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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [267] विहार भारतीय संस्कृति में यह सर्वमान्य तथ्य है कि साधुओं को एक स्थान अधिक नहीं ठहरना चाहिए। इसकी पृष्ठभूमि में एक कारण तो यह है कि एक स्थान पर अधिक रुकने से वहाँ के वातावरण से, सुविधाओं सेऔर प्राणियों के प्रति मोह उत्पन्न होता है, दूसरा कारण यह भी है कि साधु की संगति लाभ सब को समान रुप से मिले और इस प्रकार से साधु स्वकल्याण के साथसाथ परकल्याण में भी निमित्त बने सके। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि एक ही स्थान पर रहना हो तो गृहस्थजीवन में क्या बुराई हैं, वहाँ तो पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए भी कल्याणमार्ग पर चला जा सकता है। फिर साधुजीवन और गृहस्थजीवन में कोई भेद ही नहीं रहेगा। साधु अवस्था स्वीकारने हेतु प्रव्रज्या दी जाती है। प्रव्रज्या का शाब्दिक अर्थ स्थानत्यागपूर्वक गमन है, कोई परिपाटी नहीं । अर्थात् प्रव्रज्या लेने के साथ ही यह निश्चित हो जाता है कि प्रवर्जित व्यक्ति अब स्थिरवास नहीं करेगा। जैन मुनि भी स्व-पर कल्याण हेतु, कर्मनिर्जरा, संयमशुद्धि पृथिव्यादि मर्दन, अयतनादि के कारण संयम विराधना, कर्दमादि एवं धर्मशासन के प्रचार एवं प्रभावना हेतु मुनिजीवन के नियमानुसार में पदस्खलन, उन्मार्गगमन से कण्टकादिचुभना,चोरादि का भय, ग्रामानुग्राम विचरण करता रहता है, वह कभी भी स्थिरवास नहीं करता। मलेच्छ देशों में विहार होने पर आहार-पानी आदि की दुर्लभता, जैन मुनि का विचरण करना 'विहार' कहलाता हैं। प्राणीबहुल (सर्पादि) जीवसंसक्त देश में विहार होने पर आत्मनिक्षेपों के अनुसार विहार के अर्थ करने पर किसी व्यक्ति या विराधना,शैक्ष (नवदीक्षित) को आहार-जल तथा ग्रहण एवं आसेवन वस्तु का नाम 'विहार' हो सकता है। किसी विहार नामक पदार्थ जैसे शिक्षा में अवरोध, कुमार्ग प्रसपणा से मिथ्यात्व के कारण कोई मकान, उपाश्रय आदि का चित्र आदि स्थापनाविहार कहा जायेगा। संसारवर्धन, अयोग्य प्रायश्चित दान के कारण आशातना, बालअगीतार्थ साधु का, पार्श्वस्थ साधु का विहरण अथवा गीतार्थादि साधुओं वृद्ध-ग्लानादि की चिकित्सा नहीं करने या अयोग्य करने से अनेक का भी जो अनुपयुक्त (अवैध) विहार होगा वह द्रव्यविहार कहा जयेगा, दोषों की उत्पत्ति, पार्श्वस्थादि के द्वारा क्षुल्लकादि साधुओं का हरण, जबकि इसके विपरीत गीतार्थ और गीतार्थनिश्रित (गीतार्थ की आज्ञानुसार) दृढ संयम जीवन में शिथिलाचार की प्रेरणा, चोरों के द्वारा उपधि साधु का विहार भावविहार कहा जायेगा। सूत्रार्थज्ञाता सुविहित आचार्य, आदि का ग्रहण होने से मुनि को, स्वयं को और संघ को अनेक उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक साधु का विहार गीतार्थ का प्रकार से हानि होती है, और प्रवचन-उड्डाह होने के कारण शासन विहार है। और उनके साथ या उनकी आज्ञापूर्वक विहार करनेवाले अन्य मालिन्य होता