणी को 58. अ.रा.पृ. 2/16, 2/24; जै.सि.को. 1/253 343 For Private & Personal use only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [216]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 2. अद्धायु - अद्धा = काल, द्रव्य की स्थिति के काल (ब) पाशविक जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (1) कपट को अद्धायु कहते हैं। आत्म द्रव्य/जीव की देह या नरकादि गति करना (2) रहस्यपूर्ण कपट करना (3) असत्य भाषण (4) कम ज्यादा में रहने के काल प्रमाण को अद्धायु कहते हैं। जब एक गति में तोल-माप करना । कर्म-ग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का रहने का काल पूर्ण होता है तब जीव अन्य गति में जाता हैं।" प्रकट न करना भी तिर्यंच आयु के बन्ध का कारण माना गया है। आयु के चार प्रकार :- गति या भव की अपेक्षा से आयु के तत्त्वार्थसूत्र में माया (कपट) को ही पशुयोनि का कारण बताया है।65 चार प्रकार है (स) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (1) सरलता, (1) सुर/देव आयु - सुष्ठ शन्ति (ददाति) इति सुरा:: (2) विनयशीलता, (3) करुणा और (4) अहंकार एवं मात्सर्य से रहित सुरन्ति-विशिष्ट एश्वर्यं अनुभवन्ति इति सुराः।- नमस्कार करनेवालों होना। तत्त्वार्थसूत्र में - (1) अल्प आरम्भ, (2) अल्प परिग्रह, (3) को इच्छित देनेवाले सुर की आयु में जीव की अवस्थिति 'सुरायु' स्वभाव की सरलता और (4) स्वभाव की मृदुता को मनुष्य आयु कहलाती है। के बन्ध का कारण कहा गया है। (2) नर/मनुष्य आयु - नृणन्ति - निश्चिन्वन्ति (द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (1) सराग वस्तुतत्त्वमिति नराः । जो वस्तु तत्त्व का निश्चय करते है उन्हें 'नर' (सकाम0 संयम का पालन, (2) संयम का आंशिक पालन, (3) सकाम कहते हैं, उनकी आयु या उनमें जीव की अवस्थिति नरायु/मनुष्यायु तपस्या (बाल-तप) (4) स्वाभाविक रुप में कर्मों के निर्जरित होने कहलाती है। से। तत्त्वार्थसूत्र में भी यही कारण माने गये हैं। कर्मग्रन्थ के अनुसार (3) तिर्यञ्चायु-तिरो ऽञ्चन्ति-गच्छन्ति इति तिर्यञ्चः। अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य या तिर्यंच, देशविरत श्रावक, सरागी-साधु, उन तिर्यंचो की आयु में जीव की अवस्थिति तिर्यञ्चायु कहलाती है।। बाल-तपस्वी और इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थिति वश भूख(4) नरकायु - नरान् उपलक्षणात् तिरञ्चोऽपि प्यास आदि को सहन करते हुए अकाम-निर्जरा करनेवाले व्यक्ति देवायु प्रभुतपापकारिणः कायन्ति/आह्वायन्ति इति नरका:- नरकावासाः। का बन्ध करते हैं।66 नरकावास में उत्पन्न जीव नरक कहलाता है। उनकी आयु नरकायु आकस्मिकमरण - प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयु कहलाती है। कर्म को भोग रहा है और प्रत्येक क्षण में आयु कर्म के परमाणु भोग आय के दस प्रकार। - स्थानांग सूत्र में दश प्रकार की आयुः के पश्चात् पृथक् होते रहतेहैं। जिस समय वर्तमान आयुकर्म के पूर्वबद्ध का भी वर्णन प्राप्त होता है। समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं उस समय प्राणी को 1. नाम - 'आयु' एसा नाम वर्तमान शरीर छोडना पडता है। वर्तमान शरीर छोडने के पूर्व ही नवीन 2. स्थापना - चित्रादि में आयु की स्थापना शरीर के आयुकर्म का बन्ध हो जाता है। लेकिन यदि आयुष्य 3. द्रव्य - सचेतनादि भेद से जीवन के हेतु भूत द्रव्यजीवित का भोग इस प्रकार नियत है तो आकस्मिकमरण की व्याख्या क्या? 4. ओघ - सामान्य जीवन इसके प्रत्युत्तर में जैन-विचारकों ने आयुकर्म का भेद दो प्रकार का भव - नारकादि भव/गति संबंधी माना - (1) क्रमिक, (2) आकस्मिक । क्रमिक भोग में स्वाभाविक तद्भव - पूर्व भव के समान ही भवान्तर में होना । यथा रुप से आयु का भोग धीरे-धीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक मनुष्य मरकर पुनः मनुष्य होना। भोग में किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर आयु एक साथ ही 7. भोग - चक्रवर्ती आदि की आयु भोग ली जाती है। इसे ही आकस्मिकमरण या अकाल मृत्यु कहते 8. संयम - साधु संबंधी हैं। स्थानांगसूत्र में इसके सात कारण बताये गये हैं - (1) हर्ष9. यश-कीर्ति - कीर्तिपूर्वक जीवन जीना । यथा महावीर स्वामी शोक का अतिरेक, (2) विष अथवा शस्त्र का प्रयोग, (3) आहार की 10. जीवित - आयु, जीवन अत्यधिकता अथवा सर्वथा अभाव (4) व्याधिजनित तीव्र वेदना, (5) जिस प्रकार बेडी स्वाधीनता में बाधक है, उसी प्रकार जो आघात (6) सर्पदंशादि और (7) श्वासनिरोध 168 कर्म परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कैद ____ अभिधान राजेन्द्र कोश में इन्हीं क्रमिक आयुः को निरुपक्रमी रखते हैं, उन्हें आयुष्य कर्म कहते हैं। यह कर्म निश्चय करता है कि (अनपवर्तीय) आयु और अकस्मात आयुः को सोपक्रमी (अपवर्तीय) आत्मा को किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना है।62 आयु कहा है। निरुपक्रमी आयुः तीर्थंकरादि को और सोपक्रमी आयुः आयुष्य कर्म के बन्ध के कारण - सभी प्रकार के आयुष्य सामान्य उपघातयुक्त आयुवालों को होती है।69 कर्म के बन्ध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया 59. अ.रा.पृ. 3/472, 2/24; जै.सि.को. 1/253 है। फिर भी किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन 60. अ.रा.पृ. 2/24 मिलता है, उसका निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है। कर्मग्रंथ, 61. अ.रा.पृ. 2/10, स्थानांग 1/1 की टीका 62. अ.रा.पृ. 2/24 तत्त्वार्थ सूत्र एवं स्थानांगसूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य-कर्म के 63. तत्त्वार्थ-सूत्र-6/19 बन्ध के चार-चार कारण माने गये हैं। 64. कर्मग्रंथ 1/57-58-59, तत्त्वार्थ-सूत्र-6/16 से 20, स्थानांग-4/4/373 (अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (1) महारम्भ 65. तत्त्वार्थ-सूत्र-6/17 (भयानक हिंसक कर्म), (2) महापरिग्रह (अत्यधिक संचयवृत्ति), (3) 66. वही-6/20, कर्मग्रंथ-1/59 67. जै.सि.को.-1/253 मनुष्य, पशु आदि का वध करना, (4) मांसाहार और शराब आदि 68. जै.सि.को.-2/12 नशीले पदार्थों का सेवन। 69. अ.रा.पृ. 3/332 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [217] अभिधान राजेन्द्र कोश में इसके अलावा भी अल्पायु-दीर्धायु, वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिक और सेवार्त; चारों गतियों के अनेक भेद संबंधी आयु बंध का कारण, संज्ञी- 8. छ: संस्थान-समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, कुब्ज, वामन और असंज्ञी, ज्ञानी-अज्ञानी, बाल-पंडित, क्रियावादी-अक्रियावादी, हुण्डक; 9. शरीर के पाँच वर्ण-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और कृष्णपाक्षिक-सम्यग्दृष्टि, नरकादि सभी जीवों की जघन्य-उत्कृष्ट आयुः सित; 10. दो गन्ध - सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध; 11. पाँच रस - स्थिति आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है, जो जिज्ञासु को वहीँ तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर; 12. आठ स्पर्श - गुरु, लघु, से दृष्टव्य है। मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष; 13. चार आनुपूर्वियाँनाम कर्म : देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी; 14. दो गतियाँजीवों के विचित्र परिणाम के निमित्तभूत कर्मों के हेतु स्वरुप शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति; प्रत्येक प्रकृतियों में आदि आठ कर्म 'नाम कर्म' हैं। जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके प्रकृतियाँ समाविष्ट है : पराघात एवं स्थावरदशक में त्रसदशक से उसे मनुष्य-तिर्यंच-नरक या देव गति/योनि में ले जानेवाला 'नाम विपरीत स्थावरादि पूर्वोक्त दस प्रकृतियाँ समाविष्ट है। इस प्रकार नाम कर्म' है। जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता कर्म की उपर्युक्त 103 (75 पिण्ड प्रकृतियाँ + 8 प्रत्येक प्रकृतियाँ + है, वह नाम कर्म है। जो नाना प्रकार की रचना निर्वाचित करता 10 त्रसदशक + 10 स्थावरदशक) उत्तरप्रकृतियाँ हैं। इन्हीं प्रकृतियों है, वह नामकर्म है। यह कर्म चित्रकार के समान है। जिस प्रकार के आधार पर प्राणियों के शारीरिक वैविध्य का निर्माण होता हैं। चित्रकार विभिन्न प्रकार के चित्र बनाता है - उसी प्रकार नाम कर्म शुभ नाम कर्म के बन्ध के कारण :भी देव, नारक, मनुष्य और तिर्यंचों के शरीर, इंद्रिय, अंगोपांग, वर्ण, जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण गंध, रस, स्पर्श आदि की स्थापना करनेवाला है। माने गये हैं - 1. शरीर की सरलता, 2. वाणी की सरलता, 3. नाम कर्म शुभ भी हो सकते हैं और अशुभ भी। शुभ मन या विचारों की सरलता और 4. अहंकार एव मात्सर्यरहित जीवन ।75 नाम कर्म से सुन्दर-सुडोल, आकर्षक व प्रभावशाली शरीर बनता शुभ नामकर्म का विपाक - उपर्युक्त शुभाचरण से प्राप्त है तथा अशुभ नाम कर्म के उदय से बदसूरत, बेडौल, कुरुप आदि शुभ व्यक्तित्व का विपाक 14 प्रकार का माना गया है- 1. प्रभावक शरीर की रचना होती है। 2 नाम कर्म के 103 भेद हैं - (1) प्रत्येक वाणी, 2. सुगठित सुन्दर शरीर, 3. सुगंधयुक्त मल/प्रस्वेद, 4. इष्ट प्रकृति-8 भेद, 2) पिण्ड प्रकृति-75 भेद, (3) त्रसदशक-10 भेद रस-प्राप्ति, 5. सुकोमल त्वचा, 6. अचपल गति, 7. समुचित यथावस्थित तथा (4) स्थावर दशक-10 भेद । अङ्गोपाङ्ग, 8. लावण्य, 9. यश:कीर्ति, 10. योग्य शारीरिक शक्ति प्रत्येक प्रकृति नाम कर्म के 8 भेदों में अगुरुलघु, निर्माण, (बल-वीर्यादि), 11. सुस्वर, 12. कान्त स्वर, 13. प्रिय स्वर, 14. आतप, उद्योत, पराघात, उपघात, उच्छ्वास तथा तीर्थंकर आदि नाम मनोज्ञ स्वर।76 कर्म हैं जो शारीरिक बनावट आदि से संबंधित हैं। अशुभनाम कर्म के कारण - मन-वचन-काया की पिण्ड प्रकृति नाम कर्म के 75 भेद हैं- जिनके नाम इस वक्रता और अहंकार-मात्सर्य वृत्ति या असामंजस्य पूर्ण जीवन । - प्रकार हैं - गति-4, जाति-5, शरीर-5, उपांग-2, बंधन-15 भेद, इन चार कारणों (चार प्रकार के अशुभाचरण) से व्यक्ति/प्राणी को अशुभ संघातन-5, संघयण-6, संस्थान-6, वर्ण-5, गंध-2, रस-5, स्पर्श नामकर्म (व्यक्तित्व) प्राप्त होता है। 8, आनुपूर्वी-4, विग्रह गति-1, विहायोगति-2। अशुभ नाम कर्म के विपाक :सदशक नाम कर्म के 10 भेद हैं- त्रस, बादर, पर्याप्त, 1. अप्रभावक वाणी, 2. अनिष्ट शरीर 3. दुर्गंध, 4. अनिष्ट प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश आदि। रस, 5. अप्रिय स्पर्श, 6. अनिष्ट गति, 7. असमुचित अङ्गोपाङ्ग, 8. स्थावर दशक नाम कर्म के भी 10 भेद हैं - स्थावर, सूक्ष्म, कुरुपता, 9. अपयश, 10. वीर्याभाव, 11. हीन स्वर, 12. दीन स्वर, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अपयश 13. अप्रिय स्वर और 14. अकान्त स्वर ।8 आदि । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि शरीर के कणनाम कर्म की एक सौ तीन उत्तरप्रकृतियाँ हैं। ये प्रकृतियाँ कण की रचना करनेवाला नाम कर्म ही है। जो चित्रकार की भाँति चार भागों में विभक्त हैं : पिण्डप्रकृतियाँ, प्रत्येकप्रकृतियाँ, त्रसदशक चित्र बनाता है और उसमें रंग रुप आकर्षण, विकर्षण, गति आदि और स्थावरदशक। इन प्रकृतियों के कारणरुप कर्मों के भी वे ही पच्चीकारी के द्वारा तस्वीर को पूर्ण करता है। नाम हैं जो इन प्रकृतियों के हैं। पिण्डप्रकृतियों में पचहत्तर प्रकृतियों गोत्रकर्म :का समावेश हैं : 1. चार गतियाँ-देव, नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य; अभिधान राजेन्द्र कोश में 'गोत्र' शब्द के कुल, समस्तागमाधार, 2. पाँच जातियाँ-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय; 3. पाँच शरीर-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; 4. 70. अ.रा.पृ. 4/1999 71. जै.सि.को.-2/583 तीन उपांग-औदारिक, वैक्रिय और आहारक (तैजस और कार्मण शरीर 72. अ.रा.पृ. 4/1999 के उपांग नहीं होते); 5. पंद्रह बन्धन - औदारिक-औदारिक, औदारिक 73. अ.रा.पृ. 4/1999-2000-2001; 3/260-61, जैनेन्द्रि सिद्धान्त कोश-2/ तैजस, औदारिक-कार्मण, औदारिक-तैजस-कार्मण, वैक्रिय-वैक्रिय, 583-84 वैक्रिय-तेजस, वैक्रिय-कार्मण, वैक्रिय-तेजस-कार्मण, आहारक- 74. प्रथम कर्मग्रथ गाता 23 से 31 आहारक, आहारक-तैजस, आहारक-कार्मण, आहारक-तैजस-कार्मण, 75. तत्त्वार्थ सूत्र6/22 तैजस-तैजस, तैजस-कार्मण और कार्मण-कार्मण; 6. पाँच संघातन 76. जैन विद्या के आयाम-पृ. 6/214 77. तत्त्वार्थ सूत्र 6/21 औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; 7. छ: संहनन 78. जैन विद्या के आयाम-6/214 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [218]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पर्वत, बोध, कानन, क्षेत्र, मार्ग, छत्र, संघ, वृद्ध, वित्त, धन आदि आदि) में बाधा उपस्थित होना । जैसे सुसंपन्न व्यक्ति को अर्थ दर्शाये हैं। जिसके द्वारा जीव उच्च या नीच कहा जाय, जो सुंदर रसवती तैयार होने पर भी अस्वस्थता के कारण केवल उच्च या नीच कुल को ले जाता है, मिथ्यात्वादि बन्धन कारणों के खिचडी ही खानी पडे।, द्वारा जीव के साथ संबंध को प्राप्त एवं उच्च और नीच कुलों में उपभोगान्तराय - उपभोग (बार-बार उपयोग करने योग्य) की उत्पन्न करानेवाला पुद्गलस्कन्ध 'गोत्र' कहलाता है। ऊँच-नीच का सामग्री के होने पर भी उपभोग करने में असमर्थता, ज्ञान करानेवाला कर्म है गोत्रकर्म । 5. वीर्यान्तराय - शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उस शक्ति गोत्र कर्म के प्रकार60- जिसके कारण व्यक्ति प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित का उपयोग नहीं करना 188 कुलों में जन्म लेता है वह गोत्र कर्म कुम्हारा कुंभकार के घट की अन्तराय कर्म-बंधन के कारण :तरह दो प्रकार का है। जैनागमों के अनुसार जो व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के दान, 1. उच्च गोत्र - प्रतिष्ठित कुल - यथा दूध-घी का घट, मंगलकलश लाभ, भोग, उपभोग, शक्ति के उपयोग में बाधक बनाता है, वह भी इत्यादि अपनी उपलब्ध सामग्री एवं शक्तियों का समुचित उपयोग नहीं कर 2. नीच गोत्र - अप्रतिष्ठित कुल - यथा मदिरा का घट । पाता। जैसे कोई व्यक्ति दान देनेवालों को दान देने से रोक देता है या उच्च-नीच गोत्र के कर्म-बन्ध का कारण : किसी भोजन करते हुए व्यक्ति को भोजन पर से उठा देता है, तो उसकी जात्यादि आठों प्रकार के मद/अहंकार का त्याग करनेवाला, उपलब्धियों में भी बाधा उपस्थित होती है अथवा भोग सामग्री के होने गुणग्राही-गुणानुरागी, अध्ययन-अध्यापनरुचिवाला भक्त जीव उच्चगोत्र पर भी वह उसके भोग से वंचित रहता है। जिन-पूजादि धर्म-कार्यों में में जन्म लेता है। उससे विपरीत आचरणवाला निम्न (नीच) गोत्र विघ्न उत्पन्न करनेवाला और हिंसा में तत्पर व्यक्ति भी अन्तराय कर्म का में जन्म लेता है ।। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पर-निन्दा, आत्म-प्रशंसा, संचय करता है ।89 तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार भी विघ्न या बाधा डालना दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन, और असद्गुणों का प्रकाशन-ये नीच ही अन्तराय-कर्म के बंध का कारण है ।90 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के गोत्र कर्म-बन्ध के हेतु है। इसके विपरीत पर-प्रशंसा, स्व-निंदा, अनुसार भी दानादि में विघ्न करना-अन्तराय कर्म का आस्रव है। ज्ञानसद्गुण-प्रकाशन, असद्गुण-गोपन, नम्रवृत्ति और निरभिमानता - ये प्रतिषेध, सत्कार्योपघात, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, स्नान, उच्चगोत्र के बन्ध के हेतु है ।82 अनुलेपन, गन्ध, माल्य, आच्छादन, भूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, गोत्र कर्म का विपाक : पेय, लेह्य, और परिभोग आदि में विघ्न करना, विभव/समृद्धि में निरहंकारी व्यक्ति उच्च-प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेकर विस्मय करना, द्रव्य का त्याग (दान) न करना, द्रव्य के उपयोग के निम्नाङ्कित आठ क्षमताओं से युक्त होता है - समर्थन में प्रमाद करना, देव-द्रव्य ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणों का 1. निष्कलंक मातृ पक्ष, 2. प्रतिष्ठित पितृ पक्ष, 3. बलवान त्याग, दूसरे की शक्ति का अपहरण, धर्म-व्यवच्छेद करना, कुशल शरीर, 4. रुप-सौन्दर्य, 5. उच्च साधना एवं तप-शक्ति, 6. तीव्रबुद्धि चारित्रवाले तपस्वी, गुरु तथा चैत्य की पूजा में व्याघात करना, दीक्षित, एवं विपुल ज्ञान-राशि पर अधिकार, और 8 अधिकार-स्वामित्व एवं कृपण, दीन, अनाथ को दिये जानेवाले वस्त्र, पात्र, आश्रय, आदि में एश्वर्य की प्राप्ति । अहंकारी व्यक्ति इन क्षमताओं से या इन में से विघ्न करना, पर-निरोध, बन्धन, गुह्य-अंगच्छेद, नाक, ओठ आदि किन्हीं विशेष क्षमताओं से वंचित रहता हैं। काटना, प्राणिवध आदि अन्तराय कर्म के आस्रव है। अंतराय कर्म :- अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि, इस प्रकार मूलकर्म एवं उनको उत्तर प्रकृतियों का परिचय, "जो दाता और प्रतिग्राहक के अन्तर/मध्य/बीच में विघ्न/बाधा हेतु विपाक एवं बंध के कारणों का संक्षिप्त वर्णन करके इन्हीं कर्म प्रकृतियों आता है, उपस्थित होता है, जो जीव को दानादि में व्यवधान पहुँचाता के विविध स्वभाव एवं विपाक के आश्रयों का परिचय दिया जा है, जो जीव को दानादि में विघ्नकारक है - उसे अन्तराय कहते हैं। तद्योग्य पुद्गल कार्मण वर्गणाओं का कर्मरुप में आत्मा के द्वारा कर्मप्रकृतियों के विविध स्वभाव:ग्रहण करना कर्म का आठवें भेद स्वरुप अन्तराय कर्म है । डॉ. 1. ध्रुवबंधिनी - बंध विच्छेद पर्यन्त प्रति समय प्रत्येक जीवों सागरमल जैन के अनुसार अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुँचानेवाले को जिनका बंध होता है। कारण को अंतराय कर्म कहते हैं 185 79. अ.रा.पृ. 3/954, जे.सि.को. 2/520 इस कर्म की उपमा राजा के खजांची/भण्डारी से दी जाती है 80. वही । राजा की आज्ञा होते हुए भी यदि खजांची प्रतिकूल है, तो धन प्राप्ति में 81. कर्मग्रंथ-1/60 बाधा आती है ठीक उसी प्रकार आत्मारुपी राजा की भी अनंत शक्ति 82. तत्त्वार्थसूत्र-6/24-25 83. जैन विद्या के आयाम पृ. 6/214 होते हुए भी अंतराय कर्म उसमें बाधा उत्पन्न करते हैं।86 84. अ.रा.पृ. 1/98-99, 3/258, जै.सि.को. 1/27 अन्तराय कर्म के प्रकार :- यह प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) 85. जैन विद्या के आयाम-पृ. 6/214 और आयति (भविष्य) काल की अपेक्षा से दो प्रकार का एवं दानादि 86. अ.रा.पृ. 1/98-99 की अपेक्षा से पाँच प्रकार का है67 87. अ.रा.पृ. 1/98 88. अ.रा.पृ. 1/98, 3/261; तत्त्वार्थसूत्र-8/14, जै.सि.को.-1/27 1. दानान्तराय - दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं किया 89. कर्मग्रन्थ-1/61 जा सके, 90. तत्त्वार्थसूत्र-6/26 2. लाभान्तराय - किसी कारण से कोई प्राप्ति में बाधा आना, 91. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 1/28 3. भोगान्तराय - भोग (एकबार उपयोग में लेने योग्य भोजन 92. अ.रा.पृ. 3/261 से 267; पंचसंग्रह-3/14 की टीका पृ. 304 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [219] 2. अध्रुवबंधिनी - बंध विच्छेद काल तक में भी कभी बंध के कारण हैं। आचार्य कुन्दकुंदने समयसार में कहा है कि शुभकर्म हो कभी न भी हो। स्वर्णश्रृंखला है तथा अशुभकर्म लोहे की श्रृखंला है। लोहे की बेडी 3. ध्रुवोदयी उदय-उच्छेद काल पर्यन्त प्रति समय भी बाँधती है और स्वर्ण की भी बाँधती हैं। इस प्रकार किया हुआ जिसका विपाकोदय हो शुभ-अशुभ कर्म जीव को बाँधता ही हैं। 4. अध्रुवोदयी - उदय-उच्छेद काल पर्यन्त भी जिनके उदय कर्मबंध का मूल कारण है - 'इच्छा' । मानव के सुखका नियम न हो दुःख का कारण इच्छा ही है। यह कहा जा सकता है कि कर्म 5. सर्वघाती - ज्ञानादि गुणों का सर्वथा घात करनेवाली का बंध इच्छा का बंध है। परिग्रह अथवा विषयाभिलाषा का कोई 6. देशघाती - ज्ञानादि गुणों के अंश का घात करनेवाली अंत नहीं हो सकता। इनकी समाप्ति तभी हो सकती है जब व्यक्ति 7. परावर्तमान प्रतिपक्षी प्रकृतियों के बंध-उदय के संभव पूर्णतः इच्छामुक्त हो जाये, वीतराग हो जाये। जैसे ही वह विषय के समय जो प्रकृति उस-उस समय में की इच्छा करता है - उसका कार्मण शरीर तदनुसार कर्मो को आकर्षित बंध-उदय आश्रयी परावर्तन भाव प्राप्त करें कर लेता है। यह प्रक्रिया किसी बाह्य लक्षण से नहीं होती बल्कि वैसी प्रकृतियाँ आत्मा स्वयं अपनी शक्ति से इन कार्मण परमाणुओं को आकर्षित 8. अपरावर्तमान - जिनका बंध-उदय प्रतिपक्षी प्रकृति से करता है- इसी से पुनर्जन्म प्राप्त होता हैं। प्रभावित नहीं होता। कर्मो के उदय, कारण और परिणामों की चर्चा जैनग्रंथों में 9. शुभ . - जिसका विपाक शुभ हो - पुण्य विस्तृत रुप में हुई है। 'जीव सकषाय होने से कर्म योग्य पुद्गलों 10. अशुभ - जिसका विपाक अशुभ हो - पाप को ग्रहण करता हैं - यही बंध हैं। जिस प्रकार भंडार से पुराने विपाकाश्रित प्रकृतियों के भेद:: धान्य निकाल लिये जाते हैं एवं नये भर दिये जाते हैं, उसी प्रकार कर्म के विपाक/फल आश्रयी प्रकृति दो प्रकार से है - अनादि इस कार्मण शरीररुपी भंडार में कर्मों का आना जाना होता 1. हेतुविपाका - पुद्गलादि रुप हेतु आश्रित प्रकृति रहता हैं। पुराने कर्म फल देकर झड जाते हैं और नए कर्म आ जाते 2. रसविपाका - रस के आधार पर जिन प्रकृतियों का विपाक हैं। द्रव्यसंग्रह में कर्मबंध के 5 कारण दिये गये हैं - मिथ्यात्व, निर्दिश्यमान हो वैसी प्रकृति। अविरति, प्रमाद, योग और कषाय। पुन: ये दोनों पुद्गल, क्षेत्र, भव एवं जीवरुप हेतु आश्रित मिथ्यात्व - विपरीत श्रद्धा को मिथ्यात्व कहते हैं। जैसे चार प्रकार की है - -अधर्म को धर्म, कुमार्ग को सन्मार्ग, जीव को अजीव, अजीव को 1. पुद्गल विपाकी - आत्मा को पुद्गल के विषय में फल का जीव, साधु को असाधु आदि रुप में समझना - दूसरे शब्दों में जिनकथित अनुभव करानेवाली प्रकृति यथा-औदारिक सुदेव सुगुरु सुधर्म को छोडकर अन्य तत्त्व को मान्य करना या सत्य शरीरनामकर्म; तत्त्व की अरुचि एवं असत्य तत्त्व की रुचि रखना। 2. क्षेत्र विपाकी - आकाश/क्षेत्र में फल का अनुभव करानेवाली अविरति - अविरति अर्थात् अत्याग भाव। हिंसा, झूठ, प्रकृति, यथा-चार आनुपूर्वी चोरी, मैथुन परिग्रह आदि पाप, भोग-उपभोग आदि वस्तुओं तथा 3. भव विपाकी - अपने योग्य भव में फल का अनुभव सावध कर्मों से विरत न होना-अर्थात् प्रत्याख्यानपूर्वक त्याग न करना। करानेवाली प्रकृति-चार आयु; प्रमाद - कुशल में अनादर भाव प्रमाद है। यह प्रमाद 4. जीव विपाकी - जीव के ज्ञानादि स्वरुप का उपघात अनेक प्रकार का है। काय, विनय, ईर्यापथ, भैक्ष्य, शयन, आसन, करनेवाली प्रकृति, ज्ञानावरणीयादि। प्रतिष्ठापन, वाक्यशुद्धि, उत्तम क्षमादि दस धर्मों में अनुत्साह या रसविपाका प्रकृति - चार, तीन, दो और एक स्थान रस के भेद अनादर का भाव प्रमाद है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि इसके से चार प्रकार की है। परिणाम हैं। कर्म की विविध अवस्थाएँ: योग - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को योग कहते जैन कर्मशास्त्र में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन हैं। मन, वचन और काया से कृत, कारित और अनुमतिरुप प्रवृत्ति मिलता है। ये अवस्थाएँ कर्म के बन्धन, परिवर्तन, सत्ता, उदय, क्षय योग है। आदि से सम्बन्धित है। इनका हम मोटे तौर पर ग्यारह भेदों में वर्गीकरण कषाय - जिससे संसार की प्राप्ति हो वह कषाय है। कर सकते हैं। उनके नाम इस प्रकार है : 1. बन्धन, 2. सत्ता, 3. उदय, 4. उदीरणा, 5. उद्वर्तना, 6. अपवर्तना, 7. संक्रमण, 8. अपशमन, इसके 16 भेद होते हैं- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ । 9. निधत्ति, 10. निकाचन, 11. अबाधा । अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । कषाय 1.बन्धन- आत्मा के साथ कर्म-परमाणुओं बँधना अर्थात् का एक अन्य प्रकार होता है नोकषाय, जो कषाय के सहवर्ती सहचर क्षीर नीरवत् एकरुप हो जाना बन्धन कहलाता है। बन्धन के बाद ही अन्य अवस्थाएँ प्रारम्भ होती है। 93. अ.रा.पृ. 3/2673; पंचसंग्रह द्वार-3 पृ. 311-12-13-34 कर्मबंध के कारण : 94. अ.रा.पृ. 3/290 जीवात्मा के साथ कर्मो का सम्बन्ध अनादि है। कर्म चाहे 95. तत्त्वार्थ राजवार्तिक 8/2 शुभ हों या अशुभ त्याज्य हैं, क्योंकि वे संसार के कारण हैं, भवभ्रमण 96. तत्त्वार्थ सूत्र - 8/1 97. ठाणांग 10/1/734 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुष्य [220]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन होते हैं - हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष जघन्य और अधिक से अधिक स्थिति उत्कृष्ट कहलाती है। एक वेद एवं नपुंसक वेद। स्थिति अन्तर्मुहूर्त की भी होती है। कर्मों की प्रबलता के अनुसार मिथ्यात्वादि बन्ध हेतुओं के निमित्त से जीव द्वारा ग्रहण उनके स्थिति-काल में अन्तर रहता है। भिन्न-भिन्न कर्मों की स्थितियाँ किये जाने पर जब वे कर्म पुद्गल कर्म रुपत्व को प्राप्त होते हैं, इस प्रकार हैंउस समय इन गृहीत कार्मण पुद्गलों में चार अंशो का निर्माण होता कर्म जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति है, वे बन्ध के चार प्रकार कहलाते हैं। वे नाम निम्नानुसार हैं- ___1. ज्ञानावरणीय अन्तरमुहूर्त 30 कोटकोटि सागरोपम 1. प्रकृति बन्ध, 2. प्रदेश बन्ध, 3. स्थिति बन्ध, एवं 2. दर्शनावरणीय अन्तरमुहूर्त 30 कोटकोटि सागरोपम 4. अनुभाग बन्ध ।98 3. वेदनीय अन्तरमुहूर्त 30 कोटकोटि सागरोपम 1. प्रकृतिबन्ध - बन्धन के स्वभाव का निर्धारण प्रकृति बन्ध करता मोहनीय अन्तरमुहूर्त 70 कोटकोटि सागरोपम है। यह, यह निश्चय करता है कि कर्मवर्गणा के पुद्गल आत्मा की दर्शन मोहनीय अन्तरमुहूर्त 70 कोटकोटि सागरोपम ज्ञान, दर्शन आदि किस शक्ति को आवृत करेंगे। चारित्र मोहनीय अन्तरमुहूर्त 40 कोटकोटि सागरोपम 2. प्रदेश बन्ध - यह कर्मपरमाणुओं की आत्मा के साथ संयोजित अन्तरमुहूर्त 33 कोटकोटि सागरोपम होने वाली मात्रा का निर्धारण करता है। अतः यह मात्रात्मक होता है। नाम 8 मुहूर्त 20 कोटकोटि सागरोपम 3. स्थितिबन्ध - कर्मपरमाणु कितने समय तक आत्मा से संयोजित 7. गौत्र 8 मुहूर्त 20 कोटकोटि सागरोपम रहेंगे और कब निर्जरित होंगे, इस काल-मर्यादा का निश्चय स्थिति- 8. अन्तराय अन्तरमुहूर्त 30 कोटकोटि सागरोपम बन्ध करता है। अतः यह बन्धन की समय-मर्यादा का सूचक हैं। 2. उदय - कर्म की स्वफल प्रदान करने की अवस्था का नाम 4. अनुभाग(व)बन्ध - कर्मों के बन्धन और विपाक की तीव्रता उदय हैं। उदय में आनेवाले कर्म पुद्गल अपनी प्रकृति के अनुसार एवं मन्दता का निश्चय करना, यह अनुभाग बन्ध का कार्य है। दूसरे शब्दों में यह बन्धन की तीव्रता या गहनता का सूचक है। फल देकर नष्ट हो जाते हैं। कर्म-पुद्गल का नाश/क्षय अथवा निर्जरा उपरोक्त चार प्रकार के बन्धनों में प्रकृति बन्ध एवं प्रदेश कहलाता हैं। बन्ध का सम्बन्ध मुख्यतया योग अर्थात् कायिक, वाचिक एवं मानसिक 3. उदीरणा - नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा क्रियाओं से हैं, जबकि बन्धन की तीव्रता (अनुभाग) एवं समयावधि कहलाता है। जैन कर्मवाद कर्म की एकान्त नियति में विश्वास नहीं (स्थिति) का निश्चय कर्म के पीछे रही हुई कषाय-वृत्ति और मिथ्यात्व करता। जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत काल से पहले फल पकाये पर आधारित होता है। संक्षेप में योग का सम्बन्ध प्रदेश एवं प्रकृति जा सकते हैं उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत समय से पूर्व बद्ध कर्मों बन्ध से है, जबकि कषाय का सम्बन्ध स्थिति एवं अनुभाग बन्ध को भोगा जा सकता हैं। सामान्यत: जिस कर्म का उदय जारी होता है उसके संजातीय कर्म की ही उदीरणा संभव होती हैं। मोदक का दृष्टान्त :- जैसे कोई लड्डु वायु कोई पित्त 4. सत्ता - बद्ध कर्म परमाणु अपनी निर्जरा अर्थात् क्षय होने तक या कोई कफ का नाश करें वैसे ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञानगुण का आत्मा से सम्बद्ध रहते हैं। इसी अवस्था का नाम सत्ता है। इस घात करता है, दर्शनावरण से आत्मा के दर्शनगुण का घात होता है, अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए विद्यमान रहते हैं। मोहनीय सुख-आत्मसुख-परमसुख-शाश्वतसुख के लिये घातक है, बन्धन, सत्ता, उदय और उदीरणा में कितनी कर्म-प्रकृतियाँ अन्तराय से वीर्य अर्थात् शक्ति का घात होता है, वेदनीय अनुकूल (उत्तरप्रकृतियाँ) होती हैं, इसका भी जैन कर्मशास्त्रों में विचार किया एवं प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख का कारण है, आयु से आत्मा गया है। बन्धन में कर्म-प्रकृतियों की संख्या एक सौ बीस, उदय को नारकादि विविध भवों की प्राप्ति होती हैं, नाम के कारण जीव में एक सौ बाईस, उदीरणा में भी एक सौ बाईस तथा सत्ता में एक को विविध गति, जाति, शरीर आदि प्राप्त होते हैं और गोत्र प्राणियों सौ अठावन मानी गई हैं। नीचे की तालिका में इन चारों अवस्थाओं के उच्चत्व-नीचत्व का कारण हैं। इसे प्रकृति कहते हैं। में रहनेवाली उत्तरप्रकृतियों की संख्या दी जाती हैं।.00 : जैसे कोई लड्डु 100 ग्राम, कोई 500 ग्राम, कोई 1 किलो बन्ध उदय उदीरणा सत्ता का होता है वैसे किसी कर्म के दलिक कम किसी कर्म के ज्यादा 1. ज्ञानावरणीय कर्म 5555 होते हैं, इसे प्रदेश कहते हैं। 2. दर्शनावरणीय कर्म 9 जैसे कोई लड्डु एक दिन, कोई एक सप्ताह, कोई एक मास 3. वेदनीय कर्म 2 2 2 2 तक रहें वैसे कोई कर्म 20/30/70 कोडाकोडि सागरोपम काल तक 4. मोहनीय कर्म ____ 26 28 28 28 रहें - इसे स्थिति कहते हैं। 5. आयु कर्म स्निग्ध-रुक्ष-मधुर-कटुकादि रस में से किसी मोदक में एक 6. नाम कर्म 67 67 67 100 गुण हो, कोई द्विगुण कोई त्रिगुण हो वैसे किसी कर्म में एकस्थानीय 7. गोत्र कर्म 2 2 2 2 किसी में द्विस्थानीय/त्रिस्थानीय या चतुःस्थानीय रस होता है, इसे 8. अन्तराय कर्म 5555 अनुभाव/रस कहते हैं। योग 120 122 122 158 कर्म का स्थितिकाल: 98. अ.रा.पृ. 3/258 1. बंध - कर्म का जब बन्ध होता है, तब से लगाकर फल देकर 99. अ.रा.पृ. 3/278 से 283 दूर होने तक के समय को स्थितिकाल कहते हैं। कम से कम स्थिति 100. अ.रा.भा. 3 कम्मशब्द, कर्मग्रंथ-2 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [221] सत्ता में समस्त उत्तप्रकृतियों का अस्तित्व रहता है जिनकी और चारित्रमोहनीय व दर्शनमोहनीय की तीन उत्तरप्रकृतियाँ उपर्युक्त संख्या एक सौ अठावन है। उदय में केवल एक सौ बाईस प्रकृतियाँ नियम के अपवाद है। रहती हैं क्योंकि इस अवस्था में पंद्रह बन्धन तथा पाँच संघातन- 8. उपशमन - कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा नाम कर्म की ये बीस प्रकृतियाँ अलग से नहीं गिनी गई है अपितु संभव नहीं होती उसे उपशमन कहते हैं। इस अवस्था मेंउद्धर्तना, पाँच शरीरों में ही उनका समावेश कर दिया गया है। साथ ही वर्ण, अपवर्तना और संक्रमण की संभावना का अभाव नहीं होता । जिस गन्ध, रस तथा स्पर्श इन चार पिण्डप्रकृतियों की बीस उत्तरप्रकृतियों प्रकार राख से आवृत अग्नि उस अवस्था में रहती हुई अपना कार्यविशेष के स्थान पर केवल चार ही प्रकृतियाँ गिनी गई हैं। इस प्रकार कुल नहीं करती किन्तु आवरण हटते ही पुनः प्रज्वलित होकर अपना कार्य एक सौ अठावन प्रकृतियों में से नाम कर्म की छत्तीस (बीस और करने को तैयार हो जाती है उसी प्रकार उपशमन अवस्था में रहा सोलह) प्रकृतियाँ कम कर देने पर एक सौ बाईस प्रकृतियाँ शेष रह हुआ कर्म उस अवस्था के समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर जाती है जो उदय में आती हैं। उदीरणा में भी ये ही प्रकृतियाँ रहती देता है अर्थात् उदय में आकर फल प्रदान करना शुरु कर देता है। है क्योंकि जिस प्रकृति में उदय की योग्यता रहती है उसी की उदीरणा 9.निधत्ति :- कर्म की वह अवस्था निधत्ति कहलाती है जिसमें होती है। बन्धनावस्था में केवल एक सौ बीस प्रकृतियों का ही अस्तित्व उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है। इस अवस्था में माना गया है। सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय कर्मो का बन्ध उद्धर्तना और अपवर्तना की संभावना नहीं होती। अलग से न होकर मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के रुप में ही होता है 10. निकाचन - कर्म की उस अवस्था का नाम निकाचन है क्योंकि (कर्मजन्य) सम्यक्त्व और सम्यक्-मिथ्यात्व मिथ्यात्व की ही जिसमें उद्धर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा ये चारों अवस्थाएँ विशोधित अवस्थाएँ हैं। इन दो प्रकृतियों को उपर्युक्त एक सौ बाईस असम्भव होती हैं। इस अवस्था का अर्थ है कर्म का जिस रुप में प्रकृतियों में से कम कर देने पर एक सौ बीस प्रकृतियाँ बाकी बचती बंध हुआ उसी रुप में उसे अनिवार्यतः भोगना। इसी अवस्था का हैं जो बन्धनावस्था में विद्यमान रहती है। (इसका विस्तृत वर्णन कर्मग्रंथ नाम नियति है। इसमें इच्छा-स्वातन्त्र्य का सर्वथा अभाव रहता है। 2 में देखना चाहिए। किसी-किसी कर्म की यही अवस्था होती है। 5. उद्धर्तना - बद्धकर्मो की स्थिति और अनुभाग(व)-रस का निश्चय 11. अबाधा - कर्म का बँधने के बाद अमुक समय तक किसी बन्धन के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार होता प्रकार का फल न देना उसकी अबाध-अवस्था है। इस अवस्था के है। उसके बाद की स्थितिविशेष अथवा भावविशेष-अध्यवसायविशेष काल को अबाधाकाल कहते हैं। के कारण उस स्थिति तथा अनुभाग में वृद्धि हो जाना उद्वर्तना कहलाता है। इस अवस्था को उत्कर्षण भी कहते हैं। इस अबाधावस्था के काल के पश्चात् कर्म उदय में आता है और फलानुभव कराने लगता है। फलानुभव के काल को 'कर्म निषेक 6.अपवर्तना - बद्धकर्मो की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसायविशेष काल' कहते हैं। ऊपर जो कर्म का स्थितिकाल बताया गया है, वह से कमी कर देने का नाम अपवर्तना है। यह अवस्था उद्धर्तना से दोनों कालविपाक अबाधाकाल एवं निषेक काल को मिलाकर बताया बिलकुल विपरीत है। इसका दूसरा नाम अपकर्षण भी है। इन अवस्थाओं गया है। जिस कर्म की स्थिति जितने सागरोपम की होती है - की मान्यता से यही सिद्ध होता है कि किसी कर्म की स्थिति एवं उतने सौ वर्ष 'अबाधाकाल' होता है। उदाहरण के लिए ज्ञानावरणीय फल की तीव्रता-मन्दता में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता, कर्म की स्थिति "30 कोटकोटि सागरोपम की है तो उसका ऐसी बात नहीं है। अपने प्रयत्नविशेष अथवा अध्यवसायविशेष की 'अबाधाकाल' 3000 वर्ष" है तथा "निषेक काल 30 कोटाकोटि शुद्धता-अशुद्धता से उनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। सागरोपम कम 3000 वर्ष" है। अबाधाकाल में कर्म सत्ता में रहता एक समय हमने कोई अशुभ कार्य किया अर्थात् पापकर्म किया और है, फल नहीं देता। यही विपाक काल (अबाधाकाल) है।101 दूसरे समय शुभ कार्य किया तो पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति आदि में कर्ममुक्ति विचार:यथा-सम्भव परिवर्तन हो सकता है। इसी प्रकार शुभ कार्य द्वारा बांधे गये कर्म की स्थिति आदि में भी अशुभ कार्य करने से समयानुसार ___ इस प्रकार कर्म के बंध के भेद, स्वभाव, विपाक एवं कारणों को जानकर जीव उससे मुक्त होने का प्रयत्न करते हुए सम्यग्ज्ञान परिवर्तन हो सकता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के अध्यवसायों के सत्यार्थ बल से मिथ्याज्ञान से निवृत्त होता हैं, मिथ्यात्व का नाश के अनुसार कर्मो की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है। होने से उसके मूल स्वरुप रागादि नहि रहते, रागादि के अभाव में 7. संक्रमण - एक प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि का तदाधीन धर्म-अधर्म की उपपत्ति नहीं होने से पूर्वकृत एवं वर्तमान दूसरे प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि में परिवर्तन अथवा परिणमन बध्यमान कर्मों का तत्त्वज्ञान से, (तत्त्वज्ञानपूर्वक के) उपभोग से प्रक्षय/ होना संक्रमण कहलाता है। संक्रमण किसी एक मूल प्रकृति की संपूर्ण क्षय होता है। जैसे प्रज्वलित अग्नि इन्धनों को भस्मीभूत करता उत्तरप्रकृतियों में ही होता है, विभिन्न मूल प्रकृतियों में नहीं। दूसरे है वैसे ज्ञानरुपी अग्नि सर्वकर्मों को भस्मीभूत करता है। नित्य-नैमित्तिक शब्दो में सजातीय प्रकृतियों में ही संक्रमण माना गया है, विजातीय आराधना से दुरित क्षय होता है, उससे आत्मा ज्ञान को निर्मल करके प्रकृतियों में नहीं। इस नियम के अपवाद के रुप में आचार्योंने यह अनुभवपूर्वक दृढ करता है, अभ्यासपूर्वक के अनुभव ज्ञान से मनुष्य भी बताया है कि आयु कर्म की प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं केवलज्ञान को प्राप्तकर अंत में शैलेशी अवस्था में योग-निरोध करके होता और न दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय में तथा दर्शनमोहनीय सर्वकर्म क्षय कर मोक्ष को प्राप्त होता है। की तीन उत्तर-प्रकृतियों में ही (कुछ अपवादों को छोड कर) परस्पर संक्रमण होता है। इस प्रकार आयु कर्म की चार उत्तरप्रकृतियाँ, दर्शनमोहनीय 101. अ.रा.पृ. 3/278 से 283, 3/290 102. अ.रा.पृ. 3/334-35 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [222]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार मुख्य कषायें हैं। इनमें से प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार प्रभेद हैं। कषायों का और गुणस्थानों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। या यह कहें कि कषायों की तरतम अवस्थितिसूचक अवस्था को गुणस्थान कहते हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। इसे निम्नांकित अनुच्छेदों द्वारा समझा जा सकता हैं कषाय और गुणस्थान: कषाय की परिभाषा:प्रथम से तृतीय गुणस्थान तक चारों कषायें रहती हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में जैनागमों के अनुसार 'कषाय' अविरतसम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी कषाय का उपमश हो जाता है। शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि, "जो कर्मरुपी विरताविरत अर्थात् देशविरत नामक चतुर्थ गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण क्षेत्र को जोतता है; सुख-दुःख फल देनेयोग्य करता है; अथवा जीव (सकल-संयम का घातक) कषाय का उदय होने से जो जीव पापजनक को कलुषित करता है; अथवा शुद्ध स्वभावयुक्त आत्मा को कलुषित क्रियाओं से सर्वथा निवृत्त तो नहीं हो सकते; किन्तु अप्रत्याख्यानावरण करता है या जीव को कर्म से मलिन करता है; अथवा जिस कर्म (एकादेश-संयम का घातक) कषाय का उदय न होने से (उपशम के द्वारा प्राणियों को बांधा जाये; या जिससे कष अर्थात् संसार (संसार होने से) देश (अंश) से पापजनक क्रियाओं से निवृत्त होते हैं। पाँचवे, भ्रमण) का प्राणी को आय अर्थात् लाभ होता हो, उसे 'कषाय' कहते छठे, सातवें एवं आठवें गुणस्थान में भी कषायों की तरतम स्थिति हैं।" या 'कष' अर्थात् कर्म या संसार के उपादान का जो हेतु हो बनी रहती है। नवें गुणस्थान में संज्वलन चतुष्क की सत्ता बनी उसे या जिससे जीव पुनः-पुनः संसार भ्रमण करता हुआ कलुषित रहती है। अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार इस गुणस्थान प्राप्त जीव होता है; अथवा जो मजीठ के रंग की तरह आत्मा के साथ चिर के यहाँ पर अनंतानुबंधी आदि तीन कषायचतुष्क तो उपशान्त या समय तक क्लिष्ट (चिपका हुआ) रहे उसे अथवा जिसके द्वारा कलुषित क्षय हो जाते है, किन्तु संज्वलन कषाय चतुष्क की पूरी निवृत्ति आत्मा में कर्म संबंध की चिरस्थिति उत्पन्न होती है उसे कषाय कहते नहीं होती। हैं। अथवा मोहनीय कर्म पुद्गल के उदय से संपादित जीव के क्रोधादि ___ 'सूक्ष्म संपराय' (दशवें गुण्सथान) में संपराय' अर्थात् लोभ परिणाम विशेष को कषाय कहते हैं। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णीने आगे की सत्ता बनी रहती है। यहाँ संज्वलन लोभ कषाय के सूक्ष्म खंडों कहा है कि, "क्रोधादि परिणाम आत्मा को कुगति में ले जाने के का उदय रहता है। जबकि उपशांत मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय और राग (माया-लोभ) के उपशान्त (उदय नहीं) हो जाते कारण कसते हैं; आत्मा के स्वरुप की हिंसा करते हैं अथवा चारित्र हैं। दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का उपशमन होते ही परिणाम को कसने के कारण या घात करने के कारण उसे 'कषाय' जीव इस गुणस्थान को प्राप्त करता है। जिस तरह गंदे पानी में कतकफल । कहते हैं। या फिटकडी आदि डालने से उसका मल नीचे बैठ जाता है और सामान्यतया 'कषाय' शब्द से तो कषाय एक है और स्वभाव स्वच्छ पानी ऊपर आ जाता है वैसे ही इस गुणस्थान में शुक्लध्यान भेद की अपेक्षा कषाय निम्नानुसार अनेक प्रकार का हैसे मोहनीय कर्म को अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता __ 1. नाम कषाय - किसी व्यक्ति या पदार्थ का नाम 'कषाय' है। और जीव के परिणामों में सहसा वीतरागता, निर्मलता और पवित्रता होना/रखना। आ जाती है। बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में कषायें नष्ट हो जाती 2. स्थापना कषाय - भौंह चढाने के कारण जिसके ललाट हैं। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती अप्रमत्त आत्मा शुक्ललेश्या एवं शुक्लध्यान में तीन बली पड गई है, चित्र में या काष्ठादि में आलेखित युक्त होती है। पुरुष आदि का ऐसा स्वरुप 'स्थाना कषाय' कहलाता है। जैनागमों के अनुसार जैन मुनि कषायत्यागी होते हैं। विशेषकर 3. द्रव्य कषाय - यह दो प्रकार का हैआचार्य भगवंत के 36 गुणों में भी 'चारो कषायों से मुक्त' यह उनका (अ) कर्मद्रव्य कषाय - योग, प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग विशेष गुण हैं। इत्यादि स्वरुपयुक्त क्रोधादि कषाय के पुद्गल परमाणु अनादि संसारी मिथ्यादृष्टि जीव के सभी कषायें विद्यमान 'कर्मद्रव्य कषाय' कहलाते हैं। रहती हैं।श्रावक के अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम होता है। किन्तु (ब) नोकर्मद्रव्य कषाय - सर्ज (शाल) वृक्ष का रस कसैला जैसे ही वह अनन्तानुबंधी कषायप्रभेद से आविष्ट होता है, सम्यक्त्व होने के कारण उसे 'नोकर्मद्रव्य कषाय' कहते हैं। जैनेन्द्र से पतित हो जाता है। अर्थात् अनन्तानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधी मान, सिद्धान्त कोश में इसे 'सर्जकषाय' कहा है। अनन्तानुबंधी माया अथवा अनन्तानुबंधी लोभ- इस कषायचतुष्क में से किसी भी एक कषाय का उदय होने पर जीव सम्यक्त्व से पतित हो कर सासादन गुणस्थान की स्थिति में पहुंच जाता है। गुणस्थानों 1. अ.रा.पृ. 3/394-95; प्रज्ञापना-13 पद; उत्तराध्ययन, अध्ययन-4, स्थानांग का समग्र चित्र कषायों और उनकी लेश्या संज्ञक तर-तम अवस्थाओं ठाणा-1; जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/15 पर आधारित है। अत: यहां पर संक्षेप में कषायों और लेश्याओं को जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/15 समझना आवश्यक है। 3. अ.रा.पृ. 3/395; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ.-2/15, 16 4. वही पृ. 15 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [223] 4. उत्पत्ति कषाय - कषाय उत्पन्न होने के हेतुभूत द्रव्य, शब्द, आवर्त) जैसा और लोभ कषाय आमिषावर्त (मांसादि हेतु समडी (शकुनिका रुप, विषय इन्द्रियां, क्षेत्र आदि जिसके निमित्त से कषाय पक्षी) के द्वारा आकाश में चक्कर लगाने जैसा दर्शाया हैं। उत्पन्न होता हो, उसे 'उत्पत्ति कषाय' कहते हैं। आवरण शक्ति की अपेक्षा से कषाय के भेदः5. प्रत्यय कषाय - अविरति, आस्रवाद्रि बन्ध कारण, जो जीव के आत्म कल्याण हेतु मोक्ष मार्ग की आराधना में कषाय के अन्तरङ्ग कारण हैं, उन्हें 'प्रत्यय कषाय' कहते हैं। बाधा पहुंचाने में कषायों की शक्ति के अनुसार क्रोधादि कषाय के 6. आदेश कषाय - अन्तरङ्ग कषाय होने पर भी यह कलुषित चार भेद हैं है, -एसा प्रतीत होना 'आदेश कषाय' कहलाता है। 1. अनन्तानुबंधी - जो अनन्त भवों का अनुबंध कराता है; 7. भाव कषाय - जीव के मोहनीय कर्मोदयजनित कषाय जीव को अनन्त भव तक संसार में भ्रमण कराता है वह परिणाम 'भाव कषाय' कहलाता है अनन्तानुबंधी क्रोधादि कषाय कहलाता है। भाव कषाय के भेद-प्रभेद: अप्रत्याख्यानीय - जिसके उदय से जीव अणुव्रत, सामायिक भाव कषाय चार प्रकार का है 1. क्रोध, 2. मान, 3. माया आदि देशविरति धर्म का प्रत्याख्यान नहीं कर सकता, उसे और 4 लोभ। 'अप्रत्याख्यानीय' कषाय कहते हैं। स्थान की अपेक्षा से कषाय के भेदः 3. प्रत्याख्यानीय - जिसका उदय होने पर जीव सर्व सावद्य क्रोधादि कषाय जिन स्थानों में प्रतिष्ठित होते हैं तदनुसार व्यापार का त्याग करके पञ्च महाव्रतरुप सर्वविरतिधर साधु उनके चार भेद निम्नानुसार है व्रत ग्रहण नहीं कर सकता, उसे 'प्रत्याख्यानीय' कषाय 1. आत्म प्रतिष्ठित - स्वयं के द्वारा किये गए ऐहिक कार्यों कहते हैं। का फल समझ में आने पर स्वयं के द्वारा स्वयं के प्रति संज्वल - जिसके कारण सर्वविरतिधर मुनि भी इन्द्रियार्थ कुद्ध होना। से पीडित होता है, जो यथाख्यात चारित्र का अवरोधक पर प्रतिष्ठित - जब अन्य लोग किसी कारणवश या कारण हैं उसे 'संज्वलन' कषाय कहते हैं। आक्रोशादिपूर्वक हम में क्रोधादि कषायों को उदय में लाते इन अनंतानुबंधी आदि कषायों के साथ योजना होने पर हैं तब वह क्रोधादि कषाय 'पर प्रतिष्ठित' कहलाता है। क्रोधादि चारों भावकषायों के 16, 64 आदि अनेक भेद-प्रभेद होते 3. तदुभय प्रतिष्ठित - जब उस प्रकार का ऐसा कोई अपराध हैं अतः अब इन भावकषायों का परिचय दिया जा रहा हैं। होने पर स्वयं एवं अन्य दोनों के उपर क्रोधादि कषाय होना क्रोधः'तदुभव प्रतिष्ठित' कहलाता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 4. अप्रतिष्ठित - स्वयं या अन्य के किसी भी प्रकार के "जिसके द्वारा अन्य पर क्रोधित हुआ जाता है, कोप, रोष, अक्षान्तिपरिणति, कारण या निमित्त के बिना केवल क्रोध वेदनीय (कषाय आत्मा के विचाररहित परिणाम का प्रगट स्फुरण, स्व पर अप्रीतिलक्षण, वेदनीय) कर्मों के कारण उदय में आया कषाय 'अप्रतिष्ठित' क्रोध मोहनीय के उदय से उत्पन्न जीव की परिणति विशेष, जातिकहलाता है। कुल-रुप-बलादि का उदय, कृत्य-अकृत्यरुप विवेक का समूलनाशक उत्पत्ति स्थान की अपेक्षा से कषाय के भेदा: प्रज्वलनात्मक स्वरुप को क्रोध कहा है।10 जिन स्थानों के विषय में कषाय उत्पन्न होते हैं, तदाश्रित जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है - अपने और पर के उपघात भेद निम्नानुसार हैं या अनुपकार आदि करने के क्रूर परिणाम; हृदयदाह, अंगकम्प, नेत्ररक्तता 1. क्षेत्र प्रतीत्य - क्षेत्राश्रित कषाय उत्पन्न होना; जैसे-नारकी और इन्द्रियों की अपटुता आदि के निमित्तभूत जीव के परिणाम को जीवों को नरकाश्रित कषायों का उदय होना; इसी प्रकार क्रोध कहा है।। द्रव्य संग्रह में कहा है कि जीव के अन्तरङ्ग परिणाम तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि को वे जिस क्षेत्र/स्थान में हैं, में क्षोभ उत्पन्न करनेवाले तथा बाह्य विषय में अन्य पदार्थों के सम्बन्ध तदाश्रित कषायों का उदय होना। से क्रूरता आवेशरुप क्रोध है।12। 2. वस्तु प्रतीत्य - सचेतन-अचेतन पदार्थ के विषय में क्रोध मानसिक और उत्तेजनात्मक आवेग है। क्रोध में क्षमता कषायोत्पत्ति होना। और तर्कशक्ति प्रायः शिथिल हो जाती है। क्रोध करने से शरीर में 3. शरीर प्रतीत्य - सुरुप, सुन्दराकार या दुःस्थित, बीभत्स । संताप होता है, शरीर कांपने लगता है, उसकी कान्ति बिगड जाती शारीरिक रुपादि के कारण कषायोत्पत्ति होना। है, आँखों के सामने अंधियारा छा जाता है, कान बहेरे हो जाते है, 4. उपधि प्रतीत्य - रजोहरण-मुखवस्त्रिका इत्यादि ओघ मुख से शब्द नहीं निकलता है स्मृति लोप हो जाती है तथा गुस्से उपकरण या वस्त्रादि उपधि स्वरुप औपग्रहिक उपकरण का 5. अ.रा.पृ. 3/395 चोरादि के द्वारा अपहरण होने की स्थिति में या अन्य किसी 6. अ.रा.पृ. 3/396-97 कारणवश कषायोत्पत्ति होना । अ.रा.पृ. 3/397, स्थानांग-4/I आवर्त के दृष्टान्त से कषायों के भेदः 8. अ.रा.पृ. 3/396, स्थानांग-4/4 9. अ.रा.पृ. 3/397 क्रोध कषाय खरावर्त (समुद्रादि के चक्र विशेष के आवर्त) 10. अ.रा.पृ. 3/683 जैसा, मान कषाय अन्नतावर्त (पर्वत शिखरारोहण मार्ग या हवा के 11. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/175 चक्रवात वायु) जैसा, माया कषाय गूढावर्त (केंदुक या लकडी के 12. वही-2/176 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [224]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में आकर मनुष्य मार-पीट भी करता है। के प्रति तिरस्कार रुप भाव को 'मान' कहते हैं, विज्ञान, ऐश्वर्य, जाति क्रोध जब बढता है तब युयुत्सा को जन्म देता है। युयुत्सा में कुल, तप और विद्या के निमित्त से उत्पन्न उद्धततारुप जीव का परिणाम अमर्ष और अमर्ष से आक्रमण का भाव उत्पन्न होता है। मनोविज्ञान के मान हैं, ऐश्वर्यादि के विस्तार से होनेवाला आत्म-अहंकार 'मान' हैं।" अनुसार क्रोध और भय में यह मुख्य अन्तर है कि क्रोध के आवेश में भगवती सूत्र में मान के बारह नाम बतलाए हैं। प्रत्येक आक्रमण का और भय के आवेश में आत्मरक्षा का प्रयत्न होता है। में मान के विविध स्तरों की व्याख्या है20जैन विचारणा में सामान्यतया क्रोध के दो रुप मान्य हैं। 1.मान - अपने किसी गुम पर अहंवृत्ति 2. मद - अहंभाव क्रोध के दो भेदा : में त्मयता 3. दर्प - उत्तेजना पूर्ण अहंभाव 4. स्तम्भ - अविनम्रता 1. द्रव्य क्रोध - प्राकृत भाषा आश्रित चर्मकार क्रोध, नील 5. गर्व - अहंकार 6. अत्युत्कोश - अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहना क्रोध आदि शब्द द्रव्य क्रोध हैं। 7. परपरिवाद - परनिन्दा 8. उत्कर्ष - अपना एश्वर्य प्रकट करना 2. भाव क्रोध - क्रोध मोहनीय कर्म विपाक से उदित/जनित 9. अपकर्ष - दूसरों को तुच्छ समजना 10. उन्नतनाम - गुणी के क्रोध के परिणाम 'भाव क्रोध' हैं। सामने भी न झुकना 11. उन्नत - दूसरों को तुच्छ समझना 12. दुर्नाम द्रव्यक्रोध को आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रोध का - यथोचित रुप से न झुकना। आंगिक पक्ष कहा जा सकता है, जिसके कारण क्रोध में होनेवाले मद - अभिधान राजेन्द्र कोश में मान, मानसिक उन्माद, शारीरिक परिवर्तन होते हैं। भावक्रोध क्रोध का अनुभूत्यात्मक पक्ष हर्ष, मद के उदय से आत्मोत्कर्षरुप परिणाम, अहंकार, अवलेप, गर्व, है। द्रव्यक्रोध अभिव्यक्त्यात्मक पक्ष है। भगवती सूत्र में क्रोध के मरप्फर (गर्व), दर्प - को मद कहा है। रत्न करंडक श्रावकाचार दस पर्यायार्थक शब्दों का उल्लेख उसके विविध रूपों की व्याख्या के अनुसार ज्ञान आदि आठ प्रकार से अपना बडप्पन मानना - 'मद' देता है। क्रोध सिर्फ उत्तेजित होना मात्र ही नहीं, चित्त की और भी कहलाता हैं।2 कई प्रतिकूल अवस्था को क्रोध कहा जाता है, जैसे : अभिधान राजेन्द्र कोश एवं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशादि ग्रंथो 1. क्रोध - आवेग की उत्तेजनात्मक स्थिति 2. कोप - में आठों प्रकार के मद का निम्नानुसार वर्णन किया गया हैक्रोध से उत्पन्न स्वभाव की चंचलता 3. रोष - क्रोध का परिस्फुट 1. ज्ञान मद - मैं ज्ञानवान् हुँ , सकल शास्त्र का ज्ञाता हुँ। रुप 4. दोष - स्वयं पर या दूसरे पर दोष थोपना 5. अक्षमा - अपराध 2. पूजा मद - मैं सर्वमान्य हुं। राजा-महाराजा आदि मेरी सेवा क्षमान न करना 6.संज्जवलन - जलन या ईर्ष्या का भाव 7.कलह - करते हैं। मेरा वचन सर्वग्राही हैं। मेरी आज्ञा सर्वत्र मान्य अनुचित भाषण करना 8. चाण्डिक्य - उग्ररुप धारण करना 9. भण्डन की जाती है। - इत्यादि पूजा, प्रतिष्ठा या आज्ञा मद कहलाता - हाथापाई करने पर उतारु हो जाना 10. विवाद - आक्षेपात्मक भाषण करना। 3. कुल मद - मेरा पितृपक्ष अतीव उज्जवल है। उसमें उसमें अभिधान चिन्तामणि कोश में क्रोध के निम्नाङ्कित पर्याय ऋषिहत्या, ब्रह्महत्यादि दूषण आज तक नहीं लगे हैं इत्यादि । दर्शाये गये है16 4. जाति मद - मेरी माता का पक्ष (खानदान) बहुत ऊँचा 1. क्रोध 2 मन्यु 3. क्रुध् 4. रुष् 5. क्रुत् 6. कोप 7. हैं। वह संघपति की पुत्री है। शील में सीता, चन्दना समान प्रतिधः 8. रोष 9. रुद् । है, इत्यादि। मान - मनुष्य का अहं भी कई दिशाओं में होता है। 5. बल मद - मैं सहस्रभट, लक्षभट, कोटिभट या सहस्रयोध्यादि ऊंचे कुल और ऊंची जाति में जन्म लेना भी मान का कारण बनता हूं-इत्यादि। है। यदि वह शक्ति-सम्न है, सुख सम्पदा से समृद्ध है, तीव्र बुद्धि 6. ऋद्धि/ऐश्वर्य मद - मैंने क्रोडों/अरबों की सम्पत्ति छोडकर है, रुपवान है, शास्त्रों का गहरा ज्ञान है, प्रभुत्व की अपार शक्ति दीक्षा ली है; मेरे पास इतना धन था या मैं ऐसा लब्धिवंत है तो वह स्वयं को सबसे ज्यादा श्रेष्ठ मानता है और अहं मनोवृत्ति हं कि मैं ही गच्छ में सभी को उत्तम उपकरणादि लाकर उसे अहंवादी, मानी, घमण्डी बना देती है। देता हूँ। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 7. तप मद - मैंने सिंहनिष्क्रिडित, विमानपंक्ति, सर्वतोभद्र आदि कहा है कि, "मानोन्मान, यथार्थज्ञान, प्रमाण, माप, दूरभि-निवेश, तप किये हैं; मेरा पूरा जन्म तप करते-करते बीता है और युक्त-अयुक्त ग्रहण, गुणानुराग, आदर-सम्मान, मनन, अवगमन, सुव्रतीया ये सब मुनि तो भोजन में रत रहते हैं, इत्यादि। गुर्वादि की अतिशय भक्ति, स्तम्भ, स्तब्धता, बलादि सामर्थ्य, अभिमान, 13. कषाय पाहुड-जयधवला टीका पृ.333 मैं कुछ हूं ऐसी बुद्धि-आदि अर्थों में 'माण' (मान) शब्द का प्रयोग 14. अ.रा.पृ. 3/683 होता है। 15. भगवती सूत्र-12/1203 16. अभिधान चिन्तामणि-299 अभिधान चिन्तामणि में गर्व, अहंकार, अवलिप्तता, दर्प, 17. अ.रा.पृ. 6/.... अभिमान, ममता, मान, चित्तोन्नति, स्मय को मान के पर्याय बताये 18. अभिधान चिन्तामणि-316-17 19. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-पृ. 2/294-95 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार जाति आदि आठ मदों 20. भगवती सूत्र-12/104 से दूसरे के प्रति नमन करने की वृत्ति न होना 'मान' हैं। 21. अ.रा.पृ. 6/1, 6/103 22. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/259, र.क.श्रा. 25 रोष से या विद्या, तप और जाति आदि के मद से दूसरे 23. अ.रा.पृ. 6/106-7, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/259 हैं।18 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. प्रा अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [225] 8. रुप मद - मेरे रुप के सामने कामदेव भी फीका है या 2. उपधि - धर्म के निमित्त से चोरी आदि दोषों में प्रवृत्त होना। मैं विश्वसुंदरी हूं-इत्यादि। 3. सातिप्रयोग - धन के विषय में जूठ बोलना; किसी की माया :- माया में मनुष्य का मन बहुत जटिल होते हैं। थापण (धरोहर) का कुछ भाग हरण करना; दूषण लगाना; प्रशंसा विविध भावों के साथ माया अपना रुप दिखाती हैं। करना। अभिधान राजेन्द्र कोश में प्राकृत 'माया' शब्द 1 माता प्रणिधि - हीनाधिक मूल्यवाली सद्दश वस्तुएँ आपस में जननी, 2. मात्रा-परिमित आहार ग्रहण और 3. माया कषाय - इन मिलाना, तोल-माप हीनाधिक रखना, सच्चे और जूठे (असलीतीन अर्थों में प्रयुक्त हैं। नकली) पदार्थ आपस में मिलाना। माया कषाय के विषय में अभिधान राजेन्द्र कोश में माया, 5. प्रतिकुंचन - आलोचना करते समय अपने दोष छिपाना । हिंसा, वंचना, शठता, मन-वचन-काया की शाठ्यता युक्त प्रवर्तन, लोभःस्व-पर व्यामोह उत्पादक वचन, सर्वत्र स्व-वीर्य निगूहन (छीपाना), अभिधान राजेन्द्र कोश में लालच के कारण किसी पदार्थ की परवञ्चन बुद्ध, परवञ्चन अभिप्राय, निकृति, अपाच्छादन, परवञ्चन के तृष्णा होना, लोभ कहा है।29 भगवती सूत्र के अनुसार मोहनीय कर्म के भावपूर्वक शरीर-आकार-नेपथ्य-मन-वचन-काया से पट करना-इत्यादि उदय से चित्त में उत्पन्न होनेवाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती अर्थ-प्रयोग दर्शाये गये हैं।24 है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार धन आदि की तीव्र आकांक्षा या दूसरों को ठगने के लिये कुटिलता या छल आदि करना, गृद्धि बाह्य पदार्थों में 'यह मेरा है'-ऐसी अनुरागरुप बुद्धि समर्थ व्यक्ति अपने हृदय के विचार को छिपाने की चेष्टा, राग से या द्वेष से दुर्ध्यान के द्वारा योग्यस्थान पर धनव्यय का अभाव-लोभ कहलाता है। (बुरे परिणाम) युक्त चित्त को शुद्धि न करते हुए बाहर से बगुले जैसा अभिधान चिन्तामणि में लोभ के निम्नाङ्कित 16 पर्याय बताये रहना-माया, माया शल्य कहलाता है।25 हैं - 1. लोभ 2. तृष्णा 3. लिप्सा 4. वश 5. स्पृहा 6. कांक्षा, माया के प्रकार : 7. आशंसा 8. गर्द्ध 9. वाञ्छा 10. आशा 11. इच्छा 12. इहा 13. अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार माया चार प्रकार की तृह (तृह) 14. मनोरथ 15. कामेच्छा/काम और 16. अभिलाषा ।। भगवती सूत्र में निम्नानुसार लोभ की 16 अवस्थाएँ दर्शाई 1. नाम माया - किसी व्यक्ति का नाम 'माया' रखना है। 2. स्थापना माया- किसी आकृति, चित्र में शठतायुक्त मायावी 1. लोभ - संग्रह करने की वृत्ति 2. इच्छा - अभिलाषा चित्र स्थापित करना। 3. मूर्छा - तीव्र संग्रह वृत्ति 4. आकांक्षा - प्राप्त करने की आशा 3. दव्य माया - यह दो प्रकार की हैं 5. गृद्धि - आसक्ति 6. तृष्णा - प्राप्त पदार्थ के विनाश न होने (1) कर्म द्रव्य माया - माया कषाय योग्य कार्मण वर्गणा की इच्छा 7. मिथ्या - मिथ्या विषयों का ध्यान 8. अबिध्या - के पुद्गल ग्रहण करना। निश्चय से डिग जाना या चंचलता 9. आशंसना - इष्ट की प्राप्ति (2) नोकर्म माया - दूसरों से छिपाकर रखा हुआ निधान की इच्छा करना 10. प्रार्थना- अर्थ आदि की याचना 11. लालपनता प्रयुक्त द्रव्य - चाटुकारिता 12. कामाशा - काम की इच्छा 13. भोगाशा - भोग्य 4. भाव माया - माया कषाय चारित्र मोहनीय कर्म योग्य पदार्थों की इच्छा 14.जीविताशा - जीवन की कामना 15. मरणाशा विपाकलक्षणा माया अर्थात् तत्स्वरुप आत्म-परिणाम 126 - मरने की कामना 16. नन्दिराग - प्राप्त सम्पत्ति में अनुराग 2 भगवती सूत्र में माया के पन्द्रह नाम उल्लिखित हैं। लोभ की मन:स्थिति में मनुष्य के भीतर भाव पर्यायें बदलती रहती हैं। भगवती सूत्र में लोभ के पन्द्रह नामों को बतलाकर उनकी 1. माया - कपटाचार 2. उपधि - ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति विविध परिणतियों पर प्रकाश डाला गया हैं। के पास जाना 3. निकृति - ठगने के अभिप्राय से अधिक सम्मान लोभ के भेद- तत्त्वार्थ राजवार्तिक के अनुसार लोभ चार देना 4. वयण - वक्रता पूर्ण वचन 5. गहन - ठगने के विचार से प्रकार का है - जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रिय लोभ, उपभोग लोभ । अत्यन्त गूढ भाषण करना 6. नूम - ठगने के हेतु निकृष्ट कार्य करना -ये चारों के भी प्रत्येक स्व पर भेद से दो दो प्रकार होते हैं।33 7. कल्क - दूसरों को हिंसा के लिए उभारना 8. कुस्म - निन्दित कषाय का स्वरुप - कषाय के स्वरुप की स्पष्टता व्यवहार करना 9. जिह्नता - ठगाई के लिए कार्य मन्द गति से को समझाते हुए जैनाचार्यों ने प्रतीकों के माध्यम से बताया कि करना 10.किल्विषिक - बांडो के समान कुचेष्टा करना 11.आदरणता - अनिच्छित कार्य भी अपनाना 12. गूहनता - अपनी करतूत को 24. अ.रा.पृ. 6/251 छिपाने का प्रयत्न करना 13. वंचकता - ठगी 14. प्रतिकुंचनता - 25. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/296 किसी के सरल रुप से कहे गये वचनों का खण्डन करना 15. सातियोग 26. अ.रा.प्र. 6/251 27. भगवती सूत्र-12/105 - उत्तम वस्तु में हीन वस्तु की मिलावट करना। यह सब माया 28. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/296 की ही विभिन्न अवस्थाएं हैं।27 29. अ.रा.पृ. 6/752 भगवती आराधना मे माया के पाँच प्रकार दर्शाये गये हैं28- 30. भगवती सूत्र 12/106 1. निकृति - धन या अन्य स्वाभिप्रेत कार्य हेतु अन्य को फंसानेरुप 31. अभिधान चिन्तामणि चातुर्य दिखाना। 32. भगवती सूत्र 12/106 33. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/492 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [226]... चतुर्थ परिच्छेद चार प्रकार के क्रोध क्रमशः पत्थर, भूमि, बालू और धूलि की रेखा जैसा होता हैं । 34 पत्थर में पड़ी दरार के समान अनन्तानुबन्धी क्रोध किसी के प्रति एक बार उत्पन्न होने पर जीवन पर्यन्त बना रहता है। सूखते हुए जलाशय की भूमि में पड़ी दरार वर्षा के योग से ही मिटती है। इसी तरह अप्रत्याख्यानी क्रोध एक वर्ष से अधिक स्थायी नहीं रहता। बालू की रेखा हवा के झोंके के साथ मिट जाती है। प्रत्याख्यानी क्रोध चार मास से अधिक स्थायी नहीं रहता। पानी में खींची गई रेखा के समान संज्वलन क्रोध पन्द्रह दिन तक स्थायी रह सकता है। चार प्रकार का अभिमान क्रमशः शैलस्तम्भ, अस्थि, काष्ठ और लता स्तम्भ जैसा बताया गया है। 35 पत्थर का स्तम्भ टूट जाता है पर झुकता नहीं । अनन्तानुबन्धी मानवाला व्यक्ति किसी परिस्थिति में समझौता नहीं करता, झुकता नहीं । प्रयत्नपूर्वक कठिनता से झुकने वाले अस्थि स्तम्भ की तरह अप्रत्याख्यानी मानवाला व्यक्ति विशेष परिस्थिति में बाह्य दबाव के कारण झुक जाता है। थोडे से प्रयत्न से झुक जानेवाले काष्ठ स्तम्भ की तरह प्रत्याख्यानी मानवाले व्यक्ति में भीतर छिपी विनम्रता परिस्थिति विशेष को निमित्त पाकर प्रकट हो जाती है। अत्यन्त सरलता से झुक जानेवाले बेंत-स्तम्भ की तरह संज्वलन मानवाला व्यक्ति आत्म गौरव को रखते हुए विनम्र बना रहता है। चार प्रकार की माया क्रमश: वांस की जड, मेढे का सींग, चलते हुए बैल की धार और छिलते हुए बांस की छाल की तरह होती हैं। 36 बांस की जड इतनी वक्र होती है कि उसका सीधा होना सम्भव ही नहीं। ऐसी माया व्यक्ति को धूर्तता के शिखर पर पहुँचा देती है। मेढे केसिंग में बांस के कुछ कम टेढापन होता है । चलते हुए बैल की मूत्र धार टेढी-मेढी होने पर भी उलझी कषाय की अवस्था क्रोध मान अनन्तानुबंधी शिलारेखा पर्वत अप्रत्याख्यानीय पृथ्वीरेखा प्रत्याख्यानीय धूलिरेखा क्रोधादि चारों कषायो के चारों भेदों की अवस्था, दृष्टता, काल और फल निम्नानुसार है" कषाय शक्तियों के दृष्टांन्त स्थिति काल माया संज्वलन जलरेखा अस्थि अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन नहीं होती। संज्वलन माया की ऐसी ही वक्रता होती है । चार प्रकार का लोभ क्रमश: कृमिरेशम, कीचड, गाडी के खंजन और हल्दी के रंग के समान होता है। 37 कृमिरंग इतना पक्का होता है कि प्रयत्न करने पर भी रंग उतरता नहीं। अनन्तानुबन्ध लोभ व्यक्ति पर पूर्णतः हावी रहता है। वस्त्रों पर लगे कीचड के धब्बे सहजतः साफ नहीं होते। वैसे ही अप्रत्याख्यानी लोभ के धब्बे आत्मा को कलुषित करते रहते हैं। गाडी का खंजन वस्त्र को विद्रूप बनाता है फिर भी तेल आदि से उतर जाता है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानी लोभ साधना, तपस्या आदि से काफी हल्का बन जाता है। हल्दी से रंगा वस्त्र धूप दिखाते ही साफ हो जाता है, वैसे ही संज्वलन लोभ समय और परिणाम दोनों दृष्टियों से बहुत कम प्रभावित कर पाता है। काष्ठ वेत्र (वेंत) बांस 34. अ. रा. पृ. 3/395-98 3/683 35. अ. रा. पृ. 3/683; 6/239 36. अ. रा. पृ. 3/395-98 37. अ. रा.पू. 6/752 8.अ. रा. पृ. 3/395-98; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/38 39. अ.रा. पृ. 3/395-398; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/38 वेणुमूल अनादिकाल से जुडा जीव के साथ कषाय का संबंध संसार परिभ्रमण का कारण बनता है। इसके कारण व्यावहारिक जीवन ही असफल नहीं बनता, आत्मगुणों का विनाश भी होता है। जैन तत्त्व दर्शन में कषाय से होनेवाले चार प्रकार के अभिघातों का उल्लेख मिलता है मेषशृंग गोमूत्र धनुष्यादि की डोरी 1. अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व का अभिघात करता है। 2. अप्रत्याख्यानी कषाय देशव्रत (श्रावकत्व) का अभिघात करता है। 3. प्रत्याख्यानी कषाय सर्वव्रत - साधुत्व का अभिघात करता है । 4. संज्वलन कषाय वीतरागता का अभिघात करता है। कषायों की मन्दता और तीव्रता के सन्दर्भ में गतिबन्ध की चर्चा उल्लेखनीय है। अभिधान राजेन्द्र कोशादि में अनन्तानुबन्धी कषाय का फल नरकगति, अप्रत्याख्यान कषाय का फल तिर्यञ्चगति, प्रत्याख्यान कषाय का फल मनुष्य-गति और संज्वलन कषाय का फल देवगति बतलाया है 138 लोभ किरमजी (मजीठ) के रंग या दाग के समान चक्रमल के एक वर्ष रंग या दाग के समान कीचड के वर्ण या दाग के समान हल्दी के वर्ण या दाग के समान यावज्जीव चार मास 15 दिन फल नरक गति तिर्यंच गति मनुष्य गति देव गति Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कषाय का फल: कषाय संसार का मूल है। जो तपस्वी होने पर भी तप आदि के दर्पपूर्वक कषाय करता है वह बाल तपस्वी है, वह तप करने का निरर्थक परिश्रम/काया क्लेश मात्र कर रहा है अर्थात् उसका तप कर्मनिर्जरा/ कर्मक्षय कारक नहीं है। ये चारों क्रोधादि कषाय पापवर्धक हैं। क्रोध प्रीति का मान विनय का, माया मित्र नाशक और लोभ सर्वविनाशक है । अनिग्रहीत प्रवर्धमान क्रोधादि कषाय पुनर्भव (पुनःपुनः जन्म-मरण रुप संसार) के मूल का सिंचन करते हैं। भगवान महावीर ने कहा है - हे गौतम ! जहां मुनि निमित्त मिलने पर या दूसरों के द्वारा कषायोदय करने पर भी कषायों की उदीरणा करने के इच्छुक नहीं है, वह गच्छ (वास्तव में गच्छ होता है। उस गच्छ में धर्मान्तराय और संसारवास/गर्भावास से भयभीत मुनि कषायोदीरणा नहीं करते । अल्प भी कषाय उदय में आने पर उपशम गुणस्थानवर्ती जिन सदृश चारित्रधारी का भी पतन कराता है। अतः आत्मार्थी आत्माओं के द्वारा अल्पतम भी कषाय विश्वास करने योग्य नहीं है, क्योंकि ऋण, घाव, अग्नि और कषाय- ये चारों थोडे होने पर भी (यदि उसका अंत नहीं किया तो बहुत हो जाते हैं। 40 क्रोध, अप्रीतिकर, उद्वेगकर, सुगति, विनाशक, वैरानुबंधक, गुणगण रुपी वन को जलाने में अग्नि सदृश है। क्रोधांध व्यक्ति पुत्र, मित्र, गुरु, स्त्री, माता आदि की हिंसा करता है । क्रोधाग्नि प्रज्वलित होने पर यदि कोई बुझानेवाला न मिले तो अन्य को भी जलाता है। यह परभव ( में सुगति) विनाश हेतु उत्पन्न है क्रोध संताप को बढाता है, विवेक को संहार करता है, मित्रता को नष्ट करता है, उद्वेग (चिन्ता) स्वजनों में भी क्लेश कराता है, कीर्ति का उच्छेदन करता है, दुर्बुद्धि को फैलाता है, पुण्योदय का नाश करता है, दुर्गति में ले जाता है। क्रोध धर्म को नष्ट करता है, नीतिरुपी लता का उन्मूलन करता है, स्वार्थ, दया को लोप / अद्दश्य करता है और आपत्ति को बढाता है। क्रोध मद्य (शराब) की तरह विकारभाव उत्पन्न करता है, सर्प की तरह त्रास देता है, अग्नि की तरह स्व-पर के शरीर को जलाता है, विषवृक्ष की तरह ज्ञान का नाश करता है, ऐसे क्रोध का हितेच्छु कल्याण की पंक्तिरुप पुण्य श्रेणि का उत्पादक और शमरुपी जल से सिंचित मोक्षदायी तप- चारित्ररुपी वृक्ष / धर्मवृक्ष क्रोधाग्नि से नष्ट होता है। 42 अतः क्रोधरुपी महाग्नि को क्षमारुपी जल से सदा विशेष रुप से शांत करना चाहिए।43 उपशम से क्रोध को नष्ट करना चाहिए। 44 मान- जब तक जीव मान कषाय से घिरा रहता है तब तक विनय नहीं आता, ज्ञान प्राप्त नहीं होता। मान कषाय के कारण जीव अच्छंकारिभट्टा की तरह चोरी, लूट खसोट, मार आदि अनेक दुःखो को प्राप्त होता है, सभी को अप्रिय बनता है, बिना कारण क्लेश खडा करके अपने जीवन को सर्वनाश प्रायः बनाता है। 45 मान के कारण बाहुबलिजी को केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, रावण को सोने की लंका से हाथ धोने पडे, दुर्योधन का सर्वनाश हुआ । मान - अहंकार के कारण गुरुजनों का विनय नहीं करने सेमुनि सूत्रार्थ प्राप्ति हेतु अयोग्य होता है; और अन्त में वह शिष्यत्व और गुरुपद प्राप्ति हेतु भी अपात्र ठहरता है 146 मान से आपत्तियों की नदियाँ प्रकट होती है, सद्गुणों का सर्वनाश होता है, क्रोध बढता है, शांति, निर्मलबुद्धि, विवेक ज्ञान, न्याय मार्ग नष्ट होता है; सभी अनर्थ उत्पन्न होते हैं; सदाचरण, विनय, चतुर्थ परिच्छेद... [227] कीर्ति और धर्म-अर्थ- कामरुपी त्रिवर्ग का नाश होता है । 47 अभिधान राजेन्द्र कोश में आठों मद करने पर उसका परिणाम दर्शाते हुए कहा है कि, "अधम जात्यादि प्राप्त होने पर जीव को क्रोध नहीं करना । इस चतुर्गतिरुप अनादि संसार में अरघट्ट-घट्टी न्याय से चिरकाल तक भ्रमण करता है। जो जिस उत्तमस्थानादि को प्राप्त करके उसका अभिमान करता है वह अन्य भव में उससे अधम स्थानादि में गिरता / जन्म लेता है। अतः मद स्थान को ज्ञातकर विवेकी पण्डित जनों को चाहिए कि वे हेयोपादेय तत्त्वज्ञ बनकर उच्चावच्च स्थानादि के प्राप्त होने पर हर्ष - शोक नहि करे। 48 दम्भ (माया - कपट) मुक्तिरुपी लता को दहन करने में अग्नि समान है, क्रियारुपी चंद्र को मलिन करने में राहु समान है, दुर्भाग्य का कारण है, अध्यात्मसुख के (प्रवेशनिषेध हेतु) अर्गला के समान है, अविश्वास का स्थान है, ज्ञानरुप पर्वत को नष्ट करने में वज्र समान है, कामरुपी अग्नि को बढाने में घी (हवि) के समान है, दुःखों का मित्र है, व्रत / महाव्रत रुपी लक्ष्मी का चोर है। 49 माया क्षेमकुशलता को प्रगट करने में वंध्या स्त्री के समान, सत्य वचनरुप सूर्य को अस्त होने में संध्या समान, कुगतिरुपी स्त्री की वरमाला समान, मोहरूपी हस्ति के लिए शाला समान, उपशमरुपी कमल को नष्ट करने में) हिम (हिमपात) समान, अपयश की राजधानी और सेंकडो दुःखो को बढानेवाली है। 50 माया माया कषाय के कारण जीव को स्त्रीत्व, तिर्यंचगति प्राप्त होता है। धर्म के विषय में उग्र तपस्वी, उत्कृष्ट संयमी के द्वारा की गयी थोडी भी माया अनर्थकारी होती है |51 जो मनुष्य दम्भ/माया कपट से दीक्षा ग्रहण करके मोक्ष की इच्छा करता है वह लोहे के जहाज से समुद्र पार करने जैसा है। दम्भयुक्त दीक्षा, व्रतादिपालन, उग्र तपादि सभी धर्माचरण निष्फल है 152 जो विविध प्रकार के प्रपंच से अन्य को ठगते है वे स्वयं की आत्मा को ठगते है। जैसे दूध पीनेवाली बिल्ली लाठी के प्रहार को नहीं देखती वैसे मायावी व्यक्ति माया के फल स्वरुप भावि कष्टों के समूह को नहीं देखता । माया कपटपूर्वक अन्य को ठगनेरुप चातुर्य भविष्य में उपद्रव किये बिना नहीं रहता अतः सज्जनों को माया से बचकर दूर ही रहना चाहिए। 53 लोभ अज्ञानरुपी विषवृक्ष का मूल सुकृतरुपी समुद्र का शोषण करने में अगस्त्य ऋषि समान, क्रोधरुपी अग्निको प्रगट करने में अरणि 40. 41. 42. अ. रा. पृ. 3/399-400 अ. रा. पृ. 3/684 सिंदूरप्रकर-45 से 48 43. अ. रा. पृ. 3/64 44. दशवैकालिक मूल-8/39 अ.रा. पृ. 1/181 अ.रा. पृ. 7/904-5 सिन्दूर प्रकर 49, 50, 51 45. 46. 47. 48. अ. रा.पू. 6/107 49. अध्यात्मसार - 1/54,55,56 50. सिंदूर प्रकर-53 51. अ. रा.पू. 6 / 251-52 52. अध्यात्मसार - 57 53. सिंदूर प्रकर- 54, 55, 56 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [228]... चतुर्थ परिच्छेद काष्ठ समान, प्रताप (यश) रुपी सूर्य को आच्छादन करने में मेघ समान, क्लेश का क्रीडागृह, विवेकरुपी चंद्रमा को ग्रसित करने में राहु समान, आपत्तिरुपी नदियों का समुद्र और कीर्तिरुपी लता-समूह को नष्ट करने में हस्ति समान है 154 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन क्रोध प्रीति का विनाशक है, मान विनय नाशक है, माया मित्रता को नष्ट करती है और लोभ सर्वविनाशक है। अतः आत्माहितैषी भव्यात्मा को पापवर्धक इन चारों दोषों / कषायों का वमन / त्याग करना चाहिए और उपशम से क्रोध को, नम्रता से मान को, सरलता माया को और संतोषपूर्वक लोभ के ऊपर विजय प्राप्त करना चाहिए 158 कषाय-वर्णन के पश्चात् जीव की कषाययुक्त आत्मपरिणति 'लेश्या' होने से अब लेश्या का परिचय दिया जा रहा है। समस्त धर्मरुपी वन को जलाने से विस्तृत दुःखसमूहरुपी भस्मयुक्त, अपयशरूपी धूएँ से व्याप्त और धनरुप इन्धन से प्रज्वलित लोभरुपी अग्नि में समस्त सद्गुण नष्ट होते / जल जाते हैं 155 लोभांध मनुष्य विषम अरण्य में भ्रमण करते हैं, विदेश जाते है, गहन समुद्र का उल्लंघन करते है, अनेक दुःखयुक्त कृषिकार्य करते है, कृपण धनी की सेवा करते है, युद्धादि करते है। 56 लोभ लोभ कषाय से जीव अति आरंभ समारंभादि करके तीव्र पाप बंध करता है जिससे दारुण विपाक भोगने पडते हैं। राजादि द्वारा पकडे जाने पर प्राणदंडादि सजा भी भुगतनी पडती है। 57 54. सिंदूर प्रकर-58 55. वही - 59 56. वही - 57 57. अ.रा. पृ. 6/753 58. दशवैकालिक मूल-8/37-38-39 आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य है अलेश्य बनना । अशुभ शुभ और शुभ से शुद्धोपयोग तक पहुँचना जीवन का नैतिक साध्य है । यद्यपि लेश्या स्वयं मुक्तिपथ का बाधक तत्त्व है क्योंकि यह औदयिक भावयुक्त है तथापि जब यह अशुभ से शुभ तक पहुँचती है तो आत्म परिणामों की विशुद्धि से संवर और निर्जरा जैसे मोक्षसाधक तत्त्वों से जुड जाती है और तेरहवें गुणस्थानक तक अस्तित्त्व में रहती है । शी से अलेशी बनना हमारा आत्मिक उद्देश्य है । इसके लिए कर्म से अकर्म की ओर बढना अत्यावश्यक है । कर्म से तात्पर्य केवल क्रिया या अक्रिया नहीं है। भगवान महावीर के शब्दों में प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म है । सूत्रकृताङ्ग के अनुसार अप्रमत्तावस्था में क्रिया भी अक्रिया बन जाती है और प्रमत्तावस्था में अक्रिया भी कर्मबन्धन का कारण हो जाती है। परम शुक्ल लेश्या में प्रवेश करने का मतलब है- अकर्म बनने की पूर्ण तैयारी, पूर्ण - जागरुकता । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन लेश्या श्या सिद्धान्त की प्राचीनता: ऐतिहासिक दृष्टि से 'लेश्या' शब्द का प्रयोग अति प्राचीन है। आचारांग (ई.सा. पूर्व 5वीं शती) में 'अबहिल्लेस्से' शब्द की उपस्थिति यह सूचित करती है कि, लेश्या की अवधारणा महावीर के समकालीन है । पुनः उत्तराध्ययन सूत्र जो की सभी आगमों में अतिप्राचीन माना जाता है, में लेश्याओं के संबंध में एक पूरा अध्ययन उपलब्ध होना यही सूचित करता है कि लेश्या की अवधारणा एक प्राचीन अवधारणा है। इसके अलावा सूत्रकृताङ्ग सूत्र में 'सुविशुद्धलेसे' तथा औपपातिक सूत्र में 'अपडिलेस्स' शब्दों का उल्लेख मिलता है।' जैन साहित्य में लेश्या सिद्धान्त का विवेचन अनेक दृष्टियों से किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयु - इन ग्यारह द्वारों (विचार बिन्दुओं) के द्वारा लेश्या संबंधी विचार किया गया है। भगव सूत्र एवं प्रज्ञापना सूत्र में परिणाम (द्रव्य), वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम (भाव), प्रदेश, वर्गणा, अवगाहना, स्थान एवं अल्प - बहुत्व- इन पंद्रह द्वारों से लेश्या का विचार किया गया है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने जैनागमों के आधार पर निम्नाङ्कित 26 द्वारों के आधार पर लेश्या की विवेचना की है - (1) निक्षेप (2) संख्या (3) नारको में लेश्या (4) असुरकुमारादि देवों में लेश्या (5) कृष्णादि लेश्यावान जीवों की ऋद्धि का अल्प - बहुत्व (6) लेश्यावन्त का अवधिज्ञान विषयक क्षेत्र (7) लेश्या का स्थान (8) लेश्या - प्राप्ति हेतु परिणाम (9) वर्ण (10) विशेष वर्ण (11) स्थिति का अल्प बहुत्व (12) वर्ण स्थान (13) रस (14) गन्ध (15) शुद्धि (16) स्पर्श (17) गति (18) परिणाम संख्या (19) त्रिस्थानकावतार (20) प्रदेश (21) स्थान (22) स्थितिकाल (23) लेश्या-स्थान का अल्पबहुत्व (24) आयुः (25) परस्पर परिणामनिरुपण ( 26 ) मनुष्यादिगत लेश्या - संख्यानिरुपण ।4 इसके पश्चात् दिगम्बर परंपरा में भी अकलंकने तत्त्वार्थ राजवार्तिक में लेश्या की विवेचना में निम्न सोलह अनुयोग की चर्चा की है - (1) निर्देश (2) वर्ण (3) परिणाम (4) संक्रम (5) कर्म (6) लक्षण (7) गति (8) स्वामित्व (9) संख्या (10) साधना (11) क्षेत्र (12) स्पर्शन (13) काल (14) अन्तर (15) भाव और (16) अल्प बहुत्व | S अकलंक के पश्चात् गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी लेश्या की विवेचना में उपर्युक्त 16 ही अधिकारों का उल्लेख किया गया है। " आधुनिक युग में जैन दर्शन के लेश्या सिद्धान्त को आधुनिक विज्ञान के परिप्रक्ष्य में आचार्य महाप्रज्ञने व्याख्यायित किया है। उन्होंने आधुनिक व्यक्ति मनोविज्ञान के साथ-साथ आभा मण्डल, रंग-मनोविज्ञान, रंग-चिकित्सा आदि अवधारणाओं का अपने ग्रंथ 'आभामण्डल' में विस्तार से वर्णन किया है। डो. शान्ता जैनने 'लेश्या को मनोवैज्ञानिक अध्ययन' नामक अपने शोध ग्रन्थ में लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष, मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या रंगो की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति, लेश्या और आभामण्डल, व्यक्तित्व और लेश्या, संभव है व्यक्तित्व बदलाव और लेश्या ध्यान, रंग ध्यान और लेश्या आदि लेश्या के विभिन्न आयामों पर गंभीरता से विचार किया है।" लेश्या की परिभाषा: 'लेश्या' का सिद्धान्त जैन दर्शन का स्वतन्त्र प्रतितन्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त है। जैन दर्शनने लेश्या का जीव के साथ अनादि संबंध माना है। जीव जब तक कर्ममुक्त नहीं होता, आत्मा में लेश्या का परिणमन होता रहता है। लेश्या को कर्मबन्ध का सहायक तत्त्व कहा है। संपूर्ण सृष्टि का चक्र जन्म-मरण, सुख-दुःख, वैयक्तिक भिन्नतायें सभी कर्मतत्त्व से जुडी है परन्तु कर्म भी आत्मा के साथे बिना लेश्या के नहीं जुडता । जीव और पुद्गल के संयोग में लेश्या सेतुबन्ध का काम करती है। 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. यदि मुझे अपने शब्दो में कहना हो तो 'कषायसापेक्ष आत्म परिणति को लेश्या कहते है, इसमें क्रमशः विशुद्धतर लेश्या होती है।" अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'लेश्या' का वर्णन करते हुए कहा है- जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है या जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है अर्थात् बन्धन में आती है, वह लेश्या है । लेश्या कृष्णादि द्रव्य साचिव्यजनित आत्म-परिणाम है, जीव को अध्यवसाय है, अन्तःकरण की वृत्ति है। भगवती सूत्र में कहा है कि, "कृष्णादि द्रव्य वर्गणाओं की सन्निधि से होनेवाला जीव का परिणाम लेश्या है। 10 आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों को श्लिष्ट करनेवाली प्रवृत्ति लेश्या है। ये योग के परिणाम विशेष है।" स्थानांग में कहा है कि, लेश्या कर्मनिर्जरारुप है। 12 उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति में लेश्या का अर्थ आण्विक आभा, कान्ति, प्रभा या छाया किया गया है। 13 यापनीयाचार्य शिवार्यने भगवती आराधना में छाया पुद्गल से प्रभावित जीव के मनोभावों/परिणामों को लेश्या माना है। 14 इसी आधार पर आचार्य देवेन्द्र मुनि शास्त्रीने लेश्या को एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण माना है जो मनोवृत्तियों को निर्धारित करता है ।15 षट्खण्डागम में कहा है कि, "जो आत्मा और कर्मो का बंध करानेवाली है, वह लेश्या है। ''16 पंचसंग्रहकार जिसके द्वारा जीव पुण्य-पाप से अपने को लिप्त जैन विद्या के आयाम - खण्ड-6 पृ. 390 उत्तराध्ययन सूत्र - 34/2 अ. रा.पू. 6/680, प्रज्ञापना सूत्र - 17/411 अ. रा.पू. 6/696 तत्त्वार्थ राजवार्तिक- पृ. 238 गोम्मटसार जीवकाण्ड - गाथा - 491-92 12. 13. 14. चतुर्थ परिच्छेद... [229] - जैन विद्या के आयाम खण्ड-6 पृ. 390 अ. रा. पृ. 3/395, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- पृ.3/422 9. 10. भगवती सूत्र - 1/1 प्र. 53 की टीका 11. वही 1/2 प्र. 98 की टीका स्थानांग -1 /51 की टीका उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र 650 भगवती आराधना भा. 2 गाथा 109 श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ खण्ड 5 पृ. 4-61 अ. रा.पू. 6/675, प्रज्ञापना 17 पद, आचारांग 1/615;1/8/5 15. 16. लेश्या और मनोविज्ञान प्राथमिकी पू. 7 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [230]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन करता है, उसे लेश्या कहते है।' तत्त्वार्थ राजवार्तिक में अकलंकने कहा ___'विस्त्रसा नोकर्म द्रव्य लेश्या' कहलाती है। है- "कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्ति लेश्या।" अर्थात् कषायों के 4. भाव लेश्या- कषाय से अनुरंजित जीव की मन-वचन-काया के उदय से रंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या है। आत्म-परिणामों की शुद्धता योगों की प्रवृत्तिजनित परिणाम/अध्यवसाय/परिणति/अन्तःकरण की वृत्ति और अशुद्धता की अपेक्षा से इसे कृष्णादि नामों से पुकारा जाता है।18 भावलेश्या कहलाती है। यह संयोगी जीव के होती है। लेश्या के प्रकार: अयोगी आत्मा को योग-परिणाम का अभाव होने से लेश्या अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने लेश्या चार प्रकार की का अभाव होता है। दर्शाई है। भाव लेश्या के प्रकार :1. नाम लेश्या- किसी पदार्थ या स्त्र्यादि का 'लेश्या' -एसा नाम भाव लेश्या छ: प्रकार की है - 1. कृष्ण, 2. नील, 3. होना। कापोत, 4. तेजस् , 5. पद्म और 6. शुक्ल ।25 2. स्थापना लेश्या - जंबुवृक्षादि के द्वारा लेश्याओं के भावों का लेश्याओं के वर्ण26 :दृष्टान्त, चित्रपट्ट आदि स्थापना लेश्या है। अभिधान राजेन्द्र कोश आदि ग्रन्थों में कृष्णादि लेश्याओं के 3. द्रव्यलेश्या- आचार्यश्री एवं पं. सुखलालजी के अनुसार निम्नाङ्कित वर्ण के संबंध में निम्न विवेचन प्राप्त होता है। तीन मत है20 1. कृष्ण लेश्या - जलपूर्ण मेघ, महिष, द्रोण, खंजन, काक, (i) लेश्या-द्रव्य कर्मवर्गणा से बने हुए है। यह मत उत्तराध्ययन काजल, अरिठा, नेत्र की कीकी जैसी श्याम । की टीका में है। 2. नील लेश्या - नील अशोक, मयूरपिच्छ, नीलमणि (वैडूर्य), (ii) लेश्या दव्य बध्यमान कर्मप्रवाहसम हैं। यह मत भी चासपक्षी के पाँख जैसा निला। उत्तराध्ययन की टीका में वादिवेताल शांतिसूरि का है। (ii)लेश्या-योग परिणाम है अर्थात् शारीरिक, वाचिक और मानसिक 3. कापोत लेश्या - अलसी (धान्य विशेष) के फूल, कोफिल क्रियाओं का परिणाम है। यह मत आचार्य हरिभद्रसूरि का है। या तेलकंटक वनस्पति, पारावत (कबूतर) की ग्रीवा की तरह डॉ. सागरमल जैनने द्रव्य लेश्या को व्यक्ति का आभा मण्डल कपोती वर्ण। कहा है। 4. तेजो लेश्या- हिंगुल, उदीयमान सूर्य, शुकतुण्ड (तोते की अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार द्रव्य लेश्या दो प्रकार चोंच) के समान लाल। की है - कर्म लेश्या और नोकर्म लेश्या। 5. पद्म लेश्या - टूटा हुआ हरताल, हल्दी, शण, असन के पुष्प क. कर्म लेश्या- लेश्या संबंधी कर्म के पुद्गल द्रव्य 'कर्म लेश्या' और स्वर्ण जैसा पीला। कहलाते हैं। 6. शुक्ल लेश्या - शंख, अंकमणि, कुन्द पुष्प, दूध, कपास/ ख. नोकर्म लेश्या- नोकर्म लेश्या दो प्रकार की होती है। (1) जीव तुल, चांदी, मुक्ताफल के समान श्वेत । सम्बन्धी और (2) अजीव सम्बन्धी। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में कृष्णादि लेश्याओं का वर्ण (1) जीवनोकर्म लेश्या- जीव की नोकर्म लेश्या उपयोगलक्षणा होती क्रमशः भौंरे, नीलम, कबूतर, स्वर्ण, कमल और शंख के समान है; वह भी दो प्रकार की है - भवसिद्धि अर्थात् भव्य जीव संबंधी और बताया है। अभवसिद्धि अर्थात् अभव्य जीव संबंधी। भव्य जीव संबंधी कृष्णादि लेश्या की गन्धःषड् लेश्या और जयसिंहसूरि के मत से सातवीं संयोगजा लेश्या है। (संयोगजा लेश्या शरीर की छायात्मिका मानी है।) अन्य आचार्य औदारिक, कृष्णादि छ: लेश्याओं में से प्रथम तीन अशुभ लेश्याओं की औदारिक-मिश्र इत्यादि सात काययोग की छायारुप सात प्रकार की गन्ध क्रमशः गाय के, कुत्ते के और सर्प के मृत कलेवर जैसी दुर्गंधवाली जीव नोकर्म द्रव्य लेश्या मानते हैं। होती है और शेष तेजोआदि तीन लेश्याओं की गन्ध सुगंधी पुष्प-सुगंधी (2) अजीव नोकर्म द्रव्य लेश्या - यह दस प्रकार की है चन्दनादि का चूर्ण - और गंधकषायादि सुगंधी वस्त्रों की गंध से भी 1. चन्द्र संबंधी 2. सूर्य संबंधी अधिक सुगंधयुक्त होती है।28 3. ग्रहसंबंधी 4. नक्षत्र संबंधी 17. पंचसंग्रह-1/142-43 (मंगल-बुधादिविमान संबंधी) 5. तारा संबंधी 19. तत्त्वार्थ राजवातिक-2/6 6. आभरण (अलंकार) संबंधी 19. अ.रा.पृ. 6/676 7. आच्छादन-सुवर्णचरितादि संबंधी 8. आदर्श-दर्पण संबंधी 20. अ.रा.पृ. 6/675, दर्शन और चिन्तन पृ. 2/297 21. जैन विद्या के आयाम-खण्ड-6 पृ. 384 9. मणि (मरकतमणि) आदि संबंधी 10. काकिणी 22. अ.रा.पृ. 6/676 (चक्रवर्ती का रत्न) संबंधी 23. अ.रा.पृ. 6/676-77 ये अजीव संबंधी होने के कारण इसे अजीव नोकर्म द्रव्य 24. अ.रा.पृ. 6/676-77, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/422 लेश्या कहते हैं। इन दस प्रकारों के अतिरिक्त भी रजत, रुप्य, ताम्रादि 25. अ.रा.पृ. 6/676-77 भेद से लेश्या अनेक प्रकार की है। तथा शरीरादि पर तैलादि अभ्यंग के 26. अ.रा.पृ. 6/682 से 684, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/422; उत्तराध्ययन-34/ 4-9 कारण या मनःशिल आदि के घर्षण से 'प्रयोगज नोकर्म द्रव्य लेश्या 27. गोम्मटसार, जीवकाण्ड-495 और इन्द्रधनुषादि में जीव के व्यापार के बिना प्रकट हुई द्रव्य लेश्या 28. अ.रा.पृ. 6/686 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन लेश्या के रस: - कृष्णादि लेश्या के रस निम्नानुसार है। 1. कृष्ण लेश्या - नीम या कटुतुम्बी जैसा अति कटुक | 2. नील लेश्या चित्रकमूल, सोंठ, मरिच, पीपल के चूर्ण जैसा तिक्त । 3. कापोत लेश्या - कच्चे बेर या आम के कच्चे फल जैसा कषैला । 4. तेजोलेश्या पके आम या कपित्थ से अनन्तगुना मधुर - आम्ल । 5. पद्म लेश्या खर्जूर रस, द्राक्षासव, चोयासव (सुगंधी द्रव्य का रस) से भी अनन्तगुना आम्ल, मधुर । 6. शुक्ल लेश्या - खण्ड शर्करा / मिश्री से भी अत्यन्त मधुर । लेश्याओं का स्पर्श : कृष्णादि तीन अप्रशस्त लेश्याओं का स्पर्श करौत (करवत), गाय की जीभ या शाक के पत्ते से भी अधिक कर्कश (कठोर) और तेजो आदि तीन अप्रशस्त लेश्याओं का स्पर्श शिरीष पुष्य या मक्खन से भी अतिशय सुकुमार(सुकोमल) होता है। 30 लेश्याओं के परिणाम : मन के परिणाम अप्रशस्त, अशुभ, अशुद्ध और प्रशस्त, शुभ, शुद्ध दोनों तरह के होते हैं। निमित्त और उपादान दोनों का पारस्परिक संबंध है । लेश्या के निमित्त को द्रव्य लेश्या और मन के परिणाम / अध्यवसाय को भाव लेश्या कहा गया है। भाव लेश्या आत्मा का परिणाम है। यह जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट; मन्द- अनेक भेदोंवाला है। इस अपेक्षा से भाव लेश्या के अनेक भेद होते है परन्तु संक्षेप में 1. कृष्ण लेश्या 2. नील लेश्या अप्रशस्ततम, अशुभतम, अशुद्धतम अप्रशस्ततर, अशुभतर, अशुद्धतर अप्रशस्त, अशुभ, अशुद्ध 3. कापोत लेश्या 4. तेजोलेश्या प्रशस्त, शुभ, शुद्ध 5. पद्म लेश्या प्रशस्ततर, शुभतर, शुद्धतर प्रशस्ततम, शुभतम, शुद्धतम परिणाम / भावयुक्त होती है। 31 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने इसे निम्नाङ्कित द्दष्टान्त द्वय से समजाया है। 6. शुक्ल लेश्या - श्याओं को समजने हेतु जंबुवृक्ष का द्दष्टान्तः किसी जंगल में भूख से व्याकुल पुरुष घूम रहे थे। उन्होंने एक जगह पक्के और रसवाले जांबून का एक पेड देखकर अपनी क्षुधा मिटाने हेतु आपस में विचार-विमर्श किया। तब उनमें से प्रथम पुरुष बोला - इस पेड पर चढना मुश्किल है अतः तीक्ष्ण कुल्हाडे से इसे जड से काटकर नीचे गिराना चाहिए: तब दूसरा पुरुष बोला- इतने बडे पेड का बजाय इसकी एक बडी शाखा / डाली काट दीजिये, तब तीसरा पुरुष बोला- इतनी बडी शाखा के बजाय एक प्रशाखा ( टहनी) काट दीजिये; तब चोथा पुरुष बोला- टहनी के बजाय जांबून के गुच्छे तोड दीजिये, तब पाँचवा पुरुष बोला- गुच्छे के बजाय खाने योग्य फलों को ही अपनी आवश्यकतानुसार तोड लेना चाहिये; तब छट्ठवाँ चतुर्थ परिच्छेद... [231] पुरुष बोला जितने फलों की हमें आवश्यकता है उतने पके फल तो हमें इस वृक्ष के नीचे ही गिरे हुए मिल जायेंगे। अतः उन्हीं से हमारी क्षुधा मिटाकर प्राणों का निर्वाह करना चाहिए। ये छः पुरुष क्रमशः कृष्ण नील, कपोत, तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या युक्त जीवों के अध्यवसाय में परिणामों की संक्लिष्टता और कोमलता के प्रतीक है। लेश्या को समजने हेतु ग्रामघातक का दृष्टान्त : कुछ पराक्रमी चोर किसी गाँव को लूटने हेतु जा रहे थे तब रास्ते में उन्होंने आपस में इस प्रकार विचार-विमर्श किया (1) प्रथम चोर पुरुष-स्त्री - बालक- पशु आदि जो भी अपनी नजर में आ जाय उन सबको मारकर धन ले लेना। यह अतिक्रूर अध्यवसाय / परिणाम कृष्णलेश्यारुप है । (2) द्वितीय चोर - पशु निरपराधी है अतः सिर्फ मनुष्यों का ही घात करना । - यह मध्यम क्रूर अध्यवसाय नील लेश्यारुप है। (3) तृतीय चोर - स्त्री हत्या अत्यन्त निन्दनीय है अतः सिर्फ पुरुषों का ही घात करना। यह मंदक्रूर अध्यवसाय कापोतलेश्यारूप है। (4) चतुर्थ चोर- सभी पुरुषों का नहि, सिर्फ शस्त्रधारियों का ही वध करना । यह अत्यल्प कोमल परिणाम तेजोलेश्यारूप है। (5) पञ्चम चोर शस्त्रधारी में भी जो अपने साथ युद्ध करें उन्हें ही मारना। यह मध्यम कोमल परिणाम पद्मलेश्यारुप है। (6) छठवाँ चोर किसी को बिना मारे सिर्फ धन ही ले लेनायह अतिकोमल परिणाम शुक्ल लेश्यारुप है। लेश्याओं में गति : कृष्णादि प्रथम तीन अशुभ- अप्रशस्त लेश्याओं तीव्र संक्लिष्ट अध्यवसाय जीव को अशुभ नरक-तिर्यंच गति में ले जाते है और तेजो आदि तीन शुभ-प्रशस्त लेश्याओं के तीव्र असंक्लिष्ट परिणाम जीव को शुभ देव या मनुष्य गति में ले जाते हैं। 1. कृष्ण लेश्या: हिंसादि पञ्चास्रव में प्रमत्त, तीव्र क्रोध, तीव्र वैर, लडाकू स्वभाव, धर्महीनता, दयाहीनता, दुष्ट स्वभाव, अवशी, स्वच्छन्दता, विवेकहीनता, कलाचातुर्यरहित, पञ्चेन्द्रिय विषयों में लम्पट, मानी, मायावी, आलसी, भीरु, स्वगोत्री या स्वकलत्रादि को मारने की इच्छा, प्रचण्ड कलहकारी, दुराग्रह, उपदेशावमानन, दुर्मुख, निर्दयता, क्लेश, ताप, असंतोषवाला जीव कृष्ण लेश्यायुक्त होता है। 2. नील लेश्या : अतिनिद्रा, परवञ्चन में अतिदक्षता, धन-धान्य संग्रह में अति लालची, विषयासक्त, मतिहीन, मानी, विवेकहीन, मन्द, आलसी, कायर, प्रचुर, माया प्रपंच में संलग्न, लोभान्ध, भौतिक सुखेच्छु, आहारादि संज्ञा में अत्यासक्त, मूर्ख, भीरु, अतिगृद्धि, माया, तृष्णा, अनृत भाषण, अतिचपलतायुक्त जीव नील लेश्यावाला होता है। 3. कापोत लेश्या: दूसरों के ऊपर रोष करना, परनिन्दा, दूषण बहुलता, अतिशोक, 29. 30. 31. 32. 33. 34. अ. रा.पू. 6/684 686 अ. रा.पू. 6/687 अ. रा.पू. 6/687 अ. रा.पू. 6/687 अ. रा.पू. 6/687 अ.रा. पृ. 6/687-88 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [232]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अतिशय, ईर्ष्या, अन्य में अविश्वास, दूसरों को अपने समान नहीं 1. असभ्य व्यक्ति के आभामण्ल से निकलने वाली विकिरणें धुंधलमानना, स्तुति होने पर अति संतुष्ट, हानि-वृद्धि के ज्ञान से रहित, पोली, स्लेटी, मिश्रित-नीली धुंधली नारंगी औरंगी और भूली कर्तव्याकर्तव्य विवेकरहित, मात्सर्य, पैशुन्य, परपरभव, आत्म प्रशंसा, लाल रंग की होती है। ये किरणें अस्त-व्यस्त और धब्बेदार परपरिवाद, जीवननैराश्य, प्रशंसक को धन देना, युद्ध मरणोद्यम इत्यादि दिखती हैं। कापोत लेश्यायुक्त जीव के लक्षण है। 2. सभ्य व्यक्ति के आभामण्डल में उच्च-स्तरीय किरणें होती 4. तेजो लेश्या : हैं। उसके आभामण्डल में पीला रंग, शुद्ध लाल और साफ तेजो लेश्या - कर्तव्याकर्तव्यज्ञ, सेव्यासेव्य भेदज्ञ, दयादानरत, नीला रंग अधिक होता है। संवेगात्मक स्थिति में ओरा काला मृदुस्वभावी, ज्ञानी, दृढता, मित्रता, दयालुता, सत्यवदिता, दानशीलत्व, तथा लाल रंग क्रोध के समय विकिरत होता है। भय की स्वकार्य-पटुता, सर्वधर्म समदर्शिता आदि तेजोलेश्यावाले जीव के अवस्था में धुंधला स्लेटी रंग होता है। भक्ति के समय नीला लक्षण है। रंग निकलता हैं। 5. पद्म लेश्या : 3. अतिमानव का ओरा शानदार तथा सूर्यास्त के रंग जैसा होता त्यागी, भद्र, शुद्ध, आरौिद्र ध्यान मुक्त और धर्म शुक्ल है। उसके सिर के चारों ओर पीले रंग की तेज किरणों का ध्यानयुक्त उत्तम कार्यकर्ता, क्षमाशील, सत्यवाक्, सात्त्विकदान, पाण्डित्य, वलय होता है। गुरु-देव पूजन में रुचि इत्यादि पद्मलेश्यायुक्त जीव के लक्षण हैं। जैन दर्शन में लेश्या के आधार पर आभामण्डल के प्रकार बन 6. शुक्ल लेश्या : जाते हैं, क्योंकि लेश्या के छ: वर्ण निर्धारित हैं और इन्हीं वर्णो के साथ शुक्ल लेश्या-पक्षपातरहित, निदानरहित, सर्वजीव समदर्शी, मनुष्य के विचार और भाव बनते हैं, चरित्र निर्मित होता है। समव्यवहारी, राग-द्वेष रहित, नेह रहित, निर्वैर, वीतरागता, शत्रु के भी वर्ण और भाव परस्पर प्रभावक तत्त्व है। वर्ण की विशदता दोषों पर दृष्टि न देना, निन्दा नहीं करना, पाप कार्यों में उदासीनता, और अविशदता के आधार पर भावों की प्रशस्तता और अप्रशस्तता श्रेयोमार्गरुचि, प्रशांत चित्त, जितेन्द्रियता, समितिगुप्तियुक्त, उपशान्त आदि निर्मित होती है। हम भावधारा को साक्षात् देख नहीं पाते, इसलिए शुक्ल लेश्यायुक्त जीव के लक्षण है।35 व्यक्ति के आभामण्डल में उभरनेवाले रंगों को देखकर भावों को आधुनिक विचार और लेश्यासिद्धान्त : जानते हैं। 'व्यक्तित्व का वर्गीकरण एवं आचार्य महाप्रभ (लेश्या के वर्ण व्यक्तित्व की गुणात्मक पहचान :आधार पर)' लेख में श्री बी.पी. गौड ने अनेक सन्दर्भो को उद्धत करते आभामण्डल में काले रंग (कृष्ण) की प्रधानता हो तो मानना हुए लेश्याओं का सम्बन्ध रंगो से जोडा है। डो. गौड के अनुसार लेश्या चाहिए कि व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है, आकांक्षा प्रबल है, दो प्रकार की धाराओं में चलती है - भाव की धारा एवं रंग की धारा । प्रमाद प्रचुर है, कषाय का आवेग प्रबल और प्रवृत्ति अशुभ है, मनइन दोनों का योग ही लेश्या का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार। वचन और काया का संयम नहींहै, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं है, लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक आवरण है।.....वर्तमान समय में आचार्य प्रकृति क्षुद्र है, बिना विचारे काम करता है, क्रूर है और हिंसा में श्रीमहाप्रज्ञने लेश्या के आधार पर व्यक्तित्व वर्गीकरण प्रस्तुत कर एक रस लेता हैं। क्रान्तिकारी विचार और सिद्धान्त जगत् को प्रस्तुत किया है। अपने गहन आभामण्डल में नील वर्ण की प्रधानता हो तो माना जा अध्ययन और चिन्तन के आधार पर उन्होंने लेश्याओं को दो मुख्य भागों सकता है - व्यक्ति में ईर्ष्या, कदाग्रह, माया निर्लज्जता, आसक्ति, में बाँटा है - 1. भामण्डल (Halo) और 2. आभामण्डल (Aura) प्रद्वेष, शठता, प्रमाद, यशलोलुपता, सुख को गवेषणा, प्रकृति की 1. भामण्डल (Halo): क्षुद्रता, बिना विचारे काम करना, अतपस्विता, अविद्या, हिंसा में प्रवृत्ति देवी, देवताओं, अवतारी पुरुषों, सन्त और सिद्ध पुरुषों के - इस प्रकार की भावधारा और प्रवृत्ति हैं। शरीर से निकलनेवाली लेश्याओं (रश्मियों) का वलय जो इन पुरुषों के आभामण्डल में कापोत वर्ण की प्रधानता हो तो माना शरीर के चारों ओर दैदीप्यमान होता है, इस वलय को भामण्डल कहते जा सकता है - व्यक्ति में वाणी की वक्रता, आचरण की वक्रता, प्रवंचना, अपने दोषों को छिपाने की प्रवृत्ति, मखौल करना, दुष्ट 2. आभामण्डल (Halo): वचन बोलना, चोरी करना, मात्सर्य, मिथ्यादृष्टि-इस प्रकार की भावधारा .....प्रत्येक पदार्थ चाहे वह सजीव हो या निर्जीव हो, के और प्रवृत्ति हैं। चारों ओर रश्मियों का एक वलय होता है जिसको आभामण्डल कहते आभामण्डल में रक्त वर्ण की प्रधानता हो तो माना जा सकता हैं। यह वलय या पुंज सूक्ष्म तन्तुओं के जाल जैसा या रुई के सूक्ष्म है- व्यक्ति नम्र व्यवहार करनेवाला, अचपल, ऋजु, कुतूहल करनेवाला, तन्तुओं के व्यूह के जैसा कवच के रुप में फैला होता है। वास्तव में यह विनयी, जितेन्द्रिय, मानसिक समाधि वाला, तपस्वी, धर्म में दृढ पुंज पदार्थ से या शरीर से विकरित होनेवाली विद्युत चुम्बकीय उर्जा या आस्था रखने वाला, पापभीरु और मुक्ति की गवेषणा करनेवाला है। तरंग का रुप है। आभामण्डल में पीतवर्ण की प्रधानता हो तो माना जा सकता श्री गौड ने मुमुक्षु डो. शान्ता जैन (लेश्या और मनोविज्ञान, पृ. है कि वह व्यक्ति अल्प क्रोध, मान, माया और लोभवाला, प्रशान्त 113) को उद्धृत करते हुए यह स्पष्ट किया है विकरित होनेवाली विद्युत चित्तवाला, समाधिस्थ, अल्पभाषी, जितेन्द्रिय और आत्म संयम करने का एक संस्थान बनता है इसे हम आभामण्डल कहते हैं। वाला है। इसी बात को ओर स्पष्ट करते हुए डॉ. शान्ता जैनने आगे 35. अ.रा.पृ. 6/689-90; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - पृ. 3/422-23 कहा है 36. देखे प्रेक्षाध्यान एवं योग, पृ. 30 (जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनू) पहा Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [233] आभामण्डल में श्वेत वर्ण की प्रधानता हो तो माना जा निषेधात्मक भावों का निषेधक :- रंगध्यान- रंगध्यान सकता है - वह व्यक्ति प्रशान्त चित्तवाला, जितेन्द्रिय, मन, वचन के विषय में जैनों ने ही नहीं, अन्य पूर्वी एवं पश्चिमी वैज्ञानिकों और काया का संयम करनेवाला, शुद्ध आचरण से सम्पन्न, ध्यानलीन ने भी अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। यहाँ एलेक्स जोन्स की रंग और आत्म संयम करनेवाला है। विषयक व्याख्याओं की प्रस्तुति प्रासंगिक हैं।" क्या आभामण्डल दृश्य है ? लाल रंग- यदि जडता, अवसाद, भय, उदासी की भावनाओं यद्यपि विज्ञान के विश्लेषण व ध्ययन ने इस बात की पर नियंत्रण करना हो; वासनाओं और इच्छाओं पर विजय पानी हो; पुष्टि की है कि आभामण्डल से निकलनेवाली रश्मियों को प्रिज्म धृणा, क्रोध, स्वार्थता, लालच, निर्दयता, मारकाट की प्रवृत्ति आदि के माध्यम से या नंगी आंखों से नहीं देखा जा सता। इसका वैज्ञानिक निषेधात्मक वृत्तियों से मुक्त होना हो तो लाल रंग का ध्यान करना कारण बताया कि आभामण्डल के रंग सौर स्पेक्ट्रम के सामान्य रंगो उपयोगी रहता है। लाल रंग का ध्यान करने से स्नेह, उदारता, दूसरों की भांति नहीं होते हैं। सौर स्पेक्ट्रम के पराबैंगनी किरणों को जिनकी के प्रति संवेदनशीलता, स्वविकास की अभीप्सा जागती है। ऐसा तरंगदीर्धता बहुत कम होती है, मुश्किल से ही देखा जाता है। आभामण्डल व्यक्ति जीवन में कभी पलायनवादी नहीं होता। वह परिस्थिति से के रंग की तरंगदीर्धता तो उनसे भी कई गुणा कम होती है, इसीलिये घबराता नहीं, अपितु मुकाबला करने का साहस जुटा लेता हैं। इन्हें सामान्य दृष्टि द्वारा नहीं देखा जा सकता। इसे विशेष अन्तर्दृष्टि नारंगी रंग - यदि मन विध्वंसात्मक क्रूर चिन्तन से ग्रस्त है, प्राप्त महापुरुष ही देख सकते हैं। शताब्दियों तक यही माना जाता झूठा अभिमान, सत्ता हथियाने की मनोवृत्ति, संवेदनहीनता, अविश्वास रहा कि आभामण्डल को सिर्फ अन्तर्दृष्टा ही देख सकते हैं। जैसे गलत संस्कार मन पर हावी हैं तो चमकदार नारंगी रंग का ध्यान धार्मिक एवं रहस्यवादी परम्परा में और आज के वैज्ञानिक करना उपयोगी है। फलस्वरुप आशावादिता, मानवीय एकता, उदात्त युग की अवधारणा के बीच काफी दूरी रही है। रुस के प्रो. किलियान गुणों का जागरण, दूसरों के प्रति प्रेम, संवेदनशीलता आदि गुण प्रकट ने अन्वेषण कर यह सिद्धान्त दिया कि ओरा को उपकरणों के माध्यम होते हैं। धीरे धीरे निषेधात्मक व्यक्तित्व विधेयात्मकता में बदल जाता है। से भौतिक आंखों द्वारा भी देखा जा सकता है। पीला रंग - यदि आभामण्डल में धुंधला पीला रंग हो इस संबंध में बाल्टर जोन किलनर, जो 1869 में लंदन तो व्यक्ति अहंवादी, मानसिक, वाचिक रुप से आक्रमक, पृथकत्ववादी के सेंट थोमस अस्पताल में फिजिशियन और सर्जन थे, उन्होंने होता है। उसके लिए चमकदार पीले रंग का ध्यान करना महत्त्वपूर्ण प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया कि स्क्रीन से किसी व्यक्ति का परीक्षण होता है, क्योंकि इससे व्यक्ति भयमुक्त एवं दुराग्रह मुक्त हो जाता किया जाता है तो उसके सिर, हाथों के चारों ओर एक हल्की-सी है। बौद्धिक व मानसिक चेतना का विकास होता है। विध्वंसात्मक स्लेटी रंग की धुंध दिखाई देती है। यदि स्क्रीन हटा भी दी जाए दृष्टिकोण समाप्त होता है और रचनात्मक दृष्टिकोण पनपता है। तो बाद में कुछ क्षण तक यह धुंध दिखाई देती है। हरा रंग - यदि व्यक्ति में पाखंडता, अहंवादिता, कायरता, उन्होंने यह भी बताया कि मनुष्य में कभी-कभी दो या लालसा, स्वार्थपरता, मोह, ईर्ष्या और असुरक्षा की भावना पैदा हो तीन आभामण्डल भी दिखाई दे सकते हैं। एक शरीर के पास लकीर जाए तो इनसे मुक्त होने के लिये हरे रंग का ध्यान किया जाता है, की भांति होता है जो कि त्वचा से लगभग पौन इंच तक फैला क्योंकि हरे रंग के ध्यान से विवेक शक्ति, निर्णायक क्षमता, आशावादिता रहता है। दूसरा कुछ चौडा परन्तु बिना किसी निश्चित आकृति वाला जागती हैं। लगभग दो या तीन इंच चौडा होता है और इससे परे तीसरा ओरा नीला रंग - नीले रंग का ध्यान उस समय व्यक्ति को जो लगभग 6 इंच तक का हो सकता है। बहुत सूक्ष्मता से देखने करना चाहिए, जब व्यक्ति प्रतिक्रियावादी, आक्रमक, रुढिवादी और पर शरीर और प्रथम आभामण्डल के बीच ज्ञात होनेवाले खाली स्थान भयभीत होता है। चमकदार नीला रंग इन संस्कारों का उपशमन कर को उन्होंने इथरीक डबल के नाम से पहचाना। यह शरीर एवं देता है। फलत: व्यक्ति में शान्ति, धैर्य, सन्तोष, वफादारी और आध्यात्मिक आभामण्डल के मध्य विभाजक का कार्य करता है। विकास उतरने लगता है। पद केन्द्र .वर्ण निष्पत्ति जामुनी और बैंगनी रंग - इस रंग का ध्यान उन व्यक्तियों णमो अरिहन्ताणं ज्ञानकेन्द्र श्वेत वर्ण ज्ञान चेतना का के लिये अत्यावश्यक है जो भ्रम/माया में फंसे हुए हैं। भौतिकता जागरण में डूबे हैं। काल्पनिक चिन्तन में खोये रहते हैं। ऐसे व्यक्ति जब णमो सिद्धाणं दर्शनकेन्द्र लाल वर्ण शारीरिक सामर्थ्य चमकदार रंग का ध्यान करते हैं तो उनमें अन्तःप्रेरणा और आन्तरिक एवं अन्तर्दृष्टि का शक्ति जागती है। वे भविष्य को साक्षात् देखने लगते हैं। जागरण लेश्या ध्यान :णमो आयरियाणं विशुद्धिकेन्द्र पीला वर्ण आवेग उपशमन प्रेक्षाध्यान पद्धति में लेश्या ध्यान की अवधारणा मुख्यतः णमो उल्झायाणं आनन्दकेन्द्र नीला वर्ण शांति, समाधि व्यक्तित्व रुपान्तरण की ओर संकेत करती है। यद हम अशुभलेश्या से णमो लोएसव्वसाहूणं शक्तिकेन्द्र श्याम वर्ण ग्राहक शक्ति का शुभलेश्या में आना चाहते हैं तो रंगो द्वारा इस उद्देश्य तक पहुंचा जा विश्वास सकता है। तंत्रशास्त्र में चेतना-विकास इन्द्रिय-विजय, ज्ञान शक्तियों 37. Audrey Kargere, Colour and Personality p.1-3 38. Walter J. Kilner, The Human Atmosphere, An Exhausके तथा वीतरागता के अनेक प्रयोग प्रस्तुत किए गए हैं। ये सारे tive Survey Complied by Health Research, Colour महत्त्वपूर्ण प्रयोग लेश्या सिद्धान्त से सम्बद्ध हैं। Healing p. 80 39. Alex Jones, Seven Mansions of Colour, p. 38-45 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [234]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन लेश्या ध्यान में मुख्य तीन रंगो का चयन किया जाता है। ध्यान आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। पीला रंग ध्यान की चमकता श्वेत, लाल और पीला - ये तीनों रंग शुभ्र, प्रशस्त एवं पवित्र शक्ति माना गया है। जो चेतना से जुड़ा है और नाभि चक्र/ मनोज्ञ हैं। इनका भिन्न-भिन्न चैतन्यकेन्द्रों पर ध्यान करवाया जाता तेजसकेन्द्र पर नियंत्रण करता है। इसमें स्वनियंत्रण तथा धैर्य की है। आचार्य महाप्रज्ञ ने जैनयोग पुस्तक में चैतन्य केन्द्रों पर रंगों के गुणात्मकता है। यह गहरी समस्याओं के समाधान की क्षमता रखता ध्यान के बारे में बताते हुए लिखा है - लाल रंग का ध्यान करने है। ज्ञानकेन्द्र पर (जिसे शरीर शास्त्रीय भाषा में बृहद् मस्तिष्क, हठयोग से शक्तिकेन्द्र (मूलाधार चक्र) और दर्शनकेन्द्र (आज्ञा चक्र) जागृत होते में सहस्त्रार चक्र कहा गया हैं) पर ध्यान करते हैं तो जितेन्द्रिय होने हैं। श्वेत रंग से विशुद्धि केन्द्र (विशुद्धि चक्र) तैजसकेन्द्र (मणिपुर की स्थिति घटित होती है। योगशास्त्रविदोंने ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों चक्र) और ज्ञानकेन्द्र (सहस्त्रार चक्र) जागृत होते हैं।40 का परस्पर गहरा संबंध माना हैं। तेजोलेश्या का ध्यान - तेजोलेश्या का दर्शनकेन्द्र पर इस केन्द्र पर भय, काम, वासना, सांसारिक-भाव तथा बालसूर्य जैसे लाल रंग में ध्यान किया जाता है। यह दर्शन केन्द्र संवेगात्मक प्रभाव जागते रहते हैं। शरीर शास्त्रीय भाषा में यह एड्रीनल पिट्यूटरी ग्रंथि का क्षेत्र है। वैज्ञानिकों ने भी इसका रंग लाल बतलाया के अधिक स्त्राव का कारण है। अत: माना गया है कि एड्रीनल स्त्राव को पिट्यूटरी ग्रंथि नियंत्रित करती है और पिट्यूटरी ग्रंथि के है। यह सभी ग्रंथियों पर नियंत्रण करती है, इसलिए इसे 'मास्टर स्थान पर योगियों ने ज्ञानकेन्द्र/सहस्त्रार चक्र की अवधारणा की है। ओफ ग्लैण्ड' कहा जाता है। अध्यात्म की भाषा में इसे तृतीय नेत्र कृष्ण एवं नील लेश्या में व्यक्ति अजितेन्द्रिय होता है। पद्मलेश्या भी कहा गया है। पिट्यूटरी ग्रंथि सक्रिय होने पर एड्रीनल ग्रंथि स्त्राव में जितेन्द्रियता के भाव पैदा हो जाते हैं। को संयमित करती है । फलत: कामवासना, उत्तेजना आदि निषेधात्मक एलेक्स जोन्स का भी कहना है कि पीला रंग लज्जा, वृत्तियां अनुशासित रुप में अपना कार्य करती हैं। विश्वासघात, झूठ, धनलिप्सा, क्रोध, धृणा, अज्ञान, इच्छा, सांसारिकता, लाल रंग रीढ की हड्डी के मूल-मूलाधार चक्र का नियंत्रक ईर्ष्या और हतोत्साह जैसी सभी समस्याओं की चिकित्सा करता है। है। तंत्रशास्त्र और योगशास्त्र में मूलाधारशक्तिकेन्द्र का रंग लाल माना जब पीले रंग पर ध्यान किया जाता है तो बौद्धिक तथा मानसिक गया है। यह रंग एड्रीनल के स्त्रावों को सक्रिय करता है। एड्रीनल शक्ति इससे प्रभावित होती है। जब आभामण्डल में यह रंग चमकता का पिट्यूटरी के साथ गहरा संबंध है। अत: पिट्यूटरी/दर्शनकेन्द्र पर है तो रचनात्मक तथा विश्लेषणातमक योग्यताएं उत्पन्न होती हैं। दिल ध्यान करने से इस ग्रंथि का नियंत्रण होने लगता है। लाल रंग साहस, और दिमाग का सन्तुलन हो जाता है।1 पद्मलेश्या ऊर्जा के उत्क्रमण शक्ति, ऊर्जा, सक्रियता और बलिदान को दर्शानेवाला है। इस रंग की प्रक्रिया है। इसके जागने पर कषायों की अल्पता होती है। के ध्यान द्वारा पांच इन्द्रियों के विषय पर विजय पाई जा सकती आत्मनियंत्रण सधता है और मन प्रशान्त रहता हैं। है, क्योंकि दर्शनकेन्द्र मस्तिष्क का स्थान है और मस्तिष्क में सभी शुक्ललेश्या का ध्यान-शुक्ललेश्या का ध्यान ज्योतिकेन्द्र इन्द्रियों का कार्य सम्पादित होता है । दिव्य श्रवण, दृश्य, गन्ध, आस्वाद पर पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसे श्वेत रंग में किया जाता है। शरीर शास्त्रीय एवं स्पर्श की शक्ति भी इससे उपलब्ध होती है। दृष्टि से ज्योतिकेन्द्र का स्थान पिनियल ग्रंथि है। कषाय, कामवासना, दर्शनकेन्द्र पर तेजोलेश्या का लाल रंग में ध्यान करने से असंयम, आसक्ति आदि संज्ञाओं को उत्तेजित और उपशमित करने प्राणशक्ति जागती है। अन्तर्मुखी दृष्टिकोण बनता है। आगम में तेजोलेश्या का कार्य अवचेतक मस्तिष्क (Hypothalamus) से होता है। इसके को आत्मविकास का द्वार माना गया है। जब तक तेजोलेश्या नहीं साथ ज्योति केन्द्र का गहरा संबंध है। अवचेतक मस्तिष्क का सीधा जागती, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या से घिरा व्यक्ति निषेधात्मक जीवन संबंध पिट्यूटरी और पिनियल के साथ है। ध्यान के क्षेत्र में श्वेत जीता रहता है। जब तेजोलेश्या जागती है तब दर्शनकेन्द्र/आज्ञाचक्र रंग द्वारा जब ज्योकि केन्द्र जागता है तब पिनियल ग्रंथि सक्रिय होती खुलता है। शरीर, मन और आत्मा का ऊर्ध्वारोहण होने लगता है। है और एक सन्तुलित व्यक्तित्व सामने आता है, क्योंकि नीचे के रंग चिकित्सक भी मानते हैं कि लाल रंग का प्रभाव मुख्यतः सभी ग्रंथि-स्त्रावों को नियंत्रण करनेवाली यही ग्रंथि है। इस पर ध्यान भौतिक शरीर से संबंधित होने पर भी यह तारामण्डलीय (astral), करने से शारीरिक, मानसिक समस्याएँ भी सुलझ जाती हैं। मानसिक (Mental) और आध्यात्मिक (Spiritual) शरीरों को भी प्रभावित लेश्या-ध्यान में सफेद रंग का ध्यान वीतरागता की ओर करता है। लाल रंग मूल प्रवत्तियों तथा इच्छाओं को जगाते हुए अवचेतन प्रस्थान करानेवाला माना गया है। शुभध्यान शुभमनोवृत्ति की सर्वोच्च मन पर कार्य करता है और यह रंग हमारे भीतर जीवन की आध्यात्मिक भूमिका है। शुक्ललेश्या का ध्यान आत्म-साक्षात्कार की क्षमता जगाता शक्ति, योग्यता, पराक्रम और शारीरिक क्षमता को प्रेषित करता है।। है। यहाँ से भौतिक और आध्यात्मिक जगत का अन्तर समझ में इस प्रकार दर्शनकेन्द्र पर लाल रंग और पिट्यूटरी ग्रंथि का आने लगता हैं। समायोजन राग से विराग की ओर मोड देता है। चेतना आर्त-रौद्र एडगर सेसी (Edgar Cayce) ने सफेद रंग को पूर्णता का प्रतीक माना है। उन्होंने बताया कि हमारा सम्पूर्ण जीवन सन्तुलन ध्यान से धर्मध्यान में प्रवेश कर विशुद्धता की ओर बढ़ती है। व्यक्तित्व में है तो इसका मतलब है कि हमारे सभी प्रकम्पन सिमट जाते रुपान्तरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। है और हमारा आभामण्डल पवित्र तथा सफेद प्रकाश से भर जाता पद्मलेश्या का ध्यान - लेश्या ध्यान में ज्ञानकेन्द्र (सहस्त्रार हैं। रंग चिकित्सा के क्षेत्र में प्राण ऊर्जा का असन्तुलन सभी शारीरिक, चक्र) पर पीले रंग का ध्यान करवाया जाता है। भारतीय योगियों मानसिक और आध्यात्मिक बीमारियों का मूल कारण है। ने पीले रंग को जीवन का रंग माना है। आगमों में पद्मलेश्या का रंग पीला माना गया है। लेश्याध्यान में ज्ञानकेन्द्र पर पीले रंग का 40. आचार्य महाप्रज्ञ - जैन योग, पृ. 142 41. Colour Meditations, p.9 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आगम के अनुसार शुक्ल सम्पूर्ण जागृत चेतना की उपलब्धि है। जब शुक्लध्यान सध जाता है, तब मनुष्य अव्यथ चेतना, अमूढचेतना, विवेकचेतना और व्युत्सर्ग चेतना का धनी बन जाता है। 2 इसीलिए शुक्ललेश्या का लक्षण बताया गया कि इसे लेश्या में मनुष्य प्रशान्त, प्रसन्नचित्त, जितेन्द्रिय, आत्मदमी, समितियों से समित, गुप्तियों से गुप्त, सराग या वीतरा होता है। 43 इस प्रकार इन तीन लेश्याओं का ध्यान शरीर में उच्च केन्द्रों पर किया जाता है, क्योंकि उच्च केन्द्रों का ध्यान हमें अपनी बुरी मनोवृत्तियों से ऊपर उठाता है। जब हम इन उच्च केन्द्रों के सम्पर्क में आते हैं, तब अन्त:प्रेरणा, बुद्धि और विवेक से हम सक्रिय बनते हैं। हमारे भीतर प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, शक्ति, नम्रता, दयालुता, भक्ति, अनतः प्रेरणा, विवेक, सर्वज्ञता और सर्वव्यापकता जैसे दैविक गुणों का प्रादुर्भाव एवं विकास होता है। 44 यद्यपि लेश्या ध्यान की अवधारणा आगमिक आधार पर स्थापित नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञने प्रेक्षाध्यान के अन्य प्रयोगों के साथ लेश्याध्यान को भी विशेष प्रयोजन के साथ उसका अंग स्वीकृत किया है । जरुरी नहीं कि अमुक रंग अमुक केन्द्र पर ही किया जाए। कोई भी रंग किसी भी चैतन्य केन्द्र पर किया जा सकता है। अपेक्षित केवल उद्देश्य के निर्धारण का है। हम कौनसी मनोवृत्ति से मुक्त होना चाहते हैं ? क्योंकि मनोदशाओं के साथ रंगो का गहरा संबंध है। रंगध्यान से तैजस शरीर की शक्ति जागृत होती है। जिसका तैजस शरीर जागृत होता है उसकी परिधि में आने पर व्यक्ति को पवित्रता, शांति और आनन्द का अनुभव होता है। श्रावक सुदर्शन ने कायोत्सर्ग किया। उसके चारों ओर विद्युत का एसा शक्तिशाली वलय बन गया कि प्रतिदिन सात व्यक्तियों की हत्या करने वाले अर्जुनमाली की दानवीय शक्ति उस वलय को भेदने में अक्षम रही। सुदर्शन के शक्तिशाली और पवित्र आभामण्डल ने अर्जुनमाली के मन में परिवर्तन घटित किया और वह हत्यारे से संत बन गया। उसने महावीर पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। इन्द्रिभूति गौतम महावीर को पराजित करने के लिए आये थे, किन्तु जैसे ही उन्होंने महावीर के आभामण्डल की परिधि में प्रवेश किया, वे सब कुछ भूल गये और महावीर की पवित्रता से अभिभूत होकर उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। जैन साहित्य बतलाता है - अर्हत् प्रवचन के समय समवसरण में जन्मना विरोधी जीव-जन्तु भी शत्रुता भूलकर शांति और प्रेम से प्रवचन सुनते हैं। आचार्य सोमदेवसूरिने अध्यात्म तरंगिणी में इसी सत्य का प्रतिपादन किया है कि तीर्थंकर के समवसरण में सांप और नेवला, भैंस और घोडा तथा हरिणी और व्याघ्र परस्पर क्रीडा करने लगते हैं। 45 ऐसा आश्चर्य इसलिए घटित होता है कि महापुरुषों का पवित्र आभावलय उन्हें शांत और उपशमित कर देता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि रंगो का ध्यान व्यक्तित्व को बदलने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय हैं। विशुद्धिकेन्द्र पर नीले रंग, दर्शनकेन्द्र पर अरुण रंग, ज्ञानकेन्द्र (या चाक्षुषकेन्द्र) पर पीले रंग का और ज्योतिकेन्द्र पर श्वेत रंग का ध्यान किया जाता है। इन केन्द्रों पर ध्यान करने के साथ जो भावना की जाती है, वह इस प्रकार है केन्द्र आनन्द केन्द्र विशुद्ध केन्द्र दर्शन केन्द्र ज्ञान (चाक्षुष) केन्द्र ज्योति केन्द्र • रंग हरा रंग नीला रंग अरुण रंग पीला रंग • • • श्वेत रंग लेश्याध्यान : निष्पत्ति प्रेक्षाध्यान साहित्य में आचार्य महाप्रज्ञने लेश्याध्यान की निष्पत्ति बतलाई है - जो लेश्याध्यान में उतरता वह निम्न उपलब्धियों से जुडता है • चित्त की प्रसन्नता चतुर्थ परिच्छेद... [235] भावना / अनुभव भावधारा की निर्मलता वासनाओं का अनुशासन अन्तर्दृष्टि का जागरण धार्मिकता के लक्षणों का प्रकटीकरण · चारित्र की शुद्धि - संकल्प शक्ति का जागरण • चैतन्य का जागरण - स्वस्थ और सुन्दर व्यवहार, प्रशस्त आनन्द का जागरण ज्ञानतंतु की सक्रियता (जागृति) परमशांति-क्रोध, आवेश, आवेग, उत्तेजनाओं की शांति जीवन, प्रशस्त मौत कर्मतंत्र और भावतंत्र का शोधन पदार्थ - प्रतिबद्धता से मुक्ति तेजोलेश्या से परिवर्तन का प्रारंभ, अपूर्व आनन्द, मानसिक दुर्बलता समा L • पद्मलेश्या से मस्तिष्क और नाडीतंत्र का बल, चित्त की प्रसन्नता, जितेन्द्रियता ● शुक्ललेश्या से - आत्म-साक्षात्कार इस प्रकार संक्षेप यह कहा जा सकता है कि लेश्या का सम्बन्ध पर्यावरण और जीवात्मा के मध्य भावों के विद्युत् चुम्बकीय परिदृश्य से है, जिसे केवलज्ञान दृष्टि से तीर्थंकरोने देखा है। जैसे जैसे साधक विचारों से निर्मल होता जाता है और गुणस्थानक अवस्थाओं में उत्तरोत्तर आगे बढता जाता वैसे वैसे उसकी लेश्या में विशुद्धि बढती जाती है। यह विशुद्धि मुनि अवस्था में ही पूर्णता को प्राप्त हो सकती है, अतः आगे के शीर्षकों में क्रमप्राप्त मुनियों के आचार से सम्बन्धित विवेचन एवं अनुशीलन प्रस्तुत किया जा रहा है। 42. Alex Jones, Seven Mansions of Colour, p. 41-42 43. Edgar Cayce, Auras, p. 14; 3. ठाणं 4/70; उत्तराध्ययन 34/31,32 44. Alex Jones, Seven Mansions of Colour, p. 61; 45. अध्यात्मतरंगिणी, 7 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [236]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 5. मुनियों की आचारपरक शब्दावली का समीक्षण जैनधर्म के मूलमन्त्र नमस्कार मन्त्र में पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है, वे पाँच परमेष्ठी इस प्रकार हैं - 1. अरिहन्त (अर्हत् अर्थात् जीवन्मुक्त), 2. सिद्ध (अशरीरी अर्थात् शरीररहित या जीवनमुक्त), 3. आचार्य, 4. उपाध्याय और 5. साधु । इनमें से सिद्ध तो पूर्ण (अर्थात् निश्चय नय से) कृतकृत्य हो चुके होते हैं, साथ ही अरिहन्त भी कृतकृत्य (व्यवहार नय से) हो चुके होते हैं क्योंकि अर्हत् अवस्था के पश्चात् सिद्ध अवस्था अवश्यम्भाविनी है (आयुः कर्म पूरा होते ही अरिहन्त अवस्था के जीव जीवन (शरीरसंयोगी) से मुक्त हो जाते है)। कृतकृत्य हो जाने से अरिहन्त और सिद्ध जीवों को करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहता। किन्तु आचार्य, उपाध्याय और साधु अवस्था के जीवों को अर्हत् अवस्था पाने के लिए सतत प्रयत्न करना होता है। ये सभी अवस्थाएँ नियम से मनुष्य गति में ही सम्भव हो पाती हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु अवस्था में नियम से महाव्रत होते हैं । महाव्रतों के धारक को सर्वविरत कहा गया है। जो प्राणी अनादि संस्कार के कारण या बलहीनता के कारण या शरीर की पर्याप्ति की हीनता के कारण महाव्रतों का पालन नहीं कर सकते वे अणुव्रतों का पालन करते हुए महाव्रती अवस्था के लिए प्रयत्न करते हैं । अणुव्रती को देशविरत/विरताविरत भी कहा जा सकता है। देशविरति अवस्था मनुष्यों और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंञ्चो में हो सकती है। सर्वविरत अवस्था के जीवों को सामान्यरुप से 'साधु' शब्द से अभिहित किया गया है, जैसा कि चार मंगलों में गाया गया है - चत्तारि मंगलं, अरिहन्ता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । साधु अवस्था में भी कार्यविभाजन की दृष्टि से दो विशेष अवस्थाएँ हैं - आचार्यत्व और उपाध्यायत्व। आचार्य : कहलाते हैं। जो आगमविधि के अनुसार कदम-कदम 'आचार्य' पद की व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश पर जिनाज्ञा का अनुसरण करते हैं, वे भावाचार्य तीर्थंकर में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने कहा है कि 'सूत्र और अर्थ के के समान होते हैं। अवबोध के लिए मुमुक्षुओं के द्वारा जो आसेवन किया जाये अथवा __ आचार्य का स्वरुप :जिनशासन के लिए उपदेशक होने के कारण उपदेश प्राप्ति के इच्छुकों आचार्य सूत्रार्थ के ज्ञाता होते हैं, सतत ज्ञान-दर्शन-चारित्र में (आत्माओं) के द्वारा मर्यादापूर्वक (आचार्य-प्रायोग्य विनयपूर्वक) जिनकी उपयोगवान् होते हैं, गणावच्छेद (स्थविर मुनि) आदि को गच्छ के कार्य सेवा/चर्या की जाये अथवा ज्ञानाचारादि पञ्चाचार का पालन जो स्वयं (व्यवस्था) सुपुर्द करने के कारण गच्छ की चिन्ता से मुक्त होते हैं, शुभ करें और अन्य साधुओं को प्रेरणा देकर करावें', अथवा जिनशासनमान्य लक्षणों (शारीरिक) से युक्त होते हैं।15 पदार्थों में युक्तायुक्त विषयक निरुपण में निपुण होने से शास्त्रों (जिनागमों) आचार्य के लक्षण :का यथावत् उपदेश करने वाले, अथवा मर्यादापूर्वक विहारादि साध्वाचार अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने आवश्यक चूर्णि को का पालन करने/कराने वाले गुरु', पाँच स्थविरों में प्रथम स्थविर, उद्धृत करते हुए आचार्य के लक्षण बताते हुए कहा है कि "आचार्य अर्थज्ञान के दाता, सूत्र और अर्थ-दोनों के ज्ञाता और शास्त्रोक्त लक्षणयुक्त, आचारकुशल, संयम, प्रवचन, संग्रह (देशकालानुसार शिष्य, वस्त्रगच्छ में आधारभूत और अर्थ की वाचना देने वाले साधु10 'आचार्य' पात्रादि का), उपग्रह, अनुपग्रह, कल्प, व्यवहार प्रज्ञप्ति, दृष्टिवाद, कहलाते हैं। स्वसमय-परसमय (स्वदर्शन-अन्यदर्शन के सिद्धान्त) में निपुण,ओज निक्षेपों के अनुसार आचार्य शब्द के विभिन्न अर्थ :- (शौर्य), तेज, वाणी और यश में अपराजेय, उदार चित्तवाले, क्रोध के अभिधान राजेन्द्र कोश में 'आचार्य' के अनेक प्रकार से भेदप्रभेद दर्शाये हैं, जो संक्षेप में निम्नानुसार हैं 1. अट्ठविहकम्मवियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिशा। नामाचार्य - आचार्य का नाम 'नामाचार्य' हैं। अट्ठगुणा किदकिञ्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा । गोम्मटसार जीवकाण्ड... स्थापनाचार्य - मूर्ति, चरणपादुका, चित्र, अक्ष, आयरिया (समुद्र में। अ.रा.पृ. 2/329, आवश्यक बृहवृत्ति-4/37 पर टीका 3. अ.रा.पृ. 2/329, आवश्यक बृहदवृत्ति-4/37 पर टीका 'आयरिया' नामक द्वीन्द्रिय जीव होते हैं, जिसके पृथ्वीकायमय घर 4. वही, आवश्यक नियुक्ति-994, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/241, 242 (निवास) अचित होने पर उसमें 'आचार्य' की स्थापना की जाती हैं) में 5. वही, भगवती सूत्र-1/1 'आचार्य' के रुप में स्थापना (आरोपणा) करना स्थापनाचार्य' हैं ।।। वही, आवश्यक मलयगिरि-भा.। गाथा 993 आवश्यक चूर्णि-1/993 दव्याचार्य - आचार्य के गुण या आचार रहित आचार्य, मूलगुणरहित या गाथा पर चूर्णि उत्तरगुणरहित आचार्य अभव्य आचार्य, लौकिक शिल्पाचार्य, कलाचार्य, 7. वही, पञ्चवस्तु-13 गाथा की टीका निमित्ताचार्य, और द्रव्यअर्थात धन/अर्थ के निमित्त आचरण करनेवाला 8. वही, धर्मसंग्रह-3/54 'द्रव्याचार्य' हैं। 9. वही, बृहत्कल्प भाष्य-1/3/639 भावाचार्य - भावाचार्य दो प्रकार के हैं - 1. आगमतः 2. नो- 10. वही, आवश्यक बृहद्वृत्ति-3/1195 पर टीका आगमतः । नोआगमतः भावाचार्य दो प्रकार के हैं 11. अ.रा.पृ. 4/1693 12. अ.रा.प. 2/330, विशेषावश्यक भाष्य-3191, 3192 (क) लौकिक भावाचार्य - शिल्पाचार्य, कलाचार्य आदि। 13. वही, आवश्यक चूर्णि-अध्ययन-2 विशेषावश्यक भाष्य-3/93-94-95 (ख) लोकोत्तर भावाचार्य - जो स्वयं ज्ञानाचारादि पञ्चाचार का 14. अ.रा.पृ. 2/331, महानिशीथ सूत्र अध्ययन-5 पालन करते हैं, पञ्चाचार पालन का अन्य को उपदेश देते है 15. अ.रा.पृ. 2/333, 347 से 352 और दूसरों से पञ्चाचार का पालन भी कराते हैं; वे 'भावाचार्य' 16. अ.रा.पृ. 2/333, 347 से 352 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [237] संचार को जीतने वाले, जितेन्द्रिय, जीवित, मृत्यु एवं अन्य भयों से 4 - चार कषाय से रहित मुक्त, परिषहजेता, सकल मैथुन, क्रीडा एवं संसर्ग से रहित, निर्मोही, 5 - पञ्च महाव्रत युक्त निरहंकारी, अननुतापी (किसी को पीडा नहीं पहुँचाने वाले), सत्कार 5 - पञ्चाचार पालक लाभ-अलाभ-सुख-दुःख-मान-अपमान को सहन करनेवाले, अचपल, 5 - पाँच समिति से समित असबल (दोष रहित), क्लेश रहित, निर्मल चारित्रयुक्त, दशविध आलोचना 3 - तीन गुप्ति के धारक दोषज्ञाता, अठारह प्रकार के आचार स्थान के ज्ञाता, आठ प्रकार के __'गुरुगुणषट्विंशत्षट्विंशिका' में आचार्य हेमतिलकसूरि (वृत्तिकार आलोचनाह के गुणों के उपदेशक, आलोचना योग्य सूत्र रहस्यों के आचार्य रत्नशेखरसूरि) ने प्रकारान्तर से आचार्य के छत्तीस गुणों का 36 ज्ञाता, अपरिश्रावी, प्रायश्चित देने में कुशल, मार्ग-कुमार्ग के ज्ञाता, प्रकार से (छत्तीस छत्तीसी) वर्णन किया है, जो निम्नानुसार है। अवग्रह-ईहा-अपाय-धारणादि बुद्धि में कुशल, अनुयोगज्ञाता, नयज्ञ, गुरु/आचार्य के 36 गुण/छत्तीस छत्तीसी :उदाहरण हेतु-कारण-निर्देशन-उपमा-निर्युक्ति-लेख के आठ-आठ द्वारों 1. 4 प्रकार की देशना, 4 प्रकार की कथा, 4 प्रकार का धर्म, 4 के ज्ञाता, मुनियों को अनेक प्रकार के उपायपूर्वक आचारोपदेश करनेवाले, प्रकार की भावना, 4 प्रकार की स्मारणा (सारणादि), चार प्रकार इंगिताकार से इच्छित जाननेवाले अथवा अश्व के समान बिना देखे ही के ध्यान के प्रत्येक चार-चार भेद अर्थात (4x4)-16 प्रकार स्वच्छन्द शिष्यों के अभिप्राय को जाननेवाले, विकल्पविधि के ज्ञाता, का ध्यान इति 36 गुण। लिपि-गणित-शब्द-अर्थ-निमित्त-उत्पाद और पुराण को ग्रहण कर उनका 2. 5 सम्यक्त्व, 5 चारित्र, 5 महाव्रत, 5 व्यवहार, 5 आचार, 5 स्वभाव (रहस्य) जाननेवाले, पृथ्वी के समान सहिष्णु, कमल पत्र की समिति, 5 स्वाध्याय, 1 संवेग इति 36 गुण । तरह निर्लेप, वायु की तरह अप्रतिबद्ध, पर्वत की तरह निष्कंप, सागर 3. 5 इन्द्रिय स्वरुप, 5 इन्द्रिय के विषय का स्वरुप, 5 प्रमाद, 5 की तरह क्षोभरहित, केंचुए की तरह गुप्तेन्द्रिय, जातिमान स्वर्ण की तरह आस्रव, 5 निंद्रा, 5 कुभावना (संविल्ष्ट बावना), 6 षड्जीवनिकाय स्वाभाविक तेजस्वी, चन्द्र जैसे सौम्य, सूर्य जैसे प्रकट तेजवंत, जल की रक्षा इति 36 गुण की तरह सर्वजगत् के कर्ममल को हरनेवाले, गगन (आकाश) की तरह 4. 6 वचन दोष, 6 लेश्या, 6 आवश्यक, 6 द्रव्य, 6 दर्शन, 6 भाषा अपरिमित (असीम) ज्ञानी, मतिकेतु (बुद्धि निधान) श्रुतकेतु (श्रुतनिधि), के ज्ञाता - इति 36 गुण। अतीन्द्रियार्थदर्शी, सूत्रार्थ में अति निपुण, एक मात्र आगामी भावी 5. 7 भय, 7 पिण्डेषणा, 7 पानैषणा, 7 सुख, 8 मद के ज्ञाता - (मोक्ष) सुख के गवेषक (खोजने वाले), दोष-दुर्गुणों से रहीत, तीन दंड इति 36 गुण। से रहित, तीन गारव से रहित, तीन शल्य से रहित, तीन गुप्ति से गुप्त, 6. 8 ज्ञानाचार, 8 दर्शनाचार, 8 चारित्राचार, 8 वादीगुण, 4 बुद्धि इति 36 गुण। त्रिकरण विशुद्ध, चार प्रकार की विकथा के त्यागी, चार कषाय के 7. 8 कर्म, 8 अष्टांग योग, 8 महासिद्धि, 8 योगदृष्टि, 4 अनुयोग के त्यागी, चार प्रकार की विशुद्ध बुद्धि से युक्त, चतुर्विधाहार निरालंबमति ज्ञाता - इति 36 गुण। वाले, पाँच समिति से समित, पञ्चमहाव्रतधारी, पाँच प्रकार के निग्रंथ 8. 9 तत्त्व, 9 ब्रह्मचर्य गुप्ति, 9 निदान, 9 कल्पविहार के स्वरुप के निदान के ज्ञाता, पाँच प्रकार के चारित्र के ज्ञाता, पाँच प्रकार के चारित्रलक्षण ज्ञाता - इति 36 गुण। से संपन्न, छ: प्रकार की विकथा के त्यागी, षड् द्रव्य विधि विस्तार के 9. 10 असंवर, 10 संक्लेश, 10 उपघात, 6 हास्यादिषट्क के ज्ञाता ज्ञाता, षट्स्थान विशुद्ध प्रत्याख्यान के उपदेशक, षड् जीवनिकाय के - इति 36 गुण प्रति दयावान्, सात भय से रहित, सात प्रकार के संसार के ज्ञाता, 10. 10 समाचारी, 10 चित्तसमाधि, 16काय इति 36 गुण । सप्तविध गुप्तोपदेशक, आठ प्रकार के मान (मद) के मर्दक (नष्ट करने 11. 10 प्रतिसेवा, 10 शुद्धि (आलोचना) दोष, 4 विनय समाधि 4 वाले),आठ प्रकार के बाह्यध्यान के योग से रहित, आठ प्रकार के श्रुतसमाधि, 4 तपः समाधि, 4 आचार समाधि के ज्ञाता - इति अभ्यंतर (धर्म, शुक्ल) ध्यान युक्त, आठों प्रकार के कर्मो की ग्रन्थियों के 36 गुण। भेदक, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति के पालक, दस प्रकार के 12. 10 वैयावृत्त्य, 10 विनय, 10 धर्म (क्षमादि) 6 अकल्प्य के ज्ञाता श्रमण-धर्म के ज्ञाता, ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमा के ज्ञाता, ग्यारह - इति 36 गुण। प्रकार की ज्ञान संस्कार की विधि के ज्ञाता (एकारससातियक्खर 13. 10 रुचि, 12 अङ्ग, 12 उपाङ्ग, 2 शिक्षा के ज्ञाता इति 36 गुण । विहिवियाणगं), बारह भिक्षु प्रतिमा को स्पर्श करनेवाले, बारह प्रकार के 14. 11 उपाशक प्रतिमा, 12 व्रत, 13 क्रियास्थान के ज्ञाता - इति तप और बारह भावना से भावित मतिवाले, द्वादशाङ्ग सूत्रार्थपारगामी, 36 गुण। शिष्यादि समुदायवान् इत्यादि लक्षणोपेत होते हैं।" 15. 12 उपयोग, 10 प्रायश्चित, 14 उपकरण के ज्ञाता - इति 36 जैसे एक दीपक सैंकडों दीपकों को प्रज्वलित करता है वैसे गुण। एक सुविहित आचार्य स्वयं को एवं अन्य अनेकों को प्रकाशित 16. 12 तप, 12 भिक्षु प्रतिमा, 12 भावना के ज्ञाता - इति 36 गुण । (प्रतिबोधित करते हैं।" 17. 14 गुणस्थान, 14 प्रतिरुपादि (प्रतिरुप, तेजस्वी, युगप्रधान 'पंचिंदिय सूत्र' में आचार्य के छत्तीस गुण निम्नानुसार दर्शाये आगमवंत, मधुरवचन, गंभीर, धैर्यवान, उपदेशपरायण, अपरिस्रावी, सौम्य, संग्रहशील, अभिग्रहमति अविकथ्य, 5 - स्पर्शेन्द्रिया पाँच इन्द्रियों के विषयों को रोकनेवाले 17. अ.रा.प्र. 2/234,235 9- नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति के धारक 18. पंचिंदिय सूत्र - दो प्रतिक्रमण सार्थ, द्वितीय सूत्र । 19. गुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्त्रिंशिकाकुलकम्। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [238]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन अचपल, प्रशान्तचित्त), 8 सूक्ष्म के ज्ञाता - इति 36 गुण। 18. 15 योग, 15 संज्ञा, 3 गारव, 3 शल्य के ज्ञाता - इति 36 गुण। 19. 16 उद्गम दोष, 16 उत्पादन दोष 4 अभिग्रह के स्वरुप के निरुपक - इति 36 गुण। 20. 16 वचनविधि, 17 संयम, 3 विराधना के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण। 21. 18 दीक्षा हेतु अपात्र के दोष के ज्ञाता एवं 18 प्रकार के पापस्थान के स्वरुप के निरुपक - इति 36 गुण । 22. 18 शीलाङ्ग के उपदेशक, 18 प्रकार के ब्रह्मचर्य के उपदेशक - इति 36 गुण । 23. 21 प्रकार के उत्सर्ग दोष के ज्ञाता एवं 17 प्रकार के मरण स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण। 24. 20 समाधिस्थान, 10 एषणा दोष 5 ग्रासैषणा एवं । प्रकार के मिथ्यात्व के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण । 25. 21 शबल दोषस्थान एवं 15 शिक्षा स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण। 26. 22 परिषह एवं 14 अभ्यन्तर ग्रन्थ (ग्रन्थि) के ज्ञाता - इति 36 गुण। 27.5 वेदिका (आसन/बैठना) दोष, 6 आरभटादि प्रतिलेखन (पडिलेहण) दोष एवं 25 प्रतिलेखन के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण। 28. 27 अणगार (साधु) गुण, 9 कोटि विशुद्धि के ज्ञाता-इति 36 के अनुसार आचार्यों के आचारवान् आदि 8, तप 12, आचेलक्यादि 10 गुण (स्थितकल्प) और छ: आवश्यक - ये 36 गुण हैं । 22 रत्नकरंडक श्रावकाचार के अनुसार 12 तप, 6 आवश्यक, 5 आचार, 10 यतिधर्म और तीन गुप्ति - ये आचार्य के 36 गुण हैं।3 . प्रत्येक भव्यात्मा को जैनागमों में वर्णित एसे अनेकों महान गुणों के धारक आचार्य भगवन्त का संपूर्णतया विनय, वैयावच्च, भक्ति, बहुमानादि अवश्य करना चाहिए। गुरु/आचार्य के विनय से लाभ : गुरु/आचार्य शिष्य की भवव्याधि के चिकित्सक होने से शिष्य के लिए गुरु का बहुमान ही साक्षात् मोक्ष है; क्योंकि गुरु मोक्ष के प्रति अप्रतिबद्ध सामग्री के हेतु होने से गुरु का बहुमान करने से परमगुरु तीर्थंकर का संयोग होता है जिससे निश्चयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होती है।24 लज्जा, दया, संयम, ब्रह्मचर्य और विशुद्धि के स्थानरुप गुरु की आत्म-कल्याण इच्छुक शिष्य को सतत पूजा (वंदन, बहुमान, वैयावृत्य) करनी चाहिए। आचार्य को भावपूर्वक किये गये नमस्कार बोधिलाभ (सम्यकत्व) कारक होते हैं, सर्व पापों का प्रणाशक और सर्वमङ्गलों में तृतीय मङ्गल हैं।26 आचार्य की आशातना से हानि : आचार्य की हीलना/आशातना या निंदा करने से जीव अनंत संसारी होता है। कदाचित् प्रज्वलित अग्नि उसे न जलाये, कालकूट विषभक्षण प्राण नाश न करे तथापि आचार्य की हीलना से जीव मोक्ष प्राप्त नहीं करता 17 जो आचार्य की आशातना करता है वह आती हुई दिव्य लक्ष्मी को दंड से प्रहार कर दूर भगाता/निषेध करता है। आचार्य की आशातना से किल्विषिक देव में जन्म, इन्द्रियहीनता, अबोधि, दुःख, दरिद्रता आदि प्राप्त होते हैं।29 ___ अत: जीवात्मा को गुरु/आचार्य की किसी भी प्रकार की आशातना, अवहेलना या निंदा से बचकर विनयपूर्वक रहना चाहिए। उवज्झाय (उपाध्याय) : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'उवज्झाय' पद का वर्णन करते हुए कहा है, "शिष्य जिनके पास आकर पढते है, जिनके पास जिनप्रवचन सूत्रतः स्मरण किया जाता है, जो विद्वानों को जिनकथित बारह अङ्ग का उपदेश देते हैं /स्वाध्याय करते-कराते हैं, जिनसे श्रुत का लाभ हो, जिनके द्वारा शिष्यों की कुबुद्धि, मनः पीडा, चिन्ता, दुर्ध्यानादि का नाश होता है, जो द्वादशाङ्ग का स्वयं यथाशक्ति अध्ययन करते हैं, अन्य को कराते हैं, सूत्रअध्यापक, स्वाध्याय-पाठक, स्व पर के हितचन्तक को उवज्झाय/ उपाध्याय कहते है। 29. 29 लब्धि एवं 8 प्रभावक के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण । 30. 29 पापश्रुत के स्वरुपज्ञाता एवं 7 विशुद्धि के गुण स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण। 31. 30 मोहस्थान एवं 6 अन्तरङ्ग अरिषट्क (अप्रयुक्त कामादि) के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण । 32. 31 सिद्ध के गुण एवं 5 ज्ञान के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण। 33. 32 प्रकार के जीव भेद एवं 4 प्रकार के उपसर्ग के स्वरुप के ... ज्ञाता - इति 36 गुण। 34. वंदन के 32 दोष एवं 4 प्रकार की विकथा के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण । 35. 33 आशातना एवं 3 वीर्याचार के ज्ञाता - इति 36 गुण। 36. 32 प्रकार की गणिसंपदा के धारक एवं 4 प्रकार के विनय । स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में भी क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णीने आचार्य के गुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि, "आचार्य आचारवान् आधारवान्, व्यवहारवान, कर्ता, आयापायदर्शनोद्योत और उत्पीलक होते हैं। अपरिस्रावी, निर्यापक, प्रसिद्ध कीर्तिमान, और निर्यापक के गुणों से युक्त होते हैं।20 बोधपाहुड के अनुसार आचारवान् , श्रुताधार, प्रायश्चित, आसनादिद (आचार्य के आसन पर या आचार्य पद पर बैठने योग्य), आयापायकथी, दोषाभाषक, अस्रावक, सन्तोषकारी, निर्यापक - ये आठ गुण तथा अनुद्दिष्टभोजी, शय्याशन और आरोगभुक्, क्रियायुक्त, व्रतवान्, ज्येष्ठ सद्गुण, प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी, द्विनिषद्यक, 12 तप तथा 6 आवश्यक - ये छत्तीस गुण आचार्यों के हैं ।। अनगार धर्मामृत 20. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/242, भगवती आराधना मूल-417, 418 21. वही, बोध पाहुड टीका-1/2 22. वही, अनगार धर्मामृत-916 23. वही, रत्नकरंडक श्रावकाचार - षोडशकरण भावना में आचार्य भक्ति । 24. अ.रा.पृ. 2/339 25. दशवैकालिक मूल-9/1/13 26. अ.रा.प. 2/240 27. दशवैकालिक मूल-9/17 28. वही-9/2/4 29. दशवैकालिक-अध्ययन-9 30. अ.रा.पृ. 2/910 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [239] स्वरुप : उपाध्याय भगवंत सूत्रार्थज्ञाता, रत्नत्रययुक्त, सूत्रवाचना निष्पादक और अध्ययन-अध्यापन स्वरुप/लक्षणयक्त होते हैं । वे स्वयं सूत्र-अर्थ का अध्ययन करके अध्ययन में स्थिर होते हैं एवं अन्य को सूत्र की वाचना प्रदान करके ऋणमुक्त होते हैं । वे सूत्रों के बार-बार अनुवर्तन करने से अत्यन्त अभ्यास के कारण यथावस्थित स्वरुप युक्त होने से आचार्य पद के योग्य होते हैं । गच्छान्तर से सूत्रों की उपसंपदा हेतु आये साधुओं को वाचनादान के कारण वे प्रतिच्छक कहलाते हैं। इससे वे मोह विजेता बनते हैं, प्रायश्चित (प्रायश्चित्त योग्य अकार्यो) से दूर रहते हैं, मन-वचन-काया के उपयोगपूर्वक विशुद्धिपूर्वक अनंतगमपर्याययुक्त दशाङ्गरुप श्रुतज्ञान सुनानेपूर्वक परम पद/मोक्ष के उपाय का चिन्तन करते हैं; अनुसरण करते है, ध्यान करते है। उपाध्याय भगवंत आचार्य भगवंत के सहयोगी होते है एवं मूर्ख शिष्य को भी पढा-लिखाकर होशियार करते है। श्री उपाध्याय भगवंत शांत, प्रसन्नमुखवाले, विधिपूर्वक सभी को पढ़ाने में कुशल, आचार्य के वचनपालन में तत्पर, उत्तमकार्य करनेवाले, 25 गुणसहित, विशेषतः सत्य कार्यवान्, सत्यवचनयुक्त संधादि कार्यों में तत्पर एवं दृढप्रतिज्ञ होते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में उपाध्याय भगवंत के 11 अंग, 12 उपाङ्ग, चरणसित्तरी और करण सित्तरी इन 25 गुणों का वर्णन किया गया है।4 संबोध प्रकरण में उपाध्याय के गुणों की पच्चीस-पच्चीसी का भी वर्णन प्राप्त होता है, जो निम्नानुसार है।35 1. 11 अंग, 14 पूर्व को पढना-पढाना इति 25 गुण । 2. 11 अंग, 12 उपांग, | चरण सित्तरी, । करण सित्तरी = 25 गुण को धारण करना-कराना। 3. ज्ञान की 14 आशातना न करना; न कराना, सुवर्ण के 11 गुण इति 25 गुण। 13 क्रियास्थान (का त्याग), 6 द्रव्य के ज्ञाता एवं 6 काय रक्षक इति 25 गुण। 5. 14 गुण स्थान एवं 11 उपासक (श्रावक) प्रतिमा की प्ररुपणा करना इति 25 गुण। पाँच महाव्रत की 25 भावनाओं को धारण करना । (5x5 = 25) 7. कंदर्पादि 25 अशुभ भावना का त्याग करना। 8. प्रज्ञापनी (विनयवान शिष्य को उपदेश देने में उपयोगी) भाषा के द्वारा पूजा के 8 भेद एवं पूजा के 17 भेद के ज्ञाता । (8 +7= 25)। 9. 4 प्रतिपत्ति भेद एवं पूजा के 21 भेद के ज्ञाता (4 + 21 = 25) 10. पाँचों इन्द्रियों के 23 विषयों को, राग (शुभ को) एवं द्वेष (अशुभ को) (23 + 1 + 1 = 25) को दूर करना -इति 25 गुण । 11. मिथ्यात्व के 21 भेद की श्री संघ में 4 प्रकार से प्ररुपणा करना (21 +4 = 25)-इति 25 गुण। 12. 14 भूतग्राम (जीवभेद) एवं उनको जानना, प्रारंभ करना, पालन करना - इन तीनों के 8 भंग (भेद) एवं अंग-अग्र एवं भावपूजा के 3 भेद के ज्ञाता (14+8+3=25) -इति 25 गुण । 13. 8 अनन्त, 8 पुद्गल परावर्त एवं 9 निदान (8 +8+9 = 25) 14. 9 तत्त्व, 9 क्षेत्र एवं 7 नय के ज्ञाता । (9+9+ 7 = 25) - इति 25 गुण। 15. 4 निक्षेप, 4 अनुयोग, 4 धर्मकथा, 4 विकथा त्याग, 4 दानादि धर्म, 5 करण के ज्ञाता इति 25 गुण । ___16.5 ज्ञान, 5 व्यवहार, 5 सम्यकत्त्व, 5 प्रवचन के अङ्ग, 5 प्रमाद के ज्ञाता इति 25 गुण। 17. 12 व्रत, 10 रुचि, 3 विधिवाद के ज्ञाता इति 25 गुण । 18. 3 हिंसा, 3 अहिंसा एवं कायोत्सर्ग के 19 दोष (3 +3+19) के ज्ञाता इति 25 गुण। 19. 8 आत्मा, 8 प्रवचन माता, 8 मद का त्याग, 1 श्रद्धा के स्वरुप के ज्ञाता इति 25 गुण । 20. श्रावक के 21 गुण, 4 वृत्ति प्रवर्तन के ज्ञाता - इति 25 गुण । 21. 3 अतत्त्व, 3 तत्त्व, 3 गारव, 3 शल्य, 6 लेश्या, 3 दंड, 4 करण के ज्ञाता इति 25 गुण अरिहंत (तीर्थंकर) पद की उपार्जना के 20 स्थान एवं 5 आचार के ज्ञाता - इति 25 गुण । 23. अरिहंत के 12, सिद्ध के 8.5 प्रकार की भक्ति के ज्ञाता - इति 25 गुण। 24. सिद्ध के 15 भेद एवं 10 त्रिक के ज्ञाता - इति 25 गुण। 25. 16 आगार एवं प्रकार के संसारी जीव के स्वरुप के ज्ञाता - इति 25 गुण। उपाध्याय पद की आराधना से लाभ : उपाध्याय पद की आराधना, भक्ति एवं विनय से जीव उपाधि रहित होता है, स्वाध्याय में लयलीन/एकाग्र होता है; श्रुत (सूत्र संबंधी) ज्ञान की प्राप्ति होती है, भ्रम दूर होता है, आत्मा में शीतलता की अनुभूति होती है; श्रुतमद नष्ट होता है, अस्खलित वाणी प्राप्त होती है। ज्ञान की प्राप्ति से आत्मा अकार्य से निवृत्त होने से परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचरण का अर्थ पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। सामान्य भाषा में सदाचार और और उसके विपरीतार्थक दुराचार, अनाचार, कदाचार, आदि अनेक शब्दो का प्रचलन है। किन्तु धर्म और दर्शन के क्षेत्र में प्रयुक्त आचार शब्द से उपरोक्त विलोमार्थक शब्दों से निरपेक्ष मात्र श्रेष्ठ आचार ही अभीष्ट है, आचार शब्द से केवल मर्यादित और श्रेष्ठ आचार का ग्रहण किया जाता है। सभी दार्शनिकों ने आचरण को धर्म कहा है। मनुस्मृति में कहा गया है- "आचार: प्रथमो धर्म नृणां श्रेयस्करो महान्।" जैन आगमों में तो बल पूर्वक प्रतिपादित किया गया है कि चारित्र ही धर्म है। जैन सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का स्वभाव वस्तु के स्वरुप के यथावत् श्रद्धान की रुचि और तदनुसार आचरित क्रिया तीनों का सन्तुलित समन्वय करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि ये तीनों भिन्न भिन्न न होकर एक ही हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के समग्र आचार को 'श्रमणाचार' शब्द से जाना जाता है। 6. पाचन 31. अ.रा.पृ. 2/910-11 32. श्री नवपद देववंदन-उपाध्याय पद 33. श्री जिनेन्द्र पूजा संग्रह-पृ.8,9; 34. अ.रा.पृ. 2/911 35. संबोध प्रकरण-गाथा 166 से 184 36. श्री जिनेन्द्र पूजा संग्रह पृ. 7,8,9 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [240]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन | अनगार साधु और श्रमणाचार | भारतीय आचार-प्रणाली एवं विशेषकर जैन आचार-प्रणाली में आचार के संबंध में जो चिन्तन मनीषियों ने किया है; वह स्तुत्य है और आचरणीय भी। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार संबंधी दार्शनिक एवं व्यवहारिक शब्दावली का अध्ययन करने से यह निश्चित ही पता चलता है कि, जैन धर्म की आचार-प्रधान एवं ज्ञान-प्रधान समग्र साधना आचारमय ही है। इसीलिए जैन धर्म संस्कृति का संदेशवाहक श्रमण' एक कठोर आचार की जीती जागती प्रतिमा माना गया है। __आचार श्रमण के जीवन की आत्मा है। वह जीवन की अभिव्यक्ति है। आचार की ऊष्मा को जीवन में जीकर ही अनुभव किया जा सकता है, शब्दों से नहीं । आचार श्रमण के जीवन का सार्वजनिक सार्वकालिक, जीवन्त और जागृत शाश्वत स्वरुप है। इतना ही नहीं, अपितु वह प्रत्येक जागृत आत्मा की अनुभूति है। अनगार, श्रमण और साधु-इन तीन शब्दों का व्यवहार सर्वविरत अवस्था के साधकों के अर्थ में होता है, इसलिए इनके वाच्यार्थ और अभिप्राय को जानना आवश्यक है। जैन परम्परा में कार्य विभाजन की दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय और साधु-श्रमणों के ये तीन वर्ग बताये गये हैं। आचार्य और उपाध्याय सामान्य श्रमणाचार के साथ-साथ अपने विशेष कर्तव्यों का निर्वहन भी करते हैं। सभी श्रमणों को 'अनगार', 'श्रमण' और 'साधु' शब्दों से जाना जाता है। आगे के कुछ अनुच्छेदों में इन शब्दों को अभिधान राजेन्द्र एवं अन्य सन्दर्भो के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। अणगार (अनगार) : अभिधान राजेन्द्र कोश में प्राकृत 'समण' शब्द के संस्कृत में अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'अणगार' (संस्कृत में छ: अर्थ हैं -1.शमन - रोग प्रशमन, औषधा4 2. समण - जो शत्रु'अनगार') शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है - अणगार, मुनि, मौनी, मित्र में समभावपूर्वक रहता हुआ दोनों के प्रति समान प्रवृत्ति व्यवहार साधु, प्रवजित, व्रती, श्रमण, क्षपक, यति-ये सभी शब्द एकार्थवाची रखे, उसे 'समण' कहते हैं। वह किसी भी जीव का घात स्वयं करता हैं। । 'अणगार' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ दर्शाते हुए आचार्यश्रीने नहीं, दूसरों से कराता नहीं और करने वालों की अनुमोदना भी नहीं कहा है - द्रव्य से गृह घर, महल, हवेली आदि से रहित और भाव से करता।5। 3.समनस् - जो मन से सुंदर अर्थात् निदान-परिणाम लक्षण अनन्तानुबंधी आदि कषाय रहित/अल्पकषायी को 'अणगार' कहते हैं। रुप ताप रहित वर्तते हैं, उन्हें 'समनस कहते हैं। 4. श्रमण - साधु नंदीसूत्र में द्रव्य-भावगृह के परित्यागी को; भगवतीसूत्र में साधु को; 5. श्रवण - नक्षत्र का नाम 6.समनस् - मनः पर्यवज्ञान युक्त, भाव सूत्रकृताङ्ग में गृहरहित' को; आचारांग में गृहव्यापारत्यागी और पुत्र, सहित । मुनःि, दौहित्र, पुत्री, ज्ञाति, धात्री आदि परिवार रहित' को; और स्थानांग सामान्य अर्थ में जो पाँच इन्द्रियों और छठे मन से श्रम में भिक्षु को 'अणगार' कहा है। करते हैं, उसे 'श्रमण' कहते हैं। और जैनागम विषयक शब्दावली अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'मुनि' शब्द की व्याख्या में जो संसार के विषयों से उद्विग्न होकर (मोक्ष हेतु) तपस्या करते करते हुए कहा है - जो सर्वविरति को जानता है, विरतिवान् है, जगत हैं उन्हें 'श्रमण' कहते हैं। स्वजन-परजन, मान-अपमान त्रस-स्थावर की त्रैकालिक अवस्था के ज्ञाता, अतीन्द्रिय ज्ञाता, परोक्षज्ञ, कालिक इत्यादि में समान जो श्रद्धात्मा तप का आचरण करते हैं, उन्हें श्रमण विषयपूर्वक आत्मा (आत्म-स्वरुप) के ज्ञाता, सम्यक्त्व के ज्ञाता; उन्हें कहते हैं। सूत्रकृताङ्ग में कहा है कि सर्व प्रकार से अनर्थ के हेतुभूत 'मुनि' कहते हैं । जो यथार्थ उपयोग के द्वारा द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक 1. अ.रा.प्र. 1/267 स्वभाव, गुण, पर्याय के निमित्त-उपादान, कारणकार्यभाव, उत्सर्ग 2. वही-1/268; उत्तराध्ययन-34 अध्ययन अपवाद पद्धतिपूर्वक जीव-अजीव लक्षण को/जगत् को जानता है, वह 3. अ.रा.पृ. 1/268 मुनि है । सावध व्यापार के त्यागी, साधु, अद्रोह-अध्यवसायवान्, 4. भगवती सूत्र 15/1 यथावस्थित संसार-स्वभाववेत्ता, तीर्थंकर, यति, सर्वज्ञ, महर्षि, मननशील, सूत्रकृत्रांग 2/1 वाचंयम, संयत, मोक्षमात्रनिष्ठ, तपस्वी, मौनी तत्त्वज्ञानी, राग-द्वेषवर्जित, 6. आचारांग 2/6/2 त्रिविधपरिषहसहनशील - जैनागमों में मुनि के ये सब पर्यायवाची 7. आचारांग 1/2/5 नाम वर्णित हैं। । पाइयलच्छीनाममाला में मुनि के पर्यायवाची नाम 8. स्थानांग 6/10 यति, तपस्वी, तापस, ऋषि, भिक्षु, मुनि, श्रमण बताये गये हैं। 9. अ.रा.पृ. 6/309 मुनि की स्वाभाविक विशेषता का वर्णन करते हुए अभिधान 10. अ.रा.पृ. 6/310; अष्टक-13/7 11. अ.रा.प्र. 6/311 राजेन्द्र कोश में कहा है कि 'वाणी के अनुच्चारण रुप मौन तो एकेन्द्रिय 12. पाइयलच्छीनाममाला, गाथा 32 में भी सुलभ है, परन्तु मन-वचन-काय के योगों के द्वारा 13. अ.रा.पृ. 6/310 पुद्गलस्कन्धजनित वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थानादि में इन्द्रियों की 14. अ.रा.प.7/410 चपलता/चंचलता पूर्वक प्रवृत्ति नहीं करने रुप मौन उत्तम है, जो मुनि 15. वही, स्थानांग 4/4; अनुयोगद्वार सूत्र, गाथा-3 को होता है। 16. अ.रा.पृ. 7/410; स्थानांग 4/4 श्रमण: 17. अ.रा.पृ. 7/412; चंद्रप्रज्ञप्ति, 10 पाहुड अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'समण' शब्द पर जैन 18. अ.रा.पृ. 7/412; कर्मग्रंथ 4; प्रश्नव्याकरणाङ्ग, 4 संवर द्वार मुनि के पर्यायवाची शब्द 'श्रमण' की नूतन व्याख्या की है। 19. अ.रा.पृ. 7/410 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [241] होने से अथवा उभयलोक विरुद्ध होने से मुमुक्षु सावध अनुष्ठान की 1. सर्पसम सर्प की तरह परकृत निवास में विरति (त्याग) करते हैं। इस प्रकार विरतिवान्, दान्त (जितेन्द्रिय), शुद्ध रहनेवाले। द्रव्यभूत शरीर शुश्रूषा नहीं करने से व्युत्सुष्टकाय मुमुक्षु श्रमण' कहलाता 2. गिरिसम परीषह और उपसर्ग में निष्प्रकम्प। है20। आगे अभिधान राजेन्द्र कोश में श्रमण शब्द के तीर्थिक, यति, 3. अग्निसम तप से तेजस्वी, ज्ञान में हमेशा निश्चलमन, 12 प्रकार के तपोनिष्ठ देह, तप:श्री समालिङ्गित, महातपस्वी, अतृप्त रहकर नित्य नये ज्ञान की परमसमाधिप्राप्त, परिव्राजकविशेष, त्रिदण्डी आदि, मुक्ति के लिए विद्यमान प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करनेवाला। साधु, प्रव्रजित, महाव्रती, साधु, मुनि, तथाविध बहुलोक सम्मतिपूर्वक 4. सागरसम गंभीर, ज्ञानादि के रत्नाकर, गृहस्थ पर्याय में भी 'श्रमण' नाम प्राप्त वीर/महावीर स्वामी, आदि स्वमर्यादानतिक्रामी। अनेक अर्थ दर्शाये है। 5. नभः सम निरालम्ब श्रमण के पर्यायवाची शब्द : 6. तरुसम सुख-दुःख में तद्जनित विकार 1. प्रवजित आरंभ परिग्रह से प्रकर्षपूर्वक गया रहित। हुआ - आरम्भमुक्त। 7. भ्रमर सम अनियत वृत्ति अर्थात् विभिन्न गृहों 2. अणगार जिसे अगार अर्थात् गृह / घर से भिक्षाग्राही। नहीं है। 8. मृग सम संसार भय से उद्विग्न/भयभीत। 3. पाखण्ड(पाषण्ड) - पाप का खण्डन करनेवाला व्रती, 9. पृथ्वी सम सर्वसुखदुःखसहिष्णु कर्मपाश से मुक्त। 10. जलस्ह (कमल) सम काम-भोग में निर्लिप्त 4. चरक जो तप को चरता है, तप का 11. सूर्यसम षड्द्रव्य/लोक के समस्त स्वरुप आचरण करता है। के प्रकाशक 5. तापस तपोयुक्त। 12. पवनसम सर्वत्र अप्रतिबद्ध 6. भिक्षु भिक्षणशील, आठों प्रकार के 13. विष सम सर्वरसअनुपाती (बिना स्वाद के कर्मो का भेदन करनेवाला। भोजनग्राही) 7. परिव्राजक समस्त पापों के वर्जन पूर्वक 14. वंश (बाँस) सम नम्र चलनेवाला ('व्रज-गतौ धातु' 15. वेतससम वेतसवत् क्रोधादि विषनाशक से व्युत्पन्न)। (वेतस से सर्पविष नष्ट होता है, 8. समण पूर्ववत्। मुनि से 9. निर्ग्रन्थ बाह्यभ्यन्तर ग्रंथ (बंधन) रहित । क्रोधियों का क्रोध नष्ट होता है)। 10. संयत अहिंसादि हेतु प्रयत्नवान् । 16. कर्णिका (पुष्प) सम - प्रकट 11. मुक्त बाह्यभ्यन्तर बंधन से मुक्त। 17. निर्गन्ध अशुचि गंध रहित 12. तीर्णवान् संसारसागर से पार उतरा हुआ 18. उत्पलसम प्रकृत्याधवल (निर्मल), सदाचार 13. त्राता धर्मकथादि के द्वारा सांसारिक रुप सद्गुणों से युक्त दुःखों से रक्षा करनेवाला (रागादि 19. उन्दुस्सम उपयुक्त देशकालचारी/समयज्ञ भाव से रहित होने से)। 20. नटसम समयानुकुल व्यवहारयुक्त 14. द्रव्य ज्ञानादि भावों का जाननेवाला 21. कुर्केट सम मण्डली में समुदाय सहित 15. मुनि अतीन्द्रिय भाव, सम्यक्त्व और आहारभोजी। जगत् के कालिक स्वरुप के 22. आदर्श (दर्पण) सम - निर्मल, बाल-वृद्ध-तरुण के ज्ञाता, मौनी। साथ तद्वत् व्यवहार करनेवाले। 16. क्षान्त क्रोधविजयी। साधु :17. दान्त इन्द्रियादि का दमन करनेवाला अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'साधु' शब्द की (पंचेन्द्रियविषयजेता)। व्याख्या करते हुए कहा है कि जो शोभन (सुंदर) होता है, निर्दोष होता 18. विरत प्राणातिपातादि से निवृत्त। है, जो सम्यग्दर्शनादि योगों के द्वारा मोक्ष को साधता है, जो विशिष्ट 19. रक्ष स्नेह परित्यागी। क्रियाओं के द्वारा मोक्ष को साधता है। मोक्ष का पोषण करता है, जो 20. तीरार्थी संसारसागर से पार उतरने का ज्ञानादि शक्ति (शस्त्र) के द्वारा मोक्ष को साधता है, जो सर्वभूतों (प्राणियों) इच्छुक। के प्रति समता को ध्याता है, जो संयम में सहायक है, अथवा जो 21. तीरस्थ सम्यक्त्वादि प्राप्त। संयमकारी को साधता है, जो अभिलषित अर्थ (लक्ष्य) को साधता है, श्रमण कैसे होते है ? 20. अ.रा.पृ. 7/412; सूत्रकृताङ्ग 1/16 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने जैनागमानुसार मुनि के 21. अ.रा.पृ. 7/412 स्वभाव एवं आचार का ज्ञान करानेवाली अनेक उपमाओं द्वारा श्रमण का । 22. अ.रा.पृ. 7/411 वर्णन किया है, जो निम्नानुसार हैं 23. अ.रा.पृ. 7/410-411 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [242]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जो निर्वाण साधक योगों को साधता है, 18 दोषों का वर्जक, सुयति, समाचारी - स्थविरकल्पी साधु अनियतवासी होते हैं। वे मासकल्पादि मुक्तिसाधक, यथावस्थित यति, मुनि, ज्ञान-दर्शन-चारित्रक्रियायुक्त नियमानुसार विभिन्न ग्राम-नगर देश में विहार करते हैं। धर्मोपदेश देकर मोक्षमार्ग व्यवस्थित करनेवाला, ज्ञानादि क्रिया से मुक्तिसाधनप्रवण, शिष्यों को प्रतिबोधित कर प्रवज्या देते हैं। उनके पास प्रतिग्रह भिक्ष, सदाचारी, परमार्थिक यति, ब्रह्मचर्यादिगुणान्वित को 'साधु' (गुच्छक) पात्र सहित, वस्त्र, अन्य औपग्रहिक उपधि दंड, आसनादि कहते हैं241 होते हैं, वे सपरिकर्मित या अपरिकर्मित वसति में रहते हैं। भाव साधु के लक्षण - भाव साधु चरण-करण युक्त अभिग्रहसहित या अभिग्रहरहित, लेपकृत या अलेपकृत भिक्षा ग्रहण होता है, वह मोहविष का घात करता है; वह मार्गानुसारी, गंभीरचेता, करते हैं। क्रोधाग्नि से अदाह्य, अकुथनीय, सदोचित शीलभावयुक्त होता है। स्थविरकल्पी साधु उत्कृष्ट से तृतीय प्रहर में अपवाद से प्रथम आलयविहार, भाषा, चंक्रमणस्थान, विनय कर्म से साधु की पहचान पोरिसी में भिक्षाचर्या (गोचरी) हेतु जाते हैं।40 दुर्बल संहनन होने के होती है25 | भावित अनगार युगमात्र दृष्टिपूर्वक चलता है।26 कारण, बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी, क्षपक, प्राहुणा, आचार्य, उपाध्याय, धम्मपद में भी कहा है कि, जो मलविहीन है, शील में शैक्षक (नवदीक्षित) आदि के लिए आहार हेतु, देवद्रव्यादि के नाशक जो रत है और जो इन्द्रियदमन तथा सत्य से युक्त है वह मनुष्य को शिक्षा देने हेतु, स्वाध्याय हेतु, लघुनीति-बृहद् नीति हेतु, पूर्वगृहीत काषाय (साधुवेश) धारण करने योग्य है। आगे कहा है - यदि पीठ-फलकादि देने हेतु, उपद्रव होने पर, जिनदर्शन आदि स्व-पर कार्य शास्त्रों का थोडा भी भाषण करता हुआ मनुष्य उसके अनुसार धर्माचरण करता है, राग-द्वेष और मोह का परित्याग करता है, सम्यक् प्रज्ञायुक्त उपस्थित होने पर प्रथमादि प्रहर में भी विहार करते हैं, उपाश्रय से बाहर हुआ निश्चित चित्तवाला होता है तथा इसलोक और परलोक में आसक्ति जाते हैं।। । स्थविरकल्पी साधु स्वल्प आयु शेष रहने पर भक्तपरिज्ञादि से रहित होता है वह श्रमण बनने योग्य होता है ।28 जो मनुष्य शांत, अनशन करते हैं अथवा दीर्घायु और शक्तिसंपन्न होने पर जिनकल्प भी जितेन्द्रिय, संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाला है तथा सारे ग्रहण करते हैं। स्थविरकल्पी की यह समाचारी उत्सर्ग-उपवाद दोनों प्राणियों के प्रति दण्ड का त्यागकर चुका है, वह ब्राह्मण है, श्रमण पदों से युक्त हैं।43 है, भिक्षु है, जो हाथ-पैर-वाणी से उत्तम रुप से संयत है, जो जिनकल्प :अध्यात्मरत है, और जो समाधियुत, अकेला (परिग्रहरहित) और संतुष्ट अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार सूत्रार्थ को अव्यवच्छिन है, वह भिक्षु है। (अबाधित) रखते हुए कम से कम 29 वर्ष कि आयु और जघन्य से 20 साधु के प्रकार : वर्ष के दीक्षा पर्याय वाले गणधर, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर या क. साधु के तीन प्रकार होते हैं अभिन्नदशपूर्वधर आचार्यादि या इन्द्रिय-कषाय-योगविजेता साधु 1. आचार्य - विशिष्टसूत्रार्थदेशक दीर्धकाल तक स्थविरकल्प में दीक्षा पालन करते हुए वाचनादि देकर, 2. उपाध्याय - सूत्रपाठक (पठन-पाठन कर्ता) अनेक शिष्यों को दीक्षितकर शासन को अबाधित रखते हुए आत्मकल्याण 3. सामान्य साधु हेतु संघ या संघ के अभाव में गच्छ/गण को इकट्ठा कर सकल संघ से ख. साधु दो प्रकार के होते हैं - क्षमापना करके वटवृक्ष या अशोकवृक्ष के नीचे प्रशस्त मुहूर्तादि में 1. गच्छवासी - (स्थविर कल्पी) 2. गच्छनिर्गत - जिनकल्पी आदि। 24. अ.रा.पृ. 7/802 स्थविरकल्प और जिनकल्प : 25. अ.रा.पृ. 7/802-803 जैसा कि कहा गया है, साधु दो प्रकार के होते हैं - 1. 26. अ.रा.पृ. 1/271 गचछवासी और 2. गच्छनिर्गत । अत: इनका कल्प अर्थात् आचरण भी 27. धम्मपद 1/10 दो तरह का होता है- 1. स्थविर कल्प - गच्छवासी साधु के आचार 28. धम्मपद 1/20 को स्थविर कल्प और उन साधुओं को स्थविर कल्पी कहा जाता है। 29. धम्मपद 10/14 2.जिनकल्प - जिनेश्वर के विहारकाल में विशिष्ट आत्माएँ जिनसदृश 30. धम्मपद 25/3 31. अ.रा.पृ. 7/803 कठिन साध्वाचार का पालन करती हैं, उसे जिनकल्प कहते हैं और उन अ.रा.पृ. 7/803 साधुओं को 'जिनकल्पी' कहा जाता है। 33. अ.रा.पृ. 4/2387 स्थविरकल्प : 34. अ.रा.पृ. 4/1469 अभिधान राजेन्द्र कोश में स्थानांग सूत्र के अनुसार आचार्यश्रीने 35. अ.रा.पृ. 4/2387; स्थानांग 3/4 कहा है कि आचार्यादि की गच्छप्रतिबद्ध समाचारी को स्थविरकल्प 36. अ.रा.पृ. 4/2388 कहते हैं। 37. वही विधि - आचार्यादि के द्वारा सर्वप्रथम योग्य, विनीत शिष्य को 38. अ.रा.पृ. 4/2389 विधिवत् आलोचना देकर प्रशस्त द्रव्यादिगुणयुक्त गुरु के द्वारा प्रवज्या 39. अ.रा.पृ. 4/2390 दी जाती है। प्रवज्या के पश्चात् उसे 12 वर्षतक सूत्रों के अध्ययनरुप 40. अ.रा.पृ. 4/2391 शिक्षाग्रहण और प्रतिलेखन-प्रत्युपेक्षण आदि क्रिया के उपदेशरुप आसेवन 41. अ.रा.पृ. 4/2392 शिक्षा दी जाती है। पश्चात् 12 वर्षतक सूत्रों के अर्थ का ज्ञान कराया 42. अ.रा.पृ. 4/238 जाता है। 43. अ.रा.पृ. 4/2394 | Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जिनकल्प अंगीकार करते हैं।44 दश पूर्व से अधिकज्ञानी साधु प्रवचनप्रभावना, परोपकारादि के द्वारा बहुत निर्जरा का लाभ होने के अवसर प्राप्त होने पर जिनकल्प ग्रहण नहीं करते 145 जिनकल्पी साधु सूत्रार्थ विशारद, वज्रऋषभनाराच संहनन युक्त, दृढ मनोबलवाले, धैर्यवान्, वीर्यवान्, राग- आतंक-उपसर्ग सहन करने में समर्थ होते हैं। वे ध्रुवलोच (प्रतिदिन लोच), आतापना प्रमुख तप, रुक्ष भोजनवाले होते हैं। वे जिस गाँव में मासकल्प करते हैं वहाँ गाँव के छः भाग की कल्पना करके प्रतिदिन एक-एक भाग में गोचरी जाते हैं। वे दिन के तृतीय प्रहर में अभिग्रहयुक्त अलेपकृत आहार -पानी ही ग्रहण करते हैं, लेपकृत (घी आदि से युक्त) आहारादि नहीं लेते।" जिनकल्पी साधु विशिष्ट प्रतिमा तप ग्रहण नहीं करते । जिनकल्प का पालन ही उनका विशेष अभिग्रह होता हैं। 47 जिनकल्पी साधु दीपक या प्रकाश से रहित, अपरिकर्मित वसति में रहते हैं। वे वसति के द्वार बंध नहीं करते, गाय आदि को दूर नहीं करते, वसतिस्वामी की आज्ञा के बिना उस वसति की मन से भी इच्छा नहीं करते । वसतिस्वामी की अंशमात्र भी अप्रीति होने पर वहाँ नहीं रहते। 48 - जिनकल्पी साधु तृतीय प्रहर में ही विहार करते हैं । 49 जिनकल्पी साधु आवश्यकी और नैषेधिकी दो चक्रवाल समाचा का पालन करते हैं, शेष का नहीं 150 उन्हें ओघ उपाधि में 12 उपकरण होते हैं । 51 जिनकल्पी साधु को जघन्य से नौंवे प्रत्याख्यान पूर्व की आचार नामक तृतीय वस्तु तक और उत्कृष्ट से दशपूर्व तक श्रुत का अध्ययन होता है जिससे उन्हें कालज्ञान प्राप्त होता हैं 152 जिनकल्पी के पाँच प्रतिमाएँ होती हैं । जिनकल्पी साधु पहली उपाश्रय में, दूसरी उपाश्रय के बाहर तीसरी चौराहे पर, चौथी शून्यगृह में और पाँचवी प्रतिमा श्मशान में धारण करते हैं । 53 जिनकल्प धारण करनेवाले साधु को उपशम श्रेणी होती हैं; क्षपक श्रेणी नहीं 154 वर्तमान में पूर्वश्रुत के अभाव में जिनकल्प नहीं है 155 नगर के सत्ताईस गुण" : अनगार अर्थात् जिनशासन में दीक्षित आचार्य अथवा उपाध्याय पद से रहित श्रमण साधु निम्नाङ्कित सत्ताईस मूलगुणों के धारक होते हैं पाँच महाव्रत (5), पंचेन्द्रिय निग्रह (5), चतुः कषाय विवेक (अनंतानुबंधी आदि तीन का त्याग, संज्वलन कषाय की जयणा) (4), भावसत्य (1), करणसत्य (1), योगसत्य (1), क्षमा (1), विरागता ( 1 ), अकुशलमन-वचन-काय का निरोध (3), ज्ञान-दर्शन- चारित्रसंपन्नता (3), अतिवेदन-सहिष्णुता (1), और मारणांतिक उपसर्गसहिष्णुता (1) । प्रवज्या अभिधान राजेन्द्र कोश में 'प्रवज्या' की व्याख्या करते आचार्यश्रीने कहा है कि गृहस्थी संबन्धी पापव्यापार का त्याग करके मोक्ष के प्रति शुद्ध संयम योग / चारित्र मार्ग में व्रजन/ गमन करना 'प्रवज्या' 157 जिनेन्द्र वर्णीने भी कहा है कि वैराग्य की उत्तम भूमिका को प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति अपने सब सगे-संबन्धियों से क्षमा माँगकर, गुरु की शरण में जाकर, संपूर्ण परिग्रह का त्याग कर देता है और ज्ञाता-द्रष्टा मात्र रहता हुआ सौम्य जीवन बिताने की प्रतिज्ञा करता है। इसे ही प्रव्रज्या या जिनदीक्षा कहते हैं 158 प्रवज्या के पर्याय अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने प्रवज्या के निम्नङ्कित पर्याय दर्शाये हैं 1. प्रवज्या : 2. निष्क्रमण : 3. समता 4. त्याग 5. वैराग्य 6. धर्माचरण : 7. अहिंसा : : 8. दीक्षा प्रवज्या के भेद : : M 44. 45. 46. 47. अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने अन्य भी अनेक प्रकार से प्रवज्या का वर्णन किया है, जो निम्नानुसार है 60 :1. इसलोक प्रतिबद्धा प्रवज्या इस लोक में भोजन की प्राप्ति हेतु 2. परलोक प्रतिबद्धा प्रवज्या- परलोक में सुख-समृद्धि, काम-भोग की प्राप्ति हेतु 3. उभय लोक प्रतिबद्धा प्रवज्या इस लोक और परलोक में लाभ की प्राप्ति हेतु 48. 49. 50. 51. 52. 53. 54. 4. पुरतः प्रतिबद्धा प्रवज्या 55. 56. चतुर्थ परिच्छेद... [243] शुद्ध संयम योगों में व्रजन (गमन) । द्रव्य-भाव संग से बाहर निकलना (उसका त्याग करना) । सुख और दुःख के निमित्तों के उपस्थित होने पर समभाव रखना। प्राणियों के इष्ट-अनिष्ट के विषयों का त्याग पाँचों इन्द्रियों के विषयों से वैराग्य (हृदय 5. मार्ग प्रतिबद्धा प्रवज्या 59. 60. : से इन्द्रियविषयभोग सम्बन्धी राग का नाश) । क्षान्ति आदि दशविध यति धर्मो का आचरण । प्राणघातवर्जन । सब प्राणियों को अभय प्रदान करना । 6. द्विधा प्रतिबद्धा प्रवज्याउक्त दोनों कारणों से 7. अप्रतिबद्धा प्रवज्या प्रवज्या पर्याय ज्यादा होने से अनेक शिष्यादि की प्राप्ति हेतु 8. तुयावइत्ता प्रवज्या दीक्षार्थी को पीडा उत्पन्न कर दी जानेवाली प्रवज्या, जिसमें दीक्षा लिये बिना पीडा मुक्ति न हो सके स्वजनादि के स्नेह का छेद होने पर विशिष्ट सामायिक युक्त भाव प्रवज्या 57. अ.रा. पृ. 5/730 58. अ.रा. पृ. 4/1477 अ.रा. पृ. 4/1469, 1472, 1473 अ.रा. पृ. 4 / 1473 अ.रा. पृ. 4/1475 अ.रा. पृ. 4/1474 अ.रा. पृ. 4/1473, 1477 अ.रा. पृ. 4/1473 अ. रा. पृ. 2/ अ. रा. पृ. 4/1473 अ. रा. पृ. 4/1479 वही अ.रा. पृ. 4/1473 अ. रा. पृ. 4/278; समवयांग, 27 समवाय जैनेन्द्र सिद्धांत कोश 3/149 अ. रा. पृ. 5/730 अ.रा. पृ. 5/730-731-732 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [244]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 9. पुयावइत्ती प्रवज्या 26. परिजूणा प्रवज्यास्वजनादि द्वारा विघ्नोत्पत्ति की शंका हो या एसे ही अन्य दारिद्रय से पीडित होकर प्रवज्या ग्रहण करना । जैसे-लकडहारे कारण उत्पन्न होने पर अन्यत्र जाकर दीक्षा देना ने की। 10. बुयावइत्ता प्रवज्या 27.सुमिणा प्रवज्यामुमुक्षु को प्रतिबोध पूर्वक दी जानेवाली दीक्षा स्वप्न में प्रतिबोध प्राप्त कर प्रवज्या ग्रहण करना । जैसे पुष्पचूलाने 11. मोयवइत्ता प्रवज्या की। साधु के निमित्त से हुए कर्ज से मुक्त करके दी जानेवाली दीक्षा 28. पडिस्सुया (प्रतिश्रुता) प्रवज्या12. परिपुयावइत्ता प्रवज्या प्रतिज्ञापूर्वक प्रवज्या ग्रहण करना जैसे - शालिभद्र के बहनोई क्षुधा से आकुल होने के कारण भोजन हेतु ग्रहण की जानेवाली धन्यकुमारने की। प्रवज्या (जैसे - आर्य सुहस्तिसूरिने द्रमक-भिक्षुक को दी थी) 29. सारणिया (सारणिका) प्रवज्या13. उवाय प्रवज्या पूर्व भव का स्मरण कराकर जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त होने से 19 वें सद्गुरुओं की सेवा के कारण या उससे जनित वैराग्यपूर्वक तीर्थंकर श्री मल्लिकुमारी के द्वारा प्रतिबोध प्राप्त कर छ: राजाओंने जैसे प्रवज्या ग्रहण करना दीक्षा ग्रहण की, वैसे दीक्षा ग्रहण करना। 