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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [113] आग्रह रहता हैं इतना ही नहिं अपितु अनेकान्त कथन में 'भी' के सदाग्रह की प्रधानता रहती हैं। एकान्त को मिथ्यात्व कहा गया है और जिनाज्ञा को अनेकान्त; एकान्त कथन मिथ्या है जबकि सापेक्षकथन (अनेकान्त वचन) सत्य हैं।10 समस्त विवादों-कलहों का हल निकालने के लिए, चाहे वह व्यावहारिक हो या आध्यात्मिक, धार्मिक हो या सामाजिक, सर्वत्र अनेकान्त की गति है और उसी का प्रभाव है। इस तथ्य को दृष्टिपथ में रखते हुए आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने भी अनेकान्त को नमन किया हैं। वे लिखते हैं - जेण विणा लोगस्सवि, ववहारो सव्वहा ण णिव्वडई । तस्स भुवणैकगुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स ॥" जिसके बिना लोक का भी व्यवहार सर्वथा चल ही नहीं सकता, ऐसे संसार के एकमात्र गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार हो। इसी तरह 'अनेकान्त' को दिगम्बराचार्य अमृतचन्द्र ने भी नमस्कार किया है परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्ध-सिन्धुरविधानम् सकलनयविलसितानां विरोध-मन्थनं नमाम्यनेकान्तम् ॥2 अनेकान्त दृष्टि के माध्यम से बौद्धिक प्रगति, सहिष्णु जीवन, विश्वबन्धुत्व आदि भी संभव हो सकते हैं। स्याद्वादी सहिष्णु होता है। इसके आगे आचार्य हेमचन्द्रसूरि द्वारा प्रणीत अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका और उस पर आचार्य मल्लिषेणसूरिकृत स्याद्वादमंजरी टीका के आश्रय से सर्वथा एकान्तवाद का खंडन और कथञ्चिद् एकान्त और अनेकान्त का मंडन प्रस्तुत किया गया हैं। इसी प्रकरण में क्रमप्राप्त बौद्धादि दर्शनों का भी खंडन किया गया हैं। अण्णाणियवाई (ण) अज्ञानिकवादिन् (पुं.) 1/493 ___ 'अज्ञान ही श्रेय (कल्याणकारी) हैं।' -इस प्रकार प्रतिज्ञा करके वाद करने वालों को 'अज्ञानवादी' कहते हैं। अत्थणय - अर्थनय (पुं.) 1/509 जिस नय में अर्थ की प्रधानता पूर्वक शब्दों का निरुपण हो उसे 'अर्थनय' कहते हैं। इस दृष्टि से शब्दनय ही अर्थनय है। वह संग्रहनय, व्यवहार नय और ऋजुसूत्र नय के द्वारा कहे गये वचनों के अर्थ को आश्रित (मुख्य) करके वाक्य को ग्रहण करता हैं। अत्थवाय - अर्थवाद (पुं.) 1/511 शब्द के अर्थ को प्रधान करके (1) स्तुति या (2) निन्दा - इन दोनों प्रकार से किये गये वाद को 'अर्थवाद' कहते हैं। अत्थावत्ति - अर्थापत्ति (स्त्री) 1/512 '(शब्द के) अर्थ के पक्ष में अनुक्त अर्थ की सिद्धि' अर्थापति कहलाती हैं। अथवा प्रत्यक्षादि छ: प्रमाणों के द्वारा प्रसिद्ध अर्थ जिसके बिना उत्पन्न नहीं होता उस अर्थ की प्रकृष्ट कल्पना को 'अर्थापत्ति' कहते हैं, जैसे -'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्कते' -देवदत्त मोय है (और) दिन को नहीं खाता, अर्थात् 'रात को खाता हैं।' यह अर्थापत्ति है। दार्शनिक अर्थापत्ति को अनुमान प्रमाण के अन्तर्गत मानते हैं। अत्थावत्तिदोस - अर्थापत्तिदोष (पुं) 1/513 जहाँ अर्थापत्ति के द्वारा अनिष्ट का आलाप किया जाता हैं वहाँ 'अर्थापत्तिदोष' उत्पन्न होता हैं। जैसे 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः ।' - इस वाक्य से यदि ऐसी अर्थापत्ति की जाय कि, 'अब्राह्मणो हन्तव्यः' -तो यह 'अर्थापत्तिदोष' हैं। अस्थिकाय- अस्तिकाय (पुं.) 1/513 अभूवन् - भवन्ति - भविष्यन्ति - अर्थात् भूत - वर्तमान और भविष्य रुप त्रैकालिक भावों को 'अस्ति' कहते हैं। उनके प्रदेशों के समूह/काय को 'अस्तिकाय' कहते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीवादि छ: द्रव्यों में जीवास्तिकाय जीव अस्तिकाय है और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय - ये चार अजीव आस्तिकाय हैं। इसमें धर्म-अधर्म-आकाश और जीव ये चार अरुपी 'अस्तिकाय' हैं। यहाँ पर उनके प्रदेशों के अल्प-बहुत्व, तुल्यत्व, विशेषाधिकत्व, बताया गया हैं और इन अस्तिकायों के अस्तिकायत्व की प्रमाण सहित विस्तृत दार्शनिक चर्चा की गई हैं। अत्थिक्क - आस्तिक्य (न.) 1/517 तत्त्वान्तर का श्रवण होने पर जिनोक्त तत्त्वों एवं अतीन्द्रिय जीव-परलोकादि भावों (पदार्थो) पर श्रद्धा 'आस्तिक्य' कहलाता हैं। अस्तिकाय पदार्थ उनकी श्रद्धा का विषय हैं। अस्थित्त - अस्तित्व (न.) 1/517 जो अर्थक्रियाकारित्व है वह परमार्थ से सत् है। -इस आगमवचनानुसार जो सत् रूप होता है, जिसकी सद्भूतता से व्यवहार उत्पन्न 10. अ.रा.पृ. 2/135 11. सम्पति तर्क - 3/70 12. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय - 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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