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________________ [266]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 5. अपरार्ध (अवठ्ठा - तीन प्रहर दिन बीतने के बाद आहार-जल और प्रत्याख्यान पाठ पूर्ण होने पर गुरु के द्वारा 'वोसिरइ' कहने आदि मुंह में रखना। पर 'वोसिरामि' बोलना अनुभाषण शुद्धि हैं। एकाशन - दिन में एक बार एक स्थान पर बैठकर नियमपूर्वक 5. अनुपालन शुद्धि- ग्राम, नगर या अरण्य में सुभिक्ष या दुर्भिक्ष नियमोचित्त भक्ष्य आहार ग्रहण करना। में, अकेले या सभा में, किसी भी परिस्थिति में पूर्ण रुप से एकस्थान (एकलठाणां) - एकाशन में भी मुँह और एक प्रत्याख्यान का पालन करना, आंशिक भी भङ्ग नहीं होने हाथ के अलावा शेष अङ्गो को स्थिर अचित रखना और देना-अनुपालन शुद्धि हैं । 100 एकासन के पश्चात् अचित जल भी नहीं पीना। 6. भाव शुद्धि - राग, द्वेष, क्रोधादि कषाय, अप्रीति, इसलोकनीवि - एकासन पूर्वक दूध, दही, घी, तेल, गुड-शक्कर एवं परलोकादि आशंसा आदि से प्रत्याख्यान को दूषित न होने देना कडाविगई (तली चीजें एवं मिठाई) रुप मूल विगई या उससे 'भाव शुद्धि' हैं ।101 बनी उत्तर विगई (नीवियाता) का अभिग्रहपूर्वक (नियम) संपूर्ण स्थानांग के अनुसार प्रत्याख्यान पाँच प्रकार से एवं आवश्यक या देश त्यागपूर्वक दिन में एक ही बार आहार ग्रहण करना नियुक्ति तथा आवश्यक बृहद्वृत्ति के अनुसार उसमें ज्ञात/ज्ञान शुद्धि 'नीवि' तप हैं। मिलाने पर छ: प्रकार से शुद्ध होना चाहिए ।102 आयंबिल - उबले (वाष्प में सेके हुए) हुए धान्य या उसमें पच्चक्खाण/प्रत्याख्यान का फल :नमक, काली मिर्च डालकर उसे एकासनपूर्वक भोजन में अभिधान राजेन्द्र कोश में पच्चक्खाण का फल दर्शाते हुए ग्रहण करना और हरी वनस्पति, हल्दी, लाल मिर्च, तैलीय कहा है कि, "शुद्ध पच्चक्खाण से सौभाग्य, यश, बोधिलाभ, धर्मानुष्ठान मसाले, दूध-दही, घी-तेल, शक्कर, कयहविकृति (कडाविगई) और देवलोकगमन तथा परलोक में दामनक की तरह सुकुलोत्पत्ति, कडाही में तली हुई समस्त वस्तुएँ, जैसे - पूडी, मिठाई, दीर्घायु बोधिलाभ, देव-मनुष्य संबंधी सुखों की परंपरा एवं परंपरा से आदि का संपूर्ण त्याग करना 'आयंबिल' तप हैं। मोक्ष को प्राप्त होता है।103 10. उपवास - अगली रात्रि से संपूर्ण दिवस-रात्रि एवं दूसरे दिन आवश्यक नियुक्ति में कहा है कि, "प्रत्याख्यान/पच्चक्खाण सूर्योदय के बाद 48 मिनिट (नवकारसी) तक संपूर्ण आहार का करने से आस्रव (कर्म के आने) के द्वार (निमित्त) बंध होते है, इससे त्याग करना एवं दिन में भी जल का संपूर्ण त्याग करना तृष्णा का नाश होता है, उपशम प्रगट होता है, चारित्र धर्म प्रगट होता है, अथवा पोरिसी के पश्चात् केवल शुद्ध उबला हुआ जल पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा होती है, इससे अपूर्वकरण (अपूर्व अध्यवसाय) यथावश्यकानुसार ग्रहण करना और सूर्यास्त के पूर्व उसका भी गुण प्रकट होता है, इससे केवलज्ञान प्राप्त करके जीव शाश्वत सुख के त्याग कर देना 'उपवास' तप है। यह 1 उपवास, चतुर्थ भत्त स्थान (मोक्ष) को प्राप्त होता है ।104 (भक्त), छट्ट, अट्ठम, अट्ठाई, सोलह भत्त (भक्त), मासक्षमण, यति दिनचर्या में कहा है कि, मुनि पोरिसी, चतुर्थभत्त, (1 यावज्जीव आदि अनेक प्रकार से किया जाता हैं। उपवास), छठ्ठ भक्त से सत्तागत जितने कर्म क्षय करते है, नारकी के जीव प्रत्याख्यान की शुद्धि : क्रमशः सो, हजार एवं लाख वर्ष तक (इतने दुःख भुगतने पर) भी क्षय 1. श्रद्धान शुद्धि-जिनकल्प या स्थविरकल्प, साधु या श्रावक नहीं करतें । संकेत - गंठसी आदि का प्रत्याख्यान तो साक्षात् मोक्ष होने और मूल-गुण या उत्तरगुणों के विषय में सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा से भव्यात्मा को जिससे मन-वचन-काया के योग या प्रतिक्रमणादि ने जिस समय में जो प्रत्याख्यान जैसा कहा हैं, उनकी उसी योग और इन्द्रियों की हानि न हो वैसा प्रत्याख्यान तप करना चाहिए।105 रुप में श्रद्धा करना। ज्ञान शद्धि-जिनकल्प और स्थविरकल्प की अपनी अपनी मर्यादानुसार कौन से प्रत्याख्यान, किस रुप में, किस विधि से 99. अ.रा.पृ. 5/101, स्थानांग-ठाणां 5/3 आवश्यक बृहदृति -6 /26 से 35 कब करना? -इसका ज्ञान प्राप्त करना। 100. अ.रा.पृ. 1/385, 5/101 3. विनय शुद्धि - विशुद्ध मन-वचन-काय की गुप्तिपूर्वक । 101. अ.रा.प.5/101 कृतिकर्म अर्थात् गुरु/आचार्यादि को द्वादशावर्त वंदनपूर्वक 102. स्थानांग-ठाणां 5 उनसे प्रत्याख्यान ग्रहण करना। 103. अ.रा.पृ. 5/117 अनुभाषण शुद्धि - प्रत्याख्यान लेते समय गुरु के सम्मुख 104. आवश्यक नियुक्ति-1594.95-96 अंजलिपूर्वक हाथ जोडकर खडे रहकर प्रत्याख्यान ग्रहण करना 105. यतिदिनचर्या- पृ. 20 संघचक्र की सदा जय हो ।) संजमतवतुंबारय-स्स नमो सम्मत्त पारियल्लस्स । अप्पडिचक्कस्स जओ, होउ सया संघचक्कस्स ॥ हिंसादि पंचावविरमण; पंचेन्द्रिय निग्रह; कषायचतुष्कजय एवं त्रिदण्डविरतिरुप सत्रह प्रकार के संयम एवं बाह्याभ्यन्तर बारह प्रकार के तपरुप आरों एवं सम्यकत्वरुप भ्रमि (बाह्य पृष्ठ भाग) से युक्त अप्रतिचक्र (अजोड चक्र) संघ (रुपी) चक्र की सदा जय हो !!! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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