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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... (367]
का संपूर्ण त्याग करके मन को शुद्ध रखना चाहिए, पूजा संबंधी का निर्माण स्वर्ण, रजत, जर्मन, ताँबा आदि उच्च श्रेणी की धातुओं उत्तम भावना से मन को भावित करना चाहिए।
से कराना और उपयोग में लेने से पूर्व एवं बाद में भी अच्छी तरह 2. वचनशुद्धि :
से साफ करना चाहिए। जिनपूजा में उपयोग में लिये जानेवाले पूजा जिन पूजा करते समय दुर्विचन का त्याग करना चाहिए। योग्य द्रव्य यथासंभव न्यायोपार्जित स्व-द्रव्य से लाना चाहिए जिससे पूजा संबंधी दोहे आदि भी स्वयं पूजा करते हो तब मौन रखकर पूजा में भावोल्लास अधिक जागृत होता हैं। पूजा के द्रव्य उत्तम, मन में बोलना चाहिए जिससे आशातना न हो (अन्य व्यक्ति पूजा/ ताजे और स्वच्छ होना चाहिए।32 प्रक्षालादि करता हो तो स्वयं प्रकट स्वर से बोले तो दोष नहीं) 7. स्थिति शुद्धि :चैत्यवंदनादि क्रिया में सूत्रादि का उच्चारण शुद्ध, स्पष्ट एवं विधि
जिनमंदिर में दर्शन-पूजन करते समय पुरुष प्रतिमा की के अनुसार करना चाहिए।
दायीं और तथा स्त्रियाँ बायीं ओर रहें। वाचक उमास्वाति ने कहा 3. कायशुद्धि :
है कि, मंदिर में जिनेश्वर परमात्मा कम से कम जमीन से डेढ हाथ जिन पूजा के लिए पूर्वमुखी होकर छने हुए शुद्ध जल ऊँचे विराजमान होना चाहिए। इससे नीचे रखने पर पूजक की, संतान से शुद्ध भूमि पर सर्वांग स्नान करें, स्नान के पश्चात् शुद्ध वस्त्र से
एवं वंश की अवनति होती हैं। जिनपूजा करते समय पूजक का शरीर पोंछे। अशुद्ध व्यक्ति आदि को स्पर्श न करें। शरीर में फोडा,
मुख यथासंभव पूर्व या उत्तरा दिशा की ओर होना चाहिए क्योंकि घाव, आदि से खून या मवाद बहता हो या अन्य इसी प्रकार की
पूजक का मुख पश्चिम दिशा की ओर रहने पर संतति का नाश, अशुद्धि के समय परमात्मा की अङ्ग पूजा न करें। वे अग्र पूजा दक्षिण दिशा और वायव्य कोण की ओर रहने पर संतति का अभाव, या भावपूजा कर सकते हैं एवं अपने पुष्पादि अन्य को पूजा हेतु
अग्नि कोण की ओर रहने पर धनहानि, नैऋत्य की ओर रहने पर दे सकते हैं।
कुलक्षय होता है और ईशान कोण की ओर रहने पर अच्छी स्थिति 4. वस्त्रशुद्धि :
नहीं बनती। अन्य ग्रंथो में स्थितिशुद्धि के स्थान पर सातवीं शुद्धि वस्त्र और विचारों का प्रगाढ संबंध हैं अतः काले, फटे
में विधिशुद्धि का वर्णन प्राप्त होता हैं, यथाहुए, सिले हुए, अशुभ, गंदे या जिस वस्त्रों से मल-मूत्र त्याग, मैथुनसेवन, भोजन आदि किया हो या ऋतुमती स्त्री के द्वारा स्पर्श किया
परमात्मा की पूजा तथा चैत्यवंदनादि क्रिया शुद्ध शास्त्रोक्त हुआ वस्त्र जिनपूजा में नहीं पहनना । स्नान के पश्चात् पूजन के लिए
विधिपूर्वक करनी चाहिए। पूजादि में प्रमाद, अविधि-आशातना आदि शुद्ध भूमि पर उत्तराभिमुख होकर नये या स्वच्छ शुभ्र (सफेद) या
