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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (4) सामायिक की समयावधि का ध्यान नहीं रखना (5) अव्यवस्थित (उपयोग रहित होकर) सामायिक करना । सामायिक के बत्तीस दोष 190 : सामायिक व्रत का सम्यग्रुप से परिपालन करने के लिए मन, वचन और शरीर के 32 दोषों से बचना भी आवश्यक है। 32 दोषों में दस दोष मन से, दस दोष वचन से और बारह दोष शरीर से संबंधित है। 1. मन के दस दोष: 1. अविवेक 2. किर्ती की लालसा, 3. लाभ की इच्छा 4. अहंकार 5. भय के वश या भय से बचने के लिए साधना करना 6. निदान (फलाकांक्षा) 7. फल के प्रति संदिग्धता 8. रोष अर्थात् क्रोधादिभावों से युक्त होना 9. अविनय और 10. मनोयोग पूर्वक साधना नहीं करना या बहुमान भाव से रहित होकर सामायिक करना । 2. वचन के दस दोष: 1. असभ्य वचन बोलना 2. बिना विचारे बोलना 3. अधिक वाचाल होना 4. संक्षेप में बोलना अथवा अयथार्थ रुप में बोलना 5. जिन वचनों से संघर्ष उत्पन्न हो एसे वचन बोलना 6. विकथा (स्त्री, राज्य भोजन एवं देश / लोक के संबंध में चर्चा करना) 7. हास्य (हँसी-मजाक करना 8. अशुद्ध उच्चारण करना 9. असावधानीपूर्वक बोलना 10. अस्पष्ट उच्चारण करना या गुनगुनाना या सूत्र पाठ बोलने में गडबड करना । 3. शरीर के बारह दोष: 1. अयोग्य आसन से बैठना 2. बार-बार स्थान बदलना 3. दृष्टि की चंचलता 4. हिंसक क्रिया करना अथवा उसको करने का संकेत करना 5 सहारा लेकर बैठना 6. अंगों का बिना किसी प्रयोजन के आंकुचन और प्रसारण करना 7. आलस्य 8. शरीर के अंगों को मोडना 9. शरीर के मलों का विसर्जन करना 10. शोकग्रस्त मुद्रा में बैठना, बिना प्रमार्जन के अंगों को खुजलाना 11. निद्रा और 12. शीत के कारण वस्त्र पहनना या गर्मी के कारण वस्त्र का संकुचन करना आदि। छेदोपस्थापनीय चारित्र जिसमें दीक्षा/संयम जीवन के पूर्व पर्याय (दीक्षा अवधि) का छेद करके नये पर्याय उपस्थापन करने में आता हो, उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं । वह दो प्रकार का है | 1. अनतिचार भरत और एरावत क्षेत्र में प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन काल में साधु-साध्वी को दीक्षा के समय सामायिक चारित्र आरोपण कराने के कुछ समय बाद महाव्रतों का आरोपण कराया जाता है; (वर्तमान में जिसे बृहद् (बडी) दीक्षा या पक्की दीक्षा करते हैं); अथवा एक तीर्थंकर के शासन का साधु दूसरे तीर्थंकर के संघ में (अर्थात् जैसे श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर के शासन के चातुर्याम महाव्रतधारी साधु श्री महावीर शासन में) पुनः दीक्षित होने पर उन्हें चार के बजाय पाँच महाव्रतों का आरोपण कराया जाय, वह अनतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। 2. सातिचार मूलगुण अर्थात् महाव्रतों का भङ्ग होने पर पूर्व दीक्षापर्याय का छेद करके पुनः महाव्रतों का उच्चारण/ आरोपण कराना 'सातिचार छेदोपस्थापनीय' चारित्र है । - - Jain Education International चतुर्थ परिच्छेद... [175] परिहारविशुद्धि चारित्र : जिस चारित्र में 'परिहार' नामक विशिष्ट तप के द्वारा कर्म निर्जरा रुप विशुद्धि होती है उसे 'परिहार विशुद्धि चारित्र' कहते हैं। 