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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
का पालन करता हैं। साथ ही विधवा, वेश्या, परस्त्री आदि का त्याग करता है । पर्वतिथि का ब्रह्मचर्य पालन करता है। कोई-कोई श्रावक (चतुर्थ व्रतधारी) सर्वथा ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले होते हैं। साधु किसी के विवाहादि नहीं कराते और अनुमोदन भी नहीं करते, जबकि व्रती गृहस्थ भी स्वयं के पुत्र-पुत्री - परिवार आदि का विवाह करताकराता हैं। साधु धर्मोपकरण के अलावा शेष बाह्य आभ्यन्तर, अल्पबहु, सूक्ष्म-बादर, अल्पमूल्य - बहुमूल्य आदि सभी प्रकार के परिग्रह का त्यागी होते हैं जबकि, गृहस्थ जीवन में धन-धान्यादि बाह्य 9 प्रकार के परिग्रह की इच्छानुसार मर्यादा की जाती हैं। साधु बाह्य परिग्रह (धर्मोपकरण) में मूर्च्छार्च्छत्यागी एवं आभ्यन्तर रुप से प्रत्याख्यानीय आदि तीनों कषायों का त्यागी होता हैं; उन्हें केवल संज्वल कषाय ही रहता है, जबकि श्रावकजीवन में प्रत्याख्यानीय कषाय एवं 9 नोकषाय रहते ही हैं। साधु को अपने संयम आराधना हेतु शास्त्रोक्त उपकरण यावत् देह पर भी मोह-ममत्व नहीं होता, जबकि श्रावकों को स्वयं के स्वामित्व के घर-दुकान, खेत इत्यादि तथा धन-धान्यादि, पुत्र-परिवार - स्वजनों के प्रति मोह - ममत्व रहता हैं। साधुजीवन में महावीर स्वामी के शासन में रात्रिभोजन मूलगुण है जबकि, श्रावक का यह उत्तरगुण हैं। साधु रात्रिभोजन के सर्वथा त्यागी है जबकि श्रावकों का आंशिक नियम हैं।
जीवन व्यवहार में अन्तर :
साधु की अपने स्वामित्व में कोई घर-दुकानादि नहीं रहता, साधु स्त्र्यादि दोषरहित वसति दूसरों के स्वामित्व के निवास में याचनापूर्वक रहता है जबकि श्रावक अपने घरों में रहते हैं। साधु श्वेत, मानोपेत, जीर्णप्राय, बिना सिले वस्त्र धारण करते हैं जबकि गृहस्थ शुभ पचरंगी वैभवानुसार यथामूल्य यथाप्रसंग मर्यादापूर्ण वेशभूषा धारण करते हैं। साधु काष्ठ या मिट्टी के पात्र में आहार करते जबकि गृहस्थ धातु के बर्तन वापरते हैं। श्रावक स्वयं के लिए अभक्ष्यअपेय का त्यागपूर्वक चारों प्रकार का आहार बनाकर भोजन करता है, साधु गोचरचर्या द्वारा गोचरी में साधु जीवन के नियमानुसार जो प्राप्त होता है उसे भी गुर्वादि के साथ बाँटकर वापरता है । साधु ग्रामानुग्राम पैदल विहार करते हैं, नवकल्पी विहार मर्यादा का अवश्य पालन करते हैं जबकि गृहस्थ वाहन द्वारा गमनागमन करते हैं।
साधु के 27 गुण होते हैं, जबकि गृहस्थ के 21 गुण होते है । साधु के लिए चरणसित्तरी करणसित्तरी का पालन अनिवार्य है। जबकि श्रावक के लिए यथाशक्य करणीय 36 कर्तव्य हैं।
साधु सावद्य भाषा का त्यागी होता है, निरवद्य भाषा भी बिना कारण नहीं बोलता जबकि गृहस्थ के एसा नियम नहीं। साधु गृहस्थ की आगता - स्वागता नहीं करता केवल साधु की ही वैयावृत्य करता है जबकि गृहस्थ साधु और गृहस्थ दोनों का यथायोग्य स्वागत करता है।
साधु कंचन - कामिनी का त्यागी हैं, अतः धर्मस्थान एवं धर्मक्षेत्र हेतु उपदेश देते हैं, जबकि श्रावक यथायोग्य जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, ज्ञान भंडार, उपाश्रय, पौषधशाला, आयंबिलभवन आदि धर्म स्थानों का निर्माण कराता हैं। स्वामिवात्सल्य, धर्मक्षेत्रोद्धार, साधर्मी सहाय/ उद्धार करता - कराता है, साधुओं को वस्त्र - पात्र - औषधि - आहारवसति शास्त्र आदि देता है। देव-गुरु- संघ-साधर्मी, माता-पिता, वृद्ध, अनाथ, अपंग, विधवा, दरिद्रादि की यथायोग्य सेवा, भक्ति, या सहायता
