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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
स्तव के प्रकार :
स्तुति या स्तव दो प्रकार के होते हैं - (1) प्रणामरुपा अथवा (नमस्कार महामंत्र जपरुपा) और (2) असाधारण गुणोत्कीर्तनारुपा, लोकोत्तर सद्भूत तीर्थंकर गुणवर्णनपरा 145
स्तव का फल :
जिन स्तव से शुभभाव, संवेग रस, मोक्षभिलाषा और समभाव की प्राप्ति होती हैं। जिनस्तुति विघ्नोपशामिनी, अभ्युदयकारिणी, देवगतिकारिणी, निर्वाणसाधिनी और दर्शन - ज्ञान - चारित्र - बोधिलाभादि फलदायिनी है । 46 इससे कोई दीर्घकाल में तो कोई स्वल्पकाल में मोक्ष को प्राप्त करता हैं।47 इस प्रकार भावस्तव का अनुभाव समस्त भवभ्रमणरुप भय का नाश करता है। 48
गुरुथुणणं (गुरुस्तवनम् ) :
'गृणाति यथावस्थितं शास्त्रार्थमिति गुरुः । 49 गुरु दो प्रकार के होते हैं- 1. लौकिक माता, पिता, कलाचार्य, पितामह, वृद्ध, और 2. लोकोत्तर- तीर्थंकर, गणधर, विद्यादायक, वाचनाचार्य, धर्मोपदेश, धर्मज्ञ, धर्मकर्ता, धर्मपरायण, धर्मशास्त्रार्थदेशक ( 51
लोकोत्तर गुरु तीर्थंकर, गणधर आचार्य, उपाध्याय और साधु ही वास्तविक गुरु हैं। इनकी स्तवना, भक्ति, विनय बहुमान, पूजादि, इष्टसंपादन, अभिमुखगमन, आसनप्रदान, पर्युपासना, अञ्जलिबद्ध प्रणाम, अनुगमन, गुर्वनुकूल प्रवृत्ति, गुरुभक्ति है। इससे गुरु-शिष्य की, और प्रकारान्तर से शासन की प्रशंसा ( स्तवना) होती हैं। 52 ये साधु धन्य है, पुण्यभागी है, इतने कठिन आचार का पालन करते हैं, मलमलिन वस्त्र धारण करते हैं, द्रव्य-व्यापार, अर्थोपार्जन आदि व्यवहार के सर्वथा त्यागी हैं, इन्होंने परहित में अपना चित्त एकाग्र किया हैं; आगमरुपी सरोवर में अपना चारित्र विशुद्ध किया हैं; ये एसे धर्मकथक हैं कि, इनके द्वारा कहे गए सुंदर मधुर वचन रस (युक्त कथा) को भव्यजन कमल में भ्रमरवत् पान करते हैं, ये परवादीरुप हस्ती को भेदने में सिंह समान हैं, ये शासन में तिलक समान हैं,
धन्य हैं जिनके मुख काव्यों में सरस्वती नृत्य करती है, जिनमें से ललितसारयुक्त, छन्द-रस- अलंकारयुक्त सुंदर ध्वनि स्फुरित होती है, इन्होंने दुष्कर तप से काया को दुर्बल किया है, कामरुप अंधकार को नष्ट करने के लिए जिनका यही जन्म सूर्य के समान है, परसमय को छेदने में तर्क, ग्रंथ, परमार्थ कहने में ये शूरवीर हैं, ये कृतार्थ हैं, ये समर्थ शासन प्रभावक हैं, ये बुद्धि में बृहस्पति से भी बढकर है, ये संघ को कल्प्य देने में कल्पवृक्ष की तरह अनुज्ञादान देते हैं, ये शासनोद्धारक हैं; इत्यादि प्रकार के गुरु ( मुनि) भगवंतो के विमल गुणों की प्रशंसा करना 'गुरुथुणणं' कहलाता है। 53 वाचनाचार्य एवं गुरु की सुवर्णादि से पूजा करना, सर्वाऽम्बर युक्त चतुर्विध संघ सहित सन्मुख जाकर गुरु एवं संघ का यथोचित्त सत्कार करना, चातुर्मासादि कराना, आचार्यपदवी आदि के महोत्सव कराना - यह भी गुरु स्तवना / गुरुभक्ति के अन्तर्गत माना जाता है 154
जिनपूजा, जिनस्तवन, गुरुस्तवन भक्ति के ही स्वरुप हैं, अतः यहाँ प्रसंगवश 'भक्ति' का वर्णन किया जा रहा हैं। भक्ति (भक्ति) :
