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________________ [194]... चतुर्थ परिच्छेद है । इसी तरह सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संयम (सकल संयम या एक देश संयम) को भी ग्रहण नहीं कर सकता। इस गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं हो सकता । मिथ्यात्व मोहनीय के अर्धविशुद्ध पुंज की स्थिति अन्तर्मुहूर्त पर्यंत होने से मिश्र गुणस्थानक का काल अन्तर्मुहूर्त पर्यंत है । तत्पश्चात् प्राणी अवश्य मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । । 4. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान: अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को समझने के लिए सर्वप्रथम विरत और अविरत को समझना आवश्यक है। राजेन्द्र कोश में अविरति की परिभाषा देते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने कहा है - " सावद्ययोगेभ्यो निवृत्त्यभावे ''52 अर्थात् जीवहिंसामय व्यापार / प्रवृत्ति के त्याग का अभाव, को अविरति और एसे सावद्यप्रवृत्ति करने वाले, नियमरहित जीव को अविरत कहते हैं । और हिंसादि सावद्य व्यापारों के त्याग तथा पापजनक प्रयत्नों से अलग हो जानेको विरति कहते हैं । चारित्र और व्रत ये विरति के अपर नाम हैं । अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि स्पर्शादि पांच इन्द्रिय और छठवाँ मन-इन छः की अपने अपने विषयों में नियमरहितता या स्वतंत्रता और पृथ्वी आदि छः काय जीवों की हिंसा - ये 12 प्रकार की अविरति होती हैं 4 | धान राजेन्द्र कोश के अनुसार उपशम या क्षायोपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्ववाला जीव सावद्ययोग की विरति को मोक्ष कारण जानता हुआ भी अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से किसी भी व्रतों का पालन या 12 में से एक भी प्रकार की विरति का पालन करने के लिये प्रयत्न या उद्यम न करता हो उसे 'अविरत सम्यग्दृष्टि' कहते हैं। उसका स्वरुप विशेष अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है 55 अविरति को बंध का हेतु एवं राग द्वेष को दुःख का कारण मानता हुआ, पापकर्म की निंदा करनेवाला, जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता होने पर भी व्रत ग्रहण करने में असमर्थ आत्मा इस गुणस्थान को प्राप्त करती है" । अभिधान राजेन्द्र कोश में जो जीव व्रतों को न जानता है, न इच्छुक है और न पालन करता है उसके आठ भंग बताये हैं। इसमें केवल चरम भंग में विरति है शेष अविरत के हैं। यहाँ (1) से विरति एवं ( 5 ) से अविरति सूचित की गयी हैआठ भंग S S S S S S | ' 5 Jain Education International S अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन संविज्ञ पाक्षिक आत्माएँ अविरतसम्यग्दृष्टि कहलाती हैं। क्योंकि वे व्रतों का यथाविधि ग्रहण एवं पालन नहीं करते लेकिन उन्हें यथार्थ अवश्य मानते हैं 59 | 1 S ' S S । सम्यग्दृष्टि जीव केवली द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में यदि विपरीत श्रद्धान कर लेता है तो गुरुजनों द्वारा उसे शास्त्र का अर्थ समझाये जाने पर असमीचीन श्रद्धा को छोडकर यथार्थ श्रद्धा धारण कर लेता 58। जिनको व्रतों का ज्ञान है और या तो स्वीकारते नहीं है, पालन नहीं करते हैं या बिना