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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [193]] है; वह निश्चित ही मोक्षगामी होता है। क्योंकि जिस जीव के लिए पर्याप्त नारकों में, पर्याप्त और अपर्याप्त-दोनों प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यंचो मिथ्यात्व की आदि हुई; उस मिथ्यात्व का अंत अवश्यंभावी है। को, देवता में भवनपति से उपरिम |ब्रेयक तक के पर्याप्त-अपर्याप्त तीसरे भेद की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान की जघन्य । देव-देवियों में एवं पर्याप्त मनुष्य स्त्री-पुरुष दोनों में होना संभव होता और उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और देशोनअर्धपुद्गल परावर्तनकाल 3. मिश्र गुणस्थान: अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार इसका पूरा नाम सम्यग्2. सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान : मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है; किन्तु संक्षेप में समझने के लिए इसे मिश्र यह दूसरे गुणस्थान का नाम है। प्राकृत भाषा में 'सासायण' गुणस्थान कहते हैं। दर्शन मोहनीय के तीन पुंजों सम्यक्त्व (शुद्ध), शब्द शुद्ध है। इसके संस्कृत में दो रुप मिलते हैं। सास्वादन और मिथ्यात्व (अशुद्ध) और सम्यग्-मिथ्यात्व (अर्धशुद्ध) में से जब अर्धशुद्ध सासादन। अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जो जीव औपशमिक पुंज का उदय होता है, तब जैसे शक्कर से मिश्रित दही का स्वाद सम्यक्त्व से तो च्युत हो गया है; परन्तु जिसने अभी मिथ्यात्व को कुछ खट्टा और कुछ मीठा अर्थात् मिश्र होता है; इसी प्रकार जीव प्राप्त नहीं किया है; एसे मिथ्यात्व के अभिमुख जीव के सम्यक्त्व की दृष्टि भी कुछ सम्यक् (शुद्ध) और कुछ मिथ्या (अशुद्ध) अर्थात् का जो आंशिक आस्वादन शेष रहता है। इस कारण प्रस्तुत गुणस्थान मिश्र हो जाती है। इसी से वह जीव सम्यक् मिथ्यादृष्टि को प्राप्त को सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत होता है और उसका स्वरुप-विशेष सम्यग्-मिथ्यादृष्टिमिश्र गुणस्थान होनेवाला जीव सम्यक्त्व की आसादना करता है; अत: इसे सासादन कहलाता है। इसमें एक ही जीव को एक ही काल में सम्यक्त्व और कहा जाता है। इस गुणस्थानवी जीव को सम्यक्त्व का स्वाद मिथ्यात्व रुप मिश्र परिणाम होते हैं । इस अवस्था में जीव सर्वज्ञप्रणीत चखने को मिलताहै; किन्तु पूरा रस नही मिलता यह प्रतिपाती सम्यक्त्व तत्त्वों पर न तो एकान्त रुचि करता है और न ही एकान्त अरुचि । की अवस्था है। सम्यक्त्व से पतन कराने में कारण है- अनन्तानुबंधी जैसे नारिकेल द्वीप में उत्पन्न मनुष्य को अन्न के प्रति प्रीति या अप्रीति कषाय का उदय । अर्थात् अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क में से किसी नहीं होती है वैसे मिश्र गुणस्थानवर्ती आत्मा भी मध्यस्थ रहता है । भी एक कषाय का उदय होने पर जीव सम्यक्त्व से पतित होगा दोलायमान स्थिति रहने से मिश्र गुणस्थान में न तो जीव और इस पतनोन्मुख स्थिति का दर्शक सासादन गुणस्थान है। इस स्थिति का काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट पर - भव संबंधी आयु का ही बंध कर सकता है और न ही उसका से छह आवलिका है। उक्त कथन का सारांश यह है कि उपशम मरण होता है। क्योंकि कोई भी जीव मरण को प्राप्त होता है तब सम्यक्त्व के काल में से जब जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से सम्यक्त्व या मिथ्यात्वरुप दोनों