SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [348]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 3. श्रावकाचार की शब्दावली का अनुशीलन आदिधार्मिक गृहस्थ की योग्यता : श्रावक गृहस्थ होता है अतः श्रावक बनने से पूर्व गृहस्थ जीवन की योग्यता प्राप्त करना अनिवार्य है। तत्पश्चात् धार्मिक होने की योग्यता प्राप्त होने के बाद वह आत्मा देशविरति धर्म अंगीकार कर व्रती श्रावक बन सकता हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आदिधार्मिक गृहस्थ विषयक निम्नांकित कथन प्राप्त होते हैंआदिधार्मिक गृहस्थ : मार्गानुसारी की योग्यता (पैंतीस गुण) :___ अपुनर्बंधक, प्रथमारब्ध स्थूलधर्माचारयुक्त गृहस्थ को 1. न्यायसंपन्न वैभव :'आदिधार्मिक' कहते हैं। इसे ही अन्य धर्म ग्रंथों में 'शिष्टबोधि नीतिवान् गृहस्थ को सर्वप्रथम स्वामिद्रोह, मित्रद्रोह, विश्वाससत्त्वनिवृत्तप्रकृत्याधिकार' नाम से कहा गया हैं। घातादि तथा चोरी आदि निंदनीय उपायों का त्याग करके अपनेआदिधार्मिक के लक्षण : अपने वर्ण के अनुसार सदाचार और न्यायनीति से ही उपार्जित धनअभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - "आदि धार्मिक व्यक्ति वैभव से संपन्न होना चाहिए। दुराचारी मित्रों का त्याग करता है, सदाचारी कल्याण मित्रों से मित्रता 2. शिष्टाचार-प्रशंसक :रखता है, उचित स्थिति (कार्यो) का उल्लंघन नहीं करता, लोकमार्ग व्रतस्थ (व्रतधारी) या ज्ञानवृद्धों की सेवा से उपलब्ध शिक्षा का अनुसरण करता है, दान देता है तथा कर्तव्य पालन, उदारता, को शिष्टाचार कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में शिष्टाचार का वर्णन भगवद्पूजा, साधु संग, विधिपूर्वक धर्मशास्त्र श्रवण, प्रयत्नपूर्वक करते हुए आचार्यश्री ने कहा है - लोक विरुद्ध से डरना, दीन-दुःखी शुभभावनायुक्त होना, उचित व्यवहार, धैर्य, दूरदर्शिता, आदर्श मृत्यु का उद्धार करना, बडों का आदर करना और उपकारी के प्रति या हेतु अंतिम आराधना, परलोक प्रधान विचार करण, गुरुजनसेवा, अपकारी के प्रति सदैव उपकार करना - यह सदाचार कहलाता हैं। योगपटदर्शनकरण (विशिष्ट योगाभ्यास हेतु गुरु/आचार्य के द्वारा विशिष्ट सर्वत्र निंदा त्याग, सज्जनों की प्रशंसा, आपत्ति में अदीनता, उत्तरपट (वस्त्र) धारण किया जाता है, एसे योगधारी गुरु के दर्शन संपत्ति में नम्रता, सप्रयोजन मितभाषिता और अविसंवादन, सक्रियायुक्तता, करना -अ.रा.पृ. 4/1640) उसमें चित्तस्थिरता, धारणायुक्त, कुमार्ग कुलाचार पालन असद्व्यय का त्याग स्थानोचित्त क्रियाकारिता, मुख्य त्याग, योगसिद्धि में प्रयत्नशीलता, भगवत्प्रतिमानिर्माण करवाना, कार्यों में निर्बन्धता, अप्रमत्तता, लोकाचार पालन, सर्वत्र औचित्य पालन, जिनवचन-शास्त्रलेखन, मंगलजाप करना, चतुः शरण अंगीकरण, दुष्कृत प्राण संकट की स्थिति में भी निंद्य प्रवृत्ति का त्याग 'शिष्टाचार' गर्हा, सुकृतानुमोदना, मन्त्रदेवतापूजन, सत्कार्य श्रवण, औदार्य, उत्तम कहलाता हैं। मार्गानुसारी जीव शिष्टाचार का प्रशंसक होता हैं। ज्ञानसाधना आदि गुणों से युक्त होता हैं। शिष्टाचार की प्रशंसा धर्म के बीजरुप होने से इससे इसलोक इस प्रकार की प्रवृत्ति सत्प्रवृत्ति है। मार्गानुसारी इस नियम में सद्गुण परलोक में धर्मफल एवं परंपरा से मोक्षफल की प्राप्ति से अपुनर्बंधक होता है । आदिधार्मिकात्मा की उपरोक्त प्रवृत्ति होती है। मोक्षमार्गगामिनी होती है; बाधक नहीं होती, अर्थात् तात्त्विक रुप 3. समान कुल और शील वाले भिन्न गोत्रीय के साथ से अविरोधी होती हैं। विवाह-संबंध :श्रावक बनने से पूर्व अर्थात् श्रावकोचित अणुव्रतादि के पिता, दादा आदि पूर्वजों के वंश के समान वंश हो, मद्य, ग्रहण के पूर्व आदिधार्मिक जीव श्रावक बनने की योग्यता प्राप्त करने मांस आदि दुर्व्यसनो के त्यागरुपी शील-सदाचार भी समान हो, उसे हेतु मार्गानुसारित्व अर्थात् मोक्षमार्ग की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करने समान कुलशील कहते हैं। उस प्रकार के कुलशीलयुक्त वंश के के लिए मार्गानुसारी के गुणों को प्राप्त करता है। यहाँ मार्ग, मार्गानुसारित्व एक पुरुष से जन्मे स्त्री-पुरुष एकगोत्रीय कहलाते हैं, जबकि उनसे और मार्गानुसारी के बारे में जानना आवश्यक हैं। आचार्य श्रीमद्विजय भिन्न गोत्र में जन्में हुए भिन्न गोत्रीय कहलाते हैं । तात्पर्य यह है राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा हैं कि समान कुलशील वाले भिन्न गोत्रीय के साथ विवाह संबंध करना जिससे आत्मा की शुद्धि होती है, आत्मा के कर्मजनित चाहिए।' क्लेशों का शुद्धिकरण होता हो, मोक्षपथ का अन्वेषण, संविग्न (संवेगवान्), 1. "यो ह्यन्यैः शिष्टबोधिसत्त्वनिवृत्तप्रकृत्यधिकारादिशब्दैभिधीयते स अशठ (भ्रान्तिरहित) गीतार्थे (स्वभ्यस्त सूत्रार्थ) का आचरण, शिष्ठाचार एवास्माभिरादिधार्मिकाऽऽपुनर्बन्धकादिशब्दैरिति भावः।" अथवा प्रवर्तमान अंधानुकरण के त्यागपूर्वक महाजनों (श्रेष्ठ लोगों) - अ.रा.पृ. 2/6 के द्वारा किया गया आचरण, अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र 'मार्ग' 2. अ.रा.पृ. 2/6 कहलाता है। उनका अनुसरण 'मार्गानुसारित्व' कहलाता है और इस 3. अ.रा.पृ. 2/7 4. अ.रा.पृ. 6/37, 38,58 मार्ग पर चलनेवाला या मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्ति/गमन करनेवाला 5. अ.रा.पृ. 4/2002-2003 जीव 'मार्गानुसारी' कहलाता हैं । अभिधान राजेन्द्र कोश में मार्गानुसारी 6. अ.रा.पृ. 7/818, 337 के 35 गुणों का निम्नानुसार वर्णन किया गया हैं। 7. अ.रा.पृ. 6/1237-38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy