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________________ उत्तम-कुलशीलवाली शुद्ध कन्या के साथ विवाह लाभदायक और सफल होता हैं। वह घर की रक्षा करती हैं। सुपुत्रों को जन्म देकर संस्कारी बनाती हैं। चित्त में अखण्ड शांति रहती हैं। गृहकार्यो की सुव्यवस्था रखती हैं । देव-गुरु-अतिथि-परिवार-रिश्तेदार-मित्रादि को घर में सत्कार होता हैं। 4. पापभीरु : दृष्ट और अदृष्ट दुःख के कारण रुप कर्मो (पाप) से डरने वाले पापभीरु कहलाते हैं। उसमें चोरी, परदारागमन, जुआ आदि लोकप्रसिद्ध पापकर्म हैं जो इसलोक में राजदंडादि दुःख दिलाते है एवं मांस भक्षण, शराब, रात्रिभोजनादि परलोक में नरकादि दुर्गतिरुप दुःख देते है। 5. प्रसिद्ध देशाचार का पालक : सद्गृहस्थ को शिष्ट-पुरुषों द्वारा मान्य, चिरकाल से चले आते हुए परम्परागत वेश-भूषा, भाषा, पोशाक, भोजन आदि सहसा नहीं छोडने चाहिए। अपने समग्र ज्ञातिमंडल के द्वारा मान्य प्रचलित विधि-रीति-रिवाजों व क्रियाओं का अच्छी तरह पालन करना चाहिए।' अन्यथा धर्म की निंदा होती है और लोक-विरोध होने से अनेक प्रकार से अहित होता है। 6. अवर्णवादी न होना : सद्गृहस्थ को किसी का भी अवर्णवाद नहीं करना चाहिए, चाहे वह व्यक्ति जघन्य हो, मध्यम हो या उत्तम ।। दूसरों की निंदा करने से मनमें धृणा, द्वेष वैर-विरोधादि अनेक दोष बढ़ते हैं। वाचक श्री उमास्वाति महाराजने कहा है कि, "दूसरे को नीचा दिखाने से, दूसरों का अवर्णवाद बोलने से एवं स्वयं के उत्कर्ष के गीत गाने से जीव क्रोडों भवों में भी नहिं छूटे - ऐसा नीच गोत्र कर्म अनेक भवों तक नीच-गोत्र कर्म का बंध होता हैं; बहुजनमान्य राजादि की निंदा से तो तत्काल विपरीत परिणाम आते हैं। 7. सद्गृहस्थ के रहने का स्थान : सद्गृहस्थ के रहने का घर एसा हो, जहाँ अधिक द्वार न हो, क्योंकि अनेकों द्वार होने से चोरी आदि का भय होता है। घर भी जहाँ शिकारी, मच्छीमार आदि हिंसक; दास, नोकर, याचकादि दास नोकर याचकाटि वर्ग, चाण्डाल, भील, स्मसानरक्षक, मनोरंजन करनेवाले, आदि न रहते हो वैसे सज्जनों के पडोशयुक्त योग्य स्थान में हो। जहाँ हडियों आदि का ढेर न हो, तीक्ष्ण कांटे न हो तथा घर के आसपास बहुत सी दूब, घास, प्रवाल,पौधे, प्रशस्त वनस्पति उगी हुई हो, जहाँ मिट्टी अच्छे रंग की व सुगन्धित हो, जहाँ का पानी स्वादिष्ट हो, वह मकान न अति प्रकट हो और न अति गुप्त हो, अर्थात् राजमार्ग पर भी न हो और एकदम सकडी गली में अंधेरेवाला न हो एवं जहाँ अच्छे सदाचारी पडौसी हों; वहाँ सद्गृहस्थ को निवास करना चाहिए ।।। 8. सदाचारी के साथ संगति : यदि हम सर्वसंग का त्याग न कर सकें तो सत्संग अवश्य करना चाहिए। सद्गृहस्थ के लिए सत्संग का बड़ा महत्त्व हैं। जो इसलोक और परलोक में हितकर प्रवृत्ति करते हो, उन्हीं की संगति अच्छी मानी गई है क्योंकि खल, ठग, जार, भाट, क्रूर, सैनिक, नट आदि की संगति करने से शील का नाश होता है धर्म से पतन होता है, और सदगुणों का नाश होता है अतः सज्जन परुषों का संग करना चाहिए, क्योंकि सत्पुरुषों का संग औषधरुप होता हैं।