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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [341]
क्षेत्र- काल-भाव में कब किस-विषय में किस प्रकार के अपवाद का सेवन करना? इसे जानना (5) समग्र धर्मसाधना विधिपूर्वक करने का पक्षपात रखना और (6) किस देश-काल के योग्य शास्त्रज्ञ गुरु का कैसा-कैसा व्यवहार
व वर्तन होता है, इसे समझना व इसका लाभानुलाभ सोचना ।। भावश्रावक के भावगत 17 लक्षण (गुण) :
भाव श्रावक को प्रतिदिन 1. स्त्री 2. धन 3. इन्द्रिय 4. संसार 5. विषय 6. आरंभ 7. गृह 8. सम्यक्त्व 9. लोक संज्ञा 10. जिनागम 11. दानादि 12. धर्म-क्रिया 13. अरक्त दिष्ट 14. अनागृही 15. असंबद्ध 16. परार्थभोगी 17. वेश्यावत् गृहवास, इन 17 विषयों पर विचारणा करनी चाहिए। 1. स्त्री को पापों व अनर्थ की प्रेरक चलचित्त और नरक की
दूती समझकर हितार्थी उसके वश में न होकर उसमें आसक्त
न हों। 2. धन अनर्थ, क्लेश और कलह की खान है, एसा समझकर
इसका लोभ न करना। 3. सब इन्द्रियाँ आत्मा की भाव-शत्रु हैं, जीव को दुर्गति में
घसीट कर ले जानेवाली हैं, एसा समझकर उन पर अंकुश रखना। संसार पाप-प्रेरक है, दुःख रुप है, दुःखदायी है व दुःखानुबंधी है। यह विचार रखकर इससे मुक्त होने के लिए आतुरता
व शीध्रता रखनी चाहिए। 5. शब्द, रुप, रस, गंध, स्पर्श - ये सब विषय विषरुप हैं,
अत: इनसे रागद्वेष न करना। विषय सच्चैतन्य के मारक होने से विषरुप हैं। सांसारिक कार्य आरंभ-समारंभमय जीवघात से पूर्ण हैं; एसा सोचकर बहुत कम आरंभो से चलाना। "गृहवास षटकायजीव-संहारमय व अठारह पापस्थानकों से पूर्ण हैं" -एसा विचार कर इसे पाप-सेवन की पराधीनता की बेडी रुप होने से कारागार-निवास जैसा समझना । साधुदीक्षा के लिए इसे छोडने का यथाशक्ति प्रयास करना । सम्यक्त्व को चिंतामणि रत्न से भी अधिक मूल्यवान् और अतिदुर्लभ समझकर सतत शुभभावना और शुभ कृत्यों से एवं शासन की सेवा व प्रभावना द्वारा सम्यक्त्व को स्थिर रखना, इसे निर्मल करते रहना, इसके सामने महान् वैभव
भी तुच्छ जानना। 9. लोकसंज्ञा अर्थात् गतानुगतिक लोक की प्रवृत्ति और मानाकांक्षा
की ओर आकृष्ट न होकर सूक्ष्म बुद्धि से विचार करना। 10. 'जिनागम के बिना लोक अनाथ है, क्योंकि जिनागम को
छोडकर कोई परलोक हित का सच्चा मार्ग बतानेवाला नहीं है' -एसी दृढ श्रद्धा से जीवन में जिनाज्ञा को प्रधान करके अर्थात् जिनागम को ही सम्मुख (ध्यान में) रखकर सब कार्य
करना। 11. दानादि धर्म को आत्मा की अपनी परलोकानुयायी संपत्ति
समझकर, शक्ति को छिपाये बिना अच्छी प्रकार दानादि__आचरण में आगे बढना। 12. दुर्लभ तथा चिंतामणी रस्त्र के समान अमूल्य एकान्त हितकारी
निष्पाप धर्मक्रिया का यहाँ स्वर्णिम अवसर मिला है, इसका
सुरीति से उपयोग करते हुए यदि इसमें अज्ञानी कभी हंसी मजाक भी करें तो उससे लज्जित नहीं होना। किन्तु उसकी
