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[342]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
1. मुनि एवं गृहस्थ के आचार में मौलिक अन्तर
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा रचित अभिधान राजेन्द्र कोश में जैनागमानुसार वर्णित आचार परक शब्दावली का अध्ययन, अनुशीलन करने पर यह भलिभाँति स्पष्ट हो जाता है कि, साध्वाचार एवं श्रावकाचार में महद् अन्तर हैं, जिसे यहाँ भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से स्पष्ट किया जा रहा हैं। सम्यक्त्व व्रत के पालन में अन्तर :
वसा) जीवदया अवरुद्ध रहती है। संकल्प भी दो प्रकार का होता साधु शुद्ध सम्यक्त्वधारी होता है अर्थात् सुदेव-सुगुरु-सुधर्म है- सापराध और निरपराध विषयक । वहाँ गृहस्थ अपराधी के अपराध में पूर्ण श्रद्धावनत होता है। एकमात्र जिनेश्वर देवाधिदेव, 36 गुणालंकृत की गुरुता-लघुता का चिन्तन करता हैं। गुरु अपराध होने पर दण्ड आचार्यादि गुरु और केवलिप्रकाशित धर्म में दृढ श्रद्धा धारण कर देता हैं अत: (2.5 वसा) जीवदया अवरुद्ध रहती है। और निरपराध उनकी उपासना करता हैं और रत्नत्रय की सुंदर आराधना करता हैं। संकल्प भी दो प्रकार का हैं - सापेक्ष और निरपेक्ष । वहाँ निरपेक्ष उत्सर्ग मार्ग से मुनि कभी भी इन सुदेवादि तत्त्वत्रयी के अतिरिक्त जीवहिंसा का श्रावक त्याग करता है परन्तु सापेक्ष का त्याग नहीं अन्य को नमस्कार नहीं करता । गृहस्थ भी इन तत्त्वत्रयी और रत्नत्रयी कर पाता क्योंकि बाहर रखे गये गाय, बैल, भैंसादि को बाँधना पडता में श्रद्धा तो रखता है, परन्तु आजीविकादि कारण से या राजा-देव- है और प्रमादी पुत्र आदि को भी दण्ड देना पडता हैं। अतः गृहस्थ/ बलादि कारण से उसमें आगार (छूट) रखता है, कुलदेवतादि की। व्रतधारी श्रावक सवा वसा मात्र जीवदाय का ही पालन करता है पूजादि भी करता है, साधु एसा नहीं करता। साधु छठे और उससे जबकि, साधु सर्वथा जीवहिंसा का त्यागी होने से बीस वसा जीवदया ऊपर के गुणस्थान की अवस्था में होते हैं जबकि श्रावक का चौथा-- का पालन करता हैं। पाँचवा गुणस्थान होता हैं।
साधु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, मैथुन, अपरिग्रह, रात्रि भोजन सामायिक में अन्तर :
त्याग रुप षड् व्रत एवं पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, साधु की सामायिक यावज्जीव होती है जबकि गृहस्थ की वनस्पतिकाथ एवं त्रसकाय की मन-वचन-काया से कृत-कारितसामायिक दो घडी (48 मिनिट) की होती है। साधु की सामायिक अनुमोदनपूर्वक षड् जीवनिकाय हिंसात्यागरुप 12 प्रकार की विरति मन-वचन-काय से सर्वथा सावध योगों के कृत-कारित-अनुमोदन (छह व्रतों का पालन एवं षड्जीवनिकाय की रक्षा) का पालन करता के त्यागपूर्वक होती है जबकि गृहस्थ की सामायिक त्रियोग एवं है जबकि श्रावक को केवल त्रस जीवों की हिंसा की भी आंशिक कृत-कारितपूर्वक होती है; अनुदान का त्याग श्रावक के नहीं होता। विरति हैं। विरति में अन्तर :
अणुव्रत-महाव्रतों का अन्तर :साधुजीवन में सर्वविरति चारित्र होता है जबकि श्रावकों
श्रावक पाँच व्रतों का स्थूल रुप से पालन करता है एवं के देशविरति चारित्र होता है। साधु के महाव्रत होते हैं जबकि श्रावकों गृहस्थी संबंधी आरंभ-समारंभ के कारण पाँच स्थावर की हिंसा का के अणुव्रत होते हैं। महाव्रतधारी साधु के प्राणातिप्रात, मृषावाद, त्याग नहीं कर सकता तथा त्रसकायिक हिंसा का भी संपूर्ण त्याग अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह- इन पाँचो आस्रवों का सूक्ष्म-बादर, त्रस- नहीं होता, केवल नियमपूर्वक सीमा कर सकता हैं। अतः श्रावक स्थावर-अल्प-बहु आदि समस्त प्रकार से सर्वथा त्याग होता हैं, जबकि से केवल सवा वसा जीवदया का ही पालन हो सकता है जबकि श्रावकों के इनका स्थूल त्याग होता हैं।
साधु तो वीसवसा / संपूर्ण जीवदया का पालन करता है क्योंकि जीवदया पालन में अन्तर :
साधु के आरंभ-समारंभ एवं परिग्रह संबंधी तथा गृहस्थी संबंधी हिंसा जीव दो प्रकार के होते हैं -1. स्थूल और सूक्ष्म । द्विन्द्रियादि का त्याग होता है । त्रस जीवों को स्थूल कहते हैं और पृथिव्यादि पाँच बादर एकेन्द्रिय
साधु सर्वथा मृषावाद का त्यागी है, जबकि श्रावक स्थूल को सूक्ष्म कहा जाता हैं ) सूक्षम एकेन्द्रिय के वधाभाव होने से उनका रुप से सहसात्कार से बड़ा झूठ नहीं बोलता। साधु सर्वथा अदत्तादान समावेश यहां नहीं है)।
का त्यागी होने से तृण, भस्म, जल आदि भी बिना मालिक की सूक्ष्म-बादर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा से निवृत्त होने आज्ञा के नहीं ले सकता और तीर्थंकर अदत्त, स्वामी अदत्त, गुरु के कारण मुनि बीस वसा जीवदया पालन करते हैं (वसा की व्याख्या अदत्त, और जीव अदत्त भी ग्रहण नहीं करता, जबकि श्रावक मात्र आगे दी जा रही है), जबकि गृहस्थ स्थूल-सूक्ष्म दोनों प्रकार के राज्यविरुद्ध, देशविरुद्ध, लोकविरुद्ध बडी चोरी का त्याग करता है जीवों में से पृथ्वी, जल आदि से सतत आरंभ के कारण सूक्ष्म जीवों परन्तु घर में, परिवार में, मित्रों में एक दूसरे की चीज-वस्तु बिना की हिंसा का त्याग नहीं कर सकता अत: उनकी जीवदया 10 वसा पूछे भी लेता है, देता है उपयोग करता हैं। अवरुद्ध रहती हैं। स्थूलप्राणिवध भी दो प्रकार का है - संकल्पज
साधु नव बाड एवं 18000 शीलांगों के साथ सर्वथा ब्रह्मचर्य और आरम्भज उसमें से गृहस्थ "मैं इसे मारुंगा" - एसी संकल्पी पालन करता है, जबकि श्रावक स्वदारसंतोष-परदारागमनत्यागरुप शीलव्रत हिंसा का त्याग कर सकता है, परन्तु कृषि-व्यापार-गृहकार्य संबंधी आरंभी हिंसा का त्याग नहीं हो पाता, अतः उसमें से आधी (5 1. अ.रा.पृ. 1/846
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