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________________ [344]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं, लोच करते हैं, अंगोपांग संकुचित रखते हैं, जबकि गृहस्थ सामान्यतया साधु की सामायिक यावज्जीव तिविहं-तिविहेण (मनलोच नहीं करते, गृहस्थ के जीवन में इन्द्रियों के विषयभोग होते वचन-काय x कृत-कारित-अनुमोदन = अर्थात् 3 x 3 = 9) होती रहते हैं। है, जबकि गृहस्थ की सामायिक दो घडी (48 मिनिट) की और आभ्यन्तर तप में साधु के जीवन में दीक्षाग्रहण करने दुविहं-तिविहेण (कृत-कारित x मन-वचम-काय = अर्थात् 2x3 से पूर्व एवं दीक्षापश्चात् प्रति छह माह या वर्ष भर में अवश्य आलोचना = 6) होती हैं। साधु प्रतिदिन उत्कृष्ट देववंदन करता है, श्रावक ग्रहण की जाती हैं, साधु बडे-छोटे सभी को यथायोग्य विनय- को भी यथाशक्ति करना चाहिए। साधु अपने से बडे साधुओं को वंदन करते हैं, आचार्यादि 13 की चारों प्रकार से वैयावृत्य करते वंदन करते हैं, श्रावक के लिए सभी साधु वंदनीय है। साधु पंचमहाव्रत हैं, प्रतिदिन पाँच प्रहर पाँचो प्रकार का स्वाध्याय करते हैं, आर्त- और एक प्रकार के असंयम से तैंतीस आशातना संबंधी एवं साध्वाचार रौद्र ध्यान से बचकर धर्मध्यान ध्याते हैं, कर्मक्षय के निमित्त कायोत्सर्ग संबंधी दोषों का प्रतिक्रमण करते हैं जबकि गृहस्थ सम्यक्त्व, 12 करते हैं, जबकि गृहस्थ उसके जीवन में लगे बडे दोषों की आलोचना व्रत और संलेषणा (अनशन) संबंधी अतिचार दोषों का प्रतिक्रमण करता है, यथाशक्ति विनय-वैयावृत्त्य करता है, सत्संग-स्वाध्याय करता है। प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग दोनों में सामान होते हैं। साधु भी थोडा सा करता है, धर्मध्यान हेतु प्रयत्न करता है, और कायोत्सर्ग नियम से कम से कम नवकारसी और चोविहार का प्रत्याख्यान करते करता है। साधु प्रत्येक स्थिति में गुरु का विनय करता हैं, जबकि हैं, जबकि श्रावक नवकारसी और यथाशक्ति चोविहार या तिविहार गृहस्थों में पुत्रादि के द्वारा पितादि का वैसा विनय नहीं भी किया का प्रत्याख्यान करता हैं। जाता। उपरोक्त बिन्दुओं के द्वारा हमने साधु और श्रावक के पूजा में अन्तर : आचारान्तर्गत अन्तर को स्पष्ट किया है। इसके अतिरिक्त भी आहार, साधु जिनमूर्ति-गुरुमूर्ति की केवल भावपूजा ही करते हैं, विहार, निहार, व्यवहार, वेशभूषा, भाषा, रहन-सहन, निवास, आदि गुरु की आहारादि से भक्ति करते हैं जबकि श्रावक जिनबिम्ब में संपूर्ण जीवन-शैली में महद् अन्न्तर है जिसका विवरणात्मक विश्लेषण आरोपित जिनेश्वर देव की उत्तम द्रव्य से भावपूर्वक पूजा करते हैं शोध-प्रबंध में दर्शाया गया हैं। इस संसार में बहुत सारे अल्पज्ञ, और चतुर्विध संघ की भी द्रव्य-भाव दोनों तरह से भक्ति करते हैं। मनचले जो लोग एसा कहते हैं कि घर में रहकर भी धर्म हो सकता वीर्याचार में साधु नित्य नियम से, शक्ति छिपाये बिना हैं; दीक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है, उनके लिए यह सभी आवश्यक धर्मक्रियाएँ यथायोग्य करते हैं जबकि श्रावक जीवन दिग्दर्शन मात्र है, घर में धर्म का आंशिक पालन तो हो सकता में प्रमाद अधिक होता हैं। है परन्तु सर्वत्यागी बनकर संपूर्णतया जीवदया एवं जिनाज्ञा का षडावश्यक में अन्तर : अधिक से अधिक अर्थात् संपूर्ण पालन सर्वविरतियुक्त संयमजीवन साधु प्रतिदिन नियम से यथायोग्य दैवसिकादि पाँचों प्रतिक्रमण (मुनिजीवन) के बिना कथमपि संभव नहीं अत: दीक्षा लेने की करते हैं, जबकि श्रावक इन्हें यथाशक्य करता हैं; यदि नित्य नहीं क्या आवश्यकता है ? ऐसा सुश्रावक कभी भी न करें/न बोले। हो सके तो पाक्षिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करता हैं; यदि वह भी नहीं हो तो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण अवश्य करते हैं। जो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण नहीं करता वह आराधकों की गिनती में नहीं आता। 2. कल्पसूत्र (बारसा सूत्र मूल) समाचारी प्रकरण नाणी नाणडिओ जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुआहिँ वासकोडीहिं। तं नाणी तेहिं ती, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥1॥ सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि । जीवो तहा ससुत्तो, न नस्सई गओ वि संसारे ॥ 2 ॥ नाणं गिण्हइ नाणं, मुणेइ नाणेण कुणइ किच्चाई। भवसंसारसमुदं, नाणी नाणट्ठिओ तरइ ॥3॥ -अ.रा.पृ.4/1989 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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