है। साधु-साध्वी का विहार 'गीतार्थनिश्रित विहार' हैं। गीतार्थनिश्रित साधु विहार के कारण :भी प्रकारान्तर से दो प्रकार के होते हैं - आचार्यश्री ने अभिधान राजेन्द्र कोश में मुनि को मार्गदर्शन (क) गच्छगत और गच्छनिर्गत - गच्छवासी (गच्छ के साथ रहने करते हुए मुनि विहार के कारण दर्शाते हुए कहा है कि, आचार्यादि को वाले) साधु को 'गच्छगत' कहते हैं और उपद्रव, दुर्भिक्ष या वंदन करने हेतु, जिन मंदिरो के दर्शन-वंदन हेतु,आहार-वस्त्र,उपधि, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना हेतु अथवा आचार्यश्री की वसति (ठहरने का स्थान) हेतु, अपूर्व देशदर्शन (नये गाँव, नगरों के आज्ञा से क्षेत्र परीक्षा हेतु या दीक्षार्थी की दीक्षा भावना में जिन मंदिरादि के दर्शन) शासन प्रभावना इत्यादि हेतु मुनि विहार स्थिरीकरण हेतु अथवा स्वजनवर्ग के द्वारा वंदन (मुनि के ज्ञाति/ करता हैं। स्वजनवर्ग में कोई अतिशय तपोवृद्ध, रोगी इत्यादि को दर्शन विहारयोग्य क्षेत्र :देने) हेतु इत्यादि साधुओं का विहार 'गच्छनिर्गत' कहलाता तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियाँ, तीर्थंकरों के विहार क्षेत्र, (ख) स्थाननियुक्त और स्थानानियुक्त - प्रवर्तक, स्थविर और जहाँ के श्रावक भद्र, विवेकी, सुज्ञ हो, जहाँ पंचमहाव्रत रुप मूलगुण गणावच्छेदक साधु 'स्थाननियुक्त' कहलाते हैं और सामान्य तथा पिण्ड विशुद्धि एवं 18000 शीलांगादि उत्तरगुण सुखपूर्वक पालन साधु 'स्थानानियुक्त' कहलाते हैं। हो सके, जहाँ श्रावक मुनि के गुण एवं मुनि धर्म के ज्ञाता हो, आहार पानी, उपधि आदि सुलभ हो, जहाँ ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि होती अगीतार्थ याअगीतार्थनिश्रित विहार में दोष और हानि : हो, जहाँ लघुकर्मी प्रव्रज्या भिमुख भव्यात्माएं रहती हों, एसे आर्य क्षेत्रों अज्ञानवश कोई मुनि स्वयं अगीतार्थ होने पर अलग विहार । में मुनि को विहार करना चाहिए। इससे प्रवचन की प्रभावना होती है का साहस न करे या अगीतार्थ की निश्रा में जाकर आत्म कल्याण और और गच्छ की वृद्धि होती हैं।' संयम लाभ एवं कर्मनिर्जरा से वंचित न रहे- इसलिए इस ओर खतरे का संकेत रेड-सिग्नल) दर्शाते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 1. अ.रा.पृ. 6/1275 अगीतार्थ और अगीतार्थ निश्रित विहार के दोष एवं हानि बताते हुए 2. अ.रा.पृ. 6/1275, 6/1278 कहा है कि इससे आत्म विराधना और संयम विराधना होती है, 3. अ.रा.पृ. 6/1277, 1279 एषणादि दोष विषम होने से ग्लान, वृद्ध, तपस्वी इत्यादि साधु 4. अ.रा.पृ. 6/1279 परेशान होने से खेद, अभाव उत्पन्न होते हैं, अस्वस्थता के कारण 5. अ.रा.पृ. 6/1276-77 उद्विग्नता बढ़ती है और आर्तध्यान होता है, विहार में योग्य मार्ग, 6. अ.रा.पृ. 6/1278 क्षेत्र, कालादि का ज्ञान नहीं होने से कुंथ्वादि जीव विराधना, सचित्त 7. अ.रा.पृ. 6/1317 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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