14. संगार(संकेत) प्रवज्या 30. रोगणिया प्रवज्या'यदि तुम प्रवज्या ग्रहण करोगे तो मैं भी करुंगा' - एसे रोग के आलंबन से प्रवज्या ग्रहण करना । जैसे सनत्कुमार ने संकेतपूर्वक प्रवज्या ग्रहण करना की। 15.विहगगति / परिजूणा प्रवज्या 31.अणाढिया प्रवज्यापरिवारादि के वियोग से या देशान्तर गमन से या दारिद्रादि अनादर होने से दीक्षा ग्रहण करना । जैसे-नंदीषेण के द्वारा पुनः कारण से प्रवज्या ग्रहण करना प्रवज्या ग्रहण करना। 32. देवसन्ना (दवसंज्ञा) प्रवज्या16. नटवरवादिता प्रवज्या पूर्वभव संबंधी देव के द्वारा प्रतिबोध करने पर प्रवज्या ग्रहण संवेगविकल धर्मकथा करनेपूर्वक उपार्जित भोजनादि भक्षण करना। जैसे-मेतार्य मुनि ने की। करना 33. वत्सानुबंधिका प्रवज्या17. भटरवादिता प्रवज्या पुत्र के स्नेह से प्रवज्या ग्रहण करना। जैसे-वज्रस्वामी की माता संवेगशून्य धर्मकथनपूर्वक भोजनादि प्राप्त करना सुनंदाने की। 18. सिंहस्वादिता प्रवज्याशौर्यातिरेक से (गुरुजनों की) अवज्ञा करके प्राप्त भोजनादि ग्रहण निक्षेपानुसार प्रवज्या के अर्थ : नाम प्रवज्या - किसी व्यक्ति या वस्तु का 'प्रवज्या' - एसा नामकरण करना करना। 19.शृगालखादिता प्रवज्याकपटवृत्तिपूर्वक आहार प्राप्त करके अन्यान्य स्थान में जाकर स्थापना प्रवज्या - रजोहरण, मुखवस्त्रिका (मुहपत्ति) आदि संयमोपकरण में प्रवज्यामय जीवन स्थापित करना। ग्रहण करना दव्य प्रवज्या - चरक, परिव्राजक, संन्यासी आदि लौकिक धर्म के 20. धान्यपुंज प्रवज्या अनुयायियों की प्रवज्या या राग, द्वेष, दबाव, वियोग, आजीविका, जिसमें अतिचार (दोष) रहित थोडे से प्रयत्न से स्व-स्वभाव की भोजनादि कारणों से ली गई जैन प्रवज्या। प्राप्ति हों भाव प्रवज्या - मुखवस्त्रिका, रजोहरण आदि भाव प्रवज्या के 21. विक्षिप्तधान्य समान प्रवज्या बाह्य लिङ्ग है और आरंभ पृथिव्यादी कार्यों में हिंसा (परिग्रह संघट्टनादि गाय के खुर से चारों ओर फैलाये गए धान्य कणों के समान रुप) आदि बाह्य तथा मिथ्यात्वादि आभ्यन्तर परिग्रह के त्यागरुप जिसमें गुणराशि यत्र-तत्र विकीर्ण हो जाय भाव प्रवज्या हैं।6। अभिधान राजेन्द्र कोश में आगे कहा है कि 22. धान्यविकीर्णसमाना प्रवज्या केशलोचादि द्रव्य दीक्षा है और क्रोधादि का अपनयन करना भाव अतिचार युक्त प्रवज्या, जिसमें स्व-स्वभाव की प्राप्ति में कालक्षेप दीक्षा है ।2 जैन मुनि के द्वारा मन-वचन-काय की निर्मलतापूर्वक पंचमहाव्रत, पंचाचार, अष्ट प्रवचनमाता आदि चारित्र धर्म का निरतिचार 23. धान्य संकर्षित समाना प्रवज्या पालन करना भाव प्रवज्या है।63 अतिशय अतिचार दोषयुक्त प्रवज्या, जिसमें स्व-स्वभाव की प्रवज्या के निमित्त :प्राप्ति में बहुत कालक्षेप हो तीर्थंकर-गणधरादि के उपदेश से या निमित्त से या बिना 24. छन्दा प्रवज्या किसी निमित्त के या निमित्तपूर्वक प्राप्त जाति स्मरणादि ज्ञान, या स्व या पर के अभिप्राय/प्रयोजन विशेष से ग्रहण की जाती श्रावक के गुण प्रत्यय से उत्पन्न अवधिज्ञान या अन्यदर्शनी के विभंग प्रवज्या। जैसे - भ्राता भवदत्त के लिए भवदेवने प्रवज्या ग्रहण की। 25. रोसा प्रवज्या 61. अ.रा.पृ. 5/730 62. अ.रा.पृ.5/732 रोषपूर्वक प्रवज्या ग्रहण करना, जैसे-शिवभूतिने की। 63. अ.रा.पृ. 5/730 हो। | Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ज्ञान से उत्पन्न वैराग्य से या 'यह यतिधर्म सांसारिक समस्त दुःखों का नाशक है, क्षान्त्यादि गुणयुक्त है, दुष्कर्मरहित है, कुस्त्री-वस्त्रधन-स्थान इत्यादि की चिन्ता नहीं रहती और इससे ज्ञान प्राप्ति, लोक पूजा, प्रशम सुखरस, स्वर्ग सुख और मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है' -इत्यादि प्रवज्या की महिमा श्रवण करने से प्राप्त उच्च वैराग्य से प्रवज्या की प्राप्ति होती है। 4 जैनदीक्षा न तो बच्चों का खेल है, न कोई सामान्य बात है; यह तो आत्म कल्याण एवं कर्मनिर्जरा हेतु मोक्ष साधना का कठोरतम मार्ग है अतः अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने दीक्षार्थी की पात्रताअपात्रता का भी वर्णन किया हैं। दीक्षार्थी की पात्रता - आर्यदेशोत्पन्न, विशिष्ट जातिकुलान्वित, क्षीणप्रायः कर्ममल, विमलबुद्धि, अवगत संसारनैर्गुण्य, विरक्त, अल्पकषाय (प्रतनुकषाय), कृतज्ञ, विनीत, राजादि बहुजनमान्य, अद्रोहकारी, कल्याणाङ्ग, श्राद्ध (श्रावक), स्थिर, समुपसंपन्न, सेवितगुरुकुलवास, अस्खलितशील, अखण्डशील, यथोक्त योग-विधानपूर्वक गृहीतसूत्र, तत्त्वज्ञ, उपशान्त, प्रवचनवात्सल्ययुक्त, सत्त्वहितरत, आदेय (ग्राह्यवाक्य), अनुवर्तक, गंभीर, अविषादी, उपशमलब्धि, उपकरणलब्धि आदि गुणों से युक्त मनुष्य प्रवज्या ग्रहण करने योग्य है। 65 दीक्षा के लिए अपात्र - अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने दीक्षादाता गुरु भगवंतो को रेड सिग्नल बताते हुए कहा है कि "पाप स्थानों की आलोचना नहीं करनेवाला, वेश्यागृहीत, दीक्षा के समय अशुभ दुर्निमित्त होने पर, मिथ्यादेशोत्पन्न अनार्य, वेश्यासुत, गणिक, चक्षुविकल, विगलित कर-चरण, छिन्न नाक-कान- ओष्ठ, कुष्ठी, गलित अङ्गोपाङ्ग, पंगु, मूक, बधिर, अत्युत्कटकषायी, बहुपाखंड संसक्त, अतिरागद्वेषमिथ्यात्वमललिप्त, देशनिष्कासन दण्डयुक्त, देवबलीकरण, भोइ, नट, छत्रवारण, जड, जडबुद्धि, नामहीन, बलहीन, कुलहीन, जातिहीन, बुद्धिहीन, प्रज्ञाहीन, निंदित जाति और अज्ञातकुल-स्वभाव वालों को दीक्षा (प्रवज्या) नहीं देना चाहिए ।" तथा बाल (आठ वर्ष से कम उम्र वाला), वृद्ध, नपुंसक, जड, क्लीब दृष्टि असमर्थ), वातिक, चोर, राजापकारी (राजद्रोही), उन्मत्त, अदशीन (प्रज्ञाचक्षु), दोषदुष्ट, मूढ, जुंगिक (जाति-कर्म-शरीरादि से दूषित), उद्धत, गर्भिणी, और बालवत्सा को प्रवज्या नहीं देना 167 मुमुक्ष की परीक्षा विधि :- दीक्षा दाता गुरु प्रवज्या से पूर्व दीक्षार्थी की आँखों पर पट्टी बांधकर समवसरण में तीन बार पुष्पपात करावें । यदि वे पुष्प परमात्मा की गोद में, सिंहासन में या समवसरण में गिरे तो दीक्षा देवें; और यदि तीनों बार पुष्प समवसरण से बाहर गिरें तो उस व्यक्ति को दीक्षा नहीं दे और कहे कि "आप अभी ओर अध्ययन करें, आगे यथावसर देखा जायेगा।' दीक्षादाता के गुण ̈ दीक्षादाता गुरु प्रवचनार्थवक्ता, स्वगुर्वनुज्ञातगुरुपदप्राप्त, बहुतरगुणयुक्त, वीतराग प्रतिपादित होना चाहिए । गुरु स्वभाव - अनुकूलता के द्वारा शिष्यों को हितमार्ग में जोड़ते हैं, आगमोक्त विधिपूर्वक ज्ञात-क्रिया का निष्पादन करते हैं, वे गुरु शिष्यों को एवं स्वयं को मोक्ष में ले जाते हैं। शिष्यों में भी एसे गुरु के प्रति गुरुभक्ति, बहुमान और श्रद्धा होती है। गुर्वाज्ञापालक शिष्य ज्ञानादि लाभ प्राप्त कर चारित्र में स्थिर होता है, उससे रागादि दोष कम / नष्ट होते हैं, चारित्र की वृद्धि एवं शुद्धि होती है एवं अभ्यास के अतिशय से इस भव और अन्य भव के समस्त कर्मक्षय होने पर शिष्यों को परमपद/मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। चतुर्थ परिच्छेद... [245] प्रवज्याविधि :- गीतार्थ गुरु आगमोक्त विधि के अनुसार शुभ तिथि-वार-नक्षत्र-करम-चन्द्रमा-योग आदि तथा शुभ शकुन - निमित्तस्वर आदि देखकर समवसरण, जिनभवन, अर्हदायतन, इक्षुवन, क्षीरवृक्षवन या अश्वत्थादि (वड, आम्र, पीपल आदि) वृक्ष समूह में गंभीर सुंदर नाद, महाभोगी (मनोज्ञ प्रतिशब्दयुक्त प्रशस्तक्षेत्र में योग्य मुमुक्षु को दीक्षा देवें । (भग्न स्थान, श्मशान, शून्य स्थान, अमनोज्ञ, गृह, क्षार - अङ्गारादि से दूषित भूमि में दीक्षा देना वर्जित हैं ।) प्रवज्या के लाभ :- - सुयोग्य पात्र को विधिपूर्वक दी गई व्रतरुप दीक्षा मोक्ष का हेतु होने से निर्वाण का बीज है ।" प्रवज्या ग्रहण कर्मनिर्जरा, विनेयानुग्रहण एवं कर्मक्षय के लिए होता है। 72 प्रशान्तचित्त व्रत धर्म में अधिकारी बनता है, उन्हें विषयतृष्णा या उच्चदृष्टि संमोह उत्पन्न नहीं होता, धर्ममार्ग में अरुचि नहीं होती, क्रोधादि पाप नहीं होते और वह उत्तरोत्तर प्रवर्धमान भावविशुद्धि प्राप्त करता है। प्रवज्यारुप यह जैन धर्म जन्म- जरा - मरणादि दुःखों का विनाशक, विनयादि विमलगुणयुक्त, ज्ञानादि लक्ष्मी के निवास योग्य मिथ्यात्वादि दोषविनाशक, एवं सम्यग्दर्शनादि का विकासक है। 73 जैसे सूर्य के प्रभा पटल प्रकाश को देखकर सरोवरस्थित श्रेष्ठ पुंडरीक कमल प्रभात में प्रफुल्लित होते हैं वैसे ही श्री जिनवररुपी सूर्य की स्तुति और आगमरुपी प्रभा पटल (ज्ञान प्रकाश) के प्रभाव से भव्य जीव रुपी कमल प्रबोध प्राप्त करते हैं, सम्यक्त्वादि का विकास करते हैं। 74 अनगार धर्म : * अभिधान राजेन्द्र कोश में अणगार साधु द्वारा पालन किये जाने योग्य धर्मो का वर्णन करते हुए अनगारो के क्षान्ति आदि 10 धर्म बताये हैं जिनका आगे वर्णन किया जायेगा। 75 आगे अभिधान राजेन्द्र कोश में मुनि संबन्धी अनुष्ठान विशेष को अनगार धर्म या यतिधर्म कहा है। यह दो प्रकार का है- 76 1. सापेक्ष यतिधर्म गुरु, गच्छ आदि की सहायता से जो प्रवज्या का पालन किया जाय वह ग्रहण - शिक्षा ( प्रतिदिन सूत्रादि का अभ्यास), आसेवन - शिक्षा (प्रतिदिन साध्वाचार योग्य क्रिया का अभ्यास) आदि रुप गच्छवासी स्थविरकल्पी साधु का धर्म सापेक्ष यतिधर्म कहलाता है। 2. निरपेक्ष यतिधर्म - जिनकल्पिकादि मुनिधर्म । 64. अ. रा. पृ. 5/734 65. अ. रा.पू. 5/734, 5/736; जैनेन्द्र सिद्धांत कोश 3/149 66. अ.रा. पृ. 5/767 67. 68. 69. 70. 71. 72. 73. 74. 75. 76. - अ. रा.पृ. 5/769, 5/733; जैनेन्द्र सिद्धांत कोश 3/150 अ.रा. पृ. 5/744 अ.रा. पृ. 5/734-735 अ.रा. पृ. 5/742 अ. रा. पृ. 4/2507 अ. रा. पृ. 5/734 अ.रा. पृ. 5/732 अ.रा. पृ. 5/733 अ. रा. पृ. 1/279, 4/1364 अ. रा. पृ. 1/279 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [246]... चतुर्थ परिच्छेद जैन श्रमण का आचार - गोचर (क्रिया-कलाप) अत्यधिक कठोर होता है। भारतीय संस्कृति में आचार का सर्वाधिक महत्त्व है। राजामहाराजा, अमात्य-मंत्री, ब्राह्मण, क्षत्रिय व श्रेष्ठी आदि सभी वर्ग जब भी श्रमण वर्ग के पास पहुँचता था, तो सर्वप्रथम उनके आचार-विचार की पृच्छा करता था - कहं आयार - गोयरं (अर्थात् कथं ते भवतां आचार-गोचरः क्रिया कलापः स्थित:-) ? हे भगवान् ! आपका आचारगोचर / क्रिया-कलाप कैसा है। उक्त प्रश्न के उत्तर में आचार - गोचर की व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है- आचार गोचरः क्रियाकलापः । आचार-गोचर अर्थात् (1) आचार का विषय, आचार संबंधी क्रियाकलाप, (2) मोक्ष के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान विशेष और उसका विषय (3) साधु समाचारी और उसका विषय, साध्वाचार अङ्गभूत छ: व्रत, (4) ज्ञान, दर्शन आदि पंचविध आचार और उसका विषय अर्थात् भिक्षाचारी (5) पर्याय जयेष्ठ, पूज्य, रत्नत्रयाधिक के आगमन पर खडे होना आचार - गोचर है। 2 निर्ग्रन्थ श्रमणों के आचार का वर्णन करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में मुख्यतः साधुओं के आचार से संबंध रखनेवाली सभी शिक्षाओं का उल्लेख किया है। 3 वे निम्नानुसार है आचार गोचरी विनय भाषा अभाषा चरण अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आचार- गोचर करण - यात्रा मात्रा वृत्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र रुप मोक्ष मार्ग की आराधना के लिए किया जानेवाला विविध आचार। भिक्षा ग्रहण करने की विधि । चार पिंड विशुद्धि, पाँच समिति, बारह भावना, द्वादश भिक्षु प्रतिमा, पाँच इन्द्रियों का निरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ और चार अभिग्रह - ये 'करण अर्थात् क्रिया के 70 भेद हैं।'5 संयमरुप यात्रा का पालन । संयम की रक्षा के लिए परिमित आहार लेना । विविध अभिग्रहों की धारणा कर संयम जीवन को पुष्ट करना इस प्रकार जैन परम्परा में उपर्युक्त समग्र शिक्षाओं का पालन निर्ग्रन्थ श्रमण का आचार धर्म हैं।" निर्ग्रन्थ श्रमणाचार की विशेषता ज्ञान और ज्ञानी आदि की विनय-भक्ति । सत्य और असत्या मृषा रुप भाषा का प्रयोग । निरर्थक भाषा अर्थात् मृषा तथा सत्यामृषा (मिश्र) अभाषा का प्रयोग । पाँच महाव्रत, दशविध श्रमण धर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दश प्रकार का वैयावृत्त्य, नववाड सहित ब्रह्मचर्य का पालन, ज्ञान- दर्शन - चारित्र रुप रत्नत्रयी की साधना, बारह प्रकार का तप और चार कषायों के निग्रह को चरण कहते हैं।' चरण अर्थात् चारित्र । उपर्युक्त चारित्र के ये सत्तर (70) भेद है, जो श्रमण धर्म का आचार है। : निर्ग्रन्थ श्रमणाचार की विशेषता बताते हुए राजेन्द्र कोश में कहा है कि, "निर्ग्रन्थ श्रमणों के आचार का विषय (1) भीम अर्थात् कठिन कर्मशत्रुओं को खदेडने में भयंकर हैं - आयार गोयरं भीमं सयलं दुरहिट्ठियं । 7 (2) दुरधिष्ठित-दुर्बल (कायर) आत्माओं के लिए इस आचार को धारण करना अशक्य है अतः कायर पुरुषों के लिए यह आचार दुर्धर है और यह सकल-सम्पूर्ण (अखंडित) हैं। अष्टादश आचार स्थान : जैनागमों के आधार पर अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने श्रमणाचार के अष्टादश स्थानों का वर्णन किया है जो निम्नानुसार है'वयछकं कायछक्क, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंक निसिज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्य, गृहस्थ भाजन, पर्यक, निषद्या, स्नानवर्जन और शोभावर्जन ये अठारह आचार स्थान है। 1. अहिंसा आचार : सभी जीव जीना चाहते हैं; मरना कोई नही चाहता, और सभी जीव सुख चाहते हैं; दुःख नहीं । मरण अत्यन्त दुःखरुप प्रतीत रायाणो रायमच्चाय माहणा अदुव खत्तिया । पुच्छन्ति निहु अप्पाणो, कहं आयार गोयरं । - अ.रा. पृ. 2/375; दशवैकालिक सूत्र - 6/2 आचारो मोक्षार्थमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरो विषयः आचार- गोचरः । आचारः साधुसमाचारस्तस्य गोचरो विषयो व्रतषट्कादिराचारगोचरः । साधुसमाचारीवषये, व्रतषट्कादिके, आचारश्च ज्ञानादिविषयः पंचधागोचरश्च भिक्षाचर्येत्याचारगोचरं ज्ञानाचारादिके भिक्षाचयां चा सेहं आयार-गोचरं ग्रहणयाए अब्भुट्ठेयव्वं भवइ । - अ.रा. पृ.2/375; स्थानांगसूत्र सटीक, 8 ठाणां 3. अ.रा. पृ. 2/337; नन्दीसूत्रवृत्ति, सूत्र 32 4. तत्राऽऽचारो ज्ञानाऽऽचाराद्यनेकभेदभिन्नो गोचरो भिक्षाग्रहण-विधिलक्षणः विनयो ज्ञानादिविनयः वैनयिकं विनयफलं कर्मक्षयादि । शिक्षाग्रहणं शिक्षा आसेवनं, शिक्षा च विनयशिक्षेति चूर्णकृत् । तत्र विनेयाः शिष्यां तथा भाषा सत्या असत्यामृषा च चरणं व्रतादिकरणं पिंडशुद्धयादि । उक्तं चवयसमणधम्मसंजम, वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोह, निग्गहाइ चरणमेयंतु। अ. रा. पृ. 2/373; नन्दीसूत्रवृत्ति, 1. 2. 5. 6. 7. 8. 9. सूत्र 32 पिंडविसोहि समिई, भावणपडिमाई इंदियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहो चेव करणं तु ॥ अ. रा.पृ. 2/373; प्रवचनसारोद्धार, गा. 563 यात्रा संयमयात्रा तदर्थमेव परिमिताहारग्रहणम्, वृत्तिविविधैरभिग्रहविशेषैर्वर्तनम्। आचारश्च गोचरश्चेत्यादि द्वन्द्वान्ता आचारगोचरविनयवैनयिकाशिक्षाभाषाणामाचरण करणयात्रामात्रावृत्तयः आख्यायन्ते.... स आचार: समासतः संक्षेपतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः । अ.रा. पृ. 2/373; नन्दीसूत्रवृत्ति, सूत्र 32 अ. रा. पृ. 2/375; आचारांग 2/1 अ. रा.पू. 6/888; दशवैकालिक सूत्र 6/7 वही; दशवैकालिक सूत्र 6/8 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन होता है इसलिए निर्ग्रन्थ श्रमण प्राणिवध को दारुण जानकर उसका त्याग करते हैं। इतना ही नहीं, श्रमण लोक के समस्त त्रस या स्थावर जीवों की कृत-कारित और अनुमोदन हिंसा भी न करें - यह अहिंसा आचार हैं। 11 2. सत्य आचार : जिस वचन, विचार और व्यवहार से दूसरों को पीडा पहुँचती हों, जो वचनादि समग्र लोक में गर्हित हों, वह असत्य हैं; चूंकि हिंसक वचन सत्य होते हुए भी असत्य माना गया है। 12 इसके अलावा 'अप्पणो थवणा परेसु निंदा। 13 - अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा असत्य के ही समान है। इसलिए इसका भी श्रमण वर्ग के लिए निषेध किया गया है। 3. अचौर्य आचार : अचौर्य आचार का वर्णन करते हुए आचार्यश्रीने राजेन्द्र कोश में कहा है- सचेतन या अचेतन, अल्प या बहुत, यहाँ तक कि दंतशोधन (दांत कुदेरने का तिनका) मात्र भी उसके स्वामी की बिना अनुमति लिए या बिना याचना किये श्रमण मन, वचन, काया से उसे ग्रहण न करें, न करायें और न ग्रहण करने वालों की अनुमोदना करें। 14 4. ब्रह्मचर्य आचार : अब्रह्म को घोर, प्रमाद, दुरधिष्ठित, अधर्म का मूल और महादोषों का पुंज जानकर श्रमण उसका मन, वचन, काया से त्याग करें एवं नौ वाड के पालन पूर्वक निर्मल ब्रह्मचर्य को धारण करें। 15 5. अपरिग्रह आचार : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने संग्रह, परिग्रह और अपरिग्रह का स्पष्टीकरण करते हुए साधु के लिए संग्रह का निषेध, उपकरणादि वस्तु का अपरिग्रहत्व एवं अपरिग्रह वृत्ति के विषय में विस्तृत विवेचन किया है। 16 6. रात्रिभोजन विरमण व्रत : प्रस्तुत कोश में आचार्यश्रीने इस विषय का दिग्दर्शन कराते हुए कहा है कि, रात्रि में भिक्षाचरी - एषणा शुद्धि की दुष्करता होती है। अतः अहिंसा की दृष्टि से परमात्मा महावीरने रात्रि में चतुर्विध आहारपरिभोग का सर्वथा निषेध किया है। 17 7- 12. षट्जीवनिकाय संजम : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में षट्कायिक जीवों की हिंसा के त्याग का निर्देश करते हुए श्रमणों को क्रमशः पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय एवं त्रस, इस प्रकार षट्कायिक जीवो कीहिंसा के त्याग का कारण एवं आस्रव का सुन्दर दिग्दर्शन करवाया है। 18 13. प्रथम उत्तरगुण- अक्ल्प्य वर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोश में आगमों के आधार पर श्रमण वर्ग की चार मुख्य आवश्यकताओं- पिण्ड (आहार), शय्या, वस्त्र और पात्र का निरुपण करके उनमें अकल्पनीय का वर्जन तथा कल्पनीय का ग्रहण करने का निर्देश किया गया हैं। 19 14. गृहस्थ के भाजन में परिभोग निषेध : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने श्रमणों के लिए कल्प्य और अकल्प्य का विवेचन करते हुए कहा है कि, "षड्जीवनिकाय के रक्षक निर्ग्रन्थ श्रमण को गृहस्थ के बर्तनों में आहार नहीं करना चाहिए। गृहस्थी के बर्तनों का उपयोग करने से श्रमण को पूर्वकर्म एवं पश्चात्कर्म आदि कई दोष लगते हैं। 20 15. पर्यक आदि पर सोने बैठने का निषेध : अभिधान राजेन्द्र कोश में श्रमण को पलंग, खाट आदि पर सोने-बैठने के निषेध के कारणों की चर्चा के साथ-साथ अपवादिक रुप से प्रतिलेखनपूर्वक बैठने या शयन करने का विधान बताया गया है | 21 16. गृहनिषद्यावर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोश में जैनागमों के आधार पर गृहस्थ के घर निर्ग्रन्थ के बैठने से होनेवाले दोषों पर भी विचार किया गया हैं। I निर्ग्रन्थ श्रमण को गृहस्थ के घर में जाकर बैठना नहीं चाहिए। गृहस्थों के घर में बैठने से ब्रह्मचर्य का नाश होनी की संभावना रहती है। इसके अतिरिक्त अन्य दोष भी उत्पन्न होते हैं। इसलिए अत्यन्त वृद्ध, रोगी या अतिकृश तपस्वी - इन तीन के सिवाय अन्य किसी भी साधु को गृहस्थ के घर पर नहीं बैठना चाहिये | 22 17. स्नानवर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने ब्रह्मचारी एवं संयमी श्रमण के स्नान करने से होने वाले दोषों की संभावना का उल्लेख किया है। 23 18. विभूषा त्याग : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने विभूषा दुष्फल की चर्चा करते हुए श्रमण वर्ग के लिए विभूषा-त्याग के कारण एवं श्रृंगार आदि में रत चित्तवाले साधक को होते कठोर दुष्कर्मों के बंध की चर्चा की है। 24 चतुर्थ परिच्छेद... [247] इन अठारह प्रकार के आचार- पालन से मुनि के पूर्वकृत पापकर्मों का क्षय हो और नये कर्मों का बंध नहीं हो अतः आत्मकल्याणकांक्षी मुनि को अत्रोक्त 18 आचार स्थान / आचार-गोचर के पालन में उद्यमवन्त रहना चाहिए। 13. 14. 10. वही; दशवैकालिक सूत्र 6/11 11. वही; दशवैकालिक सूत्र 6/11 12. अ. रा.पृ. 6/887; दशवैकालिक सूत्र 6-12, 13 अ. रा.पू. 6/327; प्रश्न व्याकरण - 2/2 अ. रा.पू. 6/887; एवं भाग 1 /538; दशवैकालिक सूत्र 6/14-15 अ. रा.पू. 6/426, 427; दशवैकालिक सूत्र 6/16-17 अ.रा. पृ. 6/887; दशवैकालिक सूत्र 6 / 18-22 अ. रा.पू. 6/510; दशवैकालिक सूत्र 6/24-26 अ. रा.पृ. 3/1345-1346; दशवैकालिक सूत्र 4 / 3, 9, 10 अ.रा. पृ. 1/115-116; दशवैकालिक सूत्र 6/47-49 अ. रा.पृ. 3/900, दशवैकालिक सूत्र 6/51-53 अ.रा. पृ. /725; दशवैकालिक सूत्र 6/54-56 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. अ. रा.पृ. 3/898; दशवैकालिक सूत्र 6/57-58-59-60; अ.रा. पृ. 7/818; दशवैकालिक सूत्र 6/61-62 अ.रा. पृ. 6/1204; दशवैकालिक सूत्र 6/66, 67 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [248]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन | गोचरचर्या (आहारचर्या) मुनि जीवन में कर्मक्षय एवं आत्म कल्याण हेतु संयमाराधना में संलग्न मुनि प्रायः तपस्वी जीवन यापन करते हैं तथापि सभी मुनियों से सदा सर्वथा आहार त्याग संभव नहीं होता क्योंकि औदारिक शरीर अन्न पर आधारित है अतः ज्ञान-दर्शन-चारित्र में उद्यम हेतु इस शरीर को आहार देना आवश्यक है अत: मुनि को क्षुधाशमन हेतु परमात्मा तीर्थंकरदेवने जैनागमों में मुनि के लिये गवेषणा, ग्रहणैषणा और ग्रासैषणापूर्वक समस्त आहार विधि का वर्णन किया है, जो अभिधान राजेन्द्र कोश में गोयरचरिया (गोचरचर्या) शब्द पर संग्रहित की गई है जिसका यहाँ अति संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है। जैनमुनि की गोचरी अन्य संतो की अपेक्षा अपने आप में विलक्षण है। 'गोचरी' शब्द का अर्थ है "जैसे गाय चरती है वैसे"। अर्थात् मुनि उच्च-माध्यमादि कुलों में गोचरी के लिए जाये वहाँ लाभअलाभ, सुख-दुःख, शोभन-अशोभन आहार-पानी में समभावी एवं संतुष्ट रहकर जैसे कपोत (कबूतर) पक्षी या कपिञ्जल (तीतर) मेघ के आह्वान हेतु धीरे-धीरे मधुर शब्द करते हैं या जैसे गाय धीरे-धीरे थोडीथोडी घास चरती है (जड से नहीं निकालती), वैसे ही मुनि भी गृहस्थों के घरों में से योग्य निर्दोष आहार-पानी थोडी-थोडी मात्रा में ग्रहण करें; एक ही घर से संपूर्ण मात्रा न ले।। गोचरी भ्रमण की विधि - गोचरी हेतु भ्रमण/गमन करते समय मुनि को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए1. रास्ते में अनेकविध विषयसामग्री दृष्टिगोचर होने पर भी वत्सवत् (बछडे के समान) एकमेव गोचरी का लक्ष्य रखना। 2. प्रशान्त मन से असंभ्रान्त होकर अव्याक्षिप्त चित्तपूर्वक परिषहादि से भयरहित होकर मन्द (अद्रुत) गति से गोचरी जाये। शरीर प्रमाण । साढे तीन हाथ / युगमात्र सामने दृष्टि रखकर चलें। जब तक अन्य सरल मार्ग हो तब तक खाई, ऊँचा-नीचा मार्ग, पेड के तने, दलदल (कादव), पानी में पत्थर रखकर बनाये मार्ग से न जाये। 5. बलि आदि हेतु ले जाये जाते हुए विभिन्न प्राणियों के सन्मुख न जाये। गृहस्थ के घर गोचरी हेतु जाने पर धर्मकथा न करें, तद्वेतु बैठे भी नहीं । रास्ते में भी हँसते हुए या जोर से बातें करते हुए न चले। 7. उपाश्रय में गुरु या सहवर्ती मुनियों को मैं इस दिशा में या अमुक मोहल्ले आदि में गोचरी जा रहा हूँ -एसा बताकर गोचरी जाये। 8. लघुशंकादि आवश्यक शोधकर (शुद्धि करके) गोचरी जाये। 9. गोचरी ग्रहण करने योग्य यथावश्यक दण्ड, कामली, झोली पात्रादि सभी उपकरण साथ में लेकर जाये। 10. यथावसर सूर्योदय के पश्चात् पोरिसी (एक प्रहर दिन चढने पर) या अर्धपोरिसी (नवकारसी आने के बाद) गोचरी जाये, उषा होते ही या सूर्योदय होते ही न जाय। 11. जब तक जंघाबल हो तब तक गोचरी जाने रुप वीर्याचार का उल्लंघन नहीं करें। 12. तरुण-युवा साधु अन्य गाँव, मोहल्लादि में दूर गोचरी जाये, ग्लान, वृद्ध-बाल साधु समीप में जायें। 13. ग्रीष्म ऋतु में प्रथम प्रहर पूर्ण होने पर जल पीकर गोचरी हेतु जाये। 14. राजादि के घर गोचरी न जाये। गृहस्थ के घरों में भी उनके धन माल रखने के स्थान, अंत:पुर (बेडरुम) आदि में न जाये। 15. वेश्या की गली से या जहाँ प्राणिहिंसा होती हो या जहाँ महाव्रतों का घात होने की, आत्म-विराधना या संयम-विराधना की संभावना हो, एसे स्थान पर मुनि न जाये। 16. जहाँ श्वान-बैलादि आपस में लडते हों, जहाँ कलह, युद्ध आदि हो, जहाँ अन्य लोग जैन साधु का अपमान, हीलना, अप्रीति या उपद्रव करते हों वहाँ न जाये। ____17. गृहस्थ के घर के दरवाजे पर कांटादि लगे हो, कुत्तादि हिंसक पशु बैठे हों, द्वार अंदर से बंद हो वहाँ साधु गोचरी हेतु न जाय (गृहस्थ कांटादि दूर करें या दरवाजा खोले तो जा सकते हैं।) 18. गृहस्थ के घर अकेली श्राविका हो वहाँ साधु को अकेले खडे भी नहीं रहना चाहिए। गोचरी ग्रहण करने की विधि : मुनि गोचरी योग्य समय होने पर गुर्वाज्ञा प्राप्त कर सहवर्ती आचार्य-उपाध्याय-तपस्वी ग्लान-वृद्ध-शैक्ष-बाल मुनि आदि को गोचरी में उन्हें क्या आवश्यकता है? यह पूछकर पात्रादि लेकर नीच कुल (हिंसकादि के घर) को छोडकर उत्तम, मध्यम गाथापति/गृहस्थ के घरों में क्रम या अक्रम से गोचरी हेतु जाकर, वहाँ जो आहारादि सामने दिखे और उसमें से गृहस्थ अपनी इच्छा से जो आहारादि अर्पित करें, उसे 42 दोष टालकर(दोष टालने के प्रयत्नपूर्वक) उस प्रकार से ग्रहण करें जिससे आचार्यादि या बाल ग्लानादि को बाधा न हो, आत्मविराधना, संयमविराधना, प्रवचन उड्डाह या प्रवचनलघुता न हो। गृहस्थ को प्रद्वेष, क्लेश, अभावादि न हो, और क्षुधा का शमन हो। यदि एक बार में पर्याप्त आहार की प्राप्ति न हो तो मुनि एक से अधिक बार भी गृहस्थ के घर आहारादि प्राप्त करने हेतु जा सकते हैं। वर्षाकाल में पानी बरसता हो तब गोचरी जाना निषिद्ध है, परन्तु यदि बाल-वृद्धादि मुनि क्षुधा से त्रस्त होते हों तो बूंद-बूंद वर्षा में कामली ओढकर निकटवर्ती घरों में जा सकते हैं (यह अपवाद विधि स्थविरकल्पी मुनि के लिए हैं)। गोचरी हेतु गये हुए मुनि आहार ग्रहण करते समय अभक्ष्य, बासी, चलितरस, जीवयुक्त, दूषित आहार ग्रहण न करें। जिस से ज्ञानदर्शन-चारित्र की पुष्टि न होती हो, जो विकार उत्पन्न करे वैसा आहार मुनि के लिए त्याज्य हैं। गोचरी ग्रहण करने के पश्चात् मुनि अपनी वसति/उपाश्रय में आकर गुरु भगवंत के पास गोचरी में लगे दोषों की आलोचना करे; गुरुदेव को गोचरी समर्पित करे एवं गुर्वादि तथा सहवर्ती मुनिमण्डल के साथ मण्डली में बैठकर गोचरी (आहार) ग्रहण करें। प्रथम प्रहर में लाया 1. 2. 3. अ.रा.पृ. 3/967, आवश्यक चूणि-4 अध्ययन अ.रा.पृ. 3/968-1004 अ.रा.भा. 3 'गोयरचरिया' शब्द, पृ. 968-1004 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [249] हुआ आहार तृतीय प्रहरान्त तक समाप्त करे; इससे अधिक न रखें । यदि ख. पात्र संबंधी - तुम्बी, काष्ठ या मिट्टी के पात्र, घडे आदि । उपयोग न कर सके तो मिट्टी, राख, रेती आदि में मिलाकर प्रतिष्ठापित आधाकर्म आहार ग्रहण करने से हानि :कर दे (परठ दे/त्याग कर देवें)। इसी प्रकार प्रदत्त भोजन साढे सात आधा-कर्मी दोष से दूषित आहार ग्रहण करने से साधुकि.मी. से अधिक न ले जाये तथा रात्रि में लेप-अलेप (शुष्क) किसी साध्वी संयम से पतित होते हैं, जिनाज्ञा का भङ्ग होता है, अनर्थ की भी प्रकार का आहार अपने पास न रखे। (दवाई आदि भी धर्मलाभ परंपरा बढती है।, आधाकर्मी आहार स्निग्ध और स्वादिष्ट होने से देकर न रखे) । मुनि को गोचरी में 42 दोष रहित आहार ग्रहण करने की अधिक वापरने से रोगोत्पत्ति होती हैं, रोगादि कारण से सूत्र-अर्थ का विधि होने से आगे प्रसङ्गतः आहारग्रहण के 42 एवं आहार करने के स्वाध्याय नहीं होने से विस्मरण होने पर ज्ञान विराधना, शरीर-विह्वलता दोष, इस प्रकार कुल 47 दोषों का वर्णन किया जा रहा है। से चारित्र में श्रद्धा की हानि होने से दर्शन विराधना, प्रत्युप्रेक्षणादि के 16 उद्गम दोष : अभाव से चारित्र का नाश होने से ज्ञान-दर्शन-चारित्ररुप संयमी आत्मा शुद्ध आहारादि तैयार करते समय गृहस्थ के द्वारा साधु के की विराधना होती है। रोग-चिकित्सा में षड्जीवनिकाय विराधना और लिए आहार तैयार करने में जो दोष लगते हैं, वे उद्गम दोष कहलाते वैयावच्ची साधु को सूत्रार्थ की हानि होने से संयम विराधना और रोगादि हैं। एसा दोष 16 हैं- . कारण से लोक-निंदा दोष उत्पन्न होने से बिना कारण आधाकर्मी आहार 'आहाकम्मुद्देसिय, पुइकम्मे य मीसजाए य। त्याज्य हैं। आठों कर्मों का बंधन होता है और अनेक भवों तक संसार ठवणा पाहुडियाए, पाऊपरकीय पामिच्चे ॥ भ्रमण की वृद्धि होती हैं।15 परियट्टिए अभिहडे, अभिन्ने मालाहडे य । 2. औद्देशिक दोष :अच्छिज्जे अणिसिटे, अज्झोयरए य सोलसमे ॥"6 साधु का आगमन सुनकर या दुर्भिक्ष आदि कारण से प्रथम से ये सोलह दोष 'उद्गमदोष' कहलाते हैं, जो आहारादि देने तैयार किये हुए आहारादि को साधु-साध्वी के लिए गुड, शक्कर, दही वाले गृहस्थों से लगते हैं, अतः इन्हें अवश्य यलना चाहिए। इनका आदि से स्वादिष्ट करना ।16 औद्देशिक दोष दो प्रकार का है।7 - विवरण निम्न प्रकार से हैं (1) ओध/सामान्य - आहार बनाते समय ही साधु-साध्वी के 1.आधाकर्म दोष : निमित्त से उसे स्वादिष्ट करना। साधु-साध्वी के लिए गृहस्थ के द्वारा षड्जीवनिकाय की (2) विभाग - बने हुए आहार में से अपने लिए आहार अलग विराधना (हिंसा) पूर्वक आहार को अचित्त करके या अचित्त आहार को रखना और साधु-साध्वी के लिए अलग आहार निकालकर उसे पकाकर देना 'आधाकर्म दोष' है। आधा कर्म, अध:कर्म, अहाकर्म, गुडादि से स्वादिष्ट करना 'विभाग औद्देशिक दोष' हैं। आयाहम्म और अत्तकर्म - ये आधाकर्म के पर्यायवाची शब्द हैं। औदेशिक आहार ग्रहण करने से स्थापना, वनीपक, संखडी आधाकर्म अर्थात् साधु-साध्वी के निमित्त से किया गया। इत्यादि आहार दोष लगने की भी संभावना रहती है। अत: मुनि को यह दोष साधु को अधोगति योग्य बंधन कराता है अतः उसे 'अधः औद्देशिक आहार त्याग करना चाहिए।18 कर्म' कहते हैं; उससे जीव हिंसादि आस्रव-प्रवृत्ति होने से आत्मा अपवाद - औद्देशिक आहार दूषित है तथापि अपवादिक परिस्थितियों को दुर्गति प्राप्त कराने के कारण उसे 'अहाकर्म' कहते हैं; पाचनादि में यह ग्राह्य भी है- यह बताते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि "आचार्यादि के पदवीदान (अभिषेक-पाटोत्सव) के प्रसङ्ग क्रिया के कारण ज्ञानावरणीय कर्मबंधन के कारण 'आयाहम्म' कहते में, साधु के बीमार होने पर अथवा अरण्य में, विकट रास्तों में या विकट हैं और आत्मा के द्वारा तत्संबंधी क्रिया होने के कारण इसे 'आत्मकर्म' कहते हैं। 4. अ.रा.भा. 3 'गोयरचरिया' शब्द, पृ. 968-1004 आधाकर्म के भेद - मुनि के जीवन में निम्न विषयों में आधाकर्म अ.रा.पृ. 2/720, 7/725 6. दोष की संभावना हो सकती है अ.रा.पृ. 2/721, पिण्ड नियुक्ति-९२, ९३ 7. अ.रा.पृ. 2/243-44 गच्छाचार पयन्ना 1/21 की टीका; स्थानांग-3/4, 1. वसति संबंधि आधाकर्म - साधु के निमित्त बनाया गया पञ्चाशक-13/7 पर टीका; दशाश्रुत स्कंध-अध्ययन-2; व्यवहार सूत्र वृत्तिउपाश्रय मण्डप आदि। 3/164 पर टीका; दर्शन शुद्धि सटीक-4/6 पर टीका आहार संबंधी आधाकर्म - साधु के निमित्त निम्नांकित चारों अ.रा.पृ. 1/589, अ.रा.पृ. 2/244, 248, 249%; बृहत्कल्पवृत्ति सभाज्यप्रकार का आहार निष्पन्न करना - 'आधा कर्म' दोष है 4/456 की टीका (1) अशन - चावल, गेहूँ आदि से निर्मित पका हुआ आहार अ.रा.पृ. 2/256; या घी, खीर आदि। 10. अ.रा.पृ. 2/256, पिड नियुक्ति-160, 161 (2) पान - सभी प्रकार के प्रासुक जल और उबला हुआ 11. अ.रा.पृ. 2/257; निशीथ चूर्णि, 10 वाँ उद्देश अचित्त जल। 12. अ.रा.पृ. 2/256 13. (3) खादिम - नारियल, आम, चीकू आदि तथा पुष्पादि। अ.रा.प्र. 2/260,2613; 14. पिण्डनियुक्ति पराग-पृ. 74, 75 (4) स्वादिम - सौंठ, इलायची, लौंग आदि। 15. अ.रा.पृ. 2/266; 3. उपधि संबंधी आधाकर्म - यह दो प्रकार का हैl - 16. अ.रा.पृ. 2/845% क. वस्त्र संबंधी - कपास, ऊन, शण, पत्ते आदि के वस्त्र, आसन, 17. अ.रा.पृ. 2/848%B संथारिया आदि। 18. अ.रा.पृ. 2/848-849%; 5. 8. 9. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [250]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिस्थितियों में शुद्ध आहार प्राप्त नहीं होने पर साधु के द्वारा आधाकर्मी साधु के निमित्त से 1. पूर्व का विवाहादि बाद में करना 2. या औद्देशिक आहार भी ग्रहण किया जा सकता है।" बाद में होने वाले विवाहादि पहले करने से यह दोष दो प्रकार से हैं। 3. पूतिकर्म दोष : तथा गृहस्थ के द्वारा यह दोष 1. प्रकट और 2. अप्रकट रखने से भी दो प्रकार से है28____ पवित्र (शुद्ध) आहारादि में अशुद्ध/आधाकर्मादि दोष से दूषित आहारादि मिलाना या शुद्ध आहारादि को आधाकर्म दोषयुक्त करना 7. प्रादुष्कर दोष :'पूतिकर्म दोष' कहलाता हैं।20 द्रव्य और भाव से पूतिकर्म दोष दो गृहस्थ के द्वारा अँधेरे में रखी हुई आहार सामग्री मणिरत्न, प्रकार का है। अग्नि, बिजली आदि या दीपक/बेट्री आदि का प्रकाश करके खोजकर यह द्रव्य से 'छगण धार्मिक' अर्थात् दुग्धादि विषयक एवं साधु को देना 'प्रादुष्करण दोष' हैं।29 भावपूर्वक सूक्ष्म-बादर द्रव्य की शुद्ध आहार में पूर्ति करना भाव पूतिकर्म 8. क्रीत दोष :कहलाता हैं। गृहस्थ या साधु के द्वारा गृहस्थ से, बाजार से या ग्रामान्तर से पूतिकर्म दुष्ट आहारादि के ग्राह्याग्राह्य विषयक वर्णन करते हुए कोई वस्तु खरीदकर लाकर साधु को देना 'क्रीत दोष' हैं। यह दोष द्रव्य आचार्यश्री ने कहा है कि, "साधु पूतिकर्म दोष दुष्ट आहारादि तीन दिन से और भाव से दो प्रकार से हैं और वे दोनों भी आत्मक्रीत और परक्रीत बाद ग्रहण कर सकते हैं।''22 के भेद से दो-दो प्रकार से हैं। 4.मिश्रजात दोष : 9. प्रामित्यक दोष :गृहस्थ और साधु-साध्वी दोनों के लिए प्रथम ही धारणा गृहस्थ के द्वारा दूसरों के यहाँ से उधार लाकर साधु-साध्वी करके आहारादि बनाना 'मिश्रजात दोष' कहलाता है। यह तीन प्रकार को आहारादि प्रदान करना 'प्रामित्यक दोष' कहलाता है। यह दोष से है24 - लौकिक और लोकोत्तर भेद से दो प्रकार का है।। (1) यावदर्थिक - गृहस्थ और भिक्षाचरों के लिए लौकिक रुप से गृहस्थ के द्वारा साधु निमित्त उधार लाने पर (2) पाखण्डिमिश्र - गृहस्थ और पाखण्डी (अन्यदर्शनी संन्यासी वस्तुदाता के द्वारा उसका द्रव्य मांगने पर क्लेश होता है, उधार लाकर देने वाला गृहस्थ दरिद्र होने पर कर्ज में फंसकर कभी-कभी बंधुआ आदि) के लिए। मजदूर जैसी स्थिति में आ जाता हैं। लोकोत्तर रुप से साधु के द्वारा (3) साधुमिश्र - गृहस्थ और साधु-साध्वी के लिए। गृहस्थ से सीधा ही वस्त्रादि उधार ग्रहण करने पर क्लेश, राग, उपधि जैन साधु के लिए इन तीनों प्रकार के मिश्रजात दुष्ट आहार की वृद्धि, प्रमाद एवं संयम में दोष लगता हैं। अतः दोनों प्रकार का ग्रहण करने का निषेध हैं। 'प्रामित्यक दोष' त्याज्य हैं। 5.स्थापना दोष : 10. परावर्तित दोषः :गृहस्थ के द्वारा साधु-साध्वी को देने के लिए खीर, दूध, अपने पास रहे हुए धान्य, शस्त्र आदि को दूसरों से परिवर्तित दहीं, भोजनादि अलग बर्तन में रखने पर 'स्थापना दोष' उत्पन्न होता कर (बदले में दूसरी वस्तु लेकर) साधु-साध्वी को देना, 'परावर्तित हैं।25 यह दो प्रकार का हैं-6- (1) स्वस्थान (गृहस्थ के स्वयं के घर) दोष' हैं। यह दोष लौकिक-लोकोत्तर भेद से दो प्रकार से हैं। तथा उसी संबंधी, और (2) परस्थान (अन्य के घर) संबंधी। इन दोनों के अनंतर द्रव्य के और अन्य द्रव्य के परावर्तन के भेद से वह एक-एक भेद दोऔर परंपर एसे दो-दो प्रभेद हैं दो प्रकार से हैं। उदाहरण - जैसे (1) चावल के बदले चावल लेना (2) (क) अनंतर - स्थापित द्रव्य उसी रुप में रहने पर - जैसे दूध का कोद्रव के बदले चावल लेना। दूध रुप में रहना। परावर्तित दोषयुक्त आहारादि ग्रहण करने पर साधु के निमित्त (ख) परंपर-स्थापित द्रव्य को अन्य रुप में परिवर्तित करके रखना। 19. अ.रा.पृ. 2/849%; दूध को दही, घी आदि रुप में 20. अ.रा.पृ. 5/1069, दशवैकालिक-5/1, पञ्चाशक-विवरण-1/11, परिवर्तित करके रखना। उत्तराध्ययन-अध्ययन-24 स्वस्थान स्थापना दोष भी स्थान और भाजन के भेद से अ.रा.पृ. 5/1069; पिंड नियुक्ति-243 प्रत्येक के दो-दो प्रकार का हैं। इन सभी प्रकार से स्थापना दोष से 22. अ.रा.पृ. 5/1072 दूषित आहार साधु के लिए त्याज्य हैं। 23. अ.रा.पृ. 6/303 6. प्राभृतिका दोष : 24. अ.रा.पृ. 6/303, 304; पिंड नियुक्ति-271 साधु-साध्वी को भी विवाह या करियावर के मिठाई प्रमुख 25. अ.रा.पृ. 4/1682-83 26. अ.रा.पृ. 4/1683 प्रदान करने में उपयोग में आयेगा - एसी भावना से साधु-साध्वी के 27. अ.रा.पृ. 5/914 नगर में उपस्थित होने के समय साधु-साध्वी को विवाहादि के मीठाई वही पृ. 5/915 प्रमुख देने के निमित्त से पहले या बाद में होने वाले विवाह, करियावर *29. अ.रा.पृ. 5/816,817 आदि का उस समय अवसर न होने पर भी विवाहादि करने पर उस 30. अ.रा.पृ. 3/563 विवाहादि के मिठाई प्रमुख ग्रहण करने में साधु को 'प्राभूतिका दोष' 31. अ.रा.पृ. 5/853 लगता हैं। 32. अ.रा.पृ. 5/853 से 855 33. अ.रा.पृ. 5/627, आचारांग-2/1/1/8 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [251] से गृहस्थ में क्लेश, मारपीट आदि की संभावना होने से इस दोष से दुष्ट 14. आच्छेद्य दोष:आहार साधु के लिए त्याज्य हैं। साधु-साध्वी के लिए किसी अन्य के स्वामित्व की वस्तु 11. अभ्याहृत दोष : उनसे छीनकर लाई हुई या चोरी करके लाई हुई वस्तु साधु-साध्वी के साधु-साध्वी के लिए अन्य स्थानादि से सामने लाकर या द्वारा ग्रहण करने पर आच्छेद्य दोष लगता है। आच्छेद्य दोष तीन प्रकार उनके स्थान पर लाकर उन्हें आहारादि देना 'अभ्याहत दोष' है। का है। अभ्याहृत दोष दो प्रकार का हैं 1. प्रभु संबंधी - गृहनायक के द्वारा अपनी पत्नी, पुत्रादि, भाई, 1. आचीर्ण- जो अभ्याहृत आहार कारण होने पर ग्राह्य है, उसे नौकर,दास-दासी, गोपालादि से छीनकर या 'आचीर्ण अभ्याहृत' हैं। कारण विशेष उपस्थित होने उनके अधिकार की वस्तु (आहारादि) उन्हें पर जघन्य से उपाश्रय या वसति (साधु का निवास) बिना पूछे साध्वादि को देना। से तीन घर तक से, उत्कृष्ट से 100 हाथ प्रमाण दूरी से 2. स्वामी संबंधी- ग्रामनायक (सरपंच, मुखिया आदि) के द्वारा और मध्यम उतनी दूरी के बीच के स्थान से यदि गाँव के दरिद्रादि परिवार या अन्य से आहारादि श्रावक आहारादि लाकर मुनि को प्रदान करें तो वह छीनकर साध्वादि को देना। आचीर्ण/ग्रहण कर सकते हैं, क्योंकि उतने मार्ग में 3.चोर संबंधी - चोर के द्वारा दूसरों से छीनी गई, चोरी की हुई पैदल चलकर आने से एवं स्थान निकट होने से वस्तु साध्वादि को देना। श्रावक उपयोग पूर्वक चल सकने के कारण जयणा इस दोष के सेवन से साधु के प्रति अप्रीति, क्लेश, मानसिक हो सकती हैं।35 तनाव, रुदन तथा साधु को उपसर्ग होने की संभावना रहती हैं। 2.अनाचीर्ण-जो अभ्याहृत आहारादि ग्रहण करने योग्य नहीं है, उसे 'अनाचीर्ण अभ्याहृत' कहते हैं।36 15. अनिःसृष्ट दोष :मुनि स्वक्षेत्र (अपने स्थान) में, पाँव नहीं होने पर या जिस वस्तु पर पूरी मण्डली का स्वामित्व है- एसे आहारादि पाँव से चलने में असमर्थ होने पर, गोचरी जाने पर को श्रावक के द्वारा मण्डली की अनुमति बिना या आहारादि के स्वामी भी आहार दुर्लभ होने पर, उपद्रव होने पर, गोचरी की आज्ञा के बिना साधु-साध्वी को देने पर साध्वादि को 'अनिःसृष्ट जाने में असमर्थ होने पर, पैदल रास्ता न होने पर, दोष' लगता है। रास्ते में उपद्रव की संभावना होने पर, दुर्भिक्ष होने यह अनिःसृष्ट दोष मोदक (लड्ड विषयक, भोजन विषयक, पर, राजादि दुष्ट होने के कारण उपद्रव की शंका होने । कोल्हू आदि यंत्र (प्राणक) विषयक, संखडी (विवाहादि) विषयक, पर, स्वयं रोगाविष्ट होने पर, नवदीक्षित साधु या साथ खी/दूध विषयक आदि अनेक प्रकार से है। वाले वृद्ध, रोगी आदि साधु आहारादि के बिना पीडित इससे लोगों को साधु के प्रति अप्रीति, प्रवचन-उड्डाह, होने पर अभ्याहृत (सामने लाया हुआ) आहार ग्रहण क्लेश, साधु के प्रति आक्रोश, प्राणांत संकट, दाता की आजीविका करने में यतनापूर्वक वर्तता हैं। विच्छेद इत्यादि की संभावना होने से अनिःसृष्ट पिण्डादि मुनि 12. उद्भिन्न दोष : के लिए त्याज्य हैं। साधु-साध्वी को घी, तेल, लड्डू, आहारादि प्रदान करने के 16. अध्यवपूरक दोष :लिए मिट्टी आदि से बंद किये गए घडे, कोठी आदि के मुख पर से __साधु-साध्वी का आगमन सुनकर या जानकर स्वयं के लिए मिट्टी वगैरह हटाना या कपाट या ताला आदि खोलकर आहारादि देने पर बन रही रसोई (आहारादि) में साधु-साध्वी को प्रदान करने की बुद्धि 'उद्भिन्न दोष' लगता हैं। मिट्टी आदि हटाने पर या हटाकर पुनः लिपकर से भोजनादि सामग्री बढाना अध्यवपूरक दोष हैं। यह जल, चावलादि बंद करने पर या तालादि खोलने पर षड्निकाय जीवों की हिंसा की तथा फल, फूल, शाक-शब्जी, बेसन, नमक आदि भेद से अनेक संभावना होने से यह एसा आहार त्याज्य हैं। प्रकार से हैं। 13. मालापहृत दोष :मेढी (ऊपरी मंजिल) छींका, तान या तलघरादि से आहारादि 34. अ.रा.पृ. 1/730, पञ्चाशक-13 विवरण लाकर साधु-साध्वी को प्रदान करने पर 'मालोपहत दोष' लगता हैं। 35. अ.रा.पृ. 1/731-32-33 यह दो प्रकार से हैं। 36. अ.रा.पृ. 1/730 (1) जघन्य से पाँव ऊँचा करके या पटिया, चौकी आदि पर 37. अ.रा.पृ. 5/733; निशीथ चूर्णि-11720 पर टीका चढकर आहारादि उतारना 38. अ.रा.पृ. 2/867, पञ्चाशक-13 विवरण (2) उत्कृष्ट से - निसरणी द्वारा ऊपरी मंजिल से आहारादि लाना। 39. अ.रा.पृ. 5/257 से 260 जघन्य से मालापहृत आहार लाने में सर्पदंशादि तथा उत्कृष्ट 40. अ.रा.1/197, 198 से निसरणी आदि से गिरने की संभावना होने से प्राणघात तथा पृथ्वीकायादि 41. अ.रा.पृ. 1/336 जीवों की हिंसा की संभावना होने से मालापहृत दोषदुष्ट आहार साधु के 42. अ.रा.पृ. 1/336 लिए त्याज्य हैं। 43. अ.रा.पृ. 1/337, 338 44. अ.रा.पृ. 1/233-234 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [252]... चतुर्थ परिच्छेद इन सोलह दोषों को उद्गम दोष कहते हैं, जो आहारादि देने वाले गृहस्थों से होते हैं। आहारादि ग्रहण करते समय साधु-साध्वी को ये दोष अवश्य टालने चाहिए। सोलह उत्पादना दोष's : : " "धाई दूइ निमित्ते, आजीव वणीमगे विगिच्छिा य । कोहे माणे माया, लोभे य हवंति दस एए ॥ पुपिच्छासंथव, विज्जा मंते य चुन्न जोगे य । अप्पाणाइ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य ॥" ये सोलह दोष साधु-साध्वी के द्वारा आहार लेने संबंधी हैं, अतः इन्हें 'उत्पादना दोष' कहते हैं। 1. धात्री पिण्ड दोष- साधु-साध्वी के द्वारा गृहस्थ के बालकों को दूध पिलाना, स्नान कराना, श्रृंगार कराना, खिलाना, गोद में बैठाना - इत्यादि कार्य करके आहारादि ग्रहण करना 'धात्री पिण्ड दोष' कहलाता है। इससे मुनि के प्रति गृहस्थ को राग, प्रद्वेष एवं लोक में मुनि के चारित्र में शङ्का, अवर्णवाद, उड्डाह, प्रवचन मालिन्यादि होता हैं।46 2. दूती पिण्ड दोष मुनि के द्वारा एक गाँव से दूसरे गाँव या उसी गाँव मेंदूत या दूती की तरह प्रकट या गुप्त समाचार कह करके आहारादि वस्तु ग्रहण करना दूती पिण्ड दोष' कहलाता हैं। 47 इससे परस्पर वैर, साधु के ऊपर द्वेष और प्रवचनमालिन्य होता हैं। - 3. निमित्त पिण्ड दोष भौम, उत्पात, स्वप्न, आन्तरिक्ष, अङ्गस्फुरण, स्वर, लक्षण, व्यञ्जन इन आठ निमित्त शास्त्रों के आधार से भूतभविष्य या वर्तमान संबंधी लाभ - अलाभ, सुख-दुःख या जीवितमरण इत्यादि फल बताकर आहारादि वस्तु ग्रहण करना 'निमित्त पिण्ड 'दोष' हैं। इससे शंका, प्रद्वेष, जीव हिंसा, मिथ्यात्व आज्ञा विराधना इत्यादि होता है, अतः साधु को निमित्तफल नहीं बताना 148 4. आजीव पिण्ड दोष मुनि के द्वारा अपने जाति, कुल, गण, कर्म, शिल्प, तप, श्रुत आदि का उत्कर्ष दिखाकर या उनको प्रकट कर आहारादि ग्रहण किया जाना 'आजीव पिण्ड दोष' हैं। इससे दाता को मुनि के प्रति राग-द्वेष होता है। अन्य मुनियों को आहारादि दुर्लभ होने की भी संभावना रहती हैं। 49 - अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 8. मान पिण्ड दोष • मुनि के द्वारा साधुओं के समक्ष अभिमान पूर्वक 'मैं लब्धिवाला हूँ। मैं अमुक गृहस्थ के घर से आप सबको सर आहार लाकर देऊँ तब मुझे लब्धिधारी जानना।' -एसी प्रतिज्ञा करके गृहस्थ को पीडा पहुँचाकर आहार ग्रहण करना 'मान पिण्ड दोष' कहलाता हैं 54 इससे गृहस्थो में आपस में प्रद्वेष और क्लेश के कारण यदि स्त्री आत्मविपत्ति (आत्महत्या) करे तो प्रवचन उड्डाह (शासन निंदा) होता हैं 155 अतः मान पिण्ड त्याज्य हैं। - - 5. वनीपक पिण्ड दोष मुनि के द्वारा अपनी दीनता या गरीबी दिखलाकर या अन्य धर्मी के समक्ष मैं तुम्हारे साधुओं का भक्त हूँ - एसा कहकर उनके ब्राह्मणादि भक्तों से आहारादि वस्तु के लिए याचना करना 'वनीपक पिण्ड दोष' कहलाता हैं। इससे साधु के प्रति राग, प्रद्वेष, मिथ्यात्व की प्रशंसा, मिथ्या धर्म स्थिरता, सम्यक्त्व में अतिचार इत्यादि दोष उत्पन्न होते हैं 150 6. चिकित्सा पिण्ड दोष मुनि के द्वारा गृहस्थ को विविध प्रकार की औषधि बताकर अथवा रोगादि का उपाय बता कर या चिकित्सा करके आहारादि ग्रहण करना 'चिकित्सा पिण्ड दोष' हैं 51 इससे मुनि के संयम प्राणों का नाश, पृथ्वीव्यादि जीवों का नाश, रोग बढने पर साधु की निंदा एवं प्रवचन मालिन्य होता है 152 - - 7. क्रोध पिण्ड दोष मुनि के द्वारा गृहस्थ को अपना विद्या प्रभाव, तपः प्रभाव, राजमान्यता ज्ञात करवाकर अथवा शाप देकर, डराकर आहार ग्रहण करना 'क्रोध पिण्ड दोष' हैं 153 इससे मिथ्यात्व और धर्मविराधना होती हैं। - 9. माया पिण्ड दोष मुनि के द्वारा माया कपटपूर्वक अलग-अलग वेश तथा भाषा बदलकर आहारादि वस्तु ग्रहण करना 'माया पिण्ड' कहलाता हैं । कषायों से मुक्त होने हेतु यद्यपि मुनि के लिए माया पिण्ड का निषेध है तथापि विशेष परिस्थितियों में ग्लान, तपस्वी, अन्य स्थान विहार करके आये हुए मुनि, स्थविर (वृद्ध) या संघ के विशेष कार्य • अपवाद मार्ग से मुनि माया पिण्ड दोषयुक्त आहार ग्रहण भी कर सकते हैं 156 10. लोभ पिण्ड दोष उत्तम भोजनादि मिलने की लालसा से गृहस्थों के घर, दुकान आदि में घूमते रहना 'लोभ पिण्ड दोष' हैं। इससे चित्त भ्रम, अति लोभ, आहार लालसा, समय का अपव्यय और शासननिन्दा की संभावना होने से दूषिताहार त्यज्य है। 57 11. पूर्वपश्चात्संस्तव दोष- गृहस्थ के माता-पिता सास-ससुर इत्यादि की प्रशंसा कर या उनसे अपना संबंध या परिचय बताकर आहारादि ग्रहण करना 'पूर्वपश्चात्संस्तव दोष' हैं 8 मुनि को गृहस्थ का विनय, प्रशंसादि करना निषिद्ध है। अतः संस्तवदूषिताहार त्याज्य हैं। 59 12. विद्या पिण्ड दोष देवताष्ठित विद्या के बल से या गृहस्थ को विद्या सिखाकर या उसकी साधना बताकर या व्याख्यान के बदले में आहार ग्रहण करना 'विद्या पिण्ड दोष' हैं। 60 इससे प्रद्वेष, स्तम्भन, उच्चाटन, मारण, लोक जुगुप्सा, राजभय इत्यादि की संभावना होने से विद्या पिण्ड दोष से दुष्ट आहार त्याज्य हैं । 61 45. 46. 47. 48. 49. 50. 51. अ.रा. पृ. 2/864 पिण्डनिर्युक्ति-408, 409 अ.रा. पृ. 4/2739 अ.रा. पृ. 4/2740-41 अ.रा.पू. 4/2082-83; आचारांग 2 // 1 /9; निशीथ चूर्णि - 13 वाँ उद्देश, गाथा 142 से 147 अ. रा. पृ. 2 /116 अ. रा. पृ. 2/ 114-15 अ. रा. पृ. 6/816-17 अ.रा. पृ. 4/2237-38-39 अ. रा. पृ. 3/686 अ. रा. पृ. 6/240 अ. रा.पू. 6/242; पिण्ड निर्युक्ति- 473 52. 53. 54. 55. 56. अ. रा. पृ. 6/253 57. अ. रा. पृ. 6/253 58. अ. रा. पृ. 6/753, 754 59. अ. रा. पृ. 5/1065 60. अ.रा.पु. 6/1148 61. अ.रा. पृ. 6/1145, 1148 17 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [253] 13. मंत्र पिण्ड दोष- भिक्षा प्राप्त करने के लिए मुनि के द्वारा नाना प्रकार के मंत्र, तंत्र और उसके साधन की विधि बतायी जाना। इससे उपरोक्त सभी भयों की संभावना होने से मंत्र पिण्ड निषिद्ध है परन्तु शासन प्रभावना के या श्री संघ के विशिष्ट प्रसङ्ग या कार्य हेतु मंत्र प्रयोग किये जाते हैं। 62 14.चूर्ण पिण्ड दोष - मुनि के द्वारा वशीकरण, मारण, उच्चाटन, कार्मण आदि के चूर्ण या उनकी विधि बताकर या अञ्जन आदि के । प्रयोगपूर्वक आहारादि ग्रहण करना । राजभय, लोक निंदा, शासन उडाहादि उपस्थित होने की संभावना होने से चूर्णपिण्ड निषिद्ध हैं।63 15. योग पिण्ड दोष - वशीकरण, सौभाग्य या दुर्भाग्यकारक शरीर लेप, पादलेप, नेत्राञ्जन या तिलक आदि के प्रयोग एवं उनको तैयार करने का उपाय बताकर या सिखाकर आहारादि लेना 'योग पिण्ड दोष' हैं। सामान्यतया निषेध होने पर भी 'असिव' आदि प्रसङ्गो की उपस्थिति में योगपिण्ड ग्रहण करने में दोष नहीं हैं।66 16. मूलकर्म पिण्ड दोष - गर्भपात, गर्भस्तम्भन, गर्भप्रसव, क्षतयोनिकरण, अक्षतयोनिकरण, रक्षाबंधन आदि के उपाय बता या सिखाकर आहारादि ग्रहण करना 'मूलकर्म पिण्ड दोष' कहलाता है। इससे जीव हिंसा, मैथुन संततिः (मैथुन परंपरा), प्रवचन मालिन्य आत्म विनाश, यावज्जीव भोगान्तराय इत्यादि दोष उत्पन्न होते हैं अतः मुनि के लिए मूलकर्म एवं मूलकर्म पिण्ड दोष से दूषित आहार सर्वथा निषिद्ध हैं। आहार ग्रहण करते समय साधु-साध्वी को इन दोषों को टालने में अवश्य सावधानी रखनी चाहिए। दस एषणा दोष : निम्नांकित दस दोष आहार ग्रहण करते समय साधु और गृहस्थ दोनों के संयोग से लगते हैं, अतः इन्हें टालने में पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। संकियमक्खियनिक्खित्ते,पिहिय साहरियदायगुम्मीसे । अपरियण लित्त ड्डिय, एसण दोसा दस हवन्ति ।। - पिण्ड नियुक्ति 520 1.शंकित दोष - आधाकर्मादि 16 और प्रक्षिप्तादि 9 इस प्रकार कुल 25 दोषों से दूषित होने की शंका सहित आहार ग्रहण करना 'शंकित दोष' है। मुनि को कभी भी शंकित होकर आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि शुद्धाहार भी शंकित दोष से अशुद्ध हो जाता है और निःशंकित होने पर अशुद्ध भी शुद्धाहार माना जाता हैं।68 (श्रुतज्ञान का उपयोग होने से श्रुत के प्रामाण्य से)। श्रुतज्ञानी छद्मस्थ साधु श्रुतज्ञान से जिस आहार को शुद्ध जानकर ग्रहण करे, वह आहार केवलज्ञानी की द्रष्टिमें अशुद्ध होने पर भी वे वापरते हैं क्योंकि यदि केवलज्ञानी न वापरे तो श्रुतज्ञान में अविश्वास उत्पन्न होता है, श्रुतज्ञान अप्रमाण होने से समस्त क्रिया निष्फल होती हैं। क्योंकि छद्मस्थ जीव को श्रुतज्ञान के बिना यथायोग्य सावधनिरवद्य, पाप-अपाप, विधि-निषेध आदि क्रिया का ज्ञान नहीं हो सकता। (श्रुतज्ञान अप्रमाण होने से चारित्र का अभाव और उससे मोक्ष का अभाव होता है। मोक्ष का अभाव होने से दीक्षा की समस्त प्रवृत्ति नष्ट होती है क्योंकी दीक्षा का मोक्ष के अलावा अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। 2.प्रक्षिप्त दोष - सचित पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय या माँस, वसा. खन, मदिरा आदि निन्दनीय पदार्थो, मूत्र, उच्चारादि से स्पृष्ट संघद्रित आहारादि ग्रहण करना 'प्रक्षिप्त दोष' हैं।70 प्रक्षिप्त दोष से दोषित आहार ग्रहण करने पर जीव हिंसा और लोक निंदा होने से प्रवचन उड्डाह होता है। अत: मुनि के लिए एसा आहार त्याज्य हैं। 3.निक्षिप्त दोष - सचित पृथ्वी (या नमक), जल, अग्नि, वनस्पति आदि पर रखे हुए अचित्त आहारादि को रखना 'निक्षिप्त दोष' हैं।2 निक्षिप्त दोष दुष्ट आहार ग्रहण करने पर सचित संघट्टन (स्पर्श) होने से जीव हिंसा होती हैं। अतः अनन्तर सचित निक्षिप्त आहार का मुनि को त्याग करना चाहिए और परम्परा सचित संघट्ट आहार को ग्रहण करने में यतनापूर्वक वर्तना चाहिए। 4.पिहित दोष - सचित पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति आदि से ढंकी हुई आहारादि वस्तु को लेना 'पिहित दोष' है। अर्थात् शुद्ध आहार भी सचित पानी या उससे भरे हुए घडे आदि से काष्ठपीठादि से, पत्थर से, लेप से या अन्य सचित पदार्थ से या जलती हुई अग्नि से अनन्तर ढंका हुआ हो तो मुनि के लिए त्याज्य है; परंपरा से हो तो जयणापूर्वक वर्तना चाहिए। 5. संहृत दोष - देने लायक पात्र में रखे हुए आहारादि को दूसरे पात्र में लेकर साधु-साध्वी को देना, 'संहृत दोष' कहलाता हैं। यदि बहुत बडे पात्र में देय आहार हो (जिसे उठाना संभव न हो) और वह सामने हो और उसमें से छोटे बर्तन में निकालकर देवें तब तो वह आहार ग्राह्य हैं, क्योंकि बडा बर्तन उठाने में आहार नीचे गिरने की, उष्ण हो तो जलने की, जीव हिंसा की संभावना है। परन्तु यदि मुनि अधिक मात्रा में न माँग ले या ज्यादा न देना पडे - एसी बुद्धि से दाता अन्य आहार को सचित्तादि में रखकर देय आहार को दूसरे पात्र में रखकर देवें तो उस आहार को ग्रहण करने में संहत दोष लगता है। इसमें अप्रीति, अभाव, पात्र में संवरण करते समय आहारादि नीचे गिरने से जीव हिंसादि दोष लगते हैं। अतः एसा आहार त्याज्य हैं। 6.दायक दोष - 1. आठ वर्ष से कम उम्र वाला बालक 2. वृद्ध 3. मत्त (नसायुक्त) 4. उन्मत (पागल) (5) कंपमान 6. ज्वर पीडित 7. नेत्रविकल (अंध या कम देखने वाला) 8. गलत् कुष्ठी 9. जूते पहना हुआ 10. बेडी वाला (कैदी) 11-12. हाथ-पैर से छिन (लूला, लँगडा) 13. नपुंसक 14. सगर्भा 15. बालवत्सा (स्तनपान कराती हुई स्त्री) 16. भोजन बनाती या करती हुई 17. दही बिलोवती हुई 18. स्फोटक कार्य 62. अ.रा.पृ. 6/1146 63. अ.रा.पृ. 6/24 64. अ.रा.पृ. 3/1196 65. अ.रा.पृ. 4/1640 66. वही, निशीथ चूर्णि-13 वाँ उद्देश 67. अ.रा.पृ. 6/338, पिण्ड नियुक्ति-5/2 68. अ.रा.पृ. 7/800, 3/54,55 69. पिण्ड नियुक्ति -524, 425 70. अ.रा.पृ. 6/37, 3/55, 56 71. अ.रा.पृ. 3/56 72. अ.रा.पृ. 4/2023 73. अ.रा.पृ. 4/2025, 3/58 74. अ.रा.पृ. 3/59, 5/940 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [254]... चतुर्थ परिच्छेद करती हुई 19. घट्टी पीसती हुई 20 तंदुलादि कूटती हुई. 21. तिलादि बाँटती हुई 22. रुई धुनती हुई 23. कपासिया निकालती हुई 24. चरखा घुमाती हुई 25 हाथ से रुई की पूनी बनाती हुई 26. षट्कायिक जीवयुक्त हाथवाली (छः काय जीवों का नाश करती हुई) 27. षट्काय जीवों को भूमि पर रखती हुई दान देनेवाली 28. पैर से उनको चांपती हुई 29. शरीर के अन्य अवयवों को उनका स्पर्श कराती हुई 30. आरंभपूर्वक छः काय जीवों का नाश करती हुई 31. दही आदि से लिप्त हाथ वाली 32. जूठे मुँहवाली 33. पेटी आदि में से निकालकर दान देती हुई 34. साधारण (बहुत होने पर भी अत्यल्प, दान देनेवाली हुई) 35. चोरी का माल (आहार) देती हुई 36. देव-देवी, अग्नि, बलि आदि के निमित्त बनाये हुए आहार में से अलग निकालकर देनेवाली 37. अपवादिक दान देनेवाली 38. हठपूर्वक दान देने वाली 39. जानते हुए भी अशुद्ध आहार देनेवाली अथवा 40 अनजान में अशुद्ध देनेवाले दाता के हाथ से आहार ग्रहण करने पर मुनि को दायक दोष लगता है।" इससे प्रवचन मालिन्य (शासन निंदा) अवर्णवाद, प्रद्वेष, जुगुप्सा, स्फोटन, रोग संक्रमण, जीव हिंसा, शंका, बन्ध आदि दोष उत्पन्न होते हैं। अतः मुनि को 'दायक दोष' से दूषित आहार का त्याग करना चाहिए 17 7. उन्मिश्र दोष मुनि को देने योग्य अचित्त, शुद्ध आहारादि वस्तु को सचित्त द्रव्य से या अशुद्ध आहार से मिश्रित करके देना 'उन्मिश्र दोष' है। 78 सचित मिश्र आहार ग्रहण करने पर जीव हिंसा होती हैं। अतः त्याज्य हैं - अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अस्वस्थता में संयम - योग की वृद्धि के लिए और शरीर टिकाने के लिए विगई (घी-दूध आदि) ले सकते हैं 182 (10) छर्दित दोष - दूध, दही, घी, व्यञ्जन, आदि स्निग्ध एवं मधुर वस्तुओं के भूमि पर छींटे डालते हुए साधु-साध्वी को आहारादि देने पर 'छर्दित दोष' उत्पन्न होता है। यह देय पदार्थ के भेद से सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद से तीन प्रकार से हैं। इनकी चतुर्भंगी गिनने पर 12 भेद एवं पृथ्वीकायादि एवं स्वस्थान- परस्थान के साथ गिनने पर 432 भेद होते हैं । 8. अपरिणत दोष- पूर्ण अचित नहीं हुआ हो (अधपका), एसा अन्नादि आहार साधु-साध्वी को वहेराना 'अपरिणत दोष' है ।" यह दो प्रकार का है 00 (i) द्रव्य अपरिणत दूध आदि द्रव्यों का पूर्णरुप दही या 'मावा' के रुप में परिणत न होना 'द्रव्य अपरिणत' हैं। (ii) भाव अपरिणत- आहारादि के समय दो साधु उपस्थित होने पर दाता के द्वारा 'मैं एक को यह आहारादि प्रदान करूंगा" - एसी भावना होने पर भी दोनों को या दूसरे को देना।- 'भाव अपरिणत' है । यह भ्रातृविषयक या स्वामीविषयक भेद से दो प्रकार का होता हैं। मुनि के द्वारा द्रव्य अपरिणत ग्रहण करने पर जीव दया का पालन नहीं होने से दोष लगता है और जीव अदत्त होने से अदत्तादान दोष लगता है, असंयम होता है। भाव अपरिणत ग्रहण करने पर कलहादि दोषों की संभावना रहेती है। अतः मुनि को अपरिणत आहारादि ग्रहण नहीं करना । (9) लिप्त दोष 1 - श्लेष्म, थूकादि अशुचि से भरे हुए अथवः सचित्तादि वस्तु से भरे हुए अथवा दूध, दहीं आदि से भरे हुए भाजन (बर्तन) या हाथ से साधु-साध्वी को आहारादि देने पर 'लिप्त दोष' लगता है। इससे पूर्वकर्म - पश्चात्कर्मादि दोष एवं आहारादि के जमीन पर छिटे गिरने पर जीव हिंसा की संभावना होने से इस दोष से दूषित आहार त्याज्य हैं। परन्तु छेवट्ठा संधयण होने से और साधुओं के उपधि, शय्या और आहार- ये तीनों शीत (ठंडा) होने से निरंतर आयंबिल करने से आहार का पाचन नहीं होने से अजीर्णादि दोष उत्पन्न होते हैं - इस कारण से साधु को छाछ आदि लेने की आज्ञा है एवं शारीरिक छर्दित दोष दुष्ट आहार ग्रहण करने पर मुनि को जीव हिंसा, आज्ञाभङ्ग, अनवस्थाप्य, मिध्यात्व, विराधनादि दोषों की प्राप्ति होती हैं। ग्रासैषणा दोष: मुनि को गवेषणा और ग्रहणणैषणापूर्वक लाये हुए आहारादि ग्रहण करते समय जो दोष लगते हैं उन्हें 'ग्रासैषणा दोष' कहते हैं। 84 ग्रासैषणा दोष पांच होते हैं, यथा 1. संयोजना दोष- स्वाद के लोभ से पूडी, दूध, दही आदि में घी, शक्कर आदि मिलाना 'संयोजना दोष' है 185 आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने "जिन जिन वस्तुओं के मिलने से भोजनादि स्वादिष्ट बने, उन-उन वस्तुओं की प्राप्ति के लिए साधु के द्वारा घूमते रहना" - इसे भी संयोजना दोष कहते हैं। 86 द्रव्य संयोजना दोष दो प्रकार से निम्नानुसार है. (1) बाह्य (2) आन्तरिक - गोचरी हेतु भ्रमण करते समय रास्ते में ही (उपाश्रय से बाहर) पुडी, दूध, दही आदि में घी, शक्करादि मिलाना। (क) पात्र में पुडला आदि से घी-शक्करादि मिलाना । (ख) आहार के कवल में चुर्णादि मिलाना । (ग) मुख में प्रथम पुडलादि खाकर ऊपर गुड आदि खाना 187 संयोजन दोष दुष्ट आहार ग्रहण करके भोजन करने पर रसगृद्धि होती है। परिणामस्वरुप लोभ और माया कपट बढने से दीर्घकालिक दुःखों की उत्पत्ति होने से यह दोष त्याज्य है । तथापि ग्लान, दीक्षित, राजपुत्र रुप साधु, नवदीक्षित हेतु संयोजना पिण्ड ग्रहण करना कल्पता वसति / उपाश्रय में आने के बाद पूडी आदि को घी, शक्करादि से मिलाकर स्वादिष्ट करना । आन्तरिक संयोजना दोष पुनः तीन प्रकार का है - 75. अ.रा. पृ. 3/59, 7/800 76. अ.रा. पृ. 4/2500, 3/60 77. अ.रा. पृ. 4/2501-2-3, 3/60 78. अ. रा. पृ. 2/878 79. अ. रा. पृ. 1/601, आचारांग-2/1/7 80. अ. रा. पृ. 1/601, 3/67 81. अ. रा. पृ. 3/67 एवं 6 / 659 साधु प्रतिक्रमण सार्थ पृ. 121 82. पिण्ड निर्युक्ति पराग- पृ. 281, 282 83. अ.रा. पृ. 3/1349, पञ्चाशक-13 विवरण 87. अ.रा. पृ. 7/120 88. वही 84. अ. रा. पृ. 3/68 85. अ. रा. पृ. 7/120 86. साधु प्रतिक्रमण सार्थ पृ. 121 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [255] है। तथा जब साधु गोचरी में आया हुआ घी अकेला उपयोग करने में में यद्यपि उपयोग (पूर्ण सावधानी) रखने पर भी संपूर्णतया निर्दोष आहार समर्थ न हो और प्रतिष्ठापित करने पर चींटी आदि के भय से जीव हिंसा की प्राप्ति प्रायः दुर्लभ होती है। एसे समय में भाव से निर्दोषाहार ग्रहण होने से बृहत्तर प्रायश्चित की संभावना हो, तब अपवाद मार्ग से पुडलादि करने की भावना से भावित मुनि असिव (उपद्रव), ओमोयरिया (क्षुधापूर्ति को घी-शक्कर से मिलाकर उपयोग करने में दोष नहीं है। न होने से खेद, आर्तध्यानादि होने की स्थिति में समभाव नहीं टिकने 2. प्रमाणातिरिक्त दोष - जितने आहार से उदरपूर्ति (क्षुधापूर्ति) हो पर), राजा (नेतादि) दुष्ट होने से, उपसर्ग करने पर, भय की स्थिति में, उससे अधिक आहार करना या धैर्य, बल, संयम और योगों को बाधा ग्लान होने पर, विकट रास्तों में, गिरिमार्ग (घाट, पहाडी रास्ते) आदि में पहुँचानेवाला बत्तीस (साधु के लिए) या अट्ठाईस (साध्वी के लिए) जब पूर्णतया शुद्धाहार की प्राप्ति न हो तब तीन भाग-शुद्ध-1 भाग कवल से अधिक आहार करना 'प्रमाणातिरिक्त दोष' हैं।" अशुद्धाहार का उपयोग करें, वह न मिले तब आधा शुद्ध-आधा 3. अंगार दोष - मुनि के द्वारा स्वादिष्ट अन्न की या उनके देने वाले अशुद्ध, वह भी न मिले तब एक भाग शुद्ध-तीन भाग अशुद्ध (दाता) की प्रशंसा करते हुए भोजन करना 'अंगार दोष' है। यह दोष राग अथवा शंकित हो तो आयंबिल या उपवास करेंअथवा वनस्पतिमिश्र रुपी अग्नि रुपी काष्ठों को जलाकर कोयले के समान कर डालता हैं। 2 आहार ग्रहण करें। इसमें भी नील-फूल (कांजी, पुष्प) आदि की 4. धूम्र दोष" - मुनि के द्वारा अनिष्ट स्वाद रहित अन्न की और दाता जयणा करें। की निंदा करते हुए भोजन करना 'धूम्र दोष' है। यह दोष दो प्रकार का इस प्रकार संपूर्ण गोचरचर्या का सार यही है कि, परमात्मा जिनेश्वर देव ने मोक्षसाधना के हेतुभूत एसे मुनि के देह को टिकाने के (1) दव्य से - सामान्य रुप से द्रव्य की निंदा करने पर यह लिए एसी पापरहित वृत्ति (आहारचर्या/गोचरी) साधुओं को दिखाई हैं। दोष अर्धदग्ध काष्ठवत् संयम को मलिन करता 89. अ.रा.पृ. 7/121, पिण्ड नियुक्ति-641 (2) भाव से 90. अ.रा.पृ. 7/121, पिण्ड नियुक्ति-640 - भाव से तीव्र द्वेषाग्नि पूर्वक निंदा करने पर जले 91. अ.रा.पृ. 5/478-79, आचारांग-2/1/1/9 हुए काष्ठ की तरह निंदारुपी धुएँ से संयम जीवन 92. अ.रा.पृ. 1/42, भगवती सूत्र-7/1 को क्लुषित करता है। 93. अ.रा.पृ. 4/2768 5. कारणाभाव दोष - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम पालन, ग्लानादि 94. अ.रा.पृ. 3/468, 469, 3/69, साधु प्रतिक्रमण सार्थ पृ. 122 के सेवा और क्षुधापूर्ति, आचार्यादि की सेवा, ईर्यासमिति की शुद्धि, 95. असिवे ओमोयरिए, रायदुद्वे भए च गेलणे । उद्दाए रोहएला, जयणा इमा संयमवृद्धि, प्राणरक्षा और स्वाध्याय-ध्यानादि - इन छ: कारणों से तत्थ कायव्व ।।551 साधु-साध्वी को भोजन करने की आवश्यकता है। उक्त कारणों के ओमं तिभागमद्वे, तिबाग आयंबिले च उत्थादी। निम्मिस्से मिस्सेया, परितणं अभाव में भोजन करने पर साधु-साध्वी को 'कारणाभाव दोष' लगता हैं ते य जा जतणा 1561 अत: कारण से भी निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए।94 - अ.रा.पृ. 1/264, 265, निशिथ चूर्णि-10 उद्देश 96. अहो जिणेहि असावज्जा, मुक्ख साहणहेउस्स, वित्ती साहूण देसिया । त आहार ग्रहण कनक कारण एवाववक:- साहु देहस्स धारणा | अभिधान राजेन्द्र कोश में आहार प्रकरण का उपसंहार करते -दशवैकालिक-5/1/92 आचार्यश्रीने निशीथचूर्णि को उद्धृत करते हुए कहा है कि "मुनि जीवन ધર્મરણ સાધુ જીવનમાં આનંદનો અનુભવ કરાવનાર – સુધા-પિપાસા આદિ કષ્ટોમાં પણ પ્રસન્નતા પ્રગટાવનાર-ત્યાગ તપમાં પણ ઉત્તરોત્તર રૂચિ વધારનાર-ગવદિ પ્રત્યે સમર્પિતભાવ કે તેઓનાં વિનયાદિ કરાવનાર-શાસ્ત્રો પ્રત્યે પણ વફાદારી પ્રગટાવનાર અને યાવત્ ઘર્મની ખાતર પ્રાણની પણ અતિ અપાવનાર જો કોઈ હોય તો તે ધર્મરાગ છે કે જેના વિના સાધુ જીવનનું એક પણ અનુષ્ઠાન રૂચિકર અને નિર્જરાકારક ચતું નથી. તેમજ જગતના જીવો પ્રત્યે મૈચાદિ ભાવો પણ પ્રગટતાં નથી. સાપેક્ષ યતિ ધર્મ એટલે નાના કુટુંબમાંથી આગળ વધીને સમસ્ત જીવોની साये औटुभिम भापy वन. मेडेन्द्रियथी भांडीने पंथेन्द्रिय सुधीना कोपा अपन भन-पयनકાયાથી કરણ-કરાવણ અને અનુમોદનરૂપે પણ દુઃખ ન થાય તેમ જીવવું તે સાધુધર્મ છે. તે ત્યારે જ બને કે જ્યારે અહિંસા પ્રત્યેનો ધર્મરાગ પ્રગટયો હોય ! Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [256]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन समाचारी साधु के सम्यग् आचार को 'समाचारी' कहते है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने समाचारी (समाचारी) का वर्णन करते हुए कहा हैसाधु के सम्यग् व्यवहार, अहोरात्रि में करने योग्य आगमोक्त क्रियाकलाप, ग्रामप्रवेश के समय, विहारादि के समय करने योग्य आचार/आचरण को 'समाचारी (सामाचारी)' कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में वर्णित समाचारी प्रकरण नौंवे पूर्व की आचार नामक तृतीय वस्तु के 20 वें प्राभृत के ओघ नामक प्राभृतप्राभृत से उद्धरित हैं। समाचारी के भेद' :- समाचारी के मुख्य तीन भेद है (9) अभ्युत्थान - गुरु महाराज के पधारने पर खडे होना, उनका (1) ओघ समाचारी- ओघनियुक्ति ग्रंथ में वर्णित साधु का आदर-सत्कार, बहुमान करना। सामान्य आचार। (10) उपसंपत् - साधु यदि स्वयं के आचार्य से अध्ययन हेतु अन्य (2) दशविध समाचारी - इच्छाकारादि 10 प्रकार की समाचारी आचार्य के पास जाय तो वहाँ जाकर उन्हें विज्ञप्ति करें कि, "मैं जिसे दशविध चक्रवाल समाचारी कहते हैं। इतने समय तक आपके पास रहूँगा।" (3) पदविभाग समाचारी - जो छेदादि सूत्रो में वर्णित हैं। समाचारी पालन का फल :ओघ समाचारी के विभिन्न विषयों का पूरे शोध प्रबन्ध में यह समाचारी सर्व दुःख से है। इस समाचारी का पालन यथास्थान यथायोग्य वर्णन विवेचन किया गया है। पदविभाग समाचारी करके श्रमण अनेक भव संचित कर्मों को क्षय करता है और शीध्र ही विशिष्ट पद प्राप्त महापुरुष योग्य है अतः यहाँ मुनि प्रायोग्य दशविध संसार समुद्र को तैरकर पार उतरता/मोक्ष को प्राप्त करना है। समाचारी का वर्णन किया जा रहा है। मण्डली:दशविध (चक्रवाल) समाचारी : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी (1) आवश्यकी- स्थंडिलादि कार्य अप्रमत्तरुप से अवश्य करने ने इन सातों मण्डलियों का वर्णन करते हुए कहा है कि साधुअपनी योग्य है अतः आश्रय से बाहर निकलते समय तीन बार समस्त क्रियाएँ गुरुसाक्षिपूर्वक सामूहिक रुप से मण्डली में करें। 'आवस्सहि' बोलना । (अर्थात् में आवश्यक कार्य हेतु बाहर जा आवश्यक क्रियायोग्य ये मण्डलियाँ निम्नानुसार सात प्रकार की है। रहा हूँ।) 1. सूत्र मण्डली - सूत्र की वाचना एवं मूल सूत्रों का स्वाध्याय नैषेधिकी - बाहर से उपाश्रय में प्रवेश करते समय स्वयं के करना। प्रमाद को दूर करने हेतु तीन बार 'निसीहि' बोलना । (अर्थात् 2. अर्थमण्डली-सूत्रों के अर्थ की वाचना, स्वाध्याय या व्याख्यान । अब बाहर जाने का या बाहर के कार्य का प्रयोजन नहिं हैं।) 3. भोजन मण्डली- समुदाय में गोचरी आहार-ग्रहण करना। आपृच्छना - गोचरी समये या अन्य कार्य हेतु गुरु या बों को काल मण्डली - योग्य समय पर साधु संबन्धी समस्त क्रियाएँ पूछकर कार्य करना। संपादित करना। (4) प्रतिपृच्छा - स्वयं का कार्य छोडकर अन्य का कार्य करना हो 5. आवश्यक मण्डली/प्रतिक्रमण मण्डली-दोनों समय का या गुरुने अन्य ही कार्य सुपुर्द किया हो तब पुनः पूछना। प्रतिक्रमण सामूहिक रुप से करना । अभिधान राजेन्द्र कोश में (5) छंदना (निमंत्रणा)- गोचरी में कोई उत्तम पदार्थ प्राप्त हुआ प्रतिलेखन (पडिलेहण) मण्डली को भी आवश्यक मण्डली के हो तब गुरु आदि या अन्य साधु को 'यह आप स्वीकारें' - अंतर्गत माना है। एसा कहना। 6. स्वाध्याय मण्डली - सूत्र या अर्थ का स्वाध्याय सामूहिक (6) इच्छाकार- स्वयं का कोई कार्य अन्य साधु से कराना हो तब करना। 'आपकी इच्छा हो तो मेरा यह कार्य कर दो या आपकी 7. संस्तारकमण्डली (संथारा मण्डली) - सामूहिक रुप में संथारा अनुमतिपूर्वक मैं करूँ।' - एसा कहना। पोरिसी पढना। मिथ्याकार - स्वयं दोष की क्षमा याचना करनी या 'मेरा यह __ 1. अ.रा.पृ. 7/766 पाप मिथ्या हो' - इस प्रकार मिथ्या दुष्कृत/'मिच्छामि दुक्कडम्' 2. अ.रा.पृ. 7/767 वही पृ. 7/767 देना/कहना। 4. अ.रा.पृ. 7/767-71-72-73 (8) तथाकार- गुरुदेव के वचन को 'तहत्ति' कहनेपूर्वक स्वीकार 5. अ.रा.पृ. 7771 करना। 6. अ.रा.पृ. 7/774; आवश्यक मलयगिरि-1/723 7. अ.रा.पृ. 7/771 3. दुहरुवं दुक्खफलं, दुहाणुबंधी विडंबणास्वं । संसारमसारं जाणिऊण न रइं तहिं कुणाइ ॥ (अ.रा.पृ. 7/251) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [257] षडावश्यक 'आवश्यक' शब्द के लिए प्राकृत में 'आवस्सय' शब्द प्रयुक्त होता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आवस्सय' शब्द के दो संस्कृत रुपान्तरण प्राप्त होते हैं -1. आवस्सय = आवश्यक - आवश्यक अर्थात् मर्यादा या गुणों का आधार, सामायिकादि आवश्यक । 2. आवस्सय = आवश्यक - आवश्यक अर्थात् - 1. मन-वचन-काया के योगों को निरतिचार करने हेतु अवश्य करने योग।' 2. नियम से करने योग्य 3. अवश्यंभावी। 4. श्रमणादि के द्वारा दोनों समय अवश्य करने योग्य अथवा ज्ञानादि गुणों को आत्मा में वश करनेवाला अथवा जिसके द्वारा आत्मा इन्द्रिय-कषायादि भाव शत्रुओं को वश में करता है अथवा जिसके द्वारा ज्ञानादि गुण समूह अथवा मोक्ष वश किया जाय; उसे 'आवश्यक' कहते हैं। निक्षेपों के अनुसार आवश्यक के प्रकार : का बिना लगाम के घोडे या निरंकुश हाथी की तरह गुर्वाज्ञाविहीन आवश्यक चार प्रकार के हैं -1. नाम 2. स्थापना 3. द्रव्य स्वच्छंदाचरण 'लोकोत्तर द्रव्याश्यक' हैं।" और 4. भाव। भावावश्यक:नामावश्यक अर्थात् आवश्यक के पर्यायवाची नाम :- यह दो प्रकार का है1. आवस्सय (आवश्यक) 2. अवस्सकरणिज्ज 1. लौकिक भावाश्यक- ऊपर कहे गये लौकिक, कुप्रावचनिक (अवश्यकरणीय) 3. ध्रुव (स्थिर ध्रुव) 4.निग्गह(निग्रह) 5. विसोहिय और लोकोत्तर द्रव्यावश्यक तथा पूर्वाह्न में महाभारत और अपराह में (विशोधित, विशुद्धि) 6. अज्झयण (अध्ययन) 7. छक्कवग्गो (षड्वर्ग) रामायण पढना, देवतागृह में होम, अञ्जलि, जप, मण्डुरक्क (वृषभादि की 8. धनाउ(न्याय) 9. आराहणा (आराधना) 10. मग्गो (मार्ग, मोक्षमार्ग)। आवाज) नमस्कारादि करना 'लौकिक भावावश्यक' हैं।12 स्थापनावश्यक : 2.लोकोत्तरभावावश्यक - जिन शासन के साधु-साध्वी-श्रावककटकर्म, तालपत्रादि के पुस्तक कर्म, चित्रकार्य, लेप्यकर्म, श्राविका के द्वारा गुरु-साक्षीपूर्वक उभयकाल सामायिकादि षडावश्यक ग्रन्थिकर्म, वेष्टिकर्म (पुष्प या वस्त्र में चित्रित कर वीटना), पूरिम (भरिम) क्रिया में मन की एकाग्रतापूर्वक, शुभपरिणामरुपा लेश्यायुक्त होकर, कर्म (पित्तलादि की प्रतिमा भराना), संघातिकर्म, अक्ष (स्थापनाचार्य के प्रारंभ से प्रति समय प्रकर्षमान शुभ-शुद्ध अध्यवसाययुक्त प्रशस्ततर अक्ष), वराट (कपर्दक), दन्तकर्म, काष्ठकर्म आदि में सामायिकादि की संवेगयुक्त होकर साधक योग्य देह एवं वस्त्र तथा रजोहरण, मुखवत्रिका अर्थात् संयमवान् साधु की मूर्ति, चित्र, या अन्य रुप में स्थापना करना (मुहपत्ति) आदि यथायोग्य रखकर आवश्यक अनुष्ठान में भाव सहित 'स्थापनावश्यक' हैं। इसके अनेक भेद हैं उपयोगपूर्वक परिणत/प्रवृत्त होना 'लोकोत्तर भावावश्यक' हैं। (1) सद्भाव स्थापना - साधु आदि के आकारवान् स्थापना । सामायिक, चउवीसत्थय (चतुर्विशतिस्तव), वंदन (वांदणां), (2) असद्भाव स्थापना - अक्षादि में अनाकार स्थापना । प्रतिक्रमण, काउसग्ग (कायोत्सर्ग) और पञ्चक्खाण (प्रत्याख्यान)-ये छ: (A) इत्वरकालिक स्थापना - सामायिकादि करने के लिए जो भावाश्यक साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रुप चतुर्विध संघ को अवश्य थोडे समय के लिए पुस्तक, माला इत्यादि में आवश्यक (गुरु करने योग्य होने से आगे क्रमशः इनका परिचय दिया जा रहा हैं। आदि) की स्वल्पकालिक स्थापना की जाना 'इत्वरकालिक (1) सामायिक :स्थापना' कहलाती हैं। पूर्व(परिच्छेद 4 (क) (2)] में सामायिक का विस्तृत अनुशीलन (B) यावत्कालिक स्थापना - शिलापट्ट, प्रतिमा, अक्षादि, किया जा चुका है। शाश्वत्प्रतिमादि में सदा के लिए अर्हदादि स्वरुप का भाव 1. अ.रा.पृ. 2/471 रहना 'यावत्कालिक स्थापना' कहलाती हैं। 2. वही द्रव्यावश्यक : 3. वही आवश्यक क्रिया के आगम सूत्र उपयोगरहित सीखना, उपयोग 4. वही शून्य या भाव शून्य आवश्यक क्रिया, उपयोग रहित सूत्रोच्चारण 5. अ.रा.पृ. 2/471, 472 6. अ.रा.पृ. 2/472 द्रव्यावश्यक है। द्रव्याश्यक को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है 7. वही 1. प्रभात समय में मुखधावन इत्यादि तथा राजादि एवं गृहस्थों के । 8. अ.रा.पृ. 2/473, 474 काल प्रायोग्य कार्य लौकिक द्रव्यावश्यक हैं। 9. अ.रा.पृ. 2/474 आजीविकादि हेतु, पुण्य हेतु तथा अन्यधर्मी पाखण्डियों के 10. अ.रा.पृ. 2/474, 475 द्वारा इंद्र-स्कंद-विनायकादि का उपलेपन करना 'कुप्रावचनिक II. अ.रा.पृ. 2/478, 479 द्रव्याश्यक' हैं। 12. अ.रा.पृ. 2/480 3. श्रमण गुणरहित छ:काय जीवहिंसारंभी, अनुकंपाहीन, साधुओं 13. अ.रा.पृ. 2/480, 481, 483 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [258]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) चउवीसत्थय/चतुर्विशतिस्तव : 12 आवर्त - वंदन सूत्र के निम्नाङ्कित पदोच्चारपूर्वक गुरु के चरण पर इस अवसर्पिणी काल में इस भरत क्षेत्र में वर्तमान चौबीसी हाथ लगाकर अपने मस्तक (कपाल) पर हाथ से स्पर्श करने रुप काय के चौबीस तीर्थंकरों के नामपूर्वक गुणोत्कीर्तन करना 'चतुर्विंशतिस्तव' व्यापार को 'आवर्त' कहते हैं। 1 अहो, 2 कायं, 3 काय संफार्स 4 कहलाता है। यह द्वितीय आवश्यक है जिसे प्रतिक्रमण में अतिचार खमणिज्जो भे किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्तो चिंतन की गाथा के पश्चात् 'लोगस्स सूत्र' बोलने पूर्वक किया जाता है। जत्ताभे, 5 जवणिज, 6 जं च भे - प्रथम एवं द्वितीय बार वंदन करते लोगस्स सूत्र का अपर नाम ही 'चतुर्विंशतिस्तव' है। जिसमें इस काल समय दोनो बार गुरुदेव के अवग्रह में प्रवेश करके इन छहों आवर्तों को के ऋषभादि 24 तीर्थंकरो का नामोत्कीर्तन हैं । (आगे परिच्छेद 4ख (3) दोनों बार करने पर 12 आवर्त आवश्यक होता है। में इसका विस्तृत वर्णन किया जायेगा) 4 शीर्ष वंदन - गुरुवंदन करते समय वंदन सूत्र के संफासं एवं (3) वंदन आवश्यक : खामेमि खमा। इन दो पदोच्चारपूर्वक शिष्य के द्वारा गुरु के चरण को संपूर्ण शीर्षनमन करना - शीर्षवंदन हैं। दो बार बंदन सूत्र बोलते समय अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 'वंदन' आवश्यक '4 शीर्षवंदन' आवश्यक होता है। की व्याख्या करते हुए कहा है कि "वाणी के द्वारा स्तुति, मन-वचनकाय के द्वारा विधिपूर्वक प्रणिधान, मस्तक के द्वारा अभिवादन, मन 3 गुप्ति - यह '3 गुप्ति' आवश्यक हैं। वचन-काया के द्वारा अभिवादन, स्तवन या स्तुति, प्रशस्त मन-वचन 1. मन गुप्ति - मन की एकाग्रता काया की द्वादशावर्तादिपूर्वक प्रवृत्ति 'वंदन' कहलाती हैं ।। 2. वचन गुप्ति - वंदन सूत्र के अक्षरों का शुद्ध एवं अस्खलित वंदन के पर्याय - वंदन, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म - ये उच्चारण वंदन के पर्यायवाची शब्द हैं। 3. काय गुप्ति - आवर्त आदि आवश्यक निर्दोषरुप से विधिपूर्वक एवं जयणापूर्वक करना। वंदन के प्रकार - 'कृतिकर्म' दो प्रकार का है18 - 1. अभ्युत्थान और 2 प्रवेश - प्रथम वंदन करते समय गुर्वाज्ञापूर्वक अवग्रह में प्रवेश 2. वंदना करना, वह प्रथम प्रवेश एवं अवग्रह में से बाहर निकलकर पुनः द्वितीय 1. अभ्युत्थान - विनय हेतु गुरु/आचार्य कोआते हुए देखकर खडे वंदन के समय भी गुर्वाज्ञा प्राप्त करके अवग्रह में प्रवेश करना, '2 प्रवेश होना, सम्मुख जाना, वे देवदर्शनादि हेतु जाते हों तब पीछे-पीछे चलना आवश्यक है। - आदि 'अभ्युत्थान' कहलाता हैं । 1 निष्क्रमण - प्रथम बार वंदन सूत्र बोलते समय अवग्रह में प्रवेश 2. वंदन - वंदन तीन प्रकार के हैं करके छह आवर्त करके 'आवस्सियाए' पद के उच्चारणपूर्वक अवग्रह क.फिट्टावंदन - रास्ते में चलते समय या अन्यत्र साधु-साध्वी से बाहर आना '1 निष्क्रमण' नामक आवश्यक है। (द्वितीय बार के सामने मिलने पर या दृष्टिगोचर होने पर हाथ जोडकर मस्तक वंदन में संपूर्ण सूत्र अवग्रह में ही बोला जाता है, एसी विधि होने से झुकाकर मत्थेण वंदामि' कहना 20 ख. थोभवंदन - दो खमासमण, इच्छकार, अब्भुट्ठिओ पूर्वक दूसरी बार 'आवस्सियाए' पद नहीं बोलने के कारण वंदन विधि में सामान्य साधु-साध्वी को वंदन करना। प्रवेश दो होने पर भी निष्क्रमण एक ही है।) ग.द्वादशावर्त वंदन-2 अवनत, 1 यथाजात, 12 आवर्त (कृतिकर्म), वंदनीय आत्मा :4. शिरोनमन, 3 गुप्ति, 2 प्रवेश और 1 निष्क्रमण इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश में 'वंद्य' के विषय में चर्चा करते पच्चीस = इन पच्चीस आवश्यकपूर्वक दो बार 'वांदणा' सूत्र हुए आचार्यश्रीने स्पष्ट कहा है कि सुविहित या संविज्ञपाक्षिक, दर्शनबोलते हुए यथाविधि आचार्यादि को कृतिकर्म करना 'द्वादशावर्त ज्ञान-चारित्र-तप और विनय में नित्य उद्यमवान् संयतात्मा वंदनीय वंदन' हैं। है। उनको वंदन करने से विशुद्ध मार्ग की प्रभावना होती है और गुरुवंदन के 25 आवश्यक : ये प्रवचन का यश बढाते हैं। उनमें विरति होने के कारण उनको 2.अवनत - गुरुदेव को अपनी वंदन करने की इच्छा प्रकट वंदन करने से निर्जरा और कर्मक्षय होता है। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, रुप से ज्ञात कराने हेतु 'इच्छामि खमासमणो वंदिउ जावणिज्जाए स्थविर और रत्नाधिक को 'कृतिकर्म' (द्वादशावर्त वंदन) करना चाहिए।25 निसीहियाए' इन पाँचो पदों के उच्चारणपूर्वक मस्तक सहित किंचित् 14. अ.रा.पृ. 3/1056 शरीर झुकाना 'अवनत' कहलाता हैं। दो बार 'वांदणा' सूत्र बोलते 15. अ.रा.पृ. 3/1056 समय दो अवनत होते हैं। 16. अ.रा.पृ. 6/7683; 1 यथाजात - यहाँ शिष्य का जिस रुप में जन्म हुआ है तदाकार 17. अ.रा.पृ. 6/768 होकर गुरुवंदन करना। -यथाजात आवश्यक है। जन्म दो प्रकार का है 18. अ.रा.पृ. 3/509 (1) भवजन्म - माता की कुक्षि में से निकलते समय जैसे भाल पर 19. अ.रा.पृ. 1/693 दोनों हाथ लगे हुए थे वैसे गुरुवंदन करते समय भी दोनों हाथ कपाल पर 20. अ.रा.पृ. 3/773 लगाना। (2) दीक्षा जन्म - संसार की माया रुपी स्त्री की कुक्षी से 21. वही अर्थात् संसार को छोडकर दीक्षा लेते समय चोलपट्ट, रजोहरण, एवं 22. अ.रा.पृ. 3/522, 523, 6/769 मुहपत्ति - ये तीन उपकरण ही थे वैसे द्वादशावर्त वंदन के समय भी ये 23. अ.रा.पृ. 3/521 तीन उपकरण ही रखना। ये दोनों प्रकार के जन्म की स्थिति/आकारवाला 24 अ.रा.पृ. 6/769 'यथाजात' आवश्यक है। 25. अ.रा.पृ. 3/521 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (26) (30) अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [259] तथा पार्श्वस्थादि को विशेष कारण के बिना वंदनादि नहीं करना चाहिए। (25) गुरु व्याख्यान दे रहे हो तब 'यह बात एसी है' - इस प्रकार यथाप्रसंग विवेक बुद्धि से कार्य करना 26 बीच में बोलना। वंदनीय स्थिति : गुरु व्याख्यान दे रहे हो तब यह अर्थ तुम्हें याद नहीं है, यह जब गुरु भगवंत प्रशान्त (व्याक्षेपरहित), उपशान्त (क्रोधादि एसा है, तुम्हारी भूल हैं- इत्यादि बोलना। रहित), छन्द (शिष्यादि) सहित उपाश्रयादि में आसन पर विराजमान हो (27) उपहतमनस्तव - धर्मोपदेश के समय गुरु के प्रति पूज्यभाव तब मेघावी (बुद्धिमान्) शिष्य को आज्ञा प्राप्त करके 32 दोषरहित नहिं होने से चित्त में प्रसन्न नहीं होना, गुरुपदेश की अनुमोदना गुरुवंदन करना चाहिए। नहिं करना या प्रशंसा न करना। 1. प्रतिक्रमण 2. स्वाध्याय-वाचनादि के समय 3. कायोत्सर्ग (28) पर्षद् भेद - धर्मोपदेश के समय भिक्षा, सूत्राध्ययन, गोचरी, 4. अपराध की क्षमा माँगना 5. बडे साधु के आगमन पर (या विहार भोजन - आदि का प्रयोजन/अवसर दिखाकर सभा/पर्षदा को करके या बाहर से आने पर) 6. आलोचना ग्रहण करते समय 7. तप तोडना (भङ्ग करना)। आदि करने हेतु प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) लेने हेतु और 8. अनशन- (29) कथाछेदना - गुरु धर्मकथा कहते हो तब 'यह बात मैं संलेखना ग्रहण करते समय-इन आठ प्रसंग पर गुरुवंदन अवश्य करना आपको कहूँगा' - श्रोताओं को एसा कहकर कथा भङ्ग चाहिए। करना। वंदन कब नहीं करना ? - गुरु जब व्याक्षिप्त/व्यग्र चित्तवाले, गुरु का व्याख्यान समाप्त होने पर सभा विसर्जन होने से पूर्व परावृत्त, प्रमत्त या आहार-निहार की इच्छावाले हो या आहार-निहार ही स्वयं की चतुराई दिखाने हेतु शिष्य के द्वारा विशेषरुप से करते हो तब कदापि वंदन नहि करे। धर्मकथा कहना। (31) गुरु की उपस्थिति में गुरु से ऊँचे या उनके समान आसन पर गुरुकी 33 आशातना : बैठना। (1-2-3) निष्कारण आगे-पीछे या बगल में चलना। (32) गुरु के शय्या-संथारा-वस्त्रादि को पैर लगाना, बिना आज्ञा के (4-5-6) निष्कारण आगे-पीछे या बगल में खडे रहना । हाथ लगाना और उसकी क्षमा न माँगना । (7-8-9) निष्कारण आगे-पीछे या बगल में बैठना। गुरु के शय्या (संथारा) - आसन-वस्त्र-पात्रादि ऊपर खडा (10) आचमन - गुरु के साथ में स्थंडिल गया हुए साधु के द्वारा रहना/बैठना/शयन करना - इत्यादि से आशातना होती है। गुरु से पहले देहशुद्धि/आचमन करना। गुरुवंदन के 32 दोष :पूर्वालापन - जिससे गुरु को बात करना हो उस गृहस्थ को गुरु से पहले बुलाना या बात करना। अनादरदोष - सम्भ्रम रहित वंदन करना। गमनागमन - गुरु के साथ बाहर जाकर पुन: उपाश्रय में स्तब्ध दोष - जात्यादि दोष से स्तब्ध होकर वंदन करना । आने पर गुरु से पहले गमनागमन संबंधी आलोचना करना। प्रविद्ध दोष - वंदन देते देते ही नष्ट करना। भिक्षा-आलोचना - गोचरी की आलोचना - पहले अन्य परिणिण्डित दोष - आवर्तानुसार विधि और उच्चारणपूर्वक साधु के समक्ष करके फिर गुरु के समक्ष करना। वंदन नहीं करना। प्रथम अन्य साधु गोचरी दिखाकर गुरु को बाद में दिखाना। टोलगति दोष - इधर-उधर घूमते-फिरते वंदन करना। गुरु को बिना पूछे ही छोटे साधुओं को उनकी इच्छानुसार अङ्कश दोष - रजोहरण (या चरवला) को अंकुश की तरह अति आहार रखना (देना)। पकडकर वंदन करना। प्रथम छोटे साधुओं को आहार हेतु निमंत्रण करके गुरु को कच्छभरिंगिय दोष - कछुए की तरह रेंगते हुए वंदन करना। बाद में निमंत्रण करना। मत्स्योदृत दोष - मछली की तरह एक को वंदन करके तत्काल भिक्षा में से गुरु को किंचित् अल्प आहार देकर स्वयं इधर-उधर घूमकर समीपवर्ती दूसरे मुनि को वंदन करना। उत्तम-स्निग्ध-मधुर-मनपसंद आहार करना । मनसा प्रदुष्ट दोष - मुनि को वंदन करते समय उनके एकाध (18) रात्रि में गुरु के बुलाने पर प्रत्युत्तर नहीं देना। हीनगुण (दोष) को ही मन में याद करके असूयापूर्वक वंदन दिन में गुरु के द्वारा कुछ पूछने पर प्रत्युत्तर न देना । करना। गुरु के बुलाने पर उनके पास जाने के बजाय अपने आसन वेदिकाबद्ध दोष- एक जानु के ऊपर हाथ रखकर दूसरे जानु पर बैठे बैठे या शय्या में सोये हुए ही उत्तर देना। को दोनों हाथ से पकडकर वंदन करना। गुरु के पूछने पर क्या है ? क्या कहते हो?' इत्यादि तुच्छ भय दोष - मैं वंदना नहीं करूँगा तो मुझे गच्छ से बाहर शब्दों से अविनय से उत्तर देना। निकाल देंगे -एसे भय से वंदन करना। (22) गुरु के साथ बातचीत में तु - तुम्हारा इत्यादि शब्दों का भजन दोष - ये मेरी भक्ति/सेवा/सार-संभाल करते हैं अतः प्रयोग करना। 'भक्तं भजस्व' -इस आर्यावर्त के लक्षणानुसार वंदन करना । तज्जात वचन - गुरु के द्वारा शिष्य को ग्लानादि की सेवा 26. अ.रा.पृ. 3/515 हेतु या प्रमाद त्याग करने हेतु प्रेरणा करने पर उसी (तुंकार 27. अ.रा.पृ. 3/521 युक्त) भाषा में उसी शब्दों के द्वारा गुरु के सामने बोलना। 28. अ.रा.पृ. 3/521-522 (24) गुरु के सामने कठोर वचन बोलना या ऊँची आवाज में 29. आवश्यक नियुक्ति-गाथा 1198 बोलना। 30. धर्मसंग्रह-1/492-93-94 (16) (1m (23) Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [260]... चतुर्थ परिच्छेद 13. मैत्री दोष प्रीति की इच्छा से मैत्री निमित्त वंदन करना। गौरव दोष- ये मुझे 'यह समाचारी कुशल है' - एसा समझे, इसलिए वंदन करना । 14. कारण दोष - ज्ञानादि को छोडकर अन्य कारण जैसे- मैं वंदन करूँगा तो मुझे वस्त्रादि देंगे। एसे कारणपूर्वक वंदन 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. हीलित दोष हेलना/तिरस्कार करके वंदन करना । विपरिकुञ्चित दोष आधा वंदन करके बीच में देशकथादि अन्यान्य बातें करना (फिर बाद में बाकी की आधी वंदन विधि करना) । दृष्टादृष्ट दोष अंधकार में (या अन्य व्यस्तता में) गुरु देखें या नहीं देखें - एसा सोचकर वंदन नहीं करना । 24. - शृङ्ग दोष उत्तमाङ्ग (मस्तक) के एक भाग से वंदन करना। 25-26. करमोचन दोष- 'वंदन करना मानो कर (टेक्स) भरना है।' - एसी भावना से वंदन करना (इससे कर्मनिर्जरा नहीं होती) । अथवा इनको वंदन देने (करने) पर मुक्ति होगी- एसी भावना से वंदन करना । 27. 28. 29. 30. करना । स्तैन्य दोष- 'मेरी लघुता होगी' एसी भावना से अपने आपको छिपाते हुए वंदन करना । प्रत्यनीक दोष- गोचरी (आहार) के समय वंदन करना । रुष्टदोष- क्रोधपूर्वक वंदन करना । - तर्जित दोष अङ्गुली से तर्जना करते हुए अथवा तुम तो काष्ठ शिव की तरह कोपायमान भी नहीं होते, प्रसन्न भी नहीं होते - इत्यादि उपालम्भपूर्वक गुरु को तर्जना करते हुए वंदना अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में अनुकूल माहात्म्य को प्राप्त कर अप्रतिहत आज्ञासार अर्थात् मोक्षफल को प्राप्त होता हैं। 34 (4) प्रतिक्रमण : व्यक्ति को अपनी जीवन यात्रा में कंषायवश पद-पद पर अन्तरंग व बाह्य दोष लगा करते हैं, जिनका शोधन श्रेयोमार्गी (मुमुक्षु) के लिए आवश्यक है। करना । शठदोष- कपटपूर्वक बिमारी आदि का बहाना करके विधिपूर्वक सम्यग्रुप से वंदन न करना । - आश्लिष्टानाश्लिष्ट - रजोहरण को दोनों हाथों की अंगुलियों में पकडकर मस्तक को छिपाते हुए वंदन नहीं करना । न्यून दोष- व्यञ्जन आवश्यक से न्यून (अधूरे) वंदन करना । उत्तरचूड दोष - वंदन करने के बाद ऊँची आवाज से 'मत्थएण वंदामि' बोलना । मूक दोष- सूत्र - आलापक नहीं बोलते हुए (मन में गुनगुनाते हुए वंदन करना । 31. ढड्डु दोष- बहुत जोर से बोलते हुए वंदन करना । 32. चुडली दोष उल्कापात की तरह रजोहरण को किनारे से पकडकर घुमाते हुए वंदन करना । 31 - गुरुवंदन का फल : सविधि दोष रहित द्वादशावर्त गुरुवंदन करने से वंदनकर्ता को विनयोपचार, मानभङ्ग, गुरुपूजा, जिनाज्ञापालन, श्रुतधर्म की आराधना एवं मोक्ष-ये छः गुण प्राप्त होते हैं। 32 जीव अनेक भवों के संचित कर्मो क्षय करता है, आठों कर्म की प्रकृतिओं के गाढ बंधनो को शिथिल करता हैं, दीर्घकालीनस्थिति को अल्प/ हस्व करता है, तीव्ररस को मंदरस करता हैं एवं बहुप्रदेशी को अल्पप्रदेशी करता हैं | वंदन करने से जीव नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्च गोत्र कर्म का बंध करता है एवं उच्च गोत्र में उत्पन्न होता है। इसके साथ ही वंदनकर्ता जीव सौभाग्य, लोकप्रियता, अप्रतिहत आज्ञाकारिता, आदेयवाक्यता, दाक्षिण्यभाव (सभी लोकों का अनुकूल होना) सदा सर्वदा सर्वत्र सर्वावस्था प्रतिक्रमण के अर्थ :- जैनागमों में 'प्रतिक्रमण' शब्द के अनेक अर्थ बताये गये है जो निम्नानुसार है - 1. शुभ योग से अशुभ योग में गये हुए आत्मा का पुनः शुभ योग में लौट आना 'प्रतिक्रमण' कहलाता हैं। 35 प्रमादवश स्वस्थान (अप्रमत्त चेतना का अन्तर्मुख होना) से परस्थान (प्रमत्त आत्मा का बहिर्मुख होना) में गये हुए साधक का पुनः स्वस्थान में लौट आना 'प्रतिक्रमण' हैं क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक जब पुनः औदायिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है तो यह भी प्रतिकूलगमन के कारण प्रतिक्रमण हैं। अशुभ आचरण से मोक्ष फलदायक शुभ आचरण में नि:शल्य भाव से प्रवृत्त होना 'प्रतिक्रमण' कहलाता हैं। 36 भूतकाल में जो दोष लगे हैं उनके शोधनार्थ प्रायश्चित, पश्चाताप व गुरु के समक्ष अपनी निन्दा गर्हा करना प्रतिक्रमण कहलाता हैं 137 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 31. 32. 33. 34. 35. 36. 37. 38. 39. 40. 41. 42. 43. 44. साधक के द्वारा गुरु के समक्ष विपरीत आचरण के कारण 'मिच्छामि दुक्कडम्' अर्थात् 'मेरा दोष मिथ्या हो' - एसा निवेदन कर प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण हैं 138 प्रमादवश किये दोषों का निराकरण करना 'प्रतिक्रमण' हैं । 39 कृत दोषों की निवृत्ति 'प्रतिक्रमण' हैं। 40 चौरासी लाख गुणों के समूह से संयुक्त पाँच महाव्रतों में उत्पन्न हुए मल को धोने का नाम प्रतिक्रमण हैं। 41 द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से व्रत में किये गए दोषों को शोधना, आचार्यादि के समीप आलोचनापूर्वक अपने दोषों को प्रकट करना 'प्रतिक्रमण' हैं 142 वचनमय प्रतिक्रमण 'स्वाध्याय' हैं। 43 निजशुद्धात्मपरिणतिलक्षणा क्रिया 'प्रतिक्रमण' कहलाती हैं। 44 अ.रा. पृ. 6/769-770 -522; आवश्यक बृहद्रुति - 3/1207 से 1211 प्रवचन सारोद्धार 100 भाष्यत्रयम् पृ. 229 (गुरुवंदन भाष्य गाथा 40 पर विवेचन ) अ. रा. पृ. - 6/770 अ. रा. पृ. 5/261, योगशास्त्र 3 / 129 पर स्वोपज्ञ वृत्ति; उत्तराध्ययनसूत्र, 29 वाँ अध्ययन अ. रा.पू. 5/261, आवश्यक बृहद्वृत्ति अध्ययन- 4 श्रमणसूत्र - पृ. 87 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 3/115 अ. रा. पृ. 5/262, सर्वार्थसिद्धि 9 / 22, तत्त्वसार- 7 / 239; स्थानांग ठाणां-6 गोम्मटसार - जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका - गाथा 367 पृ. 790 समयसार तात्पर्य वृत्ति- 306, पृ. 388 भाव पाहुड टीका- 77 पृ. 221 धवला, गाथा-8, 14 पर टीका मूलाचार-26 नियमसार - 153 प्रवचनसार - 207 पर तात्पर्यवृत्ति Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना 0 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [261] प्रतिक्रमण के पर्याय - अभिधान राजेन्द्र कोश में 'प्रतिक्रमण के 3. इत्वर प्रतिक्रमण - स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना इत्वर निम्नलिखित पर्यायवाची नाम दिये गये है15 प्रतिक्रमण हैं। 1. प्रतिक्रमण - पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर आत्मशुद्धि यावत्कथिक प्रतिक्रमण - संपूर्ण जीवन के लिए पाप से के क्षेत्र में लौट आना। निवृत्त होना यावत्कथिक प्रतिक्रमण हैं। 2. प्रतिचरण - हिंसा, असत्य आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, 5. यत्किञ्चिन्मिथ्या - सावधानी पूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए सत्य और संयम के क्षेत्र अग्रसर होना। भी प्रमाद अथवा असावधानी से किसी भी प्रकार का असंयम परिहरण - सब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों का रुप आचरण होने पर तत्काल भूल को स्वीकार करना और त्याग करना। उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्किञ्चिन्मिथ्या प्रतिक्रमण हैं। वारण - निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति नहीं करना । स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण - विकार, वासनायुक्त स्वप्न देखने निवृत्ति - अशुभ भावों से निवृत्त होना। पर उसके संबंध में पश्चाताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण हैं। निन्दा - स्वयं अपनी आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ अभिधान राजेन्द्र कोश में नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल आचरणों को बुरा समझना तथा उसके लिए पश्चाताप करना। और भाव -इन छह निक्षेपों के अनुसार छह प्रकार का भी प्रतिक्रमण गर्हा - गुरु साक्षी से अशुभ आचरण को गर्हित समझना, उससे दर्शाया हैं। धृणा करना। 1. नाम प्रतिक्रमण - अयोग्य नाम (या शब्दों) का उच्चारण न शुद्धि- प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिये इसे शुद्धि 2. स्थापना प्रतिक्रमण-आप्ताभास की प्रतिमा के दर्शन-नमनकहा गया हैं। वंदन-द्रव्य पूजन करने का त्याग स्थापना प्रतिक्रमण है अथवा प्रतिक्रमण के प्रकार : त्रस या स्थावर जीवों की स्थापनाओं का नाश, ताडन, मर्दनादि स्थानांग सूत्र के अनुसार प्रतिक्रमण के भेद : नहीं करना स्थापना प्रतिक्रमण हैं। स्थानांग सूत्र के अनुसार प्रतिक्रमण पाँच प्रकार का हैं16 3. द्रव्य प्रतिक्रमण - सम्यग्दृष्टि आत्मा के द्वारा लक्ष्मी/लब्धि आस्रवद्धार - (हिंसादि पाँचों आस्रवों का) प्रतिक्रमण आदि के निमित्त किया गया प्रतिक्रमण या निह्नवादि के द्वारा 2. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण पुस्तकादि का न्यास द्रव्य प्रतिक्रमण हैं।2, अथवा भाव/ 3. कषाय (क्रोधादि कषायों का) प्रतिक्रमण उपयोगरहित प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण हैं । अथवा उद्गमादि 4. योग (अप्रशस्त-मन-वचन-काया) प्रतिक्रमण दोषयुक्त वसति, उपकरण, आहारादि का त्याग करना; अयोग्य 5. भाव प्रतिक्रमण - मन-वचन-काया से मिथ्यात्व की ओर अभिलाषा, उनमत्तता तथा संक्लेश परिणामवर्धक आहारादि गमन नहीं करने, दूसरों को प्रेरित नहीं करने और जानेवालों की का त्याग करना 'द्रव्य प्रतिक्रमण' हैं।53 अनुमोदना नहीं करने रुप हैं। 4. क्षेत्र प्रतिक्रमण - जिस नियत स्थान में प्रतिक्रमण आवश्यक नियुक्ति के अनुसार प्रतिक्रमण के भेद :- किया जाता है उसे क्षेत्र प्रतिक्रमण कहते हैं54 अथवा आवश्यक नियुक्ति में प्रकारान्तर से प्रतिक्रमण के निम्नानुसार पानी, कीचड, त्रस जीव, स्थावर जीवादि से व्याप्त प्रदेश पाँच भेद दर्शाये हैं।7 या रत्नत्रय की हानि की संभावनावाले प्रदेश का त्याग 1.मिथ्यात्व प्रतिक्रमण-मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से साधक करना 'क्षेत्र प्रतिक्रमण' हैं।55 की आत्मा को जाने-अनजाने में और अचानक लगने वाले मिथ्यात्व 5. काल प्रतिक्रमण - काल की अपेक्षा से जो प्रतिक्रमण किया (सुदेव-गुरु-धर्म में अश्रद्धान) दोषों का प्रतिक्रमण जाता है वह काल (कालिक) प्रतिक्रमण है। वह दो प्रकार का 2.असंयम प्रतिक्रमण - प्राणातिपातादि रुप हिंसादि का प्रतिक्रमण है - (क.) ध्रुव काल प्रतिक्रमण - भरत -एरावत क्षेत्रों में 3. कषाय प्रतिक्रमण प्रथम और अंतिम तीर्थंकर साधु-साध्वी के द्वारा चाहे अपराध 4. योग प्रतिक्रमण 45. क. पडिकमणं पडिचरणा, परिहरणा चारणा निअत्ती अ। 5. संसार प्रतिक्रमण - देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी - इन निंदा गरिहा सोही, पडिकमणं अट्ठहा होई ।। चतुर्गति प्रायोग्य भव के आयुबंध के हेतु रुप जान (आभोग) - अ.रा.पृ. 5/262, आवश्यक बृहदृत्ति-4/3 ख. तिलोय पन्न - 9/49 अनजान (अनाभोग), अचानक (सहसात्कार) महारम्भादि एवं मायादि 46. स्थानांग-5/3 सेवन का प्रतिक्रमण। 47. अ.रा.पृ. 5/265, आवश्यक नियुक्ति-32 प्रतिक्रमण -छः प्रकार से : 48. अ.रा.पृ. 5/264, स्थानांग ठाणां-6 स्थानांग सूत्र में इन छ: प्रकार के प्रतिक्रमण का निर्देश हैं18 49. अ.रा.पृ. 5/262, आवश्यक बृहदृवृत्ति4/4 1. उच्चार प्रतिक्रमण - वडीनीति (मल) आदि का विसर्जन 50. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- 3/116 करने के बाद ईर्यापथिकी का प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण 51. वही 52. अ.रा.पृ. 5/262 2. प्रस्त्रवण प्रतिक्रमण - लघुनीति (मूत्रत्याग) करने के बाद 53. अ.रा.पृ. 5/262, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 3/116 ईर्यापथिकी का प्रतिक्रमण करना प्रस्रवण प्रतिक्रमण हैं। 54. अ.रा.पृ. 5/262 55. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- 3/116 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [262]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हुआ हो या नहीं भी हुआ हो तो भी दैवसिक, रात्रिक और आवश्यक बहदवृत्ति के आधार पर प्रतिक्रमण के भेद :पाक्षिकादि प्रतिक्रमण नियम से दोनों समय (प्रात: -सायं) अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रतिक्रमण के निम्नांकित भेद दर्शाये हैं।0अवश्य करना 'ध्रुव काल प्रतिक्रमण' हैं । (ख.) अध्रुव 1. दैवसिक 2. रात्रिक 3. इत्वरकथिक काल प्रतिक्रमण - भरत-एरावत क्षेत्रों में मध्यम 22 तीर्थंकर 4. यावत्कथिक 5. पाक्षिक 6: चातुर्मासिक के साधु-साध्वी तथा महाविदेह क्षेत्र के साधु-साध्वी का यदि 7. सांवत्सरिक 8. उत्तमार्थ। दोष लगे तो ही तत्समयानुसार दैवसिक या राई (रात्रिक) इत्वरकथिक - स्वल्पकालिक प्रतिक्रमण को इत्वरकथिक प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण करना अध्रुव काल प्रतिक्रमण है" (वहाँ पाक्षिकादि कहते हैं। प्रतिक्रमण का प्रवर्तन ही नहीं है)। यावत्कथिक - जीवन पर्यन्त ग्रहण किये जाते व्रतों के अतिचारों की कालापेक्ष प्रतिक्रमण के भेद : शुद्धि हेतु जो प्रतिक्रमण यावज्जीव किया जाता है, उसे ही यावत्कथिक काल की अपेक्षा से अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रतिक्रमण के प्रतिक्रमण कहते हैं। पाँच भेद भी दर्शाये हैं उत्तमार्थ - भक्त प्रतयाख्यानादि अनशन ग्रहण करने पर जीवन भर के क. देवसिअ (दैवसिक) - प्रतिदिन सायंकाल के समय पाप कार्यो की शुद्धिरुप किया जानेवाला प्रतिक्रमण उत्तमार्थ प्रतिक्रमण पूरे दिवस में आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी होता है। आलोचना करना। ___मूलाचार के आधार पर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में भी इसी राइअ (रात्रिक) - प्रतिदिन प्रात:काल के समय संपूर्ण प्रकार की मर्यादायुक्त प्रतिक्रमण के तीन भेदों का उल्लेख हैं12. रात्रि के आचरित पापों का चिन्तन कर उसकी आलोचना 1. सर्वातिचार प्रतिक्रमण - दीक्षाग्रहण के समय से संपूर्ण करना 160 जीवन में लगे दोषों की शुद्धि करना पक्खी (पाक्षिक) - पक्षान्त में चतुर्दशी के दिन संपूर्ण 2. विविध प्रतिक्रमण - जल को छोड़कर शेष तीनों प्रकार पक्ष (15 दिनों) में आचरित पापों का चिन्तन कर केआहार करने में लगे दोषों की शुद्धि करना। उसकी आलोचना करना। 3. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण - जीवन पर्यन्त जल पीने में लगे दोषो घ. चौमासी (चातुर्मासिक) - आषाढ शुक्ला, कार्तिक की शुद्धि करना। शुक्ला एवं फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी की संध्या को ___ काल की अपेक्षा से मूलाचार में प्रतिक्रमण के 1. दैवसिक चार महिने में आचरित पापों का चिन्तन कर उसकी 2. रात्रिक 3. एपिथिक 4. पाक्षिक 5. चातुर्मासिक 6. सांवत्सरिक और आलोचना करना । 7. उत्तमार्थ - ये सात भेद दर्शाये गये हैं।73 संवच्छरीअ (सांवत्सरिक) - संवत्सरी महापर्व प्रतिक्रमण योग्य प्रसंग :(भाद्रपदा शुक्ल चतुर्थी) की संध्या को वर्ष भर के पापों का चिन्तन कर उसकी आलोचना करना 163 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने प्रतिक्रमण योग्य बातों/ स्थानों का वर्णन करते हुए कहा है कि "साधु या श्रावक के द्वारा शास्त्र भगवती आराधना के अनुसार रात्रि, तीनों संध्या, स्वाध्याय में निषद्ध (अकरणीय) कार्यो के करने पर, अवश्य करने योग्य कार्यों के काल एवं आवश्यक क्रियाओं के काल में आने-जाने का त्याग करना 'काल प्रतिक्रमण' हैं। नहीं करने पर अश्रद्धान (मिथ्यात्व), और स्वयं के द्वारा कृत सिद्धान्तविपरीत प्ररुपणा का प्रतिक्रमण किया जाता है। 6. भाव प्रतिक्रमण :मन-वचन-काया से मिथ्यात्व-शक्यादि का चिंतन, वार्तालाप 56. अ.रा.पृ. 5/262, 263 आवश्यक बृहवृत्ति-4/18 57. अ.रा.पृ. 5/262, 263 आवश्यक बृहद्वृत्ति-4/19 या व्यवहार (लेन-देन) न करना, न कराना, करनेवालों की अनुमोदना 58. अ.रा.पृ. 5/264 नहीं करना - अप्रशस्त भाव प्रतिक्रमण हैं।65 59. अ.रा.पृ. 5/264 और सम्यग्दृष्टि साधक के द्वारा सम्यक्त्व में लगे अतिचार 60. अ.रा.पृ. 5/264 एवं अहिंसादि व्रतों में लगे अतिचार दोषों का चिंतन कर, उसकी 61. अ.रा.पृ. 5/69,5/264 आलोचना कर पुनः व्रतों में स्थिर होना प्रशस्त भाव प्रतिक्रमण हैं।66 62. अ.रा.पृ. 5/264 भगवती आराधना के अनुसार आर्त्त-रौद्र इत्यादि अशुभ अ.रा.पृ. 5/264 परिणाम और पुण्यास्रव के कारणभूत शुभ परिणाम का त्याग करना 64. भगवती आराधना-116 पर विजयोदया टीका पृ. 275 भाव प्रतिक्रमण हैं।67 65. अ.रा.पृ. 5/262, 264 265, आवश्यक बृहवृत्ति - 4/4, स्थानांग-ठाणांअभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार मन-वचन-काय से कृत अ.रा.पृ. 5/262, 336, आवश्यक बृहद्वृत्ति-4/5 कारित-अनुमोदनपूर्वक (3x3) विपरीत आचरण का प्रतिक्रमण करने 67. भगवती आराधना-विजयोदया टीका-116 पृ. 275 पर भाव प्रतिक्रमण नौ प्रकार का है ।68 68. अ.रा.पृ. 5/265, आवश्यक नियुक्ति-33 भगवती आराधना के अनुसार किये हुए अतिचारों का मन 69. भगवती आराधना-509 पर विजयोदया टीका पृ. 278 से त्याग करना-मनःप्रतिक्रमण हैं; हा !! मैने पाप कार्य किया-एसा मन 70. अ.रा.पृ. 5/264, आवश्यक बृहवृत्ति-4/21 से विचार करना भी मनःप्रतिक्रमण हैं। सूत्रों का उच्चारण करना-वचन 71. अ.रा.पृ. 5/264, आवश्यक बृहद्वृत्ति-4/21 72. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- पृ. 3/116 मूलाचार-120 (वाक्य) प्रतिक्रमण हैं और शरीर के द्वारा दृष्कृत्यों का आचरण न करना 73. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- पृ. 3/116 - कायकृत प्रतिक्रमण हैं। 74. अ.रा.पृ. 5/271, 317; वंदित्तु सूत्र-48 5/3 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रतिक्रमण की आवश्यकता '5 : अभिधान राजेन्द्र कोश में साधक को प्रतिक्रमण करने का कारण बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि "यदि पाप लगा हो तो नष्ट हो जाये, वर्तमान में लगे नहीं और प्रत्याख्यान के कारण भविष्य में भी विपरीत आचरण करने की शक्यता न रहे, इस हेतु प्रतिक्रमण किया जाता हैं । साधक मुनि गुरु साक्षी से गुरु वंदन पूर्वक प्रतिलेखन, प्रमार्जन में (यदि) प्रमाद हुआ तो उसकी आलोचना करते हैं। देववंदनगुरुवंदन पूर्वक प्रतिक्रमण करने पर षडावश्यक में पंचाचार का पालन होता है। सामायिक में चारित्राचार, चतुर्विंशतिस्तव (देव वंदणा) में, दर्शनाचार, वंदन (वांदना) से ज्ञानाचार, प्रतिक्रमण से अतिचारों का अपनयन, कायोत्सर्ग से दोषों की विशुद्धि और प्रत्याख्यान में आवश्यक तपाचार और इन समस्त क्रियाओं में वीर्याचार का पालन एवं विशुद्धि होती हैं। एर्यापथिक प्रतिक्रमण - गमनागमन, चैत्यवंदन, उपाश्रय से 100 हाथ से अधिक दूर जाकर पुनः उपाश्रय में आने पर 100 हाथ के मध्य में भी मल-मूत्रादि त्यागने पर और प्रातः सायं प्रतिक्रमण करते समय और अन्य भी धार्मिक क्रिया के प्रारंभ में एर्यापथिक प्रतिक्रमण किया जाता हैं। अर्थात् इरियावहियं .... आदि करके 1 लोगस्स (25 श्वासोच्छ्वास) का कायोत्सर्ग किया जाता है। 7 दैवसिक - रात्रिक प्रतिक्रमण : दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में दिवस संबंधी अतिचार का प्रतिक्रमण करते समय मन वचन काया से हुए उत्सूत्र प्ररूपणा, उन्मार्ग गमन, अकल्पनीय ग्रहण, अकार्यकरण, दुर्ध्यान, दुष्ट चिन्तन, अनाचार, अनिच्छित की इच्छा, अश्रमण प्रायोग्य कार्य करना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रुत, सामायिक, तीन गुप्ति, चार कषाय, पाँच महाव्रत, छः जीवनिकाय, सात पिंडैषणा, आठ प्रवचनमाता, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुतियाँ, और 10 श्रमण धर्म (क्षमादि) का प्रतिक्रमण किया जाता है। 78 तत्पश्चात् एर्यापथिक प्रतिक्रमण में गमनागमन संबंधी क्रिया में जीव, बीज, वनस्पति, ओस, कीडी के बिल, नील-फूल, सचित लज, सचित्त मिट्टी, मकड़ी के जाले आदि को दबाने से, कुचलने से एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के किसी भी जीव को सन्मुख चोट पहुँचाना, धूल से ढँकना, परस्पर या जमीन पर मसलना, मिलाना, छूकर तकलीफ देना, कष्ट पहुँचाना, मृतः प्राय करना, त्रास देना, स्थानान्तरित करना, प्राणनाश करना - इत्यादि संबंधी जो दोष लगा हो उसके 'मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता है। 79 तत्पश्चात् पगामसिज्झाय सूत्र में शयन संबंधी दोषों की, खुल्ले मुँह खांसी - छींक - उबासी आने संबंधी, अप्रमार्जित या सचित रजोयुक्त भूमि के स्पर्श संबंधी, स्त्री आदि के भोग, विवाह, युद्धादि संबंधी सामग्री के स्पर्श से उत्पन्न चित्तव्याकुलता संबंधी, स्वप्न में स्त्री के साथ मैथुनसेवा संबंधी, स्त्री के सरागदृष्टि से दर्शन संबंधी, तत्संबधी मनोविकार का, रात्रि में जल या आहार संबंधी इच्छाजनित चित्त चंचलता हुई हो तो उसका 'मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता हैं। 1 तत्पश्चात् गोचरी/आहारचर्या के समय आहार ग्रहण संबंधी कोई दोष लगा हो तो उसको 'मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता हैं। तत्पश्चात् दिन में चार बार (दिन और रात्रि के प्रथम और अंतिम प्रहर) स्वाध्याय नहीं करने संबंधी और दिन के प्रथम और अंतिम प्रहर में वस्त्र - पात्र उपधि आदि उपकरणों का प्रतिलेखन नहीं करने चतुर्थ परिच्छेद... [263] संबंधी या आगे-पीछे या उपयोगरहित करने संबंधी तथा दंडासनादि से प्रमार्जन नहीं करने या न्यूनाधिक करने संबंधी दोषों का 'मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता हैं। तत्पश्चात् असंयम, राग-द्वेष, तीन दंड (मन आदि), तीन गुप्ति, तीन शल्य (माया, निदान, मिथ्यात्व), तीन गारव (ऋद्धि-रस साता का अभिमान), रत्नत्रय की विराधना, कोधादि चार कषाय, आहारादि चार संज्ञा, चार विकथा (स्त्री- भोजन- देश - राजा संबंधी) आर्त्तादि चार ध्यान, पाँच क्रिया (गमनागमन, शस्त्र, प्राद्वेषिकी, संतारिकी, जीवहिंसा संबंधी) पाँच काम गुण (शब्द, रुप, रस, गंध, स्पर्श) पाँच महाव्रत, पाँच समिति, षड् जीवनिकाय, छ: लेश्या (कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म, शुक्ल) सात भय स्थान (इहलोक, परलोक, चोरी, अकस्माद्, मरण, अपयश एवं आजीविका), आठ मद स्थान (जाति-कुल-रुप-बललाभ - श्रुत-तप-एश्वर्य का गर्व), ब्रह्मचर्य की नव गुप्ति (नव वाड), दश श्रमण धर्म (क्षमादि), ग्यारह उपासक प्रतिमा, बारह भिक्षु प्रतिमा, तेरह क्रिया स्थान अर्थ (सप्रयोजन), अनर्थ, हिंसा, अकस्मात्, दृष्टि विपर्यास, मृषावाद (झूठ), अदत्तादान (चोरी), आध्यात्मिकी (दूसरों के विषय में संकल्प - विकल्प करना), मान, अमात्र (कम अपराध में अधिक दंड), माया, लोभ, ईर्यापथिकी (अयतनापूर्वक, गमनागमन, चौदह प्रकार के जीव स्थान संबंधी अतिचार दोष, पंद्रह परमाधामी (नारक जीवों को दुःख देने वाले) देव, सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कंध के 16 अध्ययन संबंधी असत्प्ररूपणा संबंधी अतिचार दोषों का सत्रह प्रकार के असंयम का, अठारह प्रकार के अब्रह्म (देव - देवी, स्त्री-पुरुष, तीर्यंच - तिरची संबंधी द्विविध-मैथुन x मन-वचन-काय (3 x 2 = 6) × करना, कराना, अनुमोदना x (6x3) संबंधी, ज्ञाता धर्मकथांग के 19 अध्ययनों की विपरीत प्ररूपणा संबंधी, इक्कीस सबल दोष (हस्तकर्म, सालम्बन मैथुन, रात्रि भोजन, आधाकर्मी आहार, राजपिण्ड, अभ्याहृताहार, छीनकर लिया हुआ आहार, त्यक्त पदार्थ, पुनः पुनः गच्छान्तर गमन, एक माह में तीन बार नदी उतरना, तीन बार माया सेवन, जानते हुए भी हिंसा, झूठ, चोरी, अशुद्ध भूमि पर आसन या गमनागमन, आसक्तिपूर्वक भूमिकंद भक्षण, एक वर्ष में दस बार सचितजलसंघट्ट (स्पर्श), एक वर्ष में 10 बार कपट सेवन, सचित जलयुक्त हाथ से आहार (ग्रहण) संबंधी, 22 परिषह संबंधी, सूत्रकृतांग के 16 अध्ययन और पुण्डरीकादि सात मिलाने पर इन 23 अध्ययनों की विपरीत प्ररूपणा संबंधी, चौबीस प्रकार के देवों (10 भवनपति 18 व्यंतर + 5 ज्योतिष्क + 1 वैमानिक = 24) की आशातना, विरुद्ध प्ररूपणा अथवा 24 तीर्थंकरो की अश्रद्धा, अभक्ति और आशातना संबंधी, पाँच महाव्रत की 25 भावना, दशाश्रुत स्कन्ध के 10 + जीतकल्प के 6 + व्यवहार सूत्र के 10 अध्ययन मिलाकर इन 26 उद्देशनकाल की विपरीत प्ररूपणा संबंधी, साधु के सत्ताईस गुणों के पालन में हुए प्रमाद संबंधी, आचारांग के 25 एवं निशीथ सूत्र के अंतिम तीन (उपघात, अनुद्घात, आरुहणा) अध्ययन, कुल अट्ठाईस आचार-प्रकल्प की विपरीत प्ररूपणा संबंधी, अष्टांग ज्योतिष सूत्र - वृत्ति और वार्तिक मिलकर -24 तथा गंधर्व, नाट्य, वास्तुविद्या, धनुर्वेद और आयुर्विद्या - ये पांच मिलाकर 29 पापशास्त्र की प्ररूपणा 75. अ.रा. पृ. 5/267 76. 77. 78. 79. धर्मसंग्रह - भाषांतर पृ. 1/578 अ. रा. पृ. 5/263, बृहत्कल्प सभाष्य वृत्ति-6/348 अ.रा. पृ. 5/270-71 अ.रा. पृ. 2/630 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [264]... चतुर्थ परिच्छेद संबंधी, हिंसा, अवर्णवाद, व्यभिचार, कलह, विश्वासघात, छल-कपट, आदि निकृष्ट पाप-बन्ध के कारणभूत तीस मोहनीय स्थानों के सेवन संबंधी, सिद्ध परमात्मा के इकतीस गुणों की विपरीत प्ररूपणा संबंधी आलोचना, क्रियानुष्ठान, ग्रहणादि शिक्षा, समाचारी, मूल-गुण-उत्तर गुण आदि संबंधि बत्तीस योग संग्रह के पालन में असावधानी या उसमें लगे अतिचार दोष संबंधी, अरिहंत-सिद्ध-आचार्य उपाध्याय-साधुसाध्वी- श्रावक-श्राविका - देव-देवी- इसलोक-परलोक- केवली प्रकाशित धर्म-लोक-सर्वप्राणादि-काल- श्रुत - श्रुतदेवता - वाचनाचार्य - व्यविद्धाक्षर (विपरीत या उतावली से बोलना) व्यत्याम्रेडित (असम्बद्ध भाषण ) - हीनाक्षर - अत्यक्षर(अधिक अक्षर)-पदहीन- विनयहीन - घोषहीन- योगोद्वहन (तप) हीन (उच्चारण करना) - सुष्ठुदत्त ( स्मरण शक्ति से अधिक पाठ लेना) - दुष्प्रतीच्छित (अविनय से पढना) - अकाल वेला में सूत्र की स्वाध्याय करना; कालवेला में नहीं करना, अस्वाध्यायिका (अस्वाध्याय काल में सूत्र पढना), स्वाध्यायिका ( स्वाध्याय के समय में नहीं पढ़ना) रुप तैंतीस आशातनाजनित दोषों का मिथ्यादुष्कृत दिया जाता हैं। इसके बाद 24 तीर्थंकरों को नमस्कार करके निर्ग्रन्थ प्रवचन की महिमा का वर्णन करके अंत में साधु अकल्प्य, अज्ञान, अक्रिया (नास्तिकवाद), मिध्यात्व, अबोधि (मिथ्या क्रिया), मिथ्या मार्ग का त्याग करने की एवं कल्प्य, ज्ञान, क्रिया, सम्यक्त्व, बोधि और सम्यक् मार्ग को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करता हुआ दिवस / रात्रि में अज्ञान या अनुपयोग से जो कोई दोष लगा हो उसका 'मिथ्या दुष्कृत' माँगता हुआ स्वयं का संयमधारी, विरतिवान्, पापनाशक, निदान रहित, सम्यक्त्वसहित, माया - मृषावाद रहित स्वरुप को प्रकट करता हुआ ढाई द्वीप में रहे समस्त साधु-साध्वी को वंदन करता है और सर्व जीवों के क्षमापना करता हुआ उनके प्रति मैत्रीभाव धारणकर, वैर भाव का त्याग करके 24 जिनेश्वरों को वंदन करता हैं। 80 पाक्षिक/चातुर्मासिक/ सांवत्सरिक प्रतिक्रमण : अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चार संवर, पंचेन्द्रिय संवरण पाँच प्रकार का स्वाध्याय, 2 प्रकार के तप, सात पिण्डैषणा, आठ प्रवचनमाता, 9 ब्रह्मचर्य गुप्ति, 18 प्रकार की ब्रह्मचर्य शुद्धि, 10 प्रकार का सत्य, 10 समाधि स्थान, दशाश्रुत स्कन्ध के दश अधिकार और दशविध श्रमण धर्म को प्राप्त कर मन-वचनकाय रुप तीन दण्डों से विराम पाकर, त्रिकरण शुद्ध होकर, तीन शल्य से रहित होकर, मन-वचन-काय रुप त्रिविध योगों से, सर्व अतिचार दोषों से निवृत्त होकर पाँच महाव्रतों के पालन एवं रक्षण करने की प्रतिज्ञा की जाती हैं। मुनि के पाक्षिकादि प्रतिक्रमण में पाक्षिक सूत्र में पंच महाव्रत एवं छठे रात्रिभोजनविरमण व्रत के स्वरुप का वर्णन कर तत्संबंधी दोषों की क्षमापना मांगकर वर्तमान में दिन या रात्रि में, अकेले में या सभा में, सोते या जागते किसी भी स्थिति में मन-वचन-काय से कृत-कारितअनुमोदन रुप किसी भी प्रकार से इन महाव्रतों का भङ्ग नहीं करता एवं भविष्य में नहीं करूँगा -एसी प्रतिज्ञा की जाती हैं। साथ ही यहाँ पर पाँचों महाव्रत एवं छठे रात्रि भोजन विरमण व्रत के अतिक्रम संबंधी दोषों की क्षमा माँगकर दर्शन - ज्ञान चारित्र का अविराधित रुप से पालन करते हुए तथा निर्दोष वसति, मर्यादायुक्त विहार और पाँच समिति, तीन गुप्त से युक्त होकर दशविध साधु धर्म में स्थिर रहते हुए पंच महाव्रत और छठे रात्रिभोजनविरमण व्रत की रक्षा एवं पालन करने की भावना प्रकट की गयी हैं। इसके बाद सावद्ययोग, मिथ्यात्व, अज्ञान, राग-द्वेष, आर्तरौद्र ध्यान, कृष्ण-नील- कापोत लेश्या, चार दुःख शय्या, चार संज्ञा (आहारादि), चार कषाय, पाँच काम गुण, पंचास्रव, षड्जीवनिकाय वघ, छः प्रकार की अप्रशस्त भाषा, सात भय, मिथ्यात्वी का विभंग ज्ञान, आठ मद, आठ कर्म एवं उनके नये बंध, नव पापनिदान, नवप्रकार के जीवों का वध, 10 प्रकार के उपघात, 10 प्रकार के असंवर, 10 प्रकार के संक्लेश और तैंतीस आशातना का त्याग करते हुए अनवद्य योग, सम्यक्त्व, ज्ञान, दो प्रकार के चारित्र तथा धर्म-शुक्ल ध्यान, तेजस्पद्म- शुक्ल लेश्या, मन-वचन-काय से सत्य संयम, चार सुख शय्या, तत्पश्चात् श्री जिनप्रणीत षडावश्यक ( सामायिकादि), दशवैकालिकादि अंगबाह्य उत्कालिक सूत्र, उत्तराध्ययनादि अंगबाह्य कालिक सूत्र, और आचारांगादि द्वादशांग गणिपिटकों का नामपूर्वक वर्णन करते हुए उनमें श्रद्धा प्रकट कर जो उन्हें ग्रहण करते हैं, पुनरावर्तन करते हैं, रक्षण करते हैं, परिपूर्ण धारण करते हैं, उनकी प्रशंसा करते हैं और पक्ष/ चातुर्मास / वर्षभर में श्रद्धापूर्वक उनमें से जो कुछ अध्ययन / वाचन किया हो, कराया हो, याद किया हो, शंका-समाधान किया हो, मनन किया हो, शुद्ध अनुष्ठान किया हो वह कर्मनाश के लिये होगा, अतः मुनि उनको अङ्गीकार करके मासकल्पादि मर्यादापूर्वक विहार करने की भावना प्रकट करते हैं और पक्षादि दिनों में जो न पढा, न पढाया, न पूछ, चिन्तन-मनन नहीं किया, अनुष्ठान नहीं किया हो उसका सामर्थ्य होने पर भी 'वाचना' आदि हेतु उद्यम नहीं किया, उसके लिए खेद प्रकट कर आलोचना, निंदा, गर्हा पूर्वक प्रतिक्रमण कर हुए 'मिच्छामि दुक्कडम्' माँगकर उन पापों से अलग रहने की प्रतिज्ञा करते हैं । प्रतिक्रमण का फल : प्रतिक्रमण करने से जीव अपराधों से पीछे हटता है, व्रतों में हुए छिद्रों (दषों) को पूरता (मियता) है, व्रतों में लगे अतिचारों को रोकता है (नष्ट करता है), आस्रवरहित होता है, निरतिचार चारित्रवान् होता है और अष्ट प्रवचनमाता से युक्त होकर संयमयोग युक्त इन्द्रियों को सन्मार्ग स्थिर करके साधु स्वमार्ग में विचरता है। 82 नित्य शुद्ध श्रद्धापूर्वक प्रतिक्रमण करने से कर्म क्षय होता है, निकाचित कर्मों के बंधन शिथिल होते हैं, जीव कर्मो का नाश करके संवेग धारण कर संवरपूर्वक आराधना करके अजरामर/मोक्ष स्थान को प्राप्त होता है । प्रतिक्रमण करने के लिए अन्य को उपदेश/प्रेरणा देने पर दश हजार गायों का एक ऐसे 10 गोकुल (10,000 × 10 = 1,00,000 गाय) को अभयदान देने बराबर पुण्य प्राप्त होता है। सर्व जीवों के प्रति वैरभाव का अंत होता है। ईयापथिकी प्रतिक्रमण करते 'पणग- दग' पद का चिन्तन करते अतिमुक्तक (अईमुत्ता) मुनिने केवलज्ञान प्राप्त किया। (5) कायोत्सर्ग : कायोत्सर्ग का विवरण आगे दिया जा रहा हैं। (6) पच्चक्खाण- प्रत्याख्यान आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने छठे प्रत्याख्यान आवश्यक की व्याख्या करते हुए कहा है कि त्याज्य वस्तु के प्रति 80. साधु प्रतिक्रमण-पगमा सिज्झाय सूत्र, अ.रा. पृ. 5/271 से 277 81. साधु प्रतिक्रमण - पाक्षिक सूत्र / अ. रा. पृ. 5/281 से 307 82. 1..... पडिक्कमणेणं वयच्छिदाई पेहेइ, पिहियवयछिदे पुण जीवे निरुद्धासवे असवलचरिते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्यणिहिए विहरद ||1|| अ.रा. पृ. 5/318, उत्तराध्ययन-29 अध्ययन 83. प्रतिक्रमण की सज्झाय - 2 श्री जयन्तसेनसूरि Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. 5. अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [265] (त्याग का) गुरु की साक्षीपूर्वक त्याग का कथन 4 (पाप व्यापार या तप आचार्यादि की वैयावृत्त्यादि एवं अन्य आवश्यक कृत्यों में त्याज्य से) निवृत्ति रुप प्रतिज्ञा करना, स्वेच्छापूर्वक की प्रवृत्तियों का अन्तराय होने की संभावना होने पर पर्युषण पर्व के पहले ही मर्यादापूर्वक विवक्षित समय के लिये त्याग करना या मूलगुण-उत्तरगुण करना। रुप इष्टार्थविषयनिवर्तन86, अथवा जिससे मन-वचन-काय की क्रिया अतिक्रान्त - उपरोक्त कारण उपस्थित होने पर वह तप पर्व जाल के द्वारा किंचिद् अनिष्ट का निषिद्ध किया जाता है, उसे 'प्रत्याख्यान' पूर्ण होने के पश्चात् करना। कहते हैं।87 3. कोटिसहित - उपवास के साथ एकाशन या आयंबिल मिलाकर प्रत्याख्यान के भेद : चतुर्थभत्त (तप) प्रत्याख्यान करना। आवश्यक बृहद्वृत्ति में प्रत्याख्यान के निम्नाङ्कित छ: प्रकार नियंत्रित - निश्चित दिन पर ग्लानादि सेवा में अन्तराय उत्पन्न दर्शाये हैं88 होने पर भी करने योग्य तप करना। 1. नाम प्रत्याख्यान - प्रत्याख्यान के भिन्न-भिन्न नाम 189 साकार(सागार) - अनाभोग, सहसात्कारादि आगार (अपवाद 2. स्थापना प्रत्याख्यान - काल, संकेत प्रत्याख्यान आदि में समय में छूट) पूर्वक किया जाने वाला नवकारसी आदि तप। प्रत्याख्यान हेतु घडी, रस्सी, अंगूठी आदि रखा जाता है जिससे 6. अनाकार (अनागार) - उत्सर्ग-अपवाद दोनों स्थितियों में प्रत्याख्यान की काल मर्यादा तय की जाती है; स्थापना किसी भी प्रकार के आगार (छूट) रहित करने योग्य तप। प्रत्याख्यान कहलाता है। 7. परिणामकृत - गृह, द्रव्य (पदार्थ, विगई, दत्ती, कवल) आदि द्रव्य प्रत्याख्यान - वस्त्र, द्रव्य आदि निमित्त किये गए के भार (वजन) या संख्या की मर्यादा करके शेष के त्याग के प्रत्याख्यान 'द्रव्य प्रत्याख्यान' हैं। अभव्यों के द्वारा संवेगादि नियम/प्रत्याख्यानपूर्वक किया जानेवाला तप। के परिणाम रहित किया गया प्रत्याख्यान तथा भव्यात्माओं द्वारा निरवशेष - समस्त / चारों प्रकार के आहार के त्यागपूर्वक भी भावरहित, वीर्योल्लासरहित, अविधिपूर्वक किये गए किया जानेवाला उपवास, छठ, अट्ठमादि तप। प्रत्याख्यान और यशः, कीर्ति, विद्या, लब्धि आदि की प्राप्ति 9. संकेत - किसी चिह्नपूर्वक किया जाने वाला तप। जैसे - की इच्छा से किया गया प्रत्याख्यान, द्रव्य प्रत्याख्यान हैं ।92 गधा बोलेगा जब मुँह में पानी लूंगा या कायोत्सर्ग का त्याग क्षेत्र प्रत्याख्यान - नगर,गाँव, देश प्रदेशादि किसी क्षेत्र विशेष करूँगा । जब तक दीपक की लौ जलती रहेगी तब तक ही में गमनागमन करने के त्याग रुप प्रत्याख्यान करना 'क्षेत्र आहार करूँगा इत्यादि। प्रत्याख्यान' कहलाता हैं। 10. अद्धा प्रत्याख्यान - पोरिसी (सूर्योदय से एक प्रहर) आदि अदिच्छा/अदित्सा प्रत्याख्यान - गृहस्थ के गर पर श्रमण, काल तक किये जानेवाले प्रत्याख्यान । ब्राह्मण का आगमन होने उनके द्वारा याचना की गई वस्तु, अद्धा प्रत्याख्यान के भेद98 :आहार, वस्त्रादि उन्हें देने की इच्छा न होने पर उस आहारादि 1. नवकारसी - सूर्योदय पश्चात् 48 मिनिट के बाद मुट्ठी बाँधकर के लिए मना करना ‘अदित्सा प्रत्याख्यान' हैं । 94 तीन बार नवकार मंत्र गिनने के पश्चात् ही आहार-जल आदि भाव प्रत्याख्यान - शुभ भाव उत्पन्न होने पर भव्यात्मा के मुँह में रखना। द्वारा किये जानेवाला सावध योग (हिंसादि क्रिया व्यापार) के 2. पोरिसी- एक प्रहर दिन चढने के पश्चात् आहार-जल आदि निषेध रुप त्याग/नियम को भाव प्रत्याख्यान कहते हैं ।95 मुँह में रखना। भाव प्रत्याख्यान के भेद-प्रेभेद : साढपोरिसी - डेढ प्रहर दिन चढने के पश्चात् आहार-जल भाव प्रत्याख्यान संक्षेप में दो प्रकार से हैं - (क) श्रुत आदि मुँह में रखना। प्रत्याख्यान और (ख) नोश्रुतप्रत्याख्यान । श्रुतप्रत्याख्यान के दो प्रभेद पुरिमार्घ (पुरिमट्ठ) - आधा दिन होने पर आहार-जल आदि हैं - 1. पूर्वश्रुत प्रत्याख्यान अर्थात् नौवाँ प्रत्याख्यान पूर्व। 2. मुँह में रखना। नोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यान अर्थात् आतुर प्रत्याख्यानादि पूर्व बाह्य अध्ययन । 84. अ.रा.पृ. 5/85, आवश्यक मलयगिरि-अध्ययन-1 नोपूर्व श्रुत प्रत्याख्यान के मुख्य दो उपभेद हैं - (1) मूलगुण नोपूर्वश्रुत 85. वही, स्तानांग-3/4 प्रत्याख्यान - साधु के पंच महाव्रत सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान है और । 86. वही, प्रवचन सारोद्धार-1 द्वार श्रावक के पाँच अणुव्रत एक प्रकार से देशमूलगुण प्रत्याख्यान हैं । (2) 87. वही, आवश्यक बृहद्वृत्ति-अध्ययन-6 उत्तरगुण नोपूर्वश्रुत प्रत्याख्यान - साधु के पिण्डविशुद्धि, अथवा 88. अ.रा.पृ. 5/85 89. वही अनागतादि दश प्रकार के प्रत्याख्यान और श्रावक के तीन गुणवत, चार 90. वही शिक्षाव्रत आदि उत्तरगुण नोपूर्वश्रुत प्रत्याख्यान हैं। अथवा उत्तरगुण 91. अ.रा.पृ. 5/86 नोपूर्वश्रुत प्रत्याख्यान दूसरे प्रकार से - (क) यावत्कथित - साधु के वे 92. अ.रा.पृ. 5/87 प्रत्याख्यान जो दुष्काल, अरण्यादि में भी अनिवार्य रुप से पालन करने 93. अ.रा.पृ. 5/85, 86 योग्य हैं; और (ख) इत्वरकथित- श्रावक के तीन गुणव्रत। 94. वही अनागतादि 10 प्रकार के उत्तरगुण नोपूर्वश्रुत 95. अ.रा.पृ. 5/86 प्रत्याख्यान” : 96. अ.रा.पृ. 5/88, आवश्यक बृहद्वृति -4 /5से 7 97. अ.रा.पृ. 5/98, आवश्यक बृहदृति -6 /2-3 1. अनागत - पर्युषणादि पर्व दिनो में किया जानेवाला अट्ठमादि 98. अ.रा.पृ. 5/98 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [266]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 5. अपरार्ध (अवठ्ठा - तीन प्रहर दिन बीतने के बाद आहार-जल और प्रत्याख्यान पाठ पूर्ण होने पर गुरु के द्वारा 'वोसिरइ' कहने आदि मुंह में रखना। पर 'वोसिरामि' बोलना अनुभाषण शुद्धि हैं। एकाशन - दिन में एक बार एक स्थान पर बैठकर नियमपूर्वक 5. अनुपालन शुद्धि- ग्राम, नगर या अरण्य में सुभिक्ष या दुर्भिक्ष नियमोचित्त भक्ष्य आहार ग्रहण करना। में, अकेले या सभा में, किसी भी परिस्थिति में पूर्ण रुप से एकस्थान (एकलठाणां) - एकाशन में भी मुँह और एक प्रत्याख्यान का पालन करना, आंशिक भी भङ्ग नहीं होने हाथ के अलावा शेष अङ्गो को स्थिर अचित रखना और देना-अनुपालन शुद्धि हैं । 100 एकासन के पश्चात् अचित जल भी नहीं पीना। 6. भाव शुद्धि - राग, द्वेष, क्रोधादि कषाय, अप्रीति, इसलोकनीवि - एकासन पूर्वक दूध, दही, घी, तेल, गुड-शक्कर एवं परलोकादि आशंसा आदि से प्रत्याख्यान को दूषित न होने देना कडाविगई (तली चीजें एवं मिठाई) रुप मूल विगई या उससे 'भाव शुद्धि' हैं ।101 बनी उत्तर विगई (नीवियाता) का अभिग्रहपूर्वक (नियम) संपूर्ण स्थानांग के अनुसार प्रत्याख्यान पाँच प्रकार से एवं आवश्यक या देश त्यागपूर्वक दिन में एक ही बार आहार ग्रहण करना नियुक्ति तथा आवश्यक बृहद्वृत्ति के अनुसार उसमें ज्ञात/ज्ञान शुद्धि 'नीवि' तप हैं। मिलाने पर छ: प्रकार से शुद्ध होना चाहिए ।102 आयंबिल - उबले (वाष्प में सेके हुए) हुए धान्य या उसमें पच्चक्खाण/प्रत्याख्यान का फल :नमक, काली मिर्च डालकर उसे एकासनपूर्वक भोजन में अभिधान राजेन्द्र कोश में पच्चक्खाण का फल दर्शाते हुए ग्रहण करना और हरी वनस्पति, हल्दी, लाल मिर्च, तैलीय कहा है कि, "शुद्ध पच्चक्खाण से सौभाग्य, यश, बोधिलाभ, धर्मानुष्ठान मसाले, दूध-दही, घी-तेल, शक्कर, कयहविकृति (कडाविगई) और देवलोकगमन तथा परलोक में दामनक की तरह सुकुलोत्पत्ति, कडाही में तली हुई समस्त वस्तुएँ, जैसे - पूडी, मिठाई, दीर्घायु बोधिलाभ, देव-मनुष्य संबंधी सुखों की परंपरा एवं परंपरा से आदि का संपूर्ण त्याग करना 'आयंबिल' तप हैं। मोक्ष को प्राप्त होता है।103 10. उपवास - अगली रात्रि से संपूर्ण दिवस-रात्रि एवं दूसरे दिन आवश्यक नियुक्ति में कहा है कि, "प्रत्याख्यान/पच्चक्खाण सूर्योदय के बाद 48 मिनिट (नवकारसी) तक संपूर्ण आहार का करने से आस्रव (कर्म के आने) के द्वार (निमित्त) बंध होते है, इससे त्याग करना एवं दिन में भी जल का संपूर्ण त्याग करना तृष्णा का नाश होता है, उपशम प्रगट होता है, चारित्र धर्म प्रगट होता है, अथवा पोरिसी के पश्चात् केवल शुद्ध उबला हुआ जल पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा होती है, इससे अपूर्वकरण (अपूर्व अध्यवसाय) यथावश्यकानुसार ग्रहण करना और सूर्यास्त के पूर्व उसका भी गुण प्रकट होता है, इससे केवलज्ञान प्राप्त करके जीव शाश्वत सुख के त्याग कर देना 'उपवास' तप है। यह 1 उपवास, चतुर्थ भत्त स्थान (मोक्ष) को प्राप्त होता है ।104 (भक्त), छट्ट, अट्ठम, अट्ठाई, सोलह भत्त (भक्त), मासक्षमण, यति दिनचर्या में कहा है कि, मुनि पोरिसी, चतुर्थभत्त, (1 यावज्जीव आदि अनेक प्रकार से किया जाता हैं। उपवास), छठ्ठ भक्त से सत्तागत जितने कर्म क्षय करते है, नारकी के जीव प्रत्याख्यान की शुद्धि : क्रमशः सो, हजार एवं लाख वर्ष तक (इतने दुःख भुगतने पर) भी क्षय 1. श्रद्धान शुद्धि-जिनकल्प या स्थविरकल्प, साधु या श्रावक नहीं करतें । संकेत - गंठसी आदि का प्रत्याख्यान तो साक्षात् मोक्ष होने और मूल-गुण या उत्तरगुणों के विषय में सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा से भव्यात्मा को जिससे मन-वचन-काया के योग या प्रतिक्रमणादि ने जिस समय में जो प्रत्याख्यान जैसा कहा हैं, उनकी उसी योग और इन्द्रियों की हानि न हो वैसा प्रत्याख्यान तप करना चाहिए।105 रुप में श्रद्धा करना। ज्ञान शद्धि-जिनकल्प और स्थविरकल्प की अपनी अपनी मर्यादानुसार कौन से प्रत्याख्यान, किस रुप में, किस विधि से 99. अ.रा.पृ. 5/101, स्थानांग-ठाणां 5/3 आवश्यक बृहदृति -6 /26 से 35 कब करना? -इसका ज्ञान प्राप्त करना। 100. अ.रा.पृ. 1/385, 5/101 3. विनय शुद्धि - विशुद्ध मन-वचन-काय की गुप्तिपूर्वक । 101. अ.रा.प.5/101 कृतिकर्म अर्थात् गुरु/आचार्यादि को द्वादशावर्त वंदनपूर्वक 102. स्थानांग-ठाणां 5 उनसे प्रत्याख्यान ग्रहण करना। 103. अ.रा.पृ. 5/117 अनुभाषण शुद्धि - प्रत्याख्यान लेते समय गुरु के सम्मुख 104. आवश्यक नियुक्ति-1594.95-96 अंजलिपूर्वक हाथ जोडकर खडे रहकर प्रत्याख्यान ग्रहण करना 105. यतिदिनचर्या- पृ. 20 संघचक्र की सदा जय हो ।) संजमतवतुंबारय-स्स नमो सम्मत्त पारियल्लस्स । अप्पडिचक्कस्स जओ, होउ सया संघचक्कस्स ॥ हिंसादि पंचावविरमण; पंचेन्द्रिय निग्रह; कषायचतुष्कजय एवं त्रिदण्डविरतिरुप सत्रह प्रकार के संयम एवं बाह्याभ्यन्तर बारह प्रकार के तपरुप आरों एवं सम्यकत्वरुप भ्रमि (बाह्य पृष्ठ भाग) से युक्त अप्रतिचक्र (अजोड चक्र) संघ (रुपी) चक्र की सदा जय हो !!! Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [267] विहार भारतीय संस्कृति में यह सर्वमान्य तथ्य है कि साधुओं को एक स्थान अधिक नहीं ठहरना चाहिए। इसकी पृष्ठभूमि में एक कारण तो यह है कि एक स्थान पर अधिक रुकने से वहाँ के वातावरण से, सुविधाओं सेऔर प्राणियों के प्रति मोह उत्पन्न होता है, दूसरा कारण यह भी है कि साधु की संगति लाभ सब को समान रुप से मिले और इस प्रकार से साधु स्वकल्याण के साथसाथ परकल्याण में भी निमित्त बने सके। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि एक ही स्थान पर रहना हो तो गृहस्थजीवन में क्या बुराई हैं, वहाँ तो पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए भी कल्याणमार्ग पर चला जा सकता है। फिर साधुजीवन और गृहस्थजीवन में कोई भेद ही नहीं रहेगा। साधु अवस्था स्वीकारने हेतु प्रव्रज्या दी जाती है। प्रव्रज्या का शाब्दिक अर्थ स्थानत्यागपूर्वक गमन है, कोई परिपाटी नहीं । अर्थात् प्रव्रज्या लेने के साथ ही यह निश्चित हो जाता है कि प्रवर्जित व्यक्ति अब स्थिरवास नहीं करेगा। जैन मुनि भी स्व-पर कल्याण हेतु, कर्मनिर्जरा, संयमशुद्धि पृथिव्यादि मर्दन, अयतनादि के कारण संयम विराधना, कर्दमादि एवं धर्मशासन के प्रचार एवं प्रभावना हेतु मुनिजीवन के नियमानुसार में पदस्खलन, उन्मार्गगमन से कण्टकादिचुभना,चोरादि का भय, ग्रामानुग्राम विचरण करता रहता है, वह कभी भी स्थिरवास नहीं करता। मलेच्छ देशों में विहार होने पर आहार-पानी आदि की दुर्लभता, जैन मुनि का विचरण करना 'विहार' कहलाता हैं। प्राणीबहुल (सर्पादि) जीवसंसक्त देश में विहार होने पर आत्मनिक्षेपों के अनुसार विहार के अर्थ करने पर किसी व्यक्ति या विराधना,शैक्ष (नवदीक्षित) को आहार-जल तथा ग्रहण एवं आसेवन वस्तु का नाम 'विहार' हो सकता है। किसी विहार नामक पदार्थ जैसे शिक्षा में अवरोध, कुमार्ग प्रसपणा से मिथ्यात्व के कारण कोई मकान, उपाश्रय आदि का चित्र आदि स्थापनाविहार कहा जायेगा। संसारवर्धन, अयोग्य प्रायश्चित दान के कारण आशातना, बालअगीतार्थ साधु का, पार्श्वस्थ साधु का विहरण अथवा गीतार्थादि साधुओं वृद्ध-ग्लानादि की चिकित्सा नहीं करने या अयोग्य करने से अनेक का भी जो अनुपयुक्त (अवैध) विहार होगा वह द्रव्यविहार कहा जयेगा, दोषों की उत्पत्ति, पार्श्वस्थादि के द्वारा क्षुल्लकादि साधुओं का हरण, जबकि इसके विपरीत गीतार्थ और गीतार्थनिश्रित (गीतार्थ की आज्ञानुसार) दृढ संयम जीवन में शिथिलाचार की प्रेरणा, चोरों के द्वारा उपधि साधु का विहार भावविहार कहा जायेगा। सूत्रार्थज्ञाता सुविहित आचार्य, आदि का ग्रहण होने से मुनि को, स्वयं को और संघ को अनेक उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक साधु का विहार गीतार्थ का प्रकार से हानि होती है, और प्रवचन-उड्डाह होने के कारण शासन विहार है। और उनके साथ या उनकी आज्ञापूर्वक विहार करनेवाले अन्य मालिन्य होता है। साधु-साध्वी का विहार 'गीतार्थनिश्रित विहार' हैं। गीतार्थनिश्रित साधु विहार के कारण :भी प्रकारान्तर से दो प्रकार के होते हैं - आचार्यश्री ने अभिधान राजेन्द्र कोश में मुनि को मार्गदर्शन (क) गच्छगत और गच्छनिर्गत - गच्छवासी (गच्छ के साथ रहने करते हुए मुनि विहार के कारण दर्शाते हुए कहा है कि, आचार्यादि को वाले) साधु को 'गच्छगत' कहते हैं और उपद्रव, दुर्भिक्ष या वंदन करने हेतु, जिन मंदिरो के दर्शन-वंदन हेतु,आहार-वस्त्र,उपधि, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना हेतु अथवा आचार्यश्री की वसति (ठहरने का स्थान) हेतु, अपूर्व देशदर्शन (नये गाँव, नगरों के आज्ञा से क्षेत्र परीक्षा हेतु या दीक्षार्थी की दीक्षा भावना में जिन मंदिरादि के दर्शन) शासन प्रभावना इत्यादि हेतु मुनि विहार स्थिरीकरण हेतु अथवा स्वजनवर्ग के द्वारा वंदन (मुनि के ज्ञाति/ करता हैं। स्वजनवर्ग में कोई अतिशय तपोवृद्ध, रोगी इत्यादि को दर्शन विहारयोग्य क्षेत्र :देने) हेतु इत्यादि साधुओं का विहार 'गच्छनिर्गत' कहलाता तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियाँ, तीर्थंकरों के विहार क्षेत्र, (ख) स्थाननियुक्त और स्थानानियुक्त - प्रवर्तक, स्थविर और जहाँ के श्रावक भद्र, विवेकी, सुज्ञ हो, जहाँ पंचमहाव्रत रुप मूलगुण गणावच्छेदक साधु 'स्थाननियुक्त' कहलाते हैं और सामान्य तथा पिण्ड विशुद्धि एवं 18000 शीलांगादि उत्तरगुण सुखपूर्वक पालन साधु 'स्थानानियुक्त' कहलाते हैं। हो सके, जहाँ श्रावक मुनि के गुण एवं मुनि धर्म के ज्ञाता हो, आहार पानी, उपधि आदि सुलभ हो, जहाँ ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि होती अगीतार्थ याअगीतार्थनिश्रित विहार में दोष और हानि : हो, जहाँ लघुकर्मी प्रव्रज्या भिमुख भव्यात्माएं रहती हों, एसे आर्य क्षेत्रों अज्ञानवश कोई मुनि स्वयं अगीतार्थ होने पर अलग विहार । में मुनि को विहार करना चाहिए। इससे प्रवचन की प्रभावना होती है का साहस न करे या अगीतार्थ की निश्रा में जाकर आत्म कल्याण और और गच्छ की वृद्धि होती हैं।' संयम लाभ एवं कर्मनिर्जरा से वंचित न रहे- इसलिए इस ओर खतरे का संकेत रेड-सिग्नल) दर्शाते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 1. अ.रा.पृ. 6/1275 अगीतार्थ और अगीतार्थ निश्रित विहार के दोष एवं हानि बताते हुए 2. अ.रा.पृ. 6/1275, 6/1278 कहा है कि इससे आत्म विराधना और संयम विराधना होती है, 3. अ.रा.पृ. 6/1277, 1279 एषणादि दोष विषम होने से ग्लान, वृद्ध, तपस्वी इत्यादि साधु 4. अ.रा.पृ. 6/1279 परेशान होने से खेद, अभाव उत्पन्न होते हैं, अस्वस्थता के कारण 5. अ.रा.पृ. 6/1276-77 उद्विग्नता बढ़ती है और आर्तध्यान होता है, विहार में योग्य मार्ग, 6. अ.रा.पृ. 6/1278 क्षेत्र, कालादि का ज्ञान नहीं होने से कुंथ्वादि जीव विराधना, सचित्त 7. अ.रा.पृ. 6/1317 For Private & Personal use only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [268]... चतुर्थ परिच्छेद विहारयोग्य स्थान : जहाँ महास्थंडिल (श्मशान) गाँव की दक्षिण या पश्चिम दिशा में हो, जहाँ दिन में किसी भी के समय गोचरी सुलभ हो, जहाँ व शुद्ध हो, गुणयुक्त हो, गाँव के मध्य में हो, प्रशस्त स्थान में हो; जहाँ शय्यातर विनय - विवेक संपन्न हो, मुनियों के प्रति बहुमान, भक्ति भाव वाला हो, जहाँ स्थंडिल एवं स्वाध्याय भूमि निरुपद्रव और निर्जीव हो, विहार में या चातुर्मास में साधु-साध्वी को स्थिरता हेतु उपरोक्त गुण युक्त क्षेत्र देखना चाहिए ।" विहार के अयोग्य क्षेत्र : : अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन विहार में अविधि से दोष : अविधि से विहार करने पर वसति, आहार (गोचरी), उपधि आदि दुर्लभ होती हैं; बाल-ग्लान- शैक्षादि योग्य भिक्षा दुर्लभ होती हैं; मांस- शोणित-पात, वसतिपतन इत्यादि कारण से स्वाध्याय भूमि दुर्लभ होने से स्वाध्याय की दुर्लभता; सिंह- वाघ - सर्पादि तथा मच्छारादि का उपद्रव; दुर्भिक्ष (अकाल), व्यन्तरकृत या स्त्र्यादि कृत उपद्रव, स्थंडिल भूमि की दुर्लभता, मलेच्छादि तथा स्वजन, शासन प्रत्यनीक (धर्म का शत्रु), राजा, चोर इत्यादि कृत उपद्रवादि, वध, बंधन, ताडन - मारण चोरादि के द्वारा उपाधि आदि ले लेना इत्यादि अनेक उपद्रव होने से आत्म विराधना, संयम विराधना, जीव विराधना और प्रवचन उड्डाह होता हैं। इसीलिये मुनि को अविधि से विहार करना निषिद्ध हैं 116 विहार से लाभ : जहाँ कुंथु-कीट-पतंगादि जीवोपद्रव अधिक हो, जहाँ मार्ग में चोर भय हो, राजभय हो, षट्काय जीवों की विराधना होती हो, वहाँ स्वयं की एवं संयम की विराधना होती है, अत: एसे क्षेत्र में साधु विहार न करें ।" चातुर्मास में विहार का विधान - निषेध : यद्यपि जैन मुनि नियमानुसार वर्षा के चारों महीनों में एक जगह स्थिर रहते हैं, तथापि राजभय, अशिव (मरकी आदि का उपद्रव), परपक्ष भय, आहार की दुर्लभता, चोर भय, प्रतिपक्षी ( विरोधी) भय, जल भय, ग्लान-चिकित्सा, आचार्य से श्रुत स्कन्धादि ग्रहण करना या आचार्यश्री को संवत्सरी खमत - खामणां (क्षमापना या उनके दर्शन हेतु, चारित्र में स्त्र्यादि भय उत्पन्न होना, अग्नि से गाँव जलना, संग्राम, जीवोत्पत्ति (जहरीले मच्छरादि जिनसे प्राण संकट या संयम विराधना हो), पूरे गाँव के श्रावकों का स्थानान्तरित हो जाना इत्यादि अनिवार्य विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर जैनागमों में चातुर्मास काल में भी मुनि को विहार करने की आज्ञा है । 19 जैन साधु को ज्ञानादि विशेष कारण के बिना सदैव शास्त्र मर्यादानुसार ग्रामानुग्राम नवकल्पी विहार अवश्य करना चाहिए ।" कदाचित् आचार्यादि या गुर्वादि की वैयावृत्य हेतु संयम वृद्धि हेतु एक स्थान पर निवास करना पडे तथापि मुनि को मोहल्ला, उपाश्रय, देश (एक भाग, यावत् पाट या संथारा की भूमि) बदलकर भाव से तो अवश्य मासकल्प का पालन करना ही चाहिए। 12 विहारयोग्य काल : चातुर्मास काल के अतिरिक्त शेष काल में मुनि को यदि विहार निकट क्षेत्र में हो तो सूत्रपोरिसी और अर्थपोरिसी, दोनों पोरिसी करके विहार करना चाहिए । यदि दूर हो तो सूत्रपोरिसी करके और इससे दूर हो तो पादोन प्रहर (नवकारसी के समय) पात्र, प्रतिलेखन करके और यदि ज्यादा दूर हो तो सूर्योदय होते ही और यदि लम्बा विहार हो और साधु गरमी के कारण तृषादि से व्याकुल हो जाते हों तो सूर्योदय से पहले विहार करें। 13 विहार की विधि : विहार करते समय आचार्यादि जो मुख्य हो उनके नन्दाभद्रादि तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, चन्द्रमा अनुकूल होने पर शुभमंगल- श्रेष्ठ शकुन की परीक्षा कर पहले स्थविर, वृद्ध साधु विहार करें, तत्पश्चात् आचार्य भगवंत साधुओं के साथ विहार करें । विहार करते समय आचार्य भगवंत शय्यातर को वसति, पाट-पाटला इत्यादि वापिस देकर धर्मलाभ देकर धर्मोद्यम हेतु प्रेरणा दे । तत्पश्चात् युवा मुनि (जिनके पास उपधि आदि अधिक हो) विहार करें। 14 विहार में मुनि के ओघ (14) उपकरण तथा आवश्यक उपकरण उपयोग में आवें या न आवें तथापि अवश्य रखें परन्तु अधिक उपधि, अनावश्यक अतिरिक्त सामान न रखें, और वस्त्रादि औपग्रहिक उपकरण भी कम रखें। 15 उत्तरगुणों में शिथिलाचारी ऐसा भी उद्यतविहारी साधु सुलभबोधि बनता है । वह आठों कर्मों को दूर (नष्ट) करता है । अनियत विहारी साधु सम्यक्त्व की शुद्धि करता है, लोगों को उपदेश देकर धर्म में स्थिर करते हैं, जन-वचन- देशादि की परीक्षा में अतिशय कुशलत्व प्राप्त करता है । चारित्र की उपबृंहणा और प्ररूपणा करता है और निश्चय से छः काय जीवों की दया करता है क्योंकि विहार में योग्य स्थान में वह मुनि लोगों को उपदेश देता है, इससे जिन्होंने जैन धर्म ग्रहण नहीं किया है वे भी जब तक व्याख्यान श्रवण करते है तब तक आरंभ-समारंभ से दूर रहते है एवं जो श्रावक धर्म ग्रहण कर चूके है वे परमार्थ को प्राप्त करके विशेष सावधानीपूर्वक विशुद्ध आराधना करते है। 17 मुनि के निवास योग्य वसति : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीने विहार में विश्राम हेतु मुनि के रहने योग्य स्थान (वसति) का वर्णन करते हुए बैल के आकार की परिकल्पना करने पर गाँव में मुनि की वसति के स्थानानुसार उसका फल बताते हुए कहा है कि "बैल के सींग के स्थान पर वसति होने पर वहाँ रहने से साधुओं में निरंतर कलह होता है, स्थान और मुनियों की स्थिरता नहीं रहती, चरण में गाढ स्थान पर स्थित वसति में रहने से मुनि को उदर रोग होता हैं, पूँछ की जगह पर होने पर वसति का स्फेटन या अपनयन होता है, मुख के मूल में वसति निवास होने पर सुंदर भोजन (गोचरी) प्राप्त होती है, मस्तक में ककुद् स्थानीय (दो सींग के मध्यम में) वसति निवास होने पर मुनियों को वस्त्र पात्रादि से पूजा - सत्कार इत्यादि लाभ होता है, स्कन्ध प्रदेश पर या उसके पृष्ठ भाग में वसति होने पर आने-जानेवालों से उपाश्रय भरा हुआ रहता है। उदर (पेट) की जगह पर वसति होने पर साधु नित्य तृप्त रहता है इसलिये मुनि को वृषभ परिकल्पनापूर्वक वृषभ के स्थान पर मुनि को समझकर प्रशस्त प्रदेश में, स्त्री-पशु-नपुंसक रहित वसति खोजना चाहिए। 18 अ. रा.पू. 6 / 1298 से 1300 अ. रा.पू. 6/1308-9-10 8. 9. 10. अ.रा. पृ. 6/1290-91 11. अ. रा.पू. 6/1307 12. अ. रा.पू. 6/1308 13. अ. रा.पू. 6/1304, बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य- 1/2/714 14. अ. रा. पृ. 6/1305 15. अ. रा.पू. 6/1320 16. अ. रा.पू. 6/1294 17 यतिदिनचर्या पृ. 33, 34 18. अ. रा.पू. 6/1298-99 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [269] पञ्च महाव्रत व्रत (वय): अभिधान राजेन्द्र कोष में 'वय' शब्द वचन, गोकुल, व्रत (नियम), वय (उम्र), व्यय (खर्च) और वाक्य इन अर्थो में दिया गया है। यहाँ 'वय' शब्द का 'व्रत' अर्थ अभीष्ट होने से इसी की व्याख्या की जायेगी। व्रत शब्द का शाब्दिक अर्थ 'नियम' किया गया हैं। जैनागमों में 'व्रत' शब्द जैन साधुओं के प्राणातिपातादि पंच महाव्रत और छठवें रात्रिभोजनविरमण व्रत के अर्थ में प्रयुक्त हैं । प्रवचनसारोद्धार में मूलगुणों के विषय में 'व्रत' शब्द का प्रयोग किया है। प्रथम तीर्थंकर के समय में सुख-संपन्न काल में रहने से जीवों को भिक्षादि एवं शीतोष्ण परिषहादि का सहन दुष्कर होता है तथा दाता उपशान्त होने से प्रमाद से स्खलना होने से शिष्यों को अनुशासित करना दुःशल्य होता है और अंतिम श्री महावीर शासन के साधु प्रायः मिथ्यात्वी, शीतरहित, दुविर्दग्ध बुद्धिवाले होते हैं अत: उन्हें शास्त्र समझाना बहुत कठिन है और दुःषम काल की रुक्षता के कारण और विविध प्रकार के शारीरिक रोगो और मानसिक दुःखों के कारण पीडित होने से, धैर्यबल का अभाव होने से उनको परिषहादि सहना अति दुष्कर होता है। मध्यम तीर्थंकरो के साधु ऋजु-प्रज्ञ होने से उनमें प्रायः कषायों की मंदता होने से उनको अनुशासित करना सहन-सरल होता है। काय-मान से पुरुषों के परिणाम की भिन्नता के कारण जैनधर्म प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु-जड होने से तथा अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्र-जड होने से प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन में साधुओं के पांच महाव्रत और मध्यम 22 तीर्थंकरों के साधु ऋजु-प्राज्ञ होने से उनके शासन में मैथुनविरमणव्रत को छोडकर चार महाव्रतों के पालन का विधान किया गया है। इसका कारण बताते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा गया है कि 'यदि प्रथम तीर्थंकर के साधुओं को अलग से मैथुनविरमण व्रत का उपदेश न दिया जाय तो जडबुद्धि होने से वे समझ नहीं पायेंगे कि हिंसादि चार आस्रवों का त्याग किया तो मैथुन भी त्याज्य है, और अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्र-जड होने से जानते हुए भी परपरिगृहीत स्त्री का प्रतिसेवन करेंगे और कहने पर कहेंगे कि हमें पहले क्यों नहीं कहा? इसलिये प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अंतिम तीर्थंकर वर्धमान स्वामीने पांच महाव्रतों का विधान किया। जब कि बीच के । तीर्थंकरों (श्री अजितनाथ से श्री पार्श्वनाथ तक के 22 तीर्थंकरों) के साधु ऋजु-प्राज्ञ होने से परिग्रह का निषेध करने मात्र से प्राज्ञत्वात् तीव्र क्षयोपशम वाले होने से स्त्री परिग्रह का कारण होने से अपरिग्रहीत या परपरिग्रहीत स्त्री का उपभोग नहीं करना चाहिए अतः परिग्रह के त्याग से मैथुन भी त्याज्य है - एसा स्वयं ही हेयोपादेय बुद्धि से विचार करके त्याग कर देते हैं, अत: उन्हें चार महाव्रत का विधान किया गया क्योंकि वे मैथुनविरमण व्रत को अपरिग्रह व्रत में अन्तर्भावित समझकर स्वयं ही त्याग कर देते हैं। मोक्ष के साधक साधु को सर्वसावध का त्याग करके, मन, वचन और काय से कृत-कारित-अनुमोदन पूर्वक यावज्जीव इन महान् व्रतों को ग्रहण करना चाहिए और आजीवन अखंड पालन करना चाहिए। क्योंकि व्रत भंग करके जीवित रहने की अपेक्षा जलती अग्नि में प्रवेश करना अच्छा है। महाव्रत : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने महाव्रतों का वर्णन करते हुए कहा है कि सर्वथा हिंसात्याग अथवा प्राणातिपातादि निवृत्ति लक्षण बडे व्रत/नियम को 'महाव्रत' कहते हैं। महाव्रतों को सर्वजीव, सर्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादि की अपेक्षा से विषय (व्याप्ति) की विशालता के कारण 'महाव्रत' कहते हैं। जिनेन्द्र वर्णीने कहा है कि 'महाव्रत महान् मोक्ष रुप अर्थ की सिद्धि करते हैं; तीर्थकरादि महान् पुरुषोंने इसका पालन किया हैं। इसमें सर्व पापयोगों का त्याग होने से स्वतः महान् हैं, पूज्य हैं, इसलिये इनका नाम महाव्रत हैं। अकेले या सभा में दिवस में रात्रि में, सोते या जागते किसी भी अवस्था में हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह - इन पाँचों आस्रवों का मन-वचन-कायसे कृत-कारित-अनुमोदनपूर्वक सर्वथा त्याग करना साधु का महाव्रत हैं।' पाँच महाव्रत और छठा रात्रि भोजन निम्नानुसार हैं 1. सर्वथा प्राणातिपात विरमण व्रत/अहिंसा महाव्रत 2.सर्वथा मृषावाद विरमण व्रत/सत्य महाव्रत 3. सर्वथा अदत्तादान विरमण व्रत/अचौर्य महाव्रत 4. सर्वथा मैथुन विरमण व्रत/ब्रह्मचर्य महाव्रत 5.सर्वथा परिग्रह विरमण व्रत/अपरिग्रह महाव्रत और महावीरशासन में छठा रात्रि भोजन विरमण व्रत भी मूलगुण में आता हैं। चरम तीर्थपति श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी ने सुधर्मा स्वामी को और उन्होंने जम्बू स्वामी को इन पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है। जो परंपरागत जैनागमानुसार अभिधान राजेन्द्र कोश में विस्तृत रुप से वर्णित हैं। यहाँ अति संक्षेप में महाव्रतों का परिचय दिया जा रहा हैं। सर्वथा प्राणातिपात विरमण : प्रथम महाव्रत : जैन मुनि के साध्वाचार की आधारशिला पंच महाव्रत हैं, जिसमें प्रथम महाव्रत हैं - अहिंसा महाव्रत अर्थात् - सर्वथा प्राणातिपात 1. 2. 3. 4. 5. अ.रा.प. 6/885,886 वही अ.रा.प. 6/885,886 अ.रा.पृ. 6/886 अ.रा.प. 6/181 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/628; जिनागमसार, पृ. 762 अ.रा.पृ. 6/181; रत्नकरंडक श्रावकाचार-53 अ.रा.पृ. 6/181; साधु प्रतिक्रमण, पाक्षिक सूत्र अ.रा.पृ. 6/181 7. 8. 9. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [270]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन विरमण व्रत । द्रव्य से पृथ्वी, अप् (जल), तेजः (अग्नि), वायु, वनस्पति अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने अहिंसा का माहात्म्य (ये पाँच स्थावर) और त्रस (द्वीन्द्रियादि) किसी भी प्रकार के सूक्ष्म या दर्शाते हुए कहा है24 - "अहिंसा देव मनुष्य एवं असुर लोक को संसार बादर जीव की क्षेत्र से लोक में या अलोक में, काल से दिन में या रात्रि सागर से पार उतरने हेतु द्वीप हैं। वह अज्ञान के अंधकार को नष्ट करके, में, भाव से राग से या द्वेष से, अकेले या सभा में, सुषुप्तावस्था में या हेय-ज्ञेय-उपादेय के ज्ञान रहित मूढात्माओं के विशुद्ध बुद्धिप्रभा को जाग्रतावस्था में किसी भी प्रकार से मन-वचन-काय से हिंसा करूँगा प्रकाशित करनेवाली होने से दीपक हैं। संसार-सागर में संकटों से रक्षक नहीं, कराउँगा नहीं और करनेवालों की अनुमोदना करूँगा नहीं; तथा होने से गति है। गुणों का स्थान होने से अहिंसा प्रतिष्ठा है। अहिंसा ही भूतकाल में जो हिंसा मुझसे हो गई हो उसकी निंदा करते हुए गर्हापूर्वक निर्वाण/मोक्ष, निवृत्ति अर्थात् स्वास्थ्य, समाधि, समता और शक्ति है। त्याग करता हूँ, वर्तमान में हिंसा नहीं करता हूँ और आगामी काल द्रोह के त्याग रुप होने से अहिंसा 'शांति' है। यश-ख्याति का कारण (भविष्य में जीव हिंसा का त्याग करता हूँ, प्रतिज्ञा ग्रहण करता हूँ।10 - होने से वह 'कीर्ति' है। कोमल (कमनीय) होने से अहिंसा क्रांति है। यह मुनि का प्रथम महाव्रत हैं। इसे समझने हेतु हमें प्रथम 'हिंसा- अहिंसा रति एवं विरति है। श्रुतज्ञान की अङ्ग एवं कारण होने से वह अहिंसा' को प्रतिपक्ष सहित समझना होगा। 'श्रुताङ्ग हैं। दशवैकालिक सूत्र में भी कहा है - "पढमं नाणं तओ अहिंसा : दया।''25 तृप्ति का कारण होने से अहिंसा 'तृप्ति' है। जीवों की रक्षा अहिंसा जैन आचार-दर्शन का प्राण हैं। अहिंसा वह धुरी है करनेवाली होने से अहिंसा 'दया' हैं। प्राणियों को सकल बंधनों से जिस पर समग्र जैन आचार-विधि धूमती है। जैनागमों में अहिंसा को मुक्त करनेवाली होने से अहिंसा 'विमुक्ति' है। क्रोध का निग्रह करानेवाली भगवती कहा गया है। अभिधान राजेन्द्र कोश में अहिंसा की व्याख्या होने से वह 'क्षान्ति' है। अहिंसा की आराधना सम्यग्बोध रुप की जाने करते हुए आचार्यश्रीने कहा है- हिंसा का अभाव अहिंसा है। प्राणियों से अहिंसा सम्यक्त्वाराधना है। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में अहिंसा मुख्य के प्राणवियोग के प्रयोजन पूर्वक के व्यापार का अभाव अहिंसा है। होने से 'महन्ती हैं। आगमों में कहा भी है कि, "जिनेश्वरों के द्वारा सर्व प्राणीहिंसा का त्याग अहिंसा है। अप्रमतता से शुभयोगपूर्वक (प्राणियों जीवों की रक्षा के लिये निश्चय से एक ही व्रत 'प्राणातिपात विरमण के) यावज्जीव प्राणों के नाश का अभाव अहिंसा हैं। बस और स्थावर व्रत' निदिष्ट किया गया हैं।''26 सर्वज्ञधर्म की प्राप्ति रुप होने से अहिंसा जीवों की रक्षा अहिंसा हैं। प्रमाद के योग से प्राणीहिंसा के त्यागरुप 'बोधि' है क्योंकि अनुकम्पा ही बोधि का कारण है। सफलता का प्रथम व्रत को 'अहिंसा' कहते हैं।। कारण होने से अहिंसा 'बुद्धि' हैं। कहा भी है -"बहत्तर कला में अहिंसा का वर्णन करते हुए आचार्यश्रीने आगे कहा है कि प्रवीण होने पर भी जो धर्मकला को नहीं जानता है वह पुरुष पंडित भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, होते हुए भी मूर्ख है।" और अहिंसा ही धर्म है। चित्त की दृढतापूर्वक भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, पशुओं को जैसे 10. अ.रा.पृ. 5/284; साधु प्रतिक्रमण, पाक्षिक सूत्र, प्रथम आलापक आश्रम, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ 11. क. न हिंसाऽहिंसा। - निशीथ चूर्णि -2 उद्देश; दशवैकालिकआधारभूत है, वैसे ही अहिंसा सर्व जीवों के लिए आधारभूत हैं। नियुक्ति । अ. अहिंसा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करनेवाली हैं ।।। ख. प्राणवियोगप्रयोजन व्यापाराभावे।-द्वात्रिशत् द्वात्रिशिका-21 अहिंसा वह शाश्वत धर्म है जिसका उपदेश सभी तीर्थंकर करते हैं। ग.प्राणिघातवर्जने। पञ्चवस्तुक, प्रथम द्वार आचारांग सूत्र में कहा गया है - भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी घ.प्रमत्तयोगात् प्राणव्यरोपणं हिंसा । तत्त्वार्थ सूत्र-778 ङत्रसस्थावर जीवरक्षायाम्। - संथारगपयन्त्रा तीर्थंकर यह उपदेश करते हैं कि "किसी भी प्राण, भूत, जीव और च. प्रमादयोगात्सत्त्वव्यरोपणविरतिरुपे प्रथमे व्रते। सत्त्व को किसी भी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, - अ.रा.भा. 1, अहिंसा शब्द, पृ. 871, 872; धर्मसंग्रह न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है। सटीक 3/4 समस्त लोक की पीडा को जानकर अरिहंतों ने इसका प्रतिपादन किया 12. अ.रा.भा. 873 हैं। सूत्रकृतांग सूत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी 13. क. आचारांग-1/4/1/275, 5/301 भी प्राणी की हिंसा न करे । अहिंसा ही समग्र धर्म का सार हैं, इसे 14. क. सूत्र कृतांग-1/1/4/10, एवं 1/11/10; अ.रा.पृ. 878, 879 सदैव स्मरण में रखे 14 पाक्षिक सूत्र में कहा गया है कि, प्रवचन का 15. पवयणस्स सारो खलु छः जीवनिकाय संजमं उवएसियं । -अ.रा.पृ. 5/ 301; पाक्षिक सूत्र-साधु प्रतिक्रमण सार षट्काय जीवों की रक्षा (जीव हिंसा के त्यागरुप संयम) हैं। 16. दशवैकालिक सूत्र 6/9 दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणियों के हित साधन में 17. भक्त परिज्ञा-91 अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने से महावीर ने इसको प्रथम स्थान दिया हैं।16 18. दशवैकालिक सूत्र 1/1 अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है। अहिंसा, संयम और तपरुप 19. अ.रा.पृ. 2/174 एवं भा. 6 पृ. 1061; आचारांग 1/1/7/56 धर्म उत्कृष्ट मङ्गल हैं । सदैव इस धर्म में जिसका मन लीन रहता है उसे 20. अ.रा.पृ. 1/879; सूत्रकृताङ्ग सटीक-2/2 देवता भी नमस्कार करते हैं।18 21. अ.रा.पृ. 1/875; प्रश्न व्याकरण 2/6/23 अ.रा.पृ. 1/878, 879; सूत्रकृताङ्ग 1/14/9 एवं 1/1/91 राजेन्द्र कोश में कहा है - साधनाशील पुरुष हिंसा में आतंक 23. अ.रा.पृ. 1/874; प्रश्न व्याकरण सूत्र 2/6/22 देखता है, उसे अहितकर मानता है, इसलिए (वह) हिंसा से निवृत्त होने 24. अ.रा.भा. 1, अहिंसा शब्द, पृ. 872, 873 में समर्थ होता हैं। अहिंसा को परम धर्माङ्ग कहा है। सुसाधु 25. दशवेंकालिक मूल 4/10 अहिंसापूर्वक संयमित होते हैं। सभी जीव दुःख से आक्रांत हैं अत: 26. एकचिय एकवयं, निद्दिटुं जिणवरेहि सव्वेहि। पाणाइवायविरमण - सव्वासत्तरस रक्खट्टा ॥1- अ.रा.भा. | पृ. 873, किसी की भी हिंसा न करें। भगवान जिनेश्वर देवने जगत के सभी 882; भा. 4 पृ. 2457; जीवों की रक्षा एवं दया के लिए प्रवचन को कहा हैं। हारिभद्रीय अष्टक-16; धर्मरत्र प्रकरण, अधिकार-1, पृ. 14 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अहिंसा का पालन किया जाता है अत: अहिंसा 'धृति' हैं। समृद्धि का कारण होने से अहिंसा को समृद्धि, ऋद्धि और वृद्धि कहा है। मोक्ष तक सादि अनंत स्थिति का कारण होने से अहिंसा को 'स्थिति' कहा है। पुण्य का संचय करानेवाली होने से अहिंसा 'पुष्टि' है। समृद्धि को लाने वाली होने से 'नन्दा' और कल्याणकारी होने से अहिंसा को 'भद्रा' कहा है। पापक्षय का उपाय होने से जीवन की निर्मलता स्वरुप होने के कारण अहिंसाको 'विशुद्धि' कहा है। केवलज्ञानादि लब्धि का निमित्त होने से अहिंसा को 'लब्धि' कहा है। सर्वदर्शनों में मुख्य एसे जैन दर्शन का प्रधान मत (जीवदया लक्षण मुख्य मत) होने के कारण अहिंसा को 'विशिष्ट दृष्टि' कहा है। कल्याण प्राप्तिकारिणी होने से इसे 'कल्याण' कहा है । दुरित (पाप) की शांतिकारिणी होने से इसे 'मङ्गल' कहा है। प्रमोद की उत्पादिनी होने से इसे 'प्रमोद' कहा है। सर्वविभूति का कारण होने से इसे 'विभूति' कहा है। जीवों की रक्षा करने के स्वभाववाली होने से 'अहिंसा' को 'रक्षा' कहा है। मोक्ष रुपी घर का मुख्य कारण होने से अहिंसा को 'सिद्धावास' कहा है। कर्मबंधन को रोकने का उपाय होने से अहिंसा को 'अनास्रव' कहा है। केवलि भगवंतो की अहिंसा (का पालन) व्यवस्थित होने से इसे केवलियों का स्थान (निवास) कहा है। शांति (कल्याण, मोक्ष) का हेतु एवं सम्यक् प्रवृत्तिवती हो से इसे 'शिवसमिति' कहा है। शील और संयम अहिंसा से उपचरित होने से उसे 'शीलसंयम' कहा है। चारित्र का स्थान होने से इसे 'शीलधर' कहा है। कर्मों के आगमन को रोकने के कारण इसे 'संवर' कहा है। अशुभ- मन-वचन-काय का निरोध करने के कारण इसे 'गति' कहा है। विशिष्ट निश्चयवाली होने से अहिंसा को 'ववसाय' कहा है। उन्नत स्वभाव के कारण इसे 'उच्छ्रयः' कहा है। भावदेवपूजा होने से इसे 'यज्ञ' कहा है। गुणों का आश्रय होने से इसे 'आयतन' कहा है। अभयदान एवं प्राणिरक्षा हेतु प्रयत्न के कारण इसे 'यत्न' कहा है। अहिंसा प्रमाद रहित होने से 'अप्रमाद', प्राणियों का आश्वासन होने से 'आश्वास', विश्वासपात्र होने 'विश्वास' प्राणियों को अभयदाता होने से अभय, प्राणिघात रहित होने से 'अमारि', अतिशय पवित्र होने से 'चोक्षपवित्रा' कहा है। सत्य, तप, इन्द्रिय-निग्रह, जीव दया और जल शौच-इन शुद्धियुक्त एवं भाव शुद्धि रुप होने से अहिंसा को 'शुद्धि' कहा है । 27 भाव से देवता के अर्चन (पूजन) स्वरुप होने से इसे 'पवित्रा' कहा है। मलरहित प्रभावशाली होने से इसे 'विमल प्रभा' कहा है और जीव को अतिशय निर्मल करनेवाली होने से इसे 'निर्मलतरा' कहा है। इस प्रकार आचार्यश्रीने राजेन्द्र कोश में अहिंसा-भगवती के तद्धर्मार्जित गुणनिर्मित यथार्थ पर्यायवाची नामों का वर्णन किया हैं। 28 आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के अनुसार तो जैन आचार-विधि का संपूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है, उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं । सभी नैतिक नियम और मर्यादाएँ इसके अन्तर्गत है; आचार-नियमों के दूसरे रूप जैसे असत्य भाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि तो जन साधारण को सुलभ रुप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न नामों से कहे जाते हैं वस्तुतः वे सभी अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष हैं। 29 भगवती आराधना में कहा गया है अहिंसा सब आश्रमों का हृदय हैं, सब शास्त्रों का गर्भ (उत्पत्ति स्थान) हैं 130 - हिंसा : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने अहिंसा की परिभाषा - देते हुए कहा है चतुर्थ परिच्छेद... [271] ‘“प्राणवियोग प्रयोजक व्यापार 2, प्रमाद या अनुपयोगपूर्वक की क्रिया-33, जीववध 34, प्रमाद के कारण प्राणियों की हिंसा, वध, बंधनादि रुप पीडा, दश प्राणों का वियोगीकरण हिंसा हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में वेदविहित हिंसा, एकान्त नित्यवादी और एकान्त अनित्यवादी की हिंसा और द्रव्य अहिंसा (जिसमें द्रव्य से तो अहिंसा हो परन्तु भाव से हिंसा हो) को हिंसा कहकर 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' - इस वाक्य का सम्मतितर्कानुसार दार्शनिक चर्चापूर्वक खंडन किया गया है। 36 हिंसा के प्रकार : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने दो प्रकार की हिंसा बताई हैं” - 1. संकल्पी - मारने की बुद्धि से जीव हिंसा करना, और 2. आरम्भी कृषि आदि आजीविका एवं गृहस्थ जीवन व्यापारव्यवहार में होने वाली हिंसा । यहाँ मुनि तो संकल्पी एवं आरंभी दोनों प्रकार की हिंसा के कृत- कारित - अनुमोदन का त्याग करते हैं परन्तु गृहस्थ श्रावक से कृषिव्यापार - रसोई आदि संबन्धी हिंसा का संपूर्ण त्याग संभव नहीं होने से गृहस्थ बिना कारण संकल्पी हिंसा का त्याग करता है और आरंभी हिंसा भी करनी पडे तो जीवदया के परिणामपूर्वक अनुकंपायुक्त हृदय से अनावश्यक आरंभ - समारंभ का त्याग करता है, पाप व्यापार युक्त आजीविका, 15 प्रकार के कर्मादान (देखिये- श्रावक का भोगोपभोग परिणाम व्रत) का त्याग करता है। 38 रत्नकरंडक श्रावकाचार में आरंभी हिंसा के तीन भेद करते हुए हिंसा के 1. संकल्पी 2. आरंभी 3. उद्योगी 4. विरोधी हिंसा के ये चार प्रकार दर्शाये हैं। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार श्रावक संकल्पी हिंसा का त्याग करता है, और आरंभी हिंसा में यतना (जीवदया) पूर्वक वर्तता है, उद्योगी हिंसा में जीव हिंसामय व्यापार, निंद्य कर्म, निंद्य आजीविका का त्याग करता है तथा अभिमान से, वैर से, धन लोभ से तथा लूट आदि करने के लिए दीन-दुःखी निर्बल को नहीं मारे, अपितु केवल दीन-दुःखी, अनाथ, धर्म और साधर्मी की रक्षा हेतु ही शस्त्र धारण करें, अन्यथा नहीं । हिंसा-अहिंसा की चतुर्भङ्गी है - 1. 28. 29. 30. : अभिधान राजेन्द्र कोशानुसार अहिंसा की चतुर्भङ्गीं निम्नानुसार द्रव्य से अहिंसा, भाव से हिंसा किसी व्यक्ति के द्वारा मंद प्रकाश में रस्सी को सर्प मानकर तलवारादि के द्वारा उसे मारने हेतु दौडने पर उसके हिंसक परिणाम होने से अथवा अनुपयोगी 27. अ. रा.पू. 1/873, 1161 एवं 7/1004, 1165 प्रश्नव्याकरण-1 संवरद्वार; चाणक्य राजनीति शास्त्र - 3/42; स्कन्द पुराण- काशी खण्ड-6 अ.रा. पृ. 1/872 पुरुषार्थ सिद्धयुपाय - 42 भगवती आराधना - 790 31. अ.रा. पृ. 7/1228 32. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका - 21 33. दशवैकालिक, 4 अध्ययन, सूत्र । 34. कर्मग्रंथ 1/61 35. स्थानांग - 4/1 36. अ. रा.पू. । अहिंसा शब्द, पृ. 1/878; भा. 7, हिंसा शब्द पृ. 1 / 1229 37. अ.रा. पृ. 5/846 38. 39. रत्नकरंडक श्रावकाचार, पृ. 89, 90, 91 अ. रा. पृ. 5/846, 847; रत्नकरंडक श्रावकाचार-53 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [272]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रमादी साधु को प्रमाद के कारण द्रव्य क्रिया करने पर भी के द्वारा विरति/चारित्र की प्राप्ति होती है, उससे परंपरा से स्वर्ग और मोक्ष अहिंसा के परिणाम नहीं होने से यह भङ्ग घटित होता हैं।40 की प्राप्ति होती है।55 दव्य से हिंसा,भाव से अहिंसा - ईर्यासमितिपूर्वक गमन क्रिया प्राणियों पर की गई दया (अहिंसा पालन) सुकृतों की करते समय उपयोगवान् अप्रमत्त साधु से यदि कोई हिंसा हो क्रीडास्थली, दुष्कृतो रुपी रज को दूर करने हेतु पवन, संकट रुपी जाय तो वह द्रव्य हिंसा है, भाव से तो अहिंसा है। सम्यग्दृष्टि अग्नि (के नाश) हेतु मेघपटल, लक्ष्मी की दूती, स्वर्ग की निसरणी, श्रावक के द्वारा जिनालय निर्माणादि में हुई द्रव्यहिंसा भाव से मुक्ति की प्रियसखीवत् है। अहिंसा पालन से दीर्धायुः, श्रेष्ठ तनु, हिंसा नहीं है (अहिंसा है)। उच्च गोत्र, धनाढ्यता, बल, स्वामीत्व, ऐश्वर्य, आरोग्य, यश कीर्ति, 3. द्रव्य से हिंसा, भाव से हिंसा- कोई शिकारी के द्वारा शिकार आदि प्राप्त होता है एवं वह आत्मा संसार सागर को सुखपूर्वक तैरकर की इच्छा से किसी जीव को निशाना बनाकर उसे बाणादि से पार पहुँचती है। बींधना - द्रव्य और भाव दोनों से हिंसा है क्योंकि यहाँ सर्वथा मृषावाद विरमण : द्वितीय महाव्रत :शिकारी की क्रिया और परिणाम दोनों हिंसा के हैं।42 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने द्रव्य अहिंसा, भाव से हिंसा - शिष्य के विकास की बुद्धि से द्वितीय महाव्रत का वर्णन करते हुए कहा है कि "द्रव्य, क्षेत्र, काल या गुरु के द्वारा शिष्ट के उपर किया जाता 'कोप' द्रव्य-भाव दोनों भाव से क्रोधादि से जीवन पर्यंत मन-वचन-काया से किसी भी प्रकार तरह से अहिंसा हैं। का झूठ बोलना नहीं, दूसरों से बुलवाना नहीं और बोलनेवालों की अहिंसा पालन हेतु कुछ सावधानियाँ : अनुमोदना करना नहीं।" -यह साधु का द्वितीय महाव्रत हैं।58 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने अहिंसक साधक के मृषावाद के चार प्रकार :पूर्ण अहिंसा पालन के लिए निम्नाङ्कित सावधानियाँ रखने का निर्देश 1. सद्भाव प्रतिबंध - 'नास्ति आत्मा, नास्ति पुण्यं, पापं च किया हैं इत्यादि । - अर्थात् आत्मा, पुण्य-पाप इत्यादि कुछ भी नहीं 1. पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति, बस-स्थावर आदि समस्त है। -एसी प्ररुपणा करना या कहना। जीवों की दयापालन करने हेतु शुद्ध आहार (गोचरी) की 2. असद् भावोद्भावन - आत्मा सर्वगत है या तन्दुल मात्र है। गवेषणा (खोज) करनी चाहिए । साधु कृत-कारित-अनुमोदन इस प्रकार आत्मादि का जो स्वरुप नहीं है वैसा (विपरीत की नव कोटि से शुद्ध, उद्गम-उत्पादनादि एवं स्वप्न-ज्योतिष स्वरुप) कहना-असद्भावोद्भावन रुप मृषावाद है। निमित्तादि 42 दोषों से रहित, ऋद्धि, रस और शाता गारव 3. अर्थान्तर - गाय को अश्व (घोडा) इत्यादि कहना (अहंकार) से रहित, वंदन-पूजन, मान-सम्मान, मित्रता-प्रार्थना, 4. गर्हा - जैसे - काणे को काण' कहना । पुन: यह क्रोधादि के निंदा-हीलना-गर्हा, रसलोलुपतादि से रहित जयणापूर्वक भेद से चार प्रकार का है। चारित्र-विनयगुणयुक्त एषणापूर्वक आहार चर्या करें। द्रव्यादि के भेद से मृषावाद के चार प्रकार :अहिंसा महाव्रत की पाँचों भावनाओं का पालन करना द्रव्यविषयक मृषावाद - धर्मास्तिकायादि या अन्य चाहिए। सचित्तचित्त सर्व द्रव्य संबन्धी विपरीत प्ररुपणा करना , मुनि के द्वारा किसी भी जीव की हिंसा करना नहीं, आज्ञापूर्वक कराना अन्य के वस्त्र-पात्रादि को अपना कहना, या अन्य के द्वारा बनाये (तैयार नहीं, उनका परिग्रहण करना नहीं तथा उन्हें परिताप (कष्ट) भी 40. अ.रा.पृ. 1/872 नहीं पहुँचाना 146 41. अ.रा.पृ. 5/872, 7/1231; श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति-224 इन षड् जीवनिकाय के समस्त जीवों के स्वरुप को ज्ञातकर 42. अ.रा.पृ. 