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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
वैयावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥ 162 आसमयमुक्तिमुक्तं पञ्चाधानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामायिकाः सामायिकं नाम शंसन्ति 11163 मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धं पर्यङ्कबन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञा || 164 एकान्ते सामायिकं निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु । चैत्यालयेषु वापि, परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ||165 तत्त्वार्थवार्तिक 7/21/7 में 'सामायिक' शब्द की निरुक्ति निम्न प्रकार से दी गयी है
एकत्वेन गमनं समयः । समयः प्रयोजनमस्येति वा, समय एव सामायिकं ।.
किन्तु यहाँ पर यह नहीं बताया गया है कि 'समय' शब्द से 'ठक्' प्रत्यय का विधान किये जाने पर आदिस्वरवृद्धि के साथ साथ द्वितीय स्वर में किस सिद्धान्त से वृद्धि होती है ।
यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि ऊपर वर्णित 'सामायिक' शब्द जिसका अर्थ 'सिद्धान्त' है, पुल्लिङ्ग है, जबकि तप के अर्थ में प्रयुक्त 'सामायिक' शब्द का नपुंसक लिङ्ग में प्रयोग है।
अभिधान राजेन्द्र कोश में व्याख्यात 'सामायिक' शब्द भी नपुंसकलिङ्ग है।
व्याकरण की दृष्टि से 'समाय' शब्द से ठक् प्रत्यय का विधान किये जाने पर 'सामायिक' शब्द की, इसी प्रकार 'समय' शब्द से सामायिक की सिद्धि सुकर है। सामायिक का स्वरुपः
यह गृहस्थ का प्रथम शिक्षाव्रत है। 'सामायिक' शब्द की अनेक प्रकार से व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने सामायिक के निम्नांकित सोलह अर्थ बताये है 166
1.
रागद्वेष से रहित समभावी आत्मा का प्रतिक्षण अपूर्व - अपूर्व कर्मनिर्जरा का हेतुभूत विशुद्धिरुप लाभ
2. समभावी आत्मा को (सम्यग् ) ज्ञान - दर्शन - चारित्र का लाभ सावद्ययोग की विरति (त्याग)
3.
4. रागद्वेष के त्यागपूर्वक का कथन
5.
6.
सम्यग्वाद
संक्षेप में मोक्षगमन में आत्मा के कर्म या जीव से उत्पादव्यय - ध्रौव्य रुप त्रिपदी के ज्ञान की वृत्ति और विस्तार से द्वादशाङ्गी का सामूहिक अर्थ
पाप रहितता
7.
8.
9.
10. संसार के लाभ (भ्रमण) की निवृत्ति
सम्यग्ज्ञानपूर्वक पाप का त्याग
त्याज्य प्रत्येक वस्तु का नियम (प्रत्याख्यान) पूर्वक त्याग
11. समता / समभाव का लाभ
12. गुणों (ज्ञानादि) का लाभ
13. (सर्व जीवों के प्रति ) मैत्री का लाभ 14. कषायरहितता'
15. सावद्ययोग (पाप व्यापार) का त्याग और निरवद्य योग (रत्नत्रय) का सेवन
16. आर्त - रौद्र ध्यान के त्यागपूर्वक धर्म ध्यान के द्वारा शत्रुमित्र, मिट्टी स्वर्ण में समभाव ।
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सामायिक के पर्यायवाची 167 नाम:
(1) सामायिक
समभाव
(2) सामयिक - समस्त जीवों के प्रति दयापूर्वक वर्तन ( 3 ) सम्यग्वाद - राग-द्वेष रहित सत्य कथन (4) समास अल्प अक्षरों में कर्मविनाशक तत्त्वबोध (5) संक्षेप अल्प अक्षरों में गंभीर द्वादशांगी (6) अनवद्य - पापरहित आचरण
(7) परिज्ञा - पाप - परिहार से वस्तु-बोध (8) प्रत्याख्यान - त्याज्य वस्तुओं का त्याग ।
मन-वचन-काया से सर्वसावद्य प्रवृत्ति न करना, न कराना और न अनुमोदन करना - इस प्रकार त्रिविध-त्रिविध (तिविहं-तिविहेणं) सर्वथा सर्वप्रकार की सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करना सर्वविरतिधर साधुसाध्वी का सामायिक चारित्र है। सामायिक चारित्रधारी साधु अतीत में हुई सावद्य प्रवृत्ति की निंदा करता है, वर्तमान का संकोच करता है और भविष्य के हिंसा त्याग का प्रत्याख्यान करता है। 168
चतुर्थ परिच्छेद... [173]
-
चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की उपमा से भी अधिक निरुपम सुख के हेतुभूत संसार भ्रमण रुप क्लेशनाशक प्रतिक्षण अपूर्व ज्ञान दर्शन चारित्र पर्यायों से समागम करवाने रुप प्रयोजन के लाभ रुप क्रिया अनुष्ठान को 'सामायिक' कहते हैं। 169
अथवा
सावद्ययोग से मुक्त, आर्त-रौद्र ध्यान से रहित गृहस्थ साधक का मन-वचन-काया की चेष्टा के त्यागपूर्वक समभाव में दो घडी ( एक मुहूर्त या 48 मिनिट) तक रहना - सामायिक व्रत है । 170
अथवा
ज्ञानादि से युक्त सर्वविरतिधर मुनि का स्त्री- पशु - नपुंसक आदि से रहित निरवद्य स्थान ( वसति) में परिषह या उपसर्ग में समभावपूर्वक भय रहित होकर रहना - जिनेश्वर परमात्माने मुनि का सामायिक चारित्र कहा है । 171
अथवा
गृहस्थ जीवन में ऋद्धिमान् या अऋद्धिवान् श्रावक का जिन मंदिर / पौषधशाला / उपाश्रय / मुनियों के पास / अपने घर पर / निरवद्य, एकान्त और पवित्र स्थान पर 48 मिनिट तक सामायिक पाठ के उच्चारण पूर्वक विधि सहित सामायिक ग्रहण कर धर्मध्यानादि करना 'सामायिक व्रत' है। 172
रत्नकरंडक श्रावकाचार के अनुसार "आत्मा के गुणों का चिन्तन कर समता का अभ्यास करना 'सामायिक' है।
समय आत्मा को कहते हैं173। सामायिक में गृहस्थ प्रतिदिन
162. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 5/91
163. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 5/97
164. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 5/98
165. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 5/99 166. अ.रा. 7/710
167. अ.रा. 7/517, 709, 710; विशेषावश्यक भाष्य-2787, 2792 से 2798,
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3377, 3478, 3479,
168. अ.रा. 7/88, 517, 703, 710
169. अ.रा. 77757; आवश्यक निर्युक्ति- 1046 विशेषावश्यक भाष्य-3539 170. अ.रा. 7/702, 703
171. अ.रा. 7/703, धर्मसंग्रह - 2/37, योगशास्त्र- 3/82
172. अ.रा. 7/703, 704; आवश्यक बृहद्वृत्ति, छठा अध्ययन 173. अ.रा. 7/710; विशेषावश्यक भाष्य-3483
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