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[176]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन __ वज्रऋषभनाराच नामक प्रथम संहननवाले जघन्य से नवपूर्व
यथाख्यात चारित्र के ये चारों भेद क्रमशः 11वें, 12वें, 13वें उत्कृष्ट से किञ्चिद् न्यून दशपूर्व के ज्ञाता मुनि ही इस चारित्र को और 14 वें गुणस्थान में होते हैं (गुणस्थानों का परिचय अगले शीर्षक तीर्थंकर के पास या जिन्होंने तीर्थंकर के पास यह चारित्र ग्रहण किया में दिया जा रहा है)। इसमें 11 वें में मोहनीय का सर्वथा उपशम हुआ हो, एसे साधु के पास ही इस चारित्र को ग्रहण कर सकते होता है और शेष तीनों में क्षय होता है। यद्यपि 14 वें गुणस्थान हैं200। यह चारित्र भरत और एरावत क्षेत्र में ही दो पुरुष युग-(पाट का काल पाँच ह्रस्वाक्षर मात्र ही है तथापि स्वरुपरमण की अपेक्षा परम्परा) तक ही होता है, महाविदेह क्षेत्र में नहीं होता201 | इस चारित्र से उन्हें भी यथाख्यात चारित्र है अन्यथा आत्मा के 'चारित्र' नामक के दो प्रकार से दो-दो भेद हैं -
गुण का वहाँ अभाव मानना पडेगा209 | (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, 1. क. निर्विशमानकः
वीर्य और उपयोग - यह आत्मा का लक्षण होने से (देखें नवतत्वप्रकरण, इस चारित्र को आराधन करते समय आराधक साधु गाथा 6)। 'निर्विशमानक' कहलाते हैं अत: इस चारित्र को भी 'निर्विशमानक' । सम्यक् चारित्र का फल:कहते हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने सम्यक् चारित्र के ख. निर्विष्टकाय/निविष्टकायिकः
फल का वर्णन करते हुए कहा है कि, "चारित्रधारी को नियमा समकित परिहार तप पूर्ण करने के बाद वे साधु निविष्टकाय अथवा
होता है। ज्ञान-दर्शन सम्पूर्ण फल नहीं देते जबकि चारित्र संपूर्ण फल निविष्टकायिक कहलाते है2021
देता है। श्रमण जीवन में सभी सद्गुण प्रकट होते है। श्रमण से 2. अ. इत्वरकथिकः
ही तीर्थ/शासन होने से चारित्रधारी श्रमण के ज्ञान-दर्शन से तीर्थ और एक बार परिहार तप पूर्ण करने के बाद पुनः उसी तप
उससे प्रवचन (शासन/चतुर्विध सङ्घ) व्यवस्थित रहता है अतः श्रमण का सेवन करने वाले मुनि इत्वरकथिक कहलाते हैं। इसके प्रभाव का नरक में जन्म नहीं होता। इतना ही नहीं अल्पज्ञानी (विशिष्ट से इन्हें रोगादि तथा देव, मनुष्य, तिर्यंचकृत उपसर्ग नहीं होते।
आगमधर, श्रुतधर की अपेक्षा से) किन्तु सम्यक् चारित्रधारी अवश्य आ. यावत्कथिकः
मोक्ष प्राप्त करता है। आगे चारित्र की महिमा बताते हुए कहा है कि, परिहार तप पूर्ण करने के बाद जिनकल्प स्वीकार करनेवाले सम्यकत्व का भी सार चारित्र है; ज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) का मुनि 'यावत्कथिक' कहलाते हैं। जिनकल्प की स्वीकृति के पश्चात् (भी) सार चारित्र है और चारित्र का सार निर्वाण है अतः पूर्वकृत कर्मोदय से इन्हें उपसर्गादि की संभावना रहती है203 । दीक्षा सार्थक होती है 210 सूक्ष्म संपराय चारित्र:
___ चारित्र से नये कर्मों का बंध नहीं होता और पूर्वोपार्जित 'संपराय' अर्थात् कषाय; जिसके कारण जीव संसार में भ्रमण
कर्मों की निर्जरा होती है। ज्ञान प्रकाशक होने से जीव को मार्ग दिखाता करता है; कषाय को संपराय कहते हैं। जिस चारित्र में सूक्ष्म लोभ
है जबकि चारित्र कर्ममल को दूर कर जीव शुद्ध होता है। गुप्तिविशुद्धिरुप कषाय के अंश अवशेष रुप होते हैं उसे अथवा सूक्ष्मसंपराय नामक चारित्र का फल मोक्ष है। और चारित्र निर्वाण का मुख्य कारण दशम गुणस्थानवर्ती संयतात्मा के चारित्र को 'सूक्ष्म संपराय चारित्र' है। क्योंकि जीव को केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर भी तत्क्षण मुक्ति कहते हैं। यह क्षपक उपशमक दोनों को होता है2041
नहीं होती अपितु शैलेशी अवस्था में मोक्ष होता है। अत: संयमयथाख्यात चारित्र:
तपरुप चारित्र का फल निर्वाण/मोक्ष है। चारित्र की महत्ता को 'यथाख्यात । अथाख्यात' अर्थात् जैसा जिनेश्वर परमात्मा ने
दृष्टांत से दर्शाते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा हैकहा है वैसा श्रेष्ठ चारित्र अर्थात् सर्वथा कषाय रहित (अकषाय) चारित्र
"कोई व्यक्ति स्वर्णजडित भूमितलवाले स्वर्ण के जिनमंदिरों से सारी को 'यथाख्यात चारित्र' कहते है2051
पृथ्वी सुशोभित करें तो भी तप-संयमयुक्त चारित्र की तुलना (बराबरी) सर्वार्थसिद्धि में "समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय नहीं कर सकता 1212 से, जैसा आत्मा का स्वभाव है उसी के अनुभवरुप चारित्र को 'यथाख्यात
200. अ.रा.पृ. 5/692, 693 चारित्र' कहा है206 | अशुभ रुप मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा
201. अ.रा.पृ. 5/694 क्षीण हो जाने पर जो वीतराग संयम होता है, उसे यथाख्यात चारित्र 202. अ.स.पृ. 5/691 कहते है207 | कषायों के सर्वथा अभाव से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि 203. अ.रा.पृ. 5/696 विशेष को 'यथाख्यात चारित्र' कहते है208 ।
204. अ.रा. 5/1025; भगवतीसूत्र 8/2
205. अ.रा.पृ. 1/861 भेद-प्रभेदः
206. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ.3/370; सर्वार्थसिद्ध 9/18/436/9; द्रव्यसंग्रह छद्मस्थ और केवली की अपेक्षा से यथाख्यात चारित्र दो
टीका 35/148/7 प्रकार का है तथा उनके भी गुणस्थान की अपेक्षा से दो-दो भेद हैं
207. पंचसंग्रह, प्राकृताधिकार 1/133, 243; गोम्मटसार, जीवकाण्ड
475/883 1. उपशांत मोह (कषाय) वीतराग छद्मस्थ यथाख्यात
208. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/370 चारित्र
209. अ.रा.पृ. 1/861, 862, 3/143; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ.3/370%; 2. क्षीणमोह वीतराग छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र
तत्त्वार्थसूत्र 9/18 पर भाष्य 3. सयोगीकेवली यथाख्यातचारित्र
210. अ.रा.पृ. 3/1126-27:44-45
211. अ.रा.पृ. 3/1126-27 4. अयोगीकेवली यथाख्यातचारित्र
212. अ.रा.पृ. 3/1445
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