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________________ [368]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 3. उत्तरासन : पुरुष को जिनमंदिर में प्रवेश करने से पूर्व उत्तरासन (खेस) से अपने शरीर (कंधे) को अलंकृत करना चाहिए। बहनों को खेस के बजाय मर्यादापूर्ण वस्त्र पहनकर, सिर ढंककर मंदिर में प्रवेश करना चाहिए। 4. अंजलि : जिनालय प्रवेश करते ही जैसे ही देवाधिदेव की प्रशस्त मुखाकृति दिखे, वैसे ही दोनों हाथ ललाट पर जोडकर, मस्तक झुकाकर 'नमो जिणाणं' कहना, 'अञ्जलिबद्ध प्रणाम' नामक अभिगम है (बहनों को हाथ उंचे नहीं करना)। 5. प्रणिधान : जिनालय में जाने के बाद प्रभुभक्ति में मन की एकाकारता, तल्लीनता, तदाकारता, तन्मयता और आसक्ति का हो जाना 'प्रणिधान' अभिगम हैं। जिनमंदिर में त्याग करने योग्य 84 आशातनाएँ :जिन मंदिर की जघन्य दश आशातनाएँ : 1. पान-सुपारी खाना, 2. पानी पीना, 3. भोजन करना, 4. जूते पहनना, 5. स्त्री सेवन करना, 6. थूकना, 7. श्लेष्म फेंकना, 8. मूत्रत्याग करना, 9. मलत्याग करना, 10. जुआ खेलना - इन दस जघन्य आशातनाओं का अवश्य त्याग करना चाहिये। जैसा कि कहा गया है तंबोल पाण भोयण, वाणह मेहुन्न सुअण निट्ठवणं। मुत्तुच्चारं जुअं, वज्जे जिणनाह जगईए॥ शरीर में अशुद्धि होने पर भी पूजा करना, प्रतिमा का नीचे गिर जाना आदि 42 प्रकार की मध्यम आशातनाएँ हैं। जिनमंदिर की उत्कष्ट 84 आशातनाएँ : 1. नाक का मैल डालना, 2. जुआ, शतरंज, चौपड, ताश आदि खेलना, 3. लडाई-झगडे करना, 4. धनुष आदि कलाएँ सीखना, 5. कुल्ले करना, 6. पान-सुपारी आदि खाना, 7. पान की पीक मंदिर में थूकना, 8. गाली देना, 9. मल-मूत्र त्याग करना, 10. हाथ, पाँव, मुख आदि धोना, 11. बाल संवारना, 12. नाखून निकालना, 13. खून गिराना, 14. चढाई हुई मिठाई आदि खाना, 15. फोडे फुसी आदि की सूखी चमडी उतारकर फेंकना, 16. पित्त गिराना, 17. वमन करना, 18. दांत निकलने पर मंदिर में डालना, 19. आराम करना, 20. गाय, भैंस, ऊँट, बकरे आदि का दमन करना, 21 से 28 दांत-आंख-नाखून-गाल-कान-सिर व शरीर का मैल डालना, 29. भूत-प्रेत को निकालने हेतु मंत्र साधना करना, 30. वाद-विवाद करना, 31. अपने घर व व्यापार के हिसाब लिखना, 32. कर अथवा भाग का बँटवारा, 33. अपना धन मंदिर में रखना, 34, पाँव पर पाँव चढाकर बैठना, 35. गोबर के कंडे थापना, 36. कपडे सुखाना, 37. सब्जी आदि उगाना या मूंग, मोठ आदि सुखाना, 38. पापड सुखाना, 39. बड़ी साग-सब्जी, आचार सुखाना, 40. राजा आदि के भय से मंदिर में छूपना, 41. रिश्तेदार की मौत के समाचार सुनकर रोना, 42. विकथा करना, 43. अस्त्र-शस्त्र यंत्र बनवाना या सज्जा करना, 44. भैंस आदि रखना, 45. तापणी तपाना, 46. निजी कार्य के लिए मंदिर की जगह