5/872, 7/12313 श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति-225 मन-वचन-कायापूर्वक जीवहिंसामय आरंभ और परिग्रह से 43. अ.रा.पृ. 7/1231; श्रावक धर्म प्रज्ञसि-228 44. अ.रा.पृ. 1/874 मुनि दूर रहें। 45. अ.रा.प्र. 1/877 दुष्ट अनुबंध से बचने हेतु हिंसा कार्य से ही नहीं अपितु हिंसा 46. वही के निमित्तों से भी दूर रहना चाहिए ।48 47. अ.रा.पृ. 1/878, 879; सूत्रकृताङ्ग 1/9/9 'धार्मिक' की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने अनुयोगद्वार 48. अ.रा.पृ. 1/881; हरिभद्रीय अष्टक 16/3 49. न हिंस्यात्सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च । सूत्रोक्त श्लोक को उद्धृत करते हुए कहा है कि "स्थावर या त्रस किसी आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति स धार्मिकः ।। - अ.रा.भा. 1/878 भी जीव की हिंसा न करें। जो सभी भूतों (प्राणियों) को आत्मवत् 50. अ.रा.पृ. 1/879; सूत्रकृताङ्ग 2/2/80 देखता है (समझता है), वह 'धार्मिक' हैं। अहिंसा श्रेष्ठ धर्माङ्ग हैं।" 51. अ.रा.पृ. 1/879; सूत्रकृताङ्ग 1/11/10 -इस बात को अन्यान्य सभी दार्शनिक, धार्मिक लोग मानते हैं।50 52. अ.रा.पृ. 1/878; सूत्रकृताङ्ग 1/1/4/10 53. अ.रा.पृ. 1/881; सूत्रकृताङ्ग 2/2/1 ज्ञानी होने का यही सार है अहिंसा ही सिद्धान्त (आगम) हैं" - एसा 54. अ.रा.पृ. 1/882; हरिभद्रीय अष्टक 16/5 समझकर किसी भी जीव की हिंसा न करना । अहिंसा के लिए ही 55. अ.रा.पृ. 1/882 तीर्थंकरों ने अणुधर्म (अणुव्रत) कहा है। अहिंसा स्वर्ग और मोक्ष के 56. सूक्त मुक्तावली-25 57. वही-28 मुख्य हेतुभूत है। उसकी रक्षा के लिए सत्यादि व्रत कहे गये हैं।54 58. अ.रा.पृ. 6/326, 7/273 अहिंसा पालन का फल : 59. अ.रा.पृ. 6/321,322 अहिंसा पालन से क्लिष्ट कर्मो का वियोग होने से शुभानुबंध 60. वही 2. 5. दुष्ट Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [273] किये) हुए वस्त्र-पात्रादि को स्वयं के द्वारा निर्मित है। -एसा कहना।6 क्षेत्रविषयक मृषावाद - लोक-अलोक या किसी स्थान के विषय में झूठ बोलना, अथवा रात्रि के अँधेरे में अनजान में दूसरों की संथारा की भूमि को अपनी कहना या मुनि जहाँ वर्षावास रहे हो वहाँ चातुर्मास बाद अन्य मुनि के द्वारा उसी जगह पर ठहरने की आज्ञा माँगने पर 'यह तो मेरा उपाश्रय है'- एसा बोलना 163 काल संबन्धी मृषावाद - अतीत-अनागत काल संबन्धी या वर्तमान में जिस समय मृषावचन बोले तत्काल संबन्धी या दशवैकालिकादि विधि सूत्र के अध्ययन विषयक काल संबन्धी झूठ बोलना।64 अथवा उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी, सुषमादि आरों के विषय में झूठ बोलना 165 भाव संबन्धी मृषावाद - यह अनेक प्रकार से है1. क्रोध से - क्रोध होने पर पिता पुत्र को कहता है कि 'जा, तू मेरा पुत्र नहीं है', इत्यादि । 2. मान से - अभिमान के कारण झुठ बोलना । जैसे -मनुष्य के हाथ दो होने पर भी कहना कि "मेरे तो बहुत हाथ हैं।''67 3. माया से - राग-द्वेष से माया-कपट वृत्ति से मुनि के द्वारा स्वयं के दोष छिपाने या अन्य मुनि को त्रस्त करने के भाव से प्रचला निद्रा संबन्धी, वर्षा (गिरते पानी) में गमनागमन संबन्धी, जिनमंदिर दर्शनार्थ गमन संबन्धी, वंदन हेतु दीक्षापर्याय संबन्धी, गोचरी हेतु संखडी (एक प्रकार का दोष) संबन्धी, क्षुल्लक साधु को आर्तध्यानादि कराके त्रस्त करने हेतु उसे मायावी वचन बोलकर दुःख-खेदादि मानसिक विकार उत्पन्न कराने संबन्धी, समुदाय संबन्धी, भिक्षाचार्य हेतु दिशा, कुल, द्रव्यादि संबन्धी झूठ बोलना 'माया-मृषावाद' कहलाता हैं।68 लोभ से - झूठी साक्षी देना, द्रव्य के लोभ में सामनेवालों को विश्वास में लेकर झूठ बोलना लोभ हेतु मृषावाद कहलाता दशविध सत्या :1.जनपद सत्य - किसी देश विशेष में पानी को उदक, जल, नीर, पिच्छ इत्यादि कहते हैं, उस देश में वह सत्य हैं। 2.सम्मत सत्य - प्रामाणिक आचार्यों या विद्वानों द्वारा जिस शब्द का जो अर्थ नियत किया है, उन शब्दों को उसी अर्थ में मानना । जैसे - 'पङ्कज के शैवाल, मेंढक इत्यादि अर्थ होने पर भी उसे 'कमल, अर्थ में ही मानना। 3. स्थापना सत्य - जीव या अजीव कोई भी वस्तु के आकार का चाहे उसमें वह गुण हो या न हो, वह नाम स्थापित करना । जैसे - आचार्य की मूर्ति को आचार्य कहना। 4. नाम सत्य व्यक्ति में गुण न होने पर भी उसे गुणचन्द्र, धनपाल, राजा इत्यादि नाम से बुलाना । 5.स्प सत्य साधुत्व न होने पर भी साधु वेशधारी को 'साधु' कहना व्यवहार दृष्टि से सत्य हैं। 6. प्रतीत सत्य - किसी की अपेक्षा से किसी को बडा या छोटा कहना । जैसे - हिमालय की अपेक्षा गिरनार को छोटा कहना। 7. व्यवहार सत्य - पर्वत नहीं जलता, अपितु पर्वत पर लकडी या चारा आदि ईधन जलता है, तथापि 'पर्वत जल रहा है' - एसा कहना। 8. भाव सत्य किसी गुण की अधिकता से उस पदार्थ या व्यक्ति को वैसा कहना । जैसे- बगुले के शरीर पर पाँचों वर्ण होने पर भी श्वेत रंग की अधिकता के कारण उसे श्वेत कहना । 9.योग सत्य किसी पदार्थ के संबन्ध से उसे सम्बोधित करना। यथा - दण्ड रखने से मनुष्य को दण्डी, लकडी वहन करने से लकडहारा कहना, इत्यादि योगसत्य हैं। 10. उपमान सत्य- तालाब समुद्र जैसा कहना या किसी पुरुष को तुम तो सिंह हो, किसी स्त्री को वह तो देवी है - इत्यादि कहना उपमान सत्य हैं। 61. अ.रा.पृ. 1/773 62. अ.रा.पृ. 6/321, 322 63. अ.रा.पृ. 1/773 64. अ.रा.पृ. 1/773, 6/321 65. अ.रा.पृ. 6/332 66. अ.रा.पृ. 6/321,322 67. वही 68. अ.रा.पृ. 1/774 से 7 एवं 6/321 से 324 69. अ.रा.पृ. 6/321 70. अ.रा.पृ. 6/329 71. अ.रा.पृ. 7/271 72. वही 73. वही 74. वही 75. अ.रा.पृ. 3/229, 230; 7/271, 272; स्थानांग 10 वाँ ठाणां अन्य भी असद्भूतवाद, विकथा, अनर्थवाद (निष्प्रयोजन वाद), कलह, अन्याययुक्त वचन, दूसरों के दूषण कहना, विवाद, परविडम्बनकारी वचन, लज्जारहित वचन, लोकनिन्दाकारी, असभ्य वचन, अज्ञात वचन, स्व-प्रशंसा एवं परनिन्दा, जाति-कुल-रुप-व्याधि इत्यादि से किसी को अपमानित करनेवाले (नीचा दिखाने वाले) वचन, परचित्तपीडाकारी वचन या शाप (अभिशाप) युक्त वचन बोलना'-यह भी मृषावाद कहलाता हैं। यदि एसे सत्य वचन हों तो भी असत्य हैं, अत:त्याज्य हैं। असत्य के त्याग हेतु सत्य को समजना आवश्यक है अतः सत्य का परिचय दिया जा रहा है। सत्य : 'सत्य' की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि यथावस्थित वस्तुविकल्प चिन्तन 'सत्य' कहलाता हैं। सत्य के भेद :क. सत्य के तीन प्रकार से2: 1. मनोवचन सत्य 2. मनः काय सत्य 3. वचन काय सत्य। ख. सत्य चार प्रकार से : 1. नाम सत्य 2. स्थापना सत्य 3. द्रव्य सत्य 4. भाव सत्य । ग. सत्य चार प्रकार से : 1. काययुक्त 2. भाषायुक्त 3. भावयुक्त 4. अविसंवादनयुक्त। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [274]... चतुर्थ परिच्छेद सत्य-असत्य की चतुर्भङ्गी" : 1. द्रव्य से असत्य भाव से सत्य जैसे किसी व्यक्ति को कोई शिकारी या वधिक के पूछा कि इधर गाय / मृग इत्यादि कोई पशु को जाते हुए देखा ? तो देखा हुआ होने पर भी जीवदया के कारण "नहीं देखा।" - एसा कहना यह द्रव्य से असत्य होने पर भी जीवदया पालन के भाव से सत्य हैं। 2. द्रव्य से असत्य भाव से भी असत्य जानबूझकर द्रव्य से ( शब्द से) और परिणाम से भी झूठ बोलना इस प्रकार का यह असत्य हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सत्य के गुण : सत्यवचन पवित्र, मोक्ष का हेतु, यथार्थ होने से सुजात (शुभ), सुभाषित, शुभाश्रित, सुखाश्रित, सुधासित, सुव्रत (सुंदर), सुकथित, सुदृष्ट (अतीन्द्रियार्थदर्शी), दृढ, सुप्रतिष्ठित (समस्त प्रामाणों से सिद्ध), सुप्रतिष्ठितयशयुक्त, सुसंयमित, बहुत (श्रेष्ठ सुर-नर) सम्मत, परम साधुओं के द्वारा तप-नियम स्प धर्मानुष्ठान में अङ्गीकृत, सुगतिपथदेशक लोकोत्तमवृत्त से युक्त हैं । यही अनवद्य परम श्रेष्ठ हैं । - 3. द्रव्य से सत्य भाव से असत्य किसी के द्वारा जानते हुए भी असत्य बोलने पर भी सहसा (अचानक किसी कारण से) वह वचन सत्य हो जाना। यदि एसे वचन सत्य हो जायें तथापि उस व्यक्ति की भावना सत्य बोलने की नहीं होने से यह मृषावाद हैं। 4. द्रव्य से सत्य भाव से सत्य लोक- अलोक, शाश्वत पदार्थ, तत्त्वादि के विषय में या अन्य विषयों में सत्य कहने की भावनापूर्वक शास्त्रसम्मत सत्य वचन बोलना । चतुर्भङ्गी का ग्राह्यग्राह्यत्व : इसमें अंतिम भङ्ग सत्य है वह आचरणीय है । प्रसंगवश प्रथम भङ्ग भी सत्य होने से आचरणीय है, क्योंकि निशीथचूर्णि में कहा है कि “यदि प्रवचन-उड्डाह/शासननिन्दा रोकने हेतु, संयम रक्षा हेतु, चोरादि के द्वारा पकडे जाने पर, प्रत्यनीक (शासन का द्वेषी / वैरी) के क्षेत्र में, शैक्ष (नवदीक्षित) के निमित्त यदि मुनि को असत्य बोलना पडे तो भी प्रवचनरक्षा एवं संयमरक्षा हेतु बोला हुआ असत्य भी असत्य नहीं कहलाता, क्योंकि असत्यभाषी मुनि के परिणाम शुद्ध हैं, अतः वह सत्यवक्ता ही है।” अलीकवचन (झूठ बोलने से हानि : मृषावादी गुणगौरवरहित, चपल, भयकारी, दुःखकारी, अपयशकारी, संक्लेशकारी, अशुभफलयादी जात्यादिहीन, नृशंस, निःशंस (प्रशंसादि रहित), अविश्वसनीय, भवभ्रमणकारी, विपाकदारुण 8, विवेकरहित, महाभयवर्धक, तपरहित, दुःखदायी स्थानवासी, परवश, अर्थभोगरहित, दुःखी, मित्ररहित, बीभत्स, खर (अतिकर्कश), संस्काररहित, अचेतन (विशिष्ट बुद्धिरहित) दुर्भाग्यवान्, कठोर, दुःस्वरयुक्त, हिंसक, धर्मबुद्धिरहित, अपमानित, प्रेमरहित, सत्संगहीन, कुभोजन- कुवस्त्र वसतियुक्त होते हैं; अतः सज्जन समाज में उनकी निर्भत्सना होती है, वे लोकगर्हणीय होते हैं, अंत में नरक - तिर्यंच योनियों के दुःख और वेदना प्राप्त करते हैं और पुनः मनुष्य भव प्राप्त होने पर भी वे जड, बधिर, मूक, अंध इत्यादि दुःखमय स्वरुप को प्राप्त होते हैं; धर्म उन्हें दुर्लभ हो जाता हैं।” अतः अलीक वचन का त्याग करना चाहिए । आदर्श वचन : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने मुनि या सज्जन वर्ग योग्य भाषा का वर्णन करते हुए कहा है कि महाव्रती मुनि द्रव्य, पर्याय, गुण वर्ण, कर्म, शिल्प, आगम (सिद्धांत), तथा नाम, आख्यात (क्रियापद), निपात, उपसर्ग, तद्धित, समास, संधि, पद, हेतु, यौगिक, उणादि क्रियाविधान, धातु, स्वर, विभक्ति, वर्ण से युक्त तथा जनपदादि (दस प्रकार के) सत्ययुक्त वचन भी अरिहंत परमात्मा के द्वारा अनुज्ञात, उभयलोक परिशुद्ध और स्व- पर किसी को भी पीडा जनक न हो तो ही बुद्धिपूर्वक पर्यालोचित (विचार) करके, संयमपूर्वक, योग्य अवसर होने पर ही बोलें 80 सत्य बोलने से लाभ : 'जो जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्ररुपित है, वही निःशंक सत्य हैं।' इस परम सत्य (शास्त्रज्ञता) को जानकर जो आत्मा तदनुसार आचरण करती हैं वह संसार-समुद्र को तैरती है। 2 सत्यवक्ता महासमुद्र में भी नहीं डूबता, जाज्वल्यमान अग्नि में या अग्नि से उकलते तेल की कढाही में भी नहीं जलता, पर्वत से गिरने पर भी वह नहीं मरता, संग्राम में तनी हुई तलवारों के बीच भी वह अक्षतशरीर निकल जाता है । ताडन, बन्ध, वध, बलात्कार इत्यादि में घोर रियों / शत्रुओ के द्वारा भी वह मुक्त किया जाता है। (उसे ताडनादि नहीं होते) शत्रुओं के बीच में भी वह सुरक्षित निकल जाता है। देवता उसका सान्निध्य करते हैं, लोकप्रियत्व, आकाशगामिनी आदि विद्याएँ और विशिष्ट लब्धियाँ, मंत्र - मणि - औषधि - वशीकरणादि प्रयोग, विभिन्न कलाएँ - विघाएँ, अस्त्र-शस्त्र, शास्त्र, सिद्धान्त आदि सत्य में प्रतिष्ठित हैं । उभयलोक में सत्य वचन ही आदेय, अनुकरणीय वक्तव्य है । अतः मुनि को अल्पांश भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। 83 सर्वथा अदत्तादानविरमण : तृतीय महाव्रत : अभिधान राजेन्द्र कोश में मुनि के तृतीय महाव्रत की व्याख्या/विवेचन करते हुए आचार्य श्रीने स्थानांगसूत्र को उद्धृत करते हुए कहा है कि मुनि के द्वारा ग्रहण किये जानेवाले कोई भी द्रव्य, क्षेत्रादि उसके स्वामी, उनमें रहने वाले जीव, तीर्थंकर या गुरु की आज्ञा या अनुमति के बिना ग्रहण करना 'अदत्तादान' कहलाता हैं। 84 इन चारों प्रकार के अदत्तादानों का सर्वथा त्याग / प्रत्याख्यान करना मुनि का सर्वथा अदत्तादानविरमण नामक तृतीय महाव्रत हैं 185 अभिधान राजेन्द्र कोश में तृतीय महाव्रत का स्वरुप वर्णन करते हुए कहा है, "हे भगवान! मैं तृतीय महाव्रत में सर्वथा सर्व प्रकार की चोरी करने का त्याग करता हूँ। मैं जीवनपर्यंत गाँव या नगर में या जंगल में, अल्प या बहुमूल्य की, छोटी या बडी, सचित या अचित बिना दी हुई वस्तु को मन-वचन-काय से ग्रहण नहीं करूँगा, नहीं कराऊँगा, और करनेवालों को अच्छा नहीं समझँगा । 76. 77. 78. 79. 80. 81. 82. 83. 84. अ. रा. पृ. 6/321 अ.रा. पृ. 6/325; निशीथ चूर्णि - 1/322-23-24 अ.रा. पृ. 1/777 अ. रा. पृ. 1/784, 3/326 अ.रा. पृ. 6/329, 330 अ.रा. पृ. 6/328 अ. रा. पृ. 6/273 अ. रा. पृ. 6/328-329 अ.रा. पृ. 1/526; स्थानांग- 1/1 85. अ.रा. पृ. 1/540; प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 86. अ. रा.पृ. 1/540, 541; पाक्षिक सूत्र- तृतीय आलापक, साधु प्रतिक्रमण Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [275] अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने जैनागमों के अनुसार (5) भाव चोर - बहुश्रुत नहीं होने पर भी बहुश्रुत/आगमज्ञाता विविध प्रकार के अदतादान का दिग्दर्शन कराया है कहलाना । श्रुतज्ञानार्जन नहीं करते हुए अन्य से चोरी-छिपे क. द्रव्य-अदत्तादान विरमण : जैनागमों की बाते सुनकर, लोगों को सुनाकर "मैने जैनागमों यह चार प्रकार का है का अध्ययन किया है।" एसा कहना ।92 (1) स्वाम्यदत्तादान विरमण - रास्ते में पडे हुए (जिसके स्वामी तृतीय महाव्रत के सुचारुपालन की विधि :का पता नहीं है) मणि, मोती, शिला, प्रवाल, रत्न, सोना, चांदी जो मुनि दोष रहित आहार, जल, उपधि, शय्या आदिपूर्वक आदि ग्रहण करना नहीं और दूसरों को उसके बारे में कहना भी आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, साधर्मी (साधु), नहीं। तथा साधु प्रयोग्य आहार, जल, औषध, तृण, काष्ठ, कुल, गण, संघ की वैयावृत्त्य करता हैं, जहाँ अपने जाने से अप्रीति राख, पत्थर, चौकी, पटिया, शय्या (संथारा), वस्त्र, कम्बल, उपजे एसे गृहादि में जो नहीं जाता, वहाँ से आहारादि तथा उपकरणादि उपधि, रजोहरण, मुहपत्ति, दण्ड, पात्र, मिट्टी आदि के वर्तनादि, ग्रहण नहीं करता, जो दूसरों की निंदा नहीं करता, ग्लानादि का बहाना उपकरण आदि उसके मालिक की अनुमति/आज्ञा के बिना बनाकर गृहस्थों से आहारादि द्रव्यादि ग्रहण नहीं करता, किसीको धर्म ग्रहण नहीं करना चाहिए। आचार्य, ग्लान, तपस्वी आदि के से विमुख नहीं करता तथा वैयावृत्त्यादि करके पश्चाताप नहीं करता, और लिये लाये आहारादि दाता की बिना आज्ञा के नहीं ग्रहण प्राप्त किये हुए आहारादि का संविभाग करने में कुशल तथा शिष्यादि का करना चाहिए। संग्रह कर उन्हें आहार, श्रुतादि के दान से संतुष्ट करनेवाला मुनि तृतीय जीव अदत्तादान विरमण - (1) सचित आहार, जल आदि महाव्रत की अच्छी तरह से आराधना करता है। ग्रहण करने हेतु उसमें रहने वाला जीव अनुमति नहीं देता, अदत्तादान विरमण व्रत के लाभ :अतः उसे ग्रहण नहीं करना (2) जिस नर-नारी की दीक्षा/ जो भव्यात्मा अदत्त का ग्रहण नहीं करता; सिद्धि उसकी प्रवज्या ग्रहण करने की स्वतःस्फूर्त वैराग्य-भावना या परिणाम न हो, उसके माता-पितादि परिवार के द्वारा उसे दिये जाने पर इच्छा करती है, समृद्धि उसे प्राप्त होती है, कीर्ति उसकी अनुचरी भी उसे दीक्षा नहीं देना चाहिए। (3) जीवाकुल (जीवों से है, उसके संसार संबंधी दु:ख दूर होतेहैं, सुगति प्राप्त होती है। दुर्गति व्याप्त) भूमि का उपयोग नहीं करना चाहिए । इस प्रकार जीव उसे देख नहीं सकती, विपत्ति दूर होती है, उसमें सद्गुणों की श्रेणि अदत्तादान के तीन प्रभेद हैं। निवास करती है एवं विनीत को जैसे सभी विद्याएँ स्वतः प्राप्त होती (3) तीर्थंकर अदत्तादान विरमण - जिस आधाकर्मादि दूषित है वैसे अदत्तादानत्यागी को स्वर्ग एवं मोक्ष की लक्ष्मी सहज प्राप्त आहारादि का तीर्थंकर परमात्मा ने निषेध किया है, उसे ग्रहण हो जाती है। नहीं करना, तीर्थंकर की आज्ञा के विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं करना। अदत्तादान ग्रहण से हानि :गुरुअदत्तादान विरमण- तीर्थंकर की आज्ञा के अनुसार गृह तप-वचन-रुप-आचार और भाव के चोर एसे अदत्तादान स्वामी के द्वारा अपनी इच्छापूर्वक अर्पित किया हुआ 42 ग्रहण करनेवाले साधु यहाँ से आयुः पूर्ण कर किल्बिषक (चांडाल/नोकर दोषरहित आहारादि भी मुनि के द्वारा गुरु को दिखाकर; गुरु की जैसी देव जाति) देव में उत्पन्न होता है; वहाँ से च्युत होकर मनुष्य गति आज्ञा प्राप्त करके ही उपयोग में लेना चाहिए। में गूंगा-मूंगा (मूक) होता है, या तिर्यंच गति में जन्म लेता है; वहाँ से ख. क्षेत्र अदत्तादान विरमण : नरक गति में जाता है। वहाँ परंपरा से जिनधर्म एवं बोधिप्राप्ति दुर्लभ ग्राम, नगर या अरण्य में स्वामी की आज्ञा के बिना नहीं होती है। ठहरना। स्वामी की आज्ञा लिये बिना वसति, उपाश्रय, स्थंडिल, भूमि सर्वथा मैथन विरमण : चतुर्थ महाव्रत :इत्यादि का उपयोग नहीं करना। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ग. काल अदत्तादान विरमण - रात्रि में किसी भी द्रव्यादि ने चतुर्थ महाव्रत का वर्णन करते हुए कहा है कि "मुनि के द्वारा या आहारादि को ग्रहण नहीं करना 189 और चाहे दिन हो या रात्रि, किसी जीवन पर्यंत द्रव्य से रुप (सजीव मनुष्यादि) रुपसहगत (चित्रचित्रित भी समय अदत्तद्रव्यादि ग्रहण नहीं करना । अजीव स्त्री आदि) के साथ, क्षेत्र से उर्ध्वलोक, अधोलोक या तिर्यग् घ. भाव अदत्तादान विरमण" - राग या द्वेष से स्वामी, लोक में काल से दिन में या रात्रि में भाव से राग से (माया या जीव, तीर्थंकर या गुरु के द्वारा नहीं दिया हुआ या उनकी आज्ञा के बिना लोभ से), द्वेष (क्रोध, मान) से, मन-वचन-काया से देव-मनुष्य या कुछ भी ग्रहण नहीं करना । एवं भाव से तप, वचन, रुप, आचार या श्रुत तिर्यंच संबन्धी स्त्री-पुरुष या नपुंसक के साथ मैथुन सेवन करूँगा का चोर नहीं बनना। नहीं, कराऊँगा नहीं, करनेवालों की अनुमोदना करूँगा नहीं - एसी (1) तपःचोर- स्वयं तपस्वी नहीं होते हुए भी तपस्वी कहलाना 87. अ.रा.पृ. 1/538, 542 या 'साधु मात्र तपस्वी होते हैं' -एसा बोलना या सही तपस्वी 88. अ.रा.पृ. 1/539, 542; निशीथ चूर्णि-2/72 को छिपाना। 89. अ.रा.भा. 3/'कप्प' शब्द (2) वचनचोर - स्वयं,व्याख्याता नहीं होने पर भी वैसा कहलाना 90. अ.रा.पृ. 1/539; साधु प्रतिक्रमण-तृती आलापक 91. अ.रा.पृ. 1/539; दशवैकालिक मूल 5/2/46 (प्रसिद्धि करवाना)। 92. अ.रा.पृ. 1/539; एवं 1/543 (3) स्म चोर - पेट भरने हेतु साधु वेश धारण करना। 93. अ.रा.पृ. 1/543 (4) आचारचोर-सुविहित साध्वाचार का क्रियारुचि सहित मन- 94. सूक्त मुक्तावली-33, 34 वचन-काया की एकाग्रतापूर्वक पालन नहीं करना। 95. अ.रा.पृ. 1/539-40 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [276]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रतिज्ञा करना मुनि का चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत/सर्वथा मैथुन विरमण से सुरक्षा नहीं करने पर वृद्धावस्था में रोगों का आक्रमण तीव्रता से व्रत है। इस व्रत का धारक मुनि 18000 शीलाङ्गो (शुद्ध प्रवर्तन, होता हैं। विष खाने से तो मृत्यु आती है लेकिन विषय के तो स्मरण अत्युत्तम चारित्र) का पालन करता हैं।” मात्र से सर्वनाश होता है।"शिव संहिता' में वीर्य के पतन को मृत्यु ___अभिधान राजेन्द्र कोश में अब्रह्म, स्त्री के अङ्गोपाङ्गादि देखकर और उसकी रक्षा को जीवन माना हैं।107 .. प्रसन्न होकर स्तम्भित होना, स्त्रीसंपर्क, कामसुख कामक्रीडा, कामाभिलाषा, ब्रह्मचर्य का माहात्म्य :स्त्री आदि की अभिलाषसंज्ञा से उत्पन्न वेदजनित मोह के उदय को ब्रह्मचर्य व्रत तारागण में चन्द्रमा, व्रत-नियमादि रत्नोत्पत्ति 'मैथुन' कहा गया हैं।98 वसति आदि के दोष से अथवा मोहनीय हेतु रत्नाकर, रत्नों में वैडूर्य, आभूषणों में मुकुट, वस्त्रों में क्षौमयुगल, कर्म के उदय से 18000 शीलांगरथ सहित महाव्रतधारी मुनि को भी पुष्पो में कमल, चन्दनों में गोशीर्ष, औषधि हेतु हिमालय (आमर्शादि क्वचित् मैथुन अभिलाषा होने की संभावना रहती है, अतः महाव्रतों औषधियों (लब्धियों) का उत्पत्तिस्थान), नदियों में सीतोदा, समुद्रों की सुरक्षा हेतु अट्ठारह हजार भंग सहित निर्मल शील/ब्रह्मचर्य के में स्वयंभूरमण समुद्र, माण्डलिक पर्वतो में रुचकद्वीप, हाथियों में पालन हेतु मुनि को ब्रह्मचर्य की 9 बाडों का सदैव पालन करना ऐरावत, पशुओं में सिंह, सुवर्णकुमारादि में वेणुदेव, सर्पो में पन्नगेन्द्रराज, चाहिए तथा अब्रह्म से होने वाली हानि और ब्रह्मचर्य की महिमा देवलोक में ब्रह्म देवलोक (उसके विस्तार एवं ब्रह्मेन्द्र के अतिशुभपरिणाम तथा ब्रह्मव्रत पालन से होने वाले लाभ का चिंतन करना चाहिए: के कारण), सभाओं में सुधर्मा सभा, आयु में लवसत्तम अनुभवमोहोदय होने पर नीवी, आयंबिल इत्यादि तप करना चाहिए।99 स्थिति, दानों में अभयदान, कम्बलों में रत्नकंबल, संहनन में वज्रऋषभनाराच ब्रह्मचर्य की नव गुप्ति (बाड): सहनन, ध्यानों में शुक्ल ध्यान, ज्ञान में केवलज्ञान, लेश्या में शुक्ल कुडुंतर पुव्व कीलिए पणिए । वसहि कह निस्सिदिय । लेश्या, केवलियों/मुनियों में तीर्थंकर, क्षेत्रो में महाविदेह क्षेत्र, मेरु अइमयाहार विभूषणाइ, नवं बंभचेर गुत्तीए । पर्वतो में सुदर्शन मेरु, वनो में नन्दनवन, वृक्षो में (सुदर्शन मेरु का) संयम जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत की सुरक्षा हेतु साधक को जम्बू वृक्ष - के समान अनेक गुणों के कारण सर्वत्र प्रसिद्ध एवं मन-वचन-कायापूर्वक इन नव गुप्ति/बाड का पालन करना अनिवार्य सर्वश्रेष्ठ हैं। है; जो निम्नानुसार है - ब्रह्मचर्य की महिमा108 :(1) स्त्री, पुरुष और नपुंसक रहित स्थान में निवास करना। ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व (2) स्त्री के साथ कथा नहीं करना (अकेली स्त्रियों के बीच धर्मकथा का मूल (मूल कारण) हैं। हिमवत् पर्वत के समान अतिशय तेजस्वी, भी नहीं करना)। प्रशस्त, गंभीर, अचपल, मध्यस्थ, आर्जव, साधुजनाचरित, मोक्षमार्ग, जिस आसन पर स्त्री बैठी हो उस स्थान/आसन पर दो घडी/ विशुद्धि, सिद्धिगतिनिलय, शाश्वत, अव्याबाध, अपुनर्भव (जन्म४८ मिनिट के पूर्व नहिं बैठना। (जिस आसन पर पुरुष मरण नाशक), सौम्य, सुख (मोक्ष सुख), शिव (उपद्रवरहित), अचल, बैठा हो उस आसन पर स्त्री को तीन प्रहर तक नहीं बैठना ।) अक्षयकर, मुनिपालित, सुचरित, सुभाषित, सुदर्शित, निर्वैर, निर्दोष, (4) स्त्रियों की ओर राग से देखना नहीं। भव्यजनानुचरित, निःशंकित, निर्भय, निस्तुष (विशुद्ध तन्दुलकल्प), जहां स्त्री-पुरुष दोनों का निवास हो, उनका शयनखंड हो निरायास (खेदरहित), निरुपलेप, निवृत्ति का घर, निष्कंप, तपःसंयममूल, वहां बीच में एक दिवार होने पर भी नहिं रहना, उनकी महाव्रत रक्षक, समितिगुप्तियुक्त, ध्यानरक्षक, दुर्गतिनाशक, सुगतिपथदर्शक, बाते नहीं सुनना। लोकोत्तम, पद्मसरोवर की पालीभूत, क्षान्त्यादिगुणयुक्त, विनयादि गृहस्थ जीवन संबंधी पूर्व भोगों को याद नहिं करना। गुणों का समूह हैं। सदा छ: विगईयुक्त (एकसाथ) स्निग्ध आहार नहीं करना। (8) अत्यधिक आहार या प्रमाणरहित आहार नहीं करना। 96. अ.रा.भा. 5, 'पडिक्कमण' शब्द, 6/425; श्रमणसूत्र, चतुर्थ आलापक (9) देह विभूषा (टाप-टीप) नहीं करना ।100 97.3 योग (मन-वचन-काया) x 3 करण (करण-करावण-अनुमोदन) = मैथुन के दोष/अब्रह्म से हानि : 9x4 संज्ञा (आहारादि) = 36 x 5 इन्द्रियाँ (स्पर्मादि) = 180 x 10 (5 स्थावर + 4 त्रसकाय + 1 अजीव) = 1800 x 10 यतिधर्म जैनागमों में कहा है कि स्त्री की योनि में 9 लाख पंचेन्द्रिय (क्षमादि) = 18000 भेद शीलाङ्ग रथ के होते हैं। अ.रा.पृ. 1/251, 252 मनुष्य, लाख पृथकत्व (2 से 9 लाख) द्वीन्द्रिय एवं असंख्य संमूच्छिम 98. अ.रा.पृ. 6/425, एवं भा. 5, पडिक्कमण शब्द गर्भज जीव होते हैं। (यह संख्याप्रमाण जैनागमानुसार है)। जैसे रुई 99. अ.रा.पृ. 6/425 से भरी नली में अग्नि तप्त लोहशलाका का प्रवेश होते ही समस्त 100. श्रमण नामातिचार सूत्र - चतुर्थ आलापक रुई जलकर भस्म हो जाती है, वैसे ही स्त्री की योनि में रहनेवाले 101. संबोध सत्तरि प्रकरण-83, 85, 87 ये जीव पुरुष के संयोग से नष्ट होते हैं अर्थात् मैथुनसंज्ञारुढ इन जीवों 102. वही अ.रा.पृ. 6/426, 428; भगवती सूत्र 2/5; संबोधसत्तरीप्रकरण 84, 86 का नाश करता है ।102 अब्रह्म भयंकर, सर्व प्रमाद का मूल, अनन्तसंसार 103. अ.रा.पृ. 6/426 से 428 भ्रमण का हेतु, अधर्म का मूल, महादोषोत्पादक है। 103 अत: परमात्माने 104. अ.रा.पृ. 6/429 कहा है- भ्रष्टशील व्यक्ति के दर्शन करने मात्र से भी प्रायश्चित आता 105. चरक संहिता 3/38 पृ. 701 है।104 अतिमैथुन से अकाल मृत्यु होती है ।105 मैथुनासक्ति से मित्र 106. अ.रा.पृ. 1/679 शीघ्र ही शत्रु बन जाते हैं।106 शाश्वतधर्म के ब्रह्मचर्य विशेषांक में 107. 'शाश्वत धर्म', ब्रह्मचर्य विशेषांक, जुलाई-अगस्त 1997, पृ. 36 एवं 37 कहा है - "युवावस्था में ब्रह्मचर्य के द्वारा वीर्य की विशेष रुप 108. अ.रा.पृ. 6/1259-60-61 (5) जहा (7) Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ब्रह्मचर्य पालन से लाभ : ब्रह्मचर्यव्रतजनित अतुल पुण्यभार के कारण यह व्रत सभी व्रतों का गुरु हैं 1109 जिसने यावज्जीव मन-वचन-काय से एकमात्र ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना की, पालन किया उसने समस्त निर्ग्रन्थ प्रवज्या (दीक्षा), अखण्डशील, तप, विनय, संयम, क्षान्ति, गुप्ति, मुक्ति, निर्लोभता, सिद्धि, यशःकीर्ति, पराक्रम, दान, सब कुछ प्राप्त कर लिया। यह व्रत वैरनाशक, दुर्गतिनाशक, पापनाशक, सर्वपवित्र वस्तुओं का सार, देवनरेन्द्रनमस्कृत, देवगति एवं मोक्ष का द्वारोद्घाटक, सर्व जगदुत्तम मंगलमार्ग, दुर्घर्ष गुणनायक, मोक्षपथावतंसक है। इस व्रत को सम्यग् रुप से पालन करनेवाला ही सही अर्थो में ब्राह्मण है, सुश्रमण है, सुतपस्वी है, सुसाधु है, निर्वाण साधक है, योगी है, ऋषि है, संयमी है, भिक्षु है, ब्रह्मचारी है 1110 शूरवीरों से ही ब्रह्मचर्य पालन संभव है, कायरों से नहीं । देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी दुष्कर ब्रह्मचर्यव्रतपालक को नमस्कार करते हैं। 111 ब्रह्मचारी और शीलव्रतधारी के प्रभाव से शेर, वाघ, सर्प, जल, अग्नि आदि भय नष्ट हो जाते है, कल्याणकारी कार्यों में उल्लास प्रकट होता है, देवता उन्हें सान्निध्य करते हैं, कीर्ति फैलती है, उसके निर्मल कुल-वंश प्रकाशमान होते हैं, उसके सुकृतों की प्रशंसा होती है, देव समूह उन्हें नमस्कार करते है एवं अतितीव्र उपसर्ग को भी नष्ट करते हैं, शील के प्रभाव से अग्नि-जल, सर्प - फुलमाल, वाघ - हिरन, सिंहअश्व, पर्वत-पत्थर (का टुकडा), विष-अमृत, विघ्न-उत्सव, शत्रु-मित्र, समुद्र-क्रीडा करने हेतु तालाब, घोर अरण्य-स्वयं के गृह में परिवर्तित हो जाता है और स्वर्ग और मोक्ष के सुख उनको प्राप्त होता हैं | 12 सर्वथा परिग्रहविरमण : पञ्चम महाव्रत : अभिधान राजेन्द्र कोश में 'परिग्रह की व्युत्पत्तिजनक परिभाषा बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है- परिगृह्यते आदीयतेऽस्मादिति परिग्रहः । अर्थात् जिससे हम ग्रहण किये जायें (बंधन में डाले जायें) उसे परिग्रह कहते हैं । 113 विभिन्न ग्रंथो में 1. द्विपदादि एवं धनधान्यादि 14, 2. आन्तरिक ममत्व 15, 3. साधुमर्यादा के विपरीत किसी भी पदार्थ का ग्रहण 116, 4. मूर्च्छा - को परिग्रह कहा गया हैं।17। अभिधान राजेन्द्र कोश में मुनि के लिए धर्मसाधन/धर्मोपकरण को छोडकर धन-धान्यादि अनेक प्रकार के बाह्य परिग्रह एवं मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमादादि अनेक प्रकार के आभ्यान्तर परिग्रह का तथा श्रावक प्रायोग्य धन-धान्यादि 9 प्रकार के परिग्रह का वर्णन किया गया है 118 | श्रावकप्रायोग्य परिग्रह का वर्णन प्रस्तुत शोधप्रबंध में आगे यथास्थान किया जायेगा । मुनिप्रायोग्य पंचम महाव्रत का वर्णन करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि अनेक प्रकार के परिग्रह प्राप्त कर संचय करके भोग करने पर भी जीव अन्त में प्राप्तसंरक्षण, अप्राप्तचिन्ता, अनन्ततृष्णा, अतिलोभ, क्लेश, संग्राम, कषाय, चिन्तन, गौरव, मायाच्छादन, कामभोग, शरीरखेद, चित्तखेद के कारण मोक्षमार्ग का घात करता है।19, अतः परिग्रह चरम अधमद्वार है 120 । परिग्रह को नरक का मूल कारण समझकर काल, बल, मात्रा, क्षेत्र, खेद, क्षण, विनय, समय (सिद्धांत), भाव के ज्ञाता जो मुनि बहुत मिलने पर भी धर्मोपकरण के अलावा अन्य कोई भी पदार्थ अंशमात्र भी ग्रहण नहीं करता; बहुत मात्रा में अच्छा-अच्छा विभिन्न प्रकार का आहार चतुर्थ परिच्छेद... [277] मिलने पर भी उसमें से थोडा भी (अंशमात्र भी) संग्रह संनिधि नहीं करता, धर्मोपकरण के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु का परिग्रह नहीं रखता; धर्मोपकरण के ऊपर भी ममत्वभाव धारण नहीं करता, वही मुनि अप्रमत्तभाव से सर्वथा परिग्रहविरमण व्रत का संपूर्ण पालन करता है। 121 पञ्च महाव्रतधारी जैन मुनि के द्वारा 'अकेले या सभा में, गाँव में या नगर में या अरण्य में, सोते समय या जागृतावस्था में धर्मोपकरण के अतिरिक्त अत्यल्पमूल्य या बहुमूल्य, थोडे या ज्यादा, सचित्त, अचित या मिश्र किसी भी प्रकार के धन-धान्य, छत्र, वाहन, द्विपदचतुष्पद, पुष्प-फल, तैलादि, चारों प्रकार के आहार, दूषिताहार, प्रमाणातिरिक्ताहार आदि अनेक प्रकार के द्रव्य, गाँव, नगर, खेत, दुकान, मकानादि क्षेत्र, रात्रि में या दिन में राग से या द्वेष से ग्रहण नहीं करना " मुनिका "सर्वथा परिग्रह विरमण व्रत' हैं। 122 उपकरण : अभिधान राजेन्द्र कोश मे बाह्याभ्यन्तर परिग्रह त्यागी मुनि के 'उपकरण' के विषय में व्याख्या करते हुए आचार्य श्रीने कहा है कि, 'दण्ड, रजोहरण, वस्त्र, पात्रादि जिससे व्रती का उपकार होता है; या जो ज्ञानादि (उपलक्षण से ज्ञान-दर्शन- चारित्र) (की प्राप्ति) में उपकारी हो, या जिससे जयणा (जीवदया पालन) की जाती हो उसे 'उपकरण' कहते हैं। 23। आचारांगादि आगमों में वस्त्रैषणा - पात्रैषणादि अध्ययनों में भगवान् ने यतियों को स्पष्ट ही वस्त्रादि ग्रहण हेतु विस्तृत विधान किया हैं । जिनकल्पी मुनि हेतु बारह प्रकार के और स्थविरकल्पी मुनि हेतु चौदह प्रकार के तथा साध्वियों के लिए पञ्चीस प्रकार की सामान्य उपधि (उपकरण) होती है तथा उससे अधिक औपग्रहिक उपधि होती है। 124 जो समीप (उप) रहकर संयम का पोषण करती है, उसे 'उपधि' कहते हैं। 25। वह दो प्रकार की है1. ओधोपधि सामान्यतया जिसका उपयोग किया जाये या नहीं भी किया जाये तथापि भिक्षादि के निमित्त जिसे रखा जाय वह ओघ उपधि है, जैसे- पात्रादि । 2. औपग्रहिक उपधि - - 109. अ.रा. पृ. 5/1259 110. अ.रा. पृ. 5/1261-62 111. अ.रा. पृ. 5/1266 112. सूक्त मुक्तावली - 38,39,40 जिसका ग्रहण किसी निमित्त से किया जाने से उसका ग्रहण एवं उपभोग / उपयोग दोनों साथ ही होते हैं, उन्हें औपग्रहिक उपधि कहते हैं, जैसे- पीठफलकादि । 113. अ.रा. पृ. 5/ 552 114. अ.रा. पृ. 5/552; सूत्रकृताङ्ग- 1 /5; 2/6; स्थानांग - 2 / 1; 115. सूत्रकृताङ्ग - 1/9 116. आवश्यक चूर्णि अ. 4 117. स्थानांग -1 ठाणां 118. अ. रा.पृ. 5/552 119. अ. रा.पू. 5/ 552, एवं 5/ 554 120. अ.रा. पृ. 5/554-55 121. अ. रा.पू. 5/ 553; आचारांग 1/2/5 122. अ.रा. पृ. 5/558 से 560 एवं 5/563, पाक्षिक सूत्र, पञ्चम आलापक, साधु प्रतिक्रमण सूत्रार्थ 123. अ.रा. पृ. 2/905 124. सम्मतितर्क, 3/5/65 पर टीका; पृ. 371 125. अ.रा. पृ. 2/1087; धर्मसंग्रह, अध्ययन 3 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [278]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. ओघोपधि : का निमित्त नहीं होता, अपितु अध्यवसाय विशेष गुणस्थान की प्राप्ति में अभिधान राजेन्द्र कोश में 'ओघोपधि' का वर्णन करते हुए निमित्त होता है। वस्त्रादि आत्मदर्शन में बाधक नहीं है।134 ज्ञानादि के कहा है कि 1. पात्र 2. पात्रबन्ध (वस्त्र का टुकडा) 3. पावस्थापन पोषण में निमित्तभूत देहस्थिति के लिए ही वस्त्रादि धर्मोपकरण ग्रहण (कम्बल का टुकडा - जिस पर पात्र रखे जाते हैं) 4. पात्र केसरिका । किये जाते हैं। जिन लोगों का संहनन बल उतम नहीं है, चित्तपरिणाम (पुंजणी) 5. पडला (पात्र ढंकने हेतु वस्त्र) 6. रजस्त्राण (पात्र की सुरक्षा विशिष्ट श्रुताध्ययन से परिकर्मित नहीं है जो एसी वसति (निवास) के हेतु-इसमें पात्र वींटे जाते हैं) 7. गुच्छा - ऊनी मोटे वस्त्र के टुकडे परिहार में प्रयत्नशील है जिसमें कालातिक्रान्तादि दोषों का संभवहेतु हो, (पात्र की सुरक्षा हेतु) 8-10 तीन प्रच्छादक (2 सूती +1 ऊनी कम्बल) जो षड्जीवनिकाय की हिंसा स्वरुप अग्नि आदि के आरंभ-समारंभ से 11. रजोहरण (ओघा) 12. मुखसंपोतिका (मुहपत्ति) 13. मात्रक और दूर रहते हैं। -एसे इस काल के मुनियों को तीव्र शीत आदि उपद्रवों में 14. चोलपट्टा (साधु का अधो वस्त्र) -इन 14 उपकरणों में से प्रथम 12 शरीर स्थिति की सुरक्षा वस्त्रादि ग्रहण भी न्याययुक्त हैं।135 क्योंकि जिनकल्पी मुनि के और सभी 14 उपकरण स्थविरकल्पी मुनि के होते यति (मुनि) को लज्जा, संयम, जुगुप्सानिवारण औरदुस्सह शीतादि हैं । 126 तथा साध्वी के 1 से 13 उपरोक्तानुसार और (14) चोलपट्ट के से बचने हेतु वस्त्र धारण करना चाहिए तथा संयम रक्षा हेतु अपेक्षित स्थान पर कमठक (शाटक) 15. अवग्रहानन्तक 16. पट्ट 17. अोरुक वस्त्र, पात्र, कम्बलादिधर्मोपकरण को ग्रहण करना चाहिए । वस्त्र 18. बलपिका 19. आभ्यन्तर निवसिनी 20. बहिनिवसिनी 21 कञ्चक ग्रहण से हिमकणवर्षी शीतकाल में यतनापूर्वक वस्त्रावरण से समूची 22. औपकक्षिकी 23. एककक्षिकी 24. संघाटी (चद्दर/पांगरणी-एक रात जागनेवाले साधुओं के स्वाध्याय में निर्वाह होता है; सचित्त पृथ्वी, युगल वस्त्र में चार) 25. स्कन्धकरणी - ये 25 उपकरण यथावश्यक धूमिका, वृष्टि, अवश्याय (अप्काय का भेद), रज और प्रदीप के तेजादि हैं। 127 की रक्षा होती है, मृत साधु के ऊपर आच्छादन, बहिर्गमन, शीत से 2. औपग्रहिक उपधि : मरणासन्न साधु की प्राणरक्षा में भी वस्त्र उपयोगी होते हैं। इसी प्रकार निषद्या, दण्ड, पादपोञ्छन, प्रमार्जनी (दण्डासन), घडा, आकाश से गिरने वाले रजःकण, धूली आदि के प्रमार्जन में मुखवस्त्रिका पिष्पलक, सुई, नखकतरणी, दाँत-कान साफ करने की शलाका, (मुंहपत्ति), आदान-निक्षेप क्रिया में पूर्वप्रमार्जन हेतु तथा संयम के चिह्न आदि औपग्रहिक उपधि है। 128 तथा आवश्यकतानुसार अक्ष (चंदन) हेतु रजोहरण, वायु आदि से जन्य विकारयुक्त लिङ्ग के संचरण हेतु से निर्मित आचार्यश्री (स्थापनाचार्य), संथारा, पाट, पटिया, पादलेखनी, चोलपट्ट की उपयोगिता हैं।137 पुस्तक, चिलिमिलि (परदा) आदि ग्रहण करना - यह भी औपग्रहिक इसी प्रकार पात्र से ही विधिपूर्वक धारण करने से अनाभोगपूर्वक उपधि है। इसमें भी चातुर्मास में दुगुना संथारा, तीन-चार या पाँच या (अनजान में) ग्रहण किये गये गोरसादि संसक्त पदार्थों की रक्षा होती है; जीर्णादि अवस्था में सात युगल वस्त्रादि, तीन मात्रक, पाँच परदा द्रव आहार नीचे नहीं गिरता, कुंथु आदि जीवों की विराधना नहीं होती, इत्यादि अधिक ग्रहण किये जाते हैं।129 तथा द्रव्य, क्षेत्र-काल गृहस्थ के बर्तनो को उपयोग में लेने का प्रसङ्ग उपस्थित नहीं होने से भावादि के अनुसार आचार्य, गणावच्छेदक, प्रवर्तिनी आदि दूनी या प्रक्षालन, प्रत्यावर्तनादि पश्चात्कर्म के पाप के निमित्त से यति बचचौगुनी उपधि रखें ।130 ये दोनों तरह की उपधि मान (नाप), भोग सकता है। ग्लान, बाल, वृद्ध, शिष्य, प्राघुणक (आगंतुक मुनि), गुरु, (उपयोग), गणना और प्रमाणयुक्त होती है। उसके अभाव में मुनि को शैक्ष, नवदीक्षित, असहिष्णु राजपुत्रादिरुप मुनि आदि की वैयावृत्त्य हेतु प्रायश्चित प्राप्त होता है। तथापि मुनि के आवश्यक उपकरण और पात्र आवश्यक है, क्योंकि पात्र के बिना इन्हें आहार लाकर देना संभव द्रव्य-क्षेत्रादि कारणों से मुनि /गणावच्छेदक /आचार्य /प्रवर्तिनी आदि नहीं हैं।138 के द्वारा गृहीत वस्त्रादि उपधि की अधिकता देखकर गृहस्थ एसा न लाभ:सोचे कि इनको इतना तो परिग्रह है फिर भी ये अपरिग्रह कैसे? जैसे पाली (पानी के बहाव को रोकने के लिए मिट्टी से अतः अभिधान राजेन्द्र कोश में स्थविरकल्पी अपरिग्रही बनायी गयी पाल) का नाश होते ही सरोवर का समस्त जल चला मुनि के उपरोक्तानुसार धर्मोपकरणों का वर्णन करते हुए कहा है कि जाता है, वैसे ही परिग्रह के साथ परिग्रह के ऊपर की मूर्छा भी 'धर्मोपकरण परिग्रह नहीं है । यहाँ परिग्रह की परिभाषा को स्पष्ट करते यावत् धर्मोपकरण पर भी मूर्छा नष्ट होते ही मुनि की समस्त कर्मरुपी हुए कहा है कि जिस द्रव्यादि के रखने से कर्मबंधन होता हो अर्थात् 126. अ.रा.पृ. 2/1089 127. अ.रा.पृ. 2/1091 आरंभ-समारंभादि कार्यो की वृद्धि होने से नये कर्मबंधन उत्पन्न होते 128. अ.रा.पृ. 2/1092 हों वह परिग्रह कहलाता है, और जो धर्मोपकरणादि कर्मनिर्जरा (कर्मो 129. अ.रा.पृ. 2/1092-93 का शनैः शनैः नाश) हेतु/रखे जाते हों वह परिग्रह नहीं है ।132 पूर्व में 130. अ.रा.पृ. 2/1091 भी कहा गया है कि मूर्छा परिग्रह है, धर्मोपकरण नहीं । जैसे गृहस्थजन 131. अ.रा.पृ. 2/1093 132. तत्वार्थ सूत्र-7/12 सुख (भौतिक सुख) की प्राप्ति हेतु परिग्रह रखते हैं, वैसे साधु नहीं 133. अ.रा.पृ. 2/2737 रखते। साधु तो संयम में उपकारी; जिसकी सहायता के बिना 134. शाखवार्ता समुच्चय-9/4 पर टीका, पृ. 41 संसारसागर पार उतरना असंभव है, वैसे आगमोक्त धर्मोपकरण 135. शास्त्रवार्ता समुच्चय-9/4 पर टीका, पृ. 43, 44, 359, 360 मात्र रखते हैं, अतः धर्मोपकरण परिग्रह नहीं हैं। आगे, जो लोग 136. शास्त्रवार्ता समुच्चय-9/4 पर टीका, पृ. 43, 44, 359, 360; स्थानांग 3/3/171 वस्त्रादि को परिग्रह मानते हैं उन्हें लक्ष्य कर के कहा गया है - वस्त्रादि 137. शास्त्रवार्ता समुच्चय-9/4 पर टीका, पृ. 46, 47, अ.रा.पृ. 3/231 धारण करने मात्र से प्रमाद का उदय या प्रमत्त गुणस्थान पद की प्रवृत्ति 138. अ.रा.पृ. 5/407 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [279] रज नष्ट हो जाती है। निर्वात स्थान में जैसे दीपक प्रज्वलित नहीं स्वर्गादि सुख और मोक्ष सुखदायक, कल्याणकारी, सुखकारी, मोक्ष रहता वैसे ही मूर्छा रहित को समस्त जगत् अपरिग्रहरुप है; उसे का कारण, सुखानुबन्धकारी, हितकारी हैं। 44 मोक्ष प्राप्त करते क्षणमात्र देर नहीं लगती।139 महाव्रतों में दोष लगने का कारण :आचार्यश्रीने अपरिग्रही मुनि का शब्द चित्र खिचते हुए कहा अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने मुनि के द्वारा महाव्रतों है - "अपरिग्रही मुनि सुख-दुःख रहित, तपस्वी, क्षान्त-दान्त, त्यागी, में दोष लगने के कारणों का विवरण करते हुए कहा है कि "पूर्व में धन्य, सर्वप्राणिमित्र, ममत्वरहित, अकिञ्चन, संसार संबंधी लोक व्यवहार अज्ञान, महाव्रतों को गुरुमुख से श्रवण नहीं करने से वास्तविक धर्मबोध से मुक्त, निर्लेप, सुविमल, निरञ्जन, वीतरागद्वेषमोह, गुप्तेन्द्रिय, सौम्य, नहीं होने से, तदनुसार आचरण नहीं होने से अथवा धर्म (महाव्रत, को दीप्ततेज, निश्चल, सर्वसहिष्णु, तेजस्वी, शीलवान्, समभावी, जात अंगीकार करने पर भी मद्य, विषय, कषायादि प्रमादों से अज्ञानता सामर्थ्य, शुद्ध हृदय, अप्रमत्त, निष्प्रकम्प, निरालम्ब, मोक्षसाधनैकदृष्टि, (बालभाव) से, चित्त व्युकुलता या मोहाधीनता से, आलस्यादि से, प्रतिबन्धरहित, अप्रतिहतविहारी, निर्भय, विद्वान् जितेन्द्रिय, परिषहजेता, द्यूतादि क्रीडा के कारण, ऋद्धि-रस-साता इन तीनों गारवों की गुरुता - निरतिचार संयम, नि:कांक्षी, बुद्धिमान, अक्षोभी, और उपशान्त होता अभिमान से, क्रोधादि चारों कषायों के उदय से, पाँचों इन्द्रियों से उत्पन्न आर्तध्यान से, कर्मों के भार से, और सातावेदनीय कर्मोदय से प्राप्त सुख जैन मुनि के श्वेतवस्त्र विधान का हेतु : भोगों की आसक्ति के कारण महाव्रत ग्रहण करने पर भी इनमें दोष लगने सफेद रंग विकाररहितता, वीतरागता, निर्मलता, शांति, क्षमा, की संभावना रहती हैं।145 संतोष त्याग और परिष्कृत बोध का प्रतीक है। जैनदर्शन में इसे शुक्ल महाव्रत पालन से लाभ :लेश्या कहते हैं। सफेद वस्त्र धारण करनेवालों की आत्मा में ये गुण आचार्यश्रीने कहा है कि "जिस प्रकार जंगल में आशीविष प्रकट होते हैं, नेतृत्व क्षमता प्राप्त होती/बढती है, आत्म-शांति की सर्प को नकली नागिन के द्वारा पकडा या वश किया जाता है, वैसे ही वृद्धि होती है, विशिष्ट आरोग्य, ऊर्जा की प्राप्ति होती है। मुनि का छट्ट-अट्ठमादि तप, ध्यान, कायोत्सर्ग, रस (विगई धी आदि) त्याग, जीवन शांतिमय, समतामय, साधनामय होता है। अत: मुनि के वस्त्र आदि के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके क्रोधादि कषायों के ऊपर विजय श्वेत (सफेद) होते हैं। प्राप्ति की जाती हैं और इस प्रकार पञ्चमहाव्रत के पालन के द्वारा साधु सर्वथा रात्रि भोजन विरमण : षष्ठ महाव्रत : मोक्ष प्राप्त करता हैं।146 महाव्रतपालक अहिंसक मुनि के सान्निध्यमात्र अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि, "द्रव्य से हिंसक प्राणी भी (आपसी या अन्य प्रकार के समस्त) वैर का त्याग से अशन (आहार), पान, खादिम, स्वादिम (सौंठ, जीरा, लौंग इत्यादि करते हैं। सत्यवक्ता को बिना किये भी सभी योग (यज्ञादि पूजन पाठ) तथा दवा की गोली), क्षेत्र से अर्थात् ढाई द्वीप में, काल से दिन आदि का फल प्राप्त होता है, वचनसिद्धि प्राप्त होती हैं। अचौर्य व्रतधारी (अँधेरे में या बिजली प्रकाश में) या रात्रि में और भाव से तिक्त, की संपत्ति कोई ले नहीं सकता, उसे सभी दिशाओं के रत्न प्राप्त होते हैं। कटु, काषाय, खट्टा, मीठा या खारा पदार्थ या राग से अथवा द्वेष उसको भूमि आदि में गडा हुआ गुप्त धन प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य से वीर्य से मन-वचन-काय से सर्वथा रात्रि भोजन करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, लाभ (वीर्य रक्षा भी) होती है और वीर्य के ऊर्ध्वगमन से शरीर-इन्द्रियऔर करनेवालों की अनुमोदना करुंगा नहीं" - यह मुनि का सर्वथा मन का विशिष्ट विकास होने से विशिष्ट ज्ञान, लब्धियाँ, सिद्धियाँ प्राप्त रात्रि भोजन विरमण व्रत है(रात्रिभोजनसंबंधी दोष एवं रात्रिभोजनत्याग होती हैं। अपरिग्रही को शांति-संतोष, अहिंसा पालन होता है। अतः से होनेवाले लाभ का वर्णन शोधप्रबंधक के प्रस्तुत अध्याय में श्रावकाचार अहिंसापालन, आत्महित और मोक्ष की प्राप्ति हेतु महाव्रतों का पालन के वर्णन में यथास्थान किया जायेगा)। करना चाहिए।147 इसी प्रसंग में आचार्यश्रीने विशेषावश्यक भाष्य को उद्धत जैनागमों में मुनि को इन पाँच महाव्रतों की सुरक्षा हेतु सतत करके यह स्पष्ट कर दिया है कि रात्रिभोजनविरमण व्रत में जीवहिंसा इन पाँचो महाव्रतों की पञ्चीस-प्रत्येक की पाँच-पाँच) भावनाओं को का त्याग होता है, अत: अहिंसा पालन से समस्त व्रतों का पालन मन में चिन्तन कर मन को इन भावनाओं से भवित करने को कहा गया होने से तथा समस्त व्रतों का संरक्षण होने के कारण तथा इसके है। आचार्यश्री ने लिखा है - बिना व्रती मुनि के महाव्रत परिपूर्ण नहीं माने जाते, प्राणातिपातादि की निवृत्ति रुप महाव्रतों की दृढता के लिए अतःरात्रिभोजनविरमण व्रत मूलगुण हैं।143 मुनि को बार-बार इन भावनाओं का अभ्यास करना चाहिए, क्योंक महाव्रतों का माहात्म्य : भावनाओं के अनभ्यास से महाव्रत मलीन होते हैं। ये भावनाएँ इस अभिधान राजेन्द्र कोश में जैनागमानुसार इन पाँचो महाव्रतों प्रकार हैंका माहात्म्य बताते हुए कहा है कि "महाव्रतमय यह मुनिधर्म 139. अ.रा.पृ. 5/556; ज्ञानसार-25 अष्टक केवलिप्रकाशित, प्राणीमात्ररक्षक, सत्य से व्याप्त, विनयोत्पन्न, क्षमा 140. अ.रा.पृ. 5/561, 562; प्रश्न व्याकरण-5/10, 11, 12 - संवर द्वार से श्रेष्ठ, सुवर्णरजतालंकारादिरुप परिग्रहरहित, इन्द्रियमनोत्पन्न, नवविध 141. जैनाचार विज्ञान, पृ. 22 ब्रहगुप्तियुक्त, पचन-पाचनादि आरम्भरहित, निर्दोषाजीविकादर्शी, 142. अ.रा.पृ. 6/541, 5/294 संचयरहित, शीतोष्णादि में भी अग्न्यादिसंघट्टरहित, कर्मनाशक, 143. अ.रा.पृ. 6/541; विशेषावश्यक-1242, 1243 मिथ्यात्वादिदोषनाशक, गुणग्राही, इन्द्रियविशुद्धिकारक, 144. अ.रा.पृ. 5/287 से 295 145. वही सर्वसावद्ययोगविरतिकारक, पञ्चमहाव्रतयुक्त, मोदकादि के संचयरहित, 146. अ.रा.पृ. 5/265, 266, 267 हठाग्रह, ममत्त्व इर्ष्यादि विसंवाद से रहित, संसार समुद्र से पार करानेवाला, 147. अ.रा.पृ. 6/181, 182; द्वात्रिशद् द्वात्रिशिका-21/6 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [280]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन महाव्रतों के रक्षार्थ भावनाएँ प्रथम महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ : अभिधान राजेन्द्र कोश में 'सर्वथा प्राणातिपातविरमण व्रत' की रक्षा के लिए पाँच भावनाओं का वर्णन करते हुए प्रश्नव्याकरणांग और आचाराङ्ग; दोनों ही अंगसूत्र के पाठों को उद्धृत किया गया है ।148 प्रश्नव्याकरणांग के अनुसार प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएँ निम्नानुसार हैं।49 1. ईर्यासमिति का पालन 2. मनःसमिति का पालन 3. वचनसमिति (भाषा समिति) का पालन 4. शुद्धाहारगवेषणा-एषणासमिति का पालन 5. आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति का पालन । आचारांग में कुछ भिन्न प्रकार से वर्णन प्राप्त होता है, यथा - 1. ईयासमितिपालन 2. मनोदुष्प्रणिधान त्याग 3. सावधवचन का त्याग 4. आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा समिति 5. आलोकितपान भोजन 150 चारित्र पाहुड में 1. वचन गुप्ति 2. मनोगुप्ति 3. ईर्यासमिति 4. आदान निक्षेपण समिति और 5. एषणासमिति। - इन प्रवचनमाताओं को ही प्रथम महाव्रत की पाँच भावना के रुप में वर्णित किया गया हैं। द्वितीय महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ : आचार्यश्रीने सत्य महाव्रत/सर्वथा मृषावाद विरमण व्रत की रक्षा हेतु पाँच भावनाओं का वर्णन करते हुए निम्नांकित निर्देशों का उल्लेख किया हैं।521. अनुवीचि भाषण - वाणी विवेक अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार से संयम-विवेक युक्त सत्य वचन बोलना। 2. क्रोध त्याग - क्रोध-द्वेषादि से असत्य, अप्रिय, परपीडाकारी वचन का त्याग करना। 3. लोभ त्याग लोभी होकर द्रव्यादि के लोभ से झुठ नहीं बोलना। 4. भय त्याग - भय से असत्य नहीं बोलना 5. हास्य त्याग - मस्ती-मजाक में हँसी से भी कपटयुक्त, असंबद्ध वचन, परपरिवाद, परनिंदा, परपीडाकारक, गुप्तबात प्रकट करनेवाले, हिंसाजनक, संयमनाशक वचन नहीं बोलना।। तृतीय महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ :1. विविक्त वसति वास - (निर्दोष वसति में रहना) मुनि के द्वारा देवकुल, सभा, प्याऊ, परिव्राजकादि के आश्रम, वृक्षमूल, उद्यान, गुफा, रथशाला कुपितशाला (भाण्डागार), श्मशान, पर्वतगृह, उपाश्रयादि स्त्री-पशु-नपुंसक रहित, अचित्त निर्दोष स्थान में निवास करना 'विविक्त वसति वास' नामक प्रथम भावना हैं 153 2. अनुज्ञातसंस्तारक ग्रहण - (उपाश्रय में उपलब्ध वस्तुओं की । भी अनुज्ञा लेना) अर्थात् मुनि जिस वसति या उपाश्रय में ठहरने हेतु उसके स्वामी से अनुज्ञा प्राप्त करें, उससे उपाश्रय में रहें वहाँ पर रखे हुए पाट, पाटिया, संथारा, तृण, भस्मादि का उपयोग करने हेतु पुनः आज्ञा प्राप्त करें। यदि आज्ञा प्राप्त हो तो ही उन्हें उपयोग में ले सकते हैं, अन्यथा नहीं। और यह आज्ञा प्रतिदिन पुनः पुनः लेनी चाहिए।154 3. शय्या परिकर्मवर्जन - पाट-पटिये, शय्या, संथारा हेतु वृक्षादि के छेदन-भेदन नहीं कराना। जिस आश्रय में मुनि निवास करें वहाँ जैसी शय्या मिले उसमें राग-द्वेष न करें। पवनादि हेतु उत्सुक न हो । दंश-मशकादि से क्षुब्ध न हों, धुआँदि न करावें और संयम, संवर एवं समाधि में (समभाव में) स्थिर रहकर अध्यात्म में चित्त स्थिर करें।155 अनुज्ञापित भोजन ग्रहण - मुनि के द्वारा तृण, भस्म, दोषरहित आहार, जल, उपधि, वस्त्र-पात्र, शय्या, वसति आदि भी प्रमाणोपेत और स्वामी की आज्ञा प्राप्त करके ही ग्रहण करना ।156 सार्मिक विनय - केवल उपवासादि ही तप नहीं है; विनय भी तप हैं अतः सार्मिक का अर्थात् साधु को साधु का विनय करना चाहिए। अपने द्वारा लाये अन्नादि या अपने पास रहने वाले उपधि एवं उपकरणादि साधर्मी साधु को देना; ज्ञानाभ्यासी को सुखसाता पूछना, यथायोग्य वंदनादि करना, सूत्रार्थ पूछनाश्रवण करना, उपाश्रयादि में प्रवेश करते समय निसीहि एवं निष्क्रमण करते समय आवस्सिहि बोलना, ग्लान, तपस्वी, इत्यादि साधुओं की सेवा करना, उनसे कलह-कर्मबंध नहीं करना इत्यादि 'सार्मिक विनय भावना' कहलाती हैं।157 चारित्र पाहुड में तृतीय महाव्रत की शून्यागार, विमोचितवास, परोपरोध, एषणाशुद्धि और साधर्मियों से विसंवाद नहीं करना - ये पाँच भावनाएँ बतायी गयी हैं। 158 चतुर्थ महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ।59 : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने चतुर्थ महाव्रत के रक्षणार्थ पाँच भावनाएँ दर्शायी गयी हैं - 1. स्त्री संक्तताश्रयवर्जन- स्त्रीसंसक्त शय्या, आसन, गृह, आँगन, आकाश (खुली जगह), गवाक्ष, आश्रय, वसति, उपाश्रय, उद्यान, मण्डप, वेश्यायतन (उसकी गली में से आवागमन भी निषिद्ध हैं), श्रृंगार भवन, मनोविभ्रम उत्पादक कोई भी स्थान, आर्त 148. अ.रा.पृ. 1/874 से 877 149. प्रश्नव्याकरणाङ्ग-1 संवर द्वार 150. आचारांग-2/3 151. चारित्र पाहुड-32 152. अ.रा.पृ. 1/330-31-32; प्रश्न व्याकरण-2 संवर द्वार 153. अ.रा.पृ. 1/543-544; प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 154. अ.रा.पृ. 5/544; प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 155. अ.रा.पृ. 5/545% प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 156. अ.रा.पृ. 5/545; प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 157. वही 158. चारित्र पाहुज-34 159. प्रश्न व्याकरण-4 संवर द्वार; अ.रा.पृ. 5/1263 से 1266 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करें। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [281] रौद्रध्यानजनक स्थान को भवभीरु, पापभीरु ब्रह्मचारी मुनि त्याग पञ्चम महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ।6। - अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रश्न व्याकरणांग और आचारांग के 2. स्त्रीजनमध्य में कथादि वर्जन - साधु को स्त्रियों की पर्षदा में अनुसार तथा चारित्र पाहुड के अनुसार मुनि की पञ्चम महाव्रत की रक्षा इष्टार्थ अर्थात् हास्य-रुप-श्रृंगारयुक्त, मोहजनक, विलासयुक्त, करनेवाली पाँच भावनाएँ हैं इस प्रकार हैं - मुनि के द्वारा पाँचों इन्द्रिय गर्वयुक्त, अनादरकारी कथा नहीं कहना चाहिए। संबंधी मनोज्ञ-अमनोज्ञ किसी भी प्रकार के प्राप्त होनेवाले या न होनेवाले 3. स्त्रीरुपनिरीक्षण वर्जन - स्त्रियों के हास्य, कथा, विकारचेष्टा, 1. शब्द 2. रुप 3. गंध 4. रस एवं 5. स्पर्श, दोनों ही स्थितियों में रागहस्तन्यासादि, गति विलास, क्रीडा, नृत्य, नाटक, लावण्य, द्वेष रोष, आकांक्षा, मोह, प्राप्ति, लोभ, तोष, हास्य, स्मृति, आक्रोश, रुपाकृति, वस्त्रालङ्कार, विभूषा अङ्गोपाङ्गादि का निरीक्षण नहीं अपमान, तर्जना, कोप, रुदन, करुणा, निन्दा, द्रव्यनाश, वध, जुगुप्सा, करना चाहिए। आदि कुछ भी नहीं करना, नहीं कराना, करनेवालों की अनुमोदन नहीं पूर्वकृत क्रीडादि स्मरण वर्जन - पूर्व में गृहस्थ जीवन में करना। गृहस्थावास में की गई क्रीडादि, पूत्रादि के विवाहादि, मुण्डन सद्भावनाओं का फल :संस्कारादि, इन्द्र-महोत्सवादि तथा अन्य भी श्रृंगाररसयुक्त किसी ये महाव्रत संबंधी 25 भावनाएँ और अनित्यादि बारह भावनाएँ भी घटना का सम्मरण नहीं करना। प्रणीत भोजन वर्जन - साधु नियम से ही मधु (शहद), मक्खन, आत्मा को भावित करने योग्य हैं। इन सद्भावनाओं से भावित शुद्ध मांस, मदिरा - इन चार का तो यावञ्जीव त्यागी ही होता है। आत्मा (अन्तरात्मा) चारित्रवान् जीवरुप जहाज संसाररुप समुद्र में सदागम और घी, दूध, दही, तेल, गुड-शक्कर, पक्वान्न आदि भी अत्यधिक (जैनागम) के श्रवण से अधिष्ठित होकर तपरुप अनुकूल पवन के द्वारा मात्रा में नहीं लेता, साथ ही आहार में ये छ: विगईयाँ भी एक सर्वद्वन्द्व (समस्या) को दूरकर सर्वदुःखरुप संसार से पार होकर मोक्षरुपी साथ नहीं लेना चाहिए तथा दिन में भी बार-बार भोजन नहीं तीर को प्राप्त करता हैं ।162 करना। आचारांग में ये भावनाएँ निम्नानुसार हैं।601. स्त्री कथा का त्याग 160. अ.रा.पृ. 5/1262 से 1265; आचारांग-2/3 2. मनोहर इन्द्रियादि आलोकन त्याग 161. अ.रा.पृ. 5/562 से 5/567; प्रश्न व्याकरण-पञ्चम संवर द्वार; आचारांग3. पूर्वकृत क्रीडादि स्मरण त्याग 2/3; चारित्र पाहुड-36 4. प्रमाणातिरिक्ताहार व प्रणीत भोजन त्याग 162. अ.रा.भा. 5/1515; उत्तराध्ययन-19 अध्ययन; आचारांग-1/1/1, 2/15: 5. स्त्री-पशु-नपुंसकसंसक्त शयानादि त्याग। सूत्रकृताङ्ग-1, श्रुत स्कंध, 15 वाँ अध्ययन | सत्सङ्गति । पुष्णाति गुणं मुष्णा - ति दूषणं सन्मतं प्रबोधयति । शोधयते पापरजः, सत्सङ्गतिरङ्गिनां सततम् ॥1॥ सद्यः फलन्ति कामाः, वामाः कामा भयाय न यतन्ते । न भवति भवभीतितति - र्जिनपतिनतिमतिमतः पुंसः ॥2॥ गुरुसेवाकरणपरो, नरो न रोगैरभिद्रुतो भवति । ज्ञानसुदर्शनचरणौ - राद्रियते सद्गुणगुणैश्च ।॥ प्रौढस्फूर्तिनिरुपम - मूर्तिः शरदिन्दुकुन्दसमकीर्त्ति । भवति शिवसौख्यभागी, सदा दयाऽलंकृतः पुरुषः ॥4॥ जलमिव दहनं स्थलमिव, जलधिर्मंग इव मृगाधिपस्तस्य । इह भवति येन सततं, निजशक्त्या तप्यते सुतपः ॥5॥ तं परिहरति भवार्त्तिः, स्पृहयति सुगतिविमुञ्चते कुगतिः । यः पात्रशाच्च कुरुते, निजकं न्यायार्जितं वित्तम् ॥6॥ - अ.रा.पृ. 5/1584 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [282]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चाचार जब तीर्थंकर परमात्मा धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं; तब सर्वप्रथम वे आचार मार्ग का उपदेश देते हैं।, क्योंकि आचार ही परम और चरम कल्याण का साधकतम हेतु हैं। जिसका आचरण किया जाये उसे 'आचार' कहते हैं। 'आचार' की विस्तृत परिभाषा पूर्व में बताई जा चुकी है अतः यहाँ इस विषय में पिष्टपेषण नहीं करते हुए यहाँ 'आचार' के भेद-प्रभेद की चर्चा करते हुए पञ्चाचार का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। आचार के भेद-प्रभेदों को बताते हुए आचार्यश्रीने आचार दो प्रकार से बताया है - (1) दव्याचार - गुण पर्याययुक्त द्रव्य का पर्यायान्तर को प्राप्त करना 'द्रव्याचार' हैं। (2) भावाचार- ज्ञानाचर, दर्शनाचार, चारित्रचार, तपाचार और वीर्यचार - ये पाँच भावाचार हैं । अभिधान राजेन्द्र कोश में और जैनागम ग्रंथो में भी कहीं पहले दर्शनाचार का तो कहीं पहले ज्ञानाचार का कथन किया गया है। इसका कारण केवलज्ञानी को प्रथम केवलदर्शन और तत्पश्चात् युगपत् केवलंज्ञान उत्पन्न होता है, उस अपेक्षा से कहीं दर्शनाचार को पहले कहा है, और संसारी जीव को चाहे विशिष्ट ज्ञान हो या न हो, सामान्य ज्ञान होने पर ही श्रद्धा अर्थात् सम्यग्दर्शन होता हैं; इस अपेक्षा से कहीं पर ज्ञानाचार का कथन पहले किया गया है। वस्तुतः उसमें कोई तात्त्विक भेद नहीं हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीने आचार के भेदों का स्थानांग सूत्रोक्त संबन्ध बताते हुए कहा है कि आचार दो प्रकार का है ज्ञानाचार और नो ज्ञानाचार; नोज्ञानाचार के दो भेद हैं - दर्शनाचार और नोदर्शनाचार; नोदर्शनाचार के दो भेद हैं - चारित्राचार और नो चारित्राचार, नो चारित्राचार के दो भेद हैं - तप आचार और वीर्याचार । इस प्रकार आचार के ये पाँचो भेद आपस में एक-दूसरे से संबंधित हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में इन आचार-प्रभेदों का वर्णन करते हुए ज्ञानाचार के आठ, दर्शनाचार के आठ, चारित्राचार के आठ, तप आचार के बारह और वीर्याचार के छत्तीस भेद बताये हैं। 1. ज्ञानाचार : प्रथम आचार है ज्ञानाचार। सम्यक् तत्त्व का ज्ञान कराने के कारणभूत श्रुतज्ञान की आराधना करना ज्ञानाचार है। अर्थात् नये ज्ञान की प्राप्ति या प्राप्त ज्ञान की रक्षा के लिए जो आचरण आवश्यक हैं, उसे ज्ञानाचार कहते हैं। परमात्मप्रकाश के अनुसार "निजस्वरुप में, संशय-विमोह विभ्रमरहित जो स्वसंवेदना ज्ञानरुप ग्राहकबुद्धि सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका आचरण ज्ञानाचार है। स्थूल दृष्टि से इसके आठ भेद (ख) विनयाचार - मतिज्ञानादि पाँचों प्रकार के ज्ञान और ज्ञानी कीआशातना का त्याग, भक्ति, बहुमान और प्रशंसा (सद्भूत गुणोत्कीर्तना) विनय (विनयाचार) नामक ज्ञानाचार हैं।" बहुमानाचार - अन्तरात्मा की प्रीति, चित्त के प्रमोदभाव पूर्वक गुणानुराग एवं गुणपक्षपात के साथ ज्ञान और ज्ञानी का विविधप्रकार से भक्ति सहित सम्मान करना 'बहुमान' नामक ज्ञानाचार है। इससे गुरु द्वारा अल्पसूत्रपाठ अध्यापन कराने पर भी अधिक ज्ञानलाभरुप फल होता है। उपधानाचार - साधु-साध्वी के द्वारा अङ्ग-उपाङ्गादि सिद्धांतो (जैनागम ग्रंथों) को पढने के लिए आयंबिल, उपवास अथवा निवी(एक प्रकार का तप) आदि के तपपूर्वक गुरु (आचार्य) के समीपसूत्रों के योगोद्वहन की क्रिया करना या गृहस्थ के द्वारा श्री पञ्चमङ्गल महाश्रुतस्कंध (नमस्कार महामंत्र) आदि आवश्यक सूत्रों की उपवासादि तप पूर्वक उपधान तप आराधना करना 'उपधान' नामक ज्ञानाचार है । सम्यक् प्रकार से उपधान तप की आराधना से आराधक 'निर्वाण' (मोक्ष) प्राप्त करता 3. (ड अनिवाचार - श्रुतदाता गुरु एवं पठित श्रुत का अपलाप/ निंदा न करना, या किसी के पूछने पर जिनसे वह ज्ञान अर्जित किया हो, उन्हीं का नाम बताना - यह 'अनिह्नव' नामक ज्ञानाचार है। व्यंजनाचार- जो सूत्रों के अभिप्राय को प्रगट करते हैं, उन्हें व्यंजन कहते हैं। तीर्थकर प्रणीत प्राकृत भाषा के सूत्रों के बिन्दु, अक्षर, पद आदि में परिवर्तन नहीं करना या प्राकृत 1. आचारां नियुक्ति-8 2. अ.रा.पृ. 2/376,, 389 अ.रा.पृ. 2/369, 330, 368; विशेषावश्यक भाष्य-3/933; 4. अ.रा.पृ. 2/368, 369 अ.रा.पृ. 2/369, स्थानांग-2 ठाणां अ.रा.पृ. 2/369 ज्ञानं श्रुतज्ञानं तद्विषय आचारः। श्रुतज्ञानविषये कालाध्ययनविनयाध्यापनऽऽदिरुपे व्यवहारे। अ.रा.पृ. 4/1994 8. परमात्मा प्रकाश - 7/13 9. अ.रा.पृ. 4/1994, 4/2211; मूलाचार-269 10. अ.रा.पृ. 3/496, 497; निशीथ चूर्णि-1/9 से 12 11. अ.रा.पृ. 6/1153; निशीथ चूर्णि 1/9 से 12 12. अ.रा.पृ. 5/1303, 1304; निशीथ चूणि 1/14 13. अ.रा.पृ. 2/1076; उत्तराध्ययनसूत्र-11 अध्ययन; आचारांग-1/9/1 14. अ.रा.पृ. 2/1080; सेन प्रश्न-3/186 15. अ.रा.पृ. 1/333, 334; निशीथ चूणि 1/16 (क) कालाचार (ख) विनयाचार (घ) उपधानाचार (ङ) अनिवाचार (च) व्यंजनाचार (छ) अर्थाचार (ज) तदुभयाचार। (क) कालाचार- स्वसमुत्थ (आत्मोत्पन्न) और परसमुत्थ (अन्योत्पन्न) अस्वाध्यायकाल का त्याग कर स्वाध्यायकाल अर्थात् शास्त्रपढने योग्य काल में सूत्रादि का अध्ययन, अध्यापन, स्वाध्यायादि करना 'कालाचार' नामक ज्ञानाचार हैं।10 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [283] सूत्रों को संस्कृत में परिवर्तित नहीं करना 'व्यंजनाचार' नामक इस प्रकार की शङ्का न करना 'निशङ्कित' दर्शनाचार है। ज्ञानाचार है। व्यंजनों (उञ्चरित ध्वनियों) के परिवर्तन से सूत्रों भव्यात्मा को एसी शंका से बचना चाहिए क्योंकि 'जिनप्रणीत' सूत्र के पदों की नियुक्ति में परिवर्तिन हो जाने से उनका अर्थ के एक अक्षर में भी शंका करने से जीव मिथ्यादृष्टि होता है; इसमें बदल जाता है; जिससे अर्थ में भेद हो जाने से चारित्रभेद, जिनवचन ही हमारे लिए प्रमाण है। अत: निःशङ्कित दर्शनाचार चारित्रभेद से अमोक्ष और अमोक्ष से दीक्षादि क्रिया की निष्फलता का पालन करना चाहिए। होती है। इसलिए सूत्र के किसी भी अक्षर, बिन्दु या पद (ख) निष्कांक्षित - अर्थात् 'कांक्षारहित होना' - 'कांक्षा' का लक्षण का कभी भी परिवर्तन नहीं करना चाहिए। यह 'व्यंजनाचार' बताते हुए निशीथ सूत्र में कहा है - "कंखा है, इसका अनिवार्य रुप से पालन करना चाहिए।16 अण्णोण्णदंसणग्गहो" अर्थात् अन्य-अन्य दर्शनों की अर्थाचार - 'सूत्र' के अभिप्राय या तात्पर्य को 'अर्थ' कहते अभिलाषा करना ।28 अन्य दर्शनों में क्षमा, अहिंसा आदि हैं। सूत्रोक्त बिन्दु, अक्षर, पद आदि का सूत्रों के अभिप्राय धर्मो के अंशमात्र दर्शन से मिथ्यात्व मोहनीय का उदय होने से विरुद्ध अर्थ नहीं करना 'अर्थाचार' है। सर्वप्रथम तीर्थंकर से अन्यान्य दर्शन ग्रहण करने का जीव का परिणाम 'कांक्षा' अर्थ की देशना देते हैं, तत्पश्चात् उसी के आधार पण गणधर है। वह दो प्रकार से है30 अंतर्मुहूर्त में सूत्र की रचना करते हैं। अतः अर्थ मुख्य है, 1. देश कांक्षा - अन्य सौगत (बौद्ध) आदि एक ही दर्शन क्योंकि कुल-गण-संघ-समिति के विषय में तथा समाचारी की अभिलाषा करना। (आचारनियम) प्ररुपणा में सूत्रधर से अर्थधर प्रमाण माना जाता सर्वकांक्षा - सभी धर्मों में अहिंसादि धर्मों का प्रतिपादन किया गया है, अतः सभी दर्शन समान हैं, एसा मानकर है। अत: अर्थ के बिना सूत्र अनाश्रित (आधार रहित) हो सभी धर्मो को ग्रहण करना या धर्म के फल के रुप जाते हैं, इसलिए सूत्रविरुद्ध अर्थ की प्ररुपणा नहीं करनी में ऐहिक (इहलौकिक) आमुष्मिक (पारलौकिक) फलों चाहिए; अर्थभेद नहीं करना चाहिए।18 की कांक्षा करना'सर्वकांक्षा' हैं। (ज) व्यञ्जनार्थतदुभयाचार - तीर्थकरप्रणीत सूत्र और अर्थ दोनों यहाँ कांक्षा के गृद्धि, आसक्ति, स्त्री आदि की अभिलाषा के अक्षर, बिन्दु या पद में परिवर्तन/भेद नहीं करना करना, तीव्राभिलाषा, भोगेच्छा आदि अर्थ भी बताये गये हैं। इन 'व्यञ्जनार्थतदुभयाचार' है। इससे उपरोक्त दोषोत्पत्ति होने से कांक्षाओं से रहित होना -'नि:कांक्षिताचार' हैं। प्रवचन निरर्थक सिद्ध होने पर दीक्षादि क्रिया निष्फल हो (ग) निर्विचिकित्सा - विचिकित्सा रहित होना 'निविचिकित्सा' जाने की स्थिति में शासनमालिन्य का प्रसङ्ग आता है। अतः कहलाता है। चित्तविप्लव अर्थात् मतिभ्रम, आशंङ्का या धर्मफल इससे बचने हेतु आठों प्रकार के ज्ञानाचार का पालन करना में भ्रमयुक्त शङ्का करना । विचिकित्सा का लक्षण बताते चाहिए। हुए कहा है - संतम्मि वि वितिगिच्छा, सज्झेज्ज ण मे 2. दर्शनाचार : अयं अट्ठो''33 - यह कार्य होगा या नहीं? अथवा प्रत्यक्ष दर्शनाचार को सम्यक्त्वाचार भी कहते हैं। 'दर्शन' अर्थात् में यह एसा है; परोक्ष में इस तप-संयम-परिषहादि का फल सम्यक्त्व। निःशंकितादिरुप से सम्यक्त्व की शुद्ध आराधना करना मिलेगा या नहीं? यह 'विचिकित्सा' है। साधु के मलमलिन 'दर्शनाचार' है। इसके भी आठ भेद हैं- (क) निःशंकित (ख) वस्त्र, पात्र, उपकरणादि देखकर निंदा, गर्हा या दुर्गछा करना - नि:कांक्षित (ग) निर्विचिकित्सा (घ) अमूढदृष्टि (डा उपबृंहण (च) दूसरे प्रकार की विचिकित्सा है। यह दो प्रकार से है - स्थिरीकरण (छ)वात्सल्य और (ज) प्रभावना ।। अभिधान राजेन्द्र कोश 16. अ.रा.पृ. 6/797; निशीथ चूणि 1/17, 18 में आचार्यश्रीने इन आठों प्रकार के दर्शनाचार का वर्णन निम्नानुसार 17. अ.रा.पृ. 1/506; स्थानांग-2/1 किया है। 18. अ.रा.पृ. 4/1995; निशीथ चूणि 1/22 (क) निःशंकित - 'निःशंकित' का अर्थ है शंका के अभाव से अ.रा.पृ. 6/766; निशीथ चूणि 1/20 युक्त । अतः 'शंका' को समझना आवश्यक है। अभिधान 20. अ.रा.पृ. 4/2436 राजेन्द्र कोश के अनुसार 'संशय करना', 'शंका' है।24 श्री 21. अ.रा.पृ. 4/2436; उत्तराध्ययन-28/31; प्रज्ञापना सूत्र-132; निशीथ सूत्र 1/23; मूलाचार-200-2013; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ 1/240 जिनेश्वरप्रणीत धर्मास्तिकायादि पदार्थों और जीवादि तत्त्वों का 22. अ.रा.पृ. 4/2436 मतिदौर्बल्य (बुद्धिमान्द्य) के कारण सम्यक् प्रकार से अवधारण 23. अ.रा.पृ. 4/2436 नहीं करने से 'क्या यह एसा है ?' या 'एसा है या नहीं?' 24. अ.रा.पृ. 4/2436; निशीथ चूणि-1/24 एसा संशय करना 'शंका' हैं।25 यह 'शंका' दो प्रकार से अ.रा.पृ. 7/35%8 हो सकती है 26. अ.रा.पृ. 7/35-36 27. अ.रा.पृ. 7/35 1. देशशंका - किसी विषय में अंशतः भी शंका करना। 28. अ.रा.पृ. 3/164; निशीथ सूत्र-1/24 जैसे - समान होने पर भी जीवों में भव्य और अभव्य 29. अ.रा.पृ. 3/164; भगवती सूत्र-1/1 भेद कैसे हो सकते हैं? -यह देशशंका हैं। 30. अ.रा.पृ. 3/1643 सर्वशंका - समस्त द्वादशाङ्ग गणिपिटक प्राकृत भाषा 31. अ.रा.पृ. 3/164; सूत्रकृताङ्ग-1/15; में ही बना है, अथवा किसी कुशल व्यक्ति द्वारा कल्पित 32. अ.रा.पृ. 6/1190 है, इस प्रकार की शङ्गा 'सर्वशंका' हैं।26 33. अ.रा.पृ. 6/1190; निशीथ सूत्र-1/24 34. अ.रा.पृ. 6/1190 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [284]... चतुर्थ परिच्छेद (ज) 1. समिति (घृणा) गुप्ति आदि के पालन का फल मिलेगा या नहीं ? ऐसी विचिकित्सा देशविचिकित्सा है। 2. चरणकरणरुप ब्रह्मचर्य, परिषहजय, उपसर्गसहन आदि समस्त धर्माचरण का फल मिलेगा या नहीं ? आदि चित्तभ्रम 'सर्वविचिकित्सा' है 35 | (घ) अमूढदृष्टि अन्य धर्मी, कुतीर्थिकों की अनेक प्रकार की ऋद्धि, पूजा, समृद्धि, वैभव आदि देखने पर भी आकर्षित नहीं होना, अमूढदृष्टि 'दर्शनाचार' हैं । 36 (s) उपबृंहण - तपस्वी की वैयावृत्त्य (सेवा) करना तथा अन्य (साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकादि) को तप, विनय, स्वाध्यायादि सद्गुणों से युक्त देखकर उनकी प्रशंसा करना, 'उपबृंहण' दर्शनाचार है। 37 (च) स्थिरीकरण - रोगादि कारण से या प्रमादवश या अज्ञानवश जो साधु संयम में शिथिल हो रहा हो, उसे वचनादि से प्रेरणा देकर संयम में स्थिर करना 'स्थिरीकरण' कहलाता है। 38 उपलक्षण से धर्माराधना में या धर्मश्रद्धा में अस्थिर श्रावक-श्राविका में धर्म के प्रति दृढ श्रद्धा उत्पन्न करना भी 'स्थिरीकरण' हैं। (छ) वात्सल्य - आचार्य, ग्लान (रोगी) प्राघुणक (विहार कर आये हुए), बाल, तपस्वी, नवदीक्षित वृद्धादि साधु की साधु के द्वारा आहार, पानी, उपधि आदि से भक्ति करना; उन्हें समाधि उत्पन्न करना 'वात्सल्य' कहलाता है। श्रावकों के द्वारा चतुर्विध संघ की आहार- पानी आदि के द्वारा भक्ति करना या साधर्मिक की भक्ति करना भी वात्सल्य दर्शनाचार हैं। 39 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) भाषा समिति (3) एषणा समिति (4) आदान भाण्डनिक्षेपणा समिति (5) उच्चारप्रस्रवण खेलजल्लसिंघाण पारिष्ठापनिका समिति (6) मनो गुति (7) वचन गुप्ति (8) काय गुप्ति । 4. तपाचार4 : चौथा आचार है तपाचार । इच्छानिरोधरुप अनशनादि बारह प्रकार के तप का सेवन करना तपाचार है । तपाचार के बारह भेद बतलाये गये हैं। छः प्रकार का बाह्य तप और छः प्रकार का आभ्यन्तर तप 5 | अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश व प्रतिसंलीनता ये बाह्य तपाचार है", जबकि प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग और ध्यान - ये आभ्यन्तर तपाचार है" । 5. वीर्याचार 48 : पाँचवाँ आचार है वीर्याचार। वीर्य इति वीर्याचारः । वीरियं णाम शक्ति ।' - वीर्य अर्थात् आत्मशक्ति । अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए उपर्युक्त चारों आचारों के छत्तीस भेदों के पालन में आत्मशक्ति का उपयोग करना यह वीर्याचार है। इसके छत्तीस भेद हैं। ज्ञानाचार के आठ भेद, दर्शनाचार के आठ भेद, चारित्राचार के आठ भेद और तप आचार के बारह भेद, ये सब मिलकर वीर्याचार के छत्तीस भेद कहे गये हैं। पाँच आचारों के प्रत्येक भेद-प्रभेद पर विस्तृत विवेचना अभिधान राजेन्द्र कोश में यथास्थान व्यवस्थित रुप से तत्तत् शब्द पर की गयी हैं। - - प्रभावना - धर्मकथा, प्रतिवादी के ऊपर विजय प्राप्ति, उग्र तप, प्रवचन, विशिष्ट लब्धि आदि के द्वारा सर्व प्रकार से प्रयत्नपूर्वक जिन शासन की उन्नति हो, एसे कार्य करना 'प्रभावना' नामक दर्शनाचार हैं। यद्यपि जिनशासन / प्रवचन शाश्वत होने से तीर्थंकर भाषित होने से या सुरासुरनमस्कृत होने से स्वयं ही दीप्तिमान है, दर्शनशुद्धि का इच्छुक आत्मा स्वयं जो विशिष्टगुण होता है, वह आर्य वज्रस्वामी के समान शासन प्रभावना करता है। क्योंकि शासन की मलिनता से धर्म की हानि, निंदा आदि होने से वह मिथ्यात्व का हेतु है जो संसारभ्रमण का कारण, पाप का साधन, घोर कर्मविपाक युक्त और सर्व अनर्थो की वृद्धि करानेवाला है। जबकि शासनोन्नत्ति हेतु किया गया यथाशक्ति प्रयत्न सम्यक्त्व का हेतु, सर्वसुखों का निमित्त, मोक्षसुखदाता, तीर्थंकर नामकर्म बंध का औरसर्व संपत्तियों का कारण हैं 40 3. चारित्राचार : तीसरा आचार है चारित्राचार | आठ प्रकार के कर्मों के समूह को जो रिक्त बनाये उसे चारित्र अथवा सर्वसावद्ययोगनिवृत्ति को चारित्र कहा गया है।41 यह चारित्राचार पञ्चसमिति और त्रिगुप्ति रूप है । चारित्र के पाँच प्रकार बताये गये हैं- (1) सामायिक चारित्र (2) छेदोपस्थापनीय चारित्र (3) परिहार विशुद्धि चारित्र (4) सूक्ष्मसंपराय चारित्र और (5) यथाख्यात चारित्र 142 इन पाँचो चारित्रों में समिति और गुप्ति का पालन अनिवार्य है। इसलिए समिति गुप्ति के पालन को ही 'चारित्राचार' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसके आठ भेद हैं 43 - (1) ईर्या समिति आचार के दोष : लोक में 'सदाचार' और 'दुराचार' इन दो शब्दों का प्रचुर प्रयोग देखा जाता हैं। यहाँ 'आचार' का तात्पर्य सदाचार वर्ग के आचरण से है, किन्तु फिर भी यहाँ पर प्रयुक्त 'आचार' शब्द दार्शनिक दृष्टि से भी निश्चित अर्थ का व्यञ्जक है। इस आचरण में दोष लगने पर दोषों के गाम्भीर्य के अनुसार उनका वर्गीकरण किया गया है, यथा - अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । अभिधान राजेन्द्र कोश में ये चारों दोषों का उलेख आहार सम्बन्धी दोषों के विवरण आया है । किन्तु ये केवल आहार में ही नहीं, अपितु अन्यत्र भी हो सकते हैं, अतः इनका परिहार आवश्यक है। दोषों को जाने बिना उनका परिहार भी नहीं हो सकता, अतः दोषों को जानना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि गुणों को। अभिधान राजेन्द्र कोश में 35. अ. रा.पू. 6/1190 36. अ.रा. पृ. 1/748; निशीथ सूत्र- 1/26 37. अ. रा. पृ. 2/1011; निशीथ सूत्र- 1/27; उत्तराध्ययन-अध्ययन-28 38. अ. रा. पृ. 4/2411, 2436; निशीथ सूत्र - 1/ 28 39. अ. रा. पृ. 6/796; उत्तराध्ययन- 28 अध्ययन; निशीथ चूर्णि -1/29 40. अ.रा.पृ. 5/438, 439; हारिभद्रीय अष्ट -23; निशीथ चूर्णि-- 1/31; 41. अ.रा. पृ. 3/1141 42. अ.रा. पृ. 3/1152 43. अ. रा. पृ. 3/1150, 5/786; मूलाचार-288, 297; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 1/240 44. अ.रा. पृ. 3/2207; मूलाचार-345, 346, 360; परमात्मप्रकाश टीका-7/ 13; द्रव्यसंग्रह टीका-52/219; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/240, 241 45. अ. रा. पृ. 4/2207-2208 46. अ.रा. पृ. 4/2200-2208 47. 48. अ.रा. पृ. 4/2207 2208 अ. रा.पू. 6/1409; मूलाचार - 4/3; द्रव्यसंग्रह टीका - 52/219; जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश-1/241 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [285] इन दोषों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया हैं दोषों से बचने के लिए अष्ट प्रवचनमाताओं का पालन करना आहाकम्म निमंतण, पडिसुणमाणो अइक्कमो होई। जैनधर्म के प्राण रुप है। उदाहरण के लिए सत्यमहाव्रत पालन करने पयभेयाइ वइक्कम गहिए तइयो तरो गिलिए। हेतु यथावस्थित पदार्थ का यथावत् निरुपण करने का विधान है। वहीं पर अतिक्रम आदि के स्वरुप को समझाते हुए कहा गया किन्तु वाग्गुप्ति पालन करनेवाला तो अनावश्यक भाषण ही नहीं करता, है कि साधुओं के लिए विहित क्रिया का उल्लंघन अतिक्रमादि के इससे स्खलन के अवसर कम हो जाते हैं। अष्ट प्रवचन माताओं अन्तर्गत आते हैं ।50 इनमें उत्तरोत्तर दोषाधिक्य हैं। वहीं पर उदाहरण के बिना व्रतों का पालन पूर्ण नहीं होता, इसलिए आगे के शीर्षक के द्वारा इन्हें और भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया हैं में अष्ट प्रवचनमाताओं के विषय में संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित अनुशीलन जैस कोई साधुआधाकर्म दोष से विभावित होता हुआ जो प्रस्तुत किया जा रहा है। उसे लेने का निश्चय करता है वह अतिक्रम का दोषी है; उसके ग्रहण के निमित्त पदभेद करनेवाला व्यतिक्रम का दोषी है; ग्रहण करनेवाला अतिचार का दोषी है और इस प्रकार से आधाकर्म दोष युक्त आहार 49. अ.रा.पृ. 1/8 का सेवन करनेवाला अनाचार का दोषी है। इससे यह स्पष्ट होता 50. अतिक्रमव्यतिक्रमादयः साधुक्रियोल्लङ्घनरुपा:.....- अ.रा.पृ. 1/2 है कि दोष यदि आरम्भिक अवस्था में और मन तक ही सीमित 51. एतेष्वतिक्रमादिषूत्तरोत्तरं दोषाधिक्यम्....... - अ.रा.पृ. 1/8 है तो वह अतिक्रम है, दोषयुक्त आचरण करने में उपक्रमशीलता 52. I.....,आधाकर्मणा विभावितः सन् यः प्रतिश्रृणोति सोऽतिक्रमे वर्तते, व्यतिक्रम है, प्रयत्नसंलग्नता अतिचार है और दोषयुक्त आचरण की तद्ग्रहणनिमित्तं पदभेदं कुर्वन् व्यतिक्रमे, गृह्णानोऽतीचारे बुञ्जोनोऽनाचारे । एवमन्यदपि परिहारस्थानमधिकृत्यातिक्रमादयो ज्ञानपीयाः । अन्तिम परिणति अनाचार है। - अ.रा.पृ. 1/8 (संघनगर ! तुम्हारा कल्याण हो ।) गुणभवणगहणसुयरयण-भरियदंसणविसुद्धरत्थागा। संघनगर! भदंते, अक्खडचरित्त पागरा ॥ पिंडविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रहादि विशुद्ध दर्शन/सम्यकत्वरुपी शेरीवाला एवं अखण्ड चारित्ररुपी मजबूत किल्ले से सुरक्षित हे संघ (रुप) नगर । तुम्हारा कल्याण हो !!! ( संघरथ का कल्याण हो ।) भदं सीलपडागूसियस्स, तवनियमतुरयजुत्तस्स। संघरहस्स भगवओ, सज्झायसुनंदिघोसस्स ॥ 18000 शीलाङ्गरुपी ध्वजा-पताका जिस पर लहरा रही है, तप-नियमरुप अश्वों से युक्त है एवं जहां वाचनादि पंचविध स्वाध्याय रुप वादित्रों का नाद सतत गुंजायमान है; भगवन्त के ऐसे संघरथ का कल्याण हो । (संघपद्म का कल्याण हो ।) कम्मरयजलोहविणिग्गयस्स सुयरणदीहनालस्स । पंचमहव्वयथिरक-नियस्स गुणकेसरालस्स ॥ सावगजणमहुअरिपरि-वुडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स । संघ पउमस्स भदं समणगणसहस्सपत्तस्स ॥2॥ ज्ञानावरणादि आठों प्रकार के कर्मरुपी रज एवं जन्मकारणरुप संसार-समुद्र से विशेषप्रकार से निर्गत (बाहर आये हुए), श्रुतज्ञानरुप रत्नों की दीर्धनाल से युक्त, पंचमहाव्रतरुपी स्थिर कणिकावाले, उत्तरगुणरुपी केसरीवाले, श्रमणगणरुप सहस्रों पत्तोंवाले, श्रावकगणरुपी भ्रमरों से परिमण्डित (धिरा हुआ), जिनेश्वररुप सूर्य के तेज (प्रकाश/वाणी/धर्मदेशना) से बोधित (प्रफुल्लित) होनेवाले संघरुपी पद्म/कमल का कल्याण हो । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [286]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अष्ट प्रवचनमाता (समिति-गुप्ति) जैनावाङ्मय में अष्ट प्रवचनमाता एक पारिभाषिक शब्द है; अष्ट प्रवचन माताओं में पांच समितियों और तीन गुप्तियों का समावेश है। इनका स्वरुप निम्न प्रकार से प्राप्त हैसमिति : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'समिति' की व्याख्या करते हुए कहा है कि, 'सम्' उपसर्गपूर्वक इण् गतौ धातु में क्तिन् प्रत्यय होने पर 'समिति' शब्द निष्पन्न होता है। सुंदर एकाग्र परिणाम की चेष्टा, सम्यक्प्रवृत्ति, सम्यक् प्रकार से जीव हिंसा का निरोध', सम्यग् गमन, सम्यक् प्रवर्तन", समागम'; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार चलने-फिरने में, बोलने-चालने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओं को उठाने-रखने में और मलमूत्र निक्षेपण करने में यत्नपूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना समिति है। समितियों के पाँच भेद : 4. भाव : उपयोगपूर्वक/सावधानीपूर्वक चलना। अभिधान राजेन्द्र कोश में एवं अन्य जैनागम ग्रंथों में समिति तीर्थंकर परमात्माने मुनि को पुष्ट आलम्बन (विशेष कारण) के पाँच भेद' दर्शाये हैं -1. ईर्या समिति 2. भाषा समिति 3. एषणा के बिना रात्रि में विहार की अनुज्ञा नहीं दी है20 । समिति 4. आदानभण्डमत निक्खेवणा (निक्षेपणा) समिति 5. (2) भाषा समिति :उच्चारपासवण-खेलजल्लसिंधाणपारिद्धावणिया समिति (उच्चार-प्रस्रवण अभिधान राजेन्द्र कोश में भाषा समिति का परिचय देते निष्ठीवन-श्लेष्म-मल-परिष्ठापनिका समिति)। हुए आचार्यश्रीने कहा है कि, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, आगे अभिधान राजेन्द्र कोश में स्थानांग सूत्र को उद्धृत मौखर्य (मुखरता) और विकथा (राज, देश, भक्त, स्त्र्यादि की कथा) करते हुए कहा है कि उपरोक्त पाँच समितियों के साथ मन:समिति, रहित निरवद्य वचन प्रवृत्ति 'भाषा समिति' कहलाती है।। मुनि को वचनसमिति और कायसमिति मानने पर आठ समितियाँ होती है।। स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जानेवाले स्व पर हितकारक, मन:वचनकायसमितियों को गुप्ति नाम भी दिया गया है। इन आठों निरर्थक बकवासरहित, मित, स्फुटार्थ, व्यक्ताक्षर और असन्धिग्ध वचन समितियों अर्थात् पाँच समितियों और तीन गुप्तियों (मनोएप्ति, वचनगुप्ति, बोलना 'भाषा समिति' है। मिथ्याभिधान, असूया (इर्ष्या), प्रियभेदक, कायगुप्ति) का एकाभिधान 'अष्ट प्रवचनमाता' हैं। इन आठों समितियों अल्पसार, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्मविधायक, निंदित, देशकाल में द्वादशांग समाहित होने से अथवा इन आठों से द्वादशांग की विरोधी और चापलूसी आदि वचन दोषों से रहित भाषण करना चाहिए। उत्पत्ति होने से अथवा द्वादशांग या सङ्घ का आधार होने से समितिगुप्ति को प्रवचनमाता/अष्ट प्रवचनमाता कहते हैं। ये अष्ट प्रवचन 1. अ.रा.पृ. 7/432 माता मुनि के ज्ञान, दर्शन, और चारित्र की सदा ऐसे रक्षा करती 2. वही, आवश्यक बृहद्वृत्ति, अध्ययन-4 3. वही, प्रश्नव्याकरणांग-1 संवर द्वार; राजवार्तिक-9/2/2; सर्वार्थसिद्धिहैं जैसे कि पुत्र का हित करने में सावधान माता अपायों से उसको 9/2 बचाती हैं।4। ये समितियाँ निम्नानुसार हैं 4. वही, प्रवचन सार-240; भगवती आराधना-115 पृ. 267 (1) ईर्या समिति : 5. अ.रा.पृ. 77432 सम्यक्तया चक्षुर्व्यापार (उपयोग) पूर्वक गमन करना ईर्या 6. वही; उत्तराध्ययन-अध्ययन-24 समिति है।5। धर्मसंग्रह में कहा है कि, "दीक्षित मुनि के लिए 7. वही; समवयांग-5 समवाय आवश्यक प्रयोजन होने पर त्रस स्थावर जीवों के अभय दानदाता 8. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/338 9. अ.रा.पृ. 7/432; समवयांग-समवाय 5; उत्तराध्ययन-24; चारित्र पाहुडजाते समय जीव रक्षा और स्व-शरीर रक्षा के लिए सामने युग मात्र 37; तत्त्वार्थ सूत्र-9/5; मूलाचार-5/101 (चार हाथ प्रमाण) क्षेत्र (स्थान, रास्ता, भूमि) की ओर देखते हुए 10. अ.रा.पृ. 7/432; स्थानांग 8/3; मूलाचार-51100 गमन करना,ईर्या समिति कहलातीहै । निशीथ चूणि के अनुसार "जीव 11. अ.रा.प्र. 5/785; समवयांग, समवाय-8; उत्तराध्ययन-24/2: जैनेन्द्र सिद्धान्त रक्षा हेतु युग प्रमाण भूमि देखते हुए अप्रमादी मुनि का संयम जीवन कोश-3/148 की आवश्यक क्रिया एवं गोचरी (आहार चर्या) आदि हेतु जो गमन 12. अ.रा.पृ. 7/432, 5/785; आवश्यक चूणि-459; पाक्षिक सूत्र सटीक क्रिया, उसे 'ईर्यासमिति' कहते हैं"17। आवश्यक बृहवृत्ति रथ, 13. अ.रा.पृ. 5/785; समवयांग-समवाय-8; उत्तराध्ययन, अध्ययन-24/1 बैलगाडी आदि वाहनों के गमनागमन से एवं सूर्य की किरणों की 14. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/148 15. अ.रा.पृ. 2/659 गरमी से प्रासुक (अचित) मार्ग पर युग मात्र (चार हाथ प्रमाण) दृष्टि 16. वही, धर्मसंग्रह, अधिकार-3; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/339; उत्तराध्ययन, रखकर गमनागमन करना ईर्या समिति कहलाती हैं। । अध्ययन-4 यह ईर्या समिति द्रव्यादि भेद से चार प्रकार से हैं19 17. अ.रा.पृ. 2/659; निशीथ चूर्णि, | उद्देश 1. द्रव्य : जीवादि द्रव्यों को देखकर संयम विराधना और आत्म 18. अ.रा.पृ. 2/659; आवश्यक बृहद् वृत्ति, 4 अध्ययन विराधना से बचकर चलना। 19. वही, उत्तराध्ययनसूत्र सटीक, अध्ययन 4 क्षेत्र : चार हाथ प्रमाण सन्मुख भूमि देखते हुए चलना। 20. अ.रा.पृ. 2/659 3. काल : सूर्य प्रकाश में (दिन में) गमन करना। 21. अ.रा.पृ. 5/1555; समवायाङ्ग-समवाय 5; उत्तराध्ययनसूत्र सटीक 34/ 9-10; नियमसार-62;जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ 4/340 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [287] 'गुप्ति' शब्द की व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि मन-वचन काय का कुशल योगों में प्रवर्तन और अकुशल (अप्रशस्त) योगों से निवर्तन 'गुप्ति, कहा जाता है। आत्मा में आनेवाले आगन्तुक कचरे (कर्म रुपी कचरा) का निरोध करना 'गुप्ति' कही जाती है। मुमुक्षु का आत्मसरंक्षण के विषय में अशुभ योगों का निग्रह 'गप्ति' है। संवर, तयालीसवीं गौण अहिंसा।4, आत्यन्तिक रक्षा, संलीनता, मन, वचन, काया का गोपन करना (सम्यग् निग्रह करना), गुप्ति है”। गुप्ति के भेद : __ अभिधान राजेन्द्र कोश एवं अन्य जैनागमों में गुप्ति के तीन भेद दर्शाये हैं 1. मनोगुप्ति 2. वचनगुप्ति 3. काय गुप्ति मनो गुप्ति : अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार अशुभ पदार्थो/विषयों के चिन्तन से मन का नियंत्रण करना, 'मनोगुप्ति' है" । आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने मनोगुप्ति की परिभाषा बताते हुए कहा है कि, "कल्पना (संकल्पविकल्प) के जाल से सर्वथा मुक्त, समता भाव में सुप्रतिष्ठित (स्थिर), मन का आत्मा (आत्मारुपी उद्यान/आराम) में लयलीन होना, उसे विद्वानों के द्वारा 'मनोगुप्ति' कहा जाता है। " नियमसार के अनुसार रागद्वेष से मन परावृत्त होना, यह मनोगुप्ति है।4। पुरुषार्थसिद्धयुपाय पीठ पीछे किसी की निंदा नहीं करना चाहिए एवं किसी भी दो व्यक्तियों की बात-चीत में उनके द्वारा बिना बुलाये बीच-बीच में नहीं बोलाना चाहिए। (3) एषणा समिति : मुनि के द्वारा संयम निर्वाह एवं धर्माराधना हेतु मनवचन-काया और करण-करावण-अनुमोदन रुप नव कोटि (प्रकार) शुद्ध, गवेषणा-ग्रहणेषणा-ग्रासैषणा के उद्गम-उत्पाद, शंकित, धूमादि 42 दोषों से रहित आहार, जल, रजोहरण, मुहपत्ति, वस्त्र, शय्या, पाट-पाटला, आसन, दण्ड, दण्डासन आदि ग्रहण करना, एषणा समिति हैं। एषणा समिति तीन प्रकार की हैं(1) गवेषणा - दोष रहित आहर, पानी, वस्त्र, पात्र, उपधि पुस्तक आदि को एवं वसति (रहने हेतु स्थान) ढूंढना। (2) ग्रहणेषणा - उसे दोष रहित ग्रहण करना। (3) ग्रासैषणा - आहारादि को उपयोग में लेते समय धूमादि दोषों से बचकर वापरना। (4) आदानभाण्डमात्रक निक्षेपणा समिति : भाण्ड अर्थात् उपकरण, मात्र अर्थात् - पात्रादि । मुनि के द्वारा दंड, दण्डासण, आसन, रजोहरण, मुहपत्ति, संधारा, आदि संयम के उपकरण, पात्र, मात्रक (प्याला), मिट्टी का घडा आदि तथा वस्त्रादि को एवं पुस्तकादि ज्ञान के उपकरणों को अच्छी तरह से प्रतिलेखन-प्रमार्जनपूर्वक ग्रहण करना या रखना आदानभाण्डमात्रकनिक्षेपणा समिति है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में इसे आदान-निक्षेपण समिति कहा है25 । आदानभाण्डमात्रक निक्षेपणा समिति के भङ्ग- इसके सात भङ्ग हैं, इनमें से अंतिम भङ्ग ही प्रशस्त होने से ग्राह्य (आचरणीय) हैं, शेष नहीं26। (1) पात्रादि प्रतिलेखन नहीं करना, प्रमार्जन नहीं करना। (2) पात्रादि प्रतिलेखन करना, प्रमार्जन नहीं करना। (3) पात्रादि प्रतिलेखन नहीं करना, प्रमार्जन नहीं करना। (4) पात्रादि का दुःप्रतिलेखन करना, दुःप्रमार्जन करना। (5) पात्रादि का दुःप्रतिलेखन नहीं करना, दुःप्रमार्जन करना। (6) पात्रादि का दुःप्रतिलेखन करना, दुःप्रमार्जन नहीं करना। (7) पात्रादि का अच्छी तरह से प्रतिलेखन करना, प्रमार्जन करना। (5) उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-शिङ्गाण-परिष्ठापनिका समिति : मल, मूल, थूक, श्लेषण, प्रस्वेद आदि का सम्यक् प्रकार से प्रतिलेखित-प्रमार्जित स्थंडिल भूमि पर त्याग करना ‘परिष्ठापनिका' समिति है। उपरोक्त परठने योग्य त्याज्य पदार्थों को मुनि एकान्त स्थान, अचित स्थान, दूर, छिपा हुआ, बिल रहित, छेद रहित, चौडा, दावाग्नि से दग्ध, हल से जुता हुआ, मसान (श्मशान), खार सहित भूमि, त्रस जीवों से रहित, जन रहित, हरी घासादि से रहित, प्रासुक भूमि पर जहाँ लोग जैनशासन या साधु-साध्वी की निंदा या विरोध न । करें और परठते रोके नहीं, एसे स्थान पर दृष्टि-प्रतिलेखन कर (अच्छी तरह देखकर) मल-मूत्र-मूत्रादि का त्याग करें- यह मुनि की पारिष्ठापनिका समिति हैं28 | तत्त्वार्थ सूत्र में पारिष्ठापनिका समिति को उत्सर्ग समिति कहा है। 22. अ.रा.पृ. 5/1545 से 1550; राजवार्तिक 9/5; ज्ञानार्णव-18/8-9: जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/341 23. अ.रा.पृ. 3/72; स्थानांग, 3, 5 वाँ ठाणां; सूत्रकृताङ्ग-1/1; धर्मसंग्रह, 2 अधिकार; उत्तराध्ययन, 6 ठा और 24 वाँ अध्ययन; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश4/341 अ.रा.पृ. 27240 7/423; ; स्थानांग, 5/3; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/341; उत्तराध्ययन-24/13, 14 25. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ 4/339, 341 26. अ.रा.पृ. 2/240 आवश्यक बृहवृत्ति 4/105 पर टीका 27. अ.रा.पृ. 2/761; समवयाङ्ग, 5 वाँ समवाय 28. अ.रा.पृ. 4 'थंडिल' शब्द; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/341, 342; तत्त्वार्थ सूत्र 9/5 पर तत्त्वार्थ भाष्य 29. तत्त्वार्थ सूत्र-9/5 30. अ.रा.पृ. 3/933; स्थानांग 3/1; मूलाचार 331; द्रव्यसंग्रह-35 पर टीका 31. वही; आवश्यक मलयगिरि, प्रथम खंड 32. वही; धर्मसंग्रह, अधिकार 3, भगवती आराधना-115 पर विजयोदया टीका 33. वही; विशेषावश्यक भाष्य 34. वही; प्रश्नव्याकरण-1 संवर द्वार 35. बृत्कल्पसभाष्य वृत्ति, । उद्देश 36. वही; पाक्षिक सूत्र सटीक 3 37. अ.रा.पृ. 3/933; तत्त्वार्थसूत्र 9/4 38. अ.रा.पू. 3/933; स्थानांग-3/1; तत्त्वार्थसूत्र 9/4 पर तत्त्वार्थभाष्य; सवार्थसिद्धि 9/4, पृ. 411; मूलाचार 5/135-136; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 2/248 39. अ.रा.पृ. 6/83; उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 24 40. वही; योगशास्त्र 1/41 41. नियमसार 66, 69; ज्ञानार्णव 18/15 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [288]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के अनुसार मन का सम्यक्ततया निरोध करना, 'मनो गुप्ति' हैं।42 काय गुप्ति :अभिधान राजेन्द्र कोश में मनोगुप्ति के तीन प्रकार बताये गये हैं।3 अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार काय का अशुभ व्यापार 1. आर्तरौद्रध्यानानुबन्धिनी कल्पना जाल के वियोगस्या प्रथमा से गोपन (रक्षण) करना, 'कायगुप्ति' है। । गमनागमन करते हुए, चलते मनोगुप्ति । हुए, किसी भी पदार्थ को ग्रहण करते हुए, स्यन्दन (बाधा रहित 2. शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मध्यानानुबन्धिनी गमनागमन) आदि क्रियाओं का गोपन करना, 'कायगुप्ति' हैं किसी मध्यस्थपरिणतिस्मा द्वितीया मनोगुप्ति । स्थान में बैठते-उठते, सोते हुए, किसी भी पदार्थ या स्थान के उपर कुशल-अकुशल मनोवृत्ति निरोध के द्वारा से उल्लंघन करते हुए, प्रलङ्घन (सामान्य उल्लंघन) करते हुए, इन्द्रिययोगनिरोधावस्थाभाविनी आत्मारामतास्या तृतीया व्यापार (इन्द्रियविषयक प्रवृत्ति) करते हुए, स्थान में रहते हुए संरम्भ मनोगुप्ति । (अभिधान), समारम्भ (दृष्टि, मुष्टि या अन्य हिंसासूचक मुखादि से मनोगुप्ति के उत्तराध्ययन सूत्रोक्त भेदों को उद्धृत करते हुए जनित अभिघात (हिंसा), और आरम्भ (जीव हिंसामय कायिक प्रवृत्ति) आचार्यश्रीने मनोगुप्ति के निम्नांकित चार प्रकार उदाहरण सहित प्रस्तुत में कायिक प्रवृत्ति का नियंत्रण करना, 'काय गुप्ति' हैं53 | नियमसार किये हैं के अनुसार बंधन, छेदन, मारण, आकुंचन (संकोचन), प्रसारण इत्यादि 1. सत्या मनोगुप्ति - जगत् में जीवादि तत्त्व विद्यमान हैं - कायिक क्रियाओं की निवृत्ति 'काय गुप्ति' है । अथवा औदारिकादि इस प्रकार सत्य (सत्) पदार्थों का मन में चिन्तन करना। शरीर की क्रियाओं से निवृत्त होना कायगुप्ति है, अथवा हिंसा चोरी मृषा मनोगुप्ति - 'जीव नहीं है' -इस प्रकार से मन में आदि पाप क्रियाओं से परावृत्त (दूर) होना कायगुप्ति है। असत् चिन्तन करना। काय गुप्ति के प्रकार:सत्यामृषा मनोगुप्ति- आम्रवृक्षबहुल वन में अन्य बेर, जाम, 1. सर्वथा योगनिरोध अवस्था में, या परिषह, उपसर्गादि जामुन, नीम, पीपल आदि के भी वृक्ष होने पर भी मन के होने की संभावना होने पर भी निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्गादि करना में से 'वह आम्रवन है' - एसा चिन्तन करना। - प्रथम प्रकार की कायगुप्ति हैं। 2. शयन-आसन-निक्षेप-आदान (अन्य-वस्त्र-पात्रादि का ग्रहण) के विषय में स्वच्छन्दता का त्याग 4. असत्यामृषा मनोगुप्ति - घट लाना, मुझे पुस्तक दीजिये, -इत्यादि मन में आदेश-निर्देशादि वचन और व्यवहार का कर गुरु को पूछकर गुर्वाज्ञापूर्वक शरीर, संस्तारक (संथारा की) भूमि, उपलक्षण से उपकरणादि प्रतिलेखन, प्रमार्जनादि समयोचित क्रियाकलाप चिन्तन करना। करना - द्वितीय प्रकार की 'कायगुप्ति' हैं। मनोगुप्ति के अतिचार : कायगुप्ति के अतिचार :भगवती आराधना के अनुसार रागादिविकार सहित स्वाध्याय मन की एकाग्रता के बिना शरीर की चेष्टाएँ निरुद्ध करना, में प्रवृत्त होना, मनोगुप्ति का अतिचार हैं।45 अनगार धर्मामृत के जहाँ लोग भ्रमण करते हैं, एसे सार्वजनिक स्थान में एक पाँव अनुसार रागद्वेषादिरुप कषाय व मोहरुप परिणामों में (मन से) वर्तन, ऊपर करके खडे रहना, एक हाथ ऊपर कर खडे रहना, मन में मन में शब्दार्थज्ञान की विपरीतता और आर्त-रौद्र ध्यान-मनोगप्ति अशुभ संकल्प करते हुए काय से चञ्चल रहना, आप्ताभास हरिहरादिक के अतिचार हैं। की प्रतिमाओं के सामने उनकी आराधना करते हुए से खडे रहना वचन गुप्ति : या बैठना, सचित भूमि पर या बीजाकुरयुक्त भूमि पर रोष से, अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार मनोगुप्ति की तरह ही दर्प (अभिमान) से खडे रहना या बैठना, शरीरममत्व का त्याग वचनगुप्ति के चार प्रकार बताये गये हैं - 1. सत्या 2. मृषा 3. सत्यामृषा न करना या कायोत्सर्ग के दोषों को न त्यागना - 'कायगुप्ति' और 4. असत्यामृषा। इन चारों प्रकार के वचनों का गोपन करना, के अतिचार हैं। अर्थात् इन चारों प्रकार की भाषाओं के कारण होनेवाले कर्म बन्धनों से आत्मा की रक्षा करना 'वचन गुप्ति' है।7। नियमसार केअनुसार 42. पुरुषार्थसिद्धयुपाय 202 स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा युक्त वचनों का परिहार अथवा 43. अ.रा.पृ. 6/83; धर्मसंग्रह, अधिकार 3; निशीथ चूर्णि, । उद्देश असत्य भाषणादि से निवृत्त होना अथवा मौन धारण करना 'वचन 44. अ.रा.प्र. 6/83; उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 24 गुप्ति' हैं।48 भगवती आराधना के अनुसार जिससे प्राणियों को उपद्रव 45. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 2/250 46. वही; अनगार धर्मामृत 4/159 होता है अथवा जिससे आत्मा अशुभ कर्म का विस्तार करता है, 47. अ.रा.पृ. 6/887; उत्तराध्ययन, 24 अध्ययन; निशीथचूर्णि, 1 उद्देश एसे भाषण से आत्मा का परावृत होना (दूर रहना), 'वचनगुप्ति/वाग्गुप्ति' 48. नियमसार 67, 69 है । अथवा संपूर्ण प्रकार के वचनों का त्याग (मौन धारण करना) 49. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 2/249 'वाग्गुप्ति' हैं। 50. वही पृ. 2/250; अनगार धर्मामृत 4/160 वचनगुप्ति के अतिचार : 51. वही पृ. 2/250; अनगार धर्मामृत 4/160 52. वही; उत्तराध्ययन, अध्ययन 24 अनगार धर्मामृत के अनुसार कर्कशादि वचनोच्चारण अथवा 53. वही विकथा करना और मुख से हुंकारादि द्वारा या हाथ या भ्रकुटिचालनादि 54. नियमसार 68 क्रियाओं के द्वारा उसे इङ्गित करना - ये दो वचन गुप्ति के 55. वही, 70 अतिचार हैं। 56. अ.रा.पृ. 3/449; धर्मसंग्रह, अधिकार 3 57. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/250 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन गुप्तियों का माहात्म्य : मूलाचार में इन तीनों गुप्तियों का महत्त्व बताते हुए कहा है कि "जैसे खेत की रक्षा के लिए बाड होती है, अथवा नगर की रक्षा के लिए खाई तथा कोट होता है, उसी तरह पाप को रोकने के लिए संयमी साधु के ये गुप्तियाँ होती हैं 58 । इस प्रकार इन पाँच समिति, तीन गुप्ति रुप के सम्यक् पालन से मुनि सर्व संसार भ्रमण से अष्ट प्रवचनमाता शीघ्र मुक्त होता $59 समिति से समित और गुप्तियों से गोपित पूर्वोक्त महाव्रतों, और पञ्चाचार के पालन से आत्मा का स्वाभाविक धर्म प्रकट होता है जो कि अन्तरात्मा द्वारा स्वयं भी अनुभव किया जाता है और चतुर्थ परिच्छेद... [289] साथ ही उसका प्रतिफल बाहर भी स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होने लगता है । कभी वह क्षमा के रुप में आचरण में प्रतिबिम्बित होता है तो कभी मार्दव या इसी प्रकार के अन्य गुणों के रुप में । ये धर्म आत्मा की स्वाभाविक परिणति है। जैनाचार्योने संक्षेप में दश यतिधर्मो के रुप में प्रतिपादित किया है। कहीं कहीं पर नाम में भिन्नता हो सकती है। इसका एक कारण यह भी है कि वस्तु तो अनन्तधर्मात्मक हैं। आगे के शीर्षक में यतिधर्म के नाम से शास्त्रों में वर्णित दश धर्मो का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा हैं। 1 58. मूलाचार 334 59. अ.रा. पृ. 5/786 उत्तराध्ययनसूत्र, 24/27 संघचक्र की सदा जय हो संजमतवतुंबारय-स्स नमो सम्मत पारियलस्स । अप्पचिक्कस्स जओ, होउ सया संघचक्कस्स ॥ हिंसादि पंचाश्रवविरमण; पंचेन्द्रिय निग्रह; कषायचतुष्कजय एवं त्रिदण्डविरतिरुप सत्रह प्रकार के संयम एवं बाह्याभ्यन्तर बारह प्रकार के तपरुप आरों एवं सम्यकत्वरुप भ्रमि (बाह्य पृष्ठ भाग) से (अजोड चक्र) संघ (रुपी) चक्र की सदा जय हो !!! युक्त अप्रतिचक्र भदं दमसंघसूरस्स । परतित्थियगहपहना-सगस्स तवतेयदित्तलेसस् । नाणुज्जोयस्स जए, भद्दं दमसंघसूरस्स ॥ कपिलादि परतिथिकों रूपी ग्रहों की दुर्नयलक्षणा प्रभा को नाश करनेवाले, तप-तेज से उज्जवल, देदीप्यमान, लोक में ज्ञान - उद्योत (प्रकाश) फैलानेवाले उपशमप्रधान संघ (रुप) सूर्य का कल्याण हो । भद्दं संघसमुद्दस्स भद्दं धिइवेलापरि-गयस्स सज्झायजोगमगरस्स । अक्खोहस्स भगवओ, संघसमुद्दस्स दस्स ॥ मूलगुण एवं उत्तरगुण रुपी धृति (धैर्य) के विषय में प्रवर्धमान उत्साहयुक्त आत्म- परिणामरुप जलवृद्धियुक्त, कर्मविदारण करने में शक्तिसम्पन्न स्वाध्याययोगरुप मगरमच्छों से भरपूर तथा परीषह एवं उपसर्गो में भी अक्षुब्ध / निष्प्रकम्प, भगवान के समग्र ऐश्वर्य (आठ प्रातिहार्य), रुप, यश, धर्म, प्रयत्न (पुरुषार्थ), केवलज्ञानरुपी श्री समूह से सुशोभित विस्तृत संघ (रुप) समुद्र का कल्याण हो । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [290]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन दस यतिधर्म अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'अणगारधम्म' शब्द पर सर्वविरतिचारित्रधर मुनि के धारण करने योग्य दस प्रकार के यतिधर्मो का वर्णन किया है 1. खंती - (क्षान्ति) 2. मद्दव (मार्दव) 3. अज्जव (आर्जव) 4. मुत्ती (मुक्ति) 5. तव (तप) 6 संजम (संयम) 7. सच्च (सत्य) 8. सोय (शौच) 9. आकिंचण (आकिञ्चन्य) 10. बंभ/बंभचेर (ब्रह्मचर्य)। तत्त्वार्थ सूत्रकारने इससे किञ्चिद् भिन्न दस प्रकार के यतिधर्मो का वर्णन किया है 1. उत्तम क्षमा 2. उत्तम मार्दव 3. उत्तम आर्जव 4. उत्तम शौच 5. उत्तम सत्य 6. उत्तम संयम 7. उत्तम तप 8. उत्तम त्याग 9. उत्तम आकिञ्चन्य 10. उत्तम ब्रह्मचर्य । (1) क्षान्ति : स्वयंभूस्तोत्रानुसार 'क्षान्ति' और 'शान्ति' शब्द एकार्थवाची हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'क्षान्ति' के निम्नांकित अर्थ बताये गये हैं - (1) आक्रोशयुक्त वचन श्रवण करने पर भी क्रोध का त्याग ।। (2) सहन शक्ति में समर्थ या असमर्थ साधक का सर्वथा क्रोधत्याग। (3) कर्कश भाषा सहन करना। (4) क्रोध के उदय का निरोध । (5) कषाय का उपशम, तितिक्षा।' (6) शुक्ल ध्यान का प्रथम आलम्बन ।। (7) प्रथम श्रमणधर्म (यतिधर्म) 'क्षान्ति' हैं।" (8) क्रोधादि दोषों का निराकरण करना ।12 क्षान्ति की प्राप्ति का क्रम : आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार साधक को दीक्षाजीवन में प्रथमतः वचन शान्ति होती है, तत्पश्चात् धर्मक्षान्ति होती है, क्योंकि प्रथम वचनानुष्ठानपूर्वक अध्ययनादि के द्वारा साधक को उसमें रति (ज्ञानरमणता) होती है, जिससे तन्मयता होने पर साधक असङ्गभाव को प्राप्त होता है। क्षान्ति के भेद :(1) उपकार क्षान्ति - ये मेरे उपकारी है, अत: इनके वचन सहन करने योग्य हैं - एसा सोचकर क्षान्ति रखना 'उपकार क्षान्ति' क्षमा धर्म : तत्त्वार्थ सूत्रकार वाचकश्री उमास्वाति महाराजने दसविध यतिधर्म में 'खंति' के पर्यायवाची 'क्षमा' धर्म का वर्णन किया है।5 अत: यहाँ पर यथाप्रसंग क्षमा धर्म का भी संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। __'क्षमा' (खमा) शब्द क्षमूष धातु से अच् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है। जैनागमों में, सहनकरना, क्षमा करना, क्रोध के अभावपूर्वक माफ करना, सहिष्णुता, सत्येतर (जूठे) वचनों के श्रवण से क्रोधोदय होने की स्थिति में भी आत्मा को क्रोध से दूर रखना, उदय प्राप्त क्रोध को निष्फल करना, अपराध को माफ करना । -आदि अनेक अर्थो में 'क्षमा' शब्द का प्रयोग किया गया हैं।16। क्षमा प्रथम धर्म है। दशवैकालिकसूत्र के अनुसार क्रोध प्रीति का विनाशक है। क्रोध कषाय के उपशमन के लिए क्षमाधर्म का विधान है। क्षमा के द्वारा ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है।18 जैन परम्परा में अपराधी को क्षमा करना और स्वयं के द्वारा जिसके प्रति अपराध किया गया है, उससे क्षमा-याचना करना साधक का परम कर्तव्य है। जैन साधक का प्रतिदिन यह उद्घोष होता है कि मैं सभी प्राणियों को क्षमा करता हूँ और सभी प्राणी मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें। सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है। महावीर का, श्रमण साधकों 1. अ.रा.पृ. 1/279; दशवैकालिक नियुक्ति-6/14 2. तत्त्वार्थसूत्र-9/6 एवं उस पर तत्त्वार्थभाष्य 3. स्वयंभूस्तोत्र 16,39 4. अ.रा.पृ. 3/692 5. द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका 27 6. धर्मसंग्रह, अधिकार 3 7. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन । 8. औपपातिक सूत्र 9. दर्शनशुद्धि सटीक 10. समवयांग,समवाय 9 II. स्थानांग 4/1 12. सर्वार्थसिद्धि 9/12 13. अ.रा.पृ. 3/692; द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 29/6 14. वही, वही 29/7 15. तत्त्वार्थ सूत्र-9/6 16. अ.रा.पृ. 3/714 17. दशवैकालिक सूत्र-8/38 ___18. वही-8/39 19. आवश्यक सूत्र, पगाम सिज्झाय, वंदित्तु सूत्र-49, 50 (2) अपकार क्षान्ति - यदि मैं इसके दुर्वचन सहन नहीं करूँगा तो यह मेरा अपकारी बनेगा - एसा सोचकर क्षमा धारण करना 'अपकार क्षान्ति' हैं। विपाक क्षान्ति - क्रोधादि कषाय के कटुफल इसलोक और परलोक में अनर्थ परम्पराकारक हैं - एसा सोचकर क्षमा धारण करना 'विपाक क्षान्ति' हैं। (4) वचन क्षान्ति - 'क्षान्ति (क्षमा) से मेरा राग है' - एसा आलम्बन मन में धारण कर क्षमा धारण करना 'वचन क्षान्ति' हैं। (5) धर्म क्षान्ति - शान्ति (क्षमा) आत्मा का शुद्ध स्वभाव है। जैसे चंदन वृक्ष पर घाव (छेद) करनेवाले कुठार को भी चंदन अपने स्वभाव से ही अपनी सौरभ से सुरभित करता है, वैसे आत्मा में भी शान्ति (क्षमा) स्वाभाविक रुप से रहती है - एसा सोचकर सभी के ऊपर क्षमा धारण करना 'धर्म क्षान्ति' हैं। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [291] के लिए यह आदेश था कि साधुओं ! यदि तुम्हारे द्वारा किसी का काया की एकता को 'आर्जव' कहा हैं । (इसका विशेष वर्णन अपराध हो गया है, तो सबसे पहले क्षमा माँगो। जब तक क्षमा- माया कषाय के अन्तर्गत किया गया हैं। याचना न कर लो भोजन मत करो, स्वाध्याय मत करो, शौचादि (4) मुक्ति धर्म :कर्म भी मत करो, यहाँ तक कि अपने मुँह का थूक भी गले से लोभ के सर्वथा त्याग रुप भावना को 'मुक्ति' कहते हैं।42 नीचे मत उतारो। अपने प्रधान शिष्य गौतम को लाये हुए आहार बाह्याभ्यन्तर पदार्थो/विषयों में तृष्णा का नाश 'मुक्ति' हैं ।43 उत्तराध्ययन को रखवाकर पहले आनन्द श्रावक से क्षमा याचना के लिए भेजना सूत्र में निर्लोभता को 'मुक्ति' कहा है। औपपातिकसूत्र आदि ग्रंथों इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर की दृष्टि में क्षमा-धर्म में लोभ के उदय का निरोध करना 'मुक्ति' मानी गई हैं।45 स्थानांगसूत्र का कितना अधिक महत्त्व था।20 जैन परम्परा के अनुसार प्रत्येक आदि ग्रंथों के अनुसार धर्मोपकरण में भी मूर्छा नहीं रखना 'मुक्ति' साधक को प्रात:काल एवं सायंकाल, पक्षान्त में, चातुर्मास के अन्त है। सूत्रकृताङ्ग में सर्वकर्मनाश को 'मुक्ति' माना है।47 पञ्चसंग्रह में और संवत्सरी पर्व पर सभी प्राणियों से क्षमा-याचना करनी होती में भवोपग्राही कर्मो के नाश को 'मुक्ति' कहा है।48 आतुरप्रत्याख्यान" है। जैन समाज का वार्षिक (संवत्सरी) पर्व 'क्षमावाणी' के नाम में 'मोक्षमार्ग' को और आवश्यकचूर्णि में आत्मा की निसङ्गता (कर्मरहित से भी प्रसिद्ध है। जैन आचार-दर्शन की मान्यता है कि यदि श्रमण अवस्था) को मुक्ति कहा गया हैं।50 स्थानांग में आगे सर्वकर्ममुक्ता साधक पक्षान्त तक अपने क्रोध को शान्त कर क्षमा-याचना नहीं ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी के ऊपर सिद्धस्थान को 'मुक्ति' कहा गया कर लेता है तो उसका श्रमणत्व समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार है।। पाईयलच्छीनाममाला में 'परम-पद' को 'मुक्ति' कहा है।52 गृहस्थ उपासक यदि चार महीने से अधिक अपने हृदय में क्रोध त्याग :के भाव बनाये रखता है और जिसके प्रति अपराध किया है, उससे अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करना और प्राप्त भोगों से विमुख क्षमा-याचना नहीं करता तो वह गृहस्थ-धर्म का अधिकारी नहीं रह होना, त्याग है। नैतिक जीवन में त्याग आवश्यक है। बिना त्याग पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति एक वर्ष से अधिक तक अपने के नैतिकता नहीं टिकती। अतएव साधु के लिए त्याग-धर्म का क्रोध की तीव्रता को बनाये रखता है और क्षमा याचना नहीं करता विधान किया गया है। त्याग से इन्द्रिय और मन के निरोध का वह सम्यक्-श्रद्धा का अधिकारी भी नहीं होता है और इस प्रकार जैनत्व से भी च्युत हो जाता है।। 20. उपाशक दशांग-1 अध्ययन क्षमा का फल : 21. बारसासूत्र - समाचारी विभाग क्षमा धारण करनेवाली आत्मा के कर्म क्षय होते हैं; उसे 22. अ.रा.पृ. 3/715 23. अ.रा.पृ. 6/103 चित्त प्रसन्नता प्राप्त होती है, सर्वजीवों के प्रति मैत्रीभाव प्राप्त होताहै, 24. वही भावविशुद्धि होती है, राग-द्वेष नष्ट होते हैं; सातों भयों को दूरकर 25. प्रवचन सारोद्धार, द्वार 66; उत्तराध्ययनसूत्र 29 वह निर्भय होता है। 26. आवश्यक बृहद्वृत्ति, अध्ययन 4 (2) मार्दव धर्म : 27. दशवैकालिक 10/19 मार्दव अर्थात् कोमलता24, नम्रता25, मान का त्याग26, 28. औपपातिकासूत्र 29. कल्प सुबोधिका सटीक 1, अधिकार जाति आदि के अभिमान का त्याग, मान के उदय का निरोध, 30. भगवती सूत्र 1/6 मान का अभाव, अनङ्ग अर्थात् काम पर विजय, मान कषाय 31. ज्ञाताधर्मकथांग 1/1 का निग्रह", मानजनित अक्खडपन का त्याग । 32. आचारांग 1/6/ मार्दव का फल : 33. अ.रा.पृ. 6/107; स्थानांग, ठाणा-8; सूत्रकृताङ्ग 1/2/2 34. अ.रा.पृ. 1/104; उत्तराध्ययन, अध्ययन 29 मार्दव से जीव अहंकार रहित होता है; मृदु (कोमल) बनता 35. अ.रा.पृ. 1/215; स्थानांग 5/1 है, सकल भव्य जीवों के मन को संतोष रुप होता है, द्रव्य और 36. वही, धर्म संग्रह; अधिकार-8 भाव से नम्र बनता है। नम्र बनकर जाति, कुल, बल, रुप, तप, 37. अ.रा.पृ. 1/215; दशवैकालिक, अध्ययन 10; स्थानांग 5/1 ज्ञान (श्रुत), लाभ और एश्वर्य33 -इन आठों मद का क्षय करता है।34 38. स्थानांग 2/1 मार्दवगुणयुक्त व्यक्ति पर गुरुओं का अनुग्रह होता हैं। इसका विस्तृत 39. समवयांग, समवाय 31 विवेचन इसी परिच्छेद में "मान कषाय" एवं "विनय (तप)" उपशीर्षक 40. सर्वार्थसिद्धि 9/9 41. भगवती आराधना 46 पर विजयोदयी टीका के अन्तर्गत किया गया हैं। 42. अ.रा.पृ. 6/3143; (3) आर्जव धर्म : 43. वही; धर्मसंग्रह, अधिकार 3 आर्जव अर्थात् ऋजुता । राग-द्वेष रहित सामायिक युक्त कर्म 44. वही; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 29 या भाव 'आर्जव' कहलाता है, इसे संवर भी कहते हैं।5 मन 45. वही; धर्मसंग्रह, अधिकार 3; पाक्षिकसूत्र सटीक 46. वही, स्थानांग; प्रश्नवव्ययाकरण-संवर द्वार; द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 27 वचन-काय की वक्रतारहित अर्थात् मायारहित क्रिया आर्जव धर्म है। 47. अ.रा.पृ. 6/318; सूत्रकृताङ्ग 2/2 दूसरों के द्वारा फंसाने पर या दूसरों को फंसाने के लिए भी माया 48. वही; पञ्चसंग्रह, 2 द्वार (कपट) नहीं करना 'आर्जव' हैं। स्थानांगसूत्रानुसार आर्जव धर्म तृतीय 49. वही; आतुरप्रत्याख्यान 66 श्रमणधर्म है38, और समवयांगसूत्रानुसार दसवाँ योगसंग्रह है। 50. वही; आवश्यक चूणि, अध्ययन 4 सर्वार्थसिद्धि के अनुसार योगों का वक्र न होना 'आर्जव' हैं। भगवती 51. वही; स्थानांग 8/3 आराधना में मन की सरलता को और पञ्चविंशतिका में मन-वचन 52. वही; पाइयलच्छीनाममाला 20 For Private & Personal use only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [292]... चतुर्थ परिच्छेद - अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अभ्यास किया जाता है। संयम के लिए त्याग आवश्यक है। सामान्य निम्नानुसार हैरुप से त्याग का अर्थ छोडना होता है। अतएव साधुता तभी सम्भव 1. उपेक्षा संयम 2. अपहृत संयम । है जब सुख-साधना एवं गृह-परिवार का त्याग किया जाये। साधु (1) उपेक्षा संयम :जीवन में भी जो कुछ उपलब्ध है या नियमानुसार ग्राह्य है, उनमें देश-काल के विधान को समझनेवाले, स्वाभाविक रुप से कुछ को नित्य छोडते रहना या त्याग करते रहना जरुरी है। गृहस्थ से शरीर से विरक्त और त्रिगुप्तिधारक व्यक्ति के राग और द्वेष रुप जीवन के लिए भी त्याग आवश्यक है। गृहस्थ को न केवल अपनी चित्तवृत्ति का न होना 'उपेक्षा संयम' कहलाता है।75 वासनाओं और भोगों की इच्छा का त्याग करना होता है, वरन् अपनी (2) अपहृत संयम :सम्पत्ति एवं परिग्रह से भी दान के रुप में त्याग करते रहना आवश्यक अपहृत संयम मुख्यत: दो प्रकार का है- (अ) इन्द्रिय अपहृत है। इसलिए त्याग गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए ही आवश्यक संयम और (आ) प्राणी अपहत संयम। पाँच इन्द्रियों और मन के है। वस्तुतः लोकमंगल के लिए त्याग-धर्म का पालन आवश्यक विषयों का निरोध इन्द्रियसंयम है, और चौदह प्रकार के जीवों की है। न केवल जैन परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में रक्षा करना प्राणिसंयम है। भी त्याग-भावना पर बल दिया गया है। बोधिचर्यावतार में आचार्य (ख) संयम के सत्रह प्रभेद :शान्तिरक्षित ने इस सम्बन्ध में काफी विस्तार से विवेचन किया है।53 अभिधान राजेन्द्र कोश में और अन्य जैन ग्रंथों में सत्रह (5) तप धर्म : प्रकार का संयम अनेक प्रकार से वर्णित है, यथातप धर्म का वर्णन आगे पृष्ठ क्र. 309 पर है। __(1) प्रवचनसार में 5 समिति, 5 इन्द्रियसंवर, तीन गुप्ति (6) संयम धर्म : और 4 कषायजय को संयम कहा गया है। पञ्चसंग्रह के प्राकृताधिकार आभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'संयम' की व्याख्या में पाँच महाव्रतधारण, पाँच समिति पालन, चार कषायजय और तीन करते हुए कहा है कि सावध योगों का सम्यक् त्याग संयम दण्ड (अशुभ मन-वचन-काय) के त्याग रुप सत्रह प्रकार का संयम है, अथवा जिसमें आत्मा पाप व्यापार-समारम्भ से नियमपूर्वक दर्शाया गया है। संयमित होता है, वह संयम है।56 अथवा जिसमें प्राणातिपात (2) स्थानांग सूत्र के अनुसार पञ्चास्रव का त्याग, पञ्चेन्द्रिय मृषावाद (अनृत)-अदत्तादान-अबद्ध-परिग्रह के त्यागरुप सुंदर नियम निग्रह, चार कषायजय और मन-वचन-काय के तीन दण्डों से विरतिरुप हैं - एसे चारित्र को संयम कहते हैं । अथवा पाप का सम्यक् संयम सत्रह (5 +5+4+ 3 = 17) प्रकार का है। त्याग; सर्वसावद्यारम्भ से निवृत्ति"; मन-वचन-काय की विशुद्धिपूर्वक (3) समवयांग सूत्र में एकेन्द्रिय (पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, हिंसा का सर्वथा त्याग; पृथ्वीकायादि जीवों की रक्षा1; जीवदया62; और वनस्पति) के प्रति संयम के पाँच प्रकार; त्रस जीवों (द्वीन्द्रिय, सर्वविरति अङ्गीकरण, सम्यग् अनुष्ठान; सामायिकादि चारित्र, 53. जैन विद्या के आयाम खण्ड-6 पृ. 520 पृथ्वीकायादि जीव विषयक संघट्ट, परिताप और उपद्रवण का त्याग 54. अ.रा.पृ. 7/87 संयम कहलाता है। 55. वही उत्तराध्ययन सूत्र में दया, संयम, लज्जा, जुगुप्सा, निष्कपटता 56. वही (अच्छलना), तितिक्षा, अहिंसा और ह्री (लज्जा) को एकार्थ में संयम 57. वही, कर्मग्रंथ 4/12 पर विवेचन कहा है । धवला टीका में सम्यक् नियंत्रण को 'संयम' कहा है।68 58. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 28 प्रवचनसार प्रक्षेपक में बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग, मन-वचन 59. आचारांग 1/2/5 60. दर्शनशुद्धि सटीक, तत्त्व 5 काया से अनारम्भ, इन्द्रिय विषयक विरक्ति और कषायक्षय को संयम 61. स्थानांग 4/1 कहा है। 62. कल्पसुबोधिका 1/6 चारित्र पाहुड में इन्द्रिय-संवर, पाँच व्रत, 25 क्रिया, पाँच 63. आतुरप्रत्याख्यान 62 समिति और तीन गुप्ति को संयम कहा है। बारस अणुवेक्खा में 64. आवश्यक मलयगिरि, खण्ड 1, अध्ययन । व्रत और समितियों का पालन, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति (अशुभ) 65. आवश्यक मलयगिरि, खण्ड । का त्याग, और इन्द्रियजय को संयम कहा है।1 66. स्थानांग 7/3 जैन दर्शन के अनुसार पूर्व संचित-कर्मो के क्षय के लिए 67. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 3 तप आवश्यक है और संयम से भावि कर्मो के आस्रव का निरोध 68. धवला टीका 7/2,1; 3/7/3 69. प्रवचनसार, प्रक्षेपक 240-1 होता है। संयम मनोवृत्तियों, कामनाओं और इन्द्रिय-व्यवहार का नियमन 70. चारित्रापाहुड 28 करता है। संयम का अर्थ दमन नहीं, वरन् उनको सम्यक् दिशा 71. बारस अणुवेक्खा 76 में योजित करना है। संयम एक ओर अकुशल, अशुभ एवं पाप 72. जैन विद्या के आयाम खण्ड-6 पृ. 518-19 जनक व्यवहारों से निवृत्ति है तो दूसरी ओर शुभ में प्रवृत्ति है। 73. अ.रा.पृ. 7/88 दशवैकालिकसूत्र में कहा है कि अहिंसा, संयम और तपयुक्त धर्म 74. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/137, 138 ही सर्वोच्च शुभ (मंगल) है।2 75. वही, पृ. 4/137; राजवार्तिक 9/9/15/596/29; चारित्रसार 65/7, 75/2 76. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/138; मूलाचार 418 संयम के भेद : 77. प्रवचनसार मूल 240 (क) संयम के दो भेद : 78. पंचसंग्रह, प्राकृताधिकार 27 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में दो प्रकार से संयम के भेद-प्रभेद 79. अ.रा.पृ. 7/87; स्थानांग 3/3 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [293] चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय) के प्रति संयम के चार प्रकार; अजीवकाय, धर्म है।88 सत्य धर्म का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत शोध प्रबंध के द्वितीय प्रेक्षा, उपेक्षा, परित्याग (अवहट्ट), प्रमार्जना, मन, वचन और काया परिच्छेद में द्वितीय महाव्रत के वर्णन में किया जा चुका है। सम्बन्धी संयम के सात प्रकार-इस प्रकार से भी सत्रह प्रकार का (8) शौच धर्म :संयम दर्शाया है।80 जैन परम्परा में 'शौच' का अर्थ मानसिक पवित्रता है। पृथ्वीकायिकादि संयम - पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसा स्थानांगसूत्र के अनुसार शुचि भाव अथवा शुचिकर्म को 'शौच' कहते न करना, उन्हें कष्ट, परिताप, दुःख नहीं पहुँचना, उनका दुःखमय हैं।89 महाव्रत (पालन) को शौच धर्म कहा है। निरतिचार संयम संयोग नहीं कराना-पृथ्वीकायिकादि संयम हैं।" पालन करना 'शौच' धर्म कहलाता है। चोरी नहीं करना- यह अजीव संयम - पुस्तक, वस्त्र (उपलक्षण से पात्र, शय्या, आसन भी भाव से 'शौच' कहलाता है।92 आचारांग के अनुसार सर्वप्रकार एवं अन्य उपकरण) आदि को प्रतिलेखन (पडिलेहण) - प्रमार्जन की शुद्धिरुप समता व्रत को धारण करना 'शौच' कहलाता हैं। किये बिना उपयोग में नहीं लेना, पाँचों प्रकार के तृण (साल आदि तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार लोभरहित प्रवृत्ति (लोभ कषाय का त्याग) के) का त्याग करना (उनका प्रतिलेखन दुष्कर होने से), पाँचों प्रकार शौच धर्म का लक्षण है। अर्थात् भावों की विशुद्धि, कल्मषता के एवं अन्य भी सभी प्रकार के चमडे, चमडे के आसन, वस्तुएँ का अभाव और धर्म के साधनों में भी आसक्ति न होना 'शौचआदि उपयोग का सर्वथा.त्याग करना अजीवकाय संयम है। 2 धर्म' हैं।" प्रेक्षा संयम - वस्त्र, उपकरण, वसति (मुनि के रहने का स्थान) आचार्य पद्मनन्दि ने कहा है कि "परस्त्री एवं परधन की आदि का बराबर ध्यानपूर्वक और शास्त्रोक्त विधिपूर्वक प्रत्युपेक्षण (चारों अभिलाषा न करता हुआ जो चित्त षट्काय जीवों की हिंसा से रहित ओर से निरीक्षण) करना 'प्रेक्षा संयम' हैं।83 होता है, इसे ही दुर्भेद्य आभ्यन्तर कलुषता को दूर करनेवाला उत्तम उपेक्षा संयम - यह दो प्रकार से हैं - शौच धर्म कहा जाता हैं। (क) यतिव्यापारापेक्षा - मुनि को संयम से विषाद प्राप्त होता शौच के प्रकार :देखकर अन्य मुनि के द्वारा उसे संयम हेतुप्रेरणा करना अभिधान राजेन्द्र कोश में शौच धर्म के अनेक प्रकार के 'यतिव्यापार-उपेक्षा संयम' हैं। भेद दर्शाये गये हैं(ख) गृहस्थव्यापारापेक्षा - गृहस्थ को शस्त्रादि जीवहिंसामय (क) प्रथम प्रकार - अधिकरणों का व्यापार करता हुआ देखकर उससे मुक्त होने (1) पृथ्वी शौच - मिट्टी के द्वारा शुद्ध होना । हेतु प्रेरणा करना' गृहस्थव्यापारापेक्षा संयम' हैं। (2) अप् शौच - जल के द्वारा शुद्ध होना । तेजः शौच - अग्नि से या राख से शुद्धि करना। अवह संयम - संयम जीवन में प्रतिष्ठापनायोग्य (त्याज्य) पदार्थो मंत्र शौच - शुचिविद्या के द्वारा मंत्र से शुद्ध होना। को विधिपूर्वक निर्जीव भूमि पर परहना अवहट्ट (परित्याग) संयम (5) ब्रह्म शौच - ब्रह्मचर्य पालनरुप कुशल अनुष्ठान से हैं। शुद्ध रहना। प्रमार्जना संयम - उपाश्रय, वस्त्र, पात्र, उपकरण,रजोहरणादि से (ख) द्वितीय प्रकार - तथा दृष्टि से बार-बार चारों ओर से देखना, शुद्धि करना प्रमार्जना उपरोक्त पाँच प्रकारों में से पहले के चार भेद द्रव्यशौच के संयम हैं।86 अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार मुनि वर्षाऋतु में तीन 80. अ.रा.पृ. 7/89; समवयांग, समवाय 17 बार (दोनों समय पडिलेहण के समय और प्रथम पोरिसी पूर्ण होने 81. अ.रा.पृ. 7/88; 89,, 1/841, 842 के समय) और शेषकाल में दो बार (सुबह उपधि पडिलेहण के साथ 82. अ.रा.पृ. 7/88, 89 प्रकाश होने पर और दिन के चतुर्थ प्रहर के प्रारंभ में संध्या पडिलेहणके 83. अ.रा.पृ. 5/1095 समय) दंडासन से उपाश्रय का प्रमार्जन करें। प्रमार्जन करके जो धूलादि 84. अ.रा.पृ. 2/1137, 1138 इकट्ठी हो, उसे जयणा (यतना) पूर्वक छाँव में त्याग करें (विसर्जित 85. अ.रा.पृ. 2/801; आचारांग 2/5/2; सूत्रकृतांग 1/4/1 86. अ.रा.पृ. 5/441; आचारांग 2/1/6; निशीथ चूर्णि, उद्देश 2 एवं उद्देश 3 करें); उछाले नहीं।87 87. अ.रा.पृ. 5/249, 442; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/137 यद्यपि यहाँ रजोहरण, दंडासनादि से भूमिशोधन को प्रमार्जन 88. अ.रा.पृ. 7/271, 273; सूत्रकृतांग दीपिका 1/6; सूत्रकृतांग 1/12; धर्मसंग्रह एवं चक्षु से देखने को पडिलेहण कहा है, परंतु परिष्ठापनायोग्य भूमि सटीक 3/41; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/270 आदि को तो दृष्टिप्रमार्जन ही होता है और उस हेतु भी मुनियों के अ.रा.पृ. 7/1165; तत्त्वार्थसूत्र 9/6 पर तत्त्वार्थभाष्य व्यवहार में प्रमार्जन शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। 90. वही; स्थानांग 9/3 ___मनोवचनकाय संयम - मन, वचन और काय सम्बन्धी 91. वही; धर्मसंग्रह, अधिकार 3 व्यापार में संयम-मनोवचनकाय संयम हैं, अन्य शब्दों में इन्हें 'त्रिगुप्ति' 92. वही; बृहत्कल्पभाष्य सवृति 1/2 93. वही; आचारांग 1/6/5; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा 397 भी कहा जाता हैं। 94. तत्त्वार्थसूत्र 9/6 पर तत्त्वार्थ भाष्य, पृ. 388; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. (7) सत्य धर्म :- . 4142 प्राणियों के लिए पीडा रहित, हिंसा रहित, हितकारी, प्रियकारी, 95. तत्त्वार्थसूत्र 9/6 पर तत्त्वार्थभाष्य, प. 388, 389 पथ्य, मित वचन बोलना सत्य धर्म है, अथवा जिनभाषित वस्तुतत्त्व 96. पद्मनन्दिपञ्चविशतिका 1/94 का यथास्थित वस्तुविकल्पना का चिन्तन या उपदेश करना सत्य 97. अ.रा.पृ. 7/1165; स्थानांग 5/3 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहते हैं।103 [294]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अन्र्तगत आते हैं, ब्रह्मशौच को भाव शौच कहा गया है। - मुनि का त्याग धर्म है। 12 सवार्थसिद्धि के अनुसार संयत के (ग) तृतीय प्रकार - योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग है।।13 राजवार्तिक में सचेतन (1) सत्य शौच (2) तप शौच (3) इन्द्रियनिग्रह शौच और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहा है।।14 भगवती (4) जीवदया शौच, और (5) जल शौच ।” आराधनानुसार मुनियों के लिए योग्य एसे आहारादि चीजें देना, तत्त्वसार में शौच धर्म के चार भेद बताये हैं - 1. भोग त्याग धर्म है।।15 पञ्चविंशतिका के अनुसार सदाचारी पुरुष के 2. उपभोग 3. जीवन 4. इन्द्रियविषय - इन चार प्रकार के लोभों द्वारा मुनि के लिए जो प्रेमपूर्वक आगम का व्याख्यान किया जाता का त्याग - शौच धर्म हैं ।100 है, पुस्तक दी जाती है तथा संयम की साधनभूत पिच्छी (मयूरपुच्छनिर्मित राजवार्तिक के अनुसार (1) जीवन (2) इन्द्रिय (3) आरोग्य प्रमार्जनी) आदि भी दी जाती है, उसे त्याग धर्म कहा जाता है।।16 (4) उपभोग - इन चार प्रकार के लोभ के त्याग रुप शौच धर्म प्रवचनसार के अनुसार निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और भी चार प्रकार का है।101 (जिनपूजा संबंधी शौच धर्म (शुद्धि) का आभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति त्याग है।17 वर्णन जिन पूजा के वर्णन में परिच्छेद-4 (ख) में यथास्थान किया अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने त्याग के भेद बताते जायेगा)। हुए कहा है कि बाह्याभ्यन्तर भेद से त्याग दो प्रकार का है।।18 शौच का फल : सर्वार्थसिद्धि के अनुसार दो प्रकार का त्याग बाह्य और आभ्यन्तर शौच धर्म से स्वशरीर के प्रति जुगुप्सा, अन्य के साथ उपधि के त्याग रुप है। राजवार्तिक के अनुसार आभ्यन्तर त्याग असङ्गम, सत्त्वशुद्धि, मानसिक प्रीति, चित्तस्थैर्य, इन्द्रिजय, आत्मदर्शन- भी (1) यावज्जीव (जीवन पर्यन्त) और (2) नियतकाल (सीमित समय) योग्यता, संतोष, सुख, इष्ट दर्शन (देव दर्शन), विशिष्ट लब्धि की - एसे दो प्रकार से हैं ।120 पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अनुसार उत्सर्ग प्राप्ति, समाधि और मोक्ष की प्राप्ति होती है।102 शुचि आचारवाले रुप निवृत्ति त्याग कृत, कारित, अनुमोदनारुप मन, वचन व काय निर्लोभी व्यक्ति का लोक में सन्मान होता है। उसमें विश्वासादि गुण (3x3) भेद से नव प्रकार का है, और अपवादरुप निवृत्ति त्याग ... तो अनेक प्रकार का है।121 (9) आकिञ्चन्य धर्म : इस प्रकार साधु अपने जीवन में विहित आचार का पालन जो साधक धन, स्वर्ण आदि बाह्य द्रव्य और मिथ्यात्वादि करता हुआ व्यवहारधर्म से युक्त होता है। और भावों में निश्चयधर्म भावरुप किञ्चन (परिग्रहमात्र) से मुक्त हो; परिग्रहरहित हो - वह प्रकट कर लेता है। 'अकिञ्चन' कहलाता है।104; उसके भाव को 'आकिञ्चन्य धर्म' कहते हैं ।105 'यह मेरा है' -इस प्रकार के भाव अर्थात् मू» से निवृत्त 98. अ.रा.पृ. 7/1165, 3/1278; पञ्चाशक विवरण 4/9 होना 'आकिञ्चन्य धर्म' है ।106 आकिञ्चन्यधर्मयुक्त साधक कर्मनिर्जरा 99. वही; स्थानांग 5/3 100. तत्त्वसार 5/16-17 के लिए देह के भी ममत्त्व का नाश करता है/शरीर को भी निर्जरा 101. राजवार्तिक 9/6/8 हेतु नष्ट करने योग्य मानता है।107 (इसका विस्तृत वर्णन अपरिग्रह 102. अ.रा.पृ. 4/2226; द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका 9/3-4 महाव्रत में किया गया हैं) 103. राजवातिक-9/6/27; अनगार धर्मामृत-6/27 (10) ब्रह्मचर्य धर्म : 104. अ.रा.पृ. 1/125; उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन 3 ब्रह्मचर्य धर्म का वर्णन पूर्व में चतुर्थ महाव्रत वर्णन के 105. अ.रा.पृ. 2/57 साथ किया जा चुका है। 106. दशवैकालिक 6/22; अनगार धर्मामृत 6/54 107. आवश्यक बृहद्वृत्ति अध्ययन 4; अ.रा.पृ. 2/57; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश तत्त्वार्थ सूत्र, बारस अणुवेक्खा, पञ्चविशतिका, द्रव्यसंग्रह 1/224 आदि ग्रंथों में 'मुक्ति' नामक चतुर्थ धर्म के बजाय आठवें यतिधर्म 108. तत्त्वार्थ सूत्र-9/6 पर तत्त्वार्थ भाष्य; सवार्थ सिद्धि 9/6; बारस अणुवेक्खा में 'त्याग धर्म' को संग्रहीत किया है।08, अतः यहाँ त्याग धर्म का 70;पद्मनन्दिपञ्चविशंतिका 1/7; द्रव्यसंग्रह 35 पर टीका, पृ. 145 भी परिचय दिया जा रहा है। 109. अ.रा.पृ. 3/1171; पञ्चवस्तुक सटीक 1/8 त्याग धर्म : 110. अ.रा.पृ. 3/1171 अभिधान राजेन्द्र कोश में त्यागधर्म की व्याख्या करते 111. बाह्याभ्यन्तरोपधिशरीरानपानाद्याश्रयो भावदोषपरित्यागस्त्यागः । तत्त्वार्थभाष्य 9/6/8, पृ. 391 हुए आचार्यश्री ने कहा है कि "सम्यक् प्रवचन अर्थात् जिनप्रवचन 112. बारस अणुवेक्खा 78 (आगम) में कथित विधि पूर्वक मन-वचन-काया से आरंभ-परिग्रह 113. सर्वार्थ सिद्धि 9/6, पृ. 413 में प्रवृत्ति नहीं करना 'त्याग' कहलाता हैं" 1109 बाह्याभ्यन्तर परिग्रह 114. राजवार्तिक 9/6/18 का त्याग साधु का त्यागधर्म कहलाता है।110 तत्त्वार्थभाष्य में कहा 115. भगवती आराधना 46 पर विजयोदया टीका, पृ. 154 है कि "धन-धान्य-खेत-मकानादि बाह्य एवं मिथ्यात्व, कषाय, 116. पद्मनन्दिपञ्चविशंतिका 1/101 नोकषायादि आभ्यन्तर परिग्रह एवं उपधि, शरीर, अन्न, जल आदि 117. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/397 पर उद्धृत 118. अ.रा.पृ. 3/1171 के आश्रित भाव-दोषों का त्याग करना मुनि का 'त्याग धर्म' हैं ।।।। 119. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/397 बारस अणुवेक्खा के अनुसार मुनि के द्वारा "पर द्रव्यों के मोह 120. वही को छोडकर संसार, देह और भोगों से उदासीनतारुप परिणाम रखना" 121. पुरुषार्षसिद्धयुपाय 76 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [295] अनादि वासना से संस्कारित जीव एक ही बार में सिद्धि के भावों को प्रभावित करनेवाले बाह्य कारणों में प्रमुख हैं परिषह । प्राप्त कर सके यह आवश्यक नहीं। प्रत्युत, जैसा कि पूर्व में परिषहजय के बिना साधु को अभीष्ट सिद्धि नहीं मिल सकती। कह आये हैं, उपशान्तमोह गुणस्थान से भी जीव कभी-कभी अतः प्रत्येक साधु का कर्तव्य है कि वह परिषहजय में सदा तो इतना पतित होता है कि प्रथम गुणस्थान में पहुँच जाता है। प्रयत्नशील रहे। आगे के शीर्षक में परिषहजय पर किंचित प्रकाश यह उतार-चढाव भावों की अस्थिरता के कारण होता है। आत्मा डाला जा रहा हैं। (लक्षणानि) मुखमूर्धं शरीरस्य, सर्वं वा मुखमुच्यते । ततोऽपि नासिका श्रेष्ठा, नासिकायाश्च लोचने ॥ यथा नेत्रे तथा शीलं, यथा नासा तथार्जवम् । यथा रुपं तथा वित्तं, यथा शीलं तथा गुणाः ।।2।। अतिहस्वेऽतिदीर्धेडति-स्थले चातिकशे तथा । अतिकृष्णेऽतिगौरे च, षट्सु सत्त्वं निगद्यते ॥७॥ सद्धर्मः सुभगो निस्क्, सुस्वप्नः सुनयः कविः । सूचयत्यात्मनः श्रीमान्, नरः स्वर्गगमागमौ ॥4॥ निर्दम्भः सदयो दानी, दान्तो दक्षः सदा ऋजुः । मर्त्ययोनेः समुद्भतो, भविता च पुनस्तथा ॥5॥ मायालोभक्षुधाऽऽलस्य - बह्वहारादिचेष्टितैः । तिर्यग्योनेः समुत्पत्ति, ख्यापयत्यात्मनः पुमान् ॥6॥ सरागः स्वजनद्वेषी, दुर्भगो मूर्खसङ्गकृत । शास्ति स्वस्य गतायातं, नरो नरकवर्त्मनि ॥7॥ आवतॊ दक्षिणे भागे, दक्षिणः शुभकृन्त्रणाम् । वामो वामेति निन्द्यः स्या-द्दिगन्यत्वे तु मध्यमः ॥8॥ अरेखं बहरेखं वा, येषां पाणितलं नृणाम् । ते स्युरल्पायुषो निःस्वा, दुःखिता नात्र संशयः ॥७॥ अनामिकान्त्यरेखायाः, कनिष्ठा स्याद्यदाधिका। धनवृद्धिस्तदा पुंसां, मातृपक्षो बहुस्तथा ।10। मणिबन्धात्पितुर्लेखा,करभाद्विभवायुषोः । लेखे द्वे यान्ति तिस्रोऽपि, तर्जन्युङ्गष्ठकान्तरम् ।। येषां रेखा इमास्तिस्रः, संपूर्णा दोषवर्जिताः । तेषां गोत्रधनायूंषि, संपूर्णान्यन्यथा न तु ॥12॥ उलङध्यन्ते च यावन्त्यो-ङ्गल्यो जीवितरेखया पञ्चविंशतयो ज्ञेया-स्तावन्त्यः शरदा बुधैः ॥3॥ यवैरङ्गष्ठमध्यस्थै-विद्याख्यातिविभूतयः। शुक्लपक्षे तथा जन्म, दक्षिणाङ्गष्ठगैश्व तैः ॥4॥ न स्त्री त्यजति रक्ताक्षं, नार्थं कनकपिङ्गलम् । दीर्थबाहुं न चैश्वर्य, न मांसोपचितं सुखम् ॥15॥ चक्षुः स्नेहेन सौभाग्यं, दन्तस्नेहेन भोजनम् । वपुः स्नेहेन सौख्यं स्यात्, पादस्नेहेन वाहनम् ॥16॥ उरोविशालो धन धान्य भोगी, शिरोविशालो नूपपुङ्गवश्च । कटी विशालो बहुपुत्रदारो, विशालपादः सततं सुखी स्यात् ॥7॥ - अ.रा.. 6/565 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [296]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिषहजय 'परिषह' शब्द की व्याख्या करते अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि श्री गणधर भगवंतने आठवें 'कर्मप्रवाद' पूर्व के 'प्रतिनियतार्थाधिकार' नामक सत्रहवें प्राभृत में परिषह अध्ययन में बाईस (22) परिषहों का वर्णन किया है। उसी के अनुसार उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- "समन्तात् स्वहेतुभिस्दीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्ते इति परीषहाः " अर्थात् "मोक्षमार्ग में च्युत न होने के लिए और कर्म की निर्जरा के लिए अपने अपने हेतुओं के द्वारा उदय में आया जो भी (अनुकूलवियोग-प्रतिकूलवियोग का प्रसंग/ पीडादि) साधुओं के द्वारा सहन किया जाता है उसे 'परिषह' कहते हैं।" तत्त्वार्थभाष्य में आचार्य उमास्वातिने परिषहों को धर्म में विघ्न उत्पन्न करने का कारण कहा है। आचार्य श्रीमद्विजय राजशेखरसूरिने मुनि जीवन में विशिष्ट प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल प्रसंगों की उपस्थिति को परिषह कहा है। पं. आशाधरने 'अन्तर्द्रव्य जीव के और बहिर्द्रव्य पुद्गल के परिणाम भूख आदि को, जो शारीरिक और मानसिक पीडा के कारण हैं 5 उन्हें परिषह कहा है। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्रीने “साधु को मोक्षमार्ग की साधना करते समय अचनाक जो कष्ट उपस्थित हो जाते हैं", उन्हें परीषह कहा है। ज्ञानपञ्जिका' में 'परिषहजय' को संयम-तप का एक भाग कहा है।' से समभावपूर्वक षट् आवश्यक क्रियाएँ, स्वाध्याय, ध्यान, भावना आदि में लीन रहकर तीव्र क्षुधा उदय में आने पर भी अनेषणीय आहार का त्याग करना 'क्षुधा परिषह जय' हैं।18 जिनागमसार के अनुसार क्षुधा परिषह के कारण निर्दोष आहार न मिलने पर आहार का विकल्प तोडकर पुरुषार्थपूर्वक निर्विकल्प दशा में लीन हो जाना - 'क्षुधा परिषह जय' हैं।" अनगार धर्मामृत में भी मुनि को शुभ विचारों से एवं पराधीन अवस्था की क्षुधा वेदना को स्मरण कर क्षुधा परिषह पर विजय प्राप्त करने का उपदेश हैं।20 पिपासा परिषहजय : भयंकर गर्मी में प्यास से गला सूख जाने पर भी संयमी साधु को शुद्ध-प्रासुक-उचित जल की प्राप्ति न होना 'पिपासा परिषह' हैं। परिषह के प्रकार : अभिधान राजेन्द्र कोश, अनगार धर्मामृत, तत्त्वार्थ सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, सूत्र पाहुड, जिनागमसार, बृहद् द्रव्य संग्रह, चारित्रसार आदि ग्रंथों में परिषह के 22 प्रकार बताये हैं। बाईस परिषहों के नाम - अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 22 परिषहों के नाम निम्नानुसार बताये हैं 1. दिगिंछा (क्षुधा) 2. पिपासा 3. शीत 4. उष्ण 5. दंशमशक 6. अचेल 7. अरति 8. स्त्री 9. चर्या 10. नैषधिकी 11. शय्या 12. आक्रोश 13. वध 14. याचना 15. अलाभ 16. रोग 17. तृण-स्पर्श 18. जल्ल (मल) 19. सत्कार-पुरस्कार 20. प्रज्ञा 21. अज्ञान और 22. दर्शन। अभिधान राजेन्द्र कोश में जिसे दिगिछा परिषह कहा है, वह वास्तव में क्षुधा परिषह है। दशवैकालिकसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र आदि सभी सूत्रग्रन्थों में इसे क्षुधा (क्षुत्) परिषह कहा गया है।", अचेल परिषह को तत्त्वार्थसूत्र, बृहद्रव्यसंग्रह आदि ग्रंथों में नग्नता परिषह कहा गया है।2, नैषधिको परिषह को निषद्या परिषह एवं जल्ल परिषह को मल परिषह कहा गया है।13 श्री अभिधान राजेन्द्र कोश में वर्णित चर्या और नैषधिकी परिषह को बृहद् द्रव्यसंग्रह में 'गमन' और 'आसन' परिषह नाम दिये गये हैं।4, लेकिन दोनों का भाव एक ही है। दिगिञ्छा परिषहजय : दिगिञ्छा 'क्षुधा' को कहते हैं। 5 असंयमभीरु, तपस्या, विहार, मुनियोग्य आवश्यक क्रियादि में रत कालीपर्ववत् कृशकाय मुनि को क्षुधा से अत्यन्त व्याकुल होने पर, जठराग्नि अत्यन्त प्रदीप्त होकर प्राणों को जलाने लगे - एसी भूख लगने पर भी शुद्ध आहार (भिक्षा/गोचरी) प्राप्त न होना 'क्षुधा' परिषह है।" तपस्वी होने पर भी, क्षुधा परिषह उत्पन्न होने पर भी, अट्ठमादि तपधारी, बलवान्, असंयमभीरु मुनि किसी प्रकार के त्रस या स्थावर जीवों की हिंसा का कृत-कारित-अनुमोदन से त्याग करें और अदीनमन से समभावपूर्वक क्षुधा को सहन करना तथा नवकोटि से शुद्ध आहार को ही प्राप्त कर उसे आहार की रसलोलुपता से रहित होकर अतिमात्रा का त्याग कर नियतमात्रा में ही उपयोग करना चाहिए।" निरवद्य आहार के गवेषक साधु को शुद्ध आहार प्राप्त नहीं होने पर या न्यून प्राप्त होने पर भी अकाली (भिक्षाकाल से भिन्न काल में मिलने वाली) या सावध भिक्षा का त्याग करके अदीनमन टिको 14 लेकिन पानीको 1. कम्मप्पवायपुव्वे, सत्तरसे पाहुडम्मि जंसुतं । सणयं सोदाहरणं तं चेव इहं पि णायव्वं ॥69।। - अ.रा.पृ. 5/639; उत्तराध्ययनसूत्र 2/69 2. अ.रा.पृ. 5/639; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 2 3. तत्त्वार्थसूत्र 9/9 का भाष्य पृ. 306 4. तत्त्वार्थसूत्र सार्थ, पृ. 595, विवेचनकार आ. राजशेखरसूरि (महेसाणा प्रकाशन) 5. धर्मामृत अनगार 83 5. धममित अनगार 83 6. धर्मामृत अनगार, पृ. 476, विशेषार्थ गाथा 83 7. ".......अस्य संयमतपोविशेषत्वादिहोपदेशः।" -धर्मामृत अनगार, पृ. 476 अ.रा.पृ. 5/642; तत्त्वार्थ सूत्र-/9; उत्तराध्ययनसूत्र, द्वितीय अध्ययन; सूत्रपाहुड 12; जिनागमसार, प्रश्न 64, पृ.-792; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 35 कीटीका, पृ. 166 9. अ.रा.पृ. 5/642 10. 'दिगिछत्ति' देशीवचनेन बुभुक्षोच्यते । अ.रा.पृ. 5/642, 4/2508, 3/755 11. दशवैकालिक 8/27; तत्त्वार्थसूत्र 9/9 12. अ.रा.पृ. 5/642; तत्त्वार्थसूत्र 9/9; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 35 की टीका 13. अ.रा.पृ. 5/642; तत्त्वार्थसूत्र 9/9 14. अ.रा.पृ. 5/642; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 35 की टीका 15. अ.रा.पृ. 5/642, 4/2508, 3/755 16. अ.रा.पृ. 3/755, 5/642; अनगार धर्मामृत 89 17. अ.रा.पृ. 3/755 18. अ.रा.पृ. 3/755; तत्त्वार्थसूत्र, गुजराती विवेचन पृ. 595 19. जिनागमसार, प्रकरण 7:2; परिषहजय, प्रश्न 66, पृ. 793 20. अनगार धर्मामृत 89, पृ. 480 21. अ.रा.पृ. 5/937 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [297] भयंकर गरमी में शुष्क अरण्य में भी प्यास से गला सूखने औपचारिक अचेलकता :पर भी, प्राणान्त कष्टावस्था में भी नदी आदि का या अन्य किसी अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि धर्मबुद्धि भी प्रकार के सचित जल को न पीना 'पिपासा परिषह जय' हैं।2 से मुनियों के वस्त्र परिशुद्ध, एषणीय, जीर्णप्रायः, असार, अल्प अर्थात्, शीत परिषहजय : गणना-प्रमाण से हीन, तुच्छ, अनियतभोगी होने से और मुनि मछरहित उद्यान, वृक्षमूल, चतुष्पथ, नदीतट आदि स्थानों पर रहते होने से वे उपरोक्त प्रकार के वस्त्रों को धारण करने पर भी 'अचेलक' हुए शीतल वायु का झोंका या हिमपातादि से अन्तःप्रान्ताहार और कहलाते हैं । अर्थात् मुनियों के वस्त्र अहिंसापूर्वक बने हुए होते हैं। जीर्णप्रायवस्त्रधारी, अकिञ्चन, आलयरहित मुनि को अतिशय ठंड लगना, मुनि जानु से चार अंगुल उपर तक चोलपट्ट एवं बदन पर एक चादर शीत परिषह है। धारण करते हैं जिससे उनका आधा शरीर ढंका हुआ और आधा अतिशय शीत, शीतल हवा के झोंके या हिमपातादि शीतजन्य खुल्ला रहता है। सिर, पैर आदि खुले रहते हैं । अत: इस प्रकार सामान्य विषम परिस्थितियों में भी मुनि के द्वारा अकल्पनीय वस्त्रादि को ग्रहण लोगों से कम एवं प्रमाण से हीन वस्त्र होने से, शीतादि कारण से नहीं करना, अग्नि नहीं जलाना, गृहस्थ के द्वारा अग्नि जलाने पर क्वचित् अधिक वस्त्र होने पर भी 'अनियतभोग' और 'अन्यभोग' होने भी उससे ताप (गरमी) नहीं लेते हुए या मन से भी उसकी इच्छा से मुनि सवस्त्र होने पर भी उन्हें अचेलक कहा है। नहीं करते हुए समभावपूर्वक शीत को सहन करना और शीतादि में ____ अभिधान राजेन्द्र कोश में इस बात को दृष्टान्तपूर्वक समझाते एषणीय (आगमोक्त विधि से ग्राह्य) वस्त्र ही ग्रहण करना 'शीतपरिषह हुए आचार्यश्रीने कहा है कि "मात्र कटिवस्त्र पहनकर नदी पार करने जय' कहलाता हैं। वाले पुरुष या जीर्ण साडी पहने हुई वृद्धा की तरह धर्मबुद्धि से उष्ण परिषहजय : उपरोक्तानुसार अल्पवस्त्रधारी मुनि भी अचेलक कहे जाते हैं।"38 ग्रीष्म या शरद् ऋतु में विहार, आहार-चर्यादि में या उपाश्रयादि 'धर्मबुद्धि से' -इस पद के कथन से आचार्यश्री ने जो में ताप से गरमी लगना, सिर-पैर आदि तपना, मैल-प्रस्वेदादि होना दुःखी-दारिद्र-याचकादि के गरीबी के कारण अल्पवस्त्राधारी या 'उष्ण परिषह' कहलाता हैं। जीर्णवस्त्रधारी होने पर भी उनमें धर्मबुद्धि एवं वस्त्रसंबंधी मूर्छा का उष्णपरिषह उदय में आने पर मुनि के द्वारा छाँव, शीतल अभाव न होने से उनका परिहार किया है।39 जलाश्रय, जलधारा, चंदन विलेपन, शीतल वायु, स्नान आदि की अचेलक परिषहजय का स्वरुप :इच्छा न करना, दूसरों के द्वारा या वस्त्र या वायु यंत्र (पंखा आदि) पूर्वोक्तानुसार जीर्ण, अपूर्ण, मलिन, अल्पमूल्यवाले वस्त्र से हवा न करवाना, पूर्व में गृहस्थ जीवन में भुक्त शीतोपचार का धारण करने पर मुनि को लज्जा, दीनता, आकांक्षा, तथाविध वस्त्रों स्मरण नहीं करना, गरमी से दीनता प्राप्त होकर खिन्न नहीं होना, का लाभालाभ या शीतादि प्रसंगो की प्राप्ति अचेल परिषह है।० उद्वेग नहीं करना 'उष्ण परिषह जय' हैं ।26 अचेल परिषह सहन करते समय मुनि अल्प-जीर्णप्रायः दंशमशक परिषहजय : वस्त्रों से लज्जारहित रहें, तथाविध योग्य वस्त्र की प्राप्ति न होने पर मुनि को नँ, मक्खी, डाँस, मच्छरादि के द्वारा डंक देने दीन न बनें, नये और मूल्यवान् अकल्प्य वस्त्रों की या एसे दाता रुप या मारने रुप उपद्रव होना 'दंशमशक परिषह' हैं।27। की इच्छा न करें, शीतादि प्रसंगों में अग्नि आदि का आलम्बन न इस परिषह के उत्पन्न होने पर उस पर द्वेष नहीं करना, औषध आदि के द्वारा उसका निवारण नहीं कराना, उस स्थान का 22. अ.रा.पृ. 3/758; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/58 त्याग न करना, 'दंशमशक परिषह जय' हैं ।28 23, अ.रा.पृ. 7/895, 896; प्रवचनसारोद्धार, 86 वाँ द्वार अचेलक परिषहजय : 24. अ.रा.पृ. 7/897; आचारांग 1/8/4; पञ्चसंग्रह सटीक, द्वार 4; जैनेन्द्र सिद्धान्त न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्यासावचेलकः " कुत्सितं कोश 4/30 वा चेलं यस्यासावचेलकः अथवा अमहामूल्यानि खण्डितानि 25. अ.रा.पृ. 2/781, 782; सूत्रकृतांग 1/3/5 26. अ.रा.पृ. 2/782; अनगार धर्मामृत 6/92 जीर्णानि च वासांसि धारयेत् ।। अर्थात् जिस साधु के संपूर्णतया 27. अ.रा.पृ. 4/2439 वस्त्र धारण नहीं किये होते या असार वस्त्र (सामान्य) धारण किये 28. अ.रा.पृ. 4/2440; पंचसंग्रह, द्वार 4; अनगार धर्मामृत 6/93 हो या अल्पमूल्यवाले खंडित, जीर्ण-प्रायः वस्त्र धारण किये हों उसे 29. अ.रा.पू. 1/188%; स्थानांग 5/3 'अचेलक' कहते हैं। अचेलक' दो प्रकार से है2 - (1) सदचेलक 30. वहीं, प्रवचनसारोद्धार, 78 वाँ द्वार (2) असदचेलक । और (1) मुख्य अचेलकत्व और (2) औपचारिक 31. वही, पृ. 1/190; आवश्यक बृहद्वृत्ति, अध्ययन 4 अचेलकत्व। 32. वही, पृ. 1/188; बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य, 1 उद्देश यहाँ तीर्थंकर असदचलेक या मुख्यरुप से अचेलक होते 33. अ.रा.पृ. 1/188 34. अ.रा.पृ. 1/188 हैं क्योंकि उन्हें देवदुष्य वस्त्र के पतन से यावज्जीव सर्वथा अचेलकत्व 35. ".....तत्रेदानी मुख्यमचेलत्वं संयमोपकारि न भवत्यत औपचारिकं गुह्यते, होता है। शेष सब जिनकल्पी साधु भी सदचेलक है क्योंकि उन्हें मुख्यं तु जिनानामेवासीदति ।" - अ.रा.पृ. 1/188 जघन्य से भी रजोहरण एवं मुहपत्ती का तो अवश्य संभव है ही।4 36. अ.रा.पृ. 1/188 सामान्य साधुओं को मुख्य अचेलकत्व (सर्वथा वस्त्ररहितता) संयमोपकारी 37. अ.रा.पृ. 1/188, 189, 190 न होने से यहाँ साधुओं के परिषह के विषय में औपचारिक अचेलकत्व 38. वही 39. अ.रा.पृ. 1/189 को ही ग्रहण किया है। 40 अ.रा.प्र. 1/190, 192 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [298]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन करें, और पूर्वोक्त अल्पप्रतिलेखनादि पाँचों प्रकार के लाभों का चिंतन का त्याग करना, विषयसुख के दारुण विपाक का चिंतन करना, करता हुआ इस अचेलकत्व को उपकारी, धर्महितकारी, यतिधर्म को और हर संभव युक्ति से कामदेव के पाँचों बाणों को निष्फल करना, समझकर अचेल परिषह पर विजय प्राप्त करना 'अचेल परिषह जय' उत्तम ब्रह्मचर्यपोषक चिंतन करना-स्त्रीपरिषहजय/पुरुषपरिषहजय हैं।" हैं।। अनगार धर्मामृत में स्त्री आदि के दर्शन से स्वयं नग्न होने और इतना करने पर भी यदि स्त्रीपरिषह पर विजय प्राप्त न हो सके पर मुनि का चित्त दूषित नहीं होना, 'अचेल/नाग्न्य परिषह जय' और व्रतभङ्ग की स्थिति आ जाय तो देह के ममत्व का भी त्याग कहा है। कर देह का भी त्याग कर देना स्त्रीपरिषहजय । पुरुषपरिषहजय हैं।50 "सभी जैनागमों में जिस प्रकारकल्पनीय आहार भक्षण चर्या परिषहजय :करने पर भी क्षुत्परिषहजय स्वीकार्य है, उसी प्रकार अल्प, मुनि के द्वारा ममत्व रहित होकर ग्राम, नगर, देश आदि जीर्णप्रायः, श्वेत,मानोपेत एषणीय वस्त्रधारी अचेलक परिषहजेता के प्रतिबन्ध से रहित, मासकल्पादि मर्यादापूर्वक सर्वत्र सतत विहार कहा जाता है अतः इस औपचारिक अचेलकत्व परिषह जय करने पर रास्ते में काँटे, कंकर चुभना, पैरों से खून निकलना, छाले से मोक्ष प्राप्ति संभव है" -इस कथन के द्वारा आचार्यश्रीने 'वस्त्रधारी होना, थकान लगना - 'चर्या परिषह' हैं।51 की मुक्ति नहीं होती' -इस दिगम्बर मत का यहीं पर खंडन विहार में चर्या परिषह आने पर पूर्व गृहस्थावस्था में भुक्त किया हैं। वाहनादि की यात्रा को याद न करना 'चर्या परिषह जय' हैं।52 साथ ही यहाँ पर अचेलक परिषह आश्रयी साध्वी संबंधी निषद्या परिषहजय :विशेष कथन करते हुए आचार्यश्रीने निशीथचूर्णि और बृहत्कल्पवृत्ति स्त्री-तिर्यंच-नपुंसकादि रहित स्थान (वसति, उपाश्रय) में को उद्धृत करते हुए कहा है कि "साध्वी को अचेलिका (वस्त्र रहित) मुनि के रहने पर अथवा स्वाध्यायभूमि में या श्मशानभूमि में कायोत्सर्गादि नहीं होना चाहिए। जैनागमों में इसी कारण से साध्वी को जिनकल्प करने पर अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग होना 'निषद्या परिषह' हैं।53 धारण करने का निषेध किया गया है क्योंकि चाहे कुलटा हो या निषद्य परिषह होने पर उपसर्ग के प्रतिकार का सामर्थ्य होने कुलवान्, लज्जावती स्त्रियाँ कभी नग्नता पसंद नहीं करती और आर्यिका/ पर भी देहममत्व का त्याग कर, निर्भय होकर अपने आसन से चलायमान साध्वी के अचेलिका होने पर वह लोकापवाद, जुगुप्सा, निंदा, तथा न होना और यह परिषह मुझे कुछ भी नहीं कर सकता - एसा धिक्कार का पात्र बनेगी; इस कारण से कोई कुलवती स्त्री के द्वारा चिन्तन करना 'निषद्या परिषहजय' है। व्यन्तरादिकृत उपसर्ग में उवसग्गहरं दीक्षा ग्रहण नहीं किये जाने पर या गृहस्थ के द्वारा उसे आहार स्तोत्र पठनीय हैं।54 पानी आदि भी न दिये जाने पर तथा प्रवचनहीलना, तीर्थोच्छेद, चोरादि शय्या परिषहजय :के द्वारा पीडा, तरुणादि के द्वारा उपसर्गादि निमित्तों से धर्म की निंदा मुनि को सम-विषम भूमि, पत्थर, रेती-कंकड युक्त अतिशय होती है। अत: इस दोषोत्पत्ति के कारण साध्वी को अचेलिका बनने शीतल, अतिशय उष्ण, ऊँची, नीची, मृदु, कठिन शय्या या वसति (नग्न रहने) का निषेध किया गया हैं। (उपाश्रयादि) की प्राप्ति होना 'शय्या परिषह' हैं।55 अरति परिषहजय : स्वाध्याय, विहार, तप आदि से थके हुए होने पर भी एसी संयमी साधु को मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न चित्तविकार विषम (विपरीत) शय्या या वसति प्राप्त होने पर भी मुनि उसके लिए के कारण संयम में उद्विग्नता उत्पन्न होना 'अरति परिषह' हैं।45 उद्वेग न करें, विषाद न करें, अन्यत्र न जाये या अन्य शय्या ग्रहण स्वाध्याय, ध्यान, भावना द्वारा धर्मतत्त्वचिंतन से अरतिस्थान नहीं करें अथवा प्रशस्त शय्या प्राप्त होने पर गर्व न करें, हर्षित न की सम्यगालोचना कर संयमधर्म में स्थिर होना - 'अरति परिषह हो -यह 'शय्या परिषह जय' कहा गया हैं।56 जय' कहलाता है। इसलिये संयमी को पाँचों इन्द्रिय-विषयों के श्रवण, स्मरण और मनोज्ञ शब्द आदि से दूर रहना चाहिए।47 41. वही 42. अनगार धर्मामृत 6/94 स्त्री परिषहजय : 43. अ.रा.पृ. 1/192 किसी वसति, उपवन या एकान्त स्थान में राग से, द्वेष 44. अ.रा.पृ. 1/192, 193 से, यौवन के दर्प से, विलास से, रुप के मद से, विभ्रम से, उन्माद 45. अ.रा.पृ. 1/753; भगवती सूत्र 8/8; आचारांग 1/6/3; स्थानांग 1/1; से या मद्यपानादि के प्रभाव से जिसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है - उत्तराध्ययनसूत्र 2/14 एसी युवती स्त्री के द्वारा मुनि के चित्त को विकारयुक्त करने के अ.रा.पृ. 1/754; चारित्रसार 115/3 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/134 लिए मुनि के सामने नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल भावों 48. अ.रा.पृ. 2/587; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 2; भगवतीसूत्र 8/8 का प्रदर्शन करना, अर्थात् नेत्रकटाक्ष, आलिङ्गन, चुम्बन, विकारी श्रृंगार, 49. अ.रा.पृ. 2/588, 589; आचारांग 1/4/2; पञ्चसंग्रह, द्वार 4; अनगार धर्मामृत आकार, विहार, हाव-भाव, विलास, हास्य, अङ्गप्रदर्शन आदि करना, 6/96; चारित्रसार, पृ. 77, 78 मुनि को शारीरिक पीडा देना 'स्त्री परिषह' है।48 (इसी तरह साध्वी 50. अ.रा.पृ. 2/588 के लिए पुरुष संबंधी समझना चाहिए। 51. अ.रा.पृ.3/1152 स्त्री परिषह होने पर मुनि के द्वारा एकांत का त्याग करना, 52. अ.रा.पृ. 3/1153; अनगार धर्मामृत 6/97 53. अ.रा.पृ. 4/2147; उत्तराध्ययनसूत्र,2 अध्ययन गुरु या स्थविर-वृद्ध मुनियों के बीच रहना, कछुए की तरह अपनी 54. अ.रा.पृ. 4/2147; उत्तराध्ययनसूत्र, पाईयवृत्ति 3/21; अनगार धर्मामृत इन्द्रियाँ संकुचित करके गुरु दर्शित युक्तिपूर्वक शीघ्र स्त्रीपरिषह का 6/98 निराकरण करना, रागपूर्वक स्त्री एवं स्त्री के अङ्गोपाङ्गदर्शन का त्याग 55. अ.रा.पृ. 7/815; प्रवचनसारोद्धार, द्वार 86 करना, स्त्री के मधुर स्वर श्रवण (गीतादि) का त्याग करना. स्त्रीकथा 56. अ.रा.पृ. 7/815; पंचसंग्रह, द्वार 4; चारित्रसार 116/3: भगवतीसत्र 8/8 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [2991 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में इसके साथ ही मुनि के द्वारा निद्रावस्था रोग परिषहजय :में (जयणा के बिना) करवट नहीं बदलना और व्यन्तरादिकृत उपसर्गो पूर्वकृत कर्मो के उदय से मुनि को मुनि जीवन में मुनि में भी शरीर को चलायमान नहीं करना - 'शय्या परिषह जय' कहा के शरीर में ज्वर, श्वास, खाँसी, अतिसारादि रोगों का उदय होना 'रोग परिषह' हैं। आक्रोश परिषहजय : रोग परिषह आने पर गच्छनिर्गत मुनि के द्वारा रोग की चिकित्सा दूसरों के द्वारा मुनि पर क्रोध करना, असभ्य वचन कहना, न कराना अथवा गच्छवासी मुनि के द्वारा अल्प रोग होने पर समभावपूर्वक निंदा करना, गाली देना, झूठी आलोचना करना, क्रोधजनक वचन सहन करना और यदि रोग ज्यादा या भयंकर हो तो अल्प-बहुत्व सुनाना 'आक्रोश परिषह' हैं।58 पूर्वक परिणाम का विचार कर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार रोग की आक्रोश परिषह होने पर मुनि के द्वारा उसे समभावपूर्वक चिकित्सा कराना और उसमें जो प्रतिक्रिया (साध्वाचार विरुद्ध आचरण) सहन करना, सामर्थ्य होते हुए भी प्रतिकार न करना, उस पर क्रोध हुआ हो; गुरु के समक्ष विधिपूर्वक उसकी सम्यग् आलोचना करना, न करना, अपितु उसके भी हित, उपकार का चिन्तन करना और रोग के कारण उद्वेग न करना, मृत्यु का चिंतन नहीं करना, अदीनभाव स्वयं के हृदय में लेशमात्र कषाय का प्रवेश न होने देना 'आक्रोश से रहना, देह-आत्मा के भेद ज्ञान का चिन्तन करना - 'रोग परिषह परिषह जय' हैं।59 जय' कहलाता हैं। वध परिषहजय : तृण-स्पर्श परिषहजय :अनार्य देश में लोगों के द्वारा मुनि को गुप्तचर, छद्मवेशी मुनि के द्वारा विश्राम हेतु दर्भादि की शय्या पर शयन करने या चोर समझकर या अनार्य अथवा अज्ञानी लोगों के द्वारा मुनि को पर संथारा, उत्तरपट्ट आदि जीर्ण या पतले होने पर या चोर आदि लगुड (लकडी), तलवार, मुट्ठी, मातुलिङ्गी फल आदि से मारना, द्वारा ले जाने पर शय्या में तृण के तीक्ष्ण अग्रभाग के स्पर्श से वेदना रस्सी आदि से बाँधना, मरणतुल्य कदर्थना करना, पीडा पहुँचाना होना 'तृण-स्पर्श परिषह' हैं।69 'वध परिषह' हैं।60 दर्भशय्या में तृणादिजनित वेदना को समभावपूर्वक सहन वध परिषह उदय में आने पर मुनि के द्वारा मारनेवालों करना, उसमें खेद न करना 'तृण स्पर्श परिषह जय' हैं। के प्रति वैर नहीं रखना और 'ये लोग मेरी आत्मा को नहीं, अपितु जल्ल (मल) परिषहजय :अपवित्र विनाशी शरीर का घात करते हैं, ज्ञानादि गुण, व्रत-शीलादि । मुनि को ग्रीष्मादि ऋतु में या विहारादि में प्रस्वेद या धूलादि का नहीं' -एसा शुद्ध चिंतन करना 'वध परिषह जय' हैं।61 से मल (मैल) या शीतादि में श्लेष्मादि होना ‘मल परिषह' हैं।। याचना परिषहजय : मल परिषह होने पर मुनि के द्वारा मल दूर कर सुख प्राप्ति मुनि जीवन में आहार, पानी, वस्त्र, पात्र औषध आदि समस्त की दृष्टि से, साता की इच्छा से स्नानादि न करना, स्नानादि की इच्छा मुनिजीवन प्रायोग्य आवश्यक वस्तु यावद् दंतशोधन (दांत खुदरने न करना 'मल परिषह जय' कहलाता है।2 की शलाका) तक की समस्त वस्तु गृहस्थ से बिना याचना किये सत्कार-पुरस्कार परिषहजय :लेना-वापरना निषिद्ध है। अत: मुनि जीवन संबंधी गोचरी जाना सत्कार अर्थात् वस्त्रादि दान के द्वारा पूजा, पुरस्कार अर्थात् एवं वस्त्रादि समस्त वस्तुओं की गवेषणा कर गृहस्थ से याचना करना अभ्युत्थान (खडे होना), अभिवादन (प्रशंसापूर्वक अगवानी करना, निमंत्रण ही 'याचना परिषह' है। दिगम्बर परम्परा में वचन या संकेत से देना, मुख्यता देना) । ब्रह्मचारी, तपस्वी, स्वसमयज्ञ-परसमयज्ञ, वादी किसी चीज की याचना नहीं करना 'याचना परिषह' हैं ।63 57. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/4,5 अभिमानरहित, महासत्त्वशाली महापुरुषों/मुनियों के द्वारा ज्ञानादि 58. अ.रा.पृ. 1/131; सूत्रकृतांग 1/8 की अभिवृद्धि हेतु देह की स्थिरता के लिए गृहस्थ के घर आहारादि 59. अ.रा.पृ. 1/132; उत्तराध्ययन 2/24, 25; पञ्चाशक 13 विवरण; अनगार हेतु गवेषणापूर्वक गोचरी जाना, दाता के द्वारा आवश्यक वस्तु न धर्मामृत 6/100 दिये जाने पर या आक्रोशयुक्त या हीनवचन कहने पर भी मन में 60. अ.रा.पृ. 5/647, 648; सूत्रकृतांग 1/3/1/15; चारित्रसार 80 खेद न करना, इससे तो गृहस्थ जीवन अच्छा-एसा न सोचना याचना 61. अ.रा.पृ. 5/648; सूत्रकृतांग 1/3/1/17; चारित्रसार, पृ. 80, 81; अनगार परिषह जय' हैं। क्योंकि गृहस्थ जीवन बहु सावध है और मुनि धर्मामृत 6/101 62. अ.रा.पृ. 4/1452, 1453 जीवन निरवद्यवृत्तियुक्त हैं। 63. अनगार धर्मामृत 6/102, पृ. 485 अलाभ परिषहजय : 64. अ.रा.पृ. 4/1453; उत्तराध्ययनसूत्र 2/29 मुनि के द्वारा भोजन हेतु गोचरी (आहार चर्या) के लिए 65. अ.रा.पृ. 1/771, 772; भगवतीसूत्र 8/8 ऊँच-नीचादि अनेक घरों में जाने पर बहुत दिनों तक भी आहारादि 66. अ.रा.पृ. 1/772; आवश्यकचूणि 4/1, 2; चारित्रसार, पृ. 82 की प्राप्ति न होना 'अलाभ परिषह' हैं।65 67. अ.रा.पृ. 6/578, 579; भगवतीसूत्र 8/8 68. अ.रा.पृ. 6/579; आवश्यक बृहद्वृत्ति, अध्ययन 4; पञ्चसंग्रह, द्वार 43; गृहस्थ के घर जाने पर मुनि को आहारादि प्राप्ति होने पर या न होने पर भी मुनि का मुख अविकृत रहना, चित्त संक्लेश 69. अ.रा.पृ. 4/2177; आचारांग 1/9/2 रहित रहना, मुनि के द्वारा दाता विशेष की परीक्षा करने में निरुत्सुकता ____70. अ.रा.पृ. 4/2177; पंचसंग्रह द्वार 2; अनगार धर्मामृत 6/105; चारित्रसार, होना तथा 'लाभ से अलाभ मेरे लिए परम तप है' इस प्रकार की पृ. 83 भावना से मन को भावित करते हुए संतुष्ट रहना, मुनि का 'अलाभ 71. अ.रा.पृ. 4/1429; भगवतीसूत्र 8/8 72. अ.रा.पृ. 4/1229; आवश्यकचूणि 2/35; चारित्रसार, पृ. 84 परिषह जय' हैं। पृ. 83 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [300]... चतुर्थ परिच्छेद आदि मुनि की राजा श्रेष्ठी आदि गृहस्थों के द्वारा भक्ति, पूजा, प्रणाम, बहुमान, आसनदान, वस्त्र- पात्रादि दान आदि न होना, सत्कार - पुरस्कार परिषह है। 23 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आठों कर्म और परिषह : जीव को उपरोक्त 22 परिषह ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अंतराय कर्म के उदय से प्राप्त होते हैं। इनमें ज्ञानावरणीय कर्म से (1) प्रज्ञा और (2) अज्ञान परिषह; वेदनीय कर्म के उदय से (1) क्षुधा (2) पिपासा (3) शीत (4) उष्ण और (5) दंशमशक (ये पाँच आनुपूर्वी से संबद्ध) (6) चर्या (7) शय्या (8) वघ (9) रोग (10) तृण-स्पर्श (11) मल- ये ग्यारह परिषह; मोहनीय कर्म के (अ) दर्शन - मोहनीय के उदय से दर्शन परिषह और चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से (1) अरति (2) अचेलक (3) स्त्री (4) निषद्या (5) याचना (6) आक्रोश (7) सत्कार/ पुरस्कार ये सात - कुल आठ परिषह और अंतराय कर्म के लाभातंराय के उदय से (1) अलाभ परिषह होता है 2 एसी परिस्थिति में सत्कार पुरस्कार की इच्छा नहीं करना, तद्हेतु आर्त्तध्यानादि रुप चिंतन नहीं करना, असत्कार में दीनता और सत्कारादि में हर्ष धारण नहीं करना 'सत्कार - पुरस्कार परिषह जय' हैं 174 प्रज्ञा परिषहजय : बारह अङ्ग, चौदह पूर्व और प्रकीर्णक सहित समस्त श्रुत के ज्ञाता, विद्याधर, उपदेष्टा, वादी विजेता, शास्त्रों में निपुण मुनि को भी अपने ज्ञान का घमंड होना' 'प्रज्ञा परिषह' हैं 175 शास्त्रपारंगामी श्रुतधर, पूर्वधर या सामान्य मुनि को विशिष्ट ज्ञान-विद्या-लब्धि आदि की प्राप्ति होने पर भी उसका लेश मात्र अभिमान नहीं होना 'प्रज्ञा परिषह जय' हैं 76 अज्ञान परिषहजय : निकाचित ज्ञानावरणीय कर्मों के उदय से जैन दीक्षा अङ्गीकार कर व्रत - नियम पालन एवं विभिन्न प्रकार के उग्र तप करने पर भी, लम्बे समय (बारह-बारह वर्ष) तक आयम्बिलादि तपपूर्वक श्रुत प्राप्ति हेतु प्रयत्न करने पर भी वस्तुतत्त्वप्रकाशक निर्मल विशिष्ट ज्ञान प्राप्त नहीं होना 'अज्ञान परिषह' हैं। 7 अज्ञान परिषह की उदयावस्था में लोकों के द्वारा यह जड है, अज्ञानी है, पशु तुल्य है- एसे निंदा-तिरस्कार युक्त वचनों को समभावपूर्वक सहन करना, और 'मैं एसे तिरस्कृत वचन सहन करता हूँ, तपस्वी हूँ, अप्रमत हूँ फिर भी मुझे विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है' -एसे विचारों से मुक्त होना 'अज्ञान परिषह जय' हैं। 78 परिषह सहन करने से लाभ : जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त को प्रमुखता दी गयी है; जीव इस संसार में तब तक ही रहता है जब तक कर्मबन्धन से सम्पृक्त रहता है; कर्मबन्ध का उच्छेद ही जैनदर्शन और जैनधर्म का लक्ष्य और उद्देश्य है । और कर्म का सम्पूर्ण उच्छेद तप से ही सम्भव है। परिषहजय भी तप की परिधि में ही है। गृहस्थ जीवन में सभी परिषहों पर विजय नहीं पायी जा सकती, किन्तु मुनिजीवन में यह सम्भव हो पाता है। इन 22 परिषहों को सम्यक् प्रकार से सहन करने से मुनि अनेक भवों में अज्ञानोपार्जित पूर्वसंचित कर्मो का क्षय करता है, उससे मुनि के दोष भी गुण में परिवर्तित हो जाते हैं, महाव्रतों को अखंड रुप से धारण करता है, ज्ञानदृष्टि से पर्यालोचन के द्वारा आत्महित को प्राप्त होता है, और मोक्ष फल की प्राप्ति होती है*" अर्थात् वह संसारसमुद्र से पार उतर जाता है। परिषहोदय की संख्या : एक और किसी भी मुनि को एक समय में एक साथ जघन्य से उत्कृष्ट से 20 परिषह उदय में आ सकते हैं, क्योंकि शीत और उष्ण तथा चर्या और निषद्या ये दोनों परिषहों का एक साथ उदय संभव नहीं है 181 गुणस्थान और परिषह : निर्युक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामी के अनुसार नौंवे अनिवृत्ति बादरसंपराय गुणस्थान तक पूर्वोक्त 22 परिषह जीव को उदय में आ सकते हैं। सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह, और क्षीणमोह-इन तीन गुणस्थानों में 1. प्रज्ञा 2. अज्ञान 3. क्षुधा 4. पिपासा 5. शीत 6. उष्ण 7. दंशमशक 8. चर्या 9. शय्या 10. वघ 11. रोग 12. तृणस्पर्श 13. मल और 14. अलाभ परिषह-इन चौदह परिषहों के उदय की संभावना होती है और सयोगी केवली गुणस्थान में वेदनीय कर्म से प्रतिबद्ध क्षुधादि ग्यारह परिषहों के उदय की संभावना है। अयोगी गुणस्थान में कर्मो का अभाव होने से किसी प्रकार के परिषह के उदय की संभावना नहीं है। 83 इन परिषहों के प्रति सहिष्णुता से साधु में कल्पानुसार आचरण करने की सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। साथ ही समय समय पर भिक्षुओं के लिए उपदिष्ट प्रतिमाओं का भी वह आचरण कर पाता है । 'कल्प' का शाब्दिक अर्थ सामर्थ्य है । परन्तु श्रमणाचार में 'कल्प' शब्द का अर्थ 'आचार' होता है। जैन सिद्धान्त में दश कल्प बताए गये हैं। इनका विवरण आगे प्रस्तुत किया जा रहा है । 73. 74. 75. 76. 77. 78. अ. रा. पृ. 7/264; समवयांग, समवाय 22; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 2 अ.रा. पृ. 7/264; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/270; चारित्रसार 126 / 5 अ. रा. पृ. 5/389; भगवतीसूत्र 8/8 अ.रा. पृ. 5/389, 390; धर्मसंग्रह 3/20; उत्तराध्ययनसूत्र, पाईय टीका 2/ 40-41, चारित्रसार, पृ. 84, 85 81. 82. अ.रा. पृ. 1/487, 488, 489, 5/643 अ. रा. पृ. 1489; सवार्थसिद्धि 9/9/427; चारित्रसार 122/1 79. अ.रा.पृ. 6/645, 646, 647; सूत्रकृतांग 1/2/3/1-2-3 80. अ. रा.पू. 6/643, 645; दशवैकालिक 8/27 अ. रा. पृ. 5/640 अ.रा. पृ. 5/638, 639; तत्त्वार्थसूत्र 9 / 13 से 16; धर्मामृत अनगार, पृ. 489 83. अ. रा. पृ. 5/639; आवश्यक निर्युक्ति 79; तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 10,11,12; धर्मामृत अनगार, पृ. 489 विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एमेव धम्मो विसओवसण्णो, हणाइ वेयाल इवाविण्णो ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [301] दश कल्प अभिधान राजेन्द्र में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'कल्प' शब्द के अनेक अर्थ दर्शाये हैं। कल्प : जैनागमों में आठ वर्ष की उम्र में दीश्रा ग्रहण करने की योग्यता/सामर्थ्य, स्वकार्य करने में समर्थ, वर्णन करना, कल्पना करना, छेदन अर्थ में (उदा. बाल कैंची से छेदने/काटने योग्य (कल्पता) है), करण क्रिया (अपने योग्य आजीविकारुप क्रिया), आचार, उपमा (यथासूर्यकल्प, चन्द्र कल्प), अधिवास (देवलोक में देवता का वास), मासकल्प, चातुर्मास कल्पादि (मुनि का एक महिना या उससे न्यूनाधिक किसी जगह स्थिर रहना), स्थविर कल्प, जिनकल्प-आदि अर्थों में प्रयुक्त हैं।। 11. नाखून काटने की नेरणी, (नेल कटर), 12. कान का मैल निकालने की चाटुई, ये बारह वस्तुएँ तथा अन्य भी छुरी, कैंची और सरपला (मिट्टी का पात्र) प्रमुख चीजें किसी भी साधु को लेना कल्पता नहीं है। तथा 1. तृण, 2. मिट्टी का ढेला, 3. भस्म (राख), 4. मात्रा का पात्र, 5. बाजोट, 6. पाट-पाटली, 7. शय्या, 8. संथारा, 9. लेपप्रमुख वस्तु, 10. उपधि सहित शिष्य याने वस्त्रादि सहित शिष्य; ये दस वस्तुएँ शय्यातर के घर की लेना कल्पता है। यह कल्प सब तीर्थंकरों के साधुओं को निश्चय से होता है; इसलिए इसे नियत कल्प कहते कल्प के भेद :-. कल्प नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, एवं भावरुप से षड्विध है; इसमें भावकल्प छ: प्रकार हैं। (सामायिकादि षडावश्यक), सप्तविध (नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल-दर्शन-सूत्र कल्प) दसविध, बीस प्रकार से एवं अनेक प्रकार से किया गया है। प्रस्तुत संदर्भानुसार आचार्यश्रीने 'कल्प' का अर्थ कल्पसंज्ञक आचार किया गया है। मुनि दस प्रकार के आचार का पालन करते हैं। वह निम्न प्रकार से है(1) अचेलक कल्प : वस्त्र नहीं रखने को अचेलक कहते हैं। श्री ऋषभदेव तथा श्री महावीर स्वामी के साधु श्वेत मानोपेत जीर्णप्राय वस्त्र धारण करते हैं। अत: उन्हें अचेलक कहते हैं और बाईस तीर्थंकरों के साधु ऋजु, सरल, दक्ष और चतुर होते हैं; इसलिए बहुमूल्य पाँच रंगवाले मानोपेतरहित वस्त्र रखते हैं। इसलिए उन्हें सचेलक कहते हैं; क्योंकि उनके लिए अचेलक कल्प की कोई मर्यादा नहीं है। इस कारण से उनके लिए यह कल्प अनियत है। तथा पहले और अन्तिम तीर्थंकर के साधुसाध्वी के लिए यह कल्प नियत है। (2) उद्देशक कल्प : साधु अथवा साध्वी के उद्देश्य से तैयार किये हुए आहारादिक को उद्देशिक कहते हैं। इसमें मध्य के बाईस तीर्थंकरों के समय में जिस साधु अथवा साध्वी के निमित्त से किसी गृहस्थ ने भोजन, पानी, औषधि, वस्त्र-पात्र आदि बनवाये हों, तो वे पदार्थ उस साधु अथवा साध्वी को प्रदान करना योग्य नहीं है; पर शेष अन्य साधुओं को प्रदान करना कल्पता है अर्थात् अन्य साधुओं के लिए वो पदार्थ वहोरने योग्य हैं। उन्हें आधाकर्मादि दोष नहीं लगते । तथा पहले और अंतिम तीर्थंकर के शासन में तो एक साधु अथवा एक साध्वी के लिए जो आधार्मिक आहारादिक बनवाये हों, वे सब प्रकार से किसी भी साधु अथवा साध्वी को लेना योग्य नहीं है। (3) शय्यातर-पिंड कल्प : उपाश्रय के मालिक को शय्यातर कहते हैं। अथवा जो साधु को रहने के लिए स्थान देता है, अर्थात् जिसकी आज्ञा ले कर साधु किसी जगह पर ठहरते हैं, उस घर के स्वामी को शय्यातर कहते हैं। उसके घर का पिंड-आहारादिक बारह पदार्थ सब तीर्थंकरों केसाधुओं के द्वारा लिया जाना कल्पता नहीं। वे बारह पदार्थ इस प्रकार हैं - 1. आहार, 2. पानी, 3. खादिम, 4. स्वादिम, 5. कपडा, 6. पात्र, 7. कंबल, 8. ओघा, 9. सुई, 10. पिप्पलक (औषधि), (4) राजपिंड कल्प : जो महान छत्रपति, चक्रवर्ती आदि राजा होता है और सेनापति, पुरोहित, श्रेष्ठी, प्रधान और सार्थवाह इन पाँचों के साथ जो राज करता है; उसे राजा कहते हैं। उसके घर का आहारादिक पिंड प्रथम तीर्थंकर के साधु-साध्वी को तथा चरम श्री वीर भगवान के साधु-साध्वी को लेना कल्पता नहीं है। तथा बाईस तीर्थंकर के साधु तो ऋजु और पंडित होते हैं; इसलिए सदोष जानें तो नहीं लेते। इस कारण से उनके लिए इस कल्प की मर्यादा नहीं है। (5) कृतिकर्म कल्प : कृतिकर्म अर्थात् वंदन करना वह दो प्रकार का है - एक तो खडे होना और दूसरा द्वादशावर्त वन्दन करना । इसमें श्री जिनशासन में सब तीर्थंकरों के साधुओं की एसी मर्यादा है कि जिसने पहले दीक्षा ली हो, उस साधु को बाद में दीक्षा लेने वाला साधु वन्दन करे; पर बाप-बेटा अथवा राजा-प्रधान इत्यादि छोटा-बडा देखे नहीं। यदि पुत्र ने दीक्षा पहले ली हो और पिता ने बाद में ली हो; तो पिता पुत्र को वन्दन करे। इसी प्रकार राजा अपने प्रधान को भी वन्दन करें। तथा सभी साध्वियाँ तो पुरुषोत्तम धर्म जान कर सब साधुओं को वन्दन करें; पर छोय बडा ध्यान में न लें। (6) व्रतकल्प : प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पाँचों से विरत होना, पाँच महाव्रत कहे जाते हैं। इसमें श्री ऋषभदेव तथा श्री महावीर के साधु-साध्वी को तो वैसा ज्ञान का अभाव होने से पाँचों महाव्रत व्यवहार से हैं और मध्य के बाईस जिन के समय के साधु तो परिग्रह व्रत में परिगृहीत स्त्री भोग का प्रत्याख्यान जानते 1. अ.रा.पृ. 3/220 2. अ.रा.पृ.3/221, 229 3. अ.रा.पृ. 3/229 4. अ.रा.पृ. 3/225-226; कल्पसूत्र बालावबोध पृ. 