स्वीकारे पालन करते हैं या स्वीकार कर छोड देते हैं एसे वासुदेवादि, सम्यग्दृष्टि देव, अनुत्तरविमानवासी देव, और 5. देशविरति गुणस्थान : - अभिधान राजेन्द्र कोश में देशविरत गुणस्थान की व्याख्या करते हुए कहा है – “प्रत्याख्यानावरण (सकल-संयम का घातक) कषाय का उदय होने से जो जीव पापजनक क्रियाओं से सर्वथा निवृत्त तो नहीं हो सकते; किन्तु अप्रत्याख्यानावरण (एकदेशसंयम का घातक) कषाय का उदय न होने से देश (अंश) से पापजनक क्रियाओं से निवृत्त होते हैं; वे देशविरत श्रावक कहलाते हैं। उनकी इस आंशिक त्यागमयी अवस्था को देशविरत गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान का दूसरा नाम विरताविरत गुणस्थान भी है; क्योंकि इस गुणस्थानवर्ती जीव सर्वज्ञ वीतराग के कथन में श्रद्धा रखता हुआ त्रस जीवों की हिंसा से विरत होता ही है; किन्तु निष्प्रयोजन स्थावर जीवों की भी हिंसा नहीं करता है। अर्थात् त्रस जीवों के त्याग की अपेक्षा विरत और स्थावर जीवों की अपेक्षा से अविरत होने से विरताविरत कहलाता है"। संयतासंयत, देशसंयत इसके अपर नाम है। सम्यक्त्व सहित अहिंसादि पांच अणुव्रत, दिग्व्रतादि तीन गुणव्रत एवं सामायिकादि चार शिक्षाव्रत इस प्रकार श्रावक के कुल बारह व्रत है। इनका पालन करनेवाला देशविरत कहलाता है 2 | कई श्रावक इनमें से सम्यक्त्व सहित एक, दो, तीन, चार पांच या बारह व्रत अंगीकार कर तथा श्रावक की सम्यक्त्वादि 11 प्रतिमाओं का पालन करके आत्म कल्याण करते हैं। कई एसे भी श्रावक होते हैं जो पापकर्मों अनुमति के सिवाय अन्य किसी प्रकार से भाग नहीं लेते। 50. गोम्मटसार जीव कांड 23, 24 51. 52. 53. 54. 55. द्रव्यलोकप्रकाश सर्ग -3 श्लोक 1156 अ. रा. पृ. 1/808 (क) विरतिविरतम्, तत्पुनः सावद्ययोगे प्रत्याख्यानम् । अ.रा. पृ. 1/809 (ख) विरमणं विरति:, सम्यक्त्वपूर्विकायां सावद्यारम्भान्निवृत्तौ । अ.रा. पृ. 6/1228 अथवा प्रत्याख्यानेषु निवृत्तिपरिणामे, अ. रा.पू. 6/1229 (ग) हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् । - तत्वार्थ सूत्र - 7/9 (क) द्वादशप्रकाराऽविरतिः । मनः स्वान्तं, करणानीन्द्रियाणिपञ्च तेषां स्वस्वविषये प्रवर्तमानानां अनियमो नियन्त्रणं तता षण्णां पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरुपाणां जीवानां वधो हिंसेति । - अ.रा. पृ. 1/808 (ख) द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1158 से 60 (क) यः पूर्ववर्णितोपशमिकसम्यग्दृष्टिः क्षायोपशमिक क्षायिक सम्यग्दृष्टिर्वा परममुनिप्रणीतां सावद्ययोगविरतिं सिद्धिसौधाध्यारोहणनिः श्रेणीकल्पां जानन्नप्रत्याख्यानकषायोदयविघ्नित्वान्नभ्युपगच्छति, न च तत्पालनाय यतत इत्यसावविरतसम्यग्दृष्टिरुच्यते । अ.रा. पृ. 1/809 (ख) गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 26 का उत्तरार्ध व टीका अ. रा. पृ. 1/809 वही 56. 57. 58. गोम्मटसार, जीवकांड 27 59. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ और पूर्णता, पृ. 37 60. अ. रा.पू. 4/2632-33, गोम्मटसार जीवकांड-30; द्रव्यलोकप्रकाश 3/1161 गोम्मटसार जीवकांड 31 अ. रा. पृ. 7/785; योगशास्त्र 2/1; 61. 62. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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