उपेक्षाकर धर्मक्रिया में बहुत उद्यत रहना। 13. धन, स्वजन, आहार, गृह आदि को मात्र देहनिर्वाह के साधन
मानकर, एसे सांसारिक पदार्थो में राग, द्वेष न करते हुए मध्यस्थ
रहना। 14. उपशम को ही सुख रुप और प्रवचन का सार समझकर उपशम
प्रधान विचारों में ही रमण करना । मध्यस्थ और स्वपर हितकारी रहते हुए किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं करना, सत्य का आग्रही
बना रहना। 15. समस्त वस्तु की क्षण भंगुरता मन में सतत भावित करते
रहना, व स्वजनादि में बैठे हुए भी इन सबका संयोग भी नाशवान् है' -एसा समझकर इन्हें 'पर (स्वयं की आत्मा से अलग) मान लेना' हृदय के भावों से असंबद्ध रहना,
अर्थात् इन पर आंतरिक ममता का संबंध न रखना। 16. संसार के प्रति विरक्त मनवाला बनकर 'भोग अभोग कभी
तृप्ति करने वाले नहीं, इनसे कभी तृप्ति नहीं होती हैं, अन्यथा इनकी तृष्णा बढती हैं।' एसा मानकर, यदि कामभोग में प्रवृत्त भी होना पडे तो वह केवल कुटुंबियो का मुँह रखने के लिए ही प्रवृत्त होना, किन्तु इन्हें मौज-शौक समझकर
नहीं। 17. गृहवास में निराशंस-निरासक्त बनकर इसे पराया समझता हुआ,
वेश्या के समान निर्वाह करे और गृहवास को निष्फल वेठवन्दना रुप समझता हुआ इसे 'आज छोडूं कल छोडूं -एसी भावना में रमता रहें।
इस प्रकार संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि श्रावक बनने की अनेक भूमिकाएं हैं। श्रावक के आचरण से सम्बन्धित शब्दावली का अनुशीलन इसी अनुच्छेद के तीसरे शीर्षक में प्रस्तुत किया जा रहा हैं। मौलिक रुप से धर्म तो साधुमार्ग ही है, किन्तु जीव अनादि काल से संसारवासनाओं से संस्कारित है अत: आरम्भिक अवस्था में साधु का आचरण कठिन प्रतीत होता है उनके लिए आचार्योंने प्रथम सोपान के रुप में श्रावक धर्म कहा हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में इसी बात को और अधिक स्पष्ट किया गया है कि उपदेष्टा का कर्तव्य है कि वह प्रथम तो मुनिधर्म का उपदेश करे, पश्चात् यदि शिष्य उसे ग्रहण करने में असमर्थता प्रकट करे तो उसे श्रावकधर्म का उपदेश करना चाहिए 133
श्रावकधर्म एकदेश है और मुनिधर्म सर्वदेश । इस प्रकार श्रावकधर्म और मुनिधर्म में स्तर की अपेक्षा से अन्तर है। इस अन्तर को आगे के शीर्षक में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया हैं।
31. अ.रा.पृ. 5/784, 7/782 32. इत्थि दिअत्थसंसार-विसय-आरंभ-गेह-दसणओ।
गड्डरिगाइपवाहे पुरस्सरं आगमपवित्ती ।।12।। दाणाइ जहासत्ती, पवत्तणं विहिअ रत्तदुट्टे अ। मज्झत्थमसंबद्धो, परत्थकामोवभागी आ ॥13॥ वेसा इव गिहवासं, पालइ सत्तरसपयनिबद्धं तु । भावगय भावसावग-लक्खणमेअंसमासेणं ॥4॥" अ.रा.पृ. 7784, धर्मसंग्रह
प्रकरण-2/12 से 14 33. यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने,
प्रदर्शितं, निगृहस्थानम्। - पुरुषार्थसिद्धयुपाय 18
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