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[350]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
पर भी खराब, गंदे, फटे-टूटे कपडे पहनता है, तो वह भी लोगों में निंदा का पात्र बनता है। वह धर्म का अधिकारी भी नहीं बन सकता। 14. बुद्धि के आठ गुणों का धनी :1. शूश्रूषा - धर्मशास्त्र सुनने की अभिलाषा 2. श्रवण - धर्मश्रवण करना 3. ग्रहण - श्रवण करके ग्रहण करना 4. धारण सुनी हुई बात को भूल न जाय, इस तरह
उसे धारण करके मन में रखना 5. ऊह
जाने हुए अर्थ के अतिरिक्त दूसरे अर्थो के संबंध में तर्क करना, अथवा ऊह अर्थात् सामान्य ज्ञान का और उपोह यानि विशेष
ज्ञान का व्यावर्तन करना 6. श्रुति युक्ति और अनुभूति के विरुद्ध अर्थ से हटना
अथवा हिंसा आदि आत्मा को हानि पहुँचाने वाले पदार्थो से पृथक् हो जाना या अपने
को पृथक् कर लेना। 7. अर्थ-विज्ञान - ऊहापोह के योग से मोह और संदेह दूर
करके वस्तु का विशिष्ट सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना। 8. तत्त्वज्ञान - ऊहापोह के विशेष प्रकार के ज्ञान से विशुद्ध
निश्चित ज्ञान प्राप्त करना। इस प्रकार के बौद्धिक गुण जो गृहस्थ प्राप्त कर लेता है, वह कभी भी अपना अकल्याण नहीं करता।" 15. प्रतिदिन धर्म-श्रवण-कर्ता :
सद्गृहस्थ को प्रतिदिन अभ्युदय और निःश्रेयस के कारण रुप धर्म के श्रवण में उद्यत रहना चाहिए । प्रतिदिन धर्म श्रवण करने वालों का मन अशांति से दूर रह कर आनंद का अनुभव करता हैं। धर्म-व्याख्यान धबडाए हुए व्यक्ति की व्याकुलता दूर करता हैं, त्रिविध ताप से तपे हुए को शांत करता है, मूढ को इससे बोध प्राप्त होता है और अव्यवस्थित चंचल मन स्थिर हो जाता है अतः प्रतिदिन धर्म-श्रवण जीवन में उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि में सहायक हैं।20 16. अजीर्ण के समय भोजन छोड देना :
सद्गृहस्थ को अजीर्ण के समय भोजन छोड देना चाहिए। पहले किया हुआ भोजन जब तक पच न जाये, तब तक पुनः भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि अजीर्ण सब रोगों का मूल हैं। और अजीर्ण के समय भोजन करने पर वह रोग को बढाता हैं। 17. समय पर पथ्य भोजन करना2 :
सद्गृहस्थ को भूख लगने पर आसक्ति-रहित होकर अपनी प्रकृति, रुचि, जठराग्नि एवं प्रमाण के अनुसार उचित मात्रा में पथ्य भोजन करना चाहिए। अधिक भोजन से वमन, अतिसार या अजीर्ण आदि रोग होंगे व कभी मृत्यु भी हो सकती हैं। भूख के बिना अमृत भी जहर हो जाता है और क्षुधाकाल समाप्त होने के बाद भोजन करेगा तो उसे भोजन पर अरुचि व धृणा होगी और शरीर में पीडा होगी। 18. परस्पर अबाधित रुप से तीनों वर्गों की साधना :
धर्म, अर्थ और काम - ये तीन वर्ग कहलाते हैं। जिससे अभ्युदय और मोक्ष की सिद्धि हो वह धर्म हैं। जिससे लौकिक