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चतुर्थ परिच्छेद... [343]
करता - कराता है, जबकि साधु स्व-गच्छ के साधुओं की ही आहार पानी से भक्ति करता अन्य गच्छ की नहीं (एसी मर्यादा है)। अन्य गच्छ के साध्वादि से वस्त्र पात्र ज्ञान पुस्तकादि का आदनप्रदान होता हैं।
साधु-साधु की ही वैयावृत्य करता है, गृहस्थ की नहीं, जबकि गृहस्थ साधु और गृहस्थ दोनों की सेवा करता हैं ।
साधु श्रावक के धर्म कार्यों में शुभभावना और विशिष्ट तप आदि के गुणानुराग से अनुमोदना करता है, स्तुति नहीं, जबकि श्रावक साधु की और श्रावकों के उत्तम गुणों की स्तुती भी करता हैं। साधु जीवन में संयम यात्रा ही महत्त्वपूर्ण है। मुनि के द्वारा विहार के समय रास्ते में आनेवाले तीर्थों की यथायोग्य वंदना की जाती है जबकि श्रावक के जीवन में रथयात्रा, अष्टाह्निका महोत्सवादि एवं वर्ष में कम से कम एक बार तीर्थयात्रा की अनिवार्यता का विधान हैं।
साधु रात्रि के मध्य के दो प्रहर संथारा पर भूमि शयन या काष्ठपटल पर शयन करते हैं जबकि श्रावक ढाई प्रहर निद्रा लेते हैं और पलंग, गद्दी तकिया, रजाई आदि का उपयोग करते हैं। पंचाचार पालन में अंतर :
ज्ञानाचार पालन में साधु के दैनिक जीवन में चार बार स्वाध्याय, पाँच प्रहर ध्यान-स्वाध्याय-अध्ययनादि करने की जिनाज्ञा है, जबकि श्रावक यथाशक्ति दो घडी या एक प्रहर-आधा प्रहर ज्ञानार्जन, सत्संग आदि करता है। साधु कालानुसार सूत्रार्थ का अध्ययन करते
एवं सभी आगमसूत्रों के अध्ययन हेतु योगोद्वहन (विशिष्ट नियमपूर्वक की जाने वाली तप आराधना) करते हैं, जबकि श्रावक छह उपधान (प्रथम-47 दिन में चार उपधान, द्वितीय-35 दिन में एक, एवं तृतीय 28 दिन में एक इस प्रकार कुल छह) करते हैं। साधु अपने से बडे साधु को एवं साध्वियाँ सभी साधु भगवंतो को नियमपूर्वक वंदन करती हैं जबकि गृहस्थ छोटे-बडे सभी साधु-साध्वियों को वंदन करते हैं। श्रावक ज्ञान के उपरकरणादि का दान करता है, पुस्तकादि लिखवाता है, साधु नहीं। साधु योगोद्वहनपूर्वक आगमों का अध्ययन करते हैं; गृहस्थ नहीं ।
दर्शनाचार में साधु प्रतिदिन जिनमंदिर दर्शन, सात चैत्यवंदन, भावपूजा, उत्कृष्ट देववंदन आदि करता है और श्रावकों को जिनदर्शन, पूजन, तीर्थयात्रा, गुरुवंदन, ज्ञान भक्ति, जिनमंदिर- उपाश्रय, पाठशाला, आयंबिल भवनादि धर्मस्थान के निर्माण हेतु प्रेरणा देता है, उपदेश देता है जबकि गृहस्थ इनसे उपदेश प्राप्त कर जिनमंदिरादि सातों क्षेत्रों में न्याय - नीतिपूर्वक पुण्योपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करता है, लोगों को धर्म में स्थिर करता है, धर्मशासन की प्रभावना करता हैं
चारित्रचार के पालन में मुनि जीवनपर्यंत सदा ही अष्ट प्रवचनमाता का पालन करता है, जबकि श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण, देशावगासिक और पौषध में ही इनका पालन करता हैं।
तपाचार पालन में साधु आहार के रस, स्वाद और मूर्च्छा के त्यागी होने पर आहार करने पर भी उपवासी माना जाता है, जबकि गृहस्थ के विषय में एसा नहीं है। साधु कभी भी एक साथ छह विगई (विकृतियाँ) (दूध, दही, घी, तेल, शक्कर, गुड, कडा विगई ) नहीं लेता, जबकि गृहस्थ के एसा नियम नहीं है। साधु विहारादि में एवं वसति में भी आतपना शीतादि एवं बाईस परिषह सहन करते
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