12 9. माता-पिता का पूजक : सद्गृहस्थ तीनों समय माता-पिता को नमस्कार करता है, उनको हितकारी धर्मानुष्ठान में लगाता है, उनका सत्कार सम्मान करता है तथा उनकी आज्ञा का पालन करता हैं। उनको पहले भोजन करवा कर फिर स्वयं भोजन करता हैं। मनु स्मृति में भी कहा है कि दस उपाध्यायों के बराबर एक आचार्य होता है, सो आचार्यों के बराबर एक पिता और हजार पिताओं के बराबर एक माता होती हैं। 10. जो उपद्रव वाले स्थान को शीध्र छोड़ देता हैं : अपने राज्य या दूसरे देश के राज्य से भय हो, दुष्काल हो, महामारी आदि रोग का उपद्रव हो, महायुद्ध छिड गया हो, गाँव या नगर आदि में सर्वत्र अशांति पैदा हो गई हो, रात-दिन लडाईझगडा रहता हो तो सद्गृहस्थ को वह स्थान शीध्र छोड देना चाहिए। क्योंकि वहां रहने से धर्म, अर्थ और काम (के साधनों) का नाश होता है और पुनः उनकी प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। 11. निंदनीय कार्य का त्यागी : सद्गृहस्थ को देश, जाति एवं कुल की दृष्टि से गर्हित कार्य में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। लोक में निंदनीय ऐसे मांस, मदिरा, परस्त्रीगमन आदि पापकार्यों का त्याग करना चाहिए क्योंकि उत्तम कुल-शीलवान भी सदाचार से ही शोभनीय एवं प्रशंसनीय बनता है। 12. आय के अनुसार व्यय करना : आय के चार भाग करके क्रमश: एक भाग बचत, दूसरा व्यापार, तीसरा धर्म और चौथा परिवार के लिए व्यय करना चाहिए। सद्गृहस्थ को अपने परिवार के लिए, आश्रितों के लिए, अपने निजी उपयोग के लिए तथा देवताओं और अतिथियों के पूजन-सत्कार में द्रव्य खर्च करने से पहले आय देखकर ही खर्च करना चाहिए। आय और व्यय का हिसाब किये बिना जो कुबेर के समान अत्याधिक खर्च करता है, वह थोडे ही समय में भिखारी बन जाता हैं। आय से कम खर्च करना - यही विद्वान का लक्षण है 13. संपत्ति के अनुसार वेष धारण" : सद्गृहस्थ को अपनी संपत्ति, वैभव, देश, काल और जाति के अनुसार ही वस्त्र, अलंकार आदि धारण करना चाहिए। भडकीली पोशाक देखकर लोग अनुमान लगा लेते हैं कि इसने बेईमानी, अन्याय, अत्याचार या निंदनीय कर्म करके पैसा कमाया होगा। यदि आमदनी होती हो, फिर भी कंजूसी से खर्च नहीं करता, वैभव होने 8. अ.रा.पृ. 5/880, 1590 9. अ.रा.पृ. 4/2632, प्रशमरति-100 10. अ.रा.पृ. 1/792, 7/781 11. अ.रा.पृ. 7/969 12. अ.रा.पृ. 7/337 13. अ.रा.पृ. 6/251, 253 14. अ.रा.पृ. 2/927 15. अ.रा.पृ. 1/115, 7/781 16. अ.रा.पृ. 2/320 17. अ.रा.पृ. 6/1203 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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