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________________ [256]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन समाचारी साधु के सम्यग् आचार को 'समाचारी' कहते है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने समाचारी (समाचारी) का वर्णन करते हुए कहा हैसाधु के सम्यग् व्यवहार, अहोरात्रि में करने योग्य आगमोक्त क्रियाकलाप, ग्रामप्रवेश के समय, विहारादि के समय करने योग्य आचार/आचरण को 'समाचारी (सामाचारी)' कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में वर्णित समाचारी प्रकरण नौंवे पूर्व की आचार नामक तृतीय वस्तु के 20 वें प्राभृत के ओघ नामक प्राभृतप्राभृत से उद्धरित हैं। समाचारी के भेद' :- समाचारी के मुख्य तीन भेद है (9) अभ्युत्थान - गुरु महाराज के पधारने पर खडे होना, उनका (1) ओघ समाचारी- ओघनियुक्ति ग्रंथ में वर्णित साधु का आदर-सत्कार, बहुमान करना। सामान्य आचार। (10) उपसंपत् - साधु यदि स्वयं के आचार्य से अध्ययन हेतु अन्य (2) दशविध समाचारी - इच्छाकारादि 10 प्रकार की समाचारी आचार्य के पास जाय तो वहाँ जाकर उन्हें विज्ञप्ति करें कि, "मैं जिसे दशविध चक्रवाल समाचारी कहते हैं। इतने समय तक आपके पास रहूँगा।" (3) पदविभाग समाचारी - जो छेदादि सूत्रो में वर्णित हैं। समाचारी पालन का फल :ओघ समाचारी के विभिन्न विषयों का पूरे शोध प्रबन्ध में यह समाचारी सर्व दुःख से है। इस समाचारी का पालन यथास्थान यथायोग्य वर्णन विवेचन किया गया है। पदविभाग समाचारी करके श्रमण अनेक भव संचित कर्मों को क्षय करता है और शीध्र ही विशिष्ट पद प्राप्त महापुरुष योग्य है अतः यहाँ मुनि प्रायोग्य दशविध संसार समुद्र को तैरकर पार उतरता/मोक्ष को प्राप्त करना है। समाचारी का वर्णन किया जा रहा है। मण्डली:दशविध (चक्रवाल) समाचारी : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी (1) आवश्यकी- स्थंडिलादि कार्य अप्रमत्तरुप से अवश्य करने ने इन सातों मण्डलियों का वर्णन करते हुए कहा है कि साधुअपनी योग्य है अतः आश्रय से बाहर निकलते समय तीन बार समस्त क्रियाएँ गुरुसाक्षिपूर्वक सामूहिक रुप से मण्डली में करें। 'आवस्सहि' बोलना । (अर्थात् में आवश्यक कार्य हेतु बाहर जा आवश्यक क्रियायोग्य ये मण्डलियाँ निम्नानुसार सात प्रकार की है। रहा हूँ।) 1. सूत्र मण्डली - सूत्र की वाचना एवं मूल सूत्रों का स्वाध्याय नैषेधिकी - बाहर से उपाश्रय में प्रवेश करते समय स्वयं के करना। प्रमाद को दूर करने हेतु तीन बार 'निसीहि' बोलना । (अर्थात् 2. अर्थमण्डली-सूत्रों के अर्थ की वाचना, स्वाध्याय या व्याख्यान । अब बाहर जाने का या बाहर के कार्य का प्रयोजन नहिं हैं।) 3. भोजन मण्डली- समुदाय में गोचरी आहार-ग्रहण करना। आपृच्छना - गोचरी समये या अन्य कार्य हेतु गुरु या बों को काल मण्डली - योग्य समय पर साधु संबन्धी समस्त क्रियाएँ पूछकर कार्य करना। संपादित करना। (4) प्रतिपृच्छा - स्वयं का कार्य छोडकर अन्य का कार्य करना हो 5. आवश्यक मण्डली/प्रतिक्रमण मण्डली-दोनों समय का या गुरुने अन्य ही कार्य सुपुर्द किया हो तब पुनः पूछना। प्रतिक्रमण सामूहिक रुप से करना । अभिधान राजेन्द्र कोश में (5) छंदना (निमंत्रणा)- गोचरी में कोई उत्तम पदार्थ प्राप्त हुआ प्रतिलेखन (पडिलेहण) मण्डली को भी आवश्यक मण्डली के हो तब गुरु आदि या अन्य साधु को 'यह आप स्वीकारें' - अंतर्गत माना है। एसा कहना। 6. स्वाध्याय मण्डली - सूत्र या अर्थ का स्वाध्याय सामूहिक (6) इच्छाकार- स्वयं का कोई कार्य अन्य साधु से कराना हो तब करना। 'आपकी इच्छा हो तो मेरा यह कार्य कर दो या आपकी 7. संस्तारकमण्डली (संथारा मण्डली) - सामूहिक रुप में संथारा अनुमतिपूर्वक मैं करूँ।' - एसा कहना। पोरिसी पढना। मिथ्याकार - स्वयं दोष की क्षमा याचना करनी या 'मेरा यह __ 1. अ.रा.पृ. 7/766 पाप मिथ्या हो' - इस प्रकार मिथ्या दुष्कृत/'मिच्छामि दुक्कडम्' 2. अ.रा.पृ. 7/767 वही पृ. 7/767 देना/कहना। 4. अ.रा.पृ. 7/767-71-72-73 (8) तथाकार- गुरुदेव के वचन को 'तहत्ति' कहनेपूर्वक स्वीकार 5. अ.रा.पृ. 7771 करना। 6. अ.रा.पृ. 7/774; आवश्यक मलयगिरि-1/723 7. अ.रा.पृ. 7/771 3. दुहरुवं दुक्खफलं, दुहाणुबंधी विडंबणास्वं । संसारमसारं जाणिऊण न रइं तहिं कुणाइ ॥ (अ.रा.पृ. 7/251) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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