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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [351] 22. निषिद्ध देश-काल-चर्या का त्याग : उसका बहुमान करना चाहिए। कृतज्ञता का बदला नहीं चुकाया जा निषिद्ध देश-स्थान अर्थात्, कारावास, वध स्थान, जुआघर, सकता। वेश्यावास, पराभव योग्य स्थान, अन्य का भण्डार स्थान, अन्य का 29. लोकवल्लभ :अंतःपुर, निर्जन जगह चोर-नयदि के स्थान में जाने से अनेक आपत्तियों सद्गृहस्थ का लोकप्रिय होना जरुरी है। लोकप्रिय वही का संभव रहता है अत: जिस देश और काल में जिस आचार का हो सकता है - जो विनय, नम्रता, सेवा, सरलता, दया आदि गुणों निषेध किया गया हो, उसे सद्गृहस्थ को छोड देना चाहिए। अगर से युक्त हों। जिनमें लोकप्रियता नहीं होती वे जनता से धृणा, द्वेष कोई हठवश निशिद्ध देशाचार या वर्जित कालाचार को अपनाता है वैर, संघर्ष या विरोध कर अपने धर्मानुष्ठान को दूषित कर लेते हैं और तो उसे प्रायः चोर, डाकू आदि के उपद्रव का सामना करना पड़ता धर्म की भी निंदा होती हैं। है, उससे धर्म की भी हानि होती हैं।27 30. लज्जावान् :23. बलाबल का ज्ञाता : सद्गृहस्थ के लिए लज्जा का गुण परमावश्यक है। लज्जावान अविवेक महा आपत्तिओं का स्थान है। लाभा लाभ के व्यक्ति किसी भी पापकर्म को करते हुए संकोच करेगा, प्राण चले विचारपूर्वक कार्य करनेवालों को गुणानुरागिणी संपत्तियाँ स्वयंमेव जाएं मगर व्रत-नियमों का त्याग नहीं करेगा। अनेक गुणों की जन्मदात्री प्राप्त होती है। (किरातार्जुनीय महाकाव्य) अतः सद्गृहस्थ को अपनी _लज्जा को पाकर साधक सत्य-सिद्धांत पर अडिग रहता हैं।35 अथवा दूसरे की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शक्ति जान कर 31. दयावान् :तथा अपनी निर्बलता-सबलता का विचार करके सभी कार्य प्रारंभ दया सद्गृहस्थ का महत्त्वपूर्ण गुण हैं । दुःखी जीवों का करना चाहिए । बलाबल का विचार किये बिना किया हुआ कार्यारंभ दुःख दूर करने की अभिलाषा दया है। व्यक्ति को जैसे अपने प्राण शरीर, धन आदि संपत्तियों का क्षय करता हैं।28 प्रिय है, वैसे भी सभी जीवों को अपने प्राण उतने ही प्रिय हैं। 24. वृत्तस्थों और ज्ञानवृद्धों का पूजक : इसलिए धर्मात्मा गृहस्थ दया के अवसर कदापि न चूकें ।36 आचार के पालन में दृढता से स्थिर रहने वालों को वृत्तस्थ 32. परोपकार करने में कर्मठ :कहते हैं। वृत्तस्थ के सहचारी, जो ज्ञानवृद्ध हो, उनकी पूजा करनी सद्गृहस्थ को परोपकार के कार्य भी करने चाहिए। उसे चाहिए। पूजा का अर्थ है - सेवा करना, नमस्कार करना, आसन केवल अपने ही स्वार्थ में रचापचा नहीं रहना चाहिए। परोपकारवीर देना उनके आते ही खड़े होना, आदर देना, सत्कार-सम्मान देना एवं परोपकारकर्मठ मनुष्य सभी के नेत्रों में अमृतांजन के समान आदि । वृत्तस्थ और ज्ञानवृद्ध-पुरुषों की पूजा करने से अवश्य ही होता हैं। कल्पवृक्ष के समान उनके सदुपदेश आदि फल प्राप्त होते हैं। 33. सौम्य :25. पोष्य का पोषक करना : सद्गृहस्थ की प्रकृति और आकृति सौम्य होनी चाहिए। परिवार में माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि जो व्यक्ति क्रूर आकृति और भयंकर स्वभाववाला व्यक्ति लोगों में उद्वेग पैदा स्वंय के आश्रित हो, सद्गृहस्थ उनका भरण-पोषण करे, उनका योगक्षेम कर देता है, उसका प्रभाव क्षणिक होता है, जबकि सौम्य व्यक्ति वहन करे। तथा दरिद्र मित्र, अपुत्री विधवा बहन, स्वज्ञाति के वृद्ध से सभी आकृष्ट होते हैं, कोई भयभीत नहीं होता, अपितु प्रभावित और कुलवान दरिद्र - इन चार प्रकार के मनुष्यों को भी लक्ष्मीवंत हो जाते हैं।38 गृहस्थों के द्वारा सहयोग करने योग्य है। इससे उन सबका सद्भाव 34. षड् अन्तरंग शत्रुओं के त्याग में उद्यत :व सहयोग प्राप्त होगा। भविष्य में वे सब उपयोगी बनेंगे।30 सद्गृहस्थ सदा छह अन्तरंग शत्रुओं को मिटाने में उद्यत 26. दीर्धदर्शी : रहता है। दूसरे की परिणीता अथवा अपरिणीता स्त्री के साथ सहवास सद्गृहस्थ को किसी भी कार्य के करने से पूर्व दूरदर्शी की इच्छा काम है। अपनी अथवा पराई हानि का सोच-विचार किए बन कर उस कार्य के प्रारंभ से पूर्ण होने तक के अर्थ-अनर्थ का बिना कोप करना क्रोध है। दान देने योग्य व्यक्ति को दान न देना विचार कर कार्य करना चाहिए क्योंकि बिना सोचे कार्य करनेवालों तथा अकारण पराया धन ग्रहण करना लोभ हैं। किसी के द्वारा दिया को प्रायः महान आपत्ति होती है। गया योग्य उपदेश दुराग्रहवश नहीं मानना मान हैं। बिना कारण दुःख 27. विशेषज्ञ : 27. अ.रा.पृ. 4/2692 पृ. 4/2633 सद्गृहस्थ को विशेषज्ञ भी होना चाहिए। जो वस्तु अवस्तु 28. अ.रा.पृ. 4/1291 कृत्य-अकृत्य, स्व-पर आदि का अन्तर जाने वह विशेषज्ञ हैं । वस्तुतत्त्व 29. अ.रा.पृ. 7/263 का निश्चय करनेवाला ही वास्तव में विशेषज्ञ हैं। विशेषतः आत्मा 30. अ.रा.पृ. 5/1132 के गुणों और दोषों को भी जाने, वही विशेषज्ञ कहलाता हैं।32 31. अ.रा.पृ. 4/2546,7/957 32. अ.रा.पृ. 6/1265 28. कृतज्ञ : 33. अ.रा.पृ. 3/347 कृतज्ञ व्यक्ति श्रीफल की तरह महान यशः पूजा एवं 34. अ.रा.पृ. 6/722 कुशल-कल्याण को प्राप्त होता है अतः सद्गृहस्थ को कृतज्ञ होना 35. अ.रा.पृ. 6/598 चाहिए। जो दूसरों के लिए उपकार को मानता हो, वह कृतज्ञ हैं। 36. अ.रा.पृ. 4/2457 37. अ.रा.पृ. 5/697 उपकारी की ओर से जो कल्याण का लाभ होता है उसके बदले 38. अ.रा.पृ. 7/1165 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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