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________________ [86]... द्वितीय परिच्छेद मुख्य विषयवस्तु: मूल ग्रंथ के प्रारंभ में एक श्लोक प्रमाण मंगलाचरण एवं 893 पृष्ठों में केवल अकार से प्रारंभ होनेवाले करीब 10,000 शब्दों का वर्णन हैं। इस प्रकार कोश की द्वितीय आवृत्ति के प्रथम भाग में पृष्ठ के अलावा कुल 163 + 893 = 1056 पृष्ठ हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की विषयवस्तु का विवरण :विषयवस्तु पृष्ठ संख्या अन्तर्दृष्ठ सम्मतियाँ प्रकाशकीय निवेदन द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना पट्टावली ग्रंथकर्ता का संक्षिप्त जीवन परिचय पट्टावली आभार प्रदर्शन उपोद्घात गुरु महिमा श्लोक प्राकृत व्याकृति सूत्र - अनुक्रमणिका प्राकृत-रुपावली प्रथम भाग समाप्ति सूचक लेख प्राकृत भेद 1. आर्ष प्राकृत 2. शौरसेनी प्राकृत Jain Education International 1 1 2 7 1 15 1 - 4 - 13 1 163 + 893 मूलग्रंथ = 1056 परिशिष्ट - 1 विक्रम की 12वीं - 13 वीं शती में हुए भारत के महान ज्योतिर्धर कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य प्रणीत 'श्रीसिद्धहेमचेन्द्रशब्दानुशासनम्' नामक व्याकरण ग्रंथ के अष्टम अध्याय (प्राकृत) की यह अष्टादशशत (118) श्लोक प्रमाण 'प्राकृतव्याकृति ' नामक टीका आचार्य विजय राजेन्द्रसूरि ने वि. सं. 1961 में विजयादशमी के दिन मध्य भारतस्थ कुक्षी नगर में चातुर्मास में रहकर की थी। 89 वहीं सिद्धहेमशब्दानुशासन, अष्टम अध्याय पर अनुष्टुप्छंद में निबद्ध सोदाहरण' प्राकृतव्याकृति (विवरण, विवृति) ' दी गयी हैं। जैसा कि पुष्पिका से ज्ञात होता है, 'प्राकृत विवरण' और 'प्राकृतविवृति' ये दोनों नाम इसी व्याकृति के हैं ।" इस 'प्राकृत विवरण' में निम्न प्रकार से विषय विभाग भी किया गया हैं क्र. 1 54 8 श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन, अष्टम अध्याय का अंश अध्याय 8, पाद-1 से पाद 4 सूत्र 259 तक 2 पाद - 4 सूत्र 260 से 286 तक 3 पाद - 4 सूत्र 287 से 302 तक 4 3. मागधी प्राकृत 4. पैशाची प्राकृत पाद - 4 सूत्र 303 से 324 तक 5 5. चूलिका पैशाची - पाद - 4 सूत्र 325 से 358 तक " 6. अपभ्रंश प्राकृत पाद - 4 सूत्र 359 से 448 तक ” प्राकृतव्याकृति के अंत में समाप्तिसूचक पुष्पिका दी है। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पुष्पिका में आचार्य श्रीमद्विजय राजेनद्रसूरिने लिखा हैं जो भाषा भगवान के वचनों के कारण श्रेष्ठ ख्याति एवं प्रतिष्ठा को प्राप्त हुई हैं; आज भी (वर्तमानमें) जिस भाषा में सकल ग्यारह अंग बने हुए हैं, वह प्राकृत भाषा दुःषम काल के प्रभाव से वर्तमान में बोल-चाल में नहीं रही। अतः इसके पुनः संचार के लिये मैंने विवरण के अन्तर्गत चार पादों में इसकी ( प्राकृत भाषा की) प्रतिष्ठा की 