6-11 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [302]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं तथा तीसरे अदत्तादान व्रत में अपरिगृहीत स्त्री भोग का प्रत्याख्यान में रहे; परन्तु अन्य दिनों में एक महीने से उपरान्त रहें तो अनेक जानते हैं। याने कि वे स्त्री को परिग्रह रुप मान कर पाँचवें परिग्रह दोषों का संभव होता है। जैसे कि गृहस्थ के साथ प्रीतिबंध होता व्रत के साथ ही लेते है; क्योंकि जहाँ स्त्री है, वहाँ परिग्रह है। है, लघुता प्राप्त होती है, लोकोपकार नहीं कर सकता, देश-विदेश इसलिए बाईस तीर्थंकर के साधु के लिए चौथा मैथुन विरमण व्रत की जानकारी नहीं होती तथा ज्ञान की आराधना नहीं होती। इसलिए छोड कर चार महाव्रत जानना । अथवा श्री ऋषभदेव और श्री महावीर एक मास से अधिक रहने की साधु को आज्ञा नहीं होती। कदाचित् के तीर्थ में रात्रि भोजन विरमण व्रत मूल गुण में गिना जाता है। दुर्भिक्षादिक के कारण से रहना पडे अथवा विहार करने में असमर्थ इस कारण से रात्रिभोजनविरमण व्रत के साथ गिनें, तो साधु के छह हो; तो उपाश्रय पलटे, मोहल्ला पलटे, घर पलटे और कुछ भी न व्रत होते हैं और बाईस जिन के तीर्थ में तो रात्रिभोजनविरमण व्रत । हो सके तो संथारा-भूमि पलटकर भाव से भी मासकल्प करे। को उत्तर गुण में गिनते हैं, इसलिए चार ही व्रत कहे जाते हैं। और मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधु तो विहार करने (7) ज्येष्ठ कल्प : में सामर्थ्यवान हों तो भी वे ऋजु और पंडित हैं; इसलिए उनके कालापेक्षया बडा होना ज्येष्ठता है। इसमें श्री ऋषभदेव लिए मासकल्प का कोई नियम नहीं है। यदि दोष न लगे और और महावीर के साधुओं को तो बडी दीक्षा देने के बाद छोटा बडा लाभ जानें तो कुछ कम पूर्वकोडि वर्ष तक भी वे एक ही क्षेत्र गिना जाता है; इसलिए जिसने बडी दीक्षा पहले ली हो, वह बडा में एक ही स्थान में रहे इसलिए यह अनियत कल्प है। गिना जाता है और जिसने छोटी दीक्षा पहले ली हो, वह बडी दीक्षा (10) पर्युषण कल्प :बाद में ले तो वह आगेवालों के अपेक्षा से लघु गिना जाता है। किसी एक स्थान पर रहने को पर्युषण कहते हैं। पर्युषण किन्तु बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए तो यह मर्यादा नहीं है; दो प्रकार के हैं। क्योंकि वे सब प्रवीण होते हैं। इस कारण से तुरन्त ही पढ लेते (1) जिसे गृहस्थ जानता है, वह भाद्रपद सुदी पंचमी से हैं। इसलिए वे दीक्षा के दिन से ही छोटे और बडे गिने जाते हैं। लेकर कार्तिक सुदी पूनम तक रहना है और (2) जिसे गृहस्थ नहीं (8) प्रतिक्रमण कल्प : जानता वह आषाढ सुदी पूनम से ले कर भाद्रपद सुदी पंचमी तक आवश्यक का करना प्रतिक्रमण कल्प है। इसमें प्रथम और रहना समझना चाहिए। वह जघन्य से सत्तर (70) दिन और उत्कृष्ट चरम जिन के समय में तो साधु को अतिचार दोष लगे या न लगे, से छह महीने के पर्युषण जानना। यह कल्प श्री ऋषभदेव और तो भी दैवसिकादिक पाँचों प्रतिक्रमण करना आवश्यक है और बाईस श्री महावीर के साधुओं के लिए निश्चय से समझना और बाईस तीर्थंकरों तीर्थंकरों के साधु तो यदि पाप लगा है, एसा जानें तो ही दैवसिक के साधुओं के लिए निश्चय से नहीं। अथवा रात्रिक प्रतिक्रमण शाम को अथवा सुबह करते हैं और पाप इस तरह दस कल्प कहे गये हैं। ये दसों कल्प श्री लगा है, एसा न जानें तो नहीं भी करते। शेष पाक्षिक, चौमासी ऋषभदेव तथा श्री महावीर स्वामी के साधुओं के लिए निश्चय और सांवत्सरिक ये तीनों प्रतिक्रमण तो बाईस जिनेश्वरों के समय से जानना। तथा मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए में होते ही नहीं है। इस तरह यह भी अनियत कल्प है। तो एक शय्यातर, दूसरा चार महाव्रत, तीसरा ज्येष्ठ और चौथा कृतिकर्म (9) मासकल्प : याने वंदना ये चार कल्प निश्चय से होते हैं और शेष दस कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधु एक गाँव में एक मास अनियत होते हैं। तक रहें, उपरान्त न रहें। चातुर्मास के चार महीनों तक एक गाँव पुण्यं पुण्यानुबन्धयदः शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं, कर्तव्यं सर्वथा नरैः । यत्प्रभावादपातिन्यो,जायन्ते सर्वसंपदः॥1॥ सदागमविशुद्धेन, क्रियते तच्च चेतसा एतच्च ज्ञानवृद्धेभ्यो, जायते नान्यतः क्वचित् ।।2।। चित्तरत्नमसंक्लिष्ट - मान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषितं दोषै - स्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥3॥ प्रकृत्या मार्गगामित्वं, सदपि व्यज्यते ध्रुवम् । ज्ञानवृद्धप्रसादेन, वृद्धि चाऽऽप्नोत्यनुत्तराम्॥4॥ दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद् गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥5॥ - अ.रा.पृ. 5/992-993 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [303] द्वादश भिक्षु प्रतिमा अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'भिक्षु प्रतिमा' को उपधान तप प्रतिमा के अन्तर्गत बताया है। जो यमनियमादिपूर्वक जीवन यापन करते हों, करण-करावण-अनुमोदनरुप पापव्यापार के त्यागी हों, चतुर्गतिरुप संसार में अष्ट कर्मों का सर्वथा भक्षण (नाश) करना चाहते हों, ज्ञान-दर्शन-चारित्र द्वारा आत्मा से कर्मों का भेदन करना चाहते हों, आरम्भ-त्यागी हों, धर्मपालन हेतु शरीर को टीकाने के लिये भिक्षा ग्रहण करते हों, पचन-पाचनादि सावद्य अनुष्ठान रहित निर्दोष आहार का भोजन करते हों उन्हें जैनागमों में 'भिक्षु' या 'साधु' कहते हैं और उनके समयानुसार विशिष्ट नियमग्रहणरुप अभिग्रह विशेष को 'भिक्षुप्रतिमा' कहते हैं। जैन साधु अपने साधना काल में विशिष्ट प्रकार के अभिग्रह धारण करके उसका स्वच्छा से पालन करते हैं। उद्गम-उत्पादन और एषणा दोष से रहित भिक्षा ग्रहण करनेवाले साधु की ये प्रतिज्ञाएँ जैनागमों में 12 प्रकार से वर्णित हैं, उसे 'बारह भिक्खुपडिमा' कहते हैं। 1-7. मासिकी प्रतिमा आदि सात प्रतिमाएँ - एक महीने तक भोजन में अलेप शुद्ध आहार-पानी की एक दत्ती लेना मासिकी भिक्षु प्रतिमा कहलाती है। दो माह तक भोजन में शुद्ध आहार-पानी की दो दत्ती लेना द्विमासिक भिक्षु प्रतिमा कहलाती है। इसी प्रकार तीन, चार, पाँच, छ: तथा सात महिना तक क्रमश: शुद्ध अलेप आहार-पानी की क्रमशः तीन, चार, पाँच, छ: और सात दत्ती भोजन में ग्रहण करना क्रमश: त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पाञ्चामासिकी, पाण्मासिकी और साप्तमासिकी "भिक्षु प्रतिमा' कहलाती है। 8-9-10.सप्ताहोरात्रमाना प्रतिमा - सात सात अहोरात्र अर्थात् दिन रात पर्यन्त चौविहार, सोलह भत्त (भक्त) (सात उपवास और आगे-पीछे एकासना) का प्रत्याख्यान लेकर, गाँव के बाहर जाकर क्रमशः उत्तानासन, उत्कटिक, दण्डासन और गोदुहिकासन या वीरासन से कायोत्सर्ग कर उपसर्ग सहन करना क्रमशः 8वी, 9वीं और 10वीं भिक्षुप्रतिमा है। 11. एक अहोरात्रिकी प्रतिमा - चोविहार छ? तप (दो उपवास और आगे-पीछे एकासना) करके एक अहोरात्रि पर्यन्त गाँव के बाह्य प्रदेश में जिनमुद्रापूर्वक कायोत्सर्ग में रहकर उपसर्ग सहन करना - भिक्षु की ग्यारहवीं प्रतिमां है।' एकारात्रिकी प्रतिमा - चोविहार अट्ठम (तीन उपवास और आगे पीछे एकासना) तप करके एक रात्रि पर्यन्त ईषद्प्राग्भारशिला (सिद्धशिला) की ओर एकाग्र ऊर्ध्वदृष्टि रखकर कायोत्सर्ग में उपसर्ग सहना - भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा है। प्रतिमा वहन हेतु योग्यता : राजेन्द्र कोश के अनुसार इन द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं को वहन करने की इच्छावाले भिक्षु में निम्न योग्यता होना आवश्यक माना है(1) कायोत्सर्ग सहन करने योग्य शरीर-संहनन बल धैर्यादि दृढ मानस बल अदीनभाव तीव्रतापूर्वक वर्द्धमान विशुद्ध भाव बल उपसर्ग संबंधी स्थितियाँ और स्वरुप का ज्ञान गुरु, आचार्य की अनुज्ञा/अनुमति (7) नौंवे प्रत्याख्यान पूर्व को आचार नामक तृतीय वस्तु तक के श्रुतज्ञान का अध्ययन एवं उससे अधिक संपूर्ण 10 पूर्व पढने की शक्ति न हों। गच्छ में साधुगण बाधारहित हों, आचार्यादि का सद्भाव हो, उन्हें किसी प्रकार की प्रतिकूलता न हो, बालवृद्ध स्थविरादि साधु तकलीफ में न हों, उन सब की वैयावृत्त्य की समुचित व्यवस्था हो, स्वयं के पास प्रतिमा-वहन के काल में कोई दीक्षा लेनेवाला न हो, वही साधु गुर्वाज्ञापूर्वक ये प्रतिमाएं वहन कर सकता है। प्रतिमाधारी साध की दिनचर्या के नियम :निवासस्थान : जहाँ किसी गृहस्थ को पता चल जाये कि, 'यह प्रतिमाचारी साधु है' वहाँ प्रतिमाचारी साधु एक रात्रि और जहाँ न जानते हों वहाँ एक या दो रात्रि अवस्थान कर सकता है, इससे अधिक नहीं । यदि कोई प्रतिमाधारी साधु अधिक रहे तो छेद या परिहार प्रायश्चित का पात्र बनता है। विहार करके अन्यत्र जाकर वापिस आकर वहाँ रह सकता है। प्रतिमाधारी साधु स्त्री-पुरुष, तिर्यंच, अग्नि आदि से रहित शुद्ध उपाश्रय / वसति, बगीचा या वृक्ष के नीचे, वृक्ष के पासवाले प्रदेश में पृथ्वी शिला पर, काष्ठ-शिला पर, पर्वत के नीचे, गुफा में रहना कल्पता है।" विहार : प्रतिमाधारी साधु को गाँव में एक या दो रात्रि ठहरते हुए मार्ग में विहार करते हुए रास्ते में सूर्यास्त के पहले जलाजल समय 1. अ.रा.भा. 5/332; 'पडिमा' शब्द 2. अ.रा.भा. 5/1560; "भिक्खु' शब्द 3. वही पृ. 1571, "भिक्खू पडिमा' शब्द 4. वही 5. अ.रा.भा. 5/1572, 1575 ; "भिक्खु पडिमा' शब्द 6. वही पृ. 1576 7. वही 8. वही - 1575,76 9. अ.रा.भा. 5/1576, 77, 783 10. अ.रा.भा. 5/1573, 1. वही पृ. 1572, 73 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [304]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (दिन के तीसरे पहर के अंत के बाद कमाली-काल आने पर) होने दिया हुआ शेष भोजन करते हैं। प्रतिमापन साधु दिन के तृतीय प्रहर पर वहीं ठहरना पड़ता है, एक कदम भी आगे नहीं जा सकते। में गोचरी (आहार ग्रहण करने) हेतु जाते हैं। मार्ग में वधादि उपसर्ग होने पर एक कदम भी आगे-पीछे नहीं जा इस प्रकार प्रतिमाधारी साधु उचितकाल में विधिपूर्वक सकते, दौड नहीं सकते, सहसा पेड के कोटर में या खंडहरादि में प्रतिमा धारण करके प्रमादरहित-जागृत रहकर, उपयोगपूर्वक पारणां छिप नहीं सकते 12 के दिन गुर्वादि द्वारा दिया हुआ शेष भोजन करके, दोषों का शुद्धिकरण शरीर-सुश्रूषा : करके, पारणा के दिन तप एवं प्रतिमा की अनुमोदनापूर्वक उसे सामान्यतया प्रतिमाधारी साधु शरीर-सुश्रुषा नहीं करते परंतु पूर्ण करता है।18 आँख में धूल आदि गिर जाय/भरा जाय तो पानी से निकाल सकते काल :हैं। वे ज्वरादि में चिकित्सा नहीं करवा सकते परन्तु सर्पदंश आदि प्रतिमा वहन करने के इच्छुक साधु वर्षाकाल को छोडकर में चिकित्सा करवा सकते हैं। 3 शेष समय में प्रथम दो प्रतिमा - एक ही वर्ष में, तीसरी और चौथी भाषा : प्रतिमा - एक ही वर्ष में पाँचवीं, छट्ठी और सातवीं - इसके बादवाले प्रतिमाधारी साधु को निम्नाङ्कित चार प्रकार की भाषा बोलना कल्प्य वर्षों में, इस प्रकार कुल 9 वर्षों में प्रथम सात प्रतिमा धारण कर सकते हैं। शेष पाँच प्रतिमाएँ यथा समय इसके बाद के वर्षों में (1) याचनी - कोई भी वस्तु विशेष मुझे दो - एसी कर सकता है। पृच्छनी - मार्ग या संदिग्ध अर्थ के बारे में उसके स्थान :ज्ञाता को पूछना। प्रतिमापन्न साधु को उपसर्गसहन एवं आत्मा के धैर्यबल अनुज्ञापनी - मल-प्रसवणादि त्याग करने हेतु अनुज्ञा की परीक्षा हेतु प्रथम प्रतिमा में उपाश्रय में, दूसरी में उपाश्रय से लेना या तृण, पत्थर, भस्म, वसति, पाट, पटिया आदि बाहर, तीसरी में चौराहे पर, चौथी में शून्य स्थान में और पाँचवीं उपयोग करने की आज्ञा लेना। प्रतिमा में श्मशान में रहना चाहिए। अर्थात् उन स्थानों पर रहकर पुष्टस्य व्याकरणी - तुम कौन हो ? कहाँ से आये? कायोत्सर्ग-ध्यान आदि करना चाहिए।20 कहाँ जाओगे? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर देनेरुप भाषा बोलना योग्य है। उपधि : 12. वही पृ. 1574 13. अ.रा.पृ. 5/1578 प्रतिमापन्न साधु काष्ठपात्र एवं कपास के वस्त्रादि रुप आवश्यक 14. वही पृ. 5/1573 उपधि स्व-लब्धि से, स्वयं के पुरुषार्थ से, स्वयं एषणा करके 15. वही पृ. 5/1577 दोष रहित प्राप्त करके उपयोग करते हैं।15 16. अ.रा.पृ. 5/1577 आहार : 17. .....तथाऽयमपि भगवान् श्रद्धाऽऽदिष्वमूच्छितः तृतीयपौरुष्टमटति। - वही प्रतिमापन्न साधु स्वलब्धि से, स्व-पुरुषार्थ से गवेषणा पृ. 5/1572 18. अ.रा.भा. 5/1575 ग्रहणेषणा एवं ग्रासेषणापूर्वक 42 दोष रहित अलेपकृत (घी-तेल आदि 19. वही से रहित) वाल-चणादि का आहार प्राप्त कर उपयोगपूर्वक, गुर्वादि द्वारा 20. अ.रा.पृ.5/1576 | सत्पुष्पाणि अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसङ्गता । गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥ एभिर्देवाधिदेवाय, बहुमानपुरस्सरा । दीयते पालनाद् या तु, सा वै शुद्धेत्युदाहृता ॥2॥ प्रशस्तो ह्यनया भाव - स्ततः कर्मक्षयो ध्रुवः । कर्मक्षयाच्च निर्वाण - मत एषा सतां मता ॥3॥ -अ.रा.पृ. 1/249 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [305] भावना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में 'भावना' शब्द का वर्णन करते हुए भावना के वासना, अध्यवसाय, सम्यक्क्रियाभ्यास, बारंबार चिंतन, अविच्छिन्न संस्कारजनित पुनः-पुनः तदनुष्ठानरुपता, आध्यात्मिक वर्तन, आदि अनेक अर्थो का वर्णन करते हुए 'भावना' शब्द का सटीक अर्थ बताते हुए कहा है' "आत्मज्ञान से उत्पन्न ज्ञान हेतु और दृष्ट तथा अनुभूत श्रुतज्ञान के अर्थों के विषय में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा को बढानेवाला सद्भाव 'भावना' है। द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका में अशुभ अभ्यास से निवृत्ति और शुभ अभ्यास में बुद्धिसंगत वृद्धिरुप भावों का फल 'भावना' है। प्रवचनसारोद्धार, ओघनियुक्ति, धर्मसंग्रहसटीक, आवश्यकत बृहद्वृत्ति, सूत्रकृतांग एवं आचारांग के अनुसार मुमुक्षु के द्वारा जो संसार की अनित्यतादि का अभ्यास किया जाय उसे भावना कहते हैं। भावना को अनुप्रेक्षा कहते हैं। अणुप्पेहा (अनुप्रेक्षा) : ____ अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार 'अणुप्पेहा' का संस्कृत शब्द अनुप्रेक्षा है जो कि अनुप्रेक्षण अर्थ में प्रयुक्त है। तत्त्वार्थ भाष्य में स्वाध्याय के पाँच प्रकार कहे हैं - वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा। अभिधान राजेन्द्र कोश में अनुप्रेक्षा शब्द का विवेचन करते हुए आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने लिखा है(1) किसी एक विषय में मन को चिन्तन में जोडना (2) अर्थ का चिन्तन करना (3) ग्रन्थों के अर्थ का चिन्तन करना (4) सूत्रों का चिन्तन करना (5) जिनप्रवचन के अन्तर्गत गुरु वचन को सुनकर एकाग्रमन से चिन्तन करना 'अनुप्रेक्षा' है। (6) धर्मध्यान के बाद पर्यालोचन करना 'अनुप्रेक्षा' है। (7) अर्हन्तों के गुणों का बार-बार स्मरण करने के लिए 'अनुप्रेक्षा' करनी चाहिए। (8) तत्त्वों के अर्थो का चिन्तन करना 'अनुप्रेक्षा' है। भावना के भेद :(1) द्रव्य भावना : कुसुमादि द्रव्यों में तथा तिलादि में जो सुगंध-दुर्गंधादि वासना तथा शीत-उष्णादि के भाव 'द्रव्य भावना' है। (2) भाव भावना :- . यह दो प्रकार की है - अप्रशस्त प्रशस्त । जीव हिंसादि सावध पापकार्यों को करने की भावना अप्रशस्त भावना है। दर्शनज्ञान-चारित्र-तप-वैराग्यादि में जो भावना होती है वह प्रशस्त भावना है। स्थूल रुप से प्रशस्त भावना के पाँच प्रकार बताये गये हैं - 1. दर्शन भावना 2. ज्ञान भावना 3. चारित्र भावना4. तप भावना । 5. वैराग्य भावना। दर्शन भावना - तीर्थंकर, गणधर, द्वादशांगी, केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, पूर्वधर, श्रुतधर, आचार्यादि, युगप्रधान, अतिशययुक्त, ऋद्धिधर, (विद्याधर, चारणमुनि आदि), लब्धिधर आदि विशिष्ट गुणनिधि पूज्य पुरुषों के सम्मुख, तथा तीर्थंकर की कल्याणक भूमि और शाश्वताशाश्वत तीर्थ एवं अतिशयवान् धर्म स्थानों में जाकर यथाशक्य वंदन, पूजन, गुणोत्कीर्तन, करना दर्शन भावना है। इससे सम्यकत्व की शुद्धि होती है। इसी प्रकार शासन प्रभावक आचार्य, वादी, निमित्तज्ञानी, ज्योतिषि, प्रवचन कुशल, तपस्वी, आदि गुणमाहात्म्यपूर्वक आचार्यादि के गुणोत्कीर्तन, पूर्वमहर्षियों के नामोत्कीर्तन तथा महापुरुषों की दिव्य महिमादि का वर्णन करना तथा जिनपूजन करना 'दर्शनभावना' हैं।' ज्ञान भावना - जीवाजीवादि नव तत्त्वो/पदार्थो को जिन प्रवचन के द्वारा यथावद्रुप से जानना, सम्यग्दर्शन से युक्त होकर कार्मण वर्गणाओं को (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, वेदनीय, आयुः, नाम, गोत्र, अंतराय, इन आठ कर्म बंधनों को) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - इन पाँच बंध हेतुओं को तथा कर्मबंध के फलस्वरुप चतुर्गति संसार भ्रमण एवं साता-असाता का अनुभव को समझना और इस संसार के बंध एवं इससे मोक्ष (मुक्ति) की बातें जिनेश्वर परमात्माने पूर्ण स्पष्टतापूर्वक बताई हैं और अन्य शाक्यादि के प्रवचन में इस कर्मबंध-मोक्षादि की बातें नहीं होती है। एसी भावना ज्ञान भावना है तथा अज्ञानी जो कर्म करोडों वर्ष तप करके क्षय करता है वह ज्ञानी श्वासोच्छवास में क्षय करता है। एसी भावना से भावित होकर ज्ञान का अभ्यास करना । ज्ञान का अभ्यास करने से मेरा ज्ञान विशिष्ट हो - एसी भावना रखना 'ज्ञान भावना' है। गुरुकुलवास में ज्ञान की प्राप्ति, कर्म, निर्जरा, स्वाध्याय आदि लाभ हैं- एसी भावनाओं से भावित होकर गुरुकुलवास का त्याग न करना 'ज्ञान भावना' हैं। चारित्र भावना -अहिंसा, सत्य, अचौर्य (अदत्तादान) नव वाड के पालन पूर्वक ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह - ये पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ, द्रव्यादि चारों निक्षेपयुक्त बारह प्रकार के तप के करने को भावना, अनित्यादि बारह भावना रुप वैराग्य भावना, गर्दादि प्रमादों के त्याग रुप अप्रमाद भावना, ज्ञान, दर्शन, चारित्रयुक्त शाश्वत आत्मा के एकत्व स्वरुप को एकाग्रतापूर्वक भावना को पालन करने की 1. अ.रा.पृ. 5/1506 2. सम्मतितर्क प्रकरण, 3 काण्ड 3. द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका, 18 अ.रा.पृ. 5/1506; प्रवचनसारोद्धार; ओ धनियुक्ति, धर्मसंग्रह, आवश्यकबृहद्वृत्ति; सूत्रकृतांग; आचारांग 5. अ.रा.पृ. 1/389-390; तत्त्वार्थ सूत्र 9/20 पर भाष्य 6. अ.रा.पृ. 5/1506 7. वही, पृ.5/1506, 1507 8. अ.रा.पृ. 5/1507 4. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [306]... चतुर्थ परिच्छेद भावना रखना एवं एसी पवित्र सुंदर, शुद्ध भावनाएँ जिन प्रवचन के अलावा अन्यत्र नहीं है- एसी भावना से मन को भावित करना 'चारित्र भावना' हैं।" तप भावना अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति संक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता - ये छ: प्रकार से बाह्य तप और प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग- ये छ: आभ्यन्तर तप - इस प्रकार यथाशक्ति बारह प्रकार से तपश्चरण करना, तप भावना है। 10 वैराग्य भावना - जीव को संसार से वैराग्य उत्पन्न करानेवाली अनित्याभावना आदि 12 भावनाएँ वैराग्य भावनओं के नाम से जानी जाती हैं। वे निम्नानुसार हैं। - (1) अनित्य (2) अशरण (3) संसार (4) एकत्व (5) अन्यत्व (6) अशुचित्व (7) आस्रव (8) संवर (9) निर्जरा (10) लोकस्वभाव (11) बोधिदुर्लभ (12) धर्मकथकोर्हन् बारसाणुवेक्खा में आचार्य कुन्दकुन्दने इन भावनाओं का क्रम निम्नानुसार दर्शाया है 12 (1) अनित्य (2) अशरण (5) संसार (4) अन्यत्व (7) अशुचित्व (10) निर्जरा 1. अनित्यत्व भावना : अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के क्लेश और महारंभ से पाप बाँधकर नारक पृथ्वियों (नरकवासों) में घोर अंधकार युक्त स्थानों में छेदन- भेदन, प्रदहनादि, अनेक प्रकार के दुःख भोग रहे हैं। जिसे कहने में ब्रह्मा भी समर्थ नहीं है। अतिमाया और दुःख के बंधनों से प्राप्त सिंह, बाघ, हाथी, मृग, बैल, बकरी आदि के रुप में तिर्यंच योनि में क्षुधा, तृषा, वध, बंधन, ताडन आदि अनेक प्रकार के दुःखी जीव सहता है उसकी अवर्णनीय वेदना को कहने में कौन समर्थ है ! (8) आस्रव (11) धर्म (3) एकत्व (6) लोक (9) संवर (12) बोधिदुर्लभ यह शरीर कदलीवृक्ष के गर्भ जैसा निःसार है; जैसे बिल्ली दूध पी रही है और उपर से कोई लाठी से मार रहा है वैसे विषय सुख में लोग आनंद मनाते हैं लेकिन लाठी की तरह मृत्यु / काल (यमराज) उसे देखते ही उठा ले जाता है। इस प्रकार विषय सुख का क्षणिक आनंद अंत में अति दारुण दुःखदायी है। आयुष्य जल के बुदबुदे (बुलबुले) और वायु से चलायमान ध्वजा के वस्त्र जैसा चंचल हैं, रुपलावण्य स्त्री के नेत्र जैसा चंचल है, यौवन हाथी के कान जैसा चलित है, सत्ता स्वप्नवत् है, सम्पत्ति चपल (अस्थिर) है, प्रेम, क्षणभंगुर है, सुख स्थिरतारहित है, प्राणप्रिय पुत्रादि भी संकट में सहायक नहीं , फिर भी मूढ जीव इन सर्व भावों को नित्य समझकर जीर्णशीर्ण कुटिया (शरीर) नष्ट होने पर रात-दिन रोता है। अतः तृष्णा के नाश के द्वारा निर्ममत्व ( निर्मोहीत्व) धारण करने के लिए शुद्ध बुद्धि (आत्मा) को हमेशा अनित्य भावना भावनीय है।13 2. अशरण भावना : विचित्र शास्त्रविद् (वैज्ञानिक) मान्त्रिक, तान्त्रिक, ज्योतिषी, शस्त्रविद्, शूरवीर, सेठ - साहूकार, देव-देवेन्द्र, सैकडों सुभट एवं हजारों मदांध हाथियों से घिरे हुए चक्रवर्ती आदि को भी बलपूर्वक ग्रहण करके यम के चाकर यम के घर ले जाते हैं। सर्वश्रेष्ठ बल के स्वामी तीर्थंकर सहित सब लोग मृत्यु को नष्ट करने में या दूर करने में समर्थ नहीं है। एसा सोचकर बुद्धिमान पुरुष स्त्री-परिवार, मित्र, पुत्रादि के स्नेह की निवृत्ति के लिए 'अशरण भावना' का मनन करें। 14 3. संसार भावना : सुमति बुद्धिहीन है, श्रीमान लक्ष्मीरहित है, सुखी सुखरहित है, सुतनु बीमार है, स्वामी - नौकर है, प्रिय प्रगट अप्रिय है, नृपति राजा नहीं है, स्वर्गी तिर्यंच है, मनुष्य नारक (नारकीय वेदना युक्त) है, इस प्रकार संसार में लोग अनेक तरह से नृत्य करते, अनेक प्रकार मनुष्य गति में अनार्यदेशोत्पन्न मनुष्य सेव्यासेव्य, भक्ष्याभक्ष्य, गम्यागम्य के विवेक रहित होकर विषयाधीन बनकर निरन्तर महारम्भादि के द्वारा दुःसह दुःख सहते हैं। और आर्यदेशोत्पन्न मनुष्य भी अज्ञान, दरिद्रता, व्यसन, दौर्भाग्य, रोगादि के द्वारा अनेक प्रकार के दुःख सहन करते हैं। एक तरुण पुण्यवान पुरुष के शरीर में प्रत्येक रोम में सुई के प्रवेश पर जितना दुःख होता है उससे आठ गुना दुःख स्त्री की कुक्षी में जीव को होता है। और जन्म समय में तो इससे भी अनंतगुणा दुःख होता है। वृद्धावस्था में शरीर की अस्वस्थता इन्द्रियों की असमर्थता, परिवारादि द्वारा अवज्ञाजनित दुःख है, देवलोक में सम्यग्दर्शनादि पालन से प्राप्त देव भव में भी जीव शोक, विषाद, मत्सर भय, ईर्ष्या, काम, क्षुधादिजनित दुःखों से पीडित होने से अपने दीर्घायुष्य को भी क्लेशपूर्वक पूर्ण करता है। अतः बुद्धिमान मोक्षफलदायी भववैराग्यरुपी बीज को पुष्पित करनेवाली अमृतवृष्टि समान संसार भावना से आत्मा को भावित करें। 15 4. एकत्व भावना : जीव अकेला जन्म लेता है, अकेला ही दुःख भोगता है, अकेला ही कर्मों को बांधता है और उसके फल भी वही अकेला ही भोगता है। इस जीव के द्वारा बहुत कष्ट उठाकर जो धन स्वयं उपार्जित किया जाता है उसका तो स्त्री, मित्र, पुत्र, परिवारादि मिलकर उपभोग करते हैं लेकिन उस धनोपार्जन में जो कर्मबंध हुए उससे नरकादि चारों गति में तज्जनित दुःखों को तो जीव अकेला ही सहन करता है, जिसके लिए जीव दशों दिशाओं में भटकता है, दीनता को धारण करता है, धर्म से भ्रष्ट होता है, आत्महित से ठगा जाता हैं (दूर रहता है), न्याय (नीति) मार्ग से दूर रहता है, वह स्वदेह और स्वजन इस आत्मा के साथ परभव में एक कदम भी साथ में नहीं जाते हैं, तब वह तुम्हारी सहायता कैसे करेगा ? हे आत्मन् ! स्वार्थैकनिष्ठ स्वजन-स्वदेहादि को छोडकर कल्याण के लिए सर्वत्र सहायरूप एक मात्र धर्म को धारण कर 116 9. अ. रा. पृ. 5/1507 10. अ.रा. पृ. 5/1507, तत्त्वार्थसूत्र 9 / 19, 20, 6/23 11. अ. रा. पृ. 5/1507; आचारांग 2/3; शान्तसुधारसभावना, श्लोक 7, 8; तत्त्वार्थसूत्र 9/7 12. 13. बारसाणुवेक्खा, श्लोक 2 अ. रा. पृ. 1/331; 5 / 1508; शान्तसुधारसभावना, प्रथम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 3 से 7 14. अ.रा. पृ. 1/844; 5/1508; शान्तसुधारसभावना, द्वितीय भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 8 से 13 15. अ. रा. पृ. 5/1508; 7 / 254; शान्तसुधारसभावन, तृतीय भावनाष्टक; बारसाणुवेखा 24 से 37 16. अ.रा. पृ. 1/33; 5 / 1508; शान्तसुधारसभावन, चतुर्थ भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 14 से 20 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 5. अन्यत्व : जीव और काया (आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न हैं । यह आत्मा (परलोक गमन के समय) इस शरीर को छोड़कर परलोक (परभव) में जाती है अतः उसका क्या करना ? इसलिए हे जीव ! कोई इस शरीर को चंदन से विलेपन करे या दण्ड से हनन करे, धनादि से पोषण करे या उसका हरण करे, उसमें समभाव रख | 17 जो बुद्धिनिधान अन्यत्व भावना को धारण करता है, उसका सर्वस्व नष्ट होने पर भी उसे शोक का एक अंश भी उत्पन्न नहीं होता हैं। 6. अशुचित्व भावना : जैसे लवण समूह में जो भी पदार्थ गिरता है वह लवणवत् (खारा) होता है। वैसे इस अशुचि से भरी हुई काया में जो भी गिरता है वह भी मलमलिन होता है। गर्भावस्था में यह शरीर शुक्र- शोणित के मेल से उत्पन्न होता है। जरायु वेष्टित हों माता के द्वारा किये गये आहार से बढ है । सप्तधातु से निर्मित होता है । स्वादिष्ट खाद्य-पेय पदार्थो का मलरुप में परिवर्तित करता है। जल के सैकड़ों घड़ों से धोने पर या चंदन- कपूर- कस्तूरी आदि से सुवासित करने पर भी क्षण में दुर्गन्धित हो जाता है। इस प्रकार (1) बीज अशुचि (2) अपष्टम्भ अशुचि (3) स्वयं अशुद्धि का भाजन (4) उत्पत्ति स्थान की अशुचि (5) अशुचि पदार्थ का नल (6) अशक्य प्रतीकार और (7) अशुचिकारक होने से शरीर की अशुचिता का विचार कर परमार्थ से सुमतिवान जीवों को इस शरीर में कभी भी मोह (ममता) नहीं करना चाहिए। 7. आस्रव भावना 19 : मन, वचन, काया के योग से जीवों को जो शुभाशुभ कर्मों का आगमन होता है उसे तीर्थंकरों ने आस्रव कहा है। अव्रत, इन्द्रिय, कषाय और क्रिया ये चार आस्रव हैं और मन, वचन, काया उसका कारण हैं। सर्वज्ञ भगवान, गुरु, सिद्धान्त और संघ के गुणवर्णन (स्तुति, प्रशंसा, भक्ति) से, हितकारी सत्य भावना से, देव पूजा, गुरु सेवा, साधु-वैयावृत्य (सेवा) आदि से शुभ कर्म उपार्जन होता है, और आर्त्त ध्यान, रौद्र ध्यान, मिथ्यात्व कषाय विषयाभिलाषा, देव, गुरु संघ और सिद्धान्त की निंदा, उन्मार्ग प्रेरकवचन, मांसाहार, मदिरापान, जीवहिंसा, चोरी, परस्त्रीगमन आदि अशुभ कार्यो से 82 प्रकार से अशुभ कर्मो का उदय होता है। जिससे जीव चतुर्गति भ्रमण करता है। ऐसे आस्रव का स्वरुप ज्ञात कर जो आत्मा आस्रव भावना से मन को भावित करता है वह अनर्थ की परम्परा को उत्पन्न करनेवाले दुष्ट आस्रवों का त्यागकर समस्त दुःखों को नष्ट कर समस्त सुखों की श्रेणीरुप निर्वाण (मोक्ष) रुपी जहाज में नित्य आनंद का पोषण करता हैं। 8. संवर भावना 20 : आस्रवों को रोकना संवर कहा जाता है। वह सर्वथा और देशत: (आंशिक) -दो प्रकार से है। सर्वथा 'संवर' अयोगि केवली भगवान को होता है। देश 'संवर' एक प्रकार से ( मिथ्यात्व का), दो प्रकार से (मिथ्यात्व और अविरति का), और बहुत प्रकार से (मिध्यात्व, चतुर्थ परिच्छेद... [307] अविरति, चारों कषायों के भेद-प्रभेद, मन वचन के योगों का) है और ये प्रत्येक भेद भी द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से हैं। आत्मा (आत्मप्रदेशों) पर संसक्त कर्मपुद्गलों का सर्व से या देश (आंशिक रूप से नाश द्रव्य संवर है। संसार के (कर्मबंधनों के हेतुभूत क्रिया का त्याग भाव संवर है। 5 समिति, 3 गुप्ति, 22 परिषहजय, 10 यति धर्म, 12 अनुप्रेक्षा (भावना) और पाँच चारित्र -ये 57 संवर के हेतु हैं। इसका फल कर्मनिर्जरा और आत्मिक सुख है- एसा चिन्तन करना संवर भावना है। अतः मनीषियों के द्वारा आस्रवों के निरोध के लिए उसके प्रतिपक्षी उपायों का प्रयोग करना चाहिए। जैसे सम्यग्दर्शन और धर्मध्यान के द्वारा मिथ्यात्व और आर्तरौद्र ध्यान को, क्षमा से क्रोध को, नम्रता (मृदुता ) से मान को, सरलता (ऋजुता) से माया को, संतोष से लोभ को, ज्ञान से राग द्वेष और पाँचों इन्द्रियों के विषयों से दूर हटना चाहिए। संवरभावनायुक्त जीव सौभाग्य को प्राप्त करता है और स्वर्ग तथा मोक्ष के सुखों को अवश्य प्राप्त करता हैं। 9. निर्जरा भावना - " I -: संसार (संसार भ्रमण के हेतुभुत कर्म परम्परा को जो नष्ट करती है, वह निर्जरा सकाम और अकाम दो प्रकार से हैं। साधुओं को सकाम निर्जरा होती है। शेष सभी प्राणियों को अकाम निर्जरा होती है। जैसे आम अपना समय होने पर ही पकते हैं और उपाय से भी पकाये जाते हैं। उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान रहित एकेन्द्रियादि प्राणियों के द्वारा शीत, उष्णता, वृष्टि, दहन, छेदन - भेदनादि के द्वारा कष्ट सहन करने से जो कर्म निर्जरा होती है वह अकाम निर्जरा है। और मेरे कर्मो का ( जल्दी से) क्षय नहीं हो रहा है- एसा सोचकर सज्जनों (साधुओं) द्वारा तपस्यादि के द्वारा जो कर्मनिर्जरा की जाती है) वह सकाम निर्जरा है। अनशनादि बारह प्रकार के तप आदि के द्वारा निर्जरा वृद्धि को प्राप्त होती है। अतः संसार और कर्म ममत्व को नष्ट करने के लिए आत्मा को निर्जरा भावना से भावित करना चाहिए। 10. लोक स्वभाव भावना 22 : सिर के बालों की चोटी रहित कोई पुरुष कमर पर हाथ रखकर चौड़ाकर खड़ा हो वैसा लोक का संस्थान (आकार, स्वरुप) है। इसमें नीचे के सात रज्जु प्रमाणवाला अधोलोक, ऊपर के सात रज्जु प्रमाण उर्ध्वलोक और मेरु पर्वत की समभूतला (सपाट पृथ्वी जहाँ आठ रुचक प्रदेश स्थित हैं) से 900 योजन ऊपर और 900 योजन नीचे मध्य लोक है। अधोलोक में सात नारकी परमाधामी और भवनपति देवों का, मध्यलोक में व्यंतर, वाणव्यंतर, ज्योतिष 17. अ.रा. पृ. 5/1508, 1509; शान्तसुधारसभावन, पंचम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 21 से 23 18. अ. रा. पृ. 5/850; 5/1509; शान्तसुधारसभावन, षष्ठ भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 43 से 46 19. अ.रा. पृ. 2/503 5/1509; शान्तसुधारसभावन, सप्तम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 47 से 59 20. अ. रा.पू. 5/850; 7/237; संवर शब्द 238 'संवर भावना'; शान्तसुधारसभावन, अष्टम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 61 से 64 तत्त्वार्थसूत्र 21. अ.रा. पृ. 4/2509 5/1509; शान्तसुधारसभावन, नवम भावनाष्टक; बाररसाणुवेक्खा 66 67 2.अ. रा. पृ. 5/1509, 1510; शान्तसुधारसभावन, अष्टक - 11; बाररसाणुवेक्खा 38 से 42 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [308]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन देव और तिर्यग्नुंभक देव, मनुष्य एवं तिर्यंचो का; और ऊर्ध्वलोक 1. मैत्री भावना - निष्कपट भाव से 'आत्मवत्सर्वभूतेषु'-की सर्वोत्तम में वैमानिक देवों का निवास है तथा संपूर्ण चौदह राजलोक में सूक्ष्म भावनापूर्वक सभी जीवों की हितचिन्ता करना मैत्री भावना है।25 जीव व्याप्त हैं और लोकांत में सिद्धशिला के कुछ ऊपर लोक के 2. प्रमोद भावना - 'नमनप्रसादादिभिर्गुणाधिकेष्वभिव्यज्यमानाअंतिम छोर पर सिद्ध परमात्मा विराजमान हैं (इसका विशेष विस्तृत तर्भक्तावनुरागे' अर्थात् दूसरों के ज्ञान, विवेक, विनय, सुख आदि वर्णन अभिधान राजेन्द्र कोश, लोक प्रकाश, तिलोयपण्णत्ती आदि गुणों में प्रेम रखना या पक्ष करना 'प्रमोद भावना' कहलाती हैं।26 ग्रंथों से ज्ञातव्य है)। 3. करुणा भावना - जीवरक्षा, जयणा, स्व-पर के प्राणों की रक्षा जैनधर्म की प्राप्ति नहीं होने से जीव अनादि काल से इस करना और नाना प्रकार के कष्टों से पीडित प्राणियों के कष्टों को दूर लोक में विभिन्न गतियों में रहा है। मेरा (शुद्धात्मा का स्थान तो करने की इच्छा 'करुणा' कहलाती हैं। लोकांत पर है, जो मुझे प्राप्त करने योग्य है। इसकी प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ 4. माध्यस्थ - अनेक प्रकार के पाप करने में रक्त, दुष्ट, मूढ करने के लिए आत्मा को भावित करना 'लोकस्वरुप' भावना है। और पूर्वाग्रह से गस्त बुद्धिवाले प्राणियों की उपेक्षा करना अर्थात् 11. बोधिदुर्लभ भावना: उनके प्रति भी द्वेष न कर उदासीनता रखना माध्यस्थ भावना जैनधर्म की प्राप्ति की दुर्लभता के विषय में बार-बार चिन्तन कहलाती है।28 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - पूर्वोक्त करना बोधि-दुर्लभ भावना है। यह जीव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय के अनित्यादि भावनाओं के साथ इन मैत्र्यादि चार भावनाओं से युक्त भव में स्वयं के विशिष्ट कर्मो द्वारा इस भयंकर संसार में अनंत पुद्गल आत्मा शीध्र सिद्धि (मोक्ष, मोक्षगति) को प्राप्त करता है। उपाध्याय परावर्तन काल तक भ्रमण करते करते अकाम निर्जरा द्वारा शुभ पुण्य श्री विनयविजयजी महाराजने शान्तसुधारसभावना में मैत्र्यादि चार योग से पञ्चेन्द्रियरुप प्राप्त कर आर्य क्षेत्र, सुजाति, उच्चकुल, निरोगी भावनाओं के विषय में कहा हैकाया, सम्पत्ति, परिवार, राज्य सुखादि प्राप्त किये परन्तु एकमात्र तत्त्वातत्त्व मैत्री-प्रमोदकारुण्य - माध्यस्थानि योजयेत । के विवेचन में कुशल (निर्णायक) बोधि (श्रद्धायुक्त सम्यग्ज्ञान) प्राप्त धर्मध्यानमुपस्कर्तुः, तद्धि तस्य रसायनम्।" नहीं किया। भावनाओं से लाभ :जो जीव इस संसार में एक बार भी सर्वज्ञोपदिष्टा अक्षयमोक्ष धर्मयुक्त ध्यान की सहायता के लिए विद्वानों को चाहिए सुख की जनयित्री बोधि (श्रद्धा) को प्राप्त कर लेता है उसका इतने कि वे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य (दया) और माध्यस्थ - इन चार गुणों लम्बे काल तक संसार भ्रमण नहीं होता। इस जीवने द्रव्य चारित्र का सेवन करें। क्योंकि वह धर्म ध्यान के लिए अमोध औषध तो अनेक बार प्राप्त किये लेकिन सम्यक-ज्ञानोत्पादिका श्रद्धा कभी स्वरुप है। भी प्राप्त नहीं की। इसके अतिरिक्त आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में महाव्रतों जो भी आत्माएँ सिद्ध हुई हैं - हो रही है और होगी की सुरक्षा एवं उचित पालन हेतु 25-25 शुभ भावनाओं का भी वे सब बोधि (सम्यग्दर्शन/शुद्ध श्रद्धा) के महात्म्य से होंगी। इसलिए वर्णन किया है, जो प्रस्तुत शोध प्रबंध के इसी परिच्छेद में पृ. 279 बोधि की उपासना करनी चाहिए। पर दर्शायी गयी हैं। 12. धर्मकोर्हन् : इनसे साधक को सदैव अपनी आत्मा को भावित करते केवलज्ञान से लोकालोक दृष्टा तीर्थंकर ही यथार्थ धर्म कहने रहना चाहिए । इन अनुप्रेक्षाओं के बार-बार चिन्तन से मोह की निवृत्ति में समर्थ हैं, अन्य कोई नहीं। सर्वत्र सभी जीवों पर परोपकार करने होती है और सत्य की प्राप्ति होती है। इन्हें वैराग्य की जननी भी में उद्यत वीतराग कहीं भी, कभी भी, असत्य नहीं बोलते, अत: कहा गया है। सूत्रकृतांग में भी कहा हैउनके कहे हुए धर्म में सत्यता है। सर्वज्ञकथित क्षमादि 10 धर्मो भावणा जोग सुद्धप्पा जले नावावआहिया । के पालन से जीव संसार समुद्र में डूबता नहीं है। स्वेच्छा से हिंसादियुक्त णावाव तीरसंपन्ना सव्वदुक्खा तिउट्ठई 2 पूर्वापरविरुद्ध वचनयुक्त सद्गति का वैरी, कुतीर्थिक-प्रणीत विचित्र जिसकी आत्मा भावना योग से शुद्ध है वह जल में नौका वचनयुक्त धर्म का सम्यक् कथन कैसे संभव होगा ? के समान है। वह तट को प्राप्त कर सब दुःखों से मुक्त हो जाती ___ संसार में साम्राज्य, सम्पत्ति, सद्गुणों का समूह, सौभाग्य की है। शुभ भावनाओं से भावित शुद्धात्मा के पुराने पाप कर्म नष्ट होते प्राप्ति धर्म का ही फल हैं। हैं और नये कर्म नहीं बंधते। सदाकाल पृथ्वी को घेरकर रहा लवण समुद्र पृथ्वी को डुबाता 23. अ.रा.पृ. 5/1333, 1510; प्रवचनसारोद्धार, 67 वाँ द्वार; शान्तसुधारसभावन, नहीं है, सूर्य-चन्द्र अंधकार का नाश करते हैं, वह धर्म का ही द्वादश भावनाष्टक; बाररसाणुवेक्खा 83, 84,86 फल है। धर्म अनाथ का नाथ है, गुणरहित का गुणनिधि, परमहित 24. अ.रा.पृ. 5/1511; शान्तसुधारसभावना, दशम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 68 से 80 चिन्तक धर्म जयवंत है। अर्हत्प्रणीत यह धर्म सत्य है - एसी भावना 25. अ.रा.पृ. 6/285 से आत्मा को भावितकर सर्वसम्पत्कारी धर्म में बुद्धिमान् पुरुष को 26. अ.रा.पृ. 5/501 विशेष दृढ होना चाहिए। 27. अ.रा.पृ. 4/2456; 'दया' शब्द, 2457 'दयालु' शब्द 28. अ.रा.पृ. 6/64 मैत्री आदि चार भावनाएँ : 29. अ.रा.भा. 5/1512 वैराग्यवर्धक इन बारह भावनाओं के अलावा राजेन्द्र कोश 30. शान्तसुधारसभावना में आचार्यश्रीने मैत्री आदि चार भावनाओं का भी वर्णन किया है। 31. अ.रा.भा. 5/1515 32. सूत्रकृतांग 1/15; आचारांग 1/1/1; प्रश्नव्याकरण, संवर द्वार Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [309] अनुप्रेक्षा से आयुष्य कर्म के अलावा गाढ बंधन से बँधी (5) निमित्त - निमित्त विषयक ज्ञान से भूत-भावि और वर्तमान हुई सात प्रकृतियों को शिथिलबंधन से बद्ध अर्थात् अपवर्तन आदि के विषय में भविष्य कथन करना - निमित्त भावना हैं। करण योग्य करता है, तथा तीव्ररसवाली अशुभ प्रकृतियों को मन्द यह भावना साधु यदि ऋद्धि, रस या शाता की इच्छा से रसवाली बनाता है। यदि आयुष्यकर्म का बंध करे तो देव गति का रहित निर्णायक ज्ञानयुक्त होकर शासन प्रभावना हेतु करता है तो वह ही आयुष्यबंध करता है तथा असाता वेदनीय तथा दूसरी अशुभ तीर्थ (धर्म) की उन्नति करता है और उच्च गोत्र का बंध होता है प्रकृतियों का बार-बार बंध नहीं करता और अनादि अनंत दीर्धकाल और यदि ऋद्धि आदि गारव (गौरव) की इच्छा से करता है तो आभियोगिक वाले चतुर्गति रुप संसार अरण्य को मुनि शीध्र पार कर जाते हैं। (निम्न) देव गति में उत्पन्न होता हैं।" इनके अभ्यास से शारीरिक एवं सांसारिक आसक्ति मिटती है और (4) आसुरी भावना - आसुरी भावना पाँच प्रकार की हैंआत्मविकास होता है। क. सदा विग्रहशीलत्व (कलहप्रियता) अन्य अपेक्षा से भावनाओं का वर्गीकरण : ख. संसक्त तप - आहारादि की इच्छा से तप करना अभिधान राजेन्द्र कोश में एक अन्य प्रकार से भावनाओं ग. निमित्त कथन - अभिमान से अष्टाङ्ग निमित्त का कथन के दो वर्ग बताये गये हैं - द्रव्य भावना और भाव भावना । करना। (1) द्रव्य भावना - धनुविद्या, शब्दवेध, अश्वविद्या, गजविद्या आदि घ. निष्कृपालुता - गमना-गमन, आसानादि में स्थावरादि का अभ्यास, चित्रकलादि अनेक कलाओं का अभ्यास आदि द्रव्य जीवों की दयापालन में प्रमाद कर पश्चाताप नहीं करना। भावना हैं। (2) भाव भावना - यह भावना दो प्रकार से हैं ङ निरनुकम्पत्व - क्रूरता सेअनुकम्पायोग्य जीवों के उपर भी अनुकम्पा (दया) न करना इस भावना से जीव आसुरी (क) असंक्लिष्ट भाव भावना / प्रशस्त भावना : गति प्रायोग्य कर्म बांधकर असुरकुमारादि (भवनपति) देवों प्राणातिपातादिविरमण रुप पाँच महाव्रतों की सुरक्षा एवं दृढता में उत्पन्न होता है। हेतु ईर्यासमिति पालन आदि पच्चीस भावनाएँ असंक्लिष्ट भाव-भावना है जिनका यथायोग्य वर्णन शोध प्रबंध के इसी परिच्छेद में यथास्थान (5) सम्मोही भावना - सम्मोही भावना पाँच प्रकार की किया गया हैं। (ख) संक्लिष्ट भाव-भावना/अप्रशस्त भावना : (1) उन्मार्ग देशना - ज्ञानादि को दूषित नहीं करते हुए रत्नत्रय से विपरीत मार्ग का उपदेश देना। जिसमें जीव के परिणाम राग-द्वेषादि क्लेशयुक्त रहते हैं (2) मार्गदूषणता - अभिमान से साधु को जाति आदि का और जिसमें सदसद् विवेक नहीं रहता, उसे संक्लिष्ट भावना या अप्रशस्त दूषण देना। भावना कहते हैं। यह पाँच प्रकार से हैं।38 (3) मार्गविप्रतिपत्ती - ज्ञानादि मार्ग को असदूषण से दूषित (1) कंदर्प भावना - (1) कंदर्प (काम) (2) कौत्कुच्य (3) कर जमालिवत् एकदेश से उन्मार्ग देशना देना। दुःशीलत्व (4) हास्य (5) परविस्मयकरण - इस पाँचों प्रकार (4) मोह - परतीर्थिकों (अन्य दर्शनियों) की अनेक प्रकार की के सेवन से कंदर्प भावना होती है। इससे जीव द्रव्य चारित्र समृद्धि और चमत्कार देखकर मोहित होना। का पालन करने पर भी भाव संक्लिष्ट होने से कंदर्प देवों (5) मोहजनकत्व - स्वभाव से या कष्ट से दूसरों को अन्य में उत्पन्न होकर विट् (भाण्ड) की तरह रहता हैं।39 दर्शन में मोह पैदा करवाना इससे बोधिलाभ नहीं होता। (2) किल्बिषी भावना - (1) श्रुतज्ञान (2) केवलि भगवंत ये 25 संक्लिष्ट भावनाएँ अशुभ, और सम्यक् चारित्र में (3) धर्माचार्य (4) श्री सङ्घ और (5) साधु भगवंत की निंदा विघ्नकारी होने से मुनियों को त्याज्य हैं। इनके निरोध से सम्यक से किल्बिषी भावना उत्पन्न होती है जिससे जीव अस्पृश्यवत् चारित्र की प्राप्ति होती है।45 किल्बिषिक नामक देवों में उत्पन्न होता है।40 (3) आभियोगी भावना - यह भावना पाँच प्रकार से हैं - (1) कौतुक - शिशुओं की बीलग्रह आदि रोगों से रक्षा हेतु धूपादि करना, होम करना, अभिमंत्रण करना-कौतुक 33. अ.रा.भा. 1/389 अभियोगी भावना है। 34. अ.रा.भा. 1/389 (2) भूति कर्म - शरीर या पदार्थ (बर्तनादि) या स्थान की 35. अ.रा.भा. 1/389 36. अ.रा.भा. 5/1511 रक्षा हेतु भस्म, धागादि करना-भूति कर्म है। 37. वही, पृ. 1511, 1512 (3) प्रश्न - दूसरों को लाभालाभ के विषय में पूछना या । 38. वही,पृ. 1511 स्वयं अंगूठा, दर्पण, तलवार, जलादि में देखना या दिखाना 39. अ.रा.पृ. 5/1511, 1513 - वह प्रश्न भावना है। 40. अ.रा.पृ. 5/1513 प्रश्नाप्रश्न - स्वप्न में या देवता के द्वारा घटिकादि में 41. अ.रा.पृ. 5/1514 42. अ.रा.पृ. 5/1514 अवतरित होकर या विद्या के द्वारा दूसरों के विषय में 43. अ.रा.भा. 5/1514 शुभाशुभ का कथन, प्रश्नाप्रश्न भावना हैं। 44. वही 45. वही; प्रवचनसारोद्धार, 73 वाँ द्वार Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तप 'तप' - यह शब्द केवल दो अक्षरों का मेल, गम्भीर अर्थ का द्योतक हैं। या कहा जाये कि मोक्ष के द्वार को खोलने की चाबी हैं। जहाँ महाव्रतादि मुख्यरुप से शुभास्रव के कारण के रुप में माने जाते हैं, वहीं तप शुभाशुभ कर्मों को रोकनेवाला अर्थात् संवरद्वार है साथ ही निर्जरा का मुख्य कारण माना जाता हैं, अर्थात् यह मोक्षद्वार भी है। यों तो सभी प्रकार की धार्मिक क्रियाएं सामान्य रुप से तप के अन्तर्गत आ सकती हैं, किन्तु यहां पर 'तप' शब्द से कुछ विशेष अर्थ अभिप्रेत हैं । अभिधान राजेन्द्र कोश में स्थान-स्थान पर तप और उससे सम्बन्धित शब्दों पर तप विशेष के बारे में गहन तथ्य अनुस्यूत हैं। आगे के कुछ अनुच्छेदों में 'तप' का अनुशीलन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया हैं। [310]... चतुर्थ परिच्छेद 'तप' शब्द की व्युत्पत्ति अभिधान राजेन्द्र कोश में 'तप' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य श्रीने कहा है जिसके द्वारा तपा जाये, वह तप है । जो कर्मों को तपाता है, जलाता है, वह तप है; जोआठ प्रकार के कर्मो को तपाता है, उसका नाम तप है' । तप की परिभाषाएँ : अभिधान राजेन्द्र कोश में तप की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए आचार्य श्रीने कहा है + जो रसादि धातुओं को अथवा कर्मो को तपाता उसे 'तप' कहा जाता है' । इसी प्रकार तप की नैरुक्तिक (शाब्दिक) परिभाषा करते हुए कहा है - जिस अनुष्ठान या साधना से शरीरगत रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र ये सात धातु तपाये जाते अथवा जिसके द्वारा अशुभ कर्मों को तपाया जाता है, उसका नाम 'तप' हैं'। इसके अतिरिक्त 'तप' की एक अन्य परिभाषा भी कोशकार आचार्यश्री ने की है, वह है- देहे दुक्खं महाफलम् । अर्थात् "देह का दमन करना तप है, वह महान फलप्रद है अर्थात् क्षुधा, पिपासा आदिपरिषहों (शारीरिक कष्टों) को समतापूर्वक सहना भी तप है', इससे मोक्ष फल की प्राप्ति होती हैं। (आ) तप की भाव प्रधान परिभाषा : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने तप की शाब्दिक परिभाषा के साथ ही भावपरक - (अर्थपरक) परिभाषा बताते हुए कहा है - इच्छानिरोध (इच्छाओं को रोकने) रुप तप से ही मोक्ष प्राप्त होता है । पूर्वाचार्योने भी कहा है- उद्देश्यपूर्वक इच्छाओं का निरोध करना ही तप है' । प्रत्याख्यान त्याग से इच्छाओं का निरोध हो जाता है त्याग से आशा, तृष्णा व इच्छाओं का शमन हो जाता है । अन्यथा इच्छाएँ तो आकाश के समान अनन्त हैं।"; उनका कोई आदि-अन्त नहीं; उन पर विजय पाना बडा कठिन है। अनगारधर्मामृत में भी कहा है कि मन-वचन काया के तपने से अर्थात् सम्यग् रुप से निवारण करने से; सम्यग्दर्शनादि को प्रगट करने के लिए इच्छानिरोध को तप कहते हैं। 2 । वैतृष्ण्य की सिद्धि के लिए धीर पुरुष को नित्य तप करना चाहिए । उपर्युक्त शाब्दिक एवं भावपरक पारिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष यह है कि एक ओर तपश्चरण से देह क्षीण होती है, तो दूसरी ओर कर्म भी निर्मूल होते हैं। इस प्रकार तप देहगत और आत्मगत दोनों दृष्टियों से सार्थक हैं। तप के दो रूप : अभिधान राजेन्द्र कोश में वैसे तो आचार्य श्रीने तप के विविध रूपों की चर्चा स्थान-स्थान पर की है लेकिन वे सब जिसमें सम्मिलित हैं से दो रुप मुख्यतः चर्चित हैं- बाह्य तप और आभ्यन्तर तप 14 | बाह्य तप हमारी देह पर प्रभाव डालता है तो आभ्यन्तर तप - आत्मा व मन पर। जैन परम्परा में तप की विधि बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होती गयी हैं। वह बाहर से भीतर की ओर बढती है । आभ्यन्तर तप से मानसिक विशुद्धि, सरलता व एकाग्रता की विशेषसाधना होती है, तो बाह्य तप द्वारा साधक अपने तन-मन को साध लेता है, सहिष्णु बना लेता है और उसके दोषों का संशोधन कर लेता है। बाह्य तप से आभ्यन्तर तप की ओर बढने के लिए बाह्य तप का क्रम प्रथम रखा गया है 15 । बाह्य तप : बहिर्भव बाह्यम्" । अर्थात् स्पष्ट, नेत्रों से दिखनेवाला बाह्य तप बाहरी वस्तु के त्याग की अपेक्षा रखता है, जिसकी कष्टमयता जनसाधारण जान सकते हैं और जो मुख्यरुप से शरीर (कार्मण शरीर) को तपाये उसे बाह्य तप की संज्ञा दी गयी हैं" । अनशनादि बाह्य तप के आचरण से इन्द्रियों का दमन सहजतया हो जाता है, चित्त की चंचल वृत्तियों पर नियंत्रण करने का सामर्थ्य प्रकट होता है और शरीर कष्ट सहने के लिए अभ्यस्त हो जाता है। 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. अ. रा.पू. 7/60; उत्तराध्ययन 4/8 9. मोक्षपञ्चाशत् 48; अनगार धर्मामृत - 7 / 2; धवला टीका-13/5, 4 10. अ. रा. पृ. 5/103; उत्तराध्ययन सूत्र - 29/3; जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश 2/358 अ.रा. पृ. 4 / 1817; उत्तराध्ययन सूत्र 11. इच्छा हु आगास समा अणंतिया 9/48 अ. रा. पृ. 4 / 2199; जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश 2/358 अ. रा. पृ. 4/2199; पञ्चाशक सटीक विवरण 16 14. 15. 12. अनगार धर्मामृत 7/2, पृ. 492 13. वही 7/1 16. 17. अ.रा.पृ. 4/2199; अ. रा. पृ. 4/2199; अ. रा.पू. 4 / 2199; धर्मामृत अनगार - 7/3; अनगार धर्मामृत, पृ. 493 अ. रा. पृ. 5/643; दशवैकालिक सूत्र- 8/27 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 2/358 अ.रा. पृ. 4/2200; भगवती सूत्र- 25/7 धर्मामृत अणगार 7/5 अ. रा. पृ. 5 / 1321; अ. रा. पृ. 5 / 1321; धर्मामृत अणगार- 7/6 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन बाह्य तप के छह प्रकार : बाह्य तप के छह भेद हैं- अनशन, ऊनोदरिका, वृत्तिसंक्षेप ( भिक्षाचरी), रसपरित्याग, कायक्लेश, और संलीनता " । (1) अनशन तप : अश्यते भुज्यते इत्यशनम् । जो खाया जाता है, उसे 'अशन' कहते हैं। अशन का अभाव अनशन है 'न अशनं इति अनशन' । अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के आहार का संपूर्ण रुप से त्याग करना 'अनशन' कहलाता हैं" । अनशन तप के प्रकार : - अनशन तप के दो भेद हैं- इत्वरिक अनशन और यावत्कथिक अनशन 20 । इत्वरिक अनशन अल्प समय के लिए होता है। इत्वरिक अनशन सावकाश होता है क्योंकि इसमें समय-मर्यादा रहती हैं। निश्चित समय के पश्चात् ही आहार की इच्छा होती है अथवा आहार ग्रहण किया जाता है जबकि यावत्कथिक तप में आजीवन भोजन की आकांक्षा नहीं रहती । उसमें जीवन पर्यंत संपूर्ण आहार का त्याग होता है। इसलिए उसे निरवकाश तप कहा गया है 2" । 1. इत्वरिक अनशन तप :- इत्वरिक अनशन तप अनेक प्रकार का है, यथा चतुर्थभक्त (अर्थात् उपवास से एक दिन पूर्व एकाशन, उपवास के दिन दो समय भोजन कात्याग और पारणा के दिन पुनः एकाशन करना। इस प्रकार चार समय के भोजन के त्याग को चतुर्थभक्त कहते हैं), षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त आदि से लेकर एक-एक दिन बढाते हुए छ: मास पर्यंत का उपवास 'इत्वरिक अनशन' तप माना गया है 22 । परवर्ती परम्परा की अपेक्षा से दो घडी (48 मिनिट) अर्थात् नवकारसी (सूर्योदय से 48 मिनिट तक सर्व प्रकार के आहार पानी का त्याग) से लेकर छह महीने पर्यंत का उपवास 'इत्वरिक अनशन' तप में आता है 23 | श्रमण भगवान महावीर के तीर्थकाल में इत्वरिक अनशन तप उत्कृष्ट छः मास का होता है। बीच में बाईस तीर्थंकर के शान में आठ मास का और ऋषभदेव के तीर्थ में उत्कृष्ट तप एक वर्ष का माना गया है 24 1 अभिधान राजेन्द्र कोश में इत्वरिक तप संक्षेप में छः प्रकार का बताया गया है (1) श्रेणि तप (2) प्रतर तप (3) धन तप (4) वर्ग तप (5) वर्ग-वर्ग तप और (6) प्रकीर्ण तप । छः प्रकार का यह इत्वरिक अनशन तप मनोवाञ्छित फल देनेवाला है 25 | 2. यावत्कथित अनशन तप: यावत्कथिक अनशन तप जीवन भर के लिए होता है। जब सेअनशन लिया जाता है तब से लेकर मृत्यु पर्यंत तीन अथवा चारों आहारों का त्याग यावत्कथित तप के अन्तर्गत आता है26 । मृत्युकाल में जो यावत्कथिक अनशन किया जाता है, वह कायिक चेष्टा की अपेक्षा से सविचार और अविचार - दो प्रकार का कहा गया है 27 जिसमें शारीरिक चेष्टाओं के व्यापार चालू हो, वह सविचार अनशन तप है और जिसमें समस्त कायिक क्रियाएँ बन्द हों, वह अविचार अनशन तप हैं 28 । प्रकारान्तर से आजीवन अनशन तप के सपरिकर्म और अपरिकर्म चतुर्थ परिच्छेद... [311] दो प्रकार हैं- जिसमें कायिक चेष्टा की जाये वह सपरिकर्म और कायिकचेष्टारहित अपरिकर्म होता है। वह वृक्ष की भाँति शरीर से निष्कम्प रहता है। व्याघात और निर्व्याघात की अपेक्षा से इसके भी दो भेद हैं- निहारी और अनिहारी। इन दोनों अनशनों में आहार का त्याग होता ही है 29 आजीवन अनशन तप के काययोग की अपेक्षा से तीन भेद हैं - पादपोगमन, इङ्गितमरण और भक्तपरिज्ञा " । (i). पादपोपगमन अनशन 'पादप' अर्थात् वृक्ष । प्रथम संहनन और प्रथम संस्थानवाले महापुरुष का योग्य स्थान में जाकर चारों आहार का त्याग कर वृक्ष की तरह खड़े-खडे या बाँयी ओर करवट करके ( गिरे हुए वृक्ष की तरह) समस्त प्रवृत्ति का त्याग करके मृत्यु पर्यंत उसी स्थिति में निश्चल रहना पादपोपगमन अनशन है। इस अनशन में देव मनुष्य-तिर्यंचकृत अनुलोम (अनुकूल) या प्रतिलोम (प्रतिकूल) उपसर्गों में या अन्य उपसर्ग या किसी भी प्रकार की किसी भी परिस्थिति अङ्गोपाङ्गों को स्वयं के द्वारा अंशमात्र भी चलायमान नहीं किया जा सकता; तपस्वीपुरुष सभी स्थितियों में मेरु पर्वत की तरह अचल रहते हैं। विशिष्टधैर्ययुक्त प्रथम संहननवाले महापुरुष रोगादि कारण से धर्मपालन में असमर्थ होने पर अथवा मरण सन्निकट होने पर पादपोपगमन अनशन को धारण करते हैं" । इसके दो प्रकार हैं- निर्धारिम और अनिर्धारिम । (क) निर्धारिम साधक जब गाँव आदि में इस अनशन को ग्रहण करते हैं, उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीर को निकालना (परठना) पडता है, उसे निर्धारिम पादपोपगमन अनशन कहते हैं 32 । अनिर्धारिम- साधक जब गाँव के बाहर इस अनशन को ग्रहण करते हैं, तब उनकी मृत्यु के पश्चात् शरीर 18. अ. रा. पृ. 5/2200; मरण समाधि प्रकीर्णक-127; पुरुषार्थद्धयुपाय-198; धर्मामृत अणगार - 7 / 11, 20, 26, 27, 30, 32; तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 19; मूलाचार - 346; भगवती आराधना-208; द्रव्य संग्रह - 57/228 अ.रा. पृ. 1/303; भगवती आराधना-विजयोदया टीका-6/32/14 अ. रा. पृ. 1/302; भगवती सूत्र - 25/7; मूलाचार - 347 अ. रा.पू. 1/302-303; उत्तराध्ययन सूत्र सटीक 30/9; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 1/65; मूलाचार - 349 22. अ. रा. पृ. 1/302; भगवती सूत्र- 25/7; चारित्रसार - 134/2; मूलाचार-347, 19. 20. 21. 23. 24. 25. 26. (ख) 27. 28. 348 अ. रा. पृ. 1/302-303; भगवती सूत्र 25/7 अ. रा.पू. 1/302; भगवती सूत्र- 25/7 अ. रा. पृ. 1/303; उत्तराध्ययन सूत्र 30 / 10, 11 अ.रा. पृ. 1/302, 303; भगवती सूत्र - 25/7; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 1/65 अ. रा. पृ. 1/303; उत्तराध्ययन-30/2 अ. रा. पृ. 1/303; उत्तराध्ययन सूत्र सटीक - 30/2 29. अ. रा. पृ. 1/303-304; उत्तराध्ययन सूत्र -30/13 अ.रा. पृ. 1/302; मूलाचार-152 30 579; 31. अ. रा.पू. 5/819 से 821, 6/110, 1/303; व्यवहार सूत्र - 544 भगवती सूत्र - 25/7; पञ्चाशक- 19 विवरण; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 4/387 32. अ. रा. पृ. 4/2156, 5/819; भगवती सूत्र - 2/1 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [312]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन को निकालने की आवश्यकता नहीं रहती अत: उसे -इस गाथा का, सामायिक व्रत (करेमि भंते) का, और पाँच अनि रिम पादपोपगमन अनशन कहते हैं। महाव्रत तथा छठे रात्रिभोजन-विरमण व्रत के सूत्रपाठ का तीन बार (ii) इङ्गिनी मरण - नियत किये हुए मर्यादित स्थान में ही उच्चारण करवाते हैं, प्राणातिपातादि अठारह पापस्थानों का त्याग करवाते गमनागमन करना इङ्गिनीमरण अनशन है। इस अनशन में हैं; तत्पश्चात् साधक गुरु, साधु आदि को वंदन करके अरिहंतादि यावज्जीव चारों प्रकार के आहार का सर्वथा त्याग किया जाता पाँचो की साक्षी से भवचरिम प्रत्याख्यानपूर्वक तीनों या चारों आहार है, शरीर-शुश्रूषा स्वयं कर सकते हैं लेकिन दूसरों से नहीं का त्याग करता है; तत्पश्चात् 'नित्थार पारगाह होह' -एसा बोलते करवा सकते और मर्यादित भूमि से बाहर भी नहीं जा सकते। हुए समस्त संघ (गुरु सहित) अनशनव्रती के शिर पर वासक्षेप करता ___ प्रथम संहनन, धृति, बल आदि के अभाव में __ है। इसके बाद अनशनव्रती को प्रतिदिन संवेगजनक उत्तराध्ययनदि पादपोपगमन अनशन स्वीकारने में असमर्थ परंतु प्रथम तीन सूत्रोक्त धर्मकथाएँ सुनाई जाती हैं। संहननवाला, नवपूर्वधर या दशपूर्वधर या ग्यारह अङ्गो के अनशनग्राही यदि श्रावक हो तो सम्यकत्व की गाथा के ज्ञाता, प्रतिलेखन-प्रत्युपेक्षण, प्रतिक्रमणादि क्रियाओं में समर्थ, स्थान पर सम्यक्त्वदंडक (सूत्रपाठ) और पञ्चमहाव्रत के स्थान पर 12 विशिष्टधैर्ययुक्त मुनि मरण का आसन्न समय होने पर संलेखना व्रत उच्चारण करवाते हैं। श्रावक सात क्षेत्रों (जिन मंदिर-जिन प्रतिमा, ग्रहण करके दीक्षा के दिन से तब तक के दोषों की गुर्वादि साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका-ज्ञान भण्डार) में यथाशक्ति धनव्यय के समक्ष आलोचना करके चारों आहार के त्यागपूर्वक धूप करता है। से छाँव, छाँव से धूप आदि में नियत प्रदेश में गमनागमन इस अनशन में यथावसर सामग्री उपस्थित होने पर संथारा करता हुआ आवश्यक क्रिया करता है और समभाव से धर्मध्यान और दिशा का भी प्रत्याख्यान करवाया जाता है। अनशनव्रती साधु में रहकर प्राण/देह त्याग करता है,उसे इंगिनीमरण कहते हैं | के द्वारा देह त्याग करने पर अन्य साधुओं के द्वारा उनके शरीर का (iii) भक्तप्रत्याख्यान अनशन :- अभिधान राजेन्द्र कोश में सविधि परिष्ठापन किया जाता है। आचार्यश्रीने कहा है कि संलेखनापूर्वक तीन (पानी को छोडकर) काल - इस अनशन का काल जघन्य से छ: मास और उत्कृष्ट या चारों प्रकार के आहार का यावज्जीव त्याग करनेपूर्वक 12 वर्ष तक का है। सविधि अनशन स्वीकार करना - भक्तप्रत्याख्यान अनशन अधिकारी - प्रथम संहनन को छोडकर सभी सर्वविरतिधर है । यह भक्तप्रत्याख्यान अनेक प्रकार का हैं। और देशविरतिधर इसे ग्रहण कर सकते है। इस अनशन' का विशेष 1. सपराक्रम - जो भक्त प्रत्याख्यान अनशनधारी दूसरों विवेचन जिज्ञासु को अभिधान राजेन्द्र कोश में 'भत्तपच्चक्खाण' शब्द के स्वयं के हेतु आहार-निहार हेतु जाने में समर्थ पर द्रष्टव्य है। हो, उसे 'सपराक्रम' कहते हैं। (2) ऊनोदरिका तप :2. अपराक्रम - जिनमें उक्त सामर्थ्य नहीं होता उन्हें 'ऊनोदरिका' शब्द को प्राकृत में ऊणोदरिया' या 'ऊणोदरिका' अपराक्रम भक्त प्रत्याख्यान कहते हैं। या 'अवमोदरिका' शब्द से व्यवह्नत हुआ है। इन दोनों भेदों के भी निम्नानुसार दो भेद हैं - अभिधान राजेन्द्र कोश में इसकी परिभाषा बताते हुए कहा 1. व्याघात - जिसमें मनुष्य, तिर्यंच, देवतादिकृत है -“अवममूनमुदरं यस्य सोऽवमोदरः अवमोदरस्य वा करणम् उपसर्ग होते हो या कर्मोदय से रोगादि की अवमोदरिका ।"42 अथवा "ऊनम् उदरं ऊनोदरं तस्य करणं भावे उत्पत्ति हो, वह व्याघात अनशन है। ऊनोदरिका।"49 अर्थात् अपनी आहारमात्रा से उदर में कम खाना, निर्व्याघात - जिसमें उक्त कोई भी उपसर्ग या जितनी भूख हो उससे कम खाना 'ऊनोदरिका' या 'अवमोदरिका' न हो, वह निर्व्याघात अनशन है। कहलाती है। इस तप की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा हैस्थानांग में भक्त प्रत्याख्यान के निर्हारिम (गाँव आदि में) अवि ओमोदरियं कुज्जा - अवमोदरिका व्रत करना चाहिए अर्थात् और अनि रिम (अरण्यादि मे) - ये दो प्रकार पादपोपगमनवत् दर्शाये भूख की अपेक्षा कम खाना चाहिए। गये हैं। 33. अ.रा.पृ. 1/340, 5/819; भगवती सूत्र-2/1; विधि - गुरु भक्तपरिज्ञादि अनशन ग्रहण करनेवाले आचार्य या 34. अ.रा.पृ. 2/559, 550; समवयांग-17 वाँ समवाय; उत्तराध्ययन सूत्रमुनि की परीक्षा करके तथा विशिष्ट अतिशय ज्ञान या देवता के द्वारा अध्ययन-5; स्थानांग-ठाणां-2; व्यवहार सूत्र वृत्ति-2/10; निशीथचूर्णिसुभिक्ष, दुर्भिक्ष, स्वचक्र-परचक्रभयरहितता, क्षेत्रादियोग्यता एवं अनशनतप || वाँ उद्देश; पञ्चवस्तु सटीक-2 द्वार; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/386 35. अ.रा.पृ. 5/1342, 1360; उत्तराध्ययन पाईयवृत्ति-अध्ययन-5; धर्मसंग्रहधारक में तप, सत्त्व, सूत्र,एकत्व, धृति आदि बल, कषायादि संलेखना 3/1513; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/387, 388 की योग्यता देखकर शुभ-प्रशस्त-योग मुहूर्तादि में उन्हें विधिपूर्वक 36. अ.रा.पृ. 5/1343; व्यवहार सूत्र-10/397-398 अनशन उच्चारण करवाते हैं - चतुर्विध संघ की उपस्थिति में अभिमंत्रित ____37. अ.रा.पृ. 5/1342; स्थानांग 2/4 वासक्षेप करते है, देववंदन करवाते हैं, बाल्यकाल से तब तक के 38. अ.रा.पृ. 5/1342 से 1358; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/387, 388 दोषों की आलोचना देते हैं, चतुर्विध-संघ से क्षमापना करवाते हैं, 39. अ.रा.पृ. 5/1358 40. अ.रा.पृ. 5/1344; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/387 यथा - 41. अ.रा.प. 5/1335; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/387 "अरिहंतो मह देवो, जावज्जीव सुसाहुणो गुरुयो। 42. अ.रा.पृ. 3/91; स्थानांग सटीक-3/3 जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियम्॥" 43. अ.रा.पृ. 2/1209; उत्तराध्ययन सटीक 30/8; धवला टीका 13/5, 4 44. अ.रा.पृ. 2/616; आचारांग 1/5/4/164; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/200 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [313] पुरुष का आहार 32 कवल और स्त्री का आहार 28 कवल के आहार का बतीसवाँ भाग एक कवल कहलाता है। बताया गया है। इससे एक ग्रास भी कम खाने को ऊनोदरिका एसे बत्तीस कवल प्रमाण आहार ग्रहण करना भावकुक्कुटी तप कहते हैं। ऊनोदरिका के प्रकार - हितकारी- द्रव्य से अविरुद्ध, प्रकृत्यानुसार, और दोष रहित अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'ऊनोदरिका द्रव्य एषणीय आहार करनेवाले, और भाव भेद से दो प्रकार की बतायी है। प्रकारान्तर से 1. मिताहारी - प्रमाणसर (32 कवल) आहार करनेवाले द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल 4. भाव और 5. पर्याय भेद से इसके अल्पाहारी - भूख से कम आहार करनेवाले साधुओं की पाँच प्रकार हैं। वैद्य चिकित्सा नहीं करते, उनको रोग नहीं होते क्योंकि वे 1. द्रव्य ऊनोदरिका- आहार-पानी, वस्त्र-पात्रादि आवश्यकता स्वयं ही स्वयं के वैद्य हैं ।54 से अल्प लेना द्रव्य ऊनोदरिका है। इसी प्रकार पानी की भी ऊनोदरिका जाननी चाहिए। यहाँ 2. क्षेत्र ऊनोदरिका - निश्चित किए गए ग्राम-नगरादि स्थान पुरुष के समान स्त्रियों के लिए भी ऊनोदरिका तप बताया गया हैं। से ही गोचरी (आहार) ग्रहण करना, क्षेत्र ऊनोदरिका है। ___(3) वृत्ति-संक्षेप (भिक्षाचरी) तप :काल ऊनोदरिका - गोचरी के लिए निश्चित किए गए अभिधान राजेन्द्र कोश में तृतीय बाह्य तप 'वृत्तिसंक्षेप' समय पर ही आहार ग्रहण करना, अन्यथा नहीं लेना, काल की परिभाषा बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है - "वृत्तेभिक्षाचर्यारुपाया: ऊनोदरिका है। संक्षोपोऽभिग्रहविशेषात् संकोचनं वृत्तिसंक्षेपः ।''55 अर्थात् अभिग्रह विशेष 4. भाव ऊनोदरिका - भिक्षा लेने जाते समय विविध प्रकार से भिक्षा का संकोच करके निर्दोष पदार्थ की गवेषणा के लिए भ्रमण के अभिग्रह ग्रहण करना, भाव ऊनोदरिका है। करना 'वृत्तिसंक्षेप' तप है। इसी प्रकार एक अन्य परिभाषा के अनुसार 5. पर्याय ऊनोदरिका - उपर्युक्त चारों भेदों को जीवन में "वृत्तेभिक्षाचर्यायाः संक्षेपणमल्पताकरणं वृत्तिसंक्षेपणं द्रव्याद्यभिग्रहणम्। आत्मसात् करते रहना पर्याय ऊनोदरिका हैं। अर्थात् उपयोग में आने वाले खाने-पीने के पदार्थो को अभिग्रह के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव - इन चारों नियमों-पर्यायों द्वारा सीमित करना, अल्प करना 'वृत्तिसंक्षेप' तप है। 'वृत्ति संक्षेप' को अपनाते हुए जो भिक्षु भिक्षाचरी/गोचरी करता है, उसे 'पर्यवचर' का दूसरा नाम 'भिक्षाचरी' है।57 भिक्षु कहा गया है। (4) रस-परित्याग तप :अभिधान राजेन्द्र कोश में आगे द्रव्य ऊनोदरिका के दो भेदों का बाह्य तप के छह भेदों में 'रस-परित्याग' चौथा भेद है। उल्लेख किया है। रस-परित्याग तप का मूल प्रयोजन रसनेन्द्रिय-विजय है58 । अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने "पौष्टिक भोजन, दूध, दही, घी, मिठाई क. उपकरणद्रव्य ऊनोदरिका - वस्त्र-पात्रादि उपयोगी एवं आदि कामोत्तेजक रसमय पदार्थो का त्याग करना" 'रस-परित्याग'59 आवश्यक वस्तुओं की जो मर्यादा है, उससे कम वस्तुएँ तप कहा है। रखना - उपकरणद्रव्य ऊनोदरिका हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में इस तप के अनेक प्रकार बताये ख. भक्त-पानदव्य ऊनोदरिका - स्त्री के आहार का प्रमाण 28 हैं, जैसे - दुग्धादि विकृति (विगई) से रहित आहार करना, प्रणीत कवल है और पुरुष के आहार का प्रमाण 32 कवल और (घी से अत्यन्त गरिष्ठ) आहार का त्याग करना, षड्विकृति (छह विगई) नपुंसक के आहार का प्रमाण 24 कवल हैं। इसमें से जितने से रहित आयंबिल का भोजन करना, धान्य आदि के धोवन में से कवल कम खाया जाय, उसे 'भक्ति-पान ऊनोदरिका' कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 'कवल' का 45. अ.रा.पृ. 2/549; पिण्डनियुक्ति गाथा-642, पृ. 1210; मूलाचार-350; प्रमाण मुर्गी के अण्डे के बराबर बताते हुए उसे 'कुक्कुटी' अनगार धर्मामृत-7/22 शब्द से परिभाषित किया है। वह 'कुक्कुटी' दो प्रकार की 46. अ.रा.पृ. 2/1209; भगवती सूत्र-25/7 47. अ.रा.पृ. 2/1209; उत्तराध्ययन-30/14 है - 'द्रव्यकुक्कुटी' और 'भावकुक्कुटी'52। 48. अ.रा.पृ. 2/1213; उत्तराध्ययन सटीक -30/24 द्रव्यकुक्कुटी :- द्रव्य कुक्कुटी के भी दो भेद हैं - उदरकुक्कुटी 49. अ.रा.पृ. 2/1209; भगवती सूत्र-25/7 और गलकुक्कुटी। उदर-पूर्ति जितने आहार से हो, उतना ही 50. वही आहार लेना; उससे हीनाधिक आहार न लेना उदरकुक्कुटी है। 51. अ.रा.पृ. 2/1210; भगवती सूत्र सटीक-2511 आहार का बत्तीसवाँ भाग एक कवल कहलाता है। अथवा 52. अ.रा.पृ. 2/549; भगवती सूत्र सटीक-25/7 जितना बड़ा कवल मुँह में रखते हुए मुँह, आँखे, भौहें आदि 53. वही 54. पिंड नियुक्ति-648 विकृत न हो, उतने प्रमाण का कवल या जो सुखपूर्वक 55. अ.रा.पृ. 6/1192; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/580 मुँह में रखा जा सके उतने प्रमाण का कवल ग्रहण करना 56. अ.रा.पृ. 6/1192; पञ्चाशक सटीक विवरण 19 गलकुक्कुटी है। . 57. अ.रा.पृ. 6/1590; उत्तराध्ययन सूत्र-30/25; भगवती आराधना-218 से भावकुक्कुटी:- भावकुक्कुटी के अन्तर्गत जितनी आहारमात्रा 221; मूलाचार 355 लेने से शरीर में स्फूर्ति बनी रहे, धैर्य बना रहे, दर्शन-ज्ञान 58. अ.रा.पृ. 6/492; उत्तराध्ययन सूत्र-30/26; पञ्चाशक विवरण-19; मूलाचार और चारित्र रुप रत्नत्रयी की वृद्धि होती रहै, उतने प्रमाण 352 ____59. अ.रा.पृ. 6/492; औपपातिक सूत्र-19; भगवती आराधना-215 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [314]... चतुर्थ परिच्छेद कुछ कण ग्रहण कर क्षुधा तृप्ति करना, रस-रहित भोजन करना, निःस्वाद भोजन करना, सब से अन्त में बचा हुआ आहार या चना - उडद आदि के छिलके सहित आहार करना, सबके खा चुकने के बाद बचा हुआ भोजन करना और स्नेहरहित (रुक्ष) आहार करना" । अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रतिसंलीनता और विविक्तशयनासन सेवन ' ' । इन्द्रिय प्रतिसंलीनता - इन्द्रिय प्रतिसंलीनता पाँच प्रकार की बतायी गई है - स्पर्शन (समस्तशरीर), रसना (जीभ), ध्राण (नासिका), चक्षु (आँख) और श्रोत्र (कर्ण) - ये पाँच इन्द्रयाँ हैं। इन पाँचों इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों की ओर जाने से रोकना तथा शरीर, जीभ आदि इन्द्रियगत विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, इन्द्रियप्रतिसंलीनता है 72 । इस प्रकार भोजन में अति स्निग्ध सरस वस्तुओं का त्याग करना 'रस- परित्याग' तप है। रस प्रायः कामोद्दीपक होते हैं अतः इन्हें विकृति कहते हैं । राजेन्द्र कोश के अनुसार जो शरीर और मन में विकारों को उत्पन्न करें, उसे विकृति (विगई) कहते हैं" । जैन परम्परा में प्रचलित भक्ष्य विकृतियाँ छह हैं- दूध, दहीं, घी, तेल, गुड/ शक्कर या उससे बनी हुई वस्तुएँ और कटाहविकृति "2 (कढाई विगई- कढाई में बने हुए पदार्थ, यथा-मिठाई, तली हुई वस्तुएँ) इसमें भी साधु को प्रतिदिन एकसाथ छहों विगई उपयोग में लेने का निषेध किया गया है। बिना किसी कारण के इन विकृतियों का नित्य सेवन करनेवाले श्रमण (साधु) को पाप साधु कहा गया है। (5) कायक्लेश तप : यह तप कायिक क्रियाओं से संबंधित होने से शरीर पर सीधा प्रभाव डालता है। शरीर को विवेकपूर्वक कष्ट देना, खेद पहुँचाना, पीडा पहुँचाना 'कायक्लेश' तप है" । अभिधान राजेन्द्र कोश में इसकी व्याख्या करते हुए आचार्यश्री ने कहा है- शीत- ताप, भूखप्यास आदि उग्र कष्टों को समतापूर्वक सहन करना तथा वीरासन, पद्मासन आदि स्थिर आसनों से एक स्थान पर स्थिर रहना भी कायक्लेश तप है । कायक्लेश तप के भेद :- 6 (1) स्थानायतिक कायोत्सर्ग करना । (2) उत्कटासन उत्कटासन पूर्वक (उकडु बैठकर) ध्यान करना । प्रतिमा धारण करना सिंहासन में बैठकर ध्यान करना । स्वाध्यायादि करते समय पालथी लगाकर बैठना दण्ड की तरह सीधे लेटे रहना या खडे रहना । लकड़ी की तरह खड़े रहकर ध्यान (3) प्रतिमास्थायी (4) वीरासन (5) नैषधिक (6) दण्डायतिक (7) लगुडशायी करना । आगे आचार्य श्रीने ग्रीष्म ऋतु में आतापना (धूप में खडे रहना) और शीत ऋतु में खुले रहकर शीत सहन करना तथा वर्षाकाल में एक स्थान पर लीन रहनेरुप 'कायक्लेश' तप का भी वर्णन किया है। 67 भगवती आराधना में भी अयन (सूर्यादि की गति) शयन, आसन, स्थान, अवग्रह (बाधाओं को जीतना), और योग (आतापनादि) इन छः भेदों तथा उनके अनेक प्रभेदों सहित कायक्लेश तप का वर्णन किया गया है। 68 (6) प्रतिसंलीनता तप : शरीर के अंगोपांगो, पाँचों इन्द्रियों, मन-वाणी-काया के योगों को अशुभ से मोडकर शुभ में जोडना, अपने-अपने विषयों में जाने से रोककर समेट लेना तथा स्त्री, पशु, नपुंसक रहित एकान्त निर्दोष स्थान में ठहरना प्रतिसंलीनता है। वह प्रतिसंलीनता चार प्रकार की होती है- इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग कषाय प्रतिसंलीनता क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। उदय में नहीं आये हुए क्रोधादि कषायों का निरोध करना और उदय में आये हुए कषायों को विफल बना देना, कषाय प्रतिसंलीनता है 73 | योग प्रतिसंलीनता - योग तीन है मनोयोग, वचनयोग और काययोग। इन तीनों योगों को अशुभ से शुभ में ले जाना और एकाग्र तथा प्रशान्त रखना योग प्रतिसंलीनता हैं। 74 विविक्तशय्यासन प्रतिसंलीनता प्रतिसंलीनता का चौथा सोपान है : विविक्तशय्यासन सेवन । इस तप का संबंध निर्दोषनिवास स्थान से है। स्त्री, पशु, पंडक, कुशील आदि से रहित शुद्ध वातावरणयुक्त एकान्त निर्दोष स्थान में रहना विविक्तशय्यासन प्रतिसंलीनता तप है 75 आभ्यन्तर तप : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने आभ्यन्तर तप की व्याख्या करते हुए कहा है कि "अभ्यन्तरे भवमाभ्यतरम् । 76 आभ्यन्तर अर्थात् अन्तरंग से संबंधित । जो तप बाह्य दृष्टि से तप के रुप में दिखाई न दे तथा आत्मा और मन को तपाये उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं " । मोक्ष प्राप्ति में प्रायश्चित आदि अंतरंग कारण है अतः इसे 'आभ्यन्तर तप' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश" में आभ्यन्तर तप के वर्णन में अनगारधर्मामृत को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि मन का नियमन करनेवाले होने से प्रायश्चित्तादि को अभ्यान्तर तप कहते हैं" । 60. 61. 62. 63. 64. 65. 66. 67. 68. 69. 70. अ.रा.पू. 6/1132; स्थानांग सूत्र सटीक - 1/4 अ. रा.पू. 6/1133; पच्चक्खाण भाष्य-गाथा 29; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/93 संबोधसत्तरि प्रकरण, गाथा - 92 अ.रा. पृ. 6/492; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/393 अ.रा. पृ. 6/448; स्थानांग-7/3; मूलाचार - 356 अ.रा. पृ. 3/488; उत्तराध्ययन सूत्र - अध्ययन 30 अ.रा. पृ. 3/449 अ.रा. पृ. 3/449; दशवैकालिक - 3 / 12; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - 450 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/47; भगवती आराधना-222 से 227 अ. रा. पृ. 5/357; स्थानांग - 4/2; भगवती आराधना-232, 233 अ.रा. पृ. 6/1249; स्थानांग - 4/2; सवार्थ सिद्धि 9/19 पर टीका; राजवार्तिक9/19 पर टीका 71. अ. रा. पृ. 5/357; औपपातिक सूत्र- 19; भगवती सूत्र - 25/7 72. वही 73. वही 74. वही 75. अ. रा. पृ. 6/1247-1249-1250; भगवती सूत्र - 25/7; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा447 से 449 76. अ.रा.को. 1/687; स्थानांग सूत्र सटीक - 2/2 77. अ.रा.को. 1/687 78. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 2/359 79. अनगार धर्मामृत 7/6 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [315] श्रमणपरम्परा में वर्णित ये आभ्यन्तर तप अन्य मतावलमिबयों प्रायश्चित चार प्रकार से :सेअनभ्यस्त और अप्राप्त है, अतः ये उत्तर अर्थात् आभ्यन्तर तप कहे (क) (1) ज्ञान (2) दर्शन (3) चारित्र (4) व्यक्तकृत्य जाते हैं। रत्नत्रय के आराधक मुनि जिसका आचरण करते हैं, एसे (ख) (1) प्रतिसेवना (2) संजोयणा (संयोजना) (3) आरोपणा तप आभ्यन्तर तप कहे जाते हैं | (4) परिकुञ्चना/प्रतिकुञ्चना प्रायश्चितादि तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं करते; अन्तः प्रायश्चित्त दस प्रकार से:करण के व्यापार से होते हैं। इनमें अन्तरंग परिणामों की मुख्यता (1) आलोचनार्ह (2) प्रतिक्रमणार्ह (3) तदुभयार्ह 94) विवेकार्ह रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है; ये देखने में नहीं (5) व्युत्सर्गार्ह (6) तपोऽर्ह (7) छेदाह (8) मूलार्ह (9) अनवस्थाप्यारी आते तथा ये इतने दुष्कर है कि अनार्हत लोग इनको धारण नहीं (10) पारांचिताह। कर सकते, इसलिए प्रायश्चितादि को अन्तरंग माना जाता है। इन्हीं दस भेदों में से क्रमशः प्रायश्चित के छ: प्रकार करने प्रायश्चित तप: पर । से 6 भेद, आठ प्रकार करने पर । से 8. और नौ प्रकार करने 'प्रायश्चित' दो शब्दों के योग से निष्पन्न शब्द है। प्रायः पर 1 से 9 भेद माने जाते हैं। + चित्त । अभिधान राजेन्द्र कोश में इसकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा (1) ज्ञान प्रायश्चित - मुनि के द्वारा कालादि आठ प्रकार के गया है - "प्रायः पापं विनिर्दिष्ट, चित्तं तस्य विशोधनम् ।821' 'प्रायः' ज्ञानाचार में या सूत्र अध्ययन संबंधी आचार में दोषों की का अर्थ है पाप, और 'चित्त' का अर्थ है उस पाप का विशोधन शुद्धि हेतु जो प्रायश्चित दिया जाता है। वह ज्ञान प्रायश्चित करना। अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम है प्रायश्चित । प्राकृत भाषा के 'प्रायच्छित्त' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए प्रस्तुत (2) दर्शन प्रायश्चित - मुनि के द्वारा अरिहंत, जिनालय, सुदेवकोश में कहा गया है गुरु-धर्म, जिनवाणी संबन्धी अश्रद्धा होने पर याअविनय, "पावं छिंदइ जम्हा, पायच्छित्तं ति भण्णई तेण। आशातना, निंदादि करने पर या दर्शनाचार का पालन नहीं पाएण वा वि चित्तं, सोहयति तेण पच्छित्तं ।' "83 करने पर दोषों की शुद्धि हेतु जो प्रायश्चित दिया जाता है, जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है उसे 'प्रायश्चित' कहते उसे दर्शन प्रायश्चित कहते हैं। हैं। प्राकृत भाषा के 'पायच्छित' शब्द का संस्कृत में 'पापच्छित्' (3) चारित्र प्रायश्चित - मुनि के द्वारा मूल गुणों और उत्तर रुप भी बनता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में इसकी व्युत्पत्ति इस गुणों में दोष लगाये जाने पर, अरिहंत-गणधर-आचार्यादि के प्रकार की गई है- "पापं छिनत्तीति पापच्छित् ।''84 अर्थात् जो पाप चारित्र के विषय में अवर्णवाद बोलने पर या पञ्चेन्द्रिय जीव का छेद करता है वह 'पापच्छित्' कहलाता है। हिंसा, या मैथुन सेवन या अन्य व्रत संबन्धी दोषों के पुन:उपर उद्धृत गाथा की व्याख्या करते हुए प्रायश्चित की एक पुनः सेवन करने पर दोषों की शुद्धि हेतु जो प्रायश्चित दिया परिभाषा और दी गई है- "पापमशुभं छिनत्ति कृन्तति, यस्माद्धेतोः जाता है, उसे चारित्र प्रायश्चित कहते हैं । पापच्छिदिति वक्तव्ये प्राकृतत्वेन 'प्रायस्छित्तमि' ति भण्यते निगद्यते (4) व्यक्तकृत्य/विदत्तकृत्य (वियत्तकिच्च) प्रायश्चित - तेन तस्माद्धेतोः प्रायेण बाहुल्येन । वाऽपीत्यथवा, चित्तं मन/शोधयति दोषयुक्त मुनि के द्वारा गुरु के समक्ष दोषों की आलोचना निर्मलयति तेन हेतुना प्रायश्चितमित्युच्यते । इति गाथार्थः । "प्रायशो करने पर गुरु के द्वारा देश-काल-भाव-पात्रादि की अपेक्षा वा चित्तं जीवं शोधयति कर्ममलिनं विमलीकरोति तेन कारणेन से दोषयुक्त मुनि को प्रायश्चित तप प्रदान करना, व्यक्तकृत्य/ प्रायस्छित्तमित्युच्यते । चित्तं स्वेन स्वरुपेण अस्मिन् सतीति प्रायश्चित्तं, विदत्तकृत्य प्रायश्चित कहलाता है।2 प्रायो ग्रहणं संवरादेरपि तथाविधचित्तसद्भावादिति गाथार्थः ।' '85 जो प्रतिसेवना प्रायश्चित - जीव या चित्त को शुद्ध करता है और कर्म-मल को दूर करता है, 'प्रतिसेवना' जैन आचार विज्ञान का एक पारिभाषिक शब्द धो डालता है उसे प्रायश्चित कहा जाता हैं। है। 'प्रतिसेवना' शब्द प्रति + सेवना से निष्पन्न है। अभिधान अथवा जिससे आचार रुप धर्म उत्कर्ष को प्राप्त होता है, राजेन्द्र कोश में 'प्रतिसेवना' का शाब्दिक अर्थ करते हुए कहा एसा प्रायः मुनि लोग कहते हैं, इस कारण से अतिचार दोषों को दूर करने के लिए जिसका चिन्तन-स्मरण किया जाये उसे प्रायश्चित 80. भगवतीआराधना, विजयोदया टीका-107 पृ. 254 कहते हैं 81. अनगार धर्मामृत 7/33 अथवा प्रकर्षेण अयते गच्छति अस्मादाचारधर्म इति प्रायो 82. अ.रा.को.भा. 5/855; (धर्म संग्रह 3 अधिकार) मुनिलोकस्तेन चिन्त्यते स्मर्यतेऽतिचारविशुद्धयर्थमिति निरुक्तात् 83. अ.रा.को.भा. 5/129; (पंचाशक सटीक 16 विव.) प्रायश्चित्तम् । अ.रा.5/855 84. अ.रा.को.भा. 5/129, 855; (आवश्यक नियुक्ति अ.5/22) 85. अ.रा.को.भा. 5/855; (आवश्यक बृहत वृत्ति 1522) प्रायश्चित्त के प्रकार7 : 86. वही अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने प्रायश्चित के अनेक भेद 87. अ.रा.पृ. 5/135,855, 856 प्रभेद दिखाये हैं। 88. अ.रा.पृ. 5/856; मूलाचार-362; धवला टीका-13/5, 4; जैनेन्द्र सिद्धान्त प्रायश्चित तीन प्रकार में : कोश-3/158 (क) (1) आलोचनाह (2) प्रतिक्रमणार्ह (3) तदुभयार्ह 89. अ.रा.पृ. 4/1962, 5/135; स्थानांग-3/1 90. अ.रा.प्र. 4/2433, 5/1353 स्थानांग-3/4 (ख) (1) ज्ञान प्रायश्चित (2) दर्शन प्रायश्चित 91. अ.रा.पृ.3/1149,5/135; स्थानांग-3/4 (3) चारित्र प्रायश्चित्त। 92. अ.रा.पृ. 6/12,27; 5/135 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [316]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन है - प्रतिसेव्यते इति प्रतिसेवना, प्रतीपं सेवना प्रतिसेवना, प्रतिषिद्धस्य (6) शङ्कित अथवा विंतिणा प्रतिसेवना - ग्रहण करने योग्य सेवना प्रतिसेवना। अर्थात् प्रतिषिद्ध, निषिद्ध या अनाचरणीय के आहार आदि में किसी दोष की शंका हो जाने पर भी उसे आचरण करने को प्रतिसेवना कहते हैं उसकी शुद्धि के लिए जो ग्रहण कर लेना शङ्कित प्रतिसेवना कहलाती है अथवा अभिमान आलोचना प्रतिक्रमण आदि किये जाते हैं, उसे प्रतिसेवना प्रायश्चित से किये कार्य का आवेशपूर्वक प्रायश्चित्त करना वितिणा प्रतिसेवना कहते हैं। अर्थात् पाप के सेवन से होनेवाली संयम की विराधना है। यथा - प्रतिकूल संयोग होने पर अग्नि में से तितिण ही 'प्रतिसेवना' हैं। शब्द करती हुई चिनगारियाँ निकलती है, वह द्रव्य तितिण प्रतिसेवना के मुख्य दो रुप : है। और आहारादि नहीं मिलने पर अथवा अरुचिकर पदार्थ प्रतिसेवना के मुख्य दो रुप बताये गये हैं - दपिका और के उपलब्ध होने पर मानसिक व्याकुलता या झंझलाहट होना कल्पिका। मूलगुण एवं उत्तरगुण की अपेक्षा से इनके भी दो भावर्तितिण है। दो भेद निरुपित हैं। । प्रमादभाव से किया जाने वाला अपवाद सेवन (7) सहसाकार प्रतिसेवना - अकस्मात् कोई कार्य उपस्थित दर्प होता है और वही अप्रमाद भाव से किया जाने पर क्लप-आचार हो जाने पर बिना सोचे समझे कोई अनुचित कार्य कर लेना हो जाता है। ज्ञानादि की अपेक्षा से किया जानेवाला अकल्प सेवन सहसाकार प्रतिसेवना है। भी कल्प हैं। (8) भय प्रतिसेवना - राजा, मनुष्य, चोर आदि के भय से यह प्रतिसेवना द्रव्य-भाव भेद से दो प्रकार की है जो दोष-सेवन होता है, वह भय प्रतिसेवना है। यथा - द्रव्यमयी और भावमयी। मात्र द्रव्यमयी दृष्टि से पदार्थ सेवन राजादि के अभियोग से मार्गादि दिखा देना अथवा सिंहादि करना द्रव्यमयी प्रतिसेवना है और भाव से उपयोग करना वह हिंस्र पशुओं के भय से वृक्षारुढ होना इत्यादि । भावमयी प्रतिसेवना है। (9) प्रद्वेष प्रतिसेवना - किसी के प्रति प्रद्वेष या इर्ष्या से जीव के भाव, अध्वयसाय दो प्रकार के हैं - कुशल और (मिथ्या आरोप लगाकर) संयम की विराधना करना प्रद्वेष अकुशल अर्थात् शुभ और अशुभ । जहाँ शुभ भावों से वस्तु का प्रतिसेवना कहलाती है। सेवन किया जाता है, वह कल्प प्रतिसेवना है और जहाँ अशुभ भवों (10) विमर्श प्रतिसेवना - शिष्य सैक्षकादि की परीक्षा के लिए से वस्तु का सेवन किया जाता है, वह दर्प प्रतिसेवना है”। की गयी संयम विराधना विमर्श प्रतिसेवना कहलाती हैं। राग द्वेषपूर्वक की जानेवाली प्रतिसेवना (निषिद्ध आचरण) कल्पिका प्रतिसेवना के भेद100 :दपिका है, सदोष है। राग-द्वेष से रहित प्रतिसेवना कल्पिका है। अपवाद काल में परिस्थितिवश निषिद्ध आचरण होने यह निर्दोष है। कल्पिका में संयम की आराधना है और दपिका पर भी संयम की विराधना नहीं होती उसे 'कल्पिक प्रतिसेवना' में निश्चित ही संयम की विराधना है | कहते हैं। वह आधार कारणों के भेद से चौबीस प्रकार की दपिका प्रतिसेवना के भेद" : है, जो निम्नानुसार है- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, प्रवचन, समिति, (1) दर्प प्रतिसेवना:- अहंकारवश आगमनिषिद्ध प्राणातिपातादि गुप्ति, साधर्मिक-वात्सल्य, कुल, गण, संघ, आचार्य, असह, ग्लान, जो दोष सेवन किये जाते हैं और जिससे संयम की विराधना असन, वृद्ध, जल, अग्नि, चोर, श्वपद, भय, कान्तार, आपत्ति होती है, उसे दर्प प्रतिसेवना कहते हैं। और व्यसन । इस प्रकार इन 24 कारणों से जो दोष-सेवन होता (2) प्रमाद प्रतिसेवना - मद्यपान, विषयाकांक्षा, कषाय, निद्रा, है, वह कल्प प्रतिसेवना है। एवं विकथा - इन पाँचो प्रकार के प्रमादों के कारण होनेवाली इस संबंध में अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा गया है - संयम की विराधना प्रमाद प्रतिसेवना कही जाती हैं। जो साधक किसी विशिष्ट ज्ञान दर्शनादि हेतु के उद्देश्य से अपवाद/ (3) अनाभोग प्रतिसेवना - अनुपयोग या अज्ञानवश जो संयम- निषिद्ध का आचरण भी करता है, तब भी वह मोक्ष प्राप्त करने विराधना होती है, वह अनाभोग प्रतिसेवना है। का अधिकारी है। वस्तुतः कर्मबन्ध तो जीव की भावनाओं पर (4) आतुर प्रतिसेवना - क्षुधा, विपासा आदि कष्ट से व्याकुल आधारित होता हैं।101 होकर की जानेवाली संयम विराधना आतुर प्रतिसेवना कही इसी प्रकार उपर्युक्त दस कारणों से जो दोष-सेवन होता है, जाती हैं। साधक उसके प्रति मन में पश्चाताप करता है और तत्संबन्धी प्रायश्चित (5) आपत् प्रतिसेवना - किसी तरह की आपत्ति, उपद्रव या की जो भी विधि होती है, उसे पूर्णकर आत्मा को विशुद्ध करता है। संकटकालीन परिस्थिति उपस्थित होने पर अकल्प्य का सेवन 93. अ.रा.पृ. 5/361 करने से होनेवाली संयम विराधना 'आपत् प्रतिसेवना' कही 94. अ.रा.को. 6/340 जाती है। यह आपत्ति चार प्रकार की हैं - 95. अ.रा.को. 6/345 (अ) दव्यापत्ति - प्रासुक निर्दोष आहारादि न मिलने पर। 96. अ.रा.को. 6/340: निशीथ चूणि 92 (ब) क्षेत्रापत्ति - अटवी, समुद्र तट आदि भयंकर स्थानो 97. अ.रा.को. 5/135. 361; व्यवहार सूत्र वृत्ति । उ. में रहने की स्थिति में। 98. अ.रा.को. 6/426. 370: बृहत्कल्प भाष्य 4943; निशोथ भाष्य 363 99. अ.रा.पृ. 5/136 (क) कालापत्ति - दुर्भिक्ष आदि पड़ने पर । 100. अ.रा.पृ. 6/915.916 (ड) भावापत्ति - शरीर के रोगग्रस्त हो जाने पर। 101. अ.रा.को. 7/778 एवं 2/421 एवं 5/1621; व्यवहार भाष्य पीठिका 184; ओधनियुक्ति-57 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद... [317] अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन संयोजना प्रायश्चित : आलोचना के भेद :____ मुनि के द्वारा आहारादि ग्रहण करते समय आहार में (क) मूलगुण व उत्तरगुण की अपेक्षा से - मूलगुण व उत्तरगुण घी, गुड आदि मिलाना या शय्यातरपिण्ड, राजपिण्डादि ग्रहण की अपेक्षा से आलोचना दो प्रकार की होती है - मूल गुणालोचना करने पर जो दोष लगता है, उसे संयोजना दोष कहते हैं। उसकी और उत्तर गुणालोचना। शुद्धि हेतु किया जानेवाला प्रायश्चित संयोजना (संजोयणा) प्रायश्चित (ख) विहारादि भेद से त्रिविधा आलोचना।10 - मूलगुणों और कहलाता है।102 उत्तर गुणों की अपेक्षा से अपराध के दो रुप होते हैं, इसके आधार आरोपणा प्रायश्चित : पर आलोचना दो प्रकार की होती है - मूलगुणपराधालोचना और अपराधी को एक अपराध का प्रायश्चित दिया जाने पर भी उत्तरगुणापराधालोचना । मूलगुणापराधालोचना में भी प्रथम प्राणातिपात उस अपराध को पुनः-पुनः सेवन करने पर उसी प्रायश्चित में बार- में षट्जीवकाय विषयक पश्चात् क्रमशः मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, बार वृद्धि करना, आरोपणा प्रायश्चित है। जैसे - किसी मुनि को परिग्रह व रात्रिभोजन संबन्धी अपराधों की आलोचना और तत्पश्चात् पाँच दिन के उपवास का प्रायश्चित दिया। उस प्रायश्चित तप को उत्तगुणापराधालोचना में समिति-गुप्ति सम्बन्धी विपरीत आचरण किया करते हुए यदि वह मुनि पुनः उसी अपराध को सेवन करे तो उसके हो तो उसकी आलोचना करने का विधान जैन वाङ्मय में उपलब्ध प्रायश्चित को 5 दिन, 10 दिन, 15 दिन यावत् छ: माह तक बढाना होता हैं। आरोपणा प्रायश्चित हैं। इसके पाँच भेद हैं - 1. प्रस्थापिका 2. स्थापिता (ग) द्रव्यादि के भेद से चतुर्विधा आलोचना|| - द्रव्य, क्षेत्र, 3. कुत्स्ना 4. अकृत्स्ना 5. हाडहडा (किसी मुनि के द्वारा गलती करके काल, भाव आदि चार प्रकारों से सेवित पाप की शुद्धि के लिए गुरु के पास प्रायश्चित मांगने पर तत्काल यथावत् दिया जानेवाला साधक को आलोचना करने का विधान कियागया हैं। यथा - प्रायश्चित)। दव्य से - जिस अकल्पनीय द्रव्य का सेवन किया हो, अभिधान राजेन्द्र कोशानुसार इसका भेद-प्रभेद सहित विस्तृत फिर चाहे वह सचित्त द्रव्य हो, अचित्त द्रव्य हो या मिश्र द्रव्य हो। वर्णन निशीथ सूत्र के बीसवें उद्देश में दिया गया है जो जिज्ञासु क्षेत्र से - जनपद, गाँव, नगर या मार्ग में जहाँ दोष सेवन किया को वहीं से दृष्टव्य हैं। हो । काल से- रात या दिन में, दुर्भिक्ष अथवा सुभिक्ष में दोष सेवन परिकुञ्चना / प्रतिकुञ्चना (पलिऊंचणा) प्रायश्चित :- किया हो। भाव से - प्रसन्नता-अप्रसन्नता, ग्लानावस्था, अहंकार आदि गुर्वादि के समक्ष प्रायश्चित अङ्गीकार करने हेतु दोष व्यक्त किसी भी परिस्थिति में दोष सेवन किया हो। इस प्रकार उपर्युक्त करते समय दोषी मुनि दोष प्रकटीकरण में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से दोषों को निश्छल भाव से गुरु के समक्ष प्रकट कर आलोचना के माया (कपट) करे या गुरुदोष (बडा भारी दोष) के स्थान पर अल्पदोष द्वारा आत्मा को विशुद्ध विमल बनाया जाता हैं। बताये उसे प्रतिकुञ्चना (पलिऊंचणा) अर्थात् कपट कहते हैं । इस कपट जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में आलोचना के दो प्रकार एवं सात का प्रायश्चित करना प्रतिकुञ्चना प्रायश्चित है।। प्रकार बताये गये हैं -1. ओघ (सामान्य) और 2. पद-विभागी। और आलोचना : 1. दैवसिक 2. रात्रिक 3. ईर्यापथिक 4. पाक्षिक 5. चातुर्मासिक मूलतः 'आलोचना' शब्द मर्यादार्थक 'आ' उपसर्ग लगने 6. सांवत्सरिक और 7. उत्तमार्थ ये सात प्रकार हैं।12। पर 'लोचू दर्शन' धातु से निर्मित है105 | अभिधान राजेन्द्र कोश में अभिधान राजेन्द्र कोश में यह भी प्रतिपादित किया गया इसकी व्यत्पत्ति करते हुए कहा गया है -"आ अभिविधिना सकलदोषाणां है कि आलोचना में गुरु-शिष्य परस्पर एक दूसरे के परीक्षक एवं लोचना गुरुपरतः प्रकाशना आलोचना।"106 मर्यादा में रहकर निष्कपट निरीक्षक होते हैं, जैसा कि कहा गया हैभाव से अपने सभी दोषों को गुरु के समक्ष प्रकट कर देना ही आवस्सय, पडिलेहण, सज्झाए भुजणा य भासा य । आलोचना है। जैसा कि कहा गया है वियारे गेलन्ने, भिक्खग्राहणे पडिच्छंति ॥10 जह बोलो जपंतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणई। आवश्यक प्रतिलेखन, स्वाध्याय, भोजन, भाषा, विचार, तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ॥107 बहिर्भूमि (मल-मूत्रादि विसर्जन), रुग्णावस्था, भिक्षाग्रहण आदि की जैसे बालक जो भी उचित या अनुचित कार्य कर लेता आलोचना के विषय में आचार्य-शिष्य परस्पर एक दूसरे के निरीक्षकहै वह सब सरल भाव से कह देता है। इसी प्रकार साधक को परीक्षक माने गये हैं। भी गुरुजनों के समक्ष दम्भ और अहंकार से रहित होकर यथार्थ 102. अ.रा.पृ. 5/136, 7/120, 121, 122; स्थानांग 4/1 आत्मालोचना करनी चाहिए। 103. अ.रा.पृ. 2/417, 418, 419, 5/135; 136 अभिज्ञता या अनभिज्ञता में लगे हुए दोष को आचार्य या 104. अ.रा.पृ. 5/722, 723, 5/1353; 136 105. अ.रा.पृ. 5/136 गुरुजनों के समक्ष निवेदन करके तदर्थ उचित प्रायश्चित लेना आलोचना 106. अ.रा.को. 2/429; भगवती सूत्र सटीक 17/3 है। आलोचना का शब्दार्थ है मर्यादापूर्वक अपने दोषों को सम्यक्तया 107. अ.रा.को. 2/428 एवं 431; ओघनियुक्ति 801; आतुर प्रत्याख्यान प्रकीर्णक देखना। साधक जैसा अपने आपको जानता है वैसा ही अपने को 108. अ.रा.को. 2/429; निशीथ चूणि 20 109. अ.रा.को. 2/430; ओधनियुक्ति 790; बृहत्कल्पवृत्ति 12; गुरु के समक्ष प्रकट देता है, उसी का नाम आलोचना है108 । वस्तुतः 110. अ.रा.को. 2/434; व्यवहारसूत्रवृत्ति आलोचना में आत्मनिरीक्षण करना होता है, अपने दोषों को देखना 111. अ.रा.को. 2/447-449 होता है। स्व का निरीक्षण कर स्व का सुधार करना ही आलोचना 112. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-276 का मुख्य प्रयोजन हैं। 113. अ.रा.को. 2/438 For Private & Personal use only www.atelibrary.org Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [318]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आलोचक : आराधक-विराधक : के समयकाल, अध्व (दूरी) आदि कारणों सेदूषित हो जाने पर जो श्रमण दोष-सेवन की आलोचना किये बिना मृत्यु को उसका स्थंडिलभूमि (जंगल) में जाकर विधिपूर्वक त्याग करना प्राप्त होता है, वह विराधक माना गया है। जो श्रमण स्वकृत पापों 'विवेक' कहलाता हैं। तद्हेतु जो प्रायश्चित किया जाता है, वह की आलोचना कर दिवंगत होता है, वह संयम का आराधक होता विवेक प्रायश्चित कहलाता हैं।20। है।14। यदि कोई साधक कृत पापों की आलोचना करने की भावना व्युत्सर्हि प्रायश्चित - मुनिजीवन में गमनागमन, आहारसे गुरु के पास जा रहा हो, किन्तु किसी कारणवश वह मृत्यु को विहार-निहार, श्रुताध्ययन, स्वप्नदोष, नदी आदि उतरना, शय्या-आसन, प्राप्त होता है, तब कभी वह आलोचनोन्मुख साधक गुरु से आलोचना काल-व्यतिक्रम, अरिहंतादि का अविनयादि दोषों के लिए या अन्य लिये बिना भी आराधक ही होता है, क्योंकि उसकी भावना सरल किसी भी सदोषाचारण के लिए मन, वचन, काय के व्यापारों का और पाप के प्रति पश्चाताप की थी ।।15 त्याग करके एकाग्रतापूर्वक देह के ममत्व का त्याग (कायोत्सर्ग) करना, निष्कर्षत: आलोचना आत्मशोधन की महाशक्ति है। पश्चाताप 'व्युत्सर्गार्ह प्रायश्चित' कहलाता है।21 | इसका विशेष वर्णन कायोत्सर्ग वह निर्झर है, जिसमें अवगाहन कर साधक अपनी आत्मा को विशुद्ध- तप के वर्णन पर किया जायेगा। विमल बना लेता हैं। तपोऽर्ह (तप) प्रायश्चित - तपार्ह (तप योग्य) प्रायश्चित की प्रतिक्रमाणार्ह प्रायश्चित - मुनिजीवन में अतिक्रम (अकृत्य व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने व्यवहार सूत्र और 'जीतकल्प' को संबन्धी मन में एक बार विचार आना), व्यतिक्रम (उसी अकार्य को उद्धृत करते हुए कहा है कि - निर्विकृतिका ('नीवि' तप, जिसमें करने संबन्धी बार-बार चिंतन होना) अचानक या अनजाने में जो दूध, दही, घी-तेल, गुड, मिष्टान्नादि कडाविगई का त्याग किया जाता भी दोष लगते हैं, उसका गुरु के समक्ष मिथ्यादुष्कृत देने मात्र से है) आदि तप रुप प्रायश्चित से शुद्ध होने योग्य अपराध दोषों की शुद्ध हो जाना 'प्रतिक्रमणाई प्रायश्चित' हैं।। शुद्धि हेतु निविकृतिका, पूर्वाह्न (पुरिम-दिन का पूर्वार्ध) एकाशन, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस प्रकार की चक्रवाल समाचारी, आचाम्बिल, उपवास, चतुर्थभक्त (चोथभत्त), लघु पाँच रात्रि-दिवस ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्र विनय, प्रशस्त प्रतिरुप विनय (गुर्वादि (पाँच-दिन का आयंबिल), गुरु पाँच रात्रि-दिवस (पाँच दिन उपवास), का यथा योग्य अभ्युत्थान, सन्मुखगमनादि विनय) उत्तरगुण प्रतिसेवना लघु-गुरु दश रात्रि-दिवस यावत् लघु-गुरु पच्चीस रात्रि दिवस, मास के विषय में अतिक्रम, व्यतिक्रम, सहसात्कार (अचानक) और अनाभोग लघु, मास गुरु से यावत् छ: मास लघु, छ: मास गुरु तप के तप (अनजाने) में मुनि को जो दोष लगता है उसमें प्रायः जीवहिंसा रुप जो प्रायश्चित दिया जाता है उसे तपोऽहं प्रायश्चित कहते हैं।22 । का अल्पत्व याअभाव होने से मिथ्यादुष्कृत देने मात्र से अर्थात् प्रतिक्रमण तप प्रायश्चित योग्य अपराध:23 :करके, 'पुनः एसा नहीं करूंगा' -एसा कहने मात्र से उस अपराध 1. दण्ड-आदि उपकरणों का यथासमय पडिलेहण (प्रतिलेखन) की शुद्धि हो जाती है। उसके लिए तप आदि प्रायश्चित की आवश्यकता या प्रमार्जन नहीं करना। नहीं रहती, अतः उसे प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित कहा हैं ।।16 उपाश्रय या वसति से बाहर जाते 'आवस्सिहि' खमासमणं/ तदुभय/उभयाई प्रायश्चित - जिस प्रायश्चित में दोषी मुनि मत्थएण वंदामि न करना। प्रथमतः गुरु के पास पाप की आलोचना करके गुरुपदेशानुसार उस अस्थंडिल भूमि पर या अविधि मल-मूत्रादि त्याग करना। अपराध स्थान संबंधी अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार दोषों का प्रतिक्रमण वस्त्रादि को इधर-उधर रखते प्रमार्जन नहीं करना। (पुन: यह पाप नहीं करूँगा, एसी भावना) के द्वारा 'मिथ्या दुष्कृत' सचित्त युक्त हाथ या बर्तन से आहारादि ग्रहण करना। ग्रहण करने (कहने पर) विशुद्ध होता है, उस उभयार्ह या तदुभय आहारादि में पूर्व-पश्चात्कर्मादि दोष लगाना। प्रायश्चित कहते हैं। जीतकल्प में निम्नलिखित अपराधों के लिए (षट्स्थानों चार बार सज्झाय/स्वाध्याय न करना, सूत्रपोरिसी, अर्थपोरिसी की शुद्धि हेतु) तदुभय प्रायश्चित का विधान किया गया है।17 - या दोनों पोरिसी नहीं करना। (1) भ्रमवश किये गये कार्य 8. आवश्यक कायोत्सर्ग न करना। (2) भयवश किये गये कार्य 9. प्रतिलेखन/प्रमार्जन न करना। (3) आतुरता (भूख-प्यासादि पीडा) वश किये गये कार्य 114. अ.रा.को. 2/464-465; भगवती सूत्र 10/2 (4) सहसा (अचानक) किये गये कार्य 115. अ.रा.को. 5/263; आवश्यक नियुक्ति 4 (5) परवशतावश किये गये कार्य 116, अ.रा.पृ. 5/320, 321; व्यवहारसूत्रवृत्ति-1/60 से 62, 97 से 99; स्थानांग(6) महाव्रतों में एवं मूलगुण, उत्तरगुण सहित सभी व्रतों में लगे 10 वाँ ठाणा; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/115, 160; भाव पाहुड-78 की हुए अतिचार टीका भावपाहुड के अनुसार केशलौंच, नखच्छेद, स्वप्नदोष, इन्द्रियों 117. अ.रा.पृ. 2/869,870,871 के अतिचार, रात्रिभोजन, तथा पक्ष-मास-संवत्सरादि दोषों में तदुभय 118. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/161 119. अ.रा.पृ. 6/1250; आचारांग-1/8/1 प्रायश्चित्त होता है। 120. अ.रा.पृ. 6/1251; जीतकल्प-16, 173 स्थानांग-10/3, 6/3; चारित्रसारविवेकाह प्रायश्चित- किसी कार्य के औचित्य-अनौचित्य 142/2 का सम्यग् निर्णय कर अनुचित का त्याग करना 'विवेक' कहलाता 121. अ.रा.पृ. 6/1123; स्थानांग-6/3, 4/1; उत्तराध्ययन-अध्ययन-30; जैनेन्द्र है। । मुनिजीवन में आहार, उपधि (वस्त्रादि), शय्या, वसति (रहने सिद्धान्त कोश-3/161 का स्थान), उपकरण (संयम साधना में उपयोगी साधन) आदि 122. अ.रा.पृ. 4/2208; 5/137, 138; व्यवहारसूत्रवृत्ति 1/1/164-165; स्थानांग सूत्र-8 एवं 10 वाँ ठाणां एषणापूर्वक ग्रहण करने हेतु प्रयत्न करने पर भी यदि उपयोग 123. अ.रा.पृ. 4/2208 से 2210 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [319] 10. देववंदन-चैत्यवंदन-गुरुवंदन न करना। कर लेता हैं। जैन परम्परा में बार-बार अपराध करने वाले अपराधिक 11. स्थापनाचार्यजी को वांदणा न देना / वंदन करना। प्रवृत्ति के लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित किया गया हैं128 | 12. अष्टमी-चर्तुदशी आदि पर्वतिथि को नगर स्थित जिनालय एवं अनवस्थाप्य प्रायश्चित के प्रकार :साधु-साध्वी को वंदन न करना। अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार अनवस्थाप्य प्रायश्चित मुख्यतया 13. पाक्षिक/चातुर्मासिक/सांवत्सरिक तप न करना। दो प्रकार का है।2914. पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय या पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, स्त्री 1.आशातना अनवस्थाप्य - आगे कहे जाने वाले पाराञ्चित प्रायश्चित आदि जीवों का संघट्ट/स्पर्श होना, उन्हें पीडा पहुंचाना। की तरह तीर्थकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर, महर्द्धिकादि की -एसे अपराध तप प्रायश्चित योग्य हैं। आचार्य उपाध्यायादि के द्वारा या साधु के द्वारा आशातना करने पर छेदादि प्रायश्चित देने पर जिसकी उद्दण्डता बढ़ती है, जो आशातना अनवस्थाप्य प्रायश्चित दिया जाता हैं। 130 अपराधी मुनि गर्वित होकर अपलाप करता है, उन्हें तप प्रायश्चित 2. प्रतिसेवना अनवस्थाप्य प्रायश्चित - यह प्रायश्चित तीन प्रकार ही दिया जाता है।24। का है - साधर्मिकस्तैन्यकारी, अन्यधार्मिक स्तैन्य कारी और हस्तताल छेद प्रायश्चित125 : अनवस्थाप्य ।। छेद प्रायश्चित का परिचय देते हुए आचार्यश्री ने अभिधान क.साधार्मिकस्तैन्यकारी- दान-श्रद्धायुक्त स्थापना कुलों (आचार्यादि राजेन्द्र कोश में कहा है कि 'जिसमें दोषी मुनि के दीक्षा पर्याय संघ के विशिष्ट वैयावृत्त्यकारक द्रव्य-भावसंपन्न गृहस्थों के घर) से का यथायोग्य छेद किया जाता है, वह छेद प्रायश्चित है।' जो अपराधी आचार्य, उपाध्याय, शैक्ष (नवदीक्षित), ग्लान (रोगी) आदि हेतु लाये शारीरिक दृष्टि से कठोर तप-साधना करने में असमर्थ हो अथवा समर्थ गए या उन गृहस्थों के द्वारा आचार्यादि को आहार, उपधि, वस्त्र, होते हुए भी तप के गर्व से उन्मत हैं और तप प्रायश्चित से उसके पात्रादि हेतु निमंत्रण करने पर बिना गुर्वाज्ञा के ही उन गृहस्थों से व्यवहार में सुधार संभव नहीं होता और तप प्रायश्चित करके पुन: आहारादि लेकर स्वयं उपयोग करना सार्मिक स्तैन्य है। उस दोष पुनः अपराध करता है, उसके लिए छेद प्रायश्चित का विधान किया से मुक्ति हेतु साधर्मिक स्तैन्य अनवस्थाप्य प्रायश्चित दिया जाता हैं । 132 गया है। ख. अन्यधार्मिक स्तैन्यकारी - लोभ कषाय के उदय से या मूलाह (मूल) प्रायश्चित!26: रसलोलुपता से अन्य धर्मी बौद्धादि भिक्षु के या गृहस्थ के आहार, मूल प्रायश्चित अर्थात् पूर्व के दीक्षापर्याय के समाप्त कर उपधि, उपकरणादि को गुरु की आज्ञा के बिना ले लेना - अन्य नवीन दीक्षा प्रदान करना । इसके परिणामस्वरुप मूल प्रायश्चित अङ्गीकार धार्मिक स्तैन्य है। इससे प्रवचनहीलना, स्वोपकरण स्तैन्य, राजादि करनेवाला भिक्षु उस भिक्षुसंघ में जिस दिन उसे यह प्रायश्चित दिया के द्वारा ग्रहण-दण्डादि होता है। यह आहार विषयक, उपधि विषयक जाता है, वह सबसे कनिष्ठ बन जाता हैं। परंतु मूल प्रायश्चित में और सचित्त विषयक है। अन्य धर्मी बौद्धादि भिक्षु के शिष्य को अपराधी मुनि को गृहस्थवेश धारण करना अनिवार्य नहीं है। सामान्यतया ले लेना, या गृहस्थ के लडके-लडकियों को उनके परिवार की आज्ञा पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा एवं मैथुन संबंधी अपराधों (साध्वी का के बिना दीक्षा देना सचित विषयक अन्यधार्मिक स्तैन्य है। इससे शीलभङ्ग करवाना आदि) को मूलार्ह अर्थात् मूल प्रायश्चित योग्य माना भी उपरोक्त दोष होता है। इसकी शुद्धि हेतु अन्यधार्मिकस्तैन्य अनवस्थाप्य जाता है। इसी प्रकार जो मुनि मृषावाद, अदत्तादान या परिग्रह संबंधी प्रायश्चित दिया जाता हैं। 33 दोषों को पुनः-पुनः सेवन करता है वह भी मूलार्ह माना गया है। ग. हस्तताल अनवस्थाप्य - यह दो प्रकार का है - (क) लौकिक जीतकल्प के अनुसार चारित्र की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित - हाथ से या मुठ्ठी से या पैर से या डण्डे से या खड्गादि से दिया ही जाता है, जबकि दर्शन या ज्ञान की विराधना में यह दिया स्वपक्ष या परपक्ष के साधुओं पर प्रहार करना, मारपीट करना - लौकिक भी जा सकता है और नहीं भी। हस्तताल है जिसकी शुद्धि हेतु हस्तताल अनवस्थाप्य प्रायश्चित दिया धवला टीका के अनुसार अपरिमित अपराध करनेवाला जो जाता है। यदि प्रहार से सामनेवाला मृत्यु प्राप्त हो जाय तब तो साधु पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छन्दादि होकर कुमार्ग में पाराञ्चित प्रायश्चित दिया जाता है। (ख) लोकोत्तर-शिष्य का ग्रहण स्थित है, उसे मूल प्रायश्चित दिया जाता हैं।7। और आसेवन शिक्षा में सम्यक् प्रवर्तन करवाने के लिए हित बुद्धि अनवस्थाप्य प्रायश्चित : से अविनीत दुर्बुद्धि शिष्य (के मर्मस्थान को छोडकर) का कान पकडकर अनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद से च्युत कर देना या अलग कर देना है। दूसरा अर्थ है - संघ में स्थापना 124. अ.रा.पृ. 4/2211; जीतकल्प-595; चारित्रसार-142/5 के अयोग्य (अर्थात् रखने योग्य नहीं)। जो अपराधी एसे अपराध 125. अ.रा.पृ. 3/1360, 5/136; स्थानांग-4/1; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/161 करता है जिसके कारण उसे संघ से बहिष्कृत कर देना आवश्यक 126. अ.रा.पृ. 6/3783; जीतकल्प-83 से 86 127. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/161 होता है वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित के योग्य माना जाता हैं। यद्यपि 128. अ.रा.पृ. 1/292, 293; स्थानांग-3/4 परिहार में भी भिक्षु को संघ से पृथक् किया जाता है किन्तु वह 129. अ.रा.पृ. 1/293 एक सीमित समय के लिए होता है और उसका वेश परिवर्तन आवश्यक 130. अ.रा.पृ. 1/293 नहीं माना जाता जबकि अनवस्थाप्य प्रायश्चित के योग्य भिक्षु को 131. अ.रा.पृ. 1/293 पूर्णतः संघ से बहिष्कृत कर गृहस्थ वेश प्रदान कर दिया जाता है 132. अ.रा.पृ. 1/293, 294, 295 और उसे पुनः तब तक भिक्षुसंघ में प्रवेश नहीं दिया जाता जब 133. अ.रा.पृ. 1/295, 296 तक कि वह प्रायश्चित के रुप में निर्दिष्ट तप-साधना को पूर्ण नहीं 134. अ.रा.पृ. 1/297 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [320]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन मोडा जाय या हस्तादि से प्रहार किया जाय, वह लोकोत्तर हस्तताल (ख) विषय दुष्ट (1) एक ही गच्छ के साधु-साध्वी, (2) साधु और है। जिनशासन को आशातना-निंदादि से बचाने हेतु एवं शिष्यादि शय्यातर की बालिका अथवा अन्ततीथिका (अन्य धर्मी साध्वी/स्त्री), को चरण-करण में सम्यक् पालन करवाने हेतु आचार्यादि को इस (3) गृहस्थ यति और संघस्थित साध्वी (4) गृहस्थ यति और गृहस्थ लोकोत्तर हस्तताल की यथासमय अनुज्ञा दी गई है।135 स्त्री - का आपस में विषयसुखभोग करने पर प्रथम और द्वितीय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में मुनि के द्वारा प्रमाद से चोरी, भङ्ग में प्रतिसेवना पाराञ्चित प्रायश्चित दिया जाता है, शेष दो में मारपीट, विरुद्धाचरण, परन्तु नवपूर्व के ज्ञाता या दशपूर्व के ज्ञाता, विकल्पपूर्वक प्रायश्चित देने योग्य हैं। उत्तमसंहनन, परिषहजयी, दृढधर्मी, धीर-वीर, पापभीरु मुनि को प्रमादपाराञ्चित प्रायश्चित :निजगणानुपस्थापन और अभिमानी मुनि को परगणानुस्थापन प्रायश्चित अतितीव्र कषाय, स्त्रीकथादि विकथा, मद्यपान, श्रोत्रादि देने का उल्लेख हैं ।136 इन्द्रियविषयाधीनता और स्त्यानगुद्धि निद्रावाले (जसमें अर्धचक्रवर्ती अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने उक्त प्रकार के अनवस्थाप्य जितना बल रहता है और नींद में ही नियत स्थान पर जाकर हिंसादि प्रायश्चित योग्य दोषों की शुद्धि हेतु किसे किस परिस्थिति में कौन कार्य करके वह व्यक्ति पुनः लौट आता है, तथापि उसे पता नहीं सा अपराध करने पर कितना प्रायश्चित दिया जाय - इसका भी विस्तृत चलता) साधु को यह लिङ्ग प्रायश्चित दिया जाता है ।145 वर्णन किया है, साथ ही अनवस्थाप्य प्रायश्चित अंगीकार करने-कराने अन्योन्यपाराञ्चित प्रायश्चित :का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावपूर्वक सविधि वर्णन भी किया है। आपस में साधु-साधु का एक-दूसरे के मुखादि प्रयोग से पाराञ्चित प्रायश्चित : सेवन सर्वथा अकल्प्य (सर्वथा त्याज्य) है। तथापि यदि कोई ज्ञानी लिङ्ग, क्षेत्र, काल और तप के द्वारा जिस प्रायश्चित के सेवन होने पर भी एसा करे तो अन्योन्यपाराञ्चित प्रायश्चित योग्य एसे श्रमण से अपराधी पार (तीर) अर्थात् पाप से मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त होता का त्याग करना चाहिए। उनसे लिङ्ग अर्थात् साधुवेश वापिस ले है उसे पाराञ्चित प्रायश्चित कहते हैं।37 | वे अपराध जो अत्यन्त गर्हित लेना चाहिए।146 इस प्रायश्चित के विषय में विशेष गुरुगमगम्य हैं। (त्याज्य) हैं और जिनके सेवन से न केवल व्यक्ति की, अपितु संपूर्ण जीतकल्प में कहा है कि कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, राजवध, जैनसंघ की व्यवस्था धूमिल होती है, पाराञ्चित प्रायश्चित के योग्य राजमहिषी (राजा की रानी) के साथ मैथुन सेवन करने पर प्रतिसेवना होते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में इसका विस्तृत वर्णन किया गयाहै, पाराञ्चित प्रायश्चित के योग्य अपराध माना जाता है। 147 जो संक्षेप में निम्नानुसार है- पाराञ्चित प्रायश्चित मुख्य रुप से दो पाराञ्चित प्रायश्चित के प्रकार :प्रकार का है - (1) आशातना और (2) प्रतिसेवना ।138 1. लिङ्ग - अपराधी साधु का साधुवेश ले लेना या प्रयत्नपूर्वक उससे आशातना पाराञ्चित प्रायश्चित : रजोहरण-मुहपत्ति आदि साधुवेश का त्याग करवाना - लिङ्ग प्रायश्चित तीर्थंकर, (तीर्थंकर की प्रतिमा), श्रुत (जिनप्रवचन), आचार्य, कहलाता है। 148 गणधर, महर्द्धिक (सर्वलब्धि संपन्न, महातपस्वी, वादी, विद्यासिद्ध 2. क्षेत्र - क्षेत्र से अपराधी साधु को अपराधस्थान जैसे कि उपाश्रय, आदि) की जानबूझकर अवज्ञापूर्वक निंदा, अवर्णवाद, उनके प्रति शेरी (गली), बाजार, शाखी (घरों की एक समान श्रेणी (लाईन), गाँव, आक्रोश, तर्जना या अन्य किसी भी प्रकार से इन पाँचो के विषय नगर, राजधानी, देश, राज्य, कुल,गण, संघ आदि का त्याग करवाना में प्रवचन विरुद्ध बोलनेवाला जैन संघ का प्रत्यनीक (वैरी) आत्मा अर्थात् अपराधक्षेत्र में अपराधी साधु को नहीं रहने देना क्षेत्र पाराञ्चित आशातना पाराञ्चित के योग्य बनता है ।139 यह प्रायश्चित सर्वचारित्रनाश प्रायश्चित हैं।149 और देशचारित्रनाश भेद से दो प्रकार का है, और समान अपराध होने पर भी जीवों के परिणामों की भिन्नता से अनेक प्रकार का 135. अ.रा.पृ. 1/297 है।140 तीर्थंकर और संघ की सर्वथा या आंशिक आशातना और गणधर 136. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/161; चारित्रसार-144/4 की अंशमात्र भी आशातना करनेवाला पाराञ्चित प्रायश्चित का भागी 137. अ.रा.पृ. 5/857; स्थानांग-3/4; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/93 होता है। शेष की आंशिक आशातना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित और 138. अ.रा.पृ. 5/857, 858; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/94 सर्वथा आशातना करने पर तो पाराञ्चित प्रायश्चित दिया जाता है।।4। 139. अ.रा.पृ. 5/858, 865; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/97 से 104; जीतकल्प 94; भगवती आराधना-1637 प्रतिसेवना पाराञ्चित प्रायश्चित : 140. अ.रा.प्र. 5/858, 865; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-94 से 96; अनगार धर्मामृतयह प्रायश्चित मुख्य रुप से तीन प्रकार का है, जिसके अनेक भेद 7/59 प्रभेद हैं।42 141. अ.रा.पू. 5/8583; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/105-106: जैनेन्द्र सिद्धान्त (1) दुष्टप्रतिसेवना पाराञ्चित प्रायश्चित - यह कषाय और विषय के कोश-3/161 भेद से दो प्रकार का है 142. अ.रा.पृ. 5/859, 866; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/1153 (क) कषायदुष्ट - क्रोध, मान, माया और लोभ रुप जिस तीव्र 143. अ.रा.प. 5/859 से 861; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/161 कषाय के उदय से शिष्यादि के द्वारा आचार्यादि के दन्तभञ्जन, 144. अ.रा.पृ. 5/861 मारण, नेत्रनाश या उनके शव को भी दाँत से काटने रुप अकार्य 145. अ.रा.पृ. 5/861, 862, 866 होते हैं, एसे अकार्यों के प्रायश्चित को कषायदुष्ट प्रतिसेवना पाराञ्चित 146. अ.रा.पृ. 5/862, 866 प्रायश्चित कहते हैं।143 तथा राजा, मंत्री अथवा अन्य गृहस्थ का 147. अ.रा.पृ. 5/865; चारित्रसार-146/3 घातक अथवा उन्हें घात हेतु प्रेरणा देनेवाले को भी लिङ्गपाराञ्चित 148. अ.रा.पृ. 5/862, 866 प्रायश्चित दिया जाता हैं।144 149. अ.रा.पृ. 5/866-867; जीतकल्प-98-99 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 3. काल - आशातना पाराञ्चित प्रायश्चित जधन्य से छः मास और उत्कृष्ट से एस वर्ष तथा प्रतिसेवना पाराञ्चित प्रायश्चित जघन्य से एक वर्ष और उत्कृष्ट से 12 वर्ष तक का होता है । 150 4. तप - पाराञ्चित प्रायश्चित वहन करनेवाले (पाराञ्चिक) आचार्य जिनकल्पी की तरह रुक्षाहार (आयंबिल) ग्रहण करते हैं। दिन के तृतीय प्रहर में विहारादि समस्त कार्य समाप्त कर चतुर्थ प्रहर में ध्यानादि करते हैं। जो आचार्य संघाज्ञा से या गुर्वाज्ञा से पाराञ्चित प्रायश्चित अंगीकार करते हैं वे यह तप या तो वेशगोपन करके गुप्तरुप से या अन्य आचार्य के पास जाकर करते हैं जिससे स्वगच्छ के साधुओं में उनकी अवज्ञा, आशातना, अनादर न हो, जिससे उनके स्वगच्छीय साधु / शिष्यादि स्वच्छंदी न बने 1151 तपस्वी पाराञ्चिक आचार्य जिनकी निश्रा में रहकर प्रायश्चित करते हुए उनसे आधा योजन दूर क्षेत्र में रहते हैं। वहाँ वे आचार्य पाराञ्चिक का दोनों समय अवलोकन करते हैं, उनको सूत्र पोरिसी -अर्थ पोरिसी आदि देते हैं। ग्लानावस्था में उनकी गोचरी-पानी से वैयावृत्त्यादि करते हैं । यदि आचार्य स्वयं किसी कारण से उक्त कार्य नहीं कर सके तो गीतार्थ शिष्य के द्वारा करवाते हैं। 152 अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रायश्चित तप का भेद-प्रभेद सह विस्तृत वर्णन करते हुए आचार्य श्रीने प्रायश्चितदाता के गुण, प्रायश्चित ग्रहण करने की विधि, परिस्थिति आदि का भी निम्नानुसार वर्णन किया है। इन दशों प्रायश्चितों में आलोचना प्रायश्चित प्रथम है और कोई भी दोष गुर्वादि के समक्ष प्रगट करने पर ही उसका विभिन्न रुपों से शुद्धिकरण संभव होता हैं। इन सब विषयों का अभिधान राजेन्द्र कोश में 'पच्छित्त' और 'आलोयणा' शब्द पर विस्तृत वर्णन किया गया है जो संक्षेप में निम्नानुसार हैंआलोचनादाता की दस विशिष्टताएँ 153 : जैन वाङ्मय में गंभीर, उदारचेता, बहश्रुत एवं अनुभवी आचार्यों के पास आलोचना लेने का विधान है। आलोचना के अपराधों का श्रवण करनेवाला आलोचनादाता अपने आप में विशिष्टताएँ लिए हुए होना चाहिए । निम्नलिखित गुणों से संपन्न श्रमण आलोचना देने व श्रवण करने योग्य होता हैं - आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अप्रवीडक, प्रकुर्वक, परिस्रावी, निर्यापक, अपायदर्शी, प्रियधर्मा और दृढधर्मा । 1. आचारवान - आलोचनादाता ज्ञानाचार-दर्शनाचारादि पंचाचार से संपन्न हो । 2. आधारवान् - आलोचनादाता अवधारणासंपन्न अर्थात् स्मृतियुक्त हो। चूँकि गंभीर दोषों के दो-तीन बार श्रवणकर तदनुरूप उसका प्रायश्चित दिया जाया है, अन्यथा उसमें न्यूनाधिकता हो सकती हैं। 3. व्यवहारवान् - आलोचनादाता आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत- इन पाँचों व्यवहारों का ज्ञाता हो। इसके अतिरिक्त उत्सर्ग-अपवाद, विधि - निषेध, प्रवृत्ति - निवृत्ति आदि का उचित विधि से प्रवर्तनकर्ता हो । 4. अप्रवीडक - आलोचनादाता आलोचक साधक का संकोच एवं लज्जा दूर कराकर अच्छी तरह से आलोचना करानेवाला हो । 5. प्रकुर्वक आलोचनादाता आलोचक का आलोचित अपराध या दोष का तत्काल प्रायश्चित देकर दोषों की शुद्धि कराने में समर्थ हो । 6. परिस्त्रावी - आलोचनादाता आलोचक के दोषों को अन्य के समक्ष प्रकट करनेवाला न हों । - चतुर्थ परिच्छेद... [321] 7. निर्यापक आलोचकने महा अपराध किया हो, किन्तु शारीरिक अशक्ति अथवा अन्य किसी परिस्थितिवश वह एक साथ सम्पूर्ण प्रायश्चित लेने या करने में असमर्थ हो तो आलोचनादाता उसे थोडा थोडा प्रायश्चित देकर उसकी शुद्धि कराने में समर्थ हों । 8. अपायदर्शी - यदि आलोचक अपराध करने के पश्चात् आलोचना करने में संकोच करता हो तो आलोचनादाता आगमानुसार पारलौकिक भय एवं अन्य दुष्परिणाम दिखाकर उसे आलोचना लेने का इच्छुक बनाने में निपुण हो । 9. प्रियधर्मा - आलोचनादाता प्रियधर्मी हो । 10. दृढधर्मा - आलोचनादाता आपत्तिकाल में दृढधर्मी हों । इस प्रकार आलोचनादाता में सभी गुण होना नितान्त आवश्यक हैं, जिससे आलोचक साधक, विश्वास एवं प्रसन्नतापूर्वक आलोचनादाता के पास आलोचना लेकर स्वकृत दोषों की शुद्धि कर सके । आलोचना करने योग्य व्यक्ति :सोही उज्जुभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठह्न 1154 सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है। अर्थात् माया आत्मा की सरलता को समाप्त कर देती हैं। धर्म तो शुद्ध सरल हृदय में ही टिकता है। जिसने हृदय की कोमलता पायी है, जीवन में सरलता अपनायी है, वही अध्यात्म पथ का पथिक बन सकता है, वही आलोचना कर सकता हैं। आलोचक साधक प्रतिपल सजग, सचेत और विवेकशील रहता हैं। दस गुणों से संपन्न साधक स्वदोषों की आलोचना करने योग्य होता हैं । वे अग्रलिखित हैं- जातिसंपन्न, कुलसंपन्न, विनयसंपन्न, ज्ञानसंपन्न, दर्शनसंपन्न, चारित्रसंपन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी और अपश्चातापी 1155 उपर्युक्त गुणों पर यदि गम्भीरता से चिन्तन किया जाय, तो विदित होता है कि इनमें से एक-दो गुण भी यदि साधक के जीवन में हों, तो वह पाप की ओर कदम रखने में संकोच करेगा और कदाचित् कदम बढा भी दिया, तो दोष स्वीकार कर प्रायश्चित के लिए अनवरत तैयार रहेगा । आलोचना के दस दोष 156 दस आलोयणादोसा पन्नता, तं जहा अकम्पयित्ता, अणुमाणइत्ता, जं दिट्टं बायरे च सुहुमं वा । छन्नं सद्दाउलयं, बहुजण अव्वत्त तस्ससेवी ॥ आकम्पयिता : : प्रसन्न करने की मनोवृत्ति यह आलोचना का प्रथम दोष है। आलोचक साधक पहले आचार्यादि की सेवा-भक्ति करके उन्हें प्रसन्न करता है तदनन्तर उनसे दोषों की आलोचना करता है, चूँकी वह यह सोचता है कि सेवा आदि से प्रसन्न होने पर गुरु मुझे थोडा 150. अ.रा. पृ. 5/862, 5/867; जीतकल्प-100 151. अ.रा. पृ. 5/863 152. अ.रा. पृ. 5/863, 867 153. अ.रा. पृ. 2/458; भगवतीसूत्र - 25/7; स्थानांग - 10/72 154. अ.रा. पृ. 3/1053; उत्तराध्ययन-3/12 155. अ.रा.पृ. 2/458, 459 एवं 5/187; भगवतीसूत्र- 25/7; स्थानांग - 10/71 156. अ.रा. पृ. 2/460, 461, 5/187; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 1/277; भगवती आराधना मूल 563 से 602 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [322]... चतुर्थ परिच्छेद प्रायश्चित देंगे, लेकिन यह एक तरह से उत्कोच (रिश्वत) देने जैसी मनोवृत्ति हैं। अणुमाणइत्ता : अनुमान लगाना यह आलोचना का दूसरा दोष हैं। पहले लघु अपराध की आलोचना लेकर यह अंदाज लगा लेना कि गुरु कठोर प्रायश्चित देते हैं या मृदु, उसके बाद अन्य आलोचना करना । दिट्ठे (दुष्ट) : जिस दोष या अपराध को आचार्य अथवा अन्य किसी ने देख लिया हो, उसी दोष की आलोचना करना, शेष अपराधों को उनके समक्ष प्रकट न करना । अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन भी पूर्ण विचार किया गया हैं। इन विषयों पर विचार करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि आलोचनाग्राही (प्रायश्चिती) नीरोगी हैं या रोगी ? हृदय-पुष्ट है या दुबला-पतला ? गीतार्थ है या अगीतार्थ ? समर्थ है असमर्थ ? सरल है या मायावी ? परिणामी (परिपक्व है, अपरिणामी है या अतिपरिणामी) ? धैर्य - संहननादि युक्त है या उससे हीन ? आत्मतर (आत्मतप स्वयं तप करनेवाला) है या परतर (पर तप- वैयावृत्त्यादि करनेवाला) है या उभयतर (दोनों प्रकार के तप करने वाला) है ? कल्पस्थित है या कल्परहित है ? आचार्य है ? उपाध्याय है ? कृतकरण (आवश्यकादि करनेवाला) है ? गीतार्थ है ? स्थिर बुद्धि है ? इसी प्रकार दोषी व्यक्ति के द्वारा आलोचित दोष का सेवन सावद्य क्रिया में उत्साहपूर्वक किया गया है या बिना उत्साह से ? प्रमाद से किया गया है या अप्रमाद से? दर्प (अभिमान, हास्यादि) से किया गया है या परिस्थितिवश ? सुकाल में किया गया है या दुष्काल में ? ग्राम-नगरादि में किया गया हैं या अरण्य में ? इत्यादि प्रकार से प्रायश्चित ग्रहण करने वाले व्यक्ति के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादि का पूर्ण विचार करके पात्रानुसार जीतकल्प में कहे हुए प्रायश्चित के अनुसार या उससे हीन या अधिक भी प्रायश्चित दिया जाता है। ये सभी प्रायश्चित प्रायः प्रमादाचरण के लिए दिये जाते हैं। प्रमादी मुनि यदि अभिमानी है, मायावी है, अकृतकरण है - तो उसे अधिक दण्ड मिलता है, यदि उससे विपरीत अप्रमादी, सरल, नम्र अकृतकरण है तो उसे न्यून प्रायश्चित तप प्रदान किया जाता हैं। 158 आलोचना का योग्य साक्षी : बायर (स्थूल) : केवल बडे-बडे अपराधों की आलोचना करना, लघु दोषों की नहीं। यह आलोचना का चौथा दोष हैं 1 सुमं (सूक्ष्म) : मात्र छोटे दोषों की आलोचना करना जो अपने छोटे अपराधों की भी आलोचना करता है, वह बड़े दोषों को कैसे छिपा सकता हैं ? संघ एवं गुरुजनों के मन-मस्तिष्क में एसा विश्वास उत्पन्न करने के लिए मात्र सूक्ष्म दोषों की आलोचना करना । छन्न (प्रच्छन्न) - लज्जालुता का प्रदर्शन करते हुए प्रच्छन्न स्थान में जाकर आलोचना करना और इस रीति से कि जिसे आलोचनादाता भी न सुन सके अथवा अस्पष्ट आवाज में आलोचना करना । सद्दाउयं ( शब्दाकुल) : दूसरों को सुनाने के लिए ऊँचे स्वर में आलोचना करना । बहुजण (बहुजन) : प्रशंसार्थी बनकर लोगों में अपनी पापभीरुता प्रकट करने के लिए एक ही दोष को अनेक गुरुजनों के पास जाकर आलोचना करना । अव्वत्त (अव्यक्त) किसी दोष या अतिचार का किसे क्या प्रायश्चित दिया जाता है, इस बात का जिसे बोध ही नहीं है, एसे अगीतार्थ श्रमण के पास जाकर स्वदोषों की आलोचना करना तस्सेवी (तत्सेवी) जिस दोष की आलोचना करना है, उसी दोष का सेवन करने वाले गुरु के पास जाकर उसकी आलोचना करना । यह सोचना कि ये स्वयं इस दोष के सेवी है, अतः मुजे उपालम्भ (उलाहना) भी नहीं देंगे; अधिक कुछ नहीं कहेंगे और प्रायश्चित भी अल्प देंगे । आलोचनाविधि में भाषा के व्यवहार में गृहस्थोचित शब्दों - का प्रयोग न करके संयमित भाषा का प्रयोग करना चाहिये। भाषा में मूकता और मुखरता इन दोनों को हटाकर आलोचक संयमित भाषा का व्यवहार करें। 157 प्रायश्चित देते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार : जैनागमों में दोषी व्यक्ति के द्वारा गुरु के समक्ष अपना दोष प्रगट करने पर उसे तपादि सभी प्रकार के प्रायश्चित रूप दण्ड देते समय प्रायश्चित ग्रहण करनेवाले व्यक्ति के बारे में एवं उसकी तत्कालीन परिस्थिति तथा दोषसेवन करते समय की परिस्थिति पर : आलोचना करने वाला श्रमण गीतार्थ के पास आलोचना करे, अगीतार्थ के पास नहीं । किन्हीं आचार्यों के मतानुसार आलोच स्वकृत दोषों की आलोचना औत्सर्गिक रुप से आचार्य भगवंत के पास ही करें 159। जीतकल्प में यह भी उल्लेख है कि आलोचना सर्वप्रथम अपने आचार्य उपाध्याय के पास करे। अपने सांभोगिक बहुश्रुत- बह्वागमधारी श्रमण के पास और उनके अभाव में समान रुप वाले बहुश्रुत श्रमण के पास, उनके अभाव में पच्छाकडा अर्थात् जो संयमी जीवन से पतित होकर श्रावक व्रत पाल रहा है, लेकिन पहले संयम पाला होने के कारण उसे प्रायश्चित्त विधि का ज्ञान है, एसे श्रावक के पास, उनके अभाव में जिनभक्त बहुश्रुत यक्षादि देवों के पास, संयोग से कदाचित् ये भी न हो तो गाँव या नगर के बाहर जाकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुँह करके विनम्र भाव से अञ्जलिबद्ध नतमस्तक होकर अपने दोषों का स्पष्टतः उच्चारण करें। इस प्रकार अपने अपराधों को स्पष्ट रुप से बोलते हुए अरिहन्तसिद्ध परमात्मा की साक्षी से स्वदोषों की आलोचना करें 160 । 157. अ.रा. पृ. 2/460; पंचवस्तुक सटीक, गाथा - 86-88; 158. अ.रा. पृ. 4/2185 से 2188; जीतकल्प-68-76; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश3 / 159; भगवती आराधना 626; 159. अ.रा. पृ. 2/450; पंचाशक सटीक वृत्ति 15 160. अ.रा.पृ. 2/450-451; व्यवहारसूत्रवृत्ति उद्देश । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आलोचना वीतरागी गुरु के समक्ष ही की जानी चाहिए। योग्य आचारों को जानने वाले आचार्यो के पास ही सूक्ष्म अतिचार विषयक आलोचना करना हो तो वह भी प्रशस्त ही करनी चाहिए।"" । आलोचना सदा परसाक्षी से ही होती हैं। गीतार्थ आचार्य को भी आलोचना परसाक्षी से ही लेनी चाहिए, इसका वर्णन करते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि आचार्य के छत्तीस गुणों से समन्वित एवं श्रेष्ठ ज्ञान व क्रिया व्यवहार आदि में विशेष निपुण श्रमण भी पापशुद्धि, दोषों की आलोचना परसाक्षी से ही करे; अपने आप नहीं। जैसे परम कुशल वैद्य भी अपनी बीमारी दूसरे वैद्य से कहता है एवं उस वैद्य के कथनानुसार कार्य भी करता है, इसी प्रकार आलोचक प्रायश्चित - विधि में दक्ष होते हुए भी अपने दोषों की आलोचना प्रकट रूप से अन्य के समक्ष करें, क्योंकि एसा करने से हृदय का सारल्य प्रकट होता है और अन्य को भी शुद्ध होने की प्रेरणा मिलती हैं । 162 प्रायश्चित के लाभ : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने प्रायश्चित के लाभ वर्णन करते हुए कहा है कि जो साधक गुरुजनों के समक्ष मन के समस्त शल्यों (काँटों) को निकालकर आलोचना (आत्म निंदा करता है, उसकी आत्मा सिर का भार उतर जाने के बाद भारवाहक की तरह लघु हो जाती हैं 163 । प्रायश्चित करने से जीव पापों की विशुद्धि करता है एवं निरतिचार / निर्दोष / विशुद्ध बनता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित करनेवाला साधक, मार्ग (मोक्षमार्ग रुप सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र) और मार्ग - फल; - दर्शन- ज्ञान को निर्मल करता है, आचार (चारित्र) और आचारफल (मोक्ष) की आराधना करता हैं 164, भाररहित होकर सद्ध्यान में रमण करता हुआ सुखपूर्वक विचरण करता है 165 और आगे चलकर कृतपाप के पश्चाताप से वैराग्यवान् होकर क्षपक श्रेणी प्राप्त करता हैं।66 जिससे जीव को केवलज्ञानादि और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। विनय तप : अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार प्रापणार्थक 'णीञ्' धातु में 'वि' उपसर्ग जोडने पर विनय शब्द बना है 167। अभिधान राजेन्द्र कोश में विनय की अनेक परिभाषाएँ संग्रहीत की गयी हैं(1) जिससे आठ प्रकार का कर्म दूर होता है उसे 'विनय' कहते है 168 | (2) मोक्ष के लिए जो चतुर्गति रुप संसार और आठों कर्मों का विनयन (नष्ट) करता है, इसलिए उसे 'विनय' कहते हैं 169 । (3) ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का शीघ्र विनाशक होने के कारण वह विनय कहलाता है, एसा विद्वानों का अभिप्राय है और वह मुक्तिफलदाता धर्म-वृक्ष का मूल है 170 । (4) सकलक्लेशोत्पादक आठ प्रकार के कर्मों का जो नाश करता है, वह विनय है 171 | (5) विनय धर्म का मूल हैं 172 | (6) धर्म विनयमूलक हैं 173 | (7) विनय ही तप हैं 174 | विनय का व्यवहारिक स्वरुप : अपने से बड़े एवं गुरुजनों का देशकालादि की अपेक्षा से यथोचित (यथायोग्य) सत्कार करना, विनय है। गुरुजनों को आते देखकर खडे होना एवं उन्हें अञ्जलिबद्ध प्रणाम, वंदन, आसनदान, चतुर्थ परिच्छेद... [323] भक्ति, सेवा-शुश्रूषा, गुर्वाज्ञापालन करना एवं उनके सामने नम्रतापूर्वक रहना विनय हैं 175 | आचार्य सोमदेवसूरि ने भी कहा है कि व्रत, विद्या एवं उम्र में बड़ों के सामने नम्र आचरण करना विनय है 176 । (1) नम्रतासूचक व्यवहार - अभिधान राजेन्द्र कोश में विनय का नम्रतासूचक स्वरुप बताते हुए कहा है कि शिष्य अपनी शय्या गुरु से नीची रखे, गुरु के साथ चलते हुए अतिनिकट, अतिदूर आगे या सटकर न चले। गुरु से सटकर या आगे या पीठ करके, अतिदूर या घुटने से घुटना टिकाकर नहीं बैठे। पैर लम्बे करके, फैलाकर या पैर के ऊपर पैर रखकर या ऊँचा या बड़ा आसन लगाकर न बैठे। वंदन करते समय नम्र होकर हाथ जोड़कर गुरु को चरण स्पर्श करें 177 गुरुवाणी को शय्या या आसन पर बैठे-बैठे न सुने अपितु गुरु के द्वारा एक बार या बार-बार बुलाने पर भी आसन छोड़कर गुरु के पास जाकर विनयपूर्वक पूछे 78 । आचार्यादि गुरुजनों के द्वारा बुलाये जाने पर कदापि मौन न रहे 179 । आसन पर बैठकर गुरु से प्रश्नादि न पूछे, अपितु उत्कटासन में अंजलि-बद्ध मुद्रा में पूछे180 । से विनीत शिष्य- देश - काल- ऋतु - परिस्थिति, इंगिताकार, चेष्टादि गुरु के अभिप्राय को जानकर तदनुकूल उपाय से गुरु के बिना कहे ही तद्योग्य कार्यों को संपादित करें |8| | शिष्य को लौकिक स्वार्थ को छोडकर ज्ञानादि पञ्चाचारों की प्राप्ति हेतु विनय (गुरु भक्ति) करनी चाहिए 182 । शिष्य गुरु आदि अल्पव्यस्क होने पर भी दीक्षापर्यायादि में जो ज्येष्ठ है, उन सबके साथ विनम्र व्यवहार करें और विनम्र और सत्यवादी बनकर गुरुसेवा में रहते हुए गुर्वाज्ञा का पूर्णतया पालन करें 183 । 161. भगवती आराधना, पृ. 560; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 278 162. अ.रा.पृ. 2/450; गच्छाचार प्रकीर्णक गाथा 12-13; ओघनियुक्ति 794 795 163. अ.रा.पृ. 2/428, 432, 5/316; ओघनियुक्ति 806 164. अ.रा. पृ. 5/856; उत्तराध्ययन-29/19 165. अ.रा. पृ. 3/428; उत्तराध्ययन-29/14 166. अ.रा. पृ. 4/2018 उत्तराध्ययन-29/8 167. अ. रा.पू. 6/1152; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- 3/548 168. अ. रा.पू. 6/1152 169. अ.रा.पृ. 3/523; आवश्यक निर्युक्ति - 867; स्थानांग सूत्र सटीक - 6/531 170. अ. रा.पू. 6/1152; द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका -28 171. अ. रा.पू. 6/1152 172. अ.रा.पृ. 1/696; अंगचूलिका - अध्ययन-5 173. अ. रा.पू. 3/418; बृहदावश्यक भाष्य- 4441 174. अ.रा. पृ. 1/545 प्रश्नव्याकरण - 2/3 175. अ. रा.पू. 6/1152; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 548 176. नीति वाक्यामृत - 11/6 177. अ.रा.पू. 6/1172, 1163; उत्तराध्ययन- 1/18 दशवैकालिक, मूल- 9 / 2/17 178. अ. रा.पू. 6/1163 1172; उत्तराध्ययन-1 /21; दशवैकालिक, मूल-9/ 2/18 179. अ.रा. पृ. 6/1163; उत्तराध्ययन-1/20 180. वही, उत्तराध्ययन- 1/22 181. अ. रा.पू. 6/1172, 1173; दशवैकालिक, मूल-9/2/21, 9/3/1 182. वही, वही 9/3/1 183. वही, वही 9/3/2, 8/41 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [324]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) अनुशासनात्मक स्वरुप - शिष्य के द्वारा सत्कार (शिरोनमन), अञ्जलि (अञ्जलिबद्ध प्रणाम), शुश्रूषा (शरीर सेवा), गिरा (वाणी द्वारा सातापृच्छादि, गुणकीर्तन) मानस (अन्त:करण में अटूट श्रद्धा, बहुमान, पूर्ण समर्पण एवं भक्तिभाव) भक्ति द्वारा गुर्वाज्ञा को यथोचित शिरोधार्य करना, उनके निकट रहना, जातिवान् अश्ववत् इंगिताकार से ज्ञातकर तदनुकूल वर्तन करना, उन्हें पुनःपुनः कहने का अवसर नहीं देना अनुशासनात्मक विनय हैं।164 इससे शिष्य उग्रस्वभावी गुरु को भी प्रसन्न कर लेता हैं ।185 गुरुजनों का कोमल या कठोर भी अनुशासन (हित-शिक्षा), दुष्कृत्यों से बचने हेतु दी गई प्रेरणा को बुद्धिमान् विनीत शिष्य हितकारी मानता है।86 | क्योंकि आज्ञाराधन के बिना सब निरर्थक हैं । 187 आज्ञाभंग नहीं करना चाहिए, आज्ञा-भंग करनेवाले को सुख नहीं हैं। 188 गुर्वाज्ञा-भंग सारे अनर्थो की जड है।89 | कठोर अनुशास्ता गुरु पर भी कोप करना दिव्यलक्ष्मी को लाठी प्रहार से रोकने तुल्य हैं।190 (3) शील-सदाचारात्मक विनय - विष्टाप्रिय शूकर की तरह अविनीत दुःशीलप्रिय होता है। । दुःसील, उद्दण्ड, वाचाल, असदाचारी और गुरु से प्रतिकूलाचारयुक्त अविनीत सब जगह सडे कानवाली कुतिया की तरह सर्वत्र अपमानित होकर दर-दर की ठोकर खाता है।2। अत: अविनय के दोषों को जानकर मुमुक्षु शिष्य सदैव विनय की आराधना करें, विनय की अन्वेषणा करें जिससे उसे शील-सदाचार की सम्यक् प्राप्ति हों1931 (4) संयमात्मक विनय - विनय जिनशासन का मूल है। विनीतात्मा ही संयमी हो सकता है, आत्मदमन (संयम पालन) कर सकता है और गुरुजनों का अनुशासन मान सकता है।4। प्राणान्त संकट में भी धर्मशासन का उल्लंघन या त्याग नहीं करनेवाला दृढसंकल्पी आत्मा ही इन्द्रियसंयम या आत्मसंयम का पालन कर सकता है।95 | आत्मसंयमी ही इसलोक और परलोक में सुखी होता है।% । इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने उपर्युक्त विविध परिभाषाओं के द्वारा विनय के आध्यात्मिक, व्यवहारिक एवं धार्मिक पहलुओं को प्रकाशित किया है जिसे यहाँ अतिसंक्षेप में दर्शाने का प्रयत्न किया हैं। विनय के भेदार : अभिधान राजेन्द्र कोश में ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनोविनय, वचनविनय, कायविनय और लोकोपचार विनय-विनय के ये सात प्रकार बताये हैं। इन सातों के भी अवान्तर भेद हैं। ज्ञानविनय : ज्ञान तथा ज्ञानी पर पूर्ण श्रद्धा रखना, भक्ति और बहुमान रखना, उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तुतत्त्वों पर चिन्तन-मनन-अनुशीलन करना, विधिपूर्वक ज्ञान ग्रहण करना, अध्ययन करना, उनकी आज्ञाओं का पालन करना, उनकी शरण स्वीकार करना ज्ञानविनय हैं।198 ज्ञानी से यहाँ पाँचों ही ज्ञानधारक समझना चाहिये । अपने ज्ञानावरणीय कर्म क्षय करने के लिए उनका समादर-सत्कारसम्मान करना आवश्यक हैं। शिष्य जिस ज्ञानी गुरु से आत्मगुणविकासी धर्म (सिद्धान्त) वाक्यों की शिक्षा लें, उनकी पूर्ण रुप से विनय भक्ति करें।200 जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण सदैव मधु-धृतादि विविध प्रकार की आहुतियों और मंत्रपदों से अग्नि का अभिषेक करता है वैसे अनन्तज्ञानी (केवलज्ञानी) शिष्य भी अपने गुरुजनों की और आचार्य (गुरु) की सविनय-उपासनासेवा-भक्ति-स्तुति-वन्दन-और अभिवंदन करें201 । दर्शनविनय : सम्यग्दृष्टि के प्रति विश्वास तथा आदर भाव प्रकट करना, स्तुति आदि द्वारा सम्यग्दृष्टि गुरुजनों का सत्कार-सम्मान करना तथा इनकी ज्येष्ठता-श्रेष्ठता और पद-प्रतिष्ठा का सम्मान करते हुए सम्मानजनक व्यवहार करना दर्शनविनय हैं ।202 इसके भी दो भेद हैं- शुश्रूषाविनय और अनाशातना विनय ।203 शुश्रुषाविनय के निम्नानुसार अनेक भेद बताये हैं और अनाशातना विनय के पैंतालीस204 (45) और बावन205 (52) भेद हैं। (1) शुश्रुषा विनय - पूज्य पुरुषों एवं मोक्ष के साधकों के प्रति आदर रखना शुश्रुषाविनय है2061 गुरु के प्रति आदर, सत्कार, भक्ति, सम्मान-बहुमान, सेवा-शुश्रुषा करना, उनके आने पर खडे होना, हाथ जोडना, आसन देना, वंदन करना, उनके सामने नम्रतापूर्वक अञ्जलिबद्ध होकर बैठना, उपासना करना, उनके शुभागमन पर सामने लेने जाना, प्रस्थान करने पर कुछ दूर तक उनके साथ पहुँचाने जाना - यह सब शुश्रूषा विनय कहलाता हैं |207 गुरु के अनुशासन में रहना, आज्ञा पालन करना और उनके प्रति त्रियोग से नम्र व अनुद्धत रहना विनय हैं208 । (2) अनाशातना विनय - यह भेद दर्शनविनय के अन्तर्गत है। अपने गुरुजनों के सम्मान में ठेस पहुँचे या उनकी पद 184. अ.रा.पृ. 6/1158, 1169, 1170; दशवैकालिक, मूल-9/1/123 उत्तराध्ययन-1/3 185. अ.रा.पृ. 6/1161; उत्तराध्ययन-1/13 186. अ.रा.पृ. 6/1164; उत्तराध्ययन-1/27-28-29 187. अ.रा.पृ. 2/141; हीर प्रश्न-प्रकाश-1 188. अ.रा.पृ. 2/141, 138; महानिशीथ-5/120 189. अ.रा.पृ. 3/944; पञ्चाशक सटीक-विवरण-5 190. अ.रा.पृ. 6/1160, 1171; उत्तराध्ययन-1/9; दशवैकालिक, मूल-9/24 191. अ.रा.पृ. 6/11593; उत्तराध्ययन-1/15 192. अ.रा.पृ. 6/1158; उत्तराध्ययन-1/4 193. अ.रा.पृ. 6/1159; उत्तराध्ययन-1/6-7 194. अ.रा.पृ. 3/523 195. दशवैकालिका, चूलिका-1/17 196. अ.रा.पृ. 6/1162; उत्तराध्ययन-1/15 197. अ.रा.पृ. 6/1153; भगवतीसूत्र 25/7; औपपातिक सूत्र-20 तप वर्णन; स्थानांग-7 ठाणां 198. वही, भगवती आराधना-113; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/551 199, अ.रा.प्र. 6/1153; औपपातिक सूत्र-20 तप वर्णन; भगवती सत्र 25/7 200. अ.रा.पृ. 6/1169; दशवैकालिक 9/1/12 201. अ.रा.पृ. 6/1169; दशवैकालिक 9/1/11 202. अ.रा.पृ. 6/1153 203. अ.रा.पृ. 6/1153; औपपातिक सूत्र-20 तप वर्णन; भगवती सूत्र-25/7 204. अ.रा.पृ. 1/263; भगवती सूत्र-257 205. अ.रा.पृ. 6/1153; एवं 11753 दशवेकालिक-9/2 सूत्र सटीक 206. सर्वार्थ सिद्धि-9/20/439 207. अ.रा.पृ. 6/1153; औपपातिक सूत्र-20 तप वर्णन; भगवती सूत्र-25/7 208. अ.रा.पृ. 1/283; उत्तराध्ययन-30/32 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [325] प्रतिष्ठा की अवमानना हो - एसा कोई भी कार्य नहीं करना और उनकी अवज्ञा-अपमान/आशातना करनेवाला कोई भी अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रकारान्तर से विनय के पाँच अनुचित व्यवहार नहीं करना-अनाशातना विनय हैं। प्रकार बताये हैं-17 - 1. लोकोपचार विनय 2. अर्थ विनय 3. काम यह अनाशातना विनय अरिहन्त, आर्हद् धर्म, आचार्य, उपाध्याय, विनय 4. भय विनय और 5. मोक्ष (आत्म) विनय । स्थविर, कुल, गण, संघ, क्रियावन्त, सम्भोगी (समान आचार (1) लोकोपचार विनय :वाले श्रमण) मति-श्रुतादि पाँच ज्ञानों के धारक-इन पन्द्रह अन्य को सुख पहुँचाने वाले बाह्याचार को लोकोपचार विनय की आशातना नहीं करना, अपितु इनकी भक्ति, बहुमान और कहा जाता हैं। जनता का व्यवहार लोकोपचार कहलाता है। गुणगान करने रुप तीन भेदों के कारण 45 प्रकार का हैं।209 लौकिकलाभार्थ या लोकव्यवहार निभाने के लिए माता-पिता, शिक्षकयह अनाशातना विनय प्रकारान्तर भेद से तीर्थंकर, सिद्ध, गुरुजन आदि की विविध प्रकार से विनय-भक्ति, सेवा सत्कार पूजादि कुल,गण, संघ, क्रियाधर्म, ज्ञान, ज्ञानी, आचार्य, स्थविर, उपाध्याय करना लोकोपचार विनय है। इसमें मुख्यतः प्रदर्शन की भावना होती और गणी-इन तेरह पुरुषों की अनाशातना, भक्ति, बहुमान और है, मात्र औपचारिकता रहती है, अन्तः प्रसूत प्रेरणा नहीं । जैसे उचित वर्णसंज्वलनता (गुण प्रशंसा) -इन चार के योग से 52 प्रकार का लोगों के आगमन पर खडे होना, सम्मुख जाना इत्यादि। हैं।210 गृहागत की भोजनादि से अतिथि-पूजा करना आदि सब भगवती आराधना में सम्यग्दर्शन के अंगों का पालन, भक्ति लोकोपचार के अन्तर्गत माना गया है ।218 लोकोपचार विनय के सात पूजादि गुणों का धारण तथा शंकादि दोषों के त्याग को दर्शनविनय अवान्तर भेदकहा है। अभिधान राजेन्द्र कोश में लोकोपचार के सात प्रकारों पर प्रकाश डाला चारित्र विनय : गया हैंविनय का तीसरा भेद है चारित्र-विनय । इसके पाँच भेद । 1. अभ्यासवृत्तिता - सामान्यतः अभ्यास का अर्थ होता है प्रयास करना, किन्तु यहाँ इसका अर्थ है - गुरु आदि के सन्निकट हैं - सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात - इन पाँच चारित्रभेदों और चारित्रसंपन्न आत्माओं के रहना। प्रति श्रद्धा रखना व उसका विनय करना चारित्रविनय है। भव्य 2. परच्छंदानुवर्तिता - गुरुजनों के स्वाभावानुकूल रहना; उनकी इच्छा प्राणियों के सामने उनकी चर्चा-परिचर्चा करना,गुणगान करना भी के अनुरूप वर्तन करना। चारित्रविनय के अन्तर्गत आता है। 12 भगवती आराधना में विषय 3. कार्यहेतु - किसी कार्य को संपन्न करने हेतु विनय करना। कषाय का त्याग एवं समिति-गुप्ति के पालन को चारित्रविनय कहा 4. कृतप्रतिक्रिया - कृत उपकारों की स्मृति रखना। उनके प्रति है।213 त्रिगुप्ति विषयक विनय भेदों का स्वरुप निम्न प्रकार से कृतज्ञ रहते हुए उनके उपकार से अऋण होने का प्रयास करना। समझा जा सकता हैं 5. गवेषणा - आत्मा की खोज करना अथवा रुग्णादि आर्त प्राणियों मनोविनय : की रक्षा हेतु उनकी गवेषणा करना। 6. देश-कालानुज्ञता - देश-काल की परिस्थिति के अनुसार कार्य गुरुजनों का मन से विनय करना, मन पर संयम रखना, मनो-विनय कहलाता है। इसके दो भेद हैं - प्रशस्तमनोविनय और करना या समयोचित प्रवृत्ति करना। अप्रशस्तमनोविनय । मन के शुभ भावों से सुवासित करना प्रशस्तमनोविनय 7. सर्वत्र अप्रतिलोमता - किसी के विरुद्धाचरण न कर सभी कार्यों है और इसके विपरीत आचरण करना अप्रशस्तमनोविनय हैं।214 में अनुकूल रहना, यह विनय की व्यापक पृष्ठभूमि हैं। वचन विनय : (2) अर्थ विनय :वाणी को संयम रखना, उस पर अनुशासन रखना, वचन धन-सम्पत्ति आदि के प्रलोभन से प्रेरित होकर राजा, विनय है। वचन-विनय भी दो प्रकार का है - प्रशस्तवचनविनय श्रीमंत, राज्याधिकारी या सम्पत्तिशालियों का अभ्युत्थान, अंजलि, और अप्रशस्तवचनविनय है। हित-मित, सौम्य, सुन्दर, सत्य वाणी आसन-दानादि द्वारा विनय सेवा-सत्कार व सम्मान करना अर्थ से उनका सम्मान करने को प्रशस्त वचन-विनय कहते हैं। और तत्प्रतिकूल विनय कहलाता हैं। आचरण करना जैसे कर्कश, सावध, छेदकारी आदि भाषा का उपयोग (3) काम विनय :करना अप्रशस्तवचनविनय कहलाता हैं।215 काम-पिपासा की सम्पूर्ति हेतु या भोग-सामग्री प्राप्त करने के कायविनय : 209. अ.रा.पृ. 1/283; भगवती सूत्र-25/7 काय अर्थात् शरीर। इसलिए शरीर से संबंधित होने वाली 210. अ.रा.पृ. 6/1153; एवं 6/1175; दशवैकालिक सूत्र सटीक-9/2 211. भगवती आराधना-114 समग्र प्रवृत्तियों को काय-विनय के अन्तर्गत समाहित किया गया 212. अ.रा.पृ. 3/1175; औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-25/7 है। कायविनय में विवेक की प्रमुखता बतायी गई है। उठना-बैठना, 213. भगवती आराधना-114 चलना-फिरना, शयन करना आदि प्रत्येक प्रवृत्ति विवेकपूर्वक करना 214. अ.रा.पृ. 6/11543 औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-25/7 काय-विनय है । प्रशस्तकाय विनय और अप्रशस्त कायविनय से काय 215. अ.रा.पृ. 6/1154; औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-25 विनय के दो भेद हैं। शरीर से गुरुजनों की भक्ति और विवेकपूर्वक 216. अ.रा.पृ. 6/1154; औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-2511 217. अ.रा.पृ. 6/1152, 11533; दशवैकालिक सूत्र सटीक-9/1; मूलाचार-580 की गई शारीरिक प्रवृत्तियों को प्रशस्तकायविनय कहते हैं। शरीर के 218. अ.रा.पृ. 6/1153; दशवैकालिक सूत्र सटीक-9/1 अविवेक-अशिष्टतापूर्वक अशुभ कार्यो में प्रवृत्त करना अप्रशस्तकाय- 219. अ.रा.पृ. 6/1154; औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-25/7 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [326]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन लिए वैश्यादि कुलीन स्त्रियों के समक्ष नम्रता दिखाना, उनकी खुशामद एक और परिभाषा दी गई है - "भक्तादिभिर्धर्मोपग्रया प्रशंसा करना व धनादि द्वारा उनकी सेवा-सत्कार करना, यह सब हकारिवस्तुभिरुपग्रहकरणे । 222 धर्म साधना में सहारा देनेवाली आहारादि काम विनय हैं। वस्तुओं द्वारा साध्यता पहुँचाना, वैयावृत्त्य कहलाता हैं। (4) भय विनय : जैन परम्परा में वैयावृत्त्य का अत्यधिक महत्त्व बताया गया किसी भी भयवश अथवा अपराध हो जाने पर श्रीमंत, हैं। वह वैयावृव्य दस प्रकार का हैं - यथा आचार्य-उपाध्यायशेठ, शिक्षक, न्यायाधीश, गुरुजन-धर्माचार्यादि का विनय करना, भय- स्थविर-तपस्वी-शैक्ष (नवदीक्षित)-रोगी-साधर्मिक-कुल (एक आचार्य विनय कहलाता है। प्रायश्चित से बचने के लिए गुरुजनों के प्रति के शिष्यों का समुदाय)-गण (एक अथवा दो से अधिक आचार्य नम्रता प्रदर्शित करना भय-विनय है। के शिष्यों का समुदाय)-और संघ का वैयावृत्त्य करना। इस प्रकार (5) मोक्ष विनय : वैयावृत्त्य के ये मुख्य दस पात्र हैं।17 जैन धर्म में मोक्ष विनय गुरुजनों के प्रति नम्रता के अर्थ अभिधान राजेन्द्र कोश में सेवा का महत्त्व प्रतिपादित करते तक ही सीमित नहीं है। वह मोक्ष विनय को धर्म का मूल और हुए यह भी कहा है प्रसन्न व शान्त भाव से रुग्ण साथी की परिचर्या उसका परमफल मोक्ष मानता है। तात्पर्य यह है कि जो आचरण करें।224 व्यवहार आंशिक या सर्वांश रुप से कर्मो के बंधन से मोक्ष-प्राप्ति वैयावृत्त्य के प्रकार :का हेतु हो, उसे मोक्ष-विनय कहते हैं। इसके अतिरिक्त देव-गुरु, उपर्युक्त आचार्य, उपाध्याय स्थविरादि दस में से प्रत्येक धर्म-शास्त्र, मोक्ष-मार्ग की साधना और आचारवान् के प्रति मोक्ष की तेरह प्रकार से वैयावृत्त्य (सेवा) की जा सकती हैं। अत:एव प्राप्ति के उद्देश्य से नम्रता-विनय का प्रयोग करना भी मोक्ष-विनय प्रस्तुत अभिधान राजेन्द्र कोश में वैयावृत्त्य के 130 भेद वर्णित हैं225 | के अन्तर्गत समाहित है। जैन परम्परा में केवल आत्मविनय या मोक्ष- यथाविनय को ही स्वीकार किया गया हैं। (I) आहार देना (2) पानी प्रदान करना (3) शयन के लिए मोक्ष-विनय मुमुक्षु आत्माओं में ही होता है। वह भय, संस्तारक (संथारा) प्रदान करना (4) बैठने के लिए आसनादि प्रदान प्रलोभनादि के सामने नहीं झुकता; वह तो केवल सदगुणो के समक्ष करना (5) गुरुजनों का प्रतिलेखन करना (6) पाँव-पोंछना (7) रुग्णावस्था नतमस्तक होता हैं । में औषध का प्रबन्ध करना (8) मार्ग में थकावट आदि होने पर सहारा उक्त विवक्षित विनय के प्रकारों में आत्मलक्षी विनय की। देना (9) राजादि के क्रुद्ध होने पर आचार्य-संघ आदि की रक्षा करना वास्तविक विनय है, क्योंकि उसमें भावना पवित्र रहती है और वृत्तियाँ (10) शरीर, उपधि आदि का संरक्षण करना (11) अतिचार विशुद्धि विशुद्ध। के लिए प्रायश्चित करना (12) ग्लान को समाधि उत्पन्न करना ओर विनय का महत्त्व : (13) उच्चारप्रस्रवण (मल-मूत्र) आदि के पात्रों की व्यवस्था करना । विनय हमारे समग्र धर्माचरणों की नींव है। अतः साधक आचार्यादि उक्त गुणीजनों की वैयावृत्त्य (सेवा) करने से का बड़े से बडा और छोटे से छोटा आचरण विनयपरक होना चाहिए। महानिर्जरा और निर्वाण प्राप्त करता हैं ।226 वैयावृत्त्य से तीर्थंकर नाम अभिधानराजेन्द्र कोश में 'धम्मस्स विणओ मूलं' बताकर वृक्ष की कर्म का भी बंध होता हैं।227 उपमा से उसे अभिव्यक्त करते हुए कहा है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है कि गुणग्रहण के परिणाम, वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात् श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, पात्र प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्वादि का पुनः शाखाएँ निकलती हैं, शाखाओं में से प्रशाखाएँ फूटती हैं और इसके संधान, तप, पूजा, तीर्थ, अव्युच्छित्ति, समाधि, जिनाज्ञा पालन, संयम, बाद पत्र-पुष्प, फल और रस उत्पन्न होता है। इसी तरह 'विनय' सहाय, दान, निर्विचिकित्सा, प्रभावना, कार्य निर्वाहण - वैयावृत्त्य धर्म रुपी वृक्ष का मूल है और उसका सर्वोत्तम रस है -मोक्ष220 | के ये अठारह गुण हैं।228 विनय मोक्ष का आदिमूल है क्योंकि विनय से ज्ञान, ज्ञान वैयावृत्त्य का फल :से दर्शन (सम्यक्त्व), दर्शन (श्रद्धा) से दर्शनयुक्त चारित्र (आचरण) अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि, वैयावृत्त्य और चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष में अव्याबाध-सुख करनेवालों को कर्मों की महानिर्जरा होती है। जैसे विशिष्ट ज्ञानी के है। विनय का फल शुश्रूषा है, शुश्रूषा का फल श्रुतज्ञान है, ज्ञान द्वारा वैयावृत्त्य की जाती है वैसे वैसे अधिकाधिक कर्मनिर्जरा होती का फल विरति है, विरति का फलआस्रव-निरोध है, आस्रव-निरोध है। यथा दशवैकालिक के ज्ञाता की अपेक्षा आवश्यकज्ञानी यदि का फल संवर है, संवर का फल तपोबल है, तप का फल निर्जरा है, निर्जरा से क्रियानिवृत्ति होती है, क्रियानिवृत्ति से साधक अयोगी 220. अ.रा.पृ. 6/1170 एवं 5/119333; दशवैकालिक-9/2/1-2 221. अ.रा.पृ. 6/1451; स्थानांग-3/3188 बनता है अर्थात् योगनिरोध करता है, योगनिरोध से भव-परम्परा का 222. अ.रा.पृ. 6/1451; स्थानांग टीका-5/1 क्षय होता है, भव-सन्तति (परम्परा) नष्ट होने से मोक्ष प्राप्त होता है। 223. अ.रा.पृ. 6/1451; व्यवहार सूत्र-10 वाँ उद्देश; स्थानांग-10/144; तत्त्वार्थ अतः सर्वकल्याण का कारण विनय हैं। सूत्र-9/24; मूलाचार 390 वैयावृत्य तप (सेवा) : 224. अ.रा.पृ. 3/894; सूत्रकृताङ्ग-1/3/3/13; धवला टीका-8/3; चारित्रसार 152/1 वैयावृत्य का शाब्दिक अर्थ करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश 225. अ.रा.पृ. 6/1451; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/606 में कहा गया है - "व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यम् ।"221 226. अ.रा.पृ. 6/1451 जिस तप में व्यावृत अर्थात् अपनी इच्छाओं, स्वार्थो, कषायों आदि 227. अ.रा.पृ. 6/1460; उत्तराध्ययन-29/43 से हटने की क्रिया हो, वह वैयावृत्त्य हैं। 228. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/606; भगवती आराधना, मूल-309, 310 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [327] वैयावच्च करें तो उसे अधिक निर्जरा होती हैं, उसकी अपेक्षा यदि तत्त्व की ओर आकर्षित करे वह आक्षेपणी धर्मकथा है। वह (1) आगमधर-पूर्वधर-श्रुतधर-14 पूर्वधर मुनि यदि वैयावृत्त्य करते हैं तो आचार-लोच,अस्नान आदि, (2) व्यवहार-विभिन्न प्रकार के प्रायश्चित, उन्हें अधिकाधिक निर्जरा का लाभ होता है ।229 (3) प्रज्ञप्ति-जिज्ञासु को तत्त्व बोध देना, (4) दृष्टिवादिकी - श्रुत ज्ञान उसमें भी परिणाम की शुद्धिपूर्वक वैयावृत्त्य करनेवालों को की अपेक्षा से सूक्ष्म जीवादि भाव कहना । -इत्यादि रुप से चार कर्मनिर्जरारुपी लाभ एवं विनय की भी प्राप्ति होती है । 20 वैयावृत्त्य प्रकार की है-47, अथवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य, समिति, शिवसुख का प्रथम सोपान है। वैयावृत्त्य करने से जिनाज्ञा का पालन गुप्ति आदि का उपदेश देना आक्षेपणी धर्म कथा है ।2-48 होताहै, अनुकम्पा की प्राप्ति होती है; आहारादि के द्वारा वैयावृत्त्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार जिसमें मति आदि सम्यक करने से तीर्थंकर नाम-गोत्र का बंध होता है। भरत चक्रवर्तीने ज्ञानों का तथा सामायिकादि सम्यक्कचारित्रों का निरुपण किया जाता पूर्वभव में सुविहित साधुओं की वैयावृत्त्य के द्वारा शाता वेदनीय है वह आक्षेपणी कथा है24", अथवा जो नाना प्रकार की एकान्त कर्म का उपार्जन किया, जिसके प्रभाव से वे भरत क्षेत्र में चक्रवर्ती दृष्टियों और दूसरे समयों के निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य बनकर, आरीसा भुवन में केवलज्ञान प्राप्त कर राजर्षि बनकर आठों और नौ प्रकार के पदार्थो का प्ररुपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कर्म क्षय करके मोक्ष को प्राप्त हुए 232 कहते हैं।250 अथवा तीर्थंकरादि के वृत्तान्तरुप प्रथमानुयोग, लोक स्वाध्याय तप : का वर्णन रुप करणानुयोग, श्रावक/मुनिधर्म का कथन रुप चरणानुयोग, __स्वाध्याय मुख्य रुप से तीन अक्षरों से मिलकर बना है। पंचास्तिकायादिक के कथन रुप द्रव्यानुयोग, इनका कथन और परमत सु+अधि+ अय = स्वाध्याय । स्वाध्याय कीपरिभाषा देते हुए अभिधान की शंका दूर करे वह आक्षेपणी कथा हैं।251 अथवा जिसके द्वारा राजेन्द्र कोश में कहा हैं - "सष्ठ आ मर्यादया अधीयते इति अपने मत का संग्रह अर्थात् अनेकान्त सिद्धान्त का यथायोग्य समर्थन स्वाध्यायः" 20 व्याकरण की दृष्टि से इसका अर्थ होता है - सम्यक हो उसको आक्षेपणी कथा कहते हैं।252 प्रकार से सच्छास्त्रों को मर्यादापूर्वक पढना स्वाध्याय है। स्वाध्याय (2) विक्षेपणी कथा253 - अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जिस की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि "अपने अन्दर की गहराई कथा में जैन मत के सिद्धान्तों का और पर मत का निरुपण है उसको में उतर कर अपने आपका अध्ययन करना ही वास्तव में स्वाध्याय विक्षेपणी कथा कहते हैं जैसे 'वस्तु सर्वथा नित्य ही है' इत्यादि हैं।''24 मूलाचार में जिनकथित बारह अङ्ग और चौदह पूर्व को । अन्य मतों के एकान्त सिद्धान्तों को पूर्व पक्ष में स्थापित कर उत्तर स्वाध्याय कहा हैं35। पक्ष में वे सिद्धान्त प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से विरुद्ध हैं, एसा स्वाध्याय के प्रकार : सिद्ध करके, वस्तु का स्वरुप कथंचित् नित्य इत्यादि रुप से जैनमत अभिधान राजेन्द्र कोश में ज्ञान को सुरक्षित एवं स्थिर रखने के अनेकान्त को सिद्ध करना यह विक्षेपणी कथा है। यह कथन की दृष्टि से स्वाध्याय के पाँच सोपान बताए गए हैं। वे पाँच सोपान 229. अ.रा.पृ. 1/23-24 है -वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा।236 230. धर्मसंग्रह-भाषांतर-भा. 1 पृ. 638 वाचना - गुरु से विधिपूर्वक सूत्रार्थ शास्त्रों का अध्ययन करना 231. अ.रा.पृ. 6/1460 वाचना है37। वाचना (पठन-पाठन) से निर्जरा होती हैं।238 232. अ.रा.पृ. 6/1459 पृच्छना - गुर्वादि से सूत्र और अर्थ की वाचना लेने के बाद उस 233. अ.रा.पृ. 7/280; स्थानांग टीका-5/3/465; सवार्थसिद्धि टीका 9/20%; चारित्रासार-44/3 पाठ का मनन करते हुए यदि कोई संदेह उत्पन्न हो जाये तो गुरु 234. अ.रा.पृ. 7/280; चारित्रासार-152/5 से विनयपूर्वक पूछकर समाधान प्राप्त करना पृच्छना हैं।239 235. मूलाचार 511 परावर्तना - पढा हुआ ज्ञान-शास्त्र विस्मृत न हो, पढे हुए कंठस्थ 236. अ.रा.पृ. 7/280-292; भगवती सूत्र-25/7; अनागार धर्मामृत-9/4 किए गए ज्ञान को स्मृति में स्थिर एवं सुरक्षित रखने के लिए बार- 237. अ.रा.पृ. 6/1088; भगवती सूत्र-25/7; मूलाचार-393; चारित्रसार 152/5 बार दुहराना - पुनरावर्तन करना परावर्तना हैं।240 238. अ.रा.पृ. 6/1088; उत्तराध्ययन-29/19 अनप्रेक्षा - तत्त्व के अर्थ व रहस्य पर गहराईपूर्वक चिन्तन मनन 239. अ.रा.पृ. 5/324, 325; 7/2803; करना अनुप्रेक्षा हैं।241 (विस्तृत विवेचन पृ. 304 पर है) 240. अ.रा.पृ. 5/627, 325; 7/280 धर्मकथा - जो कथाएँ मनुष्यों को धर्म की ओर प्रेरित करे वे 241. अ.रा.पृ. 1/399,7/280 'धर्मकथा' कहलाती हैं।242 धर्म का कथन व्याख्यान 'धर्मकथा' 242. अ.रा.पृ. 7/280 कही जाती है। अथवा चिन्तन-मनन व अनुभव से प्राप्त ज्ञान जब 243. अ.रा.पृ. 4/2711 244. अ.रा.पृ. 4/27113; लोकोपकरार्थ धर्म संबंधी कहानी-कथन के द्वारा दूसरों को समझाया 245. अ.रा.पृ. 3/402; दशवैकालिक नियुक्ति-210 जाता है तब वह धर्म-कथन धर्मकथा कहलाता है ।243 अथवा अहिंसा- 246. अ.रा.पृ. 4/2711; दशवैकालिक नियुक्ति-3/99 सत्य आदि से युक्त धर्म के स्वरुप की प्ररुपणा करना ही धर्मकथा 247. अ.रा.पृ. 1/152; दशवैकालिक नियुक्ति-3/20 हैं।244 तप-संयम से युक्त मुनि सद्भावपूर्वक समस्त जगत् के जीवों 248. अ.रा.पृ. 1/152; दशवैकालिक नियुक्ति-201 के हित के लिए जो कथन करते हैं, उसे कथा/धर्मकथा कहते हैं।245 249. भगवती आराधना, मूल गाथा 556/853 250. धवला पुस्तक 1/1, 1, 2/105/1 तथा श्लोक 75/106 धर्मकथा चार प्रकार की हैं।246 - 1. आक्षेपणी 2. विक्षेपणी 3. 251. गोमट्टसार, जीवकाण्ड, जीवतत्त्व प्रदीपिका पृ. 795 संवेजनी (संवेदनी, संवेयणी) और 4. निवेदनी। 252. अनगार धर्मामृत/7/88/7/6 (1) आक्षेपणी धर्मकथा - अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 253. अ.रा.पृ. 6/1132; स्थानांग 4/2;दशवैकालिक नियुक्ति-3/1/197; भगवती कहा है कि जो कथा श्रोताओं को मधर वचनों के द्वारा मोह से आराधना, 656/853 www.janelibrary.org Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [328]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन की अपेक्षा से चार प्रकार से हैं - क. स्वसमय - परसमय, ख. श्रवणकर्ता के द्वारा भी श्रवण समय में आरंभ से विरत होकर परसम-स्वसमय, ग. स्याद्वाद-मिथ्यावाद, घ. मिथ्यावाद-स्याद्वाद । षड्जीवनिकाय के जीवों को अभयदान दिया जाता है और देशना (3) संवेगिनी कथा254 - जिस कथा से जीव को संसार संवेग (वैराग्य) को ग्रहण करके जीव परमार्थ को प्राप्त करता है ।267 प्राप्त होता है, उसे संवेगिनी कथा कहते हैं अथवा जिस कथा द्वारा स्वाध्याय से अज्ञान का नाश, कर्मनिर्जरा, अभ्युदय, सुख, इस लोक व परलोक संबंधी दुःखों का या कर्म विपाक का श्रवण पूजा, रत्नत्रयी की विशुद्धि, उत्तरोत्तर गुण श्रेणी की प्राप्ति, शुद्ध संयम, होने से श्रोता भोग सुखों से, शरीर से, देवालोकादि के सुख वैभव और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।268 से विरक्त होता है उसे संवेगिनी कथा कहते हैं ।255 अन्तरंग तपों में ध्यान और व्युत्सर्ग- ये दो अतिमहत्त्वपूर्ण ज्ञान, चारित्र तप व वीर्य - इनका अभ्यास करने से आत्मा तप हैं। ध्यान ही वह तप है जिससे चार घातिकर्मों का नाश होने में कैसी-कैसी अलौकिक शक्तियाँ प्रगट होती हैं इनका विस्तृत वर्णन से जीव की साधना का चरम लक्ष्य प्राप्त होता हैं। जहाँ जैनागमों करनेवाली कथा संवेगिनी कथाहै ।256 संवेगिनी कथा इसलोक, परलोक, में ध्यान तप का विवरण दिया हुआ होता हैं वहाँ ध्यान के चार स्वशरीर, परशरीर के भेद से चार प्रकार की हैं।257 भेदों का उल्लेख भी किया जाता हैं - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । (4) निवेदनी कथा - जिस कथा के द्वारा संसार से उद्विग्नता और किन्तु यह विषय की पूर्णता की दृष्टि से ही अपेक्षित होता है। कहने विरक्ति उत्पन्न होकर जीव में मोक्ष की अभिलाषा प्रकट हो वह का अभिप्राय यह है कि आर्तध्यान और रौद्रध्यान किसी भी प्रकार निर्वेदनी कथा है ।258 अथवा चोरी, आदि पाप कर्मो के फल रुप से तप नहीं हैं; तप में तो केवल धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही आते अशुभ विपाक अर्थात् दुःखदायी दारुण परिणामों के वर्णन के द्वारा हैं। तप की विशेषता भी यही है कि तप सायास और अभ्यास पाप कर्मो से मुक्त होने के लिए संसार से निर्वेद उत्पन्न करानेवाली से होते है जबकि आर्तध्यान और रौद्रध्यान तो अनादि मिथ्यादृष्टि कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं।259 और सादि मिथ्यादृष्टि के अनादि से ही अनायास विद्यमान रहते हैं। स्वाध्याय का फल : वस्तुतः तो सारी महिमा ध्यान की ही हैं; यदि शुक्लध्यान प्रकट अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि जो पाँचो प्रकार हो गया तो समझो मोक्ष मिल ही गया हैं। किन्तु शुक्ल ध्यान प्रकट का स्वाध्याय करता है, वह वैराग्य प्राप्त करता हैं ।260 स्वाध्याय के होना इतना सरल नहीं है, इसलिए महाव्रतादि के सोपानों से होता समान कोई तप नहीं है।261 स्वाध्याय का फल निरुपित करते हुए हुआ भिक्षुप्रतिमाओं के माध्यम से ध्यान का अभ्यास करने से शुक्लध्यान अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - सज्झाएण नाणावरणिज्जं होना सम्भव हो पाता हैं। ध्यान का प्रकरण अति महत्त्वपूर्ण है। कम्म खवेइ ।62 स्वाध्याय करने से ज्ञानवरणीय कर्मो का क्षय हो आगे के शीर्षक में जैनसिद्धान्त में प्रतिपादित ध्यान का स्वरुप विवेचित जाता हैं। इस सन्दर्भ में अभिधान राजेन्द्र कोश में एक महत्त्वपूर्ण किया जा रहा है। बात कही गई हैंअपुव्वणाण गहणे सुयभती पवयणे पहावणया। 254. अ.रा.पृ. 7/242; स्थानांग 4/2 255. अ.रा.पृ. 7/244; द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका-9/13 एएहिं करणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो 63 256. भगवती आराधना, मूल गाथा /657/857 नए-नए ज्ञान का अभ्यास करने से आत्मा बीसवें पद तीर्थंकर 257. अ.रा.पृ. 7/243, 244; स्थानांग 4/2; द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका-9/13 गोत्र का उपार्जन करती हैं। इसलिए ज्ञानोपासना में कभी प्रमाद नहीं 258. अ.रा.पृ. 4/2134; स्थानांग 4/2 करना चाहिए। 259. अ.रा.पृ. 4/2135; दशवैकालिक नियुक्ति-3/2073; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश श्री वीतरागदेव के द्वारा कथित बारह प्रकार के तप में ऐसा 2/3 260. अ.रा.पृ. 7/292; धर्मरत्र प्रकरण-44 कोई तप नहिं है, जो स्वाध्याय तप की बराबरी कर शके । स्वाध्याय 261. अ.रा.पृ. 7/292; मूलाचार-409 अत्युपकारक तप है।264 उपदेशमाला में कहा है - "स्वाध्याय से 262. अ.रा.पृ. 7/292; उत्तराध्ययन 29/20 शुभ ध्यान प्रकट होता है, सत्य परमार्थ तत्त्वों का ज्ञान होता है, 263. अ.रा.पृ. 4/2295%; ज्ञाता धर्मकथा-8 इतना ही नहीं अपितु स्वाध्याय में रहे हुए जीव का वैराग्य प्रतिक्षण 264. दशवैकालिक नियुक्ति-118 बढता जाता है।"265 265. उपदेशमाला-338 गौतम पृच्छा में भी कहा है कि, "पठन-पाठन, चिन्तन- 266. गौतमपृच्छा-30 मनन, धर्मोपदेशरुप स्वाध्याय एवं गुरु वैयावच्च तथा श्रुतभक्ति से 267. यतिदिनचर्या-गाथा-57 पृ. 34 जीव मेघावी होता है। "266 यतिदिनचर्या में भी कहा है कि, "वाचना 268. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-523, 524 । शेषैः किम् ? नानाशास्त्रसुभाषितामृतरसैः श्रोत्रोत्सवं कुर्वतां, येषां यान्ति दिनानि पण्डितजनव्यायामखिन्नात्मनाम् । तेषां जन्म च जीवितं च सफलं तैरेव भूर्भूषिता, शैषेः किं पशुवद्विवेकरहितैर्भूभारभूतैनरैः ॥ -अ.रा.पृ. 1/488 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [329] ध्यान : सामान्यतया ध्यान का अर्थ है - चिन्तन करना। ध्यै' चिन्तायाम् धातु से 'ध्यान' शब्द बना है। अपने ध्येय में चित्त का एकाग्र हो जाना, तल्लीन हो जाना ध्यान है। अभिधान राजेन्द्र में 'ध्यान' को जिन परिभाषाओं में बाँधने का प्रयास किया गया है, वे निम्नांकित हैंछद्मस्थ की दृष्टि से ध्यान का लक्षण बताया हैं अंतोमुहुत्तमितं, चित्ताऽवत्थाणमेगवत्थुम्मि। छउमत्थाणं झाणं, जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥ अन्तर्मुहूर्त तक किसी एक वस्तु में चित्त की एकाग्रता होना ध्यान हैं। जिनेश्वरों का ध्यान तो योगों के निरोधरुप एक ही प्रकार का है। एसी ही ध्यान की एक अन्य परिभाषा दी गई है। अंतमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं अधिक से अधिक अन्तर्मुहर्त तक चित्त को किसी भी एक विषय पर एकाग्र करना ध्यान है। एक व्याख्या यह भी है - उपयोगे विजातीयप्रत्ययाव्यवधानभाक् । शुभैकप्रत्ययो ध्यानं सूक्ष्माऽऽभोगसमन्वितम् । स्थिर दीपक की लौ के समान शुभ लक्ष्य में एकाग्र, विरोधी लक्ष्य के व्यवधान रहित ज्ञान, जो सूक्ष्म विषयों के आलोचन सहित हो वह 'ध्यान' कहलाता हैं। किसी एक आलम्बन से मन को स्थिर करना भी ध्यान हैं। और योगों का निरोध करना भी ध्यान है। वह ध्यान चार प्रकार का है - आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान ।' इन चारों ध्यान में आर्त और रौद्र ध्यान अशुभ हैं, इसके विपरीत धर्म और शुक्ल ध्यान शुभ हैं।' आर्तध्यान : "ऋतं दुःखं, तस्यनिमित्तं, तत्र वा भवम्, ऋते वा पीडिते भवमार्तध्यानम्।" -अर्थात् जीव को दुःख, पीडा, चिन्ता या शोक के निमित्त से अथवा किसी प्रकार के दुःख, पीडा या चिन्ता के समय जो ध्यान हो, उसे आर्तध्यान कहते हैं। दशवैकालिक सूत्र में राज्य, उपभोग-शयन, आसन, वाहन, स्त्री, सुगंधीमाला, मणिरत्नादि आभूषण आदि की प्राप्ति की अतिशय अभिलाषा होने पर मोह से जो ध्यान उत्पन्न होता है, उसे आर्तध्यान कहा है।' विषय भेद से आर्तध्यान चार प्रकार का है(1) अनिष्ट वियोग चिन्ता - अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए चिन्ता का सातत्य अनिष्ट वियोग चिन्ता' रुप आर्तध्यान कहलाता है। (2) वेदना वियोग चिन्ता - शूल, सिरदर्द आदि रोग या दुःख आ पड़ने पर उसके दूर करने की चिन्ता का सातत्य 'वेदना वियोग चिन्ता' नामक आर्तध्यान का द्वितीय भेद हैं। (3) इष्ट संयोग चिन्ता (अबिलाषा) - प्रिय वस्तु, व्यक्ति या विषय का वियोग हो जाने पर उसके पुनः संयोग या उसकी प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता और प्रयत्न करना 'इष्ट संयोग करना' - रुप तृतीय आर्तध्यान हैं। (4) निदान - प्राप्त न हुई वस्तु, कामभोग या तप के बल से तप के या नाकेबल सेना फलस्वरुप देव-देवेन्द्र-विद्याधर-चक्रवर्त्यादि की पदवी या ऋद्धि की प्राप्ति के लिए संकल्पन करना 'निदान' नामक चतुर्थ आर्तध्यान है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में आर्तध्यान की उत्पत्ति के कारणों की अपेक्षा से आर्तध्यान के 1. अनिष्ट संयोग 2. इष्ट संयोग 3. वेदना और 4. निदान - ये चार भेद दिखाये हैं। शंका, खेद, भय, प्रमाद, शोक, निद्रा, जडता, मूर्छा, क्रन्दन, दैन्यता, अश्रुमोचन और क्लिष्टभाषण -ये आर्तध्यान के लक्षण हैं।15 आर्तध्यान से तिर्यंच गति प्राप्त होतीहै। यह आर्तध्यान मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि को, अणुव्रत धारी देशविरत और प्रमादी सर्वविरतिधर को होता है; अप्रमत को सूक्ष्ममात्र भी नहीं होता। अत: मुनि को और मोक्षाभिलाषी गृहस्थों को मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में समभाव रखकर अप्रमत्त होकर आर्तध्यान का त्याग करना चाहिए। रौद्रध्यान : इस ध्यान में हिंसक व क्रूरभावों का प्राधान्य रहता हैं। अतः कहा है - "दुष्योऽध्यवसायो हिंसाऽऽद्यक्रिौर्यानुगतं रौद्रं ।''18 मन-मस्तिष्क में हिंसादि के अतिक्रूर परिणाम (विचार) आना रौद्र ध्यान हैं। जीवहिंसादि के कार्यो का सतत चिन्तन या ध्यान रौद्र ध्यान कहलाता हैं। आचार्यश्री ने अभिधान राजेन्द्र कोश में रौद्र ध्यान का वर्णन करते कहा है-0 - 1. सत्वेषु वध-बन्धनदहनाङ्कनमारणादिप्रणिधानम्। - जीवों को हाथ से या लतादि से ताडन (वध), नासिकादि वेधन, रस्सी आदि से बंधन, दहन, लांछन (अंकन), शस्त्रादि से प्राणहानि रुप मारणादि रुप हिंसा का सतत चिन्तन रौद्र ध्यान का प्रथम भेद हैं। 2. पैशुन्यासभ्यासद्भूतघातादिवचनचिन्तनम् ।-अनिष्टसूचक (पिशुन) वचन, असभ्य वचन, असत्य वचन, हिंसाकारक सावधवचन, 1. अ.रा.पृ. 4/1661 2. अ.रा.पृ. 3/407 3. अ.रा.पृ. 4/1661 अ.रा.पृ. 4/1661 'योगनिरोधे'। अ.रा.पृ. 4/1661 अ.रा.पृ. 4/1661; ज्ञानार्णव अधिकार-25/23/257; सर्वार्थ सिद्धि-9/ 28 7. अ.रा.पृ. 4/1663 8. अ.रा.पृ. 1/235, 4/1661; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/272 9. अ.रा.पृ. 1/235; दशवैकालिक का-अ.! 10. अ.रा.पृ. 1/235; आवश्यक बृहवृत्ति-4/6; तत्त्वार्थसूत्र-9/31 11. अ.रा.पृ. 1/235; आवश्यक बृहद्वृत्ति-4/7; तत्त्वार्थसूत्र-9/32 12. अ.रा.पृ. 1/236; आवश्यक बृहवृत्ति-4/8; तत्त्वार्थसूत्र-9/33 13. अ.रा.पृ. 1/236; आवश्यक बृहवृत्ति-4/9; स्थानांग-4/1; तत्त्वार्थसूत्र 9/34 14. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/273 15. अ.रा.पृ. 1/2379; स्थानांग4/1; आवश्यक बृहद्वृत्ति-4/15-18; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/274 अ.