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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [257]
षडावश्यक
'आवश्यक' शब्द के लिए प्राकृत में 'आवस्सय' शब्द प्रयुक्त होता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आवस्सय' शब्द के दो संस्कृत रुपान्तरण प्राप्त होते हैं -1. आवस्सय = आवश्यक - आवश्यक अर्थात् मर्यादा या गुणों का आधार, सामायिकादि आवश्यक । 2. आवस्सय = आवश्यक - आवश्यक अर्थात् -
1. मन-वचन-काया के योगों को निरतिचार करने हेतु अवश्य करने योग।' 2. नियम से करने योग्य 3. अवश्यंभावी। 4. श्रमणादि के द्वारा दोनों समय अवश्य करने योग्य अथवा ज्ञानादि गुणों को आत्मा में वश करनेवाला अथवा जिसके द्वारा आत्मा इन्द्रिय-कषायादि भाव शत्रुओं को वश में करता है अथवा जिसके द्वारा ज्ञानादि गुण समूह अथवा मोक्ष वश किया जाय;
उसे 'आवश्यक' कहते हैं। निक्षेपों के अनुसार आवश्यक के प्रकार :
का बिना लगाम के घोडे या निरंकुश हाथी की तरह गुर्वाज्ञाविहीन आवश्यक चार प्रकार के हैं -1. नाम 2. स्थापना 3. द्रव्य
स्वच्छंदाचरण 'लोकोत्तर द्रव्याश्यक' हैं।" और 4. भाव।
भावावश्यक:नामावश्यक अर्थात् आवश्यक के पर्यायवाची नाम :- यह दो प्रकार का है1. आवस्सय (आवश्यक) 2. अवस्सकरणिज्ज
1. लौकिक भावाश्यक- ऊपर कहे गये लौकिक, कुप्रावचनिक (अवश्यकरणीय) 3. ध्रुव (स्थिर ध्रुव) 4.निग्गह(निग्रह) 5. विसोहिय
और लोकोत्तर द्रव्यावश्यक तथा पूर्वाह्न में महाभारत और अपराह में (विशोधित, विशुद्धि) 6. अज्झयण (अध्ययन) 7. छक्कवग्गो (षड्वर्ग)
रामायण पढना, देवतागृह में होम, अञ्जलि, जप, मण्डुरक्क (वृषभादि की 8. धनाउ(न्याय) 9. आराहणा (आराधना) 10. मग्गो (मार्ग, मोक्षमार्ग)।
आवाज) नमस्कारादि करना 'लौकिक भावावश्यक' हैं।12 स्थापनावश्यक :
2.लोकोत्तरभावावश्यक - जिन शासन के साधु-साध्वी-श्रावककटकर्म, तालपत्रादि के पुस्तक कर्म, चित्रकार्य, लेप्यकर्म,
श्राविका के द्वारा गुरु-साक्षीपूर्वक उभयकाल सामायिकादि षडावश्यक ग्रन्थिकर्म, वेष्टिकर्म (पुष्प या वस्त्र में चित्रित कर वीटना), पूरिम (भरिम)
क्रिया में मन की एकाग्रतापूर्वक, शुभपरिणामरुपा लेश्यायुक्त होकर, कर्म (पित्तलादि की प्रतिमा भराना), संघातिकर्म, अक्ष (स्थापनाचार्य के
प्रारंभ से प्रति समय प्रकर्षमान शुभ-शुद्ध अध्यवसाययुक्त प्रशस्ततर अक्ष), वराट (कपर्दक), दन्तकर्म, काष्ठकर्म आदि में सामायिकादि की
संवेगयुक्त होकर साधक योग्य देह एवं वस्त्र तथा रजोहरण, मुखवत्रिका अर्थात् संयमवान् साधु की मूर्ति, चित्र, या अन्य रुप में स्थापना करना
(मुहपत्ति) आदि यथायोग्य रखकर आवश्यक अनुष्ठान में भाव सहित 'स्थापनावश्यक' हैं। इसके अनेक भेद हैं
उपयोगपूर्वक परिणत/प्रवृत्त होना 'लोकोत्तर भावावश्यक' हैं। (1) सद्भाव स्थापना - साधु आदि के आकारवान् स्थापना ।
सामायिक, चउवीसत्थय (चतुर्विशतिस्तव), वंदन (वांदणां), (2) असद्भाव स्थापना - अक्षादि में अनाकार स्थापना ।
प्रतिक्रमण, काउसग्ग (कायोत्सर्ग) और पञ्चक्खाण (प्रत्याख्यान)-ये छ: (A) इत्वरकालिक स्थापना - सामायिकादि करने के लिए जो
भावाश्यक साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रुप चतुर्विध संघ को अवश्य थोडे समय के लिए पुस्तक, माला इत्यादि में आवश्यक (गुरु
करने योग्य होने से आगे क्रमशः इनका परिचय दिया जा रहा हैं। आदि) की स्वल्पकालिक स्थापना की जाना 'इत्वरकालिक
(1) सामायिक :स्थापना' कहलाती हैं।
पूर्व(परिच्छेद 4 (क) (2)] में सामायिक का विस्तृत अनुशीलन (B) यावत्कालिक स्थापना - शिलापट्ट, प्रतिमा, अक्षादि, किया जा चुका है। शाश्वत्प्रतिमादि में सदा के लिए अर्हदादि स्वरुप का भाव
1. अ.रा.पृ. 2/471 रहना 'यावत्कालिक स्थापना' कहलाती हैं।
2. वही द्रव्यावश्यक :
3. वही आवश्यक क्रिया के आगम सूत्र उपयोगरहित सीखना, उपयोग
4. वही शून्य या भाव शून्य आवश्यक क्रिया, उपयोग रहित सूत्रोच्चारण
5. अ.रा.पृ. 2/471, 472
6. अ.रा.पृ. 2/472 द्रव्यावश्यक है। द्रव्याश्यक को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है
7. वही 1. प्रभात समय में मुखधावन इत्यादि तथा राजादि एवं गृहस्थों के ।
8. अ.रा.पृ. 2/473, 474 काल प्रायोग्य कार्य लौकिक द्रव्यावश्यक हैं।
9. अ.रा.पृ. 2/474 आजीविकादि हेतु, पुण्य हेतु तथा अन्यधर्मी पाखण्डियों के 10. अ.रा.पृ. 2/474, 475 द्वारा इंद्र-स्कंद-विनायकादि का उपलेपन करना 'कुप्रावचनिक II. अ.रा.पृ. 2/478, 479 द्रव्याश्यक' हैं।
12. अ.रा.पृ. 2/480 3. श्रमण गुणरहित छ:काय जीवहिंसारंभी, अनुकंपाहीन, साधुओं 13. अ.रा.पृ. 2/480, 481, 483
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