192 इस चारित्र के पालन में 9 साधुओं का ही समुदाय होता है। इनमें से 4 साधु परिहार तप की विधि के अनुसार परिहार तप करते हैं, चार साधु उनकी वैयावृत्त्य करते हैं और एक साधु वाचनाचार्य के रुप में रहते हैं, उन्हें 'चारित्राचार्य' भी कहते हैं । वाचनाचार्य इन आठों साधुओं को वाचना (सूत्रादि के पाठ) देते हैं। यद्यपि ये सभी साधु श्रुतातिशय संपन्न होते हैं तथापि आचार पालन हेतु एक को वाचनाचार्य के रुप में स्थापित करते हैं। विधि :- ग्रीष्म ऋतु में जघन्य से उपवास, मध्यम छठ्ठ, उत्कृष्ट अट्ठम; शीतकाल में जघन्य छ, मध्यम अट्ठम, उत्कृष्ट चार उपवास; चातुर्मास (वर्षाऋतु) में जघन्य अट्ठम, मध्यम चार उपवास, उत्कृष्ट पाँच उपवास के तप का विधान है। वे इसमें से ऋतु के अनुसार तप करते हैं और पारणे में आचाम्बिल (आयंबिल) तप करते हैं। उनमें से 4 साधु छः माह तक यह तप करने के बाद सेवा करनेवाले 4 साधु यह तप करते हैं और तपस्वी साधु उनकी वैयावृत्त्य करते हैं, तत्पश्चात् वाचनाचार्य यह तप करते है तब एक साधु वाचनाचार्य बनता है और एक साधु उनकी वैयावृत्त्य करता है। तपस्वी के अतिरिक्त शेष सभी साधु आयंबिल तप करते हैं। इस प्रकार यह तप 18 महीने में होता है 193 परिहार तप पूर्ण होने के बाद ये साधु पुनः इसी तप का सेवन करते हैं अथवा जिनकल्प या स्थविरकल्प भी स्वीकार करते हैं 194 | नियम : परिहार कल्प के तपस्वी साधु अनेकविध अभिग्रह धारण करते हैं । वे आँख में गिरा हुआ तिनका भी स्वयं अपने हाथ से बाहर नहीं निकालते, किसी भी प्रकार के अपवाद का सेवन नहीं करते 195, तृतीय पहर में ही आहारचर्या एवं विहार करते हैं एवं शेष काल में कायोत्सर्ग करते हैं। तृतीय प्रहर पूर्ण होने पर वे एक कदम भी नहीं चलते 1196 गोचरी के समय भी सात पिण्डेषणा में से पहली और दूसरी पिण्डेषणा का त्याग करके शेष पाँच में से कोई भी एक पिण्डेषणानुसार भोजन और अन्य एक पिण्डेषणा द्वारा अचित्त जल ग्रहण करते हैं।97 । इनको निद्रा भी प्रायः अल्प ही होती है198 । ये तपाराधन के समय में नया अध्ययन नहीं करते परंतु पूर्व में अधीत ज्ञान का पुनरावर्तन (स्वाध्याय) अवश्य करते हैं। किसी को दीक्षा नहीं देते (उपदेश दे सकते हैं) 199 । तपकाल में इन्हें रोगादि वेदना भी नहीं होती। 190. दो प्रतिक्रमण सूत्र सार्थ (सामायिक पारने का सूत्र - विवेचन) 191. अ.रा. 3/1142; 3 / 1359; विशेष आवश्यक भाष्य 1267-68-69; स्थानांग 5/2; तत्त्वार्थसूत्र 9 / 18 पर भाष्य 192. अ. रा. 5/691; तत्वार्थसूत्र 9/18 पर तत्त्वार्थभाष्य एवं सर्वार्थसिद्धि 193. अ.रा. 5/693,694 194. अ.रा. 5/694,696 195. अ.रा. 5/696 196. अ.रा. 5/691 197. अ.रा. पृ. 5/696 198. अ.रा. पृ. 5/696 199. अ.रा. पृ. 5/695 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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