रा.पृ. 1/236, 4/1663; आवश्यक बृहवृत्ति-4/10-13; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/274 17. अ.रा.पृ. 1/237, 4/1663; आवश्यक बृहवृत्ति-4/18; तत्त्वार्थसूत्र-9/ 35; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/274 18. अ.रा.पृ. 4/1661, , 6/568, 580; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/407 च; स्थानांग-4/1 19. अ.रा.पृ. 6/568, 580; प्रवचन सारोद्धार छठवाँ द्वार; नियमसार-तात्पर्यवृत्ति 89 20. अ.रा.पृ. 6/568, 580; स्थानांग-4/1; प्रवचन सारोद्धार छठवाँ द्वार; चारित्रसार-170/2; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/407 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [330]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परवञ्चन, कपट वचन, कुतीर्थिकों की प्रशंसायुक्त वचन आदि का अभिधान राजेन्द्र कोश में धर्मध्यान के (1) अपाय (2) सतत ध्यान रौद्र ध्यान का द्वितीय भेद हैं। उपाय (3) जीव (4) अजीव (5) विपाक (6) विराग (7) भव 3. परद्रव्यहरणप्रणिधानम् ।- परद्रव्यहरण के फलस्वरुप नरकगमनादि (8) संस्थान (9) आज्ञा और (10) हेतु-विचय (अपाय विचयादि) के बारे में नहीं सोचते हुए दूसरों के धन का हरण करने रुप निद्य, -ये दसभेद भी दर्शाये हैं, परन्तु इन दसों भेदों का उपरोक्त चारों एसे चौर्यकर्म (चोरी) के विषय में सतत चिन्तन रौद्र ध्यान का 'परद्रव्यहरण भेदों में अन्तर्भाव होने से उसका यहाँ अलग विवरण नहीं दिया प्रणिधान' नामक तृतीय भेद हैं। जा रहा है ।29 4. शब्दादिविषयसाधकद्रव्यसंरक्षणप्रणिधानम् - आकुलतापूर्वक धर्मध्यान से मनुष्य देवगति को प्राप्त करता है, तथा धर्मध्यान शब्दादि विषय के साधन या उसके साधक द्रव्य (धन) के संरक्षण मोक्ष का हेतु है ।। धर्मध्यान अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से अप्रमत्त और परिपालन का सतत चिन्तन रौद्र ध्यान का विषयसंरक्षण रुप संयत गुणस्थान तक होता है। इस अपेक्षा से भी जैनेन्द्र सिद्धान्त चतुर्थ भेद हैं। कोश में वर्णीजीने धर्मध्यान के चार भेद बताये हैं।12 तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति महाराजने इन चारों भेदों का शुक्लध्यान :नाम क्रमशः हिंसानुबंधी, मृषानुबंधी, स्तैयानुबंधी और विषय संरक्षणानुबंधी ध्यान की यह सर्वोच्च निर्मल दशा है। जो चिन्तन आठ बताया है। प्रकार के कर्म-मल को दूर करता है और आत्मा को शुद्ध व पवित्र हिंसादि कार्यों में अतिलीन, महारम्भी, परव्यसन-प्रशंसक, बनाता है, वह शुक्लध्यान हैं।33 शुक्लध्यान सिद्धगति का हेतु है। निर्दय, पश्चाताप-रहित जीव रौद्रध्यानी होता है। अतिसंक्लिष्ट परिणाम अन्य ध्यानों के समान शुक्लध्यान के भी चार भेद किये गये हैं35, (लेश्या) युक्त होने के कारण रौद्रध्यान नरक गति का अमोघकारण यथा (1) पृथक्त्ववितर्क-सविचार - जब कोई ध्यान करनेवाला पूर्वधर धर्म ध्यान : हो, तब पूर्वगत श्रुत के आधार पर, और पूर्वधर न हो तब अपने ज्ञानदर्शन चारित्र और पैराग्य भावना का अभ्यस्त साधक में संभावित श्रुत के आधार पर किसी भी परमाणु आदि जड, या पृथ्वीकायादिसंघट्ट- रहित, प्राणातिपातादि आस्रव रहित, स्त्री-तिर्यंच- आत्मरुप चेतन- एसे एक द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तत्व, नपुंसकरहित योग्य स्थान में पूर्वाह्न या अपराह्न (रात्रि या दिन के अमूर्तत्व आदि अनेक पर्यायों का द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक आदि प्रथम और अंतिम प्रहर) में शुभ मन-वचन-काययुक्त, सामायिकादि विविध नयों के द्वारा भेद प्रधान चिन्तन करता है और यथा संभव आवश्यकक्रियासम्पादनपूर्वक प्रतिलेखनादि क्रियायुक्त, दशविधचक्र- श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एकद्रव्यरुप अर्थ से शब्द के विषय वालसमाचारीपालक साधक का दृढ मनोबलपूर्वक यथाशक्य कायोत्सर्ग, में और शब्द से अर्थ के विषय में चिन्तनार्थ प्रवृत्ति करता है तथा दण्डासन, वीरासन, आदि स्वस्थ शरीर पूर्वक सुखासन में सूत्र या मन आदि किसी भी एक योग को छोडकर अन्य योग का अवलंबन अर्थ के वाचनादि आलंबनपूर्वक धर्माधर्म के विवेकदायक श्रुतधर्म करता है - तब वह ध्यान पृथक्त्ववितर्क-सविचार कहलाता हैं। और हिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि चारित्र धर्म का गहराई से चिन्तन (2) एकत्ववितर्क-अविचार - जब कोई ध्यान करनेवाला अपने करना धर्मध्यान कहलाता है। धर्मध्यान-सूत्रार्थपर्यालोचन, दृढव्रतपालन, में संभावित श्रुत के आधार पर किसी भी एक ही पर्यायरुप अर्थ शीलगुणानुराग, सावधव्यापारत्यागादि बाह्य धर्मध्यान, और तज्जनित को लेकर उस के विषय में एकत्व (अभेद) प्रधान चिन्तन करता आत्मसंवेदना अभ्यन्तर धर्मध्यान हैं।24 अन्य प्रकार से धर्मध्यान के चार प्रकार हैं 21. तत्त्वार्थसूत्र 9/36 पर तत्त्वार्थभाष्य (1) आज्ञाविचय - पञ्चास्तिकाय, षड्जीवनिकाय, अष्ट प्रवचनमाता 22. अ.रा.पृ. 4/16633; 6/569 23. अ.रा.पृ. 4/1661 से 1665, 2716 आदि का जिनप्रवचन में क्या स्वरुप है, वीतराग सर्वज्ञ पुरुषों की 24. अ.रा.पृ. 4/2716; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/476 आज्ञा क्या है, कैसी होनी चाहिए, इसका परीक्षापूर्वक निर्णय करना 25. अ.रा.पृ. 1/144, 4/2716; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/479 और उसका चिन्तन करना 'आज्ञाविचय' धर्मध्यान हैं। यदि साधक 26. अ.रा.पृ. 1/804, 805 एवं 4/1666, 2716: मूलाचार-400; जैनेन्द्र सिद्धान्त अल्पबुद्धि हो तो भी 'सर्वज्ञ के सिद्धान्त ही सत्य हैं' -एसा चिन्तन कोश, पृ. 2/479 27. अ.रा.पृ. 4/1666, 2716 एवं 6/1234; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/ आज्ञाविचय धर्मध्यान कहलाता हैं।25 480 (2) अपायविचय - राग-द्वेष-कषाय-आस्रवादि में प्रवर्तमान इस अ.रा.पृ. 4/1666-67, 2716 एवं 7/128; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/ लोक-परलोक संबंधी विचार और मन-वचन-काय के दुष्ट योगों का 480 स्वरुप एवं इन राग-द्वेषादि समस्त दोषों से कैसे छुटकारा हो, इसका 29. अ.रा.पृ. 4/2716;जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/479, 480 अ.रा.पृ. 4/1632-2716; ज्ञानर्णव-3/32; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 21 सतत चिन्तन 'अपायविचय धर्मध्यान' कहलाता हैं।26 484 (3) विपाकविचय- ज्ञानावरणादि आठों कर्मो के शुभाशुभ विपाक 31. तत्त्वार्थ सूत्र-9/29 (फल) का मूल और उत्तर प्रकृति सहित प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और 32. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/481 33. अ.रा.पृ. 4/1661, 7/922-23; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/37 रस के भेद पूर्वक चिन्तन करना 'विपाकविचय धर्मध्यान' हैं।27 अ.रा.पू. 4/1663,1672; ध्यान शतक-96; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4 (4) संस्थानवचिय - सर्वज्ञदर्शित लोक-द्वीप-समुद्रादि के स्वरुप 37 का विचारपूर्वक चिन्तन करना 'संस्थानविचय' धर्म ध्यान हैं ।28 35. अ.रा.पृ. 7/722; तत्त्वार्थ भाष्य-9/46; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/32 36. अ.रा.पृ. 5/1066, 7/922; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/33 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [331] है और मन आदि तीन योगों में से किसी भी एक ही योग पर अटल रहकर शब्द और अर्थ के चिन्तन एवं भिन्न-भिन्न योगों में संचार का परिवर्तन नहीं करता, तब वह ध्यान एकत्ववितर्क-अविचार कहलाता है। (3) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान - जब सर्वज्ञ भगवान् योगनिरोध के क्रम में अन्ततः सूक्ष्म शरीर योग का आश्रय लेकर शेष अन्ययोगों को रोक लेते हैं, तब वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। कारण यह है कि उसमें श्वास-उच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया ही शेष रह जाती है, और उसमें से पतन होने की संभावना नहीं रहती।38 (4) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति ध्यान - जब शरीर की श्वास-प्रश्वास आदि सूक्ष्म क्रियाएँ भी बंद हो जाती हैं और आत्म प्रदेश सर्वथा निष्प्रकंप हो जाते हैं, तब वह समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति ध्यान कहलाता है। कारण यह है कि इसमें स्थूल या सूक्ष्म किसी प्रकार की भी मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया नहीं होती, और वह स्थिति नष्ट भी नहीं होती। ध्यान के लक्षण :आर्त ध्यान के चार लक्षण :(1) क्रन्दनता - रोना, चीखना, (2) सोचनता - दीनता का अनुभव करना (3) तेपनता - आँसू ढलकाना (4) विलापनता - विलाप करना रौद्र ध्यान के चार लक्षण :(1) उत्सन्न दोष - हिंसा, मृषा प्रभृति दोषों में से किसी एक दोष में विशेषप्रवृत्तिशील रहना, (2) बहुदोष - हिंसा, मृषादि अनेक दोषों में प्रवृत्त रहना, (3) अज्ञान दोष - मिथ्या शास्त्र के संस्कारवश हिंसा आदि धर्म प्रतिकूल क्रिया - कलापों में धर्माराधना की दृष्टि से संलग्न/प्रवृत्त रहना (4) आमरणान्त दोष - सेवित दोषों के लिए मृत्यु पर्यन्त भी पश्चाताप नहीं करना और उनमें निरन्तर प्रवृत्त रहना। धर्म ध्यान के चार लक्षण" :(1) आज्ञा संचि - वतीराग भगवान की आज्ञा में अभिरुचि/श्रद्धा होना। (2) निसर्गसंच - स्वभावतः धर्म में अभिरुचि होना। (3) उपदेश चि - धर्मोपदेश सुनने में रुचि होना अथवा साधु या ज्ञानी के उपदेश में रुचि होना। (4) सूत्र संच - आगम साहित्य में तत्त्वरुचि होना अथवा आगमों में श्रद्धा-विश्वास होना। शुक्ल ध्यान के चार लक्षण :(1) विवेक - शरीर से आत्मा की भिन्नता, आत्मा से सभी सांयोगिक पदार्थो का पृथक्करण, आत्मा एवं अनात्मा के पार्थिक्य की प्रतिती। (2) व्युत्सर्ग - नि:संग भाव से देह एवं उपकरणों के विशेष से उत्सर्ग/त्याग । अर्थात् अपने अधिकारवर्ती भौतिक वस्तुओं से ममता का त्याग करना। (3) अव्यथा - देव पिशाच आदि के द्वारा किये गए उपसर्ग से विचलित नहीं होना, व्यथा तथा कष्ट आने पर भी आत्मस्थ रहना । (4) असंमोह- देवादिकृत माया-जाल में तथा सूक्ष्म भौतिक विषयो में संमूढ या विभ्रान्त नहीं होना। __विशेष ज्ञातव्य यहा है कि, ध्यान-साधना निरत पुरुष स्थूल रुप से भौतिक पदार्थो का त्याग किये हुए होते ही है। ध्यान के समय जब कभी इन्द्रिय विषय सम्बन्धी उत्तेजनात्मक भाव उठते है, तो उनसे भी साधक विचलित एवं विभ्रान्त नहीं होता। उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थानों में पहले के दो शुक्लध्यान संभव हैं। पहले दोनों शुक्ध्यान पूर्वधर के होते हैं। बाद के दो केवली के होते हैं। यह शुक्लध्यान,अनुक्रम से, तीन योग वाला, किसी एक योगवाला, काययोगवाला और योगरहित होता है। इसके प्रभाव से सर्वआस्रव का और बन्ध का निरोध होकर शेष सर्वकर्म क्षीण हो जाने से मोक्ष प्राप्त होता हैं। तीसरे और चौथे शुक्लध्यान में किसी प्रकार के भी श्रुतज्ञान का आलम्बन नहीं होता, अतः वे दोनों अनालम्बन भी कहलाते हैं।43 ध्यान का अधिकारी : ध्यान के अधिकारी का लक्षण बताते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने कहा है- 'जो योगी जितेन्द्रिय धीर, प्रशान्त, स्थिर मनवाला और नासिकाग्र पर दृष्टि स्थिर कर सुखासन से अवस्थित है, वही ध्यान (धर्मध्यानादि) का अधिकारी हैं।44 ध्यान का साफल्य : ध्यानयोगी जब अपने लक्ष्य में मन को स्थित करता है, तभी ध्यान में तल्लीनता आती हैं। ध्यान में जब ध्याता, ध्याय और ध्यान -ये तीनों ही एकरुपता को प्राप्त हो जाते हैं, तब उस 'अनन्यचित्तविशुद्ध' मुनि को कोई दुःख नहीं होता।45 जिस प्रकार चिरसंचित ईंधन को वायुयुक्त अग्नि शीध्र जला देती हैं। अथवा हवा के झोंके से होते बादलों के विसर्जन की तरह ध्यानरुपी वायु से कर्मरुप बादल शीध्र विसर्जित हो जाते हैं।46 व्युत्सर्ग : आभ्यन्तर तपों की श्रेणी में 'व्युत्सर्ग' अन्तिम तप है। व्युत्सर्ग तप बहुत ही कठोर है। व्याकरण के नियमानुसार 'वि' उपसर्ग और 'सृज् उत्सर्गे' धातु से 'व्युत्सर्ग' शब्द निष्पन्न होता है। 'वि' का अर्थ है विशिष्ट, और 'उत्सर्ग' का अर्थ है - त्याग, अर्थात् विशिष्ट त्याग। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'वि' शब्द विविध और विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। त्याग की विशिष्ट विधि को व्युत्सर्ग कहा जाता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में इसकी एक परिभाषा देते हुए कहा गया है - खडे-खडे या बैठे हुए निश्चिताकार (जिनमुद्रा, पद्मासन, पर्यकासनादि) में एक स्थान पर मौन रहकर नासिकाग्र पर दृष्टि स्थिर कर ध्यान क्रिया के अतिरिक्त अन्य क्रियाओं का त्याग करना 'कायोत्सर्ग' 37. अ.रा.पृ. 3/13, 7/922; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/34 38. अ.रा.पृ. 7/922, 1024; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/34-35 39. उववाइय सुत्तं-20 पृ. 96 40. वही पृ. 97 41. वही पृ. 98. 99 वही पृ. 102 43. अ.रा.पृ. 7/922, 457; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/35,36; तत्त्वार्थ सूत्र 9/38 44. अ.रा.पृ. 4/1673 45. अ.रा.पृ. 4/1673 46. अ.रा.पृ. 4/1672 47. अ.रा.पृ. 6/1123 42. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [332]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कहलाता है। अतिचार-दोषों की 'शुद्धि' के लिए कायिक क्रियाओं (1) उत्थितोत्थित : खडे-खडे धर्मध्यान और शुक्लध्यान रुप का त्याग 'कायोत्सर्ग' है; अथवा काय के प्रति जो ममता विद्यमान चिन्तन करना। है उसका त्याग कायोत्सर्ग है।48 व्युत्सर्ग को कायोत्सर्ग भी कहते (2) उत्थितनिविष्ट : खडे-खडे आर्तध्यान और रौद्रध्यान रुप हैं। वर्णीजी के अनुसार बाहर में क्षेत्र, वास्तु आदि का और अभ्यन्तर चिन्तन करना। में कषायादि का अथवा नियत या अनियत काल के लिए शरीर (3) उपविष्टोत्थित : बैठे-बैठे धर्मध्यान और शुक्लध्यान रुप का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है, जिसका अपर नाम कायोत्सर्ग है।" चिन्तन करना। उत्सर्ग, व्युत्सर्जन, उज्झणा, अवकिरण, छर्दन, विवेक, त्यजन (4) उपविष्टोपविष्ट : बैठे-बैठे आर्तध्यान और रौद्रध्यान रुप (त्याग), उन्मोचन और परिशातना/शातना - ये कायोत्सर्ग के एकार्थवाची चिन्तन करना। शब्द हैं।50 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने कायोत्सर्ग के नौ कायोत्सर्ग के भेद : प्रकार भी बताये हैं - (1) उत्सृतोत्सृत (2) उत्सृत (3) उत्सृतनिषण्ण योत्सर्ग तप में बाह्य और आभ्यन्तर. दोनों प्रकार की (4) निषण्णोत्सृत (5) निषण्ण (6) निषण्णनिषण्ण (7) निष्पन्नोत्सृत वस्तुओं का त्याग किया जाता है। इस दृष्टि से व्युत्सर्ग दो प्रकार (8) निष्पन्न (9) निष्पन्ननिपन्न 165 -इनका विशेष विस्तार अभिधान का है - द्रव्यव्युत्सर्ग और भाव-व्युत्सर्ग 151 द्रव्य व्युत्सर्ग में गण/ राजेन्द्र, पृ. 3/407 से 410 से द्रष्टव्य हैं। शरीरादि बाह्य वस्तुओं का त्याग होता है। भाव व्युत्सर्ग में क्रोधादि आचार्य जिनदास गणी महत्तरने कायोत्सर्ग के दो प्रकार कषायादि आभ्यन्तर वस्तुओं का त्याग किया जाता हैं । द्रव्य व्युत्सर्ग बतलाये हैं -1. द्रव्य कायोत्सर्ग 2. भाव कायोत्सर्ग । शारीरिक चंचलता चार प्रकार का है - शरीर व्युत्सर्ग, गण व्युत्सर्ग, उपधि व्युत्सर्ग और ममता का परित्याग कर जिनमुद्रा में स्थिर होना कायोत्सर्ग कहलाता और भक्तपान व्युत्सर्ग 153 भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद बताए गये है। इसे द्रव्य कायोत्सर्ग भी कहते हैं। इसके बाद साधक धर्मध्यान हैं - कषाय व्युत्सर्ग, संसार व्युत्सर्ग और कर्म व्युत्सर्ग 154 और शुक्लध्यान में रमण करता है। मन को पवित्र विचार और उच्च शरीर व्युत्सर्ग- कायोत्सर्ग पूर्वक या कायोत्सर्ग में शरीर का त्याग संकल्प से बांधता है जिससे उसे शारीरिक वेदना नहीं होती। वह करना, शरीर व्युत्सर्ग हैं। शरीर में रहता हुआ भी शरीर से भिन्न चैतन्य का अनुभव करता गण व्युत्सर्ग - गण (गच्छ) का त्याग करना, 'गण व्युत्सर्ग' है, यह भाव कायोत्सर्ग का प्राण है। कहलाता हैं। द्रव्य कायोत्सर्ग भाव कायोत्सर्ग तक पहुंचने की पूर्व भूमिका उपधि व्युत्सर्ग - उपधि अर्थात् अशुद्ध उपकरण अथवा अशुद्ध/ है। द्रव्य कायोत्सर्ग में बाह्य वस्तुओं का विसर्जन किया जाता है अतिरिक्त आसन शयन, वस्त्र और पात्र का त्याग करना उपधि और भाव कायोत्सर्ग में कषायादि का त्याग किया जाता है। व्युत्सर्ग हैं।57 कायोत्सर्ग करने की विधि :भक्तपान-व्युत्सर्ग - अन्न-जल अर्थात् भोजन-पानी का सर्वथा मन-वचन-काय की एकाग्रतापूर्वक एक स्थान पर स्थिर या आंशिक रुप से नियत या अनियत समय के लिये या यावज्जीव रहकर, मौनपूर्वक, धर्मध्यान/शुक्लध्यान पूर्वक दोनों पैरों के बीच में त्याग करना भक्त-पान व्युत्सर्ग हैं।58 चार अंगुल अन्तर रखकर दाहिने हाथ में मुहपत्ती और बाँये हाथ कषाय व्युत्सर्ग- क्रोध, मान, माया और लोभ -इन चारों कषायों में रजोहरण रखकर कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग पूर्ण होने का त्याग करना 'कषाय व्युत्सर्ग' हैं।59 पर 'नमो अरिहन्ताणं' बोलना चाहिए। कायोत्सर्ग अभिमान, मोह, संसार व्युत्सर्ग - नरक-तिर्यंच-मनुष्य और सांसारिक कामभोगों 48. अ.रा.प. 3/404; जैन सिद्धान्त कोश-3/620 का, भौतिक सुख-वैभव का त्याग करना 'संसार व्युत्सर्ग' हैं।60 49. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/619, कर्म व्युत्सर्ग - ज्ञानावरणादि कर्मो के बंधहेतुओं का तथा ज्ञान- ___50. अ.रा.पृ. 3/406 प्रत्यनीकादि का त्याग करना, कर्म व्युत्सर्ग हैं। 1. ज्ञानावरण 2. 51. अ। अ.रा.पृ. 6/1123 दर्शनावरण 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयु 6. नाम 7. गोत्र और 52. अ.रा.पृ. 6/1123 53. अ.रा.पृ. 6/1123 8.अंतराय -इन आठ कर्मों के भेद से आठ प्रकार का हैं। 54. अ.रा.पृ. 6/1123 दव्यव्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग : 55. अ.रा.पृ. 6/1123, 3/404 द्रव्य से गण, उपधि, शरीर, भक्त-पानादि का त्याग तथा ___56. अ.रा.पृ. 3/821 आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग-द्रव्य व्युत्सर्ग है, और भाव से स्वस्थान ___57. अ.रा.पृ. 6/1123 58. का त्याग या धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लीनता भाव व्युत्सर्ग हैं। अ.रा.पृ. 5/1365 59. अ.रा.पृ. 6/1123 अभिधान राजेन्द्र में कायोत्सर्ग शब्द के अन्तर्गत अन्य तरह से भी 60. वही दो प्रकार दर्शाये हैं 61. अ.रा.पृ. 3/342 (1) चेष्टा कायोत्सर्ग - भिक्षाचर्या, गमनागमनादि संबंधी। 62. अ.रा.पृ. 6/1123 (2) अभिभव कायोत्सर्ग - उपसर्ग आने पर या दिव्यादि से 63. अ.रा.पृ. 3/406 अभिभूत होने पर किया जानेवाला कायोत्सर्ग 64. मूलाचार-973; भगवती आराधना-116/278/27; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/619; अ.रा.पृ. 3/407 मूलाचार में और भगवती आराधना में व्युत्सर्ग के अन्य 65. अ.रा.पृ. 3/407 चार प्रकार बताये हैं 66. अ.रा.पृ. 3/408, 425,426 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [333] हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा आदि से रहित होकर करना आदि के प्रतिलेखन, प्रमार्जन हेत, जिनालय में जाने पर, बाहर से चाहिए। उपाश्रय (या जहाँ साधु साध्वी ठहरे हैं, उस स्थान) में आने पर, कायोत्सर्ग का हेतु : 25 श्वासोच्छ्वास (एक 'लोगस्स चंदेसु निम्मलयरा' तक) प्रमाण कायोत्सर्ग के हेतुओं का वर्णन करते हुए आचार्यश्री ने कायोत्सर्ग करना चाहिए। अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि पाप की विशेष आलोचना सूत्रों के विषय में उद्देश्य, समुद्देश, अनुज्ञा, प्रस्थापन, प्रतिक्रम, और निंदा करने के लिए, प्रायश्चित करने के लिए, चित्त को विशेष श्रुतस्कन्ध के अङ्ग के परिवर्तनादि में अविधिपूर्वक आचरण के त्याग रुप से शुद्ध करने के लिए, चित्त को आलस्यरहित करने के लिए, हेतु 27 श्वासोच्छ्वास (एक 'लोगस्स सागरवरगंभीरा' तक) प्रमाण पापकर्मों का संपूर्ण नाश करने के लिए तथा श्री अरिहंत की प्रतिमाओं कायोत्सर्ग करना चाहिए। की आराधना के लिए, वंदन-पूजन-सत्कार-सम्मान के लिए, बोधिलाभ कायोत्सर्ग के आगार :के लिए, निरुपसर्ग-मोक्ष के लिए, श्रुतज्ञान की आराधना के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 'कायोत्सर्ग' के सोलह आगार और चारित्र की विशुद्धि के लिए बढती हुई श्रद्धा-मेघा(प्रज्ञा), - (छूट) बताये हैंधैर्यधारणा (ध्येय का स्मरण) और अनुप्रेक्षा (बार-बार चिंतन करना) (1) साँस लेने से (2) साँस छोडने से (3) खाँसी आने पूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता हैं। से (4) छींक आने से (5) जम्हाई (उबासी) लेने से (6) डकार कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य है - आत्मा और शरीर का आने से (7) अपान वायु निःसरण से (8) चक्कर आने से (9) भेदज्ञान। काया के साथ आत्मा का जो संयोग है, उसका मूल है पित्त के कारण मूर्छा आने से (10) सूक्ष्म अङ्ग संचार होने से (11) प्रवृत्ति । जो इनका विसंयोग चाहता है अर्थात् आत्मा के सान्निध्य सूक्ष्म रीति से शरीर में कफ तथा वायु का संचार होने से (12) में रहना चाहता है वह स्थान (आसन) मौन और ध्यान के द्वारा सूक्ष्म दृष्टि होने से अर्थात् थोडी सी नजर हिलने से (तथा 'एवमाइएहिं' कायगुप्ति, वाग्गुप्ति और मनोगुप्ति करता है। कायोत्सर्ग द्वारा मानसिक, पद से चार अन्य) (13) आग लग जाय या बिजली या अन्य अग्नि वाचिक और कायिक प्रवृत्तियां निवृत्त होती हैं। कायगुप्ति से संवर के प्रकाश की प्रकाश उज्जेइ, (उद्योत) लग (पड) जाय (14) कोई या पापाश्रवों का निरोध होता है।69 हिंसक प्राणी सामने आ जाय (15) चोर आदि का भय उपस्थित कायोत्सर्ग का प्रमाण : होने पर अथवा राजादि पकडकर ले जाये तो (16) स्वयं को या अभिधान राजेन्द्र कोश में कायोत्सर्ग तप का वर्णन करते अन्य साधु को सर्प दंश दे (काटे) तो अर्थात् उपरोक्त परिस्थिति समय आचार्यश्रीने कार्य-कारण के अनुरुप कायोत्सर्ग के समय का में कायोत्सर्ग में शरीर चलायमान हो जाय या अग्नि आदि की ज्योति प्रमाण बताते हुए कहा है कि कायोत्सर्ग दो प्रकार के हैं - नियत लगने की स्थिति में कामली (ऊनी शाल-'कम्बलिका') आदि ओढी और अनियत । जाय अथवा 'आग लगने' आदि कारणों की स्थिति में शब्दोच्चारण (1) नियत कायोत्सर्ग : हो जाय या बोलना पडे या स्थान परिवर्तन करना पडे तो कायोत्सर्ग 'देवसिअ' आदि प्रतिक्रमण में दिवस, रात्रि आदि संबंधी का भङ्ग नहीं होता - एसी पूर्वाचार्यों की आज्ञा है। प्रायश्चित हेतु किये जानेवाले कायोत्सर्ग नियत कायोत्सर्ग कहलाते कायोत्सर्ग के 19 दोषा:हैं। उसका प्रमाण बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि जैनागमों 1. घोटक दोष - घोडे की तरह एक पाँव उपर उठाकरालंगडा में दिवस संबंधी प्रतिक्रमण का 100 श्वासोच्छ्वास अर्थात् -चार करके खडे रहना। 'लोगस्स चंदेसु निम्मलयर' तक; रात्रि संबंधी प्रतिक्रमण का 50 2. लता दोष - लता/बेल की भाँति इधर-उधर घूमना । श्वासोच्छ्वास एवं कुसुमिण (कुस्वप्न) 50 श्वासोच्छ्वास और यदि 3. स्तम्भकुड्य - खम्भे या दीवाल की तरह अकडकर या उसके दुसुमिण (दुःस्वप्न आया हो तो) 58 श्वोसोच्छ्वास73 - इस प्रकार सहारे खडे रहना। 100 या 108 श्वोसोच्छ्वास तक; पाक्षिक प्रतिक्रमण का 300 श्वासोच्छ्वास 4. माल दोष - सिर ऊँचा करके अपनी मञ्जिल या किसी वस्तु (12 'लोगस्स चंदेसु निम्मलयरा' तक) चातुर्मासिक प्रतिक्रमण का का आश्रय कर के खडे रहना। 500 श्वासोच्छ्वास (20 'लोगस्स चंदेसु निम्मलयरा' तक) और 5. शबरी दोष - भील की स्त्री की भाँति (तरह) अपने गुह्यस्थान सांवत्सरिक (वार्षिक) प्रतिक्रमण का 1008 श्वासोच्छ्वास (40 लोगस्स को अपने हाथ से ढकते हुए खडे रहना। . चंदेसु निम्मलयर' तक और एक नवकार अधिक) प्रमाण कायोत्सर्ग 6. वधू दोष - वधू की तरह सिर नीचा करके खडे रहना। करने का विधान हैं। (2) अनियत कायोत्सर्ग14 : 67. वही, पृ.-3/406 जो कायोत्सर्ग किसी क्रिया करने पर में उसके द्वारा लगे 68. अ.रा.पृ. 3/410, 416, 422, 423, 415; -दो प्रतिक्रमण सूत्र (सार्थ) अतिचार दोषों की शुद्धि हेतु किया जाता है, उसे अनियत कायोत्सर्ग 69. उत्तराध्ययन-29/55 70. अ.रा.पृ. 3/422 से 425 कहते हैं। गमनागमन संबंधी, मल-मूत्र (उच्चार-प्रसवण) का त्याग 71. अ.रा.पृ. 3/422 करने पर, अनिष्टसूचक स्वप्नदर्शन होने पर, प्रयोजनवश शास्त्रोक्त विधिपूर्वक 72. अ.रा.पृ. 3/422, 423, 425 नदी उतरने पर, या प्रयोजनवश नाव से नदी या समुद्र पार करने 73. धर्मसंग्रह भाषांतर भा. | पृ. 590 पर, गोचरी (आहार-चर्या) लाने पर, पानी लाने पर, विश्राम हेतु। 74. अ.रा.पृ. 3/423 बिना प्रतिलेखन (पडिलेहण) किये आसन, शय्या (संथारा, पाट) 75. अ.रा.पृ. 3/411, 414 76. अ.रा.पृ. 3/426 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [334]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 7. निगड दोष - बेडी से जकडे हुए मनुष्य की तरह खडे रहना। 1. देहजाड्यशुद्धि - श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की 8. लम्बोतर दोष - चोलपट्टे को जानु से नीचे या डूंटी से उपर जडता नष्ट हो जाती है। ____ या अव्यवस्थितरुप से रखकर कायोत्सर्ग करना। 2. परमलाघव - शरीर बहुत हल्का हो जाता है। 9. स्तन दोष - स्त्री की भाँति वस्त्र से स्तन (सीने) को ढंककर 3. मतिजाड्यशुद्धि - जागरुकता के कारण बुद्धि की जडता नष्ट कायोत्सर्ग करना। हो जाती है। 10. ऊर्द्धिका दोष - पैर के पंजों के अंगूठे को बाहर की ओर 4. सुख-दुःख तितिक्षा -- सुख-दुःख को सहने की क्षमता बढती फैलाना बहिः शकटोद्धिका और अंदर की ओर फैलाना अभ्यन्तर शकटोर्द्धिका दोष हैं। 5. अनुप्रेक्षा - अनुचिन्तन के लिए स्थिरता प्राप्त होती है। 11. संयती दोष - साध्वी की तरह ऊपरी वस्त्र (चद्दर, खेस) 6. ध्यान - मन की एकाग्रता सधती है।80 __आदि से कन्धे को ढंककर कायोत्सर्ग करना। अनुयोगद्वार में कायोत्सर्ग को व्रण चिकित्सा कहा है।। 12. खलीन दोष - लगाम से पीडित घोडे की तरह मुँह हिलाते साधना में सतत जागरुकता के बाद भी प्रमादवश जो दोष लग जाते हुए या सिर हिलाते हुए या रजोहरण को आगे रखकर कायोत्सर्ग हैं, उन दोष रुप घावों की चिकित्सा के लिये कायोत्सर्ग का प्रावधान करना खलीन दोष हैं। महत्त्वपूर्ण है। संयमी जीवन को परिष्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त 13. वायस दोष - दृष्टि को इधर-उधर घुमाते हुए चलायमान करने के लिए, अपने आपको विशुद्ध करने के लिए, आत्मा को चित्त से कायोत्सर्ग करना। माया, मिथ्यात्व और निदानशल्य से मुक्त करने के लिए, पापकर्मों 14. कपित्थ दोष - गोलाई में घूमते हुए या जंघादि के बीच के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है।82 वस्त्रों को रखकर या मुट्ठी बाँधकर कायोत्सर्ग करना। शरीर शास्त्रीय दृष्टि से कायोत्सर्ग प्राणऊर्जा का संचय करता 15. शीर्षोत्कम्पित दोष - सिर को हिलाते/कम्पायमान करते है। इसके द्वारा ऐच्छिक संचलनों का संयमन होता है। आगम प्रेरणा हुए कायोत्सर्ग करना। देते हैं कि साधक हाथों का संयम, पैरों का संयम, वाणी का संयम 16. मूकदोष-कायोत्सर्ग के निकटवर्ती स्थान में हरी वनस्पत्यादि तथा इन्द्रियों का संयम करें जिससे प्राण ऊर्जा को संग्रहीत कर उसे का छेदन भेदन होने पर गूंगे की तरह हुँकार करते हुए कायोत्सर्ग चेतना से ऊध्वारोहण में लगा सके। करना। कायोत्सर्ग द्वारा उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा, नाडीतंत्रीय 17. अङ्गलिभ्रू दोष - कायोत्सर्ग में सूत्र (लोगस्स, नवकारादि) अस्त-व्यस्तता, पाचनतंत्रीय वर्ण, अनिद्रा, तनावजनित रोगों की रोकथाम की संख्या गिनने हेतु अंगुली हिलाना, अंगुली चलाना, चुटकी एवं उपचार किया जा सकता है। तनाव-जनित बीमारियों का कारण बजाना, भौंहे टेढी करना या भौंहे नचाना । है तनाव की निरन्तरता एवं तीव्रता । तनाव विकल्पों के लिए ऊर्वरा 18. वारुणी दोष - कायोत्सर्ग में बड-बडाहट करना या शराबी भूमि है। मानसिक तनाव, स्नायविक तनाव, भावनात्मक तनाव इनको __ की तरह शरीर को दोलायमान करना। मिटाना, इनकी ग्रंथियों को खोल देना कायोत्सर्ग का कार्य है। 19. प्रेक्षा दोष - कायोत्सर्ग में ओष्ठ आदि को चलाना। तप के अन्य प्रकार :__अन्य कोई आचार्य इनमें स्तंभ दोष और कुड्य दोष तथा बारह प्रकार के तपों के अतिरिक्त प्रस्तुत कोश में आजीविको अङ्गलि और भ्र दोष को अलग-अलग गिनने के साथ इक्कीस दोष के चार प्रकार के तप का भी वर्णन उपलब्ध होता है। यथा आजीवियाणं भी मानते हैं। इनमें से स्त्री को वधू दोष, संयती दोष और स्तन चउविहे तवे पण्णते । तं जहा-उग्ग तवे घोर तवे, रसनिज्जूहणया, दोष नहीं लगते। जिम्भिदिय पडिसंतीव्या । अन्य कोई आचार्य बैठे-बैठे कायोत्सर्ग करना, शरीर-स्पर्श आजीविकों के मतानुसार तप चार प्रकार का होता हैं। वह करना, प्रपञ्चपूर्वक कायोत्सर्ग करना, सूत्रोक्त विधि से न्यून विधि निम्न हैंसे कायोत्सर्ग करना, व्याक्षेपपूर्वक कायोत्सर्ग करना, आसक्त लोभाकुल (1) उग्र तप - जो आचरण में कठिन हों। चित्त से या पापकार्योद्यमपरक कायोत्सर्ग करना या कृत्याकृत्य की (2) घोर तप - जो दिखने में कठिन हो। विमूढतापूर्वक कायोत्सर्ग करना - आदि को कायोत्सर्ग के दोष मानते (3) रसनि!हण तप - स्वादिष्ट वस्तु न लेना। (4) जिह्वेन्द्रिय तप/प्रतिसंलीनता तप - रसनेन्द्रियों के विषयों जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है कि भगवती आराधना का संकोच करना। में (1) घोटक पाद (2) लतावक्र (3) स्तम्भ स्थिति (4) स्तम्भावष्टम्भ 77. अ.रा.पृ. 3/426 (5) कुड्यश्रित (6) मालिकोद्वहन (मालदोष) (7) लम्बिताघर (प्रेक्षा 78. अ.रा.पृ. 3/427 दोष) (8) स्तनदृष्टि (9) काकावलोकन (10) खलीनित (11) युगकन्धर 79. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/621, 622; अनगारधर्मामृत 8/112 से 119; (कन्धे झूकाना) (12) कपित्थमुष्टि 913) मूक संज्ञा (14) अंगुलिचालन भगवती आराधना-116/279/8 (15) भ्रूक्षेप (16) शबरीगुह्यगूहन (17) श्रृंखलित (18) उन्मत - 80. आवश्यक नियुक्ति-1462 ये कायोत्सर्ग के अठारह दोष दर्शाये हैं। 81. अनुयोगद्वार 74 (नवसुत्ताणि, भाग-5, पृ. 15) 82. आवश्यक सूत्र 5/3 (नवसुत्ताणि, भाग-5, पृ. 15) कायोत्सर्ग के लाभ : 83. दशवकालिक 10/5 कायोत्सर्ग की अनेक उपलब्धियां हैं 84. अ.रा.पृ. 4/2205; स्थानांग-4/2 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [3351 गीता के मन्तव्यानुसार तप के स्वरुप व उसके उद्देश्य को का क्षय करता है, कर्मो की निर्जरा करता है। अत: तप का फल दृष्टिपथ में रखकर तप का जो वर्गीकरण किया गया है, वह इस निर्जरा हैं। प्रकार हैं -1. शारीरिक तप 2. वाचिक तप 3. मानसिक तप।85 अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचारी और रस परित्याग-निर्जरा के शारीरिक से वाचिक और वाचिक से मानसिक तप श्रेष्ठ माना गया इन प्रकारों का हमारे जीवन के साथ गहरा संबंध है। इनके प्रयोग है, और यह तप जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से निर्जरा का कारण से शरीर में संचित विषैले रसायन (Toxic) खत्म होते हैं। आसन, हैं।86 गीता के अनुसार तीनों तप यदि निष्काम वृत्ति से (फाकांक्षा प्राणायाम, अन्य यौगिक क्रियायें चंचलता के सन्दर्भ में शरीर और से रहित होकर) दृढ श्रद्धा के साथ किये जाते हैं, वे सात्त्विक तप मन को साधती हैं। प्रतिसंलीनता में मन और इन्द्रियों का निग्रह है67, जो उत्कृष्ट व प्रथम श्रेणी के हैं और निर्जरा करनेवाले हैं। होता है। बाह्य तप द्वारा व्यक्ति के भीतर अनेक ऐसे रसायन पैदा यदि वह तप सत्कार-मान सम्मान एवं पूजा प्रतिष्ठा आदि होते हैं जिसके द्वारा व्यक्तित्व में निम्न गुणों का प्रकटीकरण होता प्राप्त करने के प्रयोजन से दम्भपूर्वक किया जाता है तो राजस तप है, जो मध्यम श्रेणी का हैं। • सुख की भावना स्वयं परित्यक्त हो जाती है। जो तप मूढतापूर्वक हठ से तथा मन, वचन और काय की • शरीर कृश हो जाता है। पीडा सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, • आत्मा संवेग में स्थापित होती है। वह 'तामस तप' कहाता है, जो जघन्य श्रेणी का हैं। • इन्द्रिय-दमन होता है। तप से विविध लाभ एवं उद्देश्य : • समाधि योग का स्पर्श होता है। तपोमूला हि सिद्धयः । समस्त सिद्धियाँ तपमूलक हैं । सब • वीर्यशक्ति का सम्यक् उपयोग होता है। की जड तप है। तप में अद्भूत, अचिन्त्य, अनुपम शक्ति सन्निहित • जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। है। इसकी शक्ति के समक्ष अन्य शक्तियाँ परास्त हो जाती हैं। इसमें • संक्लेश-रहित दु:ख भावना (कष्ट-सहिष्णुता) का अभ्यास इतनी शक्ति समाहित है कि इसके द्वारा सर्व प्रकार के रोग दूर हो बढता है। जाते हैं। • देह, रस और सुख का प्रतिबन्ध नहीं रहता। तपश्चरण के द्वारा तीर्थङ्करत्व, चक्रवर्तित्व आदि समस्त पद • कषाय का निग्रह होता है। भी प्राप्त होते हैं। तप से असंख्य, अगणित, लब्धियाँ, शक्तियाँ, • विषय-भोगों के प्रति अनादर (उदासीन) भाव उत्पन्न होता है। ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ भी उपब्ध होती हैं। इसलिए प्रवचनसारोद्धार में समाधि मरण की ओर गति होती है। कहा गया है- परिणामतववसेणं इमाइं इंति लद्धीओ- जितनी आहार के प्रति आसक्ति क्षीण होती है। भी लब्धियाँ हैं, वे सब तप का ही परिणाम हैं। • आहार की अभिलाषा के त्याग का अभ्यास होता है। तप साधना से आत्मा में अद्भुत ज्योति प्रदीप्त होती है अशुद्धि बढ़ती है। और एक विचित्र अलौकिक शक्ति जागृत होती हैं। "भवकोडी • लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता है। संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ" 2 अर्थात् साधक करोडों जन्मों ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। के संचित कर्मो को तपश्चकरण के द्वारा क्षीण कर देता हैं अतः कहा निद्रा-विजय होती है। गया है - "तवसा धुणई पुराण पावगं ।'५3 अर्थात् तपश्चर्या से पूर्वकृत • ध्यान की दृढता प्राप्त होती है। पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। तपश्चरण से सम्यग्दर्शन शुद्ध होता हैं • वियुक्ति (विशिष्ट त्याग) का विकास होता है। और आत्मा का ज्ञान दर्शन-चारित्र निर्मल, निर्मलतर होता जाता हैं। दर्प का नाश होता है। वैदिक ग्रंथो में भी तप से महान् फल की प्राप्ति का उल्लेख स्वाध्याय योग की निर्विघ्नता प्राप्त होती है। किया गया हैं। तपश्चरण के द्वारा मन पर विजय करने की ज्ञानशक्ति • सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति बनती है। प्राप्त होती हैं। तप से मन वश में होता है। मन वश में हो जाने • आत्मा, कुल, गण, शासन - सबकी प्रभावना होती है। से दुर्लभ आत्मतत्त्व की प्राप्ति होती हैं और आत्मा की प्राप्ति हो 85. अ.रा.पृ. 4/2205; भगवद् गीता-17/14-15-16 जाने पर संसार से मुक्ति मिलती है, और इस प्रकार तप से आत्मा 86. अ.रा.पृ. 4/2205; गच्छाचार पयन्ना सटीक-2 अधिकार कर्म बंधनों से सर्वथा मुक्त हो जाती हैं। 87. अ.रा.पृ. 4/2205; भगवद् गीता-17/17 88. अ.रा.प्र. 4/2205%3भगवद् गीता-17/18 अभिधान राजेन्द्र कोश में भगवान् महावीर और गौतम गणधर 89. अ.रा.पृ. 4/2205% भगवद् गीता-17/19 के संवाद को उद्धृत किया गया है, गौतम पूछते हैं - "तवेण भन्ते ! 90. जयन्तसेन सतसई, पृ.25 जीवे कि जणयइ ?"95 हे भगवान् ! तप करने से किस फल की 91. प्रवचन सारोद्धार, द्वार 270, गाथा 1492 प्राप्ति होती है? तब भगवान् महावीर प्रत्युत्तर देते हैं - "तवेणं 92. अ.रा.पृ. 1/321, 4/2200; उत्तराध्ययन-30/6 वोयाणं जणयई। 96 - तप से व्यवदान (कर्मो की निर्जरा) होता 93. अ.रा.पृ. 4/2207, 5/1566; दशवैकालिक-9/4/10 एवं 10/7 94. यजुर्वेदीय मैत्रायणी आरण्यक 4/3 है। व्यवदान का अर्थ है - दूर हटना या छोडना। 'व्यवदान' का 95. अ.रा.पृ. 4/2205; उत्तराध्ययन-29/27 शाब्दिक अर्थ करते हुए प्रस्तुत कोश में कहा गया है - तपसा 96. अ.रा.पृ. 4/2205; उत्तराध्ययन-29/27 जीवो व्यवदानं जनयति, पूर्वबद्धकर्मापगमनेन विशेषेण शुद्धि 97. अ.रा.पृ. 4/2205; उत्तराध्ययन सूत्र सटीक-29/27 जनयति १7 - आत्मा तपश्चरण के द्वारा कर्मों को दूर हटाता है, कर्मो 98. अ.रा.पृ. 6/337; आचारांग सूत्र सटीक-1/2/1 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [336]... चतुर्थ परिच्छेद • आलस्य का त्याग होता है। • कर्म-मल का विशोधन होता है। • दूसरों को संवेग उत्पन्न होता है । • मिथ्यादृष्टियों में भी साम्यभाव उत्पन्न होता है। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तपः समाधि के चार भेद : सम्पूर्ण जैनागमों के अनुरूप ही राजेन्द्र कोश में तपः समाधि को प्राप्त करने के लिए भौतिक प्रयोजनवश तपश्चरण का निषेध करते हुए एकान्त कर्मक्षय के उद्देश्य से तप का विधान किया गया है। तपः समाधि चार प्रकार की होती है, यथा -1. इहलोक के लिए तप न करे, 2. परलोक के लिए तप न करे, 3. कीर्ति 103, वर्ण 104, शब्द 105 और इहलोक 106 (प्रशंसा) के लिए भी तप न करे, 4. कर्मनिर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप न करे107। इसका तात्पर्य यह है कि साधक को कर्म-क्षय करने की दृष्टि से ही पूर्वोक्त बारह प्रकार के तपों का आचरण करना चाहिए "निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा ।" प्रस्तुत उद्धरण में साधक को पौगलिक प्रतिफल की आशा/आकांक्षा से रहित (निष्काम) तप करने का संकेत किया गया है। इसी संदर्भ में कहा गया है - "नो पूयणं तवसा आवहेज्जा ।'' 108 -अर्थात् तप से पूजा-प्रतिष्ठादि की कामना न करे, क्योंकि सम्मानपूजा प्रतिष्ठा से तप नष्ट हो जाता है। 109 अतः तपश्चरण करने का एकमात्र पवित्र लक्ष्य ध्येय यही होना चाहिए कर्म निर्जरा और आत्मशुद्धि । निर्जरा का और मोक्ष का प्रमुख साधन तप ही हैं। - • मुक्ति का मार्ग प्रकाशन होता है। • तीर्थंकर आज्ञा की आराधना होती है। • देह - लाघव प्राप्त होता है । • शरीर - स्नेह का शोषण होता है। • रागादि का उपशम होता है। • आहार की परिमितता होने से निरोगता बढती है। • संतोष बढ़ता है। 99 आन्तरिक तपस्या आत्मशोधन के लिए महत्त्वपूर्ण है, इसके द्वारा जीवन में निम्न शीलगुणों का वैशिष्टय आता है : भावशुद्धि, चंचलता का अभाव, शल्य-मुक्ति, धार्मिकदृढता आदि प्रायश्चित के परिणाम हैं। ज्ञान-लाभ, आचार-विशुद्धि, सम्यक् - आराधना आदि विनय के परिणाम हैं। चित्त-समाधि का लाभ, ग्लानि का अभाव, प्रवचन- वात्सल्य आदि वैयावृत्य के परिणाम हैं। प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्ट संवेग का उदय, प्रवचन की अविच्छिन्नता, अतिचार-विशुद्धि, सन्देह-नाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव आदि स्वाध्याय के परिणाम हैं। 100 कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों बाधित न होना; सर्दी-गर्मी - भूख-प्यास आदि शरीर को प्रभावित करनेवाले कष्टों से बाधित न होना ध्यान के परिणाम हैं। 101 निर्ममत्व, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, दोषों का उच्छेद, मोक्ष-मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम हैं। 102 99. मूलाराधना 3/237-244 100. तत्त्वार्थ 9/22-25, श्रुतसागरीय वृत्ति 101. ध्यानशतक, 105-106 102. तत्त्वार्थ 9/26. श्रुतसागरीय वृत्ति 103. सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः । - अ. रा. पृ. 4 / 2206; दशवैकालिक सटीक - 9/4 104. एक दिग्त्यापी वर्ण: । वही 105. अर्थदिग्त्यापी शब्दः । - वही 106. तत्स्थान एवं श्लाघा वही 107. अ.रा. पृ. 4/2206; दशवैकालिक सटीक - 9/4 108. अ.रा. पृ. 4/2204; सूत्रकृतांग- 1/7/27 109. आपस्तम्ब स्मृति - 10/9 कुतस्तु सौख्यम् द्वे वाससी प्रवरयोषिदपायशुद्धा, शय्यासनं करिवरस्तुरगो रथो वा । काले भिषग्नियमिताशनपानमात्रा, राज्ञः पराक्यमिव सर्वमवेहि शेषम् ॥ ॥ पुष्ट्यर्थमन्नमिह यत्प्रणिधिप्रयोगैः, सं त्रासदोषकलुषो नृपतिस्तु भुङ्कते । यन्निर्भयः प्रशमसौख्यरतिश्च भैक्षं, " तत् स्वादुतां भृशमुपैति न पार्थिवाऽन्नम् ॥2॥ भृत्येषु मन्त्रिषु सुतेषु मनोरमेषु, कान्तासु वा मधुमदाङ्कुरितेक्षणासु । विश्रम्भमेति न कदाचिदपि क्षितीशः, सर्वाभिशङ्कितमतेः कुतस्तु सौख्यम् ॥3॥ - अ.रा. पृ. 2/207 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [337] शुद्ध श्रमणाचार का फल अभिघान राजेन्द्र कोश में शुद्ध श्रमणाचार का फल के विषय में कहा है - 'लोक व्यवहार से रहित साधु को जितना सुख प्राप्त होता है वह चक्रवर्ती या देवेन्द्र को भी प्राप्त नहीं होता।अबद्ध आयु शुद्ध सम्यक्त्वी उन श्रमणों मे से कई दुष्कर तथा दुःसह (उपसर्ग, परिषह आदि) को सहन कर कई देवलोक में जाते हैं और कई कर्मरज से मुक्त होकर उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं या देवलोक से पुनः वे निर्ग्रन्थ श्रमण संयम और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मो का क्षय करके तीन, सात या आठ भव में या अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परावर्तन काल में मुक्त हो जाते हैं।' संयम और तप के द्वारा पूर्व के असंख्य भवों द्वारा संचित कर्मक्षय के नाश की विधि को दृष्टांत से समझाते हुए आचार्यश्री ने राजेन्द्र कोश में कहा है - "जिस प्रकार किसी बडे सरोवर का जल खत्म करने के लिए सर्वप्रथम जल के आने के मार्ग रोके जाते हैं, तत्पश्चात् कुछ पानी उलेचकर बाहर फेंका जाता है और कुछ सूर्य की तेज धूप से सूख जाता है। इस प्रकार सरोवर का समूचा जल सूख जाता है, उसी तरह संयमी पुरुष व्रतादि के द्वारा नये कर्मास्रवों को रोक देता हैं और पुराने करोडों भवों से संचित कर्मो को तप के द्वारा सर्वथा क्षीण कर देते हैं। इसी प्रकार जैसे सूखे खोखे काठ को अग्नि शीध्र ही जला डालती हैं; उसी तरह निष्ठा के साथ आचार का पालन करने वाला साधक कर्मो को नष्ट कर डालता हैं। आचार प्रणिधि और उसका फल : 3. नो कित्तिवन्नसद्दसिलोगट्यए आयारमहिट्ठिज्जा अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने आचार के साथ ही 4. नन्नत्थ आरहंतेहि हेउहि आयारमहिट्ठिज्जा। आचार-प्रणिधि एवं आचार-समाधि का भी वर्णन किया हैं। आचार-समाधि को प्राप्त करने के लिए विभिन्न भौतिक आचार-प्रणिधि अर्थात् इन्द्रियों और मन को आचार में प्रयोजनवश आचार-पालन का निषेध करते हुए कहा है - साधक सुप्रणिहित/एकाग्र करना । जिस तरह संपत्ति को खजाने में सुरक्षित रखा के आचार का पालन एकमात्र वीतराग - पद की प्राप्ति के उद्देश्यों जाता हैं, वैसे ही आचार रुपी संपत्ति को सुरक्षित रखने के लिए (आर्हत-हेतुओं) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार के ऐहिक अथवा 'आचार-प्रणिधि' अर्थात् आचार की उत्कृष्ट निधि (कोषागार) हैं। पारलौकिक सुख-समृद्धि, भोगोपभोग, सांसारिक स्वार्थ-सिद्धि, कीर्ति, आचार रुप निधि जिस साधक/श्रमण को उपलब्ध हो जाती श्लाघा आदि उद्देश्यों को लेकर नहीं करना चाहिए। है; उसके जीवन का आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है। उसका प्रत्येक आचार-समाधि का फल बताते हुए राजेन्द्र कोश में कहा व्यवहार अन्य साधकों की अपेक्षा भिन्न हो जाता है। उसका खाना- है - "जो जिनवचन में रत है, क्रोध से नहीं भन्नाता (प्रभावित पीना, उठना-बैठना, चलना-इत्यादि सब विवेकयुक्त होता है । इन्द्रिय- नहिं होता), सूत्र ज्ञान से परिपूर्ण है और जो अतिशय मोक्षार्थी है, संयम श्रमण-जीवन का अनिवार्य कर्तव्य है। स्थूल रुप से पूर्वोक्त वह दान्त मुनि आचार-समाधि द्वारा आस्रव-निरोध करके अपनी आत्मा आचार-पालन भी सहज हैं परन्तु अन्तरंग से आचार में निष्ठा/आस्था को मोक्ष के अतिनिकट करने वाला होता हैं ।।। और एकाग्रतापूर्वक प्रवृत्ति करना कठिन हैं। आचार का सार :अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार-प्रणिधि का फल बताते अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार का सार बताते हुए कहा है हुए कहा है - आचार-प्रणिधि के फलस्वरुप संयमी जीवन यापन - जिनवाणी (द्वादशांगी-सकल वाङ्मय) का सार एवं आधार करने वाले श्रमण को एहलौकिक वा पारलौकिक तीन उपलब्धियाँ आचारहै, आचारही मोक्ष का प्रधान हेतु है।जिनाज्ञा-पालन आचार प्राप्त होती हैं, जो इस प्रकार हैं का सार है । जिनाज्ञा-पालन का सार प्रस्मणा अर्थात् वस्तु स्वस्म 1. कषाय - विषय आदि से अपनी रक्षा करने और कर्म का सत्य प्रतिपादन करना है। अर्थात् अज्ञ जीवों को सदुपदेश देकर शत्रुओं को हटाने में समर्थ हो जाता है।' सन्मार्ग पर लाना है। प्रस्मणा का सार चरण अर्थात् आचरण और 2. अग्नि- तप्त स्वर्ण की तरह पूर्वकृत कर्म-मल से रहित आचरण का सार निर्वाण है। निर्वाण का सार अव्याबाध सुख हैं। हो जाता है। 1. अ.रा.पृ. 7/803 3. अभ्र - पटल मुक्त चन्द्रमा की भाँति कर्मपटलमुक्त सिद्ध 2. अ.रा.पृ. 1/271 आत्मा बन जाता हैं। 3. अ.रा.पृ. 1/313; दशवैकालिक सूत्र 3/14,15 4. अ.रा.पृ. 4/2199, 2200; उत्तराध्ययनसूत्र 30/5-6 आचार-समाधि : 5. अ.रा.पृ. 7/494; आचारांग नियुक्ति 234 अभिधान राजेन्द्र कोश में 'आचार-समाधि' की व्याख्या 6. अ.रा.पृ. 2/386; 'आयार-पणिहि' शब्दे करते हुए आचार्यश्रीने कहा है- जिस आचार के द्वारा आत्मा का 7. अ.रा.पृ. 2/387; दशवैकालिक सूत्र 8/62 हित होता हो, वह है आचार-समाधि । राजेन्द्र कोश में इसके चार 8. अ.रा.पृ. 2/387; दशवैकालिक सूत्र 8/63 भेद बताये हैं। - चउव्विहा खलु आयार-समाही भवइ । तं जहा 9. अ.रा.पृ. 2/387; दशवैकालिक सूत्र 8/64 10. अ.रा.पृ. 2/389; दशवैकालिक सूत्र 9/4/7 1. नो इहलोगट्ठाए आयारमहिट्ठिज्जा। 11. अ.रा.पृ. 2/389; दशवैकालिक सूत्र-9/4/5 2. नो परलोगट्टाए आयारमहिट्ठिज्जा । 12. अ.रा.पृ. 2/372; आचारांग नियुक्ति-16 For Private & Personal use only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [338]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ख. श्रावकपरक शब्दावली अभिधान राजेन्द्र कोश में 'श्रावक' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है- " श्रृणोति जिनवचनमिति श्रावकः । " अर्थात् जो जिनेश्वर भगवान के वचनों को श्रद्धापूर्वक (जीवन में उतारने के लिए) सुनता है; वह श्रावक हैं । अथवा 'अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्धिसम्पत्, परं समाचारमनुप्रभातम् । श्रृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः ॥2 अर्थात् प्राप्त की हुई सम्यग्दृष्टि आदि विशुद्धि संपत्तियुक्त साधुजन के पास से जो प्रतिदिन प्रभात में आलस्य रहित होकर उत्कृष्ट / श्रेष्ठ समाचारी अर्थात् जिनसिद्धान्त को सुनता है उसे जिनेन्द्र भगवान 'श्रावक' कहते हैं । अथवा 'श्रद्धालुतां श्रान्ति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपन्त्यनारतम् । किरन्त्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादयापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा ।"3 श्रन्ति- पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीत वाः, तथा किरन्ति क्लिष्टकर्म जो विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति' । अर्थात् जो तत्त्वार्थ को जीवन में पहचानता है, तत्त्वार्थ पर श्रद्धा से निष्ठा लाता है; उसके लिए '' शब्द हैं; गुणवान् सात क्षेत्रो में सुपात्रदान में जो धनबीज का वपन करता है (बोता है) अर्थात् जो सुपात्र दान देता है; उसके लिए 'व' शब्द है और जो क्लिष्ट कर्मरज को फेंक देते है; उसके लिए 'क' शब्द है। इस प्रकार श्रावक शब्द बना है। जिनवचन में श्रद्धा रखनेवालों को श्रावक कहते हैं। जो साधु के पास साधुसमाचारी (उत्सर्ग से, अपवाद से साधु-श्रावक दोनों की समाचारी) को सुनता है, वह 'श्रावक' कहाता है।' अभिधान राजेन्द्र में श्रावक के विषय में कहा है " संपत्तदंसणाई पइदिअहं जइ जणा सुणेई य । सामायारी परमं जो खलु तं सावगं विन्ति ॥" जो सम्यग्दर्शनादियुक्त मनुष्य प्रतिदिन मुनिजनों के पास जाकर परम समाचारी अर्थात् साध्वाचार और श्रावकाचार सुनता है उसे श्रावक कहते हैं।" जो परलोक के लिए साक्षात् हितकारी साधु और श्रावकों के अनुष्ठानगर्भित जिनवचन को उपयोगपूर्वक सुनता है, (और) जिसने कर्म (मोहनीय) की सातों प्रकृतियों की स्थिति एक कोडाकोडी सागरोपम के अंदर कर दी है, वह उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। जिस शुक्लपाक्षिक आत्माने अपना संसार भ्रमण अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन काल (सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन नामक काल का आधा भाग) के भीतर कर दिया है, वही एसा उत्कृष्ट श्रावक होता है। 8 आवश्यक बृहद्वृत्ति के अनुसार सम्यकत्व प्राप्त जो प्रतिदिन यतियों से धर्मकथा को सुनता है, वह श्रावक है । ज्ञाताधर्मकथांग में जो सम्यग्दर्शन संपन्न हो, जिनशासन की भक्ति करता हो, नित्य षडावश्यक में रक्त हो तथा आत्मा के षट्स्थान की श्रद्धा से युक्त हो, उसे श्रावक कहा है", या जिनशासनभक्त गृहस्थ श्रावक कहलाते हैं।" अणुव्रतधारी या अणुव्रत से रहित जो केवल श्रद्धा रखते हैं दोनों प्रकार के श्रावकों को निशीथचूर्णि में 'श्रावक' कहा है। 2 धर्मशास्त्र श्रवण करने से श्रावक 'ब्राह्मण' कहलाते हैं। 13 - जो देशविरतिपूर्वक अर्थात् अणुव्रतादि का पालन करने के साथ साधु / श्रमणों की उपासना की महिमा से प्रतिदिन बढते हुए संवेगपूर्वक यावज्जीव सूक्ष्म - बादरादि भेदपूर्वक ज्ञानवान् होता है, उसे 'श्रमणोपासक' कहते हैं।4। महाश्रावक : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'महासावग' अर्थात् 'महाश्रावक' का परिचय देते हुए कहा है - " एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन् । दयया चाति दीनेषु महाश्रावक उच्यते ॥ ' ' 5 इस प्रकार (स्थूप्राणातिपातविरमणादि) व्रतों में स्थित जो सात क्षेत्रों में धनरुप बीज की बोवनी करता है और जो दीन-दु:खियों के प्रति अतिशय दया रखते हुए उन्हें अनुकम्पा दान देता है उसे 'महाश्रावक' कहते हैं । आगे महाश्रावक की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि अविरत सम्यग्दृष्टि ‘श्रावक और एकादि अणुव्रतधारी श्रावकों से महाश्रावक विशिष्ट हैं । वह अतिशय पूर्वक निरतिचार सम्यक्त्व 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. अ. रा. पृ. 7/780, आवश्यक बृहद्वृत्ति अध्ययन-4 अ.रा. पृ. 7/780, निशीथ चूर्णि । उद्देश अ. रा.पू. 7/780, अनुयोगद्वार सूत्र अ.रा. पृ. 7/414, भगवती सूत्र 8/5 15. अ. रा.पू. 6/218, योगशास्त्र 3/119 अ. रा. पृ. 7/779 अ. रा. पृ. 77779 12. 13. 14. अ. रा.पू. 6/219 अ. रा. पृ. 7/779 अ. रा. पृ. 77779; स्थानांग 4/4, अ. रा. पृ. 7/779; गच्छाचार पयन्ना 2 अधिकार अ. रा. पृ. 6/219, 7/779, श्रावक प्रज्ञप्ति 2 अ. रा. पृ. 7/780 अ.रा. पृ. 77780, आवश्यक बृहद्वृति, 6 अध्ययन अ.रा. पृ. 77780, ज्ञाताधर्मकथांग 1/16 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [339] सहित बारह व्रतधारी होता है। जिनमंदिरादि सातों क्षेत्रों में धन वपन क. 1. राजा समान 2. पिता समान 3. माता समान 4. शोक्य करने पूर्वक श्रेष्ठ दर्शन प्रभावकता (शासन प्रभावना) धारण करने समान वाला और दीन-दुःखी जीवों पर अत्यंत कृपा तत्पर 'महाश्रावक' ख. 1. माता-पिता समान 2. भाई समान 3. मित्र समान 4. कहलाता हैं।16 सपत्नी शोक्य समान श्रावक के भेद : ग. 1. दर्पण समान 2. पताका ध्वजा समान 3. स्थाणु (ठुठ) अभिधान राजेन्द्र कोश में 'श्रावक' के भेद-प्रभेद की व्याख्या समान 4. कंटक समान करते हुए कहा गया है कि "धर्म दो प्रकार का है (1) यति धर्म 1. राजा समान : और (2) श्रावक धर्म । जिसमें श्रावक दो प्रकार के हैं - (1) अविरत साधु-साध्वी को किसी प्रकार का उपद्रव होने पर जो आत्म(2) विरत (विरताविरत)।" बल से, धन-बल से या कुटुम्ब-बल से उन उपद्रवों का निवारण अविरत श्रावक : करते हैं; जो साधु-साध्वी के असंबद्ध आचार (शिथिलाचार या साध्वाचार जो सुदेव अर्थात् वीतराग देव, सुगुरु अर्थात् कञ्चनकामिनी विरुद्ध आचार) को देखकर एकान्त में इन्हें डाँटकर इन्हें समझानेवाले, के त्यागी और पञ्चमहाव्रतधारी गुरु और सुधर्म अर्थात् केवली प्रकाशित स्थापनाजी के समक्ष निजगच्छपरम्परानुसार आवश्यक क्रिया करनेवाले, दयामय धर्म में श्रद्धा तो रखते हैं परन्तु तदनुसार आचरण नहीं करते उचितकरणशील, गुणानुरागी, मध्यस्थ, दीर्घदर्शी, स्वगण या परगण उन्हें 'अविरत' श्रावक कहते हैं।। में गुणयुक्त साधु को प्रसन्नचित्त से प्रमोदभावपूर्वक वंदन, नमन, आदरविरत/देशविरत (विरताविरत) श्रावक : सत्कार, वैयावृत्त्यादि करनेवाले परंतु निजगच्छ (स्वयं की गुरु परम्परा) जो श्रावक श्रद्धापूर्वक जिनवचन का श्रवण करता है और की समाचारी के संपूर्ण पालक श्रावक महाराजा तुल्य हैं। सम्यक्त्व सहित अणुव्रतादि श्रावक धर्म को प्रत्याख्यानपूर्वक ग्रहण 2. माता-पिता समान : करके भावसहित उसका पालन करता है, उसे विरत श्रावक कहते माता-पिता समान श्रावक भी एसे ही होते हैं परन्तु इतना हैं।" इसे अविरत श्रावक की अपेक्षा से व्रत ग्रहण करने के कारण विशेष है कि वे गच्छवासी आचार्य को देखकर उन्हें नित्य नहीं 'विरत' और साधु की अपेक्षा से आंशिक विरति पालन करने कारण कोसते और पुत्र की तरह आहारादि से उनका पोषण करते हैं परन्तु 'विरताविरत' श्रावक कहते हैं। इसे ही 'देशविरत' श्रावक भी निजकुल क्रमागत (परम्परागत) (आचार) का उल्लंघन नहीं करते । अतः कहतेहैं ।। वे आराधक हैं, विराधक नहीं। श्रावक चार प्रकार से : 3. भ्रातृसमान : नामादि चारों निक्षेप के अपेक्षा से भी श्रावकों के चार प्रकार होते जो श्रावक हृदय के भावपूर्वक बिना किसी कारण के साधु हैं के प्रति एकान्त (एकतरफा) वात्सल्यभाव धारण करते हैं, उन्हें 'भातृ (1) नाम श्रावक - सचेतन या अचेतन पदार्थ, जिसका नाम समान' श्रावक कहते हैं। 'श्रावक' रखा गया हो, वह 'नाम श्रावक' कहलाता हैं। 4. मित्र समान : (2) स्थापना श्रावक - श्रावक का पुस्तकादि गत चित्र, फोये जो स्नेह के कारण तत्त्वचर्चादि में निष्ठुर वचन बोलकर मूर्ति (बीसस्थानक यंत्रादि में तथा अन्यत्र श्रावक की मूर्ति साधु को अप्रीति भी उत्पन्न करते हों, और प्रयोजन उपस्थित होने स्थापित की गई हो), आदि 'स्थापना श्रावक' कहलाते हैं। पर साधु के ऊपर अत्यन्त वात्सल्य भी रखते हों, वे श्रावक 'मित्र (3) द्रव्य श्रावक - जिन्हें सुदेव-गुरु-धर्म के प्रति बिल्कुल समान' हैं। श्रद्धा न हो या दृढ श्रद्धा न हो और केवल आजीविका के लिए ही 'श्रावक' नाम धारण किया हो, वह 'द्रव्य श्रावक' कहलाता है। भावरहित केवल द्रव्य अनुष्ठान (क्रिया) करने 16. अ.रा.पृ. 71219 17. अ.रा.पृ. 7/780,786 वाले भी 'द्रव्य श्रावक' कहलाते हैं। तथा निश्चयनय के मत 18. अ.रा.पृ. 1/809, सूत्रकृताङ्ग-1/1/1, समवयाङ्ग-14 वाँ समवाय, भगवती से 'शोक्य (सपत्नी)' या काँटे जैसे श्रावक 'द्रव्य श्रावक' सूत्र 11 कहलाते हैं। 19. अ.रा.पृ. 6/1229, 7/786 (4) भाव श्रावक - जो श्रद्धापूर्वक जिनवचन (जिनशासन के 20. अ.रा.पृ. 6/1229, पञ्चाशक विवरण 6; समवयांग, 14 वाँ समवाय 21. अ.रा.पृ. 4/2632, पञ्चाशक विवरण-10 नियमों, जिनवचन) को श्रवण करता है, दीन-दुःखी की 22. तथाहि-नामश्रावकः; सचेतनाचेतनस्य पदार्थस्य यत् श्रावक इति नाम सेवा में द्रव्य वपन (खर्च) करता है, सम्यक्त्व को प्राप्त करता क्रियते । स्थापना श्रावकश्चित्रपुस्त (का) - कर्मादिगतः । द्रव्य श्रावको है, अशुभ/पाप कार्यों का नाश करता है, संयम का पालन ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो देवगुरुतत्त्वादिश्रद्धानविकलस्तथाविघाकरता है, उसे भाव श्रावक कहते हैं। ऽऽजीविकाहेतोः श्रावकाकारधारकश्च । भाव श्रावकस्तु - "श्रद्धालुतां श्राति श्रावक अन्य चार प्रकार से : श्रृणोति शासनं, दीने वपेदाशु वृणोति दर्शनम् । कृन्तत्यपुण्यानि करोति संयम, तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणः ॥1॥" - अ.रा.पृ. 7786 आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने ने अभिधान राजेन्द्र 23. ....... निश्चयनयमते पुनः सपत्रिखरण्टसमानौ मिथ्यादृष्टिमायौ द्रव्यश्रावको । कोश में श्रावकों के तीन प्रकार से चार-चार भेद दर्शाये हैं, जो अ.रा.पृ. 7786 निम्नानुसार है24 24. अ.रा.पृ. 7/414; 7/415; सूत्रकृतांग-320, 321, 321; स्थानांग-4/3 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [340]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (4) 5. सपत्नी (सौतन, शोक्य) समान : जो कटुवचन से साधु की प्रीत का नाश करता हो, ईर्ष्या के कारण साधु के अपराधों को ही कहता हो, एसा साधु के दूषण ही देखनेवाला, अनुपकारी श्रावक 'सपत्नी समान' हैं। 6. आदर्श (दर्पण) समान : जो पदार्थ जैसा होता है, आदर्श (दर्पण) उसे वैसा ही प्रतिबिम्बित करता है, उसी प्रकार आगमों में सन्निहित (कहे हुए) पदार्थों की यथावत् प्ररुपणा करनेवाला श्रावक आदर्शवत् हैं। 7. पताका (ध्वजा) समान : जैसे वायु से सब कुछ (घेरे हुए बादल आदि) नष्ट हो जाते हैं/बिखर जाते हैं, वैसे जिसकी अनवस्थित बोध/विचित्र देशना होती है वह श्रावक 'ध्वजा/पताका समान' हैं। 8. स्थाणु (ढूंठ) समान : गीतार्थ साधु आदि की देशना के समय भी किसी भी कदाग्रह के कारण जो अन्यमनस्क होकर अपनी प्रकृति के कारण बोध प्राप्त नहीं करता, वह श्रावक 'स्थाणु समान' हैं। 9. खरकंटक (खैर के काँटे के समान : जो जानते हुए भी स्वयं के कदाग्रह या दुराग्रह का त्याग नहीं करता, अपितु दूसरे प्रज्ञ लोगों को भी दुर्वचन रुपी काँटों से बींधता है, वेदना पहुँचाता है, वह 'खरकण्टक समान' श्रावक हैं। अभिधान राजेन्द्र में आचार्यश्रीने धर्मरत्र प्रकरण को उद्धत करते हुए भावश्रावक के निम्नलिखित छह गुण बताये हैंभावश्रावक के छः क्रियागत गुण: भाव श्रावक के छह क्रियागत गुण हैं (इनमें से प्रत्येक के जनक-समर्थक अवान्तर अनेक गुण हैं) (1) कृत-व्रत-कर्मा (2) शीलवान् (3) गुणवान् (4) ऋजु-व्यवहारी (5) गुरु-शुश्रूषा और (6) प्रवचन-कुशल 125 कृत-व्रतकर्मा - व्रतकर्म का आराधक बनने के लिए - (1) व्रतधर्म श्रवण (2) सुनकर व्रत के प्रकार, अतिचार आदि की जानकारी (3) पूरे अथवा अल्पकाल के लिए व्रतधर्म का स्वीकार और (4) रोग या विघ्न में भी दृढता पूर्वक धर्म पालन। -इन चारों में उद्यमी होने वाला वह व्यक्ति कृतव्रत-कर्मा हैं।26 शीलवान् - चरित्रवान् बनने के लिए (1) आयतन-सेवन अर्थात् सदाचारी, ज्ञानी तथा सुंदर श्रावक धर्म के पालन करने वाले सार्मिकों के सानिध्य में ही रहना चाहिए, क्योंकि इससे दोषों में कमी तथा गुणों में वृद्धि होती रहती हैं। (2) बिना काम दूसरों के घर नहीं जाना (इसमें भी दूसरे घर में अकेली स्त्री हो तो वहाँ बिलकुल नहीं जाना, क्योंकि कामासक्ति या कलंक लगने की संभावना हैं। (3) कभी भी उद्भट यानि औचित्यहीन वेष धारण नहीं करना चाहिए, क्योंकी इसमें हृदय की विह्वलता है, अशान्तता है। धर्मात्मा तो शांत ही शोभायमान होता है। (4) असभ्य या विकारी वचन नहीं बोलने चाहिए, क्योंकि इससे प्रतिष्ठा-हानि या कामराग जागृत होता हैं। (5) बच्चों जैसी चेष्टाएँ नहीं करना चाहिए, और बालक्रीडा, जुआँ, व्यसन, चौपड आदि नहीं खेलना चाहिए क्योंकि वे मोह के लक्षण हैं व अनर्थदंड हैं। (6) दूसरों से मधुर वाणी से काम लेना चाहिए, क्योंकि शुद्ध धर्मवाले को कर्कशवाणी शोभा नहीं देती। गुणवान् - गुणवान् बनने के लिए (1) वैराग्य-वर्धक शास्त्रस्वाध्याय-(अध्ययन-चिन्तन-पृच्छा-विचारणादि) में उद्यमी रहना। (2) तप-नियम-वंदन आदि क्रियाओं में उद्यमशील रहना (3) बडों व गुण-संपन्न आदि का विनय करना (उनके आने पर उठना, सामने जाना, आसन पर बिठाना, कुशल पूछना, विदा करने जाना आदि) (4) कहीं भी अभिनिवेश अर्थात् दुराग्रह न रखना, हृदय में शास्त्र के कथन को मिथ्या न मानना, तथा (5) जिनवाणी के श्रवण में सदा तत्पर रहना - ये पाँच अवान्तर गुण आवश्यक हैं, क्योंकि इनके बिना सम्यक्त्वरत्न की शुद्धि नहीं होती 128 ऋजुव्यवहारी - ऋजुव्यवहारी बनने के लिए - (1) मिथ्या या मिश्रित अथवा विसंवादी (स्वतः विरुद्ध) वचन न बोलना, किन्तु यथार्थ वचन कहना, जिससे श्रोता को भ्रम न हो, अबोधिबीज न हो और असत् प्रवृत्ति से भववृद्धि न हो। श्रावक के लिए सरल व्यवहारी बनना ही समुचित हैं। (2) स्वयं की प्रवृत्ति अथवा व्यवहार दूसरों को ठगनेवाला न होकर निष्कपट हो, वैसा ही करना चाहिए (3) भूलते हुए जीव की भूलों के अनर्थ बताना और (4) सबके साथ हृदय से मैत्रीभाव-स्नेहभाव रखना।29 गुरु-शुश्रूषा - गुरु-शुश्रुषु-बनने के लिए (1) गुरु के ज्ञानध्यान में विघ्न न हो व अच्छी सुविधा रहे -इस प्रकार उनकी स्वयं समयोचित अनुकूल सेवा करनी चाहिए। (2) गुरु के गुणानुवाद करके दूसरों को उनके प्रशंसक/सेवक बनाना चाहिए। (3) उनके लिए स्वयं या दूसरों से आवश्यक औषधि आदि का प्रबंध करना, कराना और (4) सदा बहुमानपूर्वक गुरु की इच्छा का अनुसरण करना चाहिए। प्रवचन-कुशल - प्रवचन-कुशल बनना अर्थात् (1) सूत्र, अर्थ, उत्सर्ग, अपवाद, भाव और व्यवहार में कुशल होना चाहिए। अर्थात् (1) श्रावक के योग्य सूत्र व शास्त्रों को पढना (2) उनके अर्थ सुनना, समझना (3-4) धर्म में 'उत्सर्ग मार्ग' अर्थात् मुख्यमार्ग कौन सा है ? उसी प्रकार कैसे द्रव्य (61 (2) 26. तत्या 25. कयवयकम्मो | तह सीलयं च 2 गुणवंच 3 उज्जववहारी 41 गुरुसुस्सूरसो 5 पवयण-कुसलो 6 खलु सावगो भावे ।।।। - अ.रा.पृ. 7/782 तत्थायण्णण | जाणण 2 गिणहण 3 पडिसेवणेसु 4 उज्जुत्तो। कयवकम्मो चउहा, भावत्थो तस्सिमो होई ।।2।। - वही 27. आययणं खु निसेवइ । वज्जइ परगेह पविसणमकज्जे 2 । निच्चमणुब्भडवेसो 3 न भणई सविआरवयणाई ।।3।। परिहरइ बालकीलं 5 साइह कज्जाई महुरनीईए 6 । इअ छव्विहसीलजुओ, विन्नेओ सीलवतोऽत्था 1411 - अ.रा.पृ. 7782 28. सज्जाए । करणम्मि अ2 विणयम्मि अ 3 निच्चमेव उज्जुतो। सव्वत्थऽणभिनिवेसो 4, वहइ रुई सुट्ठ जिणवयणे ।।6।। - वही 29. अ.रा.पृ. 7767 30. अ.रा.पृ. 3/946, 7/107, 7/784; धर्मरत्न प्रकरण-49 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [341] क्षेत्र- काल-भाव में कब किस-विषय में किस प्रकार के अपवाद का सेवन करना? इसे जानना (5) समग्र धर्मसाधना विधिपूर्वक करने का पक्षपात रखना और (6) किस देश-काल के योग्य शास्त्रज्ञ गुरु का कैसा-कैसा व्यवहार व वर्तन होता है, इसे समझना व इसका लाभानुलाभ सोचना ।। भावश्रावक के भावगत 17 लक्षण (गुण) : भाव श्रावक को प्रतिदिन 1. स्त्री 2. धन 3. इन्द्रिय 4. संसार 5. विषय 6. आरंभ 7. गृह 8. सम्यक्त्व 9. लोक संज्ञा 10. जिनागम 11. दानादि 12. धर्म-क्रिया 13. अरक्त दिष्ट 14. अनागृही 15. असंबद्ध 16. परार्थभोगी 17. वेश्यावत् गृहवास, इन 17 विषयों पर विचारणा करनी चाहिए। 1. स्त्री को पापों व अनर्थ की प्रेरक चलचित्त और नरक की दूती समझकर हितार्थी उसके वश में न होकर उसमें आसक्त न हों। 2. धन अनर्थ, क्लेश और कलह की खान है, एसा समझकर इसका लोभ न करना। 3. सब इन्द्रियाँ आत्मा की भाव-शत्रु हैं, जीव को दुर्गति में घसीट कर ले जानेवाली हैं, एसा समझकर उन पर अंकुश रखना। संसार पाप-प्रेरक है, दुःख रुप है, दुःखदायी है व दुःखानुबंधी है। यह विचार रखकर इससे मुक्त होने के लिए आतुरता व शीध्रता रखनी चाहिए। 5. शब्द, रुप, रस, गंध, स्पर्श - ये सब विषय विषरुप हैं, अत: इनसे रागद्वेष न करना। विषय सच्चैतन्य के मारक होने से विषरुप हैं। सांसारिक कार्य आरंभ-समारंभमय जीवघात से पूर्ण हैं; एसा सोचकर बहुत कम आरंभो से चलाना। "गृहवास षटकायजीव-संहारमय व अठारह पापस्थानकों से पूर्ण हैं" -एसा विचार कर इसे पाप-सेवन की पराधीनता की बेडी रुप होने से कारागार-निवास जैसा समझना । साधुदीक्षा के लिए इसे छोडने का यथाशक्ति प्रयास करना । सम्यक्त्व को चिंतामणि रत्न से भी अधिक मूल्यवान् और अतिदुर्लभ समझकर सतत शुभभावना और शुभ कृत्यों से एवं शासन की सेवा व प्रभावना द्वारा सम्यक्त्व को स्थिर रखना, इसे निर्मल करते रहना, इसके सामने महान् वैभव भी तुच्छ जानना। 9. लोकसंज्ञा अर्थात् गतानुगतिक लोक की प्रवृत्ति और मानाकांक्षा की ओर आकृष्ट न होकर सूक्ष्म बुद्धि से विचार करना। 10. 'जिनागम के बिना लोक अनाथ है, क्योंकि जिनागम को छोडकर कोई परलोक हित का सच्चा मार्ग बतानेवाला नहीं है' -एसी दृढ श्रद्धा से जीवन में जिनाज्ञा को प्रधान करके अर्थात् जिनागम को ही सम्मुख (ध्यान में) रखकर सब कार्य करना। 11. दानादि धर्म को आत्मा की अपनी परलोकानुयायी संपत्ति समझकर, शक्ति को छिपाये बिना अच्छी प्रकार दानादि__आचरण में आगे बढना। 12. दुर्लभ तथा चिंतामणी रस्त्र के समान अमूल्य एकान्त हितकारी निष्पाप धर्मक्रिया का यहाँ स्वर्णिम अवसर मिला है, इसका सुरीति से उपयोग करते हुए यदि इसमें अज्ञानी कभी हंसी मजाक भी करें तो उससे लज्जित नहीं होना। किन्तु उसकी उपेक्षाकर धर्मक्रिया में बहुत उद्यत रहना। 13. धन, स्वजन, आहार, गृह आदि को मात्र देहनिर्वाह के साधन मानकर, एसे सांसारिक पदार्थो में राग, द्वेष न करते हुए मध्यस्थ रहना। 14. उपशम को ही सुख रुप और प्रवचन का सार समझकर उपशम प्रधान विचारों में ही रमण करना । मध्यस्थ और स्वपर हितकारी रहते हुए किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं करना, सत्य का आग्रही बना रहना। 15. समस्त वस्तु की क्षण भंगुरता मन में सतत भावित करते रहना, व स्वजनादि में बैठे हुए भी इन सबका संयोग भी नाशवान् है' -एसा समझकर इन्हें 'पर (स्वयं की आत्मा से अलग) मान लेना' हृदय के भावों से असंबद्ध रहना, अर्थात् इन पर आंतरिक ममता का संबंध न रखना। 16. संसार के प्रति विरक्त मनवाला बनकर 'भोग अभोग कभी तृप्ति करने वाले नहीं, इनसे कभी तृप्ति नहीं होती हैं, अन्यथा इनकी तृष्णा बढती हैं।' एसा मानकर, यदि कामभोग में प्रवृत्त भी होना पडे तो वह केवल कुटुंबियो का मुँह रखने के लिए ही प्रवृत्त होना, किन्तु इन्हें मौज-शौक समझकर नहीं। 17. गृहवास में निराशंस-निरासक्त बनकर इसे पराया समझता हुआ, वेश्या के समान निर्वाह करे और गृहवास को निष्फल वेठवन्दना रुप समझता हुआ इसे 'आज छोडूं कल छोडूं -एसी भावना में रमता रहें। इस प्रकार संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि श्रावक बनने की अनेक भूमिकाएं हैं। श्रावक के आचरण से सम्बन्धित शब्दावली का अनुशीलन इसी अनुच्छेद के तीसरे शीर्षक में प्रस्तुत किया जा रहा हैं। मौलिक रुप से धर्म तो साधुमार्ग ही है, किन्तु जीव अनादि काल से संसारवासनाओं से संस्कारित है अत: आरम्भिक अवस्था में साधु का आचरण कठिन प्रतीत होता है उनके लिए आचार्योंने प्रथम सोपान के रुप में श्रावक धर्म कहा हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में इसी बात को और अधिक स्पष्ट किया गया है कि उपदेष्टा का कर्तव्य है कि वह प्रथम तो मुनिधर्म का उपदेश करे, पश्चात् यदि शिष्य उसे ग्रहण करने में असमर्थता प्रकट करे तो उसे श्रावकधर्म का उपदेश करना चाहिए 133 श्रावकधर्म एकदेश है और मुनिधर्म सर्वदेश । इस प्रकार श्रावकधर्म और मुनिधर्म में स्तर की अपेक्षा से अन्तर है। इस अन्तर को आगे के शीर्षक में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया हैं। 31. अ.रा.पृ. 5/784, 7/782 32. इत्थि दिअत्थसंसार-विसय-आरंभ-गेह-दसणओ। गड्डरिगाइपवाहे पुरस्सरं आगमपवित्ती ।।12।। दाणाइ जहासत्ती, पवत्तणं विहिअ रत्तदुट्टे अ। मज्झत्थमसंबद्धो, परत्थकामोवभागी आ ॥13॥ वेसा इव गिहवासं, पालइ सत्तरसपयनिबद्धं तु । भावगय भावसावग-लक्खणमेअंसमासेणं ॥4॥" अ.रा.पृ. 7784, धर्मसंग्रह प्रकरण-2/12 से 14 33. यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने, प्रदर्शितं, निगृहस्थानम्। - पुरुषार्थसिद्धयुपाय 18 For Private & Personal use only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [342]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. मुनि एवं गृहस्थ के आचार में मौलिक अन्तर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा रचित अभिधान राजेन्द्र कोश में जैनागमानुसार वर्णित आचार परक शब्दावली का अध्ययन, अनुशीलन करने पर यह भलिभाँति स्पष्ट हो जाता है कि, साध्वाचार एवं श्रावकाचार में महद् अन्तर हैं, जिसे यहाँ भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से स्पष्ट किया जा रहा हैं। सम्यक्त्व व्रत के पालन में अन्तर : वसा) जीवदया अवरुद्ध रहती है। संकल्प भी दो प्रकार का होता साधु शुद्ध सम्यक्त्वधारी होता है अर्थात् सुदेव-सुगुरु-सुधर्म है- सापराध और निरपराध विषयक । वहाँ गृहस्थ अपराधी के अपराध में पूर्ण श्रद्धावनत होता है। एकमात्र जिनेश्वर देवाधिदेव, 36 गुणालंकृत की गुरुता-लघुता का चिन्तन करता हैं। गुरु अपराध होने पर दण्ड आचार्यादि गुरु और केवलिप्रकाशित धर्म में दृढ श्रद्धा धारण कर देता हैं अत: (2.5 वसा) जीवदया अवरुद्ध रहती है। और निरपराध उनकी उपासना करता हैं और रत्नत्रय की सुंदर आराधना करता हैं। संकल्प भी दो प्रकार का हैं - सापेक्ष और निरपेक्ष । वहाँ निरपेक्ष उत्सर्ग मार्ग से मुनि कभी भी इन सुदेवादि तत्त्वत्रयी के अतिरिक्त जीवहिंसा का श्रावक त्याग करता है परन्तु सापेक्ष का त्याग नहीं अन्य को नमस्कार नहीं करता । गृहस्थ भी इन तत्त्वत्रयी और रत्नत्रयी कर पाता क्योंकि बाहर रखे गये गाय, बैल, भैंसादि को बाँधना पडता में श्रद्धा तो रखता है, परन्तु आजीविकादि कारण से या राजा-देव- है और प्रमादी पुत्र आदि को भी दण्ड देना पडता हैं। अतः गृहस्थ/ बलादि कारण से उसमें आगार (छूट) रखता है, कुलदेवतादि की। व्रतधारी श्रावक सवा वसा मात्र जीवदाय का ही पालन करता है पूजादि भी करता है, साधु एसा नहीं करता। साधु छठे और उससे जबकि, साधु सर्वथा जीवहिंसा का त्यागी होने से बीस वसा जीवदया ऊपर के गुणस्थान की अवस्था में होते हैं जबकि श्रावक का चौथा-- का पालन करता हैं। पाँचवा गुणस्थान होता हैं। साधु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, मैथुन, अपरिग्रह, रात्रि भोजन सामायिक में अन्तर : त्याग रुप षड् व्रत एवं पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, साधु की सामायिक यावज्जीव होती है जबकि गृहस्थ की वनस्पतिकाथ एवं त्रसकाय की मन-वचन-काया से कृत-कारितसामायिक दो घडी (48 मिनिट) की होती है। साधु की सामायिक अनुमोदनपूर्वक षड् जीवनिकाय हिंसात्यागरुप 12 प्रकार की विरति मन-वचन-काय से सर्वथा सावध योगों के कृत-कारित-अनुमोदन (छह व्रतों का पालन एवं षड्जीवनिकाय की रक्षा) का पालन करता के त्यागपूर्वक होती है जबकि गृहस्थ की सामायिक त्रियोग एवं है जबकि श्रावक को केवल त्रस जीवों की हिंसा की भी आंशिक कृत-कारितपूर्वक होती है; अनुदान का त्याग श्रावक के नहीं होता। विरति हैं। विरति में अन्तर : अणुव्रत-महाव्रतों का अन्तर :साधुजीवन में सर्वविरति चारित्र होता है जबकि श्रावकों श्रावक पाँच व्रतों का स्थूल रुप से पालन करता है एवं के देशविरति चारित्र होता है। साधु के महाव्रत होते हैं जबकि श्रावकों गृहस्थी संबंधी आरंभ-समारंभ के कारण पाँच स्थावर की हिंसा का के अणुव्रत होते हैं। महाव्रतधारी साधु के प्राणातिप्रात, मृषावाद, त्याग नहीं कर सकता तथा त्रसकायिक हिंसा का भी संपूर्ण त्याग अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह- इन पाँचो आस्रवों का सूक्ष्म-बादर, त्रस- नहीं होता, केवल नियमपूर्वक सीमा कर सकता हैं। अतः श्रावक स्थावर-अल्प-बहु आदि समस्त प्रकार से सर्वथा त्याग होता हैं, जबकि से केवल सवा वसा जीवदया का ही पालन हो सकता है जबकि श्रावकों के इनका स्थूल त्याग होता हैं। साधु तो वीसवसा / संपूर्ण जीवदया का पालन करता है क्योंकि जीवदया पालन में अन्तर : साधु के आरंभ-समारंभ एवं परिग्रह संबंधी तथा गृहस्थी संबंधी हिंसा जीव दो प्रकार के होते हैं -1. स्थूल और सूक्ष्म । द्विन्द्रियादि का त्याग होता है । त्रस जीवों को स्थूल कहते हैं और पृथिव्यादि पाँच बादर एकेन्द्रिय साधु सर्वथा मृषावाद का त्यागी है, जबकि श्रावक स्थूल को सूक्ष्म कहा जाता हैं ) सूक्षम एकेन्द्रिय के वधाभाव होने से उनका रुप से सहसात्कार से बड़ा झूठ नहीं बोलता। साधु सर्वथा अदत्तादान समावेश यहां नहीं है)। का त्यागी होने से तृण, भस्म, जल आदि भी बिना मालिक की सूक्ष्म-बादर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा से निवृत्त होने आज्ञा के नहीं ले सकता और तीर्थंकर अदत्त, स्वामी अदत्त, गुरु के कारण मुनि बीस वसा जीवदया पालन करते हैं (वसा की व्याख्या अदत्त, और जीव अदत्त भी ग्रहण नहीं करता, जबकि श्रावक मात्र आगे दी जा रही है), जबकि गृहस्थ स्थूल-सूक्ष्म दोनों प्रकार के राज्यविरुद्ध, देशविरुद्ध, लोकविरुद्ध बडी चोरी का त्याग करता है जीवों में से पृथ्वी, जल आदि से सतत आरंभ के कारण सूक्ष्म जीवों परन्तु घर में, परिवार में, मित्रों में एक दूसरे की चीज-वस्तु बिना की हिंसा का त्याग नहीं कर सकता अत: उनकी जीवदया 10 वसा पूछे भी लेता है, देता है उपयोग करता हैं। अवरुद्ध रहती हैं। स्थूलप्राणिवध भी दो प्रकार का है - संकल्पज साधु नव बाड एवं 18000 शीलांगों के साथ सर्वथा ब्रह्मचर्य और आरम्भज उसमें से गृहस्थ "मैं इसे मारुंगा" - एसी संकल्पी पालन करता है, जबकि श्रावक स्वदारसंतोष-परदारागमनत्यागरुप शीलव्रत हिंसा का त्याग कर सकता है, परन्तु कृषि-व्यापार-गृहकार्य संबंधी आरंभी हिंसा का त्याग नहीं हो पाता, अतः उसमें से आधी (5 1. अ.रा.पृ. 1/846 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन का पालन करता हैं। साथ ही विधवा, वेश्या, परस्त्री आदि का त्याग करता है । पर्वतिथि का ब्रह्मचर्य पालन करता है। कोई-कोई श्रावक (चतुर्थ व्रतधारी) सर्वथा ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले होते हैं। साधु किसी के विवाहादि नहीं कराते और अनुमोदन भी नहीं करते, जबकि व्रती गृहस्थ भी स्वयं के पुत्र-पुत्री - परिवार आदि का विवाह करताकराता हैं। साधु धर्मोपकरण के अलावा शेष बाह्य आभ्यन्तर, अल्पबहु, सूक्ष्म-बादर, अल्पमूल्य - बहुमूल्य आदि सभी प्रकार के परिग्रह का त्यागी होते हैं जबकि, गृहस्थ जीवन में धन-धान्यादि बाह्य 9 प्रकार के परिग्रह की इच्छानुसार मर्यादा की जाती हैं। साधु बाह्य परिग्रह (धर्मोपकरण) में मूर्च्छार्च्छत्यागी एवं आभ्यन्तर रुप से प्रत्याख्यानीय आदि तीनों कषायों का त्यागी होता हैं; उन्हें केवल संज्वल कषाय ही रहता है, जबकि श्रावकजीवन में प्रत्याख्यानीय कषाय एवं 9 नोकषाय रहते ही हैं। साधु को अपने संयम आराधना हेतु शास्त्रोक्त उपकरण यावत् देह पर भी मोह-ममत्व नहीं होता, जबकि श्रावकों को स्वयं के स्वामित्व के घर-दुकान, खेत इत्यादि तथा धन-धान्यादि, पुत्र-परिवार - स्वजनों के प्रति मोह - ममत्व रहता हैं। साधुजीवन में महावीर स्वामी के शासन में रात्रिभोजन मूलगुण है जबकि, श्रावक का यह उत्तरगुण हैं। साधु रात्रिभोजन के सर्वथा त्यागी है जबकि श्रावकों का आंशिक नियम हैं। जीवन व्यवहार में अन्तर : साधु की अपने स्वामित्व में कोई घर-दुकानादि नहीं रहता, साधु स्त्र्यादि दोषरहित वसति दूसरों के स्वामित्व के निवास में याचनापूर्वक रहता है जबकि श्रावक अपने घरों में रहते हैं। साधु श्वेत, मानोपेत, जीर्णप्राय, बिना सिले वस्त्र धारण करते हैं जबकि गृहस्थ शुभ पचरंगी वैभवानुसार यथामूल्य यथाप्रसंग मर्यादापूर्ण वेशभूषा धारण करते हैं। साधु काष्ठ या मिट्टी के पात्र में आहार करते जबकि गृहस्थ धातु के बर्तन वापरते हैं। श्रावक स्वयं के लिए अभक्ष्यअपेय का त्यागपूर्वक चारों प्रकार का आहार बनाकर भोजन करता है, साधु गोचरचर्या द्वारा गोचरी में साधु जीवन के नियमानुसार जो प्राप्त होता है उसे भी गुर्वादि के साथ बाँटकर वापरता है । साधु ग्रामानुग्राम पैदल विहार करते हैं, नवकल्पी विहार मर्यादा का अवश्य पालन करते हैं जबकि गृहस्थ वाहन द्वारा गमनागमन करते हैं। साधु के 27 गुण होते हैं, जबकि गृहस्थ के 21 गुण होते है । साधु के लिए चरणसित्तरी करणसित्तरी का पालन अनिवार्य है। जबकि श्रावक के लिए यथाशक्य करणीय 36 कर्तव्य हैं। साधु सावद्य भाषा का त्यागी होता है, निरवद्य भाषा भी बिना कारण नहीं बोलता जबकि गृहस्थ के एसा नियम नहीं। साधु गृहस्थ की आगता - स्वागता नहीं करता केवल साधु की ही वैयावृत्य करता है जबकि गृहस्थ साधु और गृहस्थ दोनों का यथायोग्य स्वागत करता है। साधु कंचन - कामिनी का त्यागी हैं, अतः धर्मस्थान एवं धर्मक्षेत्र हेतु उपदेश देते हैं, जबकि श्रावक यथायोग्य जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, ज्ञान भंडार, उपाश्रय, पौषधशाला, आयंबिलभवन आदि धर्म स्थानों का निर्माण कराता हैं। स्वामिवात्सल्य, धर्मक्षेत्रोद्धार, साधर्मी सहाय/ उद्धार करता - कराता है, साधुओं को वस्त्र - पात्र - औषधि - आहारवसति शास्त्र आदि देता है। देव-गुरु- संघ-साधर्मी, माता-पिता, वृद्ध, अनाथ, अपंग, विधवा, दरिद्रादि की यथायोग्य सेवा, भक्ति, या सहायता चतुर्थ परिच्छेद... [343] करता - कराता है, जबकि साधु स्व-गच्छ के साधुओं की ही आहार पानी से भक्ति करता अन्य गच्छ की नहीं (एसी मर्यादा है)। अन्य गच्छ के साध्वादि से वस्त्र पात्र ज्ञान पुस्तकादि का आदनप्रदान होता हैं। साधु-साधु की ही वैयावृत्य करता है, गृहस्थ की नहीं, जबकि गृहस्थ साधु और गृहस्थ दोनों की सेवा करता हैं । साधु श्रावक के धर्म कार्यों में शुभभावना और विशिष्ट तप आदि के गुणानुराग से अनुमोदना करता है, स्तुति नहीं, जबकि श्रावक साधु की और श्रावकों के उत्तम गुणों की स्तुती भी करता हैं। साधु जीवन में संयम यात्रा ही महत्त्वपूर्ण है। मुनि के द्वारा विहार के समय रास्ते में आनेवाले तीर्थों की यथायोग्य वंदना की जाती है जबकि श्रावक के जीवन में रथयात्रा, अष्टाह्निका महोत्सवादि एवं वर्ष में कम से कम एक बार तीर्थयात्रा की अनिवार्यता का विधान हैं। साधु रात्रि के मध्य के दो प्रहर संथारा पर भूमि शयन या काष्ठपटल पर शयन करते हैं जबकि श्रावक ढाई प्रहर निद्रा लेते हैं और पलंग, गद्दी तकिया, रजाई आदि का उपयोग करते हैं। पंचाचार पालन में अंतर : ज्ञानाचार पालन में साधु के दैनिक जीवन में चार बार स्वाध्याय, पाँच प्रहर ध्यान-स्वाध्याय-अध्ययनादि करने की जिनाज्ञा है, जबकि श्रावक यथाशक्ति दो घडी या एक प्रहर-आधा प्रहर ज्ञानार्जन, सत्संग आदि करता है। साधु कालानुसार सूत्रार्थ का अध्ययन करते एवं सभी आगमसूत्रों के अध्ययन हेतु योगोद्वहन (विशिष्ट नियमपूर्वक की जाने वाली तप आराधना) करते हैं, जबकि श्रावक छह उपधान (प्रथम-47 दिन में चार उपधान, द्वितीय-35 दिन में एक, एवं तृतीय 28 दिन में एक इस प्रकार कुल छह) करते हैं। साधु अपने से बडे साधु को एवं साध्वियाँ सभी साधु भगवंतो को नियमपूर्वक वंदन करती हैं जबकि गृहस्थ छोटे-बडे सभी साधु-साध्वियों को वंदन करते हैं। श्रावक ज्ञान के उपरकरणादि का दान करता है, पुस्तकादि लिखवाता है, साधु नहीं। साधु योगोद्वहनपूर्वक आगमों का अध्ययन करते हैं; गृहस्थ नहीं । दर्शनाचार में साधु प्रतिदिन जिनमंदिर दर्शन, सात चैत्यवंदन, भावपूजा, उत्कृष्ट देववंदन आदि करता है और श्रावकों को जिनदर्शन, पूजन, तीर्थयात्रा, गुरुवंदन, ज्ञान भक्ति, जिनमंदिर- उपाश्रय, पाठशाला, आयंबिल भवनादि धर्मस्थान के निर्माण हेतु प्रेरणा देता है, उपदेश देता है जबकि गृहस्थ इनसे उपदेश प्राप्त कर जिनमंदिरादि सातों क्षेत्रों में न्याय - नीतिपूर्वक पुण्योपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करता है, लोगों को धर्म में स्थिर करता है, धर्मशासन की प्रभावना करता हैं चारित्रचार के पालन में मुनि जीवनपर्यंत सदा ही अष्ट प्रवचनमाता का पालन करता है, जबकि श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण, देशावगासिक और पौषध में ही इनका पालन करता हैं। तपाचार पालन में साधु आहार के रस, स्वाद और मूर्च्छा के त्यागी होने पर आहार करने पर भी उपवासी माना जाता है, जबकि गृहस्थ के विषय में एसा नहीं है। साधु कभी भी एक साथ छह विगई (विकृतियाँ) (दूध, दही, घी, तेल, शक्कर, गुड, कडा विगई ) नहीं लेता, जबकि गृहस्थ के एसा नियम नहीं है। साधु विहारादि में एवं वसति में भी आतपना शीतादि एवं बाईस परिषह सहन करते Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [344]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं, लोच करते हैं, अंगोपांग संकुचित रखते हैं, जबकि गृहस्थ सामान्यतया साधु की सामायिक यावज्जीव तिविहं-तिविहेण (मनलोच नहीं करते, गृहस्थ के जीवन में इन्द्रियों के विषयभोग होते वचन-काय x कृत-कारित-अनुमोदन = अर्थात् 3 x 3 = 9) होती रहते हैं। है, जबकि गृहस्थ की सामायिक दो घडी (48 मिनिट) की और आभ्यन्तर तप में साधु के जीवन में दीक्षाग्रहण करने दुविहं-तिविहेण (कृत-कारित x मन-वचम-काय = अर्थात् 2x3 से पूर्व एवं दीक्षापश्चात् प्रति छह माह या वर्ष भर में अवश्य आलोचना = 6) होती हैं। साधु प्रतिदिन उत्कृष्ट देववंदन करता है, श्रावक ग्रहण की जाती हैं, साधु बडे-छोटे सभी को यथायोग्य विनय- को भी यथाशक्ति करना चाहिए। साधु अपने से बडे साधुओं को वंदन करते हैं, आचार्यादि 13 की चारों प्रकार से वैयावृत्य करते वंदन करते हैं, श्रावक के लिए सभी साधु वंदनीय है। साधु पंचमहाव्रत हैं, प्रतिदिन पाँच प्रहर पाँचो प्रकार का स्वाध्याय करते हैं, आर्त- और एक प्रकार के असंयम से तैंतीस आशातना संबंधी एवं साध्वाचार रौद्र ध्यान से बचकर धर्मध्यान ध्याते हैं, कर्मक्षय के निमित्त कायोत्सर्ग संबंधी दोषों का प्रतिक्रमण करते हैं जबकि गृहस्थ सम्यक्त्व, 12 करते हैं, जबकि गृहस्थ उसके जीवन में लगे बडे दोषों की आलोचना व्रत और संलेषणा (अनशन) संबंधी अतिचार दोषों का प्रतिक्रमण करता है, यथाशक्ति विनय-वैयावृत्त्य करता है, सत्संग-स्वाध्याय करता है। प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग दोनों में सामान होते हैं। साधु भी थोडा सा करता है, धर्मध्यान हेतु प्रयत्न करता है, और कायोत्सर्ग नियम से कम से कम नवकारसी और चोविहार का प्रत्याख्यान करते करता है। साधु प्रत्येक स्थिति में गुरु का विनय करता हैं, जबकि हैं, जबकि श्रावक नवकारसी और यथाशक्ति चोविहार या तिविहार गृहस्थों में पुत्रादि के द्वारा पितादि का वैसा विनय नहीं भी किया का प्रत्याख्यान करता हैं। जाता। उपरोक्त बिन्दुओं के द्वारा हमने साधु और श्रावक के पूजा में अन्तर : आचारान्तर्गत अन्तर को स्पष्ट किया है। इसके अतिरिक्त भी आहार, साधु जिनमूर्ति-गुरुमूर्ति की केवल भावपूजा ही करते हैं, विहार, निहार, व्यवहार, वेशभूषा, भाषा, रहन-सहन, निवास, आदि गुरु की आहारादि से भक्ति करते हैं जबकि श्रावक जिनबिम्ब में संपूर्ण जीवन-शैली में महद् अन्न्तर है जिसका विवरणात्मक विश्लेषण आरोपित जिनेश्वर देव की उत्तम द्रव्य से भावपूर्वक पूजा करते हैं शोध-प्रबंध में दर्शाया गया हैं। इस संसार में बहुत सारे अल्पज्ञ, और चतुर्विध संघ की भी द्रव्य-भाव दोनों तरह से भक्ति करते हैं। मनचले जो लोग एसा कहते हैं कि घर में रहकर भी धर्म हो सकता वीर्याचार में साधु नित्य नियम से, शक्ति छिपाये बिना हैं; दीक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है, उनके लिए यह सभी आवश्यक धर्मक्रियाएँ यथायोग्य करते हैं जबकि श्रावक जीवन दिग्दर्शन मात्र है, घर में धर्म का आंशिक पालन तो हो सकता में प्रमाद अधिक होता हैं। है परन्तु सर्वत्यागी बनकर संपूर्णतया जीवदया एवं जिनाज्ञा का षडावश्यक में अन्तर : अधिक से अधिक अर्थात् संपूर्ण पालन सर्वविरतियुक्त संयमजीवन साधु प्रतिदिन नियम से यथायोग्य दैवसिकादि पाँचों प्रतिक्रमण (मुनिजीवन) के बिना कथमपि संभव नहीं अत: दीक्षा लेने की करते हैं, जबकि श्रावक इन्हें यथाशक्य करता हैं; यदि नित्य नहीं क्या आवश्यकता है ? ऐसा सुश्रावक कभी भी न करें/न बोले। हो सके तो पाक्षिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करता हैं; यदि वह भी नहीं हो तो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण अवश्य करते हैं। जो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण नहीं करता वह आराधकों की गिनती में नहीं आता। 2. कल्पसूत्र (बारसा सूत्र मूल) समाचारी प्रकरण नाणी नाणडिओ जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुआहिँ वासकोडीहिं। तं नाणी तेहिं ती, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥1॥ सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि । जीवो तहा ससुत्तो, न नस्सई गओ वि संसारे ॥ 2 ॥ नाणं गिण्हइ नाणं, मुणेइ नाणेण कुणइ किच्चाई। भवसंसारसमुदं, नाणी नाणट्ठिओ तरइ ॥3॥ -अ.रा.पृ.4/1989 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 2. श्रावको के आचार में सापेक्ष स्थूलता जैन धर्म का प्रत्येक सिद्धांत जैन दर्शन के सिद्धांतो द्वारा पोषित और प्रमाणित हैं। लोक में अनन्त जीव राशि है, उनमें से अनन्त जीव अपने पुरुषार्थ से सिद्ध अवस्था प्राप्त कर चुके हैं, और उस दिशा में अनेक जीवों का प्रयास जारी है। जैन सिद्धांत के अनुसार जीव संख्या निश्चित तो है (अर्थात् न तो कोई नया जीव बनता है और न कोई नष्ट होता है) किन्तु यह जीव राशि अनन्त हैं। 'अनन्त' में से अनन्त बार भी अनन्त घटाने पर अनन्त ही शेष रहता है चतुर्थ परिच्छेद... [345] ॐ पूर्णमदः पूर्णमदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णात् पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ जीव आरम्भिक रुप से आरम्भिक अवस्था में निगोद अवस्था में होता है। वहाँ से क्रमशः विकास को प्राप्त होता हुआ द्वीन्द्रिय आदि त्रस अवस्थाओं को पार करता हुआ अनेक योनियों (प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में जीवों की प्रमुख योनियाँ चौरासी लाख बतायी गयी हैं) को प्राप्त करता हुआ (या निगोद से सीधे ही) जब मनुष्य योनि प्राप्त करता है तब उसे अपने विकास की अन्तिम परिणति का बोध पाने की योग्यता आती हैं। यह जीव अनादि संस्कार वासना से वासित होता है जैसे कि स्वर्ण धातु अपने स्वाभाविक खनिज में अनेक अपमिश्रणों से आच्छादित रहता है। सभी जीव सांसारिक सुखों और दुःखों का अनुभव करते हैं। जीव स्वभाव है कि वह सुख चाहता है और दुःख से डरता हैसुखार्था सर्व भूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः । ज्ञानाज्ञान विशेषात्तु मार्गामार्गप्रवृत्तयः ॥ इन दुःखों को दूर करने के लिए यदि वहा गतानुमतिक लोक को देखकर उपाय में प्रवृत्त होता है तो सांसारिक दुःख से किञ्चिद् शान्ति का उपाय प्राप्त भी होता है किन्तु कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु के श्रद्धान, ज्ञान और आचरण को ही समीचीन मानकर जब वह प्रयास करता है तो एलोपैथिक औषधि के सेवन के समान एक दुःख तो दूर होता है पर दूसरी व्याधि लग जाती है। इस प्रकार अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव उपायों से भी पुष्ट कर लेने से वह गृहीत मिथ्यादृष्टि हो जाता है । कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु की सेवा और संजाल से छूटना सरल नहीं हैं। तीर्थंकरों ने जीवों को इस प्रकार छटपटाता देखकर अनन्त करुणा से सद्धर्म का उपदेश किया और अनेक तर्कों से जिससे जीव को सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो सके श्रद्धानं परमार्ताना माप्तागम तपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांग सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ भव्य जीव अपना निमित्त पाकर सम्यग्दर्शन के मार्ग से होता हुआ रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन ही बताता है कि जैसे ज्वरग्रस्त बालक का ज्वर दूर करने के लिए खिलोने का लालच दिया जाता है वैसे ही अनन्तानुबन्धी लोभ और मिथदयात्व से दूषित जीव को सम्यग्दर्शन आदि में 'रत्न' संज्ञा से आकृष्ट किया जाता है। सम्यग्बोध को प्राप्त जीव एकबार रत्नत्रय का आस्वाद लेने के बाद बिना किसी सांसारिक लोभ के (मोक्ष का लोभ तो रहता ही है) रत्नत्रय के मार्ग पर चलने लगता है। यतः यह जीव आरम्भिकरुप से अनादि संस्कार से तो मिथ्यादृष्टि रहता है, अतः रत्नत्रय के मार्ग से अनेक बार स्खलित होता है। आगमों में तो यहाँ तक कहा गया है कि उपशान्त मोह (ग्यारहवें गुणस्थान) से गिरकर जीव पहले (मिथ्यात्व) गुणस्थान तक भी पहुँच सकता है। तात्पर्य यह है कि जैसे स्वर्णधूलि को मिट्टी में मिलाना हो तो कोई विशेष उपाय नहीं करता होता, किन्तु इसके विपरीत यदि मिट्टी में से सोना उपजाना हो तो अनेक उपाय करने होते हैं। इसी प्रकार संसारी जीव को रत्नत्रय मार्ग पर चलाने के लिए अनेक प्रकार से अभ्यास कराना आवश्यक होता है। यद्यपि पुरुषार्थ सिद्धयुपाय कहा गया है कि पहले तो मुनिधर्म का ही उपदेश करना चाहिए, पश्चात् यदि श्रोता असमर्थता प्रगट करे तो श्रावक धर्म का उपदेश करना चाहिए यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥ समझाया है। वस्तुतः अनादि मिथ्यादृष्टि जीव जो प्रायः अनेक योनियों में भ्रमण करने के बाद (कोई कोई सीधे ही) मनुष्यत्व को प्राप्त करता है सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय तो वह गृहस्थ ही होता है, और प्रायः अनेक भवों के बाद ही मुनि धर्म अंगीकार कर पाता है। अतः अपेक्षा स्थूलता देखी जाती है। आरम्भ में स्थूल धर्म का पालन ही सम्भव हो पाता है। इसलिए श्रावक धर्म में मुनिधर्म की शास्त्रों में यह उल्लेख प्राप्त है कि आरम्भ में जीव अविरत सम्यग्दृष्टि भी हो सकता हैं। भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में इसे आदिधार्मिक भी कहा गया है (इसका अनुशीलन श्रावक परक शब्दावली के अनुशीलन में प्रस्तुत किया जायेगा ) श्रावक के मुख्य दो भेद अविरत, विरताविरत एवं तीन भेद (1) पाक्षिक श्रावक (2) साधक श्रावक और (3) नैष्ठिक श्रावक के रुप में किये गये हैं। इन में मुनिधर्म के आचरण का आरम्भिक अभ्यास कराया जाता है। स्पष्ट है कि श्रावक धर्म में सापेक्ष स्थूलता है। I - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [346]... चतुर्थ परिच्छेद मुनि जीवन एवं गृहस्थ श्रावक के जीवन पर दृष्टिपात करते ही जब हम दोनों के व्रत, नियम, आचार, आवश्यक, जीवन-व्यवहारशैली आदि का निरीक्षण करते तब हमें तत्काल ज्ञात होता है कि मुनिधर्म सूक्ष्म है, जैनधर्म का आचरण विज्ञान बहुत ही सूक्ष्म और वैज्ञानिक है । अतः मुनिजीवन की सभी क्रियाएँ वैज्ञानिक रहस्ययुक्त, सूक्ष्म यतनायुक्त है । मुनिजीवन ही वास्तविक जैनधर्म, जैनाचार, अहिंसापालन है, क्योंकि 'सर्वभूतेषु दया' मुनिजीवन में ही संभव हैं; गृहस्थ जीवन में व्रतधारी श्रावक का जीवन भी मुनिव्रतपालन का अभ्यासमात्र है, श्रावकों के द्वारा किया जानेवाला उपधान तप भी मुनिजीवन का अल्पकालिक प्रयोग है। आगे कुछ बिन्दुओं के माध्यम से श्रावकों के आचार में सापेक्ष स्थूलता को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया जा रहा हैं 1 गम्य धर्म : अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्रमण का तो पूर्ण त्यागरुप आचरण झलकता है जबकि श्रावक में केवल संकल्पी हिंसा का ही त्याग हो पाता है। इसी प्रकार से सभी दैनिक कृत्यों के विषय में समझा जा सकता हैं। आहारचर्या : पशुओं में प्रवृत्ति की अपेक्षा से असत्य भाषण की प्रवृत्ति नहीं होती और (क्षुद्र जन्तुओं को छोडकर) परिग्रह की प्रवृत्ति भी नहीं होती। पशुओं की पशुता का तात्पर्य केवल गम्यागम्य विवेक का अभाव हैं - अर्थात् पशुओं में मैथुन विषयक विशेष नियमों का पालन नहीं किया जाता। इसलिए मनुष्य जाति के लिए ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ धर्म बताया गया है। ब्रह्मचर्य में भी मुनियों के तो नैष्ठिक ब्रह्मचर्य आवश्यक है किन्तु श्रावकों को अवस्थानुसार पाक्षिक ब्रह्मचर्य एवं नैष्ठिक ब्रह्मचर्य दोनों का विधान हैं। मैथुन सेवन में भी लौकिक आचार का पालन तो अनिवार्य ही हैं। लोकोत्तर धर्म : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का सम्मिलित स्वरुप रत्नत्रय लोकोत्तर धर्म कहा गया । भिन्न-भिन्न आचार्योंने सम्यग्दर्शन को भिन्न-भिन्न प्रकार से निरुपित किया है। आचार्य समन्त भद्रने श्रावकचारा में सुदेव सुशास्त्र और सुगुरु में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन, बताया हैं तो आचार्य उमास्वातिने तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन निरुपित किया है। वस्तुतः श्रावक सुदेवादि के श्रद्धान के मार्ग से यथावस्थित तत्त्व यथावत् को जानकर श्रद्धा करता है। इसलिए दोनों में कोई तात्त्विक भेद नहीं है, केवल मुनिधर्म की अपेक्षा स्थूलता है । अथवा सुदेवादि का श्रद्धान व्यवहार सम्यक्दर्शन है तो तत्त्वार्थ श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन । सम्यग्दर्शनपूर्वक ज्ञान को सम्यकज्ञान और सम्यग्दर्शनपूर्वक चारित्र को सम्यक् चारित्र नाम दिया जाता है। यद्यपि तीनों के आचरण में अनेक सोपान हैं। दैनिकचर्या और धर्म : श्रावक की दैनिक चर्या अनेक विध आरम्भ से युक्त होती है इसलिए जो अष्टादश आचार स्थान श्रमण के लिए उपदिष्ट हैं उनमें से अनेक अंशों का पालन श्रावकों में हो हीं नहीं पाता, अहिंसा के माध्यम से इसे समझा जा सकता है। अहिंसा स्वाभाविक रुप सेतो सबमें विद्यमान रहती है लेकिन जैसे ही जीव आरम्भयुक्त होता है हिंसा भी प्रारंभ हो जाती है। दन्तधावन से लेकर पूरी दिनचर्या में अनेक स्थावर जीवों का घात श्रावक के हाथ से होता रहता है, और उद्योग (कृषि, पशुपालन आदि पारम्परिक और आधुनिक भी) में अनेक सूक्ष्म - बादर त्रस जीवों का घात होता रहता है। सारांशतः आरम्भी, संकल्पी, उद्योगी और विरोधी इन चार हिंसाभेदों में से मुनियों की आहार चर्या अत्यन्त कठोर है जैसा कि पूर्व के परिच्छेद में यथास्थान वर्णित किया गया है। जबकि श्रावकों को मात्र अभक्ष्य वर्जन आदि का विधान है। एक विशेष तथ्य जो कि बोधगम्य है वह यह है कि जहाँ साधु को नियमतः भिक्षावृत्ति से ही भोजन ग्रहण करने का अभिप्राय है वहीं पर श्रावक को भिक्षावृत्ति न करने का अभिप्राय हैं। 'भिक्षुक/भिक्षु' शब्द मात्र इसीलिए श्रमण के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं कि वह भिक्षावृत्ति से आहार ग्रहण करे । दूसरे यह भी प्रतीत होता है कि श्रमण- श्रमणी दोनों को ही यही विधान अनेक विधि - निषेधों के साथ तो है ही साथ ही साथ यह भी कि भिक्षावृत्ति आहार प्राप्ति के लिए ही होनी चाहिए एवं संयमोपकरण प्राप्ति के लिए भी। यह तो श्रावक का कर्तव्य है कि वह संयमोपकरणों देखते हुए आग्रहपूर्वक पूछते हुए उनके बदले नये उपकरण (रजोहरण, वस्त्र, शास्त्र आदि) श्रमण श्रमणी को दान करें। षड् आवश्यक : श्रावकाचार के अनुसार श्रावकों के निम्नांकित छह दैनिक सम्पादनीय आवश्यक कार्य है - देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान । यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाये तो क्रियापरक आचार में देवपूजा सबसे प्रिय आचरण हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार की नित्य नैमित्तिक देवपूजाएँ श्रावकों द्वारा आयोजित की जाती हैं। श्रमण यदि वहाँ उपस्थित हो तो सहभागी होता है। गुरूपासना दूसरे क्रम पर हैं। श्रावक जब गुरु के सम्पर्क में आये या भ्रमण करते हुए गुरू (आचार्य, उपाध्याय, साधु) जब श्रावक के सम्पर्क में आये तभी सक्रिय गुरूपासना हो जाती है। स्वाध्याय दुःसाध्य सा प्रतीत होता है, कारण प्रथम तो शब्दार्थ का बोध नहीं होता, दूसरे चित्तवृत्ति का निरोध नहीं हो पाता, एकाग्रता नहीं आ पाती इसीलिए स्वाध्याय को आवश्यकों में गिना गया है जिससे श्रावक निरन्तर तत्त्वज्ञान में प्रयत्नशील रहें। संयम और तपों के आचरण में श्रावक यथाक्रम से आगे बढ़ पाता है। शिक्षाव्रतों के माध्यम से और गुणव्रतों के माध्यम से श्रावक को निरन्तर इनका अभ्यास कराया जाता हैं। इसी प्रकार दान को भी आवश्यक नित्य कार्य प्रतिपादित किया गया हैं। दान और त्याग में विशेषता है। श्रमण तो प्रव्रज्या के समय ही अकिञ्चन होकर अपरिग्रही हो जाता है; उसके पास भाव त्यागधर्म ( कषाय आदि के त्याग की निरन्तर भावना) के अतिरिक्त द्रव्य त्याग हेतु शेष बचा ही नहीं होता इसलिए श्रमण भाव त्यागधर्म का निरन्तर आचरण करते हैं। दूसरी ओर श्रावक (मनुष्य जाति का ) सांसारिक स्वभाव के अनुरुप परिग्रही होता है। प्रत्येक जीव तीनों लोकों का स्वामी होना चाहता है और यथासम्भव परिग्रह करता भी हैं। जबकि मुक्ति का मार्ग अपरिग्रह (परिग्रह से मुक्ति) से ही आरम्भ होता है इसलिए उपदेश किया गया है कि पहले तो श्रावक अपने परिग्रह का प्रमाण निर्धारित करे कि वह इतने द्रव्य परिग्रह से अधिक संचित नहीं करेगा। जबकि वह आजीविकोपार्जन में सतत लगा रहता है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [347] तो द्रव्य वृद्धि होगी ही, इसलिए उसे दान का विधान है जिससे यथासम्भव पालन करे। इस कथन में समस्त यतिधर्म का विधान स्वामित्व भाव समाप्त हो सके। इसी को लक्ष्य में रखकर आचार्य समाहित हो जाता हैं। उमास्वातिने दान को परिभाषित किया हैं परिषह जय :अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसगों दानम् । क्षुधा, तृषा आदि बाईस परिषहों में से श्रमण तो सभी अर्थात् आचार्य ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि परकल्याण परिषहों को सभी अवस्थाओं में जीतता ही है। किन्तु श्रावक को के निमित्त से ही अतिसर्ग होना चाहिए; अकल्याण के लिए नहीं । सापेक्ष विधान ही है। जैसे - किसी श्रावक को अकारण कारागार यह दान दैनिक जीवन में चार कारणों के आधार पर चार प्रकार में डाल दिया जाये और उसे रात्रि में ही भोजन दिया जाये तब का बताया गया है जैसा कि दान शब्द (पृष्ठ 357-58) के अन्तर्गत वह अपने विवेकानुसार क्षुधा परिषह को सहन करे। इसी प्रकार सभी स्पष्ट किया गया हैं। परिषहों में श्रावक के सापेक्ष स्थूलता समझनी चाहिए। यति धर्म : इस प्रकार श्रावकों के आचरण में जो स्थूलता देखी जाती यतिधर्म केवल यति के लिए हैं या श्रावक के लिए भी? है वह शास्त्र सम्मत होने के साथ - साथ अपरिहार्य भी है क्योंकि - यह प्रश्न प्रथमतः उपस्थित होता है। वस्तुतः यह प्रायोवाद है। अनादि काल से संसार में भ्रमण करनेवाला जीव सहसा मुनिवद् क्षमा आदि का पूर्णत: पालन यतियों में ही प्रगट हो पाता है इसलिए । नहीं हो सकता इसीलिए देशविरति और सर्वविरति भेद से दो प्रकार इनका नाम यतिधर्म है न कि श्रावकों के लिए इनका निषेध है। का धर्म बताया गया हैं। सर्वविरति के धारक श्रमण के आचरण जैन सिद्धांत में स्पष्टता यह प्रतिपादित है कि यद्यपि श्रावक का के विषय में पूर्व के शीर्षकों द्वारा प्रकाश डाला जा चुका हैं। आगे आचरण मुनियों से भिन्न है फिर भी उसका कर्तव्य है कि लिंग के शीर्षक द्वारा श्रावक धर्म विषयक शब्दावली के अनुशीलन के धारण (श्रमण वेश धारण) के अतिरिक्त वह श्रमण की चर्या का माध्यम से किञ्चित विवरण प्रस्तुत किया जा रहा हैं। | जागरिया जागरइ णरा णिच्चं, जागरमाणस्स वड्डए वुद्धी। जो सुअइ ण सो धणो, जो जग्गइ सो सया धणो ॥1॥ सुअइ सुअंतस्स सुअं, संकिटाखलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुअं,थिरपरिचियमप्पमत्तस्स ॥2॥ बालस्सेणं समं सोक्खं, ण विज्जा सह निद्दया । ण वेरग्गं पमादेण, णारंभेण दयालुआ ॥3॥ जागरिया धम्मीणं, अहम्मीणं तु सुत्तिया सेया। णच्छाहिव भगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥4॥ सुवइ य अयगरभूओ, सुयंपि से णस्सती अमयभूयं । . होही गोणतभूओ, णट्ठम्मि सुए अमयभूए ॥5॥ - अ.रा.पृ. 4/1447 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [348]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 3. श्रावकाचार की शब्दावली का अनुशीलन आदिधार्मिक गृहस्थ की योग्यता : श्रावक गृहस्थ होता है अतः श्रावक बनने से पूर्व गृहस्थ जीवन की योग्यता प्राप्त करना अनिवार्य है। तत्पश्चात् धार्मिक होने की योग्यता प्राप्त होने के बाद वह आत्मा देशविरति धर्म अंगीकार कर व्रती श्रावक बन सकता हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आदिधार्मिक गृहस्थ विषयक निम्नांकित कथन प्राप्त होते हैंआदिधार्मिक गृहस्थ : मार्गानुसारी की योग्यता (पैंतीस गुण) :___ अपुनर्बंधक, प्रथमारब्ध स्थूलधर्माचारयुक्त गृहस्थ को 1. न्यायसंपन्न वैभव :'आदिधार्मिक' कहते हैं। इसे ही अन्य धर्म ग्रंथों में 'शिष्टबोधि नीतिवान् गृहस्थ को सर्वप्रथम स्वामिद्रोह, मित्रद्रोह, विश्वाससत्त्वनिवृत्तप्रकृत्याधिकार' नाम से कहा गया हैं। घातादि तथा चोरी आदि निंदनीय उपायों का त्याग करके अपनेआदिधार्मिक के लक्षण : अपने वर्ण के अनुसार सदाचार और न्यायनीति से ही उपार्जित धनअभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - "आदि धार्मिक व्यक्ति वैभव से संपन्न होना चाहिए। दुराचारी मित्रों का त्याग करता है, सदाचारी कल्याण मित्रों से मित्रता 2. शिष्टाचार-प्रशंसक :रखता है, उचित स्थिति (कार्यो) का उल्लंघन नहीं करता, लोकमार्ग व्रतस्थ (व्रतधारी) या ज्ञानवृद्धों की सेवा से उपलब्ध शिक्षा का अनुसरण करता है, दान देता है तथा कर्तव्य पालन, उदारता, को शिष्टाचार कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में शिष्टाचार का वर्णन भगवद्पूजा, साधु संग, विधिपूर्वक धर्मशास्त्र श्रवण, प्रयत्नपूर्वक करते हुए आचार्यश्री ने कहा है - लोक विरुद्ध से डरना, दीन-दुःखी शुभभावनायुक्त होना, उचित व्यवहार, धैर्य, दूरदर्शिता, आदर्श मृत्यु का उद्धार करना, बडों का आदर करना और उपकारी के प्रति या हेतु अंतिम आराधना, परलोक प्रधान विचार करण, गुरुजनसेवा, अपकारी के प्रति सदैव उपकार करना - यह सदाचार कहलाता हैं। योगपटदर्शनकरण (विशिष्ट योगाभ्यास हेतु गुरु/आचार्य के द्वारा विशिष्ट सर्वत्र निंदा त्याग, सज्जनों की प्रशंसा, आपत्ति में अदीनता, उत्तरपट (वस्त्र) धारण किया जाता है, एसे योगधारी गुरु के दर्शन संपत्ति में नम्रता, सप्रयोजन मितभाषिता और अविसंवादन, सक्रियायुक्तता, करना -अ.रा.पृ. 4/1640) उसमें चित्तस्थिरता, धारणायुक्त, कुमार्ग कुलाचार पालन असद्व्यय का त्याग स्थानोचित्त क्रियाकारिता, मुख्य त्याग, योगसिद्धि में प्रयत्नशीलता, भगवत्प्रतिमानिर्माण करवाना, कार्यों में निर्बन्धता, अप्रमत्तता, लोकाचार पालन, सर्वत्र औचित्य पालन, जिनवचन-शास्त्रलेखन, मंगलजाप करना, चतुः शरण अंगीकरण, दुष्कृत प्राण संकट की स्थिति में भी निंद्य प्रवृत्ति का त्याग 'शिष्टाचार' गर्हा, सुकृतानुमोदना, मन्त्रदेवतापूजन, सत्कार्य श्रवण, औदार्य, उत्तम कहलाता हैं। मार्गानुसारी जीव शिष्टाचार का प्रशंसक होता हैं। ज्ञानसाधना आदि गुणों से युक्त होता हैं। शिष्टाचार की प्रशंसा धर्म के बीजरुप होने से इससे इसलोक इस प्रकार की प्रवृत्ति सत्प्रवृत्ति है। मार्गानुसारी इस नियम में सद्गुण परलोक में धर्मफल एवं परंपरा से मोक्षफल की प्राप्ति से अपुनर्बंधक होता है । आदिधार्मिकात्मा की उपरोक्त प्रवृत्ति होती है। मोक्षमार्गगामिनी होती है; बाधक नहीं होती, अर्थात् तात्त्विक रुप 3. समान कुल और शील वाले भिन्न गोत्रीय के साथ से अविरोधी होती हैं। विवाह-संबंध :श्रावक बनने से पूर्व अर्थात् श्रावकोचित अणुव्रतादि के पिता, दादा आदि पूर्वजों के वंश के समान वंश हो, मद्य, ग्रहण के पूर्व आदिधार्मिक जीव श्रावक बनने की योग्यता प्राप्त करने मांस आदि दुर्व्यसनो के त्यागरुपी शील-सदाचार भी समान हो, उसे हेतु मार्गानुसारित्व अर्थात् मोक्षमार्ग की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करने समान कुलशील कहते हैं। उस प्रकार के कुलशीलयुक्त वंश के के लिए मार्गानुसारी के गुणों को प्राप्त करता है। यहाँ मार्ग, मार्गानुसारित्व एक पुरुष से जन्मे स्त्री-पुरुष एकगोत्रीय कहलाते हैं, जबकि उनसे और मार्गानुसारी के बारे में जानना आवश्यक हैं। आचार्य श्रीमद्विजय भिन्न गोत्र में जन्में हुए भिन्न गोत्रीय कहलाते हैं । तात्पर्य यह है राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा हैं कि समान कुलशील वाले भिन्न गोत्रीय के साथ विवाह संबंध करना जिससे आत्मा की शुद्धि होती है, आत्मा के कर्मजनित चाहिए।' क्लेशों का शुद्धिकरण होता हो, मोक्षपथ का अन्वेषण, संविग्न (संवेगवान्), 1. "यो ह्यन्यैः शिष्टबोधिसत्त्वनिवृत्तप्रकृत्यधिकारादिशब्दैभिधीयते स अशठ (भ्रान्तिरहित) गीतार्थे (स्वभ्यस्त सूत्रार्थ) का आचरण, शिष्ठाचार एवास्माभिरादिधार्मिकाऽऽपुनर्बन्धकादिशब्दैरिति भावः।" अथवा प्रवर्तमान अंधानुकरण के त्यागपूर्वक महाजनों (श्रेष्ठ लोगों) - अ.रा.पृ. 2/6 के द्वारा किया गया आचरण, अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र 'मार्ग' 2. अ.रा.पृ. 2/6 कहलाता है। उनका अनुसरण 'मार्गानुसारित्व' कहलाता है और इस 3. अ.रा.पृ. 2/7 4. अ.रा.पृ. 6/37, 38,58 मार्ग पर चलनेवाला या मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्ति/गमन करनेवाला 5. अ.रा.पृ. 4/2002-2003 जीव 'मार्गानुसारी' कहलाता हैं । अभिधान राजेन्द्र कोश में मार्गानुसारी 6. अ.रा.पृ. 7/818, 337 के 35 गुणों का निम्नानुसार वर्णन किया गया हैं। 7. अ.रा.पृ. 6/1237-38 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम-कुलशीलवाली शुद्ध कन्या के साथ विवाह लाभदायक और सफल होता हैं। वह घर की रक्षा करती हैं। सुपुत्रों को जन्म देकर संस्कारी बनाती हैं। चित्त में अखण्ड शांति रहती हैं। गृहकार्यो की सुव्यवस्था रखती हैं । देव-गुरु-अतिथि-परिवार-रिश्तेदार-मित्रादि को घर में सत्कार होता हैं। 4. पापभीरु : दृष्ट और अदृष्ट दुःख के कारण रुप कर्मो (पाप) से डरने वाले पापभीरु कहलाते हैं। उसमें चोरी, परदारागमन, जुआ आदि लोकप्रसिद्ध पापकर्म हैं जो इसलोक में राजदंडादि दुःख दिलाते है एवं मांस भक्षण, शराब, रात्रिभोजनादि परलोक में नरकादि दुर्गतिरुप दुःख देते है। 5. प्रसिद्ध देशाचार का पालक : सद्गृहस्थ को शिष्ट-पुरुषों द्वारा मान्य, चिरकाल से चले आते हुए परम्परागत वेश-भूषा, भाषा, पोशाक, भोजन आदि सहसा नहीं छोडने चाहिए। अपने समग्र ज्ञातिमंडल के द्वारा मान्य प्रचलित विधि-रीति-रिवाजों व क्रियाओं का अच्छी तरह पालन करना चाहिए।' अन्यथा धर्म की निंदा होती है और लोक-विरोध होने से अनेक प्रकार से अहित होता है। 6. अवर्णवादी न होना : सद्गृहस्थ को किसी का भी अवर्णवाद नहीं करना चाहिए, चाहे वह व्यक्ति जघन्य हो, मध्यम हो या उत्तम ।। दूसरों की निंदा करने से मनमें धृणा, द्वेष वैर-विरोधादि अनेक दोष बढ़ते हैं। वाचक श्री उमास्वाति महाराजने कहा है कि, "दूसरे को नीचा दिखाने से, दूसरों का अवर्णवाद बोलने से एवं स्वयं के उत्कर्ष के गीत गाने से जीव क्रोडों भवों में भी नहिं छूटे - ऐसा नीच गोत्र कर्म अनेक भवों तक नीच-गोत्र कर्म का बंध होता हैं; बहुजनमान्य राजादि की निंदा से तो तत्काल विपरीत परिणाम आते हैं। 7. सद्गृहस्थ के रहने का स्थान : सद्गृहस्थ के रहने का घर एसा हो, जहाँ अधिक द्वार न हो, क्योंकि अनेकों द्वार होने से चोरी आदि का भय होता है। घर भी जहाँ शिकारी, मच्छीमार आदि हिंसक; दास, नोकर, याचकादि दास नोकर याचकाटि वर्ग, चाण्डाल, भील, स्मसानरक्षक, मनोरंजन करनेवाले, आदि न रहते हो वैसे सज्जनों के पडोशयुक्त योग्य स्थान में हो। जहाँ हडियों आदि का ढेर न हो, तीक्ष्ण कांटे न हो तथा घर के आसपास बहुत सी दूब, घास, प्रवाल,पौधे, प्रशस्त वनस्पति उगी हुई हो, जहाँ मिट्टी अच्छे रंग की व सुगन्धित हो, जहाँ का पानी स्वादिष्ट हो, वह मकान न अति प्रकट हो और न अति गुप्त हो, अर्थात् राजमार्ग पर भी न हो और एकदम सकडी गली में अंधेरेवाला न हो एवं जहाँ अच्छे सदाचारी पडौसी हों; वहाँ सद्गृहस्थ को निवास करना चाहिए ।।। 8. सदाचारी के साथ संगति : यदि हम सर्वसंग का त्याग न कर सकें तो सत्संग अवश्य करना चाहिए। सद्गृहस्थ के लिए सत्संग का बड़ा महत्त्व हैं। जो इसलोक और परलोक में हितकर प्रवृत्ति करते हो, उन्हीं की संगति अच्छी मानी गई है क्योंकि खल, ठग, जार, भाट, क्रूर, सैनिक, नट आदि की संगति करने से शील का नाश होता है धर्म से पतन होता है, और सदगुणों का नाश होता है अतः सज्जन परुषों का संग करना चाहिए, क्योंकि सत्पुरुषों का संग औषधरुप होता हैं।12 9. माता-पिता का पूजक : सद्गृहस्थ तीनों समय माता-पिता को नमस्कार करता है, उनको हितकारी धर्मानुष्ठान में लगाता है, उनका सत्कार सम्मान करता है तथा उनकी आज्ञा का पालन करता हैं। उनको पहले भोजन करवा कर फिर स्वयं भोजन करता हैं। मनु स्मृति में भी कहा है कि दस उपाध्यायों के बराबर एक आचार्य होता है, सो आचार्यों के बराबर एक पिता और हजार पिताओं के बराबर एक माता होती हैं। 10. जो उपद्रव वाले स्थान को शीध्र छोड़ देता हैं : अपने राज्य या दूसरे देश के राज्य से भय हो, दुष्काल हो, महामारी आदि रोग का उपद्रव हो, महायुद्ध छिड गया हो, गाँव या नगर आदि में सर्वत्र अशांति पैदा हो गई हो, रात-दिन लडाईझगडा रहता हो तो सद्गृहस्थ को वह स्थान शीध्र छोड देना चाहिए। क्योंकि वहां रहने से धर्म, अर्थ और काम (के साधनों) का नाश होता है और पुनः उनकी प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। 11. निंदनीय कार्य का त्यागी : सद्गृहस्थ को देश, जाति एवं कुल की दृष्टि से गर्हित कार्य में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। लोक में निंदनीय ऐसे मांस, मदिरा, परस्त्रीगमन आदि पापकार्यों का त्याग करना चाहिए क्योंकि उत्तम कुल-शीलवान भी सदाचार से ही शोभनीय एवं प्रशंसनीय बनता है। 12. आय के अनुसार व्यय करना : आय के चार भाग करके क्रमश: एक भाग बचत, दूसरा व्यापार, तीसरा धर्म और चौथा परिवार के लिए व्यय करना चाहिए। सद्गृहस्थ को अपने परिवार के लिए, आश्रितों के लिए, अपने निजी उपयोग के लिए तथा देवताओं और अतिथियों के पूजन-सत्कार में द्रव्य खर्च करने से पहले आय देखकर ही खर्च करना चाहिए। आय और व्यय का हिसाब किये बिना जो कुबेर के समान अत्याधिक खर्च करता है, वह थोडे ही समय में भिखारी बन जाता हैं। आय से कम खर्च करना - यही विद्वान का लक्षण है 13. संपत्ति के अनुसार वेष धारण" : सद्गृहस्थ को अपनी संपत्ति, वैभव, देश, काल और जाति के अनुसार ही वस्त्र, अलंकार आदि धारण करना चाहिए। भडकीली पोशाक देखकर लोग अनुमान लगा लेते हैं कि इसने बेईमानी, अन्याय, अत्याचार या निंदनीय कर्म करके पैसा कमाया होगा। यदि आमदनी होती हो, फिर भी कंजूसी से खर्च नहीं करता, वैभव होने 8. अ.रा.पृ. 5/880, 1590 9. अ.रा.पृ. 4/2632, प्रशमरति-100 10. अ.रा.पृ. 1/792, 7/781 11. अ.रा.पृ. 7/969 12. अ.रा.पृ. 7/337 13. अ.रा.पृ. 6/251, 253 14. अ.रा.पृ. 2/927 15. अ.रा.पृ. 1/115, 7/781 16. अ.रा.पृ. 2/320 17. अ.रा.पृ. 6/1203 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [350]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पर भी खराब, गंदे, फटे-टूटे कपडे पहनता है, तो वह भी लोगों में निंदा का पात्र बनता है। वह धर्म का अधिकारी भी नहीं बन सकता। 14. बुद्धि के आठ गुणों का धनी :1. शूश्रूषा - धर्मशास्त्र सुनने की अभिलाषा 2. श्रवण - धर्मश्रवण करना 3. ग्रहण - श्रवण करके ग्रहण करना 4. धारण सुनी हुई बात को भूल न जाय, इस तरह उसे धारण करके मन में रखना 5. ऊह जाने हुए अर्थ के अतिरिक्त दूसरे अर्थो के संबंध में तर्क करना, अथवा ऊह अर्थात् सामान्य ज्ञान का और उपोह यानि विशेष ज्ञान का व्यावर्तन करना 6. श्रुति युक्ति और अनुभूति के विरुद्ध अर्थ से हटना अथवा हिंसा आदि आत्मा को हानि पहुँचाने वाले पदार्थो से पृथक् हो जाना या अपने को पृथक् कर लेना। 7. अर्थ-विज्ञान - ऊहापोह के योग से मोह और संदेह दूर करके वस्तु का विशिष्ट सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना। 8. तत्त्वज्ञान - ऊहापोह के विशेष प्रकार के ज्ञान से विशुद्ध निश्चित ज्ञान प्राप्त करना। इस प्रकार के बौद्धिक गुण जो गृहस्थ प्राप्त कर लेता है, वह कभी भी अपना अकल्याण नहीं करता।" 15. प्रतिदिन धर्म-श्रवण-कर्ता : सद्गृहस्थ को प्रतिदिन अभ्युदय और निःश्रेयस के कारण रुप धर्म के श्रवण में उद्यत रहना चाहिए । प्रतिदिन धर्म श्रवण करने वालों का मन अशांति से दूर रह कर आनंद का अनुभव करता हैं। धर्म-व्याख्यान धबडाए हुए व्यक्ति की व्याकुलता दूर करता हैं, त्रिविध ताप से तपे हुए को शांत करता है, मूढ को इससे बोध प्राप्त होता है और अव्यवस्थित चंचल मन स्थिर हो जाता है अतः प्रतिदिन धर्म-श्रवण जीवन में उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि में सहायक हैं।20 16. अजीर्ण के समय भोजन छोड देना : सद्गृहस्थ को अजीर्ण के समय भोजन छोड देना चाहिए। पहले किया हुआ भोजन जब तक पच न जाये, तब तक पुनः भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि अजीर्ण सब रोगों का मूल हैं। और अजीर्ण के समय भोजन करने पर वह रोग को बढाता हैं। 17. समय पर पथ्य भोजन करना2 : सद्गृहस्थ को भूख लगने पर आसक्ति-रहित होकर अपनी प्रकृति, रुचि, जठराग्नि एवं प्रमाण के अनुसार उचित मात्रा में पथ्य भोजन करना चाहिए। अधिक भोजन से वमन, अतिसार या अजीर्ण आदि रोग होंगे व कभी मृत्यु भी हो सकती हैं। भूख के बिना अमृत भी जहर हो जाता है और क्षुधाकाल समाप्त होने के बाद भोजन करेगा तो उसे भोजन पर अरुचि व धृणा होगी और शरीर में पीडा होगी। 18. परस्पर अबाधित रुप से तीनों वर्गों की साधना : धर्म, अर्थ और काम - ये तीन वर्ग कहलाते हैं। जिससे अभ्युदय और मोक्ष की सिद्धि हो वह धर्म हैं। जिससे लौकिक सर्व प्रयोजन सिद्ध हो वह अर्थ हैं। अभिमान से उत्पन्न समस्त इन्द्रिय सुखों से संबंधित रसयुक्त प्रीति काम हैं। सद्गृहस्थ को इन तीनों वर्गों की साधना इस प्रकार से करनी चाहिए ये तीनों वर्ग एक दूसरे के परस्पर बाधक न बनें । जो बिना सोचे-विचारे उपार्जित धन को खर्च करते हैं वे तादात्विक कहलाते हैं; जो बाप-दादों से प्राप्त धन का अनीति पूर्ण ढंग से उपयोग कर उसे समाप्त कर देते हैं वे मूलहर कहलाते हैं; जो नौकरों को और खुद को परेशान करके धन को इकट्ठा तो करते हैं परन्तु उसका उचित स्थान पर व्यय नहीं करते वे कदर्य कहलाते हैं। धर्म, अर्थ और काम - इन तीनों में से प्रत्येक के एकान्तसेवी गृहस्थ अपने जीवन के विकास में स्वयं रुकावट डालते हैं। गृहस्थ को धर्म की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि अर्थ और काम का मूल धर्म हैं। सज्जन धर्मरुपी धन से धनाढ्य होते हैं । 19. अतिथि आदि का सत्कार : सद्गृहस्थ को घर आए हुए अतिथि का स्वागत करना आवश्यक हैं। अतिथि उसे कहते हैं - जो सतत स्वपर-कल्याण की प्रवृत्ति में एकाग्र होने से जिसकी कोई निश्चित तिथि न हो। जिस महात्मा ने तिथि और पर्वो के उत्सव का त्याग किया है, उसे अतिथि समझना चाहिए और शेष को अभ्यागत । साधु-साध्वीगण सदा ही समग्र लोक में प्रशंसनीय होते हैं। इसलिए वह उत्कृष्ट अतिथि हैं । गुणवान् अतिथि साधु को भक्तिपूर्वक और दीन-दुःखी एवं अनाथ-पंगुओं को अनुकम्पापूर्वक भोजन-जल-वस्त्रादि का दान देना 'अतिथि सत्कार' कहलाता हैं। 20. अभिनिवेश से दूर : सद्गृहस्थ को अभिनिवेश/मिथ्या-आग्रह, कदाग्रह, दुराग्रह से सदा दूर रहना चाहिए । अभिनिवेशयुक्त व्यक्ति हठी और अभिमानी होता है। वह अपने ही दुर्गुणों से दुःखी होता हैं। दुराग्रही व्यक्ति स्वयं व्यर्थ में ही अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके लोक में निंदा का पात्र बनता है। 21. गुण का पक्षपाती : सद्गृहस्थ गुणों का और उपलक्षण से गुणीजनों का पक्षपाती होना चाहिए। गुणीजन जब भी उसके संपर्क में आए, वह उनके साथ सौजन्य, औदार्य व गम्भीर्यपूर्वक व्यवहार करें। 'आओ पधारो' जैसे प्रिय शब्दों से स्वागत करे, साथ ही गुणीजनों का समय-समय पर बहुमान करे, उनकी प्रशंसा करे, उन्हें प्रतिष्ठा दे, उनका पक्ष ले, सहायक बने इत्यादि प्रकार से गुणीजनों के अनुकूल प्रवृत्ति करें। एसा गुणीजनों के प्रति एवं स्वपर-कल्याणकारी आत्मधर्मस्प आत्मगुणों के प्रति पक्षपाती व्यक्ति निश्चित ही पुण्य का बीज बोकर परलोक में गुणसमूह-संपत्ति प्राप्त करता हैं। सदयाहार 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. अ.रा.पृ. 5/1327 अ.रा.पृ. 1/247 अ.रा.पृ. 7/1017 अ.रा.पृ. 1/203 अ.रा.पृ. 6/1611 अ.रा.पृ. 4/2324 अ.रा.पृ. 7/263, 1/33 अ.रा.पृ. 7115, 1/291 अ.रा.पृ. 3/9283/929 For Private & Personal use only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [351] 22. निषिद्ध देश-काल-चर्या का त्याग : उसका बहुमान करना चाहिए। कृतज्ञता का बदला नहीं चुकाया जा निषिद्ध देश-स्थान अर्थात्, कारावास, वध स्थान, जुआघर, सकता। वेश्यावास, पराभव योग्य स्थान, अन्य का भण्डार स्थान, अन्य का 29. लोकवल्लभ :अंतःपुर, निर्जन जगह चोर-नयदि के स्थान में जाने से अनेक आपत्तियों सद्गृहस्थ का लोकप्रिय होना जरुरी है। लोकप्रिय वही का संभव रहता है अत: जिस देश और काल में जिस आचार का हो सकता है - जो विनय, नम्रता, सेवा, सरलता, दया आदि गुणों निषेध किया गया हो, उसे सद्गृहस्थ को छोड देना चाहिए। अगर से युक्त हों। जिनमें लोकप्रियता नहीं होती वे जनता से धृणा, द्वेष कोई हठवश निशिद्ध देशाचार या वर्जित कालाचार को अपनाता है वैर, संघर्ष या विरोध कर अपने धर्मानुष्ठान को दूषित कर लेते हैं और तो उसे प्रायः चोर, डाकू आदि के उपद्रव का सामना करना पड़ता धर्म की भी निंदा होती हैं। है, उससे धर्म की भी हानि होती हैं।27 30. लज्जावान् :23. बलाबल का ज्ञाता : सद्गृहस्थ के लिए लज्जा का गुण परमावश्यक है। लज्जावान अविवेक महा आपत्तिओं का स्थान है। लाभा लाभ के व्यक्ति किसी भी पापकर्म को करते हुए संकोच करेगा, प्राण चले विचारपूर्वक कार्य करनेवालों को गुणानुरागिणी संपत्तियाँ स्वयंमेव जाएं मगर व्रत-नियमों का त्याग नहीं करेगा। अनेक गुणों की जन्मदात्री प्राप्त होती है। (किरातार्जुनीय महाकाव्य) अतः सद्गृहस्थ को अपनी _लज्जा को पाकर साधक सत्य-सिद्धांत पर अडिग रहता हैं।35 अथवा दूसरे की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शक्ति जान कर 31. दयावान् :तथा अपनी निर्बलता-सबलता का विचार करके सभी कार्य प्रारंभ दया सद्गृहस्थ का महत्त्वपूर्ण गुण हैं । दुःखी जीवों का करना चाहिए । बलाबल का विचार किये बिना किया हुआ कार्यारंभ दुःख दूर करने की अभिलाषा दया है। व्यक्ति को जैसे अपने प्राण शरीर, धन आदि संपत्तियों का क्षय करता हैं।28 प्रिय है, वैसे भी सभी जीवों को अपने प्राण उतने ही प्रिय हैं। 24. वृत्तस्थों और ज्ञानवृद्धों का पूजक : इसलिए धर्मात्मा गृहस्थ दया के अवसर कदापि न चूकें ।36 आचार के पालन में दृढता से स्थिर रहने वालों को वृत्तस्थ 32. परोपकार करने में कर्मठ :कहते हैं। वृत्तस्थ के सहचारी, जो ज्ञानवृद्ध हो, उनकी पूजा करनी सद्गृहस्थ को परोपकार के कार्य भी करने चाहिए। उसे चाहिए। पूजा का अर्थ है - सेवा करना, नमस्कार करना, आसन केवल अपने ही स्वार्थ में रचापचा नहीं रहना चाहिए। परोपकारवीर देना उनके आते ही खड़े होना, आदर देना, सत्कार-सम्मान देना एवं परोपकारकर्मठ मनुष्य सभी के नेत्रों में अमृतांजन के समान आदि । वृत्तस्थ और ज्ञानवृद्ध-पुरुषों की पूजा करने से अवश्य ही होता हैं। कल्पवृक्ष के समान उनके सदुपदेश आदि फल प्राप्त होते हैं। 33. सौम्य :25. पोष्य का पोषक करना : सद्गृहस्थ की प्रकृति और आकृति सौम्य होनी चाहिए। परिवार में माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि जो व्यक्ति क्रूर आकृति और भयंकर स्वभाववाला व्यक्ति लोगों में उद्वेग पैदा स्वंय के आश्रित हो, सद्गृहस्थ उनका भरण-पोषण करे, उनका योगक्षेम कर देता है, उसका प्रभाव क्षणिक होता है, जबकि सौम्य व्यक्ति वहन करे। तथा दरिद्र मित्र, अपुत्री विधवा बहन, स्वज्ञाति के वृद्ध से सभी आकृष्ट होते हैं, कोई भयभीत नहीं होता, अपितु प्रभावित और कुलवान दरिद्र - इन चार प्रकार के मनुष्यों को भी लक्ष्मीवंत हो जाते हैं।38 गृहस्थों के द्वारा सहयोग करने योग्य है। इससे उन सबका सद्भाव 34. षड् अन्तरंग शत्रुओं के त्याग में उद्यत :व सहयोग प्राप्त होगा। भविष्य में वे सब उपयोगी बनेंगे।30 सद्गृहस्थ सदा छह अन्तरंग शत्रुओं को मिटाने में उद्यत 26. दीर्धदर्शी : रहता है। दूसरे की परिणीता अथवा अपरिणीता स्त्री के साथ सहवास सद्गृहस्थ को किसी भी कार्य के करने से पूर्व दूरदर्शी की इच्छा काम है। अपनी अथवा पराई हानि का सोच-विचार किए बन कर उस कार्य के प्रारंभ से पूर्ण होने तक के अर्थ-अनर्थ का बिना कोप करना क्रोध है। दान देने योग्य व्यक्ति को दान न देना विचार कर कार्य करना चाहिए क्योंकि बिना सोचे कार्य करनेवालों तथा अकारण पराया धन ग्रहण करना लोभ हैं। किसी के द्वारा दिया को प्रायः महान आपत्ति होती है। गया योग्य उपदेश दुराग्रहवश नहीं मानना मान हैं। बिना कारण दुःख 27. विशेषज्ञ : 27. अ.रा.पृ. 4/2692 पृ. 4/2633 सद्गृहस्थ को विशेषज्ञ भी होना चाहिए। जो वस्तु अवस्तु 28. अ.रा.पृ. 4/1291 कृत्य-अकृत्य, स्व-पर आदि का अन्तर जाने वह विशेषज्ञ हैं । वस्तुतत्त्व 29. अ.रा.पृ. 7/263 का निश्चय करनेवाला ही वास्तव में विशेषज्ञ हैं। विशेषतः आत्मा 30. अ.रा.पृ. 5/1132 के गुणों और दोषों को भी जाने, वही विशेषज्ञ कहलाता हैं।32 31. अ.रा.पृ. 4/2546,7/957 32. अ.रा.पृ. 6/1265 28. कृतज्ञ : 33. अ.रा.पृ. 3/347 कृतज्ञ व्यक्ति श्रीफल की तरह महान यशः पूजा एवं 34. अ.रा.पृ. 6/722 कुशल-कल्याण को प्राप्त होता है अतः सद्गृहस्थ को कृतज्ञ होना 35. अ.रा.पृ. 6/598 चाहिए। जो दूसरों के लिए उपकार को मानता हो, वह कृतज्ञ हैं। 36. अ.रा.पृ. 4/2457 37. अ.रा.पृ. 5/697 उपकारी की ओर से जो कल्याण का लाभ होता है उसके बदले 38. अ.रा.पृ. 7/1165 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. [352]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन देकर तथा जुआ, शिकार आदि अनर्थकारी कार्यों में आनंद मनाना तथा उदारचित्त होने से स्वपर-उपकार में समर्थ होता है, अवसर प्राप्त हर्ष कहलाता है। किसी की उन्नति देखकर कुढ़ना, उससे डाह करना होने पर शासन प्रभावना करने पर सभी को आनंद प्रदान करता हैं। मत्सर है। ये छहों हानिकारक होने से इनका त्याग करना चाहिए ।39 साथ ही तप, अभिग्रहादि में अग्लान अर्थात् अदीनवृत्ति से रहता 35. इन्द्रिय-समूह को वश में करने में तत्पर : है जिससे धर्म की सम्यगाराधना होती है अतः श्रावक 'अक्षुद्र' होना सद्गृहस्थ को अपने इन्द्रिय-समूह को यथोचित मात्रा में चाहिए। वश में करने का अभ्यास करना चाहिए। जो इन्द्रियों की स्वच्छंदता 2. रुव (स्पवान्) :का त्याग करता है, वही व्यक्ति महासंपति को प्राप्त करता हैं।40 श्रावक स्पष्ट पञ्चेन्द्रिययुक्त, संपूर्ण अङ्गोपाङ्गयुक्त, कान; मुख; श्रावक के 21 गुण" : बधिरादि दोष रहित, प्रशस्त आकारवान, सामर्थ्ययुक्त शरीरवान, तपः 1. अक्षुद्र - गंभीरता युक्त । संयमादि अनुष्ठान योग्य सुन्दर संहनन युक्त, उत्तमकुलोत्पन्न, सुगुण 2. रुपवान् - संपूर्ण अङ्गोपाङ्गयुक्त और मनोहर आकारवान् युक्त होना चाहिए। 3. प्रकृति सौम्य - विश्वसनीय रुपयुक्त, पाप व्यापार से रहित उपरोक्त प्रकार से रुपवान श्रावक के द्वारा सुंदर धर्माराधना सुखयुक्त करने पर धर्म की प्रभावना होती है, जिससे तीर्थ/शासन की उन्नति लोकप्रिय - लोकविरुद्ध कार्य का त्याग करनेवाला होती हैं। 5. अक्रूर - क्लिष्ट अध्यवसाय रहित प्रायः कदाचित् शेष सद्गुण होने पर कुरुपता भी धर्म की भीरु - पाप से डरनेवाला प्रशंसा करवाती है, तथापि 'आकृतिः गुणान् कथयति' इस नियम अशठ - सदनुष्ठाननिष्ठ सुकृतलीन के अनुसार कुरुप श्रावक 'मध्यम' माने जाते हैं। दाक्षिण्ययुक्त (सदाक्षिण्य) - स्वकार्य का त्याग करके भी 3. पगइसोम्म - प्रकृति सौम्य :परोपकार रसिक, सत्कार्य हेतु अन्य के द्वारा प्रार्थना करने श्रावक प्रकृति सौम्य अर्थात् स्वभाविक रूप से आनंदकारी पर प्रार्थना भङ्ग नहीं करनेवाला विश्वसनीय आकृतिवान, हिंसा-चोरी आदि पाप कर्मो से और पाप लज्जालु - लज्जावान् - अकृत्य की बात से शर्मिंदा होने व्यापार से रहित, सुखपूर्वक सेवन योग्य अर्थात् क्लेशरहित और उपशम/ के स्वभाववाला प्रशम कारक होना चाहिए। 10. दयालु (दयावान्) - जीवदया पालक 4. लोगप्पिअ - लोकप्रिय :11. मध्यस्थ - राग-द्वेष रहित बुद्धिवाला, समदर्शी __ श्रावक सदाचरण, निंदा, जुआ, चोरी, आदि लोक विरुद्ध 12. सौम्य दृष्टि - दर्शन मात्र से जीवों में प्रीति उत्पादक का त्याग, दान, विनय (उचित आदर-सत्कार), शील (सदाचार) से 13. गुणरागी - गुणानुरागी, गुणपक्षपाती परिपूर्ण होने से लोकप्रिय होता है। कहा भी है - इससे लोकविरोध 14. सत्कथक - सद्वाणीकथक नष्ट होता है। दान से यश प्राप्त होता है, वैर नष्ट होता है, अन्य सुपक्षयुक्त - सदाचारी परिवारयुक्त लोग भी भाई जैसा व्यवहार करते हैं। विनयपूर्वक मधुर वचन से 15. सुदीर्धदर्शी - परिणाम के पर्यालोचन (दीर्धविचार) पूर्वक कार्य व्यक्ति संसार में लोकप्रियत्व प्राप्त करता है। सुशील कीर्ति, यश, करनेवाला सर्वजनवल्लभता और परलोक में सद्गति को प्राप्त करता है ।45 16. विशेषज्ञ - विवेकी श्रावक के लोकप्रिय होने से अन्य लोग धर्म के प्रति बहुमान 17. वृद्धानुग - ज्ञानी, वयोवृद्ध और अनुभवियों का अनुकरण और आंतरिक प्रीति धारण करते है जो सम्यग्दर्शन/बोधिजीव का कारण करनेवाला है। और शुद्ध धर्म प्रान्ते मोक्षफलरुप सिद्धि प्राप्त करवाता हैं। 18. विनीत - गुरुजनों का गौरव (बहुमान) करनेवाला 5. अकूर/अक्कूर (अक्रूर) :19. कृतज्ञ - दूसरों के द्वारा स्वयं के प्रति किये गए अत्यल्प श्रावक 'अक्रूर' यानी प्रसन्न चित्तवाला होता है अर्थात् क्लिष्ट उपकार को भी नहीं भूलनेवाला अध्यवसाय, रौद्र (भयजनक) आकार, ईर्ष्या, परदोषदर्शक या 20. परहितकारी - स्वभाव से ही परोपकारी परछिद्रान्वेषण, लंपटता आदि दोषों से रहित होता है। क्योंकि इन 21. लब्धलक्ष्य - वन्दनादि धर्मकार्य अनुष्ठान की शिक्षायुक्त दोषों के होने पर धर्म की आराधना सम्यग् रुप से नहीं हो सकती। (पूर्वभवाभ्यस्त) करना। 'अक्रूर' होने पर ही श्रावक सम्यकाराधक हो पाता हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र 39. अ.रा.पृ. 1/761 सूरीश्वरजीने श्रावक के गुणों का वर्णन निम्नासुर किया हैं - 40. अ.रा.पृ. 7/1458-59,4/2424 1. अक्खु द्द (अक्षुद्र) : 41. अ.रा.पृ. 4/2727-28; प्रवचन सारोद्धार-269 द्वार; धर्मरत्नप्रकरण-370 372 श्रावक क्षुद्रता अर्थात् तुच्छता, क्रूरता, दरिद्रतादि से रहित 42. अ.रा.पृ. 1/150 अर्थात् गंभीर, निपुणबुद्धि, अक्रूर और उदारचित्त होना चाहिए। गंभीर 43. अ.रा.पृ. 6/575 श्रावक ही धर्म को प्राप्त/ग्रहण कर सकता हैं। निपुण-सूक्ष्म बुद्धिमान् 44. अ.रा.पृ. 5/71; धर्मसंग्रह 1/10; धर्मरत्न प्रकरण 1/3; प्रवचन सारोद्धारहोने से उसे समझ सकता है, अक्रूर होने से वैर-विरोध से दूर रहता 239 द्वार 45. अ.रा.पृ. 6/722; धर्मरत्न 1/1-4 है जिससे श्रावक के कारण लोग धर्मद्वेष या धर्म की निंदा न करे। ___46. अ.रा.पृ. 1/129; धर्मसंग्रह-12 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [353] 6. भीरु+7 (भीरु): श्रावक पाप भीरु होता है अत: कारण/प्रसंग उपस्थित होने पर भी निःशंक रुप से हिंसा, चोरी आदि अकार्यों में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि वह अपयश, कलङ्ग, निजकुलमालिन्य, नरकादि दुर्गति आदि से डरता है जिससे संभावित विघ्न-बाधाओं से भी बच जाता हैं। अतः पापभीरु श्रावक ही धर्मपालन के योग्य हैं। 7. असढ48 (अशठ) : श्रावक अशठ अर्थात् मायारहित, राग-द्वेष रहित, भ्रान्तिरहित, आलस्य रहित, प्रपञ्च रहित, परवञ्चनरहित और सरल तथा इन्द्रियों के विषयों के प्रति मन का निग्रह करनेवाला (रोकनेवाला) होता है। अशठ श्रावक सभी के विश्वास का पात्र प्रशंसनीय, मन-वचनकाय की एकतायुक्त, स्वचितरञ्जक एवं भावपूर्वक धर्मानुष्ठान में प्रवृत्तिवान् होता हैं। अतः 'अशठ' आत्मा ही धर्मयोग्य होता हैं। 8. सुदक्खिण (सुदाक्षिण्य) : श्रावक सुदाक्षिण्य अर्थात् धीर-गंभीर, प्रकृति से ही दयालु और परोपकारी होता है तथापि किसी को पापकार्य में सहयोग नहीं करता। स्वयं के कार्य का त्याग करके भी दूसरों का उपकार करने में तत्पर होता है जिससे वह सर्व लोक में अलङ्घनीय (ग्राह्य) वचन युक्त और धार्मिक लोगों के लिए अनुकरणीय होता हैं। जिससे लोग इच्छा नहीं होने पर भी अनायास ही धर्म की आराधना करते हैं। 9. लज्जालु (लज्जालु) : श्रावक लज्जालु अर्थात् अकार्य (नहीं करने योग्य, पाप कार्य) का त्यागी, या अकार्य में शंकायुक्त होता हैं। वह अकृत्यसेवन की बात से भी लज्जित होता है और स्वयं के द्वारा अङ्गीकृत सुकृत का त्याग नहीं करता।50 10. दयालु (दयालु) : श्रावक जीवदया पालक, जीव रक्षक दुःखी, दरिद्र और धर्म रहित प्राणियों के प्रति भी दयावान् और दुःखी जीवों की दुःख से मुक्ति हो - एसी भावनायुक्त होता हैं। क्योंकि धर्म का मूल दया हैं। जिनेन्द्र प्रवचन और तदुक्त समस्त अनुष्ठान जीवदया के पालन के लिए हैं। 11. मज्झत्थ-मध्यस्थ : अतितीव्र राग, द्वेष और मोह के शांत होने से यथावस्थित वस्तु के स्वरुप का विचार करना, राग-द्वेष रहित होकर समस्त जीवों के प्रति समभाव होना, श्रावक का 'मध्यस्थ' गुण हैं। मध्यस्थ श्रावक किसी के भी दोषों को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि दोषमात्र लोकविरुद्ध होने से धर्म की हानि की संभावना होती हैं। रागी, दुष्ट, मूढ और कदाग्रही - ये चार धर्मोपदेश हेतु अपात्र हैं, अतः धर्म प्राप्ति एवं धर्म पालन तथा धर्मोपदेश हेतु 'मध्यस्थ' गुण आवश्यक हैं।52 12. सौम्म (सौम्य-सौम्य दृष्टि) : कषायरहित शांत दृष्टि (सौम्य दृष्टि) होने से श्रावक सर्व लोगों के मन को आनंददायक, शीतल, सुखपूर्वक दर्शन योग्य और दर्शनमात्र से लोक में प्रीति उत्पन्न करनेवाला होता हैं । 13. गुणरागि (गुणरागी) : श्रावक स्थैर्य, गाम्भीर्यादि गुणों का रागी होता है, गुणों का पक्षपाती होता है, गुणों को प्राप्त करने हेतु प्रयत्न करता है, स्वयं के द्वारा प्राप्त सम्यग्दर्शन, विरति आदि गुणों का अतिचार दोषों से मलिन नहीं करता तथा गुणरहित (दोषी) आत्मा की भी निंदा नहीं करता, क्योंकि सत् या असत् परदोष कथन से वैर बढ़ता है और सुनने से बुद्धि कुबुद्धि होती हैं । अतः श्रावक दोषकथन और दोषश्रवण सेदूर रहकर गुणरागी होता हैं।54 14. (क) सक्कह (सत्कथक) : श्रावक अज्ञान का नाश करने वाली, सद्-असत् वस्तु की परिज्ञायक, तीर्थंकर-गणधर-और महर्षियों की चरित्र कथा कहनेवाला अर्थात् 'सत्कथक' होता है। तथा अज्ञान, अविवेक, आसक्ति, चित्तकालुष्य आदि दोषयुक्त विकथा का त्याग करता है । (ख) सुपक्खजुत्त (सुपक्षयुक्त) : श्रावक आज्ञांकित, धर्मी, सुशील, सदाचारी, धर्मकार्यों में सहायक, अनुकूल परिवार युक्त होता है जिससे उसे धर्माराधना में अन्तराय नहीं होता। 15. सुदीहदंशी (सुदीर्धदर्शिन्) : श्रावक किसी भी कार्य को करने से पहले पूर्वापर परिणाम का पूर्ण विचार करके कार्य करता है। इस प्रकार श्रावक सुदीर्घदर्शी होने से उसके द्वारा किया गया कार्य अंत में सुन्दर, भविष्य के लिए लाभदायक, प्रचुरलाभदायी, इच्छित सिद्धि की प्राप्ति करनेवाला, अल्पक्लेशवाला या क्लेशरहित और प्रशंसनीय होता है। अतः धर्म का भी सुदीर्धदर्शी श्रावक ही अधिकारी हैं।57 16. विसेसण्णु (विशेषज्ञ) : विशेषज्ञ श्रावक पदार्थ के यथावस्थित गुण और दोष का पक्षपातरहित ज्ञान करके उन्हें यथायोग्य विवेचनपूर्वक कहने में समर्थ होता है अतः वही उत्तमधर्म के लिए योग्य होता हैं।58 17. वुड्डाणुग (वृद्धानुग) : गुरुजन अर्थात् पूज्य की बुद्धिपूर्वक तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, पर्यायवृद्ध, वयोवृद्ध आदि अनुभवियों की सेवा एवं उनकी हितशिक्षा का अनुसरण करनेवाला 'वृद्धानुग' कहलाता हैं। 'वृद्धानुग' को विपत्ति भी संपत्तिदायक होती हैं। अतः श्रावक 'वृद्धानुग' होता हैं।" 18. विणीय (विनीत) : अरिहंत, सिद्ध, आचार्य आदि का, योग्य गुरुजनों का, बड़ों का विनय करने वाला तथा उनके सामने मन-वचन-काय से नम्रतापूर्वक व्यवहार करनेवाला 'विनीत' कहलाता हैं।60 ____47. अ.रा.पृ. 5/1590; धर्मरत्र प्रकरण-13 स्थानांग-4/2 48. अ.रा.पृ. 1/835; धर्मसंग्रह प्रकरण का गुजराती भाषांतर पृ.76 49. अ.रा.प्र. 7/957 50. अ.रा.पृ. 6/598 51. अ.रा.पृ. 4/2457 52. अ.रा.पृ. 6/64 53. अ.रा.पृ. 7/1165 54. अ.रा.पृ. 3/929-30 55. अ.रा.पृ. 7/261-62 56. अ.रा.पृ. 7/960 57. अ.रा.पृ. 7/957 58. अ.रा.पृ. 6/1265 59. अ.रा.पृ. 6/1414 60. अ.रा.पृ. 6/1186 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [354]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन विनीत को ही सर्व संपत्तियाँ, सुख, ज्ञान, पूज्यत्व, सेवा, मोक्षमार्ग तप, आचार, कीर्ति, निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति होती है और विनय से ही जिन प्रवचन की उन्नति होती हैं अतः श्रावक 'विनीत' होता हैं। 19. कयणू (कृतज्ञ) : स्वयं के द्वारा दूसरों पर किये गए उपकार को भूल जानेवाला और दूसरों के अल्पतम भी उपकार को यावज्जीव याद रखकर परोपकार करनेवाला कृतज्ञ कहलाता हैं। कृतज्ञता गुण से मनुष्य लोक में धर्मगुरु के द्वारा भी बहुमान प्राप्त करता है। संसार में परमोपकारी के रुप में प्रशंसा प्राप्त करता हैं और गुणों की वृद्धि होती हैं।62 20. परहिअत्थकारि (परहितार्थकारी) : जो स्वभाव/प्रकृति से ही परोपकारी होते है उन्हें परहितार्थकारी' कहते हैं। स्वयं सम्यग् रुप से जिनेन्द्र प्रवचनोक्त तत्त्वों का यथावस्थित ज्ञाता होने से अन्य को भी शुद्ध धर्म में स्थिर करता हैं। उनकी सेवा से धर्म श्रवण, सम्यग्ज्ञान, विशेषज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, अनास्रव, तप, शुद्धि, अक्रिया और मोक्षरुप फल की प्राप्ति होती हैं। अतः श्रावक 'परहितकारी' होता हैं। तथा स्वाभाविक परोपकार से श्रावक निस्पृह, शुद्ध मार्गोपदेष्टा, विनीत, सत्यवक्ता, गंभीरचित्त और विद्याविनोदपूर्वक कालगमन करनेवाला सात्त्विक मनुष्य बनता हैं।63 21. लद्धलक्ख - लब्धलक्ष्य : जो सारे धार्मिक अनुष्ठान को गुर्वादि से श्रद्धापूर्वक पूर्ण शिक्षा ग्रहण कर इस प्रकार करता है जैसे इसने ये सारी धर्मक्रियाओं का पूर्व भव में अभ्यास कर रखा हो-उस चतुर, धर्मव्यवहार को शीध्र समजनेवाले श्रावक को 'लब्धलक्ष्य' कहते हैं। लब्धलक्ष्य श्रावक को ही वन्दन, प्रत्युपेक्षण आदि क्रियाएँ सुखपूर्वक सीखने योग्य होती हैं अतः श्रावक में 'लब्धलक्ष्य' गुण होना आवश्यक हैं। 61. अ.रा.पृ. 6/117; द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका-29 62. अ.रा.पृ. 6/347, 354 63. अ.रा.पृ. 5/548, 549; भगवती सूत्र-2/5; धर्मरत्न प्रकरण 1/20 64. अ.रा.पृ. 4/2728 द्यूतक्रीडा સજ્જન પુરુષોથી શ્રેષ કરવા યોગ્ય અને અપયશ કરનારી ચૂતક્રીડાનું સેવન કરનાર પ્રાણીઓની સૌથી પ્રથમ ધનહાનિ થાય છે અને પછી છેવટે સુખનો નાશ થાય છે. જુગારી પુરુષ યોગ્ય સમયે ભોજન, નિદ્રા, દેવપૂજન, સ્નાન અને દાનાદિ ક્રિયા કરી શકતો નથી. વળી ઘૂતક્રીડામાં આસક્ત પ્રાણીને શીદ ઘણા પ્રકારના રોગો થાય છે, દેવો તેના પ્રત્યે રોષે ભરાય છે તેમજ તેના સર્વપ્રકારનાં કાર્યો નાશ પામે છે. ધૃતક્રીડામાં લયલીન પ્રાણીઓના સંબંધીજનો દૂર ચાલ્યા જાય છે, કોઈપણ તેનો વિશ્વાસ કરતું નથી તેમજ તેની લક્ષ્મી પણ શીધ ચાલી જાય છે. જુગારી જુગાર રમ્યા વગર રહી શકતો નથી અને પોતાનો જય જ જોવે છે અને જો પરાજય થાય તો અવર્ણનીય દુઃખ પામે છે. જુગારીના બંને હાથને કવચ (ખણજ), આંખોને મૃગ-તૃષ્ણિકા (ઝાંઝવાના નીર) અને દેહને દાવાનળનો અગ્નિ કદી ત્યજતો નથી. જુગારના દાસ બનેલા અધમ પ્રાણીઓ આંખ અને નાસિકા વિનાના તેમજ કપાયેલાં કાન, હસ્ત અને પગવાળા જેવા જણાય છે અર્થાત્ જુગારીને સાચું જોવાની આંખ હોતી નથી, પ્રતિષ્ઠા વહાલી રહેતી નથી અને ઉપદેશ સાંભળવા માટે કાન કપાયેલા હોય છે. જુગાર રમતાં પહેલાં તો જુગારીનું કુળ અપકીર્તિથી મલિન બને છે. અને પાછળથી બીજાથી જીતાયેલ તેનું મુખ શ્યામ બને છે. વ્યસનો પરસ્પર સંકળાયેલા છે અને જેણે એક વ્યસન સ્વીકાર્યું તેને ધીમે ધીમે બધા વ્યસનો વળગે છે. હલાહલ ઝેરનું પાન કરવું સારું, પર્વત પરથી ઝંપાપાત કરવો સારો તેમજ અગ્નિમાં પ્રવેશ કરવો શ્રેષ્ઠ ગણાય પરતુ જુગાર રમવું સારું નથી. ખરાબ સ્ત્રીની માફક આ ધૂતક્રીડા, બીજા માણસની વાત તો દૂર રાખો પરન્તુ સગા બે ભાઈઓમાં પણ ભેદ પડાવનારી તેમ જ ક્લેશ કરાવનારી છે. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [355] श्रावक के कर्तव्य अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने जैसे श्रावक के दैनिक-रात्रिक-पाक्षिकादि कृत्यों का वर्णन किया है वैसे 'मण्ह जिणाणं' (श्रावक सज्झाय) सूत्रदर्शित 36 कर्तव्यों का भी यत्र-तत्र यथास्थान विस्तृत वर्णन किया है, जो संक्षेप में निम्नानुसार हैं 5. पर्वतिथियों में पौषध व्रत करना : श्रावकों को अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्यादि पर्व तिथियों में पौषध व्रत करना चाहिए (इसका विस्तृत वर्णन पृ. 39091 पर किया गया हैं)।27 6. दान : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'दान' धर्म की व्याख्या करतेहुए कहा है कि प्राप्ताहारादि का ग्लानादि को वितरण28, आहारादि प्रदान करना", स्वयं एवं दूसरे का उपकार हो -इस बुद्धि से अपनी वस्तु अर्पण करना, याचक के इच्छित प्रयोजन की पूर्ति हेतु धन देना, गुरु के द्वारा शिष्यों में आहार, ज्ञान, उपकरण का वितरण, रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रदान करने की इच्छा को 'दान' कहा गया 1. जिनाज्ञापालन करना : 'जिनाज्ञा' शब्द में दो पद हैं - जिन और आज्ञा । 'जिन' के विषय में पूर्व में [(परिच्छेद-4 (क) (1)] लिखा जा चुका हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश' में आचार्यश्रीने अनुष्ठान (जैनागमोक्त क्रिया), सेवा, अभियोगपूर्वक आदेश, निर्देश (पूछे गये प्रश्न के प्रत्युत्तर में कार्य हेतु विधि-निषेध), विधिविषयक आदेश', आज्ञायोग में प्रवर्तन, हितप्राप्ति रुप उपदेश, तीर्थंकर गणधर प्रणीत उपदेश एवं तद्विषयक सदाचार" जिससे अनन्त धर्मो की विशिष्टता के द्वारा जीवादि पदार्थों का समग्रतापूर्वक ज्ञान किया जाये', जिससे सुकृत कर्म किये जाये।, आगम!! - जिससे स्व-स्वभाव के द्वारा या मर्यादापूर्वक अभिव्याप्ति के द्वारा अर्थ (प्रयोजन) का ज्ञान किया जाय, आप्त प्रवचन, द्वादशाङ्गी14, जिससे प्राणी मोक्ष को जानते हैं - श्रुत:5 सर्वज्ञवचन", सम्यक्त्व", आगमनानुसार उपदेशा, नियुक्ति आदि सूत्र व्याख्यान - को 'आज्ञा' कहा गया हैं। साथ ही अभिधान राजेन्द्र कोश में वीतरागोक्त वचन पद्धति के विषय में 'जिनाज्ञा' शब्द का प्रयोग किया गया हैं।20 साधु का तो समस्त जीवन ही जिनाज्ञापालनरुप है ही, अपितु श्रावक का भी यह सर्वप्रथम कर्तव्य है कि जिनाज्ञा का पालन करें। जिनाज्ञापालन अर्थात् जिनाज्ञाराधना मोक्ष फलदायी हैं । आराधनायुक्त जीव उत्कृष्ट से तीसरे भव में निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होता है । आज्ञा मोह विष को दूरकरनेवाला श्रेष्ठ गारुडिक मंत्र, द्वेष सम अग्नि को नष्ट करनेवाला शीतल जल, कर्मव्याधि को नष्ट करनेवाला चिकित्सा शास्त्र और सर्वफल देनेवाला का कल्पवृक्ष हैं। अतः सदा आज्ञाराधक और आज्ञापरतंत्र बनना चाहिए। 2. मिथ्यात्व का परिहार : श्रावक को मिथ्यात्व अर्थात् जिनप्रणीत तत्त्व से विपरीत श्रद्धा का सर्वथा त्याग (परिहार) करना चाहिए (मिथ्यात्व का वर्णन पृ. 193 से 195 पर किया गया हैं) साधक के द्वारा मन-वचनकाया से कृत-कारित मिथ्यात्व का प्रत्याख्यान (नियमपूर्वक त्याग) करना 'मिथ्यात्व-परिहार' कहलाता हैं। 3. सम्यक्त्व को धारण करना : जिन प्रणीत वस्तु (तत्त्व) में प्रतिपत्ति अर्थात् श्रद्धा धारण करना। इसका विस्तृत वर्णन पृ. 159 से 165 पर किया गया हैं।25 4. षडावश्यक में तत्पर रहना : सामायिक, चतुर्विशति स्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान - इन छ: आवश्यकों में श्रावक को प्रतिदिन उद्यमरत रहना चाहिए।26 [विस्तृत वर्णन पृ. 257 से 266 पर किया गया है।] 1. अ.रा.पृ. 2/130, 131 2. विशेषावश्यक भाष्य-564 3. भगवती सूत्र-3/1 4. स्थानांग-7/3 5. स्थानांग-5/2 आचारांग-1/2/2 7. दशवैकालिक-अध्ययन-10 8. आचारांग-1/5/6 9. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका-21 पर स्याद्वादमञ्जरी टीका 10. दर्शन शुद्धि-तत्त्व-4 11. दर्शनशुद्धि-तत्त्व-4, आचारांग-1/5/2 12. उत्तराध्ययन-नियुक्ति-अध्ययन-1 13. स्थानांग-4/1 14. नंदीसूत्र 15. अनुयोगद्वार सूत्र 16. स्थानांग-10/3 17. आचारांग-1/4/3 18. आवश्यक बृहद्वृत्ति-अध्ययन-1 19. स्थानांग-4/1 20. अ.रा.पृ. 4/1507 21. अ.रा.पृ. 2/134 22. अ.रा.पृ. 7/991, दश पयन्ना मूल-100 23. अ.रा.पू. 2/132 24. अ.रा.पृ. 6/275, धर्मसंग्रह-अधिकार-2 25. अ.रा.पृ. 6/5/2 26. अ.रा.पृ. 5/319, अ.रा.पृ. 2/485; सेन प्रश्न-3/51 27. अ.रा.पू. 5/1133 28. अ.रा.पृ. 4/2489, प्रश्नव्याकरण-3, संवरद्वार 29. वही, आवश्यक बृहद्वृत्ति-अध्ययन-4 30. वही सूत्रकृताङ्ग-1/I1, तत्त्वार्थ सूत्र-7/38 31. वही, कल्प सुबोधिका-5 क्षण 32. वही, विशेषावश्यक भाष्य Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [356]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं। अन्य अर्थो में दक्षिणाम, खण्डन और गजमद (हाथी का मद) को 'दान' कहते हैं। दान के प्रकार :धर्मरत्न प्रकरण में दान के तीन प्रकार दर्शाये हैं - (1) ज्ञान दान (2) अभय दान (3) धर्मोपकरण दान 137 स्थानांग सूत्र में दस प्रकार के दान का वर्णन है - (1) अनुकंपा दान (2) संग्रह दान (3) अभय दान (4) कारुणिक दान (5) लज्जा दान (6) गौरव दान (7) अधर्म दान (8) धर्म दान (9) करिष्यतिदान (भविष्य में किया जानेवाला दान) (10) कृत दान ।38 रत्नकरंडक श्रावकाचार में चार प्रकार का दान बताया हैं-39 (1) आहार (2) औषध (3) ज्ञान के साधन शास्त्रादि उपकरण और (4) स्थान (वसति)। सर्वार्थसिद्धि में तीन प्रकार के दान बताये हैं - (1) आहार (2) अभय (3) ज्ञान - इन तीन प्रकार के दानों का वर्णन किया गया हैं। महापुराण और चारित्रसार में चार प्रकार की दत्ति (दान) कही गयी संग्रह दान : __ अकाल, युद्ध, अतिवृष्टि-अनावृष्टि एवं अन्य संकट के समय दान देने के लिए पदार्थ का संग्रह करके उसका दान करना, 'संग्रह दान' कहलाता हैं। कारुणिक दान : पुत्रादि के वियोगादि जनित शोक के कारण 'वह (पुत्रादि) अगले जन्म में सुखी हो', एसी भावना से करुणापूर्वक (दया, शोकजनित) जो दान दिया जा, उसे 'कारुणिक दान' कहते हैं।52 लज्जा दान : यदि अभ्यार्थी किसी को दिखायेगा तो जनसमूह या दूसरे लोग मेरे बारे में क्या कहेंगे? एसा सोचकर लज्जा से जो दान दिया जाय, वह लज्जादान हैं। गौरव दान : यशः कीर्ति की चाहना से नट, नृत्यांगना, मल्लादि को अभिमानपूर्वक जो दान दिया जाता है, वह 'गौरव दान' कहलाता (1) दया दत्ति (2) पात्र दत्ति 93) समदत्ति और (4) अन्वय दत्ति। सागार धर्मामृत में ये तीन प्रकार के दान बताये हैं-42 (1) सात्त्विक (2) राजस और (3) तामस ज्ञानदान :भव्यात्माओं को अध्ययन कराना, शास्त्र सुनाना, आगमों का ज्ञान कराना, ज्ञानदान हैं। अभयदान : दुःख से भयभीत छ: काय के जीवों की रक्षा करना - अभयदान हैं। परिच्छेद-4(क)(5) के प्रकरण में इसका विस्तृत वर्णन पृ. 274 से 276 पर किया जा चुका हैं। धर्मोपकरणदान : पञ्च महाव्रतधारी साधु-साध्वी को धर्मबुद्धि से कल्प्य आहार, जल, औषध, पात्र, शास्त्र/ज्ञानोपकरण, वस्त्र, शय्या, वसति (रहने का स्थान) आदि संयम जीवन में सहायक उपकरण देना 'धर्मोपकरण' दान हैं। अनुकम्पा दान : क्षुधातुर, तुषित, दीन-दु:खी, संकट में फँसे, अनाथ, निराधार, रोगी मनुष्यों एवं प्राणियों के उद्धार की भावना से दिया गया दान अनुकम्पादान हैं। वसुनंदि श्रावकाचार में इसे करुणादान कहा गया हैं।47 अनुकंपा दान श्री तीर्थंकर, आचार्यादिने भी दिया हैं। जैसे श्री महावीर स्वामीने ब्राह्मण को आधा देवदूष्य वस्त्र प्रदान किया और आर्य सुहस्तिसूरिने द्रमक मुनि को भोजन करवाया।48 सभी तीर्थंकर दीक्षा के पूर्व एक वर्ष तक संवत्सरी दान देते हैं। यह सब अनुकंपा दान हैं।" साधु के द्वारा तपस्वी, क्षपक, ग्लान (रोगी) असमर्थ शैक्ष (नवदीक्षित) आदि अनुकम्पा योग्य हैं। परंतु श्रावक साधु को अनुकंपा की बुद्धि से नहीं अपितु धर्मबुद्धि से दान दें। श्रावक जिनमंदिर, तालाब, बावडी, कुआँ, औषधालय, सदाव्रत, पुष्पवाटिका, अन्नजल वितरण के स्थान इत्यादि बनवावें तथा दुःखी जीवों के उद्धार हेतु धन का दान करें, यह सब अनुकम्पादान हैं।50 अधर्म दान : हिंसक, असत्यभाषी, चोर, वेश्या, परिग्रही, आदि पाप कार्य। अधर्म करनेवालों को दिया गया दान 'अधर्म दान' कहलाता हैं।55 धर्मदान (सुपात्र दान) : धर्मबुद्धि से संसार त्यागी पञ्ज महाव्रधारी साधु-साध्वी को जो दान दिया जाता है, वह दान 'धर्म दान' कहलाताहैं ।56 निग्रंथ साधु को प्रासुक, एषणीय (कल्प्य) आहार, पानी, खादिम, स्वादिम, (चारों प्रकार का आहार), वस्त्र, पात्र, औषध, कंबल, पादपोंछन, पाटपटिये, शय्या, संथारा, आसन, वसति (रहने का स्थान), ज्ञानोपकरण आदि देना धर्म/सुपात्र दान हैं।57 33. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/422 34. अ.रा.पृ. 4/2499, सूत्रकृताङ्ग-2/5 35. अ.रा.पृ. 4/2499 36. वही, ज्ञाता धर्मकथाङ्ग-1/9 37. अ.रा.पृ. 4/2489 38. वही, स्थानांग-10 वाँ ठाणां 39. रनकरंडक श्रावकाचार-117, वसुनंदि श्रावकाचार-233 40. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/422 41. वही, महापुराण-38/35 42. वही, सागार धर्मामृत-5/47 43. अ.रा.पृ. 4/1992, गच्छाचार पयन्ना-अधिकार-2 44. अ.रा.पृ. 1/706, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/423 45. अ.रा.पृ. 4/2489, 4/2737 46. अ.रा.पृ. 1/360 47. वसुनंदि श्रावकाचार-235 48. अ.रा.पृ. 1/361, द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका-1/10 49. अ.रा.पृ. 1/360, स्थानांग-10 वां ठाणा 50. वही 51. अ.रा.पृ. 776, स्थानांग 10/3 52. अ.रा.पृ. 3/502, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/427 53. अ.रा.पृ. 6/598, स्थानांग-10/3 54. अ.रा.पृ. 3/871 55. अ.रा.पृ. 1/568 56. अ.रा.पृ. 4/2719 57. अ.रा.पृ. 4/2490 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन करिष्यतिदान : यह मेरा कुछ उपकार करेगा एसी बुद्धि से किया जाता दान 'करिष्यति दान' कहलाता हैं। 58 कृतदान उपकारी के उपकार के बदले में उपकारों के प्रत्युकार बुद्धि से दिया जाता दान 'कृतदान' हैं 59 औषध दान : उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेश से परिपीडित जीव को शरीर के योग्य पध्य देना, औषधदान हैं 160 शास्त्र दान : आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रों को देना और जिनवचनों का अध्यापन कराना, 'शास्त्रदान' है । " सात्त्विक दान : जिस दान में अतिथि का कल्याण हो, जिसमें पात्र की परीक्षा या निरीक्षण स्वयं किया गया हो और जिसमें श्रद्धादि समस्त गुण हो, उसे सात्त्विक दान कहते हैं। 62 राजस दान : जो दान यशः कीर्ति के लिए हो, थोडे समय के लिए सुन्दर हो और दूसरें से दिलाया गया हो, उसको राजस दान कहते हैं । तामस दान : पात्र-अपात्र के विवेकरहित, निन्द्य, अतिथिसत्कार रहित और नौकर-सेवक कृत परिश्रमपूर्वक दिया गया दान 'तामस दान' हैं। 64 दान का फल : सर्व दानों में अभयदान सर्वश्रेष्ठ हैं, इससे अहिंसा धर्म का पालन होता हैं । अनुकम्पादान शासन प्रभावना का अङ्ग हैं। इससे शुभाशय की वृद्धि होती हैं और प्रवचन / जिनशासन की उन्नति होती हैं 16 दीनादि के द्वारा या मिथ्यात्वी आदि के द्वारा याचना करने पर दान नहीं देने पर पीडा, अप्रीति, शासन-द्वेषता, कुगति सङ्ग आदि विपरीत फल उत्पन्न होते हैं अतः उनको भक्ति से या सुपात्र - दान की बुद्धि से नहीं, परन्तु अनुकम्पादान की बुद्धि से अवश्य देना चाहिए । भक्तिपूर्वक श्रद्धा सहित किया गया सुपात्र दान बहुत कर्मो का क्षय करता हैं।68 दान से शुभ, पवित्र कीर्ति, उत्तम सौभाग्य, अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।" सुपात्रदान सर्वसंपत्कारी और महानन्दप्रद हैं ।" साधु को प्रासुक, एषणीय सुपात्रदान देने से शुभ दीर्घायुष्य का बंध होता हैं, अनन्त कर्मों की एकान्त निर्जरा होती है", समाधि, बोधि और परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं 2, भोग भूमि, स्वर्ग एवं परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं 3, गृहकार्यों संचित हुए पाप नष्ट होते हैं। 74 सुपात्रदान के प्रभाव से जीव को तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, माण्डलिक राजादि पदवियाँ प्राप्त होती हैं 175 धन नामक सार्थवाह मुनियों को घी का दान देने से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव बनें। पूर्वभव में मुनि की आहार से भक्ति करने के फलस्वरुप भरत भरतेश्वर के रुप में प्रथम चक्रवर्ती बना 176 मेघरथ राजा के भव में कबूतर को दिये अभयदान के प्रभाव से शांतिनाथ चतुर्थ परिच्छेद... [357] तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती बनें। मुनि को आहारदान के प्रभाव से महावीर स्वामी की आत्मा ने नयसार के भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया ।" पूर्व भव में मासक्षमण के तपस्वी बलभद्र मुनि को दिये आहारदान के प्रभाव से लकड़हारा और उसकी पत्नीने स्वर्गलोक का सुख पाया । इतना ही नहीं, उनकी आहारदान की अनुमोदना से हिरण को भी स्वर्ग प्राप्त हुआ । " पूर्वभव में मासक्षमण के तपस्वी मुनि को खीर वहेराने से धन्ना - शालिभद्रने इस भव में गर्भ श्रीमंत होकर अखूटवैभव, पद्- पद् अक्षय संपत्ति और मनुष्य होते हुए भी देवलोक के सुख-वैभव प्राप्त किये। 79 'दान धर्म' ग्रंथ में कहा गया हैं "सत्यपात्र में दिया गया दान कल्पवृक्ष जैसा है। सत्यपात्र में व्यय किया गया धन अनन्तगुण होता हैं। 80 मुनिदान के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहा गया है कि "मुनि को वसति (निवास हेतु स्थान) दान के प्रभाव से कुरुचन्द्र मंत्री ने दूसरे भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया। मुनि को शयन हेतु पीठ - फलक (पाट) आदि के दान के फलस्वरुप दाता को नित्य दिव्य शय्या प्राप्त होती है, पुत्र, कलत्र (स्त्री) आदि का सुख प्राप्त होता है, वह निरोगी होता है और भविष्य में सुख सुलभ होता हैं। 82 मुनि को कम्बल के ऊनी आसन के दान के प्रभाव से दाता लक्ष्मीधर की तरह भवान्तर में सर्वप्रकार से अनवरत सुखी होता हैं। 83 धनदेव और यशोमती नामक कुटुम्बीने मुनि को आहारदान के प्रभाव से विद्याधरेन्द्र का वैभव प्राप्ति किया। मुनि को शुद्ध, प्रासुक (उबाला हुआ) जल के दान के प्रभाव से धन्य नाम के नौकरने दूसरे भव में अतिभद्र के रुप में निरंतर वृद्धि प्राप्त करती हुई लक्ष्मी प्राप्त की 185 58. 59. 60. 61. 62. 63. वही 64. वही अ. रा. पृ. 3/506 अ.रा. पृ. 3/354 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/423, वसुनंदि श्रावकाचार - 236 अ. रा. पृ. 5/1122; वसुनंदि श्रावकाचार - 237 67. 68. 69. 70. 65. अ.रा. पृ. 4/2490, सूत्रकृताङ्ग - 1/6 66. सागार धर्मामृत - 5/47 75. 76. 77. 78. अ.रा. पृ. 1/360-61, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/422 अ. रा. पृ. 4/2497 अ.रा. पृ. 4/2497, अ. रा. पृ. 4/2490 अ. रा. पृ. 4/2498, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/424 71. अ.रा. पृ. 2/15, 16 स्थानांग-3 / 1 72. अ. रा. पृ. 2/16, भगवती सूत्र 7/1, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/424 रयणसार 16 73. 74. नकरंडक श्रावकाचार 114 अ. रा. पृ. 4/2498 अ. रा. पृ. 4/2498 अ. रा. भा. 'तित्थयर' शब्द, कल्पसूत्र: बालावबोध श्री महावीर चरित्र बलभद्र मुनि की सज्झाय 79. अ.रा. पृ. 4/2660 80. दानधर्म पृ. 1 81. वही 82. वही पृ. 7 83. वही पृ. 9 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/424 पञ्चाशक- विवरण-2, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/424 84. वही पृ. 16 85. वही Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [358]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन भगवान महावीर के लिए सिंह अनागार को औषधिदान के प्रभाव कहीं भी 'जाकार' प्राप्त नहीं होता। साधु भगवंत सभी जीवों को से रेवती श्राविकाने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया।86 मुनि को शिवतुल्य मानकर उन्हें मान देते हैं, किसी के निंदा-अपमान नहीं वस्त्रदान के प्रभाव से चण्डपालने दूसरे/ध्वज भुजङ्गकुमार के भव करतें इससे उनको दान देनेवाला यश का भागी बनता हैं। साधु में देव सानिध्य और सर्वप्रकार की राज-ऋद्धि प्राप्त की।87 मुनि भगवंत नमस्कार महामंत्र में स्थित हैं। जगत के उच्चतम पाँच पद को पात्र दान के प्रभाव से धन को दूसरे धनपति के भव में जमीन में स्थान प्राप्त हैं और वे कभी भी यह ऊच्च है, यह निम्न (नीचा) में से स्वर्ण पात्रों की प्राप्ति हुई 188 स्वयं की दरिद्रावस्था में भी है (नीचि जाति का) है एसे भेद-भाव नहीं करते अतः सुपात्र दान थोडे में से थोड़ा दान देने के फलस्वरुप सुमित्रने धनसेन के दूसरे से उच्च गोत्र बंध होता हैं। साधु कभी आत्म-प्रशंसा नहीं करते भव में गर्भ श्रीमंत के रुप मे जन्म लिया, क्रमश: कई बार लक्ष्मी इससे उनको आहार-दान करनेवाला कभी भी नीचगोत्र नहीं बाँधता । प्राप्त की, आयुः पूर्ण कर देवलोक में गया और सात-आठ भव में साधु भगवंत श्रेष्ठ अभयदान देते हैं, सबको धर्मलाभ देते मोक्ष प्राप्त करेगा। हैं, अपने शुभ पर्यायो में रमणतारुप भोग में रहते हैं, और क्षमाइस प्रकार दान धर्म एसा प्रभावशाली होने से गृहस्थ को नम्रता आदि आत्म गुणों में मग्नतारुप उपभोग में रहते हैं और संयम सुपात्रदानपूर्वक ही भोजन करना चाहिए। आज के भी दीक्षित, में उक्तष्ट वीर्य का उपयोग करते हैं। इस तरह वे पाँचो प्रकार की सामायिक चारित्र मात्र के धारक भी मुनि के लिए आहार, औषध, अन्तराय से मुक्त है और पाँच लब्धि के स्वामी हैं। अतः साधुदान वस्त्र, पात्र हेतु श्रावक को स्व-द्रव्य (धन) व्यय करना चाहिए; इतना से सभी प्रकार के सब ही विघ्न दूर हो जाते हैं और जीव अनेक ही नहीं, अपितु धर्मोद्योतकर साधु-साध्वी को अपने पुत्र-पुत्री आदि लब्धियों का स्वामी बनता हैं। को भी उनमें वैराग्य भाव जगाकर समर्पित करना चाहिए। अभिधान राजेन्द्र कोश में दान धर्म की महिमा बताते हुए सुपात्रदान की महिमा : आचार्यश्री ने कहा है कि, "दान से प्राणी वश होते हैं, वैर नष्ट सुपात्रदान से दानांतराय के साथ लाभांतरायादि कर्म भी होता है, पराया व्यक्ति भी अपना होता है अतः श्रावक को सतत पूटत हा ज्ञाना गुरुभगवता का वहरान स ज्ञानावरणीय कर्म क्षय दान देना चाहिए।192 होता है, ज्ञान प्राप्त होता हैं। 'साधुनां दर्शन पुण्यं' - जिन्होंने 7. शील :अपनी पाँचो इन्द्रियों पवित्र रखी है और साधना में सतत जागृत अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने है, एसे मुनि भगवंतो के दर्शन मात्र से और वहोराने से दर्शनावरण 'शील' के विभिन्न अर्थ बताते हुए कहा है कि, शील अर्थात् समाधान, कर्म नष्ट होता हैं। और पाँचो इन्द्रियाँ अच्छे रुप में प्राप्त होती व्रतादिसमाधान"3, यमनियम, क्रोधादि का उपशम 5, अनुष्ठान%%, हैं। जगत के समस्त जीवों को पीडा नहीं उपजाने और अभयदान व्रत विशेष” (सर्वथा ब्रह्मचर्य पालनरुप गृहस्थ का शीलव्रत), उत्तर देनेवाले गुरु-भगवंतो को आहार-पानी देने से शाता वेदनीय कर्म गुण, अणुव्रत, परद्रोहविरति100, उद्यतविहारित्व01, चारित्र102, का बंध होता है जिससे भविष्य में दाता को शाता ही शाता प्राप्त सर्वसंवर103, 18000 शीलांगरुप संयम, मद्यमांस-रात्रिभोजनादि होती हैं। साधु भगवंत परमात्मा के प्रति अडिग श्रद्धा धारण करते त्यागरुप आचार5, महाव्रत समाधान-पञ्चेन्द्रिय-जय-कषाय निग्रहहैं और भगवद्वचन में श्रद्धा होने से उन्हीं के कारण समस्त सांसारिक त्रिगुप्ति पालन106, सदाचार-देशविरति-सर्वविरति रुप चारित्र107, सुख-वैभव का त्याग कर संयमजीवन यापन करते हैं इसलिए साधु भगवंत को दान देने से निर्मल सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, 86. अ.रा.पृ. 6/577 इन्द्रियाँ नियन्त्रित रहती हैं। साधु भगवंत क्षमाप्रधान होते हैं अर्थात् 87. दानधर्म पृ. 289-29 कषायरहित होकर चारित्र का पालन करते है इससे साधुदान से 88. वही पृ. 30,31 भव्यात्मा क्षमादि गुणों को और चारित्र को प्राप्त करती हैं। जीव 89. वही पृ. 39 90. अ.रा.पृ. 4/2490 को समाधि प्राप्त होती हैं। साधु भगवंत हास्यादि से रहित होने 91. वही से किसी को अप्रिय नहीं होते अतः मुनिदान से दाता लोकप्रिय 92. अ.रा.पृ. 4/2489 बनता हैं। साधु भगवंत ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं अतः उनको 93. अ.रा.पृ. 7/898 दान देने से परम सौभाग्ययुक्त सुशीलता प्राप्त होती हैं। 94. वही, सूत्रकृताङ्ग-1/6 साधु भगवंत सूक्ष्म चेतना के द्वारा भी किसी भी प्रकार 95. वही, सूत्रकृताङ्ग-2/6 96. वही, सूत्रकृताङ्ग-2/1 के कोई भी जीव के आयुष्य को उपक्रम नहीं लगाते अतः उनको 97. वही, सूत्रकृताङ्ग-2/2 दान देने से परभव में निरुपक्रम (अकस्मातादि से नष्ट नहीं होनेवाला) 98. वही, ज्ञानधर्म कथाङ्ग 1/7 शुभ आयुष्य प्राप्त होता हैं। 99. वही, उपाशक दशाङ्ग-अध्ययन-2 साधु भगवंत सतत उपदेशदानादि के द्वारा परोपकार करते 100. वही, दशवैकालिक-9/1 101. वही, सूत्रकृताङ्ग-1/13 हैं। शुभ योग में प्रवृत्त होते हैं। इससे उनको दान देने से शुभ 102. वही, सूत्रकृताङ्ग-1/1/1 नामकर्म का उपार्जन/बंध होता हैं । साधु भगवंत वचनगुप्ति का पालन 103. अ.रा.पृ. 7/899 करते हैं, (किसी को कटाक्ष, कटुवचनादि नहीं कहते) इससे उनको 104. वही, आचारांग-1/5/2 दान देने से आदेय नामकर्म प्राप्त होता हैं। साधु किसी को जाकार । ___105. वही, उत्तराध्ययन-अध्ययन-14 106. वही, आचारांग-1/6/4 नहीं देते ('तु जा' एसा नहीं कहते) जिससे उनको दान देनेवाला 107. वही, उत्तराध्ययन-अध्ययन-7 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [359] अहिंसा108, ब्रह्मचर्य109, स्वभाव!10, फलनिरपेक्ष प्रवृत्ति।।। जैनेन्द्र 4. सविकार वचन त्याग :सिद्धांत कोश में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को शील कहा श्रावक विकारयुक्त, विकारजनक, रागद्वेषोत्पादक, क्लेशजनक, गया हैं ।112 कर्कश वचन नहीं बोलते । यदि श्रावक एसी भाषा बोले तो लोक शील के प्रकार : में धर्म की निंदा होती हैं कि, परपीडाहारक धार्मिक मनुष्य भी एसी अभिधान राजेन्द्र कोश में शील के अनेक प्रकार दर्शाये हल्की भाषा बोलते हैं; इससे लोग उस व्यक्ति के साथ-साथ धर्म हैं, जो संक्षेप में निम्नानुसार हैं - द्रव्य शील और भाव शील, देशशील का भी उपहास करते हैं और कर्कश बोलने पर दूना या चार गुना और सर्वशील। सुनाते भी हैं। 1. दव्य शील - किसी भी पदार्थ या व्यक्ति का किसी भी 5. बाल-क्रीडा का त्याग :प्रकार के फल की अपेक्षा रहित केवल अपने स्वभाव से श्रावक बालिश (अज्ञ) लोक योग्य द्यूत-क्रीडा, शतरंज, ही प्रावरण (वस्त्र), अलंकार आभरण, भोजनादि में प्रवृत्ति होना चौपड, पशुयुद्ध, हास्य-विनोद, नाटक-प्रेक्षणादि बालक्रीडा का अथवा चेतन-अचेतन पदार्थों का अपना स्वभाव द्रव्य शील त्यागी होता हैं क्योंकी ये क्रीडाएँ मोह का मूल एवं अनर्थदण्डकारी कहलाता है।13 होती हैं। 2. भाव शील - दो प्रकार का हैं - (क) ओघशील और (ख) 6. सामादि नीतिपर्वक स्वकार्य साधना :आभीक्ष्ण्य सेवा शील। श्रावक स्वयं के प्रयोजनों / कार्यों को बुद्धिपूर्वक मधुर क. ओघशील-सामान्य से सावद्ययोगविरत (साधु) अथवा विरताविरत वाणी एवं मधुर नीतिपूर्वक (सामपूर्वक) सिद्ध करता हैं। (देशविरत श्रावक) ओघशीलवान् कहलाते हैं ।।14 7. शील का महत्त्व :ख. आभीक्ष्ण्य सेवा शील- धर्म के विषय में सतत अपूर्व ज्ञानार्जन, सज्जनों को देव, मनुष्य एवं मोक्ष संबंधी सुखों की प्राप्ति विशिष्ट तप करना, अनेक प्रकार के अभिग्रह करना - हेतु सदा 'शील' का पालन करना चाहिए ।।18 शील से देवगति प्रशस्त आभीक्ष्ण्य सेवा विषयक शील हैं और स्वधर्मबाह्य प्राप्त होती हैं।।19 निरतिचार शीलव्रतपालन से तीर्थंकर नामकर्म का क्रोधादि कषाय युक्त प्रवृत्ति, चोरी-अभ्याख्यान-कलहादि बंध होता हैं ।120 अप्रशस्त आभीक्षण्य-सेवा विषयक शील कहलाता है।।15 सूत्रकृताङ्ग में कहा है कि, "जलती हुई आग में प्रवेश देशशील और सर्वशील - गृहस्थ के सम्यक्त्व युक्त बारह करना अच्छा, परंतु चिरसंचित व्रतों का भङ्ग करना अच्छा नहीं। व्रत 'देश शील' और साधु के यावज्जीव 18000 शीलांगो सुविशुद्धमनपूर्वक (शुद्ध भावपूर्वक ) मृत्यु अच्छा परन्तु शील से च्युत का पालन 'सर्वशील' हैं।।16 (व्रत से पतित) होकर जीना अच्छा नहीं 1121 श्रावक के शील : 8. तप :अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने श्रावक के छ: शीलों का वर्णन श्रावक को यथाशक्ति 12 प्रकार के तप करना चाहिए (तप निम्नानुसार किया हैं।17 का विस्तृत वर्णन 310 से 336 पर किया गया हैं)। 1. आयतन सेवन : 9. भाव :जहाँ बहुत साधर्मिक, शीलवान्, बहुश्रुत, चारित्राचार-संपन्न लोग रहते हो, उसे 'आयतन' कहते हैं। श्रावक एसे ही स्थान में किसी भी प्रकार की क्रिया बिना भाव के सफल नहीं निवास करते हैं। इससे मिथ्यात्वादि घटते हैं, क्षय होते हैं और ज्ञानादि होती, अतः श्रावक को भावधर्म की आराधना करनी चाहिए (भावधर्म गुणों की वृद्धि होती है। भीलपल्ली, चोरों का आश्रयस्थान, पर्वतीय का वर्णन परिच्छेद 4 क (1) में एवं 154 एवं 310 पर किया गया स्थानो पर पहाडी लोगों के बीच, हिंसक-दुष्ट-दुराचारी-कुसङ्गी लोगों के साथ सज्जनों के द्वारा निंदित स्थान, जहाँ सम्यक्त्व और चारित्र 10. स्वाध्याय :का नाश होता हो, जहाँ बार-बार युद्धादि होते हो - एसे स्थान श्रावक को प्रतिदिन वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा महापापकारी होने से अनायतन अर्थात् श्रावक के रहने योग्य नहीं है, अतः श्रावक एसे स्थानों में निवास नहीं करता। -यह श्रावक 108. वही, प्रश्नव्याकरण-संवरद्वार-1 का प्रथम शील हैं। 