रोकना, 47. पैसे परखना, 48. निसीहि कहे बिना, अविधि से मंदिर जाना, 49-51. छत्र, जूते, शस्त्र, चामर (स्वय का) आदि मंदिर में ले जाना, 52. मन को एकाग्र न रखना, 53. शरीर पर तेल लगाना, 54, फूल आदि सचित वस्तुयें मंदिर के बाहर रखकर न जाना, 55. रोज पहनने के चेन, अंगूठी, चूडी आदि आभूषण पहने बिना (शोभाविहीन) जाना, 56. जिनदेव को देखते ही दोनों हाथ न जोडाना, 57. अखंड वस्त्र का दुपट्टा पहने बिना आना, 58. माथे पर मुकुट पहनना, 59. माथे पर पगडी में कपडा बांधना, 60. हार-माला आदि न उतारना, 61. शर्त लगाना, 62. लोग हँसे, एसी चेष्टाएँ करना, 63. मेहमान आदि को प्रणाम करना, 64. गुल्ली-डंडा खेलना, 65. तिरस्कार वाला वचन बोलना, 66. मंदिर में देनदार को पकड़कर पैसे निकालना, 67. युद्ध खेलना, 68. चोटी के बाल सँवारना, 69. पालथी लगाकर बैठना, 70. पाँव में लकडी के जूते पहनना, 71. पाँव लंबे-चौडे करके बैठना, 72. पाँव की मालिश करवाना, 73. हाथ-पाँव धोना, ज्यादा पानी गिराकर गंदगी करना, 74. मंदिर में पाँव या कपडे पर लगी धूल झटकना, 75. मैथुन क्रीडा करना, 76. खटमल-जूं आदि निकालकर मंदिर में फेंकना, 77. भोजन करना, 78. शरीर के गुप्त अंग ठीक से ढंके बिना बैठना, अंग दिखाना, 79. औषधि-पथ्य देना, 80. व्यापार या लेन-देन करना, 81. बिछौना बिछाना, झटकना, 82. पानी पीना या मंदिर का पानी लेना।, 83. देव-देवी की स्थापना करना, 84. स्नान करना - इन आशातनाओं से बचना चाहिये। जिनस्तव :जिनथुणणं (जिनस्तवनम्): स्तोत्र आदि के द्वारा जिनेश्वर परमात्मा के लोकोत्तर सद्भूत तीर्थंकर गुणवर्णन/गुणकीर्तन 'जिनस्तवन' हैं।” स्तव दो प्रकार का है - (1) द्रव्य स्तव और (2) भाव स्तव। पुष्प पूजादि द्रव्यस्तव है (जिसका पूर्व में वर्णन किया जा चुका है), जबकि सद्गुणोत्कीर्तन भावस्तव है।38 जिनेश्वर परमात्मा की भक्तिरुप शुभपरिणामप्रधान स्तवन (स्तव), शुभ अध्यवसायपूर्वक की स्तुति, परमार्थ पूजा, अध्यात्म पूजा, चारित्र में एकाग्रता, संयम, भावपूर्वक सर्वविरति, देशविरति धर्म में 'एकाग्रता'39, शील धर्म, तप धर्म और भाव धर्म 'भावस्तव' स्तुति : एक, दो, तीन श्लोक प्रमाण' या उत्कृष्टतम 108 श्लोक प्रमाण छन्दोबद्ध गेय रचना 'स्तुति' कहलाती हैं, एक से सात श्लोक पर्यन्त रचना 'स्तव' कहलाती हैं 43 और बहुश्लोक प्रमाण स्तव 'स्तोत्र' कहलाते हैं; यह जिनेश्वरों के ही होते हैं । 36. अ.रा.पृ. 2/506-7 37. अ.रा.पृ. 4/2414, 4/2413 38. अ.रा.पृ. 4/2383 39. अ.रा.पृ. 5/1515, 1516 40. अ.रा.पृ. 4/2385 41. अ.रा.पृ. 4/2383 42. वही 4/2313 43. अ.रा.पृ. 4/2383 ___44. अ.रा.पृ. 4/2419 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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