दोषों से बचना चाहिए । शुभ (लाल, पीलादि) दो सदश वस्त्रों (धोती-सोला) को धूप से
पाँच अभिगम :सुगंधित करके पहनना चाहिए।
जिनमंदिर में प्रवेश करते समय पाँच अभिगमों का पालन बहनों को भी उद्भट वेश का त्याग कर मर्यादापूर्ण वेश
करना चाहिए - भूषा (साडी-चूनरी) धारण करना चाहिए। पूजन के समय भाईयों
जिनमंदिर में प्रवेश करते समय राजा को तलवार, छत्र, को कम से कम दो वस्त्र और बहनों को तीन वस्त्र (और अन्तर्वस्त्र
जूते (मोजडी), मुकुट और चामर - इन पाँच राजचिह्नों का त्याग भी) होना ही चाहिए।
करना चाहिए । अन्य मनुष्यों को निम्नानुसार पाँच अभिगमों का पालन वाचक श्री उमास्वाति ने कहा है कि, "जिनपूजा में श्वेत
करना चाहिए(सफेद) वस्त्र शांति, पीले वस्त्र लाभ, श्याम (काले, गहरे नीले)
1. सचित्त का त्याग :- . वस्त्र पराजय, लाल वस्त्र पूजक को मङ्गल की प्राप्ति कराते हैं।
शरीर शोभा हेतु रखी गई पुष्पमालाएँ, सिर की वेणी, बालों अत: जिनपूजा एवं अन्य माङ्गलिक कार्यों में काले, गहरे नीले, गहरे
में रखे गए फूल, मुकुट, कलगी, राज-चिह्न, जूते, मोजडी, जेब में कत्थई इत्यादि वस्त्र सर्वथा वर्जित किये जाते हैं।
रखे तम्बाकू, मुखवास, मावा-मसाला, पान-सिगरेट, चाकलेट-पिपरमेंट, 5. भूमि शुद्धि :
दवा-औषधि, छींकनी, सेंट, इत्र आदि समस्त पदार्थो का मंदिर में जिनालय निर्माण की जगह पाताल (पानी निकले या अतिशय
प्रवेश करने से पूर्व त्याग करना चाहिए, इसे बाहर रखें या पेढी, पक्की भूमि मिले) अर्थात् भूमि में हड्डी, कोयले, राख, कांटे आदि
चौकीदार आदि को सौंपना चाहिए। न हो, फटी हुई न हो, उसकी मिट्टी सुगंधी हो, अच्छे वर्णवाली
2. अचित्त का अत्याग :हो, निकट में सम्शानादि न हो, इत्यादि श्रेष्ठ भूमिगुण एवं प्रसन्नतायुक्त
कभी भी खाली हाथ देव/गुरु के दर्शन के लिए नहीं जाया उत्तमभावदायक होनी चाहिए। जिस जगह पूजा की जाये वह जगह
जाता अत: जिनपूजन हेतु यथाशक्ति धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, फूल, भी स्वच्छ, धूप से सुगंधित हो। पूजा के समय जिनबिंब नाभि
फल, जल आदि लेकर जिनालय जाना चाहिए। से ऊपर एवं जमीन से डेढ हाथ ऊँचा अवश्य होना चाहिए, अन्यथा पूजक एवं उसके वंश की अवनति होती हैं।" द्रव्यपूजा करने से
30. अ.रा.पृ. 3/1283, 1284 पहले एवं चैत्यवंदन के बाद जिनमंदिर में रहा कचरा दूर करना भी
31. अ.रा.पृ. 3/1283 भूमि शुद्धि का अङ्ग हैं।
32. अ.रा.पृ. 3/1281 6. उपकरण शुद्धि :
33. अ.रा.पृ. 3/1283 परमात्मा की पूजा में प्रयुक्त किये जानेवाले तमाम उपकरणों
34. अ.रा.पृ. 3/1281-82; सात शुद्धि-चलो जिनालय चलें
___35. अ.रा.पृ. 3/1285-86, 3/1310-11 Jain Education International For Private & Personal use only
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