109. वही 110. अ.रा.पृ. 7/901 2. परगृहप्रवेश त्याग : 111. अ.रा.पृ. 7/898, 901 श्रावक गुरुतर (अत्यावश्यक) कार्य के बिना दूसरों के घर 112. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-पृ.-4/30 नहीं जाता। इसमें भी जहाँ अकेली स्त्री हो वहाँ अकेलापुरुष या 113. अ.रा.पृ. 7/898 जहाँ अकेला पुरुष हो वहाँ अकेली स्त्री कभी भी नहीं जाते। इससे 114. अ.रा.पृ. 7/898 जीवन निष्कलंक और निर्मल रहता हैं। 115. अ.रा.पृ. 7/899 3. अति उद्भट वेष त्याग : 116. वही, धर्मरत्र-2/6/110-111 117. अ.रा.पृ. 7/899 श्रावक मर्यादापूर्ण वेशभूषा धारण करता है, अति-उद्भट्ट 118. अ.रा.पृ. 7/899 विकारजनक, देश-कुलाविरुद्ध अङ्गोपाङ्गदर्शक वेशभूषा का त्यागी 119. वही, सूत्रकृताङ्ग-1/12 होता है। इससे शील निर्मल रहता हैं । 120. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-पृ.-4/30 121. अ.रा.पृ. 7/899, सूत्रकृताङ्ग-1/1/2 Jain Education international Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [360]... चतुर्थ परिच्छेद और धर्मकथारुप पाँचो प्रकार का स्वाध्याय करना चाहिए (इसका विस्तृत वर्णन पृ. 332 पर किया गया हैं ) । अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 18000 शीलांगो के निरतिचार अखंड पालन रुप संयम क्रिया 138, ईर्यासमितिपूर्वक गमनागमन को 139 'जयणा' कहते हैं । जयणा धर्म की माता, रक्षिका, तपोवृद्धिकारिणी और एकान्त (मोक्ष) सुखकारिणी हैं। शास्त्रों में जयणायुक्त वर्तन करने वाली आत्मा श्रद्धा और ज्ञानपूर्वक क्रिया करने के कारण सम्यक्त्व - ज्ञान - चारित्र से युक्त भाव होने से आराधक कहा गया हैं। 140 इसलिए साधु की तरह श्रावक को भी सर्व कार्यो में जयणा प्रधान प्रवृत्ति करनी चाहिए अन्यथा श्रावक अनर्थदण्ड के पाप का भागीदार होता है। यहाँ तक कि जिनभवनादि निर्माण में भी जयणापूर्वक वर्तना चाहिए। 141 14-16. जिन पूजा, जिन स्तवन, गुरु स्तवन : जिनपूजा आदि का विवरण आगे आने वाले उपशीर्षक के अन्तर्गत (पृ. 363, गुरु स्तव पृ. 368) दिया जा रहा हैं। 17. साधार्मिक वात्सल्य : जो समान धर्म का आचरण करते हैं, उनहें 'साधर्मिक' कहते हैं। साधर्मिकों को भोजन में निमंत्रण करना, प्रतिवर्ष स्वामिवात्सल्य या एक-दो आदि साधर्मिकों की यथाशक्य भक्ति करना, प्रतिदिन या पुत्र जन्म-विवाहोत्सव या अन्य भी एसा मांगलिक प्रसङ्ग पर साधर्मिकों को विनयपूर्वक घर बुलाकर उनका पाद- प्रक्षालन कर, भक्तिपूर्वक उचित आसन पर बैठाकर उत्तम भाजन (बर्तन) में रखकर उत्तम भोजन - पानी - ताम्बूलादि एवं वस्त्राभूषण देना, संकटग्रस्त साधर्मिकों का उद्धार करना, उनको धर्म में स्थिर करना, उनकी सार संभाल कर उन्हें धर्म में प्रेरित करना, उनके साथ कलह नहीं करना - 'साधर्मिक वात्सल्य' हैं।142 यह बृहत्कर्मक्षयकारी होने से महानिर्जरा का कारण हैं। 11. नमस्कार : मस्तक पर दोनों हाथों से अञ्जलिबद्ध शिरोनमन प्रणाम, अरिहंतादि को प्रणाम 'नमस्कार' कहलाता हैं। 122 विशुद्ध मन से, उपयोगपूर्वक, मन-वचन-कायापूर्वक 123 देह से प्रणामादि, वचन से गुरुमुख से सूत्रादि की वाचना, श्रवण करना या अर्हदादि का गुणगान और भाव से ज्ञानावरणादि के क्षयोपशम रुप लब्धिपूर्वक नमस्कार किया जाता हैं। 124 नमस्कार क्यों ? गुणराशि, ज्ञानादिगुणयुक्त पूजनीय एवं मुक्ति का हेतु होने से अरिहंतो को, शाश्वत होने से तथा शाश्वत सुख का कारण होने से सिद्धों को, आचारपालक-प्रख्यापक होने से आचार-प्राप्ति हेतु आचार्यों को, विनय हेतु उपाध्यायों को और भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग की आराधना में सहायक होने से साधु भगवंतो को नमस्कार किया जाता हैं 125 फल : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने भाव - नमस्कार का फल बताते हुए कहा है कि, अरिहंतादि को किया गया नमस्कार को अनन्त भवों से मुक्तकर मोक्ष की प्राप्ति कराता हैं, बोधिलाभ कराता है 126, संसार समुद्र से तिराता हैं। 127 नमस्कार महामंत्र का एक पद भी समस्त मोहजाल का उच्छेदक होने से संपूर्ण द्वादशाङ्गारुप है क्योंकि वह जीव में संवेग उत्पन्न कर निर्जरा कराता है। 128 अतः प्रत्येक श्रावक को जिनदर्शनवंदन, गुरुवंदनादि एवं नमस्कार (नवकार महामंत्र का 108 बार जाप अवश्य करना चाहिए । श्री देवेन्द्रसूरि महाराजने कहा है कि, "श्री नवकारमंत्र आलोकपरलोक में सर्वत्र सहायक होने से सच्चे बन्धु समान एवं प्राप्त गुणों की रक्षा करनेवाला और अप्राप्तगुणों की प्राप्ति करानेवाला होने से जगत के नाथरुप हैं । 129" कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्यने कहा है कि, "आठ पंखुडीवाले श्वेत कमल में वर्णसहित अरिहंतादि की स्थापना करके श्री नवकार महामंत्र का ध्यान करनेवाला साधु भोजन करते हुए भी चोथभक्त (आगे-पीछे एकासणा सहित उपवास) का फल प्राप्त करता हैं। ''130 यह फल तो जाप की प्रवृत्ति मात्र से है, परमार्थ से तो श्री नवपद के जाप का फल स्वर्ग और मोक्ष कहा है। 131 अपने दाहिने हाथ की अंगुलियों पर जो नंदावर्तादि आवर्त्तो से पंचमहामंगल / नवकार मंत्र को 108 बार गिनता है, उसे दुष्ट पिशाच आदि परेशान नहीं करतें। 132 बंधन (जेल) आदि प्रसंग उपस्थित होने पर आवर्त्तो को या अक्षरों का या पदों का 1 लाख या उससे अधिक बार उल्टा जाप करने पर बंधन-संकटादि कष्ट तत्काल नष्ट होते हैं। 33 । 12. परोपकार : इसका वर्णन पूर्व पृ. 350 एवं 353 पर किया जा चूका हैं। 13. जयणा : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 'जयणा' की व्याख्या करते हुए कहा है 134 कि स्वशक्ति के अनुसार अक्ल्प्य का त्याग 35, यत्न 136, पृथ्वीकायादि जीवों के हिंसा आरम्भ के त्याग का प्रयत्न 137, साधर्मिक भक्ति से लाभ : साधर्मिक बारह व्रतों (उपलक्षण से सामायिकादी एकादि व्रत) का पालन करते हैं, पूजा सामायिक आदि शुभ क्रिया करते हैं, दानादि चारों धर्म की यथाशक्ति आराधना करते हैं, प्रभुभक्ति एवं गुरुभक्ति द्वारा धन्य होते हैं, प्रवचन श्रवण से समता-समाधि 122. अ.रा. पृ. 4/1819 1821 123. अ.रा. पृ. 4/1837, 1840 124. अ.रा. पृ. 4/1820 125. अ.रा. पृ. 4/1837-38-39 126. अ. रा. पृ. 4/1840 127. अ.रा. पृ. 3/1319; 4/1850 128. अ.रा. पृ. 4/1840 129. श्राद्ध दिनकृत्य-गाथा - 9 130. योग शास्त्र- प्रकाश 8/35 131. वही 8/40 132. नमस्कार - पंचविंशति- 16 133. धर्मसंग्रह का भाषांतर - भा.1, पृ. 345 134. अ.रा. पृ. 4/1423 135. अ.रा. पृ. 4/1423; आवश्यक चूर्णि, अध्ययन 6 136. अ.रा. पृ. 4/1423; निशीथचूर्णि उद्देश - 1 137. अ. रा.पृ. 4/1423; दशवैकालिक, अध्ययन-4 138. अ.रा.पृ. 4/1423; महानिशीथ सूत्र, चूर्णि - 2 139. अ.रा. पृ. 4/1423; आचारांग 2/3/1; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 24 140. अ.रा. पृ. 4/1423; प्रतिमाशतक 50, 51 141. अ.रा.पू. 4/1423; धर्मसंग्रह, अधिकार 2 142. अ.रा. पृ. 7/799 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावला का अनुशालन चतुथ पारच्छ६... [301 स्वस्थता की शिक्षा प्राप्त करते हैं, नवकार मंत्र के जाप से पंच परमेष्ठी शुभदिन मङ्गल वस्त्रादि धारण कर पूर्वसंघपति या सुप्रतिष्ठित भाग्यशाली की उपासना करते हैं, धंधा-व्यापार में नीति-कोमलता का ध्यान धार्मिक व्यक्ति के द्वारा (नये संघपति को) संघपति रुप में तिलक रखकर मार्गानुसारी जीवन यापन करते हैं, संयम की भावना प्रगट करवाकर प्रयाण करते हैं। करने/टिकाने के लिए अनित्यादि भावनाओं से मन को भावित करते तीर्थयात्रा में रास्ते में संघ की देख-रेख-सुरक्षा-सार-संभाल हैं, पाप से डरते हैं, बचते हैं, सांसारिक कार्यों में भी निष्ठूर भाव करते हुए संघपति प्रत्येक ग्राम-नगर में स्रात्रपूजा-चैत्य परिपाटी (जिन या अति आसक्ति के भाव नहीं लाते ।..इत्यादि अनेक गुणों से मंदिर दर्शन) - जिन मंदिरों में आवश्यक पूजन सामग्री भेट करना, युक्त होने से साधर्मिक भक्ति अमीतफलदाता धर्म माना जाता हैं यथाशक्ति जीर्ण मंदिरों के उद्धारादि कराने का चिन्तन करते हुए 'तीर्थ' अतः सार्मिक की भक्ति करना/भोजन कराना - यह अत्यंत सफल को प्राप्त करते हैं। कार्य हैं। तीर्थदर्शन होने पर रत्न-मोती-सोना-चाँदी-अक्षत-रुपये आदि 18. व्यवहार शुद्धि : से तीर्थ को बधाते हैं। तीर्थ में स्नात्रपूजा, अष्टप्रकारी पूजा, महापूजन, व्यवहार में शुद्धि रखना श्रावक का परम कर्तव्य है क्योंकि ध्वज प्रदान गीत-नाटक-नृत्य-वादित्रपूर्वक भक्ति सहित रात्रि जागरणक्रमशः व्यवहार से अर्थ (धन) की, धन से आहार की, उससे देह पूर्वक तीर्थ में उपवास-छट्ठ (दो उपवास) आदि तपपूर्वक तीर्थभूमि की शुद्धि होती हैं। देह शुद्धि से श्रावक धर्मयुक्त होता हैं जिससे पर देव-गुरु-संघ के सानिध्य में विधिपूर्वक 'तीर्थमाल' (स्त्रात्रमाल) उसका समस्त आचार, व्यवहार एवं आराधना सफल होती हैं। धारण करते हैं। जिन मंदिरों में पूजा योग्य उपकरण भेट करते हैं। व्यवहार शुद्धि नहीं रखने पर श्रावक स्व-पर एवं धर्म की तीर्थोद्धार-देवकुलिकादि निर्माण जीर्णोद्धारादि हेतु द्रव्य (धन) समर्पित निंदा करवाता है जिससे अबोधि (मिथ्यात्व) की प्राप्ति होती है, अतः करते हैं। तीर्थाशातना निवारण, तीर्थरक्षण, तीर्थ सम्मान (प्रचार-प्रसार), श्रावक को चाहिए कि, वह सर्वात्मना प्रयत्नपूर्वक धर्महेलना को रोकें ।143 दान, सार्मिक भक्ति, स्वामी वात्सल्य, गुरु एवं चतुर्विध श्री संघ 19. रथयात्रा : की भक्ति आदि उचित कार्य करते हैं। स्व-गह आकर श्री संघ जिन-जन्म कल्याणकादि विशेष महोत्सव प्रसंग पर को भोजनादि करवाकर बहुमान-सत्कारपूर्वक उनका विसर्जन करते स्नात्रपूजादिपूर्वक जिन प्रतिमा को श्रृंगारित रथ में विराजमानकर हैं। यथाशक्ति प्रतिवर्ष तीर्थमाल के दिन उपवास करते हैं। महोत्सवपूर्वक पूरे नगर में घुमाना 'रथयात्रा' कहलाती हैं। 44 __ सम्यग्दर्शन मोक्ष का अङ्ग है और पूर्वोक्तानुसार तीर्थयात्रा रथयात्रा जिनशासन प्रभावना का कारण हैं।145 दीन-दुःखी करने से सम्यग्दर्शन की विशुद्धि होती है, जैन शासन को प्रभावना को दान देते हुए, तपादिपूर्वक भावविशुद्धि युक्त होकर, उत्तम वस्त्र- होती है, जो परम्परा से मोक्षदायी है, अतः शक्ति सम्पन्न सुश्रावक विलेपन-माला-पुण्य-अलंकारादि से देह को सुशोभित कर, सुशोभित को यथाशक्ति जीवन में तीर्थयात्रा करनी चाहिए और संपन्न श्रावक स्त्रियों के द्वारा मंगल स्तुति, स्तोत्र, गीत-गान एवं वादित्रपूर्वक, धार्मिक को तीर्थयात्रा अवश्य करवानी भी चाहिए।148 नाटक-प्रेक्षण युक्त राजादि के द्वारा अनुशासनपूर्वक अमारिप्रवर्तनपूर्वक 21. उपशम149 :की जाती हैं।146 क्रोध, क्लेश, कायादि का त्याग करना, क्रोधादि का निग्रह, श्री जिनरथयात्रा से इसलोक में शत्रुकृत उपद्रवादि दोष माध्यस्थ परिणाम, शान्त अतस्था, राग-द्वेष के अभावरुप इन्द्रिय उपशम, नहीं होते; गुणप्रशंसा होती हैं; सज्जनता प्राप्त होती हैं; सम्यग्दर्शन कर्मों का उपशम होना,तृष्णा-नाश, रोगादि उपद्रव की शान्ति - 'उपशम' की प्राप्ति होती हैं। जिन शासन पक्षपात, शुभ अध्यवसाय, शासन कहलाता है। कषाय परिणति से होनेवाले कटुकर्मविपाक का विचार के प्रति बहुमान उत्पन्न होता है; रथयात्रा संपदा का मूल कारण है; कर श्रावक अपराधी के ऊपर भी कोप-त्याग हेतु प्रयत्न करता है निर्वाण फलदायी हैं।147 और राग-द्वेष जनक स्थितियों में भी समभाव धारण करने का प्रयत्न 20. तीर्थयात्रा : करता हैं और ज्ञान से, धर्मकथा से, सम्यक्त्व से या दैवप्रतिबोध श्री शत्रुञ्जय-गिरनारादि तीर्थ तथा तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, से उपशम को प्राप्त करता है। केवलज्ञान, निर्वाण एवं विहार भूमियाँ भी भव्य जीवों के शुभ उपशम का फल दर्शाते हुए आचार्यश्रीने कहा है-"जो भाववृद्धि संपादक होने के कारण संसार-समुद्र से तारक होने से उपशम करता है, उसकी आराधना, (सार्थक/सफल) है।" कहा तीर्थ कहलाते हैं । सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए तीर्थ में विधिपूर्वक भी है - 'उवसमसारं खु सामण्णम्।' जिनभक्ति-महोत्सव करना 'तीर्थयात्रा' हैं। 22. विवेक :तीर्थ यात्रा की विधि - मुख्यतया तीर्थयात्रा छ:री पालक श्रावक कल्प्याकल्प्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय का विवेकपूर्वक (इसका वर्णन प्रथम परिच्छेद पृ. 15 पर किया गया है) होकर करनी विचार कर अकल्प्य-अभक्ष्यादि का त्याग करता है। शास्त्रज्ञान एवं चाहिए। सामान्यतया श्रावक राजादि को ज्ञात करके उनकी अनुज्ञा प्राप्त करके, यात्रा के लिए देवालय बनवाते हैं; पट, मण्डप, जल 143. अ.रा.पृ. 6/935 संग्रह के साधनादि वाहनादि सज्ज करते हैं, गुरु-संघ और स्वजनों 144. अ.रा.पृ. 6/493 को निमंत्रत करते हैं, अमारी (अहिंसा) प्रवर्तन कराते हैं, जिनालयों 145. अ.रा.पृ. 1/367 146. अ.रा.पृ. 1/368 में महापूजादि महोत्सव करते हैं, दीन-दुःखी को दान देते हैं, छ:रिधारकों 147. अ.रा.पृ. 1/369 को प्रोत्साहनपूर्वक सहयोग करते हैं, शूरवीर रक्षकों को बुलाते हैं, 148. अ.रा.पृ. 4/2246 गीत-नृत्य-वादित्र करते हैं और स्वजनादि को भोजनादि करवाकर 149. अ.रा.पृ. 2/1055 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [362]... चतुर्थ परिच्छेद बुद्धिविज्ञानपूर्वक हेय - उपादेय की परीक्षापूर्वक हेय का त्याग एवं उपादेय का ग्रहण करता है। 150 23. संवर : श्रावक जिसके द्वारा प्राणातिपातादि का त्याग हो, एसे निर्मल जीवदयामय परिणाम को धारण करता हैं और पाँचो आस्रवों का निरोध करता हैं; 5 समिति, 3 गुप्ति, 10 यतिधर्म, 12 भावना, 22 परिषह सहन और 5 चारित्र ये संवर के 57 भेद हैं। इनका ज्ञान प्राप्त करना, यथाशक्ति पालन करने की भावना रखना 'संवर' हैं। 151 24. भाषा समिति का पालन करना : श्रावक के द्वारा क्रोधादि कषाय, या हास्य, भय या मुखरता पूर्वक भी सावद्य वचन का त्याग करना, विकथा का त्याग करना 'भाषा समिति' हैं। 152 इसका पृ. 286 पर विस्तृत वर्णन किया जा चुका हैं। 25-30. षड्जीवनिकाय पर करुणा 153 : करुणा गुण के कारण मोह से, दुःखी जीवों के दर्शन से, संवेग से या स्वभाव से दीन दुःखी के प्रति अनुकम्पा को करुणा कहते हैं, दुःखी के दुःख को दूर करना, ग्लान को पथ्य वस्तु / आहार / औषध प्रदान करना, दीनादि को लोक-प्रसिद्ध आहार-वस्त्र-शयनआसनादि देना, संवेगपूर्वक मोक्ष की अभिलाषा से सांसारिक रुप से सुखी जीवों के प्रति प्रीतिभाव से सांसारिक दुःखों से उनकी रक्षा की इच्छा, निःस्वार्थ भाव से जीवमात्र के प्रति अनुग्रह (उपकार) परायणता एवं केवली भगवंतादि महामुनियों की सर्व जीवों को दुःख से मुक्त करने की इच्छा को करुणा कहते हैं । यद्यपि श्रावक मात्र निरपराधी त्रस जीवों को संकल्पपूर्वक नहीं मारने की प्रतिज्ञा करता है तथापि स्थावर जीवों के भी निरर्थक हिंसा नहीं करता, अपितु पृथ्वी - अप् (जल), तेजस् (अग्नि), वायु, वनस्पति और त्रस काय के जीवों के प्रति कृपादृष्टि और अनुकम्पा हैं I रखता 31. धार्मिक जनों से सत्संग : श्रावक सदैव धार्मिक लोगों के साथ संबंध रखता है क्योंकि संसर्ग से ही गुणदोष उत्पन्न होते हैं। 154 गुणीजनों के साथ किया गया सत्संग कुमति को नष्ट करता है, मोह का नाश करता है, विवेक को जागृत करता है, प्रेम को विस्तृत करता/ बढाता है, नीति को उत्पन्न करता है, गुणश्रेणी को बढाता है, यश को फैलाता है, धर्म को धारण करता है, दुर्गति को अपवर्ग के सुखों की प्राप्ति कराता है। 155 लोक में भी प्रसिद्ध है कि, "पण्डित मंडनमिश्र के संसर्ग / सत्संग से उनके घर रहे पालतू तोता आदि पक्षी भी दार्शनिक चर्चा करते थे। चरम तीर्थंकर परमात्मा महावीर के सत्संग से रोहिणेय चोर साधु बन गया; चार हत्या करनेवाला दृढप्रहारी भी आत्म कल्याण कर गया; चंडकौशिक सर्प देवलोक पाया, पार्श्व प्रभु के संग से नाग धरणेन्द्र बना, महावीर के सत्संग से श्रेणिक राजा आनेवाली चौवीसी में उनके समान तीर्थंकर बनेंगे। सत्संग से ही वालिया लूटेरा वाल्मिकी बना । फूल के संग से ही कीट भी देव के मस्तक पर चढ़ता है। सुमेरु के संग से घास सुवर्णपना धारण करती है, कश्मीर की भूमि के संग से ही घास केशर की सुगंध प्राप्त करती है । सूक्तमुक्तावली में आचार्य सोमप्रभसूरिने कहा है "सद्गुणी मनुष्यों का संगम दुर्बुद्धि को नष्ट करता है, मोह को दूर करता है, अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तत्त्व - अतत्त्व में विवेक करता है, संतोष को प्राप्त कराता है, नीति को जन्म देता है, गुण समूह को विस्तृत करता है, यश फैलाता है, धर्मयुक्त बनाता है और दुर्गति को दूर करता है। अतः सद्बुद्धि के समूह 'को प्राप्त करने तु, चलने हेतु, कीर्त्ति प्राप्ति हेतु, धर्माचरण हेतु, स्वर्ग तथा मोक्ष की लक्ष्मी के लिये तथा आपत्ति, दुःख, दुर्जनता और पाप के फल से बचने के लिए सत्संग करना चाहिए।'' 155 32. करणदमन : करण अर्थात् इन्द्रिय | अनियंत्रित इन्द्रियाँ आत्मा को कुमार्ग में ले जाती है, कृत्याकृत्य का विवेक नष्ट करती है, जीवित का नाश करती है, पुण्यरुपी वृक्ष के टूकडे करती है, प्रतिष्ठा को नष्ट करती है, न्याय मार्ग से भ्रष्ट करती है, अकृत्य कराती है, तप से वैर होता है, विपत्तिओं को बुलाती है अतः दोषों के स्थानरुप इन्द्रियों का दमन करके उसे वश में करना चाहिए। 156 अपने-अपने विषयों में दौड़ती इन्द्रियों का निग्रह करना या उपशम करना, उसे वशमें करना या निंदनीय कार्यो का त्याग करना, मन को ध्येय में स्थिर करना 'करण दमन' कहलाता हैं। 157 33. चरण परिणाम : चरण परिणाम अर्थात् चारित्र अध्यवसाय 158 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने गमन, अतिशय गमन, विहार, अवस्थान, संयम अनुष्ठान, सेवन, मूलोत्तर गुणरुप आचरण, आसेवन, श्रमणधर्म, सर्ववि और देशविरति चारित्र और यति समाचारि को 'चारित्र' कहा है। 159 'परिणाम' अर्थात् दीर्धकाल के अनुभव सेउत्पन्न होनेवाला विशिष्ट आत्म धर्म, स्वभाव धर्म, अध्यवसाय या मनोभाव को परिणाम कहते हैं। 160 श्रावक चरण परिणाम अर्थात् चारित्र के अध्यवसाय (भावना) युक्त होता हैं । वह प्रतिदिन मन में चिंतन करता है कि कब एसा शुभ दिन हो जब मैं सर्वविरति चारित्र अंगीकार कर मुनि बनूं । 161 34. संघ के ऊपर बहुमान : ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, प्रभावनादि गुणों से रञ्जित होकर जो प्रीति का प्रतिबंध होता है, उसे बहुमान कहते हैं। 162 श्रावक साधु-साध्वी- श्रावक-श्राविका रुप चतुर्विध संघ के प्रति प्रीति धारण करता हैं । जैसे वे धन्य हैं, वे वंदनीय हैं उनके द्वारा तीनों लोक पवित्र किये गये हैं, इनके द्वारा तीनों भुवन में क्लेशकारक काममल्ल पराजित किया गया हैं, इत्यादि । 163 150 अ.रा.पू. 6/1250, 1251 151. अ.रा. पृ. 7/237 152. अ.रा. पृ. 6/1555 153. अ.रा. पृ. 3/382 154. अ.रा. पृ. 7/244 155 सूक्त मुक्तावली - 66, 67 156. वही 69, 70 157. अ. रा. पृ. 3/371 158. अ.रा. पृ. 3/1128 159. अ.रा. पृ. 3/1125-26 160. पाईय सद्द महण्णव पृ. 556 161. अ.रा. पृ. 3/1128 162. अ.रा. पृ. 5/1304 163. वही पृ. 5/1303 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [363]] सूक्त मुक्तावली में भी कहा है कि, "गुणो का सागर जो 36. तीर्थ/जैन संघ में प्रभावना :संघ संसार के प्रति उदासीन होकर मुक्ति के लिये लालायित है, जिससे तिरा/पार उतरा जाय उसे 'तीर्थ' कहते हैं। वह चार जिसे तीर्थ कहते है, जो अप्रतिम पावन है, जिसे तीर्थंकर भी नमस्कार प्रकार का हैंकरतेहै, जिससे सज्जनों का शुभ/मंगल होता है, जो सद्गुणों का (1) नाम तीर्थ - जीवाजीव विषयक भेद रुप या तीर्थ के नाम । आकर है, जिसकी सेवा से लक्ष्मी-कीर्ति-प्रीति-सुमति एवं परंपरा (2) स्थापना तीर्थ - साकार-अनाकार भेद से जिस पदार्थ में से मुक्ति की भी प्राप्ति होती है, जिसकी भक्ति का मुख्य फल अहंदादि या जिस स्थान पर तीर्थ की स्थापना की गई हो। पदवी एवं देवेन्द्र-चक्रवर्ती आदि प्रासंगिक फल माने जाते है वैसे (3) द्रव्य तीर्थ - नदी-समुद्रादि में उतरने का निश्चित स्थान जैसे श्री संघ की कल्याणकामी पुरुष सेवा करते हैं।164 मागध, वरदाम आदि या घाट, ओवारा आदि। 35. पुस्तक/जिनागम लेखन करवाना : (4) भाव तीर्थ - प्रवचन या साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रुप जिनागमों से ही हेय-उपादेय, हान-उपादानरुप सकल चतुर्विध श्री संघ भावतीर्थ है जो सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र योगमार्गोपयोगी व्यवहार एवं अतीन्द्रिय फलविषयक अनुष्ठानों के विषय के द्वारा भव-समुद्र से पार (मोक्ष) पहुँचाते हैं ।172 में ज्ञान होता हैं ।165 अतीन्द्रिय अर्थो की सिद्धि में शास्त्र (आगम) यद्यपि जिन प्रवचन/शासन शाश्वत होने से, तीर्थंकर भाषित ही प्रमाण माने जाते हैं।166 आगम से परलोकादि का एवं परस्वरुप होने से, देव दानवों के द्वारा सेवित होने से स्वयं दीप्तिमान है तथापि का ज्ञान होताहैं।167 भव्यात्माओं को समाधि में प्रतिकूलता होने पर भावतीर्थ अर्थात् साध्वादि रुप चतुर्विध संघ में श्रावक स्वयं के सम्यग्दर्शन विचिकित्सा में मार्गदशन करता हैं । 168 आगम की आराधना के द्वारा की विशुद्धि के लिए धर्म कथा, प्रतिवादी विर्जय, दुष्कर तपश्चर्या, ही श्रुत चारित्र रुप धर्म होता हैं।169 जिनागम ही कुशास्त्र जनित गुरु प्रवेशोत्सव, संघ का बहुमान-सत्कार आदि प्रभावना (सिक्के, मोदक, संस्कार रुपी विष को दूर करने में मन्त्र, धर्माधर्म कृत्याकृत्य, भक्ष्याभक्ष्य, फल, मिश्री या अन्य उचित देयवस्तु वितरित करना), स्वामि-वात्सल्य पेयापेय, गम्यागम्य, सारासारादि के विवेचन में अंधकार में दीपक, (संघ भोजन), आदि जिस गुण में स्वयं की अधिकता हो उससे समुद्र (भव समुद्र) में द्वीप, रेगिस्तान में कल्पतरु की तरह दुर्लभ जिन शासन या तीर्थ (संघ) की उन्नति और उद्भावना (प्रख्याति) हैं। 'जिन' का स्वरुप भी आगम प्रमाण से ही निश्चित किया जाता के कार्य करें - और सर्वशक्तिपूर्वक जिनशासन की निंदा या मलिनता हैं ।170 जिनागमों को बहुमान करने से देवगुरुधर्मादि का भी बहुमान के कार्य को प्रतीकार सहित सर्वथा रोकना 'तीर्थ प्रभावना' कहलाती किया माना जाता है। केवलज्ञानी के द्वारा भी जिनागम प्रमाण माने हैं।173 यह मोक्ष का बीज और सम्यक्त्व का अङ्ग होने से अवश्य जाते हैं अत: जिनवचन का बहुमान करनेवाले श्रावकों के द्वारा न्यायाजित करने योग्य हैं ।174 धन से, विशिष्ट पत्रों पर सुंदर, शुद्ध अक्षर विन्यास पूर्वक जिनवचन को लिखवाना चाहिए। जिनागमों को पढनेवालों का वस्त्र-भोजन 164. सूक्त मुक्तावली-21, 22. 23. 24 165. अ.रा.पृ. 2/87; योगबिन्दु-239 पुस्तक आदि वस्तुओं से भक्तिपूर्वक सम्मान करना चाहिए। तथा 166. अ.रा.पृ. 2/88; द्वात्रिशद् द्वात्रिशिका 23/13 लिखित पुस्तकों को संविज्ञ-गीतार्थो को बहुमानपूर्वक व्याख्यान हेतु 167. अ.रा.पृ. 2/88; द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका 16/25-26; नंदीसूत्र, गाथा 3 की प्रदान करना चाहिए और प्रतिदिन पूजा (द्रव्य, धन के द्वारा ज्ञान 168. अ.रा.पृ. 2/883; द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका 14/30 पूजा) पूर्वक श्रवण करना चाहिए। 169. अ.रा.पृ. 2/89, 4/2719-20-21; षोडशक 2/12 जिनवचन लिखवाने से वह मनुष्य दुर्गति, गूंगापन, जडता, 170. अ.रा.पृ. 2/89 बुद्धिहीनता आदि को प्राप्त नहीं होता और जो जिनवचन लिखवाता ___171. अ.रा.पृ. 5/1122 है, व्याख्यान करवाता है, पढता है, पढाता है, सुनता है, उनकी सुरक्षा 172. अ.रा.पृ. 4/2242-43-45; विशेषावश्यक भाष्य-1026, 1027, 1032, 1033, 1380 विधि में आदर करता है वह मनुष्य मर्त्य-देव एवं मोक्ष के सुखों 173. अ.रा.पृ. 5/438, 439 को प्राप्त करता हैं। अतः सुश्रावक को पुस्तक । जिनागम लेखन 174. अ.रा.पृ. 5/439, 440; हारिभद्रीय अष्टक-23/7 अवश्य करवाना चाहिए। टीका 'एसो दोसो खु मोहस्स आया नाणसहावी, दंसणसीलो विसुद्धसुहस्वो। सो संसारे भमई, एसो दोसो खु मोहस्स ॥1॥ जो उअमुत्तिअकत्ता, असंगनिम्मलसहावपरिणामी। सो कम्मकवयबद्धो, दीणो सो मोहवसगत्ते ॥2॥ ही दुक्खं आयभवं, मोहमहऽऽप्पाणमेव धंसेई। जस्सुदये णियभावं, सुद्धं सव्वं पि नो सरई ॥3॥ - अ.रा.पृ. 6/456 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जिनपूजा - 'जिनपूजा' शब्द में 'जिन' और 'पूजा' ये दो शब्द हैं ('जिन' का वर्णन पूर्व में (पृ. 153 पर किया जा चुका हैं)। 'पूजा' की व्याख्या करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि, प्रशस्त मन-वचन-काय की चेष्टा, सत्कार, पुष्प, फल-आहार-वस्त्रादि के द्वारा पूजा, स्तवादि के द्वारा पूजा / भक्ति करना 'पूजा' कहलाती हैं।' [364]... चतुर्थ परिच्छेद जिनपूजा के दो भेद 1. 2. दशत्रिक : द्रव्यस्तव जल, चंदन, पुष्पादि उत्तम सुगन्धित द्रव्यों से शुभभावपूर्वक परमात्मा की पूजा (जिनपूजा) 'द्रव्य स्तव' हैं।' -: भावस्तव - परमात्मा के सामने चैत्यवंदन, भक्ति, भावना, जिनवाणी सम्मत नृत्य, नाटक, स्तुति, स्तवन, स्तोत्रादि को सस्वर, वादित्रादि के साथ गायन 'भावस्तव' हैं। द्रव्यपूजा के प्रकार : जैन शास्त्रों में जिनपूजा के दो, तीन, पञ्चोपचारी, अष्टप्रकारी, सत्रहभेदी, इक्कीसप्रकारी, चौंसठप्रकारी सर्वोपचारी आदि अनेक भेद अंगपूजा और अग्रपूजा के अन्तर्गत वर्णित हैं। 4 : चैत्यवंदन महाभाष्यादि ग्रंथों में द्रव्यस्तव और भावस्तव का विस्तृत वर्णन जिनमंदिर संबंधी 'दशत्रिक' के अन्तर्गत किया गया हैं, अतः यहाँ भी दशत्रिक का वर्णन किया जा रहा हैं। 1. निसीहित्रिक : जिनमंदिर में प्रवेश करने से पूर्व मुख्य द्वार पर तीन बार 'निसीहि' शब्द बोलना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि, "मै सावद्य पाप व्यापार (सांसारिक कार्यों) का त्याग करता हूँ।" जगत संबंधी सर्व विचारों को छोडकर जिनभक्ति के लिए मैं मंदिर में प्रवेश कर रहा हूँ ।" तत्पश्चात् द्रव्य पूजा संबंधी सामग्री तैयार करना मंदिर संबंधी सफाई सार-संभाल आदि के त्यागरुप तीन बार 'निसीहि' शब्दोच्चारण रुप दूसरी निसीहि मंदिर के गर्भगृह / गभारे के द्वार के पास बोलना चाहिए। और द्रव्यपूजा संपूर्ण हो जाने के बाद द्रव्य पूजा का त्याग करके एवं भाव पूजा (चैत्यवंदन, स्तुति-भक्ति, कायोत्सर्ग आदि) को प्रारंभ करते समय रङ्गमण्डप में तीन बार 'निसीहि' शब्दोच्चारणपूर्वक तीसरी 'निसीहि' बोलनी चाहिए।" 2. प्रदक्षिणात्रिक : प्रथम निसीहि के बाद और द्वितीय निसीहि के पूर्व परमात्मा के सामने खड़े रहकर परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए (इसका वर्णन आगे 'जिनथुणणं' शीर्षकान्तर्गत किया जायेगा) तत्पश्चात् परमात्मा को अपनी दायीं ओर रखकर परमात्मा के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा / फेरी लगाना 'प्रदक्षिणात्रिक' हैं ।' प्रदक्षिणा लगाते समय मन में परमात्मा के वीतरागतादि गुणों का ध्यान, सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्र की प्राप्ति, शुद्धि-विशुद्धि, वृद्धि आदि भाव गुंजायमान होने चाहिए। इससे इलड-भौंरी न्याय से आराधक में शुभानुबंध वीतरागता का आकर्षण एवं संस्कार उत्पन्न होते हैं। मंदिर में शिखर, संगीत और मंत्र ध्वनि के माध्यम से एकत्रित हुई ऊर्जा-शक्ति को ग्रहण करने के लिए प्रदक्षिणा एक सशक्त माध्यम हैं, प्रदक्षिणा से भवमी में रही हुई जिन प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं एवं दर्शन ज्ञान चारित्र की आराधना होती है। 3. प्रणामत्रिक : जिनेश्वर परमात्मा को प्रणाम करने से अहंकार नष्ट होता है, विनय गुण का प्रादुर्भाव होता हैं। प्रणाम तीन प्रकार के होते हैं - (क) अंजलिबद्ध प्रणाम परमात्मा दृष्टिगोचर होते ही दो हाथ जोडकर अञ्जलि ललाट के आगे रखकर, कुछ झुक कर 'नमो जिणाणं' बोलते हुए प्रणाम करना । " (ख) अर्धावनत प्रणाम द्रव्य पूजा के पूर्व मूल गर्भगृह के पास पहुँचकर कमर से आधा शरीर झुकाकर हाथ जोडकर प्रणाम करना 110 (ग) पञ्चाग प्रणिपात द्रव्यपूजा पूर्ण होने पर चैत्यवंदन करते समय दो घुटनों दो हाथ और मस्तक ये पाँचों अङ्ग भूमि को स्पर्श करते हुए प्रणाम करना (खमासमण देना) ।" 4. पूजात्रिक" : 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. (1) अङ्गपूजा जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा को स्पर्श करके जल, चंदन, पुष्प एवं अंगरचना (आंङ्गी) करना अङ्ग पूजा हैं । अग्रपूजा - भगवान के सामने धूप-दीप करना; अक्षत, फल, नैवेद्यादि चढाना, घंटी बजाना, चामरादि ढोलना, दर्पण दिखाना, पंखा झेलना आदि परमात्मा के सामने परमात्मा को बिना स्पर्श किये की जानेवाली पूजा 'अग्रपूजा' कहलाती हैं। (2) - (3) भावपूजा - भावस्तव भावनूजा हैं इसका परिचय आगे दिया जा रहा हैं 1 अ. रा. पृ. 5/1073 अ. रा. पृ. 3/1283, 4/2171; अ. रा. पृ. 5/1073 अ. रा. पृ. 3/1257-58-83-85 अ. रा. पृ. 3/1283 अ. रा. पृ. 3/1299 अ. रा. पृ. 3/1298 1303 साप्ताहिक: श्रमण भारती पृ. 3, 14 फरवरी सन् 1999 जैनाचार विज्ञान पृ. 32 अ. रा. पृ. 3/1298-99, 1303 अ.रा. पृ. 3/1299, 1304 10. 11. अ. रा. पृ. 3/1299, 1304 अ. रा. भा. 3 'चेइय' शब्द 12. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुथ पारच्छद... [365] अष्टप्रकारी पूजा : त्रिकाल जिनपूजा :जिनपूजा एवं स्नात्रमहोत्सवादि में अष्टप्रकारी पूजा सामान्यतया जैनागमानुसार अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने त्रिकाल अधिक प्रचलित हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने इसका जिनपूजा का वर्णन करते हुए कहा है कि, "श्रावक प्रातः शरीर विस्तृत वर्णन किया हैं जो संक्षेप में निम्नानुसार हैं शुद्धिपूर्वक शुद्ध वस्त्र (धोये हुए) धारण कर दूर से धूप-दीप पूर्वक (1) जलपूजा - स्नानपूर्वक पूजन के वस्त्र धारण कर पूजन की परमात्मा (की प्रतिमा) की वासक्षेप पूजा करें, मध्याह्न अथवा यथासमय समग्र सामग्री तैयार करने के पश्चात् द्वितीय 'निसीहि' बोलने के अनुकूलतानुसार अष्टप्रकारी आदि पूजा करें एवं संध्या समय आरती बाद परमात्मा की प्रतिमा पर से निर्माल्य (वासी फूल आदि) उतारकर मङ्गलदीपक पूर्वक जिनपूजा करें। मोरपिच्छी से प्रमार्जन करने के पश्चात् शुद्ध जल से अभिषेक करना; जिनपूजा का फल :तत्पश्चात् शुद्ध जल, गाय का दूध, दही, मिश्री और घी (दूध-1 जीव के अशुभ भावरुप लोह को सुवर्ण समान करने के भाग, जल-5 भाग, दही-एक छोटी चम्मच, मिश्री-थोडी सी, घी- लिए जिनप्रतिमा पारसमणि समान है जो मुक्तिफल देती है। जिनपूजा दो-चार बूंद) को मिलाकर छानकर उनसे परमात्मा को प्रक्षाल (अभिषेक) पुण्यबंध का हेतु हैं।6, कर्मरुप मैल को धोने में जल के समान करना, तत्पश्चात् शुद्ध जल से प्रक्षाल करना - 'जलपूजा' हैं। है", स्व-पर उपकारी है। संसार भ्रमण का उच्छेद करती है।४, बोधिबीज (2) चंदन पूजा - उत्तम चंदन के साथ केशर, कस्तूरी, बरास का कारण है। जो जिनपूजा नहीं करता, उसे भवान्तर में बोधिबीज (भीमसेनी कपूर-पूजन में प्रयुक्त होने वाला सुगन्धिपदार्थ) आदि को (सम्यक्त्व) प्राप्त नहीं होता।20 घिसकर, प्रक्षाल के बाद अंगप्रोक्षण करके बरासयुक्त चंदन का विलेपन जिनेश्वर परमात्मा की जल चंदनादि अष्टप्रकारी पूजा करने करके जिनप्रतिमा के 9 अङ्ग (दो अंगूठे, दो जानु, दो कलाई, दो से ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों का नाश करके भव्यात्मा मोक्षसुख/निर्वाण स्कन्ध, शिखा, तिलक, भाल, कंठ, हृदय, नाभि) पर तिलक करना पद को प्राप्त करता हैं। 'चंदन पूजा' है। चंदन में केशर और बरास चातुर्मास में समानुपात, जिनमंदिर में शिखर एवं उस पर आरोहित स्वर्ण कलशों शीत ऋतु में 1:2, और ग्रीष्म ऋतु में बरास अधिक और केशर द्वारा आकाश में प्रवाहित हो रही तरङ्गों, विद्युत् शक्तियों, विशुद्ध न्यून मिलाना चाहिए। (बिना चंदन के अकेले केशर से जिनपूजा परमाणुओं एवं ऊर्जा को आकर्षित कर ग्रहण एवं संगृहीत की जाती नहीं करनी चाहिए; एसा करने से प्रतिमा को गड्डे हो जाते हैं।) हैं। जिनमंदिर में जाने से मंदिर में संग्रहीत यह ऊर्जा हमें प्राप्त होती (3) पुष्प पूजा - सुगंधित, अखंड शुद्ध (जिसे पक्षी आदि ने खराब हैं जिससे आराधक को नई ऊर्जा, अद्रुत शांति, विशिष्ट सुखानुभूति न किया हो या किसी अशुद्ध व्यक्ति ने स्पर्श न किया हो) ताजे, की प्राप्ति होती हैं। शुभ, जमीन पर नहीं गिरे हुए हों, गुलाब, मोगरा, चंपा, चमेरी, कमल, 5. अवस्थात्रिक :जाई, जूही आदि के फूल, उनकी माला आदि परमात्मा को चढाना द्रव्य पूजा करने के पश्चात् प्रतिमा के सामने खडे रहकर 'पुष्प पूजा' हैं। - ये तीनों पूजाएं 'अंगपूजा' कहलाती हैं। हृदय के अहोभावपूर्वक परमात्मा की पिण्डस्थ, पदस्थ और रुपातीत (4) धूप पूजा - कृष्णागरु, गुग्गुल, चंदन शिलारस, दशाङ्गी आदि अवस्था का चिन्तन करना, अवस्थात्रिक हैं। धूप करके परमात्मा की दायीं ओर रखना 'धूपपूजा' हैं। (5) दीपक पूजा - कपास की रुई की बत्ती से शुद्ध घी का 13. अ.रा.पृ. 3/1282 दीपक कर परमात्मा की दाँयी ओर रखना, 'दीपक पूजा' हैं। मध्याह्न पूजा का अर्थ कुछ लोगो दोपहर 12 बजे चंदन पूजा करना - (6) अक्षत पूजा - शुद्ध अखंड, उत्तम, कोरे (बिना तेल के), ऐसा करते है जबकि विधि यह है कि, सूर्योदय से एक प्रहर के बाद अक्षतों (चावलों) से परमात्मा के सामने स्वस्तिक, भद्रासन, कलश, श्रावक सपरिवार जिनमंदिर जाकर परमात्मा की अष्टप्रकारी पूजा, स्नात्रपूजादि सिंहासन, नंदावर्त, संपुट दर्पण और मीनयुगल - इन अष्ट मंगलों करें; आरती आदि करके अभिजित मूहुर्त में (11 बजे बाद) मध्याह्न के देववंदन करें। जैसाकि जैन तीर्थों में प्रायः 9 बजे प्रक्षाल किया जाता अथवा स्वस्तिक, अक्षत (चावल) से तीन बिन्द्वाकार राशियाँ (ढगली) है, तत्पश्चात् चंदनपूजा, स्नात्रपूजादि होते है। यदि 12.00 बजे चंदन पूजा बनाना और सिद्धशिला बनाना 'अक्षत पूजा' हैं। की जाय तो नात्र, अष्टप्रकारी पूजा, आरती, देववंदनादि कब होंगे? मंदिर (7) नैवेद्य पूजा - मिश्री या गुड या घी शक्कर या गुड दूध कब मंगल होगें एवं पूजारी आदि कब भोजन करेंगे ? एवं श्रावकया दही से बनी शुद्ध उत्तम मिठाई (जिसका स्वाद, वर्ण, गंध परावर्तित श्राविका के दो बजे तक मंदिर में रहने पर वे साधु-साध्वी के सुपात्रन हुआ हो), खीर, पकवान एवं घर में बनी उत्तम रसोई परमात्मा दान से भी प्रायः वंचित रहने की संभावना होगी - सुज्ञ भावुक इस बात पर सयुक्तिक विचार करें। के सामने रखना 'नैवेद्य पूजा' कहलाती हैं। 14. अ.रा.पृ. 3/1288 (8) फल पूजा - ऋतु के अनुसार यथाप्राप्य उत्तम जाति के, अखंड, 15. अ.रा.पृ. 3/1245 ताजे, पके हुए आम, मौसंबी, संतरे, केला, श्रीफल, बीजोरा, सेवफल, 16. अ.रा.पृ. 3/1278; पञ्चाशक-4/8 गन्ने, चीकू आदि उत्तम फल परमात्मा के सामने रखना ‘फल पूजा' 17. अ.रा.पृ. 3/1279 18. अ.रा.पृ. 3/1281 कहलाती हैं। 19. अ.रा.पृ. 3/1280 पूजा करते समय नैवेद्य स्वस्तिक पर एवं फल सिद्धशिला 20. वही पर रखे जाते हैं। धूप से फल तक की पूजा 'अग्र पूजा' कहलाती 21. अंतराय कर्म निवारण पूजा 22. जैनाचार विज्ञान पृ. 28, 29 23. अ.रा.पृ. 3/1299, 1304; चैत्यवन्दन भाष्य (सार्थ) पृ. 78-79 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [366]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) (1) पिण्डस्थ अवस्था - 'पिण्ड' अर्थात् तीर्थंकर के जन्म से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति एवं समवशरण की स्थापना के पहले तक का छद्मस्थ देह अर्थात्, द्रव्यतीर्थकररुप में रहने वाली अवस्था पिण्डस्थ अवस्था कहलाती है। वह पिण्डस्थ अवस्था तीन प्रकार की हैं(1) जन्मावस्था - तीर्थंकर जन्म के समय जन्माभिषेक महोत्सव का दृश्य, छप्पन दिक्कुमारिका महोत्सव, आदि को स्मृति में लाना और चोसठ इन्द्रों द्वारा अभिषेक किये जाने पर भी तीर्थंकर के निराभिमान रहने आदि का चिन्तन करना चाहिए। राज्यावस्था - पुष्पादि से तीर्थंकर प्रतिमा की अंगरचना देखकर चिन्तन करना चाहिए कि सर्व प्रकार की अनुकूलता, श्रेष्ठ वैभवपूर्ण संसार एवं राजकीय सुख को आपने तृणावत् त्याग कर कर्मक्षय एवं आत्मकल्याण के लिए साधुजीवन का अंगीकार किया। हम भी कब हमारी आत्मा का कल्याण कर सकेंगे? -ऐसी भावना से मन को भावित करना। (3) श्रमणावस्था - आभूषण एवं अंगरचना (आंगी) रहित जिनप्रतिमा के दर्शन से दीक्षा ग्रहण करके केवलज्ञानाप्ति एवं समवसरण की स्थापना के पहले तक की श्रमण (मुनि) अवस्था का चिन्तन करना कि परमात्माने समस्त वैभव त्याग कर घोर परिषहों और उपसर्गो को समतापूर्वक सहन किया; साथ ही अनुपम त्याग और घोर तप किया, अहर्निश आत्मध्यान में रहकर घातीकों का क्षय किया। धन्य साधना ! धन्य पराक्रम! धन्य सहिष्णुता - इस प्रकार की अवस्था का ध्यान करना। पदस्थ अवस्था - पदस्थ अवस्था अर्थात् तीर्थंकर अवस्था। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद समवसरण की रचना; चौंतीस अतिशय, षड्दव्य-नवतत्त्वयुक्त पैंतीस वाणी-गुणों से अलंकृत धर्मदेशना; चतुर्विध सघ की स्थापना आदि परमात्मा के अरिहन्त स्वरुप का चिन्तन करना एवं हम भव्य जीवों पर परमात्माकृत उपकारों का चिन्तन करना। रुपातीत अवस्था - रुपातीत अवस्था अर्थात् सिद्धावस्था । पर्यकासन या जिन/कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थापित जिन प्रतिमा को देखकर प्रभु की निर्वाण (मोक्ष/सिद्ध) अवस्था का चिन्तन करना । अर्थात् सिद्ध परमात्मा के अनन्तचतुष्टय आदि आठ गुणों का चिन्तन करना। 6. दिशा-त्यागत्रिक : जिनपूजा के समय चित्त में प्रारंभ हुए उत्तम परिणाम दूसरे विचार या दूसरी प्रवृत्ति से लेशमात्र भी खंडित न हो इसलिए पूजा, चैत्यवंदन करते समय (1) अपनी दोनों ओर और पीछे अथवा (2) उपर, नीचे और आसपास - यों तीनों दिशा में देखने का त्यागकर प्रभु के सामने ही देखना - त्रिदिशि निरक्षण वर्जन (त्याग) त्रिक हैं। 7. प्रमार्जनात्रिक : चैत्यवंदनादि हेतु भूमि पर बैठने से पूर्व तीन बार दुपट्टे के छोर से (या बहनों के लिए साडी के पल्ले से) जगह का जीवरक्षार्थ तीन बार प्रमार्जन करना, प्रमार्जनात्रिक है। इसका आशय जीवहिंसा से बचाव और जीवनरक्षा करना है।25 8. वर्णादित्रिक : वर्णादित्रिक को चैत्यवंदन भाष्य में आलम्बन त्रिक कहा है (1) शब्दालंबन - बोले जानेवाले सूत्र के शब्दों की शुद्धता, पदविन्यास, ह्रस्व, दीर्घ, अनुस्वार आदि का ध्यान रखते हुए उच्चारण करना 'शब्दालंबन' हैं। (2) अर्थालंबन - उनके अर्थ को ग्रहण करना । (3) पुष्टालंबन - परमात्मा की प्रतिमा का आलंबन लेकर परमात्मभाव की ओर ध्यान देना। इससे धर्म क्रिया में चित्त की एकाग्रता बढ़ती है और परम आनंद प्राप्त होता हैं।26 9. मुदात्रिक : _ 'मुद्रा' अर्थात् अङ्गोपाङ्गों का विन्यास करना । योग के यमनियमादि आठ अङ्गों में तीसरा अंग 'आसन' हैं । चैत्यवंदन का महान योग सिद्ध करने के लिए योगाङ्ग की भी आवश्यकता है। उसकी सिद्धि शरीर की विशिष्ट मुद्रा से होती है। ये मुद्राएँ तीन प्रकार की हैं(1) योग मुद्रा - इरियावहियं, चैत्यवंदन, स्तवन, स्तुति, नमुत्थुणं, सूत्र आदि बोलते समय दोनों हाथों की हथेलियों को कुछ पोली जोडकर (बंद कमल सा आकार बनाने पर) अंगुलियों के अग्रभागों को एक-दूसरे के बाद क्रमशः रखना दोनों हाथों को कुहनी तक जोडकर कुहनी पेट पर लगाकर रखना - 'योगमुद्रा' हैं। मुक्ताशुक्ति मुद्रा - जावंति, जावंत और जयवीयराय सूत्र बोलते समय दोनों हाथों को उनकी अंगुलियों के अग्रभागों को परस्पर सामने आएँ तथा हथेली बीच में मोती की सीप की तरह ज्यादा पोली रहे - इस प्रकार जोडने से मुक्ताशुक्ति मुद्रा बनती हैं। जिन मुद्रा - कायोत्सर्ग के समय दो पैरों के बीच में आगे चार अंगुल और पीछे इससे कम जगह रहे, हाथ सीधे लटकते रहें, और दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थिर रहे, इस प्रकार खडे रहना 'जिनमुद्रा' हैं। इसे कायोत्सर्ग मुद्रा (खड्गासन) भी कहते हैं। 10. प्रणिधानत्रिक : प्रणिधान अर्थात् धर्मानुष्ठान में मन, वचन, काया को एकाग्र (स्थिर) लगाये रखना, प्रणिधान-त्रिक कहलाती हैं। प्रणिधान समस्त आराधनाओं का मूलाचार है। प्रणिधान के बिना कोई भी आराधना सफल नहीं हो सकती।28 जिनपूजा में सप्तशुद्धि :1. मनः शुद्धि: जिन पूजा करते समय मन को मलिन करनेवाले दुर्विचारों 24. अ.रा.पृ. 3/1304 25. अ.रा.पृ. 3/1308 26. अ.रा.पृ. 3/1308 अ.रा.पृ. 3/1308 28. अ.रा.पृ. 3/1310 29. अ.रा.पृ. 3/1281 (2) (3) (3) Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... (367] का संपूर्ण त्याग करके मन को शुद्ध रखना चाहिए, पूजा संबंधी का निर्माण स्वर्ण, रजत, जर्मन, ताँबा आदि उच्च श्रेणी की धातुओं उत्तम भावना से मन को भावित करना चाहिए। से कराना और उपयोग में लेने से पूर्व एवं बाद में भी अच्छी तरह 2. वचनशुद्धि : से साफ करना चाहिए। जिनपूजा में उपयोग में लिये जानेवाले पूजा जिन पूजा करते समय दुर्विचन का त्याग करना चाहिए। योग्य द्रव्य यथासंभव न्यायोपार्जित स्व-द्रव्य से लाना चाहिए जिससे पूजा संबंधी दोहे आदि भी स्वयं पूजा करते हो तब मौन रखकर पूजा में भावोल्लास अधिक जागृत होता हैं। पूजा के द्रव्य उत्तम, मन में बोलना चाहिए जिससे आशातना न हो (अन्य व्यक्ति पूजा/ ताजे और स्वच्छ होना चाहिए।32 प्रक्षालादि करता हो तो स्वयं प्रकट स्वर से बोले तो दोष नहीं) 7. स्थिति शुद्धि :चैत्यवंदनादि क्रिया में सूत्रादि का उच्चारण शुद्ध, स्पष्ट एवं विधि जिनमंदिर में दर्शन-पूजन करते समय पुरुष प्रतिमा की के अनुसार करना चाहिए। दायीं और तथा स्त्रियाँ बायीं ओर रहें। वाचक उमास्वाति ने कहा 3. कायशुद्धि : है कि, मंदिर में जिनेश्वर परमात्मा कम से कम जमीन से डेढ हाथ जिन पूजा के लिए पूर्वमुखी होकर छने हुए शुद्ध जल ऊँचे विराजमान होना चाहिए। इससे नीचे रखने पर पूजक की, संतान से शुद्ध भूमि पर सर्वांग स्नान करें, स्नान के पश्चात् शुद्ध वस्त्र से एवं वंश की अवनति होती हैं। जिनपूजा करते समय पूजक का शरीर पोंछे। अशुद्ध व्यक्ति आदि को स्पर्श न करें। शरीर में फोडा, मुख यथासंभव पूर्व या उत्तरा दिशा की ओर होना चाहिए क्योंकि घाव, आदि से खून या मवाद बहता हो या अन्य इसी प्रकार की पूजक का मुख पश्चिम दिशा की ओर रहने पर संतति का नाश, अशुद्धि के समय परमात्मा की अङ्ग पूजा न करें। वे अग्र पूजा दक्षिण दिशा और वायव्य कोण की ओर रहने पर संतति का अभाव, या भावपूजा कर सकते हैं एवं अपने पुष्पादि अन्य को पूजा हेतु अग्नि कोण की ओर रहने पर धनहानि, नैऋत्य की ओर रहने पर दे सकते हैं। कुलक्षय होता है और ईशान कोण की ओर रहने पर अच्छी स्थिति 4. वस्त्रशुद्धि : नहीं बनती। अन्य ग्रंथो में स्थितिशुद्धि के स्थान पर सातवीं शुद्धि वस्त्र और विचारों का प्रगाढ संबंध हैं अतः काले, फटे में विधिशुद्धि का वर्णन प्राप्त होता हैं, यथाहुए, सिले हुए, अशुभ, गंदे या जिस वस्त्रों से मल-मूत्र त्याग, मैथुनसेवन, भोजन आदि किया हो या ऋतुमती स्त्री के द्वारा स्पर्श किया परमात्मा की पूजा तथा चैत्यवंदनादि क्रिया शुद्ध शास्त्रोक्त हुआ वस्त्र जिनपूजा में नहीं पहनना । स्नान के पश्चात् पूजन के लिए विधिपूर्वक करनी चाहिए। पूजादि में प्रमाद, अविधि-आशातना आदि शुद्ध भूमि पर उत्तराभिमुख होकर नये या स्वच्छ शुभ्र (सफेद) या दोषों से बचना चाहिए । शुभ (लाल, पीलादि) दो सदश वस्त्रों (धोती-सोला) को धूप से पाँच अभिगम :सुगंधित करके पहनना चाहिए। जिनमंदिर में प्रवेश करते समय पाँच अभिगमों का पालन बहनों को भी उद्भट वेश का त्याग कर मर्यादापूर्ण वेश करना चाहिए - भूषा (साडी-चूनरी) धारण करना चाहिए। पूजन के समय भाईयों जिनमंदिर में प्रवेश करते समय राजा को तलवार, छत्र, को कम से कम दो वस्त्र और बहनों को तीन वस्त्र (और अन्तर्वस्त्र जूते (मोजडी), मुकुट और चामर - इन पाँच राजचिह्नों का त्याग भी) होना ही चाहिए। करना चाहिए । अन्य मनुष्यों को निम्नानुसार पाँच अभिगमों का पालन वाचक श्री उमास्वाति ने कहा है कि, "जिनपूजा में श्वेत करना चाहिए(सफेद) वस्त्र शांति, पीले वस्त्र लाभ, श्याम (काले, गहरे नीले) 1. सचित्त का त्याग :- . वस्त्र पराजय, लाल वस्त्र पूजक को मङ्गल की प्राप्ति कराते हैं। शरीर शोभा हेतु रखी गई पुष्पमालाएँ, सिर की वेणी, बालों अत: जिनपूजा एवं अन्य माङ्गलिक कार्यों में काले, गहरे नीले, गहरे में रखे गए फूल, मुकुट, कलगी, राज-चिह्न, जूते, मोजडी, जेब में कत्थई इत्यादि वस्त्र सर्वथा वर्जित किये जाते हैं। रखे तम्बाकू, मुखवास, मावा-मसाला, पान-सिगरेट, चाकलेट-पिपरमेंट, 5. भूमि शुद्धि : दवा-औषधि, छींकनी, सेंट, इत्र आदि समस्त पदार्थो का मंदिर में जिनालय निर्माण की जगह पाताल (पानी निकले या अतिशय प्रवेश करने से पूर्व त्याग करना चाहिए, इसे बाहर रखें या पेढी, पक्की भूमि मिले) अर्थात् भूमि में हड्डी, कोयले, राख, कांटे आदि चौकीदार आदि को सौंपना चाहिए। न हो, फटी हुई न हो, उसकी मिट्टी सुगंधी हो, अच्छे वर्णवाली 2. अचित्त का अत्याग :हो, निकट में सम्शानादि न हो, इत्यादि श्रेष्ठ भूमिगुण एवं प्रसन्नतायुक्त कभी भी खाली हाथ देव/गुरु के दर्शन के लिए नहीं जाया उत्तमभावदायक होनी चाहिए। जिस जगह पूजा की जाये वह जगह जाता अत: जिनपूजन हेतु यथाशक्ति धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, फूल, भी स्वच्छ, धूप से सुगंधित हो। पूजा के समय जिनबिंब नाभि फल, जल आदि लेकर जिनालय जाना चाहिए। से ऊपर एवं जमीन से डेढ हाथ ऊँचा अवश्य होना चाहिए, अन्यथा पूजक एवं उसके वंश की अवनति होती हैं।" द्रव्यपूजा करने से 30. अ.रा.पृ. 3/1283, 1284 पहले एवं चैत्यवंदन के बाद जिनमंदिर में रहा कचरा दूर करना भी 31. अ.रा.पृ. 3/1283 भूमि शुद्धि का अङ्ग हैं। 32. अ.रा.पृ. 3/1281 6. उपकरण शुद्धि : 33. अ.रा.पृ. 3/1283 परमात्मा की पूजा में प्रयुक्त किये जानेवाले तमाम उपकरणों 34. अ.रा.पृ. 3/1281-82; सात शुद्धि-चलो जिनालय चलें ___35. अ.रा.पृ. 3/1285-86, 3/1310-11 For Private & Personal use only www.janelibrary.org Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [368]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 3. उत्तरासन : पुरुष को जिनमंदिर में प्रवेश करने से पूर्व उत्तरासन (खेस) से अपने शरीर (कंधे) को अलंकृत करना चाहिए। बहनों को खेस के बजाय मर्यादापूर्ण वस्त्र पहनकर, सिर ढंककर मंदिर में प्रवेश करना चाहिए। 4. अंजलि : जिनालय प्रवेश करते ही जैसे ही देवाधिदेव की प्रशस्त मुखाकृति दिखे, वैसे ही दोनों हाथ ललाट पर जोडकर, मस्तक झुकाकर 'नमो जिणाणं' कहना, 'अञ्जलिबद्ध प्रणाम' नामक अभिगम है (बहनों को हाथ उंचे नहीं करना)। 5. प्रणिधान : जिनालय में जाने के बाद प्रभुभक्ति में मन की एकाकारता, तल्लीनता, तदाकारता, तन्मयता और आसक्ति का हो जाना 'प्रणिधान' अभिगम हैं। जिनमंदिर में त्याग करने योग्य 84 आशातनाएँ :जिन मंदिर की जघन्य दश आशातनाएँ : 1. पान-सुपारी खाना, 2. पानी पीना, 3. भोजन करना, 4. जूते पहनना, 5. स्त्री सेवन करना, 6. थूकना, 7. श्लेष्म फेंकना, 8. मूत्रत्याग करना, 9. मलत्याग करना, 10. जुआ खेलना - इन दस जघन्य आशातनाओं का अवश्य त्याग करना चाहिये। जैसा कि कहा गया है तंबोल पाण भोयण, वाणह मेहुन्न सुअण निट्ठवणं। मुत्तुच्चारं जुअं, वज्जे जिणनाह जगईए॥ शरीर में अशुद्धि होने पर भी पूजा करना, प्रतिमा का नीचे गिर जाना आदि 42 प्रकार की मध्यम आशातनाएँ हैं। जिनमंदिर की उत्कष्ट 84 आशातनाएँ : 1. नाक का मैल डालना, 2. जुआ, शतरंज, चौपड, ताश आदि खेलना, 3. लडाई-झगडे करना, 4. धनुष आदि कलाएँ सीखना, 5. कुल्ले करना, 6. पान-सुपारी आदि खाना, 7. पान की पीक मंदिर में थूकना, 8. गाली देना, 9. मल-मूत्र त्याग करना, 10. हाथ, पाँव, मुख आदि धोना, 11. बाल संवारना, 12. नाखून निकालना, 13. खून गिराना, 14. चढाई हुई मिठाई आदि खाना, 15. फोडे फुसी आदि की सूखी चमडी उतारकर फेंकना, 16. पित्त गिराना, 17. वमन करना, 18. दांत निकलने पर मंदिर में डालना, 19. आराम करना, 20. गाय, भैंस, ऊँट, बकरे आदि का दमन करना, 21 से 28 दांत-आंख-नाखून-गाल-कान-सिर व शरीर का मैल डालना, 29. भूत-प्रेत को निकालने हेतु मंत्र साधना करना, 30. वाद-विवाद करना, 31. अपने घर व व्यापार के हिसाब लिखना, 32. कर अथवा भाग का बँटवारा, 33. अपना धन मंदिर में रखना, 34, पाँव पर पाँव चढाकर बैठना, 35. गोबर के कंडे थापना, 36. कपडे सुखाना, 37. सब्जी आदि उगाना या मूंग, मोठ आदि सुखाना, 38. पापड सुखाना, 39. बड़ी साग-सब्जी, आचार सुखाना, 40. राजा आदि के भय से मंदिर में छूपना, 41. रिश्तेदार की मौत के समाचार सुनकर रोना, 42. विकथा करना, 43. अस्त्र-शस्त्र यंत्र बनवाना या सज्जा करना, 44. भैंस आदि रखना, 45. तापणी तपाना, 46. निजी कार्य के लिए मंदिर की जगह रोकना, 47. पैसे परखना, 48. निसीहि कहे बिना, अविधि से मंदिर जाना, 49-51. छत्र, जूते, शस्त्र, चामर (स्वय का) आदि मंदिर में ले जाना, 52. मन को एकाग्र न रखना, 53. शरीर पर तेल लगाना, 54, फूल आदि सचित वस्तुयें मंदिर के बाहर रखकर न जाना, 55. रोज पहनने के चेन, अंगूठी, चूडी आदि आभूषण पहने बिना (शोभाविहीन) जाना, 56. जिनदेव को देखते ही दोनों हाथ न जोडाना, 57. अखंड वस्त्र का दुपट्टा पहने बिना आना, 58. माथे पर मुकुट पहनना, 59. माथे पर पगडी में कपडा बांधना, 60. हार-माला आदि न उतारना, 61. शर्त लगाना, 62. लोग हँसे, एसी चेष्टाएँ करना, 63. मेहमान आदि को प्रणाम करना, 64. गुल्ली-डंडा खेलना, 65. तिरस्कार वाला वचन बोलना, 66. मंदिर में देनदार को पकड़कर पैसे निकालना, 67. युद्ध खेलना, 68. चोटी के बाल सँवारना, 69. पालथी लगाकर बैठना, 70. पाँव में लकडी के जूते पहनना, 71. पाँव लंबे-चौडे करके बैठना, 72. पाँव की मालिश करवाना, 73. हाथ-पाँव धोना, ज्यादा पानी गिराकर गंदगी करना, 74. मंदिर में पाँव या कपडे पर लगी धूल झटकना, 75. मैथुन क्रीडा करना, 76. खटमल-जूं आदि निकालकर मंदिर में फेंकना, 77. भोजन करना, 78. शरीर के गुप्त अंग ठीक से ढंके बिना बैठना, अंग दिखाना, 79. औषधि-पथ्य देना, 80. व्यापार या लेन-देन करना, 81. बिछौना बिछाना, झटकना, 82. पानी पीना या मंदिर का पानी लेना।, 83. देव-देवी की स्थापना करना, 84. स्नान करना - इन आशातनाओं से बचना चाहिये। जिनस्तव :जिनथुणणं (जिनस्तवनम्): स्तोत्र आदि के द्वारा जिनेश्वर परमात्मा के लोकोत्तर सद्भूत तीर्थंकर गुणवर्णन/गुणकीर्तन 'जिनस्तवन' हैं।” स्तव दो प्रकार का है - (1) द्रव्य स्तव और (2) भाव स्तव। पुष्प पूजादि द्रव्यस्तव है (जिसका पूर्व में वर्णन किया जा चुका है), जबकि सद्गुणोत्कीर्तन भावस्तव है।38 जिनेश्वर परमात्मा की भक्तिरुप शुभपरिणामप्रधान स्तवन (स्तव), शुभ अध्यवसायपूर्वक की स्तुति, परमार्थ पूजा, अध्यात्म पूजा, चारित्र में एकाग्रता, संयम, भावपूर्वक सर्वविरति, देशविरति धर्म में 'एकाग्रता'39, शील धर्म, तप धर्म और भाव धर्म 'भावस्तव' स्तुति : एक, दो, तीन श्लोक प्रमाण' या उत्कृष्टतम 108 श्लोक प्रमाण छन्दोबद्ध गेय रचना 'स्तुति' कहलाती हैं, एक से सात श्लोक पर्यन्त रचना 'स्तव' कहलाती हैं 43 और बहुश्लोक प्रमाण स्तव 'स्तोत्र' कहलाते हैं; यह जिनेश्वरों के ही होते हैं । 36. अ.रा.पृ. 2/506-7 37. अ.रा.पृ. 4/2414, 4/2413 38. अ.रा.पृ. 4/2383 39. अ.रा.पृ. 5/1515, 1516 40. अ.रा.पृ. 4/2385 41. अ.रा.पृ. 4/2383 42. वही 4/2313 43. अ.रा.पृ. 4/2383 ___44. अ.रा.पृ. 4/2419 For Private & Personal use only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन स्तव के प्रकार : स्तुति या स्तव दो प्रकार के होते हैं - (1) प्रणामरुपा अथवा (नमस्कार महामंत्र जपरुपा) और (2) असाधारण गुणोत्कीर्तनारुपा, लोकोत्तर सद्भूत तीर्थंकर गुणवर्णनपरा 145 स्तव का फल : जिन स्तव से शुभभाव, संवेग रस, मोक्षभिलाषा और समभाव की प्राप्ति होती हैं। जिनस्तुति विघ्नोपशामिनी, अभ्युदयकारिणी, देवगतिकारिणी, निर्वाणसाधिनी और दर्शन - ज्ञान - चारित्र - बोधिलाभादि फलदायिनी है । 46 इससे कोई दीर्घकाल में तो कोई स्वल्पकाल में मोक्ष को प्राप्त करता हैं।47 इस प्रकार भावस्तव का अनुभाव समस्त भवभ्रमणरुप भय का नाश करता है। 48 गुरुथुणणं (गुरुस्तवनम् ) : 'गृणाति यथावस्थितं शास्त्रार्थमिति गुरुः । 49 गुरु दो प्रकार के होते हैं- 1. लौकिक माता, पिता, कलाचार्य, पितामह, वृद्ध, और 2. लोकोत्तर- तीर्थंकर, गणधर, विद्यादायक, वाचनाचार्य, धर्मोपदेश, धर्मज्ञ, धर्मकर्ता, धर्मपरायण, धर्मशास्त्रार्थदेशक ( 51 लोकोत्तर गुरु तीर्थंकर, गणधर आचार्य, उपाध्याय और साधु ही वास्तविक गुरु हैं। इनकी स्तवना, भक्ति, विनय बहुमान, पूजादि, इष्टसंपादन, अभिमुखगमन, आसनप्रदान, पर्युपासना, अञ्जलिबद्ध प्रणाम, अनुगमन, गुर्वनुकूल प्रवृत्ति, गुरुभक्ति है। इससे गुरु-शिष्य की, और प्रकारान्तर से शासन की प्रशंसा ( स्तवना) होती हैं। 52 ये साधु धन्य है, पुण्यभागी है, इतने कठिन आचार का पालन करते हैं, मलमलिन वस्त्र धारण करते हैं, द्रव्य-व्यापार, अर्थोपार्जन आदि व्यवहार के सर्वथा त्यागी हैं, इन्होंने परहित में अपना चित्त एकाग्र किया हैं; आगमरुपी सरोवर में अपना चारित्र विशुद्ध किया हैं; ये एसे धर्मकथक हैं कि, इनके द्वारा कहे गए सुंदर मधुर वचन रस (युक्त कथा) को भव्यजन कमल में भ्रमरवत् पान करते हैं, ये परवादीरुप हस्ती को भेदने में सिंह समान हैं, ये शासन में तिलक समान हैं, धन्य हैं जिनके मुख काव्यों में सरस्वती नृत्य करती है, जिनमें से ललितसारयुक्त, छन्द-रस- अलंकारयुक्त सुंदर ध्वनि स्फुरित होती है, इन्होंने दुष्कर तप से काया को दुर्बल किया है, कामरुप अंधकार को नष्ट करने के लिए जिनका यही जन्म सूर्य के समान है, परसमय को छेदने में तर्क, ग्रंथ, परमार्थ कहने में ये शूरवीर हैं, ये कृतार्थ हैं, ये समर्थ शासन प्रभावक हैं, ये बुद्धि में बृहस्पति से भी बढकर है, ये संघ को कल्प्य देने में कल्पवृक्ष की तरह अनुज्ञादान देते हैं, ये शासनोद्धारक हैं; इत्यादि प्रकार के गुरु ( मुनि) भगवंतो के विमल गुणों की प्रशंसा करना 'गुरुथुणणं' कहलाता है। 53 वाचनाचार्य एवं गुरु की सुवर्णादि से पूजा करना, सर्वाऽम्बर युक्त चतुर्विध संघ सहित सन्मुख जाकर गुरु एवं संघ का यथोचित्त सत्कार करना, चातुर्मासादि कराना, आचार्यपदवी आदि के महोत्सव कराना - यह भी गुरु स्तवना / गुरुभक्ति के अन्तर्गत माना जाता है 154 जिनपूजा, जिनस्तवन, गुरुस्तवन भक्ति के ही स्वरुप हैं, अतः यहाँ प्रसंगवश 'भक्ति' का वर्णन किया जा रहा हैं। भक्ति (भक्ति) : भज् सेवायाम् धातु से क्तिन् प्रत्यय होकर स्त्रीलिङ्ग में 'भक्ति' शब्द निष्पन्न होता हैं। विभिन्न ग्रंथों के अनुसार आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने भक्ति के निम्न अर्थ किये हैं । षोडशक चतुर्थ परिच्छेद... [369] प्रकरण में ‘भक्ति' का अर्थ विनयपूर्वक सेवा करना हैं; प्रवचनसारोद्धार में सम्मुखगमन, आसनप्रदान, पर्युपासना, अंजलिबद्धप्रणाम, अनुव्रजन आदि भक्ति के लक्षण बताये हैं; निशीथचूर्णि में अभ्युत्थान, दंडग्रहण, पाद प्रमार्जन, आसनप्रदान, आसनग्रहणादि सेवा को भक्ति कहा हैं; वाचस्पति कोश में 'आराधना' को भक्ति कहा गया हैं; आवश्यक मलयगिरि में विनयकार्य में उचित प्रतिपत्ति को 'भक्ति' कहा हैं; आवश्यक मलयगिरि, गच्छाचार पयन्ना एवं धर्मसंग्रह में यथोचित बाह्य प्रतिपत्ति को 'भक्ति' कहा है; दशवैकालिक सूत्र में 'उचित उपचार' को भक्ति कहा हैं; उत्तराध्ययन एवं सूत्रकृतांग में अभ्युत्थानादि बहुमान को 'भक्ति' कहा हैं; संधारग पयन्ना में उचित आचारकृत्य को 'भक्ति' कहा हैं; धर्मसंग्रह प्रकरण में अनुराग को 'भक्ति' कहा हैं; आवश्यक बृहद्वृत्ति और दर्शन शुद्धि सटीक में अन्तःकरणादि प्रणिधान को 'भक्ति' कहा गया हैं 155 शाण्डिल्य भक्तिसूत्र के अनुसार "जगत का नियमन करने वाली किसी अचिन्त्य शक्ति के अमूर्त रुप की कल्पना करके अथवा इसके मूर्त प्रतीक के सन्मुख होकर उसके प्रति मनुष्य की रागात्मक भावना को 'भक्ति' कहते हैं। "56 ऋग्वेद के मंत्रों में देवता की स्तुतियाँ ही की गई हैं। यजुर्वेद यज्ञ के विविध स्वरुपों को प्रगट करता है। सामवेद में उच्च संगीतमय प्रस्तुति द्वारा देवताओं के आह्वान एवं भक्ति का विधान है। 57 महर्षि यास्क के अनुसार 'भक्तिर्नाम गुणकल्पना, बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति 18 स्वर उपनिषदों में भी भक्ति का वर्णन मिलता है। यथा (1) आत्मानंद में माधुर्य रस की संतों में प्राप्ति, 59 (2) उपासक की भावना के अनुसार उपास्य का स्वरुप" (3) श्रद्धा का महत्त्व " (4) गुरु का महत्त्व' 2 (5) शिष्य के लक्षण 3 (6) स्वाध्याय, तप, त्याग आदि भक्ति के अंगो का वर्णन 164 भक्ति के प्रकार : 45. 46. 47. 48. 49. 50. 51. 52. 53. 54. 55. 56. 'भगवान के नाम का जाप करना भी भक्ति हैं। ॐ जप 61. 62. अ.रा. पृ. 4/2413 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/75 अ.रा. पृ. 3/1285 अ.रा.पू. 4/2385 अ.रा. पृ. 5/1516 अ.रा. पृ. 4/934 अ.रा. पृ. 4/943 अ.रा. पृ. 3/928 अ. रा. पृ. 3/944 अ.रा. पृ. 5/1365 सा परानुरक्तिरीश्वरो । शाणिडल्य भक्तिसूत्र; सा त्वस्मिन् परमप्रेमरुपा । - नारद भक्तिसूत्र 57. रामभक्ति का विकास पृ. 29, 30 58. यास्क निरुक्त - 7/7/241 59. तैतरीय उपनिषद् - 7/12 60. छान्दोग्य उपनिषद् - 7/25/2 बृहदारण्यक उपनिषद् - 5/3 कठोपनिषद् -1/2/7-10 अ.रा. पृ. 3/936, 943 अ.रा. पृ. 3/936 63. मुण्डकोपनिषद् -1/21/2 64. छान्दोग्योपनिषद् -6/14 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [370]... વતુર્થ પરિચ્છે अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन यज्ञ हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने विचारामृत संग्रह के अनुसार भक्ति तीन प्रकार की बतायी गयी हैं :सात्त्विक भक्ति- अर्हत्शासन के सम्यक्त्व गुणश्रेणी के परिज्ञानपूर्वक, अपने भावोल्लास को नहीं त्यागते हुए, उपसर्ग में स्थिर रहकर, उत्कृष्ट उत्साहपूर्वक, फल की इच्छा के त्यागपूर्वक अरिहंत संबंधी भव्य पूजा, अङ्गरचना (आङ्गी) आदि नि:स्पृहभाव से सर्वस्व समर्पणपूर्वक यथाशक्य जो महोत्सव आदि भक्ति की जाती है वह सात्त्विक भक्ति हैं। जो उभयलोक में फलदायी हैं। राजसी भक्ति - संसार संबंधी फल की प्राप्ति या लोकरंजन हेतु कृतनिश्चय होकर जो भक्ति की जाती है, वह राजसी भक्ति हैं। तामसी भक्ति- ईर्ष्यापूर्वक, शत्रुतापूर्वक, इच्छापूर्ति हेतु जो भक्ति की जाये वह तामसी भक्ति है जो कि तत्त्वेत्ताओं को इष्ट नहीं हैं। इन तीनों में सात्त्विकी भक्ति उत्तम, राजसी मध्यम और तामसी भक्ति जघन्य हैं। राजसी एवं तामसी भक्ति प्राणियों के लिए सुलभ है जबकि मोक्षसुखदायिका सात्त्विकी भक्ति अतिदुर्लभ हैं।65 મf a Bત : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के अनुसार जिनेश्वर की भक्ति अनेक भवों से संचित ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का क्षय करती हैं। सिद्धि पद की प्राप्ति हेतु अरिहन्त-सिद्ध परमात्मा की भक्ति अवश्य करने योग्य हैं। आचार्य को नमस्कार करने से विद्या और मंत्र सिद्ध होते हैं। अत: आरोग्य, बोधिलाभ, समाधिमरण और अभिलषित अर्थ की सिद्धि हेतु सात्त्विकी भक्ति करनी चाहिए।66 तत्त्वार्थसूत्र में बहुश्रुतप्रवचनभक्ति तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध में कारणभूत કેદી 67 65. .રા.પૃ. 5/365 66. એ.રા.પૃ. 5/1365 67. તત્વાર્થસૂત્ર-6/23 હે મહાવીર ! મોહરૂપી મલ્લને જીતવામાં મહામલ્લ સમાન, પાપરૂપી કાદવને સાફ કરવા માટે નિર્મળ જળસમાન, અને કર્મરૂપી રજને ઉડાડી દેવા માટે મહાવાયુ સમાન એવા હે ભગવાન મહાવીર પ્રભુ! આપ જયવંતા વર્તો. દેવ-દાનવ અને નરેન્દ્રોથી હંમેશા વંદાતા, અચલ એવા પણ મેરૂના શિખરને કંપાયમાન કરનારા, કૈવલ્યરૂપી નેત્રો વડે સમસ્ત ચરાચર વિશ્વના ભાવોને જોનારા, અને જગતના બધા જ રૂપોને જિતનારા એવા હે વીર પરમાત્મા, આપ જયવંતા વર્તો ! મનુષ્યોમાં રહેલી મલિનતાને દૂર કરી પવિત્ર કરવા માટે નિર્મળ જલ સમાન, અને જેના ચરણોમાં હંમેશા આળોટી રહ્યા છે ઈન્દ્રો અને દેવેન્દ્રો એવા હે વર્ધમાન, આપના ચરણ કમલને હું મારા મસ્તક ઉપર ધારણ કરૂં છું. હે પ્રભુ આપના ચરણની રજથી જેના લલાટમાં ચિહ્ન થયું છે એવા આધિ, વ્યાધિ અને ઉપાધિથી રહિત બનેલા, નિષ્કલંકિત મનુષ્યોને શંકાશીલ સંસાર પણ સંઘરી શકતો નથી. અર્થાત્ જિનેશ્વર ભગવંતની હંમેશા ભાવપૂર્વક પૂજા-અર્ચના કરનાર મનુષ્યો સંસાર સમુદ્રથી તરી જાય છે. હે પ્રભો, મોક્ષમાર્ગની તળેટી સમાન, આપના ચરણ કમળના મૂળમાં જે લોકોનાં મસ્તકો હંમેશા આળોટે છે, તેઓનાં મસ્તકોને જ “ઉત્તમાંગ” કહેવાય છે. અર્થાત્ મસ્તકનું બીજનું નામ ઉત્તમાંગ છે, તે ખરેખર યથાર્થ છે! અને તે જ ધન્ય પુરૂષો જગતમાં દેવોને પણ વંદનીય બને છે. , હે દેવાધિદેવ, જે મનુષ્યો સુગંધી પુષ્પોની માળાથી આપના શરીરની સુંદર અંગરચના કરે છે, તે મનુષ્યોને ચામર આદિ ભોગની પ્રાપ્તિ થાય છે. અર્થાત્ રાજ્યપ્રાપ્તિ આદિ ભોગો પ્રાપ્ત થાય છે. હે પ્રભો ! જે લોકો પ્રભાતના સમયે આપની ભાવપૂર્વક સેવા પૂજા કરે છે, તે પુરૂષો આ લોકમાં સાધુ પુરુષોમાં પ્રસંશનીય બને છે. અને પરલોકમાં પણ સ્વયં પૂજનીય બને છે. વળી જે લોકો ત્રિશલાનંદન મહાવીર પરમાત્માના ચરણકમલની રજને મસ્તક ઉપર ધારણ કરે છે, તે લોકોનું મસ્તક નિર્મળ છત્રથી શોભે છે. અર્થાત્ રાજા ચક્રવર્તી આદિનું સામ્રાજ્ય પ્રાપ્ત થાય છે. જે ભવ્ય જીવો જિનેશ્વર ભગવંતના શક્તિશાળી નામરૂપી મહામંત્રનું નિરંતર ધ્યાન કરે છે, તે ભવ્ય જીવોના પાપકર્મોરૂપી કચરા બળીને ભસ્મ થઈ જાય છે અને મોક્ષરૂપી કલ્યાણની પ્રાપ્તિ થાય છે. સંસારના સીમાડારૂપ એવા ભગવંત, મારા મનરૂપી માનસરોવરમાં આપના ચરણકમલરૂપી હંસયુગલ હંમેશા કીડા કરતું રહો! અર્થાત્ ક્ષમાશીલ મહાવીર ! હંમેશા મારા મન મંદિરમાં વાસ કરનારા થાઓ. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [371] देशविरति सम्यक्त्व पूर्वक अणुव्रतादि बारह व्रतों को अङ्गीकार करना 'देशविरतित्व है। अभिधान राजेन्द्र कोश में अणुव्रतों का वर्णन करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि व्रत श्रावकाचार का आधारभूत तत्त्व हैं। अनैतिक आचार से विरति या हिंसादि पाँचों आस्रवों से विरति ही व्रत हैं। व्रत वस्तुत: वह धार्मिक कृत्य या प्रतिज्ञा है, जिसके पालन से व्यक्ति अशुभ से मुक्त होता है तथा शुभ और शुद्धत्व की यात्रा करता है। व्रत दो प्रकार के हैं - (1) महाव्रत और (2) अणुव्रत महाव्रतों का विस्तृत वर्णन पूर्व में किया जा चुका है अतः यहाँ सप्रसंग अणुव्रतों का वर्णन अपेक्षित हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश एवं अन्य जैनागम ग्रंथो में श्रावक के 12 व्रतों का वर्णन किया गया है, जिसका विभाजन इस प्रकार हैं - (1) पाँच अणुव्रत (2) तीन गुणव्रत (3) चार शिक्षाव्रत ।' अणुव्रत : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने कहा है कि, "श्रावक योग्य देशविरतिरुप स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत आदि या स्थूल अहिंसादि पाँच अणुव्रत कहे जाते हैं।''4 ये महाव्रतों की अपेक्षा लघु होते हैं। महाव्रतों की अपेक्षा इनका वर्णन विषय अल्प होता है तथा जैनागमों में जिनेश्वर देवने महाव्रतों के पश्चात् इनका (अणुव्रतों का) उपदेश दिया हैं अतः इन्हें 'अणुव्रत' कहते हैं। जिनेश्वरदेवने कृत, कारित इन दो करणों और मन-वचन काय रुप तीन योगों के द्वारा स्थूल हिंसा और दोषों के त्यागपूर्वक अहिंसा आदि को पाँच अणुव्रत कहा हैं । 'आतुर प्रत्याख्यान' के अनुसार प्राणिवध (हिंसा), मृषावाद (असत्य वचन), अदत्तादान (चोरी), परस्त्रीसेवन (कुशील) तथा अपरिमित कामना (परिग्रह) - इन पाँचों से विरति 'अणुव्रत' हैं। गुणव्रत : जो अणुव्रत के पालन में उपकारी (गुणकारी) या सहायक होते हैं अत: इन्हें गुणव्रत कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में (1) दिक्परिमाणव्रत (2) भोगोपभोगविरमण व्रत और (3) अनर्थदण्डविरमण व्रत - इन तीनों को गुणव्रत कहा हैं। शिक्षाव्रत : श्रावक का लक्ष्य है श्रमण धर्म की ओर बढना । इन व्रतों में श्रावक श्रमणधर्म का अभ्यास या शिक्षा प्राप्त करता हैं अतः इन्हें 'शिक्षाव्रत' कहते हैं। ये शिक्षाव्रत चार हैं - (1) सामायिक व्रत (2) देशावगाशिक व्रत (3) पौषधोपवास व्रत और (4) अतिथिसंविभाग व्रत। यहीं पर आचार्यश्रीने सात शिक्षाव्रतों का भी निर्देश किया है जो कि, गुणव्रतों के भी नित्य अभ्यसनीय होने की अपेक्षा से कहा हैं। क्रमभिन्नता में आचार्यों की विवक्षा की कारणता : यद्यपि अणुव्रतों के नाम और क्रम सभी ग्रंथों में समान है परंतु गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों के अभिधान राजेन्द्र कोश में जो क्रम दिया है उनमें और अन्य ग्रंथो में कहीं समानता तो कहीं भेद भी प्राप्त हो रहा है जो निम्नानुसार है - उपासकदशांग सूत्र, योगशास्त्र, और श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र/वंदिता सूत्र में गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का क्रम अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार ही हैं।12 तत्त्वार्थ सूत्र में (1) दिग्व्रत (2) देशावकाशिक व्रत और (3) अनर्थदण्ड व्रत - इन तीनों को गुणव्रत और (1) सामायिक (2) पौषधोपवास (3) भोगोपभोग (उपभोग-परिभोग) परिमाण और (4) अतिथिसंविभाग - इन चारों को शिक्षाव्रत कहा है । आतुरप्रत्याख्यान में (1) दिग्व्रत (2) अनर्थदण्ड और (3) देशावगाशिक व्रत को गुणव्रत और (1) भोगोपभोग परिमाण (2) सामायिक (3) अतिथिसंविभाग और (4) पौषधोपवास - इन चारों को शिक्षाव्रत कहा हैं।।4 रत्नकरंडक श्रावकाचार में (1) दिग्व्रत (2) अनर्थदण्ड व्रत और (3) भोगोपभोगपरिमाण व्रत - इन तीनों को गुणव्रत और (1) देशावगाशिक (2) सामायिक (3) पौषधोपवास (4) वैयावृत्त्य - इन चारों को शिक्षाव्रत कहा हैं।15 कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में 1. दिग्व्रत 2. अनर्थदण्डविरमण व्रत और 3. भोगोपभोग परिमाण व्रत - ये तीन गुणव्रत और 1. सामायिक 2. प्रोषधोपवास 3. अतिथिसंविभाग और 4. देशावगाशिक व्रत - इन चारों को शिक्षाव्रत कहा हैं। यहाँ इन भिन्नताओं में कारण आचार्यों की विवक्षा की विचित्रता मात्र है, विरोध कुछ भी नहीं है। इनमें पं. आशाधरने धर्मामृत सागार में रात्रिभोजनत्याग को छटा अणुव्रत कहा है, जबकि, अन्य सभी आचार्योने इसे भोगोपभोगपरिमाण व्रत के अन्तर्गत माना हैं। इन स्थूल प्राणातिपातादि बारह व्रतों की सार्थकता उनका 1. अ.रा.प. 1/417; तत्त्वार्थसूत्र-7/1; रत्नकरण्ड श्रावकाचार-49 2. अ.रा.पृ. 6/1416: रनकरण्ड श्रावकाचार 50 3. अ.रा.पृ. 1/417; 7/785; श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति-6; योगशास्त्र-2/1%; सागारधर्मामृत 13/4; रनकरण्ड श्रावकाचार 51; चारित्र पाहुड-2; कातिकेय अनुप्रेक्षा-330 4. अ.रा.पृ. 1/417; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा-305 5. अ.रा.पृ. 1/416, 418; रनकरण्ड श्रावकाचार 52 सागारधर्मामृत 13/5; अमितगति श्रावकचार-6/19; पुरुषार्थसिद्धयुपाय 76 7. आतुर प्रत्याख्यान-3 8. अ.रा.पृ. 3/; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा, भावार्थ, पृ. 155 9. अ.रा.पृ. 7/812 10. अ.रा.पृ. 7/812; आवश्यकचूणि, अध्ययन-6 11. अ.रा.पृ. 7/812; धर्मसंग्रह 2/2. आतुर प्रत्याख्यान-2 12. योगशास्त्र 2/1-4-74; उपासक दशांग-अ.1; वंदित सूत्र, श्रावक प्रतिक्रमण 13. तत्त्वार्थ सूत्र-7/16 14. आतुर प्रत्याख्यान-4,5 15. र.क.श्रा. 67, 91 16. कार्तिकेय अनुप्रेक्षा-342 से 368 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [372]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सम्यक्त्व सहित/श्रद्धापूर्वक होना हैं।" क्योंकि अभिधान राजेन्द्र (घ) सापराध हिंसा दो प्रकार से - गुरु अपराध - लघु कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि 'सम्यक्त्व' श्रावकधर्म का मूल अपराध - हैं। सम्यक्त्व रहित अणुव्रतादि श्रावकधर्म, किया गया नमस्कार, अपराधी का अपराध बहुत अधिक है या अल्प, इसका गुणोत्कीर्तन, जिनवन्दन, जिन-पूजा (अर्चन) आदि भी करनेवाले चिन्तन करना। अभिग्रहधारी श्रावक 'श्रावकाभास' है; उन्हें ही श्रावक धर्म का (डा सापराध हिंसा दो प्रकार से - 'पार्श्वस्थ' (पासत्था) कहते हैं। आनंदादि श्रावकोंने भी भगवान (1) निरपेक्ष - बिना किसी कारण के हिंसा करना । से प्रथम सम्यक्त्व व्रत अंगीकार करने के बाद ही अन्य अहिंसादि (2) सापेक्ष - निरपराधी परंतु अतिशय प्रमादी पुत्रादिक 12 व्रत अंगीकार किये थे।20 अतः यहाँ भी द्वादशव्रत के पूर्व को तथा भेस-वृषभादि को रस्सी आदि सर्वप्रथम सम्यक्त्व व्रत का वर्णन करना प्रसंगोचित होने से सम्यक्त्व से बाँधना। व्रत का वर्णन किया जा रहा हैं। यदि सम्पूर्ण जीवदया के 20 भाग किये जाये तो 20 भाग सम्यक्त्व व्रत : जीवदया पूर्ण दया हैं; 10 भाग अर्ध दया; 5 भाग चतुर्थाश दया, मिथ्यात्व के त्यागपूर्वक मोहनीय कर्म के क्षय/उपशम/क्षयोपशम ढाई भाग अष्टमांश दया और सवा भाग षोडशांश दया - इस प्रकार होने पर प्रशमादि लिङ्गपूर्वक जिनोक्त तत्वों में श्रद्धारुप शुभ आत्मपरिणाम जीवदया के भेद हैं। इसमें से श्रावक 'स्थूल-त्रस निरपराधी जीवों की प्राप्ति होने पर निम्नाङ्कित विधि-निषेधरुप आचार का पालन श्रावक को बिना कारण (निरपेक्ष) संकल्पपूर्वक (मारने की बुद्धि से) मारूँगा का सम्यक्त्व व्रत है। सुदेव-सुगुर-सुधर्म में श्रद्धा रखना, मिथ्यात्व नहीं, मरवाऊँगा नहीं' - इस प्रकार सवा भाग अर्थात् षोडशांश जीवदया का (मिथ्याश्रद्धान), मिथ्याज्ञान का और कुदेव-गुरु-कुधर्म का त्याग के पालन की प्रतिज्ञापूर्वक 'स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत या अहिंसाणुव्रत की प्रतिज्ञा करता हैं। करना, अन्यतीर्थिक, चरक, परिव्राजक, भिक्षु, संन्यासी आदि, रुद्रविष्णु-बुद्ध आदि अन्यतीर्थिक देवता तथा अन्यतीर्थिकों के द्वारा गृहीत गृहकार्य, कृषिकार्यादि में श्रावक के द्वारा पृथ्वीकायादि जीवों जिनप्रतिमा, तथा वीरभद्र, महाकालादि को वंदन-नमन-गुणोत्कीर्तनादि की हिंसा, व्यापारादि में आरंभ जनित हिंसा, सामाजिक, राष्ट्रीय व्यवस्था नहीं करना; उनके साथ आलाप-संलाप, आहार-दान आदि नहीं करना; को बनाये रखने हेतु आपराधिक हिंसा, पारिवारिक शांति एवं व्यवस्था यदि राजा-गण-बल-देवता-वृद्धजन या आजीविका के हेतुभूत होने तथा गृहस्थ जीवन की व्यवस्था हेतु सापेक्ष हिंसा का सर्वथा त्याग पर एसा करना भी पड़े तो भी मोक्षदाता देवगुरु-धर्म के रुप में संभव नहीं होता, फिर भी श्रावक हमेशा निरर्थक हिंसा से दूर रहता श्रद्धा नहीं करना आदि निषेधपरक आचार हैं। हैं और सकारण हिंसा से भी बचने का प्रयत्न करता है ।24 लाभ :सम्यक्त्व के पाँच अतिचार : __इस व्रत के पालन से आरोग्य, अप्रतिहत उदय (उन्नति), (1) शंका (2) कांक्षा (3) विचिकित्सा (4) परपाषण्डप्रशंसा और (5) परपाषण्ड संस्तव (सम्यक्त्व विषयक विस्तृत वर्णन प्रस्तुत आज्ञाकारित्व (एश्वर्य, स्वामित्व), अनुपम रुप-सौंदर्य, उज्जवल कीर्ति, शोध प्रबंध में परिच्छेद 4 क (2) पर किया गया हैं)- ये सम्यक्त्व धन, यौवन, निरुपक्रमी दीर्घायुष्य, भद्रप्रकृतियुक्त परिवार, पुण्यशाली के पांच अतिचार हैं ।22 पुत्र आदि चराचर विश्व की श्रेष्ठ वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। यह सब जीवदया पालन का फल हैं।25 स्थूल प्राणातिप्रातविरमण व्रत : हानि :यहाँ स्थल प्राणातिपात विरमण व्रत के बारे में चर्चा करने जीवहिंसा करने से व्यक्ति को पङ्गता, कुणिता, कोढादि से पूर्व हम हिंसा-अहिंसा के भेद-प्रभेद पर दृष्टिपात करेंगे। महारोग, प्रियवियोग, शोक, अपूर्णायु/अल्पायु, दुःख, दुर्गति, नरक(क) हिंसा दो प्रकार से - स्थूल और सूक्ष्म : तिर्यंचगति और अनंतसंसार भ्रमण प्राप्त होते हैं।26 अत: विवेकी पुरुषों (1) स्थूल - द्विन्द्रियादि त्रस जीवों की हिंसा। को त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करना चाहिए इतना ही नहीं (2) सूक्ष्म - पृथ्वीकायादि पाँचों एकेन्द्रियों के बादर अपितु अहिंसा धर्म के ज्ञाता मोक्षाभिलाषी श्रावक स्थावर जीवों की जीव (सूक्ष्म एकेन्द्रिय अवध्य होने से) भी निरर्थक हिंसा न करें।27 की हिंसा। हिंसा की निंदा करते हुए आचार्य हेमचन्द्रने कहा है कि, (ख) स्थूल हिंसा दो प्रकार से : संकल्पजा - आरम्भजा (1) संकल्पजा - माँस, अस्थि, चमडी, नख, केश, दाँत 17. अ.रा.पृ. 7785; श्रावक प्रतिक्रमण, पाक्षिक अतिचार, अन्तिम अनुच्छेद आदि का व्यापार। 18. अ.रा.पृ. 7/497 19. अ.रा.पृ. 1/417 (2) आरम्भजा - कृषि आदि संबंधी। 20. उपासक दशांग-1 अध्ययन (ग) आरम्भजनित हिंसा दो प्रकारसे : निरपराध - सापराध 21. अ.रा.पृ. 7/496, 497; रत्नकरण्ड श्रावकाचार, सम्यग्दर्शनाधिकार (1) निरपराध हिंसा - जिसने किसी प्रकार का अपराध 22. अ.रा.पृ. 7/497 नहीं किया हो। 23. अ.रा.पृ. 5/846 (2) सापराध हिंसा - जिसने व्रती का कुछ अपराध किया 24. अ.रा.पृ.5/847 25. अ.रा.पृ. 5/846 हो या देश, समाज, धर्म को हानि 26. वही पहुँचाता हो। 27. योगशास्त्र-2/19-20-21 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन "हिंसा से विरक्त व्यक्ति अपंग एवं रोगी होते हुए भी हिंसारत सर्वाङ्ग सम्पन्न व्यक्ति से श्रेष्ठ है। विघ्नशांति हेतु की गई हिंसा भी विघ्नों को उत्पन्न करती है और कुलाचार पालन हेतु की गई हिंसा कुल का विनाश कर देती हैं। हिंसा के परित्याग के बिना मनुष्य का इन्द्रिय दमन, देवोपासना, गुरुसेवा, दान, अध्ययन और तप- ये सब निरर्थक हैं, निष्फल हैं 128 - स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत के अतिचार :(1) वघ डंडा, बेंत, चाबुक आदि से प्राणियों का घात करना, अपने पालतु पशुओं तथा परिजनों (परिवार के लोग, बच्चें या नौकर-चाकरादि) को पीडा पहुँचाना, तथा कठोर एवं अपमानजनक शब्दों का प्रयोग कर किसी को पीडा पहुँचाना । (2) बंधन - पालतू पशु-पक्षियों को वे हिल-डुल भी न सकें तथा विपत्ति के समय प्राण-रक्षा के लिए भी भाग न सकें, इस तरह बाँधना 'बंधन' नामक अतिचार हैं। (3) छेदन दुर्भावनापूर्वक पालतु पशु-पक्षियों के नाक-कान आदि छेदना, नकेल लगाना, नाथ देना आदि 'छेदन' नामक अतिचार हैं। - (4) अतिभारारोपण - दुर्भावनावश अपने आश्रित कर्मचारि पर या पशुओं पर उनकी क्षमता से अधिक भार लादना या उनसे शक्ति से अधिक काम लेना आदि 'अतिभारारोपण' नामक अतिचार हैं। ( 5 ) अन्नपान निरोध (भत्त-पाण व्युत्सर्ग) - दुर्भावनावश पशु-पक्षियों के या अपने आश्रितों के अन्नपान का निरोध करना, उन्हें जान-बूझकर भूखा रखना, समय पर उनके लिए भोजन - पानी की व्यवस्था न करना 'अन्नपान-निरोध' हैं। स्थूल मृषावाद विरमण व्रत : गृहस्थ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वेष, हास्य, भय, लज्जा, क्रीडा, रति, अरति, दाक्षिण्य, मात्सर्य, विषाद आदि के कारण तथा हर्ष शोक; कार्यादि में नियत होने के कारण और प्राणवध तथा प्राणिवधादि कारण से झूठ बोलता हैं। 30 वह झूठ चार प्रकार का हैं(1) भूत निह्नव नास्ति आत्मा' इत्यादि (2) अभूतोद्भावन- 'आत्मा श्याम तण्डुल जैसा है' इत्यादि (3) अर्थान्तर 'गाय' को 'अश्व' कहना (4) गर्हा 1 - गर्हा तीन प्रकार की होती हैं। - (क) सावद्य व्यापार प्रवर्तिनी - 'खेत जोतिये' इत्यादि । (ख) अप्रिय काने को 'काना' है एसा कहना । (ग) आक्रोशयुक्त भाषा - अपशब्द इत्यादि । - परंतु अहिंसा की उपासना के लिए सत्य की उपासना अनिवार्य है। सत्य के बिना अहिंसा नहीं और अहिंसा के बिना सत्य नहीं। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। तथापि गृहस्थ जीवन में झूठ का सर्वथा त्याग संभव नहीं है। इसलिए उसे स्थूल झूठ का ही त्याग करवाया जाता हैं। 32 अभिधान राजेन्द्र कोश एवं 'सावयपण्णत्ति' आदि ग्रंथो के अनुसार कन्या- अलीक, गो- अलीक व भूमि- अलीक अर्थात् कन्या, गौ और भूमि के विषय में झूठ बोलना, किसी की धरोहर दबा लेना और झूठी गवाही देना - इनका त्याग स्थूल मृषावाद विरति हैं। 33 चतुर्थ परिच्छेद... [373] जिसके बोलने से दूसरों को पीडा अति पीडा या अति क्लेश हो या अनर्थ हो वह भी स्थूल मृषावाद हैं। 34 श्रावक इसका भी त्याग करता है। सत्याणुव्रती श्रावक को असत्य वचन, तिरस्कारयुक्त वचन, झिडकते हुए वचन, कठोरवचन, अविचारपूर्ण वचन और क्लेशकारी वचन नहीं बोलने चाहिए। 35 क्योंकि अलीक वचन नीचताकारक, भयंकर, दुःखकर, अपयश: कर, वैरजनक, रति- अरति; राग-द्वेष और संक्लेशजनक, निष्फल, नीचजनसेवित, प्रशंसारहित, विश्वासरहित, पीडाकारक, अतितीव्रकृष्णलेश्यायुक्त, दुर्गतिदायक, संसारवृद्धिकारक और अधर्मकारक होता हैं । 36 लाभ : सत्यवक्ता महासमुद्र में भी नहीं डूबता हैं। पानी के भँवर में फँसता नहीं है। अग्नि में जलता नहीं है। उष्ण तेल भी उसके लिए शीतल जल हो जाता हैं। पर्वत से गिराने पर भी वह मरता नहीं है। युद्ध में हंमेशा विजय प्राप्त होती हैं। 37 उनकी चरणरज से पृथ्वी पावन बनती हैं। 38 पूर्वकर्मवश यदि वह आत्मा दुर्जन, शत्रु या हिंसको के मध्य फँस भी जाय तो भी, निर्दोष छूटता है इतना ही नहीं, देवीदेवता सपरिवार उनका सान्निध्य करते हैं । 39 हानि : अलीक वचन से जीव वेदना, दुःख, संकट, नरक-तिर्यंच गति, परवशता, अर्थभोगहानि, मित्ररहितता, देहविकृति, कुरुपता, अतिकर्कश स्पर्श, श्याम रंग, आभारहितता, असारकाया, बधिरत्व, अंधत्व, मूकत्व, तोतलापन, लोकनिंदा, दासता, किंकरत्व, अज्ञान, अशान्ति, अपमान, प्रेमनाश, परिवार क्षय, कलंक, कठोर वचन श्रवण, कुभोजन, कुवस्त्र, कुस्थानादि को प्राप्त करता हैं । 40 कन्यादि के विषय में झूठ बोलने पर प्राणहिंसा, वैर - विरोध, भोगांतराय की प्राप्ति होती हैं। समाज में मान्यता, पूजा - आदर-सत्कार, प्रतिष्ठादि का नाश होता है।" न्यासापहार से विश्वासघात एवं कुटसाक्षी से पुण्य का नाश होता हैं । 42 परभव में कन्दर्प, अभियोगिकादि निम्न देवगति में जन्म और वहाँ से दूसरे भव में मनुष्य गति में यदि जन्म हो भी जाय तो भी भवान्तर में उसका जीवन हास्यास्पद और निंदनीय बनता हैं 143 28. वही-2/28-31 29. 30. 31. 32. 33. 34. 35. 36. 37. 38. 39. 40. अ.रा. पृ. 5/847; तत्त्वार्थ सूत्र - 7 / 21; सावय पण्णत्ति - 258 अ.रा. पृ. 1/773, 6/455; स्थानांग - 10/3 अ. रा. पृ. 1/773 अ.रा. 6/326. 1/773 र.क. श्री. 55 अ. रा. पृ. 1/773, 6/326-327; सावयपण्णत्ती-260-262 अ.रा. पृ. 1/773 स्थानांग-6/3 41. 42. अ. रा.पू. 1/773 अ. रा.पू. 6/228 योगशास्त्र -2/63 अ.रा.पु. 6/228 अ.रा. पृ. 1/783, 784 अ.रा. पृ. 1/778; 6/327 योगशास्त्र -2/55 43. अ.रा.पू. 6/332 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [374]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के अतिचार : अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के निम्नाङ्कित पाँच अतिचार हैं(1) सहसाभ्याख्यान - सहसा किसी प्रकार आगा-पीछा सोचे बिना एकदम किसी पर झूठा दोष या मिथ्या कलंक मढ देना, झूठ-मठ अपराध लगा देना, जैसे 'तू ही तो चोर हैं', तू परस्त्रीगामी है' इत्यादि रुप से कहना। -'सहसाभ्याख्यान' कहलाता हैं। रहस्याभ्याख्यान - राज्यादि कार्य संबंधी गुप्त बातों को बिना उपयोग के अनजाने में प्रकट कर देना, विश्वस्त व्यक्ति की गुप्त बात प्रकट करना, किसी की गुप्त बात, गुप्त मंत्रणा और गुप्त आकार आदि प्रगट करना 'रहस्याभ्याख्यान' हैं। (3) स्वदारा-मंत्रभेद - स्वयं की स्त्री की एकान्त अवस्था के स्वरुप या स्वपत्नी के द्वारा एकान्त में कही हुई बात दूसरों को कह देना 'स्वदारामन्त्रभेद' हैं। (4) मिथ्योपदेश - असत् उपदेश/असत्य के प्रत्याख्यान व सत्य के नियम लेनेवालों के लिए परपीडाकारी बोलना, सच्चा झूठा समझाकर किसी को उल्टे रास्ते डालना - यह मिथ्या उपदेश हैं। (5) कूटलेख - झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज बनाना, दूसरे के हस्ताक्षर जैसे अक्षर बताकर लिखना अथवा नकली हस्ताक्षर कर देना, पाँचवां अतिचार है। मोहर, हस्ताक्षर आदि द्वारा झूठी लिखा-पढी करना तथा खोट सिक्का चलाना आदि कूटलेख क्रिया हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में स्थूल मृषावादविरमण व्रत के 1. मिथ्योपदेश 2. रहस्याभ्याख्यान 3. कूटलेख क्रिया 4. न्यासापहार और 5. साकारमन्त्र भेद - ये पाँच अतिचार बताये हैं।45 रत्नकरंडक श्रावकाचार में इस व्रत के 1. परिवाद (मिथ्योपदेश) 2. रहोभ्याख्यान 3. पैशुन्य 4. कूटलेखकरण और 5. न्यासापाहार - ये पाँच अतिचार बताये हैं।46 योगशास्त्र में इस व्रत के 1. मिथ्योपदेश 2. सहसाभ्याख्यान 3. गुह्यभाषण 4. साकारमंत्र भेद और 5. कूट लेख - ये पाँच अतिचार दर्शाये हैं। स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत: जिस पर अपना स्वामित्व नहीं हो - एसी किसी भी पराई वस्तु को उसके स्वामी आदि की बिना अनुमति के ग्रहण करना अदत्तादान/चोरी हैं। श्रावक तृतीय अणुव्रत में एसी स्थूल चोरी का त्याग करता हैं।48 इस व्रत को अस्तेयाणुव्रत या अचौर्याणुव्रत भी। कहते हैं। स्थूल अदत्तादान दो प्रकार से हैं : सचित्त और अचित्त । सचित्त- द्विपद, चतुष्पद, क्षेत्रादि का ग्रहण । अचित्त- वस्त्र, सुवर्ण, रत्नादि का ग्रहण ।9. स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत धारक श्रावक सचित्त-अचित्त दोनों प्रकार की स्थूल चोरी का त्याग करता हैं। वह मार्ग में पडी हुई, रखी हुई या किसी की भूली हुई अल्प या अधिक मूल्यवाली किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करता 150 अचौर्यव्रती एसी समस्त चोरियों का त्याग करता हैं जिसे करने से राजदण्ड भोगना पडता हैं; समाज में अविश्वास बढता है; तथा प्रामाणिकता खंडित होती हैं या प्रतिष्ठा को धक्का लगता हैं। किसी को ठगना/ जेब काटना /ताला तोडना /लूटना /डाका डालना, दूसरों के घर में सेंघ लगाना, किसी की संपत्ति हडप लेना, किसी का गडा धन निकाल लेना आदि स्थूल चोरी के उदाहरण हैं। लाभ : अदत्तादान का त्याग प्रत्यक्ष प्रवचन (जिनवचन) हैं। इससे व्रती का कल्याण होता हैं, जीवन शुद्ध होता हैं, सरलता प्राप्त होती हैं। वह शीघ्र ही समस्त दुःख और पापकर्मो का क्षय करता हैं ।।। लक्ष्मी स्वयंवरा की तरह चली आती हैं। उनके समस्त अनर्थ दूर हो जाते हैं। सर्वत्र उनकी प्रशंसा होती हैं और उन्हें स्वर्गादि सुख प्राप्त होते हैं।52 हानि : चोरी करने से या चोर को सहयोग देने से इस लोक में राजदण्ड, वध, अङ्गछेदन, कारावास, देशनिकाला, बंधन, उत्पातनमर्दन, स्वजनादि का वियोग, धिक्कार, लोकनिंदा, वेदना, व्याधि, अकालवृद्धत्व, अनिष्ट वचन, कुत्सितदेह और अंत में नरक गति तथा पर भव में अनार्यत्व, हीनकुल, नीचगोत्र, पशुवद् जीवन, जडबुद्धि, धर्महीनता, मिथ्यात्व और गंभीर दुःख के साथ अनंत संसार भ्रमण प्राप्त होता हैं।53 अचौर्य/स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के पाँच अतिचारु :(1) स्तेनाहत - चोर के द्वारा चोरी की गई वस्तु को खरीदना या अपने घर में रखना, चोरी का माल खरीदना, चोरी करने के समान ही दूषित प्रवृत्ति हैं। तस्कर प्रयोग - व्यक्तियों को रखकर उनके द्वारा चोरी, ठगी आदि करवाना अथवा चोरों को चोरी करने में विभिन्न प्रकार से सहयोग करना। (3) विरुद्ध राज्यातिक्रम - राजकीय नियमों का उल्लंघन करना, राजकीय आदेशों के विपरीत वस्तुओं का आयात-निर्यात करना तथा समुचित राजकीय कर का भुगतान नहीं करना। विरोधी राज्यों में जाकर गुप्तचर का काम करना, निश्चित सीमातिक्रमण के द्वारा दूसरे राज्यों की भूमि हडपने का प्रयास करना अथवा बिना अनुमति के दूसरे राज्य में प्रवेश करना। (4) कूटतुला-कूटमान - न्यूनाधिक मापतौप करना, मापतौल में बेईमानी करना भी चोरी हैं। गृहस्थ को न्यूनाधिक मापतौल नहीं करते हुए प्रामाणिक मापतौल करना चाहिए। 44. अ.रा.पृ. 6/326; सावय पण्णत्ति-260-262 45. तत्त्वार्थ सूत्र 7/22 46. रत्नकरण्ड श्रावकाचार-56 47. योगशास्त्र-3/91 48. अ.रा.पृ. 1/540; उपासक दशांग-अ.1 49. अ.रा.पृ. 1/540 50. र.क.श्रा.-57 51. अ.रा.पृ. 1/543 52. योगशास्त्र-274, 75 53. अ.रा.पृ. 1/535, 536; योगशास्त्र-2/68 से 73 54. अ.रा.पृ. 1/540; र.क.श्रा.-58; तत्त्वार्थ सूत्र-7/23 पर तत्त्वार्थ भाष्य; सावय पण्णत्ति-268 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (5) तत्प्रतिरूपक व्यवहार वस्तुओं में मिलावट करना, अच्छी वस्तु दिखाकर बुरी वस्तु देना । स्थूल मैथुनविरमण व्रत : दिव्य और औदारिक काम भोगों का कृत-कारितपूर्वक मनवचन काया से सर्वथा त्याग ब्रह्मचर्य कहलाता हैं 155 गृहस्थ स्वयं के अनियन्त्रण के कारण पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण नहीं कर पाता अतः कामसेवन की मर्यादापूर्वक स्वस्त्री में ही संतोष करना तथा परस्त्री का त्याग करना 'स्थूल मैथुन विरमण व्रत' हैं 156 इसे ही ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदार संतोषव्रत कहते हैं 157 इस व्रत के धारक पुरुष अपनी पत्नी के अलावा शेष सभी स्त्रियों को माता, बहन या पुत्री की तरह समझता है तथा पत्नी अपने पति के अलावा अन्य सभी पुरुषों को पिता, भाई या पुत्र की तरह समझती हुई दोनों एक-दूसरें के साथ ही संतुष्ट रहते हैं । 58 इतना ही नहीं, अकाल (मैथुन के अयोग्य काल) में स्वस्त्री का भी त्याग करता हैं, क्योंकि ऋतुकाल को छोडकर जो अकाल में स्वस्त्री का भी सेवन करता है, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है और दिनप्रतिदिन सूतक लगता हैं। 59 लाभ : इस व्रत का पालन महाफलदायी हैं। इस व्रत को धारण करने से व्रती साधक को पापकर्मों का बंध नहीं होता । देव-देवेन्द्र इनके चरणों में नमस्कार करते हैं। परलोक में उच्च देवगति, पंचविध भोग सामग्री और प्रियसंयोगादि सुख प्राप्त होते हैं तथा परंपरा से मोक्ष प्राप्त होता हैं। 60 इतना ही नहीं इस व्रत के धारक की भक्ति से चारों विद्याओं की भक्ति का फल प्राप्त होता हैं । 1 हानि : स्वदारा संतोष व्रत का पालन नहीं करने पर परस्त्री विधवावेश्या - कुमारिका का सेवन, पशुमैथुन, हस्त मैथुन, समलिङ्गि मैथुन आदि का त्याग नहीं करने से अत्यन्त हानि होती हैं; गाढ कर्मो का बंधन होता है; कुल का नाश होता हैं; 2 पृथ्वीकायादि षट्कायिक जीवों की हिंसा होती हैं, नरक गति प्राप्त होती हैं; परलोक में नपुंसकत्व, विरुपत्व, प्रियवियोगादि दोष प्राप्त होते हैं। 64 परस्त्रीगमन और अमर्यादित कामसेवन यावज्जीव दुष्ट विनाशकारी फलदायक हैं, अंत में दुर्गतिदायक हैंण्ड, अधर्म का मूल हैं और संसारवृद्धि का कारण हैं, अतः सज्जनों के लिए विषाक्त अन्नवत् त्याज्य हैं।“ परस्त्रीगमन के कारण ही महाबली रावण भी अपने कुल का विनाश कर नरक में गया। 67 जिस प्रकार से परस्त्रीगमन त्याज्य हैं वैसे ही पर-पुरुष सेवन भी त्याज्य हैं। ऐश्वर्य से कुबेर समान और रुप से कामदेव समान सुन्दर होने पर भी स्त्री को परपुरुष का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिये जैसे सीताने रावण का त्याग किया था। 68 स्थूल मैथुन विरमण व्रत के पाँच अतिचार : (1) इत्वरपरिगृहीतागमन - अल्प समय के लिए पत्नी के रुप में रखी गई रखैल, वाग्दत्ता या अल्पवयस्का पत्नी के साथ समागम करना, इत्वपरिगृहीतागमन कहलाता है 170 (2) अपरिगृहीतागमन अपरिगृहीता अर्थात् वह स्त्री जिस पर किसी का अधिकार नहीं है एसी वेश्या, विधवा, कुमारिका चतुर्थ परिच्छेद... [375] या पर-स्त्री (स्वयं के द्वारा परिगृहीत नहीं होने से अपरिगृहीत) से काम-संबंध रखना 'अपरिगृहीतागमन' कहलाता हैं। 71 (3) अनंगक्रीडा मैथुन के स्वाभाविक अङ्गों को छोड़कर हस्त, मुख, गुदादि, चर्म आदि से तथा बाह्य उपकरणों से वासना की पूर्ति करना या समलिङ्गी से या पशुओं से मैथुन सेवन करना - 'अनंगक्रीडा' हैं। 72 (4) परविवाहकरण - गृहस्थ का स्वसंतान और परिजनों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के विवाह संबंध करवाना 'परविवाहकरण' कहलाता हैं। 73 - (5) कामभोग तीव्राभिलाषा- कामवासना के सेवन की तीव्र इच्छा रखना या तद्हेतु कामवर्धक औषधियाँ या मादक पदार्थो का सेवन करना । 74 रत्नकरंडक श्रावकाचार में इन अतिचारों का क्रम भिन्न बताया हैं और अपरिगृहीतागमन के स्थान पर 'विट्त्व काम संबंधी कुचेष्टा' नामक अतिचार बताया हैं। 75 ये अतिचार तज्जनित मानसिक आकुलता के कारण विवेक भ्रष्ट कर साधना पथ से पतित करते हैं; अतः व्रती साधक के लिए इन पाँचों अतिचार स्थानों का निषेध किया गया हैं। साधक को इन पाँचों अतिचार स्थानों का अच्छी तरह समझकर इन से हमेशा बचकर रहना चाहिए । स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत : जैनागमानुसार अभिधान राजेन्द्र कोश में भी श्रावकों के स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत को 'इच्छापरिमाण व्रत' कहा गया हैं। 76 दो प्रकार से सचित्त (द्विपद- चतुष्पदादि), अचित्त (रत्न, कुप्यादि); अथवा छः प्रकार से धान्य, रत्न, स्थावर, द्विपद, चतुष्पद और • कुप्य; अथवा नव प्रकार धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु, रुप्य, सुवर्ण, द्विपद, चतुष्पद कुप्य के असीम संग्रह को स्वयं के जीवन-व्यवहार और 55. अ.रा. पृ. 5/1259 56. 57. 58. रक. श्री. 59 59. 60. 61. 62. 63. अ. रा. पृ. 5/526; 6/1259, 7/337; रत्नकरंडक श्रावकाचार 59 अ. रा. पृ. 7/337 अ.रा. पृ. 6/427 अ. रा. पृ. 5/527 अ.रा. पृ. 5/526 अ.रा. पृ. 6/427 अ. रा. पृ. 6/429 अ. रा. पृ. 5/526 64. 65. 66. 67. 68. वही- 2/102 69. अ.रा. पृ. 5/527; सावय धम्ममपण्णति- 273; तत्त्वार्थ सूत्र - 7/24 70. अ. रा. पृ. 2/584 71. अ.रा. पृ. 1/600 72. अ.रा. पृ. 1/259 73. अ.रा. पृ. 5/548 74. अ.रा. पृ. 3/443 75. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 60 76. अ. रा. पृ. 2/557; पञ्चाशक वस्तु 4 द्वार; उपासक दशांग अध्ययन | अ.रा. पृ. 5/528 अ. रा. पृ. 6/428, हारिभद्रीय अष्टक -20/8 योगशास्त्र -2/99 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्य - [376]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन व्यापार (वृत्ति, आजीविका) का विरोध न हो, उस प्रकार से स्वयं दारिद्रय और दुर्गति को प्राप्त होता हैं । दिन में भी शंकायुक्त (भयभीत) के देश, कुल, वंशानुसार स्वयं की इच्छापूर्वक त्यागभावना से सीमित/ रहता है, स्वयं को पाप कर्म से लोपायमान करता हैं, निंदनीय और संक्षेप करना इच्छापरिमाण व्रत या स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत कहलाता हीन कार्य करता है और अंत में महारंभ, महापरिग्रह, मांसाहार/अभक्ष्याहार) निंदनीयाहार और पञ्चेन्द्रियवध/जीवहिंसा के कारण जीव नरकायु उपार्जित नौ प्रकार का परिग्रहा : कर नरक गति में जाता हैं। (1) धन - गणिम-सोपारी आदि, धरिम-गुड आदि, उपदेशमाला में कहा है कि, "अपरिमित परिग्रह अनंत मेय (मेज्ज) - घी, तेल आदि, परिच्छेद्य तृष्णा का कारण हैं। वह बहुत दोषयुक्त है तथा नरकगति का मार्ग - रत्न, वस्त्र आदि। हैं।85 भक्तपरिज्ञा में भी कहा है कि, "जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा चावल, जौ, गेहूँ आदि अनाज, दाल, तिल करता हैं झूठ बोलता है, चोरी करता है और अत्याधिक मूर्छा करता आदि। हैं।" - इस प्रकार परिग्रह पाँचो पापों की जड हैं। हेमचंद्राचार्यने (3) क्षेत्र - खेती-बाडी योग्य जमीन। भी कहा है कि, “परिग्रह के कारण अनुदित राग-द्वेष भी उदय (4) वास्तु - रहने योग्य मकान, कुटीर, प्रासाद आदि। में आते हैं। परिग्रह के प्रलोभन से मुनि का चित्त भी चलायमान (5) सम्य चांदी, बिना घडा हुआ सुवर्ण । होता हैं। जीवहिंसादि आरंभ जन्म-मरण के मूल हैं और उनआरम्भों (6) सुवर्ण - सुवर्ण, स्वर्ण के आभूषण का कारण परिग्रह हैं। 7 अतः इन दोषों से मुक्त होने हेतु श्रावक (7) द्विपद - दास-दासी, नौकर आदि। को 'इच्छा परिमाण व्रत' अंगीकार करना चाहिए। (8) चतुष्पद - गाय, भैंस, अश्व आदि। स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत के पाँच अतिचारण :(9) कुप्य - कांसा, तांबा, लोहा, पीतल, आदि धातु पूर्व प्रकार से स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत के भी पाँच प्रकार के बर्तनादि एवं मिट्टी के बर्तन तथा हैं जो निम्नलिखित हैंगृहोपयोगी समस्त साधन-सामग्री। इनका एक देश से अर्थात् आंशिक त्याग करना अर्थात् (1) क्षेत्र-वास्तु प्रमाणातिक्रम - जो जमीन खेती-बाडी के आवश्यकता से अधिक के त्यागरुप प्रमाण का नियमन करना, श्रावक लायक हो वह क्षेत्र और रहने योग्य हो वह वास्तु (मकानादि); का 'इच्छापरिमाण व्रत' हैं। इन दोनों का प्रमाण निश्चित करने के लिए बाद लोभ में लाभ : आकर उनकी मर्यादा का अतिक्रमण करना - "क्षेत्र-वास्तु गृहस्थ के घर में स्वल्प द्रव्य होने पर भी सैंकडो-हजारों प्रमाणातिक्रम' हैं। रुपयों की इच्छा होती हैं। परंतु मनुष्य को उसमें लुब्ध नहीं होना (2) हिरण्यसुवर्ण प्रमाणातिक्रम - गढा (आभूषण बनाया) हुआ चाहिए क्योंकि इच्छा आकाश समान अनंत हैं। अनंत इच्छा के सामने या बिना गढा हुआ जो चाँदी या सोना (चाँदी की पाट या यदि सोने या चांदी के पर्वत भी उसके पास में हो तो भी छोटे सोने का बिस्कीट) - इन दोनों का व्रत लेते समय जो प्रमाण पडते हैं। इसलीए परिग्रह या (उसकी) इच्छा का परिमाण (संक्षेप) निश्चित किया हो, उसका उल्लंघन करना - 'हिरण्यसुवर्ण करने में महान लाभ हैं। प्रमाणातिक्रम' हैं। इस व्रत के पालन करने से असत् आरम्भ (निंदनीय व्यापार, धन-धान्य प्रमाणातिक्रम - गाय भैंस आदि पशुरुप धन हिंसादि) से निवृत्त और असुन्दर आरम्भ की प्रवृत्ति (हीन व्यापार) और गेहूँ, बाजरी, मक्का आदि धान्य-इनके स्वीकृतं प्रमाण का त्याग होता हैं। इससे अल्पइच्छा, अल्प परिग्रह और अल्प का उल्लंघन करना 'धन-धान्य प्रमाणातिक्रम' हैं। आरंभ होने से सुख बढता है और धर्म की संसिद्धि (सम्यग् आराधना) (4) दासी-दास प्रमाणातिक्रम - नौकर, चाकर आदि कर्मचारी होती हैं। इस व्रत के पालन से जीव को संतोष, सुख, लक्ष्मी, संबंधी प्रमाण का अतिक्रमण करना, 'दासी - दास प्रमाणातिक्रम' स्थैर्य (स्थिरता), लोक-प्रशंसा एवं परलोक में देव-मनुष्य की समृद्धि और परंपरा से मोक्ष प्राप्त होता हैं। योगशास्त्र में भी कहा है कि, "संतोष जिसका भूषण बन जाता हैं, समृद्धि उसी के पास रहती 77. अ.रा.पृ. 2/557; धर्मसंग्रह-2/29; उपासक दशांग-1 हैं, उसी के पीछे कामधेनु चली आती है और देवता दास की तरह 78. अ.रा.पृ. 2/579 79. अ.रा.पृ. 2/278 उसकी आज्ञा मानते हैं 182 80. वही, पञ्चाशक-1/17, आवश्यक चूणि-अ.6 भगवती आराधना में 1. खेत (क्षेत्र) 2. मकान (वास्तु) 81. वही, धर्मसंग्रह 2 अधिकार 3. धन 4. धान्य 5. वस्त्र 6. भाण्ड (बर्तन) 7. दास-दासी (द्विपद) योगशास्त्र-2/115 8. पशुयान 9. शय्या और 10. आसन - ये दस प्रकार के परिग्रह 83. भगवती आराधना-19 बताये हैं।83 अ.रा.पृ. 2/578; धर्मसंग्रह-अधिकार-2 उपदेशमाला -243 हानि : 86. भक्त परिज्ञा - 132 इस व्रत को ग्रहण नहीं करने से जीव महारम्भी, महापरिग्रही योगशास्त्र - 2/109-110 होने के कारण विराधना से उपार्जित पापफल के कारण दःख, दौर्भाग्य, 88. अ.रा.पृ. 21578; आवश्यक बृहद्धत्ति-छठा अध्याय; आवश्यक चूर्णि छठा अध्ययन; तत्त्वार्थ सूत्र-7/24; उपदेशमाला-244 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (5) कुप्यप्रमाणातिक्रम अनेक प्रकार के बर्तन एवं अन्य गृहोपयोगी वैसी सामग्री तथा वस्त्रों का प्रमाण निश्चित करने के बाद उसका अतिक्रमण करना, 'कुप्यप्रमाणातिक्रम' हैं। दिग्व्रत / दिशापरिमाण व्रत : जीवन पर्यंत (या वर्ष / चातुर्मासादि में) ऊर्ध्व, (पर्वतारोहणादि), अधः (कूप में उतरना आदि), तथा तिर्यक्-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण (तथा उनके कोने अर्थात् इशान, अग्नि, नैऋत और वायव्य) - इन सभी (दशों) दिशाओं में गमनागमन की सीमा निश्चित करना और तदनुसार नियम अंगीकार करना; दिशिव्रत या दिशापरिमाण/ दिक्परिमाण व्रत नामक प्रथम गुणव्रत हैं। अणुव्रतों के रक्षार्थ और समुचित पालन हेतु व्यापारादि के क्षेत्र को सीमित रखने में सहायक गुणव्रत दिग्व्रत हैं। 89 लाभ : इस व्रत के पालकने जगत पर आक्रमण करने के लिए अभिवृद्ध लोभरुपी समुद्र को आगे बढने से रोक दिया हैं। वह व्यक्ति दूर देशों में अधिकाधिक व्यापार करना, अविकसित देशों का शोषण करना आदि से रुक जाता हैं अतः लोभ कषाय पर अंकुश लग जाता है 190 हानि :इस व्रत को धारण नहीं करने पर लोभ के कारण मनुष्य दुर्ग, भयंकर अटवी में भटकता है, देशांतर जाता हैं, समुद्र में जाता हैं, अनेक क्लेश एवं संकट सहन करना पडता हैं, कंजूस स्वामी की दासता करनी पडती हैं और कई प्रकार के दुःख सहन करता 1 दिशा परिमाण व्रत का पाँच अतिचार : इस व्रत के पाँच अतिचार हैं - ( 1 ) ऊर्ध्व दिशा, (2) अधोदिशा, (3) तिर्यक् दिशाओं की मर्यादाओं का अतिक्रमण, (4) मार्ग में चलते हुए यदि शंका उपस्थित हो जाए कि मैं अपनी मर्यादा से अधिक आ गया तो पुनः उस शंकित अवस्था में ही उस दिशा में आगे जाना, (5) एक दिशा की सीमा मर्यादा को घटाकर दूसरी दिशा की सीमा मर्यादा बढाना । उदाहरणार्थ पूर्व दिशा में 50 कोस से अधिक बाहर जाकर धनोपार्जन की कोई संभावना नहीं है, अतः पूर्व के शेष 50 कोस और पश्चिम दिशा के 100 कोस मिलाकर पश्चिम में 150 कोस तक जाकर धनोपार्जन करना । साधक अपने व्रत को शुद्ध रुप में परिपालन करने के लिए उपरोक्त दोषों से बचता रहे, यही अपेक्षित हैं। भोगोपभोग परिमाण व्रत : भोजन, माला आदि एक ही बार उपयोग में आने योग्य वस्तु को भोग कहते हैं तथा स्त्री, वस्त्राभूषण आदि बार-बार उपयोग में आने वाली सामग्री 'उपभोग' कहलाती हैं। भोग और उपभोग के साधनों का कुछ समय या जीवन पर्यंत के लिए परिमाण (मर्यादा) करना (सीमित करना या त्याग करना) 'भोगोपभोग परिमाण व्रत' कहलाता हैं। 94 सामान्यतया श्रावक को उत्सर्ग मार्ग से प्रासुक आहार ग्रहण करना चाहिए। इसके अभाव में सचित्ताहार का त्याग; इसके अभाव में बहुसावद्य अनन्तकायाहार का त्याग; इसके भी अभाव में मद्य चतुर्थ परिच्छेद... [377] (मदिरा), मांस, पाँच उदुम्बर और त्रस जीवयुक्त पत्र (पान), पुष्प, फलादि तो अवश्य त्याग करके भक्ष्याभक्ष्य के विवेकपूर्वक आहार ग्रहण करना योग्य हैं 195 जैनागमों में भोगोपभोग परिमाण व्रतधारी श्रावक को 22 अभक्ष्य 32 अनंतकाय का त्याग, सचित्त परिमाण आदि 14 नियमों का पालन एवं जीव रक्षा हेतु अंगारकर्मादि पंद्रह कर्मादान (व्यापार) के त्याग करने का वर्णन होने से यहाँ पर आचार्यश्री ने इनका परिचय देकर इनसे होने वाली दोषोत्पत्ति का विस्तृत वर्णन किया हैं, जो संक्षेप में निम्नानुसार हैंबाईस अभक्ष्य : चतुर्विकृत्यो निन्दया, उदुम्बरपञ्चकम् । हिमं विषं च करका, मृज्जातिरात्रिभोजनम् ॥32॥ बहुबीजाज्ञातफले, सन्धानानन्तकायिकाः । वृन्ताकं चलितरसं, तुच्छं पुष्पफलादिकम् ॥33॥ आमगोरससंपृक्तं द्विदलं, च विवर्जयेत् । द्वाविंशतिरभक्ष्याणि, जैनधर्माधिवासिनः ॥ 34 11% (1) मद्य (मदिरा) : - मदिरा दो प्रकार की होती हैं (1) काष्ठ निष्पन्ना (2) पिष्ट निष्पन्ना। मदिरा शराब, सुरा, द्राक्षासव, ब्रांडी, भांग, वाईन आदि के नाम से पहचानी जाती हैं। शराब बनाने के लिए गुड, अंगूर, महुआ आदि को सडाया जाता है, तत्पश्चात् उबाला जाता है। इस तरह उसमें उत्पन्न असंख्य त्रस जीवों (इल्ली आदि) की हिंसा होती हैं तथा शराब तैयार होने के बाद भी उनमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न होते हैं और उसी में मरते हैं। शराब पीने के बाद मनुष्य अपनी सुध-बुध भी खो बैठता है, धन की हानि होती है और काम, क्रोध की वृद्धि होती हैं, पागलपन प्रगट होता है, आरोग्य का नाश होता है। शराबी व्यक्ति माता - पत्नी, स्वस्त्री- परस्त्री आदि का विवेक भूल जाता है, अविचार, अनाचार और व्यभिचार का प्रादुर्भाव होता है, आयुष्य क्षीण होता है, विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, दया आदि गुणों का नाश होता है, फलतः जीवन नष्ट होता है । अत: त्याग करना ही श्रेयस्कर है। 7 आजकल 'फूट बियर' के नाम से काजू, बदाम, द्राक्ष आदि की बीयर ( नशीला पेय पदार्थ) का अतिशय प्रचार हो रहा है एवं नवयुवानों एवं स्कूल-कालेज में अध्ययनरत बच्चो में यह तो शाकाहारी है। फूट की है, - ऐसा भ्रामक प्रचार कर यह अभक्ष्य फूट बीयर दी जा रही है जबकि वास्तव में फूट बियर भी एक तरह की मदिरा ही है अतः व्रती / जैन / शाकाहारी लोगों के लिए त्याज्य ही है। 89. 90. 91. 92. 93. 94. 95. 96. 97. अ. रा. पृ. 4/2540; आवश्यक बृहद्वृत्ति 6/35; उपासक दशांग -1/46 योगशास्त्र - 2/3 सूक्तमुक्तावली - 57 अ. रा. पृ. 4/2540; तत्त्वार्थ सूत्र 7/26; आव. वृ. 6/36 अ. रा. पृ. 2/927; सर्वार्थसिद्धि 7/21 पृ. 280 अ. रा. पृ. 2/927; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा टीका-358-359; रत्नकरंडक श्रावकाचार 84 अ. रा. पृ. 2/928 अ. रा. पृ. 2/928; धर्मसंग्रह - 32, 33, 34 अ. रा. पृ. 2/928; योगशास्त्र- 3/8 से 17 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [378]... चतुर्थ परिच्छेद (2) मांस : जलचर - स्थलचर- खेचर या चर्म (चमडी), रुधिर (खून) और माँस के भेद से माँस तीन प्रकार का हैं। इसका भक्षण महापाप का मूल होने से वर्जित है क्योंकि माँस हिंसा के बिना प्राप्त हो ही नहीं सकता। शास्त्रों में इसके विषय में कहा गया है कि, "माँस पञ्चेन्द्रियवध से उत्पन्न होने के कारण दुर्गंधयुक्त, अशुचियुक्त, बीभत्स, अभक्ष्य, और कुगति (नरक गति) का मूल है। कच्चे, पक्के या पकते हुए माँस में निगोद के जीव सतत उत्पन्न होते हैं और उसी में मरते हैं। जीव का वध होते ही उसमें उत्पन्न निगोद के अनंत संमूच्छिम जीवयुक्त माँस जीव हिंसा का कारण होने से नरक के पाथेय माँस को कौन विद्वान् खायेगा ? अर्थात् कोई नहीं। माँस में निगोद के और संमूच्छिम जीवों की सतत जन्म-मरण परम्परा चालू रहने के कारण उससे दूषित माँस, प्राणी माँस के भक्षक और घातक दोनों के लिए नाशक हैं। मनु स्मृति में मनुने भी कहा है - "माँस (के लिए हिंसा के) कर्ता, विक्रेता, संस्कर्ता (मांसाहारी आहार बनाने वाले) और भक्षक तथा क्रेता (खरीददार) के अनुमोदक, दाता सभी घातक ही हैं। जो अपने शरीर की पुष्टि के लिए माँस भक्षण करते है, वे घातक (हिंसक ) हैं क्योंकि भक्षक के बिना घातक नहीं होता अर्थात् यदि कोई माँसाहारी न हो तो घातक (कसाई आदि) किसके लिए प्राणियों का घात करेंगे ? भक्षक के बिना घातक, विक्रेता, क्रेता, अनुमोदक, संस्कर्ता आदि किसी की संभावना नहीं हो सकती । प्राणी का मांस इतना आसानी से प्राप्त नहीं होता । काटते वक्त प्राणी चिल्लाता है, तडपता है, कांपता है, उसकी आँखो से आँसू बहते हैं। सूअर जैसे प्राणी जो आसानी से कट नहीं सकते उन्हें उनके पैर बाँधकर जिन्दा जला दिया जाता हैं। इस तरह निर्दयता की चरम सीमा के कारण ही मांसाहारी प्राणी दुर्गति-नरक गति को प्राप्त करता है । अण्डा मुर्गी का गर्भ है जो मुर्गी के गर्भ में वीर्य और रक्त से बढ़ता है अतः अंडे का सेवन भी मांसाहार ही हैं। मांसाहार स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। यह अनेक प्रकार की बीमारियों का मुख्य कारण हैं। इससे अकाल मृत्यु भी हो जाती है। आधुनिक विज्ञान मांसाहार से उत्पन्न भयंकर परिणामों की ओर सारे संसार का ध्यान खींच रहा है। विज्ञान ने अंडे, मछली, माँस में कोलेस्टरोल, यूरिक एसिड, यूरिया, मर्करी D.D.T., P.C.B., D.E.S., M.G.A. आदि अनेक हानिकारक विषैले तत्वों को खोज निकाला है तथा इनसे उत्पन्न होनेवाले हृदयरोग, टी.बी., कैंसर, श्वास रोग, हाई ब्लडप्रेशर, आमवात आदि अनेक बीमारियों की खोज की हैं। इंग्लैंड के डो. विलियम हमरी अपने Right Food ग्रंथ में लिखते हैं- मांस तेजाबयुक्त भोजन हैं। जानवर को जब काय जाता हैं, तब मौत की अत्यन्त वेदना और डर से उसका मांस अधिक तेजाबवाला (विषैला) बन जाता है। एसा मांसाहार तो सिर्फ नीच, असभ्य अथवा मूर्खो का ही भोजन हो सकता हैं। मांस खाना तो अपने पेट को कब्रस्तान बनाना हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हड्डियों में से क्षार - कण खून में मिल जाते है, इससे हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं। इसके विपरीत शाकाहारियों की पेशाब क्षारयुक्त होती है, इसलिए उनकी हड्डियाँ मजबूत बनी रहती हैं। अतः हड्डियों की मजबूती के लिए आरोग्य की दृष्टि से भी मांसाहार त्याज्य हैं। जार्ज बर्नाड शो कहते हैं- मांसाहारी लोग हत्या किये गये और काटे गये प्राणियों के मृत शरीर के जीवित कब्रस्तान हैं। जॉफी एल. 'सोल्यूशन ऑफ इण्डियाज फूड प्रोब्लम' में लिखते हैं- एक टन मांस प्राप्ति के लिए जितना समय चाहिए उतने में 10 (दस) से 100 (सौ) गुना तक शाकाहारी खाद्य पदार्थ प्राप्त किये जा सकते हैं। साथ ही कोड-लीवर ओयल आदि मछली से और जिलेटीन भी अंडे, चमडे आदि से बनने के कारण जिलेटीनयुक्त केक, चाकलेट, आइस्क्रीम आदि पदार्थ भी अभक्ष्य ही है, अतः त्याज्य हैं। 99 मांसाहार करने से हड्डियाँ भी कमजोर हो जाती हैं। हार्वड मेडिकल स्कूल (अमेरिका) के डॉ. ए. वोचमन और डॉ. डी. एस. बर्नस्टन Lancent 1968 Volume -1 में लिखते हैं- मांसाहारी लोगों की पेशाब प्रायः तेजाब युक्त होती हैं। इसके कारण शरीर के रक्त स्थित तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए इस तरह मांसाहार जीव हिंसा का कारण, अशुभ कर्मबंधक और आरोग्य की दृष्टि से भी अत्यन्त हानिकारक होने से अवश्यमेव त्याग करने योग्य हैं। I (3) मधु (शहद) : शहत मक्खियों, भौंरों आदि की लार एवं वमन से तैयार होता हैं। मधुमक्खी फूलों से रस चूसकर उसका छत्ते में वमन करती हैं। छत्त के नीचे धुआँ करके मक्खियों को उड़ाया जाता है। पश्चात् उस छत्ते को निचोड़कर शहद निकाला जाता है; इसमें कई अशक्त (उडने में असमर्थ ) मधुमक्खियाँ और उनके अंडे नष्ट हो जाते हैं और वे तथा सभी तरह की अशुचि शहद में मिल जाती हैं तथा उसमें अनेक प्रकार के रसज जीवों की भी उत्पत्ति होती है। इस तरह शहद अनेक जीवों की हिंसा का कारण होने से अभक्ष्य हैं। 100 आयुर्वेदिक दवाई के प्रयोग में शहद के बजाय घी, शक्कर, चासणी या मुरब्बा से काम चल सकता है। अतः दवाई लेने में भी शहद का त्याग करने योग्य हैं। (4) मक्खन ( नवनीत) 101 : - प्राप्ति के आधार पर मक्खन चार प्रकार का होता हैं (1) गाय (2) भैंस 93) बकरी और (4) भेड इन चारों से प्राप्त दूध से बना हुआ। मक्खन को छाछ में से बाहर निकालने के बाद तुरन्त ही उसमें उसी रङ्ग के अनंतानंत त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। वासी मक्खन या मलाई में तो हर समय सूक्ष्म रसज जीवों की उत्पत्ति होती रहती हैं। यदि घी भी बनाना हो तो भी मक्खन को छाछ से निकालकर सीधे गर्म बर्तन में रखकर तुरन्त तपाना चाहिए। दो-चार दिन के मक्खन में तो अतिशय जीवोत्पत्ति होती हैं। मक्खन खाने से जीव विकार वासना से उत्तेजित होता है, चारित्र की हानि होती है और अनेक बीमारियाँ भी होती हैं । अतः मक्खन खाने का त्याग करना चाहिए। (59) उदुम्बर- गूलर आदि फल 102 : (1) वट वृक्ष (2) पीपल (3) पाकर (प्लक्ष) (4) उदुम्बर 98. 99. 100. 101. 102. अ. रा. पृ. 2/928; योगशास्त्र-3/18 से 33 श्रीमद् जयंतसेन सूरि अभिनंदन ग्रंथ विविधा पृ. 20, 21 अ. रा.पू. 2/928; योगशास्त्र- 3/36 से 41 अ. रा. पृ. 2/928; योगशास्त्र- 3/34, 35 अ. रा. पृ. 2/928, 929 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [379] और (5) कठ गूलर - इन पाँचों के फलों में अगणित बीज और (2) इसी प्रकार खाद्य फल खजूर आदि में भी अंदर गूटली के असंख्य सूक्ष्म त्रस जीव होते हैं। इनके खाने से न तृप्ति मिलती उपर सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं जो रात्रि में दिखाई नहीं है, न शक्ति। और यदि इन फलों में के सूक्ष्म जीव मस्तिष्क में देते अतः शुष्क अथवा आर्द्र (गीले) फलों का सेवन भी प्रवेश कर जाये तो मृत्यु भी हो सकती हैं; रोगोत्पत्ति की तो शतप्रतिशत हिंसा का कारण होता हैं। आशंका रहती हैं। अत: इनका त्याग करना चाहिए। (3) बिजली आदि का तीव्र प्रकाश होने पर भी रात्रि में उत्पन्न (10) हिमा03 (बर्फ) : होनेवाले सूक्ष्म त्रस जीव नष्ट होते ही हैं। और बिजली के छाने या अनछाने पानी को फ्रीज में रखकर/जमाकर बर्फ प्रकाश में भी असंख्य जीवों की उत्पत्ति होती हैं। बनाया जाता हैं जिसमें कण-कण में असंख्य जीव है अतः बर्फ (4) अत्यन्त सावधानी रखने पर भी त्रस-स्थावर घात की कल्पना मिलाकर बनाये जानेवाले शरबत, आइस्क्रीम, आइसफूट आदि सभी न होने पर भी रात्रिभोजन की आसक्ति, जो रागात्मिका होती पदार्थ अभक्ष्य है। इनके भक्षण से मंदाग्नि, अजीर्ण आदि रोगों की है वह आत्मा के उपयोग की विराधिक होने से हिंसा का उत्पत्ति होती हैं। बर्फ आरोग्य का शत्रु है अतः त्याज्य हैं। दोष लगता ही हैं। (11) विष4 (जहर) : रात्रि भोजन त्याग सूर्य के उदय और अस्त की अपेक्षा खनिज, प्राणिज, वनस्पति और मिश्र भेद से विष चार करता हैं किन्तु सूर्य प्रकाश की उपस्थिति न होने पर अंधकार प्रकार का होता हैं । संखिया, वच्छनाग, कालकूट, अफीम, हरताल, में दीपकादि के प्रकाश में किया गया भोजन भी रात्रि भोजन धतूरा आदि विषयुक्त पदार्थ हैं, जिन्हें खाने से मनुष्य की तत्काल है और नियम भंग और माया के कारण रात्रि भोजन से भी अधिक मृत्यु भी हो सकती हैं या भ्रम, दाह, कंठशोष इत्यादि रोग उत्पन्न होता है। बीडी, तम्बाकु, गाँजा, चरस, सिगरेट आदि में रहा विष रात्रि भोजन नरक का प्रथम द्वार हैं। अनेक प्रकार के मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर अल्सर, टी.बी. केंसर इत्यादि रोगों जीवों की हिंसा की संभावना और इस लौकिक परलौकिक अनेक को उत्पन्न करता है अत: स्व-पर घातक होने से विष त्याज्य हैं। (12) करक105 (करा, ओला) : दुष्ट दोषयुक्त होने से रात्रि भोजन त्याज्य हैं। निशीथ चूर्णि में भी वर्षाऋतु में जो ओले गिरते हैं इसमें कोमल, कच्चा, अनछना ऐसा ही कहा है की, रात्रि को भोजन करते समय यदि चींटी आ जाय तो बुद्धिनाश, जूं से जलोदर, मक्खी से उल्टी, मकडीयां, कानखजूरे जमा हुआ पानी रहता हैं अतः बर्फ के समान इसमें भी सभी से कोढ रोग, काँटा या लकडी से गले में पीडा, बिच्छु से तालु दोष होने से इसका त्याग करना चाहिए। भेदन होता है तथा बाल से आवाज खराब होती हैं। (13) मिट्टी (मृज्जाति सभी तरह की मिट्टी) : आध्यात्मिक दृष्टि से रात्रिभोजन में इतना पाप लगता है मिट्टी अनेक प्रकार की और कई रंगों में होती हैं। मिट्टी के कण-कण में असंख्य पृथ्वीकायिक और वनस्पतिकायिक त्रस कि, जिसकी कल्पना भी करना मुश्किल है। आचार्यश्री जिनहर्षसूरिने रात्रिभोजन करने से लगते पाप का थोडा सा वर्णन करते हुए रात्रिभोजन जीव होते हैं। भगवती सूत्र में कहा है कि, मिट्टी को वज्रमय पृथ्वी पर वज्रमय पत्थर से इक्कीस बार पीसने पर भी पृथ्वीकाय के किसी के रास में कहा है कि, "असंख्य वर्ष का आयुष्य हो और 100 मुख और 100 जिह्वा हो तो भी पूरी तरह कथन न हो सके इतने जीवों को तो इस पत्थर का स्पर्श भी नहीं होता अतः नमक भी पाप रात्रिभोजन के है ।108 छियानवें (96) भव तक पापी (मच्छीमारादि) अग्नि से पक्का करके ही वापरना चाहिए, अन्य किसी भी तरह से व्यक्ति जीवों का घात करे उतना पाप एक सरोवर शोषने पर होता नमक पक्का नहीं होता (नमक भी 'खार' रुप मिट्टी होने से उसमें असंख्य जीव रहते हैं) है। 101 भव तक सरोवर शो (सुखावें) उतना पाप एक बार दावानल (दव) लगाने में होता है। 108 भव तक दावानल लगाने में उतना मिट्टी खाने से पथरी, पाण्डुरोग, सेप्टिक, पेचिश जैसी भयंकर पाप एक कुवाणिज्य में होता है। 144 भव तक कुवाणिज्य करें उतना बीमारियाँ होती हैं। अतः मिट्टी अभक्ष्य हैं इसलिए इसका त्याग पाप एक जूठा कलंक देने में होता है। 151 भव तक जूठे कलङ्क करना चाहिए। (14) रात्रि भोजन107 : देने जितना पाप एक परस्त्री सङ्ग से होता है। 9900 भव तक परस्त्रीसङ्ग जैन धर्म के साथ-साथ अन्य सभी संप्रदायों में वर्णित जितना पाप एक रात्रिभोजन में होता है।109 धर्म मात्र अहिंसा मूलक हैं। यद्यपि जीवन निर्वाह में अनेक स्थावर वैदिक परम्परा में रात्रि भोजन त्याग :जीवों के साथ-साथ प्रयत्नपूर्वक रक्षा करने पर भी अनजाने में त्रस __वैदिक परम्परा में भी रात्रि भोजन त्याग का विधान आग्रह जीवों की भी हिंसा होती हैं। इस हिंसा को न्यूनतम स्तर पर लाने देकर किया गया हैं - स्कंद पुराण में कहा गया है कि, "दिन के लिए अवधानपूर्वक (सावधानी से) स्थावर एवं त्रस जीवों की 103. वही 2929. 2/913: भगवती सूत्र 9/23 हिंसा रोकने के लिए रात्रिभोजन त्याग का प्रतिपादन किया गया हैं। 104. अ.रा.पृ. 2/929 उसी को स्फुट रुप से समझाते हुए यह बताया गया है कि रात्रि 105. वही 106. अ.रा.पृ. 2/929; भगवती सूत्र-19/3 भोजन में भिन्न-भिन्न प्रकार से जीवों की हिंसा होती हैं। जैसे - 107. अ.रा.पृ. 2/929; योगशास्त्र 3/48 से 70 (1) दिन में पकाये हुए अन्नादि में पाकजात हिंसा न होने पर 108. रात्रिभोजननो रास पृ. 14 भी सूक्ष्म पिपीलिकादि जीवों की हिंसा हो सकती हैं और 109. वही-ढाल-७ पृ. 15-ले.जिनहर्षसूरि; यह पापफल श्री कुंथुनाथ जिनेश्वरने सूक्ष्म संमूच्छिम जीवों की हिंसा भी होती हैं। समवसरण में कहा है - ऐसा लेखक का कथन है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [380]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में केवल एक बार भोजन करने से अग्निहोत्र का फल प्राप्त होता है। सूर्य के अस्त होने के पूर्व तक भोजन ग्रहण करने का नित्य नियम रखने पर तीर्थयात्रा का फल होता हैं। इसके अतिरिक्त रात्रि में हवन, स्थान, तर्पण, देवता पूजन और दान का विधान नहीं हैं। आयुर्वेद में रात्रिभोजन त्याग : ___ आयुर्वेद में स्वास्थ्य की दृष्टि से सकारण रात्रि भोजन का निषेध किया गया है। वहाँ कहा गया है कि, शरीर में स्थित हृदय नामक अवयव जो कि, कमल के समान है रात्रि में संकुचित हो जाता हैं क्योंकि रात्रि में कमल को विकसित करनेवाला तीव्र सूर्य प्रकाश नहीं रहता। हृदय का संकोच हो जाने से रक्त प्रवाह की गति मंद हो जाती हैं। इससे पाचकाग्नि मंद हो जाती हैं। और सिद्धांत यह है कि, सभी निज रोग मंदाग्नि से होते हैं - "रोगा: सर्वेऽपि मन्दाऽग्नौ, सुतरामुदराणि च।" दूसरे सूक्ष्म जीव खा लिये जाने से भी रात्रि भोजन निषिद्ध है, क्योंकि ये सूक्ष्म जीव अनेक रोगों को उत्पन्न करनेवाले होते हैं। (15) बहुबीज : जिन सब्जियों और फलों में दो बीजों के बीच अन्तर न हो, वे एक दूसरे से सटे हुए हों, गूदा थोडा और बीज बहुत हो, खाने योग्य पदार्थ थोडा और फेंकने योग्य अधिक हो, जैसे कपित्थ (कवीट) का फल, खसखस, टिंबरु, पंपोट आदि को बहुत बीज कहते हैं। उनके खाने से बीज अधिक होने से ज्यादा हिंसा का पाप लगता हैं । खसखस आदि में जीवोत्पत्ति भी बहुत जल्दी और अधिक होती हैं। इनको खाने से पित्त-प्रकोप होता है और आरोग्य की हानि होती है अतः ये त्याज्य हैं।110 (16) अज्ञात फल (अनजान फल, पुष्पादि): हम जिसका नाम और गुण-दोष नहीं जानते वे पुष्प और फल अभक्ष्य कहलाते हैं। जिनके खाने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं तथा प्राणनाश भी हो सकता है। जैसे अनजान फल नहीं खाने के नियम से वंकचूल ने अपने प्राण बचाये और उसके सभी साथी किंपाक के जहरीले फल खाने से मृत्यु का शिकार बन गए ।।।। (17) सन्धान : जिसके वर्णादि बदल गये है वैसा संधान नरक का तीसरा द्वार है। कोई अचार दूसरे दिन तो कोई तीसरे दिन तो कोई चौथे दिन अभक्ष्य हो जाता है क्योंकि उसमें अनेक त्रस जन्तु उत्पन्न होते हैं और उसी में मरते हैं। जिन फलों में खट्टापन हो अथवा वैसी वस्तु में मिलाया गया हो एसे अचार में तीन दिनों के बाद त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं परन्तु आम, नींबू (लीम्बू) आदि वस्तुओं के साथ न मिलाया हुआ गूंदा, ककडी, पपीता, मिर्च आदि का अचार दूसरे दिन ही अभक्ष्य हो जाता है। जिस अचार में अग्निभर्जित (सिकी) हुई मैथी डाली गई हो वह भी दूसरे दिन अभक्ष्य हो जाता है। अच्छी तरह धूप में सुखाने के बाद तेल, गुड आदि डालकर बनाया हुआ अचार भी वर्ण, गंध, रस और स्पर्श न बदले तब तक ही भक्ष्य है, बाद में अभक्ष्य हो जाता है। फफूंद आदि आने के बाद आचार अभक्ष्य माना गया हैं। अतः अनेक त्रस जीवों की हिंसा से बचने के लिए अचार का त्याग करना लाभदायी हैं।12। अनन्तकाय13 : अनन्तकाय नरक का चौथा द्वार है। जिसके एक शरीर में अनंत जीव हो, जिसकी नसें, साँधे, गाँठ, तन्तु आदि न दिखते हो, काटने पर जिसके समान भाग होते हो, काटकर बोने पर पुनः उग जाते हों उसे अनन्तकाय कहतेहैं। अथवा जिसके टुकडे करने पर एक समान चक्राकार भङ्ग दिखते हों या समान टुकडे होते हों वह अनन्तकाय है। अनन्तकाय 9 प्रकार से होते हैं (1) मूल (2) तना (3) छाल (4) शाखा (5) अविकसित नई पुष्पकलिका और नये कोमल पत्ते (प्रवाल) (6) पत्ते) (7) पुष्प (8) फल और (9) बीज। बत्तीस अनन्तकाय : (1) सूरण - एक प्रकार का कंद (2) वज्रकंद - गराडू (3) आर्द्रक - अद्रक (अदरक) (4) हरिद्रा - हरी हल्दी (5) कर्नूर - हरा कचूरा (6) शतावरी - एक प्रकार की लता (औषधि) (7) वरालिका - एक प्रकार की लता (8) गंवारपाठा - घृतकुमारी (9) थूवर (स्तूही) - थोर (10) गुडूची - हरी गलोय/गिलोय (11) लहसुन - लसण, प्याज (12) वंशकरेला - बाँस के कोमल पत्ते (13) गाजर - गाजर (14) लवणक - लुणियां की भाजी (15) पद्मिनीकंद - लोडिये के भाजी (16) गिरिकार्णिका - गरमर (17) किसलय - पत्तों के कौंपल (18) खरिंसुका - खरसुआ (19) थेग - थेग की भाजी (20) मोथा - हरा मोथा (जड) (21) छल्ली - लुण वृक्ष की छाल (22) खिल्लहड - खिलोडा कंद (23) अमृतबेल - अमरबेल (बिना जड, बिना पत्ते की होती है) (24) मूलक - मूला के पञ्चाङ्ग (मूला, मूली के पत्ते, मूली के पुष्प, मूली के बीज, मूली के फल अर्थात् मोगरी, छोटे-छोटे मोगरे)। (25) कुकुरमुत्ता - छत्रटोप (छत्रक - मशरुम) (26) अंकुर - अंकुरित धान 110. अ.रा.पृ. 2/929 11. वही ___112. अ.रा.पृ. 2/929; 113. अ.रा.पृ. 1262 से 264; प्रज्ञापना सूत्र 1/1 से 10 For Private & Personal use only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) शलज अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [381] (27) ठक्कवत्थु - बथुवे की भाजी (चलित रस), अभक्ष्य हैं। इनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति होती हैं। (28) सूकरकंद (सूकरवाल) - वाराही कंद, गृष्टि इनको खाने से आरोग्य की हानि होती हैं, असमय बीमारी आ सकती (29) पल्यंक - पालख हैं और मृत्यु भी हो सकती हैं। (30) कोमल इमली - बिना बीज की इमली मिठाई, खाखरे, आटा, चने दलिया आदि पदार्थों में (31) आलुक - सक्करकंद (शक्करिया) रतालु कालापेक्ष भक्ष्याभक्ष्य विवेक :(32) पिण्डालु - आलु (बटाट) कार्तिक सुदि 15 से फाल्गुन सुदि 15 तक हेमन्त ऋतु अनन्तकायिक जीवों की ये 32 संख्या उपलक्षणा मात्र है। में 30 दिन का, फाल्गुन सुदि 15 से आषाढ सुदि 15 तक ग्रीष्म इनकी जाति में आनेवाले अन्य भी पुष्प, मूल, फल, कन्दादि; जिसमें ऋतु में 20 दिन का और आषाढ सुदि 15 से कार्तिक सुदि 15 अनंतकाय के उपरोक्त लक्षण प्राप्त होते हो वे सभी अनंतकाय है अतः तक चातुर्मास में 15 दिनों तक का होता है। तत्पश्चात् ये सब अभक्ष्य त्याज्य है। इसके अलावा इस प्रकार की वनस्पतियाँ जो कि, त्रस जीवों माने गये हैं। आर्द्रा नक्षत्र के बाद आम, रायण (एक फलजाति) का आश्रय हैं, वे भी अभक्ष्य होने से त्याज्य हैं ।।14 जैसे - अभक्ष्य हो जाते हैं। फाल्गुन सुदि 15 से कार्तिक सुदि 15 तक (1) फूल गोभी - अत्यन्त सूक्ष्म पुष्प समूह एवं त्रस आठ महिने खजूर, खारक, तिल, मैथी आदि की भाजी, धनिया कृमियों का आश्रय पत्ती आदि अभक्ष्य माने जाते हैं। शलजम - शलजम का कंद जिसमें पानी का भाग है एसे नरम, रोटी, पूडी, पराठे आदि (3) गांठ गोभी - एक प्रकार का कंद तथा वासी पदार्थ दूसरे दिन और दही दो रात (16 पहर) के बाद सहजन - सूरजना की फली - त्रस जीवों का आश्रय अभक्ष्य माना जाता हैं। होने से इसके अलावा बाजारु आटे के पदार्थ, बिना शक्कर मिलाये प्याज - लहसुन के पत्ते - ये भी तीव्र गंधवाले होने या बिना सेका वासी मावा, सोडा, लेमन, कोकोकोला, औरेंज आदि से वायुकायिक जीवों और वायु में रहनेवाले सूक्ष्म त्रस बोतलों में भरे पेय (शरबत) तथा जिलेटीनयुक्त पदार्थ अभक्ष्य हैं। जीवों के घातक होते हैं, अत: त्याज्य हैं। (21) तुच्छफल120 :मोगरा - मूली का फल है जो अनंतकाय हैं । शास्त्रों जिसमें खाने योग्य पदार्थ कम और फेंकने योग्य अधिक हो, में मूली के पाँचों अङ्ग-मूला, डाली, पत्ते, फूल और जिसके खाने से न तृप्ति होती है न शक्ति प्राप्त होती है एसे कोल (छोटे फल अभक्ष्य माने गये हैं। झरबेरी के बेर), बदरी (वृक्ष जाति के बेर), पीलु, गोंदनी (श्लेष्मातक), शहतूत (शेतुर) - रेशम के कीडे का आश्रय होने से जामुन, सीताफल इत्यादि पदार्थ तुच्छफल कहलाते हैं। सिंघाडा- ये बिना बोये ही उग जाते है।जहाँ तालाब इनके बीज या कूचे फेंकने से उन पर चीटियाँ आदि अनेक में सिंघाडे उत्पन्न होते हैं वहाँ से निकालने में सिंघोडे जीवजंतु आते हैं और झूठे होने के कारण संमूच्छिम जीव भी उत्पन्न के काँटो से असंख्य त्रस जीवों की हिंसा होती हैं। होते हैं। पैरों के नीचे आने से उन जीवों की हिंसा भी होती हैं। और समभंग होने से इसे अनन्तकाय मानते हैं तथा अतः इनके भक्षण का निषेध किया गया हैं। अतिशय मीठे होने के कारण इसमें अतिशीघ्र त्रस द्विदल :जीवों की उत्पत्ति हो जाती है अतः अभक्ष्य है। जिसमें से तेल न निकलता हो, दो समान भाग होते हों अनंतकाय का भक्षण करने से बुद्धि विकारी, तामसी और और जो पेंड के फलरुप न हों - एसे दो दलवाले पदार्थों को कच्चे जड बनती है, धर्मविरुद्ध विचार आते है।15, जिनाज्ञा भङ्ग का दोष दूध-दही या छाछ में / के साथ एकत्र मिलाने से तुरन्त द्वीन्द्रिय लगता है, विसूचिका आदि रोग होते हैं और अजीर्ण से मृत्यु भी जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। जीवहिंसा के साथ-साथ आरोग्य हो सकती हैं या अन्य रोगों का भी उद्भव हो सकता हैं। अतः भी बिगडता है अतः ये अभक्ष्य है। जैसे - मूंग, मोठ, उडद, चना, जीव हिंसा और आत्महिंसा का कारण होने से अनंतकाय अवश्य अरहर (मसूर), वाल, चँवला, कुलथी, मटर, मैथी, गँवार तथा इनके त्याग करना चाहिए।।16 हरे पत्ते (भाजी), सब्जी, आटा, दाल, और इनकी बनी हुई चीजें, (19) वृन्ताक (बैंगन) : जैसे मैथी का मसाला, अचार, कढी, सेव, गाँठिया, खमण, ढोकला, बैंगन में असंख्य छोटे-छोटे बीज होते हैं। उसकी टोपी पापड, बडी बूंदी, बडे भजिये आदि पदार्थो के साथ कच्चा दही/ डंठल में सूक्ष्म त्रस जीव भी होते हैं। बैंगन खाने से तामस भाव छाछ या कच्चा दूध मिश्रित हो जाने पर अभक्ष्य हो जाते हैं। अतः जागृत होता है, वासना/उन्माद बढता है, मन धृष्ट होता है, निद्रा श्रीखंड, दही, मटे (छाछ) के साथ दो दलवाली चीजें नहीं खाना व प्रमाद भी बढते हैं, बुखार व क्षय रोग होने की संभावना बढती 114. अ.रा.पृ. 1/264 हैं, ईश्वर-स्मरण में बाधक बनता है। अत: जैनधर्म तथा हिन्दु-पुराणों 115. जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ-वाचना पृ. 17 की दृष्टि से भी इसके भक्षण का निषेध किया गया हैं ।। 116. अ.रा.पृ. 1264 117. अ.रा.पृ. 2/929 (20) चलित रस18 : 118. अ.रा.पृ. 2/929 जिस पदार्थो का रुप, रस, गंध, स्पर्श बदल गया हो या 119. वही बिगड गया हो, वे 'चलित रस' कहलाते हैं। जैसे - सडे हुए पदार्थ, 120. अ.रा.पृ. 929 वासी पदार्थ, कालातीत पदार्थ, जिसमें फफूंद आ गयी हो, एसे पदार्थ 121. वही a Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [382]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चाहिए। दूध या दही को अच्छी तरह से (अंगुली जले एसा) गरम करने के बाद उनके साथ द्विदल खाने में दोष नहीं है। भोजन के समय एसे खाद्य पदार्थो विशेष ध्यान रखना जरुरी हैं। होटल में दहीबडे, बूंदीवाला रायता, खमण-ढोकले, इडली-ढोंसा, आदि कच्चे दही के बनते हैं, अतः अभक्ष्य होने से त्याज्य हैं। सचित्त22 परिमाण आदि चौदह नियम : भोगोपभोग परिमाण व्रत में उपभोग-परिभोग के जिन पदार्थो की आवश्यकतानुसार उपभोग करने की छूट रखी है उनमें भी प्रतिदिन, प्रतिरात की आवश्यकतानुसार से अधिक का सुबह से शाम तक या शाम से सुबह तक के लिए त्याग या संक्षेप करने के नियम को सचित्त (सचित्त का परिमाण) आदि नियम कहते हैं। जैनागमों में एसे 14 नियम बताये गये हैं जो निम्नानुसार हैं "सचित्त दव्वविगई, वाणह तंबोल वत्थ कुसुमेसु।। वाहणसयणविलेवण-बंभ-दिशि-न्हाण-भत्तेसु॥ सचित : अप्रासुक आहार - पानी उपयोग करने की मात्रा। दव्व : भोजन में उपयोग में लेने के द्रव्य की संख्या। विकृति : चार महाविगई : मद्य, मांस मधु और मदिरा का सर्वथा त्याग, और घी-तेल-दूध-दहीगुड/शक्कर और कडाविगई इन छ: विगई में से एक या एकाधिक का त्याग या वापरने की मात्रा। वाणह : जूते-चप्पल, मोजे आदि की संख्या । तंबोल : मुखवास की मात्रा एवं पदार्थ (लोंग, इलायची, सौफ आदि) का परिमाण । वत्थ : वस्त्रों की संख्या। कुसुम : पुष्प, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थ । वाहन : बैलगाडी, साईकिल, रीक्षा, कार, स्कूटर, नाव, हवाई जहाज आदि। शयन : सोने-बैठने हेतु आसन, बिस्तर, शाल, रजाई, चादर, तकिया, कुर्सी, चौकी, पलंग आदि । विलेपन : साबुन, क्रीम, चंदन, पावडर, महेंदी, हल्दी, कंकु आदि (मेकअप का सामान भी)। ब्रह्मचर्य : सर्वथा मैथुन त्याग या उसका समय परिमाण स्वदारा/स्व पुरुष संतोष परदारा त्याग । दिवामैथुन का त्याग/रात्रि की जयणा, परिमाण । दिशि : दशो दिशाओं में व्यापार या अन्य सप्रयोजन गमन की मर्यादा (सीमा)। स्नान : संपूर्ण स्नान और अल्प स्नान की संख्या में परिमाण (जिन पूजा, सूतकादि की जयणा)। भक्त : प्रासुक-अप्रासुक भोजन और पानी का प्रमाण । इन 14 प्रकारों से दिन भर या रात्रि भर में उपयोग में आनेवाले पदार्थो का यथायोग्य संख्या या मात्रा में प्रमाण निश्चित करना या संक्षेप करना -'14 नियम' धारण करना कहलाता है। इन नियमों को धारण करनेवाले व्रती साधक को इनके साथ ही असि, मसि और कृषि से सम्बन्धित उपकरणों का भी परिमाण निश्चित करना होता है, यथाअसि तलवार, कैची, गृहोपयोगी मशीनें, बिजली या अग्नि से संचालित साधन आदि। मसि लेखन, पठन-पाठन के साधन, कागज, कापी, पुस्तक, लेखनी, पेंसिल, पट्टी, पेन आदि। कृषि - कृषि के औजार-हल आदि। इन सभी के उपयोग का प्रमाण करके संख्या या वजन तय करना चाहिए एवं प्रतिदिन सुबह-शाम उसका स्मरण नियम भंग न हो-इसका ध्यान रखना चाहिए। इन नियमों को धारण करने से श्रावक अनावश्यक आरंभ और निरर्थक कर्मबंधन से बचता हैं। अहिंसा अणुव्रत के पालक श्रावक को पाँच कर्म, पाँच वाणिज्य और पाँच सामान्य का त्याग करना चाहिए क्योंकि ये महासावध कर्म होने से इनसे निश्चित ही दुर्गति होती हैं। पन्द्रह कर्मदान : आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में पन्द्रह कर्मादानों का वर्णन अग्रलिखित प्रकार से किया है -"कम्मओणं समणोवासएणं इमाइं पन्नरसकम्मादाणाई जाणिअव्वाइंन समायरिअव्वाइं तं जहा इंगालकम्मे 1, वणकम्मे, 2, साडीकम्मे 3, भाडी कम्मे 4, फोडिकम्मे 5, दंत वाणिज्जे 6,लक्ख वाणिज्जे 7, रसवाणिज्जे 8, केसवाणिज्जे 9, विसवाणिज्जे 10, जंतपीलणकम्मे 11, निलंछणकम्मे 12, दवग्गिदावणया 13,सरदहतलावसोसणया 14, असईपोसणया 151123 अभिधान राजेन्द्र कोश में इन कर्मादानों का यथास्थान निम्नानुसार परिचय दिया गया है, यथा(1) अंगारकर्म (इंगालकम्म) - कोयले आदि बनाकर बेचने का कार्य, ईंट भट्ठे चलाना, आँव में बर्तन पकाने का कार्य तथा अग्नि संबंधी भट्टी काम, लुहार काम इत्यादि आजीविका द्वारा अर्थोपार्जन करना 'अंगार कर्म' कहलाता हैं। (2) वन-कर्म - जंगल तुडवाना, जलाना, लकड़ियाँ कटवाकर बेचना, फल, फूल, सब्जी संबंधी व्यापार या जंगल काटकर साफ करना, उसका क्रय-विक्रय करना 'वन कर्म' कहलाता (3) शकट कर्म - बैलगाडी प्रमुख वाहनादि बनाकर बेचना। (4) भाटक कर्म - वाहन आदि किराये पर चलाने का व्यवसाय करना। (5) स्फोटक कर्म - खान खोदना या पत्थर फोडने का व्यवसाय करना, विस्फोट करवाना आदि स्फोटक कर्म है। (6) दन्तवाणिज्य - हाथी आदि के दाँतों का व्यवसाय करना। उपलक्षण से बाघ-नख, चमडे और हड्डी का व्यवसाय भी इसमें शामिल हैं। _(7) लाक्षावाणिज्य - लाख, साज (सर्जरस), साबुन, धावडी का व्यापार करना। (8) रस वाणिज्य - शहद, मदिरा, माँस, घी-तेल, मक्खन, गुड आदि का व्यापार भी इसमें सम्मिलित हैं। 122. 123. अ.रा.पृ. 2/930 अ.रा.पृ. 2/931; आवश्यक बृहद्धवृत्ति-अ.6; उपासक दशा-बालावबोध पृ. 19, 20 For Private & Personal use only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [383] (9) विष वाणिज्य - वत्सनाग, सोमलादि विभिन्न प्रकार के कहलाता हैं।127 अनर्थदण्ड चार प्रकार के बताये गये हैं, इसलिए विषों का व्यवसाय करना । उपलक्षण से हिंसक अस्त्र-शस्त्रों अनर्थदण्डविरमण भी चार प्रकार का हो जाता हैं। चार अनर्थदण्ड का व्यवसाय भी शामिल हैं। (10) केश वाणिज्य - दास-दासी, भेड़-बकरी प्रभृति केशयुक्त (1) अपध्यान :प्राणियों के क्रय-विक्रय का व्यवसाय करना, चमरी गाय, किसी की हार-जीत, हानि-लाभ, मृत्यु आदि का चिंतन लोमडी आदि पक्षियों-पशु के बालों एवं रोमयुक्त चमडे (चमडे या आर्त्त-रौद्र ध्यान 'अपध्यान' कहलाता हैं । 128 के कोट, स्वेटरादि) का व्यवसाय, केश वाणिज्य कहलाता हैं। (2) प्रमादाचरण :(11) यंत्रपीडन कर्म - ईख, तिल आदि यंत्र में पीलना तथा बिना प्रयोजन पृथ्वी खोदना, पानी बहाना, बिजली जलाना, यंत्र, सांचे, धावी, कोल्हू आदि का व्यवसाय । उपलक्षण पंखा चलाना, आग जलाना, वनस्पति काटना/तोडना पशु युद्ध, वैर से उन सभी अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार, जिससे प्राणियों की विरोध आदि प्रमादचर्या हैं। तथा मद्य (मदिरादि), विषय, कषाय, हिंसा की संभावना हो, इसमें समिहित हैं। निद्रा, विकथा, जुआ, अप्रतिलेखना (पडिलेहण नहीं करना), अज्ञान (12) निलांछन कर्म - बैल आदि को दाग लगाना, उनके कान- संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष स्मृतिभ्रंश, धर्म में अनादर/अनुद्यम, मननाक काटना, खस्सी करना निल्छन कर्म हैं। वचन-काया का दुष्प्रणिधान भी प्रमादाचरण हैं।129 (13) दावाग्नि दापन - जंगल में आग लगना, खेतों में सूड (3) हिंसादान :जलाना इत्यादि। अस्त्र-शस्त्रादि, तथा हिंसक उपकरणों का आदान-प्रदान तथा (14) सरोवर-द्र-तडाग शोषण - तालाब, झील, जलाशय आदि व्यापार हिंसादान हैं।139 को सुखाना। (4) पापोपदेश :(15) असतीजन प्रेषणता पोषण - व्यभिचारवृति के लिए हिंसा, युद्ध, चौर्य, व्यभिचार आदि तथा कुव्यापारादि के वेश्याओं आदि को नियुक्त करना एवं व्यभिचारवृति करवाकर लिए दूसरों को प्रेरित करना, 'पापोपदेश' कहलाता है। 31 उनके द्वारा धनोपार्जन करना । चूहों को मारने के लिए बिल्ली अनर्थदण्ड व्रत के पाँच अतिचार :अथवा कुत्ते आदि क्रूरकर्मी प्राणियों का पालन भी इसी में यहाँ अनर्थ दण्ड के इन चार प्रकारों के साथ पाँच अतिचार सम्मिलित हैं। 124 भी वर्णित हैं, जो निम्नानुसार हैंभोगोपभोगपरिमाण व्रत के पाँच अतिचार25 : (1) कन्दर्प - कामवासना को उत्तेजित करनेवाली चेष्टाएँ करना व्रती साधक को निम्नांकित पाँचों अतिचार दोषों का त्याग या काम-भोग संबंधी चर्चा करना । करना चाहिए। ये निम्नानुसार हैं (2) कौत्कुच्य - हाथ, मुँह, आँख आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना। (1) सचित्ताहार - सचित्त पृथ्वीकाय (नमक, मिट्टी आदि), अप्काय (3) मौखर्य - अधिक वाचाल होना, शेखी बधारना तथा बातचीत (कच्चा पानी), वनस्पतिकाय (सचित्त सब्जी, पत्ते, फल, में अपशब्दों का उपयोग करना आदि । अनाज, बीज आदि) का भक्षण सचित्ताहार है। जिसने सचित्ताहार (4) संयुक्ताधिकरण - हिंसक साधनों को अनावश्यक रुप का त्याग या परिमाण किया हो, उसे यह अतिचार लगता से संयुक्त (तैयार) करके रखना, जैसे-बंदूक में कारतूस या बारुद भरकर रखना । इससे अनर्थ की संभावना अधिक होती (2) सचित्तपिधान - सचित्त से संबद्ध - अचित्त आहार में है। हिंसक शस्त्रों का निर्माण, संग्रह और क्रय-विक्रय भी रहा हुआ सचित्त आहार, बीज, गुठली आदि जैसे - खजूर दोषपूर्ण हैं। खाये और गुठली छोड दे या थोडा सचित्त और थोडा अचित्त (5) उपभोगपरिभोगातिरेक - भोग्य सामग्री का आवश्यकता एसा आहार सचित्तपिधान कहलाता हैं। से अधिक संचय करना ।132 (3) अपक्वाहार - मिश्र आहार, बिना पका हुआ कच्चा आहार सामायिक व्रत :खाना। यह गृहस्थ का प्रथम शिक्षाव्रत है। 'सामायिक' के विषय (4) दुष्पक्क (अपक्क दुष्पक) - आधा पका, आधा कच्चा या में पूर्व में सम्यक् चारित्र के प्रकरण में विवेचन किया जा चुका अधिक पका (जला) हुआ आहार। (5) तुच्छौषधि-भक्षण - कोमल चवले की फली, मूंग की फली (कच्ची) आदि खाना। 124. अ.रा.भा. 2/931 125. अ.रा.पृ. 2/930; उपासक दशांग-1 अ. अनर्थदण्डविरमण व्रत : 126. अ.रा. 11284; सावय पण्णत्ति-289, 290; योगशास्त्र 3/96 बिना किसी प्रयोजन के जिस पाप-कार्यों से आत्मा दंडित 127. अ.रा. 1/284, 285; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा-393 होती है, जिससे स्व या पर की हानि के अलावा कोई लाभ नहीं 128. अ.रा. 1284; का.अ. 367; रत्नकरंडक श्रा. 78 होता - एसे निष्प्रयोजन पाप कार्यों को करना 'अनर्थदण्ड हैं। द्रव्य 129. अ.रा. 5/479, 480 एवं 1/284; र.क.श्रा. 80 130. अ.रा. 1/284; का.अ.-367 से बिना किसी कारण के राजदण्डादि तथा भाव से ज्ञानादि की 131. अ.रा. 5/877-879, 1/284; का अनु.-346 हानि 'अनर्थदण्ड' हैं ।126 इनका त्याग करना 'अनर्थदंड विरमण व्रत' 132. अ.रा. 1/285; तत्त्वार्थ सूत्र-7/17 है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [384]... चतुर्थ परिच्छेद देशावकाशिक व्रत : दिग्व्रत नामक प्रथम गुणव्रत में यावज्जीव/ वर्षभर/चातुर्मास के लिए दशों दिशाओं में गमन की जो सीमा (मर्यादा) निश्चित की हो, उसमें से भी दिन / रात्रि / प्रहर/मुहूर्त के लिए सीमित करना (संक्षेप करना) देशावकाशिक व्रत कहलाता है । 133 इस व्रत को धारण करते समय श्रावक अपनी आवश्यकता और प्रयोजन के अनुसार सीमा बाँध लेता है कि मैं अमुक समय तक अमुक स्थान तक ही लेन-देन का संबंध रखूँगा । उससे बाहर के क्षेत्र से वह न तो कुछ मंगवाता है, न ही भेजता है, यही उसका देशव्रत है। इच्छाओं को रोकने का यह श्रेष्ठ साधन हैं। 134 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पौषध में आहार, शरीर-सुश्रुषा / संस्कार, अब्रह्म तथा आरम्भ का त्याग किया जाता हैं। इसमें आहार का त्याग एकदेश या सर्वथा होता है, शेष का सर्वदेश त्याग किया जाता है | 141 'पौषध' के समानान्तर 'पोषध' शब्द का भी अर्थ व्रतविशेष किया गया हैं वसुनंदी श्रावकाचार में भी कहा है कि जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भङ्ग होता हो या उसमें दोष लगता हो उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति देशावकाशिक व्रत हैं। 135 यहाँ देशावगासिक व्रत में दिग्व्रत के संक्षेपकरण लक्षण से अन्य भी सभी व्रतों का संक्षेप समझ लेना चाहिए। 136 देशावकाशिक व्रत के पाँच अतिचार : मर्यादित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना (1) आनयन प्रयोग या मंगवाना आदि, (2) प्रेष्य प्रयोग मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना या ले जाना, (3) शब्दानुपात निर्धारित क्षेत्र के बाहर किसी को शब्द से संकेत करना, - ( 4 ) रुपानुपात हाथ आदि अंगों से संकेत करना, (5) पुद्गल - प्रक्षेप बाहर खडे हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय बताने के लिए कंकड आदि फेंकना। इनमें से प्रथम दो अतिचार शीघ्रबाजी से और शेष तीन माया के कारण लगने की संभावना रहती हैं। पौषधोपवास व्रत : 'पौषध' और 'प्रोषध' ये दोनों ही शब्द 'पर्व' (पर्वतिथियों) के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'पोसह' शब्द का संस्कृत समानान्तर शब्द 'पौषध' भी लिया गया है। 'पौषध' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने कहा है कि " अष्टमी, चतुर्दशी, पौर्णमासी, अमावस्या इन पर्व के दिनों में अनुष्ठेय व्रत विशेष को पौषध कहते हैं।" इह पौषधशब्दो स्oया पर्वसु वर्तते, पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः, पूरणात् पर्व, धर्मोपचय हेतुत्वादित्यर्थं, पौषधे उपवसने पौषधोपवासः नियमविशेषाभिधं चेदं, पौषधोपवास इति 1138 इसी प्रकार का कथन तत्त्वार्थवार्तिक में भी आया हैंप्रोषधशब्दः पर्वपर्यायवाची ॥139 आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने पौषध शब्द की व्याख्या में धर्मसंग्रह के निम्नांकित श्लोक को उद्धृत किया हैंआहारतनुसंस्कारा ब्रह्मसावद्यकर्मणाम् । त्यागः पर्वचतुष्टय्यां तद्विदुः पौषधव्रतम् ॥40 अर्थात् पर्वतिथि के दिन आहार, शरीर, सत्कार, अब्रह्म और सावद्य कर्म (व्यवहार) के त्याग को विद्वान् लोग 'पौषध व्रत' कहते हैं। अष्टमीचतुर्दशी - पौर्णमास्यमावस्यापर्वदिनानुष्ठेयव्रतविशेषे (142 'पोषध' शब्द की निरुक्ति देते हुए कहा गया है कि जिससे धर्म की पुष्टि हो उसे पोषध कहते हैं पोषं पुष्टिं प्रक्रमाद् धर्मस्य धत्ते करोतीति पोषध: 1143 पौष + धाञ् = पौषध, पौष अर्थात् गुण गुण की दृष्टि को धारण करने वाला 'पौषध' कहलाता हैं। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में प्रोषध शब्द का प्रयोग हैपर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु 144 पौषध का स्वरुप : अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार पौषध दिन या रात का या दिन-रात का एक साथ लिया जा सकता है अर्थात् पौषध एक साथ चार या आठ प्रहर का लिया जा सकता है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में प्रोषधोपवास को 16 प्रहर का माना हैं चतुराहारविसर्जनमुपवास: प्रोषधः सकृदुक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरित ॥ 145 अर्थात् उपवास के पूर्व एवं उपवास के बाद एक बार भोजन करना, इसे प्रोषध कहते हैं। इस प्रकार, सोलह प्रहर तक भोजनादि छोड़कर उपवास करना प्रोषधोपवास हैं। पौषध के प्रकार : पौषध द्वारा सामायिक की प्रतिज्ञा का स्वीकार होने से पौषध में सर्व सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। एक ही पौषध में चार पौषध होत हैं (1) आहार पौषध : यह पौषध सर्वांग से अथवा एकदेश (आंशिक रुप) से लिया जाता हैं । चतुर्विध (चोविहार) उपवास युक्त पौषध में आहार का सर्वथा त्याग किया जाता हैं। और एकदेश से हो तो त्रिविधाहार (तेविहार) उपवास (जिसमें केवल उबला हुआ पानी पिया जा सकता हैं) या आयंबिल, निवी (इसमें मक्खनरहित छाछ अथवा लालमिर्च और पिसी हुई हल्दी के साथ सूखी सब्जी उपयोग में ली जा सकती हैं; शेष विधान आयम्बिल के समान है), या एकाशन किया जाता है। पौषध में कम से कम एकाशन का प्रत्याख्यान अनिवार्य हैं। अ. रा. 4/2633; योगशास्त्र 3/84; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - 367 134 कार्तिकेय अनुप्रेक्षा- 367, 368 133. 135. वसुनंदी श्रावकाचार - 215 136. 137. 138. अ.रा. पृ. 4/2633; स्थानांग-4/3; योगशास्त्र- 3/84 की व्याख्या पृ. 280 अ.रा.पृ. 4/2633; तत्त्वार्थ सूत्र - 7 / 27; योगशास्त्र - 3 / 116 अ.रा. 5/1133 139. अ.रा. पृ. 7/21/8 140. धर्मसंग्रह, अधिकार- 1/39 141. 142. 143. 144. 145. अ.रा. पृ. 5/1133-37-39; पञ्चास्तिकाय - 1/30 अ.रा. पृ. 5/1132 अ.रा. पृ. 5/1132-33 रत्नकरण्डक श्रावकचार 5/109 रत्नकरण्डक श्रावकचार 5/99 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) शरीर सत्कार - पौषध: यह पौषध सर्वाङ्गीण रुप से लिया जाता हैं। पौषध में या पौषध लेने के लिए किसी भी प्रकार का शारीरिक सत्कार, स्नान श्रृंगार आदि नहीं किया जा सकता। पौषध के लिए परमात्मा की द्रव्य पूजा अनिवार्य नहीं हैं। (3) अव्यापार- पौषध: पौषध में संसार संबंधी समस्त प्रकार की सभी प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता हैं। (4) ब्रह्मचर्य पौषध : पौषध में अब्रह्मचर्य (मैथुन) का सर्वथा त्याग किया जाता है अर्थात् पौषध में संपूर्ण ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य हैं। पौषध में स्त्री, तिर्यंचादि का संघट्ट न हो, इस हेतु भी पूर्ण सावधानी रखनी होती है। स्त्रीकथा आदि विकथाओं का भी संपूर्ण त्याग होता है, ब्रह्मचर्य की नव वाडों का पूर्णतया पालन किया जाता है अन्यथा पौषध व्रत का भङ्ग होता हैं । जो श्रावक पौषध करता है, उसे नियमपूर्वक सामायिक करनी चाहिए और सामायिक में पुस्तक पठन-पाठन या धर्मध्यान ध्याते हुए एसी भावना से मन को भावित करना चाहिए कि, इस प्रकार के ( तप त्यागादि) साधुगुण उत्तम है, पर मैं मंदभागी इसे हंमेशा धारण करने में असमर्थ हूँ। 146 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि श्रावक को प्रत्येक मास की दो अष्टमी दो चतुर्दशी इन चारों ही पर्वों में अपनी शक्ति न छिपाकर सावधानीपूर्वक पौषधोपवास / पौषध करना चाहिए 1147 पौषध का फल : पौषध व्रत का फल प्रतिपादित करते अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि, कोई यदि मणि-स्वर्ण के 1000 खम्भोंवाला, मणि- कांचन के सोपान और स्वर्ण के फर्शवाला जिनमंदिर बनवाये तो भी तप - संयम / पौषध व्रत इससे भी अधिक फलदायी हैं। आठ प्रहर के एक पौषध में भी अङ्क से भी 27,77,77,77,777,77 और 7/9 पल्योपम वर्ष का देवलोक का आयुष्य बँधता है। 148 शुभभावपूर्वक अप्रमत्त रहकर पौषध करनेवाले श्रावक के अशुभ कर्म, दुःखादि नष्ट हो जाते है, और नरक-तिर्यंचगति का नाश हो जाता है अर्थात् उसकी सद्गति होती हैं। 149 यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि, श्रावक जब तक सामायिक या पौषध में रहता है तब तक वह श्रावक होते हुए श्रमण तुल्य हैं। 150 भी पौषध करने से लाभ : (1) विषयासक्ति मोहदशा के कारण जीवनभर साधु नहीं बन सकनेवालों को पर्वतिथि के पौषध जितना साधु जीवन का स्वाद मिलता है। (2) जीव पाप से हल्का होता हैं। (3) पौषध में धर्ममय जीवन यापन करने से मानव भव सार्थक होता है। धर्म की कमाई होती हैं। (4) स्वादिष्ट भोजन रुप आहार, शरीर राग के कारण होनेवाला शरीर-सत्कार, पाँचों इन्द्रियों के विषयभोगरुप अब्रह्म और चतुथ परिच्छेद... [385] व्यापार-व्यवहाररूप जगत व्यवहार- पौषध में जाने से रुक जाती हैं। (5) गुरुनिश्रा में पौषध करने से वैराग्य की ओर आकर्षण होता हैं। (6) साधुओं की निर्मल- निश्चित-निर्भय-निष्पाप-निर्भ्रान्त अनेक प्रकार की साधनाएँ देखने से साधु होने का भाव जागृत होता है। विषय कषाय मंद-मंदतर होते हैं। परिवार - रिश्तेदार आदि से मोह - ममत्त्व - आसक्ति कम होती है। (9) जीव की भौतिक साधनों के प्रति परवशता - पराधीनता दूर होती हैं, साधनों के अभाव में भी स्वस्थता बनी रहती हैं। (10) संसार के पापस्थान और राग-द्वेष के सामने धर्म भावना बनी रहती है और राग-द्वेष की तीव्रता कम होती हैं। (7) (8) (11) दुन्वयी चिंता, टेन्शन, डिप्रेशन, हाई बी.पी आदि से प्रायः मुक्ति मिलती हैं। (12) गुरु भगवंतो से धर्मतत्त्व का एवं हितकारी सिद्धांतो का ज्ञान प्राप्त होता हैं। (13) सज्जन धार्मिक लोगों के साथ परिचय - मित्रता होती हैं। (14) उत्तम धार्मिक व्यक्ति के रुप में प्रसिद्धि होने से जीव पाप कार्य से बचता है और धर्मकार्य में जुड़ता हैं। (15) जिनाज्ञा का पालन होता हैं। पौषध के अठारह दोष 152 : पौषध में निम्नोक्त कार्यों में से किसी भी प्रकार का कार्य करने से दोष लगता है (1) बिना पौषध के विरतिरहित श्रावक के द्वारा लाया हुआ आहार उपयोग में लेना । 146. 147. 148. 149 150 (2) (3) (4) (5) (6) (7) ( 8 ) सरस आहार लेना । पारणा में रसग्राही सामग्री खाना । पौषध हेतु शरीर - श्रृङ्गार करना । वस्त्रादि धुलवाना । आभूषण बनवाना या पहनना । वस्त्र रंगाना । शरीर पर से मैल उतारना शयन करना (दिन में) । स्त्री कथा करना । अपहार (चौर) कथा करना । (9) (10) (11) (12) राज कथा करना । अ. रा. 5/1133; पञ्चास्तिकाय- 1/30; आवश्यक बृहद्धवृत्ति 6/11 अ. रा. 5/1136-39; समणसुत्तं पृ. 270; रत्नकरंडक श्रावकाचार; पञ्चाशक विवरण- 10/6 अ. रा. 5/1136; धर्मसंग्रह 2/39; विपाकसूत्र सुबाहकुमार अधिकार पुरुषार्थ सिद्धयुपाय- 157 सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवई जम्हा । एएणं कारणेणं, बहुसो सामाइय कज्जा ||2|| - - श्रावक प्रतिक्रमण 'सामाइय वयजुत्तो' सूत्रगाथा - 2 151. मुनिपति चरित्र से उद्धरित (ले. अजित शेखरसूरि ) श्रावक कर्तव्य भाग-1 पृ. 109, 110 152. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [386]... चतुर्थ परिच्छेद (13) देश कथा करना । (14) बिना प्रमार्जन किये या जीवयुक्त भूमि पर लघु नीति, बडी नीति विसर्जित करना । (15) निन्दा करना । (16) संसारी संबंधीजनों से वार्तालाप करना । (17) चोर संबंधी बातचीत करना । (18) स्त्री के अंगोपाङ्ग आदि देखना । पौषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार153 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन न्यायोपार्जित प्रासुक, कल्प्य अन्न, जल, वस्त्रादिक का देश, काल, श्रद्धा, सत्कार तथा क्रमपूर्वक उत्कृष्ट भक्ति द्वारा अपनी आत्मा के अनुग्रह की बुद्धि से साधु को दान देने का नियम ग्रहण करना अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है। यह श्रावक का बारहवाँ व्रत है। शिक्षा ग्रहण करने योग्य एवं शिक्षाव्रतों में चतुर्थ स्थान पर होने से उसका अपरनाम चतुर्थ शिक्षाव्रत हैं 1159 विधि : : (1) अप्रतिलेखित / दुष्प्रतिलेखित शय्या संस्तार - बिना देखे-भाले शय्या आदि का उपयोग करना । (2) अप्रमार्जित / दुष्प्रमाजित शय्या संस्तार - अप्रमार्जित शय्या का उपयोग करना । (3) अप्रतिलेखित / दुष्प्रतिलेखित उच्चार- प्रसवण (परने के लिए निर्जीव भूमि) भूमि को अच्छी तरह से देखे बिना शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना । (4) अप्रमार्जित / दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रसवण भूमि अप्रमार्जित शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना । (5) पौषधोपवास का सम्यग् रूप से पालन नहीं करना अर्थात् पौषध में निंदा, विकथा, प्रमादादि का सेवन करना, पारणादि की चिन्ता करना आदि । अतिथिसंविभाग (अइ (ति) हि संविभाग) : 'अइहि संविभाग' शब्द अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में पृष्ठ 33 पर प्रयुक्त हैं। यह अतिथि संविभाग शब्द दो खण्ड से बना है अतिथि + संविभाग । 'अतिथि' शब्द का सामासिक अर्थ है: नास्ति तिथि यस्य ( आगमनस्य) सः । अर्थात् जिसके आगमन की कोई समय निश्चित न हो, उसे अतिथि कहते हैं। सम् = उचित, वि= विशेष प्रकार का, भाग = अन्न रुप भाग होता है । 154 - लोक में तो गृहस्थ के घर जो भी साधु, संन्यासी, तापस, भिक्षुक और परिचित या अपरिचित व्यक्ति का सूचनापूर्वक या बिना सूचना के आगमन हो जाय उसे अतिथि कहते हैं। लेकिन 'अतिथि' शब्द जैन सिद्धांतानुसार श्रावकधर्म के व्रत से सम्बन्धित हो आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में 'अतिथि' शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है तिथिपर्व आदि समस्त लौकिक पर्व के त्यागी वीतराग प्रणीत चारित्र के आराधक जैन साधु श्रावक के घर भोजन के समय उपस्थित हो जाये, उसे 'अतिथि' कहते हैं। 155 आचार्यश्री के अनुसार एसे अतिथि साधु को जिसमें प्राणीवधादि हिंसा न हुई हो - एसे निर्दोष और न्यायोपार्जित द्रव्य से प्राप्त आहार उद्गमादि के आधाकर्मादि दोष से रहित, पश्चात्कर्मादिक दोष उत्पन्न न हो, इस तरह सविशेष अन्न, जल, स्वादिम, खादिम आदि चारों प्रकार के आहार का दान करना, अतिथिसंविभाग हैं 1156 - 'श्राद्धगुणविवरण' में भी कहा है- "न्यायथी प्राप्त थयेलां अने कल्पनीय एवा अन्नपानादिक द्रव्योनुं परमभक्तिए अने आत्मानो उपकार थशे एवी बुद्धिए साधुओंने जे दान आपवुं तेने मोक्षफल आपनारो ‘अतिथि संविभाग' कहे छे।' 157 हेमचन्द्राचार्यने भी गृहस्थ द्वारा साधु को चारों प्रकार के आहार का दान देना- अतिथि संविभाग कहा है | 158 व्रतधारी श्रावक यह व्रत पौषध के पारणा के दिन अवश्य करते हैं। उपवास सहित एक अहोरात्र पौषध ग्रहण करके दूसरे दिन एकाशन के तपपूर्वक यह व्रत करते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार श्रावक पौषध की जयणा कर सुबह की प्रथम पोरिसी पूर्ण होने पर उपाश्रय या जहाँ साधु भगवन्त विराजमान हो, वहाँ जाकर साधु को वंदन कर गोचरी हेतु निमंत्रण करे। साधु के घर पधारने पर सम्मुख जाकर 'पधारो - पधारो' - एसा कहकर घर में ले जाये। लकड़ी के पाट-पटिये आदि पर उन्हें बैठने हेतु विनंती कर वंदन करे। इसके बाद प्रदान करने योग्य शुद्ध, निर्दोष, कल्प्य आहार, देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और क्रमपूर्वक आत्मानुग्रह की बुद्धिपूर्वक प्रदान करे। दान देने के बाद वन्दन करके वापिस द्वार तक या गली के नुक्कड तक कुछ कदम पहुँचाकर फिर घरमें आकर एक जगह स्थिर आसनपूर्वक बैठकर जो वस्तु साधु ने ग्रहण की है, उसी वस्तु से एकाशन करें। जो चीज साधु को दान नहीं दी, उसे भोजन में नहीं लेवें 1160 आचार्यश्री ने आगे कहा है, यदि साधु का योग न हो तो भोजन के समय दिशावलोकन करते हुए मन में भावना भावे कि यदि साधु भगवन्त का योग होता तो भवसागर से हमारा निस्तार होता । वर्तमान में यदि साधु का योग न हो तो व्रतधारी श्रावक की अन्नादि से भक्ति करके भी अतिथि संविभाग व्रत किया जाता है । 161 शिक्षाव्रत का फल : इस प्रकार विधिपूर्वक ज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी अतिथि साधु की भक्ति करने से दान धर्म की आराधना होती है। साधुओं के प्रति प्रेम, बहुमान और भक्तिभाव बढते हैं। संयम की अनुमोदना से संयम धर्म का फल प्राप्त होता हैं। अर्थात इस लोक में श्रेष्ठ सुख-सौभाग्य, संपत्ति और परलोक में देव, देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि की पदवी तथा परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। 162 अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार : 153. 154. 155. 156. 157. 158. 159. 160. 161. 162. - इस व्रत के दोषों का विवरण करते हुए आचार्यश्रीने इस अ.रा. 5/1137 पञ्चप्रतिक्रमण सूत्र सार्थ. पृ. 79 अ.रा.भा. 1/33, 'अइहि' शब्द अ. रा. भा. 1/33, 'अइहि संविभाग' शब्द श्राद्दगुणविवरण पृ. 15 योगशास्त्र 3/87 अ. रा. भा. 7/785 अ. रा. भा. 1/33; तत्त्वार्थ भाष्य - 7/16; श्रावकजीवन दर्शन श्रावकव्रत अधिकार पञ्चप्रतिक्रमण सूत्र; पृ. 79 अ. रा. भा. 1/33-34 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [387] व्रत के निम्ननिखित पाँच अतिचार बताये है।63 असमर्थ होने से परिग्रह को मर्यादित करने पूर्वक स्थूल परिग्रह परिमाण/ (1) सचित्त निक्षेप - नहीं देने की बुद्धि से दान योग्य उचित इच्छा परिमाण व्रत को धारण करता है। दिक्परिमाण व्रत भी इसी पदार्थ को गेहूँ हरी वनस्पति आदि सचित पदार्थ में रखना। व्रत का पूरक है जिसमें श्रावक गमनागमन की तथा वहाँ से वस्तु (2) सचित विधान - दान नहीं देने की बुद्धि से देय वस्तु मंगवाने की मर्यादा करता हैं। इससे जैसे यूरोपवासियोंने गरीब और को सचित्त पदार्थ से ढंकना। अविकसित देशों में जाकर व्यापार के बहाने वहाँ के लोगों को लूटा; (3) परव्यपदेश - नहीं देने की बुद्धि से देय वस्तु स्वयं की उपनिवेश बसाये, साम्राज्य किया और दो-दो विश्व युद्ध किये तथा होने पर भी उसे अन्य की बताना या देने की बुद्धि से तृतीय विश्वयुद्ध की स्थिति खडी की वैसी स्थितियों से और तज्जनित अन्य की देय वस्तु को स्वयं की बताना। शोषण, पीडा और जीवहिंसा रुप कार्यो और उससे होनेवाले अशुभ (4) मात्सर्य - ईर्ष्या, द्वेष, मत्सर, क्रोध, या असम्मान से दान कर्मबंध से श्रावक बच जाय। देना। इसी प्रकार सातवाँ भोगोपभोग/उपभोग-परिभोगपरिमाण (5) कालातिक्रम - गोचरी काल बीत जाने के बाद में या व्रत भी इसी का पूरक व्रत हैं। इस व्रत के पालन में श्रावक भिक्षा काल होने से पूर्व ही साधु को भिक्षा हेतु निमंत्रण भोगोपभोग में आनेवाले पदार्थों को भी मर्यादित करता है तथा करना। पंद्रह प्रकार के कर्मादान/कुव्यापार का त्याग करता है, जिससे जीवहिंसा अणुव्रत : एक समग्र दृष्टि : और जीवहिंसामय व्यापार से श्रावक बच जाता है। पर्यावरण सुरक्षित व्रतधारी श्रावक को व्रत ग्रहण करने के बाद उसमें दोष रहता है। प्रकृति का अनाप सनाप विनाश रुकता हैं। प्राकृतिक न लगे, इसके लिए सावधानीपूर्वक ध्यान रखना चाहिए । अतः व्रत संतुलन से चक्रवात, भूकंप, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अतिशय गरमी, ग्रहण करते समय व्रती को व्रत में कहाँ, कब, कौन सा दोष लगने जल भंडारों की कमी, खाद्य पदार्थ एवं ईधन की कमी, रोगोत्पत्ति, की संभावना हो सकती हैं। इस बात का ध्यान अवश्य होना चाहिए। जनहानि, पशु आदि जीव हानि आदि से बचा जा सकता हैं। इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश में श्रावक के बारह व्रतों आठवें अनर्थदण्ड व्रत का पालक श्रावक अहिंसा व्रत के पालन का वर्णन किया गया हैं जिसका यहाँ पर संक्षिप्त वर्णन किया गया के लिए ही बिना कारण मिट्टी खोदना, नल को खुला छोडकर अनावश्यक पानी ढोलना, बिना कारण पेड-पौधे काटना, फूलसंसार के समस्त जीवों की रक्षा का उपदेश भगवान महावीर पत्ते तोडना, आग जलाना, पापोपदेश देना, हिंसक कार्य करनेवालों के प्रवचन की विशेषता हैं। परमात्माने समस्त जीवों की रक्षा के को सहयोग करना, हिंसा के साधन/हिंसक उपकरण का आदानलिए अपना प्रवचन/उपदेश कहा हैं। प्रदान करना आदि कार्यो का त्याग करता हैं। सर्वथा अहिंसा का पालन करने में असमर्थ श्रावक अहिंसाणुव्रत सामायिक में तो श्रावक सर्वसावध व्यापारों का त्याग करने के रुप में उस जीवों की आंशिक हिंसा का त्याग तो करता ही में साधु जैसा है। देशावकाशिक व्रत में श्रावक न केवल दिग्व्रतादि है, साथ ही स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं करता। इसी में रखी मर्यादा का भी संक्षेप करता है, अपितु व्यवहार में तो सामायिक प्रकार सत्याणुव्रत का पालक श्रावक आत्महत्यादि कारण से कन्या पूर्वक ही देशाकाशिक व्रत किया जाता है जिसमें व्रती श्रावक तीन के विषय में तथा गायादि को कत्लखाने में भेजने रुप हिंसा के सामायिक, छ: सामायिक या दश सामायिक तक धर्मध्यान करता कारण गौ आदि के विषय में और इसी प्रकार जीव हिंसा या अन्य हैं। पौषध भी सर्वसावध के त्यागपूर्वक सामायिक सहित किया जाता प्राणी को पीडाजनक तथा हानि रुप होने से अन्य विषयों में असत्य, हैं। प्रकारान्तर से पौषध साधुजीवन का लघुरुप है। अतिथिसंविभाग निंदनीय, कठोर या हास्य वचन नहीं बोलता। परधनहरण से जिसका व्रत भी पौषधपूर्वक किया जाता है, अतः इन चारों व्रतों में सामायिकपूर्वक धन हरण किया जायेगा उसे पीडा होगी यावत् जानहानि आदि का आराधना की जाने के कारण जीवदया का सविशेष पालन होता हैं। भय होने से श्रावक स्थूल चोरी का त्याग करता हैं। जैनागमों में इस प्रकार जैनधर्म में श्रावकों के ये 12 व्रत अहिंसा पालन कहा है - स्त्री की योनि में 2 से 9 लाख संमूर्छिम द्वीन्द्रियादि के लिये ही हैं। आचारांग सूत्र में कहा है - "जे अईया, जे पडुपन्ना, जीव एवं 9 लाख संमूच्छिम पञ्चेन्द्रिय एवं असंख्य संमूच्छिम मनुष्य जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंता ते सव्वे हवमाइक्खंति, एवं होते हैं जिनका पुरुष के संयोग से नाश होता हैं। जैसे रुई से भरी भासंति, एवं पन्नेवंति, एवं पस्वयंति - सव्वेपाणा सव्वे भूया, हुई नली में लोहे की तप्त शलाका डालने पर रुई का नाश होता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न वज्झावेयव्वा,न परितावेयव्वा, है वैसे ही इन जीवों का भी नाश हो जाता हैं।164 अतः श्रावक स्वस्त्री में भी मर्यादापूर्वक सांसारिक जीवन व्यतीत करता हुआ संतुष्ट न उवद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे निइए सासए समिच्च लोयं खेयन्नेहि रहता है और परस्त्रीगमन तथा कन्या, विधवा, वेश्या के साथ गमन पवेइए।" इत्यादि अतो अस्या एव रक्षार्थे शेषव्रतानि । तथा चाहका त्याग करता हैं। यही श्रावक का स्थूल मैथुनविरमण व्रत हैं। "अहिंसैव मता मुख्या, स्वर्गमोक्ष प्रसाधनी । अस्या संरक्षणार्थ च, न्याय्यं सत्यादि पालनम् ॥"165 परिग्रह की मूर्छा ही पाप का कारण है क्योंकि परिग्रह की प्राप्ति, उपभोग और रक्षा बिना मूर्छा या बिना आरंभ-समारंभ के कतई नहीं हो सकती और आरंभ-समारंभ में जीव हिंसा अवश्यंभावी 163. तत्त्वार्थ भाष्य-7/16 पर तत्त्वार्थभाष्य है अतः श्रावक गृहस्यावस्था में समग्र परिग्रह का त्याग करने में 164. संबोधसत्तरी प्रकरण-82 से 87 165. अ.रा.पृ. 4/2457 'दयालु' शब्द Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [388]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्रावक व्रत ग्रहण विधि : (5) आकार शुद्धि - प्रत्याख्यान करते समय राजाभियोगादि को अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने ग्रहण करना जिससे व्रत भङ्ग का प्रसङ्ग उपस्थित न हो। श्रावक को उपरोक्त सम्यक्त्वादि द्वादशव्रत उच्चारण/ग्रहण करने-करवाने उपचर्या :की विधि का वर्णन करते हुए कहा है - सुदेव-गुरु साधुर्मिक और स्वजन का यथायोग्य धूप-पुष्प, गृहस्थ श्रावक योग, वंदन, निमित्त, दिशा और आकार की वस्त्र, विलेपन, आसनदान, पूजा, सत्कार एवं दीन-हीन-अनाथ को विशुद्धिपूर्वक और योग्य उपचर्यापूर्वक गुरुमुख से अणुव्रतादि द्वादश अनुपादान देना। श्रावक व्रत रुप सद्धर्म को ग्रहण करें। इस प्रकार योगादि शुद्धि और देव, गुरु, सार्मिक और (1) योगशुद्धि - मन से शुभ चिन्तन, शुभ भावना, वचन से स्वजन तथा संघ की यथायोग्य उपचर्या एवं दीन-अनाथ को दान निरवद्यभाषण, काया से उपयोग/जयणापूर्वक गमनागमनादि देने पूर्वक जिनभवनादि प्रशस्त स्थान में प्रशस्त तिथि-करण-नक्षत्रप्रवृत्ति मुहूर्त-चंद्रबल होने पर सुपरिक्षित शिष्य/गृहस्थ को आचार्य व्रतोच्चारण (2) वंदनशुद्धि - अस्खलितरुप से भावपूर्वक खमासमण, करावें । सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक, देशविरति सामायिक कायोत्सर्गादि क्रिया की आरोपण विधि में आचार्य भगवंत नन्दीकरावण (एक प्रकार की (3) निमित्तशुद्धि- शंख ध्वनि, मंगल बाजे बजाना, पूर्ण कलश, विधि), देववंदन, गुरुवंदन, कायोत्सर्ग आदि क्रिया शास्त्रोक्त विधिपूर्वक भंगारकलश (जलधारायुक्त कलश), छत्र, ध्वज, चामर, सुगंधी, करवाकर तीन बार संबंधित व्रत प्रत्याख्यान के सूत्रपाठ पूर्वक व्रतोच्चारण पुष्पादि पदार्थ या सुगंध आदि शुभ शकुन करावें, वासक्षेप करें। इसकी विस्तृत विधि प्रवज्याविधि, उपधान (4) दिक्शुद्धि- पूर्व दिशा, उत्तर दिशा, जिन चैत्य का सामीप्य, विधि संबंधी ग्रंथों से एवं अभिधान राजेन्द्र कोश से जानना चाहिए।166 जिन चैत्यवाली दिशा का आश्रय करना अर्थात् पूर्वमुखउत्तरमुख या जिनचैत्य, जिन प्रतिमा की ओर मुख करके 166. अ.रा.पृ. 1/417, 418 (जिणवयण जिणवयणमोदगस्स उ, रत्तिं च दिवा य खज्जमाणस्स । __ तित्तिं बुहो न गच्छइ, हेउसहस्सोवगूढस्स ॥ नरनारयतिरियसुरगण - संसारियसव्वदुक्खरोगाणं । जिणवयणमेगमोसह - मपवग्गसुद्धक्खयं फलयं ॥2॥ - अ.रा.पृ. 2/131 सव्वनदीणं जो होज्ज वालुया, सव्वउदहीण जं उदयं । एत्तोवि अणंतगुणो, अत्थो एगस्स सुत्तस्स ॥1॥ - अ.रा.पृ. 2/131 [ 'सो उ पमाणं सुयहराणं' तित्थयरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोयगुरु। जो ण करेइ पमाणं, न सो पमाणं सुयहराणं ॥१॥ तित्थयरे भगवंते जगववियाणए तिलोयगुरु। जो उ करेइ पमाणं, सो उ पमाणं सुयहराणं ॥२॥ - अ.रा.पृ. 6/921 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [389] उपासक प्रतिमा 'प्रतिमा' शब्द का वाच्यार्थ : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'पडिमा' शब्द के अन्तर्गत 'प्रतिमा' शब्द के सद्भभाव-स्थापना, बिंब, प्रतिबिंब, जिनप्रतिमा और प्रतिज्ञा - इतने अर्थ बताये हैं।। प्रतिमा के प्रकार : राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने प्रतिज्ञा अर्थवाली प्रतिमा का वर्णन करते हुए प्रतिमा के (1) श्रुतसमाधि प्रतिमा (2) उपधान प्रतिमा (3) विवेक प्रतिमा (4) व्युत्सर्ग/कार्योत्सर्ग प्रतिमा (5) भद्र प्रतिमा (6) सुभद्र प्रतिमा (7) महाभद्र प्रतिमा (8) सर्वतोभद्र प्रतिमा (9) क्षुद्रिका प्रतिमा (10) मोक प्रतिमा (11) यवमध्य चंद्र प्रतिमा (12) वज्रमध्यचंद्र प्रतिमा (13) शय्या प्रतिमा (14) वस्त्र प्रतिमा (15) पाद प्रतिमा (16) स्थान प्रतिमा (17) तप प्रतिमा (18) धर्म प्रतिमा और (19) अधर्म प्रतिमा आदि अनेक भेद बताये हैं। उपासक प्रतिमा : राजन्द्र कोश में उपासक प्रतिमा का वर्णन करते हुए आचार्यश्री ने लिखा है -"उपासते सेवन्ते साधून इत्युपासकाः अर्थात् जो साधुओं की सेवा करते हैं उन्हें उपासक कहते हैं। इसी विषय में आगे कहा है -"उपासकाः श्रावकास्तेषां प्रतिमाः प्रतिज्ञा अभिग्रहविशेषाः उपासक प्रतिमाः।" अर्थात् 'उपासक' श्रावक को कहते हैं और उनके द्वारा की गई अभिग्रह विशेष की प्रतिज्ञा को प्रतिमां कहते हैं। उपासक प्रतिमा और उसके भेद : राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने उपासक प्रतिमा को उपरोक्त प्रतिमा भेदों में से उपधान प्रतिमा के अन्तर्गत सम्मिलित करते हुए लिखा है-".....उपधानं तपस्तत्प्रतिमा उपधान प्रतिमा.....