भज् सेवायाम् धातु से क्तिन् प्रत्यय होकर स्त्रीलिङ्ग में 'भक्ति' शब्द निष्पन्न होता हैं। विभिन्न ग्रंथों के अनुसार आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने भक्ति के निम्न अर्थ किये हैं । षोडशक
चतुर्थ परिच्छेद... [369]
प्रकरण में ‘भक्ति' का अर्थ विनयपूर्वक सेवा करना हैं; प्रवचनसारोद्धार में सम्मुखगमन, आसनप्रदान, पर्युपासना, अंजलिबद्धप्रणाम, अनुव्रजन आदि भक्ति के लक्षण बताये हैं; निशीथचूर्णि में अभ्युत्थान, दंडग्रहण, पाद प्रमार्जन, आसनप्रदान, आसनग्रहणादि सेवा को भक्ति कहा हैं; वाचस्पति कोश में 'आराधना' को भक्ति कहा गया हैं; आवश्यक मलयगिरि में विनयकार्य में उचित प्रतिपत्ति को 'भक्ति' कहा हैं; आवश्यक मलयगिरि, गच्छाचार पयन्ना एवं धर्मसंग्रह में यथोचित बाह्य प्रतिपत्ति को 'भक्ति' कहा है; दशवैकालिक सूत्र में 'उचित उपचार' को भक्ति कहा हैं; उत्तराध्ययन एवं सूत्रकृतांग में अभ्युत्थानादि बहुमान को 'भक्ति' कहा हैं; संधारग पयन्ना में उचित आचारकृत्य को 'भक्ति' कहा हैं; धर्मसंग्रह प्रकरण में अनुराग को 'भक्ति' कहा हैं; आवश्यक बृहद्वृत्ति और दर्शन शुद्धि सटीक में अन्तःकरणादि प्रणिधान को 'भक्ति' कहा गया हैं 155
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शाण्डिल्य भक्तिसूत्र के अनुसार "जगत का नियमन करने वाली किसी अचिन्त्य शक्ति के अमूर्त रुप की कल्पना करके अथवा इसके मूर्त प्रतीक के सन्मुख होकर उसके प्रति मनुष्य की रागात्मक भावना को 'भक्ति' कहते हैं। "56
ऋग्वेद के मंत्रों में देवता की स्तुतियाँ ही की गई हैं। यजुर्वेद यज्ञ के विविध स्वरुपों को प्रगट करता है। सामवेद में उच्च संगीतमय प्रस्तुति द्वारा देवताओं के आह्वान एवं भक्ति का विधान है। 57 महर्षि यास्क के अनुसार 'भक्तिर्नाम गुणकल्पना, बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति 18
स्वर
उपनिषदों में भी भक्ति का वर्णन मिलता है। यथा (1) आत्मानंद में माधुर्य रस की संतों में प्राप्ति, 59 (2) उपासक की भावना के अनुसार उपास्य का स्वरुप" (3) श्रद्धा का महत्त्व " (4) गुरु का महत्त्व' 2 (5) शिष्य के लक्षण 3 (6) स्वाध्याय, तप, त्याग आदि भक्ति के अंगो का वर्णन 164
भक्ति के प्रकार :
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'भगवान के नाम का जाप करना भी भक्ति हैं। ॐ जप
61.
62.
अ.रा. पृ. 4/2413 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/75
अ.रा. पृ. 3/1285
अ.रा.पू. 4/2385
अ.रा. पृ. 5/1516
अ.रा. पृ. 4/934
अ.रा. पृ. 4/943
अ.रा. पृ. 3/928
अ. रा. पृ. 3/944
अ.रा. पृ. 5/1365
सा परानुरक्तिरीश्वरो । शाणिडल्य भक्तिसूत्र; सा त्वस्मिन् परमप्रेमरुपा ।
- नारद भक्तिसूत्र
57.
रामभक्ति का विकास पृ. 29, 30
58.
यास्क निरुक्त - 7/7/241
59. तैतरीय उपनिषद् - 7/12
60. छान्दोग्य उपनिषद् - 7/25/2
बृहदारण्यक उपनिषद् - 5/3
कठोपनिषद् -1/2/7-10
अ.रा. पृ. 3/936, 943
अ.रा. पृ. 3/936
63.
मुण्डकोपनिषद् -1/21/2
64. छान्दोग्योपनिषद् -6/14
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