198 18 इसके बाद 'प्रशस्ति' ग्रंथकर्ता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने स्वयं 7 श्लोक प्रमाण संस्कृत भाषा में लिखी हैं प्राकृत प्रशस्ति में स्वीय गुरु की आचार्य विजय रत्नसूरि से प्रमोदसूरि तक की पट्टावली अर्थात् गुरु परम्परा बतायी हैं। द्वितीय श्लोक में कर्ता ने लिखा है कि मैं जैनाचार्य भट्टारक राजेन्द्रसूरि उनका शिष्य उनके (प्रमोदसूरि के) पट्ट पर हुआ। मेरे गच्छ के कार्य अच्छी तरह करते हुए विभिन्न ग्रंथों के अच्छे विचारों से सुंदर चातुर्यपूर्ण धर्म प्रचार में उद्यत (मुझे) अभिधान राजेन्द्र के निर्माण में बहुत परिश्रम हुआ । मेरे शिष्यद्वय दीपविजय और यतीन्द्रविजय की विनंती से मैं यह पद्यमयी 'प्राकृत विवृत्ति' बनाता हूँ। पुनः मुख्य शिष्य मोहन विजय ने आग्रहभरी विनंती की कि 'यह विवृत्ति बनाने से सभी जिज्ञासु लोगों के ऊपर उपकार के साथ इस कार्य से महान लाभ होगा', अतः वि.सं. 1960 में कुक्षी चातुर्मास में विजयादशमी के दिन हेमचंद्राचार्यरचित प्राकृत सूत्रार्थ बोधदायिनी पद्यमयी सुंदर छन्दोबद्ध इस विवृत्ति की रचना की। अंत में ग्रंथकर्ता अपनी नम्रता बताते हुए कहते हैं कि - श्री महावीर प्रभु की प्रीति से मैंने यह विवृत्ति प्राय: सावधानीपूर्वक की है परंतु यदि (प्रमादवश) कुछ भी स्खलना हुई हो ( तो विद्वद्वर्ग) मुझे माफ करें। 99 89. 90. 91. 92. 93. 94. 95. 96. 97. 98. 99. प्रशस्तिः अत एव विक्रमाब्दे, भूरसनवधुमिते दशम्यां तु । विजयाख्यायां चातुर्मास्येऽहं कूकसी नगरे ॥15॥ नत्वा वीरं वन्द्यवन्द्यं, रागद्वेषविवर्जितम् । प्राकृतव्याकृतिरियं छन्दोबद्धा विरच्यते ॥ अ. रा. प्रथम परिशिष्ट पृ. 1 मंगलाचरण "या भाषा भगवद्वचोभिरगमत् ख्यातिं प्रतिष्ठां परां । यस्यां सन्त्यधुनाऽ प्यमूनि निखिलान्येकादशाङ्गानि च ॥ तस्यां संप्रति दुःषमारवशतो जातोऽप्रचारः पुनः । संचाराय मया कृते विवरणे पादाश्चतुर्थोगतः ||3|| अ. रा. भा. 1, प्रथम परिशिष्ट पृ. 54 हेमचन्द्रसंर चितप्राकृतसूत्रार्थ प्रबोधिनीं विवृत्तिम् । पद्यमय सच्छन्दोवृन्दै रम्यामकार्षमिमाम् ||6|| श्रीवीरजिनप्रीत्यै, प्रायो विवृत्तिः कृताऽवघानेन । स्खलनं क्वपि यदि स्यान्मिथ्या मे दुष्कृतं भूयात् ||7|| - प्रशस्ति श्लोक क्रमांक 6 और 7 - प्रथम परिशिष्ट पृ. 54 प्रथम परिशिष्ट, पृ. 1 से 49 अ. रा. भा. 1 - प्रथम परिशिष्ट, पृ. 44, 45 अ. रा. भा. 1 अ. रा. भा. 1- प्रथम परिशिष्ट, पृ. 45 से 46 अ. रा. भा. प्रथम परिशिष्ट, पृ. 46 अ. रा. भा. 1- प्रथम परिशिष्ट, पृ. 45 से 46, 47 अ. रा. भा. प्रथम परिशिष्ट, पृ. 47 से 54 प्रशस्ति अ. रा. भा. 1 प्रथम परिशिष्ट पृ. 54 अ. रा. भा. 1/ 54, प्रशस्ति श्लोक क्रमांक 1 से 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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