सर्व प्रयोजन सिद्ध हो वह अर्थ हैं। अभिमान से उत्पन्न समस्त इन्द्रिय सुखों से संबंधित रसयुक्त प्रीति काम हैं। सद्गृहस्थ को इन तीनों वर्गों की साधना इस प्रकार से करनी चाहिए ये तीनों वर्ग एक दूसरे के परस्पर बाधक न बनें । जो बिना सोचे-विचारे उपार्जित धन को खर्च करते हैं वे तादात्विक कहलाते हैं; जो बाप-दादों से प्राप्त धन का अनीति पूर्ण ढंग से उपयोग कर उसे समाप्त कर देते हैं वे मूलहर कहलाते हैं; जो नौकरों को और खुद को परेशान करके धन को इकट्ठा तो करते हैं परन्तु उसका उचित स्थान पर व्यय नहीं करते वे कदर्य कहलाते हैं। धर्म, अर्थ और काम - इन तीनों में से प्रत्येक के एकान्तसेवी गृहस्थ अपने जीवन के विकास में स्वयं रुकावट डालते हैं। गृहस्थ को धर्म की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि अर्थ और काम का मूल धर्म हैं। सज्जन धर्मरुपी धन से धनाढ्य होते हैं । 19. अतिथि आदि का सत्कार :
सद्गृहस्थ को घर आए हुए अतिथि का स्वागत करना आवश्यक हैं। अतिथि उसे कहते हैं - जो सतत स्वपर-कल्याण की प्रवृत्ति में एकाग्र होने से जिसकी कोई निश्चित तिथि न हो। जिस महात्मा ने तिथि और पर्वो के उत्सव का त्याग किया है, उसे अतिथि समझना चाहिए और शेष को अभ्यागत । साधु-साध्वीगण सदा ही समग्र लोक में प्रशंसनीय होते हैं। इसलिए वह उत्कृष्ट अतिथि हैं । गुणवान् अतिथि साधु को भक्तिपूर्वक और दीन-दुःखी एवं अनाथ-पंगुओं को अनुकम्पापूर्वक भोजन-जल-वस्त्रादि का दान देना 'अतिथि सत्कार' कहलाता हैं। 20. अभिनिवेश से दूर :
सद्गृहस्थ को अभिनिवेश/मिथ्या-आग्रह, कदाग्रह, दुराग्रह से सदा दूर रहना चाहिए । अभिनिवेशयुक्त व्यक्ति हठी और अभिमानी होता है। वह अपने ही दुर्गुणों से दुःखी होता हैं। दुराग्रही व्यक्ति स्वयं व्यर्थ में ही अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके लोक में निंदा का पात्र बनता है। 21. गुण का पक्षपाती :
सद्गृहस्थ गुणों का और उपलक्षण से गुणीजनों का पक्षपाती होना चाहिए। गुणीजन जब भी उसके संपर्क में आए, वह उनके साथ सौजन्य, औदार्य व गम्भीर्यपूर्वक व्यवहार करें। 'आओ पधारो' जैसे प्रिय शब्दों से स्वागत करे, साथ ही गुणीजनों का समय-समय पर बहुमान करे, उनकी प्रशंसा करे, उन्हें प्रतिष्ठा दे, उनका पक्ष ले, सहायक बने इत्यादि प्रकार से गुणीजनों के अनुकूल प्रवृत्ति करें। एसा गुणीजनों के प्रति एवं स्वपर-कल्याणकारी आत्मधर्मस्प आत्मगुणों के प्रति पक्षपाती व्यक्ति निश्चित ही पुण्य का बीज बोकर परलोक में गुणसमूह-संपत्ति प्राप्त करता हैं।
सदयाहार
18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.
अ.रा.पृ. 5/1327 अ.रा.पृ. 1/247 अ.रा.पृ. 7/1017 अ.रा.पृ. 1/203 अ.रा.पृ. 6/1611 अ.रा.पृ. 4/2324 अ.रा.पृ. 7/263, 1/33 अ.रा.पृ. 7115, 1/291 अ.रा.पृ. 3/9283/929
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