एकादशोपासक प्रतिमाश्चेत्येवंरुपेति।" राजेन्द्र कोश में आगे श्वेताम्बर जैनागमों के अनुसार उपासक प्रतिमा के ग्यारह भेद बताये हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं 1. दर्शन प्रतिमा 2. व्रत प्रतिमा 3. सामायिक प्रतिमा 4. पौषध प्रतिमा 5. प्रतिमा प्रतिमा/दिवा ब्रह्मचर्य रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा 6. पूर्ण ब्रह्मचर्य प्रतिमा 7. सचित्त त्याग प्रतिमा 8. आरम्भ त्याग प्रतिमा 9. प्रेषण (प्रेरणा, अनुमति) त्याग प्रतिमा (परिग्रह त्याग) 10. उद्दिष्टवर्जन और 11. श्रमणभूत प्रतिमा। आवश्यक चूणि में रात्रिभोजन परिज्ञा (त्याग) को पाँचवीं, सचित्ताहारपरिज्ञा को छठ्ठी, दिवाब्रह्मचारी-रात्रिपरिमाणकृत-सातवीं, ब्रह्मचर्य आठवीं, सारंभपरिज्ञा नौवी, प्रेष्यारम्भपरिज्ञा दसवीं, उद्दिष्टवर्जन-श्रमणूत को ग्यारहवीं प्रतिमा कहा गया हैं।' दिगम्बर परंपरा में भी उपासक की प्रतिमाएँ तो 11 ही मानी गयी हैं लेकिन उनके क्रम में कुछ भिन्नता है, यथा - (1) दर्शन (2) व्रत (3) सामायिक (4) पौषध (5) सचित्त त्याग (6) रात्रिभुक्ति त्याग (7) ब्रह्मचर्य (8) आरंभ त्याग (9) परिग्रह त्याग (10) अनुमति त्याग (11) उद्दिष्ट त्याग। इस प्रकार प्रथम चार प्रतिमाएँ दोनों परम्पराओं में समान हैं। प्रतिमा प्रतिमा का क्रम श्वेताम्बर परंपरा में पाँचवाँ और दिगम्बर परंपरा में छटुवाँ, ब्रह्मचर्य प्रतिमा का श्वेताम्बर परंपरा में छठा और दिगम्बर परंपरा में सातवाँ तथा सचित्त त्याग प्रतिमा का क्रम श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपरा में पाँचवाँ हैं । दिगम्बर परंपरा में रात्रिभुक्ति त्याग को स्वतंत्र प्रतिमा गिना है जबकि श्वेताम्बर परंपरा में पाँचवीं प्रतिमा में उसका समावेश होता हैं। दिगम्बर परंपरा में अनुमति त्याग को अलग प्रतिमा माना है जबकि श्वेताम्बर परंपरा में उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा के अन्तर्गत इसका समावेश किया हैं। दिगम्बर परंपरा में उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा के क्षुल्लक, एलक, एक गृहभोजी, अनेकगृहभोजी आदि अनेक भेद बताये हैं। जबकि, श्वेताम्बर परंपरा में एसे कोई भेद नहीं हैं। (1) दर्शन प्रतिमा : राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने सत्यधर्मरुचिवान्, कदाग्रहकलंक रहित, शुक्लपाक्षिक, कुलाचारपूर्वक अणुव्रत-गुणव्रत-शिक्षाव्रत आदि का पालक, रागादि से निवृत्त होकर पोरिसी आदि का प्रत्याख्यान एवं पर्वतिथि पौषधादि करने पूर्वक भय, लोभ आदि के त्यागपूर्वक शंकादि दोष रहित, प्रशमादि लिङ्गपूर्वक स्थैर्यादि भूषण सह सम्यग्दर्शन का निरतिचार रुप से एक माह तक पालन करनेवाले श्रावक को दर्शन श्रावक कहा है और उसकी इस प्रतिज्ञा विशेष को दर्शन प्रतिमा कहा हैं।10 राजेन्द्र कोश के अनुसार दर्शन श्रावक में आस्तिक्य, देवगुरु की भक्ति, वैयावृत्त्य आदि गुण विशेष रुप से होते हैं ।। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार दर्शन श्रावक मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन और पाँच उदुम्बर फलों का त्यागी; अरिहंतादि पंच परमेष्ठी की स्तुति, जीवदया, जल गालन (पानी छानकर पीना) - इन आठ गुणों से युक्त होता हैं। भोगों के प्रति उदासीन एवं चलित रस (अचार) आदि का त्यागी होता हैं। साथ ही निन्द्य व्यवसाय का त्यागकर न्यायनीतिपूर्वक व्यापार/व्यवसाय से ही अपने परिवार का भरण-पोषण करता हैं। (2) व्रत प्रतिमा : इस प्रतिमा वाले श्रावक सम्यक्त्वसहित पूर्वोक्त नियमों का पालन करते हुए पाँच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करते हैं। तथा तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का भी पालन करते हैं। श्रावक 1. अ.रा.पृ. 5/332 2. अ.रा.पृ. 5/332 3. अ.रा.पृ. 2/1122 4. अ.रा.पृ. 2/1123 5. अ.रा.पृ. 5/332 वही, अ.रा.पृ. 2/1123, , प्रवचनसारोद्धार 980 7. आवश्यक चूणि 153, प्रवचन सारोद्धार-पृ. 197 से उद्धृत चरित्तपाहुड-गाथा-21 जैनेन्द्र सिद्धांत कोश-2/189 10. अ.रा.पृ. 2/1123, 1130, अ.रा.पृ. 5/333; प्रवचनसारोद्धार-982 II. अ.रा.पृ. 2/1130 12. रत्रकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 137, 138; कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा-328 8. 9. For Private & Personal use only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [390]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन इस प्रकार बारह व्रतों का निःशल्य होकर निरतिचार पालन करता की आठवीं प्रतिमा हैं ।27 आरंभ-विरत श्रावक व्यापार, खेती-बाडी, हैं। उसे व्रत श्रावक और उसकी प्रतिज्ञा को व्रत प्रतिमा कहते हैं। नौकरी आदि सब छोड देता हैं और पूर्व में अर्जित अपनी सीमित (3) सामायिक प्रतिमा : संपत्ति से ही स्वयं का जीवन-निर्वाह करता हैं ।28 पूर्वोक्त नियमों के पालन सहित व्रती श्रावक तीन महिना (9) प्रेष्य-त्याग प्रतिमा :तक दोनों संध्या (प्रातः -सायं) 32 दोषों से रहित सामायिक करता पूर्वोक्त नियम सहित नौ महीन तक नौकर-सेवक या पुत्रादि है अर्थात् कम से कम 48 मिनिट तक एक स्थान पर बैठकर सर्वसावध या अन्य कोई से भी किसी भी प्रकार के आरंभ-समारंभ कराने योगों का त्याग कर सामायिक अंगीकार कर सर्व संकल्प-विकल्प का त्याग करना प्रेष्य-परिज्ञा नामक नौंवीं प्रतिमा हैं। छोडकर आत्म-चिन्तन करता हैं, इसे सामायिक प्रतिमा कहते हैं।15 (10) उद्दिष्ट-भक्त परिज्ञा :दिगम्बर परंपरा में आचार्य समन्तभद्रने अपने चारित्रपाहुड नामक ग्रंथ पूर्वोक्त सभी नियमों के साथ दस महीने तक अपने निमित्त में सामायिक प्रतिमा धारक श्रावक को त्रिसंध्या-सामायिक करने का से बनाये गये आहारादि का त्याग करना श्रावक की दसवीं प्रतिमां हैं। निर्देश किया हैं। आरंभ-समारंभ और करण-करावण का त्यागी श्रावक जब (4) पौषध प्रतिमा : उद्दिष्ट भक्त परिज्ञा (त्याग) प्रतिमा को धारण करता हैं तब वह अपने जो धर्म को पुष्ट करता है उसे पौषध कहते हैं। पूर्वोक्त निमित्त से बनाये हुए किसी भी प्रकार के आहार का त्याग कर सभी नियमयुक्त श्रावक अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमाआदि देता हैं। वह क्षुर-मुण्ड अर्थात् शिखा सहित मुण्डन करवाता हैं। पर्वतिथियों के दिन प्राणातिपातादि सर्व सावध का त्याग करके उपवास उदासीन भाव से घर में रहता है परतु उसका अधिकांश समय धर्म सहित पौषध योग्य स्थान पर रहकर आहार, शरीर-सत्कार, अब्रह्मचर्य ध्यान, सामायिकादि में बीतता हैं । गृहकार्य में पुत्रादि किसी के द्वारा और व्यापार (गृहस्थी संबंधी व्यवहार) - इन चारों के त्याग रुप कोई बात पूछे जाने पर यदि उसे ज्ञात हो तो 'जानता हूँ' - एसा पौषध व्रत अंगीकार कर नियम पूर्वक रहते हैं, उसे पौषध व्रत कहते और ज्ञात नहीं हो तो 'नहीं जानता हूँ' - एसा कहता हैं। हैं।18 श्रावक की चार माह तक इस प्रतिज्ञा के पालन को पौषध (11) श्रमणभूत प्रतिमा :प्रतिमा कहते हैं।" पूर्वोक्त सभी नियमों के साथ ग्यारह माह तक मुण्डित सिर (5) प्रतिमा (दिवाब्रह्मचर्य-रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा :- होना या लोच कराना, पास में रजोहरण (खुल्ली दंडीवाला चरवला) तथा पूर्वोक्त नियमों के साथ श्रावक स्नान एवं रात्रि भोजन का मुखवस्त्रिका (मुहपत्ती) रखकर साधु के समान जयणापूर्वक वर्तन त्याग करता हैं। दिन में भी अंधकार वाले स्थान में भोजन नहीं और उपाश्रयादि में रहना, आहार के समय अपने कुल, गोत्र या जाति करता है, कच्छ नहीं बांधता है। दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करता में ही भिक्षावृत्ति से आहारादि ग्रहण करना और साधुओं की तरह, है और रात्रि में ब्रह्मचर्य का परिमाण (नियम) करता हैं।20 पौषध घर छोडकर समिति-गुप्ति का पालन करते हुए विभिन्न गाँवो में विहार में दिन और रात्रि में कायोत्सर्ग करता हैं। पांच मास तक नियम करना - यह श्रावक की श्रमणभूत नामक ग्यारहवीं प्रतिमां हैं। पालन वाली यह श्रावक की पाँचवीं प्रतिमां हैं। इसके प्रतिमा 13. अ.रा.पृ. 5/333; रत्रकरंडक श्रावकाचार-53, अ.रा.पृ. 2/1131%3B प्रतिमा, नियम प्रतिमा, दिवा ब्रह्मचर्य-रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा आदि 14. अ.रा.पृ. 2/1131 पंचाशक सूत्र 10 विवरण नाम भी प्रख्यात हैं। 15. अ.रा.पृ. 2/1131, प्रवचन सारोद्धार-983 (6) ब्रह्मचर्य प्रतिमा : 16. चारित्र पाहुड टीका-गाथा 25 17. अ.रा.पृ. 2/1123 उपरोक्त सभी नियमयुक्त श्रावक का छ: माह तक पूर्ण 18. वसुनंदि श्रावकाचार टीका-गाथा 3783; रत्नकरंडक श्रावकाचार-106; प्रवचन ब्रह्मचर्य का पालन करना और कच्छोट लगाना, छट्ठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा सारोद्धार-983,84 हैं।23 रत्नकरंडक श्रावकाचार में भी लिखा है कि, इस भूमिका में 19. अ.रा.पृ. 2/1124 आने पर साधक स्त्रीमात्र के संसर्ग का त्याग कर, शरीर की अशुचिता ___20. क. अ.रा.पृ. 2 /1124 को समझकर काम से विरत होकर यौनाचार का सर्वथा परित्याग कर ख. वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 296; रनकरंडक श्रावकाचार गाथा - 147: प्रवचन सारोद्धार-985, 86, 89 देता है। ब्रह्मचारी बनने के बाद वह खान-पान एवं रहन-सहन 21. साधुप्रतिक्रमण सूत्र - सार्थ, पृ. 20 - ले. श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि में अधिक सादगीपूर्वक और गृहकार्यों में उदासीन रहता हैं। 22. अ.रा.पृ. 2/1124 (7) सचिताहार त्याग प्रतिमा : 23. वही पूर्वोक्त सभी नियमों का पालन करते हुए सात महीने 24. रत्नकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 143; प्रवचनसारोद्धार 988 तक सचित्त (अप्रासुक) आहार-पानी का त्याग करना श्रावक की 25. अ.रा.पृ. 2/1124; प्रवचनसारोद्धार, 989 26. रत्नकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 141; कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 381 सातवीं प्रतिमा हैं। इस प्रतिमा को धारण करनेवाला श्रावक मूल, 27. अ.रा.पृ. 2/1124; रनकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 144; प्रवचनसारोद्धार, फल, साग-सब्जी, बीज आदि वनस्पति के किसी भी अंग/अंश 990 को अग्नि से बिना संस्कारित किये नहीं खाता । जल भी उबालकर जैन धर्म और दर्शन, पृ. 278 - ले. मुनि प्रमाणसागरजी ही पीता हैं।26 29. अ.रा.पृ. 2/1134; प्रवचनसारोद्धार 990 30. अ.रा.पृ. 2/1134, प्रवचन सारोद्धार, 991, 992 (8) आरम्भ-त्याग प्रतिमा : 31. - अ.रा.पृ. 2/1136 प्रवचन सारोद्धार-993, 994 पूर्वोक्त नियमों के साथ आठ महिने तक पृथ्वी आदि समस्त अ.रा.पृ. 333; साधुप्रतिक्रमण सूत्र - सार्थ, पृ. 20, 21 - ले. श्रीमद्विजय जीवों से संबंधित समस्त-आरंभ-समारंभ का त्याग करना, श्रावक यतीन्द्रसूरि 28.. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [391] श्रमणभूत प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक को यदि कोई पूछे कि, "आप कौन हैं?" तब "मैं प्रतिमाचारी श्रमणोपासक (श्रावक) हूँ" एसा कहे। आहार-पानी हेतु यह श्रावक काष्ठ के पात्र एवं मिट्टी का घडा उपयोग में लाता हैं। यह श्रावक जब गृहस्थ के घर में गोचरी वहोरने हेतु (आहार-पानी ग्रहण करने के लिए) प्रवेश करे तब वहाँ साथ में यदि कोई साधु न हो तो 'इस प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो' -एसा कहे। उसी समय यदि कोई साधु यदि धर्मलाभ कहें तो प्रतिमाधारी श्रावक कुछ भी न कहैं ।33 इस प्रकार श्रमणभूत प्रतिमाधारी श्रावक गाँव-गाँव एक- द्वि-त्रिरात्रि यावत् मासकल्पानुसार विहार करता हैं। इस प्रतिमा का जधन्य कालमान प्राय: एक अहोरात्र कहा है जो कि, प्रतिमाधारी श्रावक का उसी अवस्था में देहत्याग या प्रवज्या/दीक्षा ग्रहण करने की स्थिति में संभव हैं। प्रायः कहने से अन्तमुहूर्तादि काल भी संभव हैं। दिगम्बर परंपरा में श्रमणभूत प्रतिमा की जगह 'उद्दिष्ट-त्याग' प्रतिमा श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमां हैं। इस भूमिकावाला साधक गृह त्यागकर मुनियों के पास रहने लगता हैं तथा भिक्षावृत्ति से अपना जीवन बीताता हैं। इस प्रतिमा के क्षुल्लक एवं एलक दो भेद हैंक्षुल्लक : क्षुल्लक का अर्थ होता है छोटा । मुनियों से छोटा साधक को क्षुल्लक कहते हैं। यह घर छोडकर मुनियों के पास संघ में रहता हैं तथा मुनियों की सेवा सुश्रुषा एवं स्वाध्याय में लगा रहता हैं।15 क्षुल्लक पात्र में और कभी पाणिपात्र में भोजन करता है। प्रायः केशलोंच और कभी कैंची से भी बाल कटवाता है। वस्त्र में लंगोटी और ऊपर एक खंडवस्त्र धारण करता हैं। इस क्षुल्लक के भी दो भेद होते हैं - (1) एक गृहभोजी (2) अनेक गृहभोजी । अनेक गृहभोजी क्षुल्लक भिक्षावृत्ति करके भोजन करता हैं। श्रावकों के घर जाकर 'धर्मलाभ' कहने पर यदि वह श्रावक यदि कुछ प्रासुक आहार दे दे तो वह ग्रहण करता है, अन्यथा बिना किसी विषाद के आगे बढ़ जाता हैं। इस प्रकार पाँच-सात घरों में अपने योग्य पर्याप्त भोजन प्राप्त होने पर गृहपति से पानी मांगकर वहीं बैठकर अपने पात्र में भोजन करता हैं; अपने बर्तन अपने हाथ से साफ करता हैं। और भोजन के पश्चात् गुरु के पास जाकर अगले दिन तक के लिए चारों आहार का त्याग (प्रत्याख्यान) कर देता है। एक गृहभोजी क्षुल्लक मुनियों के आहार के लिए निकलने के बाद चर्या के लिए निकलते हैं। आजकल एक गृहभोजी क्षुल्लक ही मिलते हैं। एलक: एलक उद्दिष्ट त्यागी श्रावक का दूसरा भेद है। यह वस्त्र के रुप में मात्र लँगोटी धारण करता हैं। अपने हाथ में अंजलि बनाकर दिन में एक बार भोजन करता हैं, तथा दो से चार माह के भीतर अपने सिर और दाढी-मूंछों के बालों को उखेडकर केशलोंच करता हैं।38 एलक अपने हाथों में मयूर पंखों की बनी पिच्छिका रखता हैं। प्रतिमाधारी श्रावक के गुण : प्रतिमाधारी श्रावक आस्तिक्य गुणयुक्त, गुरुदेव वैयावृत्यकारी, व्रती, गुणवान, लोकयात्रा, निवृत्त, लोक व्यवहार विरत, अनेक प्रकार से भावित संवेगमति, मोक्षाभिलाषवासित बुद्धिमान् होना चाहिए।" दर्शनप्रतिमाधारक को अन्यमतावलम्बी ब्राह्मण, भिक्षुकादि को अनुकंपादि से तो दान देना योग्य है, परंतु गुरुबुद्धि से नहीं। इसी प्रकार कुलगुरु आदि अन्यलिङ्गी के विषय में भी समझना चाहिए। प्रतिमाधारी श्रावक को सातवीं सचित्त त्याग प्रतिमा तक चन्दन-पुष्पादि से जिन-पूजा करनी उचित हैं। आठवीं प्रतिमा तक तो निरवद्य होने से कर्पूरादि पूजा भी अनुचित नहीं हैं।" प्रतिमा का कालमान : राजेन्द्र कोश के अनुसार एक-एक प्रतिमां में एक-एक महिना बढाने पर इन ग्यारह प्रतिमाओं को बिना व्यधान के अनुक्रम से एक साथ वहन करने का कुल कालमान साढे पाँच वर्ष अर्थात् 66 महीना हैं । प्रतिमा पालन से लाभ : राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने लिखा है कि, जो श्रावक दशाश्रुतस्कंध में वर्णित उपरोक्त विधि के अनुसार ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का पालन करता है वह गृहस्थ भी साधु जैसा होता हैं। प्रतिमाधारी गृहस्थ गुणश्रेणी द्वारा असंख्यातगुण विशुद्ध होकर पाप को नष्ट करता हैं। और विशेष शुद्धि को प्राप्त करता हैं।43 32. साधुप्रतिक्रमण सूत्र, पृ. 21 33. अ.रा.पृ. 2/1124 34. अ.रा.पृ. 2/1136 35. रत्नकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 147 36. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, 2/189 37. वसुनन्दी श्रावकाचार, श्लोक 301 38. वसुनन्दी श्रावकाचार, श्लोक 311 39. (.....) आस्तिक्य गुरुदेववैयावृत्त्यनियमादिभिगुणैः । अ.रा.पृ. 2/1130 (1....) लोकव्यवहारविरतो लोकयात्रानिवृत्तस्तथा बहुशो अनेकशः संवेगभावितमतिश्च मोक्षाभिलाषवासितबुद्धिस्तथा पूर्वोदितगुणयुक्तो दर्शनादिगुणान्वितो..... -अ.रा.पृ. 2/1134 40. (....) प्रथमश्राद्धप्रतिमायां दर्शनिद्विजादिभ्योऽनुकम्पादिना अन्नादि दातुं कल्पते न तु गुरुबुद्धयेति तत्त्वम् ।।१।। एवं कुलगुर्वादिसम्बन्धेनागतानां लिङ्गिनां दातुं कल्पते । -वही, पृ. 2/1136 41. I....प्रतिमाघर श्रावकाणां सप्तमप्रतिमा यावच्चन्दनपुष्पादिर्हदर्चनमौचित्यं अञचति....कर्पूरादिपूजा तु अष्टम्यादिष्वपि नानुचितेति ज्ञायते तेषां निरवद्यत्वादिति ।-वही पृ. 2/1136 ___42. वही, पृ. 2/1130 43. विधिना दर्शनाद् ध्यानात्, प्रतिमानां प्रपालनम्। यासु स्थितो गृहस्थोऽपि, विशुध्यति विशेषतः ॥ - अ.रा.पृ. 5/332-333, गुत्ती समिइ गुणड्डो, संजमतवनियम कणयकयमउडो । समत्तनाणदंसण, तिरयण संपावियमहग्धो ॥ - अरा.पृ. 7/78 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુરુ શ્રી રાજેન્દ્ર વંદના ) જિસ કે નામસ્મરણ સે લક્ષ્મી સ્વયં ચલી ઘર આતી હૈ જિસ કે નામસ્મરણ સે ભૂતપ્રેત સબ વ્યાધિ જો હર્ટ જાતી હૈ જિન કે સ્મરણ સે સર્વ કો મિલતા યહાં આરામ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ છે જિન કે સ્મરણ સે શારદા આતી સ્વયં ચલકર સદા જિન કે સ્મરણ સે લક્ષ્મી ઘર મેં વાસ કરતી સર્વદા જિન કે સ્મરણ સે કીર્તિયશ મિલતા સદા આરામ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ હૈ મદ મોહ માયા કામ કો તજ રાહ લી વિતરાગ કી બાત કહી જગ કો સદા વીતરાગ કે અનુરાગ કી વિશ્વ કે કલ્યાણકારી આજ જિન કા નામ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ જિન કી રહી મુદ્રા મનોહર સુજ્ઞ જન ગુણ ગા રહે જિન કી અલૌક્કિ દેખ પ્રતિભા પ્રજ્ઞ જન મન ગા રહે જિન કી સદા હૈ છત્રછાયા જો સદા નિષ્કામ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ હૈ જ્ઞાતા અગમ કે વિશ્વ મેં જો નિગમ મેં પરિપૂર્ણ થે ધ્યાતા સદા નવકાર કે સદ્ભાવ સંપદ્ પૂર્ણ થે જિન વચન કે ઉપદેશ દાતા વિમલ જિન કે કામ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ હૈ નિર્મલ નયનદ્રય ભાલ શશિ સમદીતિ દિનકર સમસદા અવિકાર દુર્બલ દેહયષ્ટિ ભવ્ય ભયહર સર્વદા આજાનુ બાહુ કર કમલ પ્રભુવીર પથ વિશ્રામ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ હૈ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम परिच्छेद Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम परिच्छेद आचारपरक शब्दावली के वाच्यार्थ का विस्तार 1. श्वेताम्बर परम्परा और जैनाचार 2. दिगम्बर परम्परा और जैनाचार 3. ब्राह्मण परम्परा और जैनाचार 4. बौद्ध परम्परा और जैनाचार 5. इतर परम्परा और जैनाचार Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम परिरछेद आचारपरक शब्दावली के वाच्यार्थ का विस्तार शब्दों के वाच्य-वाचक सम्बन्ध पर यदि दृष्टिपात किया जाय तो अनेक दार्शनिक दृष्टिकोण प्राप्त होते हैं । सर्वप्रथम अन्विताभिधानवाद और अभिहितान्वयवाद, ये दो सिद्धान्त है जो दो पृथक् पृथक् दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। अन्विताभिधानवाद में यह स्वीकार किया गया है कि वाक्य में प्रयुक्त शब्दों का कोई स्वतन्त्र अर्थ नहीं होता किन्तु वाक्य में प्रयुक्त सभी शब्द मिलकर ही अर्थ का बोध कराते हैं। अन्वितभाभिधानवादियों के मत में वाच्यार्थ ही वाक्यार्थ है। (यह मत लक्ष्यार्थ, व्यङ्गयार्थ और तात्पयार्थ को वाच्यार्थ से भिन्न नहीं मानता) । इसके विपरीत अभिहितान्वयवाद में यह स्वीकार किया गया है कि पदों से प्रतिपादित अर्थ आकांक्षादि के कारण परस्पर सम्बद्ध हो जाते हैं और अपने अर्थ को कहकर निवृत्त हो जाते हैं, अब अवगत अर्थ ही वाक्यार्थ को सम्पादित करते हैं 12 इस शोध प्रबन्ध का विषय शब्दार्थ के दार्शनिक विमर्श को प्रस्तुत करना नहीं है, किन्तु फिर भी जैसा कि इस परिच्छेद के शीर्षक से स्पष्ट है, कोई शब्द किसी शास्त्र में भिन्न अर्थ का वाचक हो सकता है तो अन्य शास्त्र में उससे भिन्न अर्थ का भी वाचक हो सकता है । इतना ही नहीं, अपितु एक शब्द अपने समस्त वाच्यार्थ की दृष्टि से समुदाय का भी बोधक हो सकता है। इस प्रकार शब्दार्थ सम्बन्धी सभी मतों को कथञ्चित् स्वीकार करने से एक एक शब्द के वाच्यार्थ का विस्तार बहुत हो सकता है। आचारपरक दार्शनिक शब्दावली के विषय में भी वाच्यार्थ विस्तार का सिद्धान्त उतना ही समीचीन है जितना अन्य शब्दावली के विषय में उदाहरण के रूप में 'योग' शब्द को लें - 'योग' जिसे समाधि कहते हैं, योगदर्शन में कुछ भिन्न रीति से व्याख्यात है तो जैन दर्शन में भिन्न रीति से । इसी प्रकार 'निर्ग्रन्थ' शब्द की व्याख्या श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कुछ भिन्न रीति से की गयी है तो दिगम्बर सम्प्रदाय में पृथक् रीति से ही की गयी है। इस प्रकार एक ही शब्द का वाच्यार्थ भिन्न भिन्न रुप से विस्तार को पाता है। भारतीय दर्शनों में तर्कशास्त्र और आचार विज्ञान की एक ही भाषा होने से सभी दर्शन शाखाओं में प्रायः एक ही प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है, यद्यपि कुछ शब्द स्वसंज्ञा या तन्त्रसंज्ञा के रुप में भी प्रयुक्त हुए हैं । इसलिए हमने इस शोधप्रबन्ध में इस परिच्छेद के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि भिन्न भिन्न दर्शनों में एक ही शब्द के प्रयुक्त होने पर भी अर्थ में भेद हो सकता है । इस दृष्टिकोण से इस अध्याय को विषयवस्तु को पाँच भागों में बाँटा गया है - 1. श्वेताम्बर परम्परा और जैनाचार 2. दिगम्बर परम्परा और जैनाचार 3. ब्राह्मण परम्परा और जैनाचार 4. बौद्ध परम्परा और जैनाचार 5. इतर परम्परा और जैनाचार। सर्वप्रथम क्रमप्राप्त श्वेताम्बर परम्परा और जैनाचार का विवेचन किया जा रहा है। 1. वाच्य एव वाक्यार्थ इत्यन्विताभिधानवादिनः । -काव्यप्रकाश 2.6 की संस्कृतवृत्ति 2. तस्मात् स एव (अभिहितानामर्थानामन्वय एव) श्रेयान्, पदेभ्यः प्रतिपन्नास्तावदाः आकांक्षायोग्यता सन्निधि योग्यत्ववशेन परस्परं अभिधाय निवृत्तव्यापाराणि, अथ इदानी अर्था अवगता वाक्याथ सम्पादयन्ति । - काव्यप्रकाश 2.6 पर शशिकला टीका में न्यायमञ्जरी से उद्धत Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [394]... पञ्चम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. श्वेताम्बर परम्परा और जैनाचार । आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीमहाराज क्रियोद्धारक श्वेताम्बर जैनाचार्य थे और उनके द्वारा प्रणीत श्री अभिधान राजेन्द्र कोश रचना की पृष्ठभूमि का आधार श्वेताम्बर परम्परा मान्य जैनागम ग्रंथों के शब्द और उनके अर्थ की सुरक्षा थी और आचार्यश्री स्वयं शुद्ध साध्वाचार की जीवन्त मूर्ति थे, अत: आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में श्वेताम्बराम्नाय में मान्य 45 आगमों एवं अन्य आवश्यक ग्रंथों के शब्दों एवं उनसे संबंधित सामग्री का संग्रह करते अनायास ही जैनागमों के शब्दों के माध्यम से श्वेताम्बर परम्परामान्य आचारविज्ञान का अभिधान राजेन्द्र कोश में यत्र-तत्र सर्वत्र वर्णन किया है। और चूंकि इस शोधप्रबन्ध की मुख्य विषयवस्तु भी यही है, अतः इस शोध प्रबन्ध में इसी विषय का पूर्व में यथास्थान विस्तृत वर्णन किया जा चुका है । यहाँ प्रसंगवश श्वेताम्बर परम्परा और जैनाचार का अतिसंक्षिप्त विशिष्ट परिचय दिया जा रहा है। भगवान् महावीर ने केवलज्ञान के पश्चात् धर्मदेशना में सर्वविरति प्रतिलेखन आदि तथा 22 परीषहों के स्वरुप बताकर उन पर विजय और देशविरति - ऐसे दो प्रकार के धर्म की देशना दी जिनमें से प्राप्ति का निर्देश, अतिचार स्थानों के त्याग का उपदेश आदि दर्शाया पहली मुनिधर्म देशना और दूसरी श्रावकधर्म देशना के नाम से प्रसिद्ध गया है। हुई। भगवान् के द्वारा स्थापित चतुविध संघ में भी साधु-साध्वी, मुनि के भेद :और श्रावक-श्राविका द्वारा इन्हीं दो मर्यादाओं का पालन होने से मुनिसंघ एवं चतुर्विध संघ की व्यवस्था हेतु मुनिसंघ में जैनाचार भी 'साध्वाचार' और 'श्रावकाचार' - एसे दो भागों में वर्णित योग्यतानुसार मुनि के तीन भेद दर्शाये गये हैं - 1. आचार्य 2. उपाध्याय 3. साधु (मुनि) निर्ग्रन्थ श्रमणों के आचार का वर्णन करते हुए अभिधान आचार्य :- आचार्य के 36 गुण होते हैं, जो श्वेताम्बराम्नाय में राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने श्वेताम्बर परम्परानुसार निम्न प्रकार से निम्नानुसार वर्णित हैं - साध्वाचार दर्शाया है - पाँच इन्द्रियों का निरोध, नवविध वाड के साथ ब्रह्मचर्य (1) आचार - ज्ञान, दर्शन, चरित्र रुप मोक्ष मार्ग की आराधना का पालन, चार कषायों का त्याग, पाँच महाव्रतों से युक्त दर्शनाचारादि के लिये किया जानेवाला विविध आचार 'आचार' शब्द से पाँच आचारों का पालन, पाँच समितियों एवं तीन गुप्तियों का पालना कहा गया है। गोचरी (भिक्षाचरी); विनय, विनेय (शिष्य का उपाध्याय : - 11 अंग, 12 उपांग, 1 चरणसित्तरी एवं 1 करणसित्तरी स्वरुप और आचार; भाषा-अभाषा; चरणसित्तरी अर्थात् पांच - इन पच्चीस पदार्थों का ज्ञान एवं पालन तथा पठन-पाठन उपाध्याय महाव्रत, दशविध यतिधर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दस प्रकार के पच्चीस गुण हैं।' का वैयावृत्त्य, नव वाड सहित ब्रह्मचर्य का पालन, रत्नत्रय मुनि:- श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के 27 गुण माने हैं। ये 27 गुण की साधना, बारह प्रकार का तप और चार कषायों का निग्रह; निम्नानुसार हैंकरणसित्तरी अर्थात् चार पिंडविशुद्धि, पाँच इन्द्रियों का निरोध, साधु के गुण" :पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ और चार अभिग्रह श्वेताम्बर परम्परा में महाव्रत 5, रात्रिभोजन त्याग 1, पाँचों (क्रिया के सत्तर भेद); संयम यात्रा का पालन, मात्रा (आहार इन्द्रियों का जय 5, भावशुद्धि 1, प्रत्युपेक्षादिकरणशुद्धि 1, क्षमा 1, का प्रमाण), और वृत्ति (संयमचर्या) का समावेश है।। लोभनिग्रह 1, अशुभमन का निरोध 1, अशुभ वचन का निरोध ।, (2) 1. दर्शनाचारः, 2. ज्ञानाचार', 3. चारित्राचार, अशुभकायप्रवृत्ति का निरोध, 1 षट्कायरक्षा 6, संयम योगरक्षा 1, शीतादि 4. तपाचार और 5. वीर्याचार - इस प्रकार से आचार परीषय सहन !, और मरणान्तोपसर्गसहन 1, इस प्रकार साधु के सत्ताईस के पाँच भेद किये गये हैं। गुण हैं। (3) सर्वथा प्राणातिपातविरमण, सर्वथा मृषावादविरमण, सर्वथा साधु के दैनिक कर्तव्य :अदत्तादानविरमण, सर्वथा मैथुनविरमण, सर्वथा परिग्रहविरमण श्वेताम्बर परम्परा में साधु के कर्तव्य दैनिक, पाक्षिक, और सर्वथा रात्रिभोजनविरमण रुप व्रतषट्क, अकल्प्यवर्जन चातुर्मासिक एवं वार्षिक कर्तव्य भेद से निर्धारित हैं, जो निम्नानुसार हैं(अयोग्य पिंड-शय्या-वस्त्र-पात्र-वर्जन), 1. अ.रा.पृ. 2/373 गृहस्थभाजनवर्जन, पर्यक-निषद्या-स्थान और 2. अ.रा.पृ. 2/364,4/2436 शोभावर्जन रुप अठारह प्रकार के आचार का पालन' 3. अ.रा.पृ. 4/1994 4. अ.रा.पृ. 3/1141,1150,1152 - यह सब साध्वाचार में सम्मिलित है। अ.रा.पृ. 4/2200 से 2208 इसके अतिरिक्त साध्वाचार के वर्णन में यथास्थान अनित्यादि 6. अ.रा.पृ. 6/1409 12 भावनाएँ, मैत्र्यादि 4 भावनाएँ, आठ मदों के त्याग का वर्णन, 7. अ.रा.पृ. 6/888 पाँच प्रमादों के त्याग का वर्णन, अष्ट प्रवचन माताओं का पालन 8. पंच प्रतिक्रमण सार्थ एवं दश कल्प, सात चैत्यवंदन, चार बार स्वाध्याय, दोनों समय प्रतिक्रमण, 9. वही 10. साधु प्रतिक्रमण (सार्थ); संबोधसत्तरी प्रकरण 28-29 5. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (1) प्रात: सूर्योदय से पहले छह घडी (2 घण्टा 24 मिनट) रात्रि शेष रहने पर निद्रा का त्याग (2) लघु प्रतिक्रमण (इरियावहियं.), स्वाध्याय- ध्यान (3) राइ (रात्रिक) प्रतिक्रमण (रात्रिसम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त हेतु) (4) पडिलेहण (वस्त्रादि का प्रतिलेखन) (5) जिनदर्शन, चैत्यवंदन/देववंदन, गुरुवंदन, स्वाध्याय ( 6 ) सूत्र सम्बन्धी अध्ययन (7) दिन के प्रथम प्रहर के बीतने पर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन ( उघाडा पोरिसी की मुहपत्ति प्रतिलेखना) अर्थ संबंधी अध्ययन / स्वाध्याय ( 8 ) (9) गोचरी (आहार) चर्या (10) चतुर्थप्रहर के प्रारम्भ में प्रतिलेखन (11) चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय (12) चतुर्थ प्रहर के अंत में गुरुवंदन, स्थंडिल शुद्धि (मांडला) एवं तत्पश्चात् रात्रि के प्रथम प्रहर में देवसिय प्रतिक्रमण का प्रारंभ (13) वैयावृत्त्य, स्वाध्याय (14) रात्रि के प्रथम प्रहर के अन्त में संस्तरण विधि (संथारा पोरिसीरात्रिविश्राम के पूर्व की विधि) (15) रात्रि के द्वितीय एवं तृतीय प्रहर में विश्राम (16) दिन भर में सात बार चैत्यवंदन, चार बार स्वाध्याय एवं कम से कम 500 गाथा (श्लोक) का स्वाध्याय, दशविध चक्रवाल समाचारी (इसका वर्णन चतुर्थ परिच्छेद (क) (5) में किया गया है) का पालना । साधु के पाक्षिक कर्तव्यों में चौदस के दिन पाक्षिक प्रतिक्रमण एवं यथाशक्ति तप आराधना दैनिक कर्तव्यों से विशेष है । साधु के चातुर्मासिक कर्तव्य" : (1) अषाढ सुदि चतुर्दशी से ( चौमासे के) 50 वें दिन (भाद्रपद सुदि चतुर्थी को) पर्युषण (संवत्सरी महापर्व ) करना । (2) वर्षाकाल में चारों ओर पाँच-पाँच कोश (लगभग 15 किलोमीटर) की मर्यादारखना । (3) गहरे जलवाली नदी नहीं उतरना (4) ग्लान (रोगी) साधु की आहारादि से गुर्वाज्ञापूर्वक भक्ति करना । (5) बलवान् और रोगरहित स्वस्थ साधु को दूध, दहीं, घी, तेल और गुड - ये पाँच विकृतियाँ बिना कारण नित्य नहीं लेना । ( 6 ) ग्लान हेतु लाये हुए आहारादि गृहस्थ की अनुमतिपूर्वक ही उपयोग में लेना । (7) गृहस्थ के घर अनदेखी चीज नहीं मांगना । (8) नित्याहारी साधु को बिनाकारण स्वयं के लिए गोचरी हेतु गृहस्थ के घर एक बार से ज्यादा नहीं जाना (उपवासादि के पारणा या रोगादि कारण से जा सकते हैं) । (9) यथायोग्य उष्णादि (21 प्रकारके) प्रासुक जल (आहार करने वालों को भी और उपवासादि करनेवालों को भी) मर्यादापूर्वक ग्रहण कर उपयोग में लेना । पञ्चम परिच्छेद... [395] (10) भोजन पाँच दत्ती (दत्ति - सं.) और पानी पाँच दत्ती से ज्यादा नहीं लेना। प्राचीन मान्यतानुसार एक साथ एक बार में जितना आ जाये उसे दत्ती कहते हैं । किन्तु वर्तमान में साधु जिस गाँव में जाये और विभिन्न घरों से एक बार में जितना आहार लेकर आवे उसे एक दत्ती कहना अपेक्षाकृत होगा । (11) उपाश्रय से सात घर तक गोचरी नहीं जाना । (12) चातुर्मास में फुहार मात्र पानी बरसात हो तो भी जिनकल्पी (पाणिपात्रधारी) मुनि को गोचरी नहीं जाना । (13) चातुर्मास में स्थित स्थविरकल्पी साधु को विशेष कारण से वृद्ध या बाल साधु-साध्वी हेतु फुहार में गोचरी जाना कल्पता है परंतु गोचरी गये स्थविरकल्पी साधु को पानी बरसता हो तो भी दिन में ही वापिस उपाश्रय में आ जाना चाहिए, रात्रि में उपाश्रय से बाहर नहीं रहना । (14) साधु या साध्वी को बिना पूछे उनके लिए आहार नहीं लाना । (15) वर्षा से भीगे हुए शरीर से आहार ग्रहण नहीं करना । (16) प्राण आदि आठों सूक्ष्म को जानकर उनकी बार-बार प्रतिलेखन करना । (17) गुर्वाज्ञा पूर्वक ही गोचरी, जिनदर्शन, स्थंडिल भूमिगमन, धर्मोपदेश, तप, अनशन, स्वाध्याय- ध्यान, धर्मजागरण, कायोत्सर्ग प्रमुख करना और औषधि प्रमुख करवाना । (18) उपधि (पात्र, उपकरण, पुस्तक) आदि धूप में रखने पर किसी को सुपुर्द किये बिना कहीं भी नहीं जाना। (19) एक हाथ ऊँचे पाट पर शयन करना, उसका बार-बार प्रतिलेखन करना । (20) स्थंडिल - मात्रा परठने हेतु तीन-तीन स्थान रखना और उसे बार-बार प्रतिलेखित करना (निरीक्षण करना) । ( 21 ) तीन मात्रक (पात्र) रखना (22) केशलुञ्चन करना (23) संवत्सरी के पूर्व आपस में एवं श्री संघ में खमतखामणां (क्षमापना करना) । (24) गुरु-शिष्य में परस्पर क्षमापना करना । (25) तीन उपाश्रय रखना (कभी परिस्थितिवश आवश्यकता पड़े तो) (26) गुर्वाज्ञापूर्वक ही उपाश्रय से बाहर जाना । (27) रोगादि के कारण चिकित्सा हेतु वैद्यादि के पास जाना पडे तो चार-पाँच योजन जा सकते हैं लेकिन चिकित्सा हेतु जिस गाँव में जाना हो उसी गाँव में रात नहीं रहना । (28) संवत्सरी के स्थविरकल्प (साधु योग्य आचार नियम) की आराधना करना । श्री पर्युषण पर्व के साधुओं में धर्मकार्य 2 :(1) चैत्य परिपाटी करना (जिनदर्शन, वंदन, भक्ति करना) । 11. अ. रा. पृ. 5/238 से 249, कल्पसूत्र (मूल) समाचारी व्याख्या 12. अ.रा. पृ. 5/238 कल्पसूत्र बालावबोध, पृ.29 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [396]... पञ्चम परिच्छेद (2) केशलुञ्चन करना । (3) सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना । (4) सकल श्री संघ से आपस में खमतखामणां (क्षमापना करना । (5) अट्ठम (तीन उपवास) तप करना तथा पाँच दिन तक कल्पसूत्र पढना । अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ब्रह्मचर्य (12) दिशाओं में गमनागमन (13) स्नान (14) भोजन - जल की मर्यादा करना तथा असि (शस्त्र, यंत्र, छुरी, कैची आदि साधन), मसि (लेखन संबंधी) एवं कृषि के उपकरणों को उपयोग करने की यथायोग्य संख्या, वजन य नाप में मर्यादा करना । बारह व्रत'" (सम्यक्त्वपूर्वक) : : श्वेताम्बर परम्परा में श्रावक के 12 व्रत एवं ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ निम्नानुसार हैं। 1 से 5. मुनि के उपकरण : अभिधान राजेन्द्र कोश में 'उवहि' (उपधि) शब्द के अन्तर्गत दो प्रकार के उपकरणों का वर्णन किया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में स्थविरकल्पी मुनि के 14 उपकरणोंका आगमों में वर्णन किया गया है जो पूर्व के परिच्छेद में वर्णित हैं। वहीं पर साध्वियों के लिए 25 उपकरणों का उल्लेख भी किया गया है। श्रावकाचार का पालन करने की योग्यता प्राप्त करने हेतु पहले मार्गानुसारी बनना आवश्यक है अतः अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने भव्य मनुष्य को धर्म के मार्ग पर चलकर श्रावक जीवन की योग्यता प्राप्त करने के लिए मार्गानुसारी जीवन का वर्णन करते हुए मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों का वर्णन निम्नानुसार किया है - मार्गानुसारी श्रावक के गुण : (1) न्यायपूर्वक धनार्जन (2) समान कुलशीलवालों में दाम्पत्य (3) उचित घर का निर्माण (4) माता-पिता की भक्ति (5) आय - व्यय सन्तुलन (6) उचित वेश-भूषा (7) अजीर्ण में लंघन (8) नियमित भोजन ( 9 ) आतिथ्य ( 10 ) व्रतधारी की पूजा ( 11 ) पालक - सेवा दोष त्याग : (12) प्रसिद्ध देशाचार का अनादर (13) अवर्णवाद (14) सोपद्रव स्थल में निवास (15) निन्दनीय प्रवृत्ति (16) अभिनिवेश ( 17 ) अदेशकालज्ञता (18) कषाय (19) विषयासक्ति । गुणग्रहण : (20) पापभीरुता (21) गुणज्ञता (22) स्व-पर बल का ज्ञान (23) दूरदर्शिता (24) विशेषज्ञता (25) लोकप्रियता (26) मर्यादा-प्रेम (27) शान्ति । साधनाएँ (28) शिष्टाचार (29) सदाचारियों से मित्रता (30) धर्म - कथा श्रवण में रुचि (31) बुद्धिमत्ता (32) त्रिवर्ग-सिद्धि (33) कृतज्ञता (34) दयालुता (35) परोपकार श्रावक के गुण 4 : (1) धर्मयुक्त (2) अक्षुद्र (3) सौम्य प्रकृति (4) लोकप्रिय (5) अक्रूर (6) पापभीरु (7) अशठ (8) दक्ष (9) लज्जालु (10) दयालु (11) मध्यस्थ (12) सौम्यदृष्टि- गुणानुरागी (13) सत्कथक (14) सुपक्षयुक्त (सत्संगी) (15) सुदीर्घदृष्टय (16) विशेषज्ञ (17) वृद्धानुग (18) विनीत (19) कृतज्ञ (20) परोपकारी (21) लब्धलक्ष्य । श्रावक के 14 नियम 5: (1) सचित पदार्थ (2) भक्ष्य (आहार में) द्रव्य (3) विगई (4) उपानह की संख्या (5) तंबोल (मुखवासादि) (6) वस्त्र (7) पुष्पादि, इत्रादि, सुगंधीद्रव्य (8) वाहन (9) शयन (10) विलेपन द्रव्य (11) 6 से 8. 9 से 12. स्थूल प्राणातिपात मृषावाद अदत्तादान मैथुन परिग्रह विरमणव्रत दिक्परिमाण व्रत, भोगोपभोग विरमण व्रत, अनर्थदण्ड विरमण व्रत सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग व्रत । : : : ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ" : (1) दर्शन (2) व्रत (3) सामायिक (4) पौषध (5) प्रतिमा (6) ब्रह्मचर्य (7) सचित्तत्याग (8) आरंभवर्जन (9) प्रेष्यवर्जन (10) उद्दिष्टवर्जन ( 11 ) श्रमणभूत । श्रावक के कर्तव्य - सूक्तमुक्तावली में आचार्य सोमप्रभसूरिने मनुष्य जन्म के साफल्य हेतु जैनों के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए कहा है (1) जिनपूजा (2) गुरु भक्ति (वैयावृत्त्य) (3) जीवदया (4) सुपात्रदान (5) गुणानुराग और (6) जिनवाणी (आगम शास्त्रों का) श्रवण - ये छः कर्तव्य मनुष्य जन्मरुपी वृक्ष के फल है 18 । श्वेताम्बर परम्परा में श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र में 'मण्ह जिणाणं' स्वाध्याय में श्रावकों के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए महर्षिने कहा हैं- श्रावकों को सुगुरूपदेश से निम्नाङ्कित 36 कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। " - (1) जिनाज्ञापालन (2) मिथ्यात्व का त्याग ( 3 ) सम्यक्त्व का धारण (4 से 9) सामायिक, चतुर्विशंतिवंदन, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान इन छः आवश्यकों (प्रतिक्रमण) में उद्यम (10) पर्वतिथियों को पौषध व्रत (11) दान (12) शील (13) तप (14) भाव (15) स्वाध्याय (16) नवकार जाप (17) परोपकार (18) जयणा (19) जिनपूजा (20) जिनस्तव (भक्ति) (21) गुरुभक्ति (वैयावृत्त्य) (22) साधर्मी वात्सल्य (23) व्यवहार शुद्धि (24) रथयात्रा ( 25 ) तीर्थयात्रा (26) उपशम (27) विवेक (28) संवर ( 29 ) भाषासमिति का पालन (30) जीवदया (31) सत्संग (32) इन्द्रियदमन (33) चारित्र के परिणाम (दीक्षा की भावना) (34) श्रीसंघ के प्रति बहुमान (25) ग्रंथलेखन (36) शासन प्रभावना । आचार्य श्रीमद्विजय रत्नशेखरसूरिने श्राद्धविधि प्रकरण में श्रावकों के दैनिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक आदि कर्तव्यों का निम्नानुसार वर्णन किया है जिसका अभिधानराजेन्द्र कोश एवं इस शोध प्रबन्ध 13. अ. रा. पृ. 2/6, योगशास्त्र 1/47 से 56 14. अ. रा.पृ. 7/792, संबोध सत्तरी प्रकरण 31, 32, 33; धर्मरत्न प्रकरण 5,6,7 15. श्राद्धविधिप्रकरण पृ. 37; उपासकदशांग सूत्र, प्रथम अध्ययन श्रावक प्रतिक्रमण, वंदितु सूत्र, गाथा-8 16. 17. संबोधसत्तरी प्रकरण - 79 18. सूक्तमुक्तावली - 93 19. श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र, मण्ह जिणाणं सज्झाय Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [397] में यथास्थान विस्तार किया गया है । (4) ज्ञानपंचमी के दिन ज्ञानपूजा पढाना, ज्ञान की आराधना करना । श्रावक के दैनिक कर्तव्य : (5) जिनालय-उपाश्रय की शुद्धि, साज-सज्जा, गहुँली आदि करना। (1) चार घडी रात शेष रहे तब उठना (2) महामंत्र का स्मरण (6) जिनपूजा-दर्शन-वंदन। (3) सामायिक, प्रतिक्रमण (4) देवदर्शन, वासक्षेपपूजादि (5) गुरुवंदन (7) जिनबिंब की शुद्धि करना। (6) गृहव्यवस्था विधि (7) व्याख्यान श्रवण (8) विधिपूर्वक स्थान (8) त्रस जीवों की रक्षा का प्रयत्न करना। (9) विधिपूर्वक स्वद्रव्य से जिनपूजा (10) विधिपूर्वक भोजन (11) (9) अभ्याख्यान, आक्रोश, कटुवचन, देवगुरुनिंदा, पैशुन्य, विधिपूर्वक सुपात्रदान (12) व्यापार शुद्धि (13) शाम को आरती और परपरिवाद, दृष्टिवंचन (कपट) का त्याग । मंगल दीपक (14) दैवसिक (संध्या) प्रतिक्रमण (15) गुरुसेवा (16) (10) जयणापूर्वक गृहकार्यादि करना । स्वाध्याय (17) धर्मचर्चा (मित्र-परिवार आदि के साथ) (18) माता (11) दिन में ब्रह्मचर्य पालन, रात्रि में पर स्त्री/पर पुरुष का त्याग पिता-पति आदि की सेवा (19) दीक्षा हेतु मनोरथ सेवन । करना। तत्पश्चात् रात्रि का प्रथम प्रहर पूर्ण होने पर श्री नवकार मंत्री (12) धन-धान्यादि नव प्रकार के परिग्रह का संक्षेप (कम) करना। का स्मरण करतेहुए श्रावक विश्राम करें। (13) गमनागमन का वर्षाऋतु में यथाशक्य त्याग। जैनों के संध्या कर्तव्य : (14) स्नान-अंगराग (शरीर शोभा) आदि की मात्रा (परिमाण) का (1) श्रावक प्रायः एकासन व्रत करे; यदि हो सके रात्रि भोजन नियम। त्याग करें; यथाशक्ति चोविहार (रात्रि में चतुर्विधाहार का त्याग) (15) तुच्छफल, सचित्तफल, बहुबीज, अनन्तकायभक्षण का त्याग। तिविहार (त्रिविधाहार का त्याग - अर्थात् केवल जल ग्रहण (16) विकृतियों (दूध, दही, घी, तेल, गुड/शक्कर और कडाविगई) की छूट) दुविहार (विशिष्ट कारण होने पर द्विविधाहार का के उपयोग की मात्रा का नियमन करना। त्याग; जल, दूध एवं औषधि लेनी की छूट) का प्रत्याख्यान (17) प्रतिदिन खाद्य द्रव्यों का नियमन (संक्षेप) करना। करें। (18) गृहकार्य, क्षेत्रकार्यादि आरम्भादि के कार्यों का संक्षेप करना। (2) धूप, आरती, मंगल दीपक पूर्वक जिनपूजा करें। भावपूजा (19) दिशावकाशिक व्रत धारण करना। में देववंदन-चैत्यवंदनानि करें। (20) भाषा समिति, वचन गुप्ति का पालन करना अर्थात् असंबद्ध (3) देवसिअ (दैवसिक) प्रतिक्रमण करना या अतिशय और कर्कश वचन का त्याग। (4) गुरु भगवंतोंकी वैयावृत्त्य करना। (21) पुरुष/स्त्री के द्वारा उपभुक्त आसन एवं शय्या का त्याग । (5) स्वाध्याय करना (22) भोगोपभोग की वस्तुओं का नियम करना (संक्षेप करना)। (6) घर जाकर पुत्र-पौत्रादि परिवारजनों को धर्मकथा कहना । (23) अनर्थदंड का त्याग करना। जैनों के रात्रिकालीन कर्तव्य : (24) सामायिक, पौषध, अतिथिसंविभाग आदि व्रतों का पालन करना। (1) प्रायः मैथुन का त्याग करना (यथाशक्य अल्प मैथुन) (25) प्रतिदिन 14 नियमों के अंतर्गत सर्वद्रव्यों एवं कार्यों का (2) देव-गुरु स्मरण/स्मृति (याद करना) । (3) चैत्यवंदन, देवगुरु नमस्कार, संक्षेप करना। चारों आहार का त्याग करके देशावगासिक व्रत ग्रहण करना। (4) (26) यथाशक्ति आरंभ-समारंभ के समस्त कार्यों का संक्षेप कर अरिहंतादि चारों शरण अंगीकार करना । (5) सर्व जीवों से क्षमायाचना उन नियमोंको प्रतिदिन पढना। करना । (6) प्राणातिपातादि अठारह पाप स्थानों का त्याग करना । (7) (27) जिनदर्शन करना। दुष्कृत गर्दा (निंदा), सुकृत-अनुमोदना करना । (8) आहार-शरीर-उपधि (28) यथाशक्ति आरंभ-समारंभ के समस्त कार्यों का संक्षेप कर के त्यागपूर्वक सागारी अनशन स्वीकार करना । (9) पाँच नवकार गिनना। उन नियमों को प्रतिदिन पढना। (10) स्वयं की शय्या में अकेला निद्रा (विश्राम) करें। (11) जागृत होने पर स्त्री शरीर की अशुचिता का चिन्तन करें और उत्तम भावना (29) अष्टमी, चतुर्दशी एवं जिनेश्वर भगवान् के कल्याणक की भावें। तिथियों में उपवासादि विशेष तप करना। (30) धर्मकार्यो में उद्यम करना। जैनों के पर्व (त्यौहार) के कर्तव्य: (31) धर्मपालन हेतु जयणापूर्वक बोलना, जल छानकर उपयोग (1) पौषध व्रत करना या दोनों समय प्रतिक्रमण और करना। अधिकाधिक सामायिक करना । (2) ब्रह्मचर्य पालन करना । (3) आरंभ (32) औषधादि का दान देना। का त्याग करना। (4) यथाशक्ति विशेष तप करना । (5) स्नात्र पूजा, (33) साधर्मी वात्सल्य करना, स्वामिवात्सल्य करना। चैत्य परिपाटी (जिन दर्शन, गुरु वंदन, सुपात्र दान, देवगुरुपूजा, दानादि (34) गुरु का यथाशक्ति विनयादि करना। कार्य करना । (6) सचित्ताहार का त्याग करना । (7) यथाशक्ति आरम्भ (35) प्रासुक जल उपयोग करना। समारम्भ-महारम्भ का त्याग करना। (36) यथाशक्ति अतिथिसंविभाग व्रत करना। जैनो के चातुर्मासिक कार्य24 : 20. अ.रा.पृ. 7/781, 784, 785; श्राद्धविधि प्रकरण, प्रथम प्रकाश; (1) ज्ञानाचारादि पंचाचार का पालन करना। 21. अ.रा.प. 7785, श्राद्धविधि प्रकरण, प्रथम प्रकाश; गाथा 9, पृ. 103 (2) चैत्य परिपाटी करना। 22. अ. रा. पृ. 7/525; श्राद्धविधि प्रकरण, द्वितीय प्रकाश; पृ. 107, 108; (3) देशना (जिनवाणी) श्रवण, चिंतन । 23. श्राद्धविधि प्रकरण, तृतीय प्रकाश, अ.रा.पृ. 7/725 24. अ.रा.पृ 3/1169: 5/799, श्राद्धविधि प्रकरण, चतुर्थ प्रकाश; पृ. 114; Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [398]... पञ्चम परिच्छेद जैनियों के वार्षिक 11 कर्तव्य25: (1) संघ भक्ति (2) साधर्मिक भक्ति (3) तीर्थयात्रा (4) स्नात्र महोत्सव (5) देवद्रव्य की वृद्धि (6) महापूजा ( 7 ) रात्रि जागरण (जिन भक्ति हेतु) (8) श्रुतभक्ति (9) उद्यापन (उजमणां) (10) तीर्थ प्रभावना और (11) आलोचना / प्रायश्चित्त ग्रहण करना । जैनियों के जीवन भर के बृहत्कर्तव्य": - अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन से अभिषेक करना, कुसुमाञ्जलि चढाना, विलेपन, नवांग पूजा (चंदन केसर बरसादि से), पूष्पपूजा, चांदी आदि की आंगी चढाना, चंदनकेसर या अन्य योग्य पदार्थो से आंगी बनाना, जिनेश्वर के हाथ में बिजोरादि रखना, वासक्षेप से पूजा करना, आभूषण पहनाना आदि अनेक प्रकार से अंगपूजा की जाती है। अग्रपूजा :- जो पूजा परमात्मा के सन्मुख की जाती है, जिसमें जिनप्रतिमादि को स्पर्श की आवश्यकता नहीं है, वह अग्रपूजा है। परमात्मा के सामने कृष्णागरु, यक्षकर्दम, दशांग धूप आदि की जाने वाली धूपपूजा, शुद्ध घी का दीपक, अक्षतादि से अष्टमंगल (स्वस्तिक, भद्रासन, कलश, सिंहासन, नदावर्त, संपुट, दर्पण, मीनयुगल) आदि का आलेखन करना, फूल, फूलों की माला, गुलदस्ता रखना, अशन-पान - खादिम - स्वादिम ये चार प्रकार का नैवेद्य धरना, श्रीफल, बिजोरा आम्रादि देशकालानुसार प्राप्त उत्तम फल रखना, गीत-नृत्यवादित्र आदि तथा आरती, मंगल दीपक करना आदि अनेक प्रकार से अग्रपूजा की जाती है। (1) जिन मंदिर का निर्माण करना, जीर्णोद्धार करवाना (2) जिन प्रतिमा भरवाना (3) उपाश्रय बनवाना (4) तीर्थयात्रा का छः री 27 पालक (पैदल) संघ निकालना (5) अपने पुत्र-पुत्रियों को साधु-साध्वी बनने की प्रेरणा देना । (6) आचार्य पदवीका महोत्सव करना (7) आगम शास्त्र लिखवाना । श्रावकों के पर्युषण पर्व के कर्तव्य" : (1) अमारी प्रवर्तन (अहिंसा पालन) (2) छट्ट (दो उपवास), अट्टम (तीन उपवास) का तप (3) सुपात्रदान (4) नारियल प्रमुख प्रभावना (5) जिनपूजा - चैत्यपरिपाटी (जिनदर्शन, वंदन- भक्ति) (6) सर्वसाधुओं को वंदन (7) श्री संघ भक्ति (8) सचित्त त्याग (9) ब्रह्मचर्य पालन (10) आरंभत्याग (11) सन्मार्ग में द्रव्य व्यय ( 12 ) श्रुतज्ञान की भक्ति (13) अभयदान (14) कार्योत्सर्ग (15) उभय काल प्रतिक्रमण (16) महोत्सव (17) कल्पसूत्र पाठक की अशनादि से भक्ति (18) श्री संघ में परस्पर खमतखामणां (क्षमापना) (19) भावना का चिन्तन (20) कल्पसूत्र श्रवण । जैनियों को जैसे उक्त कर्तव्यों से अपने जीवन को सफल बनाना है वैसे शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के लिए निम्न पापों का त्याग भी करणीय है (क) नरक के चार द्वारों का त्याग : (1) रात्रि भोजन त्याग (2) परस्त्रीगमन (3) अभक्ष्य अनंतकाय भोजन त्याग (4) चलित रस (जिसके वर्ण-गंधादि परिवर्तन हो गये हो वैसे आचार -मुरब्बादि खाद्यों का) त्याग । (ख) चार लोकोत्तर पापों का त्याग - (1) मुनि हत्या (2) साध्वी का शील भंग करना (3) जिन मंदिर और जिन मूर्ति को तोडना अथवा इसके विषय में किसी की श्रद्धा का नाश करना। (4) देवद्रव्य का नाश या दुरुपयोग । (ग) सप्तव्यसन का त्याग - (1) चोरी (2) जुआ (3) शिकार (4) मद्य (शराब, बीयर आदि तथा उपलक्षण से चरस, भाँग आदि) (5) मांसाहार (6) परस्त्रीगमन (7) वेश्यागमन । (घ) चार महाविकृतियों का त्याग 2 - (1) मधु (शहद) (2) मक्खन (3) मांस और (4) मदिरा (शराब आदि) । श्वेताम्बर परम्परा में पूजा विधि : श्वेताम्बर परम्परा में श्री जिनेश्वर (जिनबिम्ब) की पूजा का वर्णन करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने जिन पूजा के विधि भेदोपभेदों का वर्णन किया है। अंगपूजा, अग्रपूजा और भावपूजा - इस प्रकार जिनपूजा तीन प्रकार की है। अंगपूजा :- जिस पूजा में परमात्मा के अंग को स्पर्श करने की आवश्यकता होती है उसे अंगपूजा कहते है। जिनप्रतिमा से पुष्पादि निर्माल्य उतारना, पञ्चामृत (दूध, दही, घी, मिश्री और शुद्ध जल ) भावपूजा :- परमात्मा के आगे चैत्यवंदन करना, स्तुति करना, यह भाव पूजा है। इन पूजाओं में उत्तम भावों से युक्त होकर गृहस्थ श्रावक विभिन्न द्रव्यों से अनेक प्रकार से जिनपूजा करता-करवाता है, जिसमें पुष्प - अक्षत-गंध-धूप और दीप से की जाने वाली पूजा पञ्चोपचारी, जल - चंदन- पुष्प-धूप-दीप-अक्षत-नैवेद्य और फल से की जाने वाली पूजा अष्टप्रकारी एवं (1) जल (2) विलेपन (3) वस्त्र युगल समर्पण (4) वासक्षेप समर्पण (5) पुष्प समर्पण (6) पुष्पमाला समर्पण (7) पंचवर्ण की अङ्ग - रचना (अङ्गविन्यास) (8) गन्ध समर्पण (9) ध्वजा समर्पण (10) आभूषण समर्पण (11) पुष्पगृहरचना 912) पुष्पवृष्टि (13) अष्टमङ्गल रचना (14) धूप समर्पण (15) स्तुति (16) नृत्य और (17) वादित्र पूजा (बाजे बजाना) सत्रहभेदी पूजा है। इसी प्रकार जैन शास्त्रों में 21 भेदी, 64 प्रकारी, 99 प्रकारी आदि अनेक प्रकार की पूजाएँ हैं जिन्हें सर्वोपचारी पूजा कहते है, जिसका विस्तृत वर्णन 'राजप्रश्नीय (रायप्पसेणीय)' सूत्र, आवश्यक निर्युक्ति, चैत्यवन्दन महाभाष्य आदि ग्रंथो में किया गया है। इस प्रकार यहाँ पर श्वेताम्बर परम्परानुसार जैनाचार (साध्वाचार और श्रावकाचार) का अति संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया गया है जिसका इस शोधप्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में यथास्थान विस्तृत वर्णन पूर्व में हम कर चुके हैं। 25. श्राद्धविधि प्रकरण, पंचम प्रकाश 5/12-13; अ.रा. 6 / 1100 श्राद्धविधि प्रकरण, षष्ठ प्रकाश 26. 27. समकितधारी, पदचारी (पैदल चलना), ब्रह्मचारी, सचित परिहारी, एकल आहारी, भू-संथारी इन छः नियमों का पालन करते हुए तीर्थयात्रा करना - करवाना 28. कल्पसूत्र बालावबोध, पृ.30 29. पद्म पुराण, प्रभास खंड, रात्रिभोजन महापाप पृ 16 से उद्धृत 30. संबोधसत्तरी प्रकरण- 104 31. पच्चकखाण भाष्य 41 32. योगशास्त्र 3/6 33. क. अ. रा. भा. 3 पृ. 'चेइय' शब्द; ख. अंगग्गभाव भेया पुप्फऽऽहार - तुईहि पूय-तिगं । पञ्चवयारा अट्ठो वयार सब्वोवयारा वा ॥ चैत्यवन्दनभाष्य गाथा 10 एवं उसका विवेचन, पृ. 76,77 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [399] 2. दिगम्बर परम्परा और जैनाचार दिगम्बर परम्परा में भी धर्मसाधना दो प्रकार की स्वीकृत है -- सर्वविरति और देशविरति । पुरुषार्थसिद्धयुपाय में स्पष्ट किया गया है कि उपदेशक का कर्तव्य है कि वह श्रोता को सबसे पहले तो सर्वविरति का उपदेश करे, यदि श्रोता सर्वविरति में असमर्थता प्रगट करे तभी देशविरति का उपदेश करना चाहिए । इसका कारण यह है कि सर्वविरति के विना पूर्ण धर्म प्रगट नहीं होता और सर्वविरति के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। सर्वविरत अर्थात् मुनि के लिङ्ग का वर्णन करते हुए कहा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी मुनियों के आचार्य, उपाध्याय और है कि नग्न मुद्रा, संस्कार/अलंकार से रहित शरीर, सिर, दाढी और साधु - एसे तीन भेद किये गये हैं। दोनों परम्पराओं में आचार्य मूंछ के केशों का हाथ से लुञ्चन और हाथ में मयूरपंख की पिच्छि के 36 और उपाध्याय के 25 गुण समान रुप से स्वीकृत हैं। जबकि तथा काष्ठ के कमण्डलु के अतिरिक्त अन्य समस्त परिग्रह से रहित मुनि के श्वेताम्बर परम्परा मं 27 और दिगम्बर परम्परा में 28 गुण जैन मुनि हैं। माने गये हैं। जैन मुनि के गुणों का वर्णन करते हुए आचार्य नेमिचंद्र आर्यिका :ने दिगम्बर परम्परानुसार मुनि के अट्ठाईस गुणों का वर्णन करते हुए दिगम्बर परम्परा में भी पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी उत्कृष्ट कहा है - पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, संयम धारण कर मोक्षमार्ग में अग्रसर हो सकती हैं (यद्यपि उन्हें स्त्रीरुप छह आवश्यक, अदन्तधावन, अस्नान, भूमिशयन, एकभुक्ति, स्थितिभोजन, में मोक्षप्राप्ति का सामर्थ्य दिगम्बर परम्परा में मान्य नहीं है) उत्कृष्ट केशलुंचना और नग्नता - इन अट्ठाईस मूलगुणों का पालन प्रत्येक संयम धारण करनेवाली स्त्रियाँ आर्यिका कहलाती हैं। आर्यिकाओं दिगम्बर जैन मुनि के लिए अनिवार्य है। का समस्त आचार प्रायः मुनियों के समान ही होता है। अन्तर मात्र पाँच महाव्रत :- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का इतना है कि स्त्रीपर्यायगत मर्यादा के कारण आर्यिकाएँ मुनियों की प्रतिज्ञापूर्वक पूर्णरुप से परित्याग कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तरह निर्वस्त्र नहीं रहतीं, अपितु शरीर पर एक सफेद साडी धारण और अपरिग्रह व्रत को सकलरुप से - पञ्चमहाव्रत कहा गया करती है और बैठकर ही अपने अञ्जलिपुटों में आहार करती हैं। आर्यिकाएँ है। इनके नाम अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, दो-तीन आदि आर्यिकाओं के समूह में रहती हैं। इनकी प्रधान 'गणनी' ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत हैं। इनका विस्तृत वर्णन कहलाती है, जिनके निर्देशन में ये अपने संयम का अनुपालन करती हम शोधप्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में यथास्थान कर चुके हैं। हैं। इनके महाव्रतों को औपचारिक महाव्रत कहा जाता है। आर्यिकाएँ इसी प्रकार पाँच समिति, पाँचों इन्द्रियों का निरोध एवं षड् क्षुल्लक-एलक (श्रावकभेद) से उच्च श्रेणी की मानी गयी हैं। आवश्यक का पूर्व में विस्तृत वर्णन किया जा चुका है। यहाँ शेष श्रावक :सात गुणों का परिचय दिया जा रहा है। पं. दौलतरामजीने कहा है श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी चतुर्थ (1) अस्त्रान (2) अदन्तधावन (3) नग्नता (4) भूशयन (5) गुणस्थान में मिथ्यात्व के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम तथा अनन्तानुबंधी स्थितिभुक्ति (6) एकभुक्ति (एकाशन) और (7) केशलोंच - ये मुनि कषाय के क्षयोपशम के बाद अप्रत्याख्यानीय कषाय के क्षयोपशम, के शेष सात गुण हैं। पाँचो स्थावरों के वध में प्रवृत्त होने पर भी यथाशक्ति त्रस के वध वीतरागी मुनियों को स्नान और दाँत को स्वच्छ करना नहीं से निवृत्त होनेवाले, पाँचों आस्रवों (हिंसादि) के एकदेश त्याग में होता; शरीर ढंकने के लिए किञ्चित् भी वस्त्र नहीं होता; रात्रि के लगे हुए, पंचम गुणस्थान योग्य दान, शील, पूजा, उपवासादि रुप पिछले भाग में स्वाध्याय, ध्यान, विहारजन्य थकान दूर करने के लिए अथवा दर्शनप्रतिमादि ग्यारह प्रतिमारुप व्रतादि धारण करने वाले मनुष्य धरती पर या शिला, लकडी के पाटे, सूखे घास अथवा चटाई पर को श्रावक कहते हैं। एक करवट विश्राम करते हैं; दिन में एक बार खडे रहकर अपने हाथों को ही पात्र बनाकर गोचरीवृत्ति से आहार करते हैं; सिर और 1. योगसार 8/52; आचार सार 1/11 दाढी-मूंछ के बालों का केशलोंच करते हैं। 2. बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 35 की टीका; पञ्चाध्यायी 2/743, 744; ज्ञानार्णव 8/6 उक्त अट्ठाईस मूलगुणों के अतिरिक्त जैनमुनि पूर्वकथित क्षमादि प्रवचनसारोद्धार-208, 209 - आचार्य नेमिचंद्र सूरि दश धर्म, अनित्यादि बारह भावना, क्षुधादि परषह जय, पाँच समिति, 3. रत्नकरंडक श्रावकाचार 49, 50; चारित्र पाहुड-30 तीन गुप्ति, बारह प्रकार का तप आदि संवर और निर्जरा के अङ्गभूत 4. चारित्र पाहुड-30 सभी साधनों की आराधना करते हैं। उनमें श्वेताम्बर और दिगम्बर 5. पं. दौलतरामकृत छहढाला, छठवीं ढाल, छन्द 5 का उत्तरार्द्ध एवं 6 का पूर्वार्द्ध परम्परा में जो कुछ आंशिक भेद है वह पूर्व में यथास्थान दर्शाया व अन्वयार्थ, पृ. 161 6. जैन धर्म और दर्शन, पृ. 296 - मुनि प्रमाणसागरजी गया है। साधु के भेदों के अनुसार गुण : 7. जिनागामसार, प्रकरण 7/2 (ख) (1) पृ. 739, 741; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 41 से ।।6; बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा 45 की टीका पृ. 220; गोम्मटसार, जैन मुनियों के अलग-अलग कर्तव्यों की अपेक्षा श्वेताम्बराम्नाय जीवकाण्ड गाथा 476 व टीका; सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पृ. 577 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [400]... पञ्चम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जैन शास्त्रों में 'श्रावक' के अर्थ में उपासक, सागार, गृही, मद्य-मांस और मधु तो प्रकार रुप से हिंसाजनित होने से गृहस्थ, देशविरत, देशसंयत, अणुव्रती आदि शब्दों का प्रयोग किया त्याज्य हैं। उसी प्रकार पाँच उदम्बर में बहुसंख्या में त्रस जीव होने गया है। उनके आचार धर्म को शास्त्रों में सागार धर्म कहते है। से वे भी त्याज्य हैं। संक्षेप में सागार धर्म का वर्णन करते हुए पंडित आशाधरने शंकादि जैनागमों के अनुसार अनछाने जल की एक बूंद में इतने दोषों से रहित सम्यगदर्शन, निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत अधिक त्रस जीव होते हैं कि वे यदि कबूतर की तरह उडे तो (का पालन), और मरणसमय में विधिपूर्वक संलेखना - यह पूर्ण पूरे जम्बुद्वीप को व्याप्त कर ले20, या सरसों के दाने जितने बडे सागारधर्म है। इसी का विस्तृत वर्णन करते दिगम्बर परम्परा में व्रतों हो जायें तो पूरे जम्बुद्वीप में नहीं समा सकते ।। मनुस्मृति में के परिपालन के क्रमानुसार श्रावक के तीन भेद किये गये हैं - (1) भी कहा है- "दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् । अतः पाक्षिक (2) नैष्ठिक और (3) साधक।10 हिंसा और रोगों से बचने हेतु पानी छानकर ही पीना चाहिए। त्रस पाक्षिक श्रावक : हिंसा, रोग एवं दुर्गति से बचने हेतु श्रावक को रात्रिभोजन त्याज्य __ 'पाक्षिक' का अर्थ है जो जिनेन्द्र भगवान् के पक्ष को ग्रहण है, इसका विस्तृत वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। सागर धर्मामृत कर चुका है। पाक्षिक श्रावक की श्रेणी में वे सभी श्रावक आ जाते में कहा है कि पाक्षिक श्रावक यदि रात्रि भोजन का पूर्ण त्याग न हैं जो जिनेन्द्र भगवान् के पक्ष को ग्रहण करते हैं तथा जैन कुल कर सके, तो कम से कम पान, दवा, जल, दूध आदि की छूट क्रमानुसार अपना आचरण रखते हैं। यह गृहस्थ की प्राथमिक भूमिका रखकर अन्य स्थूल आहार का त्याग तो करना ही चाहिए।23 है। इस भूमिकावाले श्रावक में सभी आवश्यक नैतिक गुण आ जाते नैष्ठिक श्रावक :हैं।।। इसका वर्णन करते हुए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है देशचारित्र को घात करनेवाली कषाय के क्षयोपशम के 'जो स्त्री-पुत्र-धन-धान्यादि परिग्रह सहित घर में ही निवास उत्तरोत्तर उत्कर्ष के कारण दार्शनिक आदि ग्यारह अवस्थाओं के करते हैं, जिनवचनों के श्रद्धानी हैं, न्यायमार्ग का उल्लंघन नहीं करते अधीन तथा पाक्षिक की अपेक्षा उत्तम लेश्यावाला नैष्ठिक श्रावक हैं, पापों से भयभीत हैं एसे ज्ञानी गृहस्थों के विकल चारित्र हैं''12 होता है। व्रतधारी श्रावक नैष्ठिक कहलाता है। पाक्षिक श्रावक सागरधर्मामृत में भी श्रावकधर्मपालक की योग्यता का अपने व्रतों को कुलाचार के रुप में पालन करता हैं, उसमें कदाचित् वर्णन करते हुए पं. आशाधरने कहा है- "न्यायपूर्वक धनोपार्जक; । अतिचार भी लग सकते हैं किन्तु नैष्ठिक श्रावक व्रतों का निरतिचार गुणों, गुरुजनों और गुणीजनों का पूजक एवं उनका आदर-सत्कार पालन करते हैं।26 करने वाला; परनिन्दा, कठोरतादि से रहित; प्रशस्तवक्ता; परस्पर एक दिगम्बर परम्परा मैं नैष्ठिक श्रावक के उत्तरोत्तर विकास हेतु दूसरे को हानि न पहँचाते हुए धर्म, अर्थ और काम का सेवन करने ग्यारह श्रेणीयाँ हैं, जिन्हें ग्यारह प्रतिमाएँ कहते हैं। वे इस प्रकार वाला एवं उनके योग्य पत्नी, गाँव, नगर और भवनवाला, लज्जाशील, हैं - दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषधोपवास, सचित्त-विरत, दिवा मैथुन त्याग, पूर्ण ब्रह्मचर्य, आरंभ-त्याग, परिग्रह-त्याग, अनुमति त्याग शास्त्रानुसार भोजनपान और गमनागमन करनेवाला; सत्संगी, प्राज्ञ, तथा उद्दिष्ट त्याग। इसमें ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक और एलक कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, धर्मविधिश्रोता, दयालु और पापभीरु पुरुष गृहस्थधर्म - एसे दो भेद हैं। के पालन में समर्थ होता हैं।13 उक्त विशेषताओं से भूषित व्यक्ति 8. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 40, 413; रनकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 50 ही एक आदर्श गृहस्थ की श्रेणी में समाविष्ट होता है। 9. सागारधर्मामृत दिगम्बर परम्परा में पाक्षिक श्रावक के 'अष्ट मूलगुण' का 10. सागारधर्मामृत 1/20 अलग-अलग प्रकार से वर्णन किया गया है 11. जैनेन्द्रसिद्धांत कोश - 4/16 आचार्य समन्तभद्रने मद्य, मांस, मधु के त्याग सहित पाँच 12. स्त्रकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 50 अणुव्रतों (के पालन) को गृहस्थों के अष्टमूलगुण नाना है। 4 पंडित 13. सागारधर्मामृत ।। आशाधर ने पाक्षिक श्रावक को मद्य, मांस, मधु (सहद), और पाँच 14. स्त्रकरंडक श्रावकाचार-3/66; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 45 की टीका उदुम्बर (पीपल, ऊमर, बड, कठूमर, पाकर) फलों का त्याग और 15. सागारधर्मामृत 2/2 'च' शब्द से मक्खन, रात्रिभोजन और बिना छने जल का त्यग करने 16. सागारधर्मामत 2/18 का विधान किया है। वहीं प्रकारान्त से अष्टमूलगुण का वर्णन करते 17. वही, पृ. 63 18. जैन धर्म और दर्शन, पृ. 262 - मुनि प्रमाणसागर जी हुए यह भी कहा है कि 'देव, गुरु और धर्म के प्रति समर्पित पाक्षिक 19. वही श्रावक के मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन, पाँच उदुम्बर फलों का 20. एक बिन्दूद्भवा जीवाः पारावतसमा यदि । भूत्वा चरन्ति चेज्जम्बुद्वीपोऽपि त्याग, अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु - इन पाँच पूर्यते यतः ॥ व्रतविधान संग्रह परमेष्ठियों की स्तुति, जीवदया तथा पानी को वस्त्र द्वारा अच्छी तरह 21. एगम्मि उदगबिंदुमि जे जीवा जिणवरेहि पण्णत्ता। ते जई सरसिमित्ता जंबूदीवे छानकर पीना - ये आठ मूलगुण हैं। पं. आशाधरने इन अष्टगुणों णा मायंति ॥ - प्रवचन सारोद्धार; संबोधसत्तरी प्रकरण - 95 22. मनस्मृति, 6146 का महत्त्व बताते हुए कहा है - इनमें से एक के भी बिना श्रावक 23. सागारधर्मामृत - 2 176; लाही संहिता - 2/92 गृहस्थ-श्रावक कहलाने का पात्र नहीं है।" 24. सागारधर्मामृत 3/1 उपरोक्त बातें अहिंसा की दृष्टि से कही गयी हैं। जैन होने 25. जैनेन्द्रसिद्धांत कोश - 3/46 के ये मूल चिह्न हैं। इसके बिना वह नाम से भी 'जैन' नहीं कहला 26. सागारधर्मामृत 3/4 सकता।18 27. कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - 305-6; रत्नकरंडक श्रावकाचार - 136; सागारधर्मामृत 3/2-3 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [401] दिगम्बर परम्परा में पाक्षिक श्रावक की समस्त क्रिया करने इसमें अष्टद्रव्य अर्पण पूर्वक शुभमनोभावों से पूज्यों की पूजा की वाले श्रावक को दार्शनिक श्रावक कहा है। साथ ही दार्शनिक श्रावक जाती है, जबकि भाव पूजा में द्रव्य के अर्पण का भावमात्र रहता को मद्यादि के व्यापार का त्याग, मांसाहारी आदि के संग का त्याग, है। चूँको मुनि अकिञ्चन होते हैं अत: मुनि भावपूजा करते हैं, जबकि उनके घर के खान-पान-बर्तन का त्याग, आचार-मुरब्बा, दो दिन श्रावक द्रव्यार्जन के लिए कृषि आदि आरम्भ करते हैं और धनके बासी दही, द्विदल(विदल)*, वासी कांजी का त्याग, चमडे से धान्य आदि परिग्रह रखते हैं, अतः श्रावक उनकी शक्ति के अनुसार बंधी हींग का त्याग, अनन्तकाय-भक्षण का त्याग, पुष्प भक्षण-त्याग, अष्टद्रव्य उत्सर्जन पूर्वक पूजा करते हैं, इसमें भी भावों की मुख्यता अज्ञात फल, बैंगन, कचरी, बेर, अंदर से बिना देखी उडद, सेम तो रहती ही है। आदि की फलियाँ, रात्रिभोजन - इनका त्याग करना चाहिए। साथ दिगम्बर परम्परा में भी उल्लेख प्राप्त हैं कि देव गण दिव्य ही जुआ, मांसभक्षण, मद्यपान, वेश्यासेवन, चोरी, शिकार और परस्त्रीगमन गन्ध, दिव्य वस्त्र आदि से जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं। परन्तु - इन सात व्यसनों का भी त्याग करना बताया गया है।29 कालक्रम से अनेक सम्प्रदाय हो जाने से पूजन में समर्पित किये इसी प्रकार व्रतप्रतिमा में पूर्वोक्त मूलगुणों के साथ श्रावक जाने वाले द्रव्यों में न्यूनाधिकता दिखायी देती है। दिगम्बर परम्परा के पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - इस प्रकार 12 में अष्ट द्रव्य से पूजा उसी प्रकार से स्वीकृत है जैसे कि श्वेताम्बर व्रतों का नःशल्य होकर पालन करने का विधान है। इसी को सागर परम्परा में अष्टोपचारी पूजा। धर्मामृत में श्रावक के उत्तरगुण" कहा गया है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परा और जैनाचार :में इन्हें श्रावक के 12 व्रत नाम से कहा गया है।32 पाँचो अणुव्रतों सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाये तो दिगम्बर और श्वेताम्बर का क्रम तो दोनों परम्पराओं मे समान हैं। और शेष व्रतों में श्वेताम्बर परम्परा के आचार विधान में कोई भेद नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि परम्परा में 1. दिग्वत 2. भोगोपभोगविरमण और 3. अनर्थदण्डविरमण से भेद वहाँ पाया जाता है जहाँ से दिगम्बरत्व और श्वेताम्बरत्व भेद व्रत - इन तीन गुणव्रतों को सम्मिलित किया गया है, जबकि उत्पन्न हुआ है। उदाहरण के लिए दिगम्बर सम्प्रदाय में 'निर्ग्रन्थ' दिगम्बर परम्परा में 1. दिग्व्रत 2. देशव्रत और 3. अनर्थदण्ड व्रत का अर्थ 'अचेलकत्व' किये जाने से मुनियों में अचेलकत्व का विधान - ये तीन गुणव्रत हैं। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में 1. सामायिक किया गया है जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में निर्ग्रन्थ का अर्थ ग्रन्थिरहित 2. देशावकाशिक 3. पौषधोपवास और 4. अतिथि संविभाग - इन किये जाने से और वस्त्रादि चौदह उपकरणों को परिग्रह से बाहर माने चार व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है जबकि दिगम्बर परम्परा में जाने से श्वेतवस्र धारण करने का विधान है। किन्तु फिर भी, दोनों 1. सामायिक 2. पौषधोपवास 3. भोगोपभोगपरिमाण और 4. सम्प्रदायों में वीतरागता और उसकी प्राप्ति हेतु अहिंसा का सिद्धान्त अतिथिसंविभाग व्रत - इन चार व्रतों को शिक्षाव्रत माना गया है।37 समान रुप से स्वीकृत है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में 'अतिथिसंविभाग' की जगह 'वैयावृत्त्य'38 को चतुर्थ शिक्षाव्रत माना गया है, जबकि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों * जिसके बराबर दो भाग होते हैं, एसे दाल बेसन आदि को कच्चे दूध, परम्पराओं में इसे आभ्यन्तर तप का एक प्रकार माना गया है। दिगम्बर दही, छाश के साथ खाना द्विदल (विदल) कहलाता है। परम्परा में पहली से छठी प्रतिमा तक के श्रावक जघन्य, सातवीं - रत्नकरंडक श्रावकाचार, पृ. 149 से नोवीं तक मध्यम, और दसवीं और ग्यारवी प्रतिमाधारी श्रावक 28. सागारधर्मामृत - 3/9-15; रत्नकरंडक श्रावकाचार 53; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा, गाथा 328 उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है।40 29. सागारधर्मामृत - 3/17, वसुनन्दी श्रावकाचार - 59; रत्नकरंडक श्रावकाचार, साधक श्रावक: पृ. 135 से 142 दिगम्बर परम्परा में जीवन के अन्त में मरणकाल सम्मुख 30. रत्नकरंडक श्रावकाचार - 53 उपस्थित होने पर भोजन-पानादि का त्याग कर विशेष प्रकार की 31. सागारधर्मामृत - 4/4 साधनाओं द्वारा सल्लेखनापूर्वक देहत्याग करने वाले श्रावक को "साधक 32. उपासकदशांग सूत्र, अध्ययन-11 33. रत्नकरंडक श्रावकाचार - 53; उपासकदशांग सूत्र - अध्ययन-1 श्रावक" कहा गया है। इसका विस्तृत वर्णन हम पूर्व में कर 34. उपासकदशांग सूत्र - अध्ययन । चुके हैं। 35. कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - 367-68; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गा. 137, 139, 141 इसके साथ ही रत्नकरंडक श्रावकाचार में दर्शनविशुद्धि आदि 36. उपासकदशांग सूत्र, अध्ययन । 16 कारण भावनाओं का वर्णन करते हुए श्रावक को उसका चिंतन 37. जिनागमसार पृ. 952; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 148, 151, 161, 167; करने योग्य हैं - एसा कहा है, लेकिन वस्ततः ये 16 भावनाएँ भगवती आराधना 2082-2083; रत्नकरंडक श्रावकाचार,-97, 106, 83, तीर्थंकर नामरकर्म के बन्ध में कारणभूत गुण हैं जो विधि-निषेधात्मक तत्त्वार्थसूत्र 7/21 पर सर्वार्थसिद्धि टीका, पृ. 280 38. रत्नकरंडक श्रावकाचार 91 आचरणपरक है। इनका वर्णन शोध प्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में। 39. नवतत्त्व प्रकरण-35; तत्त्वार्थसूत्र - 9/29; रत्नकरंडक श्रावकाचार - पृ. यथास्थान किया गया है। इसी प्रकार आत्मा के स्वभाव स्वरुप उत्तम 333, 337 क्षमादि दशलक्षण धर्म का भी वर्णन किया है जो कि शोध प्रबन्ध 40. सागारधर्मामृत - 3/2-3; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 45 के चतुर्थ परिच्छेद में यथास्थान वर्णित है। 41. महापुराण - 149; सागारधर्मामृत 8/1, 12; रनकरंडक श्रावकाचार, पृ. 432 दिगम्बर परम्परा में पूजा-विधि : 42. रत्नकरंडक श्रावकाचार, पृ. 227-228 दिगम्बर परम्परा में भी श्वेताम्बर परम्परा के समान ही द्रव्यपूजा 43. दृष्टव्य - तत्त्वार्थ सूत्र, अद्याय 7/23 और भावपूजा भेद किये गये हैं। द्रव्यपूजा की विशेषता यह है कि 44. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, पूर्वपीठिका 45. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, पूर्वपीठिका Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [402]... पञ्चम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 3. ब्राह्मण परम्परा और जैनाचार भारतवर्ष में आरम्भ से ही दो परम्पराएँ विद्यमान रही हैं श्रमणपरम्परा और ब्राह्मण परम्परा जैसा कि "येषां च विरोधः शाश्वतिकः" -इस पाणिनि अष्टाध्यायी में प्राप्त सूत्र की व्याख्या में शाश्वत विरोध के उदाहरण में 'श्रमणब्राह्मणम्' उदाहरण से स्पष्ट है। फिर भी, ये दोनों परम्पराएँ एक दूसरे की पोषक और एकदूसरे पर प्रभावी रहीं हैं और आज भी हैं । एकदूसरे के सिद्धान्तों की स्वस्थ आलोचनाओं के कारण एकदूसरे में प्राप्त विसंगतियों का परिमार्जन होता रहा और स्वीकृत सिद्धान्तों की नयी किन्तु तर्कसंगत व्याख्याएँ भी प्रकाश में आई। जैनधर्म की तरह वैदिक धर्म में अहिंसा के साथ-साथ सत्य महाव्रत", अचौर्य महाव्रत, ब्रहमचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत की स्वीकारोक्ति भी है। पंच यम और पंचमहाव्रत : जैन परम्परा के पाँच महाव्रतों के समान ही वैदिक परम्परा में पंच यम स्वीकार किये गये हैं। पांतजल योगसूत्र में निम्न पाँच यम माने गये हैं - 1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह । इन्हें महाव्रत भी कहा गया है। पांतजल योगसूत्र के अनुसार जो जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित है तथा सभी अवस्थाओं में पालन करने योग्य है, वे महाव्रत हैं। 1. महाभारतः अनुशासन पर्व - अ. 119, श्लोक 38 2. महाभारतः अनुशासन पर्व 3. वही अहिंसा : एक सार्वभौम सिद्धान्त : उपरोक्त क्रम में वैदिक धर्म में भी उत्तरोत्तर काल में जैन एवं बौद्ध परम्पराओं के प्रभाव से अहिंसा को प्रधानता मिलती गई। महाभारत में अहिंसा को परम धर्म, परम तप, परम संयम, परम मित्र, तथा परम सुख कहा है। अनुशासन पर्व में कहा है - इस विश्व में अपने प्राणों से प्यारी अन्य कोई वस्तु नहीं है। जिस प्रकार मनुष्य अपने ऊपर दया करता है, उसी प्रकारसे दूसरों पर भी रखनी चाहिए । अहिंसा ही एकमात्र धर्म है, अहिंसा श्रेष्ठ धर्म है क्योंकि इससे सभी प्राणियों की रक्षा होती है। महाभारत में और भी कहा है कि "एक जीव के प्राण बचाना सुवर्ण के मेरुपर्वत या सारी पृथ्वी का दान देने से भी बढ़कर है। सभी वेद, सभी यज्ञ और सभी तीर्थाभिषेक से भी जीवदया का फल अधिक है। वेदविचारकों का कथन है - हिंसा से जिसका मन दुःखी होता है उसे हिन्द कहा जाता है। मनुस्मृति में भी सब जीवों पर दया करने का प्रतिपादन किया गया है। गीता में भी कहा है - सभी जीवों के हितेच्छ किसी भी जीव की हिंसा न करें। ईश्वर गीता में कहा है - मन से, वाणी से या शरीर से कभी भी किसी भी जीव को क्लेश उत्पन्न नहीं करवाना - उसे महर्षियों ने अहिंसा कहा है। बुद्धदेव ने कहा है - सभी जीव दण्ड से त्रास पाते हैं और मृत्यु से भयभीत होते हैं अतः सभी जीवों को आत्मवत् मानकर किसी भी जीव की हिंसा न करें, घात भी न करें।' भागवत में पाँच व्रतों में और सांख्यों के दश धर्मों में अहिंसा को ही प्रथम व्रत और धर्म कहा है। महाभारत में भी यज्ञ में होते पशुवध का स्पष्ट निषेध किया है।" शब्दकल्पद्रुम में भी यज्ञ में होनेवाली पशुहिंसा की निन्दा की गयी है। छान्दोग्य उपनिषद में भी कहा है - स्थावर या चर, किसी भी जीव की हिंसा न करें। जो सभी जीवों को आत्मवत् देखता है, वही मनुष्य धार्मिक है। शुद्धि-शौच का चतुर्थ कर्म जीवदया है। योग-भाष्यकार व्यास ने कहा है - तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामानभिद्रोहः । अर्थात् सब तरह से सर्वकाल में सभी जीवों के साथ अद्रोहपूर्वक व्यवहार करना अहिंसा है।। पतंजलि के योगसूत्र में भी कहा गया है - "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः । अर्थात् अहिंसा के प्रतिष्ठित हो जाने पर उसके निकट सब प्राणी अपना स्वभाविक वैरभाव त्याग देते हैं। आयुर्वेद में चरक संहिता में भी सर्व जीवों के प्रति दया का वर्णन है।17 यास्कनिरुक्त में भी हिंसा कर्म का प्रतिषेध किया है।18 4. वही 5. अहिंसा ओर मार्गदर्शन पृ. 10 6. सर्वभूतानुकम्पकः ।-मनुस्मृति 6/8 7. मा हिंस्यात् सर्वभूतानि, सर्वभूतहिते रतः । - श्रीमद् भगवद्भीता । 8. वही, पृ. 20 9. ब्राह्मण धार्मिक सूत्र, बुद्धदेव - उद्धत 'अहिंसा और मार्गदर्शन, पृ. अंतिम से दूसरा 10. दरेक धर्मनी दष्टिए अहिंसा नो विचार, पृ.22 11. अहिंसा सकलो धर्मः हिंसाऽधर्मस्तथाविधः । सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि, यो धर्मः सत्यवादिनाम् ।। -महाभारत - शांति पर्व-मोक्षधर्माधिकार-अध्याय 99/20 12. शब्दकल्पद्रुम - पद्मोत्तर खण्ड 13. न हिंस्यात् सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च । आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति स धार्मिकः॥ - अ.रा.भा. 1 पृ. 878; छान्दोग्य उपनिषद्-अध्ययन 8 अ.रा.पृ. 1/873; एवं पृ. 7/1004, 1165; चाणक्य राजनीतिशास्त्र - 3/ 42; स्कन्दपुराण, काशीखंड-6 15. योगसूत्र 2/35 16. योगसूत्र-पतंजलि, 2/35 17. चरक संहिता 1/30 18. यास्क निरुक्त 1/8 19. शतपथ ब्राह्मण 2/1/4/10; नारायणोपिनिषद्-10/62-63 सूक्ति त्रिवेणी पृ. 180 से उद्धृत; वाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकाण्ड-1/4/71, 109/ 13 20. भागवत 7/14/8 21. मनुस्मृति 6/41/49; गौतमसूत्र 3/11 22. बृहदाराण्यकोपनिषद् 2/4/1; मनुस्मृति 6/38; भागवत - 7/14/8 23. पातञ्जल योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र 32 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [403] महाव्रतों का पालन सभी के द्वारा निरपेक्ष रुप से किया जाना चाहिये। चातुर्मास में विशेष कर रात्रिभोजन का त्याग करता है उसके इस वेद व्यास का कथन है कि निष्कामयोगी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, भव में और पर भव में समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। चातुर्मास ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करें। वैदिक परम्परा के अनुसार में जो रात्रि भोजन करता है उसके पाप की शुद्धि सैंकडों चान्द्रायण संन्यासी को पूर्णरुप से अहिंसा महाव्रत का पालन करना चाहिये, तपों से भी नहीं होती। स्कन्दपुराण में कहा है कि जो मनुष्य उसे चर और स्थावर, दोनों प्रकार की हिंसा निषिद्ध है।24 इसी प्रकार सदा एक बार भोजन करता है वह अग्निहोत्र का फल पाता है, संन्यासी के लिए असत्य भाषण और कट् भाषण भी वर्जित है ।25 और जो मनुष्य सदा सूर्यास्त के पूर्व ही भोजन करता है उसे तीर्थयात्रा वैदिक परम्परा में संन्यासी के आचार का जो विधान है उसमें अहिंसा, का फल घर बैठे मिलते है। जो पुण्यात्मा रात्रि में समस्त आहारसत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की दृष्टि से कोई मौलिक मतभेद पानी का त्याग करते हैं, उन्हें महीने में पन्द्रह उपवास का लाभ नहीं है। वैदिक परम्परा के अनुसार भी संन्यासी को ब्रह्मचर्य महाव्रत मिलता है। का पूर्णरुप से पालन करने का विधान प्रतिपादित किया गया है। ब्राह्मणपरम्परा और पाँच समितियाँ :वैदिक परम्परा में स्वीकृत मैथुन के आठों अंगों का सेवन उसके वैदिक परम्परा में भी संन्यासी को गमनागमन की क्रिया लिए वर्जित माना गया है। परिग्रह की दृष्टि से वैदिक परम्परा भी पर्याप्त सावधानीपूर्वक करने का विधान है। मनु का कथन है कि भिक्षु के लिए जलपात्र, पवित्रा (जल छानने का वस्त्र) पादुका, आसन संन्यासी को जीवों को कष्ट पहुँचाए बिना चलना चाहिए। महाभारत एवं कन्था आदि सीमित वस्तुएँ रखने की ही अनुमति देती है।26 के शान्ति पर्व में मुनि को त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा से वायुपुराण में उन सब वस्तुओं के नामों का उल्लेख है जिन्हें संन्यासी 24. महाभारत, शांतिपर्व - 9/19 अपने पास रख सकता हैं।27 साथ ही जैनपरम्परा के समान ही वैदिक 25. मनुस्मृति 6/47-48 परम्परा में भी संन्यासी के लिए धातु का पात्र निषिद्ध है। मनुस्मृति 26. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 1, पृ. 413 के अनुसार संन्यासी का भिक्षापात्र तथा जलपात्र मिट्टी, लकडी, तुम्बी 27. वही पृ. 493 या छिद्ररहित बाँस का होना चाहिए।28 इस प्रकार वैदिक परम्परा 28. मनुस्मृति 6/53-54 में भी पाँचों महाव्रतों के पालन का वर्णन प्राप्त होता है। 29. त्वया सर्वमिदं व्याप्तं, ध्येयोऽसि जगता खेः ! ब्राह्मण परम्परा में रात्रिभोजन त्याग : त्वयि चास्तमित देव ! आपो रुधिरमुच्यते ॥ - स्कन्दपुराण, कपोलस्तोत्र, ब्राह्मण परम्परा में रात्रिभोजन-त्याग का प्रतिपादन भी उसी श्लोक 25 प्रकार से किया गया है जिस प्रकार से जैनपरम्परा में किया गया अस्तं गते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते । है, यद्यपि उतनी दृढता दिखायी नहीं देती । रात्रि में भुक्त अन्न अन्नं मांससमं प्रोक्तं, मार्कण्डेन महर्षिणा ||1|| - मार्कण्डेय पुराण 30. न नक्तं चैवमश्नीयाद्, रात्रौ ध्यानपरो भवेत् । कूर्मपुराण - अध्याय 27 जल को मांस और रुधिर के समान बताया गया है । स्पष्ट है कि 31. नोदकमपिपातव्यं, रात्रावत्र युधिष्ठिर ! । रात्रिभोजन में भी हिंसा होने से ही वर्जन किया गया है। इसीलिए तपस्विनां विशेषेण, गृहिणां च विवेकिनाम् ।। 30/22 - मार्कण्डेय पुराण ब्राह्मणपरम्परा में भी रात्रिभोजन-निषेध उचित भी है, क्योंकि वहाँ 32. देवैस्तु भुक्तं पूर्वाह्ने, मध्याह्ने, ऋषिभिस्तथा । भी अहिंसा को ही परम धर्म माना गया है। अपराह्ने च पितृभिः सायाह्ने दैत्यदानवाः ||४|| जैन परम्परा की तरह ब्राह्मण परम्परा में भी रात्रिभोजनत्याग सन्ध्यायां यक्षरक्षोभिः, सदा भुक्तं कुलोद्वहैः ! के विषय में अनेक जगह चर्चा की गई है। वहाँ रात्रिभोजन से होने सर्ववेलामतिक्रम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥ ॥ - यजुर्वेद आह्निक श्लोक वाली हानि का लौकिक, धार्मिक माध्यम से वर्णन कर ऋषियों ने 24-19 लोगों को रात्रिभोजन त्याग हेतु प्रेरित किया है। स्कन्दपुराण और मार्कण्डेय 33. चत्वारो नरकद्वारः, प्रथमं रात्रिभोजनम् । पुराण में महर्षि मार्कण्ड ने सूर्यास्त होने पर (के बाद) जल को रक्त परस्त्रीगमनं चैव, सन्धानान्तकायिके ।। - पद्मपुराण - प्रभास खण्ड और अन्न को मांस के समान कहा है। कूर्मपुराण में रात्रि में भोजन ___34. मद्यमांसाशनं रात्रौ-भोजनं कन्दभक्षणम् । का त्याग कर ध्यान करने की प्रेरणा दी गई है। तपस्वी, गृहस्थी ये कुर्वन्ति वृथास्तेषां, तीर्थयात्रा जपस्तापः ।। - महाभारत (ऋषीश्वर भारत) 35. मद्यमांसाशनं रात्रौ-भोजनं कन्दभक्षणम्। एवं विवेकी जनों को रात्रि को पानी भी नहीं पीना चाहिए। पूर्वाह्न भक्षणात् नरकं याति, वर्जनात् स्वर्गमाप्नुयात् ।। में देवता, मध्याह्न में ऋषि, अपराह्न में पितर तथा संध्या में यक्ष राक्षस 36. नक्तं न भोजयेद्यस्तु, चातुर्मास्ये विशेषतः । भोजन करते हैं। सर्व समय को छोडकर रात्रि को खाना भोजन नहीं सर्वकामानवाप्नोति, इहलोके परं च ।। - योगवाशिष्ठ, पूर्वार्ध-108 कहलाता। पद्मपुराण में रात्रि भोजन को नरक का प्रथमद्वार कहा 37. चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते, रात्रिभोज्यं करोति यः । तस्य शुद्धिर्न विद्येत, चान्द्रायणशतैरपि ।। - ऋषीश्वर भारत - वैदिक दर्शन है। महाभारत में कहा है कि जो मद्य, मांस, रात्रिभोजन और 38. एकभक्ताशनान्नित्यमग्निहोत्रफलं लभेत् । कंदमूल का भक्षण करते हैं, उनके तीर्थयात्रा, जप-तपादि अनुष्ठान अनस्तभोजनो नित्यं, तीर्थयात्राफलं भवेत् ।। - स्कन्द पुराण - 7/17/235 ____39. ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं, वर्जयन्ति सुमेधसः । नष्ट हो जाते हैं। योगवाशिष्ठ के अनुसार मद्य, मांस, रात्रिभोजन तेषा पक्षोपवासस्य, फलं मासेन जायते ॥ और जमीकंद भक्षण करने से (जीव) नरक में जाता है और उनके - रात्रिभोजन महापाप, पृ. 16, 17, 18 त्याग से स्वर्ग में जाता है। जो जीव रात्रिभोजन नहीं करता और 40. मनुस्मृति 6/4 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [404]... पञ्चम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन बचकर ही गमनागमन की क्रिया करने का उल्लेख है ।। भाषासमिति वर्गों के यहाँ की भिक्षा को ग्राह्य माना गया है। वैदिक परम्परा के संदर्भ में भी दोनों परम्पराओं में विचारसाम्य है। मनु का कथन में शय्यातर और राजपिण्ड-कल्प का कोई विधान दिखाई नहीं दिया। है कि मुनि को सदैव सत्य ही बोलना चाहिए 142 महाभारत के वैदिक परम्परा में भी जैन परम्परा के कृतिकर्म-कल्प के समान यह शांति पर्व में भी वचन-विवेक का सुविस्तृत विवेचन है।43 मुनि स्वीकार किया गया है कि दीक्षा की दृष्टि से ज्येष्ठ संन्यासी के आने की भिक्षावृति के संबंध में भी वैदिक परम्परा के कुछ नियम जैन पर उसके सम्मान में खड़ा होना चाहिए। ज्येष्ठ सन्यासियों को प्रणाम परम्परा के समान ही है। वैदिक परम्परा में भिक्षा से प्राप्त भोजन करना चाहिए। वैदिक परम्परा में अभिवादन के संबंध में विभिन्न पाँच प्रकार का माना गया है प्रकार के नियमों का विधान है। जिसकी विस्तृत चर्चा में जाना (1) माधुकर :- जिस प्रकार मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों से उन्हें यहाँ संभव नहीं है। वैदिक परम्परा में जैन परम्परा के समान मुनि कोई कष्ट दिये बिना मधु एकत्र करती है उसी प्रकार दाता के लिए पंच महाव्रत का पालन आवश्यक है जिसकी तुलना व्रतको कष्ट दिये बिना तीन, पाँच या सात घरों से जो भिक्षा कल्प से कर सकते हैं। जैन परम्परा की दो प्रकार की दीक्षाओं की प्राप्त की जाती है उसे माधुकर कहा जा सकता है। तुलना वैदिक परम्परा में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम से की जा सकती है। यद्यपी यह स्मरण रखना चाहिए कि वैदिक परम्परा में (2) प्राक्प्रणीत :- शयन स्थान से उठने के पूर्व ही भक्तों संन्यासियों के संबंध में इतना विस्तृत प्रतिपादन नहीं है। प्रतिक्रमणके द्वारा भोजन के लिए प्रार्थना कर दी जाती है और उससे कल्प का एक विशिष्ट नियम के रुप में वैदिक परम्परा में कोई निर्देश जो भोजन प्राप्त होता है वह प्राक्प्रणीत है। नहीं है, यद्यपि प्रायश्चित की परम्परा वैदिक परम्परा में भी मान्य (3) आयाचित :- भिक्षाटन करने के लिए उठने से पूर्व ही है। जहाँ तक चातुर्मास काल को छोडकर शेष समय में भ्रमण कोई भोजन के लिए निमंत्रित कर दे, वह आयाचित है। के विधान का प्रश्न है, जैन और वैदिक परम्परा लगभग समान ही (4) तात्कालिक :- संन्यासी के पहुँचते ही कोई ब्राह्मण है। वैदिक परम्परा के अनुसार भी संन्यासी को आषाढ पूर्णिमा से भोजन करने की सूचना दे दे। लेकर चार या दो महीने तक एक स्थान पर रुकना चाहिए और शेष (5) उपपन्न:- मठ में लाया गया पका भोजन। इन पाँचों । समय गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि से अधिक न रुकते में माधुकर भिक्षावृति को ही श्रेष्ठ माना गया है। हुए भ्रमण करना चाहिए 150 जैन परम्परा की माधुकरी - भिक्षावृति वैदिक परम्परा में ब्राह्मण परम्परा में दश धर्म :भी स्वीकृत की गई है। संन्यासी को भिक्षा के लिए गाँव में केवल (1) क्षमा :- वेदव्यास ने क्षमा को असमर्थ मनुष्यों का गुण एक बार ही जाना चाहिए और वह भी तब, जब कि रसोईघर से और समर्थ मनुष्यों का भूषण माना है। मनु ने कहा है- विद्वान् जन धुआँ निकलना बन्द हो चुका हो, अग्नि बुझ चुकी हो, बर्तन आदि क्षमा-भाव से ही पवित्र बनते हैं। संत तुकाराम ने कहा है- जिस अलग रख दिये गये हों। इसका गूढ अर्थ यह है कि संन्यासी मनुष्य के हाथ में क्षमारुपी शस्त्र हो, उसका दुष्ट क्या बिगाड सकता के निमित्त से अधिक मात्रा में भोजन न पकाया गया हो, और इसका है। कवि बाणभट्टने क्षमा को सभी तपस्याओं का मूल कहा है।54 प्रयोजन यह है कि गृहस्थों पर संन्यासी के भोजन के निमित्त आर्थिक महात्मा गाँधी के अनुसार दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना, भार नहीं होना चाहिए। सच्ची क्षमा है। यद्यपि निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति के संदर्भ में कोई ब्राह्मण परम्परा में दश धर्मों का महत्त्व :निर्देश उपलब्ध नहीं होता है। फिर भी इतना निश्चित है कि वैदिक 1. क्षमा :- गीता में क्षमा को दैवी संपदा और भगवान् की परम्परा का दृष्टिकोण जैनपरम्परा का विरोधी नहीं है। ही एक वृत्ति माना गया है।56 महाभारत के उद्योग पर्व में ब्राह्मणपरम्परा और गुप्ति : 41. महाभारत, शांतिपर्व - 9/19 ब्राह्मणपरम्परा में संन्यासी के लिए त्रिदण्डी शब्द का प्रयोग 42. मनुस्मृति 6/46 हुआ है। त्रिदण्डी वही हैं जो मन, वचन और शरीर के नियंत्रण । 43. महाभारत, शांतिपर्व - 109/15-19 44. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग.1, पृ. 492; महाभारत शांतिपर्व /21-24 रुप आध्यात्मिक दम्ड रखता हो।45 जैनपरम्परा में इस हेतु 'दण्ड' 45. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग.1, पृ. 494; दक्षस्मृति 7/27-31 शब्द का प्रयोग हुआ है।46 इस प्रकार शाब्दिक दृष्टि से भले ही 46. साधुप्रतिक्रमण सूत्र (पगाम सज्झाय), स्थानांग 3/126 जैनपरम्परा में तीन गुप्ति" और वैदिकपरम्परा में 'त्रिदण्डी' - इस 47. उत्तराध्ययन सूत्र 24/1 प्रकार भेद है, परन्तु दोनों परम्पराओं का मूल आशय मन, वचन, 48. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग.1, पृ.494 काया की अप्रशस्त प्रवृत्तियों के नियमन से हैं। 49. वही, पृ. 237-241 वैदिकपरम्परा और कल्पविधान : 50. वही पृ. 491, जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. 366, 367 जैनपरम्परा के दस कल्पों में कुछ का विधान वैदिक परम्परा 51. महाभारत, उद्योग पर्व 33/49 में भी दृष्टिगोचर होता है। जैन परम्परा के आचेलक्य कल्प के समान 52. मनुस्मृति 5/107 वैदिक परम्परा में भी संन्यासी के लिए या तो नग्न रहने का विधान । 53. तुकाराम अभंग, गाता 3995 है या जीर्णशीर्ण अल्प वस्त्र धारण करने का विधान है। औद्देशिक 54. बाणभट्ट कृत हर्षचरित, पृ. 12 55. सर्वोदय-98, 'शाश्वत धर्म' मासिकपत्रिका, अंक अगस्त-2001, पृ. 16 कल्प वैदिक परम्परा में स्वीकृत नहीं है यद्यपि भिक्षावृति को ही से उद्धृत अधिक महत्व दिया गया है। उच्चकोटि के संन्यासियों के लिए सभी 56. गीता-10/4, /16/3 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [405] क्षमा का विस्तृत वर्णन करते हुए कहा है - क्षमा द्वेष को और चेतना के तनाव को समाप्त करता है ।85 गीता में श्रीकृष्ण दूर करती है, इसलिए वह एक महत्त्वपूर्ण सद्गुण है।57 ने भी कहा है- 'सन्तुष्ट व्यक्ति मेरा प्रिय है' 186 2. मार्दव :- वैदिक परम्परा में भी अहंकार को पतन का 10. ब्रह्मचर्य :- ब्राह्मण परम्परा में मन, वचन और कर्म के कारण माना गया है। गीता में आधिपत्य, ऐश्वर्य, बल, धन, द्वारा सभी अवस्थाओं में सर्वत्र और सभी प्रकार के मैथुन कुल आदि के अहंकारी को अज्ञान से विमोहित कहा है। का त्याग करना - ब्रह्मचर्य कहलाता है।87 आगे कहा है - जो धन और सम्मान के मद से युक्त है ब्रह्मचर्य :वह भगवान् की पूजा का ढोंग करता है। महाभारत में रुप, वैदिक परम्परा के अनुसार संन्यासी को ब्रह्मचर्य महाव्रत धन और कुल-इन तीनों मदों को प्रमाद का और आसक्ति का पालन करना चाहिए। वैदिक परम्परा में स्वीकृत मैथुन के आठों अंगो का सेवन उसके लिए वर्जित माना गया है । 8 महर्षि वेदव्यास तथा धनहानि और पतन का कारण माना गया है।60 का कथन है कि निष्कामयोगी ब्रह्मचर्य का पालन करें।89 शांकर 3. आर्जव :- महाभारत के अनुसार सरलता एक आवश्यक भाष्य में मिथ्याविषयों में आसक्ति करने का निषेध किया है। गुण है। गीता में आर्जव को दैवी सम्पदा, तप, और गीता में ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप कहा है। गीता के अनुसार ब्रह्मचारी ज्ञान कहा गया है। शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है। चरकसंहिता में 'उपस्थादि शौच:- गीता में शौच की गणना दैवी सम्पदा, ब्राह्मणकर्म इन्द्रियो के निग्रह' को ब्रह्मचर्य कहा गया है। वहीं ब्रह्मचर्य को एवं तप में की गयी है।65 गीता भाष्य में शौच का अर्थ 57. महाभारत, उद्योगपर्व 33/58 'प्रतिपक्षी भावना के द्वारा अन्त:करण के रागादि मलों को 58. गीता 16/14-15 दूर करना' किया गया है।66 59. वही, 16/17 5. सत्य :- वैदिक परंपरा में भी संन्यासी के लिए असत्य 60. महाभारत, शांतिपर्व 176/17-18 61. महाभारत, शांतिपर्व 175/37 भाषण और कटु भाषण वर्जित है।67 62. गीता 16/1 संयम :- वैदिक परम्परा भी आलीनगुप्ति होकर संयम 63. वही, 17/14 साधना पर जोर देती है। वहाँ इन्द्रियविजेता को स्थितप्रज्ञ 64. वही, 13/7-11 65. गीता 16/3, 17/14, 18/42 कहा गया है।69 गीता में कहा है कि श्रद्धावान्, तत्पर 66. गीता, शांकरभाष्य 13/7 और संयतेन्द्रिय ही ज्ञान प्राप्त करता है। जो संयमी है 67. मनुस्मृति 6/47-48 उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है। योगीजन संयमरुप अग्नि में 68. गीता 2/56, 58; मनुस्मृति 2/215 69. अथर्ववेद 4/31/3; यजुर्वेद 34/6; गीता 6/34,35,14; श्वेताश्वतरोपनिषद् इन्द्रियों का हवन करते हैं। 2 2/9 7. तप :- वैदिक ऋषि तप की महत्ता का प्रतिपादन करते 70. गीता 2/61 कहते हैं - 'तपस्या से ही ऋतऔर सत्य उत्पन्न हुए, तपस्या 71. वही, 4/26 से ही वेद उत्पन्न हुए, तपस्या से ही ब्रह्म खोजा जाता 72. वही, 4/29 73. ऋग्वेद 10/190/1 है।5, तपस्या से ही मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाती है और 74. मनुस्मृति 11/243 ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है। तपस्वी तपस्या के द्वारा 75. मुण्डकोपनिषद् 1/1/8 ही लोककल्याण का विचार करते हैं। और तपस्या से ही 76. अथर्ववेद 11/3/5/19 77. वही, 19/5/41 लोक में विजय प्राप्ति होती है। तप ही ब्रह्म है। तप 78. शतपथ ब्राह्मण 3/4/4/27 से ही ऋषिगण त्रैलोक्य के चराचर प्राणियों को देखते हैं। 19. तैत्तिरीय उपनिषद् 13/2/3/4 तपस्या से दुर्लभ और दुस्तर कार्य या पदार्थ भी साध्य है। 80. मनुस्मृति 11/237 81. वही 11/238 तपस्या की शक्ति दुरतिक्रम है। महापातकी और हीनाचारी 82. वही 11/239 भी तपस्या से किल्विषी योनि से मुक्त हो जाता है।82 स्वर्ग 83. महाभारत, आदिपर्व 90/22 के सात द्वारों में तप प्रथम द्वार है।83 84. गीता 18/4, 7/9 8. त्याग :- गीता में तामस (नियत) कर्मो का मोह से, राजस 85. महाभारत, शांतिपर्व 176/78 86. गीता 12/14, 19 कर्मों को दुःखरुप मानकर शारीरिक क्लेश के भय से एवं 87. याज्ञवल्क्य संहिता, 'शाश्वत धर्म' ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ. 73 से उद्धृत सात्विक कर्मो में आसक्ति और फल के त्याग का वर्णन है।84 88. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 1, पृ. 413, दक्षस्मृति अकिञ्चनता :- 'अकिञ्चनता' धर्म (गुण) का वर्णन करते 89. महाभारत, शांतिपर्व-9 हुए महाभारत में कहा है - यदि तुम सब कुछ त्यागकर 90. ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य । किसी वस्तु का संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र विचरते हुए सुखी 91. गीता 17/14 रहोगे क्योंकि जो अकिंचन होता है, वह सुखपूर्वक सोता है। 92. वही, 6/14 'निर्लोभ' आत्मा को कर्म-आवरण से हल्का बनाता है। मन 93. चरक संहिता, दीर्धञ्जीवितीयाध्याय 1/6 9. Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [406]... पञ्चम परिच्छेद सदाचार भी कहा गया है", इतना ही नहीं, अपितु ब्रह्मचर्य के पालन के लिए आगे कहते हैं कि ब्रह्मचारी सभी स्त्रियों का स्मरण, संकल्प (विचार), प्रार्थना (इच्छा) और उनके साथ वार्तालाप का त्याग करें। 95 मनुस्मृति में भी गुरुकुलवास में ब्रह्मचर्य पालन का विधान किया गया है ।" विषयभोग से विषयत्याग को श्रेष्ठ माना गया है। 7 इतना ही नहीं, अपितु जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी को ही विद्या- दान के लिए पात्र माना गया है। गृहस्थ को भी माता, बहन तथा कन्या के साथ भी एकान्त में एक आसन पर बैठने का निषेध किया गया है।" अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य को सर्वश्रेष्ठ और उत्कृष्ट तप कहा है। 100 पातंजल योगसूत्र में वीर्यलाभ को ब्रह्मचर्य कहा है। उसको (वीर्य को) बढाने से शरीर, इन्द्रियाँ और मन में विशेष शक्ति बढती है। 101 महाभारत में कहा है- ब्रह्मचर्य में सभी तीर्थ हैं, ब्रह्मचर्य में ही तप है, धैर्य है और यश भी इसी में निहित है । ब्रह्मचर्य में पुण्य, पवित्रता और पराक्रम है, ब्रह्मचर्य में स्वातंत्र्य और ईश्वरत्व भी प्रतिष्ठित है । 102 भीष्म पितामहने कहा है- जो इस संसार में आजीवन ब्रह्मचारी रहता है उसको इस संसार में किसी भी प्रकार का कोई भी दुःख नहीं आता । 103 छान्दोग्य उपनिषद् में कहा है - 'तराजू के एक पलड़े में चारों वेद (वेदोपदेश) रखें जाय और दूसरे पलडे में ब्रह्मचर्य रखकर तोलने पर ब्रह्मचर्य का पलड़ा नीचे नीचे रहेगा । अर्थात् वेदोपदेश से भी ब्रह्मचर्य विशेष बलशाली है । एवं जिसे मौन (मुनि धर्म) कहा जाता है, वह ब्रह्मचर्य ही है 1104 धन्वन्तरि ने कहा है- ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य के दुर्गुणों का नाश होता है। जिसे उत्तम धर्म पालन करना हो उसे ब्रह्मचर्य पालना चाहिए। 105 महर्षि अरविन्दने ब्रह्मचर्य और योग को ही सुख का मार्ग कहा है। 106 महात्मा गाँधीने ब्रह्मचर्य को आरोग्य की मुख्य चाभी बताया है 1107 वैदिक तथा अन्य धर्म परम्पारएँ और प्रतिक्रमण : अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं, वैसे ही दूसरों की भी हैं। ऐसा सोचकर इनके लिए मेरे मन में कोई व्यथा नहीं होती, ऐसी बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक । मनुष्य स्त्री- पुत्र आदि कुटुम्ब के लिए चोरी आदि पाप कर्मों का संग्रह करता है, किन्तु इस लोक और परलोक में उसे अकेले ही उन समस्त कर्मों का क्लेशमय फल भुगतना पडता है। वैदिक परम्परा में साध्यकृत्य में जिस यजुर्वेद के मंत्र का उच्चारण किया जाता है वह भी जैन प्रतिक्रमणविधि का एक संक्षिप्त रुप ही है। संध्या के संकल्प - वाक्य में ही साधक यह संकल्प करता है कि मैं आचारित पापों के क्षय के लिए परमेश्वर के प्रति इस उपासना को सम्पन्न करता हूँ । यजुर्वेद के उस मंत्र का मूल आशय भी यही है कि मेरे मन, वाणी, शरीर से जो भी दुराचरण हुआ हो उसका मैं विसर्जन करता हूँ | 108 ब्राह्मण परम्परा और द्वादशभावना : जैन परम्परा की तरह ही ब्राह्मण परम्परा में भी अनित्यादि द्वादश भावनाओं का वर्णन किया गया है 1. अनित्य भावना :- महाभारत में कहा है कि जीवन अनित्य है इसलिए युवावस्था में ही धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। कल किया जानेवाला काम आज ही पूरा कर लेना चाहिए। सायंकाल का कार्य प्रातः में ही कर लेना चाहिए क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम अभी पूरा हुआ या नहीं 1109 2. एकत्व भावना :- गीता में कहा है- इन्द्रियजेता जीवात्मा स्वयं ही स्वयं का मित्र और इन्द्रियों का दास स्वयं ही स्वयं शत्रु है अर्थात् कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है। 10 महाभारत में भी कहा है- मैं तो अकेला हूँ; यह शरीर भी मेरा नहीं हैं अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है। ये वस्तुएँ जैसे मेरी 3. 4. 5. 6. अन्यत्व भावना :- महाभारत में कहा है कि पुत्र-पौत्र, जाति-बांधव सभी संयोगवश मिल जाते हैं, उनके प्रति कभी आसक्ति नहीं बढाना चाहिए क्योंकि उनसे विछोह होना निश्चित है । 112 गीता के 14 वें अध्याय में भी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के माध्यम से अन्यत्व भावना का सुंदर बोध कराया गया है। अशुचि भावना :- महाभारत के अनुसार यह शरीर जरा, मरण एवं व्याधि के कारण होने वाले दुःखों से युक्त है, फिर (बिना आत्मा - साधना के) निश्चिन्त होकर कैसे बैठा जा सकता है ? 113 आचार्य शंकरने भी कहा है- "यह देह मांस एवं वसादि विकारों का संग्रह है, हे मन ! तू बारबार विचार कर ! 114 अशरण भावना :- महाभारत में अशरण भावना का वर्णन करते जीव की अशरणता बताते कहा है कि जैसे सोये हुए मृग को बाध उठा ले जाता है, उसी प्रकार पुत्र और पशुओं से सम्पन्न एवं उसी में आसक्त मनुष्य को एक दिन मृत्यु उठाकर ले जाती है। 15 (तब कोई शरण/रक्षक नहीं है) । संसार भावना :- महाभारत में संसार के स्वरुप का वर्णन करते भीष्म पितामह ने कहा है कि "वत्स! जब धन नष्ट हो जाय अथवा स्त्री, पुत्र या पिता की मृत्यु हो जाय, तब यह संसार कैसा दुःखमय है - यह सोचकर मनुष्य शोक को 94. वही, 8/29 95. वही, पृ. 891 96. मनुस्मृति, 1/111 97. वही, 2/95 98. वही, 2-115 99. मनुस्मृति 2 / 215 100. 'शाश्वत धर्म', ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ. 86 101. पातंजल योगसूत्र 102. महाभारत, शांतिपर्व 9 103. शाश्वत धर्म, ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ. 86 104. छान्दोग्य उपनिषद्, शाश्वत धर्म ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ. 88 105. वही, पृ. 88 106. वही, पृ. 85 107. वही, पृ. 37 108. कृष्णयजुर्वेद, दर्शन और चिन्तन भा. -2, पृ. 193 से उद्धृत 109. महाभारत, शांतिपर्व 175/16, 12, 15 110. गीता 6 / 5,6 111. महाभारत, शांतिपर्व 174 / 14,25 112. महाभारत, शांतिपर्व 113. महाभारत- शांतिपर्व 175 / 23 114. चर्पटपंजरिका स्तोत्र || 115. महाभारत, शांतिपर्व 175 / 18, 19 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन दूर करनेवाले शम-दमादि साधनों का अनुष्ठान करें। 116 यह सम्पूर्ण जगत् मृत्यु के द्वारा मारा जा रहा है । बुढापे ने इसे चारों ओर से घेर रखा है और ये दिन-रात प्राणियों की आयु का अपहरण करके व्यतीत हो रहा है, इस बात को आप समझते क्यों नहीं है?" 117 7. धर्म भावना :- महाभारत का वचन है कि धर्म से ही ऋषियों ने संसार समुद्र को पार किया है। धर्म पर ही संपूर्ण लोक हुआ है। धर्म से ही देवताओं की उन्नति हुई है और धर्म में ही अर्थ की भी स्थिति है। 18 अतः मन को वश में करके धर्म को अपना प्रधान ध्येय बनाना चाहिए और संपूर्ण प्राणियों के साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिए, जैसा हम अपने लिए चाहते हैं (119 मैत्र्यादि चार भावनाएँ : पातांजल योग सूत्र में जैनों की तरह ही मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ इन चार भावनाओं का उल्लेख है । 120 ब्राह्मण परम्परा और परिषह : ब्राह्मण परम्परा में भी मुनि के लिए कष्ट सहिष्णु होना आवश्यक है। वैदिक परम्परा तो यहाँ तक विधान करती है कि मुनि satara -बूझकर अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने चाहिए। उसे कठिन तपस्या करनी चाहिए और अपने शरीर को भलीभाँति के कष्ट देकर सब कुछ सह सकने का अभ्यासी बने रहना चाहिए। मनु का कहना है कि वानप्रस्थी को पंचाग्नि के बीच खडे होकर, वर्षा में बाहर खडे होकर, जाडे में भीगे वस्त्र धारण कर कष्ट सहन करना चाहिए | 121 इसी प्रकार उसे खुली भूमि पर सोना चाहिए और रोग हो जाये तो चिंता नहीं करनी चाहिए। 122 परिषहजय के संबंध में भी जैन तथा वैदिक परम्पराएँ समान दृष्टिकोण रखती हैं। ब्राह्मण परम्परा में पूजा विधान : जैन परम्परा की तरह इष्ट देवता की पूजा ब्राह्मण-भक्ति मार्गीय परम्परा का भी आवश्यक अङ्ग है। इन सम्प्रदायों में सामान्यतया पूजा के तीन रुप प्रचलित रहे हैं - 1 पञ्चोपचार पूजा 2 दशोपचार पूजा और 3. षोडशोपचार पूजा । पञ्चम परिच्छेद... [407] पञ्चोपचार पूजा में गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य - ये पाँच वस्तुएँ देवता को समर्पित की जाती हैं। दशोपचार पूजा में पाद प्रक्षालन, अर्ध्यसमर्पण, आचमन, मधुपर्क, जल, गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य समर्पण - इन दश प्रक्रियाओं द्वारा पूजा-विधि संपन्न की जाती है। इसी प्रकार षोडशोपचार पूजा में 1. आह्वान, 2. आसनप्रदान 3. स्वागत 4. पाद- प्रक्षालन 5. आचमन 6. अर्ध्या 7. मधुपर्क 8. जल 9. स्नान 10. वस्त्र 11. आभूषण 12. गंध 13. पुष्प 14. धूप 15. दीप और 16. नैवेद्य से पूजा की जाती है। इसी प्रकार जैन परम्परा तथा ब्राह्मण परम्परा में देवताओं के आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन की प्रक्रिया समान रुप से की जाती है। इसमें देवता के नाम को छोडकर शेष संपूर्ण मंत्र भी प्राय: समान है। 123 इस प्रकार श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा दोनों में ही ग्रार्हस्थ धर्म और मुनिधर्म का विधान समान रुप से प्राप्त होता है। इतना ही नहीं, अपितु पञ्चमहाव्रत आदि प्रमुख सिद्धान्त और द्रव्योत्सर्जन पूर्वक पूजाविधि आदि व्यावहारिक धर्म भी समान रूप से विहित हैं। दोनों परम्पराओं में प्रयुक्त शब्दावली में समानता और विधियों में समानता से यह स्पष्ट होता है कि ये दोनों ही धाराएँ एक-दूसरे की विरोधी होने पर भी एक दूसरे की पूरक और पोषक रही हैं और आज भी हैं । 116. वही, 174/7 117. वही, 175/9 118. महाभारत, शांतिपर्व 167/7 119. वही 167/9 120. पातंजल योगसूत्र- 1 / 33 121. मनुस्मृति 6 / 23, 24 122. वही, 6/43,46 123. डो. सागरमल जैन अभिनंदन ग्रंथ, जैन धर्म में पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान, पृ. 49 गृहस्थ धर्म સાકર ભલે મોંઘી અને સ્વાદિષ્ટ હોય પણ લૂણ (મીઠું, નમક)નું કામ કરી શકે નહિં, દૂધ દહીં કે ઘી વગેરે ગમે તેટલા શ્રેષ્ઠ કે પૌષ્ટિક હોય પણ તે પાણીનું કામ કરી શકે નહીં અને પાઘડી ગમે તેટલી કિંમતી હોય પણ તે લજ્જા ઢાંકવાનું કાર્ય કરી શકે નહિં. આમ, લૂણ, પાણી કે અધોવસ્ત્રાદિનું મૂલ્ય ઓછું હોય છતાં આવશ્યકતાની અપેક્ષાએ તેનું મહત્ત્વ જરાય ઓછું નચી. બલ્કિ સાધુધર્મની યોગ્યતાની તાલીમ ગૃહસ્થ જીવનમાં અપાય છે, તે અપેક્ષાએ સાધુ ધર્મની યોગ્યતા પ્રગટાવવા અને ઘણા જીવોના જીવનના સાધનભૂત હોવાથી ગૃહસ્વધર્મ પણ આવશ્યક છે. ગૃહસ્થ ધર્મના પ્રત્યેક અનુષ્ઠાનો ધર્મરાગને પ્રગટાવનારાં છે જેચી વૈરાગ્ય પરિપકવ થાય છે. વૈરાગ્યના બળે વીતરાગભાવની સિદ્ધિ કરી શકાય છે. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [408]... पञ्चम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन | 4. बौद्ध परम्परा और जैनाचार बौद्ध धर्म यों ते एक पृथक् मार्ग है, किन्तु दार्शनिक समीक्षकों के अनुसार इसे श्रमणपरम्परा के अन्तर्गत माना गया है। वस्तुतः वैदिक धर्म की विसंगतियों और जैनधर्म के साधना मार्ग की कठोरता के कारण महात्मा बुद्ध ने एक मध्यम मार्ग प्रतिपादित किया। किन्तु इसमें न तो वेद के मूलभूत तत्त्वों को छोडा गया और न ही जैनधर्म की सत्यता की उपेक्षा की गयी। बौद्ध धर्म में भी समकालिक धर्मतत्त्वों को भी पूर्ववत् ही मान्यता दी गयी है, अन्तर केवल इतना है कि साधना मार्ग की कठोरता इसमें कम हो गयी है। आगे के अनुच्छेदों में अहिंसा आदि जैनमार्ग में स्वीकृत तत्त्वों की बौद्धधर्म में उपलब्ध स्थिति का दिग्दर्शन कराया जा रहा है। बौद्ध धर्म में अहिंसा का स्थान : बौद्धधर्म में प्रतिपादित दश शीलों में अहिंसा का स्थान प्रथम है। चतुःशतक में कहा है कि "तथागत ने संक्षेप में केवल 'अहिंसा' इन अक्षरों में धर्म का वर्णन किया है। भगवान् बुद्ध के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करनेवाला ही आर्य कहा जाता है। अंगुत्तरनिकाय के अनुसार हिंसक व्यक्ति नारकीय जीवन का और अहिंसक व्यक्ति स्वर्गीय जीवन का सृजन करता है। बुद्धने सभी प्राणियों को आत्मतुल्य मानकर किसी का वध करने या करवाने का निषेध किया है। किन्तु यदि कोई जीव अपने आप मरा हुआ पडा है तो उसे भोजन में लेने में दोष नहीं लगतामांसाहार के विषय में बौद्धो की ऐसी मान्यता है। उन्होंने आगे कहा है कि जो व्यक्ति अहिंसामय संयमित जीवन यापन करता है, उसे अच्युत पद की प्राप्ति होती है। वहाँ पहुँचकर वह कभी दु:खी नहीं होता । बौद्ध मत में दश प्रकार के धर्मों में अहिंसा को प्रथम धर्म कहा है। इतना ही नहीं, अपितु जैन परम्परा के महाव्रतों के समान बौद्ध परम्परा में भी पाँच शीलों की प्रतिज्ञा कृत, कारित और अनुमोदन के रुप में अंगीकार की जाती है।' बौद्ध परंपरा एवं व्रतविधान : जैन परम्परा के पाँच महाव्रत / अणुव्रत की तरह ही बौद्ध परम्परा में पाँच सामान्य शीलो का वर्णन निम्नानुसार है(1) अहिंसा शील (प्राणातिपात विरमण) (2) अचौर्य शील (अदत्तादान विरमण) (3) ब्रह्मचर्य या स्वपत्नी संतोष (मैथुन विरमण/स्वदारा संतोष व्रत) (4) अमृषावाद शील (मृषावाद विरमण) (5) मद्यपान विरमण शील जैन परम्परा में गृहस्थ के पौषध व्रत की तरह बौद्ध परम्परा में 'उपोषथ' व्रत का वर्णन है। (1) रात्रिभोजन एवं विकालभोजन त्याग (2) माल्यगंधविरमण और (3) उच्चशय्या विरमण (काष्ठ, जमीन या सतरंजी पर लेटना) - ये तीन उपोषथ शील हैं। जैन परम्परा में वर्णित श्रावक के अतिथिसंविभाग व्रत की तरह बौद्ध परम्परामें 'भिक्षु संघ संविभाग' वर्णित है। यद्यपि बौद्ध परम्परा में गृहस्थ के लिए परिग्रह - परिमाण को जैनपरम्परा जितना अधिक महत्व नहीं दिया है, तथापि बुद्ध के निम्नांकित वचन परिग्रहमर्यादा का स्पष्ट संकेत करते हैं - "जो मनुष्य खेती, वास्तु (मकान), हिरण्य (स्वर्ण, चांदी), गो, अश्व, दास, बन्धु इत्यादि की कामना करते हैं उसे वासनाएँ दबाती हैं और बाधाएँ मर्दन करती हैं, तब वह पानी में टूटी नाव की तरह दुःख में पडता है।" जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में भी गृहस्थ उपासक के लिए 1. शस्त्रास्त्र व्यापार 2. प्राणी व्यापार 3. मांस का व्यापार 4. मद्य का व्यापार और 5. विष का व्यापार - ये पाँच व्यापार वर्जित हैं। बौद्ध परम्परा और पाँच समितियाँ : बौद्ध परम्परा में यद्यपि 'समिति' शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है जिस अर्थ में जैनपरम्परा में व्यवहत है, फिर भी 'समिति' का जो आशय जैनपरम्परा में है वह बौद्धपरम्परा में भी पालन किया जाता है। संयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते हैं, "भिक्षुओ, भिक्षु आने-जाने में सचेत रहता है, देखने-भालने में सचेत रहता है, समेटने-पसारने में सचेत रहता है; संघाटी, पात्र और चीवर धारण करने में सचेत रहता है, पाखाना-पेशाब करने में सचेत रहता है; जाते, खडे होते, बैठते, सोते, जागते, कहते, चुप रहते सचेत रहता है। भिक्षुओं इस तरह भिक्षु सम्प्रज्ञ होता है। मुनि की आवागमन की क्रिया के विषय में विनयपटक में उल्लेख है कि मुनि सावधानीपूर्वक मंथर गति से गमन करें। गमन करते समय वरिष्ठ भिक्षुओं के आगे न चले, चलते समय दृष्टि नीचे रखे तथा जोर-जोर से हँसता हुआ और बातचीत करता हुआ न चले । सुत्तनिपात में मुनि की भिक्षावृति के संबंध में बुद्ध के निर्देश उपलब्ध हैं। वे कहते हैं कि रात्रि के बीतने पर मुनि गाँव में पैठे। वहाँ न तो किसी का निमंत्रण स्वीकार करे न किसी के द्वारा गाँव से लाये गये भोजन को। चुपचाप भिक्षा 1. चतुःशतक 298 2. धम्मपद 270, 19/15 3. अंगुत्तरनिकाय 3/153 4. सुत्तनिपात 3/3/7/27; धम्मपद 10/1, 10/4 5 धम्मपद, कोषवग्गो 5 6. दरेक धर्मनी दृष्टिए अहिंसानो विचार, पृ.23 7. सुत्तनिपात्त 37/27 8. सुत्तनिपात्त 26/19-23 9. वही, 26/24-26 10. वही, 26/28 11. सुत्तनिपात-29/4-5 12. सुत्तनिपात 25/29; अंगुत्तरनिकाय, निपात 5, पृ. 401 13. संयुत्त निकाय 34/5/1/7 14. विनय पिटक 8/4/4 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [409] करे और (भिक्षा के लिए) किसी भी प्रकार का संकेत करते हुए परम्परा में भी दस भिक्षु शीलों के पालन का विधान है। जैन कोई बात न बोले। यदि कुछ मिले तो अच्छा है और न मिले तो परम्परा के ज्येष्ठकल्प के समान बौद्ध परम्परा में भी दो प्रकार की भी ठीक है। इस प्रकार दोनों अवस्थाओं में अविचलित रहकर वापस दीक्षाओं का विधान है, जिन्हें श्रामणेर दीक्षा और उपसम्पदा कहा वन की ओर लौटे। गूंगे की तरह मौन हो, हाथ में पात्र लेकर वह गया है। श्रामणेर दीक्षा परीक्षास्वरूप होती है और उसमें दस भिक्षुमुनि थोडा दान मिलने पर उसकी अवहेलना न करे और न दाता शीलों की प्रतिज्ञा की जाती है। यह दीक्षा कोई भी भिक्षु दे सकता का तिरस्कार करें। 5 भिक्षु असमय में विचरण न करे, समय पर है। लेकिन उपसम्पदा देने के लिए पाँच अथवा दस भिक्षुओं के ही भिक्षा के लिए गाँव में पैठे। असमय में विचरण करनेवाले को भिक्षुसंघ का होना आवश्यक है। बौद्ध परम्परा में भी व्यक्ति की आसक्तियाँ लग जाती हैं, इसलिए ज्ञानी पुरुष असमय में विचरण संघ में वरिष्ठता एवं कनिष्ठता उसकी उपसम्पदा की तिथि से ही नहीं करते हैं।6 धम्मपद में कहा है कि जो भिक्षु वाणी में संयत मानी जाती है। प्रतिक्रमण कल्प के समान बौद्ध धर्म में प्रवारणा है, मितभाषी है तथा विनीत है वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित की व्यवस्था है जिसमें प्रति पन्द्रहवें दिन भिक्षु-संघ एकत्र होकर करते है, उसका भाषण मधुर होता है। सुत्तनिपात में भी इसी प्रकार उक्त समयावधि में आचरित पापों का प्रायश्चित करता है। प्रवारणा 'अविवेकपूर्ण वचन नहीं बोलना चाहिए और विवेकपूर्ण वचन बोलना की विधि बहुत कुछ जैन प्रतिक्रमण से मिलती है। बौद्ध परम्परा चाहिए' - इसका निर्देश है। इस प्रकार बुद्ध ने चाहे 'समिति' शब्द का प्रयोग न किया में भी जैन परम्परा के मासकल्प के समान भिक्षुओं का चातुर्मासकाल के अतिरिक्त एक स्थान पर रुकना वर्जित माना गया है। बौद्ध परम्परा हो फिर भी उन्होंने जैन परम्परा के समान ही आवागमन, भाषा, भिक्षा भी भिक्षु जीवन में सतत भ्रमण को आवश्यक मानती है। उसके एवं वस्तुओं का आदान-प्रदान व मल-मूत्र विसर्जन आदि का विचार किया है। बुद्ध के उपर्युक्त वचन यह स्पष्ट कर देते है कि इस संबंध अनुसार भी सतत भ्रमण के द्वारा जन कल्याण और भिक्षु जीवन में उनका दृष्टिकोण जैन परम्परा के निकट है। में अनासक्त वृत्ति का निर्माण होता है। जैन परम्परा के पर्युषण कल्प बौद्ध परम्परा और गुप्ति : के समान बौद्ध परम्परा में भी चातुर्मास काल में एक स्थान पर रुककर बौद्ध परम्परा में मन, वचन और शरीर की गुप्तियों का विधान धर्म की विशेष आराधना को महत्त्व दिया गया है। इस प्रकार भिक्षु जीवन के उपर्युक्त विधानों के संदर्भ में जैन और बौद्ध परम्पराओं है। सुत्तनिपात में तो जैन परम्परा के समान ही 'गुप्ति' शब्द का में काफी निकटता है।25 प्रयोग किया गया है।18 बुद्धने भी श्रमण साधक को मन, वचन बौद्ध परम्परा में दस धर्म :और शरीर की क्रियाओं के नियमन का निर्देश किया है । बौद्ध परम्परा में मन, वचन और काया की तीन क्रियाओं के लिये जैनपरम्परा के जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में भी क्षमादि दस धर्मो 'गुप्ति' शब्द के समानान्तर 'त्रिकर्म' शब्द का प्रयोग किया गया है। का वर्णन प्राप्त होता है, यथाअंगुत्तरनिकाय में बुद्धने तीन शुचि भावों एवं तीन प्रकार के मौन 1. क्षमा :- बौद्ध परम्परा में भी क्षमा का महत्व निर्विवाद के रुप में वस्तुतः जैन परम्परा की तीन गुप्तियों का ही विधान किया है। बौद्ध ग्रंथों में कहा है - क्षमा से उन्नति होती है।26 है। बुद्ध कहते हैं - भिक्षुओ ! ये तीन शुचि भाव हैं - शरीर की क्षमा से बढकर अन्य कुछ नहीं है। क्षमा ही परम तप है। वैर से नहीं, प्रेम से ही वैरशांत होता है। अपराधी शुचिता, वाणी की शुचिता, मन की शुचिता। भिक्षुओ ! मनुष्य प्राणी-हिंसा से विरत रहता है, चोरी से विरत रहता है, कामभोग को क्षमा नहीं करनेवाला मूर्ख है", वह महाद्वेषी वैर को संबंधी मिथ्याचार से विरत रहता है - यह शरीर की शुचिता है। 15. सुत्तनिपात 37/32-35 भिक्षुओ ! मनुष्य झूठ बोलने, चुगली करने और व्यर्थ बोलने से विरत 16. वही, 26/11 रहता है, इसे वाणी की शुचिता कहते है। भिक्षुओ! आदमी निर्लोभ, 17. धम्मपद 363 अक्रोधी तथा सम्यग्दृष्टिवाला होता है, यह मन की शुचिता है।" 18. सुत्तनिपात 4/3 वस्तुत: इस प्रकार बुद्ध भी श्रमण साधक के लिए मन, वचन और । 19. अंगुत्तरनिकाय, निकाय 3/118 शरीर की अप्रशस्त प्रवृत्तियों को रोकने का निर्देश करते हैं।20 20 वही, 3/20 बौद्ध परम्परा और कल्पविधान : 21. विनयपिटक, महावग्ग - 1/2/6 जैन श्वेताम्बर परम्परा मान्य आचेलक्य-कल्प का 'अल्प 22. विनयपिटक, चूलववग्ग - 10/1/2 वस्त्र धारण करना' - अर्थ बौद्ध परम्परा में भी मान्य है। बौद्ध भिक्ष 23. जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भागदीक्षित होने के समय अल्प और जीर्ण वस्त्रों में ही संतुष्ट रहने का 2 पृ. 365 नियम करता है। कृतिकर्म कल्प के संबंध में बौद्ध परम्परा में 24. बुद्धिज्म, पृ.77-78 भी दीक्षा-वय में ज्येष्ठ भिक्षु के आने पर उसके सम्मान में खडा 25. जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भागहोना तथा ज्येष्ठ भिक्षुओं का वंदन करना आवश्यक है। इतना ही 2 पृ. 366 26. अंगुत्तरनिकाय, निकाय 1/12 नहीं, बुद्ध ने दीक्षावृद्ध श्रमणी के लिए भी छोटे-बड़े सभी भिक्षुओं 27. संयुत्तनिकाय 10/12 को वंदन करने का विधान किया है। भिक्षुणी के आठ गुरु धर्मो 28. धम्मपद 184; बोधिचर्यावतार 6/2 में सबसे पहला नियम यही है। जिस प्रकार जैन परम्परा में व्रत 29. सुत्तपिटक; धम्मपद 1/5 कल्प के रुप में पाँच महाव्रतों का महाविधान है उसी प्रकार बौद्ध 30. संयुत्तनिकाय 1/11/24 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [410]... पञ्चम परिच्छेद 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अकिञ्चनता और आसक्ति-रहितता से बढकर कोई शरणदाता दीप नहीं है 150 मज्झिमनिकाय में बुद्ध को अकिञ्चन, अल्पाहारी, यथाप्राप्त वस्त्रों में संतुष्ट, संतोषी और एकान्तवासी बताया है |51 धम्मपद में कहा है-'सन्तोष ही परम धन है 52 10. ब्रह्मचर्य :- बौद्ध परम्परा में भी श्रमण साधक ( भिक्षु) के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य और गृहस्थ साधक के लिये स्वपत्नी संतोष व्रत की मर्यादाएँ स्थापित की गई हैं। 53 विनयपिटक में बौद्ध भिक्षु के लिए स्त्री का स्पर्श वर्जित माना गया है | 54 इतना ही नहीं, भिक्षु का एकान्त में भिक्षुणी के साथ बैठना - अपराध माना गया है।55 बुद्धने कहा है- जो पुण्य-पाप का परित्याग कर ब्रह्मचारी बनकर ज्ञानलोक में विचरण करता है, वही भिक्षु हैं ।" बुद्ध ने स्त्री के मेल (मिलन) को दुराचार कहा है ।7 बुद्ध ने दुःख के मूल को नष्ट करने के लिए ब्रह्मचर्य को आवश्यक माना है। 58 धम्मपद में शील की सुगंध को सर्वश्रेष्ठ सुगंध कहा है 159 बौद्ध परम्परा में भावना : जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में भी अनित्यादि बारह एवं मैत्र्यादि चारों भावनाओं का वर्णन प्राप्त होता है और अधिक बाँध लेता है" । वज्जालग्गं में कहा है - अपने प्रति किये हुए अपराधों को भी क्षमा करना केवल सज्जन ही जानता है 12 मार्दव :- बौद्ध धर्म में अहंकार की निन्दा की गई है। बौद्ध भिक्षु के लिए यौवनमद, आरोग्य मद और जीवन मद पतन का कारण माना गया है। 33 सुत्तनिपात में जाति, धन और गोत्र का गर्व अवनति का कारण बताया है । 34 आर्जव:- बुद्धने ऋजुता को कुशल धर्म कहा है। उनकी दृष्टि में सरलता सुख, सुगति, स्वर्ग और शैक्ष भिक्षु के लाभ का कारण है। 35 शौच :- जैनधर्म के भावशौच अर्थात् मानसिक शौच की तरह बौद्धधर्म में भी दूषित चित्तवृत्तियों के परित्याग का वर्णन है। 36 सत्य :- • बौद्ध धर्म में भी भिक्षु के लिए कृत-कारितअनुमोदन तीनों प्रकार से असत्य भाषण ”, मिथ्या भाषण, चुगली, कठोर वचन, अहितकर वचन, कपटपूर्ण वचन, अपमानजनक वचन त्याज्य है। भिक्षु को हमेशा शुद्ध, उचित, अर्थपूर्ण, तर्क पूर्ण और मूल्यवान् वचन बोलना चाहिए। 38 संयम :- बौद्ध परम्परा में भी इन्द्रियों पर संयम सन्तुष्टता तथा भिक्षु जीवन में अनुशासन में संयमपूर्वक रहना आवश्यक माना गया है। 39 बुद्धने शरीर वाणी और मन के समय को उत्तम और दुःखों से छूटने का कारण माना है। 40 संयुक्त निकाय में मुनि को कछुवे की तरह रहने के लिए कहा " तथा मज्झिमनिकाय में चित्तवृत्तियों के निरोध का कथन किया गया है। 42 तप :- बौद्ध वाड्मय में तप की गरिमा के विषय में चिन्तन करते हुए कहा है- 'तपो च ब्रह्मचरियं च सिनानमनोदकम् । '43 तप और ब्रह्मचर्य बिना पानी का स्नान है। इसी तरह बुद्धने और भी कहा है- 'सद्धाबीजं तपो वुट्ठि - श्रद्धा मेरा बीज है, तप मेरी वर्षा है। इस प्रकार अनेक सूक्तियों में तप की गरिमा की स्पष्ट झलक परिलक्षित होती है। प्रसिद्ध दर्शन समीक्षक डॉ. सागरमलजी जैन के अनुसार जैनों की तरह ही बौद्ध धर्म में भी बौद्ध भिक्षुओं के लिए अतिभोजन वर्जित है, साथ ही एक समय भोजन करने का आदेश है। 45 बौद्ध भिक्षुओं को भी रसासक्ति का निषेध है, साथ ही विभिन्न आसन और भिक्षाचर्या स्वीकृत है लेकिन जैन साधना जितनी कठिन नहीं है। इतना ही नहीं, अभ्यन्तर तप में भी प्रायञ्चित की तरह प्रवारणा, विनय, वैयावृत्य (सेवा), वाचना, पृच्छना, परावर्तना और चिन्तन रुप स्वाध्याय, व्युत्सर्ग (कार्योत्सर्ग) और ध्यान ये छहों प्रकार बौद्ध परम्परा में भी समान रूप से मान्य हैं। 46 त्याग:- बौद्ध परम्परा में भी तृष्णा को दुःख माना गया है। 47 बुद्ध सबसे दृढ बन्धन सोना, चांदी, पुत्र और स्त्री में रही आसक्ति को मानते है। 48 बुद्ध की दृष्टि में परिग्रह या आसक्ति का मूल तृष्णा है । 49 अतः परिग्रह और तृष्णा त्याज्य हैं। अकिञ्चनता:- बौद्ध ग्रंथ चुलनिद्देशपालि में कहा है 31. वही, 1/1/35 32. वज्जालग्गं 44 33. 34 35. 36. 37 38. 39. 40. 41. 42. अंगुत्तरनिकाय, निकाय 3/39 सुत्तनिपात 1/6/14 अंगुत्तरनिकाय, निकाय 2/15-16 धम्मपद 9/10 221 222-223; सुत्तनिपात 7/1, 6 / 14; संयुत्तनिकाय 3/33, 40/13/1 सुत्तनिपात 26/22 वही, 53/7, 9, मज्झिमनिकाय, अभयराज सुत्त धम्मपद 375; दीर्घनिकाय 1/2/2, विशुद्धिमग्गो 1 / 101 धम्मपद 361 43. 44 45. 46. 47. संयुत्तनिकाय 1/2/27 मज्झिमनिकाय, 2/35/4 संयुत्तनिकाय 1/1/58 सुत्तनिपात 1/4/2 इतिवृत्तक- 2/1/1 जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 111 संयुत्तनिकाय 2/12/66, 1/1/65 48. धम्मपद 345 49. महानिद्देसपालि 1/11/107 50. चुलनिद्देशपालि 2/10/63 51. मज्झिमनिकाय, 77 52. धम्मपद 204 सुत्तनिपात 26/11 53 54. विनयपिटक, पातिमोक्ख, संघादिसेसधम्म 2 55. विनयपिटक, पातिमोक्ख, पाचितियधम्म 30 56. धम्मपद 361 57. वही, 18 / 8 58. 59. धम्मपद 7 शाश्वत धर्म, ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ.83 A Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [411] 1. अनित्य भावना :- धम्मपद में अनित्य भावना का वर्णन इसलिए भिक्षु को सदैव इस संबंध में स्मृतिवान् (सावधान) करते कहा है - संसार के सब पदार्थ अनित्य हैं, इस तरह रहना चाहिए। जब बुद्धिमान् पुरुष जानता है, तब वह दुःख नहीं पाता 160 8. निर्जरा भावना :- बुद्ध ने कहा है कि जिनकी चेतना शरीर यही विशुद्धि का मार्ग है। संयुत्तनिकाय में भी कहा है - के प्रति जागरुक रहती है, जो अकरणीय आचरण नहीं करते भिक्षुओं ! चक्षु-श्रोत्र-ध्राण-जिह्वा-काय और मन (सब) अनित्य और निरन्तर सदाचरण करते हैं, ऐसे स्मृतिवान् और सचेत मनुष्यों हैं। जो अनित्य है वह दुःख हैं।61 के आस्रव नष्ट हो जाते हैं। एकत्व भावना :- धम्मपद में एकत्व भावना का वर्णन 9. धर्म भावना :- धम्मपद में कहा है कि धर्म के अमृतरस करते कहा है- अपने से किया हुआ, अपने से उत्पन्न हुआ, का पान करनेवाला सुख की नींद सोता है। चित्त प्रसन्न रहता पाप ही दुर्बुद्धि मनुष्य को विदीर्ण कर देता है, जैसे 'वज्र' है । पण्डित पुरुष आर्यो द्वारा प्रतिपादित धर्म मार्ग पर चलता पत्थर की मणि को काट देता है 162 अपने पापों का फल मनुष्य हुआ आनंदपूर्वक रहता है। मनुष्य सदाचार धर्म का पालन स्वयं भोगता है। पाप न करने पर वह स्वयं शुद्ध रहता है। करे, बुरा आचरण न करे, धर्म का आचरण करनेवाला इस प्रत्येक पुरुष का शुद्ध या अशुद्ध रहना स्वयं उस पर निर्भर लोक में और परलोक में सुखपूर्वक रहता है। है। कोई किसी दूसरे को शुद्ध नहीं कर सकता।63 10. बोधिदुर्लभ भावना :- धर्मबोध की दुर्लभता का वर्णन 3. अशुचि भावना :- धम्मपद में कहा है कि यह शरीर हड्डियों करते हुए बौद्ध धर्म में कहा गया है कि "मनुष्यत्व की प्राप्ति का घर है, जिसे मांस और रुधिर से लेपा गया है, जिसमें दुर्लभ है, मानव जन्म पाकर भी जीवित रहना दुर्लभ है, कितने बुढापा, मृत्यु, अभिमान और मोह निवास करते हैं।64 विशुद्धि तो अकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। मनुष्य बनकर सद्धर्म मार्ग में भी कहा गया है कि "यदि इस शरीर के अंदर का का श्रवण दुर्लभ है और बुद्ध होकर उत्पन्न होना तो अत्यन्त भाग बाहर आ जाय तो अवश्य ही डण्डा लेकर कौवों और दुर्लभ है। कुत्तों को रोकना पडे।"65 मैत्र्यादि चार भावनाएँ :अशरण भावना :- धम्मपद में कहा है कि "पुत्र तथा बौद्ध परम्परा में मैत्री, प्रमोद (मुदिता), करुणा और उपेक्षा पशुओं में आसक्त मनवाले मनुष्य को लेकर मृत्यु इस तरह (माध्यस्थ) भावना का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। बुद्ध ने इन्हें चली जाती है, जैसे सोये हुए गाँव को महान जल-प्रवाह बहा 'ब्रह्मविहार' कहा है। ये चारों भावनाएँ चित्त की सर्वोत्कृष्ट और दिव्य ले जाता है। मृत्यु से पकडे हुए मनुष्य की रक्षा के लिए अवस्थाएँ हैं। चित्त-विशुद्धि का उत्तम साधन है। जो इनकी भावना न पुत्र, न पिता, न बन्धु आ सकते हैं। किसी संबंधी से करता है, वह सद्गति अथवा निर्वाण प्राप्त करता है। बौद्धों के अनुसार रक्षा नहीं हो सकती । इस तरह मृत्यु के वश में सबको जानकर मैत्री का राग, प्रमोद की सौमनस्यता (रति), करुणा का शोक, और सम्यग् अनुष्ठान करनेवाला बुद्धिमान् पुरुष शीघ्र ही निर्वाण के माध्यस्थ भावना की अज्ञानयुक्त उपेक्षा निकटतवर्ती शत्रु है तथा मैत्री मार्ग को स्वच्छ करें।66 अंगुत्तरनिकाय में भी कहा गया है कि का द्वेष, प्रमोद का अरति (अप्रीति), करुणा का विहिंसा और माध्यस्थ अल्प आयु जीवन को (खींचकर) ले जाती है। बुढापे द्वारा भावना के राग और द्वेष दूरवर्ती शत्रु है। इस प्रकार बौद्ध साहित्य (खींचकर) ले जाये जाने वाले के लिए कोई शरण स्थान नहीं में भी जैनागम वर्णित भावनाओं का सम्यग्वर्णन प्राप्त होता है। है। मृत्यु के इस भयभीत स्वरुप को देखकर मनुष्य को चाहिए बौद्ध परम्परा और परीषह :कि वह सुखदायक पुण्य कर्म करे। भगवान् बुद्धने भी भिक्षु जीवन में आनेवाले कष्टों को 5. संसार भावना :- बुद्धने संसार का वर्णन करते कहा है - समभावपूर्वक सहन करने का निर्देश दिया है। अंगुत्तरनिकाय में वे "जैसे मनुष्य पानी के बुलबुले को देखता है, और जैसे वह मृगमरिचिका को देखता है वैसे वह इस संसार को देखे । इस । 60. धम्मपद 277 प्रकार देखने वालों को यमराज नहीं देखता 168 यह हँसना कैसा 61. संयुत्तनिकाय 34/I/I/I और यह आनन्द कैसा, जब चारों तरफ बराबर आग लगी हुई 62. धम्मपद 161 63. वही 165 हो? अंधकार से घिरे हुए तुम लोग प्रकाश को क्यों नहीं खोजते 64. धम्मपद 148-150 हो ?69 संसार की दुःखमयता का यह चिन्तन ही बौद्ध दर्शन 65. विशुद्धिमग्ग 6/93 का प्रथम आर्य सत्य - 'सर्व दुःखम्' है। 66. धम्मपद 287-289 आस्त्रव भावना :- बुद्धने धम्मपद में कहा है कि "जो 67. अंगुत्तरनिकाय 3/51 कर्तव्य को बिना किये छोड़ देते हैं और अकर्तव्य करते हैं, 68. धम्मपद 170 69. वही, 146 ऐसे उद्धत तथा प्रमत लोगों के आस्रव बढ़ जाते है। आस्रव 70. धम्मपद 292 भावना की तुलना बौद्ध आचार दर्शन के द्वितीय आर्य सत्य 71. वही, 360, 361 'दुःख का कारण' से की जा सकती है। 72. वही, 293 7. संसार भावना :- बुद्ध का कथन है - आँख-कान-प्राण 73. वही, 179 जीभ-काया-वाणी और मन तथा सब इन्द्रियों का संवर उतम 74. धम्मपद 169 75. वही, 182 है। जो सर्वत्र संवर करता है, वह दुःखों से छूट जाता है। 76. संयुत्तनिकाय 39/7 तथा 40/8 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [412]... पञ्चम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कहते हैं - भिक्षुओ ! जो दुःखपूर्ण, तीव्र, प्रखर, कटु, प्रतिकूल, अर्थात् पापचरण की आलोचना करने पर व्यक्ति पाप के भार से हल्का बैरी, प्राणहर शारीरिक वेदनाएँ हों, उन्हें सहन करने का प्रयत्न करना हो जाता है।82 बौद्ध आचार दर्शन में प्रवारणा के नाम से पाक्षिक चाहिए। सुत्तनिपात में भी वे कहते हैं कि धीर, स्मृतिवान, संयत प्रतिक्रमण की परम्परा स्वीकार की गई है। बोधिचर्यावतार में तो आचरणवाला भिक्षु डसनेवाली मक्खियों से, सर्पो से, यानी मनुष्यों आचार्य शान्तिदेवने पापदेशना के रुप में दिन और रात्रि में तीनके द्वारा दी जानेवाली पीडा से तथा चतुष्पदों से भयभीत न हो। तीन बार प्रतिक्रमण का निर्देश किया है। वे लिखते है कि तीन दूसरी सभी बाधाओं का सामना करें। रोग-पीडा, भूख-वेदना तथा बार रात में और तीन बार दिन में त्रिस्कन्ध (पापदेशना, गुण्यानुमोदना शीत-उष्ण को सहन करें। अनेक प्रकार से पीडित होने पर भी वीर्य और बोधि परिणामना) की आवृत्ति करनी चाहिए, इससे अनजाने में व पराक्रम को दृढ करें। संयुत्तनिकाय में भिक्षु के सत्कार परीषह हुई आपत्तियों का शमन हो जाता है।83 के संबंध में कहा गया है कि जिस प्रकार केले का फल केले को जैन और बौद्ध परम्परा में श्रमणी-संघ व्यवस्था :नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सत्कार-सम्मान पुरुष को नष्ट कर देता यद्यपि श्रमणों की संघ-व्यवस्था अति प्राचीन काल से है। अतः सत्कार पाकर भिक्षु प्रसन्न न हो।" इस प्रकार बौद्ध- प्रचलित थी। लेकिन श्रमणियों के संघ की व्यवस्था सामान्यतया परम्परा में भी भिक्षु का कष्ट सहिष्णु होना आवश्यक है, इतना ही सर्वप्रथम जैन परम्परा में ही प्रचलित हुई। बुद्धने अपने भिक्षु-संघ नहीं, भगवान् बुद्धने भी इस हेतु जैनों की तरह 'परीषह' शब्द का में स्त्रियों की प्रवेश की अनुमति बहुत ही अनुनय-विनय के पश्चात् प्रयोग भी किया है। प्रदान की। यद्यपि जैन और बौद्ध परम्पराएँ इस विषय में एकमत बौद्ध परम्परा में प्रायश्चित विधाना : है कि भिक्षुणी संघ को भिक्षु संघ के अधीन ही रहना चाहिए, दोनों जैन परम्परा के समान बौद्ध परम्परा में भी भिक्षुओं के द्वारा ही भिक्षुणी संघो में स्त्रीप्रकृति को ध्यान में रखते हुए कुछ विशिष्ट विभिन्न नियमों को भंग करने पर प्रायश्चित का विधान है। सामान्यतया नियमोंका प्रतिपादन हुआ है। बुद्ध ने इस संबंध में निम्नांकित अष्टगुरुधर्मो बौद्ध परम्परा में आठ प्रकार के प्रायश्चितों का विधान उपलब्ध होता। का निर्देश किया है। है - 1. पाराजिक 2. संघादिशेष 3. नैसर्गिक 4. पाचितिय 5. अनियत (1) भिक्षुणी संघ में चाहे जितने वर्षों तक रही हो, तो भी वह 6. सेखिय 7. प्रतिदेशनीय 8. अधिकरण समय । छोटे-बड़े सभी भिक्षुओं को प्रणाम करे। पाराजिक प्रायश्चित प्रमुख रुपसे हिंसा और चोरी के लिए (2) जिस गाँव में भिक्षु न हो वहाँ भिक्षुणी न रहे। दिया जाता है। बौद्ध परम्परा में भी पाराजिक प्रायश्चित में व्यक्ति हर पखवाडे में उपोसथ किस दिन है और धर्मोपदेश सुनने भिक्षुसंघ से पृथक् कर दिया जाता है। सामान्यतया पाराजिक प्रायश्चित के लिए कब आना है - ये बातें भिक्षुणी 'भिक्षुसंघ' से के योग्य अपराध निम्न हैं पूछ लें। (1) संघ में रहकर मैथुन सेवन करना। चातुर्मास्य के बाद भिक्षुणी को भिक्षुसंघ और भिक्षुणी-संघ (2) बिना दी हुई वस्तुएँ ग्रहण करना जिससे चोर समझा जाय। दोनों में प्रवारणा करनी चाहिए। (3) मनुष्य आदि की हत्या करना। (5) जिस भिक्षुणी से संघादिशेष आपत्ति हुई हो उसे दोनों संघो (4) बिना जाने और देखे भौतिक बातों का दावा करना । में पन्द्रह दिनों का प्रायश्चित लेना चाहिए। जैन और बौद्ध परम्पराओं में पाराञ्चित एवं पाराजिक प्रायश्चित (6) जिसने दो वर्ष तक अध्ययन किया हो ऐसी श्रामणेरी को के संबंध में समान दृष्टिकोण है। दोनो संघ उपसम्पदा दे दें। जिस प्रकार जैन परम्परा में अनवस्थाप्य प्रायश्चित का विधान (7) किसी भी कारण से भिक्षुणी भिक्षु के साथ गाली-गलौज है, उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में संघादिशेष प्रायश्चित का विधान है। न करें. बौद्ध परम्परा के अन्य प्रकार अनियत नैसर्गिक और पाचित्तिय (8) भिक्षु ही भिक्षुणी को उपदेश दें । है। जिन्हें बौद्ध परम्परा की पारिभाषिक शब्दावली में विसग्गीय पाचित्तिय उपरोक्त प्रतिपादन से यह स्पष्ट है कि बौद्धधारा में भी जैन धम्म कहा जाता है उनकी तुलना जैन परम्परा के सामान्यतया आलोचना सिद्धान्तों को समान रुप से स्वीकृत किया गया है। इतना ही नहीं, और प्रतिक्रमण से की जाती है। विसग्गीय पाचित्तिय धम्म में सामान्यतया अपितु व्यावहारिकता की दृष्टि से संघ व्यवस्था का प्रतिपादन भी जैनों वस्त्र पात्र संबंधी 30 नियम आते हैं और उनका उल्लंघन करने पर श्रमण की संघ व्यवस्था के तुल्य है। बौद्धधारा में तो बुद्धं शरणं गच्छामि, विसग्गीय पाचित्तिय अपराध का दोषी माना जाता है। अन्य भाषण, धम्मं शरणं गच्छामि, के बाद 'संघं शरणं गच्छामि' कह कर संघ का निवास, आहार आदि संबंधी 192 नियम पाचित्तिय धम्म कहे जाते हैं और उनका उल्लंघन करने पर भिक्षु पाचित्तिय धम्म का दोषी माना जाता और भी अधिक महत्त्व प्रतिपादित कर दिया गया है। है। प्रतिदेशनीय, सेखीय और अधिकरण समय-शिक्षाएँ हैं। 77. अंगुत्तरनिकाय 3/59 78. सुत्तनिपात 54/10-12 इस प्रकार जैन एवं बौद्ध दोनों परमपराओं में भिक्षु जीवन एवं श्रमण-संस्था को पवित्र बनाये रखने के लिए विभिन्न नियमो 80. सुत्तनिपात 54/6 और प्रायश्चितों का विधान है। 81. विनयपिटक, पातिमोक्ख के नियम, जैन-बौद्ध-गीता के आचार दर्शनों बौद्ध परम्परा और प्रतिक्रमण : का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 2, पृ. 382, 383 बौद्ध धर्म में प्रतिक्रमण के स्थान पर प्रतिकर्म, प्रवारणा 82. वही पृ.- 383 83. उदान - 5/5 और पाप-देशना नाम मिलते है। बुद्ध की दृष्टि में पापदेशना का 84. बोधिचर्यावतार 5/98 महत्वपूर्ण स्थान है। वे कहते हैं खुला हुआ पाप लगा नहीं रहता 85. भगवान् बुद्ध, पृ. 168, 169; विनयपिटक, चूलवग्ग 10/1/2 (4) 79. संयुत्तनिकाय 1/6/12 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन पञ्चम परिच्छेद... [413] 5. इतर परम्पराएँ और जैनाचार | जब हम 'इतर परम्पराएँ' कहते हैं तो उसमें पूर्वोक्त परम्पराओं के अतिरिक्त वे सभी परम्पराएँ समाहित हो जाती हैं जो भारत या विश्व के किसी भी भाग में प्रचलित हों। इनमें पारसी, यहूदी, इस्लामिक, ईसाई आदि प्रमुख परम्पराएँ हैं, जो विदेशों में उदित हुई और विश्व में प्रचारित और प्रसारित हो गयीं। ये परम्पराएँ अपने उन सिद्धान्तो के कारण भारत में भी अपनायी गयीं जो भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के सिद्धान्तो से सामञ्जस्य रखते थे। - इसके समानान्तर भारत में भी कालक्रम से अनेक उपसम्प्रदायों का जन्म हुआ। इनमें सिक्ख सम्प्रदायने अपने सिद्धान्तों के कारण भारतीय परम्परा में विशेष स्थान प्राप्त किया। सिक्खों के गुरु महाराज नानक द्वारा जो प्रतिपादन किया है वह भी श्रमण और ब्राह्मण परम्पराओं को प्रतिबिम्बित करता है। सिक्ख धर्म में अहिंसा : ईसाई धर्म में अहिंसा :सिक्ख धर्म में गुरुनानकने भी कहा है - जो कोई भी ईसाने भी कहा है कि "त तलवारम्यान में रख लें क्योंकि मांस-मुर्गी आदि खाता है और मादक पदार्थो का सेवन करता है, जो लोग तलवारचलाते हैं वे सभी तलवारसे ही नष्ट किये जायेंगे।" उसका समस्त पुण्य नष्ट हो जाता है। यहूदी धर्म में यह कहा गया उसमें यह भी कहा है कि "तुम अपने दुश्मन से भी प्रेम करो, है कि "किसी आदमी के आत्म सम्मान को चोट नहीं पहुंचाना और जो तुम्हें सताते हैं उनके लिए भी प्रार्थना करो।"17 ईसाने चाहिए ।लोगों के सामने किसी आदमी को अपमानित करना उतना कहा है Do not kill18 ही बडा पाप है, जितना कि उसका खून कर देना। प्राणीमात्र जेनीसीस में कहा गया हैके प्रति निर्वैरभाव की प्रेरणा देते हुए कहा है कि "अपने मन में ___ When God appointed man's food. He किसी के प्रति वैर भाव मत रखो। इसी तरह लाओत्से भी कहते gave him every green heard yielding seed and हैं कि "जो लोग मेरे प्रति अच्छा व्यवहार नहीं करते हैं, उनके प्रति the fruit of the trees saying, to you it shall भी मैं अच्छा व्यवहार करता हूँ। कन्फ्यूशियसने भी कहा है कि be for neat.19 "जो चीज तुम्हें नापसंद है, वह दूसरे के लिए हरगिज मत करो।" बाईबल में कहा हैइस्लाम धर्म में अहिंसा : Shall keep the weale law and get "कुराने शरीफ' के मंगलाचरण में ही 'बिस्मिल्लाह effered in one point is guilty at all.20 रहीमानुर्रहीम' - कहकर अल्लाह को करुणा की मूर्ति बताया गया। 1. दरेक धर्मनी दृष्टिए अहिंसानो विचार, पृ. 33 है।' 'कुराने शरीफ' में अहिंसा का पालन करने का आदेश देते हुए 2. मेतलिया 58, आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन, पृ.171 से उद्धृत कहा है- जो खुदा के पैदा किये हुए जानवरों के साथ रहम करता 3. तोरा-लेव्य व्यवस्था 19/17, आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन, पृ.171 है, वह अपने साथ रहम करता है। जानवरों पर रहम करने का से उद्धृत इनाम इस दुनिया में भी है और मरने के बाद में भी मिलेगा। 4. ताओ तेहकिंग, आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन, पृ.171 से उद्धत जानवरों को काटने के लिए रखना और काटना मना है।' जो कोई 5. आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन, पृ.171 से उद्धृत अन्य प्राणियों के साथ दया का व्यवहार करता है, अल्लाह उस पर 6. कुरानेशरीफ 5/35 दया करता है। पैगम्बर साहब ने कहा है 7. वही, आयत 1/23 "किसी भी स्म में उनका (उन कुर्बान किये गये पशुओं 8. वही, आयत 5 का) मांस ईश्वर के पास नहीं पहुंचता, न ही उनका रक्त भी, किन्तु 9. वही, आयत 1/134, 11/135 दया ही साथ जाती है। कुरान-ए-शरीफ में मक्का की यात्रा के 10. वही, आयत 6/38, दरम्यान जानवरों को मारने का निषेध किया गया है। 2 11. अहिंसा और मार्गदर्शन, अंतिम पृष्ठ पारसी धर्म में अहिंसा : 12. कुराने शरीफ: सिरा उलमायद सिपारा, मंजलक आयत पारसी धर्म में कहा है- "जो गाय ढौर की जिंदगी को 13. आपा जरथुस्त्र, गाथा-32, 12 हँसी मजाक में बिना कारण हानि पहुँचाता है, तथा जो कृपण होता 14. वही, गाथा हा. 32; 12 है तथा दारुही (हिंसक मनुष्य) की सत्ता को चाहने वाला होता है, 15. वही, 34, 3 उनको ईश्वरबुरा हाजरमजह गिनता है। पारसी भाईयों का फरमान 16. 11/135 करते हुए 'गाथा' में आगे कहा है - 1. जीवजंतु की रक्षा करना। 17. बाईबल (मत्ती)-2/51, 52; 5/45, 46; लूका 6/27/37, अहिंसा दर्शन, 2. पशु हिंसा को अहुमझद (ईश्वर) बुरा मानते हैं ।।5 3. पशुओं को पृ. 6 से उद्धृत चारापानी देने में हुए प्रमाद के लिए सच्चे हृदय से बंदगी (पश्चाताप) 18. बाईबल, दश आज्ञाएँ करें। 19. Genisis - 1, 29, अहिंसा और मार्गदर्शन - अंतिम पृष्ट से उद्धृत 20. Bible अहिंसा और मार्गदर्शन - अंतिम पृष्ठ से उद्धृत Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [414]... पञ्चम परिच्छेद और भी कहा है Thous shall not kill.21 इतर परम्पराओं में क्षमा22 : श्रमण-ब्राह्मण परम्पराओं में स्वीकृत क्षमा आदि धर्मो को सार्वभौम स्वीकृति प्राप्त है। यहां पर जिसके कुछ उद्धरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो वक्त पर धैर्य रखें और क्षमा कर दें तो निश्चय वह बडे साहस के कामों में से एक है। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अनजाने हुए हों और जो गुनाह साफ दिल से मैने प्रकट न किये हों, उन सबसे मैं पवित्र होकर अलग होता हूँ। 23 ईसाई धर्म में भी पापदेशना आवश्यक मानी जाती है। जेम्स ने 'धार्मिक अनुभूति की विविधताएँ नामक पुस्तक में इसका विवेचन किया है। 24 ईसाई एवं यहूदी परम्परा में मूसा के 10 आदेशों या दश आज्ञाओं में एक आज्ञा यह भी है कि सप्ताह में एक दिन विश्राम लेकर पवित्र आचरण करना 125 - यह जैनसिद्धान्तोक्त पौषध से समानता रखती है। 26 कुराने शरीफ में कहा है रोजों की रातों में अपनी औरतों के पास जाना तुम्हारे लिए हलाल (निषेध) है। - कुराने शरीफ : 42/43 क्षमा करने की आदत डाल, नेकी का हुक्म देता जा और जाहिलों से दूर रह । -कुराने शरीफ: 7/199 गुस्सा पी जाते हैं और लोगों को माफ कर देते हैं, अल्लाह ऐसी नेकी करनेवालों को प्यार करता हैं । - कुराने शरीफ : 3/134 अपने शत्रुओं से प्रेम रखो, और जो तुम्हें सताता है उसके लिए प्रार्थना करो । बाईबिल, नया नियम (मत्ती 5/44) प्रार्थना में यदि किसी के प्रति तुम्हारे मन में कोई विरोध खड़ा हो तो तत्काल क्षमा कर दो, अन्यथा परम पिता तुम्हें भी माफ नहीं करेगा । बाईबिल, नया नियम ( मरकुस 11/25-2644) हे पिता ! इन्हें क्षमा करना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं ? - बाईबिल, नया नियम (लूका 23/24) वैरी से मत हारो, बल्कि क्षमा से वैरी को जीत लो । बाईबिल, नया नियम (रोमियों - 12/21 परदेशी से भी प्रेम कर, अपने मन में किसी के प्रति वैर का दुश्मनी का भाव मत रखो । यहूदी धर्म प्रवर्तक- यहोवा (लैव्य-व्यवस्था - 19/17) यदि तुम्हारा शत्रु तुम्हें मारने आये और वह भूखा-प्यासा तुम्हारे घर पहुँचे, तो तुम उसे खाना दो, पानी दो । वही ( नीति - 25 / 21 मिदराश) मन से सदैव यही सोचो कि सभी मेरे भाई हैं, और उनके प्रति मैने किसी भी तरह का कोई अपराध किया हो तो प्रभु मुझे क्षमा करो । - - पारसी धर्म प्रवर्तक जरथुस्त्र (पहेलवी टेक्स्ट्स) , पारसी धर्म में भी पाप - आलोचना की प्रणाली स्वीकार की गई है। खोरदेह अवस्ता में कहा गया है कि मैने मन से जो बुरे विचार किये, वाणी से जो तुच्छ भाषण किया और शरीर से जो हलका काम किया, इत्यादि प्रकार से जो जो गुनाह किये, उन सबके लिए मैं पश्चाताप करता हूँ। अभिमान, गर्व, मरे हुए लोगों की निन्दा करना, लोभ, बेहद गुस्सा, किसी की बड़ती देखकर जलना, किसी पर बुरी निगाह करना, स्वच्छन्दता, आलस्य, कानाफूसी, पवित्रता का भंग, झूठी गवाही, चोरी, लूट-खसोट, व्याभिचार, बेहद शौक करना, इत्यादि जो गुनाह मुझसे जाने -रुकअ-23/187 हज के महीने में औरतों के सामने सोहबत का तजकिरा (त्याग) है। हज के दिनों में औरतों से अलग रहो । 24. 25. 26. -रुकअ-25/197 शराब और जुए में बड़ा गुनाह है। फकीरों को खैरात छिपाकर (गुप्त रूप से) दो । -रुक अ-28/222 माँ-बाप की भलाई करो । -सूर अहकाक, रुकअ - 4/15 उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जिस अहिंसा को प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्ररूपित किया था, जिसे महावीर पर्यन्त तीर्थंकरों ने पुष्पित, पल्लवित एवं विकसित किया उसका विश्व के समस्त धर्म एवं दर्शनों में स्थान है। सभी धर्मो द्वारा स्वीकृत अहिंसा एक ऐसी कडी है, जो विश्व के समस्त धर्मों को पारस्परिक एकता एवं सद्भाव के सूत्रो में आबद्ध कर देती है। -रुकअ-27/219 -रुकअ-37/271 21 22. 23. (क) अज हमोइन हर आइन गुनाह हर आइन मगर जान हर आइन फरोह मान्द हर आइन मानीद हर आइन् गुनाह अज गुनाह ओएम अन्दर शेहेरवेर अयोषशस्त अयोषशस्त सर्दगान जस्त 'प' पतेत होम (ख) 'अज...... अंदर संपदामद जमीन सर्दगांन जस्त प पतेत होम' Exodus 20/13 'शाश्वत धर्म' मासिक, अगस्त 2001, पृ. 15 से उद्धृत - खोरदहे अवेस्ता पृ. 7/23-24, दर्शन और चन्तन, भाग 2, पृ. 193, 194 से उद्धृत वेरायटीज ऑफ रिलिजीयस एक्सपीरियन्स, पृ. 452 बाईबल ओल्ड टेस्टामेन्ट, निर्गमन 20 जैन-बौद्ध - गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 298 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिच्छेद Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिच्छेद आचारपरक शब्दावली में आचारपरक कथाएँ एवं सूक्तियाँ 1. आचारपरक कहानियाँ 2. आचारपरक सूक्तियाँ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिच्छेद आचारपरक शब्दावली में आचारपरक कथाएँ एवं सूक्तियाँ समीक्षकोंने दर्शनशास्त्र के तीन प्रमुख विभाग किये हैं 1. तत्त्व विज्ञान अर्थात् विश्व में कौन से तत्त्व हैं, जो जानने योग्य है; 2. प्रमाण विज्ञान अर्थात् उन तत्त्वों को किन साधनों के द्वारा जाना जा सकता है; और 3. आचार विज्ञान अर्थात् उन तत्त्वों को जानकर आचरण योग्य क्या है? जैन सिद्धान्त की भाषा में प्रतिपादित सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र क्रमशः इन्हीं तीनों विभागों का प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते हैं। भारतीय दर्शनों की एकरुपता इस तथ्य से है कि सभी हुई है उसका वर्णन यदि अभिधान राजेन्द्र कोश में है तो उसका दर्शन मानवमात्र के जीवन का एक लक्ष्य प्रतिपादित करते हुए उस उल्लेख कहाँ पर है - इसका संकेत किया जाये। हमने यहाँ पर केवल लक्ष्य को पाने का निश्चित उपाय अपने आचरण शास्त्र द्वारा निश्चित उन कथाओं का संकेत किया है जो आचार शास्त्र से सम्बन्धित है। करते हैं। अर्थात् आचरणहीन ज्ञान का होना या न होना व्यर्थ है। वृत्तों का आधार बनाकर अनेक कवियों ने काव्यमय साहित्य इस दृष्टि से पुरुषार्थ चतुष्टय का उपदेश किया गया है। पुरुषार्थ चतुष्टय की रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। इन रचनाओं में कोई-कोई वाक्य सुभाषित का हार्द यह है कि 'धर्म' पूर्वक जीवन यापन किया जाये और के रुप में प्रसिद्ध होकर लोक में प्रचलित हो गये। इन्हीं सुभाषितों जीवनोपकरण के रुप में 'अर्थ' भी धर्मपूर्वक प्राप्त किया जाये किन्तु ___को हम 'सुक्ति' नाम से जानते हैं। उस अर्थ का परिग्रह उतना ही हो जितना आवश्यक है। अर्थ की आज सुभाषितों और सूक्तियों पर अनेक कोश ग्रन्थ उपलब्ध तीन गतियाँ प्रसिद्ध है, दान, भोग और नाश। इनमें भी दान को है। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्ररीश्वरजीने भी सुभाषितों और सूक्तियों प्रधानता दी गयी है। मानव मात्र का स्वभाव संचय करने का है; को अपने कोश में स्थान देकर मानो यह घोषणा कर दी थी कि यदि संचय के पश्चात् आसक्ति से भोग किया जाये तो वह भी कालान्तर में सुभाषितों और सूक्तियों पर भी पृथक्-पृथक् कोश ग्रन्थों अकल्याणकारी है और भोग न किया जाये तो उस अर्थ का नाश के प्रणयन का समय आ गया है। स्वयं सिद्ध है। भोग का तात्पर्य इन्द्रिय विषयों के सेवन से है। वर्तमान में दो प्रकार के कोश दृष्टिगोचर होते हैं - मुहावरा भारतीय दर्शन में इसे 'काम' पुरुषार्थ माना गया है। काम भी धर्मपूर्वक कोश और लोकोक्ति कोश/सुभाषित कोश। संस्कृत साहित्य की धारा ही होना चाहिए - यह भारतीय मनीषा का प्रमुख ध्यातव्य विषय में सभी ऐसे कथन जो उक्ति के रुप में जनभाषा में व्यवहत हों है। अन्तिम लक्ष्य 'मोक्ष' तो धर्म के बिना सम्भव ही नहीं है। 'मोक्ष' प्राप्त करने की निश्चित प्रक्रिया है जिसे दर्शनशास्त्र में आचार 'सुभाषित' या 'सूक्ति' के अन्तर्गत आते हैं। यदि संक्षेप में दोनों विज्ञान में समाहित किया गया है। को पृथक करना हो तो मेरी अल्पमति के अनुसार निम्नांकित रुप किसी दर्शनशास्त्र में प्रतिपादित आचार विज्ञान कितना सैद्धांतिक से परिभाषित किया जाना उचित होगाहै या कितना प्रायोगिक स्वरुप का है - यह तथ्य व्यवहार में देखने मुहावरा :पर ही ज्ञात हो सकता है। पुराण और इतिहास के द्वारा यह समझाया विधायक (प्रतिपादक, प्रतिषेधक, जिज्ञासात्मक, प्रतिषेध जाता है कि वस्तुतः आचार विज्ञान के सोपान मानव शक्ति द्वारा जिज्ञासात्मक) वाक्यों के अर्थ की गम्यमानना से युक्त लक्षणाशक्ति। आरोहण योग्य है; कपोल कल्पना नहीं। जो आज विद्यमान होता व्यञ्जनशक्ति सम्पन्न वाक्य मुहावरा है। है वही कल इतिहास बन जाता है जिसे कभी इतिहास ग्रन्थों में उदाहरण - अन्धस्य वर्तकी लाभः (अन्धे के हाथ बटेर (सम्प्रदायानुसार इन्हें 'चरित' (चरित्र) आदि नाम दिये जाते हैं) तो लगना)। कभी पुराण ग्रन्थों में समाहित कर लिया जाता है। जैन साहित्य में लोकोक्ति:त्रिषष्टि शलाका पुरुषों के जीवन वृत्तों को पुराणों में स्थान दिया गया है तो अन्य वृत्तों को साधारण इतिहास ग्रन्थों में। काल्पनिक घटना प्रधान या वास्तविक घटना प्रधान लक्षणा/ पुराण और इतिहास में वर्णित किसी विषय विशेष से सम्बन्धित व्यञ्जना शक्ति से युक्त वाक्य को लोकोक्ति कहते हैं। आख्यान का उपाख्यान को कथा के नाम से जाना जाता है। समीक्षकोंने उदाहरण - दुष्प्रापाः द्राक्षा अम्ला (लोमडी को अंगूर खट्टे काव्य और काव्यांगो का विबेचन करते हुए कथा ग्रन्थों का वर्गीकरण पृथक् से प्रतिपादित किया है। यहाँ पर काव्यशास्त्र की परिभाषा में ____ यद्यपि उपर्युक्त परिभाषाओं को काव्यविदों द्वारा परीक्षित किया कथात्व अपेक्षित नहीं है, किन्तु मात्र यह आशय है कि आचार शास्त्र जाना आवश्यक है। कारण यह है कि आज कोई लोकोक्ति 'दुष्प्रापाः में प्रतिपादित गुणों और दोषों के विषय में कौन सी घटना जनप्रसिद्ध द्राक्षा अम्ला' को मुहावरो के अन्तर्गत समाविष्ट करते हैं तो कोई Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [416]... षष्ठ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 'अन्धस्य वर्तकी लाभः' को लोकोक्ति मानते हैं। समूह से लक्षणाजन्य कभी-कभी व्यंजनाजन्य कुछ विशिष्ट अर्थ निकलता श्री हरिवंशराय शर्माने अपने लोकोक्ति कोश में भमिका में है उसे 'मुहावरा' कहते है। कभी-कभी यह व्यंग्यात्मक होते हैं। लोकोक्ति के विषय में अनेक परिभाषाएँ उद्धृत की हैं इनकी गठन विशेष शब्दों या क्रिया-प्रयोगों के योग से होती है। लोकोक्ति का अर्थ है लोक या समाज में प्रचलित यदि इनकी गठन में किसी प्रकार का परिवर्तन कर दिया जाए तो उनके लाक्षणिक अर्थ का लोप हो जाता है और वे 'मुहावरे' नहीं उक्ति । इसी को कहावत कहते हैं। अंग्रेजी में इसे proverb रह जाते। डॉ. उदय नारायण तिवारीने लिखा है, "हिन्दी-उर्दू में कहते हैं। विभिन्न विद्वानोंने लोकोक्ति की परिभाषा भिन्न-भिन्न शब्दों लक्षण अथवा व्यञ्जना द्वारा सिद्ध वाक्यो को ही 'मुहावरा' कहते में की है। बेकन के अनुसार, भाषा के वे तीव्र प्रयोग, जो व्यापार और व्यवहार की गुत्थियों को काटकर तह तक पहुँच जाते है, लोकोक्ति 'Advanced Learners' Dictionary' में A.S. कहलाते हैं। डॉ. जोनसन कहते हैं कि वे संक्षिप्त वाक्य जिनको Hornby ने लिखा है कि 'मुहावरा' शब्दों का वह क्रम या समूह लोग प्रायः दोहराया करते हैं, लोकोक्ति कहलाते हैं । इरैस्मस का कथन है जिसमें सब शब्दों का अर्थ एक साथ मिलाकर किया जाता है। है कि वे लोकप्रसिद्ध और लोकप्रचलित उक्तियाँ, जिनकी एक विलक्षण Chamber's Twentieth CenturyDictionary के अनुसार, किसी ढंग से रचना हुई हो, कहावत कहलाती हैं। 'ऑक्सफोर्ड कनसाइज भाषा की विशिष्ट अभिव्यञ्जना-पद्धति को 'मुहावरा' कहते हैं। Oxford डिक्शनरी' में लिखा है कि सामान्य व्यवहार में प्रयुक्त संक्षिप्त और Concise Dictionary के अनुसार, किसी भाषा की अभिव्यञ्जना के विशिष्ट रुप को 'मुहावरा' कहते हैं। एक अन्य पक्ष है कि विशिष्ट सारपूर्ण उक्ति को कहावत कहते हैं। चेम्बर्स डिक्शनरी के अनुसार शब्दों विचित्र प्रयोगों एवं प्रयोग-सिद्ध विशिष्ट वाक्यांशों या विशिष्ट लोकोक्ति वह संक्षिप्त और लोकप्रिय वाक्य है जो एक कल्पित सत्य वाक्य-पद्धति को 'मुहावरा' कहते है। या नैतिक शिक्षा अभिव्यक्त करता है। एग्रीकोला कहते हैं कि कहावतें __'मुहावरा' की सबसे अधिक व्यापक तथा सन्तोषजनक वे संक्षिप्त वाक्य हैं जिनमें आदि पुरुषोंने सूत्रों की तरह अपनी अनुभूतियों परिभाषा डॉ. ओमप्रकाश गुप्तने निम्न शब्दो में दी है : . को भर दिया है। सर्वन्टीज के अनुसार कहावतें वे छोटे वाक्य हैं "प्रायः शारीरिक चेष्टाओं, अस्पष्ट ध्वनियों, कहानियों जिनमें लंबे अनुभव का सार हो। फ्लेमिंग की सम्मति में लोकोक्तियों और कहावतों अथवा भाषा के कतिपय विलक्षण प्रयोगों के में किसी युग अथवा राष्ट्र का प्रचलित और व्यावहारिक ज्ञान होता अनुकरण या आधार पर निर्मित और अभिधेयार्थ से भिन्न कोई है। जब हम उपर्युक्त परिभाषाओं तथा लोकोक्तियों के विन्यास तथा विशेष अर्थ देने वाले किसी भाषा के गठे हुए रूढ वाक्य, वाक्यांश प्रकृति पर विचार करते हैं तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि या शब्द-समूह को मुहावरा कहते हैं।" लोकोक्ति कोश के आमुख में डॉ. हरिवंशराय शर्माने लोकोक्ति वे बोलचाल में बहुत आनेवाले ऐसे बंधे हुए चमत्कारपूर्ण वाक्य और मुहावरा में साधर्म्य वैधर्म्य भी निम्नांकित प्रकार से प्रस्तुत किया होते हैं जिनमें किसी अनुभव या तथ्य की बातें कही गई हों अथवा कुछ उपदेश या नैतिक शिक्षा दी गई हो, और जिनमें लक्षण या लोकोक्ति को वाक्य और मुहावरे को खंड-वाक्य, वाक्यांश व्यञ्जना का प्रयोग किया गया हो, जैसे 'आँख के अन्धे नाम नयनसुख', या पद माना जाता है। लोकोक्ति में उद्देश्य और विधेय रहता है। 'यहाँ के बाबा आदम ही निराले हैं', 'हंसे तो हंसिए अडे तो अडिए', उनका अर्थ समझने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता आदि। नहीं होती। यह सच है कि कुछ लोकोक्तियों में कभी-कभी क्रियापद दूसरी ओर आप मुहवरा कोश के आमुख में मुहावरा को लुप्त होता है, परन्तु उसको समझने के लिए किसी प्रकार की विशेष भी परिभाषित करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं - कठिनाई नहीं होती। परन्तु मुहावरों में उद्देश्य और विधेय का विधान _ 'मुहावरा' अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है बातचीत नहीं होता। इस कारण जब तक उनका प्रयोग वाक्यों में नहीं किया करना या उत्तर देना। कुछ लोग मुहावरे को 'रोजमर्रा', 'बोलचाल', जाता, तब तक उनका सम्यक् अर्थ समझ में नहीं आता। 'तर्जेकलाम', या 'इस्तलाह' कहते हैं, किन्तु इनमें से कोई भी शब्द लोकोक्तियों के रुप सामान्यत: अपरिवर्तनीय होते हैं। यदि 'मुहावरे' का पूर्ण पर्यायवाची नहीं बन सका। संस्कृत वाङ्गय में उनमें शब्दान्तर कर दिया जाए, तो उनकी प्रकृति विकृत हो जाएगी,और 'मुहावरा' का समानार्थक कोई शब्द नहीं पाया जाता। कुछ लोग श्रोता अथवा पाठक उनके अर्थ को नहीं समझ पायेंगे। उदाहरणार्थ, इसके लिए 'प्रयुक्ता', 'वाग्रीति', 'वाग्धारा' अथवा 'भाषा सम्प्रदाय' "यह मुँह और मसूर की दाल' लोकोक्ति है। इसके स्थान पर यदि का प्रयोग करते हैं। वी.एस. आप्टेने अपने 'इंग्लिश-संस्कृत कोश' हम कहे 'यह मुख और चने की दाल', तो लोकोक्ति का रुप विकृत में मुहावरे के पर्यायवाची शब्दो में 'वाक्-पद्धति', 'वाक्-व्यवहार' हो जाएगा और श्रोता हमारा आशय न समझ सकेगा या हमारी हंसी और 'विशिष्ट स्वरुप' को लिखा है। पराडकरजीने 'वाक्-सम्प्रदाय' उडाएगा। इसी प्रकार हम 'राम नाम में आलसी, भोजन में होशियार' को महावरे का पर्यायवाची माना है। काका साहेब कालेलकरने 'वाक्- का प्रयोग इस प्रकार नहीं कर सकते हि वहाँ अनेक लोग ऐसे आए प्रचार' को 'मुहावरे' के लेि 'रूढि' शब्द का सुझाव दिया है। यूनानी थे जो 'भगवान के नाम में आलसी परन्तु खाने में चतुर' थे। इसके भाषा में 'मुहावरे' को 'ईडियोमा', फ्रेंच में 'इडियाटिस्मी' और अंग्रेजी विपरीत व्याकरण की दृष्टि से मुहावरों के रुप में परिवर्तन होता रहता में 'इडिअम' कहते हैं। __विभिन्न विद्वानोंने विभिन्न प्रकार से 'मुहावरे' की परिभाषा 1. लोकोक्ति कोश, आमुख, पृष्ट । की है। मोटेतौर पर हम कह सकते हैं कि जिस सुगठित शब्द 2. मुहावरा कोश, आमुख, पृष्ट 1-2 3. लोकोक्ति कोश, आमुख, पृष्ट 1-2 | Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन षष्ठ परिच्छेद... [417] है। उदाहरणतः, 'जूते से बात करना एक मुहावरा है। इसका प्रयोग में विशेष रुप से 'लोकोक्ति' अलंकार होता है। इस प्रकार प्राय: हम इस प्रकार से कर सकते है: वह अपने नौकरों से जूते से बात सभी लोकोक्तियाँ उसके अन्तर्गत आ जाती है; जैसे 'इहां कोहड करता था या बात करता है या बात करेगा। परन्तु हम यह नहीं बतिया कोउ नाही' 'एक जो होय तो ज्ञान सिखाइए', 'कूप ही में कह सकते कि वह अपने नौकरों से पद-त्राण से वार्ता करता था। यहाँ भांग परी है', 'जिसकी लाठी उसकी भैंस', आदि । किन्तु मुहावरे लोकोक्तियों तथा मुहावरों-दोनों मे बहुधा लक्षण तथा व्यञ्जना किसी एक अलंकार में सिमित नहीं होते। उनमें अनेक अलंकार का प्रयोग होता है। दोनों में अभिधेयार्थ गौण और लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ दृष्टिटिगोचर होते हैं, जैसे, उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, आदि । किन्तु प्रधान होते हैं। मुहावरों के प्रयोग-वाक्यों तथा लोकोक्तियों दोनों मे मुहावरों में अलंकार का पाया जाना अनिवार्य नहीं हैं। चमत्कार, अभिव्यञ्जन-विशिष्टता तथा प्रभाविता होती है। फिर भी मेरी दृष्टि से ये सब भेदोपभेद सुभाषित या सूक्ति के अन्तर्गत लोकोक्तियों का प्रयोग प्रायः किसी बात के समर्थन, खंडन अथवा समाविष्ट है। और इसी दृष्टि से यहाँ पर सूक्ति-संकलन प्रस्तुत किया पुष्टिकरण के लिए होता है। गया है। प्रथम शीर्षक में आचारपरक कथाओं को स्थान दिया गया लोकोक्तियों और मुहावरों दोनों में अलंकार होते हैं। लोकोक्तियों है और दूसरे में सूक्तियों को। श्री गुरु-वन्दनावली) लोके यो विहरन् सदा स्ववचनैर्वैरं मिथो देहिनां, दूरीकृत्य सहानुभूतिसचिरां मैत्री समावर्धयत् । मूढांश्वापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मन् संव्यधाद् , देशोपदवनाशकं तमजितं राजेन्द्रसूरिंनुमः॥ वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिर्महामञ्जुला, संव्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदोषापहा । बुद्धिलॊकसुखानुचिन्तनपरा कल्याणकत्री नृणां, लोके सुप्रथिताऽस्ति तं गुस्वरं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ यो गङाजलनिर्मलान् गुणगणान्संधारयन् वणिराइ, यं यं देशमलञ्चकार गमनैस्तं त्वपावीन्मुदा । सच्छास्त्राऽमृतवाक्यवर्णणवशाद मेघव्रतं योऽधरत, तं सज्ज्ञानसुधानिधिं कृतिनुतं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ताऽचलः, शास्त्रार्थेषु परान् विजित्य विविधैर्मानैस्तया युक्तिभिः । शिष्यांस्तानकरोत्स्वधर्मनिरतान् यो ज्ञानसिन्धुं प्रभु स्तं सूरिप्रवरं प्रशान्तवपुषं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ लोकान्मन्दमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान् बहून् वीक्ष्य यो, जैनाचार्यनिबद्धसर्वानिगमानालोड्य बुद्धया चिरम् । मान् बोधयितुं सुखेन विशदान् धर्मान्महामागधीकोशं संव्यतनोत्तमच्छमनसा राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [418]... षष्ठ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. अभिधान राजेन्द्र अनुस्यूत आचार परक कहानियाँ अंजू अभिधान राजेन्द्र कोश में जिन-जिन शब्दों पर कथा या उपकथाएँ आयी हैं, यहाँ पर वे अकारदि क्रम से सूची के रुप में दी रही है :प्रथम भाग :अइमुत्तय अतिमुक्तक अतिमुक्तकमुनि की कथा अउज्झा अयोध्या (विनीता नगरी) अयोध्या नगरी वर्णन एवं अयोध्या से पार्श्वनाथ आदि चार जिनबिंब देवसहाय से आकाश मार्ग से सेरीसा लाने की कथा । अंगारमद्दग अङ्गारमर्दक अङ्गारमर्दक नामक अभव्य आचार्य की कथा। अञ्जु अञ्जु देवी की दुःखविपाक की कथा। अंड अण्ड ज्ञाताधर्मकथा सूत्रान्तर्गत मयूराण्ड की कथा। अंतरिक्ख पासणाह अन्तरिक्ष पार्श्वनाथाय श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ की उत्पत्ति की कथा। अंबड अंबड आगामी चौबीसी में होने वाले 22 वें देव नामक तीर्थंकर की आत्मा अंबड परिव्राजक (विद्याधर श्रमणोपासक) की कथा। अक्कूर अक्रूर क्रूर x अक्रूर (श्रावक के गुण संबंधी समरविजय (कीर्तिचन्द्र नरचन्द्र) एवं कीर्तिचन्द राजा की कथा। अक्कोस परिसह आक्रोश परिषह अर्जुनमाली और सुदर्शन सेठ की कथा। अक्खयतइया अक्षयतृतीया आदिनाथ प्रभु के वर्षीतप के पारणा की कथा । अवखयपूया अक्षतपूजा अक्षतपूजा की महिमा संबंधी शुक की कथा। (शुक युगल द्वारा अक्षतों से प्रभु भक्ति की कथा।) अक्खुद्द अक्षुद्र गांभीर्य गुण संबंधी सोमकुमार की कथा। अगडदत्त अगडदत्त 'स्त्रियो' पर विश्वास नहीं करना' - इस विषय पर अगडदत्त राजकुमार की कथा । अगहिलगराय अग्रहिलकराज ग्रहिल-अग्रहिल लोगों की उपनय कथा। अचंकारियभट्टा अचङ्कारितभट्टा मान कषाय का विपाक दर्शानेवाली भट्टा कुमारी की कथा । अचल अचल अचल नामक प्रथम बलदेव की कथा। अज्जगंग आर्यगङ्ग निह्नव आचार्य आर्यगङ्ग की कथा। अज्जचंदणा आर्यचन्दना दासी बनी हुई राजकुमारी वसुमती (अपरनाम चन्दनबाला) ने पाँच मास और पच्चीस दिन के अभिग्रह सहित सतत उपवासधारी श्रमण भगवान् महावीर को उडद के बाकुले से पारणा कराया। वह भगवान की प्रथम शिष्या चंदनबाला की कथा । अज्जमंगु आर्यमङ्गु लोभ और प्रमाद से पतन होता है - इस विषय पर आचार्य मङ्ग के यक्ष बनने की कथा। अज्जमणग आर्यमनक छह माह में आत्मकल्याण करने वाले आचार्य शय्यंभवसूरि के सांसारिक पुत्र मनक मुनि की कथा। अज्जरक्ख आर्यरक्ष व्रतकिरणावलिकार आर्यरक्ष की कथा . अज्जरक्खिय आर्यरक्षित व्रजस्वामी के पास साढेनवपूर्वो का अध्ययन करने वाले तोसलिपुत्र आचार्य के शिष्य आचार्य आर्यरक्षितसूरि की कथा। अज्जव आर्जव (अंगर्षि कथा) प्रत्येक बुद्ध अंगऋषि की कथा। अज्जवइर आर्य वज्र दशपूर्व के ज्ञाता आर्य वज्रस्वामी की कथा। अट्टन अट्टन उज्जयिनी के अट्टन मल्ल की कथा। अट्ठावय अष्टापद अष्टापद तीर्थ की उत्पत्ति की कथा । अट्टिअगाम अस्थिकग्राम अस्थिग्राम के शूलपाणि यक्ष की कथा। अडवि अटवि अरण्य के प्रकार के विषय में धन सार्थवाह की कथा। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अणिरिस ओवहाण अनिश्रितोपधान अणीयस अणीयस अणुब्भडवेस अणायया अणियाउत्त अत्तदोसोवसंहार अत्थकुसल अद्दगकुमार अब्बुय अभञ्ञसेण अभयकुमार अभयदेव अमरदत्त अर अरहणय अरिट्ठनेमि अलोभया अवंतिसुकुमाल असढ अनुद्भटवेष आणंद आतंकदंसी आधाकम्म अज्ञानता अणिकापुत्र आत्मदोषोपसंहार अर्थकुशल आर्द्रककुमार अर्बुद अभग्नसेन अभयकुमार अभयदेव अस्साववोहितित्थ अश्वावबोहितीर्थ अमरदत्त अर अरहन्त्रत / अर्हनक अरिष्टनेमि अलोभता अवंतिसुकुमार असठ अहिच्छता अहिणंदण द्वितिय भाग : आउ अहिच्छत्रा अभिनन्दन अप्, आतु, आकु, आयुस् आनंद आतंकदर्शी आधाकर्म षष्ठ परिच्छेद... [419] आर्य महागिरि के अनिश्रित तप ( भाव उपधान) की कथा । जैनों के 22 वें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि के शासन में हुए भद्दिलपुरवासी नागरसारथीकी धर्मपत्नी सुलसा के पुत्र अणीयस कुमार के जीवन, दीक्षा एवं शत्रुंजय पर्वत पर संलेखना कर मोक्ष प्राप्ति की कथा । उद्भट्टवेष से उत्पन्न दोष और दुःख संबंधी बंधुमती और बंधुदत्त के अतीत एवं वर्तमान भव संबंधी कथा । यशः पूजा आदि की इच्छा से रहित अज्ञातरुप से गुप्त तप आदि विषयक धारिणी रानी की कथा । अन्तः कृत केवली अर्णिकापुत्र आचार्य एवं प्रयाग तीर्थ की उत्पत्ति की कथा । मांसभक्षणत्याग के नियम पालन से मोक्ष प्राप्ति के विषय में जिनदेव की कथा । संविग्न गीतार्थ गुरु के पास विधिपूर्वक विनयादि औचित्यपूर्वक सूत्रार्थ ग्रहण करके अर्थकुशल अर्थात् प्रवचन कुशल होकर भाव श्रावक बनने संबंधी ऋषिभद्रपुत्र की कथा । व्रत भंग से प्राप्त अनार्यत्व एवं जिनप्रतिमा के दर्शन से सम्यकत्व की प्राप्ति पर आर्द्रककुमार की कथा । श्रीमाता की उत्पत्ति, आबुपर्वत (तीर्थ) की प्रख्याति एवं बिमलवसहि, लुणगवसति एवं देलवाडा के जैनमंदिरों के निर्माण की कथा । चोरी से प्राप्त दुःख के ऊपर चोरसेनापति के पुत्र अभग्नसेन के वर्तमान एवं आगामी भव की कथा । श्रेणिकपुत्र बुद्धिनिधान जैनशास्त्र विशारद अभयकुमार की दमकमुनि से संबंधित कथा अभयदेवसूरि नामक आचार्यों का परिचय एवं नवांगी टीकाकर प्रथम अभयदेवसूरि के कुष्ठरोग निवारण संबंधी श्रीस्तंभनपार्श्वनाथ भगवान् की कथा । दर्शनशुद्धि एवं जिनधर्मपालन पर अमरदत्त की कथा । सप्तम चक्रवर्ती एवं अठारवें तीर्थंकर अरनाथ जिनेन्द्र की कथा । रागवश तीन भव संबंधी अरहन्नत की कथा तथा दृढ सम्यक्त्वपालन संबंधी अर्हन्नक श्रावक की विस्तृत कथा । जैनों के 22 वे तीर्थंकर अरिष्टनेमि की और राजीमती (राजुल) के नवभव की प्रणय कथा । अलोभता के विषय में क्षुल्लक (खुड्डग) कुमार की कथा । अवंतिसुकुमार की दीक्षा एवं स्वर्गगमन की कथा | मायारहितता / सरलता के विषय में चक्रदेव की कथा । जैनों के 20 वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी द्वारा पूर्वभव के मित्र अश्व को प्रतिबोध एवं अश्वावबोधतीर्थ (भरुच) की उत्पत्ति की कथा । श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर के छद्मस्थावस्था में उत्पन्न कमठासुर के उपसर्ग के स्थान पर स्थापित अहिच्छत्रा तीर्थोत्पत्ति की कथा । जैनों के चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनन्दन स्वामी की कथा । जलदेवता की एवं सात प्रकार से आयुः क्षय के विषय में ग्रामतरुणी, वणिक्, गजसुकुमाल, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि की संक्षिप्त कथा | पितृसेन और कृष्णा के नौंवे पुत्र आनंद की लघुकथा एवं जैनों के 24 वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के प्रथम श्रावक आनंद की विस्तृत कथा । जितशत्रु राजा की कथा । साधुओं के उद्देश्य से उत्पन्न किये आहार संबंधी प्रतिसेवन, प्रतिश्रवण, संवास और अनुमोदना के विषय में क्रमशः चार राजपुत्र, पल्लीवासी वणिक और राजदुष्ट की कथाएँ । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [420]... षष्ठ परिच्छेद आपई आपद् आभीरखंचग आभीर वञ्चक आयरिय आचारिक/आचरित/आचार्य आराहणा असगदिय आलंबण आलोयणा आसाढभूई इंददत्त इंदभूइ इच्छक्कार आराधना आरोग्यद्विज आलंबन आलोचना आषाढभूति इंद्रदत्त इन्द्रभूति इच्छाकार इत्थी परिसह इरिया समिइ इलापुत्र स्त्री परिषह ईर्यासमिति इलापुत्र इसिभद्दपुत इसिभासिय इस्सर उउंब ( उंब) रदत ऋषिभद्रपुत्र ऋषिभाषित ईश्वर उडुम्बरदत्त अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्रव्य आपति के विषय में धर्मघोष अणगार एवं भाव आपत्ति के विषय में दण्ड अणगार की कथा। लोभ एवं व्यापार में कपट के विषय में ग्वाले को ठगने वाले वणिक की उपनय कथा । गुरु के विनय के विषय में वैद्य का दृष्टांत, कौटुम्बिक का दृष्टांत, गर्भवती स्त्री का दृष्टांत, राजकुमार, सिंह एवं खरगोश की कथा। मरुदेवी माता और भरत चक्रवर्ती की कथा। गृहस्थ धर्मपालन के विषय में देवगुप्त के पुत्र आरोग्य ब्राह्मण की कथा। पृष्ट-अपृष्ट आलंबन के विषय में सार्थवाह की, और उदायन राजा की कथा । उज्जैनी के सिंहगिरि आचार्य एवं मल्ल की संक्षिप्त उपनय कथा। मायापिण्ड के विषय में आषाढभूति मुनि की कथा। मनुष्यभव की दुर्लभता के विषय में इंद्रपुर के राजा इंद्रदत्त की कथा। भगवान महावीर के प्रथम शिष्य इन्द्रभूतिगौतम की जीवन कथा । शिष्यों के लिये गुरु के प्रति इच्छाकार समाचारी के विषय में मरुक की, वानर की और वणिक की कथा। कामविजेता स्थूलभद्र की संक्षिप्त कथा। ईर्या समिति के पालन के विषय में साधु, शक्रेन्द्र एवं देव की कथा। शुद्ध भावना से रस्सी पर नाचते-नाचते केवलज्ञान प्राप्त करनेवाले इलाचीपुत्र की कथा। भाव श्रावक के विषय में ऋषिभद्रपुत्र श्रावक की कथा। दो साधु एवं यज्ञदत्त तापस तथा सोमयशा तपस्विनी की कथा । अगीतार्थता के दोष से दुःखप्राप्ति के विषय पर गोशालक की कथा । मांसप्रिय और मांसोपदेष्टा होने से उडुम्बरदत्त के उस भव, धन्वंतरि का भव एवं नरकगमन की कथा। साधु के आहार संबंधी उद्गमदोष संबंधी सरुप कुमार की कथा । साध्वियों के उपकरण संबंधी योद्धा की, मुरुंड राजा और उसकी बहन की, नर्तक की, कदली स्तंभ की कथा। जैनों के 22 वें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि की कथा एवं गिरनार तीर्थ की उत्पत्ति की ऐतिहासिक कथा। भाव श्रावक के ऋजुव्यवहार पर हरिनन्दी की, भद्र श्रेष्ठी की एवं सुमित्र की कथा। दुःख विपाक के उज्झितक पुत्र की कथा । उष्णपरिषह के विषय में अर्हमित्र आचार्य, दत्त श्रावक और भद्रा श्राविका की कथा । सांवत्सरिक क्षमापना एवं आराधकत्व के विषय में उदयन राजा की कथा । कोणिकराजा और उदायी के पूर्वापर भव की कथा। संवत्सरी पर्व के विषय में उदयन राजा की कथा । आहार-ग्रहण हेतु गोचरी जानेवाले साधु को उद्देशित करके गो-वत्स के दृष्टान्तपूर्वक सागरदत्त श्रेष्ठी की पारिवारिक दृष्टांत कथा । औत्पतिकी बुद्धि के विषय में रोहक, जुआरी, वृक्ष, अभयकुमार, कौआ, धूर्त, हाथी, वैश्य, लाख के गोले, मार्ग, पति, पुत्र, अंगूठी, चिह्नित की हुई मोहरों, भिक्षु, धनुर्वेद शिक्षा, स्त्री एवं, परिव्राजक, सत्य एवं दृष्टांत कथाएँ। आरंभ-समारंभ के विषय में गृहांगण, काकणी रत्न या काषार्पण और आम की कथा। भाव उपक्रम के विषय में ब्राह्मणी, वेश्या और मंत्री की कथा । साधर्मिक के सद्गुण की प्रशंसा के विषय में श्रेणिक राजा की कथा। आचार्य पद पर योग्यात्मा के स्थापन के विषय में राजा तथा कुमारों की कथा । उग्गम अग्गहणंतग उद्गम अवग्रहानन्तक उज्जयंत उज्जयंत उज्जुववहार उज्झियय उण्हपरिसह उदयण उदाइ उदायण उद्देसिय ऋजुव्यवहार उज्झितक उष्णपरिषह उदयन उदायिन् उदायन औद्देशिक उप्पतिया औत्पतिकी उरम्भ उरभ्र उवक्कम उववूह (हा) उवसंपया उपक्रम उपबृंहण उपसंपद् Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कत्ति कयणू अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन षष्ठ परिच्छेद... [421] उवहि उपधि उपधि की रक्षा एवं रात्रि में उपधि-ग्रहण के विषय में चोर-सेनापति और चार प्रकार के साधु की कथा। उवालंब उपालम्भ गुरु द्वारा शिष्या को उपालम्भ के विषय में चंदनबाला एवं मृगावती साध्वी की केवलज्ञान प्राप्ति की कथा। उस्सारकप्प उत्सारकल्प आचार्य की, सिंह और लोमडी (सियार) की एवं लब्धिधर साधु की कथा । तृतीय भाग :एकान्त भावना एकत्व भावना राजा पुष्पचूल एवं पुष्पचूला भाई-भगिनी की कथा । एलकक्ख एलकाक्ष वर्तमान मंदसौर का प्राचीन नाम दशार्णपुर था। उसी नगर की एलकाक्ष संबंधी कथा। एसणा समिइ एषणा समिति वसुदेव के पूर्व जन्म की कथा। ओहावम अवधावन प्रायश्चित के विषय में राजा-युवराज-पुरोहित कुमार एवं कुलपुत्र की उपनय कथा और रोहिणेय चोर की कथा। कंबल कम्बल कंबल-शंबल-नामक बैल की धर्म-आराधना से देवगति की कथा। कंडरिय कंडरिक भावशुद्धि के विषय में पुंडरीक राजा और कंडरीक मुनि की कथा । कणाणयणीय कन्यानयनीय कन्यानयनीय श्री महावीर स्वामी की कथा । कण्ह कृष्ण नौवें वासुदेव श्रीकृष्ण की कथा। कार्तिक सम्यकत्व की दृढता के विषय में कार्तिक सेठ की कथा । कप्प कल्प विभिन्न गच्छों की उत्पत्ति, परम्परा एवं गुरुभक्ति के विषय में राजा तथा वैद्य की उपनय कथा। कप्पअ कल्पक कामविजेता स्थूलिभद्र के पूर्वजों की कथा । कृतज्ञ कृतज्ञता गुण संबंधी वामदेव की कथा। करकंडु करकण्डु प्रत्येक बुद्ध करकण्डु की कथा। कवड्डिजक्ख कपर्दि यक्ष शत्रुजय तीर्थ एवं नवकार महामंत्र के माहात्म्य संबंधी कपर्दि यक्ष की उत्पत्ति की कथा। काउसग्ग कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग के फल के विषय में सुभद्रा महासती एवं सुदर्शन सेठ की कथा। कामदेव कामदेव भगवान महावीर के श्रावक कामदेव की कथा। काल काल आरंभ कार्यों से होती दुर्गति के विषय में श्रेणिक राजा के पौत्र कालकुमार की कथा। कालासवेसियपुत कालाश्यवैशिकपुत्र पार्श्वनाथ भगवान के शासन में हुए, पच्चक्खाण क्रिया से निर्वाण प्राप्त हुए कालाश्यवैशिकपुत्र अनगार की कथा। काली काली श्रेणिक राजा की रानी काली के रत्नावली तप एवं सुकाली के कनकावली तप की कथा। किइकम्म कृतिकर्मन् द्रव्यवंदन एवं भाववंदन से होनेवाले लाभ के विषय में क्षुल्लक, कृष्ण वासुदेव, सेवक एवं पालक राजा की दृष्टांत कथा। किरिया क्रिया अधिकरणस्वामित्त्व क्रियासंबंधी गुणचंद्र-बालचंद्र की कथा। कुंडकोलिय कुंडकोलिक श्री उपासक दशांग सूत्रवर्णित भगवान महावीर के श्रावक कुंडकोलिक की कथा । कुंतलदेवी कुन्तलदेवी मात्सर्यपूर्वक जिनपूजा के फल के विषय में कुंतलदेवी के दो भवों की कथा। कुन्थु जैनों के वर्तमान चौवीसी के 17 वें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथ की कथा। कुडुंबेसर कुडुम्बेश्वर अवंती नगरी में आचार्य वज्रसेनसूरि द्वारा प्रतिष्ठित शक्रावतार तीर्थ में शोभायमान श्री ऋषभदेव प्रतिमा की उत्पत्ति की कथा। कुणाल कुणाल सम्राट अशोक के पुत्र एवं सम्राट संप्रति के पिता कुणाल की कथा। कुतियावण कृत्रिकापण देवताधिष्ठित दुकान एवं भरुच नगर के व्यापारी तथा भूत की कथा । कुरुचंद कुरुचंद्र जिनधर्म आराधना एवं गृहस्थाचार के व्रतपालन के विषय में कुरुचन्द्रराजा की कथा। कुलकर कुलकर सातों कुलकरों की उत्पत्ति की कथा । कुणिय कोणिक श्रेणिकराजा की रानी चेल्लणा के पुत्र कोणिक की कथा। कुंथु Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [422]... षष्ठ परिच्छेद कुलवालग कुलवालक कोकावसहिपासणाह कोकावसतिपार्श्वनाथ कोडसिला कोहंडिदेव कोहपिण्ड खंदग खंदिल खलुंक खुड्डुग खुल्लक खुहापरिसह खेत्त गंगदत्त गभ्भसाहरण गयसुकुमाल गवेसणा गारव गिलाण गिहवास गुरु गुरुकुलवास गुणग्गह गोडिल्ल गोयम गोयमकेसिज्ज गोसालग चंड चंदगुत्त कोटिशिला कुष्माण्डदेव क्रोधपिंड स्कन्दक स्कंदिल खलुङ्क क्षुल्लक क्षुल्लक क्षुधा परिष क्षेत्र गंगदत्त गर्भसंहरण गजसुकुमार गवेषणा गौरव ग्लान गृहवास गुरु गुरुकुलवास गुरुनिग्रह गोष्ठिवत् गौतम गौतमकेशीय गोशालक चण्डरुद्र चन्द्रगुप्त अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अविनीतता के ऊपर कुलवालक मुनि के मुनिजीवन से पतन की कथा । कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य द्वारा प्रतिष्ठित श्री कोकावसति पार्श्वनाथ तीर्थ की उत्पत्ति की कथा । वासुदेव की बल परीक्षा की साक्षी कोटिशिला की उत्पत्ति एवं माहात्मय की कथा । श्री नेमिनाथ प्रभु की शासनरक्षिका अंबिकादेवी की उत्पत्ति की कथा । धपूर्वक आहार ग्रहण करने के विषय में मासक्षमण के तपस्वी मुनि की कथा । 500 साधुओं सहित स्कंधक सूरि को हुए प्राणांत उपसर्ग एवं दण्डकारण्य की उत्पत्ति की कथा । माथुरी वाचना के साधु सम्मेलन के अध्यक्ष आचार्य स्कंदिल की कथा । विनीत एवं अविनीत शिष्यों से होती समाधि एवं असमाधि के विषय में गार्ग्याचार्य एवं सारणी, घोडे, बैल आदि की दृष्टांत कथा । लघु साधु के एकाकीवास निषेध पर उरभ्र की कथा । क्षुल्लक (बाल) साधु के शिथिलाचार से होती दुर्गति एवं पश्चाताप से प्राप्त सुगति पर देवप्रिय श्रेष्ठी एवं उसके आठवर्षीय बालक की कथा । क्षुधा परिषह के विषय में मुनि हस्तिमित्र और हस्तिभूत नामक पिता-पुत्र की कथा । शुद्ध वसति में स्थिरता करने एवं अशुद्ध वसति में रहने पर आम्र एवं बबूल की उपनय कथा । हस्तिनापुर के गंगदत्त श्रेष्ठी मुनिसुव्रत स्वामी भगवान् के पास दीक्षा लेकर मासक्षमण कर आत्मध्यान में आयु पूर्ण कर सम्यग्दृष्टि देव बना । देवायु पूर्ण महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य भव प्राप्त करके सिद्ध होगा उसकी कथा । हरिणगमेषी देव द्वारा देवानंदा की कुक्षी से त्रिशला माता की कुक्षी में भगवान महावीर के गर्भ - परावर्तन की कथा । श्रीकृष्ण के लघु भ्राता गजसुकुमार के दीक्षा एवं मोक्ष की कथा । शुद्ध आहारादि की गवेषणा के विषय में हाथी एवं कृत्रिम सरोवर की दृष्टांत कथा । ऋद्धि-रस एवं साता (सुख) के अभिमान के कारण हुई दुर्गति के विषय में मथुरा नगरी के बाहर नगर की गटर के पास यक्ष बने मङ्गु आचार्य की कथा । रोगी साधु को इच्छाकार आदि करने के विषय में महधिक राजा और ब्राह्मण की दृष्टान्तकथा । भाव श्रावक के विषय में जंबूस्वामी के पूर्वभव की शिवकुमार की कथा । गुरुकुलवास एवं गुर्वानुशासन को समभावपूर्वक सहन करने से गुरु-शिष्य दोनों के केवलज्ञान प्राप्ति के विषय में चंडरौद्राचार्य एवं उनके नवदीक्षित शिष्य (साधु) की कथा । गुरुकुलवास के लाभालाभ के विषय में कौए एवं वापीका, कुलवधू और पंखहीन पक्षी की दृष्टांत कथाएँ । सुपात्रदान की बुद्धि से पासत्थादि अन्यलिङ्गी को आहारदि दान एवं उनके साथ आलाप संलापादि से होते नुकसान के विषय में श्रावकपुत्री की कथा । श्रुतहीलना से होनेवाली दुर्गति के विषय में 22 गोष्ठी पुरुषों की कई भवों तक संसार भ्रमण की कथा । भगवान महावीर के प्रथम गणधर (शिष्य) इन्द्रभूति गौतम की, एवं अंधक वृष्णिक राजा के पुत्र गौतम कुमार की कथा । भगवान महावीर के शिष्य गौतमस्वामी एवं भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य केशी गणधर की मिलनकथा एवं तत्त्वचर्चा के प्रश्नोत्तर | भगवान महावीर के कुशिष्य निह्नव मंखलिपुत्र गोशालक की कथा । क्रोधी प्रकृतिवाले चण्डरुद्राचार्य की कथा । चन्द्रगुप्त मौर्य एवं चाणक्य की नंदराजा पर विजय की कथा । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चंपा चक्खिदिय चमर चरित चर्यापरीसह चाणक चारुदत्त चितसंभूइय चिलाई पुत्त चूपिंड चुलणीविया चुल्लसयग चेइय चेयवंदण चतुर्थ भाग : जंबू जक्खाइट्ठ जगडू जत्तासिद्ध जमदग्गि जमालि जयंती जयघोस जवराज जिणकप्प णंदराय नंदिफल दिवद्धण चम्पा चक्षुरिन्द्रिय चमर चारित्र चर्या पहीषह चाणक्य चारुदत्त चित्रसंभूतीय चिलातीपुत्र चूर्णपिंड चुलनीपिता चुल्लशतक चैत्य चैत्यवंदन जम्बू यक्षाविष्ट जगडू यात्रासिद्ध यमदग्नि यमालि जिगोयमसीह आहरण जिनगौतमसिंहाहरण जिणपालिय जिनपालित जिब्भिदिय जिह्वेन्द्रिय टिंपुरी टिम्पुरी जयन्ती जयघोष यवराज जिनकल्प षष्ठ परिच्छेद... [423] चंपापुरी नगरी में हुए तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामी एवं अन्य अनेक महापुरुषों की पद्यबद्ध लघुकथाएँ । नन्दराज नंदिफल नंदिवर्धन चक्षुरिन्द्रिय लोलुपता से होती दुर्गति के विषय में धारिणी रानी एवं धन सार्थवाह की कथा । चमरेन्द्र के द्वारा सौधर्म देवलोक में किये गए उत्पात की कथा । चारित्र गुण संबंधी कुंभ, एवं मण्डप - सर्षव की कथा । चर्यापरीषह को समभावपूर्वक सहन करने के विषय में संगम स्थविर की कथा । चाणक्य मंत्री की कथा । मूर्छात्याग के विषय में चारुदत्त की कथा । निदान शल्य का फल दर्शानेवाली चित्र एवं संभूति मुनि की कथा । त्रिपदी से प्रतिबोधित चिलातीपुत्र की कथा । अंजनचूर्ण से अदृश्य होने की सिद्धि के द्वारा दुष्काल में आहार ग्रहण के विषय में दो बाल - साधुओं की कथा । चुलणीपिता श्रावक की कथा । भगवान महावीर के चतुर्थ श्रावक चुल्लशतक की कथा । द्रव्यस्तव के विषय में कूप की दृष्टांत कथा, जिन प्रतिमा पूजा के विषय में द्रौपदी, भद्रा सार्थवाही, सिद्धार्थ राजा की कथा आदि । चैत्यवंदन के विषय में भुवनमल्ल की, गंधार - श्रावक की कथा । सुधर्मास्वामी के शिष्य बालब्रह्मचारी जम्बूस्वामी जिन्होंने विवाह की रात को ही आठों पत्नियों, उनके माता-पिता एवं प्रभवादि 500 चौरों को प्रतिबोधित कर 527 लोगों के साथ दीक्षा ली। वे इस अवसर्पिणी काल में अंतिम केवलज्ञानी हुए, उनकी विस्तृत कथा | जिसके शरीर में दूसरी यक्ष - भूत प्रेतादि आत्मा प्रविष्ट है उस साधु के साथ कैसा व्यवहार हो ? इस हेतु श्रेष्ठी, लघुभ्राता, और दृतिका की उपनय (दृष्टांत) कथा । जगत्प्रसिद्ध दानवीर जगडूशा जिसने वि.सं. 1315 के अकाल में पूरे हिन्दुस्तान को निःशुल्क अन्न दिया था उसकी कथा । जिसके ऊपर समुद्र (समुद्र का अधिष्ठायक देव ) प्रसन्न हुआ था, एसे समुद्रयात्री तुण्डिक नामक वणिक् की कथा । यमदग्नि तापस (जो कि परशुराम का पित्राई था) की कथा । भगवान महावीर के सांसारिक जामाता प्रथम निह्नव जमालि की कथा । भगवान महावीर की परम श्राविका जयंती की कथा । जयघोष एवं विजयघोष मुनि के वैराग्य प्राप्ति की कथा । अतिविषयसेवन से पतन के विषय में उज्जैन के यवनराजा के पुत्र गर्दभराज की कथा । साधु-साध्वियों के निरतिचार जीवन के विषय में बहु, सूचित पत्र एवं राजा की द्दष्टांत कथा तथा पुष्पचूल राजकुमार की सत्य कथा । महावीर स्वामी, गौतम स्वामी और किसान की लघु कथा । निरतिचार चारित्रपालन संबंधी जिनपालित एवं जिनरक्षित की कथा । रसलालच (मांसाहार से होनेवाली हानि ) के विषय में सोदास की कथा । श्री टिपुरीतीर्थ, श्री चेल्लणा पार्श्वनाथ की एवं नियमपालन के ऊपर वंकचूल की कथा | पाटलिपुत्र के नंद राजा की कथा एवं पाटलीपुत्र में हुए अनेक महापुरुषों का परिचय | नंदिफल के दृष्टांत से धन्ना सार्थवाह की कथा । मथुरानगरी के श्रीदाम राजा के पुत्र नंदिवर्धन की कथा Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [424]... षष्ठ परिच्छेद णंदिसेण णग्गइ नंदिषेण नग्गति णट्ट णमि णमोकार नाट्य नमि नमस्कार नय नरसुन्दर नागिल नागकेतु नागार्जुन णय णरसुंदर णाइल णागकेउ णागज्जुण णारय णासिक्कपुर णिप्पडिकम्मया णियंठिपुत णियट्टि णियाण नारद नासिक्यपुर निष्प्रतिकर्मता निर्ग्रन्थिपुत्र निवृत्ति निदान णिरवलाव तव तवसिद्ध तामली ताराचंद तित्थयर अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ग्लान मुनि की वैयावृत्य (सेवा) के विषय में नंदिषेणमुनि की कथा। गंधारदेश के राजा प्रत्येकबुद्ध नग्गति की कथा एवं अनित्य भावना के विषय में चित्रकार पुत्री की कथा। भगवान महावीर की नाटक पूजा के विषय में सूर्याभदेव की कथा। एकत्व भावना के विषय में मिथिला के राजा विदेहराज नमिराजर्षि की कथा। नवकार मंत्र एवं पंचपरमेष्ठी को किये गये नमस्कार की फलदर्शक त्रिदण्डी, श्राविका, श्रावक एवं व्यंतर, चंडपिंगल चोर एवं जिनदत्त श्रावक और हुंडक चोर की कथा । प्रस्थक, वसति और प्रदेश की दृष्टांत कथा । संसार की अनित्यता के विषय में नरसुंदर राजा की कथा । साध्वाचार पर सुमति और नागिल की कथा। संवत्सरी महापर्व के अट्ठम तप की महिमा के विषय में नागकेतु की कथा । सिद्धनागार्जुन एवं जैनाचार्य श्री पादलिप्तसूरि की कथा। नारद ऋषि के जन्म की लघुकथा।। नासिक्यपुर की उत्पत्ति की ऐतिहासिक कथा । गुर्वाज्ञा के बिना तप करने से होनेवाले कष्ट के विषय में नागदत्त की कथा । सत्यकी विद्याधर की उत्पत्ति की कथा। प्रतिक्रमण के विषय में धूर्त की दृष्टांत कथा । तप आदि के बदले में या इहलोक-परलोक संबंधी नव प्रकार के निदान करने के विषय में श्रेणिक राजा आदि की कथा। आलोचना दाता के गांभीर्य गुण के विषय में धनमित्र और हठमित्र की कथा। कर्मनाश के विषय में बड़े तालाब की दृष्टांत कथा। दृढ प्रहारी चौर की कथा। मौर्यपुत्र तामली की कथा। सच्चरित्र के विषय में ताराचंद राजा की कथा । जैनों के 24 तीर्थंकरों के पूर्वभव एवं तीर्थंकर के भव की समस्त वार्ताएँ। भगवान महावीर की त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव (पूर्वभव) की कथा । इन्द्रियाँ स्वाधीन होने तक में धर्माराधना करने पर तेतलिपुत्र प्रधानमंत्री की कथा । देलवाडा (आबु) मंदिरों के निर्माता वस्तुपाल-तेजपाल की कथा। त्रैराशिक मतोत्पादक रोहगुप्त निह्नव की कथा। श्रीस्तंभनपार्श्वनाथ की कथा। द्रव्यानुयोग के विषय में थावच्चापुत्र की कथा । कामविजेता स्थूलभद्र की कथा। दक्षता के विषय में पांच सार्थवाह पुत्रों की कथा । समभाव के विषय में दमदन्त साधु की कथा। साधर्मी-क्षमापना या संवत्सरी महापर्व-क्षमापना के विषय में राजा उदयन और चंडप्रद्योत की कथा। भावपूर्वक परमात्मा महावीर की सर्वोत्कृष्ट भक्ति के विषय में अंतिम राजर्षि दशार्णभद्र राजा की कथा। सुपात्र दान के विषय में कृतपुण्य की कथा। भाव शुद्धि के विषय में पुंडरीक कण्डरीक की कथा। ममता के त्याग के विषय में द्विमुख नामक द्वितीय प्रत्येक बुद्ध की कथा । गुर्वाज्ञा के अनादर के फल संबंधी द्रौपदी महासती की पूर्व के तीन भव सहित वर्तमान भव की कथा। दूतीपिण्ड के विषय में धनदत्त कुटुम्बी की कथा । दुःख विपाक के विषय में सिंहसेन राजा की कथा। तिविट्ठ निरपलाप तपस् तपःसिद्ध तामली ताराचंद तीर्थंकर त्रिपृष्ठ तेतलिसुत तेजःपाल त्रैराशिक स्तम्भनक थावच्चापुत्र स्थूलभद्र दक्षत्व दमदन्त दशपुर तेतलिसुय तेयपाल तेरासिय थंभणय थावच्चापुत्त थूलभद्द दक्खत्त दमदंत दसउर दसण्णभद्द दशार्णभद्र दाण दुमपत्तय दुमुह दुवई दान दुमपत्रक द्विमुख दौपदी देवदत्ता देवदत्ता Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन दोकिरिय दोष धण धणमित्त धणय धिम धुत्तक्खाण पञ्चम भाग : पाणपट्टण पउमसेहर पउमाई पमिणी एसिण् पंथग पच्चक्खाण पच्छित पज्जुसणाकप्प पडिकमण पडियरणा पणिहि पणत्तिकुसल पण्णापरिसह पभावणा पभासचित्तगर पयाग परंपरअ परिणामिया परियट्टिय परिसा परिहरणा परिहार द्वैक्रिय द्वेष धन धनमित्र धन्यक धृतिमति धूर्ताख्यान प्रतिष्ठानपत्तन पद्मशेखर पद्मावती पद्मिनी प्रदेशिन् पन्थक प्रत्याख्यान प्रायश्चित्त पर्युषणाकल्प प्रतिक्रमण प्रतिचरणा प्रणिधि प्रज्ञप्तिकुशल प्रज्ञा परिषह प्रभावना प्रभास चित्रकार प्रयाग परम्परक पारिणामिकी परावर्तित पर्षद् परिहरणा परिहार षष्ठ परिच्छेद... [425] गंगाचार्य नामक पंचम निह्नव की कथा । द्वेष के विषय में धर्मरुचि मुनि तथा नन्द नाविक की कथा । वैयावृत्त्य के विषय में धन सार्थवाह की कथा । जूठे कलंक देने के विषय में धनमित्र की विस्तृत कथा । सुपात्र दान के विषय में धन्ना - शालिभद्र की कथा । प्रभासपाटण तीर्थ की उत्पत्ति की कथा । पांच धूर्तो की कथा । सातवाहन (शालिवाहन ) राजा की कथा । जिन धर्म में दृढता के विषय में यक्ष एवं पद्मशेखर राजा की कथा । कृष्ण वासुदेव की पट्टरानी पद्मावती देवी की कथा । पद्मावती देवी की कथा । प्रदेशी राजा, केशी गणधर और सूर्याभदेव की कथा । अति प्रमादी गुरु को प्रतिबोध करने संबंधी शैलकसूरि के शिष्य पंथग मुनि की कथा। मूलगुण प्रत्याख्यान के विषय में शत्रुंजय राजा एवं जिनदेव श्रावक की कथा तथा उत्तरगुण आश्रयी धर्मघोषसूरि और धर्मयशा मुनि की कथा । सार्थवाह एवं राजा की, कुञ्चिक और प्रतिकुञ्चक की, राजा की, चारभट्ट और ताम्बुलिक की, वैद्य, रोगी और औषध की, रथकार की पत्नी की, चोर की, मूलदेव की और वणिक् की कथा । क्षमा के विषय में उदायन राजा और चंडप्रद्योत की कथा । अतिक्रमण और प्रतिक्रमण के विषय में दो कन्या और रास्ते की कथा । दो वणिकों की दृष्टांत कथा । माया के विषय में, द्रव्य - प्रणिधि के विषय में शालिवाहन राजा की, कुणाल भिक्षु की और जिनदेव सूरि की कथा । कथा कहने की कुशलता के विषय में क्षुल्लकाचार्य एवं मुरुण्ड राजा की कथा । श्रुतमद नहीं करने के विषय में कालिकाचार्य एवं उनके प्रशिष्य सागरचन्द्र की कथा । जैनशासन - निन्दा से बोधिबीज की अलभ्यता एवं साधुवेश के दर्शन एवं साधुप्रशंसा से सम्यकत्व प्राप्ति के विषय में कौशाम्बी निवासी धनयक्ष श्रेष्ठी के पुत्र वस्तुपाल एवं तेजपाल की कथा । आत्मविशुद्धि रूप पात्रता प्राप्त करने के विषय में प्रभास चित्रकार की कथा | पुष्पचूला साध्वी एवं अर्णिकापुत्र आचार्य के स्थिरवास होने पर भी शुद्ध साध्वाचार की कथा । राग-द्वेष की द्रव्य परंपरा के विषय में मृगावती सती एवं चंडप्रद्योत राजा की तथा भील की कथा । पारिणामिकी बुद्धि के विषय में अभयकुमार, नंदिषेण, धनदत्त, स्थूलभद्र, नंदराजा, वज्रस्वामी आदि की कथा । साधु के आहार ग्रहण में परावर्तित दोष के विषय में बन्धुमती एवं लक्ष्मी की कथा । सभा के गुण-दोष की परीक्षा के विषय में वैयाकरण एवं कुवादी; आचार्य एवं साधु एवं वैद्य और वैद्यपुत्र की दृष्टान्त कथा | साधु जीवन के आचार- पालन में सर्व प्रकार के वर्जनीय के विषय में कुलपुत्र की कथा । गुरु के समीप किये हुए त्याग के विषय में वृषभ, योद्धा, नाव की उपनय कथा | Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [426]... षष्ठ परिच्छेद पसणचन्द पाउक्करण पाओवगमण पाडलिउत्त पाणाइवा वेरमण पामिच्च पारंचिय पावा पास पिवासापरिसह पुंडरीय पुट्टिल पुत्तमंस पुरंदर पुरिसोत्तम पुहवीचंद पूइकम्म पूया ढालपु पोट्टालग फलवयि फासिंदिय बंभदत्त बंभदीविया बंभसेण बंभी वह पहीसह बहप्फइदत्त प्रसन्नचन्द्र प्रादुष्करण पादपोपगमन पाटलिपुत्र प्राणातिपात विरमण प्रामित्य पाराञ्चित पावा पार्श्व पिपासापरिषह पुंडरीक पोट्टिल पुत्रमांस पुरन्दर पुरुषोत्तम पृथ्वीचन्द्र पूतिकर्मन् पूजा पेढालपुत्र पोट्टशालग फलवर्द्धिक स्पर्शनेन्द्रिय ब्रह्मदत्त ब्रह्मदीपिका ब्रह्मसेन ब्राह्मी वध परीषह बृहस्पत्तिदत्त अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन उत्सर्ग से द्रव्य-भाव चारित्र के विषय में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा । प्रादुष्करण दोष के विषय में तीन साधु एवं एक श्राविका की कथा । पादपोपगमन अनशन ग्रहण करनेवाले चिलाति पुत्र, काल प्रदेशी एवं अवंतीसुकुमार की लघु कथाएँ । पाटलिपुत्र (वर्तमान 'पटना' जो बिहार प्रान्त में स्थित है) की उत्पत्ति की कथा । प्राणीवध के गुण-दोष के विषय में कोंकणवासी कुटुम्ब की, श्रावकपुत्र हरि की एवं जितशत्रु राजा और खेमा प्रधान की कथा । दूसरों से उधार लाकर साधु को वहेराने के उत्पन्न क्रीत दोष के विषय में सम्मत साधु एवं सम्मति श्राविका की कथा । सर्ववनाल, मुखानन्तक, उल्लुकाक्ष, शिखरिणी की दृष्टांत कथा तथा पांच चोरों की कथा । - पावापुरी नगरी की उत्पत्ति की कथा एवं आगामी चौबीसी के 24 तीर्थंकर 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव 63 शलाका पुरुषों का संक्षिप्त वर्णन | श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर का प्राकृत में एवं संस्कृत में गद्यमय चरित्र, श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ की उत्पत्ति की कथा, स्तंभन तीर्थ की कथा एवं श्री पार्श्वनाथ के माहात्म्य का वर्णन । पिपासा परिषह के विषय में धनमित्र और धनशर्मा मुनि की कथा । सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन में वर्णित पुण्डरीक (श्वेतवर्ण प्रधान कमल) की साधु हितशिक्षा रुप विस्तृत उपनय कथा एवं अन्यदर्शन के मत-मतान्तरों का खण्डन । प्रियमित्र चक्रवर्ती के प्रवज्याग्रहण एवं उग्र तपस्वी जीवन के तीन भवों की कथा । साधु के आहार ग्रहण के विषय में वणिक और चोरों की उपनय कथा । गुणानुराग के विषय में वाराणसी नगरी के पुरन्दर राजा की कथा । गुणानुराग के विषय में श्रीकृष्ण वासुदेव की कथा एवं शिष्यों के विशिष्ट गुणों के विषय में उपेक्षा या मात्सर्यभाव से होती हानि के विषय में भवदेवसूरि की कथा । राज्यसभा में केवलज्ञान प्राप्त करने वाले राजा पृथ्वीचन्द्र एवं शादी में पाणिग्रहण के समय केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले श्रेष्ठिपुत्र गुणसागर की (साले - बहनोई) कथा । पूतिकर्म नामक साधु के आहार दोष के विषय में यक्ष एवं देवशर्मा की उपनय कथा । जिनपूजा से लाभ विषयक चारीसंजीवनीन्याय के दृष्टांत संबंधी स्त्री और उसके बैल बने हुए पति की कथा । श्री पार्श्वनाथ स्वामी के शासन में हुए मुनि पेढाल - पुत्र और गौतम स्वामी की तत्त्वचर्चा की कथा । गोष्ठामाहिल के द्वारा पराजित हुए पोट्टशालक परिव्राजक की कथा । राजस्थान में मेडता के पास फलोधि पार्श्वनाथ तीर्थ की उत्पत्ति की कथा । स्पर्शनेन्द्रिय राग एवं उसके दुष्फल के विषय में जित- शत्रु राजा और सुकुमालिका तथा महेन्द्रराजा पुत्र की कथा । जातिवैर के कारण तिरस्कार एवं कामभोग के लिए नियाण (निदान शल्य) के विषय में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और चुलणी माता की कथा । आर्यसमित सूरि की योगशक्ति एवं 500 तापसों की कथा (ब्रह्मदीपिका शाखा की उत्पत्ति की कथा) | पौषधव्रत के माहात्म्य के विषय में ब्रह्मसेन श्रेष्ठी की कथा । माया-कपट से प्राप्त स्त्रीवेद के विषय में ब्राह्मी और सुंदरी के पूर्वभव की कथा । वध परीषह के ऊपर स्कन्धकसूरि के 500 शिष्यों की कथा (दण्डकारण्य की उत्पत्ति की कथा) | बालहत्यारूप हिंसा से नरक गति के विषय में बृहस्पतिदत्त पुरोहित की कथा । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [427]... षष्ठ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन बहुपुत्तिया बहुमाण बोहिय भंभसार भत्तपञ्चकखाण बहुपुत्रिका बहुमान बोटिक भम्भसार भक्त प्रत्याख्यान भद्दणंदि (ण) - भद्रनन्दिन् भद्दबाहु भद्रबाहु भद्दा भद्रा सौधर्म देवलोकवासिनी बहुपुत्रिका देवी के तीन भवों की कथा। भक्ति-बहुमान के विषय में शिव और ब्राह्मण की कथा। दिगम्बर (बोटीक) मत की उत्पत्ति की कथा। श्रेणिक राजा के 'भंभसार' उपनाम की वर्णन कथा। उपसर्ग या उपद्रव होने पर चारों आहार के त्याग के विषय में एक आचार्य भगवंत एवं शासनदेवी की कथा। श्रावक-गुण एवं साधुधर्म के व्रतग्रहण एवं आराधना के विषय में धनावह राजा के पुत्र भद्रनन्दी कुमार की कथा । युगप्रधान आचार्य श्री भद्रबाहुस्वामी की एवं वराहमिहिर की कथा । दीर्धदर्शिता (बुद्धि का गुण) के विषय में धन सार्थवाह की पत्नी भद्रा सेठानी की कथा। अनित्य भावना संबंधी भरत चक्रवर्ती की कथा । भव-भय से सावधान मुनि के विषय में तेलपात्रधर एवं राधावेधवेधक क्षत्रिय की उपनय कथा। प्रशस्त-अप्रशस्त भाव के विषय में दो वणिकों की कथा । अहिंसा-पालन एवं परोपकार के विषय में हरिवाहन राजा एवं भीमकुमार राजा की कथा। समस्त कल्याण का मूल कारण विनय गुण के विषय में धनद राजा के पुत्र भुवनतिलक कुमार की कथा। भरह भरत भव भव भीमकुमार भाव भीमकुमार भुवणतिलय भुवनतिलक षष्ठ भाग :मल्लि महापउम मल्लि महापद्म मुणिसुव्व मूलसिरी मेअज्ज मेहकुमार मुनिसुव्रत मूलश्री मेतार्य मेघकुमार रयणवाह रहणेमि रत्नवाह रथनेमि रहमुसल राइभोयण राम रथमुशल रात्रिभोजन राम जैनों के 19 वे तीर्थंकर मल्लिनाथ की विस्तृत कथा । श्रेणिक राजा की एवं उनके पुत्र सुकाल के पुत्र महापद्म की, महापद्म चक्रवर्ती की एवं विष्णुकुमार मुनि आदि की यथाप्रसंग संक्षिप्त एवं विस्तृत कथाएँ। जैनों के 20 वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी की संक्षिप्त कथा। कृष्णवासुदेव के पुत्र शाम्ब की पट्टरानी मूलश्री की संक्षिप्त कथा। मेतार्य मुनि द्वारा अपने प्राण देकर सुनार से क्रौंच पक्षी के प्राणों की रक्षा की कथा । श्रेणिक राजा के पुत्र मेघकुमार जिसने भगवान महावीर के पास दीक्षा ली थी, उसके चार भव की कथा। श्री धर्मनाथ तीर्थंकर एवं उनकी अतिशयवती प्रतिमा की कथा। शीलव्रत संबंधी जैनों के 22 वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के पित्राई रथनेमि एवं राजीमती की कथा। कोणिक के पुत्रों और चेटक राजा के रथमुशल संग्राम की कथा । वणिक के दृष्टांत से उपनय कथा मर्यादापुरुषोत्तम अष्टम वासुदेव राम एवं महासती सीता की कथा । विद्यासिद्ध पेढाल परिव्राजक (जैन रामायण के अनुसार सत्यकी विद्याधर जिसके अपरनाम रुद्र, नीलकण्ठ, महेश्वर आदि हैं) की संपूर्ण जीवन कथा एवं उज्जैन में महेश्वर (महाकाल) की उत्पत्ति की कथा। कुण्डिनी नगरी की राजकुमारी रुक्मिणी का कृष्ण के द्वारा अपहरण एवं परिणय की कथा। भगवान महावीर की औषधदात्री रेवती श्राविका की कथा । रोहिणी (आठ) का परिचय एवं (1) वसुदेव की पत्नी एवं नौवें बलदेव (बलराम) की माता रोहिणी से विवाह की कथा। (2) राजकथा त्याग के विषय में समुद्र श्रेष्ठी की बालविधवा पुत्री रोहिणी की कथा। रुद्र रुप्पिणी रुक्मिणी रेवई रेवती रोहिणी रोहिणी Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [428]... षष्ठ परिच्छेद लवालव लूसग लेहसाला लोभ वइरजंघ वइरणाभ वंसग वग्धी वत्थ वरुण वसण वसहि वसु वाणारसी वासपूयाफल वासुदेव विजयकुमार विजयसेट्ठि विज्जा विणओवगय विणय विणयकम्म विणयंधर विहुकुमार विदुगुंछा विमल विसोहि विहार वीर गायि या वेयणा लवालव लूषक लेखशाला लोभ वज्रजंघ वज्रनाभ / वैरनाभ व्यंसक व्याधी वस्त्र वरुण वसन, वृषण, व्यसन वसति वसु वाराणसी वासपूजाफल वासुदेव विजयकुमार विजय श्रेष्ठी विद्या विनयोपगत विनय विनयकर्मन् विनयंधर विष्णुकुमार विज्जुगुप्सा विमल विशोधि (विशुद्धि) विहार वीर व्युद्ग्राहित वैनयिकी वेदना अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (3) राजगृहवासी धनरक्षक सार्थवाह की बुद्धि निधान पत्नी रोहिणी की कथा, जिसने पांच डांगर के दाने से 500 बैलगाडी भरकर चावल पकाये। कालानुपेक्षण पूर्वक समाचारी अनुष्ठान के विषय में भृगुपुर (भरुच) के आचार्य की कथा । धूर्त और मोदक की ठगाई के विषय में उपनयकथा । भगवान महावीर के लेखशाला (ज्ञानशाला) प्रवेश की कथा । अतिलोभ के विषय में वानरयुगल और कामिक तीर्थ की कथा, लोभ के विषय में जिनदत्त श्रावक और नन्द वणिक की कथा । ऋषभदेव नामक जैनों के प्रथम तीर्थंकर के पूर्व के छः भव की कथा । ऋषभदेव तीर्थंकर का पूर्व के चक्रवर्ती भव का नाम, यहाँ ऋषभदेव के पौत्र सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार आदि के स्वप्न की कथा । ग्रामीण और धूर्त की कथा । शत्रुंजय तीर्थ के मुख्य द्वार पर रही बाघण की मूर्ति की कथा । साधुओं को वस्त्र ग्रहण करने के विषय में अश्व एवं गृहपति की कथा । सदागम और दृष्टिराग के विषय में वरुण सुलस और द्वेषगजेन्द्र की कथा । व्यसन के विषय में दो भाईयों की कथा । जयंती श्राविका की तथा 'सुखमोचा' वसति के विषय में कुटुम्बी और धूर्त की कथा । साध्वाचार पालन, चरणकरणसित्तरी के पालन एवं शास्त्राध्ययन के विषय में वसु श्रेष्ठपुत्र की कथा । सुपार्श्वजिन, श्री पार्श्वनाथ, श्री जय-विजय मुनि, धर्मघोष मुनि, धर्मयश मुनि एवं सत्यवादी हरिचन्द्र राजा की कथा । वासक्षेप पूजा के लाभ के विषय में जितशत्रु राजा की कथा । कृष्ण वासुदेव की तीन भेरी की कथा । लज्जा के विषय में विशाला के राजा विजयकुमार की कथा । क्षमा एवं गाम्भीर्य गुण के ऊपर विजयवर्धनपुरवासी विजय सेठ की कथा । विद्या के विषय में भिक्षु उपासक की दृष्टांत कथा । विनय के विषय में उज्जैनवासी ब्राह्मण की कथा । विनय के विषय में श्रेणिकराजा और चाण्डाल की कथा । पुष्पशालपुत्र की कथा । कृतज्ञता गुण संबंधी श्रावक विनयंधर की कथा । वैक्रिय लब्धि संपन्न शासन प्रभावक विष्णुकुमार मुनि की कथा । साधु के मल-मलिन गात्र, वस्त्र आदि की निंदा के विषय में श्रावक पुत्री की कथा । अनर्थदण्ड विरमणव्रत के विषय में विमल और सहदेव की कथा । विशुद्धि के विषय में आठ दृष्टांत कथा । गीतार्थादि की निश्रा में विहार संबंधी गोपालक (ग्वाले) के समूह कथा । महावीर स्वामी की कथा (इसमें जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी से संबंधित सभी कथाएँ एवं पूरा जीवन वृतांत है।) वणिक, कुमारनन्दी स्वर्णकार एवं अन्धभक्त की कथा । विनय - गुरुशुश्रुषा - संस्कारजन्य वैनयिकी बुद्धि के विषय में सिद्धपुत्र और उनके दो शिष्यों की कथा एवं वैनयिकी बुद्धि के विषय में अन्य बहुत सी संक्षिप्त दृष्टांत कथाएँ । धर्मरुचि अणगार और कडवे तुम्बे की कथा । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सप्तम भाग : संखपुर संजय संतिदास सक्कह समुद्दपाल सयंभूदत्त सावत्थी सीह सुकण्हा सुक्क सुज्जसिरी सुद सुणक्खन सुदंसण सुभद्द सुभूम सुव्वय सूर सोमा हरिएस हरिभद्द शंखपुर संयत / संजय शांतिदास सत्कथ समुद्रपाल स्वयंभूदत्त श्रावस्ती शीघ्र / सिंह सुकृष्णा शुक्र/शुक्ल सूर्यश्री सुनन्द सुनक्षत्र सुदर्शन सुभद्र सुभूम सुव्रत सूर्य सोमा / सौम्या हरिकेश हरिभद्र कृष्ण जरासंघ युद्ध, श्रीकृष्ण द्वारा अषाढी श्रावक निर्मित श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा धरणेन्द्र- पद्मावती सं मंगवाकर अट्ठम तप आराधना के प्रभाव से विजय प्राप्ति एवं शंखेश्वर तीर्थ की उत्पति की कथा । प्राचीन काल में हुए तीन 'संजय' में से उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित कांपिल्यराज संजय की विस्तृत कथा । शांतिदास शब्द सप्तम भाग में है। अहमदाबाद निवासी इस श्रावक ने दानवीर जगडूशा की तरह अनेक धर्मकार्य किये। इसकी कथा 'धम्म संग्रह' शब्द पर चतुर्थ भाग में 2732 पृष्ठ पर है। 'सक्कह' शब्दवर्ती रोहिणी की कथा षष्ठ भाग में 'रोहिणी' शब्द पर पृ. 583 पर दी है। समुद्र में जन्मे चंपानगरीवासी समुद्रपाल जिन्होंने चौर को वध - स्थान की ओर ले जाता देख कर वैराग्यवासित होकर दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया, उनकी विस्तृत कथा । तीव्र आरंभ-समारंभ, उसका फल, उसका त्याग करके दीक्षा अंगीकार कर निर्वाण प्राप्त करने वाले कंचनपुरवासी स्वयंभूदत्त की कथा । संभव जिन के देवताधिष्ठित मंदिर एवं प्रतिमा की स्वयं बुद्ध की, जामाली निह्नव की, स्कन्धक अनगार आदि श्रावस्ती नगरी संबंधी संक्षिप्ति कथाएँ । भगवान महावीर के अंतेवासी सिंह अणगार की अति संक्षिप्त कथा | श्रेणिक राजा की पट्टरानी सुकृष्णा, उनका आर्या सुकृष्णा के नाम से जीवन वृत्तांत (कथा) | षष्ठ परिच्छेद... [429] महाशुक्र नामक सप्तम देवलोक के इन्द्र के पूर्वभव की; वाराणसीवासी सोमिल ब्राह्मण की कथा । संयम धर्म की आराधना- विराधना, छः काय जीव परिभोग के विषय में सूर्यश्री एवं आनंद अनगार की अनेक भव की कथा । व्यवहार धर्म से संबंधित 12 वें तीर्थंकर वासुपूज्य स्वामी के भिक्षा दाता प्रत्येक बुद्ध सुनंद राजर्षि की कथा । भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करने वाले काकंदीवासी भद्रा सार्थवाही के पुत्र सुनक्षत्र मुनि की कथा । राजगृहीवासी स्वनामधन्य नवकारमंत्राराधक अखंड शीलव्रतधारक श्रेष्ठी सुदर्शन की कथा । महावीर शासन में हुए कोणिक के पौत्र सुभद्र की कथा । सुभूम नामक आठवें चक्रवर्ती की संक्षिप्त कथा | जैनों के 20 वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी की एवं सुव्रत महर्षि की अति संक्षिप्त कथा । सूर्य के पूर्वजन्म की कथा । गजसुकुमार मुनि की सांसारिक पत्नी सोमा की संक्षिप्त कथा | गोत्र मद के विषय में चांडाल कुल में उत्पन्न होकर दीक्षा लेकर आत्म-कल्याण करने वाले उत्तराध्ययनवर्ती हरिकेशी मुनि की कथा । स्वनामधन्य याकिनीमहत्तरासूनु, 1444 ग्रंथों के रचयिता हरिभद्रसूरि की संक्षिप्त कथा एवं परिचय | जय संघचंद । तवसंजममयलछण, अकिरियराहुमुहहदुद्वरिस निच्चं । जय संघचंद । निम्मल-सम्मत्तविसुद्धजोणहागा ॥1॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [430]... षष्ठ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन | 2. अभिधान राजेन्द्र कोश में अनुस्यूत | आचारपरक सूक्तियाँ प्रथम भाग : अति सर्वत्र वर्जयेत् । अति सर्वत्र वर्जनीय है। - अ.रा.पृ. 1/1, धर्म संग्रह सटीक : प्रथम अधिकार अकरणान्मन्दं करणं श्रेयः। नहीं करने की अपेक्षा कुछ करना अच्छा है। - अ.रा.भा. 1 पृ. 123; विक्रमचरित 1/3 सम सुहदुक्ख सहे य जे, स भिक्ख । सुख दुःख में जो एक रुप रहे वही सच्चा साधु । - अ.रा.पृ. 1/1233; दशवैकालिकमूल 10/11 प्रायःस्त्रीणां विश्वासो न कार्यः। प्रायः करके स्त्रियों का विश्वास नहीं करना चाहिए। - अ.रा.पृ. 1/154 अगीयत्थस्स वयणेण, अमियं पि न घोट्टए। अगीतार्थ के कहने से अमृत भी न पीये। - अ.रा.पृ. 1/162; महानिशीथसूत्र 6/150 अजीर्णे अभोजनमिति । अजीर्ण में भोजन उचित नहीं। - अ.रा.पृ. 1/203; धर्मबिन्दु 21/43 अजीर्णे भेषजं वारि, जीर्णे वारि बलप्रदम् । अजीर्ण में पानी औषधि है और पाचन होने पर शक्तिवर्धक है। - अ.रा.पृ. 1/2033; चाणक्यनीति 8/7%; वाचस्पत्यभिधानकोश आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं । ज्ञान और कर्म से ही मोक्ष प्राप्त होता है। - अ.रा.पृ. 1/240, 3/556; सूत्रकृतांग 1/12/11 सम लेछु कंचणे भिक्खू । सोना और मिट्टी को समान समझने वाला भिक्ष है। - अ.रा.पृ. 1/281; 7/281; उत्तराध्ययन 35/13 माणुस्सं खु सुदुल्लहम्। मनुष्यजन्म निश्चय ही दुर्लभ है। - अ.रा.पृ. 1/322; उत्तराध्ययन 20/11 यत्राकुतिस्तत्र गुणाः वसन्ति । मनुष्य की जैसी आकृति होती है वैसे उसमें गुण रहते हैं। - अ.रा.पृ. 1/352 सच्चे तत्थ करे हु वक्कमम्। सत्य हो उसी में ही पराक्रम करो । - अ.रा.पृ. 1/423; सूत्रकृतांग - 1/2/3/14 अज्ञानं खलु कष्टम् । अज्ञान ही कष्टदायक है। - अ.रा.पृ. 1/448; आगमीय सूक्तावली पृ. 19; Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिच्छेद... [431] अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अंधो अंध पहंणितो, दूरमद्धाण गच्छति । अंधा अंधे का पथप्रदर्शक बनता है, तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर भटक जाता है। - अ.रा.पृ. 1/492; सूत्रकृतांग-1/1/2/19 अकसायं खु चरित्तं । कषायरहितता (वीतरागता) ही चारित्र है। __ - अ.रा.पृ. 1/574; बृहत्कल्प भाष्य-2712 अलं कुसलस्स पमादेन। बुद्धिमान साधक को अपनी साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए। ___- अ.रा.पृ. 1/598; आचारांग-1/2/4/85 इह लोए वि ताव नट्ठा, पर लोए वि नट्ठा। विषयासक्त व्यक्ति इस लोक में भी नष्ट होते हैं और परलोक में भी। - अ.रा.पृ. 1/679; प्रश्न व्याकरण-1/4/16 धम्मस्स मूलं विणयं। धर्म का मूल विनय है। - अ.रा.पृ. 1/696; बृहदावश्यक भाष्य 4441 अरई आउट्टे से मेघावी। जो अरति का त्याग करता है, वही बुद्धिमान है। - अ.रा.पृ. 1772; पंचसंग्रह सटीक द्वार 4; आवश्यकबृहद्वृत्ति-अध्याय 4 धिग् द्रव्यं दुःखवर्धनम्। दुःखवर्धक द्रव्य को धिक्कार हो । - अ.रा.पृ. 1/803; पञ्चतंत्र-2/124 असंखयं जीवियं मा पमायए। जीवन असंस्कृत (संस्कार हीन ) है (इसलिए) प्रमाद मत करो। - अ.रा.पृ. 1/819; उत्तराध्ययन-4/1 मणं परिजाणइ से-णिग्गंथे। जो स्वयं के मन को परखता (जानता) है वही निर्ग्रन्थ (साधु ) है। - अ.रा.पृ. 1/875; आचारांग-2/3/15/778 न हिंस्यात् सर्वभूतानि। किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। - अ.रा.पृ. 1/878; छान्दोग्य उपनिषद् अ.8 अहिंसा परमं धर्माङ्गम् ।। अहिंसा उत्कृष्ट धर्म का अंग है। - अ.रा.पृ. 1/878; सूत्रकृतांग सटीक-2/2 उवसमसारं (ख) सामण्णं । उपशम श्रमणत्व का सार है। - अ.रा.पृ. 1/884; बृहत्कल्पसूत्र-1/34 द्वितीय भाग : तपसो निर्जराफलं दृष्टम । तप का फल निर्जरा है। - अ.रा.पृ. 2/8 एवं 6/337; प्रशमरति-73 ज्ञानस्य फलं विरति। ज्ञान का फल विरति (त्याग) है। - अ.रा.पृ. 2/8 एवं 6/337; प्रशमरति-72 सव्वेसिं जीवियं पियं । सभी को जीवन प्यारा है। - अ.रा.पृ. 2/10; आचारांग- 1/2/3/78 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [432]... षष्ठ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन समयं गोयम! मा पमायए। एक क्षण के लिये भी प्रमाद मत करो। - अ.रा.पृ. 2/11, उत्तराध्ययन 10/34 सोही उज्जुय भूयस्स। सरल आत्मा की शुद्धि होती है। - अ.रा.पृ. 2/28 एवं 3/1053; उत्तराध्ययन 3/2 धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ। पवित्र हृदय में ही धर्म निवास करता है। - अ.रा.पृ. 228 एवं 3/1053; उत्तराध्ययन 3/2 आगम चक्खू साहू। साधु आगमचक्षु होता है (साधु के पास (आगम) तत्त्वज्ञान रुपी आंखें होती हैं)। - अ.रा.पृ. 2/90; प्रवचनसार - 3/34 आणाए मामगं धम्मम्। आज्ञा (पालन) ही मेरा धर्म है। - अ.रा.पृ. 2/131%; आचारांग 1/6/2/185 तित्थयर समो सूरी। आचार्य तीर्थंकर के समान होते हैं। - अ.रा.पृ. 2/135 एवं 4/2314, महानिशीथ सूत्र 5/101; गच्छाचार पयन्ना टीका 27 खणं जाणाहि। समय को पहचाने । (पदार्थ । द्रव्य । तत्त्व को पहचानो)। - अ.रा.पृ. 2/179; आचारांग-1/2/1/68 उत्ताणं जो जाणाति जो य लोगम् । जो आत्मा को जानता है, वही लोक को जानता है। - अ.रा.पृ. 2/180 एवं 3/559; सूत्रकृतांग-1/12/20 आततो बहिया पास। अपने समान ही दूसरों को देख। - अ.रा.पृ. 2/186, आचारांग-1/3/3/120 जे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से आता। जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। - अ.रा.पृ. 21223; आचारांग 1/5/5/171 अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो। अपनी आत्मा को सतत (पापों से) बचाकर रखो। - अ.रा.पृ. 21231; दशवैकालिक चूलिका-2/16 सारो परुवणाए चरणं तस्स विय होइ निव्वाणं । प्ररुपणा का सार-आचरण, आचरण से निश्चय ही निर्वाण (प्राप्त होता है)। - अ.रा.पृ. 2/372; आचारांग नियुक्ति-17 मित्ति मे सव्वभूएसु, वे मज्झ ण केणइ । समस्त प्राणियों के साथ मेरी मित्रता है। किसी से भी मेरा वेर-विरोध नहीं है। - अ.रा.पृ. 21432, एवं 5/317; महानिशीथ 1/59; वंदित्तुसूत्र 49 ज्वरादौ लङ्घनं हितम्। ज्वरादि में उपवास हितकारी है। - अ.रा.भाग 2 पृ. 548; चरक संहिता : ज्वर प्रकरण । जेहि काले परिक्वंतं, न पच्छा परितप्पए। जो समय पर अपना कार्य कर लेते हैं, वे बाद में पछताते नहीं । - अ.रा.पृ. 21652; सूत्रकृतांग-1/3/4115 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन षष्ठ परिच्छेद... [433] णोविय पूयण पत्थए सिया। अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के प्रार्थी मत बनो। __ - अ.रा.पृ. 2/1053; सूत्रकृतांग-1/2/2/16 खाणी अणत्थाण उ काम-भोगा। काम-भोग अनर्थों की खान है। - अ.रा.पृ. 21187; उत्तराध्ययन-14/13 जुन्नो व हंसो पडिसोयगामी। वृद्ध हंस प्रतिस्रोत (सन्मुख-प्रवाह) में तैरने से डूब जाता है। (अर्थात् असमर्थ व्यक्ति समर्थ का प्रतिरोध नहीं कर सकता)। - अ.रा.पृ. 21191; उत्तराध्ययन-14/33 जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु । जन्मधारी की मृत्यु अवश्यंभावी है। - अ.रा.पृ. 2/1192; भगवद्गीता-2/27 काम भोगे य दुच्चए। काम भोग कठिनाई से त्यागे जाते हैं। - अ.रा.पृ. 2/1193; उत्तराध्ययन-14/49 अतिरेगं अहिगरणम्। आवश्यकता से अधिक उपकरण अधिकरण (दोष रुप) है। - अ.रा.पृ. 2/1209; ओधनियुक्ति-741 तृतीय भाग : जे एगं णाणे से बहुं णामे। जो स्वयं को झुकाता है (जीत लेता है), वह बहुतों को झुकाता है। ___ - अ.स.भाग 3 पृ. 13; सूत्रकृतांग-1/10/12 तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहि, पवेइयं । वही सत्य और निःशंक है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररुपित है। - अ.रा.पृ. 3/167; 6/746, 7/273-502; आचारांग-1/5/5/162 अंधो कहिं कत्थ य देसियव्वं? कहाँ अंधा और कहाँ पथप्रदर्शक ? ___- अ.रा.पृ. 3/222; बृहत्कल्प भाष्य 3253 वसुंधरेयं जह वीर भोज्जा। यह वसुन्धरा वीरभोग्या है। - अ.रा.पृ. 3/222; बृहदावश्यक भाष्य-3254 श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । महापुरुषों को भी शुभकार्य में अनेक बाधाएँ आती हैं। - अ.रा.पृ. 3/338; विशेषावश्यक भाष्य बृहद्वृत्ति पृ.17 न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति । साधुजन किसी के किए हुए उपकार को कभी भूलते नहीं है। - अ.रा.पृ. 3/554; धर्मसंग्रह सटीक, प्रथम अधिकार जहा लाभो तहा लोभो। ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। - अ.रा.पृ. 3/387; उत्तराध्ययन-8/17 विणयमूलो धम्मोत्ति। विनय धर्म का मूल है। - अ.रा.पृ. 3/418; अंगचूलिका-अध्ययन-5 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [434]... षष्ठ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पठमं नाणं तओ दया। पहले ज्ञान फिर दया (तदनुसार आचरण)। - अ.रा.पृ. 3/556; दशवैकालिक-4/33 मेघाविणो लोभ भयावतीता। ज्ञानी लोभ और भय से सदा मुक्त होता है। ___ - अ.रा.पृ. 3/557; सूत्रकृतांग -1/12/15 मन एवं मुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । मन ही मनुष्यों के बंध और मुक्ति का कारण है। - अ.रा.पृ. 3/751; ब्रह्मबिन्दूपनिषद-2 न य मूल विभिन्नए घडे, जलमादीणि धरेइ कत्थइ। जिस घडेके पेंदें में छेद हो गया हो, उसमें जल आदि कैसे टिक सकते है ? - अ.रा.पृ. 3/859; बृहत्कल्पभाष्य 4363 एगऽप्या अजिए सत्तु । स्वयं की असंयत आत्मा ही स्वयं का एक शत्र है। - अ.रा.पृ. 3/963; उत्तराध्ययन 23/38 काले कालं समायरे। समय पर समयोचित कार्य करना चाहिए। - अ.रा.पृ. 3/970; 6/1165, उत्तराध्ययन 131; 5/2/41 सद्धा परम दुल्लहा। धर्म में श्रद्धा होना परम दुर्लभ है। - अ.रा.पृ. 3/1053; उत्तराध्ययन-3/9 नाण किरियाहि मोक्खो। ज्ञान और क्रिया से ही मुक्ति मिलती है। __- अ.रा.पृ. 3/1126; विशेषावश्यक भाष्य-3 अगुणिस्स नत्थि मोक्खो। अगुणी (दर्शन-ज्ञानादि से रहित) व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। - अ.रा.पृ. 3/1128; उत्तराध्ययन 28/30 नाणेण विणा न होति चरण गुणा। सम्यग्ज्ञान के बिना जीवन में चारित्र नहीं हो सकता। - अ.रा.पृ. 3/1128; उत्तराध्ययन-28/30 तस्मात् चारित्रमेव प्रधानं मुक्तिकारणं । चारित्र ही मुक्ति का प्रधान कारण है। - अ.रा.पृ. 3/1143; आवश्यक बृहवृत्ति, अध्ययन-3 पंथ समा नत्थि जरा पंथ (रास्ते) के समान कोई वृद्धावस्था नहीं है। ___- अ.रा.पृ. 3/1359; सुभाषित सूक्त संग्रह-37/4 दारिद्द समो पराभवो नत्थि। दरिद्रता से बढकर कोई पराजय नहीं है। - अ.रा.पृ. 3/1359; सुभाषित सूक्त संग्रह-37/4 मरण समं नत्थि दुःखं (भयं)। मृत्यु से बढकर कोई भय (दुःख) नहीं है। - अ.रा.पृ. 3/1359; सुभाषित सूक्त संग्रह-37/4 खुहा (छुआ) समा वेयणा नत्थि । भूख से बढकर कोई वेदना नहीं हैं। - अ.रा.पृ. 3/1359; सुभाषित सूक्त संग्रह-37/4 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन षष्ठ परिच्छेद... [435] चतुर्थ भाग : जयणा से तं जत्ता। विवेकयुक्त प्रवृत्ति (जयणा) ही वास्तविक यात्रा है। अर्थात् साधु के लिए संयमयात्रा ही तीर्थयात्रा है। - अ.रा.पृ. 4/1390; भगवती सूत्र-18/10/18 सार्वभौमा महाव्रतम्। महाव्रत सार्वभौम (जाति-देश-काल-समय की सीमा से रहित) होते हैं। - अ.रा.पृ. 4/1391; योगदर्शन2/31 नवि मुंडिएण समणो। सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता। - अरा.पृ. 4/1421; उत्तराध्ययन-25/31 न तं तायन्ति दुस्सीलं। दुराचारी को कोई नहीं बचा सकता। - अ.रा.पृ. 4/1421; उत्तराध्ययन-25/30 कम्माणि बलवन्ति हि निश्चय ही कर्म बलवान है। कुसचीरेण न तावसो। वल्कल वस्त्र पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता। - अ.रा.पृ. 4/1421; उत्तराध्ययन-25/31 न ओंकारेण बंभणो। ॐकार का जाप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता। - वही न मुणी रणवासेणं। केवल जंगल में रहने से ही कोई मुनि नहीं हो जाता। - वही अयं निजः परो वेत्ति, गणा लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ हल्के चित्तवाले लोगों की - 'यह अपना है, यह पराया है' ऐसी बुद्धि होती है। उदार चित्तवाले तो समग्र पृथ्वी के लोगों को ही अपना कुटुम्बीजन मानते हैं। - अ.रा.पृ. 4/1617; हितोपदेश - मित्रलाभ 71 इच्छा हु आगाससमा अणंतिया । इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं। - अ.रा.पृ. 4/1817; उत्तराध्ययन-9/48 जहाकडं कम्मे तहा सि भारे। जैसा कर्म किया है वैसा ही उसका भार समझो। __ - अ.रा.पृ. 4/1921; सूत्रकृतांग -1/5/1/26 विणएण लहइ नाणं, नाणेण विजाणइ विणयं । विनय से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से विनय जाना जाता है। - अ.रा.पृ. 4/1980; दसपयन्ना चन्द्रवेध्यकप्रकीर्णक -62 अतिपरिचयावदवज्ञा ।। अति परिचय करने से अनादर होता है। - अ.रा.पृ. 4/2070; धर्मबिन्दु -1/48 तात्त्विकस्य समं पात्रं न भूतो न भविष्यति । तत्त्वविद् के समान पात्र न तो अतीत में हुआ और न होगा। - अ.रा.पृ. 4/2183; धर्मसंग्रह -2, पृ.205 महाव्रतिसहस्रेषु वरमेको तात्त्विकः । हजारों महाव्रतियों में एक तात्त्विक श्रेष्ठ है। - वही For Private & Personal use only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [436]... षष्ठ परिच्छेद सहिरकयस्स वत्थस्स रहिरेण चेव । पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही । रक्त से सना वस्त्र रक्त से धोने से शुद्ध नहीं होता । अर्थात् वैर से वैर शान्त नहीं होता । - अ. रा. भाग 4 पृ. 2401; ज्ञाताधर्म कथा - 1/5 शकटं पञ्चहस्तेन, दशहस्तेन शृङ्गिणम् । हस्तिनं शतहस्तेन, देशत्यागेन दुर्जनम् ॥ व्यक्ति को वाहन - गाडी से पांच हाथ, सींगवाले हिंसक पशुओं से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ दूर रहना चाहिए, किन्तु दुर्जन से तो उस प्रदेश को ही छोड़कर रहने में सुरक्षा हैं । - अ. रा. पृ. 4/2555; वाचस्पत्यभिधानकोश; चाणक्यनीतिशास्त्र - 7/7 महुकार समा बुद्धा । आत्मदृष्टा साधक मधुकर (भ्रमर) के समान होते हैं। (अर्थात् बाह्य भावों में कहीं आसक्त नहीं होते ) । - अ. रा. पृ. 4/2688; दशवैकालिक सूत्र, मूल - 1/5 धिग्धर्मरहितं नरम् । धर्म से रहित मनुष्य को धिक्कार । - अ.रा. पृ. 4/2690; स्थानांग 3:3 भासमणो न भासेज्जा । किसी बोलते हुए के बीच में मत बोलो। अ. रा. पृ. 4/2704; सूत्रकृतांग - 1//9/25 शास्त्र सर्वार्थसाधनम् । शास्त्र इहलौकिक, पारलौकिक सभी प्रयोजनों का साधक है। - अ. रा.पृ. 4/2720 एवं भाग 7 पृ. 334; योगबिन्दु-225 चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्रम् । शास्त्रं सब जगह पहुंचनेवाली तीसरी आँख है । - अ.रा. पृ. 4/2720; योगबिन्दु - 225 दुलहं सद्धम्मवररयणं । सद्धर्मरुपी रत्न मिलना दुर्लभ है। - अ.रा. पृ. 4/2726; धर्मरत्न प्रकरण -2 पञ्चम भाग : त्यागात्कंचुकमात्रस्य, भुजंगो न हि निर्विषः । केंचुली छोडने मात्र से सर्प विषरहित नहीं होता । अ. रा. भाग 5 पृ. 556; ज्ञानसार -25/4 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन देहे दुक्खं महाफलम् । शारीरिक कष्टों को समतापूर्वक सहने से महाफल की प्राप्ति होती है । - अ. रा. पृ. 5/643; दशवैकालिक - 8/27 बालजणे पगब्भती । अज्ञ अभिमान करते हैं। - अ. रा. पृ. 5/646; सूत्रकृतांग - 1/2/3/10 परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् । उपकार जैसा कोई पुण्य नहीं और दूसरों को पीडा पहुंचाने जैसा कोई पाप नहीं । अ. रा. पृ. 5/697; पंचतंत्र - 3 / 101 एवं 4 / 101 कडाण कम्माण न मोक्खो अत्थि । कृतकर्मो को भोगे बिना मोक्ष नहीं हो सकता है। - अ. रा.पू. 5/1276; भा. 7 पृ. 57; उत्तराध्ययन- 4/ 13/10 सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं । मानव के सभी सुचरित (सत्कर्म) सफल होते हैं। - अ.रा. पृ. 5/1276; उत्तराध्ययन - 13/10 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन षष्ठ परिच्छेद... [437] सव्वे कामा दुहावहा। सभी कामभोग अन्ततः दुःखावह ही होते हैं। - अ.रा.पृ. 5/51277; उत्तराध्ययन -13/16 अलं बालस्स संगणं। अपरिपक्व बालजीव (अज्ञानी) की संगति से दूर रहो। - अ.रा.पृ. 5/1316, भाग 6 पृ. 735; आचारांग 1/2/5/94 यः क्रियावान् स पण्डितः। जो (ज्ञान के अनुसार)) क्रिया (आचरण) करता है वही पण्डित है। - अ.रा.पृ. 5/1329; स्थानांग सूत्र सटीक -4/4 संसारमूलबीयं मिच्छत्तं। संसार का मूलबीज मिथ्यात्व है। - अ.रा.पृ. 5/1362; भक्तिपरिज्ञा प्रकीर्णक -59 धम्ममहिंसा समं नत्थि। अहिंसा के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। - अ.रा.पृ. 5/1362; भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक -91 सम्मदिट्ठी सया अमूढे। सम्यग्दृष्टि सदा विचक्षण (अविचलित बुद्धिवाला) होता है। - अ.रा.पृ. 5/1566; दशवैकालिक -10/7 षष्ठ भाग : अदु इंखिणिया उपाविया । निंदा (पापो की) जननी है। __ - अ.रा.पृ. 6/107; सूत्रकृतांग -1/2/2/2 नाणेण विणा करणं, न होइ नाणंपि करणहीणं तु । ज्ञान रहित क्रिया और क्रिया रहित ज्ञान भी नहीं होता। - अ.रा.पृ. 6/137; मरणसमाधि -137 खणमवि मा काहिसि पमायं । क्षणभर का भी प्रमाद मत कर। - अ.रा.पृ. 6/139; मरणसमाधि प्रकीर्णक-205 अत्थोमूलं अणत्थाणं। अर्थ अनर्थो का मूल है। - अ.रा.पृ. 6/149; मरणसमाधि प्रकीर्णक-703 सज्ज्ञानं परमं मित्रम्, अज्ञानं परमो रिपुः। संतोषः परमं सौख्यम्, आकाङ्क्षा दुःखमुत्तमम् ॥ सद्ज्ञान श्रेष्ठ मित्र है, अज्ञान महाशत्रु है, संतोष श्रेष्ठ सुख है, और आकांक्षा महादुःख है। - अ.रा.पृ. 6/191; हरिभद्रीय टीका-26 ममत्तबंध च महब्भयावहा । ममत्व का बंधन अत्यन्त भयावह है। - अ.रा.पृ. 6/301; उत्तराध्ययन -19/99 सच्चं लोगम्मि सारभूयं । सत्य ही लोक में सारभूत तत्व है। - अ.रा.पृ. 6/327; प्रश्नव्याकरण- 2/7/24 सच्चं च हियं च मियं च गाहणं । ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए, जो हित-मित और ग्राह्य हो । - अ.रा.पृ. 6/330; प्रश्न व्याकरण -2/7/25 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [438]... षष्ठ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हय नाणं किया हीणं। आचारहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है। ___ - अ.रा.पृ. 6/443; आवश्यक नियुक्ति -201 नाणं संजमं सारं, संजमसारं च निव्वाणं । ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण पद की प्राप्ति है। ___- अ.रा.पृ. 6/741; आचारांग नियुक्ति-245 देहबलं खलु वीरियं । देह का बल वीर्य ही है। - अ.रा.पृ. 6/934; आवश्यक नियुक्ति भाष्य 123 ववहारोऽपि हु बलवं। संघ एवं समाज व्यवस्था में व्यवहार ही सबसे बलवान है। - अ.रा.पृ. 6/934; आवश्यक नियुक्ति भाष्य 123 नाणेण नज्जए चरणं। ज्ञान से ही चारित्र (कर्तव्य ) का बोध होता है। - अ.रा.पृ. 6/1094; व्यवहार चूलिका भाष्य-7/215 सव्व जगुज्जोयकरं नाणं। ज्ञान विश्व के समस्त रहस्यों को प्रकाशित करनेवाला है। __ - अ.रा.पृ. 6/1094; व्यवहार भाष्य-7/216 मूलं कोहो दुहाण सव्वाणं। सभी दुःखों का मूल क्रोध है। __ - अ.रा.पृ. 6/1144; धर्मरत्न प्रकरण 1 अधिकार मूलं माणो अणत्थाणं । सभी अनर्थों का मूल अभिमान है। - अ.रा.पृ. 6/1144; धर्मरत्र प्रकरण । अधिकार खंति सुहाण मूलं। क्षमा सभी सुखों का मूल है। - अ.रा.पृ. 6/1144; संबोधसत्तरी 70 विणओ गुणाण मूलं। सभी गुणों का मूल विनय है। - अ.रा.पृ. 6/1144; धर्मरत्न प्रकरण 1 अधिकार अप्पा दंतो सुही होइ। अपने आप पर नियंत्रण रखनेवाला सुखी होता है। - अ.रा.पृ. 6/1162; उत्तराध्यनन 1/15 जो छंदं आराहयई स पुज्जो । जो गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है, वही शिष्य पूज्य होता है। - अ.रा.पृ. 6/1173; दशवैकालिक-9/3/1 विवत्ती अविणीअस्स संपत्ती विणिअस्स य । अविनीत विपत्ति का भागी होता है और विनीत संपत्ति का। - अ.रा.पृ. 6/1173; दशवैकालिक-9/2/22 तवेसु व उत्तम बंभचेरं। तपों में सर्वोतम तप ब्रह्मचर्य है। - अ.रा.पृ. 6/1394; सूत्रकृतांग-1/6/23 णत्थि छुहाए सरिसया वियणा । संसार में भूख के समान कोई वेदना नहीं है। - अ.रा.पृ. 6/1624; ओधनियुक्ति भाष्य-290 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन षष्ठ परिच्छेद... [439] सप्तम भाग : घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं। समय बड़ा बलवान है और शरीर बडा निर्बल। - अ.रा.पृ. 7/59; उत्तराध्ययन-416 संतोष परमं सौख्यम्। संतोष ही परम (सर्वश्रेष्ठ) सुख है। - अ.रा.पृ. 7/146; हिंगुल प्रकरण-1/14 नत्थि भयं मरणसमं । मृत्यु के समान कोई भय नहीं है। - अ.रा.पृ. 7/146; हिंगुल प्रकरण-1/14 एकम्मि खंभम्मि न मत्तहत्थी, वज्झन्ति बग्धा न य पंजरे दो ॥ एक खंभे से दो मदोन्मत हाथियों को नहीं बांधा जाता और न एक पिंजरे में दो सिंह रखे जाते हैं। - अ.रा.पृ. 7/181; बृहत्कल्प भाष्य-4410 दुक्खं लभ्भइ नाणं। ज्ञान कठिनाई पूर्वक प्राप्त होता है। - अ.रा.पृ. 71227; पंचवस्तुक सटीक-हार 4 मातृवत् परदाराँञ्च परद्रव्याणि लोष्ठवत् । पराई स्त्री को माता के समान एवं पराये दव्य (धन) को लोह/पत्थर तुल्य समझो। - अ.रा.पृ. 71273; आपस्तम्बस्मृति-10/11 न सत्यमपि भाषेत, परपीडाकरं वचः।। दूसरों को पीडा हो, ऐसा सत्य वचन भी मत बोलो। - अ.रा.पृ. 7273; योगशास्त्र-2/61 स्वाध्यायसमं तपो नास्ति । स्वाध्याय के समान कोई तप नहीं है। - अ.रा.पृ. 71292; दशपयन्नामूल सटीक सतां सङ्गो हि भेषजम् । सज्जनों का सत्संग ही एक महान औषध है। - अ.रा.पृ. 7/337; हितोपदेश-4/90 जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ। जो एक को जानता है, वह सबको जानता है। - अ.रा.पृ. 7/892; आचारांग-1/3/4/29 सव्वतो अप्पमत्तस्स णस्थि भयं । अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं रहता। - अ.रा.पृ. 7/892; हिंगुल प्रकरण-1/14आचारांग-1/3/4/29 न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा। केवल पानी से स्नान करने पर अन्तरात्मा शुद्ध नहीं हो सकती। - अ.रा.पृ. 7/1004; हितोपदेश-4/87 | सूत्र सूत्रोक्तस्यैकस्या-प्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। | मिथ्याइष्टिं सूत्रं, हिनः प्रमाणं जिनाभिहितम्॥1॥ एकस्मिन्नप्यर्थः सन्दिग्धे प्रत्ययोऽर्हति नष्टः।। मिथ्या च दर्शनं तत्, स चादिहेतुर्भगवतीनाम् ॥2॥ - अ.रा.पृ. 7/35 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ગુરુ શ્રી રાજેન્દ્ર વંદના) જો થે ક્ષમાગુણ યુક્ત થી વર સરલતા નિર્લેપતા સદ્ભાવ સમતા સિદ્વિધારી હૃદય મેં નિર્લોભતા સન્માર્ગ દર્શક સત્યગામી વિમલતમ પરિણામ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ હૈ ઉપકાર જગ મેં આપ કે વિસ્મૃત કભી હોંગે નહીં વર ત્યાગ કી મૂર્તિ નિરુપમા આપ નિશ્ચલ હૈ સહી આપ કી મહિમા અનુપમ આપ સદ્ગુણ ધામ છે ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ હૈ અનુકૂલ યા પ્રતિકૂલ મેં સમભાવ ધારક થે સદા નિજ આત્મ સાધન લક્ષ્ય થા નિશ્ચલ રહે થે સર્વદા નિત યોગ કી થી સાધના જો શ્રેષ્ઠ ગુણ કે ધામ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ હૈ જો વિશ્વ વિદ્યુત કોષ સૃષ્ટા ઔર યુગ દષ્ટા સુધિ કલિકાલ મેં જો કલ્પતરુવર વિમલ થી જિન કી વિધિ જિન કે સ્મરણ સે સર્વ દિલ મેં હર્ષ ઠામઠામ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ છે દુર્લબ રહી તનુ યષ્ટિ પર દુનિયા અચંભિત રહ ગઈ આત્મબલ તપ બલ અનૂઠા ભ્રાન્તિયાં સબ મિટ ગઈ વીર કે સંદેશ વાહક જાનતે જન આમ હૈ ઐસે ગુરુ રાજેન્દ્ર કો નિત કોટિ કોટિ પ્રણામ છે Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिच्छेद Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिच्छेद उपसंहार Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिच्छेद उपसंहार 3. इस शोध प्रबन्धक के लेखन के पूर्व आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि के व्यक्तित्व, कर्तृत्त्व, जैनाचार विज्ञान, इतर आचार विज्ञान आदि के सम्बन्ध में अद्यावधि उपलब्ध साहित्य एवं अन्य सामग्री का संकलन इस शोधाध्येत्री द्वारा किया गया। तदुपरान्त पूर्व निर्धारित रूपरेखा के आधार पर ससन्दर्भ लेखन किया गया जो कि पूर्ववर्ती छह परिच्छेदों में निबद्ध किया गया है। इस शोध कार्य से अनेक अप्रचिलत तथ्यों का उद्घाटन हुआ है जो कि जैनाचार को क्रियान्वित करनेवाले साधु-साध्वियों और श्रावकश्राविकाओं के लिए मार्गदर्शन का कार्य करेगा। दोषों और गुणों को जाने बिना दोषों का परिहार और गुणों का ग्रहण नहीं हो सकता, अतः यदि जैनाचार पालन करते समय उद्धृत होनेवाले दोषों का ज्ञान न हो तो उनका परिमार्जन असम्भव है अतः इस शोध-प्रबन्ध में गुणदोषात्मक विवेचन का अनुशीलन प्रस्तुत किया गया है। जो जिज्ञासु इस प्रबन्ध का अध्ययन करेंगे, निश्चित ही उनमें जागरुकता आयेगी। हमने यहाँ छहों परिच्छेदों में विभिन्न शीर्षको के अन्तर्गत किये गये अनुशीलन को सारांशतः निम्न प्रकार से समजा जा सकता है1. प्रथम परिच्छेद आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर महाराज के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सम्बन्धी आयामों के उद्घाटित करने के लिए समर्पित है। आचार्य श्री का जन्म स्थान, माता-पिता, वैवाहिक स्थिति, वंशविवरण निर्विवाद है। आपकी माता का नाम केशर बाई और पिता का नाम ऋषभदास है। आपका वंश 'पारख' है जो वणिग्जातियों में अनन्यतम है। आपके बड़े भाई का नाम माणिकचन्द एवं बहिन का नाम प्रेमा था। आपका जन्मस्थान भरतपुर (आगरा के पास) है । आपका जन्मसमय पौष सुदि सप्तमी, गुस्वार, वि.सं. 1883 (ईस्वी सन् 1827) है। आचार्यश्री का बाल्यावस्था का नाम रत्नराज था जो कि माता द्वारा गर्भाधानपूर्व देखे गिये स्वप्न में प्राप्त रत्न के आधार पर रखा गया था। 'श्रीराजेन्द्रसूरिरास' में बाल्याकाल का नाम 'रतनचन्द' दिया हुआ है। आचार्यश्री की लौकिक शिक्षा अल्प ही हुई थी। लौकिक शिक्षा के गुरु का नाम हमें प्राप्त नहीं हो सका। आचार्यश्री आजीवन ब्रह्मचारी रहे। आपने विवाह के लिए अस्वीकृत घोषित कर दी थी। ऐसा उल्लेख प्राप्त है कि सेठ सोभागमलकी पुत्री रमा की व्यन्तरबाधा दूर करने से प्रसन्न सेठ सोभागमलजी ने अपनी पुत्री रमा का विवाह करने का प्रस्ताव रखा था जिसका आपने अस्वीकार किया। गृहस्थजीवन में आपने परम्पराप्राप्त जौहरी का व्यापार किया और इस हेतु कलकत्ता, श्रीलंका आदि की व्यापारिक यात्राएँ भी की। 6. वैराग्य से ओतप्रोत मानस से युक्त रत्नराज ने व्यापारिक यात्राओं के साथ-साथ श्रीसम्मेत शिखरजी आदि अनेक धार्मिक तीर्थों की यात्राएँ भी की। पूर्व से ही संसार के प्रति उद्भूत वैराग्यभाव माता-पिता के दिवंगत होने से दिन-प्रतिदिन प्रबलतर होता गया और श्रावक अवस्था में वि.सं. 1902 में श्रीपूज्य प्रमोदसूरिजी के भरतपुर चातुर्मास के समय प्राप्त उपदेश ने आपके मन में दीक्षा-बीज का वपन कर दिया। आपने वि.सं. 1904 की वैशाख सुदि पञ्चमी, गुरुवार को उदयपुर (राजस्थान) में पिछोले की पाल के पास यतिदीक्षा ग्रहण की। आपके दीक्षागुरु का नाम आचार्य श्री प्रमोदसूरि था। आपका यतिवस्था का नाम 'मुनिश्री रत्नविजय' रखा गया था। मुनिदीक्षा के बाद 'मुनिश्री रत्नविजय'ने अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त कर खरतरगच्छीय यति श्री सागरचन्दजी से व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि लौकिक विषयों का अध्ययन वि.सं. 1906 से 1909 तक पूरा किया। 'श्रीराजेन्द्रसूरि का रास' के अनुसार आपने ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन जोधपुर (राजस्थान) के श्री चंद्रवाणी के सान्निध्यमें रहकर किया था। आपने वि.सं. 1910 से 1913 तक श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरि से जैनागमों का विशद अध्ययन किया। वि.सं. 1909 से वैशाख सुदि तृतीया को उदयपुर (राजस्थान ) में श्रीमद्विजय प्रमोदसूरिजीने आपको बडी दीक्षा दी एवं उसी समय श्रीमद्विजय प्रमोदसूरि एवं श्री देवेन्द्र सूरि ने आपको 'पंन्यास' पदवी प्रदान की। 12. अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् आपने वि.सं. 1914 से 1921 तक धीरविजय आदि 51 यतियों का अध्यापन किया। श्री धीरविजय (श्री धरणेन्द्र सूरि )ने विद्यागुरु के सम्मान स्वरुप आपको 'दफ्तरी' विरुद प्रदान किया। 13. वि.सं. 1920 में चैत्र सुदि त्रयोदशी (महावीर जन्म कल्याणक) के दिन राणकपुर तीर्थ में आपने 'क्रियोद्धार' करने का अभिग्रह किया, और वि.सं. 1922 में प्रथमबार स्वतंत्र रूप से चातुर्मास किया। 10. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [442]... सप्तम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन वि.सं. 1923 में श्री धरणेन्द्रसूरि के साथ चातुर्मास में यतियों द्वारा इत्र आदि पदार्थों के उपयोग के विषय में मतभेद विवाद के रुप में परिवर्तित हो गया और क्रियोद्धार का बीज और अधिक पुष्ट हो गया। और विवाद के कारण आपने चातुर्मास स्थल घाणेराव से आहोर (राजस्थान) आकर अपने गुरु श्री प्रमोदसूरि से सम्पर्क किया । यही सम्पर्क आचार्यपद का प्रमुख कारण बन गया । श्रीराजेन्द्रगुणमंजरी आदि के अनुसार वि.सं. 1924 में वैशाख सुदि पञ्चमी, बुधवार को आपके गुरु श्री प्रमोदसूरिने आपको विधिवत् आचार्य पद प्रदान किया और 'आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि' नामकरण किया । आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिने वि.सं. 1925 में अषाढ वदि दशमी (दि. 15-6-1868) के दिन क्रियोद्धार कर शुद्ध साधु जीवन अंगीकार किया और पूर्व में प्रचलित छडी, चामर, पालखी आदि परिग्रह श्री संघ जावरा को सौंप दिया । आपके गच्छ का नाम 'श्रीसौधर्म बृहत्तपागच्छ' है। इसमें प्रयुक्त 'तपा' शब्द 'श्रीसौधर्म वडगच्छ' के आचार्य श्री मणिरत्न सूरि के शिष्य जगचन्द्रसूरि द्वारा यावज्जीव आचरित आयम्बिल तप से प्रभावित होकर मेवाड नरेश श्री झैलसिंह द्वारा वि.सं. 1285 में प्रदत 'तपा' विरुद का प्रतिनिधि है। संस्कृत के 'तपस्' शब्द के साथ इस गच्छ का नाम 'श्रीसौधर्म बृहत्तपोगच्छ' भी है। आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि ने वि.सं. 1925 में क्रियोद्धार के समय अपने गच्छ का नाम 'श्रीसौधर्म बृहत्तपागच्छ' रखा था। आपके शिष्यों में श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरि एवं मुनि श्री प्रमोदरुचिजी - ये दो उपसम्पत् शिष्य और श्री मोहनविजयजी आदि 21 हस्तदीक्षित शिष्य थे । 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 29. आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि द्वारा विरचित 'श्री अभिधान राजेन्द्र कोश' अप्रतिम और कालजयी रचना है। वर्गीकरण की दृष्टि से अभिधान राजेन्द्र प्राकृत भाषा का कोश है। इसकी रचना जिज्ञासुओं के हितार्थ एवं आगमों की रक्षा के लिए की गयी थी । अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना का श्रीगणेश वि.सं. 1946 में आश्विन शुक्ला द्वितीया के दिन सियाणा (राजस्थान) में हुआ और 13 वर्ष, 6 माह और 3 दिन में वि.सं. 1960 में चैत्र शुक्लात्रयोदशी, बुधवार के दिन सूरत में पूर्णता को प्राप्त हुआ । 30. उपोद्धात का यह कथन कि अभिधान राजेन्द्र की रचना 22 वर्षो में पूरी हुई, प्राकृत कोश ( पाइयसद्दम्बुहि) के प्रथम उपक्रम सं. 1940 से अभिधान राजेन्द्र की प्राकृतविवृत्ति (परिशिष्ट) लेखन वर्ष 1961 तक गणना करने पर ही सत्य सिद्ध होता है। अभिदान राजेन्द्र कोश में छोटे-बड़े 60000 शब्द, सहस्राधिक सूक्तियाँ, 500 से अधिक कथोपकथाएँ, एवं साढे चार लाख श्लोक संग्रहीत हैं। 31. 32. आपने गुजरात, महाराष्ट्र, मालवा मेवाड, मारवाड, बीकानेर, निमाड, खानदेश आदि के विशाल भूभाग में यात्राएँ कीं और धर्मोपदेश किया। आपने मानवमात्र के कल्याण के लिए शाकाहार का प्रचार किया और पशुहिंसा को रोक कर जीवमात्र को अभय प्रदान किया। आपने अपने आचार्यत्व काल में 3135 जिनप्रतिमाओं की अञ्जनशलाका - प्रतिष्ठाएँ करायी, जालोर, कोरा, भांडवपुर एवं तालनपुर तीर्थो का जीर्णोद्धार कराया; एवं श्री मोहनखेडा तीर्थ की नवीन स्थापना भी करायी । आप उग्र तपस्वी, अप्रतिम दार्शनिक एवं प्रखर वादी थे। आपका ज्योतिषज्ञान एवं निमित्तज्ञान अद्वितीय था। आपने वि.सं. 1956 के छप्पनिया अकाल की भविष्यवाणी एक वर्ष पूर्व वि.सं. 1955 में ही कर दी थी। आपको अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थी, जैसे कि श्री मोहन विजयजी के बाल्यकाल में उनके मूकत्वदोष और सन्धिवात दोष को दूर करने के कथानक से प्रमाणित है। इसके साथ ही आपको तन्त्रविद्या पर भी अधिकार था । वि.सं. 1919 में मुनि अवस्था में आपने अपने गुरु की आज्ञा से विशालकाय पुरुष एवं अनेक चमत्कारी दृश्य प्रगट किये और एक ऐन्द्रजालिक के मिथ्याभिमान को दूर किया । इस प्रकार के अनेक कथानक प्राप्त होते हैं जिनसे आपका तन्त्रविद् होना सिद्ध होता है । 33. आप आशुकवि थे साथ ही साहित्यसर्जक शब्दर्षि भी थे। आपकी प्रथम रचना 'करणकामधेनुसारणी' (वि.सं. 1905 ) है और अन्तिम रचना 'कमलप्रभा शुद्धरहस्य' (वि.सं. 1963) है। आपने अपने जीवन में 67 रचनाएँ साहित्य जगत् को प्रदान कीं इनमें से 19 रचनाएँ अभी भी अमुद्रित अवस्था में है। इसके अतिरिक्त ' त्रैलोक्यदीपिका यन्त्रावली' और 'सिद्धान्तसार सागर' - ये दो रचनाएँ भी आपके नाम से जानी जाती हैं। आप मुनिजीवन की कठोर तपश्चर्या के साथ वि.सं. 1963 तक सतत साहित्यसर्जन करते रहे और इसी वर्ष राजगढ (म.प्र.) में पौष सुदि षष्ठी, गुरुवार को रात्रि आठ बजकर आठ मिनिट पर स्वर्गलोक प्रयाण मारकर गये। ईस्वी सन् के अनुसार वह 2 दिसम्बर 1906 था । राजगढ (जिलधार) वर्तमान मध्यप्रदेश में आचार्यश्री द्वारा समाधिलीन होने के स्थल पर कलात्मक छतरी का निर्माण कर भक्तजनों ने आचार्यश्री के चरणयुगल प्रतिष्ठित किये हैं जो अब भव्य मन्दिर का रुप लेने जा रहा है। आपके पार्थिव शरीर का अन्तिम संस्कार स्वर्गारोहण के दूसरे दिन (रात्रि में स्वर्गलोकगमन होने के कारण) पौष सुदि सप्तमी, शुक्रवार को मोहनखेडा तीर्थ में किया गया। अन्तिमसंस्कार स्थल पर आज भव्य गुरुमन्दिर खड़ा है जिसमें आचार्यश्री की मूर्ति प्रतिष्ठित है। अभिधान राजेन्द्र कोश अकारादि क्रम से प्राकृत शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करनेवाला विश्वकोश है। इसमें शब्द की व्याकरणिक कोटियों का भी विश्लेषण किया गया है। अभिधान राजेन्द्र कोश की योजना सात भागों में निबद्ध करने की थी जैसा कि प्रत्येक भाग के मंगलाचरण और पुष्पिका से स्पष्ट है। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सप्तम परिच्छेद... [443] 34. अभिधान राजेन्द्र कोश की मूल विषयवस्तु 9232 पृष्ठों में मुद्रित है। इसके प्रस्तावना आदि की विषयवस्तु 241 पृष्ठों में है। इस प्रकार मुद्रित पृष्ठों की संख्या 9473 है। 35. इस कोश का प्रचलित नाम 'अभिधान राजेन्द्र कोश', संक्षिप्त नाम अभिधान राजेन्द्र/राजेन्द्र कोश, और पूरा नाम 'श्री अभिधान राजेन्द्र प्राकृत महाकोश' है। अभिधान राजेन्द्र कोश के पुष्पिका वचन संशोधकद्वय द्वारा लिखे गये हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश प्रथम भाग के परिशिष्ट क्र. 1, 2 एवं 3 प्राकृतव्याकरण सम्बन्धी सिद्धान्त एवं रुपावली दी गयी है। अभिधान राजेन्द्र कोश का प्रथम मुद्रण वि.सं. 1981 के चैत्र कृष्ण सप्तमी को हुआ। और द्वितीय मुद्रण का लोकार्पण श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि की निश्रा में वि.सं. 2044 अषाढ सुदि द्वितीया, रविवार को हुआ। अभिधान राजेन्द्र में साहित्य, व्याकरण, संस्कृति,, राजनीति, धर्म, दर्शन, आदि अनेक विषयों से सम्बन्धित शब्दों पर निबन्धात्मक सामग्री उपलब्ध है। 40. अभिधान राजेन्द्र में 'जैन आचार' को 'लोकोत्तर धर्म' नाम से अभिहित करते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र के समुदित स्वरुप को धर्म के रुप में प्रतिपादित किया गया है। 41. जैन धर्म का लक्ष्य 'मोक्ष' (दुःखो से आत्यन्तिक निवृत्ति) है। इसमें जीव का पूर्ण स्वरुप प्रगट होता है, संसार का उच्छेद होता है और कर्मों के आवरण से मुक्ति होती है। जैनधर्म मे यथाख्यात चारित्र सर्वोपरि माना गया है। जैनधर्म का 'सम्यक्चारित्र' अविनाशिता का सिद्धांत, नश्वरता का सिद्धान्त, स्वतत्रंता का सिद्धान्त बन्ध का सिद्धान्त, कर्म सिद्धान्त, जीव का उपयोग स्वभाव, मोक्ष की सादि अनन्तता, अहिंसा, वीतरागता (राग-द्वेष का अभाव) आदि अनेक अधिकरण सिद्धान्तों को जन्म देता है। 44. सम्यक् चारित्र से जीव का विकास होता है जो 14 गुण स्थानों में पूर्ण हो जाता है। इन गुणस्थानक नामक विकास की अवस्थाओं में कषायों की क्रमशः हानि होकर जीव नि:कषायत्व को प्राप्त होता है। 45. योगवासिष्ठ में भी गुणस्थानकों के समान 'बीजजागृत' आदि 14 विकास भूमियों को स्वीकार किया गया है। 46. चारित्र साधकों के प्रथम वर्ग 'श्रमण' और 'साधु' नाम से जाना जाता है। ये साधु तीन प्रकार के होते हैं - आचार्य, उपाध्याय और साधु । 47. निर्ग्रन्थ श्रमण अष्टादश आचार स्थाननों के अनुसार आचरण करता है। 48. निर्ग्रन्थ श्रमण 16 उद्गम दोषों, 16 उत्पादना दोषो एवं 10 दायक दोषों से रहित आहार ग्रहण करता है। 49. आहार विधि में आहारोपयोग (अभ्यवहरण) के समय भी श्रमण को ग्रासैषणा के दोषों का परिहार करना आवश्यक है। श्रमण को अपने जीवन में छह आवश्यक कर्म अनिवार्यतः करणीय होते हैं। इन्हें षडावश्यक नाम से जाना जाता है। चातुर्मास (वर्षाकाल) के अतिरिक्त समय में श्रमण को निरन्तर विहार करते रहने का विधान है; निर्ग्रन्थ श्रमण मठ आदि बनाकर नहीं रह सकता। निषेधात्मक आचार में निर्ग्रन्थ को पाँच पापों से सर्वथा विरत रहने के लिए पाँच महाव्रतों का पालन आवश्यक है। इनकी पुष्टि में रात्रिभोजनत्याग नामक व्रत को भी उपचार से षष्ठ महाव्रत कहा गया है। संयम की रक्षा के निमित्त ओधोपधि संज्ञक 14 उपकरण और औपग्रहिक उपधि संज्ञक 25 उपकरण रखने का विधान श्रमण के लिए मान्य किया गया है। श्रमण के लिए पञ्चाचार का पालन आवश्यक है। यह चारित्र का विधिपरक स्वरुप है। चारित्र की रक्षा के लिए अष्ट प्रवचनमाताओं का उपदेश किया गया है; पाँच समितियाँ एवं तीन गुप्तियाँ मिलाकर आठ प्रवचनमाताएँ हैं। क्षमा आदि दस यतिधर्म मनोभावनाओं पर संयम करने के लिए एवं आत्मस्वरुप में स्थिरता के लिए बताये गये हैं। स्वभावबल प्रवृत क्षुधा आदि, प्रकृतिकृत शीत-उष्ण आदि, लोककृत स्त्री, चर्या, आदि से होनेवाली व्यथा से श्रमण को अविचलित रहने के लिए 22 परिषहों पर विजय पाने का उपदेश किया गया है। श्रमण जीवन में 'कल्प' संज्ञक दश आचारों का विधिपरक पालन करना आवश्यक है। 58. विशेष साधना काल में श्रमण को द्वादश भिक्षु प्रतिमाओं के आचरण का उपदेश किया गया है। 59. वैराग्य भावना को निरन्तर वर्धनशील रखने के लिए द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करने का विधान किया गया है। शुभ भावनाओं के विपरीत 26 अशुभ भावनाएँ होती हैं जिनका स्वरुप जानकर उनसे दूर रहने का उपदेश किया गया है। 61. श्रमणजीवन तपस्या प्रधान है। प्रत्येक श्रमण को शक्ति के अनुसार अनशन आदि छह बाह्यतपों का एवं प्रायश्चित आदि छह आभ्यन्तर तपों का आचरण निरन्तर करते रहना चाहिए। अन्त:करणोन्मुखं वृत्ति के साथ धर्मध्यान और शुक्लध्यान में अवस्थित रहने का अभ्यास करना श्रमण जीवन की सार्थकता है। वर्तमान में संहनन के अभाव में शुक्लध्यान नहीं होता। जैनाचार का आंशिक पालन करनेवाले जीव को श्रावक वर्ग में रखा गया है। श्रावक गृहस्थ होता हुआ भी धर्म के पालन का निरन्तर अभ्यास करता है। श्रमण और श्रावक के आचार में पर्याप्त अन्तर एवं स्थूलता है। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [444]... सप्तम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 64. आदिधार्मिक एवं मार्गानुसारी - ये गृहस्थों के दो मुख्य वर्ग हैं जो धर्माभिमुख होते हैं। श्रावक के लिए जिन पूजा आदि षडावश्यक कार्य नित्य करते रहने का विधान है। इनके साथ ही 35 अन्य कर्तव्य हैं। इस प्रकार श्रावक के 36 कर्तव्य बताये गये हैं। श्रावकों को जिनमंदिर में 84 आशातनाओं (धर्मच्छेदक 84 दोष) से निरन्तर बचना चाहिए। साधुओं के लिए उपदिष्ट व्रतों का स्थूल रुप अर्थात् पञ्चाणुव्रत का पालन प्रत्येक श्रावक के लिए अनिवार्य है। साथ ही महाव्रतों के अभ्यास के लिए शिक्षाव्रतों एवं गुणव्रतों का भी उपदेश किया गया है। भोगोपभोग परिमाण व्रत में 22 अभक्ष्य एवं 32 अनन्तकाय का अभ्यवहरण निषिद्ध है। मद्य, मांस, मधु, पंचोदुम्बर फल एवं रात्रिभोजनइनका त्याग जैननामधारी के लिए भी आवश्यक बताया गया है। श्रमणाचार के अभ्यास के लिए श्रावक को सचित परिमाण आदि 14 नियम बताये गये हैं। आजीविका के साधनों में 15 कर्मादानों के त्याग का उपदेश श्रावक को करना चाहिए। श्रावक की उच्च अवस्था प्राप्त करने के लिए 11 उपासक प्रतिमाएं बतायी गयी हैं जो श्रावक की साधक अवस्था से आरम्भ होकर मुनिजीवन के आरम्भिक स्वरुप तक के आचरण के आधार पर कही गयी है। एकादश उपासक प्रतिमाओं का सम्यग् आचरण करते हुए श्रावक मुनिदीक्षा की योग्यता प्राप्त कर लेता है। 'आचार' शब्द के वाच्यार्थ के विस्तार में मुनिओं का आचार एवं श्रावकों का आचार समाहित है। आचार शब्द के वाच्यार्थ में जो भेद है वह श्वेताम्बर परम्परा, दिगम्बर परम्परा, ब्राह्मण परम्परा, आदि में मान्य सिद्धान्तभेद के कारण जैन, बौद्ध, ब्राह्मण आदि परम्पराओं में स्वीकृत अहिंसा एक सार्वभौम धर्म है। अन्य सब आचार अहिंसा पालन का ही विस्तार है। जैन सिद्धान्तों को पुष्ट करनेवाली अनेक कथाओं एवं उपकथाओं का समावेश श्री अभिधान राजेन्द्र कोश में यथास्थान किया गया है। इनमें से 358 कथाएँ जैनाचार से सम्बन्धित है। 77. जैनाचार को पुष्ट करनेवाली 149 सुक्तियाँ अभिधान राजेन्द्र कोश में समाविष्ट है। 78. सारांश के रुप में यह कहा जा सकता है कि जैनाचार विधि-निषेधपरक व्यवहार का वह स्वरुप है जिससे मानव अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सिद्धावस्था प्राप्त कर सकता है जो अवस्था चरम है इसके बाद कोई अन्य विकारी अवस्था नहीं होती। इस शोध प्रबन्ध के चार लक्ष्य निर्धारित किये गये थे। इनमें प्रथम लक्ष्य था जैन परम्परा की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का एकत्र संकलन एवं वर्गीकरण करना, इस लक्ष्य का साफल्य समग्र शोधप्रबन्ध का अवलोकन करने से ज्ञात होता है। शब्दावली में संग्रहीत शब्दों की यथास्थान निरुक्ति, व्युत्पत्ति एवं शास्त्रलभ्य अर्थ स्पष्ट करने से 'शब्दावली का व्यत्पत्ति एवं निरुक्तिमूलक अर्थ प्रस्तुत करना' नामक दूसरा लक्ष्य भी प्राप्त कर लिया गया है। जैनाचार में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ की तुलना में जैन साहित्य-एवं अन्य कोशग्रन्थों में वर्णित अर्थ को प्रस्तुत करते हुए समीक्षा करने से 'शब्दावली के बारे में अन्य कोश ग्रन्थों एवं जैन साहित्य में दिये अर्थो का तुलनात्मक स्वरुप एवं समीक्षा प्रस्तुत करना' -नामक तीसरा लक्ष्य भी प्राप्त कर लिया गया है। और, आचारपरक शब्दावली के वाच्यार्थ का विस्तार नामक पञ्चम परिच्छेद में 'जैन परम्परा के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में आचार की सूक्ष्म भिन्नता को रेखांकित करना' - नामक अन्तिम लक्ष्य भी पूरा हो गया है। इस प्रकार निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि शोधप्रबन्ध का लेखन सार्थक और सफल रहा है। माद से या अज्ञान से, टंकण की त्रुटि से या प्रस्तुति के स्वरुप दोष से शोध प्रबन्ध में दोष भी हो सकते हैं किन्तु नम्र निवेदन है कि विद्वज्जन त्रुटियों को सुधार कर इसका अवलोकन करेंगें। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1. अभिधान राजेन्द्र कोश मुद्रित प्रति का प्रथम पृष्ठ एवं अंतिम पृष्ठ 2. त्रिस्तुतिक सिद्धांतोपदेश : शास्त्रीय प्रमाण 3. सहायक सन्दर्भग्रन्थ सूची Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्री अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग-१ प्रथम पृष्ठ * महम् - अभिधानराजेन्दः। जयति सिरिवीरवाणी, वुह विवुहनमंसिया या सा । वत्तव्वयं से बेमि, समासयो धक्खरकमसो ॥१॥ - :00 :0 प्रकार मनगर-अजगर-मुं० प्रजंगगं गिरति गिमति गृ-भर । वृहस्स, । प्रजगरमगस्त्यशापात वृहत्सर्पजावापन नहुपमधिकृत्य कृतो प्रत्यःमण-आजगरम । मजगरकथायाम, नावाच. भावालग-अजापालक-पुं०६ तागगरकके, प्रजारकणप्रवृत्ते अश्यते, पाचकभेदे च । पू. ३३०। (तकृतं कियकम्म श). प्रा-मयि-भव्य सम्नावने, मा संभावने । । संता बने प्रति प्रयोक्तव्यम्। "अदिभर !किन पेच्चसि,"अपि अ-भ-पुं० स्वरसंझकेकए स्थानीय स्वनामख्याते चणे,पका देवर ! किन प्रेकसे प्रा०॥ भईति, भाचारेण तस्य प्रणात् सिके । प्रशरोरेति सि. । गम्-धा० सक. पर चा० गती, गमेह ति।४।६।। स्वावस्यापाहरेण तदोधात् । गा० । प्रधति रकति प्रति इति सूत्रेण गमे भाभादेशः प्रश-गति प्रा। सातस्येन तिष्ठतीति वा भव-मत-धा-म-विष्णौ, "भकारो विष्णु प्रति-सम्प० भव-इ-पूजायाम, उत्कर्षे, अतिक्रमणे, वि. गरि"वाचा शिवे, प्रमणि, बायौ, अन्के,मग्री, पानी, कम कमे, अबुक, भृशे, "विक्रमातिक्रमाबुदिशातिशयम्वतीके, मसापुरे, भूषणे, धरणे, कारणे, रणे, प्रजिने, गौर,एकाग | ति" गणरलम् । तत्र विक्रमे अतिरयः । प्रतिकमे मतिप्र-पम्प अब प्राणनादौ, र स्वरादिस्वादम्ययत्वम् मभावे, मतिः अधुको प्रतिगहनम् । बुहेरविषयः । भूदो पतितप्तम । बाबा प्रतिषेधे, "प्रमानोमा प्रतिषेधे" मा० महिला भतिशये प्रतिवेगः बाबा"अति सर्वत्र वर्जयेव" पतः “माबामनोदाहरणम,"नियरिसणं ममो"भकारस्य सन्नाव रोसो भरतोसो, महासो सुजणेहि संचासो । अश्वजमो य प्रतिषेधे निदर्शनं यथा अघटोध्यमिति नघटो घटम्यतिरिकः पटा घेसो, पंच वि गुरुमं पिमहुरि".१ अपिल दिक पदार्थ इत्यर्थः । १० । “भनावे नमनोनः" इत्यम-म[दि] इ-[ति] इ-अदिति-श्री. नदीयते सपते बहरोकायां नमादेशोऽयमित्युक्तम् । स प प्रादेशः नखनमुन्या- स्वाद-दो-किच् न० त० दातुं तुमयोम्पायर्या पृथिव्याम, वितिदिनिशमपटके सत्तरपदस्थे हमादी शम्दे परे भवति । स दनुजमाता । विरोधार्थे, म० त० । देवमातरि, सावरकस्य तुममय एष स्थानितुल्यार्थत्वादादेशस्य । पाचगस्वल्पेऽथे, मुता पाया पुनर्वसुनकरस्याधिपतिदेवता ज्यो०१ पाए। मनुकम्पायर्या, सम्बोधने, म मनन्त ! धिक्केपे,म पचास त्वं जा-| "पुणम्बस मा देवयाए परणते" स०प्र०१०पादु०॥०॥ बम ! उपसर्गस्वरविज्ञक्तिप्रतिरूपकाति" स्वरादिगणसूत्रे म "दो प्रश" पुनर्वस्वोदित्याददितिद्वित्वम् । स्था० २ ग. पति सिम्तकौमुद्यामुदाहतं मनोरमायां च म संबोधने, अधि- प्राइउकस-प्रत्युत्कर्ष-त्रि० उत्कर्षमतिकान्तः उत्कर्षरहिते, कैपे, निषेधे चेति व्यायातम् । पाच । "अपचिममारणंति- "तबस्सी मकसो" तपस्वी साधुः प्रत्युत्कर्षः अहं तपस्थीपसलेहणालोसणा" भत्र अपश्चिमाः पश्चात्कालभाषिभ्यः । स्युत्कर्षरहितः । दश ५ म०॥ भकारस्थमजमपरिहारार्थ इति । स० प्रउम्भट-अत्युचट-त्रि० प्रतिशयितचेतममकतिरुति, "भ. च-प्रभ्य कगचजतापयां प्रयो लुक, ।१।७७ । इति उम्भडो भवेसो".२अधि.॥ सूण बसोपः। म चाऽनादेव सचिवादेरपि विधानात् । मस्त-प्रतियत-त्रि० प्रविशति, नि० शु. १६००। "पढमं सोम-सबमा । भर्थस्तु चशमे।। असनं मुडेणं प्रत पास" कल्प. . अभ-प्रज-मजायते जन-म-म० त० ईश्वरे, जीये, प्राणि, प्रदिय-अतीन्द्रिय- त्रिपतिकान्तमिन्द्रियं तदवि. विष्णौ, हरे, छागे, मेवरूपे प्रथमे राशी, माक्षिकपातीचाजन- पयत्वात प्रत्या. स. पाच । इन्ध्यिबानाभाम्ये, प्रए । मान्ये गगनादौ, त्रि०ा भान विष्णोर्जायते इति । चन्छे, कामे, प्रतीन्छिया अर्था प्रागमेन उपपत्त्या व कायन्ते न केवलया यु. दशरथपितरिघुनुपपुरे रामचन्मस्य पितामहे सूर्यवंश्ये मृप- तथा तमुक्तम् । "भागमचोपपशिध, संपूर्ण राधिकारणम् । भ. ! भेदे, पाच मारने 'प्रजातेः पुंसः ॥३॥ ३२ इति जातिपयु- तीन्द्रियाणामानां, सद्भावप्रतिपसये" |विदोगदर्श। दासामजीविकल्पः प्रा०।मेषचाम, गा। कर्म । अनु० । कथन युत्येति चेत् ॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) | श्री अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग-७ अंतिम पृष्ठ ५ अभिधानराजेन्द्रः। अस्मत्पप्रभावी धन विजयमुनिर्वादिवृन्दप्रजेता, श्रीलोपाध्यायवर्यः प्रतिसमयमदाद् रिसाहाय्यमेषः । कोशाब्धेरस्य सृष्टौ सकलजनपदश्लाघनीयत्वक्षिप्तोः, सद्विद्वन्मानसाब्जे दिनकरसमतां यास्यमानस्य लोके ॥ ए॥ धन्वन्यनृत्तयुगीझपृथ्वी-वर्षे सियाणानगरेऽस्य सृष्टिः । पूर्णोऽभवत् सूर्यपुरे यविघ्नं, शून्यौॉनिध्येक मिते सुवर्षे ॥ १० ॥ तावन्महान प्राकृतकोश एष, यावत् क्षितो मेरुरवीन्दवः स्युः । सज्जैनजेनेतरविज्ञवर्ग-मानन्दयेत को कमियोप्यरश्मिः ॥ १५॥ . 4444444444444444444444444444444444444444 ไม่ได้น่าจะอร่อยอย่างไร มองยนห้องนอนขนมองอะจะอะไรน้องมองอย่ามองใจ काकाकाकाकाको HeamragyemovesaHIRAHATANA NCrewwwnayanayayawat इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकरूपश्रीमानटारक जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १००८ श्री मद्विजयगजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'श्रीश्रनिधानराजेन्छप्राकृतमहाकोशे' हकारादिशब्दसङ्कासनं समाप्तम्। तत्समाप्तौ च समाप्तश्चायं ग्रन्थ :। aasaradaaaaaand9865588888888888888888888888280342HBasatta 在长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长 mpprnoostgomgangggger Tangtanganagapamparpoornamenance * * V7TVVVPTVVTTTTTT VANAYAATHAVAN Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिशिष्ट... [1] परिशिष्ट क्र.2 त्रिस्तुतिक सिद्धांतोपदेश : शास्त्रीय प्रमाण 1. 'वंदन' शब्द स्तुति और नमस्कार दोनों का बोधक है, इसलिये देव-देवियों को वंदन करना श्रमणों के लिए अनुचित हैं। अकारण उनसे सहायता, प्रार्थना-याचना करना भी अनुचित है। क्योंकि अवती देव-देवियों को वंदन करना-आगम विरुद्ध है।' 1. (क) वंदण-वन्दन-न. । वाचा स्तुतौ । - ज्ञाताधर्मकथांग-1/1 विधिना कायवाङ्मनः प्रणिधनि -प्रवचनसारोद्धार-1 शिरसाऽभिवादने-धर्मरत्न प्रकरण द्वितीय अधिकार अभिवादनस्तुत्यों इति । कायेनाभिवादने, वाचा स्तवने ___ - आवश्यक चूर्णि-1अ.. द्वादशावर्त्तदिना - स्थानांग-4/1, वन्द्यते स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापारजालेनेति वन्दनम् । ___-आवश्यक वृहवृत्ति-5 अ; 5 अ। - उद्धृत अ.रा.पृ. 6/768 (ख)वंदन - अभइवादनं प्रशस्तकायवाङ्मनः प्रवृत्तिरित्यार्थं । - ललित विस्तरा पृ. 262 (ग) आवश्यक दीपिका में भी यही अर्थ है। - धरती के फूल पृ. 178 (घ) भगवती सूत्रना प्रवचनों - प्रवचन -4 पृ. 72 (ड) ललितविस्तरा पृ. 361 (च) असंजयं न वन्दिज्जा मायरं पियरं गुरुं। सेणावई पसत्थारं, रायाणं देवयाणी य ॥ 1105 ।। - पट्टावली पराग संग्रह - पं. कल्याण विजयजी पृ. 515 (छ) असहिज्ज देवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिस-गस्लगंधव्वमहोरगादिएहिं देवगणेहिणिग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जा। - भगवती सूत्र : द्वितीय शतक - पञ्चम उद्देश (ज) असहिज्जेति अविद्यमानं साहाय्यं परसाहायकम्, अत्यन्त-समर्थत्वात् येषान्ते,असाहाय्यास्ते च ते देवादयश्चेति कर्मधारयः अथवा व्यस्तमेवेदम् तेन असहाय्या आपद्यपि देवादिसाहायकानपेक्षाः, स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्यदीनमनोवृत्तय इत्यर्थः । अथवा पाखण्डिभिः प्रारब्धाः सम्यकत्वा-विचलनं प्रति न परसाहायकमपेक्षन्ते, स्वयमेव तत्प्रतिघातसमर्थत्वात् जिनशासनात्यन्तभावितत्वाच्चेति । - नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरिकृत श्री भगवती सूत्र की टीका-2/5 For Private & Personal use only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2]... परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 2. चतुर्थ स्तुति में पापोपदेश, धन, पुत्र आदि पौद्गलिक सुख प्राप्ति की प्रार्थना होने से वह भावानुष्ठान सामायिक, प्रतिक्रमण आदि में त्याज्य है अतः उनमें चौथी स्तुति ( थुई ) करने से जिनाज्ञाभङ्ग रुप दोष लगता है P 2 (a) "यक्ष सर्वानुभूतिर्दिशतु मम सदा सर्वकार्येषु सिद्धिम् " ॥ 8 ॥ तस्यास्तु (b) दोलत दायी अधिक सवाई, देवी दे ठकुराई । श्री वीर विजय रचित पंचमी की स्तुति में। (c) शशी वयणी कमल विलोचना, चक्केसरी देवी विरोचना । रिसहेसर भक्ति विधायिका, वरदान देजो सुप्रभाविका ॥ स्तुति तरंगिणी प्र. भा. पृ. 10 (d) चैत्रीपूनम दिन देवी चक्केसरी, सौभाग्य दो सुखकंदजी । वही पृ. 11 (e) श्री अजितनाथ, संभवनाथ, शीतलनाथ, कुंथुनाथ एवं अरनाथ भगवान के जोडे की चतुर्थ स्तुतियाँ श्री यशोविजयगणिकृत ऐन्द्रस्तुतयः पृ. 330, 331, 336, 340, 341 (f) "विधिनोपयुक्तस्याशंसादोषरहितस्य, सम्यग्द्दष्टेर्भक्तिमत एवं सम्यक्करणं, नान्यस्य' - ललित विस्तरा पृ. 11 (g) अप्राप्तप्राप्ताभिलाषणे - आचारांग - 2/2 (h) ततोविधिसमासेवकः कल्याणमिव महदकल्याणं आसादयति । उक्तं च - " धर्मानुष्ठानवैतथ्यात्प्रत्यपायो महान् भवेत् । रौद्रदुःखौघजनको दुष्प्रयुक्ता दिवौषधात् ॥” - ललित विस्तरा पृ. 17 (i) स्तुति स्तोत्राणि जिनानां तु आप्तानामेव ॥ - पंचाशक सूत्र की टीका - ( धरती के फूल पृ. 172 से उद्धत ) (j) अधिगतगोधिका कनकस्कू तव गौर्युचिता - कमलराजि तामरसभास्यतु, लोपकृतम् । मृगमदपत्रङ्गातिलकैर्वदनं दधती कमलकरा जितामरसभाऽस्यतु लोपकृतम् ॥ 80 ॥ 20 ॥ - श्री शोभनमुनिकृत श्री मुनिसुव्रत जिनके जोडे में गौरी देवीकी स्तुति - पृ. 244 (k) विपक्षव्यूहं वो दलयतु गदाक्षावलिधराऽसमा नालीकालीविशदचलना नालीकवरम् । समध्यासीजाऽम्भोभृतधननिभाऽम्भोधितनया-समानाली काली विशदचलनानालिकवरम् ॥8॥29॥ -वही श्री नमिनाथजिन के जोडेमें काली देवी की स्तुति पृ. 253 (1) हस्तालम्बितचूतलुम्बिलतिका यस्या जनोऽभ्यागमद् विश्वासेवितताम्रपाद परतां वाचा रिपुत्रासकृत् । भूर्ति वितनोतु नोऽर्जुनर्सचः सिंहेऽधिस्ढोल्लसद् विश्वासे वितताम्रपादापरताऽम्बा चारिपुत्राऽसकृत् ॥88122 ॥ -वही श्री नेमिनाथजिन के जोडेमें अम्बा देवी की स्तुति पृ. 264 - (m) याता या तारतेजाः सदसि सदसिभूत् कालकान्तालकान्तापारंपारिन्द्रराजं सुखसुखधूपूजिताडरं जितारम् । सा त्रासात् त्रायतां त्वामविषमविषभृद् भूषणाऽभीषणाभीनाना पत्नी कुवलयवलयश्यामदेहाऽमदेहा 11211231 - वही श्री पार्श्वनाथजिन स्तुतिके जोड़े में वैरोट्या देवी की स्तुति पृ. 276 - श्री शोभनमुनिकृत स्तुति चतुर्विशतिका (सचित्र) प्रकाशक - शाह वेणीचन्द्र सूरचन्द्र द्वारा श्री आगमोदयसमिति: । मुद्रक - मुंबई वैभव प्रेस मुंबई, वि.सं. 1982 प्रति 1250 - - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिशिष्ट... [3] 3. जैनागम पंचागी के अनुसार तीन स्तुति प्राचीन है, और प्राचीन काल में शुद्धाचरण से तीन स्तुति प्रचलित थी, इसलिए तीन स्तुति करना उचित है। 3. (क)नौ अंग सूत्रों के टीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरिने पंचाशक की टीका में लिखा है-"सम्पूर्णा - परिपूर्णा सा च प्रसिद्धदण्डकैः पंचभिः स्तुतित्रयेण प्रणिधानपाठेन च भवति, चतुर्थ स्तुतिः किलार्वाचीनेति ।" - यह लिखकर चौथी स्तुति को नवीन घोषित किया है । (ये आचार्य वि.सं. 1135 या 1139 में स्वर्गगत् हुए है। - पट्टावली समुच्चय पृ. 54 धरती के फूल पृ. 167) - तृतीय पञ्चाशक की टीका पृ. 53 (ख) व्यवहार भाष्ये स्तुतित्रयस्य कथनात् चतुर्थस्तुतिः अर्वाचीना इति गूढामभिसन्धि ?किंच नायं गूढाभि-सन्धिः किन्तु स्तुतित्रयमेव प्राचीनं प्रकटमेव भाष्ये प्रतीयते । कथमिति ? चेत् द्वितीय भेद व्याख्यानावसरे "निस्सकडं" इति भाष्य गाथायां 'चेइये सव्वेहिं थुइ तिण्णी"इति स्तुतित्रयस्यैव ग्रहणात् । एवं भाष्यद्वय-पर्यालोचनया स्तुतित्रयस्यैव प्राचीनत्वम् । तुरीयस्तुतेराचीनत्वमिति । - शुद्ध देव-गुरु-धर्मनी सेवा उपासना विधि पृ. 33 - पंचाशक टीका के टिप्पणीकार द्वारा लिखित एवं सत्यसमर्थक प्रश्नोत्तरी पृ. 12, 13 से उद्वरित (ग) तिण्णि वा कड्ढइ जाव थुइओ तिसिलेगिया । ताव तत्थ अणुण्णायं, कारणेण परेण वि ॥ चैत्यवंदन महाभाष्य गा. 23 -श्री संघदास गणि क्षमाक्षमण रचित श्री व्यवहार सूत्र भाष्य पर विक्रम की 13 वीं शती के पूर्वार्धमें आ.मलयगिरिजीकृत टीका में "पणिहाणं मुत्तसुत्तिए" - वचन की टीका। (घ) निस्सकडमनिस्से वा, वि चेइए सव्वेहि थुई तिन्नि । वेलं च चेइयाणि य, नाउं एक्किक्किया वा वि 1808॥ - तपागच्छीय आचार्य श्री क्षेमकीर्तिसूरि (विक्रम की 18वीं शती) विरचित बृहत्कल्पभाष्य टीका - द्वि.वि.पृ. 531 (૩)વિદ્યાધર ગચ્છનાં શ્રી હરિભદ્રસૂરિ થયાં. તે જાતે બ્રાહ્મણ હતાં. તેમણે જૈન દીક્ષા ગ્રહણ કરી. યાકિની-સાધ્વીનાં ધર્મપુત્ર કહેવાતાં Sti. महा 1444 ग्रन्थो जनाव्या. श्री वीर नि पछी 1055 वर्षे स्वर्ग गयi. त्या२५छी यतुःस्तुतिमत याल्यो - १७मत भने संघ प्रगति पृ. 169-. श्री भुद्धिसागरसूरि (च) त्रिस्तुतीक सूत्र साक्षी गर्भित श्री शांतिजिन लावणी शातिनाथर्नु स्मरण करीने, कहुं पंचागी विस्तारी । सूत्र नियुक्ति भाष्यने चूर्णी, टीका जाणो हद भारी, पंचागी जो नही माने, ते मिथ्यात्वी निरधारी । तीन थुईना सूत्र बताउँ, जगमां वरते जयकारी ॥शांति ॥1 महानिशीथ में चारो सूत्र कहा है निहारी । आवश्यक की सर्वपंचागी, ओछे लेना संभारी व्यवहारभाष्य चर्णीने टीका, लघ ची लो सखकारी । बहत्कल्पनो भाष्य अगियारमो, विशेष ची टीकाकारी॥शांति ॥2 आवश्यक अवचूरी पंदरे, सोलमी दीपिका साधारी । उत्तराध्ययननी बे लघुवृत्ति, पाई अवचूरी लो धारी ग्रंथ वीस पंचागी केरा, प्रकरण दाखं हितकारी । अंगचूलिया वंदण पयन्ना, वर्धमान स्तुति देखारी ॥शांति ॥3 पूजा चैत्यवंदन पंचाशक, दोनों वृत्ति सहकारी । श्राद्धविधि टीकाने भाषा, सार्धशतक मूल भाषारी । प्रतिमाशतक वृद्ध आवश्यक, श्राद्धदिनकृत्य गाथारी । संदेहदोहावली हेतु आवश्यक, श्राद्धदिनकृत्य गाथारी ॥शांति ॥4 चौंतीश अधिका ग्रंथ सखाई, पोथी देखो पुरारी। जैन तत्त्वादशैं देखो, चारसे सत्तरे पृष्ठांरी। चैत्यवंदन ओ चैत्य होवे, पंचांगी छे उपकारी । आवश्यक विधि छत्तीसो ग्रंथे, भाखे जिनजी जयकारी ॥शांति ।। 5 श्रुतदेवी जिनवाणी वरते, करता वंदन गणधारी । भगवई निशीथसूत्रमा देखो,शंका करवा दो टारी । आवश्यकी दीपिका वरजे, देवी थुई छे शंकारी । 'सूरि राजेन्द्र' आप निरंजन, अन्य देव है अवतारी ॥शांति ॥6 (छ) अवस्सं काऊणं जिणोवइद्वं गुस्वएसेणं तिण्णि थुइ पडिलेहा कालस्स । इमा विहि तत्थ । - आवश्यक बृहद् वृत्ति, सिद्धांत प्रकाश पृ. 46 थी उद्धृत (ज) थयथुइमंगलेणं नाणदंसणगचरित्तबोहिलाभंजणइ,नाणदंसणचरित्तबोहिला भसंपण्णेणणंजीवे अंतकिरियंकप्पविमाणोववत्तिअं, वा आराहणं आराहेइ (उत्तरा-अ.29 ) इति वचनेनैव सिद्धा, अत्र स्तवः -स्तवनं, स्तुतिः-स्तुतित्रयं प्रसिद्धम्, ___-प्रतिमाशतक-काव्य-2 पर श्री यशोविजयजीकृत वृत्ति-पृ. 20 (झ) महानिशीथ सूत्र और श्री मार्नदेवसूरि रचित उपधान प्रकरण में तीन थुई के सूत्र कहे है, चतुर्थ स्तुति के नहीं । - चतुर्थस्तुति निर्णय शंकोद्धार - पृ. 158, 159, 160 (ञ) उत्कृष्टचैत्यवंदनविधावुत्तरोत्तरं स्तुतयः प्रायो वर्णोवृद्धा एव विधेया इति परंपरा वर्ततेऽनेन ढिः सत्यैवावसीयते परम्परामूलं तु नमोऽस्तु वद्धमानायेतस्याधिकारे "ताउअ थुइउ एगसिलोगादि वड्डन्ति आउ पयवरवरादिहि वा सरेण वा वड्ढतेण तिन्नि भाणिऊणामि"- त्याद्यावश्यकचूर्ण्यक्षर-दर्शनमिति संभाव्यत इति ॥2॥ -सेन प्रश्न -उद्धृत चतुर्थस्तुति निर्णय शंकोद्धार - पृ. 196 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4]... परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (ट) आयंमि चेइअहरं गंतूण चेइआई वंदिद्या, अजिअच्छय तिन्नि थुई परिहायंतिव्व कटुंति ॥ 28 ॥ -आवश्यक नियुक्ति (ठ) चेइयघस्वस्स एवा आगम्मुस्सग्गगुरु-समीवंमि अवहिविगिंचणियाए संतिनिमित्तं च थतोतच्छ ? परिहायमाणीयाउ तिन्निथुइ उवहंति-नियमेणं अजियसंतिच्छगमाइयाउकमसोतहिंनेउ। - बृहत्कल्पभाष्य (ड) साहुणो चेइयघरे वा उवस्सए वा ठियाहोद्या जइ चेइयघरे तो परिहायंतीहिं थुर्हि चेइयाई वंदित्ता आयरिय सगासे इरियावहि पडिक्कमिउं अविहि-परिठावणियाए काउसग्गं केति ताहे मंगलसंतिनिमित्तं इत्यादि। - बृहत्कल्पचूर्णि (ढ) तउ आगमस्स चेइयघरं गच्छंति चेइयाणं वंदित्ता संतिनिमित्तं अजिअसंतिथउ परिकड्विज्झइ तिन्नि थुइउ परिहायंतीउ कड्डिझंति तउ आगंतु अविहि परिठावणियाए काउसग्गं कीड़ ॥7॥ -विशेष आवश्यक चूर्णि (ण) ततो आगम्म चेइए गच्छंति चेइयाणि वंदित्ता संतिनिमित्तं अजियसंतिच्छउ परियदिज्झइ तिन्नि वा थुइउ परिहायंतीउ कड्डिद्यति । ___ -आवश्यक बृहद्वृत्ति-हरिभद्राचार्य (त) ततश्चैत्यगृहे आगत्य चैत्यानि वंदित्वा शांतिनिमित्तं शांतिस्तवं पठित्वा स्तुतिश्व हीयमाना भणित्वा? आचार्योंन्तिके आगत्य अविधिपारिष्टा-पानिकी कायोत्सर्ग कार्यः । ___ - आवश्यक लघुवृत्ति (थ) तत आगम्य चैत्यगृहे विपर्यस्तं देवा वंदित्वाचार्य-पार्श्वऽविधि पारिष्टापनिकायाः कायोत्सर्गः क्रियते ॥ ___ -आवश्यकाऽवचूरी (द) तत्रैव स्थंडिले क्रियमाणे उच्छानादयो दोषाः स्युः । ततो ग्राम मागम्य चैत्यं गत्वा नत्वा सान्त्यै तीर्थमजितशांतिस्तवो गुण्य तिन्नि वा थुइउ परिहायंतीउ कट्ठियति ततो गुस्पार्श्वमेत्याविधि परिस्थापनिकायाः कायोत्सर्गः कार्यः सप्तविंशतिः उच्छ्वासाः एष वृद्धसंप्रदाय: आचरणा पुनः उम्मच्छरयहरणेणं किर गमणागमणं आलोइधर ततो इरियावहिया पडिक्कमिधइतउवेइयाई वंदित्तेत्यादि। - आवश्यक दीपिका (ध) तत्रैव स्थंडिलोपांते कायोत्सग्गों न क्रियते उच्छानादिदोषसंभवात् तत आगम्य चैत्यगृहे विपर्यस्तं देवान्वंदित्वाचार्यपाइँऽविधिपारिष्टापानिकाया: कायोत्सर्गः क्रियते ।।26।। - ज्ञानसागरसूरिकृतावश्यकावचूरिः (वि.सं. 1940) (अन्यकृत गाथाओं की साक्षी भी है।) Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिशिष्ट... [5] 4. चैत्यवंदन के बाद शकस्तवादि प्रणिधान पाठ औरस्तुतित्रय कही जायँ अर्थात् चैत्यवंदन कहने के बाद शक्रस्तवादि प्रसिद्ध पाँच दण्डक, तीन स्तुतियाँ और प्रणिधान पाठ कहे जायँ तब तक जिनालयों में ठहरना चाहिए। किसी कार्य विशेष के लिए अधिक ठहरना पडे तो अनुचित नहीं है। 4. (क)तिण्णि वा कड्ढइ जाव, थुईओ तिसिलोगिया। ताव तत्थ अणुन्नायं, कारणेण परेण वि । श्रुतस्तवनन्तरंतिस्त्रः स्तुतिस्त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्रमाण । यावत् कुर्वते, तावते, ताक्तत्र चैत्यायतने स्थान-मनुज्ञातम् । कारणवशात् परेणाप्युपस्थानमनुज्ञातम् । - व्यवहार भाष्य पर श्री मलयगिरिकृत टीका में 'पणिहाण मुत्तसुत्तिए' वचन की टीका-सत्यसमर्थक प्रश्नोत्तरी पृ. 8 से उद्धृत (ख)निस्सकडमनिस्से वा, वि चेइए सव्वेहिं थुई तिन्नि । वेलं च चेइयाणिय, नाउं एक्किक्किया वा वि ॥1804 ॥ -बृहत्कल्पभाष्य टीका-श्री क्षेमकीर्तिसूरि-स्वोपज्ञ श्राद्धविधि प्रकरण टीका-श्री रत्नशेखर सूरि । (ग) "चैत्यवंदनान्ते शक्रस्तवाद्यनन्तरं तिस्त्रः स्तुतयःश्लोकत्रय-प्रमाणा: प्रणिधानार्थं यावत्कथ्यन्ते प्रतिक्रमणान्तरमंगलार्थ स्तुतित्रय पाठवत् तावच्चैत्यगृहे स्थानं साधूनामनुज्ञातं निष्कारणम् न परत ।" - चैत्यवंदन भाष्य - टीका - श्री धर्मघोषसूरि से उद्धत सत्य समर्थक प्रश्नोत्तरी पृ.9 () આગમમાં સાધુને ત્રણ થઈ વડે જે ચૈત્યવંદન કરવું કહેલ છે. કારણ કે વ્યવહાર ભાષ્યમાં કહ્યું છે કે સાધુ મલમલિન અને અસ્નાત હોવાથી ત્રણ શ્લોકવાળી ત્રણ થઈ કહ્યા ઉપરાંત વિના કારણે વધુ વખત ચેત્યમાં રહે નહિં. -अंचलगच्छीय आचार्य श्री महेन्द्रसूरि (वि.सं. 1294) रचित 'बृहत्सत्पदी' ग्रंथ से उद्यूत आ. श्री मेरुतुंगसूरिकृत लघु सत्पदी (वि.सं. 1450) (इन दोनों का पं. खजी देवराज (कच्छ-कोडायवाला) कृत गुजराती भाषांतर पृ. 14 विचार क्रमांक-15) (ड) कथारत्नकोष प्रथमभाग - पृ. 288 -श्रीदेवभद्राचार्य (वि.सं. 1158) द्वारा रचित (च) न च देवगृहेऽपि स्तुतित्रयकर्षणात्परतोऽवस्थानमनुज्ञातं साधूनामिति । विधिवन्दनाद्यर्थमवस्थाने नोक्तदोषः । - प्रतिमाशतक काव्य -26 पर न्यायाचार्य महोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृतवृत्ति पृ. 171 (छ) दुझिगंधवरिस्सावी तणुरप्येस एहाणया दुवाहाउ वहो चेव, तो चिटुंति न चेइए । ति भीवाकड्डए जाव छुतीतो तिसलोगइया ताव तच्छ अणुयायं कारणं भिपरेणावि ॥ ___ - व्यवहार भाष्य मूल-उद्धृत चतुर्थस्तुतिनिर्णय शंकोद्धार पृ. 1999 (ज) एषा तनुः नापितापि दुरभिगंधप्रस्वेद परिश्राविणी तथा द्विविधो वायुर्यथोधिो वायुवहो निर्गम उच्छवासनिश्वासनिर्गमश्व तेन कारणेन चैत्ये चैत्यायतने साधवो न तिष्ठन्ति अथवा श्रुतस्तवानंतरं तिस्रः स्तुतयः त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्रमाणा यावत्कर्षते तावत्तत्र चैत्यायतने स्थानमनुज्ञातं कारणेन कारणवशात्परेणाप्यवस्थानमनुज्ञातमिति ॥ -व्यवहार भाष्य टीका - उद्धृत चतुर्थस्तुतिनिर्णय शंकोद्धार पृ. 200 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6]... परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन शास्त्रमर्यादानुसार प्रथम और अन्तिम जिनेश्वरों के शासन के साधु-साध्वियों को यथाप्राप्त श्वेत-मानोपेत-जीर्णप्रायः और अल्पमूल्यवाले वस्त्र ही रखना चाहिए । रंगीन वस्त्र या रंगे हुए वस्त्र रखना अनुचित है । विशेष परिस्थिति में कल्कादि पदार्थों से वस्त्रों का वर्ण-परावर्तन करने की आज्ञा है तथापि वर्तमान युग में एसे कोई कारण उपस्थित नहीं है, अतः जैन साधु-साध्वियों के लिए रंजित (रंगे हुए) वस्त्र धारण करना शास्त्र-आचरण और मर्यादा से विपरीत है। 5. (अ) पूर्वचरमाणां हि रक्तवस्त्रानुज्ञाते ऋजुवक्रजडत्वेन वस्त्ररञ्जनदावपि प्रवृत्तिं स्यादिति न तेषां तदनुज्ञातम् । -भावविजयोपाध्यायकृत - उत्तराध्ययन टीका अ. 23, पत्र 458 (आ) वर्धमान् - विनेयानां हि रक्तादिवस्त्रानुज्ञाते वक्रजडत्वेन वस्त्ररञ्जनादिषु प्रवृत्तिरतिदुर्निवारैव स्यादिति न तेन तदनुज्ञातम् । - शान्त्याचार्यकृत - उत्तराध्ययन सूत्र - बृहट्टीका अ.23 पत्र 503 (इ) श्री वीरेण शिष्याणां रक्तादिवस्त्रं वक्रजडत्वेन रञ्जनादिषु प्रवृत्तिरेषा दुनिवरिवस्यात् इति नानुज्ञातम्। -उत्तराध्ययन सूत्र - लक्ष्मीवल्लभी टीका अ. 23, पत्र 621 (ई) यथाभिचितं वेषमादाय पूजानिमित्तं विडम्बकादयोऽपि वयं वतिन इत्यभिदधीरन्, ततो व्रतिष्वपिन लोकस्य वतिन इति प्रतीतिः स्यात् । -शान्त्याचार्यकृत - उत्तराध्ययनसूत्र-बृहद्दीका, अ. 23, पत्रांक 503 (उ) प्रत्यार्थ च अमी वतिन इति प्रतीत्यर्थ लोकस्य, अन्यथा यथेष्टं वेषमादाय विडम्बकादयोऽपि वयं वतिन इति ब्रुवीरन्, ततश्च व्रतिष्वप्यप्रतीतिः स्यात् । -उत्तराध्ययन सूत्र - लक्ष्मीवल्लभीटीका - अ.23, पत्रांक 629 (ऊ) प्रत्यार्थ चामी व्रतिन इति प्रतीतिनिमित्तञ्च लोकस्य, नानाविधविकल्पनं प्रकमानाना-प्रकारोपकरणपरिकल्पनम् । नानाविधं हि रजोहरणाद्युपकरणं प्रतिनियतं यतिष्वेव संभवतीति कथं तल्लोकस्य प्रत्यये हेतुर्नस्यात् ? अन्यथा तुयथेष्टं वेषमादाय पूजाद्यर्थमन्येऽपि केचिद्वयं वतिन इत्यभिदधीरन्, ततश्व मुनिष्वपि न लोकस्य प्रत्ययः स्यादिति । ___ -उत्तराध्ययन सूत्र - भावविजयोपाध्यायकृत-टीका, अ.23, पत्र 458 (ऋ) साधुमाश्रित्य तु प्रथमान्तिमतीर्थकृत्तीर्थे श्वेतमाना-धुपेतवस्त्राणां जीर्णप्रायत्वात्ताद्दगवस्त्रधारित्वे-5 प्पचेला एवोच्यन्ते । -श्री कल्पसूत्र - किरणावली-टीका पृ.1 (ऋ) श्री ऋतभवीरयतीनाञ्च सर्वेषामपि श्वेतमानोपेत-जीर्णप्रायवस्त्रधारित्वेन अचेलकत्वमेव । -श्री कल्पसूत्र - सुबोधिका टीका, पृ.2 आदिनाथ-महावीरयोर्यतीनामयमाचारः । अचेलकत्वम् - मानोपेत धवलं वस्त्रं धारयन्ति । -श्री कल्पसूत्र-कल्पद्रुमकलिका टीका, पृ. 2 (ल) शुक्ल प्रमाणोपेतवस्त्रापेक्षया अचेलकत्वम् । -श्री स्थानाङ्ग सूत्र टीका पत्र 167 (ए) प्रथमपश्चिमजिनसाधूनां तु ऋजुजडत्वेन वक्रजडत्वेन च महाधनादि वस्त्राणामननुज्ञानात् श्वेतखण्डितादीनामेव चानज्ञानादचेलक इति । ___ -श्री प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, 78 वाँ द्वार, पत्र 185 (ऐ) प्रथम तथा चरम जिनना वाराना साधुओने विद्यमान वस्त्र छतां श्वेत अने अल्पमूल्यवाला खंडित वस्त्र होवाने लीधे ते अचेलक कहेवाय छे. - श्री प्रवचन सारोद्धारनो पद्ममन्दिरगणिकृत बालावबोध वि.सं. 1651, प्रकरण रत्नाकर भा. 3 पृ. 258 (ओ) जत्थ य वारमियाणां, तत्तडियाणं च तह य परिभोगो। मुत्तं सुक्किाश्वत्थं, का मेरा ? तत्थ गच्छम्मि ।। 89॥ -गच्छाचार पयन्ना । (औ) यत्र गच्छे (वारडियाणंति) रक्तवस्त्राणां (तत्तडियाणं ति) नीलपीतादिरञ्जितवस्त्राणाञ्च परिभोगः क्रियते । किं कृत्वा इत्याह - मुक्त्वा - परित्यज्य, किम ? शुक्लवस्त्रं - यतियोग्याम्बरमित्यर्थं । तत्र गच्छे (का मेरत्ति) का मर्यादा ? न काचिदपीत्यर्थः । -गच्छाचारपयन्ना मूल और टीका, गाथा 89 (क) गणि ! गोयम ! जा नंचिय, सेयवत्थं विवज्जिनं । सेवए चित्तस्वाणि, न सा अज्जा वियाहिया ।। ___ -गच्छाचार पयन्ना मूल गाथा - 112 (ख) हे गणिन् । गौतम । या आर्या उचितं श्वेतवस्त्रं विवर्त्य चित्ररूपाणि विविधवर्णानि विविधानि चित्राणि वा वस्त्राणि सेवते । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन उपलक्षणात् - पात्रदण्डाद्यपि चित्ररूपं सेवते सा आर्या न कथिता इति विषमाक्षर :- गाथा - छन्दः - गच्छाचार पयन्ना गाथा 112 टीका (ग) पुरिमंतिमतित्थेसुं, ओहनिजुत्तीयभाणियपरिमाणं । सियवत्थं इयराणं, वन्नपमाणेहि जहलद्धं ॥ 287॥ -सत्तरिसय ठाणां मूल 142 वाँ द्वार (घ) प्रथम जिनतीर्थे अन्तिमजिनतीर्थे च ओघनिर्युक्तिसूत्रोक्त परिमाणम्, सितं श्वेतवस्त्रं ज्ञेयम् । उतरेषां द्वाविंशतिजिनानां वर्णप्रमाणैर्यथालब्धं यथाप्राप्तम् अनियतवर्णम् अनियतप्रमाणं चेत्यर्थः । -सत्तरिसयठाणां गाथा 297 की टीका, 142 वाँ द्वार (इ) जे भिक्खू वा भिक्खूणी वा णवए मे वत्थे लद्धे तिकट्ट लेण वा धरण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा जिलिंगेज्ज वा मक्खंतं वा मिलिंगेज्जतं वा साइज्जइ ||48 || जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा णवए मे वत्थे लद्धे ति कट्टु लोद्रेण वा कक्केण वा चुणेण वा लावेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वलेज्ज वा उल्लोलतं वा उव्वलेज्जंतं वा साइज्जइ ||49 || जे भिक्खू वा भिक्खूणी वा णवए मे वत्थे लद्धे ति कट्टु सीओदग-वियमेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलज्जितं वा पधोएज्जंतं वा साइज्जइ ॥ 501 तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाफयं । - श्री निशीथसूत्र, 18वां उद्देशा (च) साधूनामर्थाय मलिनवस्त्रं धौतं - गौरवं कृतमित्यर्थः । एवं रक्तं प्रदत्तरागम्, धृष्ट-मसृणं-पाषाणादिना उत्तेजितम् एते त्रयो ऽप्येक एव दोष इति । - बृहत्कल्पसूत्र-भाष्यवृत्ति - 3 उद्देशा | (छ) धोअणं रयणं चेव, वत्थीकम्म विरेयणं । - श्री सूत्रकृताङ्ग-मूल (ज) धावनं - प्रक्षालनं हस्तपादवस्त्राणां, रञ्जनमपि तेषामेव, चकारः समुच्चयार्थः, एवकारोऽवधारणे, वमणं जणपलीमंथं, तं विज्जे परिजाणिया ॥ अ. 13, पत्र 280 तथा वस्तिकर्म- अनुवासनास्मं, तथा विरेचनं निरूहात्मकमधोविरेको वा, वमनम् ऊर्ध्वविरेकस्तथाऽञ्जनं नयनयो:, इत्येवमादिक मन्यदपि सरीरसंस्कारादिकं यत् सयमपलिमन्यथकारि -संयमोपधातस्मं तदेतद्विद्वान् स्वस्पस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाय प्रत्याचक्कीत । - श्री सूत्रकृताङ टीका अ.1 उ पृ. 280 (झ) धावनं हस्तपादवस्त्रादेः रञ्जनं तस्यैव, वस्तिकर्म अनुवासनास्त्रं विरेचनमधोविरेकः, वमनमूर्ध्वविरेकः, अञ्जनं नयनयो:, एवमन्यदपि यत्संयमपलिन्थकारि-संयमोपधातकारि तत्परिज्ञाय परिहरेत् । परिशिष्ट... [7] -श्री हेमविमलसूरिकृत सूत्रकृताङ्ग दीपिका पृ. 381 (ञ) धोवणनुं हाथ पग वस्त्रादिक तणउं अने तेहने रंगवु तथा संमारिवउं, नस्तिकर्म न व कक्षादि रोम संमारिवउं, विरेचन-पखालवमन उछाल अंजन-आंजिवडे, अनेरड- अनेरड शरीर - संस्कारादिक पलिमंथ - संयमना उपघात करणहार जाणी विद्वान परिहरइ । -पं. श्री लाभवर्द्धनजीकृत श्री सूत्रकृताङ्ग वार्तिक- प्रथम श्रुतस्कन्ध-नवम अध्ययन पृ. 64 (ट) जे भिक्खू तिर्हि वत्थेहिं परिवुसिए पायचउत्थेर्हि तस्सणं नो एवं भवइ चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाइज्जा अहापरिग्गहियाई वत्थाइं धारिज्जा, नो रंगेज्जा नो धोइज्जा नो धोरत्ताइं वत्थाई धारिज्जा अपलिओवमणे गामंतरेसु ओमचेलिए एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ( सूत्र 211 ) । आचाराङ्ग सूत्र मूल 1 श्रु. 8 अ. 4 उ पृ. 365 (૪) જે સાધુને પાત્ર અને ત્રણ વસ્ત્ર હોય તેને એવો વિચાર ન થાય કે, મારે ચોથું વસ્ત્ર જોઈશે. જો ત્રણ વસ્ત્ર ન હોય તો સુઝતાં વસ્ત્ર યાચવાં (વિધિપૂર્વક માંગવા) અને જેવા મળે તેવા પહેરવાં, વસ્ત્રને ધોવાકે રંગવા નહીં. ધોયેલા કે રંગેલા પહેરવા નહીં, ગામાંતરે જતાં વસ્ત્ર સંતાડવા નહીં અને એ રીતે હલ્કા (અલ્પમૂલ્યવાળાં) વસ્ત્ર રાખવા, એ વસ્ત્રધારીમુનિનો આચાર છે. (899) - प्रोसर २१ हेवराद्धृत आयाशंगसूत्र भाषांतर पृ. 46 (ड) यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत उत्कर्षणापकर्षण- रहितान्यपरिकर्माणि प्रार्थयेदिति, तत्र 'उदिट्ट ? पहे 2 अंतर 3 उज्झियधम्मा 4 य' - चतस्त्रो वस्त्रैषणा भवन्ति । तत्र चाधस्तन्योर्द्वयोरग्रह इतयोस्तु ग्रहः । तत्राप्यन्तरस्यामभिग्रह इति, याञ्चावाप्तानि च वस्त्राणि यथा परिगृहीतानि धारयेत्, न तत्रोत्कर्षण-परिधावनादिकं परिकर्म कुर्यात् । एतदेव दर्शयितुमाह-नो धावेत्, प्रासुकोदकेनापि न प्रक्षालयेत्, गच्छ्वासिनो ह्यप्राप्तवर्षादौ ग्लानावस्थायां वा प्रासुकोदकेन यतनया धावनमनुज्ञातं, न तु जिनकल्पिकस्येति । तथा न धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत् पूर्वं धौतानि पश्चाद्रक्तानीति । आयारांग सूत्र - शीलंडायार्यकृत टीअ, 1. श्रुतरसंघ, 8 अध्याय 4 उद्देश पत्र 367 (ढ) भुनि यथा शेषशीय (निर्दोष) वस्त्रोनी यायना रे, उत्र्ष अपहर्षण सहित अपरिदुर्भवाणा याये, तेमां ' 1. उदिट्ठ, 2 पहे, 3 अंतर, 4 उज्झिय धम्मा' से यार वस्त्रनी भेषणा छे. तेमां पाछणनी मे अग्रह (न सेवाय तेवी) छे, जाडीनी जे सेवाय Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8]... परिशिष्ट છે. તેમાં કોઈપણ એકનો અભિગ્રહ હોય છે. યાચના કરતાં શુદ્ધ વસ્ત્ર મળે તો લે અને જેવાં લીધા હોય તેવાંજ પહેરે, પણ તેનો ઉત્કર્ષણ એટલે કે ધોવું વિગેરે પરિકર્મ ન કરે, તે જ બતાવે છે - અચિત્ત જળ વડે પણ ન ધોવે પણ સ્થવિરકલ્પીને તો વરસાદ આવ્યા પહેલાં અથવા બિમારીમાં અચિત્ત પાણીથી યતના (જયણા)થી ધોવાની અનુજ્ઞા છે. પણ જિનકલ્પીને ધોવું ન કલ્પે તેમજ પ્રથમ ધોઈને પછી રંગેલા કપડાં હોય, તે પણ ન પહેરે તથા બીજા ગામે જતાં વસ્ત્ર સંતાડ્યા વિના ચાલે, અર્થાત્ અંતપ્રાંત (તદ્દન સાદાં, જીર્ણ થઈ ગયેલાં/અલ્પ મૂલ્યવાળા) વસ્ત્ર ધારે કે જેને ચોરાવાના ડરથી ઢાંકી રાખવા ન પડે. - आयारांग सूत्र मुनिमाशेड त भाषांतर भाग-4 पृ. 169 (ण) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा नो वणमंताइं वत्थाई विवणाई करिज्जा विवणाई न वणमंताई करिज्जा । ( सूत्र 151 ) - खायासंग सूत्र भूण, श्रु. 2, अ.5, उ. 2 (त) जे भिक्खू वा भिक्खूणी वा अहेसणिज्जाई वत्थाइ जाइज्जा अहापरिग्गहियाई वत्थाइं धारिज्जा नो धोएज्जा नो रएज्जानो धोयरताइं वत्थाई धारिज्जा । (सूत्र 148 ) अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आचारांग सूत्र मूल, श्रु. 2, अ. 5, उ. 2 (थ) टीका: स भिक्षुः " यथैषणीयानि" अपरिकर्माणि वस्त्राणि याचेत यथा परिगृहीतानि च धारयेत्, न तत्र किञ्चित् कुर्यादिति दर्शयति, तद्यथा - न तद् वस्त्रं गृहीतं सत् प्रक्षालयेत् नापि रञ्जयेत्, तथा नापि वाकुशिकतया धौतरक्तानि धारयेत्, तथाभूतानि न गृहीयादित्यर्थः । - आचारांगसूत्र शीलंकाचार्य कृत टीका श्रु. 2, अ.5, उ. 2 (पत्र 393) (द) सुक्कंबरा य समणा, निरंबरा मल्ल धारत्ताइं । हुंतु इमे वत्थाई अरिहो कि कसाय कलुसमई ॥ - आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यक मलयगिरि - 87 - (ध) शुक्लाम्बराः श्रमणास्तथा निर्गतम्बरं येभ्यस्ते निरम्बराः जिनकल्पिकादयः (मज्झत्ति ) मम च एते श्रमणा इत्यनेन तत्कालोत्पन्नतापसश्रमणव्युदासः, धातुरक्तानि भवन्तु मम वस्त्राणि, किमित्यर्होऽस्मि, योग्योऽस्मि तेषामेव, कषायैः कलुषामतिर्यस्यसोऽहं कषायकलुषमतिरिति गाथार्थः । - श्री आवश्यक मलयगिरि गा. 87 की टीका (न) उपरोक्त पाठ श्री आवश्यकसूत्र हारिभद्रीय टीका पृ. 155 ( प ) शुक्लाम्बराः श्रमणा निरम्बराश्च जिनकल्पिकादयः । कषाया कलुषितमतयो यतयो नाहमेवमतो मे कषायकलुषितस्य धातुरक्तानि वस्त्राणि भवन्तु । - श्री कल्पसूत्र किरणावली टीका पृ. 36 (फ) श्वेताम्बरः श्वेतवस्त्र, उपलक्षणादजोहरण-मुखवस्त्रिकाद्यौधिकोपग्रहिकोपकरणसमेतः स्थविरकल्पिकादिः । श्वेताम्बरत्वं च वर्द्धमानस्वामीत्यर्थीय श्रमणोपक्षम् । - सम्बोधसप्तति-वाचक गुणविनयकृतवृत्ति पत्र 2 (ब) सरजोहरणा भैक्ष्य - भुञ्जो लुञ्चितमूर्द्धजाः । श्वेताम्बराः क्षमाशीला, निस्सङ्गा जैन साधवः 112551 (भ) आचार्य उपाध्याय सिवाय बीजा यतिए तेमज गीतार्थे हीरागल (रेशमी ) वस्त्र तथा शणनुं वस्त्र न वहोरखं | कदाच आचार्यादिके दीधुं होय तो पण उपर न ओढवुं, कैशरियुं वस्त्र होय तो तेनो वर्ण-परावर्तन करी नांखवो, बीजा पण पीतवर्णवाला वस्त्र न ओढवा । श्रीमद् विजय देवसूरिजी महाराज द्वारा वि.सं. 1677 वैशाख सुदि 7 'सावली नगर में रचित साधुमर्यादा पट्टक' - मर्यादा क्रम 88 ('जैन धर्म प्रकाश'- भावनगर के पुस्तक 31 वि.सं. 1972 मागशीर्ष महिने के नौवें अंकमें प्रकाशित) (म) अनाचारमालम्बमानस्तत्सेवी तु विराधक एवं सालम्बन- परवशादिना यतनया सेवमानो भवति शम्बलः । आलम्बनानि तु छेदग्रन्थटीकादिभ्योऽवसेयानि परं तत्रापि " न किंचि अणुण्णायं" इति वचनात् नोपदेशप्रवर्तकोऽत एव शबलः । (प्रायश्चित्ती ) - दशाश्रुतस्कंध - 3 टीका तृतीय पत्र, उद्धृत शास्त्रार्थ दिग्दर्शन पृ. 86 से 117 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिशिष्ट... [9] प्रतिक्रमण में श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता और भुवनदेवता का कायोत्सर्ग और स्तुति', लघुशान्ति , बडी शांति का पाठ-विधान जिनागम-पंचागी और प्राचीनाचार्य-प्रणीत प्रामाणिक ग्रन्थो में नहीं है। अतः प्रतिक्रमण में इनका करना और कहना अशास्त्रीय और दोषपूर्ण है। किन्तु साधु-साध्वी के लिये पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में "दुक्खक्खय कम्मक्खय" के कायोत्सर्ग के बाद आज्ञा निमित्तक भुवनक्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग अदोष है।" ६.a . आ. मेस्तुंगसूरिकृत लघुसत्पदी एवं आ. महेन्द्रसूरिकृत बृहत्सत्पदी -विचार क्र.19, आवश्यक चूर्णि B. (૧) શ્રી શાકંભરી નગરમાં મરકીનો ઉપદ્રવ થયો હતો. તે બાબતે સંઘે નાડોલ નગરમાં બિરાજમાન શ્રીમાનદેવસૂરિને અરજ કરી. દયાળુ સૂરિજીએ આ શાંતિ બનાવી મોકલી. તેથી મરકી શાંત થઈ. આ સ્તોત્રને ભણવાથી, સાંભળવાથી તથા તેનું મંત્રિત જળ છાંટવાથી અનેક પ્રકારના ઉપદ્રવો દૂર થાય છે અને શાંતિ ફેલાય છે. આ લઘુશાંતિ પ્રતિક્રમણમાં દાખલ થયાને લગભગ 500 વર્ષ થયાં. આને માટે વૃદ્ધો એમ કહે છે કે - ઉદયપુરમાં એક યતિજી હતા તેમની પાસે શ્રાવકો વખતોવખત શાંતિ સાંભળવા આવતા. આથી પતિજી કંટાળ્યા, તેથી તેમણે તે પ્રતિક્રમણમાં છેવટે દાખલ કરાવી જેથી સૌ સાંભળી શકે એમ ઠરાવ્યું ત્યાર પછી તે રિવાજ ચાલુ થયો. -* शशिक्षामाला - त्री यो५ पृ. 130, प्रकाशित - जैन श्रेयस्कर मंडल - महेसाणा (b) વૃદ્ધવાદ એવો છે કે આ સ્તવ (લઘુશાંતિ)ની રચના થયાં પછી માંગલિકને માટે સર્વત્ર આ સ્તવ ભણવામાં આવતો, પરંતુ આજથી લગભગ પાંચસો વર્ષ અગાઉ એક યતિ ઉદયપુરમાં રહ્યા હતા. તેમની પાસે શ્રાવકો વારંવાર માંગલિકના અર્થે આ સ્તવ સાંભળવા આવતા, તેથી યતિનો સર્વ વખત તેમાં જવા લાગ્યો. તેથી તેમણે પ્રતિક્રમણમાં દુખખયના કાયોત્સર્ગને અંતે આ સ્તવ કહેવાનો ઠરાવ કર્યો. ત્યારથી તે રિવાજ પ્રચલિત થયો છે. -देवसिराइप्रतिक्रमण सूत्र (शब्दार्थ, अन्ययार्थ और भावार्थ) द्वितीयावृत्ति पृ. 179 जैन रत्र कार्यालय से वि.सं. 2004 में प्रकाशित 'बहच्छान्तिस्तोत्र' प्रतिष्ठा, यात्रा और स्नात्रपूजादि के अन्त में शान्ति होने के निमित्त बनाया गया है। प्रतिक्रमण में उसके पाठ मात्र से कोई लाभ नहीं होता। जो स्तोत्र जिस विधि से कहने का कहा गया हो, वह उसी प्रकार की विधि विधान से लाभकारक होता है। बृहच्छान्तिस्तोत्र में ही इसकी विधि बताई गई है कि'इति भव्यजनैः सह समेत्य, स्नात्रपीठे स्नात्रं विधाय शांतिमुद्घोषयामि, तत्पूजायात्रास्त्रात्रादि-महोत्सवानंतरमिति कृत्वा कर्ण दत्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा । एषा शान्तिः प्रतिष्ठायात्रास्नात्राद्यवसानेषु शान्तिकलशं गृहीत्वा कुंकुम चन्दनकर्पूरागरधूपवास-कुसुमाञ्जालिसमेतः स्नात्रचतुष्किकायां श्री सङ्घसमेतः शुचिशुचिवपुः पुष्पवस्त्रचन्दना भरणालंकृतः पुष्पमालां कण्ठेकृत्वा शान्तिमुद्घोषयित्वा शान्तिपानीयं मस्तके दातव्यमिति ।। नृत्यन्ति नृत्यं मणिपुष्पवर्ष, सजन्ति गायन्ति च मङ्गलानि । स्तोत्राणि गोत्राणि पठन्ति मन्त्रान, कल्याणभाजो हि जिनाभिषेके ॥ अर्थात् 'बृहच्छान्तिस्तोत्र' में लिखा है - कि यह शांति स्त्रात्रपीठे स्नान करके, प्रतिष्ठा, यात्रा तथा स्नात्रोत्सव आदि के अंत में अवश्य कहना चाहिए। स्नानपूर्वक अबोट वस्त्र, चन्दन, माला और अभिरणादि से अलंकृत होकर एक श्रावक पवित्र जलपूर्ण कलश और कुंकुम, केशर, बरास आदि सामग्री साथ लेकर संघ के सहित प्रतिष्ठा या स्नात्रमंडप में आकर कलश को स्थापन करके शान्तिपाठ बोले । फिर कलश की केशर आदि से पूजा करे। तदनन्तर कलश को किसी पवित्र सधवा या कुमारी कन्या के सिर पर रखकर नृत्य करावें, मणिपुष्पों की वर्षा करें, मांगलिक गीत गवावे, कुसुमांजली उछाले और जिनेश्वर नाम, गोत्र के गर्भित स्तोत्र भणे। इस विधि से शान्तिपाठ कहा जाय तभी वह कार्यकारी होता है। - बृहद् शांति स्तोत्र सार्थ प्रतिक्रमण में त्यागी साधु या श्रावक (सामायिक विरतिवान) के पास न तो उपरोक्त उचित सामग्री होती है और न यह विधि करना उचित है अतः आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक दीपिका, साधु प्रतिक्रमण सूत्र आदि किसी भी प्राचीन ग्रंथ में प्रतिक्रमण में बृहतशांतिस्तोत्र बोलने की विधि नहीं कही है अतः आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसरिने इसका निषेध किया है। चउम्मसीए य वरिसे मुसग्ग खित्तदेवयाए पक्खि । य सिज्जसुराए करिन्ति चउमासीए एए ।। टीका - चाउम्मासीय संवच्छरीएसु सव्वे वि मूलगुण-उत्तरगुणकाउसग्गं दाऊण पडिक्कमंति खित्तदेवयाए उस्सग्गं करिन्ति । केई पुण चाउम्मासिगे सिज्जोदेवियाए वि काउस्सग्गं करिति इत्यादि.... । - आवश्य: नियुक्ति भूगमने 2151 - 6द्धृत 'सिद्धान्त ५७' पृ. 52 ___E विचारामृत संग्रह- श्री कुलमंडनसूरिजी (चतुर्थ स्तुतिनिर्णय शंकोद्धार पृ. 170) Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10]... परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 7. ऋद्धिसंपन्न और ऋद्धिरहित दोनों प्रकार के श्रावकों को सामायिक दंडकोच्चार के बाद इरियावही करने का शास्त्रों का आदेश है। क्योंकि इसके लिये तिविहेण साहुणो नमिऊण सामाइयं करेइ करेमि भंते एवमाइ उच्चरिऊण ईरियाविहयाए पडिक्कमइ । -इत्यादि आगम-टीका-ग्रन्थों का वचन प्रमाण है। अतएव प्रथम त्रियोग से गुस्वंदन करके सामायिक उच्चार के बाद ईरियावही प्रतिक्रमण करना चाहिए 8. इस नियम में साधु-साध्वी के आहार, विहार, वस्त्र, उपधि एवं अन्य साध्वाचार के विधि-निषेधोंका वर्णन 9. श्री जिनेश्वरों की प्रतिमा और उनकी पूजनविधि मूल सूत्रों व उनकी टीका, भाष्य, नियुक्ति, चूर्णी-टब्बाओं में कई स्थानों पर प्रतिपादित है। इसलिए जिनप्रतिमा का तद्वत् भक्तिभाव सहित दर्शन-पूजन आदि करना आत्महितकर है। 7. (ओ) इड्ढिपत्तो सामाइयं करेइ, अणेण विहिणा करेमिभंते' सामाइयं सावज्जंजोगं पच्चक्खामि जावनियमं पज्जुवासामित्तिकाऊण पच्छा इरियं पडिक्कतो वंदित्ता पुच्छति पढति वा । - आवश्यक टीका (बी)वंदिऊण य छोभवंदणेण गुरुं, संदिसाविउण सामाइयमणुकड्डिय (जहा) करेमिभंते ! सामाइयं ( इत्यादि) तओइरिया पडिक्कमिय आगमणमालोएइ पच्छा जहाजेटुं साहुणो वंदिउण पढइ सुणइ वा। - श्रावक प्रतिक्रमण चूर्णि (सी)तिविहेण साहुणो नमिऊण सामाइयं करेमिभंते ! एवमाइ उच्चरिऊण तओइरियावहियाए पडिक्कमइ आलोएत्ता वंदित्ता आयरियाइ जहा रायणिए पुणरवि गुरुं वंदित्ता पडिलेहित्ता णिविट्ठो पढति पुच्छति वा । -पञ्चाशक चूर्णि 8. इस हेतु जिज्ञासु को श्री राजेन्द्रगुणमज्जरी दृष्टव्य है। 9. (क)विज्जाचारणस्सणं भंते ! तिरियं केवइए गइविसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइआई वंदइ, वंदित्ता वितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवरे दीवे समसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइयाई वंदइ । वंदित्ता तओ पडि नियत्तइ, पडिनियत्तइत्ता इहमागच्छइ, आगच्छत्ता इहं चेइआई वंदइ । विज्जाचारणस्सणं भंते । उ8 केवइए गइविसए पण्णते ? गोयम ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं नंदणवणे समोसरणं करे । करेइत्ता तर्हि चेइयाई वंदइ, वंदित्ता वितिएणं उप्पारणं पंडगवणे समोसरणं करेइ, करेइत्ता तर्हि चेइयाई वंदइ । वंदित्ता तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तइत्ता इहमागच्छइ, आगच्छइत्ता इहं चेइयाई वंदइ । -श्री भगवती सूत्र मूलपाठ, 20 वां शतक, 9 वाँ उद्देशा, 683-684 सूत्र । (ख)अंबडस्सणंणो कप्पइ अन्नउत्थियावा, अण्णउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहयाणि वा, चेइयाई वंदित्तए वा,णमंसित्तए वा, जाव पज्जुवासित्तए णण्णात्थ अरिहंते अरिहंत चेइयाणि वा । - श्री उववाइ-सूत्र-मूलपाठ पत्र 87 -अंबडाधिकार । (ग) नो चेवणं समणोवासगं पच्छाकडं बहुस्सुयं वज्जागमं पासेज्जा, जत्थेव सम्मं भावियाइं चेइयाइं पासेज्जा, कप्पड़ से तस्संतिए आलोइत्तए वा जाव पडिवज्जित्तए वा । -श्री व्यवहारसूत्र-मूल पाठ । उद्देशा । (घ) दोवइरायवरकन्ना जेणेव... -पडिनिक्खमइत्ता जेणेव जिणघरेतेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता जिणघरंअणुपविसइ ।अणुपविसित्ता जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेड़, करेइत्ता लोमहत्थयं परामुसइ । एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं । जाव धूवं डहई,धूवं डहित्ता वामं जाणुंअंचेइ, दाहिणं जाणु धरणितलंसि णिवेसेइ । णिवेसित्ता तिखुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि नमेइ ।नमेइत्ता ईसिं पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमित्ता करयल जाव कट्ट एवं वयासी नमुत्थुणं, अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ नमसइ, नमंसित्ता जिणघराओ पडिनिक्खवमइ।" - श्री ज्ञातासूत्र मूलपाठ - 16 अध्ययन, 210 पत्र । (ड)तत्थणं बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया देवा चाउम्मासियपडिवएसुसंवच्छरिएसुवा अन्नेसुय बहुसुजिणजम्मण निक्खमण-नाणुष्पत्ति - परिनिव्वाणमाइसु देवकज्जेसु य देवसमुदएसु य देवसमितिसु य देवसमवाएसु य देवपओयणेसु य एगंतओ सहिता समुवगता समाणा पमुदियपक्कीलिया अट्टाहियास्वाओ महामहिमाओ करेमाणा पालेमाणा सहसहेण विहरति । - श्री जीवाभिगम सूत्र-मूलपाठ, 3 प्रतिपत्ति, 2 उद्देशा । (च) श्री संपति राजाने सवाक्रोड जिनबिंब एवं सवालाख जिनमंदिर बनवाये - श्री कल्पसूत्र बालवबोध-प्रथमावृत्ति पृ. 216 - Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिशिष्ट क्र. 3 सहायक सन्दर्भग्रन्थ सूची अंगुत्तर निकाय : भदन्त आनन्द कौशल्यायन, प्रथम संस्करण, प्रकाशक - महाबोधि सभा, कलकता અજાહરા પાર્શ્વનાથ ચરિત્ર લે. મણિલાલ ન્યાલચંદ શાહ प्रथमावृत्ति वि.सं. 2029, प्र. श्री अभहरा पार्श्वनाथ पंयतिर्थी छैन पेढी, उना (सौराष्ट्र) अनगार धर्मामृत : पं. आशाधर, प्रथमावृत्ति - सन् 1972, प्रकाशक- भारतीय दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, मुम्बई अनुयोगद्वार सूत्र : आगमोदय समिति, प्रथमावृत्ति - वीर सं. 2450, अहमदबाद अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, स्याद्वादमञ्जरी (टीका) : - आचार्य हेमचन्द्र सूरि, टीका- आचार्य मल्लिषण सूरि, द्वितीयावृत्ति - सन् 1935, सम्पादक डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास अभिधान चिन्तामणि नाममाला : कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र सूरि, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2002, प्रकाशक - श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्थान, मुम्बई अभिधान राजेन्द्र कोशः श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि, प्रथमावृत्ति - श्री अभिधान राजेन्द्र कोश प्रकाशन संस्था, रतलाम ; द्वितीयावृत्ति- सन् 1986, श्री अभिधान राजेन्द्र कोश प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद અભિધાન રાજેન્દ્ર કોશ : એક અનુચિંતન से. भुनिरा श्री ४यंतविश्य 'मधुर' प्रथमावृत्ति डिसेम्बर-1979 सं. - पं. अंबालाल प्रेमभंह शाह, प्र. श्री मशिदास साकुल स्मार समिति अलंकार येम्जर्स, गोलवाड, रतनपोज, महावाह-1. अभिधान राजेन्द्र कोश में जैन दर्शन वाटिका : साध्वी डॉ. प्रिय- सुदर्शनाश्री, प्रथमावृत्ति - सन् 1999, मुद्रक - पारदर्शी प्रिंटर्स, उदयपुर (राज.), प्रकाशक- बाफना चेरिटेबल ट्रस्ट, 12, नगीना महल वीरनरीमन रोड, मुम्बई - 20 अमर कोश : पं. अमरसिंह, चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी अष्टक प्रकरण : आचार्य हरिभद्रसूरि, द्वितीयावृत्ति - वि.सं. 2040, प्रकाशक- श्री पञ्चाशक प्रकाशन समिति, सिसोदरा (गुजरात) अष्ट पाहुड : श्री कुन्दकुन्दाचार्य, प्रथमावृत्ति - वीर नि. सं. 2497, टीकाकार- पं. श्री जयचन्द्र छाबडा, प्रकाशक- श्री सेठी दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, बम्बई अहिंसा की पुकार : द्वितीयावृत्ति - सन् 1957 प्रकाशक- सिद्धसेन जैन गोयलीय अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल (जिला- साबरकांठा), गुजरात आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन : साध्वी डॉ. प्रियदर्शनाश्री, प्रथमावृत्ति सन् 1995, प्रकाशक- पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बनारस एवं राज-राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, रतनपोल, अहमदाबाद. आचारांग चूर्णि : जिनदास गणिवर्य, प्रकाशक- ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम आचारांग वृत्ति एवं निर्युक्ति : परिशिष्ट... [11] - शीलांकाचार्य एवं भद्रबाहु, प्रथमावृत्ति - 1917, आगमोदय समिति, महेसाणा आचारांग सूत्र : अनुवादक - सौभाग्यचन्द्रजी महाराज, संपादक- बसंतीलाल नलवाया, प्रथमावृत्ति 1950, प्रकाशक- जैन साहित्य समिति, उज्जैन - Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12]... परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आचारांग सूत्र (सार्थ): प्रवर्तक - प्रो. खजीभाई देवराज, प्रथमावृत्ति-1906, प्रकाशक-जैन स्कोलर्स मोरबी, कठियावाड (गुजरात) आचारसार : आचार्य वीरनंदि सिद्धांत चक्रवर्ती, प्रथमावृत्ति-सन् 1992, प्रकाशक-दिगम्बर जैन समाज, अशोकनगर અધ્યાત્મ શાંતિસાગર અને આગમપ્રભા : Hश - ५. Ailate शवसाय, महावाह, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2046, मुद्र-नयन प्रिन्टी प्रेस, अमहावाह. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ और पूर्णता : आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि, प्रथमावृत्ति-सन् 1998, प्रकाशक-राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद आवश्यक नियुक्ति दीपिक भाग-1-2: जिनभद्रगणि, 1939 प्रकाशक-गुलाबचन्द लल्लुभाई, भावनगर इत्तिवुत्तक : अनुवाद - भिक्षु धर्मरत्न, प्रथमावत्ति-बुद्धाब्द-2499, प्रकाशक-महाबोधिसभा, सारनाथ, बनारस ईसा दर्शन : योहन फाईन, 1968, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर उत्तराध्ययनसूत्र : संपादक-पन्यास श्री भद्रंकरविजयजी गणि, प्रथम संस्करण - वि.सं. 2024, प्रकाशक-लब्धिभुवन जैन साहित्य सदन, छाणी, गुजरात उपदेशमाला : क्षमाश्रमण धर्मदास गणि, प्रथमावृत्ति-1971, अनुवादक-पद्मविजय, संपादक-नेमीचंद, निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन, दिल्ली उपनिषद् ज्योति : संपादक- पटेल मगनभाई चतुरभाई, प्रथमावृत्ति-1929, अहमदाबाद उपनिषद् समुच्चयः संपादक- स्वामि शिवानन्दजी आंत्रोली : प्रथमावृत्ति - 1960, शिवाश्रम उपासकदशांग सूत्र बालावबोध : प्रथमावृत्ति-वि.सं. 2054, प्रकाशक- श्री राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद उपासना कक्षः प्रकल्प आ. श्री महाप्रज्ञ, युवाचार्य श्री महाश्रमण, प्रथमावृत्ति-नवम्बर 1999, कल्पसूत्र बालावबोध : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि, प्रथमावृत्ति-वि.सं. 1944, प्रकाशक- श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय, खुडाला (राज.) कल्पसूत्र बालावबोध (हिन्दी): आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जी, हिन्दी आवृत्ति - आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी, प्रकाशक- श्री राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, श्री राजेन्द्र सूरि ज्ञानमंदिर, राजेन्द्र सूरि चौक, रतनपोल, अहमदाबाद कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि, प्रथमावृत्ति-सन् 1933, प्रकाशक - श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय, खुडाला (राज.) कार्तिकेय अनुप्रेक्षा : आचार्य स्वामी कार्तिकेय, तृतीयावृत्ति-वीर नि. सं. 2505, भाषाटीका-पं. जयचन्द्र छाबडा, प्रकाशक- श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र) कुरआन मजीद, हिन्दी : अनुवादक- फतेह मुहम्मद खाँ साहब, जालन्धरी, प्रकाशक-फरीद बुक डिपो, देहली-6 कुरान सार : विनोबा भावे, प्रथम संस्करण-1968, यज्ञ प्रकाशन, बडोदरा (गुजरात) गच्छाचार पयन्ना, संस्कृत छाया : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि, संपादक-उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी, द्वितीयावृत्ति-वि.सं. 2048, प्रकाशक-शाह अमीचंदजी नाराजी दाणी, धाणसा (राज.) .गुणस्थानक्रमारोह : सूरितिलक श्री रत्नशेखरसूरि, प्रथमावृत्ति-वि.सं. 2038, प्रकाशक-दिव्यदर्शन ट्रस्ट, अहमदाबाद Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन गुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्त्रिंशिकाकुलकम् । श्री हेमतिलकसूरि, वृत्तिकार - श्री रत्नशेकरसुरी, प्रकाशक श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर । वि.सं. 1971 - गुरुणी श्रीहेत श्री पुण्य- स्मारिका ग्रंथ : सम्पादिका-साध्वी मुक्तिश्रीजी, प्रथमावृत्ति - सन् 1988, प्रकाशक - आहोर श्रीसंघ (राज.), मुद्रक - गुप्ता प्रिंटिंग प्रेस, उज्जैन (म. प्र. ) गोम्मटसार (जीवकाण्ड एवं कर्मकाण्ड), सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषा टीका सहित) : आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, भाषा टीका- पं. टोडरमलजी, प्रथमावृत्ति - 1989, प्रकाशक - श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर गौतमपृच्छा : पूर्वाचार्य, प्रकाशक - चिनुभाई त्रिकमलाल शाह, ढालनी पोल, अहमदाबाद। वि.सं. 1957 ग्लासरी ऑफ इण्डियन लोजिक : चाणक्य का राजनीतिशास्त्र : चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस वाराणसी प्रकाशक : इंटरनेशनल अकादमी ऑफ इण्डियन कल्चर, दिल्ली चरक संहिता : सम्पादक पं. सत्यनाराण शास्त्री, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस वाराणसी चरित्रचतुष्टयम् : श्रीमद् राजेन्द्रसूरि जैन ग्रंथमाला, पुष्प - 32, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 1984, मुद्रक - आनंद प्रिंटिंग प्रेस, भावनगर, प्रकाशक - शाह सूरसिंग जीवराज ऊमा जी, सियाणावाला : छहढाला : कविवर पं. दौलतरामजी, द्वादशावृत्ति - वीर सं. 2515, प्रकाशक- श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र) छान्दोग्य उपनिषद् : गीता प्रेस, गोरखपुर जिनवरस्य नयचक्रम् डो. हुकमचन्द भारिल्ल, प्रथमावृत्ति - 1982, प्रकाशक- पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4, बापूनगर, जयपुर (राज.) जिनागमसार : संकलन एवं संपादन - पवन जैन, प्रथमावृत्ति - अक्टूबर 1996, प्रकाशक - श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु मण्डल, 32, गांधीरोड, देहरादून जिनेन्द्र पूजा संग्रह : संपादक- आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरि, सप्तमावृत्ति - वि.सं. 2045, प्रकाशक - श्री राजेन्द्रसूरि साहित्य प्रकाशन मंदिर, रतनपोल, श्री राजेन्द्र चौक, अहमदाबाद (गुज.) जीवन प्रभा : मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी, प्रथमावृत्ति सन् 1916, मुद्रक - निर्णय सागर प्रेस, मुम्बई, प्रकाशक- शाह जवानमल चमना जी पोरवाड, वागरा - परिशिष्ट... [13] (राज.) जीवन विज्ञान, प्रेक्षा ध्यान एवं योग : लेखक - डॉ. बी.पी. गौड एवं सुश्री हेमलता जोशी, संस्करण 2003, जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं, राजस्थान जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप : साध्वी डॉ. सुरेखाश्रीजी, प्रथमावृत्ति सन् 1998, प्रकाशक- विचक्षण स्मृति प्रकाशन, जयपुर (राज.) जैन धर्म और दर्शन : - मुनि प्रमाणसागरजी, संशोधित संस्करण- सन् 1998, प्रकाशक - श्री दि. साहित्य प्रकाशन समिति, बरेला, जबलपुर (म.प्र.) जैन धर्म का परिचय : - आचार्य श्रीमद्विजय भुवनभानु सूरि प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2048, प्रकाशक - दिव्य दर्शन ट्रस्ट, 868, कालुशानी पोल, कालुपुर, अहमदाबाद जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग 1 एवं भाग 2 : डो. सागरमल जैन, प्रथमावृत्ति सन् 1982, प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर (राज.), प्रा. पार्श्वनाथ शोध संस्थान, वाराणसी नैन परम्परानो इतिहास, भाग 1-2-3 : भुनित्रयश्री दर्शन-ज्ञान-न्याय विश्य, त्रिपुटी महाराष्ट्र, प्रथम संस्डर-1960, प्रकाश श्री यारित्र स्मार5 ग्रंथमाला, नागल लूघरनी पोज, मांडवीनी पोज, समहावाह Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [14]... परिशिष्ट जैन साहित्य का बृहद् इताहास - भाग - 4 डॉ. मोहनलाल मेहता, प्रकासक - जैनाचार विज्ञान : अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पार्श्वनाथ शोध संस्थान, वाराणसी - प्रथमावृत्ति - सन् 1968 मुनि सुनीलसागर, प्रकाशक - कुन्दकुन्द विद्यापीठ, 584, महात्मा गांधी मार्ग, तुकोगंज, इन्दौर - 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 1-4 : जिनेन्द्र वर्णी, प्रथमावृत्ति - 1973, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश : जिनेन्द्र वर्णी, द्वितीयावृत्ति - सन् 1985, प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, नईदिल्ली ज्ञानसाराष्ट्रक : महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 1994, प्रकाशक - श्री केशरबाई जैन ज्ञानमंदिर, पाटण (गुज.) ज्ञानार्णव : श्री शुभचन्द्राचार्य, भाषाटीका - श्री पन्नालाल कासलीवाल, पंचमावृति सन् 1981, प्रकाशक- श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास तत्त्वार्थ भाष्य : वाचक श्रीमद् उमास्वाति महाराज, हिन्दी अनुवाद - पं. खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, प्रथमावृत्ति - वि. सं. 1989, प्रकाशक - श्री परमश्रुत प्रभावक जैन मण्डल, जौहरी बाजार, खारा कुँवा, मुम्बई -2 तत्त्वार्थभाष्य वृत्ति : आचार्य हरिभद्रसूरि, प्रकाशक - ऋषभदेव केशरीमल जैन श्वेताम्बर पेढी, रतलाम (म. प्र. ) तत्त्वार्थसूत्र : सर्वार्थसिद्धि टीका : टीकाकार - पूज्यपाद, संपादक - शास्त्री फूलचन्द, द्वितीय संस्करण- 1971, वाराणसी भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी તત્ત્વાર્થસૂત્ર, ગુજરાતી વિવેચન : खायार्यश्री रामशेजरसूरि, तृतीयावृत्ति - वि.सं. 2048, प्रकाश- श्री हैन श्रेयस्डर भंडण, महेसाशा, गुभ्रात तत्त्वार्थसूत्र, भाष्य : - भाष्यकार - आचार्य सिद्धसेन गणि, संपादक - कापडिया हीरालाल रसिकलाल, प्रथम संस्करण- 1915, जीवनचन्द साकरचन्द झवेरी, बम्बई तत्त्वार्थसूत्र, राजवार्तिक : वार्तिककार - अक्लंक देव, संपादक- जैन महेन्द्रकुमार भाग-1-2, प्रथमावृत्ति 1953 1957 भारतीय ज्ञानपीठ, काशी तत्त्वार्थ सूत्र, सर्वार्थसिद्धि टीका : आचार्य पूज्यपाद, प्रथमावृत्ति सन् 1989, भारतीय ज्ञानपीठ, नईदिल्ली तण्डुलवैचारिक-प्रकीर्णक : श्रुतस्थविर, संपादक- आचार्य श्रीमद्विजय जिनेन्द्रसूरि प्रकाशक- हर्षपुष्पामृत जैन ग्रंथमाला, लाखा बावल, शांतिपुरी, (जि. जामनगर) सौराष्ट्र तपागच्छ पट्टावली : श्री धर्मसागरजी, संपादक-पन्यास श्री कल्याणविजयजी, प्रथमावृत्ति - वि. सं. 1996, प्रकाशक - विजयनीति सूरिश्वर जी जैन लाईब्रेरी, अहमदाबाद तिलोय पण्णत्ति : प्रथमावृत्ति - वि.सं. 1999, प्रकाशक- जीवराज ग्रंथमाला, सोलापुर तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ : ड. हुकमचन्द भारिल्ल, प्रथमावृत्ति - 1974, प्रकाशक- पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4, बापूनगर, जयपुर थेरगाथा : अनुवादक - भिक्षु धर्मरत्न, प्रथमावृत्ति सन् 1955, प्रकाशक- महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी દરેક ધર્મની દૃષ્ટિએ અહિંસાનો વિચાર : से. खायार्य श्रीमह् विश्यमित्रानंहसूरि, प्रथमावृत्ति, प्र. श्री पद्मविश्यक गतिवर हैन अंथभाणा ट्रस्ट, शाहपुर, महावाह दशवैकालिक सूत्र - सार्थ : श्री शय्यम्भवूरि जी, प्रथमावृत्ति - वीर सं. 2516, संपादक - मुनि श्री जयानंद विजयजी, प्रकाशक - श्री गुरु रामचन्द्र प्रकाशन समिति, भीनमाल (राज.) दानधर्मं : - मुनिप्रवर पुण्यकुशल गणि, संपादक- आ. विजय जिनेन्द्र सूरीश्वर प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2040, प्रकाशक- श्री हर्ष ग्रंथांक- 133, ळाखा बावाल, शांतिपुरी (सौराष्ट्र) पुष्पामृत जैन ग्रंथमाला, Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिशिष्ट... [15] देववंदनमाला : संपादक-आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि, द्वितीयावृत्ति - वि.सं. 2048, प्रकाशक- श्री राज राजेन्द्र साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद द्रव्यानुयोग तर्कणा : श्री भोजकवि, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2432, प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका: आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर, प्रथमावृत्ति-वि.सं. 2008, प्रकाशक-श्रीमद्विजय लावण्यसूरि ज्ञानमंदिर, बोटाद (सौराष्ट्र) धनंजय नाममाला: महाकवि धनञ्जय, द्वितीयावृत्ति-2037, प्रकाशक- श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रंथमाला, लाखा बावल, शांतिपुरी (जि. जामनगर) सौराष्ट्र घनसार और अघटकुंवर चोपाई : श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी एवं मुनि धनविजय जी, वि.सं. 1964, मुद्रक-जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम, म.प्र. घम्मपद : अनुवादक-राहुलजी, प्र. बुद्ध विहार, लखनऊ धरती के फूल : मुनि श्री देवेन्द्र विजयजी, प्रथमावृत्ति-वि.सं. 2034, प्रकाशक-राजेन्द्र विहार दादावाडी, तलेटी रोड, पालीताणा (सौराष्ट्र) धर्मरत्न प्रकरण : श्री शान्तिसूरि, वि. सं. 2038, प्रकाशक-दिव्यदर्शन ट्रस्ट, 39, कलिकुंड सोसायटी, धोलका (गुज.) धर्मसंग्रह : पाठक मानविजयजी महाराज, भाषान्तर - श्री भद्रंकरविजयजी, द्वितीयावृत्ति-वि.सं. 2012, प्रकाशक- शाह अमृतलाल जेसींग भाई, कालुपुर, जहाँपनाहनी पोल, अहमदाबाद नंदिसुत्तं-अणुओगदाराई : संपादक-पुण्यविजयमुनि, मालवणिया: दलसुख अमृतलाल, प्रथम संस्करण-1968, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई नियमसार : कुंदकुंदचार्य, सम्पादक - ब्र. - शीतल प्रसाद, प्रथमावृत्ति-1961, जैन ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई नियुक्ति संग्रह : श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी, प्रथमावृत्ति - सन् 1979, संपादक - श्रीमद्विजय जिनेन्द्रसूरि, प्रकाशक- श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रंथमाला, लाखा बाखल, शांतिपुरी (सौराष्ट्र) निशीथसूत्र, चूर्णि, भाग 1-4 : विसाह गणि, चूर्णि - जिनदास महत्तर, सम्पादक-अमर मुनि कन्हैयालाल नीति शिक्षा-द्वय पच्चीसी : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि , प्रथमावृत्ति -सन् 1992, प्रकाशक - श्री राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, रतनपोल, अहमदाबाद-1 न्याय दर्शन, वात्स्यायन भाष्य सहितः सम्पादक-शास्त्री दुण्डिराज, द्वितीय संस्करण-1970, वाराणसी चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस, वाराणसी न्यायाचार्य डो. दरबारीलाल कोठिया अभिनन्दन ग्रंथ : प्रथमावृत्ति-सन् 1982, प्रकाशक-कोठिया अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशन समिति, वाराणसी, मुद्रक: महावीर प्रेस भेलपुर, वाराणसी, पंचाध्यायी: कविवर पं. राजमलजी, संपादक-फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, प्रथमोवृत्ति-वीर निर्वाण सं. 2476, भाषाटीका पं. देवकीनन्दन जी सिद्धान्तशास्त्री, प्रकाशक- श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रंथमाला, बनारस पञ्चास्तिकायसार : कुंदकुंदचार्य, सम्पादक - चक्रवर्तिनयनर, 1920, सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, आरा पञ्चवस्तु, भाषांतर : आचार्य हरिभद्रसूरि, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 1993, प्रकाशक श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेतांबर संस्था पञ्चप्रतिक्रमण सूत्र : सम्पादक-उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी, प्रकाशक-कान्ति प्रकाशन, बाडमेर पञ्चसप्ततिशत स्थान चतुष्पदी : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी, प्रथमावृत्ति - सन् 1935, प्रकाशक-श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय, मु. खुडाला (राज.) Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [16]... परिशिष्ट पञ्चशकशास्त्र सारांश : आचार्य श्री हरिभद्रसूरि, द्वितीयावृत्ति - वि.सं. 2004, प्रकाशक पण्णवणा सुत्तं भाग 1-2 : संपादक - पुण्यविजय, प्रथम संस्करण - 1925 1927, मुद्रक - मालवणिया दलसुख अमृतलाल बम्बईः महावीर जैन विद्यालय, बम्बई પરમ યોગીશ્વર : ले. मुनि श्री नयन्त विश्यक 'मधुर', प्रथमवृत्ति - वि.सं. 2035, प्रकाश - श्री राकेन्द्र जैन नवयुवा परिषह, अमहावाह (गुठरात) पर्वकथा संचय : संपादक - मुनिराज श्री देवेन्द्रविजय जी, प्रथमावृत्ति - अगस्त 1971, प्रकाशक- श्री राजेन्द्र विहार संस्था, तलेटी रोड, पालीताणा (सौराष्ट्र) पाइय सद्द महण्णव : पं. हरगोविन्ददास त्रिकमचंद शेठ, प्रकाशक - मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, द्वितीयावृत्ति-सन् 1963 पातञ्जल योगदर्शन (व्यासभाष्य सहित ) : चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी पुरुषार्थसिद्धयुपाय : श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य, प्रथमावृत्ति - वि. सं. 2029, भाषाटीका - पं. टोडरमल जी, प्रकाशक - (सौराष्ट्र) प्रतिभा शत (गुभराती विवेशनयुक्त ) : ले. महोपाध्याय श्री यशोविश्यक अनुवाद मुनि अतिशेषर विभ्य (शि. खा. भुवनलानुसूरि) प्रकाश - श्री अंधेरी गुभराती वैन संघ, 106, भेस. वी. रोड, हर्ता श्री, भुंज - 36. अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन - श्री सिद्धचक्र साहित्य समिति, सूरत - प्रभुस्तवन सुधाकर : संपादक - मुनि श्री देवेन्द्रविजयजी, द्वितीयावृत्ति सन् 1973, प्रकाशक - प्रमाण मीमांसा : आचार्य हेमचंद्र सूरि, सं.- पं. सुखलालजी संघवी, प्रथमावृत्ति - वि.सं 1986, प्रकाशक- सिंधी जैन ज्ञानपीठ, कलकत्ता - प्रवचनसार : कुंदकुंदचार्य, सम्पादक उपाध्यये आदिनाथ, तृतीयावृत्ति - 1964, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, आगास प्रवचनसारोद्धार : - आचार्य नेमिचन्द्रसूरि, प्रथमावृत्ति सन् 1941, प्रकाशक - जीवनचन्द झवेरचन्द झवेरी, मुद्रक - निर्णयसागर प्रेस मुम्बई प्रशमरति प्रकरण : वाचक श्रीमद् उमास्वाति प्रथमावृत्ति सन् 1950, प्रकाशक - बारसाणुवेक्खा : - श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ श्री राजेन्द्र विहार, दादावाडी, पालीताणा (गुजरात) कुंदकुंद आचार्य, प्रथमावृत्ति 1991, प्रकाशक पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4, बापूनगर, जयपुर वृहद् द्रव्यसंग्रह : आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2033, टीकाकार श्री ब्रह्मदेव, भाषाटीका - पं. राजकिशोरजी जैन, प्रकाशक- श्री वीतराग सत्यसाहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, भावनगर श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, झवेरी बाजार, मुम्बई-2 ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य सहित : अनुवादक - स्वामी सत्यानंद सरस्वती, प्रथम संस्करण, गोवंद मठ, टेडी नीम, वाराणसी ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य सहित : संपादक - शास्त्री ढुण्डिराज, प्रथमावृत्ति - 1929, चौखम्बा सीरिज ओफिस वाराणसी भगवती आराधना : अपराजितसूरि, सन् 1941, प्रकाशक- जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर भगवती सूत्रवृत्ति : अभयदेवसूरि, अनुवादक- बेचरदास जीवराज, प्रथमावृत्ति - 1913, जैनागम प्रकाशन संस्था, बम्बई भगवदीता रहस्य : तिलक बालगंगाधर अनुवादक - त्रिवेदी उत्तमलाल के., द्वितीयावृत्ति - 1924, रामचन्द्र अने टिलक श्रीधर, पूना Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिशिष्ट... [17] भागवत दर्शन : भागवत दर्शन, 1963, भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ भारतीय दर्शन : डॉ. बलदेव उपाध्याय, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी भारतीय दर्शन का इतिहास भाग 1-7 : प्रथमावृत्ति - 1979, वाराणसी भारतीय विद्या प्रकाशन भावना भवनाशिनी: श्री राजेन्द्र मुनि, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2041, प्रकाशक - श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर मनुस्मृति : टीकाकार-पंडित श्री हरगोविन्द शास्त्री, प्रथमावृत्ति-1965, प्रकाशक-चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी महापुराण : आचार्य जिनसेन, प्रथमावृत्ति - सन् 1951, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस महाभारत, अनुशासन पर्व, गुजराती अनुवाद : संपादक - भट्ट मणिशंकर महानन्द, चतुर्थ संस्करण-1923, कालबादेवी रोड, बम्बई महाभारत, भीष्म पर्व : संपादक - शास्त्री गिरिजाशंकर मायाशंकर, द्वितीयावृत्ति-1941, सस्तु साहित्यवर्धक कार्यालय, अहमदाबाद महाभारत, वन पर्व : संपादक- भट्ट मणिशंकर महानन्द, चतुर्थ संस्करण-1923, कालबादेवी रोड, बम्बई महाभारत, शांति पर्व : पुण्यपतनः शंकर नरहर जोशी, प्रथम संस्करण-1932, अनुवादक एवं संपादक-शास्त्री गिरिजाशंकर मायाशंकर, अहमदाबाद: सस्तु साहित्यवर्धक कार्यालय पंचमावृत्ति-1926 मिला प्रकाश खिला बसंत : आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2056, प्रकाशक - श्री राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद मूलाचार : आचार्य वट्टकेर, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2447, प्रकाशक - माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, बम्बई मुहावरा कोशः लेखक - हरिवंश राय शर्मा, संस्करण 1997, राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली यतिदिनचर्या : श्री भावदेवसूरि, चूर्णिकार-श्री मतिसागरसूरि, प्रकाशक - श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, लाखा बावल, शांतिपुरी (सौराष्ट्र), प्रथमावृत्तिसन् 1967 यास्क निरुक्तः सम्पादक - प्रो. उमाशंकर ऋषि, प्रथम संस्करण, 1961, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी योगदर्शन : संपादक - शर्मा श्री राम, प्रथम संस्करण, 1964, बरेली संस्कृति संस्थान योगासार: आचार्य श्री अमितगति, प्रथमावृत्ति - सन् 1968, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली योगशास्त्र (हिन्दी अनुवाद सहित): कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि, हिन्दी अनुवाद-मुनीश्री पद्मविजय जी, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2031, प्रकाशक-श्रीनिर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ, दिल्ली-6 योगशास्त्र प्रकाशः कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्रसूरि, प्रथमावृत्ति 1983, प्रकाशक-श्री केशरबाई ज्ञान मंदिर, पंचासरा, पाटण (उ.गुजरात) યુગયુગની યાદ : संपाद - तिमालाल वोरा मेवं वाघमारास वोरा, प्रथमावृत्ति-वि.सं. 2044, 913 - श्री सौधर्म पत्तागीय જૈન શ્વેતામ્બર મૂર્તિપૂજક શ્રીસંઘ, થરાદ (ગુજરાત) Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [18]... परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन रत्नकरण्डक श्रावकाचार : स्वामी समन्तभद्र आचार्य, द्वितीयावृत्ति - जनवरी 1997, प्रकाशक-श्री वीतराग विज्ञान स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, वीतराग विज्ञान भवन, पुरानी मण्डी, अजमेर (राज.) राजेन्द्र कोश में 'अ' (प्रथम भाग): आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि, द्वितीयावृत्ति सन् 1997, प्रकाशक - श्री राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, रतनपोल, राजेन्द्र चौक, अहमदाबाद. राजेन्द्र कोश में 'अ' (द्वितीय भाग): आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि, प्रथमावृत्ति-2001, प्रकाशक - वही राजेन्द्र गुणमञ्जरी : मुनि गुलाब विजयजी, प्रथमावृत्ति - सन् 1939, प्रकाशक - श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छ श्वेताम्बर जैन श्रीसंघ, आहोर (राज.) राजेन्द्र ज्योतिः प्रथमावृत्ति - सन् 1977, प्रकाशक - अखिल भारतवर्षीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद, मुद्रक-नईदुनिया प्रेस इन्दौर, प्राप्तिस्थान - अखिल भारतवर्षीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद भवन, राजगढ (जिला-धार), म.प्र. राजेन्द्रसूरि का रासः (पाण्डुलिपि), श्री राजेन्द्र ज्ञान भण्डार, श्री राजेन्द्र पौषधशाला, कुक्षी, जिला-घार (म.प्र.) राजेन्द्र सूर्योदय : प्रकाशक-त्रण थुईनो समस्त संघ, प्रथमावृत्ति- अगस्त 1903, देशी मित्र मण्डल, सूरत (गुजरात) रात्रिभोजन का रास : श्री जिनहर्षसूरि, पाटण (उ.गु.), रचनाकाल-अषाढ वदि प्रतिपदा, वि.सं. 1759 रिसर्च ऑफ डाइनिंग टेबल : आचार्य श्रीमद्विजय हेमरत्नसूरि, सप्तमावृत्ति - वि.सं. 2054, प्रकाशक - श्री अर्हद् धर्म प्रभावक ट्रस्ट, बी.जी. यवर्स, अहमदाबाद लोक प्रकाश भाग 1 (द्रव्यलोक): उपाध्याय मुनि श्री विनयविजयजी, प्रथमावृत्ति, सम्पादक-मुनि श्री वज्रसेन विजयजी, प्रकाशक-कोठारी मेरुलाल कन्हैयालाल रीलीजीयन ट्रस्ट, चंदनबाला, वालकेश्वर, मुम्बई-400006 लोकोक्ति कोश : लेखक - हरिवंशराय शर्मा, संस्करण 1997, राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली लाही संहिता : कवि राजमल जी, प्रकाशक - माणिकचन्द जैन ग्रंथमाला, मुम्बई वसुनंदी श्रावकाचार : आचार्य वसुनंदी, प्रथमावृत्ति - सन् 1992, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, नईदिल्ली વિરલ વિભૂતિ : तिमाहासह पोश, थरा, द्वितीयावृत्ति - सन् 1922, 45 - श्रीन साहित्य महभी, गांधीधाम (४२५७) विशेषावश्यक भाष्य भाग-1-2 : मल्लधारी हेमचन्द, अनुवादक - शाह चुन्नीलाल हुकमचंद, प्रथमावृत्ति - 1924, आगमोदय समिति, बम्बई : विशेषावश्यक भाष्य, भाग-1-2 : जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2039, प्रकाशक - दिव्यदर्शन ट्रस्ट विश्वपूज्य : साध्वी डॉ. प्रियदर्शनाश्री एवं डॉ. सुदर्शनाश्री, प्रथमावृत्ति - सन् 1998, मुद्रक - पारदर्शी प्रिन्टर्स 261, त्रम्बावती मार्ग, उदयपुर (राज.), प्राप्तिस्थान - शाह. देवीचंद छगनलाल, सदर बाजार, भीनमाल, जि. जालोर (राज.) वैशेषिक दर्शन (प्रशस्तपादभाष्य सहित): सम्पादक - शास्त्री ढुण्डिराज, प्रथम संस्करण-1966, वाराणसी चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस, वाराणसी व्रतविधान संग्रहः पं. बारेलाल जैन (राजवैद्य), प्रकाशक - वैद्य बाबूलाल राजेन्द्रकुमार जैन, टीकमगढ़ (म.प्र.) શંખેશ્વર મહાતીર્થ : भुनिश्री ४यंत वि०४५७, त्री० आवृत्ति, वि.सं. 1967 प्र. श्री. यशोवि४40 8 ग्रंथमा , भावनगर, रात Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन शब्दरत्नमहोदधिः 1, 2, 3 संकलनकर्ता - श्रीमुनि विजयजी गणिवर, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2041, प्रकाशक - श्री विजयनीति सूरिश्वर जी जैन पुस्तकालय ट्रस्ट, अहमदाबाद 'शाश्वत-धर्म' मासिक, जनवरी-फरवरी, सन् 1990 : राजेन्द्र विशेषांक : संपादक - जे.के. संघवी, शाश्वत धर्म कार्यालय, जामली नाका, - 'शाश्वत धर्म' मासिक, जनवरी-फरवरी, सन् 1987 : श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि विशेषांक : संपादक - जे.के. संघवी, शाश्वत धर्म कार्यालय, जामली नाका, थाणे (महाराष्ट्र) शासन प्रभावक श्रमण भगवन्तो : संपादक - नंदलाल देवलुक, प्रथमावृत्ति, सन् 1990, प्रकाशक - श्री अरिहंत प्रकाशन, भावनगर -2 (सौराष्ट्र) शास्त्रार्थ दिग्दर्शनः सं.- मुनिश्री विद्याविजयजी, प्रथमावृत्ति सन् 1924, प्रकाशक- मालवदेशीय सत्य प्रकाशक जैन युवक मण्डल शोभन स्तुतिचतुर्विंशतिका : शोभनसूरि, प्रथमावृत्ति - वि. सं. 2453, प्रकाशक - श्री आगमोदय समिति:, थाणे (महाराष्ट्र) - श्रमणसूत्र : प्रथमावृत्ति - सन् 1966, प्रकाशक - सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा શ્રાદ્ધ ગુણ વિવરણ : परमर्षि - श्री विनमंडन गणि, प्रथभावृत्ति - वि.सं. 2007, अनुवाद - मुनिश्री यतुर विष्वयक म.सा. प्राश- श्री विश्यनीतिसूरीश्वर જૈન લાયબ્રેરી, અમદાવાદ શ્રાદ્ધવિધિ પ્રકરણ : से. श्री रत्नशेजरसूरि, संपा६-मुनि व्यदर्शन विश्यगशि, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2056, प्रकाश - विनाज्ञा प्राशन, वापी (गुठरात) શ્રાવક પ્રજ્ઞપ્તિ : આચાર્ય ઉમાસ્વાતિ, ટીકાકાર - હરિભદ્રસૂરિ, સંપાદક અને અનુવાદક - રાજેન્દ્ર વિજયજી प्रथमावृत्ति-1972, प्रकाश-संस्डार साहित्य सहन, डीसा ( गुठरात) श्रीमद् धनचंद्र सूरीश्वरजी महाराज का संक्षिप्त जीवन चरित्र : मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 1980, मुद्रक श्री जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम, म.प्र. श्रीमद् भगवदीता : महर्षि व्यास, गीता प्रेस, गोरखपुर - श्रीमद् राजेन्द्रसूरि (पद्य): मिश्रलाल जी ओंकार जी वकील साहब (कुक्षी), द्वितीयावृत्ति सन् 1999, प्रकाशक - - परिशिष्ट... [19] (गुज.) श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : प्रथमावृत्ति, वि.सं. 2013, प्रकाशक - श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय जैन श्वेताम्बर श्रीसंघ, आहोर - वागरा, (राज.), प्राप्तिस्थान- श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय, खुडाला (राज.) श्रीमद्विजय धनचंद्रसूरिजी महाराज का संक्षिप्त जीवन चरित्र : मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 1980, प्रकाशक - श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय श्रीसंघ, धानेरा (गुज.) श्रीराम भक्ति का विकास : - श्री राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, रतनपोल, (अहमदाबाद) डॉ. एम.पी. त्रिपाठी, प्रथमावृत्ति - सन् 1993, प्र. - श्री मानस प्रकाशनम्, इन्दौर, मु. - सर्वोत्तम प्रिंटिंग प्रेस इन्दौर ષડશીતિ નામનો ચતુર્થ કર્મગ્રંથ : લે. આચાર્યશ્રી દેવેન્દ્રસૂરિ, વિવેચક-આચાર્ય શ્રીમદ્વિજય વીરશેખરસૂરિ, પ્રથમાવૃત્તિ, પ્ર. ભારતીય પ્રાચ્યવિદ્યા પ્રકાશન સમિતિ પિંડવાડા (२1४. ) षड्द्रव्य विचारः आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी, प्रथमावृत्ति सन् 1992, संपादक श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी, प्रकाशक श्री राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, रतनपोल, अहमदाबाद-1 षोडशक प्रकरण भाग-1-2 : आचार्य हरिभद्रसूरि, संपादक-मुनिश्री यशोविजयजी, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 2052, प्रकाशक- श्री अंधेरी गुजराती संघ, करमचंद जैन पौषधशाला, 106, एस.वी. रोड, इर्ला ब्रिज, अँधेरी वेस्ट, बम्बई - 56 - Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20]... परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सत्त्थसमर्थक प्रश्नोत्तरी : संकलन-आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि, द्वितीयावृत्ति - सन् 1989, प्रकाशक-श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय जैन श्वेताम्बर श्रीसंघ, श्री राजेन्द्रसूरि साहित्य प्रकाशन मंदिर, रतनपोल, अहमदाबाद सन्मति प्रकरण : आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, संपादक-पं. सुखलाल संघवी एवं बेचरदास दोशी, प्रथमावृत्ति-1932, पूंजाभाई जैन ग्रंथमाला, अहमदाबाद समवायांग सूत्रः सम्पादक-कन्हैयालाल मुनि, प्रथमावृत्ति, प्रकाशक-जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट सम्यक्त्वसप्ततिकाः विबुधविमलसूरि, प्रथमावृत्ति - सन् 1916, नगीनभाई, घेलाभाई झवेरी, बम्बई सम्यक्त्व सप्ततिका : आचार्य हरिभद्रसूरि, वृत्ति-संघतिलकाचार्य, प्रथम संस्करण-1961, पकाशक-जैन पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई संयुक्त निकायः भिक्षु जगदीश काश्यप, सम्पादक-भिक्षु धर्मरक्षित, प्रथमावृत्ति - 1954, प्रकाशक-महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी सागार धर्मामृत : पं. आशाधर, प्रथमावृत्ति - सन् 1972, प्रकाशक - भारतीय दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, मुम्बई सांख्याकारिका: र. ईश्वरकृष्ण, सम्पादक - चतुर्वेदी ब्रजमोहन, प्रथमावृत्ति - 1964, नेशनल पब्लिसिंग हाउस, दिल्ली सांख्यदर्शन : संपादक - शास्त्री ढुण्डिराज, बनारस चौखम्बा सीरिज प्रथमावृत्ति - 1929, अनुवादक एवं सम्पादक - शर्मा श्री राम, संस्कृति संस्थान, बरेली सांख्ययोग : शाह नगीनजी, (षड् दर्शन) खण्ड-2, प्रथमावृत्ति-1974, अहमदाबाद युनिवर्सिटी ग्रंथ निर्माण बोर्ड, गुजरात साधुमर्यादा पट्टक : आचार्य श्रीमद्विजय देवसूरि, प्रथमावृत्ति - वि.सं. 1992, प्रकाशक - श्री जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, गुजरात सुत्तनिपात्त : अनुवादक- भिक्षु धर्मरत्न, प्रथम संस्करण सन् 1951, प्रकाशक - भिक्षु संघरत्न, महाबोधि सारनाथ, वाराणसी स्थानांग सूत्र : वृत्तिकार - आचार्य अभयदेवसूरि, प्रथमावृत्ति - 1918, प्रकाशक - आगमोदय समिति, मेहसाणा હતમુક્તિ સ્વયં સુધાઃ संप - मुनि यन्तवि४य, मधु२, प्रथमावृत्ति-वि.सं. 2038, 45 श्री ॐन्द्र भारिता भ31, अमहापा, प्राशिस्थान-श्री २०४न्द्रसूरि छैनशानाहरराठेन्द्र सूरियोड, रतनपोप, अमहावा-1. हैमानुशासनत्रकम् : संपादक-आचार्य श्रीमद्विजय कलापूर्ण सूरीश्वरजी, प्रथमावृत्ति - फरवरी सन् 1986, प्रकाशक - महावीर तत्त्वज्ञान प्रचारक मण्डल, अंजार (कच्छ) Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी डॉ. दर्शीतकलाश्री नाम साध्वी दर्शितकलाश्री लौकिकनाम : कु.सुरेखा दोशी पिता चंदुलालजी दोशी माता सविताबेन दोशी जन्मस्थान :थराद (गुज.) जन्मतिथि फाल्गुन शुक्ल 2 (दि.१५-२-१९६४, शनिवारदीक्षा वि.सं.२०४३ माघ शुक्ल 3 (दि.१२-१९८ता रविवार आचार्य राष्ट्रसन्त श्रीमद्विजय जयंतसनसरि म.सा. दीक्षागरूसाध्वी शशिकलाश्रीजी म.सा। 'अध्ययनलौकिक एम.ए. (संस्कृत) 'साध्वी डॉ.दर्शितकलाश्रीजी म.सा. आज से 42 साल पूर्व लोवाणा (थराद के पास) में सुपुत्री सुरेखाने माता सवितावेन की प्रथम संतान के रूप में जन्म लिया शालेय शिक्षण अहमदाबाद में ग्रहण करने के पश्चात् वर्तमानाचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा की भवनाशिनी वैराग्यसभर वाणी से वैराग्यवासित होकर श्री धनचन्दसरिजन पाठशाला-थरादाम प्राथमिक धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर वैराग्य को परिपक्क किया एवं वि.सं.२०४३ महा सुदि-३, रविवार दि.१-२-८० को आचार्यश्री की आज्ञानवर्सिनी तपस्वीरता पूज्या साध्वीजी भी शशिकलाश्रीजी म.सा.की सुशिष्या के रुपमभागवती प्रवज्या अंगीकार कर सा दर्शितकलाश्री के नाम से त्रिस्तुतिक या संदीवित हुए। दीक्षा के पक्षात सतत जी माल तक बिमिराहण-आसवन शिक्षा ग्रहण करते हुए संस्कृत, प्राकृत एव अनेकानेक धार्मिक दार्शनिक गंया का अस्वास किया अनेकविधतप आराधना की तप के साथ श्रीनवकार मन, श्री गोडीजीपाश्वनाथ परमात्मा एवं दादा गुरुदेवकि इष्ट आराधनापका नित्यक्रम रहा।। गजरात, राजस्थान मेवाड मारवाड) महाराष्ट मध्यप्रदेश आदितीथ स्थानोमें आपने सतत विहार किया। साथ होगुर्वाजा प्राप्त कर एम.ए तक की परीक्षा उत्तीर्ण ही एम.ए.मा सस्कृत-दर्शन गुप प्रथम स्थान प्राप्त करने पर। आपको पं.रामचन्द्र झा शास्त्री स्वर्णपदक से सन्मानित किया। इसके साथ ही आपने सिन्डहेमचन्द्र शब्दानशासना (संज्ञा संधिप्रकरण), हिन्दी व्याख्या, राजेन्द्र चौवीसी का आध्यात्मिक अनुशीलन एवं तत्वार्थसूत्र का दार्शनिक अनुशीलन नामक रचनाएँ की। दादा गुरुदेव की दिव्य असीवृष्टि कृपादृष्टि-वर्तमानाचार्य गुरुदेवनी के पूर्ण आशीर्वाद सतत मार्गदर्शन एवं अपनी गरुवर्याश्री की पावन पेरणा एवं अभा विस्तविक श्रीसंघ का पर्ण सहयोग पायक विश्वकोश' पर शोधकार्य किया। तलनात्मक भाषा एवं संस्कति विमाय देवी अहिल्या निशाना डॉ.हर्षदराय धोलकिया एवं डॉ गजेन्टकमार जैन के निर्देशनम श्री अभिधान राजेन्द्रकोशकोआचारपरक दाशनिक शब्दावली' शीर्षक के अन्तर्गत बहदाकार शोधप्रबन्धनिर्मित किया। इसके अन्तर्गत आपको दि.२७-६-64 को सीएच.डी. की उपाधि प्रदान की। आपके द्वारा अर्जित अभूतपूर्व सफलता के इस स्वर्णिम अवसर पर आपको हार्दिक बधाई देते हुए श्रीसंघ आपके शासन प्रभावना युक्त स्वस्थ दीर्घायु की मंगल कामना करता है।