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[174]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
दोनों संध्याओं में एक स्थान पर बैठकर समस्त पापों से विरत हो आत्म-ध्यान का अभ्यास करता है।74 | 'सामायिक' ध्यान का सर्वश्रेष्ठ साधन है। मन की शुद्धि का श्रेष्ठ उपाय है। पाँचों व्रतों की पूर्णता सामायिक में हो जाती है।75 | सामायिक में व्रती गृहस्थ "संसार अशरण, अशुभ, नाशवान् और दुःखमय है परन्तु इसके विपरीत मोक्ष सुख-शांति का आगार और चिरन्तन (शाश्वत) है।76 । इस प्रकार की भावनाओं के द्वारा अपने वैराग्य को दृढ कर के समता में स्थिर होता है। इस अभ्यास में णमोकार मंत्र का जाप सहायक होने से वह भी सामायिक है परन्तु सामायिक में शब्दोच्चारण की अपेक्षा चिन्तन की ही मुख्यता है।
वस्तुतः समभाव ही सामायिक है। निन्दा और प्रशंसा, मान और अपमान, स्वजन और परजन सभी में जिसका मन समान है, उसी जीव को सामायिक होती है, समभाव की साधना होती है।771
जो त्रस और स्थावर सभी जीवों के प्रति समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है - एसा परमज्ञानी केवली भगवान ने कहा है|7|
जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में तल्लीन है, उसी की सच्ची सामायिक है, एसा केवली भगवान ने कहा है।791
तृण और काञ्चन में, शत्रु और मित्र में, प्रीति और अप्रीति के, विषय के समभाव और निरभिषङ्ग अर्थात् अनुचित प्रवृत्ति से रहित उचितप्रवृत्तिप्रधान चेष्ठायुक्त चित्त को 'सामायिक' कहते हैं।60 ।
जैसे आकाश सर्वभावों (पदार्थों) का आधार है वैसे सामायिक गुणों का आधार है, सामायिक से रहित आत्मा चारित्रादि गुण से युक्त नहीं होता, इसलिए "सामायिक शारीरिक और मानसिक दुःखों को नाश करने का और मोक्ष का निरुपम उपाय है"- एसा जिनेश्वर परमात्मा ने कहा है181 |
'सामायिक' श्रमण जीवन का प्राथमिक रुप है और गृहस्थ जीवन का अनिवार्य श्रेष्ठ कर्तव्य है।82 | सामायिक करने से सामायिक काल में गृहस्थ साधु जैसा होता है अतः श्रावक को बार-बार सामायिक करनी चाहिए।831
हिंसारम्भ से बचने के लिए केवल सामायिक ही प्रशस्त है। उसे श्रेष्ठ गृहस्थधर्म जानकर बुद्धिमान लोगों को आत्महित तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए सामायिक करनी चाहिए।84 | सामायिक का फल/लाभ:. सामायिक से ऊर्ध्वलोक (देव भव), अधोलोक (पूर्व निकाचित कर्म बंध के उदय से नरक गति) और तिर्यग्लोक में सम्यक्त्व एवं श्रुत का लाभ होता है। ढाई द्वीप (मनुष्य क्षेत्र) में उत्पन्न हुए तिर्यंच को देशविरति और मनुष्य भव में देशविरति तथा सर्वविरति की भी प्राप्ति होती है। सामायिक सत्र में भी आवश्यकों की साधना186:
(1) 'सामाइयं' पद से सामायिक आवश्यक की साधना (2) प्रथत 'भंते' पद से चतुर्विंशति (जिन वंदन) आवश्यक ___ की साधना (3) द्वितीय 'भंते' पद से गुरुवंदन आवश्यक की साधना (4) 'पडिक्कमामि' पद से प्रतिक्रमण आवश्यक की साधना (5) 'अप्पाणं वोसिरामि' पद से कायोत्सर्ग आवश्यक की साधना (6) 'पच्चक्खामि' पद से प्रत्याख्यान आवश्यक की साधना
