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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [115] अलोग (य) - अलोक (पुं.) 1/785 लोक से विपरीत, धर्मास्तिकायादि द्रव्यों (तथा द्रव्यों की वृत्ति) से रहित मात्र अनन्ताकाशास्तिकायवाले क्षेत्र को 'अलोक' कहते अवत्तव्व - अवक्तव्य (त्रि.) 1/794 आनुपूर्वी (क्रम) या अनानुपूर्वी (अक्रम) से अकथ्य वक्तव्य को 'अवक्तव्य' (अनिर्वचनीय) कहते हैं। अवयव - अवयव (पुं.) 1/796 अवयवी या अनुमिति वाक्य के एक भाग को 'अवयव' कहते हैं। जैसे - पाद (पैर) शरीररूपी अवयवी का एक अवयव है और 'प्रतिज्ञा' आदि अनुमिति वाक्य का अवयव है। अवाय - अपाय (पुं.) 1/802 जैनागमों में अपाय शब्द का प्रयोग अनर्थ, हेय द्रव्यों का ग्रहण, उदाहरण का एक भेद, विनाश, विश्लेष, अनिष्टप्राप्ति आदि अनेक किये हैं। प्रसंगतः यहाँ द्रव्यादि चारों प्रकार के अपायों की उदाहरण सहित चर्चा की गई हैं। अविज्जा - अविद्या (स्त्री.) 1/806 जैनदर्शन में 'अविद्या' का अर्थ अग्राह्य, अवमनन और अतत्त्वग्रहण किया गया है। वेदान्त में इसे 'माया' (अनिर्वचनीय) और योगशास्त्र में क्लेश कहा गया है और काम, स्वप्न, भय और उन्माद को अविद्या का कार्य (उपप्लव) कहा गया हैं। असमवाइकारण - असमवायिकारण (नपुं.) 1/841 जो समवेत न हो अर्थात् उपादान कारण के समानान्तर कारणता को प्राप्त न हो;समवायिकारण रुप द्रव्यान्तर से दूरवर्ती होते हुए कारणता को प्राप्त होनेवाले को असमवायिकारण कहते हैं। समवायिकारण में रहनेवाले कारण को असमवायिकारण कहते हैं। अहेउवाद - अहेतुवाद - 1/891 जो वस्तु के स्वरुप का प्रतिपादक होने पर भी उससे विपरीत होता है उसे 'अहेतुवाद' कहते हैं। यह धर्मवाद का भेद हैं। आइधम्मिय - आदिधार्मिका पुं.) 2/6 अपुनर्बधक आत्मा को 'आदिधार्मिक' कहते हैं। प्रथम प्रारंभ किये गये स्थूल धर्माचार से युक्त आदिधार्मिक आत्मा मार्गानुसारी के 35 गुणों से युक्त होता है (मार्गानुसारी के 35 गुणों का वर्णन चतुर्थ परिच्छेद में किया जायेगा)। आउलवाय - आकुलवाद (पुं.) 2/50 __ सत् और असत् (पदार्थ) के (विषय में) परस्पर संकीर्ण वाद को 'आकुलवाद' कहते हैं। आगम - आगम (पुं.) 2/61 आगमन, प्राप्ति, लाघव, अवबोध, आय, लाभ, उत्पत्ति, व्याकरणोक्त आगमविधि, साम आदि उपाय, जिसके द्वारा स्वत्व की प्राप्ति हो उसे 'आगम' कहते हैं। आप्तवचन से प्रकट अर्थसंवेदन को आगम कहते है। यहाँ उपचार से आप्तवचन को भी आगम कहा है। व्यवहार सूत्र में आठवें पूर्व तक के ज्ञान को श्रुत और नौवें पूर्व से आगे के 14 पूर्व तक के ज्ञान को आगम' कहा हैं क्योंकि, उससे अतीन्द्रिय पदार्थो का ज्ञान होता है। स्थानांग सूत्र में 'आगम' को प्रमाण का भेद माना गया है। स्थानांग के अनुसार जिससे अर्थ ज्ञान की प्राप्ति हो उसे आगम कहा हैं। यहाँ पर राजेन्द्र कोश में 'आगम' शब्द पर आगम के भेद, स्वतः प्रामाण्य, पौरुषेयत्व, आप्तप्रणीत आगम की ही प्रमाण रूप में स्वीकृति, वेदागम का अप्रमाण्य, मूलागम की प्रमाणता-इतरागम की अप्रमाणता, आगम-विषय, आगमप्रमाण का अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव, संवादित्व, अर्थ का स्वरूप वाच्य-वाचक भाव, धर्म मार्ग और मोक्षमार्ग में आगम प्रामाण्य, शब्द संबंधी विस्तृत विचार एवं जिनागम की सत्यता, पूजासत्कार आदि विषय वर्णित हैं। आगमववहार - आगमव्यवहार (पु.) 2/92 जिसके द्वारा मर्यादा, अभिविधि या अर्थ का बोध हो, उसे 'आगम' कहते हैं। केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी या नौपूर्वी महात्मा के व्यवहार को 'आगम व्यवहार' कहते हैं। यहाँ पर आगम व्यवहार के प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद का अनेक प्रभेदों सहित विस्तृत वर्णन किया गया हैं। आगासाइवाइ - आकाशादिवादिन् (पुं.) 2/112 ___अमूर्त पदार्थों के भी साधनसमर्थ वादियों को 'आकाशातिवादी' कहते हैं। आजीवियसमय - आजीविकसमय (पु.) 2/117 गोशालक द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत विशेष को यहाँ 'आजीविकसमय' कहा गया है। गोशालक का मत है, जिनकी आयु समाप्त नहीं हुई है ऐसे जीवों को खाया जा सकता है; सभी जो प्राणी असंयत हैं उन्हें डण्डा इत्यादि से मारकर, तलवार आदि से काटकर, शूल आदि से भेद कर पक्ष्म केश आदि अपद्रव्य को हटाकर आहार के रुपमें ग्रहण किया जा सकता हैं। अत्तछठ्ठ - आत्मषष्ठ 1/502; आत (य) छठ्वाइ(न्)- आत्मषष्ठवादिन् (पुं.)2/176 इस संसार में पृथ्वी आदि पांच महाभूत हैं और छट्ठा आत्मा है, लोक में आत्मा शाश्वत है, न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है,; सर्वभाव नियतिभाव में अन्तर्भावित है (नियति के आधीन है) - एसा प्ररुपण करनेवालों को 'आत्मषष्ठवादी' कहते हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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