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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [259] तथा पार्श्वस्थादि को विशेष कारण के बिना वंदनादि नहीं करना चाहिए। (25) गुरु व्याख्यान दे रहे हो तब 'यह बात एसी है' - इस प्रकार यथाप्रसंग विवेक बुद्धि से कार्य करना 26
बीच में बोलना। वंदनीय स्थिति :
गुरु व्याख्यान दे रहे हो तब यह अर्थ तुम्हें याद नहीं है, यह जब गुरु भगवंत प्रशान्त (व्याक्षेपरहित), उपशान्त (क्रोधादि
एसा है, तुम्हारी भूल हैं- इत्यादि बोलना। रहित), छन्द (शिष्यादि) सहित उपाश्रयादि में आसन पर विराजमान हो (27) उपहतमनस्तव - धर्मोपदेश के समय गुरु के प्रति पूज्यभाव तब मेघावी (बुद्धिमान्) शिष्य को आज्ञा प्राप्त करके 32 दोषरहित
नहिं होने से चित्त में प्रसन्न नहीं होना, गुरुपदेश की अनुमोदना गुरुवंदन करना चाहिए।
नहिं करना या प्रशंसा न करना। 1. प्रतिक्रमण 2. स्वाध्याय-वाचनादि के समय 3. कायोत्सर्ग (28) पर्षद् भेद - धर्मोपदेश के समय भिक्षा, सूत्राध्ययन, गोचरी, 4. अपराध की क्षमा माँगना 5. बडे साधु के आगमन पर (या विहार
भोजन - आदि का प्रयोजन/अवसर दिखाकर सभा/पर्षदा को करके या बाहर से आने पर) 6. आलोचना ग्रहण करते समय 7. तप
तोडना (भङ्ग करना)। आदि करने हेतु प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) लेने हेतु और 8. अनशन- (29) कथाछेदना - गुरु धर्मकथा कहते हो तब 'यह बात मैं संलेखना ग्रहण करते समय-इन आठ प्रसंग पर गुरुवंदन अवश्य करना
आपको कहूँगा' - श्रोताओं को एसा कहकर कथा भङ्ग चाहिए।
करना। वंदन कब नहीं करना ? - गुरु जब व्याक्षिप्त/व्यग्र चित्तवाले,
गुरु का व्याख्यान समाप्त होने पर सभा विसर्जन होने से पूर्व परावृत्त, प्रमत्त या आहार-निहार की इच्छावाले हो या आहार-निहार
ही स्वयं की चतुराई दिखाने हेतु शिष्य के द्वारा विशेषरुप से करते हो तब कदापि वंदन नहि करे।
धर्मकथा कहना।
(31) गुरु की उपस्थिति में गुरु से ऊँचे या उनके समान आसन पर गुरुकी 33 आशातना :
बैठना। (1-2-3) निष्कारण आगे-पीछे या बगल में चलना।
(32) गुरु के शय्या-संथारा-वस्त्रादि को पैर लगाना, बिना आज्ञा के (4-5-6) निष्कारण आगे-पीछे या बगल में खडे रहना ।
हाथ लगाना और उसकी क्षमा न माँगना । (7-8-9) निष्कारण आगे-पीछे या बगल में बैठना।
गुरु के शय्या (संथारा) - आसन-वस्त्र-पात्रादि ऊपर खडा (10) आचमन - गुरु के साथ में स्थंडिल गया हुए साधु के द्वारा
रहना/बैठना/शयन करना - इत्यादि से आशातना होती है। गुरु से पहले देहशुद्धि/आचमन करना।
गुरुवंदन के 32 दोष :पूर्वालापन - जिससे गुरु को बात करना हो उस गृहस्थ को गुरु से पहले बुलाना या बात करना।
अनादरदोष - सम्भ्रम रहित वंदन करना। गमनागमन - गुरु के साथ बाहर जाकर पुन: उपाश्रय में
स्तब्ध दोष - जात्यादि दोष से स्तब्ध होकर वंदन करना । आने पर गुरु से पहले गमनागमन संबंधी आलोचना करना।
प्रविद्ध दोष - वंदन देते देते ही नष्ट करना। भिक्षा-आलोचना - गोचरी की आलोचना - पहले अन्य
परिणिण्डित दोष - आवर्तानुसार विधि और उच्चारणपूर्वक साधु के समक्ष करके फिर गुरु के समक्ष करना।
वंदन नहीं करना। प्रथम अन्य साधु गोचरी दिखाकर गुरु को बाद में दिखाना।
टोलगति दोष - इधर-उधर घूमते-फिरते वंदन करना। गुरु को बिना पूछे ही छोटे साधुओं को उनकी इच्छानुसार
अङ्कश दोष - रजोहरण (या चरवला) को अंकुश की तरह अति आहार रखना (देना)।
पकडकर वंदन करना। प्रथम छोटे साधुओं को आहार हेतु निमंत्रण करके गुरु को
कच्छभरिंगिय दोष - कछुए की तरह रेंगते हुए वंदन करना। बाद में निमंत्रण करना।
मत्स्योदृत दोष - मछली की तरह एक को वंदन करके तत्काल भिक्षा में से गुरु को किंचित् अल्प आहार देकर स्वयं
इधर-उधर घूमकर समीपवर्ती दूसरे मुनि को वंदन करना। उत्तम-स्निग्ध-मधुर-मनपसंद आहार करना ।
मनसा प्रदुष्ट दोष - मुनि को वंदन करते समय उनके एकाध (18) रात्रि में गुरु के बुलाने पर प्रत्युत्तर नहीं देना।
हीनगुण (दोष) को ही मन में याद करके असूयापूर्वक वंदन दिन में गुरु के द्वारा कुछ पूछने पर प्रत्युत्तर न देना ।
करना। गुरु के बुलाने पर उनके पास जाने के बजाय अपने आसन
वेदिकाबद्ध दोष- एक जानु के ऊपर हाथ रखकर दूसरे जानु पर बैठे बैठे या शय्या में सोये हुए ही उत्तर देना।
को दोनों हाथ से पकडकर वंदन करना। गुरु के पूछने पर क्या है ? क्या कहते हो?' इत्यादि तुच्छ
भय दोष - मैं वंदना नहीं करूँगा तो मुझे गच्छ से बाहर शब्दों से अविनय से उत्तर देना।
निकाल देंगे -एसे भय से वंदन करना। (22) गुरु के साथ बातचीत में तु - तुम्हारा इत्यादि शब्दों का
भजन दोष - ये मेरी भक्ति/सेवा/सार-संभाल करते हैं अतः प्रयोग करना।
'भक्तं भजस्व' -इस आर्यावर्त के लक्षणानुसार वंदन करना । तज्जात वचन - गुरु के द्वारा शिष्य को ग्लानादि की सेवा
26. अ.रा.पृ. 3/515 हेतु या प्रमाद त्याग करने हेतु प्रेरणा करने पर उसी (तुंकार
27. अ.रा.पृ. 3/521 युक्त) भाषा में उसी शब्दों के द्वारा गुरु के सामने बोलना।
28. अ.रा.पृ. 3/521-522 (24) गुरु के सामने कठोर वचन बोलना या ऊँची आवाज में 29. आवश्यक नियुक्ति-गाथा 1198 बोलना।
30. धर्मसंग्रह-1/492-93-94
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