सामायिक द्वारा चार भावनाओं की पुष्टि:
सामायिक की साधना द्वारा मुमुक्षु साधक अपने जीवन में मैत्री आदि चार भावनाओं को पुष्ट करता है। सामायिक में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की साधना गर्भित है। सर्व जीवों के प्रति स्व-तुल्य की भावना से मैत्री-भाव की पुष्टि होती है। सामायिक ग्रहण करते समय "प्रणिपात सूत्र" और "चउविसत्थो सूत्र" का उपयोग किया जाता है। चौबीस तीर्थंकरो को नमस्कार प्रमोद-भावना का प्रतीक है। सामायिक में 'करेमि भंते" सूत्र ग्रहण करने के बाद 'इरियावहियं सूत्र' का पाठ किया जाता है, किसी भी आत्मा को जानते हुए, न जानते हुए कुछ भी दुःख दिया हो तो उसके लिए क्षमायाचना की जाती है। दूसरे को दुःख देने की वृत्ति / प्रवृत्ति की निन्दा करने से कारुण्यभावना की पुष्टि होती है। सामायिक करते समय समभाव/मध्यस्थ भाव में रहना होता है। राग, द्वेष, शत्रु-मित्र के प्रति तटस्थ भाव धारण किया जाता है, यहां तक कि पापी आत्माओं के प्रति भी मध्यस्थ-भाव ही धारण किया जाता है, इससे माध्यस्थभावना की पुष्टि होती है। सामायिक द्वारा तपाराधना:
सामायिक में बाह्य और अभ्यन्तर तप-धर्म की आराधना समाविष्ट है। सामायिक करते समय साधक चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है अतः अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रसत्याग की आराधना हो जाती है। दूसरी ओर स्थिर-आसन होने से 'कायक्लेश' और संलीनता तप भी आ जाते हैं।
___ इरियावहीयं सूत्र के द्वारा सामायिक में 'प्रायश्चित्त तप' की आराधना गर्भित है, नमस्कार मन्त्र के स्मरण आदि के द्वारा "विनय तप' की आराधना गर्भित है, जिज्ञासा व गुर्वाज्ञा का पालन होने से देव-गुरु की वैयावृत्त्य तप की आराधना गर्भित है और सतत जाप, ज्ञानाराधना, धर्मचर्चा आदि शुभप्रवृत्ति होने से स्वाध्याय और ध्यान तप की आराधना गभित है।
सामायिक में काया की ममता के त्याग रुप कायोत्सर्ग होने से 'कायोत्सर्ग तप' की आराधना भी रही हुई है। इसी तरह सतत शुभवृत्ति और शुभप्रवृत्ति (जाप, ध्यान, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय) होने से भाव-धर्म की भी आराधना हो जाती है।88 | सामायिक के पाँच अतिचार189 :
. (1) मनोदुष्प्रणिधान(2) वाचोदुष्प्रणिधान (3) कायदुष्प्रणिधान
174. रत्नकरंडक श्रावकाचार-97 175. वही-101 176. वही-104 177. संबोधसत्तरी-25 178. अ.रा. 7/715; विशेषावश्यक भाष्य-2680 179. अ.रा. 7/715; नियमसार-126; विशेषावश्यक भाष्य-2679 180. अ.रा. 7/711; पञ्चाशक-11/5 181. अ.रा. 77702 182. अ.रा. 7/7153; विशेषावश्यक भाष्य-2681, 2682 183. अ.रा. 7/716; वि.आ.भा.2690 184. अ.रा. 777153; विशेषावश्यक भाष्य-2681, 2685 185. अ.रा. 7/7183; वि.आ.भा.-2695 186. श्रावककर्तव्य, भाग 1, "सामायिक आवश्यक" 187. श्रावककर्तव्य, भाग 1, "सामायिक आवश्यक" 188. श्रावककर्तव्य, भाग 1, "सामायिक आवश्यक" 189. अ.रा. 7/703
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