परिणामों में से किसी एक को प्राप्त छह आवलिका प्रमाण काल शेष रहे, तब जो औपशमिक सम्यक्त्वी करके ही मर सकती है। जो कि मिश्र गुणस्थान में संभव नहीं जीव अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक के भी उदय से सम्यक्त्व की विराधना होने पर सम्यक्त्व को छोडकर 38. गुणस्थान क्रमारोह मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है; किन्तु जिसने अभी तक मिथ्यात्व 39. सहेव तत्त्वश्रद्धानं रसास्वादनेन वर्तते इति सास्वादनः । समवायांगवृत्ति, को प्राप्त नहीं किया है; तब तक के लिए सम्यग्दर्शन गुण की जो पत्र 26; गुणस्थान क्रमारोह 12; अव्यक्त अतत्त्व श्रद्धानरुप परिणति होती है; उसे सास्वादन सम्यग्दृष्टि अ.रा.पृ. 7/794-95; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग3, श्लोक 1141 से 1144 40. अ.रा.पृ. 7/796 गुणस्थान और एसे स्वरुप विशेषवाले जीव को सास्वादन सम्यग्दृष्टि 41. अ.रा.पृ. 7/794, 795; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1146, 1147, कहते हैं। 1152, 11533; इसे अभिधान राजेन्द्र कोश में एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गोम्मटसार, जीवकांड 8 गया है- जिस प्रकार पर्वत से गिरने पर और भूमि पर पहुँचने से 42. (क) काल के सब से सूक्ष्म अंश को समय कहते हैं और असंख्यात पहले मध्य का जो काल है; वह न तो पर्वत पर ठहरने का काल समय की एक आवलिका होती है। यह एक आवली प्रमाण काल है और न ही भूमि पर ठहरने का। वह तो अनुभव काल है। इसी भी एक मिनिट से बहुत छोटा होता है। (ख) अ.रा.पृ. 7795; (ग) द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1145 प्रकार अनन्तानुबंधी कषायों में से किसी एक का उदय होने से सम्यक्त्व 43. अ.रा.पृ. 777943; गोम्मटसार - जीव कांड गाथा 19 व टीका परिणामों के छूटने और मिथ्यात्व प्रकृति का उदय न होने से 44. अ.रा.पृ. 7/794; श्री समयसार नाटक/चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, दोहा 20 मिथ्यात्वपरिणामों के न होने पर मध्य के अनुभव काल में जो परिणाम का अर्थ, पृ. 372 होते हैं, उन्हें सास्वादन गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान के समय जिनागमसार, पृ. 175; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1152, 53 यद्यपि जीव का झुकाव मिथ्यात्व की ओर होता है; तथापि जिस 45. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ और पूर्णता, पृ. 31 46. अ.रा.प. 3/516, 517 प्रकार खीर खाकर उसका वमन करनेवाले को खीर का विलक्षण गोम्मटसार, जीवकांड 21; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1154, 1155 स्वाद अनुभव में आता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व से गिर कर मिथ्यात्व ____47. अ.रा.पृ. 3/517; गोम्मटसार, जीवकांड 22; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, की ओर उन्मुख हुए जीव को भी कुछ काल के लिए सम्यक्त्व श्लोक 1154, 1155 गुण का विलक्षण आस्वादन अनुभव में आता है। इसीलिए इस गुणस्थान (घ) सम्यग्मिथ्यारुचिमिश्रः, सम्यग् मिथ्यात्व पाकतः । को सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है । यह गुणस्थान सुदुष्करः पृथग्भावो, दधिमिश्रगुडोपमः।। -सं. पंचसंग्रह 1/22 नरक आदि चारों गतियों के जीवो में पाया जाता है। नरक गति में ___48. कर्मग्रंथ: गाथा 1/16 49. गुणस्थान क्रमारोह 16 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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