SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [112]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जिसके द्वारा निश्चय किया जाता है वह 'अन्त' हैं और 'अन्त' शब्द का अर्थ है-धर्म, जो एक न हो वह अनेक है; अनेकधर्मयुक्त पदार्थ ही अनेकान्त हैं। 'अनेकान्त' युक्त वाद अनेकान्तवाद हैं। 'अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वम् - यह जैनदर्शन का सिद्धान्त हैं। पदार्थ अनन्तधर्मात्मक होने से एक पदार्थ को अनेक दृष्टिकोण से देख सकते हैं। सभी धर्म परस्पर विरोधी नहीं है। परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले विपरीत धर्म भी एक ही पदार्थ में विभिन्न अपेक्षाओं से निहित होते हैं। जैसे कि एक मनुष्य में उपाधिभेद से अनेक धर्म हैं, अनेकों का संबंध है, उन सम्बन्धों से पुकारा जानेवाला वह किसी का पिता है किसी का पुत्र, किसी का मामा है किसी का भांजा, इत्यादि। उसमें अनेकधर्म (संबंध) होने से वह अनेक संज्ञाओ से सम्बोधित किया जाता है। देखने पर एक ही व्यक्ति में पुत्रत्व-पितृत्व आदि परस्पर विरोधाभासी धर्म हैं, किन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुतः एक में सभी धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से सन्निहित हैं। इस तरह विभिन्न अपेक्षा से एक ही वस्तु में विभिन्न धर्म रहते हैं। मुख्य और गौण अपेक्षा ही इसका आधार हैं। पदार्थ के नित्यअनित्य, सत्-असत् इत्यादि धर्म अपेक्षा से ही कहे जा सकते हैं। बिना अपेक्षा के पदार्थ का सम्यक् स्वरुप नहीं समझा जा सकता है। प्रस्तुत कोश में "अर्पितानर्पितसिद्धेः।"4 इस तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र का विश्लेषण इस प्रकार किया हैं वक्ता जब एक धर्म का प्रतिपादन करता है तो दूसरा धर्म गौण कर देता है, और जब दूसरे धर्म को कहता है तो अन्य धर्म को गौण कर देता हैं। यही पदार्थ के कथन का क्रम हैं। एक वस्तु में अपेक्षापूर्वक परस्पर विरोधी पृथक्-पृथक् धर्मो को स्वीकार करना ही सापेक्षवाद है। सत्य सदा बह्वायामी होता हैं। सत्य कभी भी एकान्तिक रुप से सम्पूर्ण नहीं होता; सत्य सदा सापेक्ष होता हैं। इस प्रकार विश्व के प्रत्येक पदार्थ में सापेक्ष रीति से अनन्त धर्म विद्यमान हैं। प्रस्तुत कोश में वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता को बड़े ही रोचक ढंग से उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुत किया गया हैं घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिः स्वयम् । शोकप्रमोद-माध्यस्थं, जनो याति सहेतुकम् । अर्थात् स्वर्णघट, स्वर्णमुकुट और स्वर्ण खरीदने के इच्छुक तीन व्यक्ति स्वर्णकार के पास जाते हैं। स्वर्णकार कलश को गलाकर स्वर्णमुकुट बना रहा था। उसे देखकर स्वर्ण कलशार्थी शोकातुर हुआ, तो मुकुट का इच्छुक प्रसन्न । किन्तु जो स्वर्ण चाहता था, उसे न तो हर्ष हुआ न तो विषाद, वह मध्यस्थ रहा। इसका कारण क्रमशः घट का नाश, मुकुट की उत्पत्ति और स्वर्ण की नित्यता थी। इसी संदर्भ में एक और अन्य उदाहरण दिया गया हैं पयोव्रती न दध्यति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवती नोभे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् । दूधमात्र के व्रतवाला दहीं नहीं खाता और दही के व्रतवाला दूध नहीं पीता, गोरस के व्रतवाला दूध-दहीं दोनो नहीं लेता। इसलिए पदार्थ में तीनों गुण विद्यमान हैं - उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य। उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि गोरस में दहीं के भाव की उत्पत्ति है, दूध के भाव का व्यय है और गोरसत्त्व की स्थिरता हैं, अतः इस तत्त्व के रहस्य को समझनेवाला कोई भी मनीषी स्याद्वाद का विरोधी नहीं हो सकता हैं। उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयिनाथ ! द्रष्टयः । न च तासु भवान् प्रह्वाष्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्वोदधिः ।। अर्थात् जैनदर्शनरुप समुद्र में अनेक सरिताएँ विभिन्न दर्शनों के रुप में समाविष्ट है परंतु उन-उन सरिताओं में समुद्र नहीं होता। वैसे अन्य दर्शनों में जैनदर्शन नहीं है, परन्तु अनेकांत दृष्टि से वे सभी अन्य दर्शन जैनदर्शन का एक अंश हैं। अपनी समन्वय भावना का परिचय देते हुए आचार्यश्रीने राजेन्द्र कोश में कहा है - विभिन्न मिथ्या दर्शनों का समूह, अमृत तुल्य, क्लेशनाशक और मुमुक्षु आत्माओं के लिए सहज-सुबोध-परमात्म-जिनप्रवचन का मंगल हो। क्योंकि अनेकान्त दृष्टि से युक्त होने पर मिथ्या दर्शनों का समूह भी सम्यग्दर्शन बन जाता हैं।' एकान्त और अनेकान्त में मौलिक भेद यह है कि एकान्त कथन में 'ही' का आग्रह करता हैं और अनेकान्त कथन में 'भी' का 2. तत्त्वं परमार्थभूतं वस्तु, जीवाऽऽजीवलक्षणं, अनन्तधर्मात्मकमेव,..... -अ.रा.पृ.1/425 3. अ.रा.भा. 1/430 4. अ.रा.भा. 7/315, 316; तत्त्वार्थ सूत्र-5/31 अ.रा.पृ. 1/425 वही 7. अ.रा.पृ. 4/1885 एवं 1890 भई मिच्छा दंसण - समूह महियस्स अमयसारस्स । जिण वयणस्य भगवओ, संविग्ग सुहाहि समस्स || -अ.रा.पृ. 4/1503 9. अ.रा.पृ. 7/707 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy