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[114]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
होता है (चलता है) वह 'अस्तित्व गुण' है। वह सत्पदार्थों में धर्म-धर्मी में अभेदभाव से हैं। यहाँ अस्तित्व-नास्तित्व के सद्-असत् परिणामों की भी आचार्यश्री ने चर्चा की हैं। अस्थिवाय - अस्तिवाद (पुं.) 1/519
पदार्थो की सत्ता स्वीकार करना अस्तिवाद है। यदि लोक को वस्तुरुप से स्वीकार न किया जाये तब तो अनाचार ही है। अस्तिवाद में 'मोक्ष है' 'कर्म है' आदि अस्तिरुप सिद्धांतों को स्वीकार किया जाता हैं।
अभिधानराजेन्द्र में 'अस्तिवाद' शब्द के अन्तर्गत संसारिक जीवों के आस्रव-बन्ध का अस्त्यात्मकत्व सिद्ध करते हुए मुक्त जीवों में इनका अभाव भी प्रतिपादित किया गया है। इसी प्रकार संवर और निर्जरा तत्त्व का भी प्रतिपादन सुन्दर रीति से किया गया हैं। पूरे प्रकरण में अनेकान्तवाद के आश्रय से सातों तत्त्वों की अस्ति-नास्तिरूपता प्रदर्शित की गयी हैं। अपुणबन्धय - अपुनर्बन्धक (पुं.) 1/606
जो जीव एक बार मिथ्यात्व की ग्रंथि का भेदन करके सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद पुनः 70 कोडाकोडी सागरोपम की मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं करता अर्थात् पुनः एसे संकिष्टतम भावों से पाप कर्म नहीं करता/बाँधता उसे अपुनर्बंधक कहते हैं।
अपुनर्बंधक आत्मा पाप कार्यों को तीव्र भाव से नहीं करता, भोगोपभोग और विषय भोगों में अधिक आसक्तिपूर्वक रमण नहीं करता, देशकालानुसार देव-अतिथि-माता-पिता प्रमुख की सेवा करता है, मार्गानुसारी के गुणों से युक्त होता है, क्षुद्रता, लोभ, अतिदैन्यता, मात्सर्यादि भवाभिनन्दी दोषों को उनके प्रतिपक्षी औदार्यादि गुणों से नष्ट करता है, गुणों की वृद्धि करता है, स्वयंकृत अकृत्यों की आलोचनादि के द्वारा शुद्धि करता है, तीव्र राग-द्वेष से दूर रहता है, तात्त्विकी प्रकृति से युक्त होता है और शान्त, दान्त तथा शुद्धानुष्ठान एवं शुभभाव युक्त होता हैं। अपोरिसीय - अपौस्य (त्रि.) 1/612
पुरुष परिमाण से अधिक (जलादि) को और मीमांसको के मत में पुरुष के द्वारा अकृत (नहीं बनाये गये वेद) को 'अपौरुषेय' कहते हैं। अपोह - अपोह (पुं.) 1/612
राजेन्द्र कोश में अपाय नामक मतिज्ञान का भेद, उक्ति और युक्ति के विरुद्ध अर्थ से हिंसादि के प्रति अपाय व्यावर्तन का विशेषज्ञान, छठवाँ बुद्धि गुण, प्रतिलेखना का एक प्रकार (जिससे वस्त्र-पात्रादि में जीव के रह जाने की संभावना नहीं होती), बौद्धमान्य वाद (सिद्धांत) विशेष (अपोहवादी बुद्धि के द्वारा बाह्य रुप से गृहीत आकार को शब्दार्थ कहते हैं - सम्मतितर्क, 2 काण्ड, सद्दत्थ - अ.रा.भा.7) को 'अपोह' कहा गया हैं। अप्पवाइ (ण)- आत्मवादिन् (पुं. 1/616)
'पुरुष ही सब कुछ हैं' -एसी प्रतिज्ञावाले वादी को 'आत्मवादी' कहते हैं। अप्पा - आत्मन् (पुं.) 1/616
अतति सातत्येन गच्छति इति आत्मा; ज्ञान, दर्शन, सुख आदि अनित्य पर्यायोंकी सिद्धि 'आत्मा' शब्द की इस निरुक्ति से संभव है। अप्पबहुय (ग)- अल्पबहुत्व (नं.) 1/617
किस द्वार के / भेद के जीव किससे अल्प या अधिक हैं, उसका विचार करना 'अल्प-बहुत्व' कहलाता हैं। यहाँ पर दिग्, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयम, उपयोग, आहार, भासक, परीताः (प्रत्येक शरीरों के शुक्लपाक्षिक जीव) पर्याप्ति, सूक्ष्म, संज्ञी, भव (भवसिद्धि), अस्तिकाय, चरम द्वार, जीव, क्षेत्र, बन्ध, पुद्गल, महादण्डक, इन 27 द्वारों से जीवों के अल्पबहुत्व का विस्तृत विचार किया गया हैं। अप्पियणय - अर्पितनय (पुं.) 1/673
'विशेष ही (सब कुछ) है, सामान्य नहीं' -एसी मान्यतावाले 'नय' को 'अर्पितनय' कहते हैं। अफलवादि (ण)- अफलवादिन् (पुं.) 1/673
'किसी भी क्रिया का (कुछ भी) फल नहीं होता हैं' -एसी मान्यतावालों को 'अफलवादी' या 'अक्रियावादी' कहते हैं। यहाँ पर आचार्यश्रीने 'सूत्रकृतांग' के अनुसार अन्यतीर्थिकों के अफलवादित्व का विस्तृत वर्णन किया हैं। अब्भुवगमसिद्धांत - अभ्युपगमसिद्धांत (पुं.) 1/680
जो दव्य है वह नित्य हैं या अनित्य - इस प्रकार के विचार को, स्वैच्छिक वादकथा को, अपरीक्षित अर्थ जैसे 'शीतो वह्निः, खरस्य शृङ्गम्' - इत्यादि की विशेष परीक्षा को 'अभ्युपगम सिद्धांत' कहते हैं। अबज्झसिद्धांत - अबाध्यसिद्धांत (पुं.) 1/700
कुतीर्थिकों के द्वारा निष्पादित कुहेतु के समूहों के द्वारा खंडित होने में अशक्य स्याद्वादरुप सिद्धांत को, तथा एसेस्याद्वाद सिद्धांत के प्रस्मक वचनातिशय संपन्न तीर्थंकरों को (बहुव्रीहि समास से) अबाध्यसिद्धांत कहते हैं। अभाव - अभाव (पुं.) 1/709
'अभाव' शब्द जैनागमों में अशुभभाव, अन्य की अपेक्षा से पदार्थ का अभाव (अविद्यमानता), निषेध, विनाश और असत्ता इन अर्थों में प्रयुक्त हैं। यहाँ पर प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव, तथा विद्यमान अभाव और अविद्यमान अभाव इस प्रकार अभाव के भेदों की भी व्याख्या की गई हैं।
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