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[172]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
अशुभ से निवृत्ति और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति होना सम्यक् चारित्र है।53 | अथवा संसार के कारणभूत राग-द्वेष आदि की निवृत्ति के लिए ज्ञानवान पुरुष का शरीर और वचन की बाह्य क्रियाओं से तथा अभ्यन्तर मानसिक क्रियाओं से विरत होना सम्यक् चारित्र है।54 | यह सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही होता है, किन्तु सम्यग्ज्ञान भी बिना सम्यग्दर्शन के नहीं होता। इसलिये सम्यक्त्व के बिना सम्यक् चारित्र भी संभव
नहीं है। सम्यक् चारित्र में 'सम्यक्' विशेषण अज्ञानपूर्वक आचरण की निवृत्ति के लिए दिया है। चारित्र के भेदः
सामान्य से चारित्र एक प्रकार का है। चारित्र मोह के उपशम, क्षय व क्षयोपशम से होनेवाली आत्मविशुद्धि की दृष्टि से चारित्र एक है। बाह्य व अभ्यन्तर निवृत्ति अथवा निश्चय-व्यवहार की अपेक्षा से चारित्र दो प्रकार का है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक अथवा उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य के भेद से चारित्र तीन प्रकार का है। तथा चातुर्याम की अपेक्षा से अथवा छद्यस्थों के सराग और वीतराग तथा सर्वज्ञों का सयोग और अयोग इस तरह वह चार प्रकार का है। सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात के भेद से वह पाँच प्रकार का है155 |
इसी तरह विविध निवृत्तिरुप परिणामों की दृष्टि से यह चारित्र संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्परुप है। सामायिक चारित्र:
समय आत्मा को कहते हैं। 'समय' शब्द से जात अर्थ में तद्धित 'इक' प्रत्यय लगाने से 'सामायिक' शब्द निष्पन्न होता है। अर्थात् जो आत्मा के आश्रय से उत्पन्न दशा उसे सामायिक कहते हैं। अतः आत्मा का आश्रय ग्रहण करने की क्रिया सामायिक है। 'सामायिकक्रिया' चारित्र का भेद है। श्रावक और मुनि दोनों के आचरण में सामायिक को समान रुप से सम्मिलित किया गया है। सामायिक व्रत गृहस्थ का प्रथम शिक्षाव्रत है। सामायिक अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र का परस्पर सम्यक् समायोजन।56 सामायिक का व्युत्पतिलभ्य अर्थ:
___ जैन वाङ्मय में 'सामायिक' और 'सामयिक' - ये दो शब्द इस चारित्रभेद के नाम के लिए प्रयुक्त हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में इस अर्थ में केवल 'सामायिक' शब्द का संकलन किया गया है; 'सामयिक' शब्द का अर्थ सिद्धान्त अर्थ में प्रयुक्त 'समय' शब्द को आधार मानकर बताया गया है
"सामायिक (सामइय-पुं.)समयः सिद्धान्तस्तदाश्रितः सामायिकः 1157"
'सामायिक' शब्द की व्युत्पत्ति-निरुक्ति के विषय में विचार करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अनेक आगम ग्रन्थों को भी उद्धृत किया है। विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार 'सामायिक' शब्द की निरुक्ति निम्न प्रकार से है
रागद्वेषविरहितः समः, तस्य प्रतिक्षणं अपूर्वापूर्वकर्मनिर्जराहेतुभूताया विशुद्धेरायो लाभः समायः, स एव सामायिक।
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'सामायिक' शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए उसका समाधान भी किया है
समानां ज्ञानदर्शनचारित्राणां आयः समायः ।समाय एव सामायिकं, विनयादिपाठात् स्वार्थे ठक् । आह-समयशब्दस्तत्र
पठ्यते तत्कथं समाये प्रत्ययः? उच्यते - 'एकदेशविकृतमनन्यवद् भवतीति न्यायात्, तञ्च सावद्ययोगविरतिस्पं, ततश्च सर्वमप्येतच्चारित्रं अविशेषतः सामायिकम् ।।58
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी इतने से ही सन्तुष्ट नहीं हुए, और इसलिए, 'संजम' शब्द के अन्तर्गत पुनः अन्यान्य आगम ग्रन्थों के उद्धरणों के साथ 'सामायिक' शब्द की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की -
तत्र समो रागादिरहितः, तस्य आयो गमनं प्रवृत्तिरित्यर्थः समायः । समाये एव, समाये भवं, समायेन निर्वत्तं समायस्य विकारोऽशोवा, समायो वा प्रयोजनमस्येति सामायिकम् । उक्तं च
रागद्दोसविरहिओ, समो त्ति अयणं अउ त्ति गमणं ति । समगमणं ति समाओ स एव समाइयं नाम ॥ अहवा भवं समाए, निव्वत्तं तेण तम्मयं वा वि। जं तप्पओयणं वा, तेण सामाइयं नेयं ॥ अहवा समाइ सम्मत्तनाणचरणाइ तेसु तेहि वा। अयणं अओ समाओ, स एव समाइयं नाम ॥ अहवा समस्स आओ, गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो। अहवा समाणमाओ (समानामायो)णेओ समाइयं नाम ।
अथवा साम्नि मैत्र्या वा अयस्तस्य वा आयः समायः, स एव समायिकं
अहवा सामं मेत्ती, तत्थ अओ तेण व त्ति सामाओ। अहवा सामस्साओ, लाभो सामाइयं नाम ।159
अनेकार्थसंग्रह में 'समय' शब्द के अनेक अर्थ दिये गये हैं, यथा
समयः शपथे भाषासम्पदोः कालसंविदोः । सिद्धान्ताचारसंकेतनियमासरेषु च ।
क्रियाकारे च निर्देशे......160 (संविद् = ज्ञान, क्रियाकार = व्यवस्थापन।)
अभिधानचिन्तामणिनाममाला में भी 'समय' का अर्थ 'सिद्धान्त' किया गया है - ___ "राद्धसिद्धकृतेभ्योऽन्त आप्तोक्तिः समयागमौ ॥"161
किन्तु, रत्नकरण्डकश्रावकाचार में 'सामायिक' शब्द का प्रयोग सामायिक नामक चारित्र के अर्थ में किया गया है
देशावकाशिकं वा समायिकं प्रोषधोपवासो वा।
153. असुहादो विणिवित्ति सुहे पविति य जाण चारितं । - द्रव्य संग्रह-45 154. संसारकारणविनिवृत्ति प्रत्यागुणस्य ज्ञानवतो बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषोपरमः
सम्यक्चारित्रम् । सर्वार्थसिद्धि, 131 155. अ.रा.पृ. 1/861 862; 3/1143; तत्त्वार्थसूत्र 9/18 पर तत्त्वार्थभाष्य; 156. विशेषावश्यक भाष्य-3483, अ.रा.पृ.-7/710 157. अ.रा.पृ. 7/637 158. अ.रा.पृ. 7/701 159. अ.रा.पृ. 7/88 160. अनेकार्य संग्रह 2/502-503 161. अभिधानचिन्तामणिनाममाला 2/156
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