SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [258]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) चउवीसत्थय/चतुर्विशतिस्तव : 12 आवर्त - वंदन सूत्र के निम्नाङ्कित पदोच्चारपूर्वक गुरु के चरण पर इस अवसर्पिणी काल में इस भरत क्षेत्र में वर्तमान चौबीसी हाथ लगाकर अपने मस्तक (कपाल) पर हाथ से स्पर्श करने रुप काय के चौबीस तीर्थंकरों के नामपूर्वक गुणोत्कीर्तन करना 'चतुर्विंशतिस्तव' व्यापार को 'आवर्त' कहते हैं। 1 अहो, 2 कायं, 3 काय संफार्स 4 कहलाता है। यह द्वितीय आवश्यक है जिसे प्रतिक्रमण में अतिचार खमणिज्जो भे किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्तो चिंतन की गाथा के पश्चात् 'लोगस्स सूत्र' बोलने पूर्वक किया जाता है। जत्ताभे, 5 जवणिज, 6 जं च भे - प्रथम एवं द्वितीय बार वंदन करते लोगस्स सूत्र का अपर नाम ही 'चतुर्विंशतिस्तव' है। जिसमें इस काल समय दोनो बार गुरुदेव के अवग्रह में प्रवेश करके इन छहों आवर्तों को के ऋषभादि 24 तीर्थंकरो का नामोत्कीर्तन हैं । (आगे परिच्छेद 4ख (3) दोनों बार करने पर 12 आवर्त आवश्यक होता है। में इसका विस्तृत वर्णन किया जायेगा) 4 शीर्ष वंदन - गुरुवंदन करते समय वंदन सूत्र के संफासं एवं (3) वंदन आवश्यक : खामेमि खमा। इन दो पदोच्चारपूर्वक शिष्य के द्वारा गुरु के चरण को संपूर्ण शीर्षनमन करना - शीर्षवंदन हैं। दो बार बंदन सूत्र बोलते समय अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 'वंदन' आवश्यक '4 शीर्षवंदन' आवश्यक होता है। की व्याख्या करते हुए कहा है कि "वाणी के द्वारा स्तुति, मन-वचनकाय के द्वारा विधिपूर्वक प्रणिधान, मस्तक के द्वारा अभिवादन, मन 3 गुप्ति - यह '3 गुप्ति' आवश्यक हैं। वचन-काया के द्वारा अभिवादन, स्तवन या स्तुति, प्रशस्त मन-वचन 1. मन गुप्ति - मन की एकाग्रता काया की द्वादशावर्तादिपूर्वक प्रवृत्ति 'वंदन' कहलाती हैं ।। 2. वचन गुप्ति - वंदन सूत्र के अक्षरों का शुद्ध एवं अस्खलित वंदन के पर्याय - वंदन, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म - ये उच्चारण वंदन के पर्यायवाची शब्द हैं। 3. काय गुप्ति - आवर्त आदि आवश्यक निर्दोषरुप से विधिपूर्वक एवं जयणापूर्वक करना। वंदन के प्रकार - 'कृतिकर्म' दो प्रकार का है18 - 1. अभ्युत्थान और 2 प्रवेश - प्रथम वंदन करते समय गुर्वाज्ञापूर्वक अवग्रह में प्रवेश 2. वंदना करना, वह प्रथम प्रवेश एवं अवग्रह में से बाहर निकलकर पुनः द्वितीय 1. अभ्युत्थान - विनय हेतु गुरु/आचार्य कोआते हुए देखकर खडे वंदन के समय भी गुर्वाज्ञा प्राप्त करके अवग्रह में प्रवेश करना, '2 प्रवेश होना, सम्मुख जाना, वे देवदर्शनादि हेतु जाते हों तब पीछे-पीछे चलना आवश्यक है। - आदि 'अभ्युत्थान' कहलाता हैं । 