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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 2. श्रावको के आचार में सापेक्ष स्थूलता जैन धर्म का प्रत्येक सिद्धांत जैन दर्शन के सिद्धांतो द्वारा पोषित और प्रमाणित हैं। लोक में अनन्त जीव राशि है, उनमें से अनन्त जीव अपने पुरुषार्थ से सिद्ध अवस्था प्राप्त कर चुके हैं, और उस दिशा में अनेक जीवों का प्रयास जारी है। जैन सिद्धांत के अनुसार जीव संख्या निश्चित तो है (अर्थात् न तो कोई नया जीव बनता है और न कोई नष्ट होता है) किन्तु यह जीव राशि अनन्त हैं। 'अनन्त' में से अनन्त बार भी अनन्त घटाने पर अनन्त ही शेष रहता है चतुर्थ परिच्छेद... [345] ॐ पूर्णमदः पूर्णमदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णात् पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ जीव आरम्भिक रुप से आरम्भिक अवस्था में निगोद अवस्था में होता है। वहाँ से क्रमशः विकास को प्राप्त होता हुआ द्वीन्द्रिय आदि त्रस अवस्थाओं को पार करता हुआ अनेक योनियों (प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में जीवों की प्रमुख योनियाँ चौरासी लाख बतायी गयी हैं) को प्राप्त करता हुआ (या निगोद से सीधे ही) जब मनुष्य योनि प्राप्त करता है तब उसे अपने विकास की अन्तिम परिणति का बोध पाने की योग्यता आती हैं। यह जीव अनादि संस्कार वासना से वासित होता है जैसे कि स्वर्ण धातु अपने स्वाभाविक खनिज में अनेक अपमिश्रणों से आच्छादित रहता है। सभी जीव सांसारिक सुखों और दुःखों का अनुभव करते हैं। जीव स्वभाव है कि वह सुख चाहता है और दुःख से डरता हैसुखार्था सर्व भूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः । ज्ञानाज्ञान विशेषात्तु मार्गामार्गप्रवृत्तयः ॥ इन दुःखों को दूर करने के लिए यदि वहा गतानुमतिक लोक को देखकर उपाय में प्रवृत्त होता है तो सांसारिक दुःख से किञ्चिद् शान्ति का उपाय प्राप्त भी होता है किन्तु कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु के श्रद्धान, ज्ञान और आचरण को ही समीचीन मानकर जब वह प्रयास करता है तो एलोपैथिक औषधि के सेवन के समान एक दुःख तो दूर होता है पर दूसरी व्याधि लग जाती है। इस प्रकार अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव उपायों से भी पुष्ट कर लेने से वह गृहीत मिथ्यादृष्टि हो जाता है । कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु की सेवा और संजाल से छूटना सरल नहीं हैं। तीर्थंकरों ने जीवों को इस प्रकार छटपटाता देखकर अनन्त करुणा से सद्धर्म का उपदेश किया और अनेक तर्कों से जिससे जीव को सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो सके श्रद्धानं परमार्ताना माप्तागम तपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांग सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ भव्य जीव अपना निमित्त पाकर सम्यग्दर्शन के मार्ग से होता हुआ रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन ही बताता है कि जैसे ज्वरग्रस्त बालक का ज्वर दूर करने के लिए खिलोने का लालच दिया जाता है वैसे ही अनन्तानुबन्धी लोभ और मिथदयात्व से दूषित जीव को सम्यग्दर्शन आदि में 'रत्न' संज्ञा से आकृष्ट किया जाता है। सम्यग्बोध को प्राप्त जीव एकबार रत्नत्रय का आस्वाद लेने के बाद बिना किसी सांसारिक लोभ के (मोक्ष का लोभ तो रहता ही है) रत्नत्रय के मार्ग पर चलने लगता है। यतः यह जीव आरम्भिकरुप से अनादि संस्कार से तो मिथ्यादृष्टि रहता है, अतः रत्नत्रय के मार्ग से अनेक बार स्खलित होता है। आगमों में तो यहाँ तक कहा गया है कि उपशान्त मोह (ग्यारहवें गुणस्थान) से गिरकर जीव पहले (मिथ्यात्व) गुणस्थान तक भी पहुँच सकता है। तात्पर्य यह है कि जैसे स्वर्णधूलि को मिट्टी में मिलाना हो तो कोई विशेष उपाय नहीं करता होता, किन्तु इसके विपरीत यदि मिट्टी में से सोना उपजाना हो तो अनेक उपाय करने होते हैं। इसी प्रकार संसारी जीव को रत्नत्रय मार्ग पर चलाने के लिए अनेक प्रकार से अभ्यास कराना आवश्यक होता है। यद्यपि पुरुषार्थ सिद्धयुपाय कहा गया है कि पहले तो मुनिधर्म का ही उपदेश करना चाहिए, पश्चात् यदि श्रोता असमर्थता प्रगट करे तो श्रावक धर्म का उपदेश करना चाहिए यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥ समझाया है। Jain Education International वस्तुतः अनादि मिथ्यादृष्टि जीव जो प्रायः अनेक योनियों में भ्रमण करने के बाद (कोई कोई सीधे ही) मनुष्यत्व को प्राप्त करता है सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय तो वह गृहस्थ ही होता है, और प्रायः अनेक भवों के बाद ही मुनि धर्म अंगीकार कर पाता है। अतः अपेक्षा स्थूलता देखी जाती है। आरम्भ में स्थूल धर्म का पालन ही सम्भव हो पाता है। इसलिए श्रावक धर्म में मुनिधर्म की शास्त्रों में यह उल्लेख प्राप्त है कि आरम्भ में जीव अविरत सम्यग्दृष्टि भी हो सकता हैं। भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में इसे आदिधार्मिक भी कहा गया है (इसका अनुशीलन श्रावक परक शब्दावली के अनुशीलन में प्रस्तुत किया जायेगा ) श्रावक के मुख्य दो भेद अविरत, विरताविरत एवं तीन भेद (1) पाक्षिक श्रावक (2) साधक श्रावक और (3) नैष्ठिक श्रावक के रुप में किये गये हैं। इन में मुनिधर्म के आचरण का आरम्भिक अभ्यास कराया जाता है। स्पष्ट है कि श्रावक धर्म में सापेक्ष स्थूलता है। I For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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