1 निष्क्रमण - प्रथम बार वंदन सूत्र बोलते समय अवग्रह में प्रवेश 2. वंदन - वंदन तीन प्रकार के हैं करके छह आवर्त करके 'आवस्सियाए' पद के उच्चारणपूर्वक अवग्रह क.फिट्टावंदन - रास्ते में चलते समय या अन्यत्र साधु-साध्वी से बाहर आना '1 निष्क्रमण' नामक आवश्यक है। (द्वितीय बार के सामने मिलने पर या दृष्टिगोचर होने पर हाथ जोडकर मस्तक वंदन में संपूर्ण सूत्र अवग्रह में ही बोला जाता है, एसी विधि होने से झुकाकर मत्थेण वंदामि' कहना 20 ख. थोभवंदन - दो खमासमण, इच्छकार, अब्भुट्ठिओ पूर्वक दूसरी बार 'आवस्सियाए' पद नहीं बोलने के कारण वंदन विधि में सामान्य साधु-साध्वी को वंदन करना। प्रवेश दो होने पर भी निष्क्रमण एक ही है।) ग.द्वादशावर्त वंदन-2 अवनत, 1 यथाजात, 12 आवर्त (कृतिकर्म), वंदनीय आत्मा :4. शिरोनमन, 3 गुप्ति, 2 प्रवेश और 1 निष्क्रमण इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश में 'वंद्य' के विषय में चर्चा करते पच्चीस = इन पच्चीस आवश्यकपूर्वक दो बार 'वांदणा' सूत्र हुए आचार्यश्रीने स्पष्ट कहा है कि सुविहित या संविज्ञपाक्षिक, दर्शनबोलते हुए यथाविधि आचार्यादि को कृतिकर्म करना 'द्वादशावर्त ज्ञान-चारित्र-तप और विनय में नित्य उद्यमवान् संयतात्मा वंदनीय वंदन' हैं। है। उनको वंदन करने से विशुद्ध मार्ग की प्रभावना होती है और गुरुवंदन के 25 आवश्यक : ये प्रवचन का यश बढाते हैं। उनमें विरति होने के कारण उनको 2.अवनत - गुरुदेव को अपनी वंदन करने की इच्छा प्रकट वंदन करने से निर्जरा और कर्मक्षय होता है। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, रुप से ज्ञात कराने हेतु 'इच्छामि खमासमणो वंदिउ जावणिज्जाए स्थविर और रत्नाधिक को 'कृतिकर्म' (द्वादशावर्त वंदन) करना चाहिए।25 निसीहियाए' इन पाँचो पदों के उच्चारणपूर्वक मस्तक सहित किंचित् 14. अ.रा.पृ. 3/1056 शरीर झुकाना 'अवनत' कहलाता हैं। दो बार 'वांदणा' सूत्र बोलते 15. अ.रा.पृ. 3/1056 समय दो अवनत होते हैं। 16. अ.रा.पृ. 6/7683; 1 यथाजात - यहाँ शिष्य का जिस रुप में जन्म हुआ है तदाकार 17. अ.रा.पृ. 6/768 होकर गुरुवंदन करना। -यथाजात आवश्यक है। जन्म दो प्रकार का है 18. अ.रा.पृ. 3/509 (1) भवजन्म - माता की कुक्षि में से निकलते समय जैसे भाल पर 19. अ.रा.पृ. 1/693 दोनों हाथ लगे हुए थे वैसे गुरुवंदन करते समय भी दोनों हाथ कपाल पर 20. अ.रा.पृ. 3/773 लगाना। (2) दीक्षा जन्म - संसार की माया रुपी स्त्री की कुक्षी से 21. वही अर्थात् संसार को छोडकर दीक्षा लेते समय चोलपट्ट, रजोहरण, एवं 22. अ.रा.पृ. 3/522, 523, 6/769 मुहपत्ति - ये तीन उपकरण ही थे वैसे द्वादशावर्त वंदन के समय भी ये 23. अ.रा.पृ. 3/521 तीन उपकरण ही रखना। ये दोनों प्रकार के जन्म की स्थिति/आकारवाला 24 अ.रा.पृ. 6/769 'यथाजात' आवश्यक है। 25. अ.रा.पृ. 3/521 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy